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स्त्यानगृद्धि]
२१८२, जन-लक्षणावली
[स्त्रोपरीषहसहन
यद.
ऽपि प्राप्तः क्षुल्लक: स्त्यानद्धिनिद्रास हितो द्विरदेन स्त्री-१. स्त्रीवेदोदयात् स्त्यायत्यस्यां गर्भ इति दिवा खलीकृतः, ततस्तस्मिन द्विरदे बद्धाभिनिवेशो स्त्री।। (स. सि. २-५२; त. वा. २, ५२, १; रजन्यां स्त्यानद्धर्युदये प्रवर्तमानः समुत्थाय तद्दन्त- मूला. वृ. १२-८७) । २. छादयदि सयं दोसेण जदो
स्वोपाश्रयद्वारि च प्रक्षिप्य पुनः प्रसुप्त- (धव, व गो. जी. 'दोसेण यदो') छादयदि परंप वानित्यादि । (प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. ४६७)। दोसेण । छादणसीला णियदं तम्हा सा वणिया ६. स्वप्ने यया वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगद्धि- इत्थी ।। (प्रा. पंचसं. १-१०५; धव. पु. १, पृ. दर्शनावरणकर्म विशेष:। स्त्याने स्वप्ने गद्धय ३४१ उद्.; गो. जी. २७४) । ३. दोषरात्मानं परं दयादात्मा रौद्रं बहुकर्म करोति । (भ. प्रा. मूला. च स्तृणाति छादयतीति स्त्री। Xxx अथवा २०६४)। १०. स्वप्ने यया वीर्य विशेषाविर्भाव: पुरुषं स्तृणाति प्राकाङ्क्षतीति स्त्री पुरुषकाङ्क्षत्यर्थः । सा स्त्यानगृद्धिः । स्त्याने स्वप्ने गृध्यते दीप्यते यदु- (धव. पु. १, पृ. ३४०); स्तृणाति प्राच्छादयति दयादात रौद्रं च बहु च कर्मकरणं सा स्त्यानगद्धिः। दोषरात्मानं परं चेति स्त्री। (धव. पु. ६, पृ. ४६; (गो. क. जी. प्र. ३३)। ११. यस्यां बलविशेष. मला. व, १२-१६२)। ४. गर्भः स्त्यायति यस्यां प्रादुर्भावः स्वप्ने भवति सा स्त्यानगद्धि रुच्यते । x या दोषश्छादयति स्वयम् । नराभिलाषिणी नित्यं या Xx स्त्याने स्वप्ने गृद्धयति दीप्यते यो निद्रा- सेह स्त्री निरुच्यते ॥ (पंचसं. अमित. १-१६६) । विशेषः सा स्त्यानगृद्धि रुच्यते xxx यदुदया- ५. स्त्यायति संघातीभवत्यस्यां गर्भ इति स्त्री। ज्जीवो बहुतरं दिवाकृत्यं रौद्रकर्म करोति सा स्त्यान- (न्यायकु. ४७, पृ. ६४८)। ६. यस्मात् कारणात् गृद्धिरुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ८-७)।
य: स्तृणाति स्वयं प्रात्मानं दोषः मिथ्यादर्शनाज्ञाना१ जिसके द्वारा सुप्त अवस्था में भी विशेष सामर्थ्य संयम-क्रोध-मान-माया-लोभादिभिः छादयति संवप्रगट होता है उसे स्त्यानगृद्धि कहते हैं। ४ सोने की णोति, नयतः मृदुभाषित स्निग्धविलोकनानुकूलवर्तएक विशेष अवस्था का नाम स्त्यान और गद्धि का नादिकुशलव्यापारैः परमपि पुरुषमपि स्ववश्यं कृत्वा अर्थ प्राकांक्षा है, इसमें प्रात्मा स्थिर चित्त वाला होता हिंसानृत-स्तेयाब्रह्म - परिग्रहादिपातकेन छादयति हमा अतिशय विकसित स्वर वाला नहीं होता। इसके तस्मात् छादनशीला द्रव्य-भावाभ्यां महिला सा स्त्रीलिए मांस, मोदक और दन्त प्रादि के उदाहरण का ति वणिता। (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २७४)। निर्देश किया गया। यहां 'स्त्याद्धि' यह पाठभेद १ स्त्रीवेद के उदय से जिसमें गर्भ संघात को प्राप्त भी प्रगट किया गया है। तदनुसार प्राणी उसके होता है वह स्त्री कहलाती है। २ जो दोष से स्वयं उदय में प्रगट हुई शक्ति से अर्धचक्री के समान को तथा पर (पुरुष) को भी प्राच्छादित करती है बलवान होता है। ५ स्त्यानगद्धि का तीन उदय उसे स्त्री कहा जाता है। होने पर प्राणी उठाये जाने पर भी फिर से सो स्त्रीकथा-तथा स्त्रीकथा स्त्रीणां नेपथ्याङ्गहारजाता है, सोता हुग्रा भी कार्य करता है व सन्तप्त हाव-भावादिवर्णनरूपा “कर्णाटी सुरतोपचारकुशला होता हा विलाप करता है। ८ जिस सुप्तावस्था लाटी विदग्ध (सा. ध 'विदग्धा') प्रिया" इत्यादिमें प्रात्मशक्ति रूप ऋद्धि पिण्डीभत होती है उसे रूपा वा । (योगशा. स्वो. ३-७६% सा. घ. स्वो. स्त्यानद्धि कहा जाता है। उसके सद्भाव में प्रथम टी. ४-२२)। संहनन वाले के अर्धचक्री के समान शक्ति उत्पन्न स्त्रियों के वेषभूषा, नत्य व हाव-भाव प्रादि का होती है। यहां प्रवचनोक्त एक उदाहरण देते हुए वर्णन करना अथवा कर्णाटक देश की स्त्री सुरतकहा गया है कि हाथी से पीड़ित एक क्षल्लक ने व्यवहार में कुशल होती है, लाट देश की स्त्री उसके प्रतीकार स्वरूप स्त्यानगद्धि के उदय में सोते चतुर व प्रिय होती है, इत्यादि प्रकार से चर्चा हुए उठकर व उस बलिष्ठ हाथी के दांत को उखाड़ करना; यह स्त्रीकथा कहलाती है। कर अपने उपाधय के द्वार पर रख दिया और स्त्रोप सहन-१. एकान्तेष्वाराम-भवनादिफिर से सो गया।
प्रदेशेषु नवयौवन-मद-विभ्रम-मदिरापानप्रमत्तासु प्रमस्त्या द्ध---देखो स्त्यानगद्धि ।
दासु बाधमानासु कूर्मवत्संहृतेन्द्रियहृदयविकारस्य
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