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जन लनगावली
पारिभाषिक शमीमा
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जैन-लक्षणावली
(जैन पारिभाषिक शब्द-कोश) तृतीय भाग (प्रकरणसमाजाति-ह्रस्व तक)
सम्पादक बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
वीर सेवा मन्दिर प्रकाशन
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प्रकाशक वीर-सेवा-मन्दिर २१, दरियागंज नई दिल्ली-२
वी. नि. सं० २५०५ विक्रम संवत् २०३६ सन् १९७९
मूल्य रु०४०-००
मुद्रक प्रिंट ग्रार्ट प्रेस
नवीन शाहदरा, दिल्ली- ३२ कम्पोजिंग गीता प्रिंटिंग एजेंसी
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JAINA LAKSANĀVALI
(An authentic discriptive dictionary of Jaina philosophical terms)
Vol. III
EDITED BY BĀLCHANDRA SIDDHANTA SHASTRI
VIR SEWA MANDIR 21, Daryaganj, New Delhi-2
Vir Samvat 2505 V. Samvat 2036 A. D, 1979
Rs. 40-00
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प्रकाशकीय
"जैन लक्षणाबली" जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रकाशन इस युग की एक अभूतपूर्व घटना है। ग्रन्थ के पूर्ण हो जाने पर अब उसके इस अन्तिम तृतीय भाग को पाठकों के सन्मुख प्रस्तुत करते हुए ‘बीर सेवा मन्दिर" गौरव का अनुभव करता है। ग्रन्थ की उपयोगिता व महत्त्व पर अयत्र प्रकाश डाला गया है । उससे यह स्पष्ट है कि इस तरह का ग्रन्थ न तो अब तक छपा है और न निकट भविष्य में उसके छपने की कुछ सम्भावना ही है ।
ग्रन्थ के सकलन, सम्पादन, मद्रण इत्यादि में जिन विद्वानों, सोसायटी के अधिकारियों व अन्य महानुभावों का किसी भी रूप में योगदान रहा उन का उल्लेख प्रथम व द्वितीय भाग में किया जा चुका है। सोसायटी की ओर से मैं उन सबका पुनः आभार मानता है। प्रमुख रूप में ग्रन्थ के संयोजन' सम्पादन, मुद्रण व प्रकाशन में जिन चार महानुभावों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है वे इस प्रकार हैं--
१. स्व. श्री प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार—यद्यपि ग्रन्थ की मूल परिकल्पना मुख्तार साहब की थी तथा इसकी रचना में वही मूल प्रेरणा-स्रोत थे तथापि उनके जीवनकाल में ग्रन्थ से सम्बन्धित सामग्री व्यवस्थित नहीं हो सकी थी। इसके लिए यद्यपि समय-समय पर कई विद्वानों का सहयोग भी प्राप्त हुना, फिर भी वह संकलित सामग्री अव्यवस्थित ही रही दिखती है उसमें एकरूपता नहीं रही तथा सम्भवतः त्रुटियां भी अधिक रहीं।
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उच्चकोटि का प्रतिभावान विद्वान् भी होना आवश्यक है, पं० जी मूलाधार हैं।
३. स्व० श्री छोटेलाल जी जैनग्रन्थ के संकलन, सम्पादन के कार्य में कुछ प्रारम्भिक कठिनाइयां उत्पन्न : हो गई थीं, जिनको स्व० श्री छोटेलाल जी ने सुलझाया तथा ग्रन्थ की रचना को गति प्रदान की । श्रन्यथा एक स्थिति पर लाकर तो कार्य प्रायः बिल्कुल ही रुक गया था ।
२. पं. बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीस्व. मुख्तार साहब के पश्चात् ग्रन्थ का व्यवस्थित सम्पादन कर उसे पूर्ण करा देने के लिए उपयुक्त विद्वान् के खोजने में संस्था को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा । अन्तत: इसे मैं 'वीर सेवा मन्दिर' व इस ग्रन्थ का सौभाग्य ही मानता हूं कि पं० बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने ग्रन्थ के सम्पादन के भार को उठाना स्वीकार कर लिया - और तदनुसार कार्य को पूर्ण करने के लिए सबके आग्रह पर स्वास्थ्य की शिथिलता व अवस्थागत कठिनाइयों के बावजूद वे तैयार हो गये। जिन कठिनाइयों का प्रथम भाग के सम्पादकीय में उल्लेख किया गया है और जिनको कुछ पिछले कई वर्षों में मैंने देखा और समझा है उस आधार पर यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि इस श्रम व समय-साध्य तथा कठिन ग्रन्थ की रचना के, जिसके लिए एक
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( ६ )
४. स्व० श्री साहू शान्तिप्रसाद जी जैन-स्व० साहू जी न केवल इस ग्रन्थ की रचना में निरन्तर प्रेरणा, सुझाव व सहायता देते रहे; अपितु "वीर सेवा मन्दिर" के अध्यक्ष के पद पर सदा
सोसायटी के मन-प्राण ही रहे । प्रार्थिक योगदान "जैन लक्षणावली" के प्रकाशन में मूलरूप से उन्हीं का रहा। यहां तक कि इस अन्तिम भाग के प्रकाशन में भी उनकी प्रेरणा से “भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट" से दस हजार रुपये की राशि प्राप्त हुई, जिसके बिना कार्य में अवरोध उत्पन्न होना श्रवश्यम्भावी था ।
मेरे पास शब्द नहीं हैं कि मैं इन चार महान् व्यक्तियों का समुचित रूप से आभार प्रकट कर सकूं । 'वीर सेवा मन्दिर' चिरकाल तक इनका हृदय से आभारी रहेगा ।
नई दिल्ली ७-४-७६
महेन्द्र सेन महासचिव
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सम्पादकीय
प्रस्तुत जैन लक्षणावली का दूसरा भाग लगभग ५ वर्ष पूर्व (१९७३) में प्रकाशित हुआ था । अब उसका यह अन्तिम तीसरा भाग कुछ विलम्ब से जिज्ञासु पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है। इतना लम्बा समय लग जाने का कारण यह है कि सितम्बर १९७४ में मैं अस्वस्थ हो गया था। दिल्ली में अकेले रहते हुए स्वास्थ्यसुधार की प्राशा कुछ कम रह गई थी। इससे मुझे दिल्ली छोड़कर घर चला जाना पड़ा। इधर प्रस्तुत लक्षणावली के शेष कार्य के कराने की कोई अन्य व्यवस्था नहीं हो सकी। इसके लिए मुझे प्रेरणा की गई । इस सम्बन्ध में मुझे जो स्व. साहू शान्तिप्रसाद जी जैन (अध्यक्ष वीर सेवा मन्दिर) का दि. १८-११-७४ का पत्र मिला, उससे मुझे यह निश्चय करना पड़ा कि स्वास्थ्य के कुछ ठीक होते ही मुझे दिल्ली पहुंच कर जिस किसी भी प्रकार से उसके शेष कार्य को पूरा अवश्य करा देना है। तदनुसार स्वास्थ्य के कुछ ठीक हो जाने पर मैं दि. १३ नवम्बर १९७५ को पुनः दिल्ली पहुंचा और लगभग १० मास वहां रहकर उसके शेष कार्य को सम्पन्न करते हुए उसकी पाण्डलिपि तयार करा दी। मद्रण कार्य में विलम्ब होते देख मैं पुन: घर वापिस चला आया। मुद्रण कार्य के चालू हो जाने पर उसके दूसरे प्रूफों को मैं यहां मंगाकर देखता रहा तथा प्रथम और अन्तिम प्रफों को वहीं देखकर श्री ५. पद्मचन्द्रजी शास्त्री मुद्रण का कार्य सुचारु रूप से कराते रहे। इस प्रकार से उसके इस अन्तिम भाग का कार्य सम्पन्न हो सका।
इस समय मुझे उन स्व. साहू शान्तिप्रसाद जी का विशेष स्मरण हो रहा है, जिनकी सद्भावनापूर्ण प्रेरणा से मैं इस कार्य को सम्पन्न करा सका। दुःख इस बात का है कि जिनका इस कार्य के कराने में इतना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा वे साहू जी इसे सम्पन्न होता न देख सके और बीच में ही कालकवलित हो गये।
जैसी कि प्रथम भाग की प्रस्तावना में (पृ. ६६) सूचना की गई थी, इस भाग की प्रस्तावना में शेष ग्रन्थों का परिचय कराना अभीष्ट था, पर स्वास्थ्य की शिथिलता और यहां (हैदराबाद) उन ग्रन्थों की अनुपलभ्यता के कारण उनका परिचय नहीं कराया जा सका। __इस भाग में नयविवरण, रयणसार और वसुदेवहिंडी जैसे २-४ ग्रन्थों को छोड़कर अन्य नये ग्रन्थों का उपयोग नहीं हुआ है। इसी से इस भाग के अन्त में प्रथम और द्वितीय भाग के समान ग्रन्थ और ग्रन्थकारों की अनुक्रमणिका नहीं दी गई है। प्राभार
इस भाग के सम्पादन कार्य में श्री पन्नालाल जी अग्रवाल और पं. परमानन्द जी शास्त्री का सहयोग पूर्ववत् रहा है। बीच में परिस्थिति वश कार्य के कुछ रुक जाने पर उसे पूरा करा देने के सम्बन्ध में अग्रवाल जी के तो मुझे कई प्रेरणात्मक पत्र भी मिले हैं ।
स्व. साहू शान्तिप्रसाद जी की सद्भावनापूर्ण प्रेरणा के अतिरिक्त वीर सेवा मन्दिर के उपाध्यक्ष ला. इन्द्रसेन जी, महासचिव श्री महेन्द्रसेन जी और साहित्यसचिव श्री गोकुलप्रसाद जी एम्. ए., साहित्यरत्न की अत्यधिक प्रेरणा से जो मुझे बल मिला उसके आश्रय से ही मेरे द्वारा यह रुका हुआ कार्य सम्पन्न हो सका है।
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(5)
श्री प्रकाशचन्द्र जी एम. ए. प्राचार्य समन्तभद्र विद्यालय से पाण्डुलिपि के तैयार करने में सहयोग
मिला है ।
श्री विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जी जैन लखनऊ ने हमारे निवेदन पर अंग्रेजी में फोरवर्ड लिख देने की कृपा की है । आपने यह महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिया है कि जो बहुत से लक्ष्य शब्द इस संस्करण
संग्रहीत नहीं हो सके हैं उनका संकलन करके परिशिष्ट के रूप में एक पुस्तिका को प्रकाशित कराया जाय, जिसमें जिन शेष ग्रन्थों का परिचय नहीं कराया जा सका है उनके परिचय के साथ ग्रन्थकारों के संशोधित समय आदि के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला जाय । श्रापका यह सुझाव बहुत उपयोगी है, पर उसके लिये अनुकूल कभी वैसी परिस्थिति निर्मित होगी, इस विषय में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता ।
श्री पं. पद्मचन्द्र जी शास्त्री एम्. ए. ने पहिले और अन्तिम प्रूफों को देखकर मुद्रण के कार्य में सहायता की है, साथ ही प्रसंगवश यदि कभी किसी ग्रन्थ के सन्दिग्ध स्थलविशेष को देखना पड़ा तो वे उसे यथासम्भव देखकर उसकी सूचना मुझे करते रहे हैं !
श्री सत्यनारायण जी शुक्ला (कंपोजिंग गीता प्रिंटिंग एजेंसी) ने ग्रन्थ के मुद्रण कार्य में काफी रुचि दिखलायी है । यदि कभी संशोधन कार्य कुछ बढ़ भी गया तो इसके लिये उन्होंने कभी विमनस्कता नहीं प्रगट की ।
इस प्रकार इन उपर्युक्त सभी महानुभावों के यथायोग्य सहयोग के बल पर ही यह कार्य सम्पन्न हुआ है। अतः मैं इन सभी का हृदय से प्राभार मानता हूँ ।
महावीर जयन्ती। १०-४-७६
बालचन्द्र शास्त्री हैदराबाद
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FOREWORD
Jainism represents a fully developed, very comprehensive and one of the oldest living religious and cultural systems indigenous to India. It possesses a vast and varied literature of its own, most of the early and basic works being composed in the Prakrit language; supplemented by those in Sanskrit and Apabhramsha. Thanks to the patient and painstaking work done by a number of eminent orientalists, both Indian and Western, during the past two hundred years or so, Jainology has now come to be recognised as a distinct, rich and important branch of Indology or oriental studies. In the Indian, as also in several foreign universities, dozens of scholars have done research work or undertaken specialised studies in various aspects of the Jaina religion, philosophy, culture, tradition, history, art and literature, during the past several decades, and the number is daily on the increase. If no more in its infancy, Jainology is still in its adolescence; there is yet immense scope and new vistas open to those who delve deeper in any of its branches.
Most of the available ancient works, written in different languages have been published. Many of these are well-edited, are often accompanied by vernacular or English translations and commentaries, useful appendices and indices, and usually carry a learned and critical introduction. But all the manuscripts preserved in the numerous Jaina Shastra Bhandars, which are scattered over the country, have not been exhausted, and of the published ones many are such as need be produced in revised, improved and standard editions by specialists in the subjects concerned. The number of independent modern treatises and dissertations is also not small, but some aspects or branches still remain unrepresented or poorly represented.
In order to facilitate the work of the students and researchers of Jainology, what are most needed are the suitable, authentic and up-to-date reference books of different categories, such as, reports of manuscript libraries, catalogues of manuscripts and of published books, comprehensive index of authors and works, classified histories of literature, bibliographies, well-edited collections of Pattavalis (pontifical genealogies), colophons, other historical documents and inscriptions, reports of the survey of Jaina archaeological sites and cultural and pilgrim centres, regionwise and periodwise catalogues of Jaina antiquities, art and architecture, directories, geographical and biographical dictionaries, index of verses of the ancient texts, topical dictionaries, dictionaries of technical terms and a good encyclopaedia Jainica.
Considerable work has been already done in this sphere and we do not now suffer from a lack of reference books, one or more of which are available in all but a few of the categories hinted above. But not all of these books are complete, com
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prehensive, systematic, authentic or of the requisite standard, wherefor much has yet to be done.
In the present context, we are chiefly concerned with the glossaries or the dictionaries of technical terms. Every science, art, skill, profession or department of knowledge possesses its own set of technical terms which have a significance peculiar to that subject, different from their ordinary dictionary meanings or common usages. Naturally, therefore, a well-developed and comprehensive religious, cultural and philosophical system with a long standing tradition as Jainism is, possesses numerous technical terms, related to its metaphysics, ontology, cosmology, mythology, epistemology, psychology, philosophy, diolectics, dogmatics, ethics and ritual. One not knowing the real import of such a term with reference to the context will find great difficulty in grasping the meaning of the text and is likely to misunderstand and misinterpret it.
There are certain terms which are exclusively used in the Jaina system, some others are such as are common to both, the Jaina and non-Jaina systems, but are used in the Jaina in an altogether different sense, or even if the sense is the same or similar, the philosophical concept implied in the term differs materially, and there are also terms which are current in common usage but have been adopted in Jainism and given a peculiar meaning. Moreover, there are certain terms, each conveying more than one sense which differ from context to context, in Jainism itself; and cases are not wanting when the definitions of the same term, given by several ancient writers, differ from one another. Many a time this helps in tracing the development in the meaning of a term and consequently in the concept, philosophical or otherwise, implied by that term. Then there are also some terms the definitions of which have a wider import and are interesting as well as valuable for the cultural, social, economic and even political history of ancient India. Hence the need for compilation of glossaries containing independent definitions and precise explanations of the words and expressions used in the Jaina system with technical and specialised meaning has been imperative.
Happily, it was early realised by the pioneers of the Jaina renaissance in the modern age. As early as 1909, Pt. Gopaldas Baraiya published his glossary, the Jain Siddhanta Praveshika, in 1908 J.L. Jaini brought out his Jaina Gem Dictionary and in 1925, Bihari Lal Chaitanya's Jain Shabda Maharnava, Part I, was published from Barabanki, the second part of which was compiled by Br. Sital Prasad and published from Surat in 1934. In the mean time, Vijaya Rajendra Suri's famous Abhidhana-Rajendra, in seven volumes, was published from Ratlam in 1913-34, the Ardhmagadhi Kosha of Ratanchandra Shatavadhani from Ajmer-Bombay in 1923-32 and the Paiya-sadda-mahannavo of Hargovindadas, T. Shah from Calcutta in 1928. The Alpa-parichita-saiddhantic-sabda-Kosha, Part I, of Anandsagar Suri came out from Surat in 1954 and the two excellent topical dictionaries, the Leshya Kosha and the Kriya-Kosha, by the joint efforts of Mohanlal Banthia and Srichand Chorariya from Calcutta, in 1966 and 1969 respectively. A Dictionary of Prakrit Proper Names, Part I (1970) and Part II (1972), has been published by the L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, and the four volumes of Jinendra Varni's Jainendra Siddhanta Kosha, by the Bharatiya Jnanpith, New Delhi in 1970-73.
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All these works have proved very useful for the students of Jainology, and will remain so for time to come. But whereas the Abhidhana Rajendra and the Jainendra Siddhanata Kosha aim at being veritable encyclopaedias, the former drawing upon mainly the Shvetambara literature and tradition and the latter upon the Digambara, the other dictionaries are either incomplete, partial, sectarian, or confined to a particular topic or section of literature. The need for a comprehensive, methodical, authentic and precise dictionary giving original definitions, in chronological sequence, of each of the Jaina technical terms, gleaned from a wide range of literature including almost all the ancient Jaina works, both Digambara and Shvetambara, and accepted as basic and authentic, therefore, remained unfulfilled.
It was the late Pt. Jugal Kishore Mukhtar (1877-1968) who, as early as 1932, conceived the idea of and later chalked out a detailed scheme for the compilation of exactly such a dictionary under the title Jaina Lakshanavali. He was a doyen of learning and an eminent pioneer researcher in the field of Jainology, who devot. ed the major part of his ninety-one years' life to the service of Jaina literature, and produced many valuable works including critical editions, translations and commentaries of several old texts, a number of scathing critiques, lists of mss., collections of colophons, a valuable index of verses of 64 important Prakrit texts, and historical discussions on most of the ancient authors and their works. In 1936, he founded the Vir Sewa Mandir, started its research journal the Anekant, and began in right earnest, work on his cherished scheme of the Jaina Lakshanavali. For about a year the work went on smoothly, but thereafter laxity crept in and, for several reasons, it was ultimately put off, though not wholly given up. After the Vir Seva Mandir was shifted, in the fifties, from Sarsawa to Delhi and a new registered society was formed to run it, Babu Chhote Lal Jain, its chairman, who had great respect for and interest in the work of Mukhtar Sahib, revived the scheme.
The task of compiling the dictionary was stupendous and required the devoted services of a very mature, experienced and learned scholar, quite at home with the whole range of ancient Jaina literature. Fortunately, the man most suited to this undertaking was Pt. Balchandra Shastri who had been associated with this work in its early stages in the late thirties. During the intervening 25 years or so, he had ably assisted in the editing and translating of the Dhavala volumes (VI to XVI), and himself edited and translated about a dozen other important Sanskrit and Prakrit texts. He was, therefore, entrusted, in the early sixties, with the completion and finalisation of the Jaina Lakshanavali. He took it as a labour of love. The result was that the first volume saw the light of the day in 1972, the second in 1973, and the present is the third and last volume.
This marvellous dictionary amply illustrates all the characteristics of Jaina technical terms, as indicated above. Each term, its Sanskrit form, carries with it its definitions in the original, with reference to the texts from which they have been gleaned, followed by an illuminating substance in Hindi, which enhances the usefulness of the work. Moreover, volume I also contains a list of the 390 texts used for the purpose. Their approximate chronology, a descriptive account of 102
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of them, and a very learned introduction, running into 87 pages and yet incomplete, is completed in the present volume. A perusal of the introduction reveals the difficulties and stupendousness of task, the method adopted in the compilation, and the value and importance of the glosses, through a critical discussion of some 25 typical specimens.
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This is, no doubt, a monumental work, an authentic reference book, extremely useful not only for the students of Jainology, but also those of Indology and of philosophy, eastern and western, in general, All those associated with the initiation, preparation and publication of the work: Pt. Jugal Kishore Mukhtar, B. Chhote Lal Jain, Sahu Shanti Prasad Jain, the authorities of the Vir Seva Mandir, and Pt. Balchandra Shastri, its very competent editor, deserve our warm thanks. Unfortunately, B. Chhote Lal Jain (died 1966) and Mukhtar Sahib (died 1968) could not live to see it in print, and Sahu Shanti Prasad (died 1977) could have the satisfaction of seeing only the first two volumes published. We gratefully cherish the memory of all these noble servers of the cause of Jainology.
Jyoti Nikunj, Charbagh, Lucknow-1 24 December, 1978
-Jyoti Prasad Jain
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प्रस्तावना
प्रस्तुत 'जैन लक्षणावली' भाग १ की प्रस्तावना में उस भाग में संग्रहीत लक्ष्य शब्दों में से कुछ के अन्तर्गत विशिष्ट लक्षणों के सम्बन्ध में प्रालोचनात्मक दृष्टि से 'लक्षण वैशिष्ट्य' शीर्षक में पू. ७०८५ में विचार किया गया है । अब यहां भाग २ व ३ में संग्रहीत लक्ष्य - शब्दों में से कुछ चुने हुए लक्ष्य शब्दों के अन्तर्गत विशिष्ट लक्षणों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा रहा है । यह स्मरण रहे कि विवक्षित लक्ष्य शब्द के अन्तर्गत जितने ग्रन्थों से लक्षणों का संग्रह किया जा सका है उनके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी जो पीछे प्रकृत लक्षण दृष्टिगत हुए हैं, समीक्षात्मक दृष्टि से विचार करते हुए यहां उन लक्षणों को तथा उनके पूर्वापर सम्बन्ध को भी विचार कोटि में ले लिया गया है ।
कपित्थ दोष -- इसका लक्षण मूलाचार वृत्ति (७-१७) और प्रवचनसारोद्धार आदि में उपलब्ध होता है | मुलाचार वृत्ति के रचयिता श्रा. वसुनन्दी और प्रवचनसारोद्धार के निर्माता नेमिचन्द्र हैं । दोनों का समय वि.की १२वीं शती रहा दिखता है । उनमें पूर्वोत्तर समयवर्ती कौन है, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता । वसुनन्दी के द्वारा जो उसका लक्षण वहां निवद्ध किया गया उसमें कहा गया है कि जो कपित्थ ( कैंथ ) के फल के समान मुट्ठी को बांधकर कायोत्सर्ग से स्थित होता है वह कायोत्सर्ग के इस कपित्थ नामक दोष का भागी होता है ।
प्रवचन सारोद्धार (२५६ ) में उसके विषय में कहा गया है कि जो षट्पदों (मधुमक्खियों) के भय से शरीर को कपित्थ के समान वस्त्र से वेष्टित करके कायोत्सर्ग में स्थित होता है वह प्रकृत कपित्थ दोष का भाजन होता है। इसकी वृत्ति में और योगशास्त्र के स्वो विवरण में भी मतान्तर को प्रगट करते हुए किंचित् अभिप्रायभेद के साथ यह विशेष निर्देश किया गया है कि मधुमक्खियों के भय से कपित्थ के समान चोलपट्ट से शरीर को ढककर व उसे मुट्ठी में ग्रहण करके अथवा जंघा प्रादि के मध्य में करके स्थित होना, यह कपित्थदोष का लक्षण है। अन्य श्राचार्यों के मत का उल्लेख करते हुए यहां यह भी निर्देश किया गया है— इसी प्रकार मुट्ठी को बांधकर स्थित होना, इसे अन्य आचार्य कपित्थ
दोष का लक्षण कहते हैं ।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चूंकि प्रायः वस्त्र का विधान है, अतः वहां उसका उक्त प्रकार का लक्षण संगत ही प्रतीत होता है । मूला. वृत्ति और अनगारधर्मामृत में जो लक्षण निर्दिष्ट किया गया है उसका श्राधार सम्भवतः शीत आदि की वेदना रहा होगा ।
पर्व - पग- ये काल विशेष हैं । इनके विषय में भाग १ की प्रस्तावना पृ. ७१-७२ पर 'टांग' शब्द को देखिये ।
काङ्क्षा व कांक्षा यह सम्यग्दर्शन का एक अतिचार | तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (७-१८) में इसके लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि इस लोक और पर लोक सम्बन्धी विषयों की इच्छा करना, इसका नाम कांक्षा है । हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणि विरचित उसकी वृत्तियों में विकल्प रूप में यह भी कहा गया है - प्रथवा विभिन्न दर्शनों (सम्प्रदायों) को स्वीकार करना, इसे काङ्क्षा कहा जाता है । इसकी पुष्टि में वहां 'तथा चागमः' ऐसा निर्देश करते हुए 'कंखा प्रण्णण्णदंसणग्गाहो' इस श्रागमवाक्य को भी उद्धृत किया गया है । यह श्रागमवाक्य श्रावकप्रज्ञप्ति की ८७वीं गाथा के अन्तर्गत है ।
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जैन लक्षणावलो रत्नकरण्डक (१२) में प्रकृत कांक्षा के विपरीत श्रनाकांक्षा या निःकांक्षित अंग के लक्षण में कहा गया है कि जो सांसारिक सुख कर्म के अधीन, विनश्वर एवं दुख का कारण है उस पाप के बीजभूत सुख में श्रास्था न रखना- उसकी स्थिरता पर विश्वास न करते हुए अभिलाषा न करना- इसका नाम नि:कांक्षित है। इससे यह फलित हुआ कि ऐसे सांसारिक सुख की इच्छा करना, यह उक्त कांक्षा का लक्षण है | भगवती आराधना की विजयो. टीका (४४) में प्रासक्ति को कांक्षा कहा गया है । श्रागे इसे स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि दर्शन, व्रत, दान, देवपूजा एवं दान से उत्पन्न पुण्य के प्रसाद से मेरे लिए यह कुल, रूप, घन और स्त्री-पुत्रादि अतिशय को प्राप्त हों; इस प्रकार की जो प्रभिलाषा होती हैं। उसे कांक्षा कहा जाता है । तत्त्वार्थवार्तिक (६, २४, १ ) में नि:कांक्षित अंग के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि उभय लोक सम्बन्धी विषयोपभोग की आकांक्षा न रखना अथवा मिथ्या दर्शनान्तरों की अभिलाषा न करना, इसे निःकांक्षित अंग कहा जाता है । तदनुसार उभय लोक सम्बन्धी विषयोपभोग की इच्छा को अथवा मिथ्या दर्शनों के ग्रहण की अभिलाषा को कांक्षा प्रतिचार समझना चाहिए । इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में जहां केवल विषयोपभोग की आकांक्षा को कांक्षा का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है वहां उसकी वृत्ति में हरिभद सूरि प्रोर सिद्धसेन गणि ने इस लोक व परलोक सम्बन्धी विषयों को इच्छा के साथ विकल्प रूप में पूर्वोक्त श्रागमवचन के अनुसार ग्रहण की अभिलाषा को भी कांक्षा कहा है । जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, श्रावकप्रज्ञप्ति की ८७वीं गाथा के अन्तर्गत उपलब्ध है जो किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थ का
विभिन्न दर्शनों के उक्त श्रागम वाक्य होना चाहिए ।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है तत्त्वार्थवार्तिककार को कांक्षा के लक्षण में विषयोपभोग की इच्छा और दर्शनान्तरों के ग्रहण की इच्छा दोनों ही अभिप्रेत रहे हैं । अमृतचन्द्र सूरि को तत्त्वार्थवार्तिककार के समान कांक्षा के लक्षण स्वरूप इस भव में वैभव आदि की अभिलाषा तथा पर भव में चक्रवर्ती श्रादिपदों की अभिलाषा के साथ एकान्तवाद से दूषित अन्य सम्प्रदायों के ग्रहण की अभिलाषा भी अभीष्ट रही है ( पु. सि. २४) । उक्त त. वा. का अनुसरण चारित्रसार (पृ. ३) में भी किया गया है । उक्त त. भा. को छोड़कर जहां प्राय: अन्य श्वेताम्बर ग्रन्थकारों को कांक्षा से विभिन्न दर्शनों का ग्रहण अभीष्ट रहा है वहां अधिकांश दि. ग्रन्थकारों को उससे विषयोपभोगाकांक्षा अभिप्रेत रही है । श्वे. ग्रन्थों में इसके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- देशकांक्षा और सर्वकांक्षा । देशकांक्षा से उन्हें बौद्धादि किसी एक ही दर्शन की अभिलाषा अभिप्रेत रही है (देखिए दंशवै. नि. १८२ की हरि. वृत्ति, श्रा. प्र. की टीका ८ र धर्मबिन्दु की वृत्ति २०११ श्रादि ) |
गच्छ व गण -- घवला (पु. १३, पृ. ६३) के अनुसार तीन पुरुषों के समुदाय का नाम गण र इससे अधिक पुरुषों के समुदाय का नाम गच्छ है । मूलाचार की वृत्ति (४-३२ ) में तीन पुरुषों के समुदाय को गण और सात पुरुषों के समुदाय को गच्छ कहा गया है । तत्त्वा भाष्य की सिद्धसेन विरचित वृत्ति ( ६-२४) व योगशास्त्र के स्वो विवरण ( ४-९० ) में एक प्राचार्य के नेतृत्व में रहने वाले साधु के समूह को गच्छ कहा गया है ।
सर्वार्थसिद्धि ( ६-२४), तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ( ६ - २४ ) और तत्त्वार्थवार्तिक (६, २४, ८ ) श्रादि के अनुसार स्थविरों की सन्तति को गण कहा जाता है । आवश्यक नियुक्ति (२११) को हरिभद्र व मलयगिरि विरचित वृत्ति के अनुसार एक वाचना, प्राचार व क्रिया में स्थित रहने वालों के समुदाय का नाम गण है । औपपातिक सूत्र की अभय वृत्ति (२० ) और योगशास्त्र के स्वो विवरण (४-६० ) में कुलों के समुदाय को गण कहा गया है ।
ग्रन्थि - विशेषावश्यक भाष्य (११९३ ) में ग्रन्थि के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार वृक्ष या रस्सी की कठोर व सघन गांठ अतिशय दुर्भेद्य होती है उसी प्रकार जीव का जो कर्मजनित राग-द्वेषरूप परिणाम अतिशय दुर्भेद्य होता है उसे उक्त ग्रन्थि के समान होने से ग्रन्थि कहा गया है । जब तक इस ग्रन्थि को नहीं भेदा जाता है तब तक जीव को सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता ।
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प्रस्तावना
इस ग्रन्यि का भेदन प्रपूर्वकरण परिणामों के द्वारा होता है। यथाप्रवृत्तकरण जीव के अनादि काल से प्रवृत्त रहता है। जिस प्रकार नदी में पड़े हुए पत्थरों में से कोई घिसते-धिसते स्वयमेव गोल हो जाता है उसी प्रकार अनादि से प्रवृत्त इस करण में घर्षण-घूर्णन के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों की स्थिति में केवल एक कोड़ाकोड़ि को छोड़ शेष समस्त कोडाकोड़ियां क्षय को प्राप्त हो जाती हैं। पश्चात् शेष रही उस एक कोड़ाकोडि मात्र स्थिति में भी जब पल्योपम का असंख्यातवां भाग और भी क्षीण हो जाता है तब तक पूर्वोक्त ग्रन्थि अभिन्नपूर्व ही रहती है। उसका भेदन अपूर्वकरण परिणाम के द्वारा होता है। मनन्तर अनिवत्तिकरण के अन्त में जीव को मोक्षपद के कारणभूत उस सम्यक्त्व का लाभ होता है। इस ग्रन्थि का प्रसंग विशेषा. भाष्य (११८८-१२१५) व अन्य भी श्वे. ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। पर वह किसी दि. ग्रन्थ में मुझे दष्टिगोचर नहीं हा।
तत्त्वार्थवात्तिक (६.१, १३) में यथाप्रवृत्त के समानार्थक 'प्रथाप्रवृत्त' का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जीव कर्मों को अन्तःकोड़ाकोडि प्रमाण स्थिति से यूक्त करके कालादिलब्धिपूर्वक प्रथाप्रवृत्त करण के प्रथम समय में प्रविष्ट होता है। यह करण चूंकि पूर्व में उस प्रकार से कभी भी प्रवृत्त नहीं हुआ, प्रतः उसकी 'प्रथाप्रवृत्त' यह सार्थक संज्ञा है।
दि. ग्रन्थों में 'षट्खण्डागम' यह एक प्राचीनतम ग्रन्थ है। उसके प्रथम खण्डभूत जीवस्थान की नौ चूलिकांपों में पाठवीं चूलिका के द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति की प्ररूपणा की गई है (देखिए पु. ६, पृ. २०३ से २६७) । उसके अनुसार पंचेन्द्रिय, संज्ञो, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक सर्वविशुद्ध जीव जब कर्मों की शेष स्थिति को क्षीण करके उसे संख्यात हजार सागरोपमों से हीन अन्तःकोड़ाकोडि प्रमाण कर देता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व के उत्पादन में समर्थ होता है (सूत्र १, ६-८, ३-५) । सर्वार्थसिद्धि (२-३) और तत्त्वार्थवार्तिक (२, ३, २) में प्राय: उक्त षट्खण्डागम के सूत्रों का शब्दशः अनुसरण किया गया है । जैसा कि पूर्व में निर्देश किया गया है त. वा. (E, १, १३) में सूचित 'कालादिलब्धि' की विशेष प्ररूपणा यहां की जा चुकी है।।
उस समय उसके क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पांच लब्धियां होती हैं। इनमें प्रथम चार लब्धियां तो साधारण हैं-वे भव्य के समान प्रभव्य के भी हो सकती हैं, किन्तु अन्तिम करणलब्धि सम्यक्त्व के उन्मुख हुए भव्य जीव के ही होती है। इस करणलब्धि में क्रम से अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करते हुए जीव के अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में प्रथम सम्यक्त्व का लाभ होता है (इन लब्धियों का स्वरूप धवला पू. ६, पृ. २०४-३० देखा जा सकता है)।
छेद-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने छेद के अभिप्राय को प्रगट करते हुए प्रवचनसार (३-१६) में कहा है कि शयन, प्रासन, स्थान और गमनादि कार्यों में जो श्रमण की प्रयत्न से रहित चर्या-प्रसावधानतापूर्ण प्रवृत्ति होती है उसका नाम छेद है। यद्यपि मूल गाथा में प्रकृत छेद शब्द का प्रयोग न करके पूवोंक्त प्रवृत्ति को हिंसा कहा गया है, तो भी उसकी व्याख्या करते हुए अमृतचन्द्र सूरि ने यह स्पष्ट कहा है कि अशुद्ध उपयोग का नाम छेद है, और चूंकि अनाचारपूर्ण प्रवृत्तिरूप मुनि का वह अशुद्ध उपयोग श्रमणधर्म का छेदन करता है-उसका विनाशक है, इसलिए उसे छेद कहना युक्तिसंगत है।
त. सूत्र (९-२२) और स. सि. आदि ग्रन्थों के अनुसार छेद यह नौ प्रकार के अथवा मूलाचार (५-१६५) के अनुसार दस प्रकार के प्रायश्चित्त के अन्तर्गत है। स. सि. में उसके लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अपराध के होने पर साधु की दीक्षा को यथायोग्य एक दिन, पक्ष व मास प्रादि से हीन कर देना, इसका नाम छेद प्रायश्चित्त है। त. वा. और (धवला पु. १३, पृ. ६१) आदि में प्रायः इसी का अनुसरण किया गया है। विशेषरूप से घवला में यह कहा गया है कि दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, प्रयन और संवत्सर प्रादि प्रमाण दीक्षापर्याय को छेदकर अभीष्ट पर्याय से नीचे की भूमि में स्थापित करना, यह छेद नाम का प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त अपराध करने वाले उस अभिमानी साधु के
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होता है जो उपवास प्रादि के करने में समर्थ, साधारणतः बलवान् और शूर होता है । धवलाकार के इस अभिप्राय को चारित्रसार (पृ. ६२) में प्राय: शब्दशः प्रात्मसात् किया गया है। आचारसार (६, ४७ व ४८) में उसे कुछ और विशद किया गया है।
तत्त्वा. भाष्य (६-२२) के अनुसार छेद, अपवर्तन और अपहार ये समानार्थक शब्द हैं। यह छेद दीक्षा सम्बन्धी दिवस, पक्ष, मास और संवत्सर इनमें से किसी एक का होता है। दशवकालिक चुणि (पृ. २६) में इसी का अनुसरण किया गया दिखता है । त. भाष्यगत उक्त लक्षण का स्पष्टीकरण करते हुए उसकी व्याख्या में सिद्धसेन गणि ने कहा है कि वह छेद महाव्रतों के प्रारोपणकाल से प्रारम्भ करके गिना जाता है। जिस दिन महाव्रतों का प्रारोपण किया गया है वह उसकी आदि पर्याय कहलाती है। उसमें पंचकादि पर्याय से लेकर दस वर्ष पर्यन्त आरोपित महाव्रत का अपराध के अनुसार कभी पंचक का छेद और कभी दशक का इस प्रकार छह मास तक को पर्याय का लघु अथवा गुरु रूप में छेद किया जाता है। इस प्रकार के छेद से छेदा जाकर प्रव्रज्यादिवस को भी अपहृत करता है। योगशा. के स्वो. विवरण (४-९०) में संक्षेप में यही अभिप्राय देखा जाता है।
___ भगवती आराधना की विजयोदया टीका (गा. ६) में इस छेद के हेतु को दिखलाते हुए कहा गया है कि प्रव्रज्या की हानिरूप वह छेद असंयम से घृणा प्रगट करने के हेतु किया जाता है ।
छेदोपस्थापक, छेदोपस्थापन, छेदोवस्थापनशुद्धिसंयम और छेदोपस्थापना-ये शब्द प्रायः समान अभिप्राय के द्योतक हैं। प्रवचनसार (३, ८.६) में श्रमण के २८ मूल गुणों का निर्देश करते हए यह कहा गया है कि जो श्रमण उनमें प्रमाद से युक्त होता है-उनके परिपालन में असावधान रहता हैवह छेदोपस्थापक होता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति (खण्ड ४, पृ. २६२) में विशेष रूप से यह कहा गया है कि जो पूरातन पर्याय को छेदकर अपने को पंचयामरूप धर्म में स्थापित करता है वह छेदोपस्थापक होता है। इस अभिप्राय की बोधक जो गाथा उक्त व्याख्याप्रज्ञप्ति में अवस्थित है वह यत्किचित् शब्दपरि. वर्तन के साथ दि. पंचसंग्रह (१-१३०) में भी उपलब्ध होती है, अभिप्राय समान ही है । इसके अतिरिक्त उसे धवला (पु. १, पृ. ३७२) में उद्धृत किया गया है तथा गोम्मटसार-जीवकाण्ड (४७०) में उसी रूप में उसे आत्मसात् किया गया है। उपर्युक्त अभिप्राय को हरिभद्र सूरि ने प्रावश्यक नि. (२१४) की वृत्ति और अनुयोगद्वार (पृ. १०४) की वृत्ति में तथा मलयगिरि ने प्रावश्यक नि. (११४) की वृत्ति में भी प्रगट किया है।
धवला (पु. १, पृ. २६९-७०) में अपने भीतर समस्त संयमभेदों को अन्तर्गत करने वाले एक ही यमस्वरूप सामायिक शुद्धिसंयम का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि इसी एक व्रत के छेद सेदो-तीन प्रादि भेदों के निर्देशपूर्वक-व्रतों के उपस्थापन (प्रारोपण) को छेदोपस्थापनशुद्धिसंयम कहते हैं। धवलाकार के इस अभिप्राय का अनुसरण करते हुए तत्त्वार्थसार (६-४६) और अमितगतिश्रावकाचार (१-२४०) में कहा गया है कि जिस संयम में हिंसादि के भेद के साथ सावध कर्म का परित्याग अथवा व्रत का विलोप होने पर उसकी शुद्धि की जाती है उसे छेदोपस्थापन कहा जाता है। यहां छेद का अर्थ भेद अभीष्ट रहा है। इसी अभिप्राय को कुछ विस्तार के साथ बहद्रव्यसंग्रह की टीका (३५) और गो. जीवकाण्ड की जी. प्र. टीका (४७१) में भी व्यक्त किया गया है।
धवलाकार के उपयुक्त अभिप्राय की पुष्टि मूलाचार (७, ३३-३८) से होती है। वहां कहा गया है कि भगवान् अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त बाईस तीर्थकर एक सामायिक संयम का ही उपदेश करते हैं । परन्तु भगवान् ऋषभदेव और महावीर ये दो तीर्थकर छेदोपस्थापनसंयम का प्रतिपादन करते हैं। पांच महावतों की जो प्ररूपणा की गई है वह दूसरे को प्रतिपादन करने के लिए और एक सामायिक संयम के सुबोध के लिए की गई है। ये दो तीर्थंकर छेदोपस्थापन का उपदेश क्यों करते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में शिष्य जन अतिशय सरल स्वभावी होने से कष्ट के साथ व्रत का शोधन करते हैं तथा अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थवर्ती शिष्य कुटिल
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होने से दुख के साथ उसका परिपालन करते हैं । इन उभय तीर्थंकरों के तीर्थवर्ती शिष्य कल्प्या कल्प्य - योग्य-अयोग्य श्राचरण - को नहीं जानते हैं ।
लगभग यही अभिप्राय उत्तराध्ययन ( २३, २६-२७) में भी व्यक्त किया गया है। वहां केशिगौतम संवाद के प्रसंग में केशी के द्वारा पूछे गये चातुर्याम व पंचयाम विषयक प्रश्न के समाधान में गौतम के द्वारा कहा गया है कि प्रथम तीर्थंकर के शिष्य ऋजु जड़ होने से दुर्विशोध्य और प्रतिम तीर्थंकर के शिष्य वक्रजड़ होने से दुरनुपालय - कष्ट के साथ व्रत का पालन करने वाले थे । मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शिष्य ऋजुप्रज्ञ - स्वभाव से सरल और बुद्धिमान् थे । इसीलिए मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के द्वारा चातुर्याम का तथा प्रादि व अन्त के तीर्थंकरों के द्वारा पंचयाम का उपदेश किया गया है ।
'छेदोपस्थापना' के अन्तर्गत सर्वार्थसिद्धि ( ६-१८ ) में भी यही कहा गया है कि प्रमाद के वशीभूत होकर जो अनर्थ - विरुद्ध प्राचरण - किया गया है उससे सदाचरण का लोप होने पर जो सम्यक् प्रतीकार किया जाता है उसे छेदोपस्थापना कहते हैं । तस्वार्थवार्तिक (६,१८, ६-७ ) में इसको कुछ विशेष स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि प्रमाद से किये गये अनर्थ से निरवद्य क्रिया (सदाचरण ) का विलोप होने पर उसके द्वारा उपार्जित कर्म का जो सम्यक् प्रतीकार किया जाता है उसे छेदोपस्थापना जानना चाहिए । अथवा सावद्यकर्मस्वरूप हिंसादि के विकल्पपूर्वक जो संयम ग्रहण किया जाता है उसे छेदोपस्थापना समझना चाहिए । इसमें पूर्वोक्त मूलाचार (७, ३६-३५ ) का ही अनुसरण किया गया प्रतीत होता है ।
तद्भवमरण - उत्तरा चूर्णि (५, पृ. १२७ ) के अनुसार जीव जिस भवग्रहण में मरता है - जैसे नारकभवग्रह्णादि उसे तद्भवमरण कहा जाता है । त. वार्तिक (७, २२, २) में सल्लेखना के प्रसंग में कहा गया है कि भवान्तर की प्राप्ति के अनन्तर उपश्लिष्ट पूर्व भव के विनाश का नाम तद्भवमरण है । यही अभिप्राय प्रायः शब्दशः भ. प्रा. की विजयोदया टीका (२५) और चारित्रसार (पृ. २३) में भी प्रगट किया गया है । भ. प्रा. की टीका में 'उपश्लिष्ट' के स्थान में 'उपसृष्ट' तथा इन दोनों में ही 'प्राप्त्यनन्तरों' के स्थान में 'प्राप्तिरनन्तरो - पाठ उपलब्ध है । प्रवचनसारोद्वार (१०१२ ) और स्थानांग की अभयदेव विरचित वृत्ति (१०२) में इसे कुछ और विकसित करते हुए कहा गया है कि अकर्मभूमि मनुष्य व तिर्यंच, देवगण और नारकी इनको छोड़कर शेष जीवों में किन्हीं का तद्भवमरण होता है । उक्त स्थानांग की वृत्ति में आगे (१०२, पृ. ८) में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जीव जिस भव में हैं उस भव के योग्य आयु को बांधकर जब मरण को प्राप्त होता है तब उसके मरण को तद्भवमरण कहा जाता है । यह तद्भवमरण संख्यातवर्षायुष्क मनुष्य और तिर्यंचों का ही होता है, क्योंकि उन्हीं के उस भव की आयु का बन्ध होता है । भ. श्री. की मूलाराधनादर्पण टीका (२) के अनुसार भुज्यमान आयु के अन्तिम समय में होने वाले मरण को तद्भवमरण कहा जाता है । इस प्रकार स्थानांग के टीकाकार अभयदेव सूरि को जहां तद्भवमरण कर्मभूमिज मनुष्य तिर्यंचों के ही प्रभीष्ट है वहां अन्यों को जीव जिस किसी भी भव में मरण को प्राप्त होता है वही तद्भवमरण के रूप में अभीष्ट रहा है, ऐसा प्रतीत होता है ।
१३-१४ ) में पृथिवी, अप्,
त्रस कहा गया है । परन्तु पृथिवी, श्रम्बु और वन
त्रस -- सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थ सूत्र (२, तेज, वायु और वनस्पति इनको स्थावर तथा द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय श्रादि जीवों को त. भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार उक्त तत्त्वार्थ सूत्र ( २, १३-१४ ) में ही स्पति इन जीवों को स्थावर तथा तेज, वायु और द्वीन्द्रिय आदि जीवों को त्रस कहा गया है । उक्त त. सू. की स. सि. (२-१२) त. वा. (२, १२, १) और त. श्लो. वा. (२-१२) आदि व्याख्यानों में तथा धवला (पु. १, पृ. २६५-६६ ) में त्रसनामकर्म के वशीभूत प्राणियों को त्रस कहा गया है । इसी त. सु. की व्याख्यास्वरूप त. भा. में स जीवों के स्वरूप का कहीं ( २, १२-१४) कोई निर्देश नहीं किया गया है । आगे वहां सनामकर्म के प्रसंग ( ८- १२ ) में भी केवल त्रसभाव के निव
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र्तक कर्म को नामकर्म कहा गया है। यहां भी त्रसभाव का कोई असाधारण लक्षण नहीं प्रगट किया गया । पर त. सू. की पूर्वोक्त स. सि. ( ८-११) प्रादि व्याख्यानों में त्रसनामकर्म उसे कहा गया है जिसके कि उदय से प्राणी का जन्म द्वीन्द्रिय आदि जीवों में होता है ।
त. भा. की हरिभद्र विरचित वृत्ति (२-१२ ) में ' त्रस्यन्तीति त्रसा:' ऐसी निरुक्ति करते हुए स नामकर्म के उदय से परिस्पन्दन आदि से युक्त जीवों को त्रस कहा गया है। आगे उसी त भाष्य की हरिभद्र व सिद्धसेन विरचित वृत्ति (८-१२ ) में ' त्रस्यन्तीति त्रसा:' इस प्रकार की निरुक्ति के साथ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लक्षण प्राणियों को त्रस कहा गया है। कारण का निर्देश करते हुए वहां यह भी कहा गया है कि क्योंकि उस ( स ) कर्म के उदय से उपर्युक्त प्राणियों में परिस्पन्दन देखा जाता । जिस कर्म के उदय से गमनादि क्रिया रूप उस प्रकार की विशेषता होती है वह सभाब का निर्वर्तक बसनामकर्म कहलाता | श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका (२२) में भी यही निर्देश किया गया है कि जिसके उदय से चलन वा स्पन्दन होता है वह त्रसनामकर्म कहलाता | दशकालिक की चूर्ण में (४-१, पृ. १३६) 'तसंतीति तसा ' ऐसी निरुक्ति मात्र की गई है । सूत्रकृतांग की शीलांक वृत्ति (२,६, ४, पृ. १४० ) में भी लगभग पूर्वोक्त अभिप्राय को ही व्यक्त किया गया है ।
दशकालिक सूत्र (४-१, पृ. १३६) में छठे जीवनिकायस्वरूप त्रस जीवों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, सम्मूच्छिम, उद्भिज और श्रोपपातिक जीवों का निर्देश किया गया है । आगे वहां कहा गया है कि जिन किन्हीं त्रस प्राणियों का ज्ञान उनके ग्रभिमुख गमन, प्रतिकूल गमन, संकोचन, प्रसारण, रुत (शब्द), भंत (भ्रमण), पीड़ित होकर पलायन एवं गमनागमन से होता है । साथ ही यह भी कहा गया है कि कीट-पतंग, कुन्थु, पिपीलिका, सब दो इन्द्रिय, सब तीन इन्द्रिय, सब चार इन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय ये सब तिर्यंच; सब नारक, सब मनुष्य, सब देव और परमाधार्मिक प्राणी; इस छठे निकाय को काय कहा जाता है । जीवाभिगम की वृत्ति ( 8 ) में कहा गया है कि जो जीव उष्ण आदि की वेदना से सन्तप्त होकर विवक्षित स्थान से छाया आदि के श्रासेवनार्थ अन्य स्थान को प्राप्त होते हैं वे त्रस कहलाते हैं । आगे इसे भोर भी स्पष्ट करते हुए विशेष रूप से यह निर्देश किया गया है कि ( त्रसन्ति इति त्रसाः ) इस व्युत्पत्ति से त्रसनामकर्म के उदय के वशवर्ती जीवों को ही जानना चाहिए, शेष जीवों को सरूप में नहीं ग्रहण करना चाहिए ।
इस प्रकार दशकालिक सूत्र में कुछ त्रस जीवों का नामोल्लेख करते हुए उनका परिज्ञान गमनागमनादि क्रियाओं से कराया गया है। श्वे. मान्य तत्त्वार्थ सूत्र (२, १३-१४ ) में पृथिवी, जल और वनस्पति जीवों को स्थावर बतलाते हुए तेज, वायु और द्वीन्द्रिय जीवों को त्रस कहा गया है । यहां तेज, श्रीर वायु जीवों का निर्देश जो स जीवों के अन्तर्गत किया गया है वह सम्भवतः क्रिया के श्राश्रय से किया गया है, न कि सनामकर्म के उदय के श्राश्रय से । के त्रसनामकर्म का उदय न रहकर स्थावरनामकर्म का ही
दि. मान्यत. सू. (२, १३-१४) के इनको स्थावर भर द्वीन्द्रिय आदि जीवों को सन्दर्भ भी द्रष्टव्य है ।
कारण यह कि उदय रहता है
।
जीवों को त्रस बतलाते
जो उसकी व्याख्या में सिद्धसेन गणि ने क्रिया के प्राश्रय से तेज और वायु हुए लब्धि से स्थावरनामकर्म के उदय के वशीभूत होने से उन्हें भी उक्त पृथिवी प्रादि के साथ स्थावर बतलाया है । अन्यथा, पूर्वोक्त सूत्रकृतांग और स्थानांग की वृत्तियों में द्वीन्द्रियादि जीवों को ही स बतलाना असंगत ठहरेगा ।
उक्त दोनों प्रकार के जीवों
यही कारण प्रतीत होता है
पाठ के अनुसार पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति बस कहा गया है । यहां सनाम के अन्तर्गत ग्रन्थों का
दर्शन - दर्शन शब्द से यहां उपयोगविशेष विवक्षित है । सम्मतिसूत्र ( २ - १ ), त. भा. की हरिभद्र विरचित वृत्ति (२-९), अनुयोगद्वार की हरिभद्र विरचित वृत्ति (पृ. १०३), पंचास्तिकाय की अमृत
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चन्द्र विरचित वृत्ति (४१), श्रमितगति विरचित पंचसंग्रह (१-२४९), स्थानांग की अभयदेव विरचित वृत्ति (२- १०५ ) श्रपपातिक की अभयदेव विरचित वृत्ति (१०, पृ. १५), आवश्यक निर्युक्ति की मलयगिरि विरचित वृत्ति (पृ. २७७ व पृ. ५६८ निर्युक्ति १०५१ की वृत्ति), प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति (१२४६) श्रीर जीवाभिगम की मलय. वृत्ति (१-१३, पृ. १८) आदि ग्रन्थों में प्रकृत दर्शन का लक्षण सामान्यग्रहण निर्दिष्ट दिया गया है ।
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तत्त्वार्था (२, ६, १ ), महापुराण ( २४, २०१-२ ), प्रष्टसहस्री (१५, पृ. १३२), त भा. की सिद्धसेन रचित वृत्ति (२-६), तत्त्वार्थसार (२-१२), सन्मतिसूत्र वृत्ति (२-१, पृ. ४५८ ), स्याद्वाद रत्ना (२-१०), मोक्षपंचाशिका ( ३ ) और प्रतिष्ठासार (२-६० ) में उक्त दर्शन का लक्षण अनाकार निराकार कहा गया है ।
उक्त तत्त्वार्थवार्तिक में आगे ( ६, ७, ११) तथा पूर्वनिर्दिष्ट तत्त्वार्थसार में भी आगे (२-८६ ) दर्शनावरण के क्षयोपशम से प्रादुर्भूत प्रालोचन को दर्शन कहा गया है ।
ललितविस्तरा में (पृ. ६३ ) इस दर्शन के स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि सामान्य को प्रधान और विशेष को गौण करके जो पदार्थ का ग्रहण होता है उसे दर्शन कहा जाता है ।
प्रकृत दर्शन का विचार प्रा. वीरसेन के द्वारा घवला टीका में यथाप्रसंग अनेक स्थलों में शंकासमाधानपूर्वक विस्तार से किया गया है । यथा- पु. १, पृ १४५ पर 'दृश्यते श्रनेनेति दर्शनम्' इस निरुक्ति के साथ जिसके द्वारा देखा जाता है उसे दर्शन कहा गया है । इस सामान्य लक्षण के निर्देश से नेत्र व प्रकाश में जो प्रतिव्याप्ति का प्रसंग प्राप्त था उसका निराकरण करते हुए वहीं पर आगे अन्तर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन कहा गया है। इसी पुस्तक में आगे (पृ. १४७ ) अनेक शंका समाधानपूर्वक सामान्यविशेषात्मक आत्मा के स्वरूप के ग्रहण को दर्शन सिद्ध किया गया है । ऐसी स्थिति में "जं सामण्णं गहणं तं दंसणं” इस श्रागमवचन के साथ जो विरोध की सम्भावना थी उसका निराकरण करते हुए उसक समन्वय किया गया गया है । वह सम्पूर्ण भागमवचन इस प्रकार है-
जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टुमायारं ।
अविसेसिण प्रत्थे दंसणमिति भण्णदे समए । '
इसके साथ समन्वय करते हुए वहां यह कहा गया है कि 'सामान्य' शब्द से यहां समस्त बाह्य पदार्थो में साधारण होने से श्रात्मा को ग्रहण किया गया है। उक्त गाथा की व्याख्या करते हुए वहाँ यह सूचित किया गया है कि गाथागत 'भाव' शब्द से बाह्य श्रर्थ विवक्षित हैं । उन बाह्य अर्थों के प्रतिकर्मव्यव स्थारूप आकार को ग्रहण न करके तथा 'यह अमुक पदार्थ है' इस प्रकार से पदार्थों की विशेषता को न करके जो सामान्य का सामान्य विशेषात्मक श्रात्मस्वरूप का — ग्रहण होता है उसे आगम में दर्शन कहा गया है । यहीं पर (पृ. १४८) विकल्प रूप में श्रालोकनवृत्ति को दर्शन कहते हुए उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है - 'प्रालोकते इति श्रालोकनम्' इस निरुक्ति के अनुसार प्रालोकन का श्रर्थ श्रात्मा और वृत्ति का अर्थ वर्तन है । तदनुसार प्रालोकन की वृत्ति को - स्वात्मसंवेदन को - दर्शन समझना चाहिए ।
आगे यहां (पृ. १४६) प्रकारान्तर से प्रकाशवृत्ति को दर्शन कहते हुए प्रकाश का अर्थ ज्ञान किया गया है । तदनुसार उस प्रकाश के निमित्त आत्मा की जो प्रवृत्ति होती है उसे दर्शन कहा गया है जो विषय और विषय के सम्पात से पूर्व की अवस्थारूप है । इसी पुस्तक में प्रांगे (पृ. ३८४-८५ ) पुनः स्वरूपसंवेदन को दर्शन स्वीकार करने की प्रेरणा करते हुए अपने से भिन्न वस्तु के परिच्छेद को ज्ञान और अपने से अभिन्न वस्तु के परिच्छेद को दर्शन कहा गया है। इस प्रकार से ज्ञान और दर्शन में भेद भी प्रगट कर दिया गया है ।
