Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 501
________________ सूक्ष्मऋजुसूत्र ११६८, जैन-लक्षणावलो । सूक्ष्म क्रियानिवर्तक सुहुमो सव्वं पि सदं (द्रव्य. 'सई') जहा खणियं ॥ केवली सदृशाघातिकर्मस्थिति रशेषतः । संत्यज्य (ल. नयच. ३८, द्रव्यस्व. प्र. नयच. २१०)। वाङ्मनोयोगं काययोगं च बादरम् । सूक्ष्म तु तं २. सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयः यथा एकसमयावस्थायी समाश्रित्य मन्दस्पन्दोदयस्त्वरम् ।। ध्यान सूक्ष्मक्रियं पर्यायः । (कातिके. टी. २७४)। नष्टप्रतिपातं तृतीयकम् । ध्यायेद् योगी यथायोगं १ जो द्रव्य में एक समयवर्ती अध्रुव पर्याय-अर्थ- कृत्वा करणसन्ततिम् ।। (त. श्लो. ६, ४४, १० से पर्याय---को ग्रहण करता है उसे सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय १२) । ७ प्रवितर्कमवीचारं सूक्ष्मकायावलम्बनम् । कहते हैं। जैसे---समस्त सत क्षणिक है। सूक्ष्म क्रियं भवेद् ध्यानं सर्वभावगतं हि तत् ॥ (त. सूक्ष्मकाय--ण य जेसि पडिखलणं पुढवी-तोएहिं सा. ७-५१)। ८. सुद्धो खाइयभावो प्रवियप्पो अम्गि-वाएहिं । ते जाण सुहमकाया Xxx॥ णिच्चलो जिणिदस्स । अस्थि तया तं झाणं सुहम(कातिके. १२७)। किरिया अपडिवाई ॥ (भावसं दे.. ६६८) । जिन जीवों का पृथिवी, जल, अग्नि और वायु के ६. केवलणाणसहावो सुहुमे जोगम्मि संठियो काए । द्वारा प्रतिस्खलन (प्रतिघात) नहीं होता है उन्हें जं झायदि सजोगिजिणो तं तिदियं सुहमकिग्यिं सूक्ष्मकाय जानना चाहिए। च ।। (कातिके. ४८६)। १० सूक्ष्मक्रियामवितर्कसूक्ष्मक्रियानिवर्तक---१. सुहुमकिरियं सजोगी मवीचार श्रुतावष्टम्भरहितमर्थ व्यञ्जन-योसंक्राझायदि झाणं तदियसुक्कं तु । (मूला. ५-२०८)। न्तिवियुक्तं सूक्ष्मकायक्रियाव्यवस्थिनं तृतीयं शुक्लं २. अवितक्कमवीचार सहमकिरियबंधण तदिय- सयोगी ध्यायति ध्यानम् । (मला. वृ. ५-२०८)। सुक्क । सुहमम्मि कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं। ११. सूक्ष्मा कृष्टिगता क्रियेति तनुगो योगोऽत्र सूक्ष्म(भ. प्रा. १८८६)। ३. स यदाऽन्तर्मुहुर्तशेषायुष्क- क्रियं ध्यानं ह्यप्रतिपात्यनश्वरमिदं नामास्य तत्सास्तत्तल्यस्थितिवेद्य-नाम-गोत्रश्च भवति, तदा सर्व र्थकम् । तन्नात्युद्यतराषघातन समुघातक्रियाऽनन्तरं वाङ्मनसयोगं बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मका- योगिन्यर्हति जीविते स स्थिते ।। ययोगालम्बनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानमास्कन्दि- (प्राचा. सा. १०-५२) । १२. प्रात्मस्पन्दात्मतुमर्हतीति । यदा पूनरन्तमहर्तशेषायुष्कस्ततोऽधिक- योगानां क्रिया सूक्ष्माऽनिवत्तिका । यस्मिन् प्रजायते स्थितिशेषकर्मत्रयो भवति सयोगी तदाऽऽत्मोपयोगा- साक्षात्सूक्ष्मक्रियानिवर्तकम् ॥ (भावसं. वाम. तिशयस्य सामायिकसहायस्य विशिष्ट करणस्य महा- ७४६)। संवरस्य लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातन- २ विर्तक और वीचार से रहित होकर सूक्ष्म शक्तिस्वाभाव्याद्दण्ड - कपाट-प्रतर - लोकपूरणानि क्रिया से सम्बन्ध रखने वाला तीसरा शुक्लध्यान स्वात्मप्रदेशविसर्पणतश्चतुभिः समयः कृत्वा पुनरपि सूक्ष्म काययोग में अवस्थित सयोग केवलो के होता तावद्भिरेव समयः समुपहृतप्रदेशविसरणः समीकृत- है। ३ केवली को प्रायु जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष स्थितिशेषकर्मचतुष्टयः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा रह जाती है तब वेदनीय, नाम और गोत्र इन सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति। कर्मों को स्थिति यदि प्रायु के बराबर होती है तब (स. सि. ६-४४; त. वा. ६-४४)। ४. समस्तं वे समस्त वचनयोग और मनोयोग का पूर्णतया वाङ्मनोयोगं काययोगं च बादरम् । प्रहाप्यालम्ब्य निरोध करके और बादर काययोग को कृश करते सूक्ष्मं तु काययोगं स्वभावतः ।। तृतीयं शुक्लसामा- हुए जब सूक्ष्म काययोग का पालम्बन लेते हैं तब न्यात प्रथमं तु विशेषतः । सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति वे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नाम के तीसरे शक्लध्यान ध्यानमास्कन्तुमर्हति ॥ (ह. पु. ५६, ७०-७१)। पर प्रारूढ होने के योग्य होते हैं। किन्तु जब प्रायु ५. पुनरन्तर्मुहूर्तेन निरुन्धन् योगमास्रवम् । कृत्वा की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहती है और बाङ्मनसे सूक्ष्मे काययोगव्यपाश्रयात् ॥ सूक्ष्मीकृत्य वेदनीय आदि उक्त तीन कर्मों की स्थिति प्राय से पुन: काययोगं च तदुपाश्रयम् । ध्यायेत् सूक्ष्मक्रिया- अधिक शेष रहती है तो वे प्रात्मोपयोग के प्रतिध्यानं प्रतिपातपराङ्मुखम् ॥ (म. पु. २१-६४, शय से युक्त होकर विशिष्ट परिणाम के वश स्व६५)। ६. ततो निर्दग्धनिःशेषघातिकर्मेन्धनः प्रभुः। भावतः शीघ्र ही कर्म के परिपालन में समर्थ होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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