Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 517
________________ स्थण्डिलसम्भोगियति] ११८४, जैन-लक्षणावली । [स्थविरकल्प उदय से स्त्री के पुरुष को अभिलाषा होती है वह कारणमंतं तंतं तवच रणणिरूवया रम्मा ॥ तित्तियस्त्रीवेद कहलाता है। पयमेत्ता हु थलगयसणामचूलिया भणिया (अंगप. स्थण्डिलसम्भोगियति- १. यत्र भिक्षा कृता तत्र ३, ३-४, पृ. ३०३)। स्थंडिलान्वेषणं कुर्यात् कायशोधनार्थम्, संभोगयोग्यं १ जिसमें पृथिवी पर गमन के कारणभूत मंत्र-तंत्र यति संघाटकत्वेन गल्लीयात् स्वयं वा तस्य संघाटको और तपश्चरण के साथ वास्तुविद्या एवं पथिवी से भवेत् । एवं स्थंडिलान्वेषणं (णे) संभोगयोग्ययतिना सम्बद्ध अन्य भी शुभ-अशुभ के कारण को प्ररूपणा सह वृत्तौ च यो यत्नपरः स्थंडिलसम्भोगो यतिरि- की जाती है उसे स्थलगता चूलिका कहा जाता है। त्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. ४०३)। २. थंडिल- उसका पदप्रमाण दो करोड़, नौ लाख, नवासी हजार संभो गिजदो यत्र भिक्षा कृता तत्र स्थण्डिलं प्रासुक- दो सौ (२०६८६२००) है। स्थानं कायशोधनार्थमन्वेषते । समाचारात्मक: स्थलचर-सीह-बय-वग्घादो थलचरा। (धव. संभोगः। योग्यं यति संघाटकत्वेन गृह्णीयात्, स्वयं पु. १, पु. ६०); वृक-व्याघ्रादयः स्थलचराः। (धव. वा तस्य संघाटको भवेत् । एवं स्थंडिलान्वेषणे पु. १३, पृ. ३६१) । संभोगयोग्ययतिना मह वृत्तौ च यो यत्नपरः स स्थंडि- सिंह, वृक (भेड़िया) और व्याघ्र प्रादि तिर्यंच जीवों लसंभोगियतिरित्युच्यते । (भ. प्रा. मला. ४०३)। को स्थल में गमन करने के कारण स्थलचर कहा १ जहाँ भिक्षा की है वहाँ शरीर शुद्धि के लिए जाता है । प्रासुक स्थान को खोजता है, संभोग योग्य- समान स्थविर---१. स्थविरो वृद्धः । (योगशा. स्वो. विब. समाचार वाले–यति को संघाटक (सहायक) के ४-६०) । २. धर्म विषीदतां प्रोत्साहकः स्थविरः । रूप से ग्रहण करना चाहिए, अथवा स्वयं उसका (व्यव. भा. मलय. व. ३४, पृ. १३); स्थविरो संघाटक हो जाना चाहिए। इस प्रकार प्रासुक जरसा वृद्धशरीरः । (व्यव. भा. मलय. बृ. ७४, पृ. स्थान के खोजने और संभोग योग्य यति के साथ ७४) । रहने में जो उद्यत रहता है उसे स्थण्डिलसंभोगि- १ स्थविर वृद्ध को कहा जाता है। २ धर्म में खेद. यति कहते हैं। खिन्न होने वालों को जो प्रोत्साहित किया करता है स्थलगता चूलिका – १. थलगया णाम तेत्तिएहि उसे स्थविर कहते हैं। चेव पदेहि (दोकोडि-णवलक्ख-एऊणणवुइसहस्स- स्थविरकल्प- १. एए चेव दुवालस मत्तग अइरेगवेसदपदेहि) २०६८९२०० भूमिगमणकारण-मंत- चोलपट्टो य । एसो च उद्दसविधो उबधी पुण थेरतंत-तवच्छरणाणि वत्थुविज्जं भूमिसंबंघमण्णं पि कप्पम्मि । (श्रोधनि. ६७१) । २. थविरकप्पो वि सुहासुहकारणं वण्णेदि । (धव. पु. १, पृ. ११३); कहियो प्रणयाराणं जिणेण सो एसो। पंचच्चेलस्थलगतायां द्विकोटि-नवशतसहस्रकान्नवतिसहस्रद्वि- च्चाप्रो अकिंचणत्तं च पडिलिहणं ॥ पंचमहव्वयशतपदायां २८६८६२०० योजनसहस्रादिगति. धरणं ठिदिभोयण एयभत्तकर पत्तो। भत्तिभरेण य हेतवो विद्या-मन्त्र-तन्त्रविशेषा निरूप्यन्ते । (धव. पु. दत्तं काले य अजायणे भिक्खं ।। दुविहतवे उज्जमणं &, पृ. २०९-१०) । २. स्थलगताप्येतावत्पद छविहावासएहि अणवरयं । खिदिसयणं सिरलोयो (२०६८६२००) परिमाणव भगमनकारण-तंत्रादि- जिणवरपडिरूवपडिगहण || संहणणस्स गुणेण य सूचिका, पृथिवीसंबन्धवास्तुविद्याप्रतिपादिका च। दुस्समकालस्स तवपहावेण । पुर-णयर-गामवासी (सं. श्रुतभ. टी. ६, पृ. १७४) । ३. स्थलगता मेरु- थविरे कप्पे ठिया जाया ।। उपयरण तं गहियं जेण कुलशैल-भूम्यादिषु प्रवेशन शीघ्रगमनादिकारणमंत्र- ण भंगो हवेइ चरियस्स। गहिय पुत्थयदाणं जोग्गं तंत्र तपश्चरणादीनि वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जस्स तं तेण ।। समदाएण विहारो धम्मस्स पहावणं जी. प्र. ३६१-६२)। ४. स्तोककालेन बहुयोजन- ससत्तीए । भवियाण धम्मसवणं सिस्साण य पालणं गमनादिहेतुभूतमंत्रतंत्रादिनिरूपिका पूर्वोक्तपदप्र- गहणं ।। (भावसं. १२४-२६) । माणा स्थलगता चूलिका । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। १ पात्र व पात्रबन्ध प्रादि बारह प्रकार की उपधि ५. मेरु-कुलसेल-भूमीपमुहेसु पवेस-सिग्धगमणादि। जो जिनकल्पिकों के होती है उसमें मात्रक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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