१. यह गाथा श्रनुयोगद्वार की हरिभद्र विरचित वृत्ति (पृ. १०३ ) में उद्धृत है ।
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जैन लक्षणावली प्रकृत धवला में ही प्रागे (पु. ६, पृ. ६) में पुनः प्रात्मविषयक उपयोग के दर्शन बतलाते हुए ज्ञान के बाह्य पदार्थविषयक होने से इसकी भिन्नता भी प्रगट कर दी गई है। इसी तक में प्रागे (पु. ६, ३२-३३) ज्ञानोत्पादक प्रयत्न से अनुगत प्रात्मसंवेदन को दर्शन कहा है, जिसका अभिप्राय प्रात्मविषयक उपयोग ही रहा है। इस प्रकार से विचार करते हुए यहां (पृ. ३४) प्रात्मा को सस्त पदार्थों में साधारण होने से सामान्य सिद्ध करके तद्विषयक उपयोग को ही दर्शन कहा है। इससे जान और दर्शन में यह भेद भी प्रगट हो जाता है कि ज्ञान जहां बाह्य पदार्थों को विषय करता है वहां दर्शन अन्तरंग (आत्मा) को विषय करता है।
पूर्व में (पु. १, पृ. १४६) प्रकाशवृत्ति को दर्शन कहा जा चुका है। उसे पु. ७. ७) में पुनः दोहराया गया है। पूर्व पु. १ (पृ. १४७) के समान इस पुस्तक (७, पृ. १००) में भी 'साय' शब्द को आत्मार्थक बतलाते हुए पूर्वोक्त 'जं सामण्णग्गहणं' आदि आगमवाक्य के साथ प्रसंगप्राप्त विरोध का परिहार करके उसके साथ समन्वय प्रगट किया गया है।
प्रकृत धवला में ही आगे (पु. १३, पृ. २०७) अनाकार उपयोग को दर्शन बतलाते हए प्राकार का अर्थ कर्म-कर्तृभाव प्रगट किया गया है और यह निर्देश किया गया है कि इस प्रकार के साथ जो उपयोग रहता है उसे साकार उपयोग (ज्ञान) कहा जाता है। इस साकार उपयोग से भिन्न-अनाकार उपयोग-दर्शन कहलाता है । यहीं पर प्रागे (पु. १३, पृ. २१६) विषय और विषयी के सन्निपातरूप ज्ञानो. त्पत्ति से पूर्व की अवस्था को दर्शन कहते हुए उसका काल अन्तर्मुहूर्त निर्दिष्ट किया गया है प्रागे पु. १५ (प. ६) में भी यह निर्देश किया गया है कि बाह्य अर्थ से सम्बद्ध प्रात्मस्वरूप के संवेदन का नाम दर्शन है।
दिव्यध्वनि-इस दिव्य वाणी की विशेषता को प्रगट करते हुए प्रा. समन्तभद्र ने उसे सवभाषास्वभाववालो कहा है। वे अपने स्वयम्भूस्तोत्र में (६६) पर जिनकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे भगवन् ! समस्त भाषाओं के स्वभाव से परिणत होने वाली प्रापकी दिव्यवाणी समवसरण सभा में व्याप्त होकर प्राणियों को अमृत के समान प्रसन्न व सूखी करती है। उक्त स्वामी समन्तभद्र ने उसकी अलौकिकता को दिखलाते हुए अन्यत्र (रत्नकरण्डक ८) भी यह कहा है-जिस प्रकार वादक के हाथ के स्पर्श से ध्वनि करता हुआ मृदंग बिना किसी प्रकार के स्वार्थ या अनुराग के ही श्रोताजनों को मुग्ध किया करता है उसी प्रकार वीतराग सर्वज्ञ प्रभु आत्मप्रयोजन और जनानुराग के बिना ही अपनी दिव्यवाणी के द्वारा सत्पुरुषों को हित का उपदेश किया करते हैं।
तिलोयपण्णत्ती (१-७४) में अर्थकर्ता के प्रसंग में कहा गया है कि छद्मस्थ अवस्था से सम्बद्ध मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यरूप ज्ञान के विनष्ट हो जाने तथा अनन्तज्ञान (केवलज्ञान) के उत्पन्न हो जाने पर अरहंत की जो दिव्यध्वनि--अलौकिक वाणी-निकलती है वह नौ प्रकार के पदार्थों के रहस्य को सूत्र के रूप में निरूपण करती है। प्रकृत तिलोयपण्णत्ती में ही आगे (४,६०१-५) केवलज्ञान के साथ प्रगट होने वाले ग्यारह अतिशयों का निरूपण करते हुए कहा गया है कि अरहंत देव अक्षरअनक्षरस्वरूप अठारह महाभाषाओं और सात सौ क्षुद्र भाषाओं में तालु, दांत, प्रोष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होते हुए जिस दिव्य भाषा के द्वारा भव्य जीवों को उपदेश करते हैं वह दिव्यध्वनि के नाम से प्रसिद्ध है। स्वभावतः स्खलन से रहित वह दिव्य वाणी तीनों सन्ध्याकालों में नौ मुहूर्त निकलती है जो एक योजन तक फैलती है । गणधर, इन्द्र और चक्रवर्ती के प्रश्न के अनुसार वह दिव्यध्वनि उक्त तीन सन्ध्याकालों के अतिरिक्त अन्य समयों में भी सात भंगों के प्राश्रय से अर्थ का व्याख्यान करती है।
धवला (पु. १, पृ. ६४) में भी तिलोयपण्णत्ती के ही समान अभिप्राय प्रगट करते हुए वहां जो गाथा उद्धत की गई है वह तिलोयपण्णत्ती की उस गाथा (१.७४) से प्रायः मिलती-जुलती ही है। इस धवला के निर्माता प्रा. वीरसेन उस दिव्यध्वनि के स्वरूप को प्रगट करते हुए जयधवला (१, १२६) में कहते हैं कि समस्त भाषास्वरूप वह दिव्यध्वनि अक्षर-अनक्षरात्मक होती हुई अनन्त अर्थ से गभित बीज पदों के द्वारा तीनों सन्ध्याकालों में छह घड़ी निरन्तर प्रवर्तमान होकर अर्थ का निरूपण करती है।
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इसके अतिरिक्त संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय को प्राप्त गणधर को लक्ष्य कर अन्य समय में भी प्रवृत्त होती है। विशद स्वरूप वाली वह दिव्य वाणी शंकर-व्यतिकर दोष से रहित उन्नीस धर्मकथानों का निरूपण करती है।
भक्तामर स्तोत्र (३५) में उक्त दिव्यध्वनि की विशेषता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि वह जिनेन्द्र की अनुपम वाणी स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कराने वाले मार्ग के खोजने में कुशल होकर तीनों लोकों के प्राणियों को समीचीन धर्म का निरूपण करती है। विशद अर्थ की प्ररूपक उस वाणी का गुण समस्त भाषानों में परिणत होने का है। भक्तामर का यह कथन पूर्वोक्त स्वयंभूस्तोत्र से प्रभावित रहा प्रतीत होता है।
हरिवंशपुराण (५८-६) में इस अनुपम जिनवाणी को मधुर, स्निग्ध, गम्भीर, दिव्य, उदात्त एवं स्पष्ट अक्षरस्वरूप निर्दिष्ट किया गया है। जीवन्धरचम्पू (६-१६) में इस दिव्य भाषा को समस्त वचनभेदों की अकारक कहा गया है।
जिनेन्द्र का उपदेश अर्धमागधी भाषा में होता है। निशीथचूणि के अनुसार प्राधे मगध देश से सम्बद्ध भाषा को अर्धमागधी कहा जाता है, अथवा अठारह देशी भाषाओं में नियत भाषा अर्धमागधी कहलाती है। समवायांग की अभयदेव विरचित वृत्ति (३४, पृ. ५६) के अनुसार प्राकृत आदि छह भाषाभेदों में मागधी नाम की भाषा है। (यह सम्भवतः समस्त मगध देश की भाषा रही होगी)। र के स्थान में ल और श, ष एवं स इन तीनों के स्थान में एक मात्र स; इत्यादि व्याकरण नियमों से युक्त वह मागधी भाषा अपने समस्त नियमों का आश्रय न लेने से अर्धमागधी कही जाती है।
धर्म-प्रा. कन्दकन्द ने प्रवचनसार (१, ७-८) में चारित्र को धर्म कहा है जो समस्वरूप है। इस सम को उन्होंने मोह (दर्शनमोह) और क्षोभ (चारित्रमोह) से रहित प्रात्मपरिणति बतलाया है। आगे उन्होंने 'जो द्रव्य जिस रूप से परिणत होता है वह उस काल में तन्मय कहा जाता है' इस नियम के अनुसार धर्मस्वरूप से परिणत प्रात्मा को धर्म कहा है । यहीं पर आगे (१-११) उन्होंने यह भी कहा है कि इस प्रकार के धर्म से परिणत पात्मा यदि शुद्धोपयोग से सहित होता है तो वह निर्वाणसुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोग से संयुक्त होता है तो फिर स्वर्गसुख को प्राप्त करता है। उक्त कुन्दकुन्दाचार्य ने सागार और निरागार के भेद से संयमचरण को दो प्रकार का बतलाकर (चा. प्रा. २१) उनमें सागार संयमचरण को श्रावकधर्म और शुद्ध (निरागार) संयमचरण को यतिधर्म कहा है (चा. प्रा. २७) । उक्त प्रा. कुन्दकुन्द ने भावप्राभूत (८३-८५) में भी प्रवचनसार के समान पुन: मोह और क्षोभ से रहित प्रात्मा के परिणाम को धर्म कहा है। यहां इतना विशेष कहा गया है कि व्रत सहित पूजा मादि में जो प्रवृत्ति होती है उससे उपाजित पुण्य भोग का कारण होता है, कर्मक्षय का कारण वह नहीं होता। मोक्ष का कारण तो वह प्रात्मा है जो समस्त दोषों से रहित होता हुआ रागादि में निरत न होकर आत्मा में ही रत होता है। ऐसे प्रात्मा को ही यहां धर्म कहा गया है। इन्हीं प्रा. कुन्दकुन्द ने बोधप्राभृत (२४) में दया से विशुद्ध आचरण को भी धर्म कहा है। पूर्वोक्त प्रवचनसार (३, ४५-५४) में मा. कुन्दकुन्द ने श्रमणों को शुद्धोपयोग और शुभोपयोग इन दोनों से युक्त बतलाते हुए अरहन्तादि में जो भक्ति और प्रवचनाभियुक्तों में जो वात्सल्यभाव होता है उसे शुभोपयोगयुक्त चर्या बतलाया है। प्राचार्य आदि को पाते देखकर वन्दना व नमस्कार के साथ उठकर खड़े हो जाना, पीछे-पीछे चलना और श्रमणों के श्रम को पादमर्दनादि के द्वारा दूर करना; इस सबको यहां सराग चारित्र में निन्द्य नहीं कहा गया, अत: उसे उपादेय ही समझना चाहिए। इतना यहां विशेष कहा गया है कि वैयावृत्त्य में उद्यत होकर श्रमण यदि प्राणियों को पीड़ा पहुंचाता है तो वह श्रमण नहीं रहता, किन्तु गृहस्थ हो जाता है; क्योंकि वह श्रावकों का धर्म है । श्रमणों की अथवा गृहस्थों की इस प्रशस्तभूत चर्या को यहां पर (उत्कृष्ट)' कहा गया है, कारण यह कि उससे साक्षात् अथवा परम्परा से मोक्षसुख प्राप्त होता है । आगे उन्होंने यहां (३-६.) यह भी स्पष्ट कह दिया है कि अशुभोपयोग से रहित होकर जो शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोग से युक्त होते
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जेन लक्षणावलो
हैं वे लोक का कल्याण करते हैं । उनकी भक्ति करने वाला प्रशस्त (पुण्य) को प्राप्त करता है ।
इस प्रकार प्रा. कुन्दकुन्द के उपर्युक्त विवेचन को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे व्यवहार धर्म के सर्वथा विरुद्ध नहीं रहे । उनकी दृष्टि में जो शुद्धोपयोग की भूमिका पर श्रारूढ़ होने में असमर्थ हैं वे उसके ऊपर प्रारूढ़ होने को उत्कट अभिलाषा रखते हुए शुभोपयोगी होकर सम्यग्दर्शन के साथ उस व्यवहार धर्म का भी आचरण कर सकते हैं जो परम्परया मोक्षसुख का साधक है । इसी अभिप्राय को हृदयंगम करते हुए अमृतचन्द्र सूरि ने भी समयसारकलश ( ६ ) में प्राक्पदवी में -- शुद्धोपयोग से पूर्व की शुभोपयोगरूप भूमिका में - व्यवहारनय को भी सहारा देने वाला बतलाया है । यह अवश्य है कि शुद्धोपयोग की उपेक्षा कर जो शुभोपयोग में ही निमग्न रहना चाहता है वह परम्परा से भी मोक्षसुख को प्राप्त नहीं कर सकता ।
रत्नकरण्डक ( ३ ), घवला टीका (पु. ८, पृ. ६२ ) और तत्त्वानुशासन (५१) में जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को जो धर्म कहा गया है वह प्रवचनसार (१-७) का ही अनुसरण है । तत्वानुशासन (५१) में तो उक्त रत्नकरण्डक के श्लोक ३ के पूर्वार्द्ध को जैसा का तैसा आत्मसात् किया गया है ।
विमलसूरि ने अपने पउमचरिउ (२६-३४) में मुनिजन के द्वारा निर्दिष्ट जीवदया और कषायों के निग्रह को धर्म बतलाते हुए यह भी कहा है कि इन प्रवृत्तियों में रत हुआ प्राणी सघन कर्मबन्ध से छूटता है— मुक्ति प्राप्त कर लेता है ।
कालिक (१-१), सर्वार्थसिद्धि ( ६- १३ व ६-७ ) तत्त्वार्थवार्तिक ( ६, १३, ५) और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( ६-१३) श्रादि में धर्म का लक्षण श्रहिंसा कहा गया है । स. सि. ( ६-२ ) और त. वा. (६, २, ३) आदि में 'इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:' इस निरुक्ति के साथ यह कहा गया है कि जो जीवों को इष्ट स्थान (मोक्ष) को प्राप्त कराता है उसे धर्म कहते हैं। यहां त. वा. में 'इष्ट स्थान' को स्पष्ट करते हुए स. सि. से इतना विशेष कहा गया है कि जो आत्मा को चक्रवर्ती, देवेन्द्र और मुनीन्द्र श्रादि के पद को प्राप्त कराता है उसका नाम धर्म है । इस निरुक्ति में पूर्वोक्त रत्नक ( २ ) का अनुसरण किया गया प्रतीत होता है । प्रागे रत्नक. (३) में धर्म को सम्यग्दर्शनादि स्वरूप बतलाकर सम्यग्दर्शन के माहात्म्य को दिखलाते हुए उसे इन्द्रादि पदों का प्रापक भी कहा गया है ( ४१ ) । उक्त त. वा. (६, २, ३) का अनुसरण करते हुए चारित्रसार (पृ. २) में नरेन्द्र ( चक्रवर्ती) पदादि के साथ 'मुक्तिस्थान' को भी ग्रहण कर लिया है जो त. वा. में नहीं है । त. वा. ( ६, ७, १२) में अनुप्रेक्षा के का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जीवस्थान र गुणस्थान इनके स्वतत्व का णास्थानों में जो विचार किया जाता है वह धर्म का लक्षण है । इस प्रकार के लक्षणयुक्त धर्म को भगवान् अरहन्त ने मोक्ष का हेतु कहा है । इसका अनुसरण त. इलो. वा. ( ६-७ में भी किया गया है ।
)
और चा. सा. (पृ. ८8 )
दशवे. चूर्ण में (पृ. १५) धर्म के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो नारक, तिर्यंच, कुमानुष और कुदेव पर्यायों में पड़ते हुए जीव का उनसे उद्धार करता है वह धर्म कहलाता है । रत्नक. (२) में निर्दिष्ट धर्म के लक्षण से इसके अभिप्राय में बहुत कुछ समानता है । इस कथन की पुष्टि वहां (द. चूर्ण) किसी प्राचीन ग्रन्थगत एक श्लोक को उद्धृत करते हुए उसके द्वारा की गई है । ललितविस्तरा (पृ. ६०), स्थानांग की प्रभयदेव विरचित वृत्ति (१-४०, पृ. २१) और भाव. नियुक्ति की मलयगिरि विरचित वृत्ति (पृ. ५६२ ) में भी उक्त श्लोक को उद्धृत करते हुए उसी अभिप्राय को व्यक्त किया गया है। ललितविस्तरा में उसके पूर्व (पृ. १६) धर्म को सम्यग्दर्शनादि स्वरूप तथा दान, शील एवं तपोभावनारूप भी बतलाते हुए उसे श्रस्रव से सहित और उससे रहित भी निर्दिष्ट किया गया है।
इस प्रकार विविध ग्रन्थकारों ने अपनी रुचि के अनुसार प्रकृत धर्म को प्रायः अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थों
प्रसंग में धर्म के लक्षण गति- इन्द्रियादि मार्ग
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प्रस्तावना
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का अनुसरण करते हुए कहीं मंत्री आदि भावनाओं स्वरूप, कहीं अभ्युदय व निश्रेयस का साधक, कहीं उत्तमक्षमादिरूप, कहीं श्रुत चारित्रस्वरूप, कहीं दयाप्रधान और कहीं वस्तुस्वभावरूप कहा है ।
नय - यह जैनागम का एक दृढ़तम आधार रहा है । विविध ग्रन्थों में इसके स्वरूप का विचार अनेक प्रकार से किया गया है व उपयोगिता भी उसकी अत्यधिक प्रगट की गई है । यथा - स्वयम्भू स्तोत्र (५२) में श्रेयान् जिनकी स्तुति करते हुए प्रा. समन्तभद्र ने कहा है- प्रतिषेघसापेक्ष विधि प्रमाण है । उक्त विधि व प्रतिषेध में एक प्रधान व दूसरा गौण हुआ करता है । उनमें को मुख्य का नियमन करता है उसे न कहा जाता है । इसी स्तुति में श्रागे (६५) यह भी कहा गया है कि 'स्यात्' पद से चिह्नित 'वे नय यथार्थ होते हुए इस प्रकार प्रभीष्ट गुणवाले हैं जिस प्रकार कि रसायन से अनुविद्ध लोह धातु प्रयोक्ता को अभीष्ट गुणवाली हुआ करती है। इसके पूर्व प्रकृत स्तुति में ही (६१) उसकी उपयोगिता और अनुपयोगिता को प्रगट करते हुए यह भी सूचित कर दिया गया है कि ये द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय तभी स्व-पर के लिए उपकारक होते हैं जब वे परस्पर सापेक्ष हुआ करते हैं । इसके विपरीत - परस्पर की अपेक्षा के विना वे यथार्थता से दूर रहते हुए स्व पर के घातक ही हुआ करते हैं । उक्त समन्त भद्राचार्य ने अपनी प्राप्तमीमांसा ( १०६) में हेतुपरक नय के स्वरूप को दिखलाते हुए कहा है कि साध्य का होने से जो विना किसी प्रकार के विरोध के स्याद्वादस्वरूप नीति से विभक्त अर्थविशेष ( साध्य ) का व्यंजक होता है वह नय कहलाता है। लगभग इसी अभिप्राय को प्रगट करते हुए सर्वार्थसिद्धि (१-३३) में कहा गया है कि वस्तु अनेकान्तात्मक -- नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व अनेकत्व, भावरूप- अभावरूप और भिन्नत्व प्रभिन्नत्वप्रादि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनेक धर्मोस्वरूप है । उनमें जो प्रयोग विना किसी प्रकार के विरोध के हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता की प्राप्ति में कुशल होता है उसे नय कहा जाता है ।
वार्थाधिगम भाष्य (१-३५) में नय के प्रापक, कारक, साधक, निर्वर्तक, उपलम्भक और व्यंजक इन समानार्थक नामों का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो जीवादि पदार्थों को ले जाते हैं, प्राप्त कराते हैं, कारक हैं, सिद्ध कराते हैं, निर्वर्तित करते हैं, उपलब्ध कराते हैं और व्यक्त कराते हैं। उनका नाम नय है । लगभग इसी अभिप्राय को उत्तराध्ययन चूर्णि (पृ. ४७ ) में भी प्रगट किया गया है । प्रावश्यक नि. (१०६६) और दशवैकालिक नि. ( १४९) में नय के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि ग्रहण करने योग्य अथवा नहीं ग्रहण करने योग्य ज्ञात पदार्थ के विषय में प्रयत्न करना चाहिए, इस प्रकार का जो उपदेश है उसे नय कहा जाता है । न्यायावतार (२६) के अनुसार जो एक देश विशिष्ट पदार्थ को विषय करता है उसे नय माना गया है ।
भट्टा कलंकदेव ने सिद्धिविनिश्चय ( १०, १-२ ), लघीयस्त्रय ( ५२ ) और प्रमाणसंग्रह (53) ज्ञाता के अभिप्रायको नय कहा है । इसके पूर्व लघीयस्त्रय (३०) में वे प्रकारान्तर से यह भी कहते हैं कि प्रमाण के विषयभूत (ज्ञेय) वस्तु भेदाभेदात्मक - सामान्य विशेषस्वरूप है उसके विषय में पुरुषों के जो अपेक्षा और उसके विना सामान्य व विशेष विषयक अभिप्राय हुआ करते हैं उन्हें यथाक्रम से नय भौर दुर्नय कहा जाता है। इस कारिका की स्वो वृत्ति में भी उन्होंने ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा है । इसी अभिप्राय को उन्होंने आगे भी इस लवीयस्त्रय की स्वो वृत्ति (७१) में पुन: प्रगट किया है । उक्त लद्यीयस्त्रय की ६२वीं कारिका में उन्होंने श्रुत के दो उपयोग ( व्यापार ) बतलाये हैं— एक स्याद्वाद और दूसरा नय । इनमें स्याद्वाद को — श्रनेकान्तात्मक पदार्थ के कथन को - सकलादेश – सम्पूर्ण पदार्थ का कथन करने वाला - श्रौर नय को विकल संकथा - वस्तु के एक देश का कथन करने वाला — कहा है । प्रकृत लघीयस्त्रय में आगे (६६) उन्होंने कहा है कि श्रुत के भेदभूत जो नय हैं वे नैगम-संग्रहादि के भेद से सात हैं । उनका मूल आधार द्रव्य व पर्याय है । इसका अभिप्राय यह है कि मूल में नय के दो भेद हैं- एक द्रव्यार्थिक नय और दूसरा पर्यायार्थिक नय । पूर्वनिर्दिष्ट नगमादि सात में पूर्व के तीन द्रव्यार्थिक और अन्तिम चार पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत हैं । यह पूर्वोक्त
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ज्ञाता के अभिप्रायस्वरूप नय के लक्षण का स्पष्टीकरण है। इन्हीं प्रकलंकदेव ने अपने तत्त्वार्थवातिक (१,६,३) में नय के लक्षण में कहा है कि जो अवयव को विषय करता है उसका नाम नय है। यह लधीयस्त्रय की ६२वीं कारिका में निर्दिष्ट 'विकलसंकथा' का ही स्पष्टीकरण है। यहीं पर प्रागे (१,६, ६) उन्होंने सम्यक एकान्त को नय का लक्षण कहा है। हेतूविशेष के सामर्थ्य की अपेक्षा रखकर जो प्रमाण के द्वारा प्ररूपित पदार्थ के एक देश का कथन किया करता है उसे सम्यक् एकान्त कहा जाता है। यहीं पर मागे (१,३३, १) प्रकारान्तर से पुन: यह कहा गया है कि जो प्रमाण से प्रकाशित अस्तित्वनास्तित्वादिरूप अनन्तधर्मात्मक जीवादि पदार्थों के विशेषों (पर्यायों) का निरूपण करने वाला है उसे नय कहा जाता है।
उत्तरा. चूणि (पृ. ६) और प्राव. नियुक्ति की हरिभद्र विरचित वृत्ति (७६) में वस्तु की पर्यायों के अधिगम को नय का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। दोनों में प्रायः शब्दशः समानता है। अनुयो. की हरिभद्रविरचित वृत्ति (पृ. २७ व १६) में अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक अंश के ग्रहण करने को नय कहा गया है । इसी वृत्ति में पागे (पृ, १०५) प्रकारान्तर से यह भी निर्दिष्ट किया गया है कि जो अनेक धर्मात्मक वस्तु को विवक्षित किसी एक धर्म से ले जाता है उसे नय कहते हैं।
घवला (पु. १, पृ. ८३ व पु. ६, पृ. १६४) में कहा गया है कि प्रमाण से परिगृहीत वस्तु के एक देश में जो वस्तु का निश्चय होता है उसे नय कहा जाता है। प्रागे इस धवला (पु. ६, पृ. १६२ व १६३) में लघीयस्त्रय की ५२वीं कारिका के अनुसार ज्ञाता के अभिप्राय को नय का लक्षण बतलाते हुए उसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि प्रमाण से परिगृहीत पदार्थ के एक देश में जो वस्तु का अध्यवसाय होता है, इसे नय जानना चाहिए । लघीय. की प्रकृत कारिकागत 'युक्तितोऽर्थपरिग्रहः' इसे हृदयंगम कर कहा गया है कि युक्ति का अर्थ प्रमाण है, इस प्रमाण से जो अर्थ का परिग्रह होता है-द्रव्य और पर्याय में से विवक्षा के अनुसार जो किसी एक का वस्तु के रूप में ग्रहण होता है उसे नय कहते हैं । यहीं पर आगे (पु. ६, पृ. १६५-६६) पूज्यपाद भट्टारक द्वारा निदिष्ट लक्षण को उद्धृत करते हुए यह कहा गया है कि प्रमाण से प्रकाशित अनेकधर्मात्मक पदार्थों के विशेषों (पर्यायों) की जो प्ररूपणा किया करता है उसे नय कहते हैं। इसे वीरसेनाचार्य ने धवला में जहां पज्यपाद के अभिप्रायानसार सामान्य नय का लक्षण बतलाया है वहीं उन्होंने उसे जयधवला (१,पृ. २१०) में तत्त्वार्थभ वा. १, ३३,१) वाक्यनय का लक्षण कहा है। त. वा. में उसकी उत्थानिका में उसे सामान्य नय का ही लक्षण निर्दिष्ट किया गया है-तत्र सामान्यनयलक्षण मुच्यते । इसी पू. ९ में प्रागे (पृ. १६६) प्रभाचन्द्र भट्टारक के द्वारा निर्दिष्ट 'प्रमाणव्यपाश्रय' इत्यादि वाक्य को उद्धत करते हुए कहा गया है कि प्रमाण के प्राश्रय से होने वाले परिणामविकल्पों के अभिप्रायविशेषों के वशीभूत पदार्थगत विशेषों के निरूपण में जो प्रयोग अथवा प्रयोक्ता समर्थ होता है उसे नय समझना चाहिए। प्रागे (पृ. १६७) प्रा. पूज्यपाद विरचित सारसंग्रहगत 'अनन्तपर्यायात्मकस्य' इत्यादि वाक्य को उद्धृत करते हुए तदनुसार यह कहा गया है कि अनन्तपर्यायस्वरूप बस्तु की उन पर्यायों में से किसी एक पर्याय को ग्रहण करते समय उत्तम हेतु की अपेक्षा करके जो निर्दोष प्रयोग किया जाता है उसका नाम नय है। जयघवला (१, पृ. २१०) में पूर्वोक्त धवला (पु.६, पृ. १६६-६७) के ही अभिप्राय को व्वक्त करते हुए जहां धवल सारसंग्रहोक्त नय के उस लक्षण को विशेषरूप में वाक्यनय का लक्षण कहा गया है। इसी प्रसार प्रभाचन्द्र के द्वारा निर्दिष्ट पूर्वोक्त नय के लक्षण को धवला में जहां सामान्य से नय का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है वहां जयधवला में उसे प्रभाचन्द्रीय वाक्यनय का लक्षण कहा गया है।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (१,६, ४) और नयविवरण (४) में स्वार्थ के-प्रमाण के विषयभूत पदार्थ के-एक देश के निर्णय को नय का लक्षण प्रगट किया गया है। यहां मागे (१, ३३, २) नय के लक्षण में जो यह कहा गया है कि स्याद्वाद से विभक्त अर्थविशेष का जो ब्यंजक होता है वह नय कहलाता है, यह शब्दशः प्राप्तमीमांसा १०६ का अनुसरण है। यहां प्रागे (१, ३३, ६ व नवि. १८) यह
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प्रस्तावना
निर्देश किया गया है कि श्रुत के विषयमत अर्थ के एक देश को जो ग्रहण किया करता है उसका नाम नय है । सम्भवत: इसी का अनुसरण करते हुए प्रमाणनयतत्त्वालोक (७-१) में यह कहा गया है कि जो श्रुत नामक प्रमाण के विषयभूत पदार्थ के अन्य अंशों की ओर से उदासीन होकर एक अंश को ले जाता है उस प्रतिपत्ता के अभिप्रायविशेष को नय कहते हैं। यह पूर्वोक्त त. श्लोकवार्तिक (१,३३, ६) के उस संक्षिप्त लक्षण का ही स्पष्टीकरण दिखता है।
नयचक्र (२) प्रौर द्रव्यस्वभावप्रकाशनयचक्र (१७४) में कहा गया है कि वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला जो श्रुत का भेदभुत ज्ञानियों का विकल्प (अभिप्राय) है उसे नय कहा गया है। इसका अभिप्राय पूर्वोक्त त. श्लो. वा. (१, ३३, ६) में निर्दिष्ट लक्षण से भिन्न नहीं है। लगभग यही अभिप्राय पालापपद्धति (पृ. १४५) में निर्दिष्ट नय के लक्षण में देखा जाता है। विकल्परूप में यहां इतना विशेष कहा गया है कि अथवा जो वस्तु को नाना स्वभावों से पृथक् करके एक किसी विवक्षित स्वभाव में ले जाता है-प्राप्त कराता है उसे नय जानना चाहिए।
सूर्यप्रज्ञप्ति की मलयगिरि विरचित वत्ति (१-७, पृ. ३६) में कहा गया गया है कि वक्ता का जो विशेष अभिप्राय वस्तु के प्रतिनियत एक अंश को विषय करता है उसका नाम नय है। इसकी पुष्टि में वहां समन्तभद्रादि के नाम निर्देशपूर्वक 'नयो ज्ञातुरभिप्रायः' (लघीय. ५२) इस वाक्य का उद्धृत किया गया है।
इस प्रकार विविध ग्रन्थकारों ने अपनी रुचि के अनुसार पूर्ववर्ती ग्रन्थों का अनुसरण कर प्रकृत नय के लक्षण को व्यक्त किया है। निष्कर्ष रूप में कुछ लक्षण इस प्रकार हैं१ समन्तभद-विधि-प्रतिषेध में मुख्य का नियामक ।
, स्याद्वाद से विभक्त अर्थ के विशेष का व्यंजक । २. पूज्यपाद- अनेकान्तात्मक वस्तु में विना किसी विरोध के हेतु की प्रमुखता से साध्यविशेष
की यथार्थता प्रगट करने वाला प्रयोग । अनन्तपर्यायात्मक वस्तु की अन्यतम पर्यायविषयक अधिगम के समय निर्दोष हेतु अपेक्षा निरवद्य प्रयोग (सारसंग्रह)।
प्रमाणप्रकाशित अर्थ के विशेष (नित्यानित्यत्वादि) का प्ररूपक । ३ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार-प्रापक, कारक, साधक, निर्वर्तक, निर्भासक, उपलम्भक अथवा
व्यंजक । ४ नियुक्तिकार-ग्राह्याग्राह्य अर्थ के विषय में यत्नविषयक उपदेश ।। ५ उत्तरा. चाणकार-वस्तु की पर्यायों में सम्भव पर्याय की अपेक्षा वस्तु का अधिगमन । ६ सिद्धसेन दिवाकर-एकदेशविशिष्ट अर्थ को विषय करने वाला। ७ अकलंकदेव-भेदाभेदात्मक ज्ञेय के विषय में भेदाभेदविषयक सापेक्ष अभिप्राय ।
ज्ञाता का अभिप्राय। अवयव को विषय करने वाला। सम्यक् एकान्त ।
प्रमाणप्ररूपित अर्थ की पर्यायों का प्ररूपक । ८ हरिभद्र सूरि-अनन्त पर्यायात्मक वस्तु के एक अंश का परिच्छेद ।
, अनेक धर्मात्मक ज्ञेय के अध्यवसायान्तर का हेतू । ९ वीरसेन-प्रमाणपरिगृहीत अर्थ के एक देश में वस्तु का अध्यवसाय । १० विद्यानन्द-स्वार्थ के एकदेश का निर्णय ।
, श्रुतार्थांश का ज्ञापक । ११ स्वामिकुमार-लोकव्यवहार का प्रसाधक श्रुतज्ञान का विकल्प ।
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जैन लक्षणावली
१२ प्रभाचन्द - प्रतिपक्ष का निराकरण न करके वस्त्वंश का ग्राहक ज्ञाता का अभिप्राय | १३ मलयगिरि - विशेषाकांक्ष सामान्य का ग्राहक अथवा सामान्यापेक्ष विशेष का ग्राहक । ( लघीयस्त्रयगत कारिका ३० का फलितार्थ ) ।
इन नयलक्षणों में उत्तरोत्तर कुछ विकास हुआ प्रतीत होता है । अन्य ग्रन्थकारों के द्वारा निर्दिष्ट लक्षण इन्हीं लक्षणों में से किसी के आधार पर होना चाहिए ।"
नाग्न्यपरीषहजय - सर्वार्थसिद्धि ( ६-६ ) भोर तत्त्वार्थवार्तिक (६, ६, १०) आदि में प्रार्थना की सम्भावना से रहित; याचना ( दीनता), रक्षण व हिंसा आदि दोषों से विहीन तथा परिग्रह से रहित होने के कारण निर्वाणपद को प्राप्ति के प्रति श्रद्वितीय साधनभूत ऐसे बाधा से रहित बालक की नग्नता के समान स्वाभाविक नग्नवेष को धारण करने वाला साधु मानसिक विकार से युक्त हो जाने के कारण स्त्रियों के रूप को अपवित्र व घृणास्पद देखता हुआ दिन-रात अखण्डित ब्रह्मचर्य पर अधिष्ठित रहकर निर्दोष अचेल व्रत को जो धारण करता है उसे उसका नाग्न्यपरीषहजय कहा गया है । उत्तराध्ययन (२-१३ ) में इसके स्वरूप का विचार करते हुए कहा गया है कि तत्त्वज्ञानी साधु कभी अचेल (निर्वस्त्र ) और कभी सचेल ( सबस्त्र ) होता है । पर निर्वस्त्र होने पर जो अनेक प्रकार की शैत्य श्रादि की उसे बाधा होती है उससे वह खेद को प्राप्त नहीं होता व उसे धर्म के मानता है । यदि वह सवस्त्र है, पर वस्त्र अनुकूल नहीं है अथवा वह जीर्ण हो गया है याचना करते हुए वह दीनता को प्रगट नहीं करता । इस प्रकार से वह उपर्युक्त दोनों ही खेदखिन्न नहीं होता । यह उसके नाग्न्यपरीषह या प्रचलपरीषहजय का लक्षण है । प्राव. हरिभद्र विरचित वृत्ति (६१८, पृ. ४०३) में परीषहों से सम्बद्ध श्लोकों को किसी पूर्वकालीन ग्रन्थ से उद्धृत कर प्रकृत परीषह के विषय में कहा गया है कि लाभ-लाभ की विचित्रता को जानता हुआ
लिए हितकर
तो उसके लिए
अवस्थानों में नियुक्ति की
१४
इस विचार से
उत्तम या निकृष्ट वस्त्र की
कहा गया है कि दिगम्बर या भीत श्रादि के
साधु नग्नता से उपद्रवित होकर 'मेरा वस्त्र अशुभ या नहीं इच्छा न करे । त. भा. की सिद्धसेन विरचित वृत्ति (६-९) समान उपकरणों से रहित होना ही नाग्न्यपरीषद नहीं है कहा गया है कि प्रवचन में उसका जो विधान कहा गया है
।
तो फिर वह क्या है, इसके उत्तर में वहां तदनुसार नग्नता को जानना चाहिए ।
इस नग्नता का पर्यायवाची शब्द अचेलकता है । प्रकृत लक्षणावली के प्रथम भाग की प्रस्तावना में (पृ. ७०-७१ ) आचारांग श्रादि के श्राश्रय से अचेलकता के विषय में विशेष विचार किया जा चुका है । विशेष जिज्ञासुनों को उसे वहां पर देखना चाहिए ।
निगोदजीव - घवला पु. ३ (पृ. ३५७ ) में निगोद जीवों के स्वरूप को दिखलाते हुए कहा गया है कि जिन अनन्तानन्त जीवों का साधारणरूप से एक ही शरीर होता है उन्हें निगोदजीव कहा जाता । इसी धवला में आगे (पु. ७, पृ. ५०६ ) कहा गया है कि जो जीव निगोदों में अथवा निगोदभाव से जीते हैं वे निगोदजीव कहलाते हैं । यहीं पर आगे ( पु १४, पृ. ८५ और पृ. ४६२ ) पुलवियों को निगोद कहा गया है । इसी पुस्तक में पृ. ८६ पर पुलवियों के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है। कि स्कन्ध, अण्डर, प्रावास, पुलविया धौर निगोदशरीर ये पांच होते हैं। यहां पृथक्-पृथक् पांचों के स्वरूप का भी निर्देश किया है। पूर्व में यहां (घवला पु. ३, पु. ३५७) में निगोद जीवों के स्वरूप को दिखलाते हुए उन प्रनन्तानन्त जीवों का एक ही साधारण शरीर निर्दिष्ट किया गया है । ऐसे साधारण शरीर वाले जीव नियम से वनस्पतिकायके अन्तर्गत हैं ( षट्खं. ५, ६, १२० पु. १४, पृ. २२५) । इन साधारण जीवों के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि साधारण जीव वे हैं जिनका ग्राहार और मान-पानग्रहण साधारण है, अर्थात् एक जीव के द्वारा प्रहार ग्रहण करने पर सभी अनन्तानन्त जीवों का वह साधारण श्राहार होता है । यही प्रक्रिया उनके श्वासोच्छ्वास की भी जानना चाहिए ( षट्सं. ५, ६, १२२ – पु. १४, पृ. २२६) । जहां एक का मरण होता है वहां एक साथ अनन्त साघारण जीवों का मरण होता है, इसी प्रकार जहां एक उत्पन्न होता है वे वहां सभी एक साथ उत्पन्न होते
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प्रस्तावना
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हैं। धवलाकार ने साधारण जीवों का लक्षण एक शरीर में निवास करने वाले निर्दिष्ट किया है (पू.१४, प्र. २२७) । एक ही शरीर में अवस्थित ये साधारण बादर व सूक्ष्म निगोदजीव एकमेक के साथ परस्पर में बद्ध और स्पृष्ट होते हैं। उदाहरण यहां मूली व थूहर प्रादि का दिया गया है। इन निगोद जीवों में ऐसे भी अनन्त (नित्यनिगोद) जीव हैं जिन्होंने संक्लेश की प्रचुरता के कारण कभी त्रस पर्याय को नहीं प्राप्त किया है (षट्खं. ५, ६, १२६.२७-पु. १४, पृ. २२६-३४ द्रष्टव्य हैं)।
जीवाजीवाभिगम की मलयगिरि विरचित वृत्ति (५, २, २३८, पृ. ४६३) में जीवों के प्राश्रयविशेषों को निगोद कहा गया है।
गो. जीवकाण्ड की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका (१६१) और कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका (१३१) में समानरूप से 'नियतां गां भमि क्षेत्र निवासं अनन्तानन्तजीवानां ददातीति निगोदम्' इस प्रकार की निरुक्ति के साथ यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि जो अनन्तानन्त जीवों को नियमित निवास देता है उसका नाम निगोद है।
ये निगोदजीव दो प्रकार के माने गये हैं-नित्यनिगोदजीव और अनित्यनिगोदजीव । तत्त्वार्थवार्तिक २, ३२, २७) में योनिभेदों की प्ररूपणा के प्रसंग में इन दो प्रकार के निगोदजीवों के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो जीव तीनों ही कालों में त्रस पर्याय प्राप्त करने के योग्य नहीं हैं उन्हें नित्य निगोत और जो त्रस पर्याय को प्राप्त कर च के हैं तथा आगे भी उसे प्राप्त करने वाले हैं उन्हें अनित्यनिगोत कहा जाता है। यहां 'निगोत' शब्द का उपयोग 'निगोद' के समानार्थक रूप में हमा है। इसे प्राकृत 'णिगोद' का संस्कृत में रूपान्तर हुआ समझना चाहिये। इस निगोत शब्द का उपयोग अनगारधर्मामृत की स्वो. टीका (४.२२) में उद्धत एक श्लोक में भी हुआ है।
धवला (पु. १४, पृ. २३६) में 'अनित्यनिगोत' के स्थान में 'चतुर्गतिनिगोद' शब्द का उपयोग हुना है। वहां इनके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि चतुर्गतिनिगोद जीव वे हैं जो देव, नारक, तियंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुन: निगोदों में प्रविष्ट होकर रहते हैं तथा जो जीव सदा निगोदों में ही रहते हैं उन्हें नित्यनिगोदजीव जानना चाहिए। यही अभिप्राय अनगारधर्मामृत की स्वो. टीका (४-२२) में भी प्रगट किया गया है।
पूर्वोक्त षट्खण्डागम के जिस गाथासूत्र (५, ६, १२७) के अनुसार ऐसे अनन्त जीवों का उल्लेख किया गया है जिन्होंने कभी त्रस पर्याय को प्राप्त नहीं किया, उस गाथासूत्र को गो. जीवकाण्ड में (१९१) उसी रूप में आत्मसात् किया गया है। उसकी जी. प्र. टीका में यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि प्रकृत गाथा में उपयुक्त 'प्रचुर' शब्द एकदेशाभाव से विशिष्ट समस्त अर्थ का वाचक है। अतः उसके आश्रय से यह सूचित किया गया है कि पाठ समय अधिक छह मासों के भीतर चतुर्गतिरूप जीवराशि से निकल कर छह सौ आठ जीवों के मुक्त हो जाने पर उतने (६०८) ही जीव नित्यनिगोदभव को छोड़कर चतुर्गतिभव को प्राप्त होते हैं । उपर्युक्त आठ समय अधिक छह मासों में छह सौ पाठ जीवों के मुक्त (क्षपकश्रेणिप्रायोग्य) होने का उल्लेख धवला (पु. ३, पृ. ६२-६३) में भी किया गया है ।
निर्ग्रन्थ-नाग्न्यपरीषहजय के प्रसंग में निर्ग्रन्थता अपेक्षित है, यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। प्रकृत में निर्ग्रन्थ की विशेषता को प्रगट करते हुए सूत्रकृतांग (१, १६, ४) में कहा गया है कि जो एक है, एकवित्-एक प्रात्मा को ही जानता है, प्रबुद्ध है, कर्मागम के स्रोतों (प्रास्रवों) को नष्ट कर चुका है, अतिशय संयत है, समितियों का दृढ़ता से पालन करता है, सुसामायिक-शत्रु-मित्रादि के विषय में समभाव रखता है, अात्मवाद को प्राप्त है, विज्ञ है, द्रव्य व भावरूप दोनों स्रोतों को नष्ट कर चुका है, पूजा-सत्कार की अपेक्षा नहीं करता है, धर्मार्थी है, धर्म का वेत्ता है और नियागप्रतिपन्न है-मोक्षमार्ग को प्राप्त है; उसे निर्ग्रन्थ कहा जाता है। ऐसा निर्ग्रन्थ इन्द्रियों व कषायों का दमन करके शरीर से नि:स्पृह होता हुआ समित-समतास्वरूप प्राचरण करता है। इस प्रकार यहां बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह से रहित साधू को सामान्य से प्रशंसा की गई है ।
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तत्त्वार्थसूत्र (दि. ९-४६, श्वे. ६-४८ ) में इन पांच निर्ग्रन्थों का निर्देश किया गया है - पुलाक बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । इनमें निर्ग्रन्थों के स्वरूप को दिखलाते हुए उसकी व्याख्या स्वरूप सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक व त. श्लोकवार्तिक तथा हरिवंशपुराण (६४-६३ ) श्रादि में कहा गया है कि जिनके कर्मों का उदय पानी में लकड़ी से खींची गई रेखा के समान अव्यक्त है तथा जिनके अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान व केवलदर्शन प्रगट होने वाला है वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं । त. भाष्य भी लगभग इसी प्रकार के अभिप्राय को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि जो वीतराग होकर छद्मस्थ हैं, अर्थात् दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म से रहित हो जाने पर भी जिनके अभी केवलज्ञान व केवलदर्शन प्रगट नहीं हुआ है, तथा जो पथ को प्राप्त हो चुके हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ कहा जाता है । यहां 'ई' का अर्थ योग और 'पथ' का अर्थ संयम करके उसका यह अभिप्राय सूचित किया गया है कि वे योग व संयम को प्राप्त हो चुके हैं । आराधनासार (३३) के अनुसार शरीर बाह्य ग्रन्थ और इन्द्रियविषयों की अभिलाषा अभ्यन्तर ग्रन्थ है, इन दोनों का परित्याग हो जाने पर क्षपक परमार्थ से निर्ग्रन्थ होता | तत्त्वसार (१०) के अनुसार जिसने मन, वचन व काय से बाह्य और श्रभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ दिया है तथा जिनलिंग का आश्रय ले लिया है उस श्रमण को निर्ग्रन्थ कहा जाता है ।
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आवश्यक सूत्र की हरिभद्रविरचित वृत्ति (प्र. ४, १. ७६० ) और दशवेकालिक नि. की भी हरिभद्रविरचित वृत्ति ( १५८) में भी कहा गया है कि जो बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से रहित हो चुके हैं वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं । लगभग यही अभिप्राय त भाष्य की सिद्धसेन विरचित वृत्ति (६-४८ ) में भी व्यक्त किया गया है | वहां ग्रन्थ शब्द से भाठ प्रकार के कर्म के साथ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और दुष्प्रणिधान युक्त योग को ग्रहण किया गया है । यहीं पर आगे (९-४६) उपशान्तमोह और क्षीणमोह संयतों को निर्ग्रन्थ कहा गया है। प्रवचनसारोद्धार (७३१) में निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीव इन पांच को श्रमण कहा गया है। इनमें निर्ग्रन्थ मुनि उन्हें कहा गया है जो जिनशासन में ही सम्भव हैं ।
निर्विचिकित्स -- निर्विचिकित्सता और निर्विचिकित्सा ये दोनों शब्द भी प्रकृत निर्विचिकित्स के समानार्थक हैं । सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में तीसरा अंग निर्विचिकित्सा हैं । इसकी प्रतिपक्षभूत विचिकित्सा यह उस सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाला उसका एक प्रतिचार है । समयप्राभृत (२४९) में निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि उसे कहा गया है जो सभी धर्मों में – सब ही वस्तु स्वभावों के विषय में - घृणा नहीं करता है । इस कारण उसके जुगुप्सा के श्राश्रय से होने वाला कर्मबन्ध नहीं होता । रत्नकरण्डक (१३) में निर्विचिकित्सा अंग के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि शरीर यद्यपि स्वभावतः अपवित्र है, फिर भी उसे (मनुष्य शरीर को ) रत्नत्रय की प्राप्ति का कारण होने से पवित्र भी माना गया है । अतएव उससे घृणा न करके गुणों के प्राश्रय से जो प्रीति हुआ करती है, इसका नाम निर्विचिकित्सा अंग है, जो सम्यग्दर्शन का पोषक है । तत्त्वार्थवार्तिक (६, २४, १) और चरित्रासार (पृ. ३) में इस अंग के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि शरीर आदि के अशुचि स्वभाव को जानकर 'वह शुचि है' इस प्रकार के मिथ्या संकल्प को दूर करना, इसका नाम निर्विचिकित्सता है । अथवा, जिनागम में यदि यह घोर कष्ट देने वाला विधान न होता तो सब संगत था, इस प्रकार का विचार न आने देना, इसे निर्विचिकित्सता का लक्षण जानना चाहिये । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय (२५) में प्रकृत निर्विचिकित्सता के विपरीत विचिकित्सा का निषेध करते हुए कहा गया है कि क्षुधा, तृषा, शीत और उष्ण आदि जो अनेक प्रकार के भाव हैं उनमें तथा विष्टा आदि द्रव्यों के विषय में घृणा नहीं करना चाहिये । इसका अभिप्राय यही हुआ कि क्षुधा तृषादि के होने पर संक्लेश को प्राप्त न होना तथा मल-मूत्रादि घृणित समझे जाने वाले पदार्थों से घृणा न करना, यह उक्त निर्विचिकित्सता का लक्षण है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा (४१७) व अमितगतिश्रावकाचार ( ३-७५) में दस प्रकार के धर्म के धारक तपस्वियों के स्वभावतः दुर्गन्धित व अपवित्र शरीर को देखकर उनके प्रति घृणा न करना, इसे निर्विचिकित्सा गुण — सम्यग्दर्शन का अंग - कहा गया है ।
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प्रस्तावना
पश्चात्कालीन ग्रन्थकारों ने प्राय: पूर्वोक्त रत्नकरण्डक, पु. सिद्धयुपाय, कातिकेयानुप्रेक्षा अथवा अमितगतिश्रा. का अनसरण किया है। समयप्राभत में जो कुछ इस प्रसंग में कहा गया है वह आध्यात्मिक दृष्टि की प्रधानता से कहा गया है। त. वार्तिक में विकल्प रूप से उक्त निविचिकित्सता के लक्षण में जो यह कहा गया है कि इस अंग से युक्त सम्यग्दष्टि यह विचार नहीं करता कि 'जिन शासन में यदि यह कष्टप्रद विधान न होता तो सब युक्तिसंगत था' उसका अनुसरण चारित्रसार (पृ.३), बृहद्रव्यसंग्रह टीका (४१) कार्तिकेयानप्रेक्षा की टीका (३२६) में भी लगभग उन्हीं शब्दों में किया गया है, । अन्य कौन से दि. ग्रन्थों में विकल्प रूप से इस लक्षण का अनुसरण किया गया है, यह अन्वेषणीय है।
दशवकालिक नि. (१८२) की हरिभद्र विरचित वृत्ति में तथा धर्मबिन्दु (२-११)की मूनिचन्द्र विरचित वत्ति में समान शब्दों में विचिकित्सा' का अर्थ मतिभ्रम करते हुए यह निर्देश किया गया है कि जिसका वह मतिभ्रम निकल चुका है उसको निविचिकित्स कहा जाता है । दशवै. नि. के वृत्तिकार उक्त हरिभद्र सरिने श्रावकप्रज्ञप्ति (८७) की टीका में भी 'विचिकित्सा' का अर्थ मतिभ्रम किया है व उसको स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि युक्ति और आगम से संगत भी अर्थ के विषय में फल के प्रति यह सन्देह होता है कि बालुकणों के भक्षण के समान इन कनकावली आदि तपों के क्लेश जनक परिश्रम का मुझे कुछ फल प्राप्त होगा या नहीं, क्योंकि कृषकों की क्रियायें सफल और निष्फल दोनों ही प्रकार की देखी जाती हैं। इस प्रकार के सन्देह का नाम ही विचिकित्सा है। आगे इसका शंका से भेद दिखलाते हुए कहा गया है कि शंका जहां समस्त व असमस्त पदार्थों को विषय करने के कारण द्रव्य और गुण को बिषय करती है वहां यह विचिकित्सा केवल क्रिया को विषय करती है। वस्तुतस्तु मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से होने वाले प्रायः ये सभी जीवपरिणामविशेष सम्यक्त्व के अतिचार कहे जाते हैं, अतः सूक्ष्म विचार नहीं करना चाहिये। पक्षान्तर में यहां यह भी कहा गया है -अथवा विचिकित्सा से विद्वज्जुगुप्सा को ग्रहण करना चाहिए । 'विद्वान्' से यहाँ उन साधुओं को ग्रहण किया गया है जो संसार के स्वभाव को जानकर समस्त परिग्रह से विरत हो चुके हैं, ऐसे विद्वानों की जो जुगप्सा (निन्दा) की जाती है कि उनका शरीर स्नान न करने के कारण पसीना से मलिन व दुर्गन्धित रहता है, यदि वे प्रासुक जल से शरीर को धो लिया करें तो क्या दोष होगा ? सूत्रकृतांग की शीलांक विरचित वत्ति (सू. २, ७, ६६) में भी अतिशय संक्षेप में विचिकित्सा के इसी अर्थ को निर्दिष्ट किया गया है। अन्यत्र भी यहां (सू. १०-३ की वृत्ति) प्रस्तुत विचिकित्सा को चित्तविप्लुति अथवा विद्वज्जूगप्सा मात्र कहा गया है। योगशास्त्र के स्वो. विवरण (२-१७) में भी कुछ ही शब्दपरिवर्तन के साथ इसी अभिप्राय को व्यक्त किया गया है।
इस प्रकार समयप्राभत में विचिकित्सा के अभाव स्वरूप निर्विचिकित्सा के लक्षण में जो यह कहा गया है कि निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि वस्तु के अनिष्ट प्रतीत होने वाले किसी भी धर्म से घृणा नहीं करता वह अध्यात्म को लक्ष्य कर निश्चय नयकी प्रधानता से कहा गया है। त. वार्तिक आदि में शरीर आदि की स्वाभाविक अशुचिता को देखकर उसके विषय में शुचिता की मिथ्या कल्पना के परित्याग की प्रेरणा की गई है। आगे चलकर इस व्यापक लक्षण को कुछ संकुचित कर कार्तिकेयानप्रेक्षा और अमितगतिश्रावकाचार में दस प्रकार के धर्म के धारक तपस्वियों के संस्कार विहीन अशचि शरीर की निन्दा करने का निषेध किया गया है। बहद्रव्यसंग्रह की टीका (४१) में प्रकत निविचिकित्सा के दो भेदों का उल्लेख करते हए रत्नत्रय के धारक भव्य जीवों के स्नानादि से रहित दुर्गन्धयुक्त शरीर से घणान करने को द्रव्य निविचिकित्सा गण तथा 'जैन समय (आगम) में सब समीचीन है, किन्तु वहां वस्त्र के पहिरने व स्नान आदि का जो निषेध किया गया है वही दूषण है' इत्यादि मलिन विचार का विवेक बुद्धि के बल से परित्याग करना, इसे भावनिविचिकित्सा गुण कहा गया है।
त. वा. आदिमें द्वितीय विकल्प के रूप में जैन शासनविषयक अस्थिरचित्तता का जो निषेध किया गया है लगभग वैसा ही अभिप्राय अनेक श्वे. ग्रन्थों-जैसे दशवकालिकवत्ति, श्रावकप्रज्ञप्तिकी टीका और सूत्रकृतांग की शीलांक वत्ति आदि में भी व्यक्त किया गया है (देखिये 'विचिकित्सा' शब्द) । विशेषता वहां यह है कि
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दशवकालिक वृत्ति आदि में मतिभ्रम या चित्तविप्लुतिको प्रथम विकल्प के रूप में निर्दिष्ट किया गया है और विद्वज्जुगुप्सा या साधुजुगुप्सा को द्वितीय विकल्प के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। जैसा कि पूर्व में निर्देश किया जा चुका है प्रा. अमितगति और भट्टारक शुभचन्द्र (कार्ति. टीकाकार) ने भी निविचिकित्सा के प्रसंग में साधूजुगप्सा का निषेध किया है। हरिभद्र सूरि ने तो विचिकित्साविषयक इन दोनों अभिप्रायों की पुष्टि में पृथक्-पृथक् दो कथानक भी दिये हैं (श्रा. प्र. टीका ६३) ।
परिभोग-श्रावक के १२ व्रतों में एक भोगोपभोगपरिमाण या उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत भी है। तत्त्वार्थसूत्र (दि. ७-२१, श्वे. ७-१६) में इस व्रतका उल्लेख जहां उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत के नाम से किया गया है (श्वे. त. सू में 'उपभोग-परिभोगव्रत' के नाम से ही उसका निदेश किया गया है) वहां रत्नकरण्डक (८२) में उसका निर्देश भोगोपभोगपरिमाण व्रत के नाम से किया गया है। तदनुसार भोग, उपभोग व परिभोग के लक्षण में भी भेद रहा है। यथा-त.सू. की व्याख्या स्वरूप सर्वार्थसिद्धि में प्रशन, पान, और गन्ध-माल्यादि को उपभोग तथा आच्छादन, प्रावरण, अलंकार, शयन, प्रासन, गृह और वाहन आदि को परिभोग कहा गया है। त. भाष्य में भी लगभग इसी अभिप्राय को प्रकट करते हए अशन, पान खाद्य, स्वाद्य और गन्धमाल्य आदि के साथ आच्छादन, प्रावरण, अलंकार, शयन, आसन, गृह, यान और वाहन पादि में जो बहुत सावध से युक्त हैं उनके परित्याग को उपभोग-परिभोगव्रत कहा गया है। इसके साथ वहां यह सूचना की गई है कि उनमें जो अल्प सावद्य से युक्त हैं उनका परिमाण करना भी इस व्रत में अभिप्रेत है। यहां 'गन्धमाल्यादि' तथा 'वाहनादि' में जो 'च' शब्द के साथ पृथक् पृथक् षष्ठी बहुवचन का निर्देश किया गया है उससे यही प्रतीत होता है कि भाष्यकार को प्रशन-पान आदि भोगरूप से और आच्छादन-प्रावरण आदि परिभोग रूप से अभिप्रेत हैं। यहां स. सि. से यह विशेषता रही है कि स. सि. में उपभोग के लक्षण में जिन खाद्य व स्वाद्य शब्दों का निर्देश नहीं किया गया है वे यहाँ उसके अन्तर्गत उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार परिभोग के लक्षण में यहां स. सि. की अपेक्षा 'गृह' और 'वाहन' के मध्य में 'यान' शब्द अधिक पाया जाता है।
त. वा. (७, २१, ८) में 'उपेत्य भुज्यते इत्युपभोगः' इस निरुक्ति के साथ जिन प्रशन-पानादि को
करके भोगा जाता है उन्हें उपभोग तथा 'परित्यज्य भुज्यते इति परिभोगः' इस निरुक्ति के साथ जिन आच्छादन-प्रावरण आदि को एक बार भोगकर पुनः भोगा जाता है उन्हें परिभोग कहा गया है। श्रावकप्रज्ञप्ति (२८४) की टीका में भी उक्त दोनों शब्दों की इसी प्रकार से निरुक्ति करते हए लगभग इसी अभिप्राय को व्यक्त किया गया है। त. वा. से यहां इतनी विशेषता है कि विकल्प रूप में यहां 'उप' शब्द को अन्तर्वचन मानकर तदनुसार विषय और विषयी में अभेदोपचार से अन्तर्भोगको उपभोग और परि' शब्द को बहिर्वाचक मानकर तदनुसार बहिर्भोगको परिभोग कहा गया है। इसके पूर्व इसी श्रा. प्र. (२६) टीका में भोगान्तराय और उपभोगान्तराय के प्रसंग में एक बार भोगे जाने वाले आहार आदि को भोग और पुनः पूनः भोगे जाने वाले भवन-वलय आदि को उपभोग कहा गया है। अपने इस अभिप्राय की पूष्टि में वहां "सइभुज्जइत्ति भोगो" आदि एक गाथा भी उद्धृत की गई है। इस प्रकार एक ही ग्रन्थ में यह अभिप्राय भेद देखा जाता है।
रत्नकरण्डक (८२-८३) आदि में जहां इस व्रत को भोगोपभोगपरिमाण व्रत के नाम से निर्दिष्ट किया गया है वहां एक ही बार भोगे जाने वाले आहार आदि को भोग और पुनः पुनः भोगे जानेवाले वस्त्रादि को उपभोग कहा गया है। इस प्रकार से यदि कहीं (स. सि. आदि) एक ही बार भोगे जाने वाले भोजन आदि को उपभोग और पुनः-पुनः भोगे जाने वाले आच्छादन व प्रावरण आदि को परिभोग के अन्तर्गत किया है तो अन्यत्र (रत्नक. प्रादि में) उन्हें क्रम से भोग और उपभोग के अन्तर्गत किया गया है।
प्रकत उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत के प्रसंग में श्वे. सम्प्रदाय के श्रावकाचारविषयक ग्रन्थों मेंजैसे उवासगदसायो (५१) और श्रावकप्रज्ञप्ति (२८५ व २८७-८८) आदि में--एक यह विशेषता देखी जाती है कि वहां इस व्रत के भोजन व कर्म की अपेक्षा दो भेद निदिष्ट किये गये हैं। उनमें कर्म की अपेक्षा
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प्रस्तावना
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इस व्रत में अंगार, वन, शकट, भाटक, स्फोटन तथा दांत, लाख, रस, केश और विष विषयक व्यापार; यंत्रपीडन, निछन, दवदान, तालाब-हद-तडाग का शोषण और सतीपोष इन पन्द्रह सावद्य कर्मों को निषिद्ध प्रगट किया गया है ।
दि. सम्प्रदाय के श्रावकाचारविषयक ग्रन्थों में इनका उल्लेख किया गया नहीं दिखता। हां, पं. आशाधर विरचित सागारधर्मामृत (५, २१-२३) में इनका निर्देश तो किया गया है, पर वह पूर्वोक्त मान्यता के निराकरण के रूप में किया गया है। पं. आशाधर का कहना है कि ऐसे सावद्य कर्म निषिद्ध तो हैं, पर जब वे अगणित हैं तब वैसी अवस्था में पूर्वोक्त पन्द्रह कर्मो का ही परित्याग कराना उचित प्रतीत नहीं होता । अथवा, अतिशय मन्दमतियों को लक्ष्य करके यदि उनका परित्याग कराया जाता है तो वह अनुचित भी नहीं है। यहां यह स्मरणीय है कि श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका में हरिभद्र सूरि ने भी इसी प्रकार के अभिप्राय को प्रगट करते हुए यह कहा है कि इन बहुसावद्य कर्मों का यहां प्रदर्शन मात्र किया गया है, क्योंकि इनके अतिरिक्त अन्य भी कितने ही ऐसे सावद्य कर्म हो सकते हैं जिनकी गणना नहीं की जा सकती है । अतएव उनकी यहां गणना की गई नहीं समझना चाहिये ।
इसी प्रकार प्रकृत व्रत के प्रतिचारों के विषय में भी मतभेद देखा जाता है । यथा -- त. सू. (दि. ७३५ और श्वे. ७-३०) में उक्त व्रत के ये पांच प्रतिचार निर्दिष्ट किये गये हैं- सचित्ताहार, सचित्तसंबद्धाहार, सचित्तमिश्राहार, अभिषवाहार और दुष्पक्वाहार । किन्तु रत्नकरण्डक (६०) में विषयरूप विष की उपेक्षा न करना, विषयों का पुनः पुनः स्मरण करना, उनके सेवन में अतिशय लोलुपता, उनके सेवन की अतिशय आकांक्षा और अतिशय आसक्ति के साथ उनका उपभोग ; ये पांच प्रतिचार निर्दिष्ट किये गये हैं । श्रा. प्र. (२८६ ) में उसके जो प्रतिचार निर्दिष्ट किये गये हैं उनमें तीन प्रतिचार तो त. सू. के समान हैं, पर दो में कुछ उससे भिन्नता है । यथा -- सचित्ताहार, सचित्तप्रतिबद्धाहार, अपक्वभक्षण, दुष्पक्वभक्षण और तुच्छ औषधिभक्षण । पं. आशाधर ने अपने सा. ध. (५-२० ) में त. सू. के समान उसके प्रतिचारों का निर्देश करके स्वो टीका में 'अत्नाह स्वामी' ऐसा कहते हुए रत्नक में निर्दिष्ट पूर्वोक्त प्रतिचारों का भी निर्देश कर दिया है व उनकी व्याख्या भी की है । यहीं पर उन्होंने 'तद्वच्चेमेऽपि श्रीसोमदेव विबुधाभिमताः' ऐसी सूचना करके प्रकृतव्रतातिचारविषयक उपासकाध्ययन के श्लोक ( ७६३) को भी उद्धृत कर दिया है । तदनुसार वे प्रतिचार ये हैं- दुष्पक्वभक्षण, निषिद्धभक्षण, जन्तुसम्बद्धभक्षण, जन्तुसम्मिश्रभक्षण और वीक्षितभक्षण | इस प्रकार उक्त व्रत के जो भी प्रतिचार निर्दिष्ट किये गये हैं वे सब भोजन से ही सम्बद्ध हैं, कर्म से सम्बन्धित प्रतिचारों का कहीं कोई निर्देश नहीं किया गया । यह व्रत बहुत व्यापक है । यही कारण है जो रत्नक. (८४-८९) में त्रसघात के परिहार के लिये इस व्रत में मद्य-मांस आदि कितने ही अन्य विषयों का भी नियम कराया गया है ।
पादपोपगमन - श्रागम में त्यक्त शरीर के प्रायोपगमन, इंगिनीमरण और भक्तप्रत्याख्यान ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । प्राकृत में प्रायोपगमन के वाचक पात्रोवगमण, पानोवगमन और पाउग्गगमण ये शब्द उपलब्ध होते हैं । इनके संस्कृत रूप भी अनेक हुए हैं । जैसे - पादपोपगमन, पादोपगमन, प्रायोगमन, प्रायोग्यगमन और प्रायोपगमन | शब्दभेद होने से कुछ अर्थभेद भी हुआ है, पर अभिप्राय प्रायः सबका समान ही रहा है । यथा-
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पण्डित मरण के प्रसंग में भगवती आराधना ( २०६८-६६ ) में कहा गया है कि क्षपक (आराधक ) शरीर से निर्ममत्व होकर उसे जहां जिस प्रकार से रखता है जीवन पर्यन्त वह उसे स्वयं नहीं चलाता हैहलन चलन क्रिया से रहित उसी प्रकार से उसे स्थिर रखता है । इस प्रकार निष्प्रतिकर्म - स्व- परप्रतीकार से रहित - मरण को प्रायोपगमन मरण कहा जाता है । इसी भ. प्रा. की विजयोदया और मूलाराधनादर्पण टीकाओं ( २ ) में इसके स्वरूप को दिखलाते हुए कहा गया है कि संघ को छोड़कर अपने पावों से अन्यत्र चले जाने पर आराधक का जो अपनी व अन्य की वैयावृत्ति से रहित मरण होता है उसे पादोपगमन मरण कहते हैं । यह उसकी सार्थक संज्ञा है । प्रकारान्तर से वहां यह भी संकेत किया गया है - अथवा
