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स्यात् शब्द] १२०३, जन-लक्षणावली
[स्वक्षेत्रपरिवर्तन चक्रवर्ती और बलदेव के चढ़ने योग्य, सब प्रावधों से वचनं स्याद्वादः। (लघीय. अभय. वृ. ६२, पृ. परिपूर्ण एवं गंभीर पवनके समानवेगशाली जो विशेष ८३-८४)। जाति के रथ होते हैं उन्हें स्यन्दन कहा जाता है। १ जो सर्वथा एकान्त को छोड़कर किंवत्तचिद्विधिउनके पहियों की रचना इस प्रकार की होती है कि किचित् व कथंचित् प्रादि के श्राश्रय से वस्तुतत्व प्रक्ष (धुरा) के टूट जाने पर भी उनके गमन में का विधान करता है, सात भंगों व नयों की अपेक्षा बाधा नहीं होती।
करता है तथा हेय-प्रादेय की व्यवस्था करता है स्यात शब्द-.---१. सर्वथानियमत्यागी यथादृप्टम- उसका नाम स्याद्वाद है। अनेकान्त स्वरूप प्रर्थ के पेक्षकः । स्थाच्छब्दस्तावके न्याये xxx ॥ कथन को स्याद्वाद कहते हैं । २ जो सब अंशों से (स्वयम्भ. १८-१७)। २. णियमणिसे हणसीलो परिपूर्ण--अनेकान्तात्मक--- वस्तु का कथन करता णिपादणादो य जो ह खलू सिद्धो। सो सियसहो है, ऐसे वचन का नाम स्याद्वाद है। ५ निदिश्यभणियो जो सावेक्खं पसाहेदि । (द्रव्यस्व. प्र. मान धर्म से भिन्न समस्त धर्मों के सूचक नयच. २५३)।
'स्यात्' शब्द से युक्त बाद को- अभीष्ट धर्म के १ सर्वथा सत ही है या असत ही है, एक ही है या कथन को - स्याद्वाद कहा जाता है। अनेकही है तथा भिन्न ही है या अभिन्न ही है, इत्यादि स्याद्वादश्रत-देखो स्याद्वाद । १. नयानामेकपरस्पर विरुद्ध दिखन वाले धर्मों में से सर्वथा सत् निष्ठानां प्रवृत्तेः श्रुतवम॑नि । सम्पूर्णार्थविनिश्चायि ही है असत् किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं है' स्याद्वादश्रतमुच्यते ।। (न्यायाव. ३०)। २. तदात्मकं इत्यादि प्रकार से एकान्त पक्ष का निराकरण करता (स्याद्वादात्मकं) श्रुतं स्याद्वादश्रुतम् ।। (न्यायाव. हुमा जो जैसा वस्तु का स्वरूप देखा गया है उसकी वृ. ३०) । अपेक्षा करने वाला है-नयविवक्षा के अनुसार १ एक धम में चरितार्थ नयों की प्रवृत्ति से प्रागम---मुख्यता व गौणता के अनुसार---उभय घों की मार्ग में जो सम्पर्ण पदार्थ का निश्चय कराने वाला व्यवस्था करने वाला है वह 'स्यात्' शब्द है, जिसे --उसके निश्चय का कारणभूत वचन है-- उसे जैन न्याय में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। स्याद्वादश्रुत कहा जाता है । स्याद्वाद-देखो स्यात् शब्द । १. स्याद्वादः सर्वथै- स्वकचरितचर--देखो स्वचरितचर । कान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तभंगनयापेक्षो स्वकीयवधू-बन्धु-पित्रादिसाक्ष्येण स्वकीया स्वीहेयादेय विशेषकः ॥ (प्रा. मी. १०४)। २. स्या- कृता वधू । दया-शौच-क्षमा-शील-सत्यादिगुणद्वादः सकलादेशः Xxx ॥ (लघीय. ६२); भूषिता । (प्रलं. चि. ५-६१)। अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः । (लघीय. स्वो. जिसे बन्धुजन एवं माता-पिता प्रादि को साक्षी में विव. ६२) । ३. कथञ्चित् केनचित् कश्चित् कुत- स्वीकार किया जाता है तथा जो दया, शौच, क्षमा, श्चित् कस्यचित् क्वचित् । कदाचिच्चेति पर्यायात् शील और सत्य आदि गुणों से विभूषित होती है स्याद्वादः सप्तभगमत् ।। (जयध. १, पृ. ३०६ उद्.। वह स्वकीयवधू (पत्नी; कहलाती है। ४. अनेकधर्मस्वभावस्यार्थस्य जीवादेः कथनं स्या- स्वकृत संहरण --- स्वकृतं चारणानां विद्याधराणां द्वादः। Xxx तस्य (अर्थस्य) अनेकान्तात्म- चेच्छातो विशिष्टस्थानाश्रयणम् । (त. भा. सिद्ध. कत्वनिरूपणं स्याद्वादः। (न्यायकु. ६२, पृ. ६८६) व. १०७ )। ५. निदिश्यमानधर्म व्यतिरिक्ता शेषधर्मान्तरसंसूचकेन चारण ऋषि और विद्याधर जो स्वेच्छा से विशिष्ट स्याता युक्तो वादोऽभिप्रेतधर्मवचन स्याद्वादः । स्थान का प्राश्रय करते हैं, इसे स्वकृत संहरण कहा (न्यायाव. व. ३०)। ६. सर्वथा सदसदेकानेक- जाता है। नित्यानित्यादिसकलैकान्तप्रत्यनीकानेकान्ततत्त्वविष- स्वक्षेत्रपरिवर्तन-कश्चिज्जीव: सुक्ष्मनिगोदजघय: स्याद्वादः (प्राप्त मी. वसु. व १०१)। ७. अस्ती- न्यावगाहनेनोत्पन्नः स्वस्थिति जीवित्वा मृतः, पुनः त्यादिसप्तभङ्गमयो वादः स्याद्वादः । (लघीय. अभय. प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्नः, एवं द्वयादिप्रदेशोत्तर५.५१, पृ. ७४); स्यात् कथंचित् प्रतिपक्षापेक्षया क्रमेण महामत्स्यावगाहनपर्यन्ताः संख्यातघनांगूल
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