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लौकिक मुनि] ६७७, जैन-लक्षणावमी
[वचनबलप्राण हाथी, घोड़ा, तंत्र, कौटिल्य और बात्स्यायन आदि भूमि जोतने, लुनने और बोने प्रादि के काल को ग्रन्थविषयक बोध को लौकिक भावश्रुत कहते हैं। लौकिक सामाचारकाल कहा जाता है। लौकिक मुनि-१.णिग्गंथो पव्वइदो वदि जदि वक्ता-१. सच्चमसच्चं सतमसंतं वददीदि बत्ता। एहिगेहि कम्मेहिं । सो लोगिगो त्ति भणिदो संजम- (धव. पु. १, पृ. ११६); सत्यमसत्यं ब्रवीतीति तव-संपजुदो चावि ।। (प्रव. सा. ३-६६) । २. वक्ता । (धव. पु. ६, पृ. २२०) । २. प्राज्ञः प्राप्तप्रतिज्ञातपरमन ग्रन्थ्यप्रव्रज्यत्वादुदूढसंयम-तपोभारोऽपि समस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोक स्थितिः, प्रास्ताशः मोहबहुलतया श्लथीकृतशुद्धचेतनव्यवहारो मुहुर्मनु- प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः व्यव्यवहारेण व्याघूर्णमानत्वादहिककर्मानिवृत्ती प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद्धर्मलौकिक इत्युच्यते । (प्रव. सा. अमृत. ३-६६)। कथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥ (प्रात्मा१ जो निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) स्वरूप से दीक्षित होकर नु. ५)। इस लोक सम्बन्धी क्रियाओं के प्राश्रय से प्रवृत्ति १ जो सत्य-असत्य तथा समीचीन व असमीचीन करता है उसे संयम और तप से संयुक्त होने पर भी भाषण करता है उसे सामान्य से वक्ता कहा जाता लौकिक श्रमण (ब्यवहारप्रधान) कहा गया है। है। २ जो बुद्धिमान, समस्त शास्त्रों के रहस्य का लौकिक मूढ-कोडिल्लमासुरक्खा भारह-रामाय- जानने वाला, लोकव्यवहार में दक्ष, प्राशा से णादि जे धम्मा। होज्जु व तेसु विसुत्ती लोइयमूढो रहित, प्रतिभाशाली, शान्त, प्रश्न का उत्तर पहिले हवदि एसो ।। (मूला. ५-६०)।
ही देख लेने वाला, प्रश्न को सहने वाला, दूसरे के कौटिल्य-लोकवञ्चनादि रूप धर्म, प्रासुरक्ष- चित्त को खींचने वाला, निन्दा से रहित तथा स्पष्ट छेदन-भेदनादि रूप से वंचनापूर्ण रक्षा का सूचक व मधुर भाषण करने वाला जो वक्ता होता है वही धर्म-एवं भारत व रामायण प्रादि जो कल्पित धर्म धर्मकथा का व्याख्याता हो सकता है। हैं उनके श्रवणादि में प्रवृत्त होने वाले को लौकिक वचननिविषा ऋद्धि-देखो पास्यविष और प्रामूढ कहा जाता है।
स्याविष । तित्तादिविविहमण्णं विसजुत्तं जीए वयणलौकिक वाद-लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन जी- मेत्तेण । पावेदि णिव्विसत्तं सा रिद्धी वयणणिविसा वादयः पदार्थाः स लोकः, लोक एव लौकिकः, स णामा ॥ अहवा बहुवाहीहिं परिभदा झत्ति होति लोकः कथ्यते अनेनेति लौकिकवादः सिद्धान्तः । णीरोगा। सोदं वयणं जीए सा रिद्धी वयणणि व्वि(धव. पु. १३, पृ. २८८) ।
सा णामा ।। (ति. प. १०७४-७५) । जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं वह लोक कह- जिस ऋद्धि के प्रभाव से ऋद्धिधारी के बोलने मात्र से लाता है, स्वार्थ में ठक् प्रत्यय होने से उसी को विषसंयक्त तीखा व कडुमा प्रादि अन्न निषिषता को लौकिक कहा जाता है। जिस श्रुत में उक्त प्रकार प्राप्त हो जाता है उसका नाम वचन निविषा ऋद्धि के लोक का कथन किया जाता है उसे लौकिकवान है। अथवा जिस ऋद्धि के प्रभाव से ऋद्धिधारी के कहते हैं । यह सिद्धान्त का एक पर्यायनाम है। वचन को सुनकर बहुत से रोगों से अभिभूत प्राणी लौकिक शब्नलिंगज श्रुतज्ञान-सामण्णपुरिस- नीरोग हो जाता है उसे वचन निविषा ऋद्धि जानना बयण विणिग्गयवयणकलावजणियणाणं लोइयस दृ। चाहिए। (जयध. १, पृ. २४१)।
वचनबलप्राण-१. स्वरनामकर्मोदयसहितदेहोसामान्य पुरुष के मुख से निकले हुए वचनसमूह के दये सति वचनव्यापारकारणशक्तिविशेषरूपो बचोद्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे लौकिक शब्द- बलप्राणः । (गो. जी. म. प्र. टी. १३१) । २. स्वरलिंगज श्रुतज्ञान कहते हैं।
नामकर्मोदयसहकारिभाषापर्या-त्यूत्तरकालविशिष्टोपलोकिक सामाचारकाल-लोगियसामाचारकालो योगप्रयोजनात्मको वलप्राणः । (गो. जी. जी. प्र. जहा कसणकालो, लुणणकालो ववणकालो इच्चेव- १२६)। मादि । (धव. पु. ११, पृ. ७६) ।
१ स्वरनामकर्म के साथ शरीर नामकर्म का उदय ल. १२३
कहा जाता
जाता है पनाम है
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