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'पाउग्गगमण मरण' ऐसा पाठ है। तदनुसार 'प्रायोग्य' शब्द से संसार का अन्त करने योग्य संहनन और संस्थान को ग्रहण किया गया है तथा 'गमन' का अर्थ प्राप्ति है, इस प्रकार के संहनन और संस्थान की प्राप्ति के आश्रय से जो मरण होता है वह प्रायोग्य मरण कहलाता है। यह भी उसकी सार्थक संज्ञा है। मूलाराधनादर्पण में इतना विशेष कहा गया है कि इसे 'प्रायोगमन' भी कहा जाता है। तदनुसार वहां 'प्राय' शब्द से संन्यास युक्त अनशन को ग्रहण किया गया है। प्रकृत मरण चूंकि संन्यास युक्त अनशन की प्राप्ति होने पर सिद्ध किया जाता है, इसीलिए उसे 'प्रायोगमन' कहा गया है। यह नाम भी उसका सार्थक है।
पुलाक-तत्त्वार्थसूत्र (दि. ६-४६, श्वे. ह-४८) में जिन पांच निर्ग्रन्थों का निर्देश किया गया है उनमें पुलाक प्रथम हैं । उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए स. सि. और त. वा. (६, ४६, १) आदि में कहा गया है कि जिन निर्ग्रन्थ मनियों का मन उत्तरगणों की भावनाओं से दूर रहता है तथा जो कहीं व कभी व्रतों की परिपूर्णता से भी रहित होते हैं उन्हें पुलाक निर्ग्रन्थ कहा जाता है । पुलाक नाम तुच्छ धान्य का है । ये निर्ग्रन्थ चूंकि शुद्धि से रहित होते हुए उस तुच्छ धान्य के समान होते हैं, इसीलिए उनका उल्लेख 'पुलाक' नाम से किया गया है। त. भाष्य (६-४८) में पुलाक उन निर्ग्रन्थों को कहा गया है जो जिनप्रणीत आगम से निरन्तर विचलित नहीं होते । इसी भाष्य में आगे (६-४६) प्रतिसेवना के प्रसंग में यह भी कहा गया है कि जो दूसरे के अभियोग (माक्षेप या कहने) से अथवा दवाब से पांच मूलगुणों और छठे रात्रिभोजनव्रत इनमें से किसी एक का सेवन करता है उसे पुलाक कहते हैं। यहां मतान्तर को प्रगट करते हुए यह भी कहा गया है कि किन्हीं प्राचार्यों के अभिमतानुसार पुलाक नाम उसका है जो मैथन का प्रतिसेवन करता है । इस भाष्य की सिद्ध . वृत्ति (६-४६) में भाष्योक्त इस लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'सम्यग्दर्शनपूर्वक होने वाले ज्ञान और चारित्र मोक्ष के हेतु हैं इस प्रकार के प्रागम से जो कभी भ्रष्ट न होकर-उसपर दढ रहते हुए -----ज्ञान के अनुसार क्रिया का अनष्ठान करते हैं, साथ ही जो तप और श्रुत के आश्रय से उत्पन्न हुई लब्धि (ऋद्धि) को उपजीवित रखते हुए उसमें अनुरक्त रहकर-सकल संयम (महाव्रत) के गलने से अपने आपको तन्दुल कणों से शून्य धान्य के समान निःसार करते हैं उन्हें पुलाक कहा जाता है। कारण यह कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये सारभूत हैं, उनके विनाश से ही उक्त पुलाक निर्ग्रन्थों को निःसार कहा गया है। लगभग यही अभिप्राय प्रवचनसारोद्धार को वत्ति (७२३) में भी प्रगट किया गया है।
प्रवचनवत्सलत्व-सर्वार्थसिद्धि (६-२४) और तत्त्वार्थवातिक (६, २४, १३) आदि में इसके लक्षण में यह कहा गया है कि जिस प्रकार गाय अपने बछड़े से स्नेह करती है उसी प्रकार से साधर्मी जन के साथ जो स्नेह किया जाता है उसका नाम प्रवचनवत्सलत्व है। त. भा. (६-२३) में उसके स्वरूप को दिखलाते हए कहा गया है कि जो जिनशासन में विहित अनष्ठान के करने वाले व श्रत के पारंगत हैं उनका तथा बाल, वृद्ध, तपस्वी, शैक्ष और ग्लान आदिकों का संग्रह, उपग्रह और अनुग्रह करना; यह प्रवचनवत्सलत्व का लक्षण है । स. सि. की अपेक्षा इस भाष्य में 'सधर्मा' को उक्त प्रकार से स्पष्ट किया गया है। धवला (पु.८, प. १०) व चारित्रसार (पृ. ३६) में समान रूप से कहा गया है कि प्रवचन तथा देशवती, महाव्रती और सम्यग्दष्टि इनके विषय में जो अनुराग, आकांक्षा एवं ममेदभाव होता है उसका नाम प्रवचनवत्सलता है।
बकुश-पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ मुनियों में बकुश दूसरे हैं। सवार्थसिद्धि में उनके लक्षण का निर्देश करते हए कहा गया है कि जो निर्ग्रन्थता के प्रति स्थित प्रस्थित] हैं --उसपर प्रारूढ़ हैं-व अखण्डित (निरतिचार)व्रतों का पालन करते हैं,पर जो शरीर और उपकरणों (पीछी. व कमण्डलु) की विभूषा की अपेक्षा रखते हैं तथा जिनका परिवार से मोह नहीं छूटा है। ऐसे मोह की विचित्रता से युक्त निर्ग्रन्थ बकुश कहलाते हैं। 'बकुश' शब्द का अर्थ विचित्र है। उनका यह लक्षण कुछ विशेषता के साथ तत्त्वार्थभाष्य (8-४८) और तत्त्वार्थवार्तिक (६.४६, २) इन दोनों में प्रायः शब्दशः समान पाया जाता है। वहां कहा गया है की जो निर्ग्रन्थता के प्रति प्रस्थित हैं—प्रस्थान कर चुके हैं (उसपर आरूढ़ है), शरीर और उपकरणों की विभूषा (संस्कार या स्वच्छता) की अपेक्षा करते हैं, ऋद्धि व यश के अभिलाषी हैं, सात गौरव के आश्रित हैं, परिवार
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के मोह से रहित नहीं हुए हैं, तथा छेद (प्रायश्चित्तविशेष) की विचित्रता से संयुक्त होते हैं। उन्हें वकुश कहा जाता है। स. सि. की अपेक्षा इनदोनों में 'ऋद्धि-यशस्कामाः, सातगौरवाश्रिताः, छेदशबलयुक्ताः' (स. सि. में 'मोहशबलयुक्ताः ' ऐसा विशेषण है) ये विशेषण अधिक हैं। त. वा. में 'अखण्डितब्रताः' यह पद भी स. सि. के समान है, पर वह त. भाष्य में नहीं है। प्रकृत लक्षण के प्रसंग में स. सि. में 'नैर्ग्रन्थ्यं प्रति स्थिताः' त. भा. में 'नर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता:' और त. वा. में 'नैन्थ्यं प्रस्थिता:' ऐसा पाठभेद पाया जाता है। इनमें त. भा. का पाठ अधिक संगत दिखता है । सम्भवतः प्रतिलेखकों के आश्रय से यह पाठभेद हुआ है।
ब्रह्मचर्यअणुव्रत-श्रावक के पांच अणुव्रतों में यह चौथा है। इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए चारित्रप्राभृत (२३) में कहा गया है कि परसे प्रेमका परिहार करना-उससे निवृत्त होना-इसका नाम ब्रह्मचर्य अणुवत है । रत्नकरण्डक (३-१३) के अनुसार जो पाप के भय से-न कि राजदण्डादि के भय सेन तो स्वयं परस्त्री के साथ समागम करता है और न उसके लिए दूसरे को प्रेरित करता है, इसे परदारनिवृत्ति कहा जाता है। दूसरे नाम से इसे वहां स्वदार सन्तोष भी कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि (७-२०) के अनुसार जिसका अनुराग उपात्त और अनुपात्त अन्य स्त्री के संग से हट चुका है ऐसा गृहस्थ प्रकृत अणुव्रत का धारक होता है। लगभग यही अभिप्राय प्रायः उन्हीं शब्दों में त. वार्तिक (७, २०,४), त. श्लोकवार्तिक और चरित्रसार (प. ६) में भी प्रगट किया गया है ।
श्रावकप्रज्ञप्ति (२७०) और पंचाशक प्रकरण (१-१५) में पर-स्त्री के परित्याग और स्वदारसन्तोषको चतुर्थ (ब्रह्मचर्य)अणवत का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। यहां औदारिक और वैक्रियिक के भेद से पर-स्त्री को दो प्रकार कहा गया है। श्रा. प्र. की प्रकृत टीका में वैक्रियिक से विद्याधरी आदि को ग्रहण किया गया है।
पुरुषार्थसिद्ध्यपाय (१०७-१०) में अब्रह्म के स्वरूप को दिखलाकर उसे हिंसा का कारण बतलाते हुए यह कहा गया है कि जो मोह के वश अपनी स्त्री मात्र को नहीं छोड़ सकते हैं उन्हें भी अन्य सभी स्त्रियों का सेवन नहीं करना चाहिए। कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३३७-३८) में कहा गया है कि जो अशुचिस्वरूप व दुर्गन्धित स्त्री के शरीर की ओर से विरक्त होता हया उसके रूप-लावण्य को भी मन के मोहित करने का कारण मानता है तथा जो मन, वचन व काय से परस्त्री को माता, बहिन और पुत्री के समान मानता है वह स्थूल ब्रह्मचारी-ब्रह्मचर्य अणुव्रत का धारक होता है। यही अभिप्राय सुभाषितरत्नसन्दोह (७७८) में भी प्रगट किया गया है।
योगशास्त्र (२-७६) में प्रकृत अणुव्रत के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि ब्रह्मचर्याणुव्रती गृहस्थ को अब्रह्म के फलभूत नपुंसकता और इन्द्रियछेद को देखकर स्व-स्त्री में सन्तुष्ट रहते
अन्य स्त्रियों का परित्याग करना चाहिये । इसके स्वो. विवरण में विशेष रूप से यह निर्देश किया गया है कि अपनी धर्मपत्नी में सन्तुष्ट रहना, गृहस्थ का यह एक ब्रह्मचर्य है तथा अन्य से सम्बन्धित स्त्रियों का छोड़ना, यह उसका दूसरा ब्रह्मचर्य है।
सागारधर्मामृत (४, ५१-५२) में स्वदारसन्तोष अणुव्रत (ब्रह्मचर्याणुव्रत) के प्रसंग में रत्नकरण्डक का अनुसरण करते हुए कहा गया है कि स्वदारसन्तोषी वह गृहस्थ होता है जो पाप के भय से-न कि राजदण्डादि के भय से--अन्य स्त्रियों और प्रगट स्त्रियों के साथ न तो स्वयं समागम करता है और न दूसरों को कराता है । इसकी स्वो. टीका में अन्य स्त्री और प्रगट स्त्री का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि अन्य स्त्री से अभिप्राय उन परस्त्रियों से है जो चाई परिगृहीत हों और चाहे अपरिगृहीत हों। इनमें पा रगृहीत स्त्रियां वे हैं जो स्वामी से सनाथ है । स्वेच्छाचारिणी, जिसका पति प्रवास में है अथवा अनाथ कुलांगना इनको अपरिगहीत माना जाता है । भविष्य में पति से सम्बद्ध होने के कारण अथवा पिता आदि के अधीन होने के कारण कन्या को भी सनाथ माना जाता है-उसे अनाथ नहीं माना जा सकता।
यहां प्रा. कुन्दकुन्द ने प्रकृत ब्रह्मचर्याणुव्रत के प्रसंग में जो संक्षेप से 'परिहारो परपिम्मे' इतना मात्र कहा है उसमें उनका यही अभिप्राय रहा दिखता है कि परस्त्रीविषयक प्रेम को छोड़ना, यह ब्रह्मचर्य
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अणुव्रत का लक्षण है। रत्नकरण्डककार को इस अणुव्रत में कृत व कारित रूप में पर स्त्री संसर्ग का परित्याग अभीष्ट रहा है। वह राजदण्डादिके भय से न होकर पाप के भय से होना चाहिये । इसका उन्होंने दूसरा नाम स्वदारसन्तोष भी दिया है। कारण यह कि स्वदारसन्तोष होने के बिना परदारपरित्याग सम्भव नहीं है। सर्वार्थसिद्धिकार ने अन्य स्त्री को स्पष्ट करते हुए उसे उपात्त और अनुपात्त विशेषणों से विशिष्ट किया है। उपात्त-अनुपात्त से उनका क्या अभिप्राय रहा है, यह प्रकृत में स्पष्ट नहीं है। फिर भी पागे उसके अतिचारों के प्रसंग (७-२८) में सूत्रनिर्दिष्ट इत्वरिका के परिगहीत व अपरिगहीत विशेषण दष्टिगोचर होते हैं । सम्भव है सर्वार्थसिद्धिकारका अभिप्राय उपात्त से परिगृहीत और अनुपात्त से अपरिगृहीत अन्य स्त्री का रहा हो । यहां परिगृहीत और अपरिगृहीत को स्पष्ट करते हुए स. सि. में परिगृहीत उस स्त्री को कहा गया है जिसका एक पुरुष भर्ता (पति) है। स्वामिविहीन वेश्या अथवा दुष्चरित्न होने से स्वभावतः पर पुरुष से समागम करने वाली स्त्री का निर्देश यहां अपरिगृहीता के रूप में किया गया है। सर्वार्थसिद्धिकारका 'अन्य स्त्री' से अभिप्राय विधिपूर्वक परिणीत अपनी पत्नी से भिन्न स्त्री मान का रहा है, ऐसा प्रतीत होता है; उससे उनका अभिप्राय 'अन्य की स्त्री' नहीं रहा।
जैसा कि ऊपर कहा जा चका है हरिभद्र सूरि ने परस्त्री के दो भेद निदिष्ट किये हैं--प्रौदारिक और वक्रियिक । औदारिक से उन्होंने मनष्यनी व तियंचनी तथा वैक्रियिक से विद्याधरी आदि को ग्रहण किया है। हरिभद्र के पूर्व इन भेदों का उल्लेख कहां व किसके द्वारा किया गया है, यह अन्वेषणीय है। इसके अतिरिक्त हरिभद्र सूरिने इत्वरपरिगृहीतागमन और अपरिगृहीतागमन इनको प्रकृत व्रत का अतिचार माना है। इनमें इत्वरपरिगृहीतागमन को स्पष्ट करते हुए उन्होंने अपनी टीका में कहा है कि जिस वेश्या को भाड़ा देकर कुछ काल के लिए अपने वश कर लिया है उसका सेवन करने पर व्रत भंग न होकर इत्वरपरिगृहीतागमन नाम का अतिचारही होता है । जिस वेश्या ने किसी दूसरे से भाड़ा नहीं ग्रहण किया है उसको तथा स्वामिविहीन कुलांगना को उन्होंने अपरिगृहीता माना है । इनके अतिचार ही होता है। प्रकृत व्रत को हरिभद्र सूरिने परदारपरित्याग और स्वदारसन्तोष के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया है। तदनुसार इस चतुर्थ अणुव्रत का धारी गृहस्थ इस व्रत को विकल्प के रूप में स्वीकार करता है-वह या तो परस्त्री का ही त्याग करता है या फिर केवल स्वदारसन्तोष को ही स्वीकार करता है। यही कारण है जो उन्होंने आगे प्रकृत व्रत के पांच अतिचारों के प्रसंग (२७३) में उपर्युक्त इत्वरपरिगृहीतागमन अतिचार को स्वदारसन्तोषी के लिए और अपरिगहीतागमन अतिचार को परदारपरित्यागी के लिये निर्दिष्ट किया है । इन अतिचारों के सम्बन्ध में लगभग इसी अभिप्राय को विशेष विशदीकरण के साथ हेमचन्द्र सूरिने अपने योगशास्त्र के स्वो. बिवरण (३-६४) में तथा पं. प्राशाधर ने अपने सा. ध. की स्वो. टीका (४-५८) में भी व्यक्त किया है।
भोगोपभोगपरिमाणव्रत-देखिये पीछे पृ. १८-२० 'परिभोग' शब्द।
यथाप्रवृत्तकरण-इसके अथाप्रवृत्तकरण और अधःप्रवृत्त करण ये अन्य पर्यायनाम भी उपलब्ध होते हैं। प्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्ति के प्रसंग में षट्खण्डागम (१, ६-८, ३-४, पु. ६, पृ. २०३ ब २०६) में कहा गया है कि जीव जब कर्मों की अन्तःकोडाकोडि प्रमाण स्थिति को बांधता है तब वह उस प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है उसकी प्राप्ति के योग्य होता है। यह सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव कैसा होना चाहिये, इसे स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि वह पंचेन्द्रिय, संजी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक और सर्वविशुद्ध-अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप तीन प्रकार की विशुद्धियों से परिणतहोना चाहिए। षट्खण्डागमगत इस अभिप्राय को सर्वार्थसिद्धि (२-३) और तत्त्वार्थवार्तिक (२, ३,२) में भी प्रायः वैसे ही शब्दों द्वारा व्यक्त किया गया है। त. वा. (९, १, ११) में 'सर्वविशुद्ध' पद के स्पष्टीकरण में जिन तीन प्रकार की विशुद्धियों का उल्लेख किया गया है उनमें प्रकृत प्रथाप्रवृत्त (अधःप्रवृत्त) करण प्रथम है । वहां सामान्य से अथाप्रवृत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणों को समस्त ही कर्म
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प्रकृतियों की स्थिति को हीन करने वाले तथा अशुभ प्रकृतियों के अनुभागबन्ध को हीन और शुभ प्रकृतियों के अनुभागबन्ध को वृद्धिंगत करनेवाले कहा गया है । वहां यह स्पष्ट किया गया है कि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव कर्मों को अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थिति से युक्त करके कालादिलब्धि को प्राप्त होता हुआ अथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट होता है । यह करण चूंकि पूर्व में कभी प्रवृत्त नहीं हुआ, इसीलिए इसका 'प्रथाप्रवृत्त' यह सार्थक नाम है । इस प्रथाप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय तक नाना जीवों के अधस्तन व उपरिम परिणाम सम भी होते हैं और विषम भी। इन असंख्यात लोक प्रमाण परिणामों के समुदाय का नाम प्रथाप्रवृत्त है । लगभग इसी अभिप्राय को अमितगति विरचित पंचसंग्रह (पृ. ३०) में भी प्रगट किया गया है । इतनी यहां विशेषता है कि विकल्प के रूप में उसके 'अधःप्रवृत्तकरण' इस नामान्तर का भी निर्देश किया गया है। इस करण में चूंकि उपरितन जीवों के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवों के परिणामों से समान प्रवृत्त होते हैं, इस प्रकार से उसकी उक्त संज्ञा की भी यहां सार्थकता दिखलायी गई है ।
धवला (पु. ६, पृ. २१७ ) के अनुसार उत्तरोत्तर अनन्तगुणित श्रधःप्रवृत्त रूप विशुद्धियों का नाम अधःप्रवृत्तकरण है । इस करण में चूंकि ऊपर के परिणाम नीचे के परिणामों में प्रवृत्त होते हैं, अतएव यह उनका सार्थक नाम है । इन परिणामों का उल्लेख 'करण' नाम से क्यों किया गया, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि इन परिणामों में तलवार व वसूला आदि के समान करण का लक्षण (साधकतमत्व ) पाया जाता है, इसीसे उन्हें करण कहा गया है। पूर्वोक्त पंचसंग्रह में विकल्प रूप में 'अधः प्रवृत्तकरण' इस नाम का भी जो निर्देश किया गया है उसे प्रकृत धवला का अनुसरण समझना चाहिये । सामान्य से इसी प्रकार का अभिप्राय जो गो. जीवकाण्ड (४८) और लब्धिसार (३५) में प्रगट किया गया है वह भी धवला का अनुसरण है ।
सम्यक्त्वकी प्राप्ति के प्रसंग में विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि श्रायु को छोड़कर शेष सात कर्मों की उत्कृष्ट अथवा जघन्य स्थिति के होने पर सम्यक्त्व, श्रुत, देशव्रत और सर्वव्रत इन चार सामायिकों में से कोई भी नहीं प्राप्त होता । उन कर्मों की स्थिति जब अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण होकर उसमें भी पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग से हीन हो जाती है तब कहीं उसकी प्राप्ति सम्भव है । कर्मों की इस स्थिति तक घन राग-द्वेष परिणाम स्वरूप ग्रन्थि अभिन्न ही रहती है। उसका भेदन जब अपूर्वकरण परिणाम के द्वारा कर दिया जाता है तब कहीं उक्त सम्यक्त्व आदि का लाभ हो सकता है । अथाप्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्ति के भेद से करण तीन प्रकार का है। इनमें प्रथाप्रवृत्तकरण भव्य और प्रभव्य दोनों के सम्भव है, किन्तु अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये दोनों भव्य के ही सम्भव हैं, अभव्य के नहीं । प्रथम अथाप्रवृत्तकरण अनादि काल से रहकर उक्त ग्रन्थिस्थान तक रहता है। जिस प्रकार पहाड़ी नदी के भीतर पड़े हुए पत्थर प्रवाह में परस्पर के संघर्षण से स्वयमेव श्रनेक आकारों में परिणत हो जाते हैं उसी प्रकार अनादिसिद्ध उस प्रथा - प्रवृत्तकरण ' के श्राश्रय से उक्त ग्रन्थिस्थान तक पूर्वोक्त कर्मों की स्थिति स्वयमेव हीन हो जाती है । उक्त सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति के विषय में वहाँ पत्य, गिरिसरित्पाषाण एवं पिपीलिका आदि के कितने ही उदाहरण भी दिये गये हैं । विशेष के लिए देखिये विशेषावश्यक भाष्य (द. ला. भारतीय विद्यामन्दिर, अहमदाबाद ) १९८८ - १२१३ आदि । विशेषावश्यकभाष्यगत सम्यक्त्व प्राप्ति विषयक इस अभिप्राय का अनुसरण संक्ष ेप में श्रावकप्रज्ञप्ति ( ३१-३७) में भी किया गया है । गाथा ३२ की टीका में वहां विशेषावश्यक भाष्य की 'गंठित्ति सुदुब्भेप्रो' श्रादि गाथा ( ११९३ ) को भी उद्धृत किया गया है।
आवश्यक निर्युक्ति की मलयगिरि विरचित वृत्ति (१९०६) में यथाप्रवृत्तकरण के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अनादिसिद्धि प्रकार से जो करण प्रवृत्त है उसका नाम यथाप्रवृत्त है, 'क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणम्' इस निरुक्ति के अनुसार जिसके द्वारा कर्म का क्षय किया जाता है उसे यहां करण कहा गया है । अभिप्राय यह हुआ कि पहाड़ी नदी में अवस्थित पाषाणों की घोलना के समान जो श्रध्यवसायविशेष अनादि काल से कर्मक्षय में प्रवृत्त है उसे यथाप्रवृत्तकरण जानना चाहिये ।
याचनापरीषहजय - प्रकृत परीषह के स्वरूप का विचार करते हुए सवार्थसिद्धि (६-९) और
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जन लक्षणावली
तत्त्वार्थवार्तिक (8, ६, १६) में कहा गया है कि बाह्य और अभ्यन्तर तप का आचरण करते हुए साधु का शरीर यद्यपि अतिशय दुर्बल व कान्ति से हीन हो जाता है, फिर भी वह प्राण निकल जाने पर भी दीन वचन
मा मख की विवर्णता को प्रगट करके भोजन, वसति और औषध ग्रादि की याचना नहीं करता तथा भिक्षा के समय भी वह दुरुपलक्ष्य रहकर शीघ्रता से निकल जाता है--किसी गृहस्थ के द्वार पर विशेष रुकता नहीं है । इस प्रकार से वह याचनापरीषह पर विजय प्राप्त करता है।
आव. नियुक्ति की हरिभद्र विरचित वृत्ति (६१८) में कहा गया है कि साधु दूसरों के द्वारा दिये गये भोजन आदि पर जीवित रहता है । उसे चूंकि बिना याचना के कुछ प्राप्त होता नहीं है, इसीलिए उसे याचनाजनित दुख को सहन करना चाहिये और गृहस्थपने की इच्छा नहीं करना चाहिये। यह अभिप्राय हरिभद्र सूरि ने वहां एक प्राचीन पद्य को उद्धत कर उसके आश्रय से प्रगट किया है। यहीं पर उन्होंने आगे चतुर्थ अध्ययन की वृत्ति (प. ६५७) में पुनः यह कहा है कि याचना का अर्थ अन्वेषण है। भिक्ष को वस्त्र, पात्र, अन्न-पान एवं वसति आदि सब दूसरों से प्राप्त करना पड़ते हैं । जो शालीन-धृष्टता से रहितहोता है वह याचना के प्रति आदरभाव नहीं रखता, पर प्रतिभासम्पन्न साधु को कार्य के उपस्थित होने पर अपने धर्म और शरीर के संरक्षण के लिये याचना अवश्य करना चाहिये। इस प्रकार से याचना करता हुआ साधु याचनापरीषह पर विजय प्राप्त करता है।
___ यहां सर्वार्थसिद्धि के कर्ता आ. पूज्यपाद और प्राव. नियुक्ति के वृत्तिकार हरिभद्र सूरि के अभिप्राय में यह विशेषता है कि पूज्यपाद जहां भोजन आदि के अलाभ में कष्ट के होने पर साधु के लिए किसी भी प्रकार की याचना न करने की प्रेरणा करते हैं वहां हरिभद्र सुरि याचना को अनिवार्य बतलाकर उसके लिए प्रेरित करते हुए साधु को तज्जन्य दुख के सहन करने का उपदेश करते हैं।
रसत्याग, रसपरित्याग-यह अनशन आदि छह बाह्य तपों में नौथा है । इसके स्वरूप को प्रगट करते हुए मूलाचार (५-१५५) में कहा गया है कि दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक इनका तथा तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल और मधुर इन रसों का जो परित्याग किया जाता है उसका नाम रसपरित्याग तप है। इसी अभिप्राय को भगवती आराधना (२१५-१७) में भी कुछ विस्तार से प्रगट करते हुए वहां इतना विशेष निर्देश किया गया है कि इस तप का पाराधन विशेष कर सल्लेखना करने वाले के लिए समझना चाहिये।
त. भाष्य (8-१६) में रसपरित्याग को अनेक प्रकार का कहा गया है। जैसे-मद्य रस के विकृतिभूत मांस, मधु और नवनीत आदि का परित्याग करते हुए नीरस व रूखे भोजन का नियम करना आदि । इसका कुछ स्पष्टीकरण योगशास्त्र के स्वो. विवरण में किया गया है। वहां यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि 'रसपरित्याग' के अन्तर्गत 'रस' शब्द से रसवान् अभिप्रेत है, कारण कि यहां 'मतुप' प्रत्यय का लोप हो गया है। तदनुसार विशिष्ट रस से संयुक्त गरिष्ठ व विकार के हेतुभूत मद्य, मांस, मघु और नवनीत तथा अभिग्रह के योग्य दूध, दही, तेल व गुड़ आदि के परित्याग को रसपरित्याग तप जानना चाहिये।
यहां यह विचारणीय है कि जिन मद्य, मांस और मधु आदि से गहस्थ भी परहेज करता है उनका परित्याग साधु के द्वारा अनुष्ठेय प्रकृत रसपरित्याग तप के अन्तर्गत क्यों कराया गया। प्रा. समन्तभद्र ने तो रत्नकरण्डक (६६) में उक्त मद्य, मांस और मधुके परित्याग को श्रावक के मूलगणों में गभित किया है। इसके अतिरिक्त भोगोपभोगपरिमाणवत के प्रसंग में भी उन्होंने उनके परित्याग को अनिवार्य समझते हुए कहा है कि श्रावक को त्रसहिंसा के परिहारार्थ मधु और मांस का तथा प्रमादपरिहार के लिए मद्य का भी परित्याग करना चाहिये (रत्नक. ८४)। इसी प्रकार अमृतचन्द्र सूरि ने भी अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में उक्त मद्य, मांस और मधु के साथ पांच उदुम्बर फलों के भी दोषों को दिखलाते हुए उनका परित्याग गृहस्थ को अहिंसाणुव्रत के अन्तर्गत कराया है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया है कि जो निर्मलबुद्धि भव्य जीव दुस्तर पाप के स्थानभूत उन आठों का परित्याग कर देते हैं वे ही जिनधर्मदेशना के पात्र होते हैं (पु. सि. ६१-७४)। इसी प्रकार हेमचन्द्र सूरि ने भी अपने योगशास्त्र (३,६-७) में उक्त मद्य, मांस, मधु और नवनीत को हेय बतलाकर उनके परित्याग के लिये गृहस्थ को प्रेरित किया है।
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प्रस्तावना
वलन्मरण, वलाकामरण, बलायमरण - ये प्राय: समान अभिप्राय के सूचक हैं। इनके लक्षण का निर्देश करते हुए उत्तराध्ययनचूर्णि ( ५ पृ. १२८) में कहा गया है कि जो संयमयोग से - संयम के सम्बन्ध अथवा संयम व योग (ध्यान-समाधि) के अनुष्ठान से - विषाद को प्राप्त होकर मरते हैं उनके इस मरण को वलायमरण या वलाकामरण कहा जाता है । अभिप्राय यह है कि जिनके संयमयोग है वे मरण को तो स्वीकार करते हैं, किन्तु संयम को सर्वथा नहीं छोड़ते, यह वलायमरण का लक्षण है । अथवा क्षुधादिपरीषहों से वलते हुए - भ्रष्ट होकर – जो मरते हैं उनके मरण को वलायमरण समझना चाहिये । उपसर्गमरण को वलायमरण नहीं कहा जा सकता । भ. आ. की विजयोदया टीका (२५, पृ. ८६ ) के अनुसार जो विनय व वैयावृत्य आदि के विषय में आदर नहीं करते, प्रशस्त योग के धारण करने में आलस्य करते हैं, प्रमाद से युक्त रहते हैं; व्रतों समितियों एवं गुप्तियों के परिपालन में अपनी शक्ति को छिपाते हैं; तथा धर्म के चिन्तन में निद्रा से झूमते हुए के समान उपयोग से रहित होकर ध्यान व नमस्कार आदि से दूर भागते हैं, उनके मरण को वलायमरण कहा जाता है । प्रवचनसारोद्धार (१०१०) में उक्त उत्तरा चूर्णि के समान
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भिप्राय को व्यक्त किया गया है । स्थानांग की अभयदेव विरचित वृत्ति (१०२) और समवायांग की भी अभयदेव विरचित वृत्ति (१७) में प्राय: समान रूप से यह कहा गया है कि परीषहादि से पीड़ित होकर जो संयम से निवर्तमान होते हैं उनके मरण को वलन्मरण कहते हैं ।
पं. आशाधर ने भ. प्रा. की मूलाराधनादर्पण टीका (२५) में पार्श्वस्थ रूप से होने वाले मरण को वलाकामरण कहा है।
विहायोगति नामकर्म - स. सिद्धि ( ८-११) त. वा. (८, ११, १८ ), धवला (पु. ६, पृ. ६१) और मूलाचार वृत्ति (१२-१६५) में कहा गया है कि विहायस् नाम श्राकाश का है, जिस नामकर्म के उदय से जीव का आकाश में गमन होता है उसे विहायोगति नामकर्म कहा जाता है । धवला में प्रागे (पु. १३, पृ. ३६५ ) कुछ विशेष रूप में यह कहा गया है कि जिसके उदय से पृथ्वी का आश्रय लेकर अथवा बिना उसका प्राश्रय लिये भी जीवों का आकाश में गमन होता है वह विहायोगति नामकर्म कहलाता है ।
त. भाष्य (८-१२ ) के अनुसार जो कर्म लब्धिनिमित्तक, शिक्षानिमित्तक अथवा ऋद्धिनिमित्तक आकाशगमन का कारण है उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं । समवायांग की वृत्ति (४२) में कहा गया है कि जिसके आश्रय से जीव शुभ या अशुभ गति से युक्त होता है उसका नाम विहायोगति नामकर्म है ।
वृत्तिपरिसंख्यान तप – यह छह बाह्य तपों में तीसरा है । मूलाचार ( ५- १५८) में कहा गया है कि गोचर (गृह) के प्रमाण के साथ दाता - जैसे पुरुष, स्त्री, वृद्ध अथवा युवक आदि; पात्र और भोजनविषयक विशेषता के नियम को ग्रहण करके तदनुसार भोजन के प्राप्त होने पर उसे ग्रहण करना, अन्यथा उपवास करना, इसका नाम वृत्तिपरिसंख्यान तप है । लगभग इसी प्रकार का अभिप्राय स. सि. (६-१६) व त. वा. (६, १६, ४) आदि में भी प्रगट किया गया है ।
भगवती आराधना ( २१ - २१ ) में इसके लक्षण को प्रगट करते हुए ऋजु व गोमूत्रिका आदि अनेक प्रकार की वीथी (गली) की विशेषता; पाटक, णियंसण एवं भिक्षा के प्रमाण और ग्रास के प्रमाण, इत्यादि कितनी ही विशेषताओं को प्रगट करते हुए तदनुसार ही भोजन के प्राप्त होने पर उसके ग्रहण करने को वृत्तिपरिसंख्यान तप कहा गया है ।
त. भाष्य ( ६-१६) में प्रकृत तप को अनेक प्रकार का बतलाया गया । जैसे—उत्क्षिप्तचर्या. श्रन्तचर्या अथवा प्रान्तचर्या आदि में तथा सत्तू, कल्माष अथवा श्रोदन यादि में से किसी एक का नियम करके शेष सबका परित्याग करना ।
व्यवहारनय - स. सिद्धि (१३३), त. वा. (१, ३३, ६), धवला (पु. १, पृ. ८४ व पु. ६, पृ. १७१), त. इलो. वा. (१, ३३, ५८), नयविवरण (७४), ह. पुराण ( ५८-४५ ) और त. सार (१-४६ ) आदि में प्रकृत नय के लक्षण का निर्देश करते हुए प्रायः समान रूप में यही कहा गया है कि संग्रहनय के द्वारा गृहीत पदार्थों का जो विधिपूर्वक प्रवहरण ( विभाग ) किया जाता है, इसे व्यबहारनय कहते हैं। आगे धवला में (पु. ६,
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जैन लक्षणावली
प.१७१) इतना विशेष कहा गया है कि पर्यायरूप कलंक से रहित शुद्ध द्रव्याथिक स्वरूप संग्रहनय के विषयभूत अद्वैत से शेष दो-तीन आदि अनन्त विकल्परूप संग्रह प्रस्तार का पालम्बन लेने वाला जो व्यवहारनय है उसे पर्यायरूप कलंक से दूषित होने के कारण अशुद्ध द्रव्याथिक जानना चाहिये । यही अभिप्राय जयधवला (१, पृ. २६६) में भी प्रगट किया गया है।
पाव. निर्य क्ति (७५६) में उसके स्वरूप को दिखलाते हए कहा गया है कि जो विनिश्चयार्थसामान्याभाव के निमित्त-जाता है, अर्थात् सामान्याभावस्वरूप बिशेष को विषय करता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं। इस नियुक्ति (वच्चइ विणिच्छयत्थं ववहारो सव्वदव्वेसु ।) की व्याख्या करते हुए प्रा. मलयगिरि ने 'विनिश्चय' के अन्तर्गत 'निर' का अर्थ अधिकता किया है, इस प्रकार अधिकता से होनेवाले चय को निश्चय मानकर उन्होंने यह अभिप्राय प्रगट किया है कि जो उस निश्चय (सामान्य) से विगत है-सामान्य को विषय न करके उसके प्रभावस्वरूप विशेष को विषय करता है उसका नाम व्यवहारनय है। आगे उन्होंने 'विशेषतोऽवह्रियते निराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहारः' ऐसी निरुक्ति करते हए निष्कर्ष रूप में उसी अभिप्राय को व्यक्त किया है कि जो नय विशेष के प्रतिपादन में तत्पर रहता है उसे व्यवहारनय समझना चाहिए।
त. भाष्य (१-३५) में उक्त नय के लक्षण को प्रगट करते हए प्रारम्भ में यह कहा गया है कि जो नय लौकिक जन के समान उपचारप्राय विस्तृत अर्थ को विषय करता है वह व्यवहारनय कहलाता है। तत्पश्चात् प्रसंगानुरूप एक शंका का समाधान करते हुए वहां उसके लक्षण में पुनः यह कहा गया है कि नामस्थापनादि विशेषणों से विशिष्ट वर्तमान, अतीत और भविष्यत् कालीन एक अथवा बहुत से घट जो संग्रहनय के विषयभूत रहे हैं, लौकिक (व्यवहारी)जन और परीक्षक जन के द्वारा ग्राह्य उपचारगम्य उन्हीं घटों के विषय में स्थूल पदार्थों के समान जो बोध होता है उसे व्यवहारनय समझना चाहिये।।
अमतचन्द्र सरि प्रसंगानसार प्रकृत व्यवहारनय के लक्षण में यह कहते हैं कि पुद्गलपरिणामरूप जो प्रात्मा का कर्म है वह पुण्य और पाप के भेद से दो प्रकार का है। उस पुद्गलपरिणाम का कर्ता आत्मा उसको ग्रहण करता है व छोड़ता है, इस प्रकार से जो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण किया करता है उसे व्यहारनय जानना चाहिये (प्रव. सा. वृत्ति २-६७) । तत्त्वानुशासन (२६.) के अनुसार ब्यवहारनय वह है जो भिन्न कर्ता व कर्म आदि को विषय करता है।
सूत्रकृतांग की शीलांक विरचित वृत्ति (२,७, ८१, पृ. १८८) में कहा गया है कि जो लोकव्यवहार के अनुसार वस्तु को ग्रहण किया करता है उसका नाम व्यहारनय है। स्थानांगकी अभयदेव विरचित वृत्ति (१८६) में सम्भवतः प्राव. नियुक्ति का अनुसरण करते हुए निरुक्तिपूर्वक यही कहा गया है कि जो सामान्य का निराकरण करके विशेष रूप से वस्तु को ग्रहण करता है उसका नाम व्यवहारनय है। अथवा लोकव्यवहार में तत्पर होकर विशेष मात्र को जो स्वीकार करता है उसे व्यवहारनय समझना चाहिये।
श्रमण-प्राचीन काल में जैन ऋषियों के लिए श्रमण शब्द का उपयोग होता रहा है। प्रवचनसार (३,४०-४१) के अनुसार पांच समितियों और तीन गुप्तियों का पालन करने वाले, पांचों इन्द्रियों व कषायों के विजेता, दर्शन व ज्ञान से परिपूर्ण तथा शत्र व मित्न. सख व दख. प्रशंसा व निन्दा. मिदी व सोना एवं जीवन व मरण; इनमें सम-राग-द्वेष से रहित-होते हैं ऐसे मुनियों को श्रमण कहा गया है।
सूत्रकृतांग (१, १६, २) में श्रमण की अनेक विशेषताओं को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो शरीर आदि विषयक प्रतिबन्ध से व निदान से रहित होता है, प्रादान, अतिपात, मषावाद, बहिद्ध (मंथन), क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष इत्यादि जो स्व और पर का अहित करनेवाले हैं उनको ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से जो परित्याग करता है। इसके अतिरिक्त जो जिस जिस अनुष्ठान से अपने प्रद्वेष के कारणों को देखता है—उस सबसे विरत होता है; तथा जो दान्त, द्रविक (संयमी) व शरीर से निःस्पृह होता है, उसे श्रमण जानना चाहिये । उत्तरा. चूणि (पृ. ७२) के अनुसार जिसका मन सर्वत्र - शत्रु-मित्र आदि के विषय में, सम-राग-द्वेष से रहित होता है वह समण (थमण) कहलाता है।
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प्रस्तावना
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पद्मपुराण (१४-५६) में श्रमण उन्हें कहा गया है जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित होकर घोर तपश्चरण में निरत होते हुए तत्त्व के चिन्तन में परायण रहते हैं। ऐसे श्रमणों को उत्कृष्ट पात्र समझना चाहिये।
भ. पाराधना की विजयोदया टीका (७१), सूत्रकृ. की शीलांक विरचित वृत्ति (२, ६, ४) और योगशास्त्र के स्वो. विवरण (३-१३०) में लगभग समान रूप से 'श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः, इस प्रकार की निरुक्तिपूर्वक यह कहा गया है कि जो तपश्चरण में तत्पर रहता है उसे श्रमण कहा जाता है। ध्ययन (८५६) में कहा गया है कि जो भ्रान्ति से श्रान्त नहीं होता उसे श्रमण जानना चाहिये। 'भिक्ष' को श्रमण का ही पर्यायवाची समझना चाहिए। सूत्रकृतांग (१, १६, ३) और उत्तराध्ययन (१५, १ से १६) में इसी प्रकार के अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषणों द्वारा भिक्ष की विशेषता प्रगट की गई है (देखिये 'भिक्ष' शब्द)।
सत्य--यह दस प्रकार के धर्म तथा पांच प्रकार के अणुव्रत और पांच प्रकार के महाव्रत के अन्तर्गत है । द्वादशानुप्रेक्षा में (७४) इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो वचन दूसरों के सन्ताप का कारण न होकर स्व और पर के लिये हितकर हो उसका नाम सत्य है । सत्यधर्म का धारक भिक्ष ऐसे ही वचन को बोलता है। स. सिद्धि (ह-६) और त. वातिक (8, ६,६) आदि में कहा गया है कि प्रशस्त जनों के मध्य में जो साधु (उत्तम या निरवद्य) वचन बोला जाता है उसे सत्य कहते हैं।
त. भाष्य (६.६) में इसके लक्षण का निर्देश करते हुए 'सत्यार्थे भवं वचः सत्यम्, सद्भ्यो वा हितं सत्यम्' इस प्रकार की निरुक्ति के साथ कहा गया है कि जो वचन यथार्थ वस्तु को विषय करता है अथवा सत्पुरुषों के लिए हितकर होता है उसका नाम सत्य है। वह असत्यता, कठोरता, पिशुनता, असभ्यता, चपलता, कलुषता और भ्रान्ति से रहित होता हुआ मधुर, अभिजात-कुलीनता का सूचक, असंदिग्ध, स्पष्ट, औद र्य गण से सहित, ग्राम्य दोष से रहित और राग-द्वेष से मुक्त होता है। इसके अतिरिक्त आगमानुसार प्रवृत्त होने वाला वह वचन यथार्थ, श्रोता जनों के लिये अभिप्राय के ग्रहण कराने में समर्थ, अपना व दूसरों का अनुग्राहक, उपाधि से रहित, देश-काल के योग्य, निर्दोष, जैनागम में प्रशस्त, संयत, मित, वाचन, पृच्छन और प्रश्न के अनुसार समाधान करनेवाला होता है । वसुदेवहिंडी (पृ. २६७) में सत्यवचन उसे कहा गया है जो भावतः विशुद्ध, यथार्थ, अहिंसा से अनुगत तथा पिशुनता व कठोरता से रहित होता है।
___ भ. प्रा. की विजयोदया टीका (५७) में असत् (असमीचीन) वचन से विरत होने को सत्य कहा गया है । यह तत्वार्थसूत्र का (७-१४) का अनुसरण है ।
मुलाचार (५-१११) में भाषा समिति के प्रसंग में सत्य वचन के ये दस भेद निदिष्ट किये गये हैंजनपद, सम्मत, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य, सम्भावना, ब्यवहार, भाव और प्रौपम्य सत्य । आगे वहाँ (५,,११२-१६) सोदाहरण पृथक्-पृथक् उनके लक्षणों का भी निर्देश कर दिया गया है। इनसे बहुत कुछ मिलते जुलते उस सत्य वचन के दस ही भेद सत्यप्रवाद पूर्व के प्रसंग में त. वार्तिक (१, २०, १२) में भी उपलब्ध होते हैं जैसे--नाम, रूप, स्थापना, प्रतीत्य, संवति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समय सत्य । यहां भी उनके पृथक्-पृथक् लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं। पूर्वोक्त मूलाचार के समान उसके वे दस भेद योग मार्गणा के प्रसंग में गो. जीवकाण्ड (२२१-२३) में भी उदाहरणपूर्वक कहे गये हैं।
___असत्य-पूर्वोक्त सत्य का प्रतिपक्षी अनृत या असत्य है। तत्त्वार्थसूत्र (७-१४) में इसके पर्याय वाची 'अन्त' शब्द का उपयोग करते हुए असत् वचन के बोलने को अन्त कहा है। उसकी व्याख्या करते हुए स. सिद्धि आदि में 'सत्' शब्द को प्रशंसावाची मानकर 'असत्' का अर्थ अप्रशस्त किया गया है। ऋत का अर्थ सत्य और अन्त का अर्थ असत्य है। त. भाष्य (७-६) में असत् शब्द से सद्भाव के प्रतिषेध, अर्थान्तर और गर्दा को ग्रहण किया गया है । इनका विशेष विचार प्रस्तुत जैन लक्षणावली के प्र. भाग की प्रस्तावना पृ. ७६ में 'कान्त'क अन्तर्गत किया जा चुका है।
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जैन लक्षणावली
भगवती आराधना (८२५-२९) में असत्य के चार भेद कहे गये हैं-- (१) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पदार्थ के सत् होते हुए भी अपनी बुद्धि से विचार न करके उसका प्रतिषेध करना । जैसे - यहां घट नहीं है । इत्यादि प्रकार के वचन को प्रथम असत्य जानना चाहिये । इसे भूतनित्त्व या सदपलाप कहा जा सकता है । (२) जो प्रसद्भूत है - जिसका होना सम्भव नहीं है उसके उद्भावन को द्वितीय असत्य कहा गया है । जैसे -- देवों का अकाल में मरण होता है । अथवा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से असत् ( श्रविद्यमान ) उसका विचार न करके उसके अस्तित्व को प्रगट करना । जैसे - यहां घट है । इत्यादि प्रकार का वचन । इसे प्रभूतोद्भावन या असदुद्भावन कहा जा सकता है । ( ३ ) एक जाति का जो पदार्थ विद्यमान है उसे प्रविचारपूर्वक अन्य जाति का बतलाना । जैसे- गाय को घोड़ा कहना । इत्यादि प्रकार के वचन को तीसरा असत्य कहा गया है । इसे अर्थान्तर वचन कहा जा सकता है । जो वचन गर्हित, सावद्य संयुक्त प्रथवा अप्रिय है उसे चौथा श्रसत्य माना गया है । इन गर्हित आदि वचनों का सोदाहरण लक्षण भी वहां प्रगट किया गया है।
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ध्यानशतक की हरिभद्र सूरि विरचित वृत्ति ( २० ) में द्वितीय रौद्र ध्यान के प्रसंग में पिशुन, असभ्य, असद्भुत और भूतघात इन असत्य वचनों की व्याख्या करते हुए पूर्वोक्त त भाष्य ( देखिये प्र. भाग की प्रस्तावना पृ. ७९) के अनुसार असद्भुत को अभूतोद्भावन, भूतनिह्नव, और अर्थान्तर के भेद से तीन प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। यहां क्रम से उन तीनों के लिए ये उदाहरण दिये गये हैं - यह आत्मा सर्वगत है, आत्मा है ही नहीं, तथा गाय को अश्व कहना । इनके अतिरिक्त यहां मूल में निर्दिष्ट पूर्वोक्त पिशुन, असभ्य और भूतघात इन असत्य वचनों के स्वरूप को भी प्रगट किया गया है ।
पूर्वोक्त भ. प्राराधना के अनुसार पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ( ६१-१०० ) में भी प्रकृत असत्य वचन के वे ही चार भेद स्वरूपनिर्देश के साथ उपलब्ध होते हैं । विशेष इतना है कि भ. आ. में जहां प्रथम व द्वितीय असत्य वचनों का स्वरूप दो दो विकल्पों में निर्दिष्ट किया गया है वहां पु. सि. में उनके विषय में कोई विकल्प न करके सामान्य से भ. प्रा. गत द्वितीय विकल्प को ही अपनाया गया है तथा उदाहरण भी क्रम से देवदत्त व घट के दिये गये हैं । इतनी विशेषता यहां और भी है कि प्रकृत असत्य वचन व चौर्य कर्म आदि सभी पापों को वहां हिंसा का रूप दिया गया है ।
सागारधर्मामृत (४, ३६-४५ ) में सत्याणुव्रत के प्रसंग में सत्याणुव्रती को कन्यालीक, गायविषयक लीक, पृथिवीविषयक अलीक, कूटसाक्ष्य और न्यासापलाप इन पांच असत्य वचनों के परित्याग के साथ जो सत्य वचन स्व और पर को आपत्ति जनक है ऐसे सत्य वचन का भी परित्याग कराया गया है। इसमें जो कन्यादिविषयक पांच असत्य वचनों का परित्याग कराया गया है उसका आधार सम्भवतः श्रावकप्रज्ञप्ति की २६०वीं गाथा रही है । इस प्रसंग में यहां सामान्य से वचन के इन चार भेदों का निर्देश किया गया है - सत्य - सत्य, सत्याश्रित असत्य, असत्याश्रित सत्य और असत्यासत्य । इनका स्वरूप वहां संक्षेप में इस प्रकार कहा गया है - जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकार में प्रतिज्ञात है उसके विषय में उसी प्रकार के कथन को सत्यसत्य कहा जाता है । वस्त्र बुनो, भात पकाओ, इत्यादि प्रकार के वचन को सत्याश्रित असत्य माना गया है। विवक्षित वस्तु को प्रयोजनवश किसी अन्य से लेकर जितने समय में उसे वापिस कर देने की प्रतिज्ञा की थी उतने समय में न देकर कुछ काल के बाद उसे वापिस करने पर तीसरा सत्याश्रितसत्य वचन होता है । जो वस्तु अपने पास नहीं है 'उसे मैं कल दूंगा' इस प्रकार के वचन का नाम श्रसत्यासत्य । यह वचन लोक व्यवहारका विरोधी होने से सत्याणुव्रती के लिये सर्वथा हेय कहा गया है, शेष प्रथम तीन वचनों का प्रयोग वह कर सकता है ।
समभिरूढ़ नव - जैन सम्प्रदाय में नयों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । विविध जैन ग्रन्थों में उनका विस्तार से विवेचन किया गया है। कहीं-कहीं तो वह जटिल और दुरूह भी हो गया है। इसके अतिरिक्त तद्विषयक मतभेद भी कुछ परस्पर में हो गया है । प्रकृत में समभिरूढ़नयविषयक विचार विविध ग्रन्थों में जिस प्रकार से किया गया है उसका दिग्दर्शन यहां कराया जाता है ।
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प्रस्तावना
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स. सिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार त. सू. (१-३३) में नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत ये नय के सात भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। पर त. भाष्य सम्मत सूत्रपाठ के अनुसार उसी त.स (१-३४) में उसके ये पांच भेद कहे गये हैं—नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसूत्र और शब्द । उसके भाष्य (१-३५) में देशपरिक्षपी और सर्वपरिक्षपी के भेद से नैगमनय को दो प्रकार का तथा साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत के भेद से शब्दनय को तीन प्रकार का कहा गया है।
प्रकृत समभिरूढ़नय के लक्षण का निर्देश करते हुए स. सि. (१-३३) में कहा गया है कि जो शब्द के अनेक अर्थों को छोड़कर प्रमुखता से एक ही अर्थ में रूढ़ होता है उसे समभिरूढ़नय कहते हैं । जैसे'गो' शब्द के वाणी व इन्द्रिय आदि अनेक अर्थ हैं, फिर भी वह इस नय की अपेक्षा अन्य अर्थों की उपेक्षा करके पशुविशेष (गाय) में रूढ़ है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, त. भाष्यसम्मत सूत्रपाठ में यद्यपि इस नय को प्रमुख स्थान प्राप्त नहीं है, फिर भी उसे शब्दनय के एक भेद के रूप में स्वीकार किया हो गया है। वहां उसके लक्षण में कहा गया है कि अनेक अर्थों के होने पर भी इस नय की अपेक्षा उनमें संक्रमण नहीं होता-अनेक अर्थों में प्रवृत्त न होकर वह प्रमुखता से एक ही अर्थ को स्वीकार करता है। आगे यहीं पर वहां एक प्रसंगप्राप्त शंका का समाधान करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि साम्प्रत शब्दनय के विषयभूत उन्हीं साम्प्रत (वर्तमान) घटों में जो अध्यवसाय का असंक्रमण होता है उसे समभिरूढ़नय समझना चाहिए। इसका स्पष्टीकरण करते हुए वहां वितर्क ध्यान का उदाहरण देकर यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि जिस प्रकार वितर्क-एकत्ववितकै शुक्लध्यान का- अर्थ, व्यंजन और योगों में संक्रमण नहीं होता, किन्तु उनमें से किसी एक के ऊपर ही वह पारूढ़ रहता है, उसी प्रकार प्रकृत समभिरूढ़नय का शब्द के अनेक अर्थों में संक्रमण नहीं होता—एक ही अर्थ को वह प्रमुखता से ग्रहण करता है। - यहां यह स्मरणीय है कि धवला (पु. १, पृ. ८५-८६) में अर्थनय और व्यंजननय के भेद से पर्यायाथिकनय को दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। उनमें ऋजसुत्र को अर्थनय तथा शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत को शब्दनय कहा गया है।
आगे इसी धवला (पु.६, पृ. १८१) और नयविवरण (६५) में नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र इन चार को अर्थनय तथा शेष तीन को शब्दनय कहा गया है।
विशेषा. भाष्य (२७२७) के अनुसार शब्द जिस जिस अर्थ को कहता है, शब्दान्तर के अर्थ से विमुख होकर वह चूंकि उसी अर्थ पर आरूढ़ रहता है, इसीलिए उसका समभिरूढनय यह सार्थक नाम है।
त. वार्तिक (१, ३३, १०), त. भाष्य की हरि. वृत्ति (१-३५), अनुयोग. की हरि. वृत्ति (पृ. १०८), धवला (पृ. १, पृ. ८६ व पु. ६, पृ. १७६), जयध. (१, पृ. २४०), हरिवंशपुराण (५८-४८), त. श्लो. वार्तिक (१, ३३, ७६), सूत्रकृतांग की शीलांक. वृत्ति (२, ७, ८१, पृ. १८८) और प्रमेयकमलमार्तण्ड (६-७४, पृ. ६८०) आदि में प्रायः सवार्थसिद्धि के लक्षण (नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढः) का अनुसरण किया गया है । त. वा. में विशेषता यह है कि वहां पूर्वोक्त त. भा. के समान वस्त्वन्तर में असंक्रमण तो बतलाया गया है, पर वहां ततीय अवितर्क व अविचार सूक्ष्म क्रिय नामक शुक्लध्यान का उदाहरण दिया गया है। त. वा. का यह विवेचन उक्त त. भा. से प्रभावित रहा दिखता है। त. भा. में जहां सामान्य से अवितर्क ध्यान का उदाहरण दिया गया है वहां त. वा. में सामान्य से 'अवितर्क ध्यानवत' ऐसा निर्देश करके भी आगे उसे स्पष्ट करते हुए तीसरे सूक्ष्मक्रिय-अवितर्क-अविचार शुक्लध्यान की ही सूचना की गई है।
लघुनयचक्र (४२) द्रव्यस्व. प्र. नयचक्र (२१४) और पालापपद्धति (पृ. १४६) के अनुसार जिस नय के पाश्रय से अर्थ शब्द में और शब्द अर्थ में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़नय कहलाता है।
स्थानांग की अभय. वृत्ति (१८६) में कहा गया है कि समभिरूढनय वह है जो प्रत्येक वाचक के आश्रय से वाच्यभेद का प्राश्रय लेता है वह अनन्तर उक्त विशेषण से युक्त भी वस्तु के शक व पुरंदर आदि वाचकों के भेद से भेद को स्वीकार करता है, जैसे घट-पटादि विभिन्न शब्द । जैसे----'घटते चेष्टते इति घट:' इत्यादि शब्दार्थ।
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जैन लक्षणावलो
सम्यक्त्व-दर्शन, सद्दर्शन, सद्वृष्टि, सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि ये प्राय: प्रकृत सम्यक्त्व के समानार्थक शब्द हैं । बोधप्राभूत (१४) में दर्शन के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो सम्यक्त्व, संयम और उत्तम धर्मस्वरूप मोक्षमार्ग को दिखलाता है तथा परिग्रह से रहित होता हुमा ज्ञानस्वरूप है उसे जैन मार्ग में दर्शन कहा गया है। पंचास्तिकाय (१०७)में भावों--जीव-अजीव आदि नौ पदार्थो के श्रद्वान को सम्यक्त्व कहा गया है। आगे इसी पंचास्तिकाय की गा. १६० और तत्त्वानुशासन (३०) में धर्मादिकों के श्रद्धान को सम्यक्त्व का लक्षण प्रगट किया गया है। समयप्राभूत (११) में सम्यग्दृष्टि उसे कहा गया है जो भूतार्थ (शुद्धनय) के आश्रित हैं । आगे इसी समयप्राभृत (१५) और मूलाचार (५-६ ) में भी समान शब्दों में भूतार्थस्वरूप से अधिगत जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इनको ही अभेद विवक्षा से सम्यक्त्व कहा गया है। आगे उक्त समयप्राभत (१६५) मेंजीवादि के श्रद्धान को भी सम्यक्त्व का लक्षण प्रगट किया गया है । नियमसार गा. ५ में प्राप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान को; गा. ५१ में विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धान को, तथा गा. ५२ में चल, मलिन और प्रगाढता दोषों से रहित श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा गया है। दर्शनप्राभूत (१६)में छह द्रव्य, नौ पदार्थ,पांच अस्तिकाय और सात तत्त्व इनके स्वरूप के श्रद्धान करने वाले को सम्यग्दष्टि तथा यहीं पर आगे (गा. २०) जीवादि के श्रद्धान को व्यवहार से सम्यक्त्व एवं प्रात्मा के श्रद्धान को निश्चय से सम्यक्त्व कहा गया है। मोक्षप्राभूत (१४) के अनुसार सम्यग्दृष्टि बह श्रमण होता है जो स्वद्रव्य में निरत रहता है। आगे इस मोक्षप्राभृत (३८) और उपासकाध्ययन (२६७) में तत्त्वांच को तथा उसके आगे इसी मोक्षप्राभत की गा. ६० और भावसंग्रह की गा. २६२ में समान शब्दों द्वारा हिंसा से रहित धर्म,अठारह दोषों से रहित देव, निग्रंथ गुरु और प्रावचन --प्रवचन से होने वाले ज्ञान अथवा द्रव्यश्र त-विषयक श्रद्धान को सम्यक्त्व का लक्षण कहा गया है। यहां यह स्मरणीय है कि मलाचार, उपासकाध्ययन और भावसंग्रह को छोड़कर उपर्युक्त सभी ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा रचे गये हैं।
जैसा कि पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, मूलाचार(५-६) में समयप्राभृत की १५वीं गाथा को आत्मसात् कर तदनुसार भूतार्थस्वरूप से अधिगत जीवादि नौ पदार्थों को ही सम्यक्त्व कहा गया है। इसके पूर्व (५-५) यहां मार्ग (मोक्षमार्ग) को भी सम्यक्त्व कहा जा चुका है। आगे यहां (५-६८) यह भी कहा गया है कि 'जो जिन देव के द्वारा उपदिष्ट है वही यथार्थ है', इस प्रकार भावतः-परमार्थ से-ग्रहण करना, यह सम्यग्दर्शन का लक्षण है । वृत्तिकार ने इसे आज्ञा सम्यक्त्व का लक्षण कहा है। ध्यान रहे कि ये लक्षण यहां दर्शनाचार के प्रसंग में निर्दिष्ट किये गये हैं । इस प्रकार यहां सम्यग्दर्शन के लिये दर्शन (५-३) सम्यक्त्व (५,५-६) और सम्यग्यदर्शन (५-६८) ये तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
उत्तराध्ययन (२८-१४-१५) में कहा गया है कि जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ पदार्थ जिस रूप में अवस्थित हैं उसी रूप में उनका जो श्रद्धान करता है उसके वह सम्यक्त्व जानना चाहिए। यहां यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि पूर्वोक्त समयप्राभृत (१५) में जहां भूतार्थ से अधिगत इन्हीं नौ पदार्थों को ही अभेदविवक्षा से सम्यक्त्व कहा गया है वहां प्रकृत उत्तराध्ययन में उनके श्रद्धान को सम्यक्त्व का लक्षण निदिष्ट किया गया है। प्रकृत उत्तरा. की चुणि (पृ. २७२) में कहा गया है कि शद्ध पदार्थों के विषय में जो निसर्ग अथवा अधिगम से रुचि होती है उसका नाम सम्यरदर्शन है। यह स्पष्टतः त. सू. (१,२-३) का अनुसरण है।
तत्त्वानुशासन (२५) के अनुसार जो जीवादि नौ पदार्थ जिन देव के द्वारा जिस प्रकार से उपदिष्ट हैं वे उसी प्रकार हैं, ऐसी जो श्रद्धा होती है उसे सम्यग्दर्शन माना गया है। इसमें सम्भवत: मूलाचार (५-६८) का अनुसरण किया गया है। लगभग यही अभिप्राय धर्मपरीक्षा (१६.१०) में भी प्रगट किया गया है, जो शब्द और अर्थ से भी प्रकृत तत्त्वानुशासन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है।
तत्त्वार्थसून १-२ में तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा गया है। इसके भाष्य (१-१) में प्रशस्त अथवा संगत दर्शन को सम्यक्त्व कालक्षण निर्दिष्ट किया गया है । आगे इसी भाष्य (१-२)
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प्रस्तावना
में तत्त्वार्थश्रद्धान को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि तत्त्वों के अर्थों के श्रद्धान अथवा तत्त्व रूप से अर्थों के श्रद्धान का नाम तत्त्वार्थश्रद्धान है और यही तत्त्वार्थश्रद्धान उस सम्यग्दर्शन का लक्षण है जो प्रशम, संवेग. निर्वेद, अनकम्पा और आस्तिक्य स्वरूप है। प्रशमरतिप्रकरण(२२२)में जीवादिकों के विषय में जो निश्चय से 'तत्त्व' इस प्रकार का अध्यवसाय होता है उसे सम्यग्दर्शन कहा गया है। बृहत्कल्पसूत्र (१३४) के अनुसार सुन करके....."जो तत्त्वरुचि होती है उसे सम्यक्त्व कहा जाता है । पउमचरिउ (१०२,१२१) में सम्यग्दृष्टि उसे कहा गया है जो लौकिक श्र तियों से रहित होकर जीवादि नौ पदार्थों का श्रद्धान करता है।
रत्नकरण्डक (४) के अनुसार परमार्थभूत प्राप्त, आगम और गुरु का जो तीन मूढ़ताओं से रहित. आठ अंगों से सहित एवं आठ मदों से रहित श्रद्धान होता है उसका नाम सम्यग्दर्शन है। परमात्मप्रकाश (१-७६) के अनुसार सम्यग्दृष्टि वह जीव होता है जो आत्मा को आत्मा मानता है। योगसार (48) में भी लगभग इसी अभिप्राय को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो सब व्यवहार को छोड़कर आत्मस्वरूप में रमता है उसे सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव शीध्र ही संसार के पार को पा लेता.. वह मक्त हो जाता है। दि. पंचसंग्रह (१-१५९) और भावसग्रह (२७८) में प्रायः समान रूप में यह कहा गया है कि जिन भगवान् के द्वारा उपदिष्ट छह, पांच और नो प्रकार के पदार्थों का आज्ञा और अधिगम से जो श्रद्धान होता है उसे सम्यक्त्व कहते हैं । तत्त्वार्थवार्तिक (१, १, १) में कहा गया है कि उपयोगविशेष से प्रादर्भत निसर्ग व अधिगम रूप दो प्रकार के व्यापार से युक्त जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसका नाम सम्यग्दर्शन है। इसका अनुसरण करते हुए त. श्लो. वार्तिक (१, १, १) में भी प्रायः इसी अभिप्रायो व्यक्त किया गया है।
श्रावकप्रज्ञप्ति (६२) में पूर्वोक्त तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य का अनुसरण करते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व का लक्षण बतलाकर यह कहा गया है कि उसके होने पर नियम से प्रशम आदि (संवेग निर्वेद, अनकम्पा और आस्तिक्य) प्रगट होते हैं।
धवला ( पु. १, पृ. १५१ व पु. ७, पृ. ७) तथा मूलाचार की वृत्ति (१२-१५६) में प्रशम, संवेग, अनकम्पा और आस्तिक्य इनकी अभिव्यक्ति को सम्यक्त्व का लक्षण प्रगट किया गया है। आगे इस धवला (पु. ६, पृ. ३८ तथा पु. १३, पृ. ३५७-५८) में प्राप्त, आगम और पदार्थ विषयक रुचि को दर्शन का लक्षण बतलाते हुए रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन इन शब्दों को समानार्थक निर्दिष्ट किया गया है। यहीं पर (पू. ७, पृ. ७) तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन अथवा तत्त्वरुचिको सम्यक्त्व कहा गया है। प. १३ (पृ. २८६-८७) में 'सम्यग् दृश्यन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्थाः अनया इति सम्यग्दृष्टि:' इस निरुक्ति के साथ यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि जिस दृष्टि के द्वारा जीवादि पदार्थ यथार्थ रूप में जाने जाते हैं उस दृष्टि का नाम सम्यग्दृष्टि है । प्रकारान्तर से यहां यह भी कहा गया है कि अथवा सम्यग्दष्टि के अविनाभाव से सम्यग्दष्टि जानना चाहिये । पू. १५(प. १२) में छह द्रव्य और नौ पदार्थ विषयक श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है।
वरांगचरित (२६-६१) में सम्यग्दृष्टि उन्हें कहा गया है जो जिनप्रणीत प्रवचन पर श्रद्धा करते हैं, भावतः वृद्धिंगत होते हैं और प्रत्यय भी करते हैं। हरिवंशपुराण (५८-१६) में तत्त्वार्थसूत्र के अनसार तत्त्वार्थश्रद्धानको तथा महापुराण (६-१२१ व २४-११७) में धवला (पु. ६, पृ. ३८) के अनुसार प्राप्त, आगम और पदार्थ विषयक रुचि या श्रद्धान को दर्शन या सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा गया है।
त. भाष्य (१-१, पृ. २६) की सिद्धसेन विरचित वृत्ति में कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के घातक मिथ्यादर्शन और अनन्तानुबन्धी कषायों के क्षय आदि से जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट समस्त द्रव्यों और पर्यायों को विषय करने वाली जो जीव की रुचि प्रादुर्भत होती है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। प्रागे यहां (प. ३०) यह भी कहा गया है कि अविपरीत (यथार्थ) पदार्थों को ग्रहण करने वाली जो दष्टि जीवादि विषय का उल्लेख करती हुई सी प्रवृत्त होती है उसका नाम सम्यग्दर्शन है। यहीं पर आगे (१-७, पृ. ५५) मख्य वत्ति से जो रुचि-श्रद्धा-संवेगादि रूप ज्ञान लक्षण आत्मपरिणाम होता है उसे सम्यग्दर्शन कहा
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गया हैं। यहां सम्यग्दृष्टि उस जीव को कहा गया है जिसकी सुन्दर दृष्टि समीचीन पदार्थों का अवलोकन किया करती है। आगे इसी वृत्ति (२-३) में तत्त्वरुचि को और तत्त्वार्थश्रद्धान (७-६ व ८-१०) को भी सम्यक्त्व का लक्षण कहा गया है । सूत्र ६-४ की वृत्ति में प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति को सम्यग्दर्शन का लक्षण बतलाया गया है।
भ.पाराधना की विजयोदया टीका (१६) के अनुसार वस्तु की यथार्थता के श्रद्धान का नाम दर्शन है। पूरुषार्थसिद्धयुपाय (२१६) में आत्मविनिश्चिति-पर से भिन्न प्रात्मा के निर्णय -..को दर्शन कहा गया
तत्त्वार्थसार १-४ व २-६१ में तत्त्वार्थश्रद्धान को कम से दर्शन व सम्यक्त्व कहा गया है। पंचास्तिकाय की अमृतचन्द्र विरचित वृत्ति (१६०) में द्रव्य व पदार्थ के विकल्प युक्त धर्मादिकों के श्रद्धान नामक तत्त्वार्थश्रद्धानभावस्वभाव भावान्तर को सम्यक्त्व का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। योगसारप्राभत
-१६) के अनुसार जिसके प्रश्रिय से जैसी वस्तु है उसका उसी रूप में जो ज्ञान होता है उसे जिन भगवान के द्वारा सम्यक्त्व कहा गया है, वह सिद्धि (मुक्ति) के सिद्ध करने में समर्थ है। उपासकाध्ययन (२६७) में सम्यक्त्व का लक्षण तत्त्वविषयक रुचि कहा गया है । सावयधम्मदोहा (१६) व वसुनन्दिश्रावकाचार (E) में प्रायः समान शब्दो में यह कहा गया है कि प्राप्त, आगम और तत्त्वों का शंकादि दोषों से रहित जो निर्मल श्रद्धान होता है उसे सम्यक्त्व जानना चाहिये । जीवन्धरचम्पू (७-६) में प्राप्त, आगम और पदार्थों के श्रद्धान को दर्शन का लक्षण कहा गया है । जैसा कि धवला (पु. ६, पृ. ३८) में निर्दिष्ट किया जा चका है तदनुसार आचारसार (३-३) में भी प्राप्त, आगम और पदार्थ विषयक रुचि को सम्यक्त्व कहा गया है। द्रव्यसंग्रह (४१) में सम्यक्त्व का लक्षण जीवादि का श्रद्धान प्रगट किया गया है।
स्थानांग की अभय. वृत्ति (१-४३) में 'दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेनास्मादस्मिन् वेति दर्शनम्' इस निरुक्ति के अनुसार दर्शनमोहनीय के क्षय या क्षयोपशम को तथा 'दृष्टिर्वा दर्शनम्' इस निरुक्ति के अनुसार उक्त दर्शन मोहनीय के क्षय आदि के आश्रय से प्रादुर्भूत तत्त्वश्रद्धानरूप प्रात्मपरिणाम को दर्शन कहा
। लगभग इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए प्राव. नियुक्ति की मलयगिरि विरचित वृत्ति (१२१) में भी आत्मपरिणतिस्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन का लक्षण प्रगट किया गया है।
इस प्रकार संक्षेप में उक्त सम्यग्दर्शन के लक्षणों को निम्न रूपों में देखा जा सकता है१. सम्यक्त्व, संयम या उत्तम धर्मस्वरूप मोक्षमार्ग का दर्शक (बोधप्राभत) २. जीवादि नौ पदार्थों का श्रद्धान (पंचास्तिकाय) ३. धर्मादिकों का श्रद्धान (पंचास्तिकाय) ४. भूतार्थ का आश्रय (समयप्राभृत) ५. भूतार्थ स्वरूप से अधिगत जीवादि (समयप्राभूत) . ६. जीवादि का श्रद्धान (समयप्राभूत) ७. प्राप्त, आगम और पदार्थों का श्रद्धान (समयप्राभृत) ८. आप्त, आगम और तत्त्वों का श्रद्धान (नियमसार) ६. विपरीत अभिनिवेश से रहित श्रद्धान ( , ) १०. चल, मलिन और अगाढ़ता से रहित श्रद्धान (नियमसार) ११. छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्व इनके स्वरूप का श्रद्धान (दर्शनप्राभृत) १२. जीवादिका श्रद्धान (व्यवहार सम्यग्दर्शन), आत्मा का श्रद्धान (निश्चय सम्यग्दर्शन)
दर्शनप्राभूत १३. तत्वरूचि (मोक्षप्राभृत व बृहत्कल्प) १४. हिंसारहित धर्म, अठारह दोषरहित देव, निर्ग्रन्थ गुरु और प्रवचन विषयक श्रद्धान (मोक्षप्राभूत) १५. जिनोपदिष्ट ही यथार्थ है, ऐसा भावतः ग्रहण (मूलाचार) १६. मार्ग ही सम्यक्त्व है (मूलाचार)
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१७. यथावस्थित जीवादिकों का भावतः श्रद्धान (उत्तराध्ययन) १८. ययार्थ शुद्ध भावों की निसर्ग अथवा अधिगम से होनेवाली रुचि (उत्तराध्ययन चूणि) १६. तत्त्वार्थ श्रद्धान (तत्त्वार्थसूत्र) २०. निश्चय से यही तत्त्व है, ऐसा अर्थविषयक अध्यवसाय (प्रशमरति प्रकरण) २१. परमार्थभूत प्राप्त, पागम और गुरु का निर्दोष श्रद्धान (रत्नकण्डक) २२. प्रात्मा को आत्मा समझना (परमात्मप्रकाश) २३. जिनोपदिष्ट छह, पांच और नौ प्रकार के पदार्थों का आज्ञा व अधिगम से होने वाला श्रद्धान
(दि. पंचसंग्रह) २४. प्रणिधानविशेष से आहित निसर्ग व अधिगम रूप दो प्रकार के व्यापार से होने वाला श्रद्धान
(तत्त्वार्थवार्तिक) २५. प्रशम, संवेग, अनकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति (धवला) २६. जिस दृष्टि से भली भांति जीवादि पदार्थों का श्रद्धान होता है वह दृष्टि (धवला) २७. जिनप्रणीत प्रवचन पर श्रद्धा (वरांगचरित) २८. दर्शनविघातक कर्मों के क्षयादि से होनेवाली जिनोपदिष्ट समस्त द्रव्य-पर्यायविषयकरुचि
(त. भा. सिद्ध. वृत्ति) २६. अविपरीत पदार्थों को ग्रहण करने वाली दृष्टि (त. भा. सिद्ध. वृत्ति) ३०. आत्म विनिश्चिति (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय) ३१. द्रव्य व पदार्थ के विकल्प युक्त धर्मादिकों के तत्त्वार्थश्रद्धानमावस्वभाव श्रद्धान नामक
भावान्तर (पंचा. अमृत वृत्ति) ३२. शुद्ध नय की अपेक्षा एकत्व में नियत, व्यापक एवं पूर्ण ज्ञानघनस्वरूप प्रात्मा को द्रव्यान्तरों
से पृथक् देखना (समयसारकलश) ३३. जैसी वस्तु है उसी प्रकार का ज्ञान जिसके आश्रय से प्रात्मा के होता है (योगसारप्रभृत) ३४. विपरीतता से रहित जिन प्रणति तत्त्वप्रतिपत्ति (प्रज्ञापना मलय वृत्ति)
संग्रहनय - इसके लक्षण का निर्देश करते हुए सर्वार्थसिद्धि (१-३३) में कहा गया है कि जो अपनी जातिका विरोध न करके अनेक भेद यक्त पर्यायों को सामान्य से एक रूप में ग्रहण करता है उसे संग्रहनय कहते हैं। समस्तको ग्रहण करने के कारण इसका संग्रहनय यह सार्थक नाम है।
त. भाष्य (१-३५, पृ. ११८) के अनुसार पदार्थों का जो सर्वदेश अथवा एकदेश रूप से संग्रहण होता है उसका नाम संग्रहनय है। यहीं पर प्रागे (प. १२३) एक शंका के समाधान रूप में पुनः यह कहा गया है कि नाम-स्थापनादि से विशिष्ट एक अथवा बहत साम्प्रत, अतीत व अनागत घटों में जो सम्प्रत्यय- सामान्य बोध ---होता है उसे संग्रहनय कहा जाता है। मागे वहाँ नयविषयक विरोध की आशंका का निराकरण करते हुए 'पाह च' ऐसा निर्देश करके ४ कारिकायें उद्धृत की गई हैं। उनमें से दूसरी कारिका में संग्रहनय के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो सामान्यविषयक अथवा देशतः विशेषविषयक संगृहीतवचन है उस संग्रहनय से नियत ज्ञान को संग्रहनय जानना चाहिए।
अनुयोगद्वार गाथा १३७ (पृ. २६४) व प्राव. नियुक्ति १३७ के अनसार जो संग्रहवचन पदार्थों को पिण्डित रूप में ग्रहण करता है उसे संग्रहनय जानना चाहिये। विशेषा. भाष्य (७६ व २६६६) में भावसाधन, कर्तृसाधन और करणसाधन के प्राश्रय से कहा गया है कि सामान्य से भेदों के पिण्डित अर्थ के रूप में होने वाले संग्रह को, जो उनका संग्रह करता है, अथवा जिसके द्वारा उनका संग्रह किया जाता है उसका नाम संग्रहनय है । यह उसका सार्थक नाम है।
त. वार्तिक (१,३३, ५) में पूर्वोक्त सर्वार्थसिद्धिगत लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अपनी चेतन-अचेतन रूप जाति से च्यूत न होकर जो एकता को प्राप्त कराकर भेदों का संग्रह-समस्त रूप
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ग्रहण होता है, इसका नाम संग्रहनय है । जैसे- 'सत् द्रव्य' ऐसा कहने पर द्रव्य, पर्याय व उनके भेद-प्रभेद जो सत्ता सम्बन्ध के योग्य हैं उन सबको द्रव्यत्व से अविरुद्ध होने के कारण एक रूप में ग्रहण किया गया है | अतएव इसे संग्रहनय जानना चाहिये। दूसरा उदाहरण यहां घट का दिया गया है, 'घट' ऐसा कहने पर यद्यपि प्रकृत घट नाम स्थापनादि के भेद से, सुवर्ण व मिट्टी ग्रादि उपादान के भेद से, रक्त-पीतादिरूप वर्ण के भेद से, तथा प्रकार के भेद से अनेक प्रकार के हैं; तो भी वे सब ही 'घट' शब्द के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं । अतः वाचक के अभिन्न होने से उन सबको यह नय एक रूप में ग्रहण करता है । यहां जो 'सत् द्रव्य व घट' ये दो उदाहरण दिये गये हैं उन्हें क्रम से पूर्वोक्त त भाष्य में निर्दिष्ट सर्वदेश व एकदेश के स्पष्टीकरण स्वरूप समझना चाहिए ।
पूर्वोक्त त· भाष्यगत 'प्रर्थानां सर्वेकदेशग्रहणं संग्रह:' इस लक्षण को स्पष्ट करते हुए उसकी हरि. वृत्ति में 'सर्व' शब्द से सामान्य और 'देश' शब्द से विशेष को ग्रहण करके उसका यह अभिप्राय प्रगट किया है कि पदार्थों का सामान्य व विशेष रूप से जो एक रूप में ग्रहण होता है उसे संग्रहनय कहा जाता है । यही अभिप्राय प्रायः उन्हीं शब्दों में उक्त त भाष्य की अपनी वृत्ति में सिद्धसेन गणि ने भी व्यक्त किया है । अनुयोगद्वार की हरि वृत्ति (पृ. ३६ ) में प्रकृत संग्रहनय को स्वभावतः सामान्य मात्र को ग्रहण करने वाला निर्दिष्ट किया गया है।
धवला (पु. १, पृ. ८४) में प्रकृत संग्रहनय के स्वरूप को दिखलाते हुए कहा गया है कि विधि को छोड़कर चूंकि प्रतिषेध उपलब्ध नहीं है, इसलिये 'विधि मात्र ही तत्त्व है' इस प्रकार का जो अध्यवसाय होता है उसे समस्त को ग्रहण करने के कारण संग्रहनय कहा जाता है, अथवा द्रव्य को छोड़कर पर्याय चूंकि पाई नहीं जाती, इसलिए 'द्रव्य ही तत्त्व है' इस प्रकार का जो अध्यवसाय होता है उसे संग्रहन समझना चाहिये । अन्यत्न यहीं पर (पु. ६, पृ. १७० ) पर्याय कलंक से रहित होने के कारण जो सत्तादि के द्वारा सव में अद्वैतता - द्वैत के प्रभाव स्वरूप एकत्व -का अध्यवसाय होता है उसे शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रहनय का लक्षण कहा गया है ।
पश्चात्कालीन ग्रन्थों में प्रायः सवार्थसिद्धिगत लक्षण का अथवा त भाष्यगत लक्षण का ही हीनाधिक रूप में अनुसरण किया गया है ।
संयम - प्राकृत पंचसंग्रह ( दि. १-१२७) में व्रतों के धारण, समितियों के पालन, कषायों के निग्रह, दण्डों के त्याग और इन्द्रियों के जय को संयम का लक्षण कहा गया है । प्रकृत पंचसंग्रह की यह गाथा धवला (पु. १, पृ. १४५) में उद्भुत की गई है तथा गो. जोवकाण्ड (४६५) में वह उसी रूप में श्रात्मसात् की गई है । उक्त लक्षण का अनुसरण प्रायः उन्हीं शब्दों में त वार्तिक (६, ७, ११), धवला ( पू. १, पृ. १४४ व पू. ७, पृ. ७), उपासकाध्ययन (६२४), चारित्रसार (पृ. ३८) श्रमितगति विरचित पंचसंग्रह (१-२३८), मूलाचार वृत्ति (१२-१५६ ) और कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टोका (३६९) में किया गया है । सर्वार्थसिद्धि ( ६-१२) के अनुसार प्राणियों और इन्द्रियविषयों में जो अशुभ प्रवृत्ति हुआ करती है उससे निवृत्त होने का नाम संयम है । इसका अनुसरण त. वार्तिक ( ६, १२, ६) तत्त्वार्थसार ( २ - ८४ ) और पद्मनन्दिपंचविंशति (१-६६ ) में किया गया है।
त. भाष्य ( ६-६) में योगों के निग्रह को संयम का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। यहां यह स्मरणीय है कि मूल तत्त्वार्थसूत्र (E-४) में सम्यक् प्रकार से किये जाने वाले योगनिग्रह को गुप्ति कहा गया है । प्रकृत भाष्य में संयम को सत्तरह प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है--- १-५ पृथिवीकायिकादि के भेद से (पृथिवीकाfraiयम श्रादि ) ६-६ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के भेद से, १० प्रेक्ष्यसंयम, ११ उपेक्ष्यसंयम, १२ अपहृत्यसंयम, १३ प्रमृज्यसंयम, १४ कायसंयम, १५ वाक्संयम १६ मनसंयम १७ उप
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करणसंयम |
त. वार्तिक में प्रन्यत्र ( ६, ६, १४) संयम के लक्षण में यह भी कहा गया है कि समितियों में प्रवर्तमान मुनि उनके परिपालन के लिए जो प्राणिपीड़ा और इन्द्रियविषयों का परिहार करता है वह संयम कहलाता है । इसका अनुसरण मूलाचार की वृत्ति (२१-५) और तत्त्वार्थवृत्ति ( ६-६ ) में भी किया गया है । ध्यानशतक की हरि वृत्ति ( ६ ) में प्राणातिपातादिकी निवृत्ति को संयम का लक्षण कहा गया है। इसका अनुसरणत. भाष्य ( ६-१३ व ६-२० ) की वृत्ति में भी किया गया है। उक्त हरिभद्र सूरि के द्वारा दश की वृत्ति ( १ - १ पृ. २१ ) में आस्रवद्वारों के उपरम को तथा त भाष्य ( ६- २० ) की वृत्ति में विषयकषायों की उपरति को संयम का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है ।
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धवला में इसका लक्षण पांच स्थलों पर उपलब्ध होता है-जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, पु. १, पृ. १४४ पर व्रत, समिति, कषाय, दण्ड और इन्द्रिय इनके यथाक्रम से धारण, अनुपालन, निग्रह, त्याग और जय को संयम कहा गया है । यहीं पर आगे (पृ. १७६) गुप्तियों और समितियों से अनुरक्षित मुनि जो हिंसादि पांच पापों से विरत होता है, इसे संयम का लक्षण प्रगट किया गया है। आगे (पृ. ३७४ ) कहा गया है कि बुद्धिपूर्वक सावद्य से विरत होने का नाम संयम है । पु. ७, पृ. ७ पर पूर्वोक्त व्रतादि के रक्षण आदि को संयम का लक्षण कहा गया है । पु. १४, पृ. १२ पर विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध के प्रसंग में संयम और विरति में भेद को दिखलाते हुए कहा गया है कि समितियों के साथ महाव्रतों और अणुव्रतों को संयम और समितियों के बिना उक्त महाव्रतों और अणुव्रतों को विरति कहा जाता है ।
भ. आराधना की विजयो. टी. (६) में कर्मादान की कारणभूत क्रियाओं से उपरत होना, इसे संयम का लक्षण कहा गया है । यही अभिप्राय उसकी मूलाराधनादर्पण टीका ( ४ ) में भी व्यक्त किया गया है । अमितगतिश्रावकाचार (३-६१ ) के अनुसार धार्मिक, उपशान्त, गुप्तियों से सुरक्षित और परीषहों का विजेता अनुप्रेक्षाओं में तत्पर होता हुआ जो कर्म का संवरण करता है वह संयम कहलाता है, प्रवचनसार की जय. वृत्ति (१-७) में कहा गया है कि बाह्य इन्द्रियों व प्राणों के संयम के बल से अपनी शुद्ध प्रात्मा में संयमन होने के कारण जो समरसोभाव से परिणमन होता है उसे संयम कहते हैं । प्रचारसार ( ५- १४८) में निरुक्तिपूर्वक संयम के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से पवित्र व पाप का विघातक जो द्वन्दद्वितय --- प्राणिपीडा व इन्द्रियविषय इन दोनों का - यम ( त्याग ) किया जाता है। उसका नाम संयम है ।
प्रज्ञापना की मलयगिरि विरचित वृत्ति (३१६ की उत्थानिका) में निरवद्य योग में प्रवृत्ति और इतर ( सावद्य) योग से निवृत्ति को संयम कहा गया है । आाव. निर्युक्ति की मलय वृत्ति (८३१ ) के अनुसार समीचीन अनुष्ठान (सदाचरण ) का नाम संयम है ।
संसारपरीत - संसारपरीत और परीतसंसार ये दोनों शब्द समान अभिप्राय के बोधक हैं। मूलाचार (२-३६) के अनुसार जो जिनागम में अनुरक्त रहते हैं, गुरु की आज्ञा का भावतः परिपालन करते हैं, तथा अशबल - मिथ्यात्व की कलुषता से रहित होते हुए संक्लेश से रहित होते हैं वे परीतसंसार - परिमित संसार वाले होते हैं । प्रज्ञापना ( १८-२४७ ) में संसारपरीत का स्वरूप क्या है, इस गौतम गणधर के प्रश्न का समाधान करते हुए श्रमण महावीर के द्वारा कहा गया है कि संसारपरीत का अभिप्राय है संसार का कम से कम अन्तर्मुहूर्त मात्र और अधिक से अधिक अपार्ध पुद्गलपरिवर्त मात्र शेष रह जाना । प्रकृत सूत्र
अभिप्राय को व्यक्त करते हुए मलयगिरि ने अपनी वृत्ति में कहा है कि जिसने सम्यक्त्व आदि के द्वारा संसारको परिमित कर दिया है वह संसारपरीत है । ऐसा जीव जघन्य से अन्तर्मुहूर्त मात्र संसार में रहता है, तत्पश्चात् अन्तकृत् केवलित्व के योग से वह मुक्त हो जाता है । उत्कर्ष से वह श्रनन्त काल -- श्रपार्ध पुद्गल परिवर्त प्रमाण - संसार में रहता है, तत्पश्चात् वह नियम से मुक्ति को प्राप्त हो जाता है ।
धवला (पु. ४, पृ. ३३५) में सादि - सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि के काल की प्ररूपणा के प्रसंग में अपतसंसार और परीतसंसार का विवेचन करते हुए कहा गया है कि एक अनादि मिथ्यादृष्टि परीत
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संसारी जीव श्रध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और प्रनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करके सम्यक्त्व ग्रहण के प्रथम समय में ही उस सम्यक्त्व गुण के द्वारा पूर्व के अपरीत संसार से हटकर अर्धपुद्गलपरिवर्त मात्र परीतसंसारी होता हुआ उतने काल ही उत्कर्ष से संसार में रहता है । जघन्य से वह अन्तर्मुहूर्त मात्र ही संसार में रहता है।
सामायिक - इसका विधान मुनियों के छह आवश्यकों, चारित्रभेदों, प्रतिमात्रों, शिक्षाव्रतों तथा संयतभेदों या संयमभेदों के अन्तर्गत उपलब्ध होता है । पर उसके स्वरूप का विचार करते हुए तदनुसार उसका पृथक्-पृथक् विश्लेषण नहीं किया गया है- सर्वत्र उसका स्वरूप प्रायः समान रूप में ही दृष्टिगोचर होता है ।
नियमसार के नौवें परमसमाधि अधिकार ( १२५-३३ ) में सामायिकव्रत के योग्य कौन होता है, इसका विचार करते हुए कहा गया है कि जो समस्त जीवों में सम- राग द्वेष से रहित, संयम, नियम और तप में निरत; राग-द्व ेषजनित विकार से विहीन, श्रार्त व रौद्र रूप दुर्ध्यान से दूरवर्ती, पुण्य-पापरूप कर्म के विकार से विमुक्त, हास्यादि रूप नोकषानों से रहित, निरन्तर धर्म व शुक्लरूप प्रशस्त ध्यानों का ध्याता और ज्ञान एवं चारित्र में बुद्धि को लगाने वाला है उसके जिनशासन में सामायिकव्रत कहा गया है, अर्थात् उपर्युक्त विशेषताओं से विशिष्ट जीव ही उस सामायिक का अधिकारी होता है ।
मूलाचार (१-२३) में मुनि के २८ मूलगुणों के अन्तर्गत सामायिक प्रावश्यक के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि साधु जो जीवित और मरण, लाभ और अलाभ, संयोग और वियोग, मित्र और शत्रु तथा सुख और दुःख प्रादि में समता - राग-द्व ेष से रहित समानता का भाव रखता है, इसका नाम सामायिक है । यहीं पर आगे (७, १८-३२) मृनि के छह आवश्यकों के अन्तर्गत उस सामायिक का पुनः विस्तार से विवेचन करते हुए कहा गया है कि सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप के साथ जो जीवका प्रशस्त समागम — उनके साथ एकरूपता - होती है उसे समय कहा गया है; इस समय को ही सामायिक जानना 'चाहिए । यह सामायिक का निरुवत लक्षण है । जो जींव उपसर्ग व परीषहों पर विजय प्राप्त करके भाव - नामों और समितियों में उपयुक्त होता हुआ यम व नियम में बुद्धि को संलग्न करता है वह सामायिक से परिणत होता है, जो श्रमण स्व व पर में सम–राग-द्वेष से रहित होता है, माता और समस्त महिलाओं के विषय में सम होता है— उन्हें माता के समान मानता है, तथा प्रप्रियव प्रिय एवं मान व अपमान में समण ( समान) रहता है उसे ही सामायिक जानना चाहिए। जो द्रव्य, गुण और पर्याय के समवाय को- उनकी अपेक्षाकृत समानता को जानता है उसे उत्तम सामायिक जानना चाहिए। राग और द्वेष का निरोध करके समस्त कर्मों में जो समता और सूत्रों में- द्वादशांग श्रुत के विषय में - जो परिणाम होता है उसे उत्तम सामायिक जानना चाहिए। समस्त सावद्य से विरत तीन गुप्तियों से सुरक्षित और जितेन्द्रिय जीव का नाम ही सामायिक है जो उत्तम संयमस्थानस्वरूप है । जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में स्थित है; जो तस और स्थावर समस्त जीवों के विषय में सम — राग-द्वेष से रहित है, जिसके राग और द्वेष विकार को उत्पन्न नहीं करते, जिसने क्रोधादि चारों कषाओं को जीत लिया है, जिसके प्राहारादि संज्ञायें और कृष्णादि लेश्यायें विकार को उत्पन्न नहीं करतीं, जो रस व स्पर्शस्वरूप काम को तथा रूप, गन्ध और शब्दरूप भोगों को सदा छोड़ता है, तथा श्रार्त-रौद्र रूप दुर्ध्यानों को छोड़कर सदा धर्म व शुक्ल रूप समीचीन ध्यानों को ध्याता है उसके जिनगम के अनुसार सामायिक स्थित रहती है' । योगींदु विरचित योगसार ( ६६ - १०० ) में उक्त नियमसार के समान संक्षेप में समभाव को सामायिक का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है ।
१. इस प्रसंग से सम्बद्ध नियमसार के पद्य १२५-२९ व १३३ और मूलाचारगत पद्य क्रम से २३, २५,२४,२६,३१ और ३२ ये उभय ग्रन्थों में समान रूप में उपलब्ध होते हैं । (नि. सा. के पद्य १२५ और मूला. . के पद्य २३ का उत्तरार्ध भिन्न है ) । नि. सा. के पद्य १२६ व १२७ तथा प्रावश्यक नि. के पद्य ७९७ व ७६६ भी परस्पर में समान हैं ।
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प्रस्तावना
रत्नकरण्डक (४-७) में शिक्षाव्रत के प्रसंग में नियमित समय पर्यन्तांचों पापों के पूर्णतया परित्याग को सामायिक का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है । प्रागे यहां (४-८) उपर्युक्त समय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि बालों के बन्धन, मुट्ठी के बन्धन और वस्त्र के बन्धन को अथवा स्थान ( कायोत्सर्ग) व उपबेशन को ग्रागम के ज्ञाता समय-काल प्रथवा माचार विशेष - जानते हैं । यहीं पर श्रागे (५-१८ ) तीसरी सामायिक प्रतिमा के प्रसंग में कहा गया है कि जो गृहस्थ यथाजात - बालक के समान दिगम्बर वेष में स्थित होकर अथवा समस्त प्रकार की परिग्रह की प्रोर से निर्ममत्व होकर-चार वार तीन-तीन श्रावर्त पूर्वक कायोत्सर्ग में स्थित होता हुआ चार प्रणाम करता है तथा दो उपवेशन से युक्त होकर तीनों योगों से शुद्ध होता हु तीनों सन्ध्याकालों में देववन्दना किया करता है उसे सामयिक -- तीसरी सामायिक प्रतिमा का धारक श्रावक — जानना चाहिए ।
सर्वार्थसिद्धि (७-२१) में शिक्षाव्रतों के प्रसंग में निरुक्तिपूर्वक सामायिक के लक्षण को दिखलाते हुए कहा गया है कि 'सम्' का अर्थ एकीभाव और 'अय' का अर्थ गमन है, तदनुसार एकीभाव स्वरूप से जो गमन ( प्रवृत्ति) होता है उसका नाम समय है और उस समय को ही सामायिक कहा जाता है । अथवा 'समयः प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य सामायिकम्' इस प्रकार के विग्रहपूर्वक यह भी निर्देश किया गया है कि उक्त प्रकार का 'समय' हो जिसका प्रयोजन है उसे सामायिक जानना चाहिए। सर्वार्थसिद्धिगत इस लक्षण को कुछ स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक (७, २१, ६) में कहा गया है कि प्रतिनियत काय, वचन और मन की क्रिया रूप पर्याय से निवृत्त होकर द्रव्यार्थस्वरूप से जो आत्मा का एकीभाव (अभिन्नता) को प्राप्त होना है, यह सामायिक का लक्षण है । सर्वार्थसिद्धिगत शेष सभी अभिप्राय को यहां प्रायः शब्दशः आत्मसात् किया गया है । आगे यहां चारित्र के प्रसंग में ( ६,१८,२) में कहा गया है कि समस्त सावद्य योग का जो अभेद रूप से हिंसा आदि भेदों के बिना - प्रत्याख्यान का आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है, इसका नाम सामायिक चारित्र । सर्वार्थसिद्धि (E-१८) में इस सामायिक को नियतकाल और अनियतकाल के भेद से दो प्रकार कहा गया है । इनमें स्वाध्यायादि रूप सामायिक को नियतकालिक और ईर्यापथ आदि रूप सामायिक को अनियतकालिक जानना चाहिए ।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ( ७ - १६) में शिक्षाव्रत के प्रसंग में कहा गया है कि कालका नियम करके जो तब तक के लिए समस्त सावद्य योग का परित्याग किया जाता है उसे सामायिक कहते हैं। प्रकृत त. भा. (६.१८) में चारित्र के प्रसंग में उस सामायिक संयम के नाम मात्र का निर्देश किया गया है, स्वरूप के सम्बन्ध में वहां कुछ नहीं कहा गया । श्रावश्यक सूत्र (प्र. ६) के अनुसार सावद्य योग के परित्याग और निरवद्य योग के प्रतिसेवन का नाम सामायिक है । आवश्यक भाष्य ( १४९ ) में कहा गया है कि सावद्य योग से विरत, तीन गुप्तियों से विभूषित, छह काय के जीवों के विषय में संयत - उन्हें पीड़ा न पहुंचाने वाला, उपयुक्त एवं प्रयत्नशील आत्मा ही सामायिक होता है (पूर्वोक्त नि. सा. गत पद्य १२५-२६ और श्राव. भाष्य का प्रकृत पद्य ये परस्पर एक-दूसरे से कुछ प्रभावित रहे प्रतीत होते हैं ) । विशेषावश्यकभाष्य (४२२०-२६) में सामायिक के लक्षण का निर्देश निरुक्तिपूर्वक अनेक प्रकार से किया गया है । यथा - 'सम' का अर्थ राग-द्वेष से रहित और 'अय' का अर्थ गमन है, इस प्रकार समगमनका नाम 'समाय' और यह समाय ही सामायिक है । अथवा उक्त 'समाय' में होनेवाली, उससे निर्वृत्त, तन्मय अथवा उक्त प्रयोजनन की साधक सामायिक जानना चाहिए। अथवा 'सम' से सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र
अभिप्र ेत ; उनके विषय
में या उनके द्वारा जो अय-गमन या प्रवर्तन है— उसका नाम 'समय' और उस समय को ही सामायिक कहा जाता है । अथवा समके-राग-द्वेष से रहित जीव के जो प्राय - गुणों की प्राप्ति होती है-उसका नाम समय है, अथवा समों का सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र का - जो प्राय (लाभ) है उसे सामायिक जानना चाहिए । अथवा 'साम' का अर्थ मैत्रीभाव और 'अय' का अर्थ गमन है, इस प्रकार उस मैत्रीभाव में या उसके द्वारा जो प्रवृत्ति होती है उसे सामायिक कहा जाता है । अथवा उक्त मैत्रीभावरूप जो साम है उसके प्राय (लाभ) को सामायिक जानना चाहिए। इस प्रकार यहां सामायिक शब्द की निष्पत्ति की प्रमुखता से अर्थ को बैठाया गया है।
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जन लक्षणावली
त. भाष्य (६-१८) की हरिभद्र व सिद्धसेन विरचित वृत्तियों में तथा अनुयोगद्वार की हरिभद्र विरचित वृत्ति में (पृ. १०३) में पूर्वोक्त त. वार्तिक के समान समस्त सावध योग से विरत होने को सामायिक कहा गया है
या है। इसके पूर्व उस अनुयोगद्वार की हरि. वृत्ति (पृ. २६) और आवश्यक सूत्र (६,६,पृ. ८३१) की भी हरि. वत्ति में पूर्वोक्त विशेषावश्यकभाष्य के समान निरुक्त्यर्थ को भी प्रगट किया गया है। इसी अभिप्राय को हरिभद्र सूरि ने अपने पंचाशक (४६६) में भी संक्षेप में व्यक्त किया है। श्रावकप्रज्ञप्ति (२६२) में शिक्षाव्रत के प्रसंग में पूर्वोक्त अावश्यकसूत्र के समान सावध योग के परित्याग और निरवद्य योग के प्रासेवन को सामायिक का लक्षण प्रगट किया गया है। इसकी टीका में हरिभद्र सूरिने 'एत्थ पुण सामायारी' ऐसा निदश करते हुए श्रावक को सामायिक कहां, कब और किस प्रकार से करना चाहिए; इत्यादि बातों का स्पष्टीकरण करते हुए ऋद्धि प्राप्त और अन द्धिप्राप्त इन दो प्रकार के श्रावकों के प्राश्रय से विचार अभिव्यक्त किया है। तत्पश्चात् यहां यह शंका उठाई गई है कि सामायिक में अधिष्ठित श्रावक जब साधु ही होता है तब वह उतने काल के लिए पूर्ण रूप से समस्त सावध योग का परित्याग मन, वचन व काय से क्या नहीं करता है ? करता ही है । इस शंका के समाधान में वहां श्रावक के लिए मन, वदन व काय से पूर्णतया उस समस्त सावध योग के परित्याग को असम्भव बतलाकर साधु और श्रावक इन दोनों में अनुमति की प्रधानता से दो प्रकार की शिक्षा, गाथा (सामाइयंमि उ कए . .॥२६६), उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्ध, उदय, प्रतिपत्ति और अतिक्रम इन अधिकारों के श्राश्रय से भेद प्रगट किया गया है (श्रा, प्र. २६३-३११)।
वरांगचरित (१५, १२१-२२) में शिक्षाव्रत के प्रसंग में सामायिक के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि व्रत की वृद्धि के लिए निरन्तर दोनों सन्ध्याकालों में नमस्कारपूर्वक हृदय में शरण, उत्तम और मांगल्य इनका ध्यान करना चाहिए। सब जीवों में समता--राग-द्वष का अभाव, संयम, उत्तम भावनाएं और प्रार्त-रौद्र रूप दुानों का परित्याग ; यह सामायिक शिक्षाव्रत का लक्षण है। जयधवला (१, पृ. ६८) के अनुसार तीनों सन्ध्याकालों में, अथवा पक्ष, मास व सन्धिदिनों में, अथवा अपने अभीष्ट समयों में बाह्य और अभ्यन्तर समस्त पदार्थविषयक जो कषाय का निरोध किया जाता है उसका नाम सामायिक है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३५६-५७) में कहा गया है कि जो पल्यंक प्रासन बांधकर अथवा खड़ा होकर काल के प्रमाण को करके इन्द्रियों के व्यापार से रहित होता हुआ जिनागम में मन को लीन करता है तथा शरीर को स्थिर रखता हुआ अंजलिपूर्वक-मुकुलित दोनों हाथों के साथ-प्रात्मस्वरूप में लीन होता है व वन्दना के अर्थ का चिन्तन करता है। इस प्रकार से जो देश प्रमाण को करके सामायिक को करता है वह तब तक के लिए मुनि जैसा होता है। सागारधर्मामृत (५-२८) में सामायिक शिक्षाव्रत के स्वरूप को दिखलाते हुए कहा गया है कि एकान्त स्थान में बालों के बन्धन आदि के छूटने तक मुनि के समान प्रात्मा का ध्यान करते हुए जो समस्त हिंसादि पापों का त्याग किया जाता है, यह सामायिक शिक्षावत का लक्षण है।
यहां सागारधर्मामत में जो बालों के बन्धन प्रादि के छूटने रूप समय का निर्देश किया गया है वह स्पष्टतया पूर्वोक्त रत्नकरण्डक (४-८) के आधार से किया गया है। पर जैसे रत्नकरण्डक मूल व उसकी प्रभाचन्द्र विरचित टीका में भी उसके अभिप्राय को स्पष्ट नहीं किया गया है वैसे ही इस सागारधर्मामत व उसकी स्वो. टीका में भी उसका कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया गया। प्रकृत में 'समय' से काल अभिप्रेत है या प्राचारविशेष अभिप्रेत है, इसका स्पष्ट बोध नहीं होता। पूर्वोक्त कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३५६) में भी जो 'बंधित्ता पज्जंक अहवा उड्ढेण उभयो ठिच्चा' यह कहा गया है वह भी पूर्वोक्त रत्नक. के 'पर्यङ्कवन्धनं चापि । स्थानमपवेशनं वा' से प्रभावित रहा ही प्रतीत होता है। पर यहां रत्नकरण्डक के 'मुर्द्धरुह-मष्टिवासोबन्धं' को सम्भवतः बुद्धिपुरस्सर छोड़ दिया गया है जबकि सागारधर्मामृत में 'केशबन्धादिमोक्ष' के रूप में उसे ग्रहण कर लिया गया है। पर उसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया।
इनके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में जो प्रकृत सामायिक का लक्षण उपलब्ध होता है उसमें नियमसार, मूलाचार, सवर्थसिद्धि, अथवा विशेषावश्यकभाष्य इनमें से किसी न किसीका अनसरण किया गया है।
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प्रस्तावना
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सामायिक प्रतिमा- इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए रत्नकरण्डक ( ५-१६) में कहा गया है कि जो श्रावक तीन-तीन प्रावर्तो को मन, वचन व काय के संयमनरूप तीन-तीन शुभ योगरूप प्रवृत्तियों को-चार बार करता है, चार प्रणाम करता है, यथाजात रूप से - दिगम्बर होकर अथवा समस्त परिग्रह की ओर से निर्ममत्व होकर - कायोत्सर्ग में स्थित होता है व दो उपवेशन करता है; इस प्रकार की क्रिया को करता हुग्रा तीनों सन्ध्याकालों में तीनों योगों से शुद्ध होकर वन्दना किया करता है वह सामयिक - तीसरी सामायिक प्रतिमा का अनुष्ठाता - होता है ।
षट्खण्डागम (५,४,४--- पु. १३, पृ. ३८) में निर्दिष्ट दस कर्मभेदों में हवां क्रियाकर्म है। इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए वहां प्रात्माधीन, प्रदक्षिण, त्रिः कृत्वा ( तीन बार करना ), तीन श्रवनमन, चार शिर और बारह आवर्त इस सबको क्रियाकर्म ( कृतिकर्म ) कहा गया है ( ५,४, २७-२८ -- पु. १३, पु. ८८) पूर्वोक्त रत्नकरण्डक में जो बारह श्रावर्त (४-३) और चार प्रणामों का उल्लेख किया गया है सम्भव है वह इस षट्खण्डागम के ही आधार से किया गया हो। दोनों ही ग्रन्थों में 'आवर्त' शब्द तो समान रूप से व्यवहृत हु पर षट्खण्डागम में जहां 'चतुः शिरस्' का उपयोग किया गया है वहां रत्नकण्डक में 'चतुः प्रणाम' का उपयोग किया गया है । वीरसेनाचार्य विरचित इस षट्खण्डागमसूत्र की टीका (पु. १३, पृ. ९१ व २) में 'चतुः शिर' का स्पष्टीकरण करते हुए यह कहा गया है कि समस्त क्रियाकर्म चतुः शिर होता है । वह इस प्रकार से -- सामायिक के आदि में जो जिनेन्द्र के प्रति शिर नमाया जाता है वह एक शिर है, उसी के अन्त में जो शिर नमाया जाता है वह दूसरा शिर है, 'थोस्सामि' दण्डक के आदि में जो शिर नमाया जाता है. वह तीसरा शिर है तथा उसीके अन्त में जो नमन किया जाता है वह चौथा शिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चार शिर से युक्त होता है । यहीं पर आगे प्रकारान्तर से उस चतुः शिर' को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अथवा सब ही क्रियाकर्म चतुः शिर - चतुः प्रधान (चार की प्रधानता से ) होता है, क्योंकि अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म को ही प्रधानभूत करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है । बारह प्रावर्तो को स्पष्ट करते हुए यहां यह कहा गया है कि सामायिक और थोस्सामि दण्डक के आदि और अन्त में मन, वचन व काय की विशुद्धि के परावर्तन के बार (श्रावर्त) बारह (३+३+३+३) होते हैं ।
मूलाचार के अन्तर्गत षडावश्यक अधिकार में बन्दना का विवेचन करते हुए नामवन्दना के प्रसंग में कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म इनको वन्दना का समानार्थक कहा गया है। इस प्रसंग में वहां ये प्रश्न उठाये गये हैं- वह कृतिकर्म किसके द्वारा किया जाना चाहिए, किसके प्रति किया जाना चाहिए किस प्रकार से किया जाना चाहिए, कहां किया जाना चाहिए, कितने बार किया जाना जाहिए, कितने उसमें अवनत – हाथ जोड़कर शिर से भूमिका स्पर्श करते हुए नमस्कार -- किये जाने चाहिये, कितने शिर - हाथ जोड़कर शिर को नमाते हुए नमस्कार किये जाने चाहिये; तथा वह कितने ग्रावर्त्तो से शुद्ध और कितने दोषों से रहित होना चाहिए (७, ७८-८० ) । इन प्रश्नों का वहाँ यथाक्रम से समाधान करते हुए वह कितने अवनत, कितने प्रावर्त और कितने शिर से युक्त होना चाहिए; इन प्रश्नों के समाधान में वहां यह कहा गया है - उस कृतिकर्म का प्रयोग दो प्रवनतों से सहित, यथाजात रूप से संयुक्त, बारह श्रावतों से युक्त, चार शिर से सहित और मन, वचन और काय रूप तीनों योगों से शुद्ध किया जाना चाहिए (७-१०४) यह मूलाचार का विवरण निश्चित ही पूर्वोक्त षट्खण्डागम से प्रभावित रहा प्रतीत होता है । विशेष इतना है कि षट्खण्डागम में जहां तीन 'अवनत' का निर्देश किया गया है वहां मूलचार में 'दो अवनत' का निर्देश किया गया है।
पूर्वोक्त रत्नकरण्डक का वह अभिप्राय मूलाचार के इस कथन से प्रत्यधिक प्रभावित रहा प्रतीत होता है । दोनों ग्रन्थों में बारह (४ x ३) प्रावर्त, चार प्रणाम ( शिर), यथाजात, दो निषद्य ( प्रवनत) और त्रियोगशुद्ध ( त्रिशुद्ध) इनका समान रूप में व्यवहार हुआ है । यथा
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जैन लक्षणावलो
दोणदं तु जधाजादं वारसावत्तमेव य । चसिरं तिसुद्धं च किदियम्म पउंजदे ।। मूला. ७-१०४. चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः ।।
सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।रत्नकरण्डक, १३६ मुलाचारगत प्रकृत पद्य से अतिशय समान यह पद्य समवायांग में भी उपलब्ध होता है
दुअोण यं जहाजायं कितिकम्मं बारसावयं ।
चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगणिक्खमणं ॥ समवायांग. १२. धवला (पु. ६, पृ. १८७-८६) में चौदह प्रकार के अनंग त के नामोल्लेखपूर्वक कृतिकर्म के प्रसंग में मूलाचारगत उपर्युक्त पद्य को 'एत्थुववुज्जती गाहा' ऐसा निर्देश करते हुए यत्किचित् वर्णभेद के साथ उद्धृत किया गया है।
उपर्युक्त प्रसंग से सम्बद्ध मूलाचार और रत्नकरण्डक में इतनी विशेषता रही है कि मूलाचार का वह प्रसंग जहां मनि के छह प्रावश्यकों के अन्तर्गत बन्दना आवश्यक से सम्बद्ध है वहां रत्नकरण्डक में वह श्रावक के ग्यारह पदों में से तीसरे पदभूत सामायिक प्रतिमा के धारक से सम्बन्ध रखता है। किन्तु ऐसा होने पर भी उसमें कुछ विरोध नहीं समझना चाहिए। कारण यह कि उसके पूर्व उक्त रत्न करण्डक (४-१२) में ही यह कहा जा चुका है कि श्रावक के सामायिक में अवस्थित होने पर चंकि वह उस समय समस्त प्रारम्भ और परिग्रह से रहित होता है, इसीलिये वह उपसर्ग के वश वस्त्र से आच्छादित मनि के समान यतिभाव को-महाव्रतित्व को-प्राप्त होता है । यह अभिप्राय केवल रत्नकरण्डक में ही नहीं, बल्कि उक्त मलाचार (७-३४), आवश्यक नियुक्ति (५८४), विशेषावश्यकभाष्य (३१७३) और श्रावकप्रज्ञप्ति (२६६) में भी समानरूप से व्यक्त किया गया है। इतना ही नहीं, इन चारों ग्रन्थों में प्रकृत गाथा भी अभिन्न रूप में ही उपलब्ध होती है।
रत्नकरण्डक में निर्दिष्ट उपर्युक्त सामायिक प्रतिमाधारी के स्वरूप को कातिकेयानुप्रेक्षा (३७१ व ३७२) और वामदेव विरचित भावसंग्रह (५३२-३३) में भी समान रूप से प्रगट किया गया है।
सावयधम्मदोहा (१२) में भी पूर्वाचार्यपरम्परा के अनसार तीनों संन्ध्याकालों में बत्तीस दोषों से रहित जिनवन्दना का विधान किया गया है।
वसुनन्दिश्रावकाचार (२७४-७५) में उक्त सामायिक के प्रसंग में कहा गया है कि स्नानादि से पवित्र होकर चैत्यालय में व अपने गृह में प्रतिमा के अभिमुख होकर अथवा अन्यत्र पवित्र स्थान में पूर्वाभिमख या उत्तराभिमुख होकर जिनवाणी, धर्म, चैत्य, परमेष्ठी और जिनालय की जो तीनों कालों में बन्दना की जाती है, यह सामायिक कहलाती है।
योगशास्त्र के स्वो. विव. (३-१४८) में कहा गया है कि तीसरी सामायिक प्रतिमा का धारक श्रावक प्रमाद से रहित होकर तीन मास तक उभय सन्ध्याकालों में पूर्वोक्त प्रतिमानों के अनुष्ठान के साथ सामायिक का पालन करता है। लगभग यही अभिप्राय प्राचारदिनकर (पृ. ३२) में भी प्रगट किया गया है।
अन्य ग्रन्थों में प्रायः पूर्वनिर्दिष्ट इन्हीं ग्रन्थों में से किसी न किसी का अनुसरण किया गया है ।
सूत्र--- मलाचार (५-८०) में सूत्र के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है, जो गणधरों के द्वारा, प्रत्येकबद्धों के द्वारा, श्र तके वलियों के द्वारा और अभिन्नदशपूवियों के द्वारा कहा गया हो उसे सूत्र जानना चाहिए। आवश्यक नियुक्ति (८८०) के अनुसार सूत्र नाम उसका है जो ग्रन्थ से अल्प होकर अर्थ से महान् हो, बत्तीस दोषों से रहित हो, लक्षण-व्याकरणनियमों-से सहित हो, और पाठ गुणों से सम्पन्न हो। इसी प्राव. नि. में पागे (८८६) पुनः कहा गया है कि जो थोड़े से अक्षरों से सहित, सन्देह से रहित, सारयुक्त, विश्वतःमुख-अनुयोगों से सहित, अर्थोपम --व्याकरणविहित निपातों से रहित-और अनवद्य होकर
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प्रस्तावना
सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया हो वह सूत्र कहलाता है । तत्त्वार्थवार्तिक (७, १४, ५) में सूत्र का लक्षण लघु और गमक कहा गया है | धवला (पु. ६, पृ. २५६ ) और जयधवला ( १, पृ. १५४ ) में एक प्राचीन श्लोक को ग्रन्थान्तर से उद्धृत करते हुए उसके द्वारा कहा गया है कि जो अक्षरों से अल्प, सन्देह से रहित, सारवान्, गूढ़ तत्त्वों का निर्णायक, निर्दोष युक्ति का अनुसरण करने वाला और यथार्थ हो उसे सूत्र के ज्ञाता सूत्र मानते हैं । यह लक्षण पूर्वोक्त आव. निर्युक्ति (८८६ ) से प्रभावित प्रतीत होता है । प्रकृत धवला में आगे (पु. १४, पृ. ८) दाशांग शब्दागम को भी सूत्र कहा गया है । जयधवला १, पृ. १७१ ) में भी आगे एक अन्य श्लोक को उद्धृत करते हुए यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि महान् अर्थ से संयुक्त अथवा जो पदसमूह अर्थ की उत्पत्तिका कारण हो उसे सूत्र जानना चाहिए ।
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सूत्ररुचि - यह सम्यक्त्व के दस भेदों के अन्तर्गत है । उत्तराध्ययन ( २८-१६) और प्रज्ञापना (गा. ११५ ) के अनुसार वे दस भेद ये हैं - निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुच, क्रियारुचि, संक्ष परुचि और धर्मरुचि । इनमें से उपदेशरुचि, प्राज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, विस्ताररुचि और संक्ष परुचि ये छह भेद तो तत्त्वार्थवार्तिक (३,३६,२), महापुराण ( ७४ से ४४०, ४४४) ग्रात्मानुशासन (११), उपासकाध्ययन (पृ. ११४) और अनगारधर्मामृत की स्वो टीका ( २-६२ ) में भी उपलब्ध होते हैं; किन्तु शेष चार भेदों के स्थान में यहो ये अन्य ही चार भेद उपलब्ध होते हैंमार्गरुचि, अर्थरुचि, श्रवगाढ़रुचि और परमावगाढ़रुचि । प्रकृत में सूत्ररुचि के लक्षण का निर्देश करते हुए उत्तरा ( २८-२१) और प्रज्ञापना (गा. १२० ) में कहा गया है कि जो जीव सूत्र का अध्ययन करता हुआ अंग बाह्य से सम्यक्त्व का अवगाह्न करता उसे सूत्ररुचि जानना चाहिए। त. वा. के अनुसार प्रव्रज्या और मर्यादा के प्ररूपक प्रचारश्रुत के सुनने मात्र से जिनके सम्यग्यदर्शन उत्पन्न हुआ है उन्हें सूत्ररुचि कहा जाता है। म. पु. ( ७४,४४३-४४) में कहा गया है कि आचार नामक प्रथम अंग में निर्दिष्ट तप के भेदों के सुनने से शीघ्र ही जो रुचि प्रादुर्भूत होती है उसे सूत्रजा रुचि कहते हैं । श्रात्मानु. (१३) के अनुसार मुनि के चारित्रविधि के सूचक प्राचारसूत्र को सुनकर जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे सूत्रदृष्टि कहा जाता है । उपासकाध्ययन और अनगारधर्मामृत की टीका में समान रूप से यतिजन के प्रचार के निरूपण मात्र को सूत्र - उससे होने वाले श्रद्धान को सूत्तसम्यक्त्व — कहा गया है । दर्शनप्राभृत की टीका (१२) अनुसार मुनियों के प्राचारसूत्र स्वरूप मूलाचार शास्त्र को सुनकर जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसका नाम सूत्रसम्यक्त्व है ।
इस प्रकार प्रस्तुत सूत्ररुचि या सूत्रसम्यक्त्व के लक्षण में प्रायः उत्तरोत्तर कुछ विशेषता देखी जाती - है । यथा - उत्तराध्ययन में जहां अंग व बाह्य श्रुत से इस सम्यक्त्व की उत्पत्ति निर्दिष्ट की गई है वहां तत्त्वार्थवार्तिक में बिशेष रूप से प्रव्रज्या व मर्यादा के प्ररूपक केवल आचार सूत्र के सुनने मात्र से उसकी उत्पत्ति बतलायी गई है । शेष ग्रन्थों में प्रायः इस तत्त्वार्थवार्तिक के लक्षण का ही अनुसरण किया गया है। दर्शनप्राभृत की टीका में तो मूलाचार - जो वर्तमान में उपलब्ध है— उसके सुनने से प्रकृत सम्यक्त्व की उत्पत्ति कही गई है ।
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सोपक्रमायु - यह शब्द मूलाचार (१२-८३) में उपलब्ध होता है । इसके अभिप्राय को व्यक्त करते हुए उसकी बसुनन्दी विरचित वृत्ति में विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, संक्लेश, शस्त्रधात एवं उच्छ्वासनिःश्वास के निरोध से होनेवाले प्रायु के घात को उपक्रम और उस उपक्रम से युक्त प्रायु वाले जीवों को सोपक्रमायु — सघातायु — कहा गया है । सोपक्रम और निरुपक्रम ये दो शब्द त भाष्य ( २-५२ ) में उपलब्ध होते हैं । वहां आयु के अपवर्तन के निमित्त को उपक्रम कहा गया है। उपक्रम से आयु का अपवर्तन हो सकता है, इसके लिए यहां संहत शुष्क तृणराशि और गुणकार-भागहार से राशिछेद ये दो उदाहरण भी दिये गये हैं । बृहत्संग्रहणी (२६६) में भी कहा गया है कि जिस अध्यवसान आदि से, चाहे वह प्रा. मोत्पन्न हो अथवा अन्य हो, आयु उपक्रम को प्राप्त होती है उसे उपक्रम कहा जाता है । त. भाष्य की हरिभद्र विरचित वृत्ति (२-५२) में जिनकी आयु प्रायः अपवर्तन के योग्य होती है उन्हें सोपक्रम और जिनकी श्रायु
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जेन लक्षणावलो
अपवर्तन के योग्य नहीं होती है उन्हें निरुपक्रम निर्दिष्ट किया गया है। इसी भाष्य की सिद्धसेन विरचित वृत्ति (२-५१) में प्रत्यासन्नीकरण के कारण को उपक्रम कहा गया है। इसे स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि जिस अध्यवसान आदि रूप कारणविशेष से अतिशय दीर्घकाल की स्थिति वाली भी आयु अल्प काल की स्थिति से युक्त हो जाती है उस कारणकलाप का नाम उपक्रम है । आगे ( २-५२ ) यहां उदाहरण के रूप में विष, अग्नि और शस्त्र आदि को उपक्रम बतलाते हुए कहा गया है कि देव व नारक श्रादि के चूंकि श्रायु के भेदक प्राणापान निरोध, आहारनिरोध, श्रध्यवसान, निमित्त, वेदना, पराघात और स्पर्श नामक सात वेदनाविशेष रूप उपक्रम सम्भव नहीं है, इसलिये वे निरुपक्रम ही होते हैं ।
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धबला (पु. १०, पृ. २३३ - ३४ ) में सोपक्रमायुष्क और निरूपक्रमायुष्क इनके लक्षण का तो कुछ निर्देश नहीं किया गया, पर वे पर भव सम्बन्धी प्रायु को किस प्रकार से बांधते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए वहां कहा गया है कि जो जीव सोपक्रमायुष्क होते है वे अपनी भुज्यमान श्रायु के दो त्रिभागों (२/३) के बीत जाने पर संक्षेपाद्धा काल तक पर भव सम्बन्धी आयु के बांधने के योग्य होते हैं, अर्थात् दो त्रिभागों के बीत जाने पर प्रथमादि आठ अपकर्षकालों में से यथासम्भव किसी एक अपकर्षकाल में उसे बांधा जा सकता है । पर उक्त ग्राठ अपकर्षकालों में से यदि वह किसी में भी न बंध सकी तो फिर श्रावली के प्रसंख्यातवें भाग मात्र अक्षपाद्धा काल में वे अवश्य ही पर भव सम्बन्धी आयु को बांध लेते हैं । इनसे विपरीत जो निरुपक्रमायुष्क होते हैं वे अपनी भुज्यमान ग्रायु में छह मास शेष रह जाने पर पर भव सम्बन्धी आयु के बांध योग्य होते हैं । इसमें भी अपकर्षों का नियम पूर्ववत् रहता है । आगे यहां (पृ. २३७-३८) शंकाकार के द्वारा इस प्रसंग से सम्बद्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति के सन्दर्भ को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि उपर्युक्त कथन का इस व्याख्याप्रज्ञप्तिगत सूत्र के साथ कैसे विरोध न होगा ? इसका समाधान यहां प्राचार्यों के मध्यगत मतभेद को प्रगट करते हुए किया गया है । धबला के प्रकृत भाग का हिन्दी अनुवाद करते समय हमने वर्तमान में उपलब्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति में उस सूत्र के खोजने का यथासम्भव प्रयत्न किया था, पर वह उस रूप में हमें वहां उपलब्ध नहीं हुआ ।
स्तनदोष या स्तनदृष्टिदोष - यह कायोत्सर्ग का एक दोष है। मूलाचार की वृत्ति (७-१७१) में इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो कायोत्सर्ग में स्थित होकर अपने स्तनों पर दृष्टि रखता है उसके यह कायोत्सर्ग का स्तनदृष्टि नामक दोष होता है। योगशास्त्र के स्वो विवरण में (३, १३०) कहा गया है कि डांस-मच्छर प्रादि के निवारण के लिए अथवा प्रज्ञानता से स्तनों को चोलपट्ट से बांधकर कायोत्सर्ग में स्थित होना, यह एक कायोत्सर्ग के स्तनदोष का लक्षण है । श्रागे यहां इस सम्बन्ध में मतभेद को दिखलाते हुए यह भी कहा गया है कि अथवा जिस प्रकार धाय स्तनों को ऊपर उठाकर बालक के लिए दिखलाती है उसी प्रकार स्तनों को ऊंचा करके कायोत्सर्ग में स्थित होना, यह उस स्तनदोष का लक्षण है, ऐसा किन्हीं अन्य आचार्यों का अभिमत है । सम्भव है यह लक्षणभेद साम्प्रदायिकता के व्यामोहवश हुआ हो ।
स्त्रीवेद - इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए सर्वार्थसिद्धि ( ८-९ ) में कहा गया है कि जिसके उदय से जीव स्त्री जैसे भावों को प्राप्त होता है वह स्त्रीवेद कहलाता । इसे कुछ और स्पष्ट करते हुए त. वार्तिक (८, ६-४ ) में कहा गया है कि जिसके उदय से जीव मृदुता, अस्पष्टता, क्लीवता ( कायरता ), कामावेश; नेत्रविभ्रम, ग्रास्फालनसुख और पुरुषेच्छा, इन स्त्री जैसे भावों को प्राप्त होता है उसे स्त्रीवेद कहा जाता है । पश्चात्कालीन प्रायः सभी ग्रन्थों में- जैसे श्रावकप्रज्ञप्ति टीका (१८), धवला (पु. १, पृ. ३४०, ३४१; पु. ६, पृ. ४७; पु, ७, पृ. ७६ और पु. १३, पृ. ३६१), मूलाचारवृत्ति ( १२-१६२ ) और प्रज्ञापना मलय. वृत्ति ( २९३ ) आदि - यही कहा गया है कि जिसके उदय से स्त्री के पुरुषविषयक अभिलाषा होती है उसका नाम स्त्रीवेद है ।
लगभग इसी पद्धति में नपुंसकवेद और पुरुषवेद या पुंवेद का भी लक्षण देखा जाता है । विशेषता यह है कि त. वा. में जैसे स्त्रीवेद के लक्षण में स्त्रण भावों को स्पष्ट किया गया है वैसे वहां नपुंसक और पौन भावों को कुछ स्पष्ट नहीं किया गया (देखिए नपुंसक और पुरुषवेद व पुंवेद शब्द ) |
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प्रस्तावना
स्थापनाकर्म- जैनागमों में विवक्षित पदार्थ की प्ररूपणा नय व निक्षेप के प्राधार से की गई है । प्रकृत में कर्म की विवक्षा है । वह नाम, स्थापना, द्रव्य और भाब के भेद से चार प्रकार का है । इनमें स्थापनाकर्म के स्वरूप का विचार करते हुए षट्खण्डागम ( ५, ४, ११-१२ – पु. १३, पृ. ४१ ) में कहा गया है कि काष्ठक, चित्रकर्म, पोत्तकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म अथवा भेण्ड कर्म; इनमें तथा अक्ष अथवा वराटक इत्यादि अन्य भी जो हैं उनमें स्थापना के द्वारा जो 'यह कर्म है' इस प्रकार से स्थापना की जाती है वह सब स्थापनाकर्म कहलाता है । इस प्रकार की विवेचनपद्धति को स्थापनानन्त, स्थापनाकृति, स्थापनाप्रकृति और स्थापनास्पर्श आदि शब्दों के अन्तर्गत भी देखा जा सकता है ।
४३
यह विवेचन की पद्धति श्रावश्यकसूत्र में भी देखी जाती है । उदाहरण के रूप में स्थापनावश्यक के स्वरूप का विचार करते हुए वहां (सू. १०) कहा गया है कि काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म, लेप्यकर्म, ग्रन्थिम, वेढिम, पूरिम अथवा संघातिम, अक्ष अथवा वराटक में जो 'यह आवश्यक हैं' इस प्रकार से सद्भाव रूप, (तदाकार) अथव(असद्भाव रूप ( प्रतदाकार ) एक या अनेक की स्थापना की जाती है उसे स्थापनावश्यक कहते हैं । (सद्भावस्थापना और प्रसद्भाव स्थापना के लिए देखिये धवला पु. १३, पृ. १० और ४२ प्रादि तथा ग्रन्थिम व वेढिम प्रादि के लिए देखिये धवला पु. ६, पृ. २७२-७३ प्रादि) ।
स्थावर – पीछे (पृ. ५-६ ) ' तस' के प्रसंग में तस जीवों के स्वरूप व भेद आदि के विषय में विचार किया जा चुका है। प्रस्तुत स्थावर उक्त बस का विपक्षभूत है । सर्वार्थसिद्धि (२-१२) में स्थावर जीवों के स्वरूप का विचार करते हुए कहा गया है कि जो जीव स्थावर नामकर्म के वशीभूत होते हैं वे स्थावर कहलाते हैं । त. वार्तिक ( २,१२,३ ) और त. श्लो. वार्तिक ( २-१२ ) के अनुसार जिन जीवों के जीवविपाकी स्थावर नामकर्म के उदय से विशेषता उत्पन्न हुई है उन्हें स्थावर कहा जाता है । जो जीव स्वभावतः एक स्थान पर रहते हैं उन्हें स्थावर कहना चाहिए, इस शंका का समाधान करते हुए पूर्वोक्त स. सि. में कहा गया है कि वैसा मानने पर आगम में जो यह कहा गया है कि 'कायानुवाद से द्वीन्द्रिय से लेकर प्रयोगिकेवलिय तक त्रस जीव होते हैं उससे विरोध का प्रसंग प्राप्त होगा । त. वार्तिक ( २,१२, ४-५) में भी स्थानशील - एक ही स्थान में स्थित रहने वाले - जीवों को स्थावर क्यों न माना जाय, इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि वैसा स्वीकार करने पर वायु, तेज एवं जलकायिक जीवों के अस्थावरत्व — स्थावरभिन्न बसता - का प्रसंग दुर्निवार होगा, क्योंकि उनका गमन एक स्थान से दूसरे स्थान में देखा जाता है । यदि कहा जाय कि वह तो अभीष्ट ही है, तो वैसा कहने वालों के प्रति यह कहा गया है कि उन्होंने समय के अर्थ को नहीं समझा, क्योंकि सत्प्ररूपणा में कायानुवाद के प्रसंग में द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवलों पर्यन्त जीवों को तस कहा गया है । ऊपर स. सि. में जिस आगम की ओर तथा त. वा. में जिस सत्प्ररूपणासूत्र की ओर संकेत किया गया है वह सूत्र इस प्रकार है
तसकाइया बीइं दियrपहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति । षट्खं. १, १, ४४ ( पु. १, पृ. २७५ ).
इस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला टीका में 'स्थावर जीव कौन हैं' ऐसा पूछने पर एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर कहा गया है। इस पर वहां (पृ. २७६) यह शंका उठाई गई है कि सूत्र में तो ऐसा निर्देश नहीं किया गया, फिर यह कैसे जाना जाता है कि एकेन्द्रिय जीव स्थावर है ? इसके उत्तर में बहां यह कहा गया है कि उक्त सूत्र में जब यह स्पष्ट निर्देश किया गया है कि द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली तक त्रस हैं, तब परिशेष से यह स्वयं सिद्ध है कि एकेन्द्रिय जीव स्थावर हैं । इसपर आगे स्थावर नामकर्म का क्या कार्य है, ऐसा पूछने पर यह कहा गया है कि उसका कार्य एक स्थान में अवस्थापित करने का है । इस पर यह शंका उपस्थित हुई कि वैसा होने पर तो तेज, वायु और जल इन चलने वाले स्थावर जीवों के स्थावरपने का प्रभाव प्राप्त होगा ? इस शंका के समाधान में कहा गया है कि ऐसा नहीं हो सकता । इसका कारण यह है कि जिस प्रकार स्थिर पत्ते प्रयोग से - वायु की प्रेरणा से - वृक्ष से टूटने पर इधरउधर चलते हैं उसी प्रकार स्थिर तेज और जल जीव भी प्रयोग के वश चलते हैं, न कि स्वतः अतएव उनके मन में कोई विरोध नहीं है । इनके अतिरिक्त गति पर्याय से परिणत वायु का तो शरीर ही वैसा है ।
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जेन लक्षणावली
इस प्रसंग से सम्बद्ध तत्त्वार्थसूत्र के स. सि. सिद्धिसम्मत और भाष्यसम्मत सूत्रों में भी कुछ भिन्नता रही है । यथा
४४
पृथिव्यप्तेजोवायु-वनस्पतयः स्थावराः । तेजोवायू द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः । स. सि. सूत्र २,१३,१४. पृथिव्यम्बु-वनस्पतयः स्थावराः । तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः । भाष्य सूत्र २, १३, १४.
स. सि. औरत. वा. के अन्तर्गत उपर्युक्त शंकासमाधान को देखते हुए सर्वार्थसिद्धिकार के सामने उक्त भाष्यसम्मत सूत्र रहे हैं या नहीं, यह सन्देहास्पद है । पर तत्त्वार्थवार्तिककार के समक्ष वे भाष्यसम्मत सूत्र अवश्य रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है। कारण इसका यह है कि उन्होंने प्रकृत शंका के समाधान में बायु, तेज और जल कायिक जीवों के प्रस्थावरत्व का प्रसंग दिया है, जब कि स. सि. में केवल श्रागमविरोध ही प्रगट किया गया है, वहां वायु, तेज और जल कायिक जीवों का कुछ भी निर्देश नहीं किया गया ।
दशकालिक चूर्णि (पृ. १४७ ) के अनुसार जो जीव एक स्थान में अवस्थित रहते हैं उन्हें स्थावर कहा जाता है । त. भा. की हरिभद्र विरचित वृत्ति (२-१२ ) में कहा गया है कि जो जीव परिस्पन्दन आदि से रहित होते हुए स्थावर नामकर्म के उदय से अवस्थित रहते हैं वे स्थावर कहलाते हैं। श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका (२२) में भी उक्त हरिभद्र सूरि के द्वारा प्रायः इसी अभिप्राय को प्रगट करते हुए कहा गया है. कि जिसके उदय से जीव स्पन्दन से रहित होता है उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं । उक्त त. भा. की सिद्धसेन विरचित वृत्ति ( २ - १२ ) में कहा गया है कि स्थावर नामकर्म के उदय से जिन जीवों के सुख-दुःखादि के अनुमापक चिह्न स्पष्ट नहीं रहते वे स्थावर कहलाते हैं । सूत्रकृतांग की शीलांक विरचित वृत्ति (२, १, ३ पृ. ३३ ब २,६,४ पृ. १४० ) में 'तिब्छन्तीति स्थावरा:' इस निरुक्ति के साथ पृथिवी श्रादिकों को स्थावर कहा गया है । पर 'आदि' शब्द से वृत्तिकार को अन्य और कौन से जीव अभिप्रेत हैं, यह वहां स्पष्ट नहीं है । यही अभिप्राय प्रायः स्थानांग की अभयदेव विरचित वृत्ति ( ५७ व ७५ ) में भी प्रगट किया गया है। विशेष इतना है कि वहां 'पृथिवी आदिक' यह निर्देश नहीं किया गया। योगशास्त्र के स्वो विवरण (१-१६) में स्पष्ट रूप से भूमि अप्, तेज, वायु और महीरुह (वनस्पति) इन पांच एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर कहा गया है ।
2
स्थिरनामकर्म - इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए सवार्थसिद्धि ( ८-११ ) तत्त्वार्थाधिगम भाष्य (८-१२) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( ८-११ ) और भगवती प्राराधना की मूला टीका (२१२४) में प्राय: समान रूप से यही कहा गया है कि स्थिरभाव ( स्थिरता ) के जनक नामकर्म को स्थिर नामकर्म कहा जाता है । त. वार्तिक (८,११,३४ ) में सर्वार्थसिद्धिगत इस लक्षण को शब्दशः ग्रात्मसात् करके उसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जिसके उदय से दुष्कर उपवास श्रादि तपों के करने पर भी अंग व उपांगों की स्थिरता रहती है बह स्थिर नामकर्म कहलाता है । त. भा. की हरि वृत्ति और श्रावकप्रज्ञप्ति (२३) की हरि. टीका में कहा गया है कि जिसके उदय से सिर, हड्डियां और दाँत आदि शरीरगत अवयवों की स्थिरता होती है उसे स्थिर नामकर्म कहते हैं । त. भा. की हरि वृत्तिगत इस लक्षण को उसकी सिद्धसेन विरचित वृत्ति और प्रज्ञापना की मलय. वृत्ति (२५३ ) में ज्यों का त्यों ले लिया गया है । धवला (पु. ६, पृ. ६३ ) में कहा गया है कि जिसके उदय से रस, रुधिर, मेदा, मज्जा, हड्डियां, मांस और शुक्र इन सात धातुओं की स्थिरता होती है—उनका विनाश या गलन नहीं होता है-उसका नाम स्थिर नामकर्म है | धवलागत यह लक्षण मूलाचार की वृत्ति ( १२-१६५ ) में प्रायः उसी रूप में उपलब्ध होता है । आगे इसी धवला (पु. १३, पृ. ३६५ ) में उसके लक्षण को पुनः दोहराते हुए यह कहा गया है कि जिस कर्म के उदय से रसादि धातुत्रों का प्रवस्थान कुछ काल तक अपने स्वरूप से होता है उसे स्थिर नाम कर्म कहते है । समवायांग की अभयदेव विरचित वृत्ति (४२) में कहा गया है कि जिसके आश्रय से स्थिर दांत आदि श्रवयवों की उत्पत्ति होती है वह स्थिर नामकर्म कहलाता
1
- बालचन्द्र शास्त्री हैदराबाद १६-१-७६
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प्रस्तावनागत विशिष्ट लक्ष्य शब्दों की अनुक्रमणिका
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लक्ष्यशब्द
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लक्ष्यशब्द
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कपित्थदोष पर्व-पर्वाग कांक्षा व काङ्क्षा गण व गच्छ ग्रन्थि छेद छेदोपस्यापक तद्भवमरण त्रस दर्शन 'दिव्यध्वनि धर्म
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याचनावरीषहजय रसत्याग, रसपरित्याग वलन्मरण, वलाकामरण, वलायमरण विहायोगति नामकर्म वृत्तिपरिसंख्यानतप व्यवहारनय श्रमण सत्य असत्य समभिरूढनय सम्यक्त्व संग्रहनय संयम संसारपरीत सामायिक सामायिक प्रतिमा
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सूत्र
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नाग्न्यपरीषहजय निगोद जीव निर्ग्रन्थ निविचिकित्स परिभोग पादपोपगमन पुलाक प्रवचनवत्सलता बकुश ब्रह्मचर्याणुव्रत भोगोपभोगपरिमाण यथाप्रवृत्तकरण
सूत्ररुचि सोपक्रमायु स्तनदोष स्त्रीवेद स्थापनाकर्म स्थावर स्थिरनामकर्म ह्रस्व
२२
४४
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०
:
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शुद्धि-पत्र
कालम पंक्ति
अशुद्ध कल्पाः । सो
पृष्ठ ३२६ ४०५ ४२४
२ १
२६ २४
पन्द्र २७२ तीर्थान्तररस(निवृ[व]त्तिनिवृ[व]त्तिजम्म ३७३ तजस
शुद्ध कल्पाःसौ ४-३२ पन्द्रह ३७२ तीर्थान्तरसनिवृत्तिनिवृत्तिजस्स ३७, २ तेजस
२
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१
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पृ.
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१ २
२५ ३५
नाक निम्रताः २४६ पञ्जलि प्रमादादि यमोद्युक्तः चेतसा प्रात्मोपकार तपः । (त. भा.
१.XXXमत्रान्यतरत् प्रधानम् ।
गुणो । भवन्त्यभिप्रेतगुणा: xxx
॥ (स्वयम्भू. व. नारक निर्गताः २३१ पलञ्जि प्रसादादि यमोयुक्तचेतसां प्रात्म-परोपकार तपः। तत्राग्निप्रवेश-मरुत्प्रपात-जलप्रवे.
शादि । (त. भा. यत् । सा गुहीति परदारस्स मिच्छा स्वरूपं कथितं
२७
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पृ. ६६
भा. सिद्ध
रोग: ज्वराति
क्रिया:
तस्से
निमित्तानिनि
विद्यामहा
२१ व १४३
परकीयमनगतो
चारित
प्रादि
जैन लक्षणावली
दरिद्र'''एवभूतेन
कानृजात
तदानुवेदिकम्
कर्म
भवनदं स्व
जस्सकम्म
मस्रक्षी
३६
१४०
तदनृतम्
चर्या सराग
सर्वे चैव चैषा
भेद संभृते
तेजं
सयम
६ ); व्रत
); सम्यक्
त्यागजन्यः
प्रक्षर समूहबाह्य
कर्म
संयोजणा
सजोएदि
संवर
निरोधः संवरः
त्रयात्मक धर्मा
पृ. ६५-६६
भा.
रोग: ज्वराति
क्रिया
तसे [ तिस्से ] निमित्तानि नि
विद्या महा
२१-१४३
परकीयमतिगतो
चरित
व विष्ठा श्रादि दरिद्र एवंभूतेन
कानुजात
[ तदा तु वेदकम् ]
कर्म
भवनस्व
जस्स कम्म
मस्राक्षी
३३
२-१४
तदननृतम् चर्या व सराग
सर्वे चैषा
भेदैः संभृते
तेण जं
);
संयम
६ ) ; समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणी न्द्रियपरिहारः संयमः (त. वा.
४७
त्याग-जया:
ग्रक्षरसमूह बाह्य
१ कर्म
संजोयणा
संजोएदि
संवरः
निरोधः संवरो
त्रयात्मकधर्मा
६, ६, १४); व्रत
व्रत समिति कषाय दण्डेन्द्रियाणां रक्षण - पालन- निग्रह त्याग-जया: संयमः, सम्यक्
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३
४
५
३२
इकमप्यए
संगनं
स्वासादन
पुत्त यकम्मेण
विर्तक
करके श्रीर बादर
पु. १
चतुष्टयादि
ति. ४
तव पहावेण
पुस्तककर्म
ना धर्मे
स्नेहा (... स्नेहवि
संपत्त - फासि दिय
कुएं के खोद
आदि
जीविकाक केर ने
सर्वथा
तप श्रुत
12
भाणवस
सन्निवेशकर
शुद्धि-पत्र
वल्भीक
वल्मीक:
योग. शा.
वसति प्राहार
को ( स्वेद - पसीना )
प्राणानां परस्य च
योगद्धि
करोत्येवशीलं लग्न वह्नि
इकमप्पए
संगतं
सास्वादन
पुग्गलकम्मेण वितर्क
करके बादर
पु. ६
चतुष्टयादि
ति. प. ४
[ तह पहावेण ]
पुस्तकर्म
नाधर्मे
स्नेह (स्नेहावि संपत्तफस्सिदिए
कुएँ श्रादि के खोदने,
X X X जीविका के करने
X X X
तपःश्रुत
झाण
सन्निवेशकरं
वल्मीक
वल्मीक:
योगशा.
वसति - प्रहार
को स्वेद ( पसीना )
प्राणानां [ स्वस्य ] परस्य च
योगा
करोत्येवं शीलं
लग्नवह्नि
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जैन-लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्द-कोष)
प्रकरणसमा जाति-१. अथानित्येन नित्येन सा- प्रकाशन, प्रकाशना-१. पगासणा चरमाहारधादुभयेन वा। प्रक्रियायाः प्रसिद्धिः स्यात्ततः प्रकाशनम् । (भ. प्रा. विजयो. ६६)। २. पयासणाप्रकरणे समा ॥ तत्रानित्येन साधर्म्याग्निःप्रयत्नो- चरणं आहारप्रकटनम् । (भ. प्रा. मूला. ६६)। द्भवत्वतः । शब्दस्यानित्यतां कश्चित् साधयेदपरः ३. प्रकाशनं चरमाहारप्रकटनम् । (अन. ध. स्वो. पुनः ॥ तस्य नित्येन गोत्वादिसामान्येन हि नित्यता। टी. ७-६८)। ततः पक्षे विपक्षे च समाना प्रक्रिया स्थिता ॥ (त. १ अन्तिम आहार के प्रगट करने को प्रकाशन या श्लो. १, ३३, ३८०-८२)। २. तस्य (प्रकरण- प्रकाशना कहा जाता है। यह भक्तप्रत्याख्यानमरण समस्य) हि लक्षणम्-यस्मात् प्रकरणचिन्ता स के अर्हादिभावों के अन्तर्गत है। प्रकरणसमः [न्यायसू. ११२।७] इति । प्रक्रियेते प्रकीर्णक-१.प्रकीर्णकाः पौर-जानपदकल्पाः । (स. साध्यत्वेनाधिक्रियेते अनिश्चितौ पक्ष-प्रतिपक्षौ यौ तौ सि. ४-४) । २. प्रकीर्णकाः पौर-जनपदस्थानीयाः । प्रकरणम्, तस्य चिन्ता संशयात् प्रभृत्याऽऽनिश्चयात् (त. भा. ४-४)। ३. प्रकीर्णकाः पौर-ज[जानपदपर्यालोचना यतो भवति स एव, तन्निश्चयार्थ प्रयुक्तः कल्पाः। यथेह राज्ञां पौरा जानपदाश्च प्रीतिहेतवः प्रकरणसमः, पक्षद्वयेऽप्यस्य समानत्वादुभयत्राप्यन्व- तथा तन्द्राणां प्रकीर्णकाः प्रत्येतव्याः । (त. वा. यादिसद्मावात् । (प्र. क. मा. ३-१५, पृ. ३५७)। ४,४,८)। ४. पौर-जानपदप्रख्या: सुरा ज्ञेयाः १ अनित्य की नित्य से और नित्य से अनित्य की प्रकीर्णकाः । (म. पु. २२-२६)। ५. प्रकीर्णा एव समानता से जो प्रकरणसिद्धि की जाती है, इसे प्रकीर्णकाः, ते पौर-जानपदकल्पा: । (त. श्लो. ४, प्रकरणसमा जाति जानना चाहिए। जैसे कोई एक ४)। ६. समुद्र इव प्रकीर्णक-सूक्त-रत्नविन्यासवादी जब 'प्रयत्न के अविनाभावित्व' हेतु के द्वारा निबन्धनं प्रकीर्णकम् । (नीतिवा. ३२-१, पृ. शब्द की अनित्यता को सिद्ध करना चाहता है तब ३७६) । ७. xxx प्रकीर्णा ग्राम्य-पौरवत् । दूसरा प्रतिवादी गोत्व आदि सामान्य के साथ (त्रि. श. पु. च. २, ३, ७७४)। ८. तथा प्रकीर्णसाधर्म्य होने से उसकी नित्यता के सिद्ध करने का काः पौर-जनपदस्थानीयाः, प्रकृतिसदृशा इत्यर्थः । प्रयत्न करता है । इस प्रकार पक्ष-विपक्ष में प्रक्रिया (बृहत्सं. मलय. वृ. २)। ६. प्रकीर्णकाः पौर-जनके समान होने से इसे प्रकरणसमा जाति कहा पदादिप्रकृतिसदृशाः । (संग्रहणी. दे. व. १-२, पृ. जाता है।
५)। १०. प्रकीर्णकाः पौर-जनपदसमानाः । (त. प्रकाश-प्रकाशयति घनतिमिरपटलावगुण्ठितमपि वृत्ति श्रुत. ४-४)। घटादि प्रकटयतीति प्रकाशः । (उत्तरा. नि. शा. १ देवों में जो पुरवासी और जनपद निवासी मनुष्यों वृ. २०६, पृ. २१२)।
के समान हुआ करते हैं वे प्रकीर्ण या प्रकीर्णक देव जो सघन अन्धकार से प्राच्छादित भी घटादि कहलाते हैं। ६ जिस प्रकार समुद्र बिखरे हुए रत्नों पदार्थों को प्रकट करता है उसे प्रकाश कहते हैं। का कारण है उसी प्रकार जो काव्य विविध प्रकार
ल. ६२
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प्रकृति ]
४७८ ) ;
प्रकृतिः
के सूक्तिरूप रत्नों की रचना का कारण है उसे प्रकीर्णक कहा जाता है । प्रकृति - १. प्रकृतिशब्देन स्वभावो भेदश्चाभिधीयते । ) उत्तरा चू. पृ. २७७ ) । २. प्रक्रियते प्रज्ञानादिकं फलमनया आत्मन इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः । ( धव. पु. १२, पृ. ३०३ ) ; पयडी सीलं सहावो इच्चेट्टो | ( धव. पु. १२, पृ. स्वभावः शीलमित्यनर्थान्तरम् । ( धव. पु. १३, पृ. १६७ ) । ३. प्रकृतिमौलं कारणं मृदिव घटादिभेदानामेकरूपपुद्गलग्रहणम्, अतः प्रक्रियन्तेऽस्य सकाशादिति कर्तरीत्यनुवृत्तेरपादानसाधना प्रकृतिः । स्वभाववचनो वा प्रकृतिशब्दः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८-४) । ४. पयडी सील सहावो XXX। (गो. क. २) । ५. प्रकृतिस्तु स्वभाव: स्यात् ज्ञानावृत्यादिरष्टधा ॥ ( योगशा. स्वो विव. १-१६, ६०, पृ. ११४) । ६ इदमुक्तं भवति — प्रकृतिनाम ज्ञानावारकत्वादिलक्षणः स्वभावः । ( पंचसं मलय. वृ. सं. क. ३३ ) । ७. प्रीत्यप्रीति - विषादात्मकानां लाघवोपष्टम्भ - गौरवधर्माणां परस्परोपकारिणां त्रयाणां गुणानां सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः । ( स्याद्वादम. १५, पृ. १८४) । ८. पयइ सहावो वृत्तो XXX । ( नवत. ३७ ) ।
१ प्रकृति का अर्थ स्वभाव अथवा भेद होता है । २ प्रकृति, शील और स्वभाव ये समानार्थक शब्द हैं । जो श्रात्मा के श्रज्ञानादि रूप फल को उत्पन्न करती है उसे प्रकृति कहते हैं। वह मूल में ज्ञानावरणादि के भेद से आठ प्रकार की है । ७ सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों की समता का नाम प्रकृति (सांख्याभिमत ) है । क्रमशः लाघव, उपष्टम्भ और गौरव धर्म वाले उक्त तीनों गुण प्रीति, प्रीति और विवाद स्वरूप होते हुए परस्पर के उपका क हैं । प्रकृतिपतद्ग्रह - १. यस्यां प्रकृतौ जीवस्तव्भावेन परिणमयति सो प्रकृतिः पगतीए संकममाणाए पडि
हो वुच्चति । ( कर्मप्र. चू. सं. क. २ ) । २. यस्यां प्रकृतौ आधारभूतायां तत्प्रकृत्यन्तरस्थं दलिकं परिणमयति- आधारभूतप्रकृतिरूपतामापादयति - एषा प्रकृतिराधारभूता पतद्ग्रह इव पतद्ग्रहः, संक्रम्यमाणप्रकृत्याधार इत्यर्थः । ( कर्मप्र. मलय. वृ. सं. क. २ ) । ३. तत्र यदा एका प्रकृतिरेकस्यां प्रकृतौ
[ प्रकृतिबन्ध
संक्रामति, यथा सातमसाते असातं वा साते, तदा या संक्रामति सा प्रकृतिसंक्रमः यस्यां तु संक्रामति सा प्रकृतिपतद्ग्रहः । ( पंचसं. मलय. वृ. सं. क. ४) । १ जीव जिस प्रकृति में विवक्षित कर्मप्रकृति के प्रदेशों को तत्स्वरूप से परिणमाता है उस श्राधारभूत प्रकृति को प्रकृतिपतद्ग्रह कहा जाता है । प्रकृतिबन्ध - १. अविसेसियरसपगईउ पगइवंधो मुणेraat | ( कर्मप्र. १ - २४, पृ. ६६ ) । २. प्रकृतिः स्वभावः । x x x तदेवंलक्षणं ( अर्थानवगमादिरूपं ) कार्यं प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृतिः । ( स. सि. ८-३; ल. वा. ८, ३, ४ ) । ३. यथोक्तप्रत्ययसद्भावे सति पुद्गलादानं प्रकृतिबन्धः । (त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ८ - ४) । ४. प्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणादिप्रकृतिरूपः । ( श्रा. प्र. टी. ८० ) । ५. प्रकृतिः स्यात् स्वभावोऽत्र निम्बादेस्तिक्ततादिवत् । कर्मणामिह सर्वेषां यथास्वं नियता स्थिता || ( ह. पु. ५८ - २०४ ) । ६. प्रकृतिः स्वभाव इत्यनर्थान्तरम् । × × × बन्धव्यानि च कर्माणि प्रकृत्यावस्थितानि प्रकृतिबन्धव्यपदेशं लभन्ते । ( त. श्लो.. ८ - ३ ) । ७. बन्धो नाम यदात्मा राग-द्वेष-स्नेहलेशावलीढसकलात्मप्रदेशो भवति तदा येष्वेवाकाशप्रदेशेष्ववगाढस्तेष्वेवास्थितान् कार्मणविग्रहयोग्याननेकरूपान् पुद्गलान् स्कन्धीभूतानाहारवदात्मनि परिणामयति सम्बन्धयतीति स्वात्मा ततस्तानध्यवसाय विशेषाज्ञानादीनां गुणानामात्मावरणतया विभजते हंसः क्षीरोदके यथा, यथा वा आहारकाले परिणतिविशेषक्रमवशादाहर्ता रस-खलतया परिणतिमानयत्यनाभोगवीर्यसामर्थ्यात् एवमिहाप्यध्यवसायविशेषात् किञ्चिद् ज्ञानावरणीयतया किञ्चिद् दर्शनाच्छादकत्वेनापरं सुख-दुःखानुभवयोग्यतया परं च दर्शन-चरणव्यामोहकारितयाऽन्यन्नारक-तिर्यङ्मनुष्यामरायुष्केनान्यद् गतिशरीराद्याकारेणापरमुच्च-नीच - गोत्रानुभावेनाऽन्यद् दानाद्यन्तरायकारितया व्यवस्थायति । एषः प्रकृतिबन्धः । ( त. भा. सिद्ध वृ. १-३, पृ. ३८ ) 15. XX X तस्समुदाय पगतिबंधो । ( पंचसं. बं. क. ४० ) ; तेषां त्रयाणामपि स्थित्यनुभाग- प्रदेशबन्धानां यः समुदायः स प्रकृतिबन्धः । (पंचसं. स्व. वृं. बं. क. ४० ) । ६. प्रकृतयः कर्मrisशा भेदाः ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ तासां बन्धः प्रतिबन्धः । ( समवा. अभय वृ. ४) । १०. कर्मणः
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प्रकृतिबन्ध ]
प्रकृतयः श्रंशा भेदाः ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ तासां प्रकृतेर्वा श्रविशेषितस्य कर्मणो बन्धः प्रकृतिबन्धः । ( स्थाना. अभय वृ. ४, २,२६६ ) । ११. कार्मणवर्गणागतपुद्गलानां ज्ञानावरणादिभावेन परिणामः प्रकृतिबन्धः । (मूला. वृ. ५-४७ ) ; प्रकृतिर्ज्ञानावरणादिस्वरूपेण पुद्गलपरिणामः । (मला. वृ. १२- ३ ) । १२. ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मणां तत्तद्योग्यपुद् गलद्रव्यस्वीकारः प्रकृतिबन्धः । (नि. सा. वृ. १-४०)। १३. रसः स्नेहोऽनुभाग इत्येकार्थः, तस्य प्रकृति: स्वभाव:, अविशेषिताऽविवक्षिता रसप्रकृतिः, उपलक्षणत्वात् स्थित्यादयोऽपि यस्मिन्नविवक्षिता: स बन्धोऽविशेषित रस प्रकृतिः प्रकृतिबन्धो ज्ञातव्यः । ( कर्मप्र. मलय. वृ. १ - २४, पृ. ६६ ) । १४. ज्ञानावरणाद्यात्मा प्रकृतिः X X X | (अन. ध. २-३६ ) । १५. यः पुनस्तत्समुदायः -- स्थित्यनुभाग- प्रदेशसमुदाय:- स प्रकृतिबन्ध: । (पंचस. मलय. वृ. बं. क. ४०; कर्मवि. दे. स्वो वृ. २; शतक. दे. स्वो वृ. २१) । १६. प्रकृतिः समुदायः स्यात् X XX। ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. २, उद्.; शतक. दे. स्वो वृ. २१ उद्) । १७. प्रकृतिस्तत्स्वभावात्मा ×××। ( पञ्चाध्यायी २-९३३) ।
१ तीव्र-मन्द अथवा शुभाशुभरूप विशेषता से रहित रस की प्रकृति - अनुभाग के स्वभाव को-प्रकृतिबन्ध कहते हैं । ५ प्रकृति नाम स्वभाव का है, जैसे नीम की प्रकृति तिक्तता अथवा गुड़ की प्रकृति मधुरता । इस प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मों की जो ज्ञानादि के प्रावरणरूप प्रकृति है उसे प्रकृतिबन्ध कहा जाता है ।
प्रकृतिमरण - एवमेकस्यायुष्कर्मण एकैव प्रकृतिरुदेत्येकस्यात्मनस्तस्मादेकै कायुष्क प्रकृतिगलन रूपमिव मृतिमुपैति । तदेतत्प्रकृतिमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ. ८६ ) ।
एक जीब के एक ही प्रयुकर्म की प्रकृति उदय को प्राप्त होती है। इसी से जीव एक प्रायुकर्म को प्रकृति के गलनेरूप मृत्यु को प्राप्त होता है । यही प्रकृतिमरण है । प्रकृतिमोक्ष- - जा पयडी णिज्जरिज्जदि अण्णपर्याड वा संकामिज्जदि एसो पर्याडिमोक्खो णाम । ( धव. पु. १६, पृ. ३३७ ) ।
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[ प्रकृतिस्थानसंक्रम
जो प्रकृति निर्जीर्ण होती है अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणत होती है, इसका नाम प्रकृतिमोक्ष है । प्रकृतिसंक्रम - १. जा पयडी अण्णपर्याड णिज्जदि एसो पकिमो | ( धव. पु. १६, पृ. ३४० ) । २. एकस्यां प्रकृतावेका संक्रामति यदा तदा प्रकृतिसंक्रमः प्रकृतिप्रतिग्रहता चेति । (पंचसं च. स्वो. वृ. सं. क. ४) । ३. यां प्रकृति बध्नाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थं दलिकं वीर्यविशेषेण यत्परिणमयति स सङ्क्रमः । ( स्थाना. श्रभय. वृ. ४, २, २६) । ४. तत्र यदा एका प्रतिरेकस्यां प्रकृतौ संक्रामति यथा सातमसाते, असातं वा साते, तदा या संक्रामति सा प्रकृतिसंक्रमः । (पंचसं मलय. वू. सं. क. ४); पतद्ग्रहरूपतापादनं प्रकृतिसंक्रमः । ( पंचसं. मलय. वृ. सं. क. ३३) ।
१ जो प्रकृति अन्य प्रकृतिरूपता को प्राप्त करायी जाती है, यह प्रकृतिसंक्रम कहलाता है । ४ जब एक प्रकृति श्रन्य एक प्रकृति में संक्रमण को प्राप्त होती है - जैसे साता असाता में प्रथवा असाता साता में, इत्यादि - तब जो संक्रान्त होती है उसे प्रकृतिसंक्रम कहा जाता है । प्रकृतिस्थान- द्वि-त्रादीनां प्रकृतीनां समुदायः प्रकृतिस्थानम् । (पंचतं. मलय. वृ. सं. क. ४) । दो तीन आदि प्रकृतियों के समुदाय को प्रकृतिस्थान कहते हैं । प्रकृतिस्थानपतद्ग्रह - यदा तु प्रभूतासु प्रकृतिस्वेका संक्रामति, यथा मिथ्यात्वं सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्वयोः, तदा प्रकृतिस्थानपतद्ग्रहः । ( पंचसं. मलय. वू. सं. क. ४) ।
जब बहुत सी प्रकृतियों में एक प्रकृति संक्रमण को प्राप्त होती है, जैसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व में एक मिथ्यात्व प्रकृति, तब वह प्रकृतिस्थानपतद्ग्रह कहलाता है ।
प्रकृतिस्थानसंक्रम-तत्र यदा प्रभूता प्रकृतय एकस्यां संक्रामन्ति यथा यशः कीर्तावकस्यां शेषा नामप्रकृतयः, तदा प्रकृतिस्थानसंक्रमः । ( पंचसं मलय. वृ. सं. क. ४) ।
जब एक प्रकृति में बहुत सी प्रकृतियां संक्रमण को प्राप्त होती हैं, जैसे एक यशःकीर्ति में शेष नाम कर्मप्रकृतियां, तब वह प्रकृतिस्थान संक्रम कहलाता है ।
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प्रकृत्यन्तरनयनसंक्रम ७३२, जैन-लक्षणावली
[प्रचला प्रकृत्यन्तरनयनसंक्रम-१. यत्पुनः सङ्क्रमप्र- १ कवल या ग्रासरूप आहार को प्रक्षेपाहार कहा कृतिस्थितिसमयस्था कर्मपरमाणवः प्रतिग्रहप्रकृतौ जाता है, कारण कि उसे उठाकर मुख में रखना सक्रमप्रकृतितुल्यासु स्थितिषु नीत्वा निवेश्यन्त इत्ये- पड़ता है। षः प्रकृत्यन्तरनयनसंक्रमः । (पंचसं. स्वो. वृ. सं, क. प्रचला-१. या क्रिया प्रात्मानं प्रचलयति सा ३५, पृ. १५४)। २. विवक्षितायाः प्रकृतेः समा- प्रचला शोक-श्रम-मदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रकृष्य प्रकृत्यन्तरे नीत्वा निवेशनं प्रकृत्यन्तरनयन- गात्रविक्रियासूचिका। (स. सि. ८-७) । २. पयला संक्रमः । (पंचसं. मलय. व. सं. क. ५२)। होइ ठियस्सा xxx॥ (बहत्क. २४००)। १ संक्रमप्रकृति सम्बन्धी स्थिति के समयों में अव. ३. किंचिदुन्मिषितो जीवः स्वपित्येव मुहुर्मुहः । स्थित कर्मपरमाणों को प्रतिग्रहप्रकृति में संक्रम- ईषदीषद्विजानाति प्रचलालक्षणं हि तत् ।। (वरांगच. प्रकृति की समान स्थितियों में ले जाकर जो रखा ४-५४)। ४. प्रचलयत्यात्मानमिति प्रचला । या जाता है, इसका नाम प्रकृत्यन्तरनयनसंक्रम है। क्रिया प्रात्मानं प्रचलयति सा प्रचलेत्युच्यते । x २ विवक्षित प्रकृति के रस को उससे खींचकर व xx सा पुन: शोक-श्रम-मदादिप्रभवा विनिवृत्ते
में ले जाकर रखना, इसका नाम न्द्रियव्यापारस्यान्तःप्रीतिलवमात्रहेतुः आसीनस्यापि प्रकृत्यन्तरनयनसंक्रम है।
नेत्र-गात्रविक्रियासूचिता। (त. वा. ८, ७, ४) । प्रकृत्यर्थता-पयडी सीलं सहावो इच्चेयट्ठो । अट्ठो ५. पयलाए तिव्वोदएण वालुवाए भरियाई व लोयपयोजणं, तस्स भावो अट्ठदा, पयडीए अट्ठदा पयडि- णाई होति, गरुवभारोड्ढव्वं व सीसं होदि, पुणो अट्टदा । (धव. पु. १२, पृ. ४७८)।
पुणो लोयणाई उम्मिल्ल-णिमिल्लणं कुणंति, णिद्दाप्रकृति, शील और स्वभाव ये समानार्थक शब्द हैं। भरेण पडतो लहु अप्पाणं साहारेदि, मणा मणा अर्थ से प्रयोजन का अभिप्राय रहा है। इस प्रकार कंपदि, सचेयणो सुवदि। (धव. पु. ६, पृ. ३२); प्रकृति की अर्थता को प्रकृत्यर्थता कहते हैं। जिस्से पयडीए उदएण अद्धसुत्तस्स सीसं मणा मणा प्रक्षेपक-यत्पुनर्मुखे प्रवेशनं स प्रक्षेपकः । (बह- चल दि सा पयला णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३५४) । क. क्षे. बृ. ६८)।
६. श्रमादिप्रभवात्मानं प्रचला प्रचलयत्यलम्। (ह. लटकते हुए पत्र-पुष्पादि के मुख में रखने का पु. ५८-२२८)। ७. या स्थितस्याप्येति प्रतिबोधनाम प्रक्षेपक है।
विधातेन सा प्रचला। (पंचसं. च. स्वो. वृ. ३-४, प्रक्षेपाहार-१. पक्खेवाहारो पुण कावलियो होइ पृ. ११०)। ८. उपविष्टः ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलति नायव्वो। (सूत्रकृ. नि. २, ३, १७१; बृहत्सं. विघूर्णयत्यस्यां स्वापावस्थायामिति प्रचला। (शतक. १९७)। २. प्रक्षेपाहारस्तु कावलिकः । (त. भा. हरि. मल. हेम. वृ. ३८)। ६. उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा व सिद्ध. वृ. ५-२०)। ३. प्रक्षेपाहारः अोदनादि- प्रचलति पूर्णते यस्यां स्वपावस्थायां सा प्रचला। कवल-पानाभ्यवहारलक्षणः । (त. भा. सिद्ध. व. तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचला। (पंचसं. मलय. २-३१) । ४. प्रक्षेपेण कवलादेराहार: प्रक्षेपाहारः, वृ. ३-४, पृ. ११०; सप्तति. मलय. वृ. ६) । प्रक्षेपाहारस्तु कावलिकः, कवलप्रश्नेपनिष्पादित इति १०. तथा उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलयति घूर्णज्ञातव्यो भवति । (सूत्रकृ. नि. शी. व. २, ३, यति यस्यां स्वापावस्थायां सा प्रचला, तद्विपाकवेद्या १७०)। ५. प्रक्षिप्यतेऽर्थात् मुखे इति प्रक्षेपः, स कर्मप्रकृतिरपि प्रचला। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, चासावाहारश्च प्रक्षेपाहारः, xxx कावलिक- पृ. ४६७)। ११. ऊर्ध्वस्थितस्यापि या पुनश्चैतन्य मुखप्रक्षेपाहारः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २८-३०६)। मस्फुटीकुर्वती समुपजायते निद्रा सा प्रचला। ६. प्रक्षेपाहारः पुनः कावलिको मुखे कवलप्रक्षेपरूपो (जीवाजी. मलय. वृ. ८६)। १२. उपविष्ट भवति ज्ञातव्यः। (बृहत्सं. मलय. वृ. १९७)। ऊर्ध्वस्थितो बा प्रचलति यस्यां स्वापावस्थायां सा ७. यः पुनराहारः कावलिकः कवलनिष्पन्नो भवति, प्रचला, सा हि उपविष्टस्य ऊर्ध्वस्थितस्य वा स्वप्तुस मुखे कवलादेः प्रक्षेपात् प्रक्षेपाहारो ज्ञातव्यः। भवति । (धर्मसं. मलय. वृ. ६१०)। १३. उप(संग्रहणी दे. वृ. १४०)।
विष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलत्यस्यां स्वप्ता स्वापाव
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प्रचला] ७३३, जैन-लक्षणाली
[प्रचला-प्रचला स्थायामिति प्रचला, सा ह्य पविष्टस्योर्ध्वस्थितस्य ऽत्यर्थ प्रचलाप्रचलाक्रमः ॥ (वरांगच. ४-५१)। वा घूर्णमानस्य स्वप्तुर्भवति, तथाविधविपाकवेद्या ४. पौनःपुन्येन सैवाहिता वृत्तिः प्रचलाप्रचला । कर्मप्रकृतिः प्रचलेति तथैव । (कर्मस्त. गो. वृ. ६, सैव प्रचला पुनः पुनरावर्तमाना प्रचलाप्रचलेत्युपृ. ८३) । १४. या क्रियात्मानं प्रचलयति घूर्णयति च्यते। (त. वा. ८, ७, ५)। ५. पयलापयलाए सा प्रचला, प्रचलाख्यदर्शनावरणकर्मविशेषविपाकव- तिव्वोदएण वइट्टो वा उब्भवो वा मुहेण गलमाणशस्य जीवस्यासीनस्यापि शोक-श्रम-मदादिप्रभवो लालो पुणो पुणो कंपमाणसरीर-सिरोणिब्भरं सुवदि।
त्र-गात्रविक्रियासचितः स्वापपरिणामः । (भ. प्रा. (धव. पु. ६, पृ. ३१-३२): जिस्से उदएण ट्रियो मला. २०६४)। १५. पयला ठिग्रोवविद्स्स xx णिसण्णो वा सोवदि, गहगहियो व सीसं धूणदि, X ॥ (कर्मवि. दे. ११); प्रचलति विघूर्णते वायाहयलया व चदुसु वि दिसासु लोट्टदि सा पयलायस्यां स्वापावस्थायां प्राणी सा प्रचला, सा च पयला णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३५४)। ६. सा स्थितस्योलस्थानेन उपविष्टस्य पासीनस्य भवति, (प्रचला) पुनः पुनरावृत्ता प्रचलाप्रचलाभिधा । तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचला। (कर्मवि. दे. (ह. पु. ५८-२२८)। ७. एवं या भ्रमतोऽप्येति सा स्वो. वृ. ११)। १६. स्थितो नाम उपविष्ट ऊर्ध्व- प्रचलाप्रचला। (पंचसं. स्वो. बृ. ३-४) । ८. प्रचस्थितो वा, तस्य या स्वापावस्था सा प्रचला। लातिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला, सा हि चंक्रमणादि (बृहत्क. क्षे. वृ. २४००)। १७. यदुदयात् या कुर्वतः स्वप्तुर्भवति इति । स्थानस्थितस्वप्तृप्रभवां प्रचक्रिया प्रात्मानं प्रचलयति तत्प्रचलादर्शनावरणमिति। लामपेक्ष्यास्या अतिशायिनीत्वम्, तद्विपाकवेद्या कर्मप्र(गो. क. जी. प्र. ३३)। १८. यत्कर्म यात्मानं कृतिरपि प्रचलाप्रचला। (शतक. मल. हेम. वृ. ३८, प्रचलयति सा प्रचलेत्युच्यते । प्रचलावान् पुमान् पृ. ४५; कर्मस्त. गो. वृ. ६, पृ. ८३) । ६. प्रचलाउपविष्टोऽपि स्वपिति, शोक-श्रम-मद-खेदादिभिः तोऽतिशायिनी प्रचलाप्रचला Xxx सा हि प्रचला उत्पद्यते, सा नेत्र-गात्रविक्रियाभिः सूच्यते। चंक्रमणादिकमपि कुर्वतः उदयमधिगच्छति, ततः (त. वृत्ति श्रुत. ८-७)। १६. उपविष्ट ऊर्ध्व- स्थानस्थितस्वस्तृप्रभवप्रचलापेक्षया तस्या अतिशायिस्थितो वा प्रचलति घूर्णते यस्यां स्वापावस्थायां सा नीत्वम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४६७) । प्रचला । (कर्मप्र. यशो. व. १, पृ. ४)।
१०. प्रचलातोऽभिहितस्वरूपाया अतिशायिनी प्रचला १ जो क्रिया जीव को चलायमान करती है, उसे प्रचलाप्रचला, सा पुनरध्वानमपि गच्छतो भवति। प्रचला (निद्राविशेष) कहा जाता है। वह शोक, (धर्मसं. मलय. वृ. ६१०)। ११. तथा प्रचलातोथकावट एवं मद आदि से उत्पन्न होती हुई बैठे हुए ऽतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला, Xxx एषा जीव के भी पा जाती है तथा नेत्र व शरीर के हि चंक्रमणमपि कुर्वत उपतिष्ठते (पंचसं. 'उदयविकार की सूचक है या उनके द्वारा सूचित होती मधिगच्छति') तथा स्थानस्थितस्वस्तृभवप्रचलापेहै। ५ प्रचला के तीव्र उदय से नेत्र बालु से भरे क्षया अस्या अतिशायिनीत्वम्, तद्विपाकवेद्या कर्महुए के समान प्रतीत होते हैं, शिर भारी बोझ से प्रकृतिरपि प्रचलाप्रचला। (सप्तति. मलय. वृ. ६; आक्रान्त सा हो जाता है, नेत्र बार-बार खुलते और पंचसं. मलय. वृ. ३-४, पृ. ११०, कर्मवि. दे. मिचते हैं तथा नींद के भार से गिरते हुए अपने को स्वो. वृ. ११, पृ. २८) । १२. या तु चंक्रमतः गतिसंभाल लेता है। ७ बैठे-बैठे या खड़े-खड़े भी जो परिणतस्य निद्रा सा प्रचलाप्रचला। (बृहत्क. क्षे. विशेष जाति की नींद पाकर बोध का विघात वृ. २४००)। १३. प्रचलेव पुनः पुनरावर्तमाना करती है वह प्रचला कहलाती है।
प्रचलाप्रचला चंक्रमणस्यापि आत्मनः प्रचलाप्रचलाप्रचला-प्रचला-१. सैव पुनः पुनरावर्तमाना ख्यदर्शनावरणकर्मविकल्पविपाकवशाज्जायते । (भ. प्रचलान चला। (स. सि. ८-७) । २. xxx आ. मूला. २०६४)। १४. यदुदयात् या क्रिया पयलापयला य (कर्मवि. 'उ') चंकमप्रो।। (बृहत्क. प्रात्मानं पुनः पुनः प्रचलयति तत्प्रचलाप्रचलादर्शना२४००; कर्मवि. दे. स्वो. व. ११)। ३. स्यन्दते वरणम् । शोक-श्रम-मदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रमुखतो लाला तनुं चालयते मुहुः । शिरो नमयते- गात्रविक्रियासूचिका, सैव पुनः पुनरावर्तमाना प्रचला
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प्रच्छना]. ७३४, जैन-लक्षणावला
[प्रज्ञापना प्रचलेत्यर्थः । (गो. क. जी. प्र. ३३) । १५. प्रचला- शुद्धि करता है उसके आलोचना का छठा दोष वान् पुमान् उपविष्टोऽपि स्वपिति शोक-श्रम-मद-स्वे- उत्पन्न होता है। दादिभिः प्रचला उत्पद्यते, सा नेत्र-गात्रविक्रियाभिः प्रजननपुरुष-प्रजन्यतेऽपत्यं येन तत्प्रजननं शिश्नं सूच्यते, प्रचलैव पुनः पुनरागच्छन्तीति प्रचलाप्रचला। लिङ्गम्, तत्प्रधानः पुरुषः, अपरपुरुषकार्यरहितत्वात् (त. वृत्ति श्रुत. ८-७)। १६. प्रचलातोऽतिशायि- प्रजननपुरुषः । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. १, ४, ५५, नो प्रचलाप्रचला, इयं हि चंक्रमणादिकुर्वतोऽप्युदय- पृ. १०३)। मागच्छतीति प्रचलातोऽस्या अतिशायिनीत्वम् । जिसके द्वारा सन्तान उत्पन्न की जाती है उस पुरु(कर्मप्र. यशो. वृ. १, पृ. ४)।
पेन्द्रिय का नाम प्रजनन है, प्रजनन की प्रधानता १ बार बार प्रचला के प्रावर्तन का नाम प्रचला. वाले पुरुष को प्रजननपुरुष कहा जाता है। अभिप्रचला है। २ चलते चलते भी जो विशेष जाति की प्राय यह है कि जो पुरुषोचित अन्य कार्य को न निद्रा आती है उसे प्रचलाप्रचला कहते हैं। करके केवल सन्तान को उत्पन्न करता है उसे प्रजप्रच्छना-देखो पृच्छना। १. संशयच्छेदाय नि- ननपुरुष समझना चाहिए। श्चितबलाधानाय वा परानुयोगः प्रच्छना। (स. प्रज्ञा-देखो प्रज्ञापरीषह । १. प्रज्ञायते अनया
५)। २. सन्देहनिवत्तये निश्चितबला- प्रज्ञा, प्रगता ज्ञा प्रज्ञा। (उत्तरा. चु. २, पृ. ८२) । धानाय वा सूत्रार्थविषयः प्रश्नः । (भ. प्रा. विजयो. २. प्रज्ञानं प्रज्ञा, विशिष्ट तरक्षयोपशमाहितप्रभूत१०४); प्रश्नो हि ग्रन्थेऽर्थे वा संशयच्छेदाय इत्थ- वस्तुगतयथावस्थितधर्मालोचनरूपा मतिरेव । (विमेवैतदिति निश्चितार्थबलाधानाय वा पृच्छनम्। शेषा. को. वृ. ३६७, पृ. १५३)। ३. प्रज्ञानं प्रज्ञा (भ. प्रा. विजयो. १३६) । ३. तत्संशयापनोदाय विशिष्टक्षयोपशमजन्या, प्रभूतवस्तुगतयथावस्थितधतन्निश्चयबलाय वा । परं प्रत्यनुयोगाय प्रच्छनां मालोचनरूपा मतिरित्यर्थः । (प्राव. नि. हरि. व तद्विदुर्जिनाः ।। (त. सा. ७-१८)। ४. प्रच्छना मलय. वृ. १२) । ४. अदिट्ठ-अस्सुदेसु अढेसु णाणु-". संशयोच्छित्त्यै प्रश्नः सप्रश्रयो मुनेः । स्वोन्नत्याख्या- पायणजोगत्तं पण्णा णाम। Xxx णाणहेदुपनार्थं वा प्रहासोद्धर्षजितः ॥ (प्राचा. सा. ४, जीवसत्ती गुरुवएसणिरवेक्खा पण्णा णाम । (धव. ६०)। ५. प्रच्छनं ग्रन्थार्थयो: सन्देहच्छेदाय निश्चि- पु. ६, पृ. ८३-८४)। ५. ऊहापोहात्मिका प्रज्ञा । तबलाधानाय वा परानुयोगः । (योगशा. स्वो. विव. (अन. ध. ३-३)। ४-६०)। ६. प्रच्छनं संशयोच्छित्त्यै निश्चितद्रढ- १ जिसके द्वारा जाना जाता है उसे अथवा प्रकर्षनाय वा । प्रश्नोऽधीतिप्रवृत्त्यर्थत्वादधीतिरसावपि । प्राप्त ज्ञान को प्रज्ञा कहते हैं। २ विशिष्ट क्षयोप(अन. ध. ७-८४)। ७. संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा ग्रन्थार्थोभयस्य परं प्रत्यनुयोगः आत्मो- के आलोचनरूप जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसका नतिपरातिसन्धानोपहासादिवजितः प्रच्छना । (भाव- नाम प्रज्ञा है। ४ नहीं देखे-सुने गये पदार्थों के प्रा. टी. ७८)।
विषय में जो ज्ञान के उत्पादन की योग्यता होती है १ संशय के दूर करने तथा निश्चित अर्थ के दृढ़ उसे प्रज्ञा कहा जाता है । करने के लिए जो दूसरे विद्वान से प्रश्न किया प्रज्ञापक-चारित्रस्य प्रवर्तकः प्रज्ञापक उच्यते । जाता है, इसे प्रच्छन या प्रच्छना कहा जाता है। (व्यव. मलय. वृ. १०-३४६) । प्रच्छन्नदोष-१. इय पच्छण्णं पुच्छिय साधू जो चारित्र के प्रवर्तक को प्रज्ञापक बहा जाता है। कुणइ अप्पणो सुद्धि । तो सो जिणेहिं वुत्तो छट्ठो प्रज्ञापना-देखो प्रज्ञापनी। १. जीवादीनां प्रज्ञा
आलोयणादोसो ।। (भ. प्रा. ५८६)। २. प्रच्छन्नं पनं प्रज्ञापना। (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ६०)। व्याजेन दोषकथनं कृत्वा स्वतः प्रायश्चित्तं यः २. प्रकर्षेण निःशेषकुतीथितीर्थकरासाध्येन यथावकरोति तस्य षष्ठं प्रच्छन्नं नामालोचनदोषजातं वस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन, ज्ञाप्यन्ते-शिष्यबुद्धाभवति । (मला. वृ. ११-१५) ।
वारोप्यन्ते, जीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना, १ जो साधु गुप्तरूप से पूछ कर अपने अपराध की इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थांगस्योपांगम् । (प्रज्ञाप.
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प्रज्ञापनी भाषा ]
मलय. वृ. पृ. १ ) ; प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते जीवादयो भावा अनया शब्दसंहत्या इति प्रज्ञापना। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. गा. २) ।
१ जीवादि पदार्थों के ज्ञापन कराने को प्रज्ञापना कहते हैं । २ यथावस्थित वस्तुस्वरूप के निरूपक जिस श्रुत के द्वारा जीवादि पदार्थों को शिष्य की बुद्धि में प्रारोपित किया जाता है उसका नाम प्रज्ञापना है । वह समवायांग नामक चौथे अंग का उपांग माना जाता है ।
प्रज्ञापनी भाषा - १. पण्णवणी नाम धम्मकहा । साहूनिर्दिश्य प्रवृत्ता कैश्चिन्मनसि करणमितरैरकरणं चापेक्ष्य [करणा-] करणत्वाद् द्विरूपा 1 (भ. श्री. विजयो. ११६५ ) । २. मत्पृष्टं यत्तदादेश्यमिति प्रज्ञापना गुरौ । ( श्राचा. सा. ५-८८ ) । ३. प्रज्ञापनी यथा तव किंचित् कथयिष्यामि । (भ. श्री. मूला. १९६५ ) । ४. प्रज्ञापनी विनीतविन यस्य विनेयजनस्योपदेशदानम्, यथा प्राणिवधानि वृत्ता भवन्ति, भवन्ति भवान्तरे प्राणिनो दीर्घायुष -इत्यादि । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २२५) ।
१ धर्म की जो चर्चा की जाती है उसका नाम प्रज्ञापनी भाषा है । उसकी प्रवृत्ति बहुतों को लक्ष्य करके होती है, जिनमें से कितने ही मन में उसका निर्धारण करते हैं और कितने नहीं भी करते हैं । इससे उक्त भाषा के दो रूप हो जाते हैं । २ जो मैंने पूछा है उसके विषय में आदेश दीजिये, इस प्रकार गुरु से विज्ञापन करने का नाम प्रज्ञापनी भाषा है । ४ विनम्र शिष्य जन के लिए जो उपदेश दिया जाता है उसे प्रज्ञापनी भाषा कहा जाता है । जैसे—जो प्राणिहिंसा से निवृत्त होते हैं वे अगले जन्म में दीर्घायु होते हैं । प्रज्ञापरीषह - देखो प्रज्ञा व प्रज्ञापरीषहजय । प्रज्ञापरीषो नाम सो [ यो ] हि सति प्रज्ञाने तेण गव्वितो भवति तस्य प्रज्ञापरीषहः । प्रतिपक्षे ण प्रज्ञापरीषहो भवति । ( उत्तरा चू. २, पृ. ८२ ) । विशिष्ट ज्ञान के होने पर जो उससे गर्व को प्राप्त होता है उसके प्रज्ञापरीषह होती है, इसके विपरीत जो उसका गर्व नहीं करता है उसके वह नहीं होती है । प्रज्ञापरीषहजय - देखो प्रज्ञापरीषह । १. अङ्गपूर्व - प्रकीर्णकविशारदस्य शब्द- न्यायाध्यात्मनिपुणस्य
७३५, जैन-लक्षणावली
[ प्रज्ञापरीषहजय
२.
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मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिभूतखद्योतोद्योतवन्नितरां नावभासन्त इति विज्ञानमदनिरास: प्रज्ञापरीषहजयः प्रत्येतव्यः । ( स. सि. ६ - ६ ) । प्रज्ञाप्रकर्षावलेपनि रासः प्रज्ञा विजयः अङ्ग-पूर्व-प्रकीर्णकविशारदस्य कृत्स्नग्रन्थार्थाधारिणोऽनुत्तरवादिनस्त्रिकालविषयार्थविदः शब्द-न्यायाध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिभूतोद्योतखद्योतवन्नितरामवभासन्त इति विज्ञानमदनिरास: प्रज्ञापरीषहजयः प्रत्येतव्यः । (त. वा. ६, ६, २६; चा. सा. पृ. ५६ ) । ३. प्रजानन् वस्तु जिज्ञासूर्न मुह्येत् कर्मदोषवित् । ज्ञानिनां ज्ञानमुद्वीक्ष्य तथैवेत्यन्यथा न तु ॥ (श्राव. नि. हरि. बृ. ६१८, पृ. ४०३, उद्. २० ) । ४. प्रज्ञोत्कर्षाप | व ]लेपनिरास: प्रज्ञाविजय: । ( त श्लो. ६-६ ) । ५. प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा बुद्धयतिशय:, तत्प्राप्तौ न गर्वमुद्वहत इति प्रज्ञापरीषजयः । प्रज्ञाप्रतिपक्षेणाल्पबुद्धिकत्वेन परीषहो भवति - नाहं किञ्चिज्जाने मूर्खोऽहं सर्वपरिभूत इत्येवं परितापमुपागतस्य परीषहः, तदकरणात् कर्मविपाकोऽयमिति परीषहजयः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - ६ ) । ६. प्रत्यक्षाऽऽक्रमविश्ववस्तुविषयज्ञानात्मनः स्वात्मनो गर्वः सर्वमतश्रुतज्ञ इति यः प्राप्ते परोक्षे श्रुते । सर्वस्मिन्नपि नो तनोति हृदये लज्जां स कि तामिति, प्रज्ञोत्कर्षमदापनोदनपरः प्रज्ञातिजित्तत्त्ववित् ।। ( श्राचा. सा. ७–१८ ) । ७. अङ्गोपाङ्ग-पूर्व-प्रकीर्णकविशारदस्य शब्द-तर्काव्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादन्ये सर्वेऽपि भास्करस्य पुरः खद्योता इव निष्प्रभा इति ज्ञानानन्दस्य [ ज्ञानमदस्य ] यन्निरसनं स प्रज्ञापरीषहजयः । ( पंचसं मलय. वृ. ४- २२, पृ. १८६) ८. विद्याः समस्ता यदुपज्ञमस्ताः प्रवादिनो भूपसभेषु येन । प्रज्ञोमिजित्सोऽस्तु मदेन विप्रो गरुत्मता यद्वदखाद्यमानः ॥ ( अन. ध. ६- १०८ ) । ६ अङ्गपूर्वप्रकीर्णकविशारदस्य अनुत्तरवादिनो मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिभूतोद्योतखद्योतवन्नितरामवभासन्त इति ज्ञानमदनिरासः प्रज्ञापरीषहजय: । ( श्रारा. सा. टी. ४० ) । १ मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक ग्रन्थों के रहस्य को जानता हूं तथा व्याकरण, न्याय और श्रध्यात्मशास्त्र में भी प्रवीण हूं; मेरे सामने दूसरे विद्वान् इस प्रकार से निःश्रीक हैं जिस प्रकार कि सूर्य के प्रकाश के श्रागे जुगनूं; इस प्रकार के ज्ञान विषयक
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होता है।
K
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प्रज्ञापारमित] ७३६, जैन-लक्षणाली
[प्रतनुकर्मा अभिमान को उत्पन्न न होने देना, इसका नाम है। इस ऋद्धि से युक्त साधु अध्ययन के विना भी प्रज्ञापरीषहजय है। ३ जो ज्ञान का अभिलाषी चौदह पूर्वगत विषय की सूक्ष्मता को लिए हुए होकर भी उसके प्राप्त न होने पर मोह को प्राप्त सभी श्रुत को जानता है । ३ अदृष्ट एवं प्रश्रुत हीता हुआ खिन्न नहीं होता, किन्तु कर्म का दोष अर्थविषयक ज्ञान उत्पन्न कराने की योग्यतारूप समझता है। ऐसा साधु प्रज्ञापरीषहविजयी बुद्धि हो जिनके श्रवण (कान) होते हैं वे प्रज्ञाश्रवण
कहलाते हैं। प्रज्ञापारमित-ते खलु प्रज्ञापारमिताः पुरुषा ये प्रणिधान-१. प्रणिधानं विशिष्टश्चेतोधर्मः । कुर्वन्ति परेषां प्रतिबोधनम् । (नीतिवा. १७-६६)। (दशवै. नि. हरि. वृ. १-२३, पृ. २४) । २. प्रणिदूसरों को प्रतिबोधित करने वाले पुरुषों को प्रज्ञा- धानं चेतःस्वास्थ्यम् । (व्यव. भा. मलय. वृ. (पी.) पारमित कहते हैं।
१-६५, पृ. २८)। प्रज्ञाभाषच्छेदना-मदि-सुद-प्रोहि-मणपज्जय-केव- १ चित्त के विशिष्ट-एकाग्रतारूप-धर्म को लणाणेहि छदृव्वावगमो पण्णभावच्छेदणा णाम । प्रणिधान कहा जाता है। (घव. पु. १४, पृ. ४३६)।
प्रणिधानयोग-प्रणिधानं चेतःस्वास्थ्यम्, तत्प्रमति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान के
धानयोगाः प्रणिधानयोगाः। (व्यव. भा. मलय. वृ. द्वारा छह द्रव्यों को जानना; इसका नाम प्रज्ञा
(पी.) १-६५, पृ. २८) । भावछेदना है। यह दस प्रकार की छेदना में।
चित्त को स्वस्थता युक्त योग प्रणिधानयोग कहअन्तिम है।
लाते हैं। प्रज्ञावशार्तमरण-तीक्ष्णा मम बुद्धिः सर्वत्राप्रति
प्रणिधि-प्रणिधिः व्रतापरिणतावासक्तिः प्रणिधाहता इति प्रज्ञामत्तस्य मरणं प्रज्ञावशार्तमरणमुच्यते।
नम् । (त. भा. सिद्ध. व. ८-१०, पृ. १४६)। (भ. प्रा. विजयो. २५)।
व्रतों की अपरिणति में-उनके पालन न करने की मेरी बुद्धि तीक्ष्ण है, उसकी गति सर्वत्र अप्रतिहत
पोर-जो आसक्ति या अरुचि होती है, उसका (निर्बाध) है, इस प्रकार से प्रज्ञामद से मत्त पुरुष
नाम प्रणिधि है। यह माया कषाय का नामान्तर के मरण को प्रज्ञावशार्तमरण कहते हैं। प्रज्ञाश्रवण-देखो प्राज्ञश्रमण । १.पगडीए सुद
प्रणिधिमाया-प्रतिरूपद्रव्यमानकरणानि ऊनातिणाणावरणाए वीरियंतरायाए । उक्कस्सक्खनोवसमे
रिक्तमानं संयोजनया द्रव्यविनाशनमिति प्रणिधिउप्पज्जइ पण्णसमणद्धी ।। पण्णासमणद्धिजुदो चोद्द
माया। (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ.६०)। सपुव्वीसु विसयसुहमत्तं । सब्वं हि सुदं जाणदि अक
बहुमूल्य द्रव्य में तत्सम अल्प मल्य के द्रव्य को अज्झयणो वि णियमेण ॥ भासंति तस्स बुद्धी पण्णासमणद्धि सा च चउभेदा। (ति. प. ४, १०१७ से
मिलाना, तौलने व नापने के उपकरणों (बांटों) को १०१६)। २. अतिसूक्ष्मार्थतत्त्वविचारगहने चतु
हीनाधिक रखना, तथा संयोग के द्वारा वस्तु को
नष्ट करना; यह प्रणिधिमाया कहलाती है। यह शपूर्विण एव विषयेऽनुपयुक्ते (चा. सा. '—क्ते
माया के पांच भेदों में एक है। वृष्टे') अनधीतद्वादशांग-चतुर्दशपूर्वस्य प्रकृष्टश्रुतावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतासाधारणप्रज्ञाशक्ति- प्रणिपातमुद्रा- जानु-हस्तोत्तमाङ्गादिसंप्रणिपातेन लाभान्निःसंशयं निरूपणं प्रज्ञाश्रवणत्वम् । (त. प्रणिपातमुद्रा। (निर्वाणक. पृ. ३३) । वा. ३, ३६, ३, पृ. २०२, पं. २२-२४; चा. सा. जानु (घुटने), हाथ और मस्तक के झुकाने को पृ. ६६) । ३. प्रज्ञा एव श्रवणं येषां ते प्रज्ञाश्रवणाः। प्रणिपातमुद्रा कहते हैं। xxx अदिट्ठ-अस्सुदेसु अढेसु णाणुप्पायणजो- प्रतनुकर्मा-प्रकर्षेण तनु प्रकृति-स्थिति-प्रदेशानुग्गत्तं पण्णा णाम । (धव. पु. ६, पृ. ८३)। भावरल्पीयः कर्म यस्यासौ प्रतनुकर्मा लघुकर्मा । १ श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म का उत्कृष्ट (बृहत्क. क्षे. वृ. ७१४) ।। क्षयोपशम होने पर प्रज्ञाश्रवण ऋद्धि उत्पन्न होती जिसके प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग स्वरूप
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प्रतर] ७३७, जैन-लक्षणावली
[प्रतिक्रमण से कर्म अतिशय हीनता को प्राप्त हुआ है वह प्रतनु- ३. सूची सूच्यैव गुणिता भवति प्रतरांगुलम् । नवकर्मा कहलाता है।
प्रादेशिक कल्प्यं तदैर्घ्य-व्यासयोः समम् । (लोकप्र. प्रतर-१. प्रतरोऽभ्रपटलादीनाम् । (स. सि. ५, १-५०) । २४; त. वा. ५, २४, १४; कातिके. टी. २०६)। २ सूच्यंगुल को दूसरे सूच्यंगुल से गुणित करने पर २. तद्वर्गः-तस्याः शूचिस्वरूपायाः श्रेणेः वर्गः प्रतरांगुल होता है । शूच्या शूचिगुणनलक्षणस्तद्वर्गः (प्रतरः) । (शतक. प्रतिकुञ्चनमाया-आलोचनं कुर्वतो दोषविनिगूदे. स्वो. वृ. ६७)। ३. मेघपटलादीनां विघटनं हनं प्रतिकुञ्चनमाया। (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ. प्रतरम् । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४) । १ मेघपटलादिकों के भेद (विघटन) का नाम प्रतर आलोचना करते हुए अपने दोष के छिपाने को है। यह भेद के उत्कर-चूर्णादिरूप छह भेदों में प्रतिकुञ्चनमाया कहते हैं। पांचवां है। २ सूचिरूप श्रेणि-एक-एक प्राकाश- प्रतिक्रमण-१. कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयप्रदेशात्मक पंक्ति–के वर्ग को प्रतर कहते हैं। वित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो प्रतरगतकेवलिक्षेत्र-वादरूद्धक्खेत्तं घणलोगम्हि पडिक्कमणं ।। (समयप्रा. ४०३)। २. मोनूण अवणिदे पदरगदकेवलिखेत्तं देसुणलोगो होदि। वयणरयणं रागादिभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो (धव. पु. ४, पृ. ५६)।
झायदि तस्स दु होदित्ति पडिकमणं ।। पाराहणाइ वायु से रोके गये क्षेत्र को घनलोक में से घटा देने वट्टइ मोत्तूण विराहणं विसेसेण । सो पडिकमणं पर शेष कुछ कम पूरा लोक प्रतर (समुद्घात). उच्चइ पडिकमणमयो हवे जम्हा ।। मोत्तूण अणायारं गत केवली का क्षेत्र होता है।
आयारे जो दु कुणदि थिरभावं । सो षडिकमणं प्रतरभेद-से कि तं पयराभेदे ? जण्णं वंसाण वा उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥ उम्मग्गं परिवेत्ताण वा णलाण वा कदलीथंभाण वा अब्भपडलाण । चत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभाव । सो पडिवा पयरेणं भेदे भवति, से तं पयरभेदे। (प्रज्ञाप, कमणं उच्चइ पडिकमणमयो हवे जम्हा ॥ मोत्तण १७३, पृ. २६६)।
सल्लभावं णिस्सले जो दु साहु परिणमदि । सो पडिबांस, वेत, नड (एक प्रकार का धास), केला का कमणं उच्चइ पडिकमणमयो हवे जम्हा ॥ चत्ता स्तम्भ और मेघपटल; इन सबका जो भेद होता है गुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साह। सो पडिउसे प्रतरभेद कहा जाता है । यह भेद के पांच भेदों कमणं उच्चइ पडिकमणमो हवे जम्हा ।। मोत्तूण में दूसरा है।
अद्र-रुदं झाणं जो झादि धम्म-सूक्कं वा । सो पडिप्रतरलोक—सा (जगच्छ णी) अपरया जगच्छ्रे - कमणं उच्चइ जिणवरणिहिटसुत्तेस्सु ॥ मिच्छाण्याऽभ्यस्ता प्रतरलोकः । (त. वा. ३, ३८, ७)। दंसण-णाण-चरित्तं चइऊण मिरवसेसेण । सम्मत्तजगश्रेणी को दूसरी जगश्रेणी से गणित करने पर णाण-चरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं ।। उत्तमपट्ट प्रतरलोक होता है।
प्रादा तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्मं । तम्हा दु प्रतरसमुद्घात-पदरसमग्घादो णाम केवलिजीव- झाणमेव हि उत्तमअस्स पडिकमणं ।। भाणणिलीपदेसाणं वादवलयरुद्धलोगखेत्तं मोत्तण सव्वलोगा- णो साह परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । तम्हा दु पूरणं । (धव. पु. ४, पृ. २६)।
झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं । पडिकमणकेवली के प्रात्मप्रदेश वातवलयों के द्वारा रोके गये णामधये सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं। तह णादा क्षेत्र को छोड़कर जो शेष सब लोक को व्याप्त जो भावइ तस्स तदा होदि पडिकमणं । (नि. सा. करते हैं, इसे प्रतरसमुद्घात कहा जाता है। ८३-८६ व ६१-६४)। ३. दव्वे खेत्ते काले भावे प्रतरांगुल--१. तं वग्गे पदरंगुल Xxx। य कयावराहसोहणयं । णिंदण-गरहणजुत्तो मण-वच
-१३२) । २. तदेवापरेण सच्यंगलेन कायेण पडिक्कमणं ।। (मला. १-२६) । ४. मिगुणितं प्रतरांगुलम् । (मूला. वृ. १२-८५)। थ्यादुष्कृताभिधानाद(त. श्लो. 'द्य') भिव्यक्तप्रति
ल.६३
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प्रतिक्रमण] ७३८, जैन-लक्षणावली
[प्रतिक्रमण क्रिया प्रतिक्रमणम् । (स. सि. ६-२२; त. श्लो. स्तदुभयं संसर्गे सति शोधनात् ॥ (त. सा. ७-२३)। ९-२२)। ५. गुत्ती-समिइ-पमाए गुरुणो पासायणा १४. प्रतिक्रमणमतीतदोषनिवर्तनमिति । (चा. सा. विणय-भंगे। इच्छाईणमकरणे लहस मसाऽदिन्न- पृ. २६); आस्थितानां योगानां धर्मकथादिव्याक्षेपमुच्छासु ॥ अविहीइ कास-जंभिय-खुय-वायासंकि- हेतुसन्निधानेन विस्मरणे सत्यालोचनं पुनरनुष्ठायलिट्रकम्मेसु । कंदप्प-हास-विगहा-कसाय-विसयाणु- कस्य संवेगं निर्वेदपरस्य गुरुविरहितस्याल्पापराधस्य संगेस् । खलियस्स य सव्वत्थ वि हिंसमणावज्जो पुनर्न करोमि मिथ्या मे दुष्कृतमित्येवमादिभिर्दोषाजयन्तस्स । सहसाऽणाभोगेण व मिच्छाकारो पडि- निवर्तनं प्रतिक्रमणम् । (चा. सा. पृ. ६२) । क्कमणं । प्राभोगेण वि तणुएसु नेह-भय-सोग-वाउ- १५. कृतानां कर्मणां पूर्व सर्वेषां पाकमीयुषाम् । साईस् । कंदप्प-हास-विगहाईएस नेयं पडिक्कमणं ॥ आत्मीयत्वपरित्यागः प्रतिक्रमणमीयते ॥ (योगसा (जीतक. सू. ६-१२) । ६. मिथ्यादुष्कृताभिधाना- प्रा. ५-५०)। १६. प्रतिक्रमणं प्रतिगच्छति पूर्वद्यभिव्यक्तप्रतिक्रिया प्रतिक्रमणम् । कर्मवशप्रमादो- संयमं येन तत् प्रतिक्रमणं स्वकृतादशुभयोगात् प्रतिदयजनितं मिथ्या मे दुष्कृतमित्येवमाद्यभिव्यक्तः निवृत्तिः, देवसिकादयः सप्त कृतापराधशोधनानि । प्रतीकार: प्रतिक्रमणमुच्यते। (त. वा. ६, २२, ३)। मूला. वृ. १-२२); प्रतिक्रमणं स्वकृतादशुभयोगात् ७. असंयमस्थानं प्राप्तस्य यतेस्तस्मात् प्रतिनिवर्तनं प्रतिनिवृत्तिः, अशुभपरिणामपूर्वककृतदोषपरित्यागः । यत्र वर्ण्यते तत्प्रतिक्रमणम् । (त. भा. हरि. वृ. निन्दन-गर्हणयुक्तस्य मनो-वाक्काय-त्रियाभिर्द्रव्य-क्षेत्र१-२०)। ८. प्रतीपंक्रमणम प्रतिक्रमणम, सहसाऽस- काल-भावविषये तैर्वा कृतस्यापराधस्य व्रतविषयस्य मितादौ मिथ्यादुष्कृतकरणम् । (प्राव. नि. हरि. वृ. शोधनं यत्तत्प्रतिक्रमणमिति । (मूला. वृ. १-२६); १४१८)। ६. पडिक्कमणं कालं पुरिसं च अस्सि- प्रतिक्रमगं व्रतातिवारनिह रणम्। (मूला. वृ. ११, ऊण सत्तविहपडिक्कमणाणि वपणेइ। (धव. पु. १, १६) । १७. निन्दनं गर्हणं कृत्वा द्रव्यादिषु पृ. ६७); पंचमहब्बएसु चउरासीदिलक्ख गुणगण- कृतागसाम् । शोधनं वाङ्मनःकायैस्तत्प्रतिक्रमणं , कलिएसु समुप्पण्णकलंकपक्खालणं पडिक्कमणं णाम। मतम् ॥ (आचा. सा. १-३७); मिथ्यामदा(धव. पु. ८, पृ. ८४); पडिक्कमणं देवसिय-राइय- ऽऽगोऽस्त्वित्याधैर्यद्दोपेभ्यो निवर्तनम् । प्रतिकइरिया बह-पक्खिय-चाउम्मासिय-संवच्छरिय-उत्तमट्ठ- मणमल्पापराधस्यकाकिनो मुनेः ॥ (प्राचा. सा. मिदि सत्तपडिक्कमणाणि भरहादिखेत्ताणि दुस्समा- ६-४१) । १८. प्रतिक्रमण मिथ्यादुःकृताद्यदिकाले छसंघडणसमण्णियपुरिसे च अप्पिदूण परू- भिव्यक्तीकरणम् । (प्रायश्चित्तत. टी. ७, वेदि । (पद. पु. ६, पृ. १८८)। १०. पच्चक्खा- २१)। १६. अतीतदोपपरिहारार्थ यत्प्रायश्चित्तं णादो अपच्चखाणं गंतॄण पुणो पच्चक्खाणासागमणं क्रियते ततातिकमणम् । (नि. सा. न. ८२)। पडिक्कमणं । (जयध. १, ५. ११५); पडिक्कमणं २०. प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृनदानम् । (स्थाना. दिवसिय-राइय - पक्खिय-चाउम्मासिय- संदच्छरिय- अभय, वृ. १६८) । २१. प्रतीत्युपसर्गः प्रतीपे प्रतिइरियावहिय-उत्तमद्राणियाणि चेदि सत्त पडिवक- कल्ये वा; क्रम पादविक्षेपे, अस्य प्रतिपूर्वस्य भावामणाणि । एदेसि पडिक्कमणाणं लक्खणं विहाणं च नडन्तस्य प्रतीपं ग्रमणं प्रतिक्रमणण। अयमर्थ:---- वण्णेदि पडिक्कमणं । (जयध. १, पृ. ११६)। शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेप्वेव क्रम११. द्रव्ये क्षेत्र भावे च कृतप्रमादनिहरणम् । वा- णात् प्रतीपं श्रमणम् । यदाह—स्वस्थानाद यत पर वकाय-मनःशुद्धया प्रणीयते तु प्रतिक्रमणम् ॥ (ह. स्थानं प्रमादस्य बशाद् गतः । तत्रैव ऋमणं भूयः पु. ३४-१४५)। १२. स्वकृतादशुभयोगात् प्रति- प्रतिक्रमणमुच्यते । प्रतिकूलं वा गमनं प्रतिक्रमणम् । निवृत्तिः प्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. ६); xxx प्रति प्रतिक्रमणं वा प्रतिक्रमणम् । कृतातिचारस्य यतेस्तदतिचारपराङ्मखतो योगत्रयेण (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०, पृ. २४७) । हा दृष्टं कृतं चिन्तितमनुमतं चेति परिणामः प्रति- २२. प्रतिक्रमणं दोषात् प्रतिनिवर्तनमपूनःकरणतया, क्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. १०)। १३. अभि- मिथ्यादुष्कृतप्रदानमित्यर्थः, तदहं प्रायश्चित्तमपि व्यक्तातीकारं मिथ्या मे ट्रष्कृतादिभिः । प्रतिक्रान्ति- प्रतिक्रमणम् । (व्यव. भा. मलय. ब. (पी.)५३);
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प्रतिक्रमण] ७३६, जैन-लक्षणावली
[प्रतिग्रह प्रायश्चित्तं प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतप्रदानलक्षणम्। कर्म के विपाकरूप शभ-अशुभ भावों से प्रात्मा को Xxx मिथ्यादुष्कृतप्रदानात्मकं प्रतित्रमणं प्राय- पृथक् करना, इसका नाम प्रतिक्रमण है जो प्रात्मश्चित्तमिति । (व्यव. भा. मलय. वृ. (पी.) १, स्वरूप ही है-उससे भिन्न नहीं है । ३ द्रव्य, क्षेत्र, ६०)। २३. पडिक्कमणारिहं-जंमिच्छा-दुक्कड- काल और भाव के प्राश्रय से जो अपराध (दोष) मेत्तेण चेय सुज्झइ न आलोइज्जइ, जहा सहसा किये गये हैं उनको निन्दा और गर्दा से युक्त होकर अणुवउत्तणं खेल-सिंघाणाइयं परिदृवियं, न य हिंसा- मन-वचन-कायपूर्वक शुद्ध करना; इसे प्रतिक्रमण इयं दोसमावन्नो तत्थ मिच्छादुक्कडं भणइ एयं कहा जाता है । यह समता आदि छह प्रावश्यकों में पडिक्कमणारिहं। (जीतक. चू.पृ. ६)। २४. मिध्या चौथा है। ५ तीन गुप्तियों व पांच समितियों के मे दुष्कृतमिति प्रायोऽपायनिराकृतिः । कृतस्य संवे- विषय में प्रमाद करना; गुरु की प्रासादनागवता प्रतिक्रमणमागसः ॥ (अन. ध. ७-४७); तिरस्कार करना, विनय का भंग करना--अविनीत प्रतिक्रमणं भूतकर्मणा पूर्वोपाजितशुभाशुभकर्मवि- प्राचरण करना; इच्छाकार व मिथ्याकार आदि पाकभवेभ्यो भावेभ्यः स्वात्मानं विनिवात्मना। का न करना; सूक्ष्म असत्यभाषण, सूक्ष्म अदत्ततत्करणभूतप्राक्तनकर्मनिवर्तनम्। (अनध. स्वो. टी. ग्रहण एवं सूक्ष्म ममत्वबुद्धि प्रादि; तथा विधि के ८-६४) । २५. पडिक्कमणे ऐर्यापथिक-रात्रिदिवा- विना काश (खांसी), जंभाई, छींक, वातकर्मपाक्षिक-चतुर्मासिक-सांवत्सरिकोत्तमार्थभेदात् सप्त- ऊर्ध्ववायु व अपानवायु और असंक्लिष्टकर्म-छेदनधा कृतदोषनिराकरणम् । (भ. प्रा. मूला. १२१)। भेदन आदि में तथा कन्दर्प (अशिष्टभाषण), हास्य, २६. दिवस-रात्रि-पक्ष-मास-संवत्सरेपिथिकोत्तमार्थ- विकथा, कषाय एवं विषयानसंग में शीघ्रता के प्रभवसप्तप्रतिक्रमणप्ररूपकं प्रतिक्रमणम् । (सं. श्रुत- कारण अथवा उपयोग न होने से स्खलित होने पर “भ. टी. २४, पृ. १७६)। २७. प्रतिक्रम्यते प्रमाद- मिथ्याकार करना; यह प्रतिक्रमण कहलाता है। कृतदेवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रम- ६ कर्म के वश प्रमाद के उदय से जो मेरे द्वारा णम् । XXX तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि प्रतिक- दुष्कृत्य हुअा है वह मिथ्या हो, इस प्रकार प्रतीकार मणम् । (गो. जी. मं.प्र. ३६७)। २८. प्रतिक्रम्यते को प्रगट करना; इसे प्रतिक्रमण कहते हैं। यह प्रमादकृतदैवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रति- प्रायश्चित्त के नौ भेदों में दूसरा है। ७असंयमक्रमणम्, तच्च देवसिक-रात्रिक-पाक्षिक-चतुर्मासिक- स्थान को प्राप्त हुए साधु के पुनः उससे लौटनेरूप सांवत्सरिकर्यापथिकभेदात् सप्तविधम, भरतादिक्षेत्र प्रतिक्रमण का जिस अंगबाह्म श्रुत में वर्णन किया दुःषमादिकालं षट्मंहनन-सस्थिरास्थिरादिपुरुषभेदांश्च जाता है उसका नाम प्रतिक्रमणश्रुत है। जो श्रुत आश्रित्य, तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि प्रतिक्रमणम् । दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक (गो. जी. जी. प्र. ३६७) । २६. कृतदोषनिराकर- वाषिक और उत्तमार्थ इन सात प्रतिक्रमणों की णं प्रतिक्रमणम् । (भावप्रा. टी. ७७); दोषमुच्चा- भरतादि क्षेत्रों, दुषमादि कालों तथा छह संहननयुक्त र्योच्चार्य मिथ्या मे दुष्कृतमस्तु इत्येवमादिरभिप्रेतः पुरुषों की प्रधानता से प्ररूपणा करता है उसे प्रतिप्रतीकारः प्रतिक्रमणम् । (भावप्रा. टी. ७८)। क्रमण (अनंगश्रुत) कहा जाता है। ३०. कृतदोषनिराकरणहेतुभूतं प्रतिक्रमणम् । (त. प्रतिक्षणवतिनी उत्पत्ति- प्रतिक्षणवर्तिनी च वृत्ति श्रुत. १-२०); निजदोषमुच्चार्योच्चार्य अविभाव्यान्त्यप्रलयानुमेया, प्रतिक्षणमन्यथाऽन्यथा मिथ्या मे दुष्कृतमस्त्विति प्रकटीकृतप्रतिक्रियं प्रति- चोत्पद्यन्ते परिणमन्ते भावा अस्तिकायाः । (त. भा. क्रमणम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२, कार्तिके. टी. सिद्ध. वृ. ६-७, पृ. २२१)। ४५१) । ३१. पडिकमणं कयदोसनिरायरणं होदि। प्रत्येक समय में पदार्थ जो अन्य-अन्य प्रकार से तं च सत्तविहं । देवसिय-राइ-पक्खिय-चउमासियमेव उत्पन्न व परिणत होते हैं, यह उनकी प्रतिशणवतिनी वच्छरियं ॥ (अंगप. ३-१७, पृ. ३०७)।
उत्पत्ति कहलाती है। १ पूर्व में जो शुभ-अशुभ अनेक प्रकार के कर्म किये प्रतिग्रह-देखो पतद्ग्रह । १. परिणमइ जीसे तं गये हैं उनसे अपने को अलग करना, अर्थात पूर्वकृत पगईइ पडिग्गहो एसा। (कर्मप्र. सं. क. २)।
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प्रतिगृहीता]
२. प्रतिग्रहः स्वगृहद्वारे यतिं दृष्ट्वा प्रसादं कुरुते त्यभ्यर्थ्यं नमोऽस्तु तिष्ठतेति त्रिर्भणित्वा स्वीकरणम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५-४५ )
१ जिस प्रकृति में विवक्षित प्रकृति का दलिक ( कर्म प्रदेश पिण्ड ) परिणमित होता है उसे प्रतिग्रह या पतद्ग्रह कहा जाता है । २ अपने घर के द्वार पर आते हुए साधु को देख कर ' प्रसन्न होइए' • इस प्रकार प्रार्थना करते हुए 'नमस्कार हो, ठहरिये' ऐसा तीन वार कह कर पात्र के स्वीकार करने को प्रतिग्रह (पडिगाहन) कहते हैं । प्रतिगृहीता - देखो पात्र । सुदृष्टयस्तप्तमहातपस्का ध्यानोपवासव्रतभूषिताङ्गाः । ज्ञानाम्बुभिः संशमितोरुतृष्णाः प्रतिगृहीतार उदाह्रियन्ते ॥ ( वरांगच. ७–३१)।
जो सम्यग्दृष्टि होकर महान् तप का आचरण करते हैं; जिनका शरीर ध्यान, उपवास और व्रतों से विभूषित हैं; तथा जिन्होंने ज्ञानरूप जल के द्वारा भारी तृष्णा को शान्त कर दिया है उन्हें प्रतिगृहीता या पात्र कहा जाता है । प्रतिघात - १ मूर्तिमतो मूर्त्यन्तरेण व्याघातः प्रतिघातः । ( स. सि. २- ४० ) । २. प्रतिघातो मूर्त्यन्तरेण व्याघातः । मूर्तिमतो मूर्त्यन्तरेण व्याघात प्रतिघात इत्युच्यते । (त. वा. २, ४०, १ ) । ३. प्रतीघातो मूर्त्यन्तरव्याघातः । ( त. इलो. २, ४० ) । ४. मूर्तस्य मूर्तान्तरेण प्रतिहननं प्रतिघातः प्रतिस्खलनम्, व्याघात इत्यर्थ: । ( त सुखवो. २-४०) ।
१ एक मूर्तिमान् द्रव्य का जो अन्य मूर्तिमान् द्रव्य के साथ व्याघात ( रुकावट) होता है, इसका नाम प्रतिघात है ।
प्रतिज्ञा - १. प्रतिज्ञा हि धर्मि-धर्मसमुदाय लक्षणा । ( आप्तप. ११८ ) । २. धर्म - धर्मिसमुदायः प्रतिज्ञा । ( प्रमाणप. पू. ६७ ; प्रमेयर. २ - ३, पृ. ६४) । ३. व्याप्तिवचनं प्रतिज्ञाम् प्रतिशेते, तद्वचनं प्रतिज्ञेव स्यात् इत्यभिप्रायः । ( सिद्धिवि. वृ. ५-१५, पृ. ३४) । ४. साध्यनिर्देश: प्रतिज्ञा । (प्रमाणमी. २, १, ११) । ५. धर्म - धर्मिसमुदायस्य पक्षस्य वचनं प्रतिज्ञा । ( न्यायदी. पृ. ७६) ।
१ धर्म और धर्मी के समुदायको प्रतिज्ञा कहते हैं । प्रतिज्ञार्थ - देखो प्रतिज्ञा । साध्यधर्म-धर्मिसमुदायः
७४०, जैन-लक्षणावली
[ प्रतिपक्षपद
प्रतिज्ञार्थः । ( त. इलो. १, पृ. १० ) । साध्य धर्म और धर्मी के समुदाय को प्रतिज्ञार्थ कहा जाता है ।
प्रतिज्ञाविरोध - प्रतिज्ञायाः विरोधो यो हेतुना संप्रतीयते । स प्रतिज्ञाविरोधः स्यात् × × ×॥ ( त. श्लो. १, ३३, १४० ) ।
हेतु से जो प्रतिज्ञा का विरोध प्रतीत होता है, यह प्रतिज्ञाविरोध कहलाता है । प्रतिज्ञाहानि - प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञात्वे हेतुना हि निराकृते । प्रतिज्ञाहानिरेवेयं प्रकारान्तरतो भवेत् ॥ (त. श्लो. १, ३३, १४१) ।
हेतु के द्वारा प्रतिज्ञा के स्वरूप के निराकृत हो जाने पर इसे प्रतिज्ञाहानि कहा जाता है । प्रतिनीतदोष -- १. प्रतिनीतं देव-गुर्वादीनां प्रतिकूलो भूत्वा यो वन्दनां विदधाति तस्य प्रतिनीतदोष: । (मूला वृ. ७ - १०८ ) । २. प्रतिनीतं गुरोराज्ञाखण्डनं प्रतिकूल्यतः ।। (न. ध. ८ - १०४ ) । १ जो देव गुरु श्रादि की आज्ञा के प्रतिकूल होकर वन्दना करता है उसके प्रतिनीतदोष होता है । प्रतिपक्षपद - १. से किं तं पडिवक्खपणं ? नवेसु गामागर-णगर-खेड-कव्वड-मडंब - दोणमुह-पट्टणासमसंवाह - सन्निवेसेसु संनिविस्समाणेसु असिवा सिवा, अग्गी सोलो, विसं महुरं, कल्लालघरेसु अविलं साउ जे रत्तए से लत्तए जे लाउए से अलाउए जे सुभए से कुसुंभए मालवंते विवली प्रभासए से तं पडिवक्खपणं । (अनुयो. सू. १३०, पृ. १४२ ) । २. प्रतिपक्षपदानि कुमारी बन्ध्येत्येवमादीनि, आदानपदप्रतिपक्षनिबन्धनत्वात् । ( धव. पु. १, पृ. ७६ ) ; विहवा रंडा पोरो दुव्विहो इच्चाईणि पडिवक्खपदानि गब्भिणी अमउडी इच्चादीणि वा, इदमे - दस थिति विवक्खाणिबंधणादो । ( धव. पु. ६, पृ. १३६ ) । ३. विहवा रंडा पोरा दुब्विहा इच्चाईणि णामाणि पडिवक्खपदानि इदमेदस्स णत्थि त् विवखाणिबंधणत्तादो । ( जयध. १, पृ. ३२) ।
१ ग्राम, आकर, नगर, खेट, कवंट, मटम्व, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम, संवाह और सन्निवेश; इनकी रचना के समय शिवा— शृगाली — को शिवा, अग्नि को शीतल, विष को मधुर और कलार के घरों में श्रवले को स्वादु तथा रक्त को अलक्तक (र और ल में अभेद विवक्षा से ) ; लावु – जल प्रादिक
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प्रतिपत्ति ७४१, जैन-लक्षणावली
[प्रतिपद्यमान लाने वाली तूंबी को–अलावु, सुम्भकको–उत्तम क्रमेण संख्यातसहस्रपदमात्रसंघातेषु संख्यातसहस्रेषु वर्ण करने वाले को–कुसुम्भक, तथा बालपन्-बहुत रूपोनेषु संघातसमासविकल्पेषु गतेषु तच्चरसमस्य बोलने वाले को-विपरीत भाषण या व्यर्थ भाषण संघातसमासोत्कृष्टविकल्पस्य XXX एतस्योकरने के कारण प्रभाषक; इत्यादि नाम विपक्ष- परि एकस्मिन्नक्षरे वद्ध सति प्रतिपत्तिकनामश्रुतज्ञावाची पदों से सिद्ध होने के कारण प्रतिपक्षपद कह- नं मवति । (गो. जी. म. प्र. टी. ३३८)। लाते हैं। २ कुमारी और बन्ध्या इत्यादि नामों को १ जितने पदों के द्वारा एक गति, इन्द्रिय, काय प्रतिपक्षपद कहा जाता है। कारण यह कि प्रादानपदों और योग आदिकों की प्ररूपणा को जाती है उनका में-वधु व अन्तर्वत्नी आदि में--जहां गहीत द्रव्य नाम प्रतिपत्ति है। संघातसमास श्रुतज्ञान के ऊपर (पति व गर्भस्थ वच्चा आदि) कारण हैं वहां इन एक अक्षर की वृद्धि के होने पर प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान (कुमारी व बन्ध्या प्रादि) प्रतिपक्षपदों में उनका होता है। ऐसा होते हुए संख्यात संघातश्रुतज्ञानों (पति व गर्मस्थ बालक का) अभाव कारण है। को लेकर एक प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान होता है। ३ गति
आदि द्वारों में से किसी एक परिपूर्ण गत्यादि द्वार प्रतिपत्ति -- १. श्रवणेन्द्रियावधानेनोपदेशग्रहणं
में जीवादि के अन्वेषणको प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान कहा प्रतिपत्तिः । (त. भा. सिद्ध. ७-६, पृ. ५६)। २. प्रतिपत्तिरुपचारो हितप्रकारशिक्षण-यथावसरान्न
जाता है। पानादिप्रदानरूपः । (श्राद्धगु. १६, पृ. ४५)। ३. प्रति
प्रतिपत्तिसमासश्रुतज्ञान-१. पडिवत्तिसुदणाण
__ स्सुवरि एगक्खरे वढिदे पडिवत्तिसमाससुदणाणं पत्ति:-मीमांसोत्तरकालभाविनी निश्चयाकारा परि
होदि । एवमेगेगक्खरवडिढकमेण पडिवत्तिसमाससदच्छित्तिरिदमित्थमेवेति तत्त्वविषयैव । (षोडश. वृ.
णाणं वडढमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणणप्रणियोग. १६-१४)।
दारसुदणाणेत्ति । (धव. पु. १३, पृ. २६६) । १ कान लगाकर सावधानी से उपदेश के ग्रहण
२. द्वारद्वयादिमार्गणासु प्रतिपत्तिसमासः । (शतक. करने को प्रतिपत्ति कहते हैं। २ हितरूप शिक्षा
मल. हेम. वृ. ३८-९, पृ. ४३, कर्मवि. दे. स्वो. देना और यथावसर अन्न-पानादि प्रदान करना,
वृ. ७)। इसे प्रतिपत्ति कहा जाता है। ३ किसी पदार्थ की
१ प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि मीमांसा के पश्चात होने वाले 'यह ऐसा ही है इस होने पर प्रतिपत्तिसमासश्रतज्ञान होता है। इस प्रकार के निश्चयात्मक बोध का नाम प्रतिपत्ति है।
प्रकार एक-एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से यह प्रतिप्रतिपत्तिश्रुतज्ञान-१. जत्तिएहि पदेहि एयगइ- पत्तिसमासश्रुतज्ञान बढ़ता हुआ एक अक्षर से हीन इंदिय-काय-जोगादो परूविज्जति तेसिं पडिवत्ती- अनियोगश्रुतज्ञान तक जाता हैं। २ दो द्वार आदि सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. २४); पुणो एत्थ (संघा- मार्गणाविषयक ज्ञान को प्रतिपतिसमासश्रुतज्ञान दसमाससुदणाणे) एगक्खरे वढिदे पडिवत्तिसुदणाणं होदि । होतं पि संखेज्जाणि संघादसदणाणाणि प्रतिपत्तिसमासावरणीयकर्म-पडिवत्तिसमासघेत्तूण एवं पडिवत्तिसुदणाणं होदि। (धव. पु. १३, सुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तं पडिवत्तिसमासावरपृ. २६६)। २. एक्कदरगदिणिरूवयसंघादसुदादु णीयं कम्म । (धव. पु. १३, पृ. २७८) । उवरि पुव्वं वा। वण्णे संखेज्जे संघादे उडढम्हि जो प्रतिपत्तिसमासश्रुतज्ञान को आच्छादित करता पडिवत्ती।। चउगइसरूवरूवयपडिवत्तीदोxxx। है उसे प्रतिपत्तिसमासावरणीय कर्म कहते हैं। (गो. जी. ३३८-३६)। ३. गत्यादिद्वाराणामन्यत- प्रतिपत्त्यावरणीयकर्म-पडिवत्तिसुदणाणस्स जरैकपरिपूर्णगत्यादिद्वारे (कर्म वि. 'द्वारेण') जीवादि- मावारयं कम्मं तं पडिवत्तिावरणीयं कम । (धव. मार्गणा प्रतिपत्तिः । (शतक. मल. हेम. बृ. ३८, ६, पु. १३, पृ. २७८)। पृ. ४३; कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ७) । ४. पूवोक्त- जो प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान को आच्छादित करता है उसे प्रमाणस्य एकतमगतिनिरूपकं संघातश्रुतस्योपरि प्रतिपत्यावरणीयकर्म कहते हैं। पूर्वोक्तप्रकारेण एकैकवर्णवृद्धिसहचरितैकैकपदवृद्धि- प्रतिपद्यमान-प्रतिपद्यमाना अभिधीयन्ते ते ये
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प्रतिपात]
७४२, जैन-लक्षणावली
[प्रतिपृच्छा
तत्प्रथमतयाऽभिनिबोधिकं प्रतिपद्यन्ते, प्रथमसमय त्थिपुहुत्तं वा रयणि वा रयणिपुहुत्तं वा कुच्छि वा एव । (प्राव. नि. १४, पृ. १६)।
कुच्छिपुहुत्तं वा धणुं वा धणुपुहुत्तं वा गाउग्रं वा जो प्राभिनिबोधिक ज्ञान को लब्धि-उपयोग स्थिति गाउअपहत्तं वा जोग्रणं वा जोग्रणपूहत्तं वा जोअणसयं की अपेक्षा सर्वप्रथम ग्रहण करते हैं वे प्रथम समय वा जोअणसयपुहत्तं वा जोअणसहस्सं वा जोग्रणसहमें ही प्रतिपद्यमान होते हैं, शेष समयों में तो वे स्सपृहत्तं वा जोअणलक्खं वा जोअणलक्खपुहुत्तं वा पूर्वप्रतिपन्न ही होते हैं।।
उक्कोसेणं लोगं वा पासित्ता णं पडिवइज्जा, से तं प्रतिपात-१. प्रतिपतनं प्रतिपातः । (स. सि. पडिवाइ अोहिनाणं । (नन्दी. सू. १४, पृ. ६६)। १-१४)। २. प्रतिपतनं प्रतिपातः। उपशान्त- २. प्रतिपतनशीलानि प्रतिपातीनि IXXX तथा कषायस्य चारित्रमोहोद्रेकात प्रच्युतसंयमशिखरस्य प्रतिपतत्येव प्रतिपाति । (प्राव. नि. हरि. ७.६१)। प्रतिपातो भवति । (त. वा. १-२४) । ३. प्रतिपातः ३. प्रतिपाति प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति, कथंचिदापादिसम्यक्त्व-चारित्राभ्यां प्रच्युत्य मिथ्यात्वासंयमयोः ता जात्यमणिप्रभाजालवदिति गर्भार्थः । (नन्दी. हरि. प्राप्तिः प्रतिपातः । (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. व. पु. ३१); यदवधिज्ञानं जघन्येन सर्वस्तोकतया३७५) । ४. प्रतिपातो बहिरन्तरंगकारणवशेन संय- ऽङ्गुलस्यासंख्येयभागमात्रं वा, उत्कर्षेण सर्वप्रचुरतया मात्प्रच्यवः । (ल. सा. टी. १८८)। ५. संयमात्प्र- यावल्लोकं दृष्ट्वा लोकमुपलभ्य तथाविधक्षयोपशमच्यवनं प्रतिपात: । (त. वत्ति श्रुत.१-२४)। जन्यत्वात प्रतिपतेत, न भवेदित्यर्थः, तदेतत् प्रतिपा२ चारित्रमोह के उदय से उपशान्तकषाय संयत का त्यवधिज्ञानमिति । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ३६) । जो संयम से पतन होता है, यह प्रतिपात कह- ४. प्रतिपतनशीलः प्रतिपाती, य उत्पन्न: सन् क्षयोपलाता है।
शमानुरूपं कियत्कालं स्थित्वा प्रदीप इव सामस्त्येनप्रतिपातसाम्परायिक-उवसमसेढीदो पडिवद- विध्वंसमुपयाति । xxx प्रतिपातं तु निर्मूलमाणो सुहुमसांपराइयो पडिवादसांपराइयो त्ति मेककालं बिध्वंसमुपगच्छत् अभिधीयते । (प्रज्ञाप. उच्चदे । (जयध. १, पृ. ३४५)।
मलय. वृ. ३१७, पृ. ५३८-३९; नन्दी. सू. मलय. जो सूक्ष्मसांपरायिक संयत उपशमश्रेणी से गिर रहा वृ. १०, पृ. ८२) । ५. यत्पुनः प्रदीप इव है उसे प्रतिपातसांपरायिक कहा जाता है। निर्मूलमेककालमपगच्छति तत्प्रतिपातीति । (कर्मवि. प्रतिपातस्थान-पडिवादट्ठाणं णाम[जहा]जम्हि दे. स्वो. वृ. ८) । ६. तद्युतः (प्रतिपातयुतः) प्रतिठाणे मिच्छत्तं वा असंजमसम्मत्तं वा संजमासंजमं वा पाती। (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. ३७५) । गच्छइ तं पडिवादट्ठाणं । (कसायपा. चू. पृ. ६७२; ७. उत्पत्त्यनन्तरं निर्मूलनश्वरं प्रतिपाति । (जैनत. धव. पु. ६, पृ. २८३)।
पृ. ११८)। संयत जीव जिस स्थान में मिथ्यात्व, असंयमसम्य- १जो अवधिज्ञान जघन्य से अंगल के असंख्यातवें क्त्व अथवा संयमासंयम को प्राप्त होता है उसका भाग और उत्कर्ष से लोक को जानकर पतन को नाम प्रतिपातस्थान है।
प्राप्त होने वाला है उसे प्रतिपाति अवधिज्ञान कहा प्रतिपाति-प्रतिपत्तितुं शीलं यस्य तत् प्रतिपाति ।। जाता है। ४ अपने क्षयोपशम के अनुरूप उत्पन्न (धव. पु. १३, पृ. ८३)।
हुमा जो अवधिज्ञान कुछ काल तक स्थिर रह करके अधःपतन ही जिस ज्ञान या ध्यान का स्वभाव हो दोपक के समान निर्मूल विनाश को प्राप्त हो जाता वह प्रतिपाति कहलाता है।
है उसे प्रतिपाति अवधिज्ञान कहते हैं। प्रतिपाति अवधिज्ञान-१. से किं पडिवाइ प्रोहि- प्रतिपृच्छा--१. जं किंचि महाकजं करणीयं णाणं ? पडिवाइ अोहिनाणं जहण्णेणं अंगूलस्स असं- पुच्छिऊण गुरुयादी। पुणरवि पुच्छदि साहू तं खिज्जयभागं वा संखिज्जयभागं वा बालग्गं वा जाणसु होदि पडिपुच्छा ।। (मूला. ४-१३६) । बालग्गपुहुत्तं वा लिक्खं वा लिक्खपुहुत्तं वा जूनं वा २.xxxपुवनिसिद्धेण होइ पडिपुच्छा । (प्राव. जयपुहत्तं वा जवं वा जवपुहत्तं वा अंगुलं वा अंगुल- नि. ६६७)। ३. अनवगतार्थादौ गुरु प्रति प्रश्नः प्रति पुहुत्तं वा पायं वा पायपुहुत्तं वा विहत्थि वा विह- प्रश्नः । (अनुयो. हरि. वृ.पृ. १०); सकृदाचार्ये
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प्रतिपृच्छा] ७४३, जैन-लक्षणावलो
[प्रतिभा णोक्त इदं त्वया कर्तव्यमिति पुनः प्रच्छनं प्रतिप्रच्छ- के स्वीकार करने को प्रतिपृच्छचं कसंग्रह कहते हैं। नम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ५८)। ४. पूर्वनिषि- यह भक्तत्यागमरण को स्वीकार करने वाले क्षपक द्धेन सता भवतेदं न कार्यमिति, उत्पन्ने च प्रयोजने के अादि लिंगों में से एक है। कर्तकामेन होति पडिपुच्छत्ति प्रतिपृच्छा कर्तव्या प्रतिप्रच्छना-देखो प्रतिपृच्छा। भवति । पाठान्तरं वा--पूव्वनिउत्तेन होइ पडि- प्रतिप्रश्न-देखो प्रतिपृच्छा। पूच्छा पूर्वनियुक्तेन सता यथा भवतेदं कार्यमिति प्रतिबद्धशय्या-१. तं चेव य सागरियं जस्स अदूरे तत्कर्तुकामेन गुरोः प्रतिपृच्छा कर्तव्या भवति- स पडिबद्धो। (बृहत्क. २५८३) । २. तदेव च अहं तत् करोमीति, तत्र हि कदाचिदसौ कार्यान्तर- सागारिकं यस्योपाश्रयस्य अदूरे आसन्ने स प्रतिबद्ध मादिशति, समाप्तं वा तेन प्रयोजनमिति । (प्राव. उच्यते । (बृहत्क. क्षे. वृ. २५८३)। नि. हरि. वृ. ६६७)। ५. एकदा पृष्टेन गुरुणा जिस उपाश्रय के पास में सागारिक (गृहस्थगृह नेदं कर्तव्यमित्येवं निषिद्धस्य विनेयस्य किञ्चिद् युक्त) प्रतिश्रय हो वह प्रतिबद्धशय्या कहलाती विलम्व्य ततश्चेदं चेदं चेह कारणमस्त्यतो यदि है । वहां निम्रन्थों का रहना उचित नहीं है। पूज्या आदिशन्ति तदा करोमीत्येवं पूनः प्रच्छनं प्रति- प्रतिबद्ध-प्रतिबुद्धं मिथ्यात्वाज्ञान-निद्रापगमेन प्रच्छना, अथवा ग्रामादौ प्रेषितस्य गमनकाले पूनः सम्यक्त्वविकाशं प्राप्तम् XXX । (दशवै. हरि. प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना। (अनुयो. मलय. वृ. ११८, वृ. १-१४, पृ. १०)। पृ. १०३)। ६. यत्किचन्महत्कार्यं कार्य पृष्ट्वा मिथ्यात्व और अज्ञान रूप निद्रा के हट जाने से जो यतीश्वरान् । विनयेन पुन: प्रश्न: प्रतिप्रश्न: प्रकी- सम्यक्त्व के विकाश को प्राप्त कर चुका है उसे तितः ।। (प्राचा. सा. २-१४)।
प्रतिबुद्ध कहा जाता है। प्रकृत विशेषण के द्वारा १ जो कार्य करने योग्य है उसके विषय में गरु नियुक्तिकार ने शय्यम्भव सूरि की विशेषता प्रगट आदि से पूछ कर फिर से भी साधुओं से पूछना, इसका नाम प्रतिपृच्छा है । (गाथोक्त 'साह' पद को प्रतिबुद्धजीवी- जस्सेरिसा जोग जिइंदिअस्स यदि प्रथमान्त माना जाय तो साधु जो उसके धिईमग्रो सप्पुरिसस्स निच्चं । तमाहु लोए पडिबुद्धविष्य में फिर से भी पूछता है, यह प्रतिपृच्छा का जीवी सो जीपई संजमजीविएणं ॥ (दशवै. सू. लक्षण जानना चाहिए)। ४ 'पापको यह कार्य नहीं चूलिका २-१५)। करना है' ऐसा पूर्व में निषेध कर देने पर यदि जिस धैर्यशाली जितेन्द्रिय महापुरुष के ऐसे-अपने प्रयोजन के वश उसका करना प्रावश्यक हो जाता हित के विचार व प्रवृत्तिरूपयोग सदा रहते हैं, है तो प्रतिपृच्छा करना चाहिए-उसका पूछना उसे प्रतिजुद्धजीवी कहा जाता है। उसका जीवन आवश्यक होता है। अथवा गाथा में 'निषिद्धन के संयमप्रधान होता है। स्थान पर 'निउत्तेन' पाठ की सम्भावना में-'पाप प्रतिबोधनता ---- सम्मइंसण-णाण-वद-सीलगुणाणयह कार्य कीजिये' इस प्रकार जिस कार्य में पहले मज्जालणं कलंकपक्खालणं संधुक्ख णं वा पडिबुनियुक्त किया गया है उसे जब करने लगे तब पूछ झणं णाम, तस्स भावो पडिवुझणदा। (धव. पु. लेना चाहिये कि 'मैं उसे कर रहा है। कारण ८, पृ. ७५)। इसका यह है कि तब किसी अन्य ही कार्य का सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील इन गुणों को आदेश किया जा सकता है, अथवा यह भी हो निर्मल करना; इसका नाम प्रति बोधाता है। सकता है कि पूर्व निर्दिष्ट कार्य का प्रयोजन समाप्त प्रतिबोधी-यत् कथ्यते अभिधीयते तत्सर्वं यः हो चुका हो।
प्रतिबुध्यते स प्रतिबोधी । (बृहत्क. क्षे. वृ. ७३६) । प्रतिपृच्छच कसंग्रह- प्रतिपृच्छय कसंग्रहः संघं जो कुछ भी कहा जाता है उसे जो पूर्ण रूप से ग्रहण पुनः पृष्ट्वा तदनुमतेनैकस्य क्षपकस्य स्वीकारः। करता है उसे प्रतिबोधी कहते हैं । (अन. ध. स्वो. टी. ७-९८)।
प्रतिभा-१. प्रसन्नपद-नव्यार्थयुक्त्युबोवविधायिसंघ से पूछ कर उसकी अनुमति से किसी एक क्षपक नी। स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धिः प्रतिभा सर्वतोमुखी॥
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प्रतिमा ].
( वाग्भ. १ - ४ ) । २. प्रतिभा नव-नवोल्लेखशालिनी प्रज्ञा । ( काव्यानु. वृ. १, १, ४ श्रलंका. चि. १ - ९ ) । ३. रात्रौ दिवा वा कस्माद् बाह्यकारणमन्तरेण श्वो मे भ्रातागमिष्यतीत्येवं रूपं यद्विज्ञानमुत्पद्यते सा प्रतिभा । (अन. ध. स्वो टी. ३ - ४ ) । ४. रात्रौ दिवा वा अकस्माद् वाह्यकारणं विना 'व्युष्टे ममेष्टः समेष्यति' इति एवंरूपं यद्विज्ञानमुत्पद्यते सा प्रतिभा । (त. वृत्ति श्रुत. १-१३ ) ।
२ नवीन-नवीन उल्लेखों से शोभायमान बुद्धि को प्रतिभा कहा जाता है ३ रात अथवा दिन में बाह्य कारण के विना 'कल मेरा भाई आवेगा' इस प्रकार का जो विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रतिभा कहते है ।
प्रतिमा- प्रतिमा यावज्जीवं नियमस्य स्थिरीकरणप्रतिज्ञा । (प्रा. दि. पू. ५१ ) ।
ग्रहण किये गये नियम को जीवन पर्यन्त स्थिर रखने की प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहते हैं ।
७४४, जैन-लक्षणावली
प्रतिमान - १. से कि परिमाणे ? जण्णं पडिमिणिज्जइ । तं जहा -- गुंजा कागणी निप्फावो कम्ममासन मंडल सुवण्णो । पंच गुंजाश्रो कम्ममासश्रो, कागण्यपेक्षया चत्तारि कागणीओ कम्ममासन, तिणि निष्फावा कम्ममासश्रो, एवं च उक्को कम्म मास काकण्यपेक्षयेत्यर्थः, बारसकम्ममासया मंडलो एवं डयालीसं कागणी मंडल सोलस कम्ममासया सुवण्णो एवं चउसट्टिकागणीओ सुवण्णो । एएणं पडिमाणपमाणेणं किं पत्रोणं ? एएणं पडिमाणपमाणेणं सुवण्ण-रजत-मणि-मोत्ति संखसिलप्पवालाईणं दव्बाणं पडिमाणप्पमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ, से तं परिमाणे । से तं विभागणिप्प - ण्णे । से तं दव्वपमाणे । ( अनुयो. सू. १३२, पृ. १५५) । २. पूर्वमानापेक्षं मानं प्रतिमानं प्रतिमल्लवत् । चत्वारि महिधिकातृणफलानि श्वेतसर्षप एकः, षोडशसर्षपफलानि धान्यमाषफलमेकम्, द्वे धान्यमाषफले गुञ्जाफलमेकम्, द्वे गुंजाफले रूप्यमाष एक:, षोडशरूप्यमाषका धरणमेकम्, अर्धतृतीयधरणानि सुवर्णः, स च कंसः, चत्वारः कंसा: पलम्, पलशतं तुला, अर्धकंसः त्रीणि च पलानि कुडवः, चतुः कुडवः प्रस्थः, चतुःप्रस्थमाढकम्, चतुराढकं द्रोणः, षोडशद्रोणा खारी, विंशति खार्यो वाह इत्यादि मागधक
I
[ प्रतिमोहनयोग्य मुनि
प्रमाणम् । (त. वा. ३, ३८, ३) । ३. प्रतिमीयतेऽनेन गुंजादिना प्रतिरूपं वा मानं प्रतिमानम् । (अनुयो. हरि. वृ. पू. ७६ ) ।
।
१ सदृश मान का नाम प्रतिमान है । जैसे—गुंजा, काकणी, निष्पाव, कर्ममाषक, मण्डलक और सुवर्ण ये प्रतिमान हैं । इनसे सुवर्ण आदि का प्रमाण किया जाता है । एक कर्ममाषक पांच गुंजा, अथवा चार काकणी, अथवा तीन निष्पाव का होता है । बारह कर्ममाषकों का, श्रथवा अड़तालीस काकनियों का एक मण्डलक होता है । सोलह कर्ममा - षकों का प्रथवा चौसठ काकणियों का एक सुवर्ण होता है । ( १३ गुंजा - काकणी, १३ काकणी = निष्पाव, श्रथवा १3 गुंजा = निष्पाव ) इस प्रतिमान के द्वारा सुवर्ण, चांदी, मणि, मोती, शंख, शिला और प्रवाल आदि का प्रमाण जाना जाता है। यह द्रव्यप्रमाण गुंजा आदि के विभाग से सिद्ध होने के कारण विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण माना गया है । २ पूर्व की अपेक्षा रखने वाले मान को प्रतिमान कहते हैं । जैसे–चार महिधिका तृणफलों का एक सफेद सर्षप होता है, सोलह सर्षप फलों का एक धान्यमाषफल ( उड़द), दो धान्यमाषफलों का एक गुंजाफल, दो गुंजाफलों का एक रूप्यमाष, सोलह रूप्यमाषों का एक धरण, अढ़ाई (२३) धरणों का एक सुवर्ण या कंस इत्यादि 'वाह' पर्यन्त मगधदेश प्रसिद्ध प्रमाण जानना चाहिए । प्रतिमोद्वहनयोग्य मुनि - सम्पूर्णविद्यो धृतिमान् वज्रसंहननं वहन् । महासत्त्वो जिनमते सम्यग्ज्ञाता स्थिराशयः ॥ गुर्वनुज्ञां वहन् चित्ते श्रुताभिगमतत्त्ववित् । विसृष्टदेहो धीरश्च जिनकल्पार्हशक्तिभाक् ।। परीषहसहो दान्तो गच्छेऽपि ममतां त्यजन् । दोष-धातुप्रकोपेऽपि न वहन् रागसंभवम् ।। श्रव्यञ्जनं रसत्यक्तं पानान्नं क्वापि कल्पयन् । ईदृशोऽर्हति शुद्धात्मा प्रतिमोहनं मुनिः ॥ ( श्राचा. दि. १-२६, पू. ११७ ) ।
जो सम्पूर्ण विद्याओं का ज्ञाता, धैर्यवान् वज्रसंहनन का धारक, जिनमतविषयक सम्यग्ज्ञानवान्, स्थिर श्राशय वाला, गुरु की प्राज्ञानुसार चलने वाला, श्रागमोक्त तत्त्वों का ज्ञाता, शरीर से निःस्पृह, जिनकल्प के योग्य शक्ति से सहित तथा परीषहों को सहने वाला हो; इत्यादि गुणों से सम्पन्न महामुनि
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प्रतिरूपकक्रिया ]
ही मुनि को बारह प्रतिमानों को धारण करने के योग्य होता है ।
प्रतिरूपक क्रिया- देखो प्रतिरूपकव्यवहार । प्रतिरूपक व्यवहार - १. कृत्रिमहिरण्यादिभिर्वच नापूर्वको व्यवहारः प्रतिरूपकव्यवहारः । ( स. सि. ७-२७; चा. सा. पृ. ६) । २. प्रतिरूपकव्यवहारो नाम सुवर्ण-रूप्यादीनां द्रव्याणां प्रतिरूपकक्रिया व्याजीकरणानि च । (त. भा. ७-२२) । ३. कृत्रिमहिरण्यादिकरणं प्रतिरूपकव्यवहारः । कृत्रिमैः हिरण्यादिभिः वञ्चनापूर्वको व्यवहारः प्रतिरूपक व्यवहार इति व्यपदिश्यते । (त. वा. ७, २७, ५) । ४. शुद्धेन व्रीह्यादिना घृतादिना वा प्रतिरूपकं सदृशं पलञ्ज्यादिवसादि वा द्रव्यम्, तेन व्यवहारो विक्रयरूपः स प्रतिरूपकव्यवहारः । (ध. बि. मु. वृ. ३, २५) । ५. तथा प्रतिरूपं सदृशम् — व्रीहीणां पलञ्जः, घृतस्य वसा, हिङ्गोः खदिरादिवेष्टः, तैलस्य मूत्रम्, जात्यसुवर्ण-रूप्ययोर्युक्तिसुवर्ण- रूपये, इत्यादिप्रतिरूपेण क्रिया व्यवहारः, व्रीह्यादिषु पलञ्ज्यादि प्रक्षिप्य तत्तद्विक्रीणीते । यद्वा, अपहृतानां गवादीनां शृङ्गाणामग्निकालिंगी फलस्वेदादिना श्रृंगाण्यधोमुखानि प्रगुणानि तिर्यग्वलितानि वा यथारुचि विधायान्यविधत्वमिव तेषामापाद्य सुखेन धारणविक्रयादि करोति । इति चतुर्थ: । (योगशा. स्वो. विव. ३-२ ) । ६. प्रतिरूपकव्यवहृतिः - प्रतिरूपकं सदृशम् - व्रीहीणां पलञ्जि, घृतस्य वसा, हिङ्गो खदिरादिवेष्टः, तैलस्य मूत्रम्, जात्यसुवर्ण-रूपयोर्युक्तसुवर्ण- रूपये, इत्यादि प्रतिरूपकेण व्यवहृतिर्व्यवहारो ब्रह्मादिषु पञ्ज्यादि प्रक्षिप्य तद्विक्रयणम् । (सा. ध. स्वो टी. ४ - ५० ) । ७. ताम्रेण घटिता रूप्येण च सुवर्णेन च घटिताः ताम्र - रूप्याभ्यां च घटिता ये दृम्माः तत् हिरण्यमुच्यते, तत्सदृशाः केनचित् लोकवचनार्थं घटिता दृम्मा: प्रतिरूपकाः, तैर्व्यहारः क्रय-विक्रयः प्रतिरूपकव्यवहारः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - २७) । ८. निक्षेपणं समर्थस्य महा - घें वञ्चनाशया । प्रतिरूपकनामा स्याद् व्यवहारो व्रतक्षतौ ।। (खाटीसं. ६ - ५६ ) ।
१ बनावटी सोना-चांदी श्रादि के द्वारा धोखादेही का व्यवहार करना, यह प्रतिरूपकव्यवहार कहलाता है, जो अचौर्याणुव्रत को मलिन करने वाला ल. ६४
७४५, जैन-लक्षणावली
[ प्रतिलोम
है । २ सोना और चांदी श्रादि द्रव्यों में जो प्रतिरूपक क्रिया की जाती है— उनमें उन्हीं के समान अल्प मूल्य वाले तांबा आदि अन्य द्रव्यों का मिश्रण किया जाता है, इसे प्रतिरूपकव्यवहार कहा जाता है । इसके अतिरिक्त व्याजीकरण भी प्रतिरूपकव्यवहार कहलाता है । चुरायी गई गायों आदि के सींगों को अग्नि से पकाये गये कालिंगी फल से स्वेदित कर जो उन्हें अधोमुख या कुटिल (टेढ़ामेढ़ा ) किया जाता है, इसका नाम व्याजीकरण है । यह श्रचौर्यांणुव्रत का एक प्रतीचार है । प्रतिलेखक - प्रतिलेखतीति प्रतिलेखकः, प्रवचनानुसारेण स्थानादिनिरीक्षकः, साधुरित्यर्थः । ( श्रधनि. वृ. ५, पृ. २८ ) ।
श्रागम के अनुसार योग्य स्थान श्रादि के निरीक्षण करने वाले साधु को प्रतिलेखक कहते हैं । प्रतिलेखना एतदुक्तं भवति — अक्षरानुसारेण प्रतिनिरीक्षणमनुष्ठानं च यत् सा प्रतिलेखना, सा च चोलपट्टादेरुपकरणस्येति । ( श्रोधनि. भा. वृ. ३, पृ. १३ - १४ ) ; एतदुक्तं भवति श्रागमानुसारेण या निरूपणा क्षेत्रादेः सा प्रतिलेखनेति । ( श्रोघनि. वृ. ३, पृ. २५); प्रतिलेखनं प्रतिलेखना, प्रति प्रत्यागमानुसारेण निरूपणमित्यर्थः, सा च प्रतिलेखना भवति || (प्रधनि. वृ. ४, पृ. २७) । अक्षरों के अनुसार निरीक्षण करना व अनुष्ठान करना, इसका नाम प्रतिलेखना है । यह प्रतिलेखना चोलपट्ट (कटिवस्त्र ) आदि उपकरणों की की जाती है । श्रागम के अनुसार क्षेत्रादि की प्ररूपणा करने को प्रतिलेखना कहते हैं ।
प्रतिलेखा - १. पडिलेहा आराधनाया व्याक्षेपेण विना सिद्धिर्भवति न वा राज्यस्य देशस्य ग्रामनगरादेस्तत्र प्रधानस्य वा शोभनं वा नेति निरूपणम् । ( भ. प्रा. विजयो ६८ ) । २. पडिलेहा आराधनानिर्विघ्नसिद्धयर्थं देवतोपदेशाष्टांगनिमितादिगवेषणम् । ( भ. प्रा. मूला. ६८ ) ।
१ आराधना की सिद्धि निर्विघ्न होगी या नहीं, इसके लिए राज्य, देश एवं ग्राम-नगर प्रादि तथा वहां के प्रमुख की उत्तमता व हीनता का विचार करना; इसे प्रतिलेखा कहते हैं ।
प्रतिलोम - १ x x X अणभिप्पे अ पडि
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प्रतिश्रवण] ७४६, जैन-लक्षणावलो
[प्रतिषेवणादोष लोमो। (उत्तरा. नि. ४३) । २. अनभिप्रेतश्च सत्-असदात्मक वस्तु में असत् अंश को प्रतिषेध प्रतिलोम उक्तविपरीतकाकस्वरादिरिति । (उत्तरा. कहते हैं। नि. शा. वृ. ४३)।
प्रतिषेधप्रत्याख्यान-विवक्षितद्रव्याभावाद् वि१कौए के स्वर आदि के समान जो इन्द्रियविषय शिष्टसम्प्रदानकारकाभावाद्वा सत्यामपि दित्सायां यः अभीष्ट नहीं हैं उन्हें प्रतिलोम कहा जाता है। प्रतिषेधस्तत्प्रतिषेधप्रत्याख्यानम् । (सूत्रकृ. नि. शी. प्रतिश्रवण-उवयोगंमि य लाभं कभ्मग्गाहिस्स वृ.२-११६, पृ. १०७) । चित्तरक्खट्टा । आलोइए सुलद्धं भणइ भणंतस्स पडिसुणणा ॥ (पिण्डनि. ११६) ।
सम्प्रदानकारक (पात्र विशेष) के प्रभाव से जो
उसका प्रतिषेध किया जाता है उसे प्रतिषेधप्रत्याप्राधाकर्म ग्रहण के लिए प्रवत्त शिष्य के चित्त की
न कहते हैं। रक्षा के लिए--वह मन में खेद को प्राप्त न हो,
प्रतिषे (से)वक-१. प्रतिषिद्धं सेवत इति प्रतिइस विचार से-गुरु उपयोग के समय 'लाभ' शब्द
षेवकः प्रतिषेवण क्रियाकारी। (व्यव. भा. पी. का उच्चारण करता है तथा जब उक्त शिप्य गृहस्थ
मलय. वृ. १-३७); प्रतिषेवको नामाकल्पं सेवके यहां से लाकर उसकी मालोचना करता है, तब
मानः । (व्यव. भा. मलय. वृ. १-३८); लघु गुरु जो यह कहता है कि 'तुमने जो यह प्राप्त किया है सो ठीक हुआ', इस प्रकार कहने वाले गुरु
शीघ्रमुत्तरगुणानां सेवकः प्रतिसेवकः । (व्यव. भा.
पी. मलय. बृ. १-५१) । २. ज्ञान-दर्शन-चारित्रके प्रतिश्रवण नाम का दोष होता है।
तपांस्युपजीवन तत्प्रतिसेवक उच्यते। (प्रव. सारो. प्रतिश्रवणानुमति- १. पुत्ताईहिं कयं पावं सुणइ,
पुणइ, वृ. ७२५)। सच्चा अणमोएइन पडिसेहेइ सो पडिसुणणाणुमई। १ जो निषिद्ध (अकल्प्य) वस्तु का सेवन करता है (कर्मप्र. चू. उप. क. २६)। २. पुत्रादिभिरुदितं
उसे प्रतिषेवक कहा जाता है। २ ज्ञान, दर्शन, सावधं योगं शृणोति, न च प्रतिषेव[धते प्रतिश्र
चारित्र और तप का प्राश्रय लेने वाला तत्प्रतिबयानमतिः। (पंचसं. स्वो. वृ. उप. क. ३०, पृ. सेवक-क्रम से ज्ञान-दर्शनादि का प्रतिसेवक १६७) । ३. यदा तु पुत्रादिभिः कृतं पापं शृ
(ज्ञानादिप्रतिसेवनाकुशील) कहलाता है। णोति, श्रुत्वा चानुमनुते, न च प्रतिषेधति, तदा
प्रतिषेवणा-प्रतिषेवणा अकल्प्यसमाचरणम् । प्रतिश्रवणानुमतिः । (पंचसं. मलय. वृ. उप. क..
(व्यव. भा. पी. मलय. वृ. १-३७ व ३८)। ३०, पु. १६८)।
जो पाचरण साधु पद के योग्य नहीं है, ऐसे प्रकल्प्य १ पूत्रादि के द्वारा किये गये पाप को सुन कर जब
पाचरण का नाम प्रतिषेवणा है। उसका अनुमोदन करता है, पर प्रतिषेध नहीं करता
प्रतिषेवणादोष-अन्नेणाहाकम्म उवणीयं असइ है, तब इसे प्रतिश्रवणानमति कहा जाता है।
चोइरो भणइ । परहत्थेणंगारे कड्ढेतो जह न प्रतिश्रोतःपदानुसारिबुद्धि-अन्त्यपदस्यार्थं ग्रन्थं ढज्झइ ह ॥ एवं ख अहं सद्धो दोसो देंतस्स क च परत उपश्रुत्य ततः प्रातिकूल्येनादिपदादा अर्थ
उवमाए । समयत्थमजाणतो मूढो पडिसेवणं कूणइ ।। ग्रन्थविचारपटवः प्रतिश्रोतःपदानुसारिबुद्धयः । (योग- (पिण्डनि. ११४-१५) ।। शा. स्वो. विव. १-८, पृ. ३८)।
दूसरेके द्वारा लाकर दिये गये अध:कर्म-संयुक्त आहार किसी ग्रन्थ के अन्तिम पद के अर्थ और अन्य को को जो खाता है तथा इसके लिए दूसरे के द्वारा दसरे से सुनकर अन्तिम पद से लेकर प्रादि पद तक निन्दा की जाने पर जो यह कहता है कि जिस अर्थ और ग्राम के विवार में जो साधु कुशल हैं वे प्रकार दूसरे के हाथ से अंगारों को खिंचवाने वाला प्रतिश्रोतःपदानुसारिबुद्धि ऋद्धि के धारक होते हैं। नहीं जलता है, किन्तु उसका खींचने वाला ही प्रतिषेध-प्रतिषेधोऽसदंशः । (प्र. न. त. ३-५३); जलता है, उसी प्रकार दूसरे के द्वारा लाये गये सदसदंशात्मके एव वस्तून्यसदंशोऽभावांशापरनामा प्राधाकर्म का सेवन करने पर भी मैं निर्दोष हं. प्रतिषेधः प्रतिपत्तव्यः । (स्याद्वादर. ३-५३) । दोष तो उसे देने वाले का है, इस प्रकार अनुचित
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प्रतिष्ठा]
७४७, जैन-लक्षणावली [प्रतिष्ठापनसमिति उपमा देता हुआ जो आगम को नहीं जानता है वह १ जो देश, जाति, कुल और प्राचार से श्रेष्ठ हो; मूर्ख प्रतिषेवणादोष को करता है।
उत्तम लक्षणों से संयुक्त हो, त्यागी हो, वक्ता हो, प्रतिष्ठा-१. प्रतितिष्ठन्ति विनाशेन विना अस्या- शुद्ध सम्यग्दर्शन से सहित हो, उत्तम व्रतों का अर्था इति प्रतिष्ठा । (धव. पु. १३, पृ. २४३)। पालन करने वाला हो, युवा हो; श्रावकाचार, २. श्रुतेन सम्यग्ज्ञातस्य व्ववहारप्रसिद्धये । स्थाप्यस्य ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र और पुराण का वेत्ता कृतनाम्नोऽन्तः स्फुरतो न्यासगोचरे ॥ साकारे वा हो; निश्चय व व व्यवहार का ज्ञाता हो, प्रतिष्ठानिराकारे विधिना यो विधीयते । न्यासस्तदिदमित्यु- विधि का जानने वाला हो, विनयशील हो, सुन्दर क्त्वा प्रतिष्ठा स्थापना च सा ।। (प्रतिष्ठासा. १, हो, मन्दकषायी हो, जितेन्द्रिय हो, जिनपूजा आदि ८४-८५) ।
में निष्ठावान् हो, तथा सम्पूर्ण अंगों वाला हो; १ जिसमें पदार्थ विनाश के विना प्रतिष्ठित रहते इत्यादि गुणों से जो विभूषित हो वह प्रतिष्ठाचार्य या हैं, अर्थात् जिस संस्कार के प्राश्रय से पदार्थों का याजक (यज्ञ कराने वाला) होता है। वह ब्रह्मस्मरण बना रहता है, उसे प्रतिष्ठा कहते हैं। यह चारी अथवा गृहस्थ भी हो सकता है। विशेष धारणाज्ञान का नामान्तर है। २ श्रुत के द्वारा इतना है कि वह शूद्र नहीं होना चाहिए। समीचीन रूप से जाने गये स्थाप्य की स्थापना प्रतिष्ठापक-आत्मसम्पत्तिद्रव्येण व्ययं कृत्वा के विषयभूत वृषभादि तीर्थंकर की-जो विधि- महोत्सूकः । यः करोति प्रतिष्ठां च स प्रतिष्ठापको पूर्वक साकार अथवा निराकार पाषाण आदि में मतः ।। (प्रतिष्ठापाठ जय. ७४) ।। स्थापना की जाती है उसका नाम प्रतिष्ठा है। अपनी सम्पत्ति को खर्च करके जो अतिशय उत्सुकदूसरे नाम से उसे स्थापना और न्यास भी कहा तापूर्वक प्रतिष्ठा को करता है उसे प्रतिष्ठापक जाता है।
कहा जाता है। प्रतिष्ठाचार्य-१. देश-जाति-कुलाचारः श्रेष्ठो प्रतिष्ठापनशुद्धि-प्रतिष्ठापनशुद्धिपरः संयतः दक्षः सुलक्षणः । त्यागी वाग्मी शुचिः शुद्धसम्यक्त्व: नख-रोम-सिंघाणक-निष्ठीवन-शुक्रोच्चार-प्रस्रवणशोसवतो युवा ॥ श्रावकाध्ययनज्योतिर्वास्तुशास्त्र- धने देहपरित्यागे च विदितदेश-कालो जन्तुपरोधमन्तपुराणवित् । निश्चय-व्यवहारज्ञः प्रतिष्ठाविधिवित् रेण प्रयतते (च. सा. '-ण यत्नं कुर्यात् प्रयतते')। (त. प्रभुः ॥ विनीतः सुभगो मन्दकषायो विजितेन्द्रियः । वा. ६, ६, १६; चा. सा. पृ. ३६) । जिनेज्या दिक्रियानिष्ठो भूरिसत्त्वार्थबान्धवः ॥ दृष्ट- जो नख, रोम, नाक का मल, थूक, वीर्य और मलसृष्टक्रियो वार्तः सम्पूर्णाङ्गः परार्थकृत् । वर्णी गृही वा मूत्र की शुद्धि में तथा शरीर के परित्याग में देशसवृत्ति रशूद्रो याजको धुराट् ॥ (प्रतिष्ठासा. १, काल को जानता हुआ जीवों को पीड़ा न पहुंचा कर १११-१४)। २. स्याद्वादधुर्योऽक्षरदोषवेत्ता निरा- प्रयत्न करता है वह प्रतिष्ठापनशुद्धि में लसो रोगविहीनदेहः । प्रायः प्रकर्ता दम-दानशीलो रहता है। जितेन्द्रियो देव-गुरुप्रमाणः ॥ शास्त्रार्थसंपत्तिविदीर्ण- प्रतिष्ठापनसमिति-देखो उच्चारप्रस्रवणसमिति वादो धर्मोपदेशप्रणय: क्षमावान् । राजादिमान्यो व उत्सर्गसमिति । १. पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए नययोगभाजी तपोयतानुष्ठितपूतदेहः ॥ पूर्व निमि- परोपरोहेण । उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे त्ताद्यनुमापकोऽर्थसन्देहहारी यजनकचित्तः । सद्- तस्स ॥ (नि. सा. ३-६५) । २. ब्राह्मणो ब्रह्मविदां पटिष्ठो जिनकधर्मा गुरुदत्तमंत्रः॥ ते दूरे गूढे बिसालमविरोहे । उच्चारादिच्चामो भुक्त्वा हविष्यान्नमरात्रिभोजी निद्रां विजेतुं विहि- पदिठावणिया हवे समिदी ॥ (मूला. १-१५) । तोद्यमश्च । गतस्पृहो भक्तिपरात्मदुःखप्रहाणये सिद्ध- ३. एदेण चेव पद्रिावणसमिदी वि वणिया होदि । मनुविधिज्ञः ॥ कुलक्रमायातसुविद्यया यः प्राप्तोपसर्ग वोसरणिज्जं दव्वं थंडिल्ले वोसरितस्स ॥ (भ. प्रा. परिहर्तुमीशः । सोऽयं प्रतिष्ठाविधिषु प्रयोक्ता श्ला- ११६६)। ४. शरीरान्तर्मलत्याग: प्रगतासुसुभूध्योऽन्यथा दोषवती प्रतिष्ठा ॥ (प्रतिष्ठापाठ जय. मिषु । यत्तत्समितिरेषा तु प्रतिष्ठापनिका मता ॥ ८१-८५)।
(ह. पु. २-१२६) । ५. उच्चार-प्रश्रवण-खेल
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प्रतिष्ठापनसमिति] ७४८, जैन-लक्षणावली
[प्रतिसेवनाकुशील सिंघाण-जल्लानां परिस्थापनिका तद्विषया समितिः, स्तनवर्ती शेष ग्रन्थ को जो बुद्धि जान लेती है उसे सुन्दरचेष्टेत्यर्थः, तया, उच्चारः पुरीषम्, प्रश्रवणं प्रतिसारी बुद्धिऋद्धि कहते हैं। मूत्रम्, खेलः श्लेष्मा, सिंघानं नासिकोद्भवः श्लेष्मा, प्रतिसूर्यगमन-१. पडिसूरी अपरस्या दिशः प्राजल्लः मल: Xxx। (प्राव. सू. हरि. वृ. ४, दित्याभिमुखं गमनम् । (भ. प्रा. विजयो. २२२) । पृ. ६१६) । ६. समितिर्दशितानेन प्रतिष्ठापनगो- २. पडिसूरि सूर्याभिमुखं गमनम् । (भ. प्रा. मला. चरा। त्याज्यं मूत्रादिकं द्रव्यं स्थंडिले त्यजतो यतेः॥ (त. सा. ६-११) । ७. प्रतिष्ठापनासमिति- १ प्रखर सूर्य ताप के समय पश्चिम दिशा से पूर्व जन्तुविवर्जितप्रदेशे सम्यगवलोक्य मलाद्युत्सर्गः। तथैव दिशा की ओर जाने को प्रतिसूरीगमन या प्रतिसूर्यउच्चारादीनां मूत्र-पूरीषादीनां प्रतिष्ठापना सम्यक- गमन कहते हैं। यह एक कायक्लेश का प्रकार है। परित्यागो यः सा प्रतिष्ठापनासमितिः। (मूला. वृ. प्रतिसेवनाकुशील--१: अविविक्तपरिग्रहाः परि१-१०)। ८. प्रतिष्ठापननाम्नी च विख्याता । पूर्णोभयाः कथञ्चिदुत्तरगुणविराधिनः प्रतिसेवनासमितिर्यथा । श्रवद्वपुर्दशद्वारा मल-मूत्रादिगोचरा ॥ कुशीलाः। (स. सि. ६-४६; त. वा. ६, ४६, निश्छिद्रं प्रासुकं स्थानं सर्वदोषविवर्जितम् । दृष्ट्वा ३) । २. प्रतिसेवनाकुशीला: नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता प्रमाय॑ सागारो वर्चीमूत्रादि निक्षिपेत् ॥ (लाटीसं. अनियमितेन्द्रियाः कथञ्जित् किञ्चिदुत्तरगुणेषु २५५-५६)।
विराधयन्तश्चरन्ति ते प्रतिसेवनाकुशीलाः । (त. भा. १ जो स्थान जीव-जन्तुओं से रहित, गढ़-जहां ६-४८) । ३. प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधजाने-माने वालों की दृष्टि न पहुंचती हो-और यन् उत्तरगुणेषु काञ्चिद् विराधनां प्रतिसेवते । (त. दूसरों की बाधा से रहित हो, ऐसे प्रासुक स्थान में वा. ६, ४७. ४)। ४. परिपूर्णोभयाः जातूत्तरगुणमल-मत्रादि का त्याग करना, इसका नाम प्रति- विरोधिनः । प्रतिसेवनाकुशीला ये अविविक्तःपरिष्ठापनासमिति है। ५ मल, मूत्र, कफ, नाक का ग्रहा: । (ह. पु, ६४-६१)। ५. प्रासेवनं भजनं मल और पसीना से संलग्न धलिरूप मल आदि प्रतिसेवना, तया कृत्सितं शीलमेषामिति प्रतिसेबनाविषयक सुन्दर प्रवृत्ति को-प्राणिपीडा के परिहार कुशीलाः । (त. भा. हरि. वृ. ६-४६)। ६. कथंको-प्रतिष्ठापनसमिति या उच्चार-प्रश्रवण-खेल- चिदुत्तरगुणविराधनं प्रतिसेवना ग्रीष्मे जंघाप्रक्षालनसिंघाण-जल्लपरिस्थापनिका समिति कहते हैं। वत् । (त. श्लो. ६-४६)। ७. प्रासेवनं भजनं प्रतिष्ठापनसमितिअतिचार-१. कायभूभ्य- प्रतिसेवना, तया कुत्सितं शीलं येषामिति प्रतिसेवनाशोधनं मलसंपातदेशानिरूपणादि पवनसन्निवेशदिन- कुशीलाः, xxx तत्र तयोः (प्रतिसेवना-कषांयकरादिषूत्क्रमेण वृत्तिश्च प्रतिष्ठापनासमित्यतिचारः। कुशीलयोः) प्रतिसेवनाकुशीला नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता (भ. प्रा. विजयो. १६)। २. प्रतिष्ठापनसमितेः अनियमितेन्द्रिया:--इन्द्रियनियमशन्या रूपादिविषये (अतिचारः) काय-भूम्यशोधनं मलसंपातदेशानि- क्षणकृतादराः कथञ्चित्-केनचित्प्रकारेण व्याजरूपणमित्यादिकः । (भ. प्रा. मूला. १६)। मुपदिश्य किञ्चिदेवोत्तरगुणेषु पिण्डविशुद्धि-समिति२ शरीर व भूमि को शुद्ध नहीं करना, मलत्याग भावना-तपः-प्रतिमाऽभिग्रहादिषु विराधयन्तःके स्थान का निरीक्षण नहीं करना, इत्यादि पाच- खण्डयन्तोऽतिचरन्तः सर्वज्ञाज्ञोल्लंघनमाचरन्ति ते रण प्रतिष्ठापनासमिति को मलिन करने वाला है। प्रतिसेवनाकुशीलाः । (त. भा. सिद्ध. व. [-४८) । प्रतिसारी-१. प्रादि-अवसाण-मज्झे गुरूवदेसेण ८. तत्राविविक्तपरिग्रहाः परिपूर्ण मूलोत्तरगुणाः कथएक्कबीजपदं। गेण्हिय हेट्ठिमगंथं बुज्झदि जा सा ञ्चिदुत्तरगुणविरोधिनः प्रतिसेवनाकुशीला ग्रीष्मे च पडिसारी ॥ (ति. प. ४-६८२)। २. बीजप- जंघाप्रक्षालनादिसेवनवदिति । (चा. सा. पृ. ४५) । दादो हेट्ठिमपदाई चेव वीजपदट्ठियलिंगेण जाणंती. ६. प्रतिसेवनाकुशीला अविविक्तपरिग्रहाः सम्पूर्णपदिसारी णाम । (धव. पु. ६, पृ. ६०)। मूलोत्तरगुणाः कदाचिद् कथंचिदुत्तरगुणानां विराध१ गुरु के उपदेश से ग्रन्थ के प्रादि, मध्य या अन्त नं विदधतः प्रतिसेवनाकुशीला भवन्ति । (त. वृत्ति के किसी एक वीजपद को ग्रहण करके उससे अध- श्रुत. ६-४६) ।
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प्रतिसेवनानुमति] ७४६, जैन-लक्षणावली
[प्रतीत्यसत्य १ जिनकी परिग्रह से आसक्ति नहीं घटी है तथा आइरिएहि कहिज्जमाणत्थाणं सुणणं पडिच्छणं जो यद्यपि मूलगुणों और उत्तरगुणों में परिपूर्ण होते णाम । (धव. पु. १४, पृ. ६)। हैं फिर भी कथंचित् उत्तरगुणों की विराधना श्रेष्ठ प्राचार्यों के द्वारा प्ररूपित किये जाने वाले करते हैं, ऐसे साधुनों को प्रतिसेवनाकुशील कहते अर्थ का निश्चय करना इसका नाम प्रतीच्छना है। हैं। २ जो मुनिधर्म के परिपालन के अभिमुख प्रतीत्यसत्य-१. अण्णं अपेक्ख सिद्धं पडुच्चसच्चं हुए हैं या उस पर आस्था रखते हैं, पर जिनको जहा हवदि दिग्धं । (मूला. ५-११४) । २. पडुइन्द्रियां नियमित नहीं है--जो इन्द्रियविषयों में च्चसच्चं नाम दिग्धं पडुच्च हृस्वं सिद्धं हृस्वं पडुच्च अनुराग रखते हैं, तथा किसी प्रकार से उत्तरगुणों दिग्धं सिद्धं-जहा कणिटुंगुलियं पडुच्च अणामिया में कुछ विराधना कर बैठते हैं, वे प्रतिसेवनाकुशील दीहा प्रणामियं पडुच्च काणंगुलिया हस्वा एवकहलाते हैं
मादि । (दशवं. चू. पृ. २३६)। ३. आदिमदनाप्रतिसेवनानमति-१. कृतं पापं श्लाघयति तच्च दिमदौपशमिकादीन् भावान प्रतीत्य यद्वचनं तत्प्रसावद्यारम्भोपपन्नं द्रव्यमुपभुक्ने प्रतिसेवनानुमतिः। तीत्यसत्यम् । (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७५) । (पंचसं. स्वो. वृ. उप. क. ३०)। २. सयं परेहि ४. साधनादीनोपशमकादीन् भावान् प्रतीत्य यद्वचनं वा कयं पावं पसंसइ सावज्जारंभनिप्फन्नं वा अस- तत्प्रतीत्यसत्यम् । (धव. पु. १, पृ. ११८ चा. सा. णादियं भुजति सो पडिसेवणा अणुमई । (कर्मप्र. पृ. २६; कातिके. टी. ३६८)। ५. प्रतीत्य वर्तते चू. उप. क. २८)। ३. तत्र यः स्वयं परैर्वा कृतं भावान् यदीपशमिकादिकान् । प्रतीत्यसत्यमित्युक्तं पापं श्लाघते, सावद्यारम्भोपपन्नं वा अशनाद्युपभुक्ते वचनं तद्यथागमम् ॥ (ह. पु. १०-१०१)।
तस्य प्रतिसेवनानुमतिः । (पंचसं. मलय. बृ. उप. ६. सम्बन्ध्यन्त रापेक्षाभिधाङ्गं च वस्तुस्वरूपा. -- क. ३०)।
लम्बनं दी? ह्रस्व इत्येवमादिकं प्रतीत्यसत्यम । १ किये गए पाप की प्रशंसा करना और पापयुक्त (भ. प्रा. विजयो. ११९३)। ७. कंचनार्थ प्रतीप्रारम्भ से उत्पन्न द्रव्य (भोजन प्रादि) का उप- त्यान्यस्वरूपान्तरभाषणम् । प्रतीत्यसत्यं वीरो भोग करना, इसका नाम प्रतिसेवनानुमति है। ज्ञानीत्यादि वचो यथा ॥ (प्राचा. सा. ५-३७) । प्रतिसेवा–प्रतिसेवा सचित्ताचित्त-मिश्रद्रव्याश्रय- ८. ना–पुरुषो दीर्घोऽयमित्यापेक्षिकं वचः प्रतीत्यदोषनिषेवणम् । (प्रायश्चित्तस. टी. २-३)। सत्यमित्यर्थः । प्रतीत्या सत्यं प्रतीतिविशिष्टं सत्य सचित्त, अचित्त या मिश्र द्रव्य के प्राश्रय से दोष प्रतीतिसत्यमिति वा व्याख्येयम्। (अन.ध. स्वो. के सेवन करने को प्रतिसेवा या प्रतिसेवना कहते हैं। टी. ४-४७)। ६. प्रतीत्यसत्यं सम्बन्ध्यन्तरापेक्षाप्रतिसेवित-पंचहि इंदिएहि तिसु वि कालेसु जं भिव्यंग्यवस्तुस्वरूपालम्बनं दी? हस्व इत्येवमादि । सेविदं तं पडिसेविदं णाम । (धव. पु. १३, पृ. (भ. पा. मला. ११६३)। १०. प्रतीत्य विवक्षितादि३५०)।
तरदुद्दिश्य विवक्षितस्यैव स्वरूपकथनं प्रतीत्यसत्यम, तीनों ही कालों में पांचों इन्द्रियों के द्वारा जो आपेक्षिकसत्यमित्यर्थः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. सेवित हो उसे प्रतिसेवित कहते हैं।
२२३) । ११. वस्त्वन्तरं प्रतीत्य स्याद्दीर्घता-हस्वप्रतीचीन (देशावकाशिकवतभेद) - तथा तादिकम् । यदेकत्र तत्प्रतीत्यसत्यमुक्तं जिनेश्वरैः ॥ प्रतीचीनं प्रतीच्यामपरस्यां दिशि (एतावन्मयाद्य (लो. प्र. ३-१३६६)। गन्तव्यमेवंभूतं प्रत्याख्यानं करोति)। (सूत्रकृ. शी. १ अन्य वस्तु की अपेक्षा करके जो वचन बोला वृ. २, ७, ७६, पृ. १८२) ।
जाता है उसे प्रतीत्यसत्य कहते हैं। जैसे-यह लबा पश्चिम दिशा में मैं आज इतनी दूर जाऊंगा, इस है। २ दीर्घ की अपेक्षा ह्रस्व और हस्व की प्रकार का नियम करने को प्रतीचीन देशावकाशिक- अपेक्षा दीर्घ कहना, यह प्रतीत्यसत्य माना जाता व्रत कहते हैं।
है। जैसे—कनिष्ठ अंगुलि की अपेक्षा अनामिका प्रतीच्छना-पाइरियभडारएहि परूविज्जमाणत्था- को दीर्घ और अनामिका की अपेक्षा कनिष्ठ अंगलि वहारणं पडिच्छणा णाम । (धव. पु. ६, पृ. २६२); को ह्रस्व कहना, इत्यादि । ३ सादि और अनादि
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प्रत्यक्ष ]
श्रमिक आदि भावों की अपेक्षा जो वचन कहा जाता है वह प्रतीत्य सत्य कहलाता है ।
प्रत्यक्ष -- १. जं पेच्छदो प्रमुत्तं मुत्तेसु प्रदिदियं च पच्छण्णं । सकलं सगं च इदरं तं गाणं हवदि पच्चक्खं ।। ( प्रव. सा. १ - ५४ ) ; जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ।। ( प्रव. सा. १-५८ ) । २. मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च । पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिदियं होइ ॥ (नि. सा. १६६ ) । ३. प्रक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा, तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा प्रति नियतं प्रत्यक्षम् । ( स. सि. १-१२ ) । ४. अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षं X X X ( न्यायाव. ४ षड्द. स. ५६, पृ. २२३ ) ; प्रत्यक्षप्रतिपन्नार्थप्रतिपादि च यद्वचः । प्रत्यक्षं प्रतिभासस्य निमित्तत्वात्तदुच्यते । ( न्यायाव १२२ ) । ५ जीवो अक्खो अत्थव्वावण - भोयणगुणणि जेणं । तं पड़ वट्टइ नाणं जं पच्चक्खं तयं तिविहं ॥ (विशेषा. ८ ) । ६. जीवो अक्खो तं पइ जं वट्टति तं तु होइ पच्चक्खं । (बृहत्क. २५); अपरायत्तं नाणं पच्चक्खं तयं तिविहमोहिमाईयं । ( बृहत्क. २९ ) । ७. इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष मतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम् । इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि पञ्च, अनिन्द्रियं मनः तेष्वपेक्षा यस्य न विद्यते । प्रतस्मिस्तदिति ज्ञानं व्यभिचारः सोऽतीतोऽस्य । आका विकल्पः यत् सह ग्राकारेण वर्तते तत्प्रत्यक्षमित्युच्यते । (त. वा. १, १२, १ ) । ८. ज्ञानस्यैव विशदनिर्भासिनः प्रत्यक्षत्वम् । ( लघीय. स्वो. वि. ३) ६. प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं × × ×। ( प्रमाणसं . २ ) ; आत्मनियतं प्रत्यक्षम् । ( प्रमाणसं. स्वो वृ. ८५) । १०. प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । द्रव्य - पर्याय - सामान्य- विशेषार्थात्मवेदनम् ॥ ( न्यायवि. १ - ३ त श्लो. १, १२, ४) । ११. यत्पुनरिन्द्रियादिनिमित्तनिरपेक्षमात्मन एवोपजायते अवध्यादि तत्प्रत्यक्षम् । ( त. भा. हरि. वृ. १-१० ) । १२. तत्र प्रतिगतमक्षं प्रत्यक्षम् । ( अनुयो. हरि वृ. पू. ६६ ) । १३. जीवोऽक्षः । कथं ? श्रशू व्याप्तावित्यस्य ज्ञानात्मनाऽश्नुतेऽर्थानित्यक्षः, व्याप्नोतीत्यर्थः, प्रश भोजन इत्यस्य वा अश्नाति सर्वानर्थानित्यक्षः, पालयति भुंक्ते चेत्यर्थः, तमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षम्, आत्मनः अपरनिमि
७५०, जैन - लक्षणावली
[ प्रत्यक्ष
त्तमवध्याद्यतीन्द्रियमिति भावार्थ: । ( नन्दी. हरि. वृ. पृ. २७) । १४. अक्षाणीन्द्रियाणि, अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षं विषयोऽक्षजो बोधो वा । ( धव.
पादाय
पु. १, पृ. १३५ ); अक्ष आत्मा, अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षमवधि - मनः पर्यय केवलानीति । ( धव. पु. ६, पृ. १४३ ); परेषामायत्तं ज्ञानं परोक्षम्, तदन्यत् प्रत्यक्षमिति । ( धव. पु. १३, पृ. २१२ ) । १५. प्रत्यक्षस्य वैशद्यं स्वरूपम् । ( अष्टस. पृ. १३२) । १६. विशदज्ञानात्मकं प्रत्यक्षम् । ( प्रमाप. पू. ६७ ) । १७ : प्रत्यक्षं पुनरश्नाति अश्नुते वार्थानित्यक्षः आत्मा, तस्याक्षस्येन्द्रिय मनांस्यनपेक्ष्य यत् स्वत एवोपजायते तत्प्रत्यक्षम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १- ६ ) । १८. इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षमुक्तमव्यभिचारि च । साकारग्रहणं यत्स्यात् तत्प्रत्यक्षं प्रचक्ष्यते । ( त. सा. १ - १७ ) । १६. यत्पुनरन्तःकरणमिन्द्रियं परोपदेशमुपलब्धिसंस्कारमालोकादिकं वा समस्तमपि परद्रव्यमनपेक्ष्यात्मस्वभावमेवैकं कारकत्वेनोसर्वद्रव्य - पर्यायजातमेकपद एवाभिव्याप्य प्रवर्तमानं परिच्छेदनं तत्केवलादेवात्मनः सम्भूतत्वात् प्रत्यक्षमित्यालक्ष्यते । ( प्रव. सा. अमृत. वृ. १ - ५८ ) । २०. स्वार्थ संवेदनं स्षष्टमध्यक्षं मुख्य-गौणतः । ( सन्मति श्रभय. वृ. पृ. ५५२ उद्) । २१. विशदं प्रत्यक्षम् । ( परीक्षा. २-३ ) । २२. प्रत्यक्षं स्वार्थव्यवसायात्मकम्, प्रमाणत्वादनुमानवत् । ( न्याय कु. १-३, पृ. ४८ ) ; विशदनिर्भासिनः — परमुखापेक्षितया स्वपरस्वरूपयोः स्पष्ट प्रतिभासस्य प्रत्यक्षत्वं प्रत्यक्षप्रमाता । ( न्यायकु. १ - ३, पृ. ६७ ) । २३. स्वयं दृष्टं प्रत्यक्षम् । ( नीतिवा. १५ - ३ ) । २४. यत्स्पष्टावभासं तत्प्रत्यक्षम् । (प्रमाणनि. पृ. १४) । २५. यदि पुनः पूर्वोक्तसमस्त परद्रव्यमनपेक्ष्य केवलाच्छुद्ध-बुद्धकस्वभावात् परमात्मनः सकाशात् समुत्पद्यते ततोऽक्षनामानमात्मानं प्रतीत्योत्पद्यमानत्वात् प्रत्यक्षं भवतीति सूत्राभिप्रायः । ( प्रव. सा. जय. वृ. १- ५८ ) । २६. ज्ञानेनाक्ष्णोति व्याप्नोतीत्यक्ष आत्मा स्वगोचरम् । तमेवाक्षं प्रति गतं प्रत्यक्षमिति वर्ण्यते ॥ ( श्राचा. सा. ४ - ५६ ) । २७ स्पष्टं प्रत्यक्षम् । ( प्र. न. त . २ - २ ) ; स्पष्टं विशदं यद्विज्ञानं तत्प्रत्यक्षमिति । (स्याद्वादर. २-२ ) २८. प्रश्नाति भुङ्क्ते अश्नुते वा व्याप्नोति ज्ञानेनार्थानित्यक्ष आत्मा तं प्रति यद् वर्तते इन्द्रिय मनोनिरपेक्षत्वेन
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प्रत्यक्ष ]
तत्प्रत्यक्षम् —— श्रव्यवहितत्वेनार्थसाक्षात्करणदक्षमिति । आह च - प्रक्खो जीवो प्रत्थव्वावण- भोयणगुणण्णिओ जेण । तं पइ वट्टइ नाणं जं पच्चक्खं तमिह तिविहं ॥ ( स्थाना. अभय वृ. २- ७१, ) । २६. प्रबलतरज्ञानावरण-वीर्यान्तराययोः क्षयोपशमात् क्षयाद् वा स्पष्टताविशिष्टं वैशद्यास्पदीभूतं यत् तत् प्रत्यक्षम् । (रत्नाकरा २-२ ) । ३०. विशदः प्रत्यक्षम् । ( प्रमाणमी. - १३ ) । ३१. अक्षाणाम् - इन्द्रियाणां या साक्षादुपलब्धिः सा प्रत्यक्षम्, अक्षम् - इन्द्रियं प्रति वर्तते इति प्रत्यक्षम् । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १, पृ. १३) । ३२. 'अशू भोजने' अश्नाति - भुंक्ते यथायोगं सर्वानर्थानिति प्रक्षः, यदि वा 'शौव्याप्ती' अश्नुते - ज्ञानेन व्याप्नोति सर्वान् — ज्ञेयानिति अक्षः - जीवः XX X तं प्रति अव्यवधानेन यद् वर्तते ज्ञानं तद् भवति प्रत्यक्षम् । (बृहत्क. क्षे. वृ. २५) । ३३. प्रत्यक्षं विशदमिति - यद्विशदं स्पष्टं प्रतिभासनं ज्ञानं तत्प्रत्यक्षप्रमाणं भवति । ( लघीय. अभय वृ. पृ. ११) । ३४. विशदप्रतिभासं प्रत्यक्षम् । ( न्यायदी. पृ. २३); अथवा प्रक्ष्णोति "व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा, तन्मात्रापेक्षोत्पत्तिकं प्रत्यक्षमिति । ( न्यायदी. पू. ३९ ) । ३५. प्रक्षं आत्मानमेव प्रति नियतं परानपेक्षं प्रत्यक्षम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३६९ ) । ३६. स्व-परव्यवसाथि ज्ञानं स्पष्टं प्रत्यक्षम् । ( षड्द. स. वृ. ५५, पृ. २०८ ) ; तेन मुख्य-संव्यवहारेण संवादि विशदं मतम् । (षड्द. स. वृ. ५५, पू. २११ ) । ३७. अक्ष्णोति व्याप्नोति जानाति वेत्तीत्यक्षः आत्मा, तमक्षमात्मानं अवधि - मनः पर्ययापेक्षया परिप्राप्तक्षयोपशमं केवलापेक्षया प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियतं प्रतिनिश्चितं प्रत्यक्षम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ - १२) । ३८. प्रत्यक्षस्य वैशद्यं स्वरूपम् । XX X प्रत्यक्षस्यापि विकलस्यावधि मनः पर्यायलक्षणस्येन्द्रियानि न्द्रियानपेक्षत्वे सति स्पष्टतया स्वार्थव्यवसायात्मकत्वं स्वरूपम् । सकलप्रत्यक्षस्य केवलज्ञानलक्षणस्य सकलद्रव्य-पर्यायसाक्षात्करणं स्वरूपम् । ( सप्तभङ्गीत. पू. ४७ ) । ३६. न क्षीयते इत्यक्षो जीवस्तं प्रति वर्तते इति प्रत्यक्षम् । ( प्रमाल १, पृ. ४) । ४०. अक्षमिन्द्रियं प्रति गतं कार्यत्वेनाश्रितं प्रत्यक्षम्, अथवाऽश्नुते ज्ञानात्मना सर्वार्थान् व्याप्नोतीत्यौणादिकनिपातनादक्षो जीवस्तं प्रति गतं प्रत्यक्षम् ।
७५१, जैन-लक्षणावली
[प्रत्यक्षोपचारविनय
( जैनत. पृ. ११४) ।
१ जो ज्ञान मूर्त-धर्माधर्मादि, मूर्ती में श्रतीन्द्रिय परमाणु आदि, तथा द्रव्य क्षेत्रादि से आच्छादित स्व और पर रूप समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानता है उसे प्रत्यक्ष (केवलज्ञान ) कहते हैं । २ मूर्त-अमूर्त एवं चेतन श्रचेतन सभी स्व-पररूप विषयों को जाननेवाले ( केवली ) का ज्ञान श्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ( सकल ) कहलाता है । ३ 'प्रक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष श्रात्मा' इस निरुक्ति के अनुसार अक्ष ( जाननेवाला) नाम श्रात्मा का है । ज्ञानावरण के क्षयोपशम या क्षय से युक्त श्रात्मा के प्रति जो ज्ञान - अवधि- मन:पर्यय या केवल — नियत है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है । ४ जो ज्ञान श्रपरोक्षरूप से - साक्षात् रूप से — अभ्यन्तर व बाह्य पदार्थों को ग्रहण करनेवाला है उसे प्रत्यक्ष जानना चाहिए । प्रत्यक्ष रूप से जाने गये अर्थ के प्रतिपादक वचन को भी प्रतिभास का कारण होने से प्रत्यक्ष कहा गया है ।
प्रत्यक्षाभास - प्रवेशद्ये प्रत्यक्षं तदाभासम्, बौद्धस्याकस्माद् धूमदर्शनाद् वह्निविज्ञानवत् । ( परीक्षा. ६-६)
विशदता के होते हुए जिसे प्रत्यक्ष माना जाता है वह प्रत्यक्ष नहीं, किन्तु प्रत्यक्षाभास है । जैसे— बौद्धमत में अकस्मात् धूम के देखने से जो श्रग्नि का ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष नहीं, किन्तु प्रत्यक्षाभास है ।
प्रत्यक्षोपचार विनय - १. प्राचार्योपाध्याय-स्थविर-प्रवर्तक - गणधरादिषु पूजनीयेष्वभ्युत्थानमभिगमनमंजलिकरणं वन्दनाऽनुगमनं रत्नत्रयबहुमानः सर्वकालयोग्यानुरूपक्रियाऽनुलोमता सुनिगृहीतत्रिदण्डता सुशीलयोगता धर्मानुरूपकथाकथन श्रवणभक्तिताऽर्हदायतन-गुरुभक्तिता दोषवद्वर्जन गुणवृद्धसेवाऽभिलाषानुवर्तनं पूजनम् । यदुक्तम् - गुरु स्थविरादिभिर्नान्यथा तदित्यनिशं भावनं समेष्वनुत्सेको होनेष्वपरिभवः जाति-कुल-धनैश्वर्य रूप-विज्ञान- बल लार्भाद्धषु निरभिमानता सर्वत्र क्षमापरता मित-हित- देश - कालाऽनुगतवचनता कार्याकार्य-सेव्यासेव्य वाच्यावाच्यज्ञातृता इत्येवमादिभिरात्मानुरूपः प्रत्यक्षोपचारविनयः । (चा. सा. पृ. ६५) । २. किरिय म्मब्भुट्ठाणं णवणंजलि आसणुवकरणदाणं । एते पच्चुग्गमणं
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प्रत्यनीक] ७५२, जैन-लक्षणावली
[प्रत्यभिज्ञानाभास च गच्छमाणे अणुव्वजणं ।। कायाणुरूवमद्दणकरणं वा प्रत्यभिज्ञा । (सिद्धिवि. वृ. १-२३, पृ. १०६) । कालाणुरुवपडियरणं । संथारभणियकरणं उवय- ३ दर्शन-स्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानं तदेरणाणं च पडिलिहणं ॥ इच्चेवमाइ काइय विणो- वेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि । (परीरिसि-सावयाण कायन्वो । जिणवयणमणुगणंतेण देस- क्षा. ३-५) । ४. स एवायं तेन सदृशोऽयमिति वा विरएण जहजोग्गं ॥ इय पच्चक्खो एसो भणिोx एकत्व-सादृश्याभ्यां पदार्थानां सङ्कलनं प्रत्यवमर्शः ।
वसु. श्रा. ३२८-३१)। ३. अभ्युत्थानं नतिः xxxपूर्वं ज्ञातस्य पूनः कालान्तरे 'स एवायम् सूरावागच्छति सति स्थिते । स्थानं नीचैनिविष्टे- इति ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । (न्यायकु. ३-१०, पृ. ऽपि शयनोच्चासनोज्झनम् ॥ गच्छत्यनुगमो वक्त- ४११)। ५. दर्शन-स्मरणकारणकम्-दर्शन-स्मरणे र्यनुकूलं वचो मनः । प्रमोदीत्यादिकं चैवं पाठका- कारणे यस्य तत्तथोक्तम्, सङ्कलनं विवक्षितधर्मदिचतुष्टये । आचार्यादिष्वसत्स्वेबं स्थविरस्य मुने- युक्तत्वेन प्रत्यवमर्शनं प्रत्यभिज्ञानम् । (प्र. क. मा. गणे। प्रतिरूपकालयोग्या क्रिया चान्येषु साधुषु ॥ ३-५, पृ. ३३८) । ६. अनुभव-स्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्वआर्या-देश-यमाऽसंयतादिषूचितसत्क्रिया ॥ कर्तव्या तासामान्यादिगोचरं सङ्कलनात्मकज्ञानं प्रत्यभिज्ञाचेत्यदः प्रत्यक्षोपचारोपलक्षणम् ॥ (प्राचा. सा. ६, नम् । (प्र. न. त. ३-५, जैनत. पृ. ११९) । ७. ७८-८१) ।
प्रत्यभिज्ञा स एवायमिति ज्ञानम् । (प्रा. मी. वसु. १ प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक और गण- व. ४०); वस्तूनः पूर्वापरकालव्याप्तिज्ञानं प्रत्यघर प्रादि गुरुजनों के सम्मुख मानेपर उठ खड़े भिज्ञानम् । (प्रा. मी. वसु. ७. ५६)। ८ दर्शनहोना; उनके सम्मख जाना, हाथ जोड़ना, वन्दना स्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोकरना, उनके जानेपर पीछे जाना, रत्नत्रय के प्रति गीत्यादि सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानम् । (प्रमाणमो. बहुत प्रादर रखना, सब काल के योग्य अनुकूल २-४)। ६. प्रत्यक्ष-स्मृतिहेतुकं सङ्कलनमनुसन्धान क्रियाओं को यथाक्रम से करना, मन, वचन व प्रत्यभिज्ञानम् संज्ञा । (लघीय. अभय. वृ.,पृ. २६)। काय को वश में रखना, उत्तम शील से युक्त होना, १.. अनुभव-स्मृतिहेतुकं सङ्कलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यधर्मानुकूल कथा को कहना, उसके सुनने में भक्ति भिज्ञानम्। (न्यायदी. ३, पृ. ५६) । ११. अनुभवरखना; परहन्त, धर्मायतन और गुरु में भक्ति स्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानम् । (षड्द. स. रखना, दोषों को छोड़ना, तथा जो गुणों में वृद्ध हैं वृ. ५५, पृ. २०६) । उनकी सेवा करना, उनके साथ सम्भाषण करना, १'वही यह है' इस प्रकार के प्राकारवाले ज्ञान को उनका अनुसरण एवं पूजा करना; यह सब प्रत्य- अथवा 'यह उसी प्रकार का है' इस प्रकार के प्राक्षोपचारविनय कहलाता है।
कारवाले ज्ञान को प्रत्यभिज्ञा कहते हैं। प्रत्यभिप्रत्यनीक-१. आहारस्स उ काले नीहारस्सावि ज्ञान, प्रत्यवमर्श और संज्ञा ये उसीके नामान्तर होइ पडिणीयं । (प्रव. सारो. १६५) । २. प्रत्यनी- हैं। ३ दर्शन (प्रत्यक्ष) और स्मरण के निमित्त से कमाहारादिकाले वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. होनेवाले संकलनात्मक ज्ञान को-जैसे यह वही है, ३-१३०)। ३. आहारस्स नीहारस्स वा-उच्चारादेः __ यह उसके समान है, यह उससे भिन्न है, अथवा काले वन्दमानस्य भवति प्रत्यनीकवन्दनकमिति (प्रव. यह उसका प्रतियोगी है; इत्यादि प्राकारवाले ज्ञान सारो. वृ. गा. १६५)।
को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। ६ अनुभव और स्मरण १ माहार-नीहार आदि के समय गुरु जनों की वन्दना के निमित्त से जो तिर्यक सामान्य व ऊर्ध्वता करने में प्रत्यनीक नामक दोष होता है। कृतिकर्म
सामान्य प्रादि को विषय करनेवाला संकलनात्मक के ३२ दोषों में यह १७वां है।
ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है । प्रत्यभिज्ञा-देखो प्रत्यभिज्ञान ।
प्रत्यभिज्ञानाभास--१. सदशे तदेवेदं तस्मिन्नेव प्रत्यभिज्ञान-१. तदेवेमित्याकारं ज्ञानं संज्ञा प्रत्य- तेन सदशं यमलकवदित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासम् । भिज्ञा, तादृशमेवेदमित्याकारं वा विज्ञानं संज्ञा। (परीक्षा. ६-६)। २. तुल्ये पदार्थे स एवायमित्ये(प्रमाणप. पृ. ६६) । २. तदेवेदं तत्सदृशम् इति कस्मिश्च तेन तुल्य इत्यादि ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानाभा
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प्रत्यय] ७५३, जैन-लक्षणावली
[प्रत्याख्यातसेवा सम् । (प्र. न. त. ६-३३)। ३. अतत्सदृशे तत्सदृश- प्रत्यवस्थापन-प्रति इति परोक्तदूषणप्रातिकूल्येमिदमतस्मिस्तदेवेदमित्यादि प्रत्यभिज्ञानामासः । नावस्थीयते अन्तर्भूतण्यर्थत्वादवस्थाप्यते-युक्तिपुरलघीय. अभय. व. पृ. ४६)।
स्सरं निर्दोषमेतदिति शिष्यबुद्धावारोप्यते येन तत् १ सदृश वस्तु में 'यह वही है' इस प्रकार के ज्ञान प्रत्यवस्थापनम्-प्रतिवचनम् । (बृहत्क. क्षे. वृ. को, तथा उसी पदार्थ में 'यह उसके सदृश है' इस ८०८)। प्रकार के ज्ञान को प्रत्यभिज्ञानाभास कहते हैं। 'प्रत्यवस्थापन' में 'प्रति' का अर्थ दूसरों के द्वारा प्रत्यय--प्रतीयतेऽनेनार्थ इति प्रत्ययः--ज्ञानकारणं दिये गये दोषों की प्रतिकलता है तथा 'प्रवस्थापन' घटादि । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ६०)।
का अर्थ युक्तिपूर्बक 'यह निर्दोष है' इस प्रकार 'प्रतीयते अनेन अर्थ इति प्रत्ययः' इस निरुक्ति के शिष्य की बुद्धि में प्रारोपित करना है। तदनुसार अनुसार जिसके द्वारा-जिसके आश्रय से-पदार्थ अभिप्राय यह हुआ कि दूसरों के द्वारा दिये गये की प्रतीति होती है यह प्रत्यय कहलाता है। अभि- दूषणों का यक्तिपूर्वक निराकरण करके शिष्य को प्राय यह है कि ज्ञान के विषयभूत घट आदि को यह विश्वास करा देना कि यह सर्वथा निर्दोष है, प्रत्यय कहा जाता है।
इसका नाम प्रत्यवस्थापन है। प्रत्ययकषाय-१. पच्चयकसानो णाम कोहवेयणी
प्रत्यवेक्षण-१. प्रत्यवेक्षणं चाक्षुषो व्यापारः। यस्स कम्मस्स उदएण जीवो कोहो होदि, तम्हा तं
जन्तवः सन्ति न सन्ति चेति प्रत्यवेक्षणं चाक्षुषो कम्म पच्चयकसाएण कोहो । (कसायपा. चू. १-४५,
व्यापारः प्रतीयते । (त. वा. ७, ३४, १)। पृ. २१)। २. होति कसायाणं बन्धकारणं जं स
२. प्रत्यवेक्षणं-चक्षुषा निरीक्षणं स्थण्डिलस्य सचिपच्चयकसायो। सद्दातियो त्ति केई ण समुप्पत्तीय
त्ताचित्त-मिश्र-स्थावर-जङ्गमजन्तुशून्यता। (त. भा. भिण्णो सो ॥ (विशेषा. भा. ३५३०, पृ. ६६६,
सिद्ध. वृ. ७-२६) । ३. तत्र जन्तवः सन्ति न सन्ति ला. द. सीरीज)। ३. प्रत्ययकषायः खल्वान्तर
वेति प्रत्यवेक्षणं चक्षुषो व्यापारः। (चा. सा. पृ. कारणविशेषः तत्पुद्गललक्षणः । (प्राव. नि. हरि.
१२) । ४. अत्र प्राणिनो विद्यन्त न वा विद्यन्त इति व. ६१८, प. ३६०)। ४. जीवादो अभिण्णो होद्रण
निजबुद्धचा निजचक्षुषा पूननिरीक्षणं प्रत्यवेक्षितजो कसाए समुप्पादेदि सो पच्चयो णाम । (जयध.
मुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३४)। ५. जीवाः १, पृ. २८६) । ५. प्रत्ययकषाया: कसायाणं ये
सन्ति न वा सन्ति कर्तव्यं प्रत्यवेक्षणम् । चक्षाप्रत्ययाः-यानि कारणानि, ते चेह मनोज्ञेतरभेदा
पारमात्रं स्यात् सूत्रात्तल्लक्षणं यथा ॥ (लाटीसं. शब्दादयः, अत एवोत्पत्ति-प्रत्यययोः कार्यकारणगतो
६-२०६)। भेदः । (प्राचारा. नि. शी. वृ. १६०, पृ. ८२)।
१ जन्तु हैं या नहीं हैं, इस प्रकार का जो चक्षु का १ क्रोघवेदनीय कर्म के उदय से जीव क्रोध होता
व्यापार है—उसके द्वारा निरीक्षण करना है, है-क्रोधरूप परिणत होता है, इसी कारण उसे
इसका नाम प्रत्यवेक्षण है। प्रत्ययकषाय की अपेक्षा क्रोध कहा जाता है। २
प्रत्यवेक्षित-देखो प्रत्यवेक्षण । कर्मरूप कषायों के बन्ध का कारण जो अभिप्रायविशेष है उसका नाम प्रत्ययकषाय है।
प्रत्याख्यातसेवा-xxx प्रत्याख्यातसेवोज्झिप्रत्ययक्रिया-१. प्रत्ययक्रिया अपूर्वाद्यत्पादनेन । ताशनम् । (अन. ध. ५-४८); प्रत्याख्यातसेवा (त. भा. हरि. वृ. ६-६)। २. प्रत्ययक्रिया त यद- नाम अन्तरायः स्यात् xxx उज्झितस्य देवपूर्वस्य पापादानकारिणोऽधिकरणस्योत्प्रेक्ष्य स्व-स्व- गुरुसाक्षिकं प्रत्याख्यातस्य वस्तुनोऽशनं खादनम् । बुद्धचा निष्पादनम् । (त. भा. सिद्ध. व. ६-६)। (अन. ध. स्वो. टी. ५-४८)। २ पापास्रव के कारणभूत अपूर्व अधिकरण की देव या गुरु की साक्षीपूर्वक छोड़ी हुई वस्तु के खा कल्पना करके अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उत्पन्न लेने पर प्रत्याख्यातसेवा नामक भोजन का अन्तकरना, इसका नाम प्रत्ययक्रिया है।
राय होता है। ल. ६५
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प्रत्याख्यान] ७५४, जैन-लक्षणावली
[प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान-१. णाणं सव्वे भावे पच्चक्खादि य (मूला. वृ. १-२७) । १३. यन्नाम-स्थापनादीनामपरेत्ति णादूण । तम्हा पच्चक्खाणं गाणं णियमा योग्यपरिवर्जनम् । त्रिशुद्धयाऽनागते काले तत्प्रत्यामुणेदब्वं ॥ (समयप्रा. ३६); कम्मं जं सुहमसुहं ख्यानमीरितम् ।। (प्राचा. सा. १-३८)। १४. प्रजम्हि य भावेण बज्झदि भविस्सं । तत्तो णियत्तदे त्याख्यानं आ मर्यादया सर्व विरतिरूपम् xxx। जो सो पच्चक्खाणं हवे चेदा ।। (समयप्रा. ४०४)। (स्थाना. अभय. व. २४६, पृ. १८३)। १५. प्रत्या२. मोत्तण सयलजप्पमणागयसूहमसूहवारणं किच्चा। ख्यानं सर्वविरतिरूपम xxx। (शतक. मल. अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स ॥ (नि. हेम. वृ. ३८)। १६. प्रति प्रवृत्तिप्रतिकूलतया, आ सा. ६५)। ३. णामादीणं छण्णं अजोगपरिवज्जणं मर्यादया, ख्यानं प्रकथनं प्रत्याख्यानम् । (योगशा. तियरणेण । पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले॥ स्वो. विव. ३-१३०, पृ. २५१)। १७. तथा परि(मला. १-२७) । ४. आगन्तुकदोषाणां प्रत्याख्यानं हरणीयं वस्तु प्रति आख्यानं--गुरुसाक्षिकनिवृत्तितु वर्ण्यतेऽपोहः । (ह. पु. ३४-१४६)। ५. प्रत्या- कथनं । (प्राव. नि. मलय. वृ. ८६४)। १८. प्रत्याख्यानं यत्र मूलगुणा उत्तरगुणाश्च धारणीया इत्यय- ख्यानं सर्वविरत्याख्यं Xxx1 (कर्मस्त. गो. मर्थः ख्याप्यते तत्प्रत्याख्यानम् । (त. भा. हरि. ७. .६, पृ. ८४)। १६. प्रत्याख्यानं त्रिविधाहार१-२०)। ६. प्रत्याख्यानं सर्वविरतिलक्षणम् - परित्यागः । (अन. ध. स्वो. टी. २-६८; भ. प्रा. xx। (प्राव. नि. हरि. व मलय. वु. ११०; मूला. ७०); प्रत्याख्यानं भाविकर्मणां शुभाशुभकर्मप्र. यशो. १, पृ. ४); परिहरिणीयं वस्तु वस्तु कर्मविपाकानामात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलम्भनम् । (अन. प्रति पाख्यानं प्रत्याख्यानम् । (प्राव. नि. हरि. वृ. घ. स्वो. टी. ८-६४)। २०. सर्वसावद्यविरतिः ८६४)। ७. प्रत्याख्यानं संयमः । (धव. पु. ६, पृ. प्रत्याख्यानमिहोच्यते । (कर्मवि. दे. स्वो. व. १७, ४३); पच्चक्खाणं संजमो महव्वयाई ति एयट्ठो। उद्.)। २१. प्रत्याख्यानं सकलसंयमः । (गो. जी. (धव. पु. ६, पृ. ४४); महव्वयाणं विणासण-मला- म. प्र. व जी. प्र. २८३) । २२. आगामिदोषनि-*.. रोहणकारणाणि जहा ण होसति तहा करेमि त्ति राकरणं प्रत्याख्यानम् । (भावप्रा. टी. ७७)। मणेणालोचिय चउरासी दिलक्खवदसुद्धिपडिग्गहो १ज्ञान सब भावों को जानकर-प्रात्मस्वरूप से पच्चक्खाणं णाम । (धव. पु. ८, पृ. ८५); पच्च- भिन्न समझकर उनका प्रत्याख्यान (परित्याग) क्खाणं महन्वयाणि । (धव. पु. १३, पृ. ३६०)। करता है, इसी से ज्ञान को ही नियम से प्रत्याख्यान ८. सगंगट्रियदोसाणं दव्व-खेत्त-काल-भावविसयाणं जानना चाहिए। शुभाशुभ कमों के बन्धक मिथ्यापरिच्चायो पच्चक्खाणं णाम । (जयध. १, पृ. त्वादि भावों से निवृत्त होने वाला प्रात्मा ही ११५)। ६. प्रत्याख्यानं नाम अनागतकालविषयां निश्चय से प्रत्याख्यान कहलाता है। ३ नाम, स्थाक्रियां न करिष्यामीति संकल्पः । (भ. प्रा. विजयो. पना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव के भेद से छह ११६)। १०. आगाम्यागोनिमित्तानां भावानां प्रकार के अयोग्य का-पाप के कारणों काप्रतिषेधनम् । प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविक्तात्मवि- वर्तमान व भविष्यकाल की अपेक्षा मन-वचन-काय लोकिनः ॥ (योगसारप्रा. अमित. ५-५१) । ११. से जो परित्याग किया जाता है, इसका नाम प्रत्याप्रत्याख्यानमनागतदोषापोहनमिति । (चा. सा. पृ. ख्यान है। ४ प्रागन्तुक दोषों का जो परित्याग २६)। १२. प्रत्याख्यानमयोग्यद्रव्यपरिहारः, तपो- किया जाता है, इसे प्रत्याख्यान कहा जाता है। निमित्तं योग्यद्रव्यस्य वा परिहारः। (मूला. व. ५ जिस अंगबाह्य श्रुत में 'मूलगुणों और उत्तर१-२२); नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानां गुणों को धारण करना चाहिए' यह अर्थ कहा जाता षण्णाम् अनागतानां त्रिकरणैर्य देतत्परिवर्जनम्, आगते है उसका नाम प्रत्बाख्यान श्रुत (अंगबाह्य श्रुत का चोपस्थिते च यदेतद्दोषपरिवर्जनं तत्प्रत्याख्यानं ज्ञात- एक भेद) है । ७ संयम अथवा महाव्रतों को प्रत्याव्यम् । xxx अनागते वर्तमाने च काले द्रव्या- ख्यान कहते हैं। १६. तीन प्रकार के प्राहार का दिदोषपरिहरणं प्रत्याख्यानम् Xxx। तपोऽथं परित्याग करना, इसका नाम प्रत्यास्यान है। यह निरवद्यस्यापि द्रव्यादेः परित्यागः प्रत्याख्यानम् । प्रत्याख्यान भक्तप्रत्याख्यानमरण को स्वीकार करने
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प्रत्याख्यानकषाय] ७५५, जैन-लक्षणावली
[प्रत्याख्यानावरण वाला क्षपक जिन अर्हादिलिंगों का पाराधक होता पूर्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. १२०) । ६. पच्चक्खाणं है उनके अन्तर्गत है।
णवमं चउसीदिलक्खपयप्पमाणं तु । तत्थ वि पुरिसप्रत्याख्यानकषाय-१. प्रत्याख्यानस्वभावाः स्युः विसेसा परिमिदकालं च इदरं च ।। णाम ट्ठवणा संयमस्य विनाय [शकाः । (उपासका. ९२६)। दव्वं खेत्तं कालं पडुच्च भावं च। पच्चक्खाणं कि२. प्रत्याख्यानं सकलसंयमम् आवृण्वन्तीति प्रत्या- ज्जइ सावज्जाणं च बहुलाणं । उववासविहिं तस्स ख्यानावरणाः क्रोधादयः कृत्स्नसंयमशक्तिविधाति- वि भावणभेयं च पंचसमिदि च । गुत्तितियं तह विपाकाः । (भ. प्रा. मूला. २०६६) । ३. प्रत्या- वण्णदि उववासफलं विसुद्धस्स ॥ अणागदमदिक्कतं ख्यानावरणास्ते सकलचारित्रं महाव्रतपरिणामं कष- कोडिजुदमखंडिदं । सायारं च णिरायारं परिमाणं न्ति, प्रत्याख्यानं सकलसंयममावण्वन्तीति प्रत्याख्या- तहेतरं ।। तहा च वत्तणीयातं सहेद्गमिदि ठिदं। नावरणा इति निरुक्तिवशात् । (गो. जी. म. प्र. व पच्चक्खाणं जिणेदेहि दहभेयं पकित्तिदं ॥ (अंगप. जी प्र. २८३) ।
६५-६६, पृ. २६८)। १ जो कषायें संयम-सकलसंयम-का विघात १ जिसमें व्रत, नियम, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, तप, करती हैं उन्हें प्रत्याख्यान या प्रत्याख्यानावरण कषाय कल्प, उपसर्ग, प्राचार, प्रतिमाविराधन, प्रतिमाकहा जाता है।
पाराधन और अविशुद्धि के उपक्रम का; साध्वाचार प्रत्याख्यानकुशल-सीयालं भंगसयं पच्चक्खा- के कारण का तथा परिमित व अपरिमित द्रव्यणम्मि जस्स उवलद्धं । सो खलु पच्चक्खाणे कुसलो भावरूप प्रत्याख्यान का निरूपण किया गया है सेसा अकुसला उ॥ (प्राव. नि. अभिधा. ५, पृ. उसका नाम प्रत्याख्यानपूर्व है। ६०, गा. १५)।
प्रत्याख्यानप्रवाद-देखो प्रत्याख्यानपूर्व । प्रत्याश्रावक धर्म के अन्तर्गत प्रत्याख्यानभेदों में एक सौ ख्यानं नवमम्, तत्र सर्व प्रत्याख्यानस्वरूपं वर्ण्यते इति सैंतालीस (१४७) भंग होते हैं। वे जिसके उप- प्रत्याख्यानप्रवादम्, तत्परिमाणं चतुरशीतिः पदलब्ध होते हैं वह प्रत्याख्यान में कुशल माना जाता शतशहस्राणीति । (समवा. अभय. वृ. १४७) । है। (देखो श्रावकप्रज्ञप्ति गा. ३२९-३१)। जहां समस्त प्रत्याख्यानस्वरूप का वर्णन किया जाता प्रत्या -देखो प्रत्याख्यानप्रवाद । १. व्रत- है उसे प्रत्याख्यानप्रवाद कहते हैं । यह नौवां पूर्वगतनियम-प्रतिक्रमण - प्रतिलेखन-तपःकल्पोपसर्गाचार- श्रुत है, जिसके पदों का प्रमाण चौरासी लाख है। प्रतिमाविराधनाराधनाविशुद्धय पक्रमाः श्रामण्य कारणं प्रत्याख्यानावरण- देखो प्रत्याख्यानकषाय । च परिमितापरिमितद्रव्य-भावप्रत्याख्यानं च यत्रा- १. यदुदयाद्विरतिं कृत्स्नां संयमाख्यां न शक्नोति ख्यातं तत्प्रत्याख्याननामधेयम् । (त. वा. १, २०, १२, कर्तुं ते कृत्स्नं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तः प्रत्याख्यानाप. ७६, धव. पु. ६, प. २२२) । २. पच्चक्खाण- वरणा: क्रोध-मान-माया-लोभाः । (स. सि. ८-६)। णामधेयं तीसहं वत्थूणं ३० छस्सयपाहुडाणं ६०० २. प्रत्याख्यानावरणकषायोदयाद् विरताविरतिर्भवचउरासीदिलक्खपदेहि ८४००००० दव्व-भावपरि- त्युत्तमचारित्रलाभस्तु न भवति। (त. भा. ८-१०)। मियापरिमियपच्चक्खाणं उववासविहिं पंचसमिदीमो ३. प्रत्याख्यानं सर्वविरतिलक्षणम्, तस्यावरणाः तिण्णि गुत्तीनो च परूवेदि। (धव. पु. १, पृ. प्रत्याख्यानावरणाः । (प्राव. नि. हरि. वृ. ११०)। १२१)। ३. पच्चक्खाणपवादो णाम-ट्रवणा-दन्व- ४. प्रत्याख्यानमावृण्वन्ति मर्यादया ईषद्वेति प्रत्याखेत्त-काल-भावभेदभिण्णं परिमियापरिमियं च पच्च- ख्यानावरणाः । प्राइमर्यादायामीषदर्थे वा, मर्याक्खाणं वण्णेदि । (जयध. १, पृ. १४४) । दायां सर्वविरतिमावृण्वन्ति न देशविरतिम्, ४. चतुरशीतिलक्षपदं द्रव्य-पर्यायाणां प्रत्याख्यानस्य ईषदर्थेऽपि ईषद् वृण्वन्ति सर्वविरतिमेव, न निर्वृत्तेविर्णकं प्रत्याख्यानं नामध्येयं संज्ञा यस्य तत् । देशविरितिम् । (श्रा.प्र. टी. १७)। ५. पच्चप्रत्याख्याननामध्येयम् ८४०००००। (श्रुतभ. टी. क्खाणं संजमो महव्वयाई ति एयट्ठो। पच्चक्खाण१२, पृ. १७६)। ५. द्रव्य-पर्यायरूपप्रत्याख्याननि- मावरेंति त्ति पच्चक्खाणावरणीया कोह-माण-मायाश्चलनकथकं चतुरशीतिलक्षपदप्रमाणं प्रत्याख्यान- लोहा । (धव. पु. ६, पृ. ४४)। ६. मूलगुणप्रत्या
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प्रत्याख्यानावरण]
ख्यानविघातवर्तिनः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधादयः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८ - १० ) । ७. प्रत्याख्यानं मर्यादयाssवृण्वन्ति ये ते प्रत्याख्यानावरणाः ते सर्वविरतिमावृण्वन्ति, न तु देशविरतिम् । (पंचसं स्वो. वृ. ३-५) । ८. प्रत्याख्यानं संयममावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः । (मूला वृ. १२ - १६१ ) । ६. प्रत्याख्यानम् श्रा मर्यादया सर्वविरतिरूपमेवेत्यर्थो वृणोतीति प्रत्याख्यानावरण: । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १, २४६) । १०. सर्वविरतिगुणविधाती प्रत्याख्यानावरणः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १४-१८८, पृ. २१ ) ; तथा प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमा त्रियते यस्ते प्रत्याख्यानावरणाः । आह च - सर्वसावद्यविरतिः प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४६८; पंचसं. मलय. वृ. ३-५ पू. ११२; कर्मप्र. यशो वृ. १, पृ. ४) । ११. प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः । ( धर्मसं. मलय. वृ. ६१४) । १२. प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः । ( षडशी. मलय. वृ. ७६; कर्मवि. दे. स्वो वृ. १७ ) । १३. सर्वविरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणा उच्यन्त इति । ( कर्मस्त. गो. वृ. २, पृ. ७१ ); त एव क्रमेण रेणु रेखा-काष्ठ-गोमूत्रिका-खञ्जन रागसमानाश्चतुर्मासानुबन्धिनः प्रत्याख्यानावरणाः, प्रत्याख्यानं सर्वविरत्याख्यमावृण्वन्तीति कृत्वा ४ । ( कर्मस्त. गो. वृ. ६, पू. ८४ ) । १४. प्रत्याख्यानावरणास्ते सकलचारित्रं महाव्रतपरिणामं कषन्ति, प्रत्याख्यानं सकलसंयममावृण्वन्ति घ्नन्ति इति प्रत्याख्यानावरणाः । ( गो. जी. म. प्र. २८३ ) । १५. येषामुदयाज्जीवो महाव्रतं पालयितुं न शक्नोति ते प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मानमाया लोभा: । (त. वृत्ति श्रुत. ८ - १० ) ।
१ जिनके उदय से जीव संयम नामक समस्त विरति ( सकल चारित्र ) के धारण करने में समर्थ नहीं होता है वे समस्त प्रत्याख्यान ( संयम) का प्रावरण करने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ प्रत्यास्थानावरण कहलाते हैं । २ प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से विरताविरति (संयमासंयम ) तो होती है, पर उत्तम चारित्र की प्राप्ति नहीं होती । प्रत्याख्यानी ( भाषा) - १. पच्चक्खाणी नाम - केनचिद् गुरुमननुज्ञाप्य इदं क्षीरादिकं इयन्तं कालं
७५६, जैन-लक्षणावली
[ प्रत्यालीढस्थान
मया प्रत्याख्यातम् इत्युक्तम्, कार्यान्तरमुद्दिश्य तत्कुविति उदितं गुरुणा, प्रत्याख्यानावधिकालो न पूर्ण इति नैकान्ततः सत्यता, गुरुवचनात् प्रवृत्तो न दोषायेति न मृषैकान्तः । ( भ. प्रा. विजयो. ११६५) । २. प्रत्याख्यानमहं किं. चित्त्यजामीति निवृत्तिवाक् । ( श्राचा. सा. ५ - ८८ ) । ३ याचमानस्य प्रतिषेधवचनं प्रत्याख्यानी । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ११ - १६५, पृ. २५९ ) । ४. पच्चक्खाणी प्रत्याख्यापनी यथा त्वां किञ्चित् त्याजयिष्यामि । ( भ. प्रा. मूला. ११६५ ) । ५. प्रत्याख्यानी परिहरणभाषा इदं वर्जनीयमित्यादि । (गो. जी. म. प्र. २२५ ) । ६. इदं वर्जयामीत्यादि परिहरणभाषा प्रत्याख्यानी । (गो. जी. जी. प्र. २२५) ।
१ किसी ने गुरु को अनुज्ञापित न करके यह कहा कि मैंने इतने काल के लिए इस दूध आदि का परित्याग किया है । इस प्रकार के वचन का नाम प्रत्याख्यानी भाषा है। कार्यान्तराय को उद्देश्य करके गुरु ने कहा- वह करो । प्रत्याख्यान का समय पूर्ण नहीं हुआ, इससे सर्वथा वह सत्य भी नहीं है, तथा गुरु की आज्ञा से प्रवृत्त हुआ, इसलिए दोषजनक नहीं होने से वह सर्वथा असत्य भी नहीं है । २ मैं कुछ का त्याग करता हूं, इस प्रकार के त्यागरूप वचन को प्रत्याख्यानी भाषा कहते हैं । प्रत्यागाल - १. प्रत्यागलनं प्रत्यागालः, पढमट्ठिदिपदेसाणं विदियट्ठिदीए उक्कड्डुणावसेण गमण मिदि भणिदं होइ । ( जयध. प्र. प. ६५४ ) । २. प्रथमस्थितिद्रव्यस्योत्कर्षणवशात् द्वितीयस्थितौ गमनं प्रत्यागालः । ( ल. सा. टी. ८८) ।
१ प्रथम स्थिति के प्रदेशों के उत्कर्षण वश द्वितीय स्थिति में ले जाने को प्रत्यागाल कहते हैं । प्रत्यामुण्डा - प्रत्यर्थ मामुण्ड्यते सङ्कोच्यते मीमांसि - तोऽर्थः श्रनयेति प्रत्यामुण्डा । ( धव. पु. १३, पृ. २४३)।
मीमांसित पदार्थ का जिस बुद्धि के द्वारा संकोच किया जाता है उसका नाम प्रत्यामुण्डा है । यह अवाय का नामान्तर है । प्रत्यालीढस्थान - १. पच्चालीढं वामपायं श्रग्गतो हुत्तं काऊ दाहिणपायं पच्छतो हुत्तं ऊसारेइ, एत्थ - वि अंतरा दोहवि पायाणं पंच पया । ( आव. नि. मलय. वृ. १०३६, पृ. ५६७ उद्) । २. यत्पुनर्वा
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प्रत्यावलिका] ७५७, जैन-लक्षणावलो
[प्रत्येकनाम ममूरुमग्रतोमुखमाधाय दक्षिणमूरु पश्चान्मुखमपसार- स्कन्धादीन् प्रति एको जीवो येषां ते प्रत्येकजीवाः । यति अन्तरा वा [चा] त्रापि द्वयोरपि पादयोः (प्राचारा. नि. शी. वृ. १२८, पृ. ५१)। ३. प्रत्येकपञ्चपादास्ततः पूर्वप्रकारेण युध्यते तत्प्रत्यालीढं स्थान- शरीरिणश्च नारकामर-मनुष्य-द्वीन्द्रियादयः पुथिमालीढस्य प्रतिथि विपरीतत्वात प्रत्यालीढम् ।। व्यादयः कपित्थादितरवश्च । (पंचसं. मलय, वृ. (व्यव. भा. मलय. व. पो. द्वि. वि. २-३५)। ३-८, प. ११६)। ४. एगसरीरे एगो जीवो जेसि १ प्रत्यालीढस्थान में वायें पांव को आगे की प्रोर तु ते य पत्तेया। (जीववि. गा. १३, पृ. १)। . करके दाहिने पांव को पीछे की ओर रखा जाता १ मलबीज, अग्रबीज, पोरबीज, स्कन्ध; स्कन्धहै। उन दोनों के बीच में पांच पदों का अन्तर
बीज, बीजरुह (वीज से उत्पन्न होने वाले गेहूं रहता है।
आदि) और सम्मूछिम; ये वनस्पतिकायिक जीव प्रत्यावलिका-पडियावलिया त्ति एदेण वि उद- प्रत्येक भी होते हैं और अनन्तकाय (साधारण) यावलियादो उवरिमविदियावलिया गहेयव्वा। भी। प्रत्येक साधारण से विपरीत होते हैं. उनकी (जयध. अ. प. ६५४)।
शिरा, सन्धियां और पोर आदि प्रगट दिखते हैं । पावली से उपरिम प्रावली अर्थात् द्वितीय प्रावली २ पत्ता, फूल, जड़, फल और स्कन्ध आदि के को प्रत्यावली कहते हैं।
आश्रित जो एक एक जीव रहते हैं वे प्रत्येकजीव प्रत्याहार-१. समाकृष्येन्द्रियार्थेभ्यः साक्षं चेतः कहलाते हैं। ३ नारक, देव, मनुष्य, द्वीन्द्रिय प्रादि प्रशान्तधीः। यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार
विकलेन्द्रिय, पृथिवी प्रादि तथा कैथ प्रादि वक्ष ये उच्यते । (ज्ञाना. ३०-१, पृ. ३०४) । २. स्था- प्रत्येकजीव माते जात हैं। नात स्थानान्तरोत्कर्षः प्रत्याहारः प्रकीर्तितः । प्रत्येकनाम-देखो प्रत्येकशरीरनाम । १. प्रत्येक(योगशा. ५-८) । ३. प्रत्याहारस्त्विन्द्रियाणां
नाम यदुदयादेको जीव एकमेव शरीरं निवर्तयति । विषयेभ्यः समाहृतिः । (ग. ग. षट्. स्वो. वृ. ८,
(गु.गु. षद. स्वा. ., (श्रा. प्र. टी. २३)। २. एक्किक्कयम्मि जीवे उद्. ४)।
इक्किक्कं जस्स होइ उदएणं। अोरालाइसरीरं तं १ ध्याता इन्द्रियों के साथ मन को इन्द्रियविषयों
नाम होइ पत्तेयं ।। (कर्मवि. ग. १३८) । ३. स्वकी ओर से हटा कर उसे इच्छानुसार जहां-जहां ।
प्रदेशैरेक शरीरमौदारिक-वैक्रियिकान्यतरव्याप्तं धारण करता है उसे प्रत्याहार कहा जाता है।
__ यदुदयाज्जीवेन तत्प्रत्येकनाम । (पंचसं. स्वो. ३, २ तालु प्रादि स्थान से वाय को खींचकर जो
१२७, पृ. ३८)। ४. यस्योदयात् प्रत्येकं शरीरं भवउसका हृदयादि अन्य स्थान में उत्कर्षण (वृद्धिगत) त्येकैकस्य जीवस्यक शरीरं तत्प्रत्येकनाम । (शतक. किया जाता है उस का नाम प्रत्याहार है। मल. हेम. व. ३८) । ५. यदयात जीवं जीवं प्रतिप्रत्युत्क्षेप-मुरज-कांसिकादिगीतोपकारकातोद्यानां भिन्नं शरीरं तत्प्रत्येकनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ध्वनिः प्रत्युत्क्षेपः नर्तकीपदप्रक्षेपलक्षणो वा प्रत्यु- २३-२६३, पृ. ४७४; पंचसं. मलय. वृ. ३-८, पृ. रक्षेपः । (अनुयो. मल. हेम. वृ. १२७, १३२)। ११६; प्रव. सारो. वृ. १२७२)। ६. प्रत्येकनाम मृदंग और कांसिक आदि गीतोपकारक बाजों को यदुदयादेको जीव एकं शरीरं निवर्तयति । (धर्मसं. ध्वनि को प्रत्युत्क्षेप कहते है। अथवा नाचने वाली मलय. व. ६२०)। ७. एक एक प्रति प्रत्येकम्, स्त्री के नृत्यकाल में पदप्रक्षेप को प्रत्युक्षेप कहते हैं। यस्योदये प्रत्येकजीवो भवति पृथग्जीवो भवति तत्प्रप्रत्येककाय-देखो प्रत्येकाङ्ग।
त्येकनाम। (कर्मवि. पू. व्या. ७४, पृ. ३३) । प्रत्येकजीव-१. मूलग्ग-पोर-बीजा कंदा तह खंद- ८. यदुदयात् प्रतिजीवं भिन्नशरीरमुपजायते तत्प्रत्येबीज-बीजरुहा । समच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया कनाम । (कर्मप्र. यशो. वृ. १, पृ. ७)। य। (मूला. ५-१६; प्रां पंचसं. १-८१; गो. जी. १ जिस नामकर्म के उदय से एक जीव एक ही १८५); xxx तन्दिरीयं च पत्तेयं ॥ (मूला. शरीर की रचना करता है उसे प्रत्येकनामकर्म ५-१६%3 गो. जी. १८६)। २. पत्र-पुष्प-मूल-फल- कहते हैं । २ जिसके उदय से एक एक जीव के एक
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प्रत्येकबुद्ध]
७५८, जैन-लक्षणावली [प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा एक औदारिक आदि शरीर होता है उसका नाम बुद्धाः। (भ. पा. मूला. ३४)। प्रत्येकनामकर्म है।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से जीव गुरु के उपदेश के प्रत्येकबुद्ध-देखो प्रत्येकबुद्धिऋद्धि । १. पत्तेय- विना कर्मों के उपशम से ज्ञान और तप में प्रतिबुद्धा पत्तेयं बाह्यं वृषभादिकारणमभिसमीक्ष्य शय को प्राप्त करता है, वह प्रत्येकबुद्धिऋद्धि बुद्धा: प्रत्येकबुद्धाः, बहिःप्रत्ययं प्रतिबुद्धानां च कहलाती है। २ परोपदेश के विना अपनी शक्ति पत्तेयं णियमा विहारो जम्हा तम्हा य ते पत्तेयबुद्धा, विशेष से ही जो ज्ञान और संयम में निपुणता प्राप्त जधा करकंडुमादतो। (नन्दी. चू. पृ. १६)। होती है इसका नाम प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि है। २. प्रत्येकमेकमात्मानं प्रति केनचिन्निमित्तेन सजात- प्रत्येकशरीर-देखो प्रत्येकाङ्ग व प्रत्येकजीव । जातिस्मरणात् बल्कलचीरिप्रभृतयः करकण्ड्वाद- १. प्रत्येकं पृथक् शरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः खदियश्च प्रत्येकबुद्धाः। (त. भा. सिद्ध. वृ. १०-७, पृ. रादयो वनस्पतयः । (धव. पु. १, पृ. २३८); एक३१०)। ३. प्रत्येकबुद्धास्तु बाह्यप्रत्ययेन वृषभा- मेकं प्रति प्रत्येकम्, प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येकदिना (बुध्यन्ते) करकण्ड्वादिवत् । (योगशा. स्वो. शरीराः। (धव. पु. ३, पृ. ३३१); जेण जीवेण विव. ३-१२४, पृ. २३१)। ४. प्रत्येकबुद्धास्तु एक्केण चेव एक्कसरीरट्ठिएण सुह-दुःखमणुभवेदव्वबाह्यप्रत्ययमपेक्ष्य-प्रत्येक बाह्यवृषभादिकं कार- मिदि कम्ममुवज्जिदं सो जीवो पत्तेयसरीरो। X णमभिसमीक्ष्य-बुद्धाः प्रत्येकबुद्धा इति व्युत्पत्तेः । xx अहवा पत्तेयसरीरणामकम्मोदयवंतो वणप्फ(प्रज्ञाप. मलय. वृ.७, पृ. १६)।
दिकाइया पत्तयसरीरा । (धव. पु. ३, पृ. ३३३); १ प्रत्येक अर्थात् बैल आदिरूप बाह्य कारण को एक्कस्सेव जीवस्स जं सरीरं तं पत्तेयसरीरं, तं जेसि] देखकर जो प्रबोध को प्राप्त होते हैं वे प्रत्येकबुद्ध जीवाणं अत्थि ते पत्तेयसरीरा णाम । xxx कहलाते हैं। जैसे--करकण्ड आदि।
अथवा पत्तेयं पुधभूदं सरीरं जेसिं ते पत्तेयसरीरा । प्रत्येकबुद्धसिद्ध–देखो प्रत्येकबुद्ध । प्रत्येकबुद्धाः (धव. पु. १४, पृ. २२५)। २. एक जीवं प्रतिगतं. सन्तो ये सिद्धाः ते प्रत्येकवुद्धसिद्धाः । (नन्दी. हरि. यच्छरीरं प्रत्येकशरीरनामकर्मोदयात् तत्प्रत्येकं तदेव वृ. पृ. ५०); योगशा. स्वो. विव. ३-१२४, पृ. प्रत्येककम् । XXX शीर्यत इति शरीरं देहःX २३१; प्रज्ञाप. मलय. वृ. ७, पृ. १६)। ___XX । (स्थाना. अभय. वृ. १७, पृ. १८) । प्रत्येकबुद्ध होते हुए जो सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त १ जिन जीवों का पृथक् शरीर होता है वे प्रत्येकहुए हैं वे प्रत्येकबुद्धसिद्ध कहलाते हैं।
शरीर कहलाते हैं। जैसे—-खैर आदि वनस्पति ।
जिस एक जीव ने 'एक ही शरीर में स्थित रहकर सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं प्रत्येकवद्ध सिद्धकेवलज्ञानम । सुख-दुःख का अनुभवन करना चाहिए' इस प्रकार के (प्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ. ८४) ।
कर्म को उपाजित किया है उसे प्रत्येकशरीरजीव प्रत्येकबद्ध होकर सिद्ध होने वाले जीवों के केवल- कहते है। ज्ञान को प्रत्येकबुद्धसिद्धकेवलज्ञान कहते हैं। प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा- देखो प्रत्येकशरीरिप्रत्येकबुद्धि-ऋद्धि--१. कम्माण उवसमेण य गुरू- द्रव्यवर्गणा । १. एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि देहे वदेसं विणा वि पावेदि। सण्णाण-तवप्पगमं जीए उवचिदकम्म-णोकम्मक्खंधो पत्तेयशरीरदव्ववग्गणा पत्तेयबुद्धी सा ॥ (ति. प. ४-१०२२) । २. परोप- णाम । (धव. पु. १४, पृ. ६५) । २. पत्तेयशरीरदेशमन्तरेण स्वशक्तिविशेषादेव ज्ञान-संयमविधाननि- दव्ववग्गणा णाम पत्तेयसरीराणं उरालादीणं उरापुणत्वं प्रत्येकबुद्धता। (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. लिय-वेउव्वित-आहारग-तेय-कम्मतिगेसु विस्ससापरि२०२; चा. सा. पृ. ६)। ३. श्रुतज्ञानावरण- णामोपचिता पोग्गला एक्केकमि सरीरकम्मपदेसे क्षयोपशमात् परोपदेशमन्तरेणाधिगतज्ञानातिशयाः सव्वजीवाणं अणंतगुणप्रोवचितातो तारो पत्तेयसरीप्रत्येकबुद्धाः। (भ. प्रा. विजयो. ३४) । ४. एकं रदव्ववग्गणातो वुच्चंति । (कर्मप्र. चू. २०, पृ. केवलं परोपदेशनिरपेक्षं श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशम- ४२)। विशेष प्रतीत्य बद्धाः संप्राप्तज्ञानातिशयाः प्रत्येक- १एक जीव के एक शरीर में जो कर्म व नोकर्मरूप
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प्रत्येकशरीरनाम ]
स्कन्धों का उपचय होता है उसका नाम प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा है । प्रत्येकशरीरनाम - देखो प्रत्येकनाम । १. शरीरनामकर्मोदयान्निर्वर्त्यमानं शरीरमेकात्मोपभोगकारणं यतो भवति तत्प्रत्येकशरीरनाम । ( स. सि. ८-११; मूला. वृ. १२-१६५ भ. प्रा. मूला. २१२४; गो. क. जी प्र. ३३) । २. पृथक - शरीरनिर्वर्तक प्रत्येकशरीरनाम । ( त. भा. ८-१२ ) । ३. एकात्मोपभोगकारणशरीरता यतस्तत्प्रत्येकशरीरनाम । शरीरनामकर्मोदयात् निर्वर्त्यमानं शरीरमेकात्मोपभोगकारणं यतो भवति तत्प्रत्येकशरीरनामकर्म । एकमेकमात्मानं प्रति प्रत्येकम्, प्रत्येकं शरीरं प्रत्येकशरीरम् । (त. वा. ८, ११, १६ ) । ४. जस्स कम्मस्स उदएण जीवो पत्तेयसरीरो होदि तस्स कम्मस्स पत्तेयसरीरमिदि सण्णा । ( धव. पु, ६, पृ. ६२); जस्स कम्मस्सुदएण एक्कसरीरे एक्को चेव जीवो जीवदि तं कम्मं पत्तेयसरीरणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६५) । ५. एकात्मोपभोगकारणं शरीरं यतस्तत्प्रत्येकशरीरनाम । ( त श्लो. ८-११ ) । ६. यस्य कर्मण उदयादेकैको जीवः प्रति प्रत्येकैकं शरीरं निर्वर्तयति तत्प्रत्येकनाम । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८ - १२ ) । ७. स्वप्रदेशैरेकं शरीरमोदारिकवै क्रियिकाहारकान्यतरद्व्याप्तं यदुदयाज्जीवेन तत्प्रत्येकनाम । (पंच. स्वो वृ. ३-६, पृ. ११९) । ८. प्रत्येकनाम यदुदयादेकैकस्य जन्तोरेकैकमौदारिकं वैक्रियं वा शरीरं भवति । ( षष्ठ क. मलय. वृ. ५, पृ. १२६; सप्तति. मलय. वृ. ६, पृ. १५३ ) । ६. यस्योदयात् प्रत्येकं शरीरं भवति, एकैकस्य जीवस्यैकैकं शरीरमित्यर्थः, तत्प्रत्येकनाम । ( कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. ८७ ) । १०. शरीरनामकर्मोदयेन निष्पाद्यमानं शरीरं एकजीवोपभोगकारणं यदुदयेन भवति तत्प्रत्येकशरीरनाम । (त. बृत्ति श्रुत. ८-११) ।
१ शरीरनामकर्म के उदय से जो शरीर रचा जाता है वह जिस कर्म के उदय से एक जीव के उपभोग का कारण होता है उसे प्रत्येकशरीर नामकर्म कहते हैं । २ जो कर्म पृथक् शरीर की रचना करता है उसे प्रत्येकशरीर नामकर्म कहा जाता है । प्रत्येकशरीरिद्रव्यवर्गणा - अथ केयं प्रत्येकशरीरिद्रव्यवर्गणा नाम ? उच्यते— प्रत्येकशरीरिणां यथा
७५६, जंन-लक्षणावली
[प्रथम सम्यक्त्व
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सम्भवमौदारिक- वैक्रियाहारक तैजस-कार्मणेषु शरीरनामकर्मसु ये प्रत्येकं विश्रसापरिणामेनोपचयमापन्नाः सर्वजीवानन्तगुणाः पुद्गलास्ते प्रत्येकशरीरिद्रव्यवर्गणा । ( कर्मप्र. मलय. व यशो. वृ. २०, पृ. ४७ व ५० ) । प्रत्येकशरीर वाले प्राणियों के यथासम्भव प्रौदारिक, वैक्रियिक, श्राहारक, तेजस और कार्मण शरीरनामकर्मों में से प्रत्येक में जो स्वभावतः सब जीवों से श्रनन्तगुणे पुद्गल उपचय को प्राप्त होते हैं उनका नाम प्रत्येकशरीरिद्रव्यवर्गणा है । प्रत्येकाङ्ग (शरीर ) - १. एकमेकस्य यस्याङ्गं प्रत्येकाङ्गः स कथ्यते । ( पंचसं अमित १ - १०५, पृ. १४) । २. एकमेकं प्रति प्रत्येकं पृथक्कायादयः शरीरं येषां ते प्रत्येककायाः । (मूला. वृ. ५-१६) । १ जिस एक जीव का एक शरीर होता है उसे प्रत्येकाङ्ग या प्रत्येककाय कहा जाता है। प्रत्येषण (पच्छिण ) - १. पडिच्छणमेगस्स प्रतिचारकैरभ्यनुज्ञातस्यैकस्य संग्रह आराधकस्य । (भ. प्रा. विजयो. ६९ ) । २. पडिच्छणमिक्कस्स संघानुमतेनैकस्य क्षपकस्य स्वीकार: । (भ. श्री. मूला. ६६ ) | १ परिचर्या करने वाले साधुनों (संघ) के द्वारा श्रनुज्ञात किसी एक आराधक के ग्रहण करने का नाम पडिच्छण (प्रत्येषण ) है । प्रथम असत्य - देखो असत्य ( प्रथम ) । प्रथम मूलगुण - सुहुमादीजीवाणं सव्वेसि सव्वहा सुपणिहाणं । पाणाइवायविरमणमिह पढमो होइ मूलगुणो ॥ ( धर्मसं. हरि ८५८ ) ।
सूक्ष्म व बादर श्रादि सभी जीवों के प्राणविघात से उत्तम अभिप्रायपूर्वक सब प्रकार से — कृत-कारितादिरूप से निवृत्त होना, यह मुनियों का प्रथम मूलगुण ( श्रहिंसा महाव्रत ) है । प्रथमसमयस योगिभवस्थकेवलज्ञान यस्मिन् समये केवलज्ञानमुत्पन्नं तस्मिन् समये तत्प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानम् । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ. ८३) ।
तत्र
जिस समय में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ हो उस समय में वह प्रथमसमयस योगिभवस्थकेवलज्ञान
कहलाता है ।
प्रथम सम्यक्त्व - १. एदेसि चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिट्ठिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्तं
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प्रथमानुयोग] ७६०, जैन-लक्षणावली
[प्रथमा प्रतिमा लभदि । सो पुण पंचिंदिरो सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्ज- ग्रीवादिनवप्रतिवासुदेवसम्बन्धित्रिषष्टिपुरुषपुराणभेदतो सव्वविसुद्धो । एदेसि चेव कम्माणं जाघे अंतो- भिन्नः प्रथमानुयोगो भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४२)। कोडाकोडिदिदि ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्से- ७. पञ्चसहस्रपदपरिमाणः त्रिषष्ठिशलाकापुरुषपुराहिं ऊणियं ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि । (षट्खं. १, णानां प्ररूपक: प्रथमानुयोगः । (सं. श्रुतभ. टी. ६, ६-८, ३-५---पु. ६, पृ. २०३ आदि) । २. भव्यः पृ. १७४) । ८. पुराणं चरितं चार्थाख्यानं बोधिपञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तक: सर्वविशुद्धः प्रथमसम्य- समाधिदम् । तत्त्वप्रथार्थी प्रथमानुयोगं प्रथयेत्तराम् । क्त्वमुत्पादयति । (स. सि. २-३)। ३. स पुनर्भव्यः (अन. ध. ३-६)। ६. प्रथमं मिथ्यादृष्टिमतिकमपञ्चेन्द्रियः संज्ञी मिथ्यादृष्टि: पर्याप्तकः सर्वविशु- व्युत्पन्न वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगः अधिद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । (त. वा. २, ३, २)। कारः चविंशतितीर्थकर-द्वादशचक्रवर्ति-नवबलदेव१ अनादिमिथ्यादृष्टि जीव जब सब कर्मों की नववासूदेव-नवप्रतिवासुदेवानां त्रिषष्टिपुराणानि अन्तःकोडाकोडि प्रमाण स्थिति को बांधता है नथा। वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३६१) । उन्हीं कर्मों की जब संख्यात हजार सागरोपनों से १०. त्रिषष्टिशलाकामहापुरुषचरित्रकथकः पंचसहस्रहीन अन्तःकोडाकोडि प्रमाण स्थिति को स्थापित- पदप्रमाणः प्रथमानयोगः। (त. वृत्ति श्रुत. १-२०) । करता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करने के ११. पढम मिच्छादिढेि अव्वदिकं आसिदूण पडियोग्य होता है। विशेष इतना है कि वह पंचेन्द्रिय, वज्ज । अणुयोगो अहियारो वुत्तो पढमानुयोगो संजी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक और सर्वविशुद्ध होना सो॥ (अंगप. २-३५, पृ. २८३)। चाहिए।
१ चरित्र और पुराणरूप श्रुत का नाम प्रथमानुयोग प्रथमानुयोग-१. प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं है। यह पवित्र अनुयोग श्रोता की बोधि और पुराणमपि पुण्यम् । बोधि-समाधिनिधानं वोधति समाधि का कारण है। एक किसी विशिष्ट पुरुष बोधः समीचीनः ।। (रत्नक. २-२) । २. प्रथमानु- केमाश्रित कथा का नाम चरित्र और तिरेसठ - योगे पञ्चपदसहस्रे ५००० चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां शलाकापुरुषों के प्राश्रित कथा का नाम पुराण है। द्वादशचक्रवर्तिनां बलदेव-वासुदेव-तच्छत्रूणां चरितं २ प्रथमानयोग में २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ६ निरूप्यते । अत्रोपयोगी गाथा-बारसविहं पुराणं बलदेव. वासदेव और प्रतिवासुदेव; इनके जं दिटुं जिणवरेहि सव्वेहि । तं सव्वं वण्णेदि हु चरित्र का निरूपण किया जाता है। पुराण बारह जिणवंसे रायसे य॥ पढमो अरहंताणं विदियो प्रकार का है, जो इन १२ वंशों की प्ररूपणा करता पुण चक्कवट्टिवंसो दु। तदिगो वसुदेवाणं चउत्थो है-१ अरहन्त, २ चक्रवर्ती, ३ वसुदेव, ४ विद्याविज्जाहराणं तु ।। चारणवंसो तह पंचमो दु छट्ठो य घर, ५ चारण ऋषि, ६ श्रमण, ७ कुरुवंश, ८ हरिपण्णसमणाणं । सत्तमगो कुरुवंसो अट्ठमयो चापि वंश, ह ऐक्ष्वाकुवंश, १० कासियवंश, ११वादी और हरिवंसो ॥ णवमो अइक्खुवाणं वंसो दसमो ह का- १२ नायवंश । सियाणं तु । वाई एकारसमो बारसमो णाहवंसो दु॥ प्रथमा प्रतिमा-देखो दर्शनप्रतिमा । शङ्कादिदोष(धव. पु. ६, पृ. २०८)। ३. जो पुण पढमाणि- रहितं प्रशमादिलिङ्गं स्थैर्यादिभूषणं मोक्षमार्गप्रासादप्रोमो सो चउवीसतित्थयर-बारहचक्कवट्टि-णवबल- पीठभूतं सम्यग्दर्शनं भय-लोभ-लज्जादिभिरप्यनतिणवणारायण-णवपडिसत्तूणं पुराणं जिण-विज्जाहर- चरन् मासमात्रं सम्यक्त्वमनुपालयति, इत्येषा प्रथमा चक्कवट्रि-चारण-रायादीणं बंसे य वण्णेदि। (जयध. प्रतिमा। (योगशा. ३-१४८, पृ. २७१)। १, पृ. १३८) । ४. तेषामाद्यानुयोगोऽयं सतां सच्च- शंका-कांक्षादि दोषों से रहित, प्रशम-संवेगादि रिताश्रयः ।। (म. पु, २-६८) । ५. गृही यतः स्व- चिह्नों से सहित और स्थैर्य आदि गुणों से विभूषित सिद्धान्तं साधु बुध्येत धर्मधीः। प्रथमः सोऽनयोगः स्यात् पुराणचरिताश्रयः ।। (उपासका. ६१६)। के वश भी मलिन न करते हुए उसका एक मास ६. वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थकर-भरतादिद्वादशचक्र- तक परिपालन करना; यह श्रावक की प्रथम वर्ति-विजयादिनवबलदेव-त्रिपिष्टादिनववासुदेव - सु- प्रतिमा का लक्षण है। उक्त सम्यक्त्व मोक्षमार्ग
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प्रथमा स्थिति] ७६१, जैन-लक्षणावली
[प्रदेशछेदना रूप भवन को पीठ-भूमिका अथवा नीद-के प्रदेशः । (उत्तरा. चू. पृ. २८१) । ६. प्रकृष्टो देशः समान है।
प्रदेशः, परमनिरुद्धो निरवयव इति यावत् । (त. प्रथमा स्थिति–अन्तरकरणाच्चाबस्तनी स्थितिः भा. सिद्ध. वृ. ५-७); पुनस्तस्यैव कणिकादिद्रव्यप्रथमा स्थितिरित्युच्यते । (कर्मप्र. मलय. व यशो. परिमाणान्वेषणं प्रदेशः। (त. भा. सिद्ध. वृ.८-४)। वृ. उप. क. १७, पृ. १४ व १५) ।
७. xxx अद्धिं प्रदेशः परिकीर्तितः । (त. सा अन्तःकरण से नीचे की स्थिति को प्रथम स्थिति ३-५७)। ८. जावदियं प्रायासं अविभागीपुग्गकहा जाता है।
लाणुवट्ठद्धं । तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं॥ प्रथमोपशमसम्यक्त्व-देखो प्रथम सम्यक्त्व। (द्रव्यसं. २७) । ६. जेत्तियमेत्तं खेत्तं अणुणा रुद्धं तत्रौपशमिकं भिन्नकर्मग्रन्थेः शरीरिणः । सम्यक्त्वलामे ख गयणदव्वस्स । तं च पएसं भणियं जाण तुम प्रथमेऽन्तर्मुहूर्त प्रजायते ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, सव्वदरसीहिं ॥ (द्रव्यस्व. नयच. १४०)। १०. पर६००)।
माणुव्याप्तक्षेत्र प्रदेशः । (प्रव. सा. जय. व. २, कर्मरूप ग्रन्थि के भेद देने पर सर्वप्रथम जो सम्य- ४५) । ११. xxx पएसमद्धंद्धं । (वसु. श्रा. क्त्व प्राप्त होता है वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व १७)। १२. प्रदेशाश्च जीवस्य कर्माणवोऽभिधीकहलाता है, जो अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। यन्ते । (प्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ६२) । प्रदक्षिण(पदाहिण) क्रियाकर्म-वंदणकाले गुरु- १३. प्रकृष्ट:-सर्वसूक्ष्मः पुद्गलास्तिकायस्य देशो जिण-जिणहराणं पदक्खिणं काढूण णमंसणं पदाहिणं निरंशो भागः प्रदेशः इति व्युत्पत्तेः । (अनुयो. सू. णाम । (धव. पु. १३, पृ. ८६)।
मल. हेम. वृ. ८६, पृ. ६८); तत्र प्रदेशा इह वन्दना के समय गुरु, जिनदेव और जिनालय को क्षेत्रस्य निविभागा भागाः । (अनुयो. सू. मल. हेम. प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना, यह छह प्रकार ब. १३३, पृ. १५७) । १४. प्रदेशा निरंशावयवाः । के कृतिकर्म में प्रदक्षिणा नाम का दूसरा कृतिकर्म है। (समवा. अभय. वू, १४०, पृ. १०७)। १५. प्रकृप्रदुष्टदोष-१. प्रदुष्टोऽन्यः सह प्रद्वेषं वैरं कल- ष्टो निरंशो धर्माधर्माकाश-जीवानां देश:-अवयवहादिकं विधाय क्षन्तव्यमकृत्वा यः करोति क्रिया- विशेषः । स चैकः स्वरूपतः, सद्वितीयत्वादी देशकलापं तस्य प्रदुष्टदोषः । (मूला. वृ. ७-१०८)। व्यपदेशत्वेन प्रदेशत्वाभावप्रसंगात् । (स्थाना. २. प्रदुष्टं वन्दमानस्य द्विष्ठेऽ कृत्वा क्षमां त्रिधा। अभय. वृ. ४५, पृ. २२)प्रदेशो धर्माधर्माकाश(अन. ध. ८-१०५)।
जीव-पुद्गलानां निरवयवोंऽशः । (स्थाना. अभय. वृ. १ दूसरों के साथ प्रकृष्ट द्वेष, वैर व कलह आदि १६५, पृ. १२६)। १६. शुद्धपुद्गलपरमाणुना करके उससे क्षमा कराने के विना वन्दनादि रूप गहीतंनभस्थलमेव प्रदेशः । (नि. सा. वृ. ३५) । कृतिकर्म के करने पर प्रदुष्ट नाम का वन्दनादोष १७. अर्धस्या प्रदेशः । (गो. जी जी. प्र.६०४)। उत्पन्न होता है।
१ स्कन्ध के प्राधे के आधे भाग को या देश के प्रदेश-१. अद्धंद्धं च पदेसोxxx॥(पंचा. का. प्राधे भाग को प्रदेश कहते हैं। २ जितने क्षेत्र में ७५; मूला. ५-३४; भावसं. दे. ३०४; गो. जी. एक परमाणु रहता है उसका नाम प्रदेश है।
। २ सः (परमाणुः) यावति क्षेत्र व्यवति- ३ अपेक्षानिर्मित परमाणु के सबसे सूक्ष्म अवगाह ष्ठते स प्रदेशः । (स. सि. ५-८)। ३. प्रदेशो को प्रदेश कहते हैं। ५ असंख्यातवें अथवा अनन्त नामापेक्षिकः सर्वसूक्ष्मस्तु परमाणोरवगाहः । (त. भा. भाग को प्रदेश कहा जाता है। ५-७)। ४. प्रदेशाः परमाणवः। प्रदिश्यन्ते इति प्रदेशछेदना-पदेसो वि छेदणा होदि उड्ढाहोप्रदेशा: परमाणवः, ते हि घटादिष्ववयवत्वेन प्रदि- मज्झादिपदेसेहि सव्वदम्बाणं छेददसणादो। (धव. पु. श्यन्ते । प्रदिश्यन्ते एभिरिति वा प्रदेशाः तैहि प्राका- १४, पृ. ४३६)।। शादीनां क्षेत्रादिविभागः प्रदिश्यते । (त. वा. २, प्रदेश को छेदना इसलिए कहा जाता है कि ऊर्ध्व, ३८, १)। ५. प्रदेशोऽसंख्येयतमोऽनन्ततमो वा मध्य और प्रधः प्रदेशों के द्वारा सब द्रव्यों का छेद
ल. १६
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प्रदेशतः इतरेतरसंयोग ]
देखा जाता है । यह छेदना के दस भेदों में पांचवां है ।
७६२, जैन-लक्षणावली
[ प्रदेशबन्ध
तीन प्रदेश श्रवगाहवाला, इस क्रम से संख्यात व असंख्यात प्रदेश श्रवगाहवाला क्षेत्र; यह सब प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहलाता है । प्रदेशबन्ध - १. सुहमे जोगविसेसेण एगखेत्तावगाढठिदियाणं । एक्केक्के दु पदेसे कम्मपदेसा प्रणता दु || ( मूला. १२ - २०४ ) । २. नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वांत्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः । (त. सू. ८-२४) । ३. इयत्तावधारणं प्रदेश: । ( स. सि. ८-३ ) ; ते खलु पुदगलस्कन्धाः अभव्यानन्तगुणा: सिद्धानन्तभागप्रमितप्रदेशाः घनाङ्गुलस्यासंख्येय भागक्षेत्रावगाहिनः एक द्वि-त्रि- चतुः- संख्येया संख्येयसमयस्थितिकाः पञ्चवर्ण- पञ्चरस - द्विगन्ध चतुःस्पर्श स्वभावा अष्टविधकर्मप्रकृतियोग्याः योगवशादात्मसात् क्रियन्त इति प्रदेश'बन्धः समासतो वेदितव्यः । ( स. सि. ८ - २४; त. वा. ८,२४, ८ ) । ४ प्रदेशबन्ध जीवप्रदेशानां कर्मपुद्गलानां च सम्बन्धः । (उत्तरा चू. पृ. २७७ ) ५. इयत्तावधारणं प्रदेशः । कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं प्रदेश इति व्यपदिश्यते । (त. वा. ८, ३, ७ ) । ६. कर्मत्वपरिणत्यात्मपुद्गलस्कन्धसंहतेः । प्रदेशः परमाण्वात्मपरिच्छेदावधारणा ।। (ह- पु. ५८- २१३) । ७. तस्यैव कणिकादिपरिमाणान्वेषणं प्रदेशः, कर्मणोऽपि पुद्गलपरिमाणनिरूपणं प्रदेशबन्ध इति । यथोक्तम् - तेषां पूर्वोक्तानां स्कन्धानां सर्वतोऽपि जीवेन । सर्वेदेशैर्योग विशेषाद् ग्रहणं प्रदेशाख्यम् ॥ ( त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ८ - ४) । ८ प्रदेशबन्धस्त्वात्मप्रदेशैर्योगस्तथा कालेनैव विशिष्टविपाकरहितं वेदनमिति । ( श्रा. प्र. टी. ८० ) । ६ इति प्रदेशैर्यो बन्धः कर्मस्कन्धादिभिर्मतः । स नुः प्रदेशबन्ध : स्यादेष बन्धो विलक्षण: 1 ( त श्लो. ८, २४, ११) । १०. प्रदेशबन्धस्तु अनन्तानन्तप्रदेशान् स्कन्धानादायैकैकस्मिन् प्रदेशे एकैकस्य कर्मणो ज्ञानावरणादिकस्य व्यवस्थापयतीत्येषः प्रदेशबन्ध इति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. (१-३) । ११. सर्वेष्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशकान् । श्रात्मसात्कुरुते जीवः स प्रदेशोऽभिधीयते ॥ (त. सा. ५ - ५० ) । १२. XXX पएसबंधो पएसगहणं जं । (पंचसं. च. ब. क. ४०, पृ. ३४ ); प्रदेशबन्ध : प्रदेशानां कर्मपुद्गलानां यद् ग्रहणं स्थिति रसनिरपेक्षं तत् संख्याप्राधान्येनैव करोति । (पंचसं स्वो.
प्रदेशतः इतरेतरसंयोग - तत्थ धम्मत्थिकाइयाff पंच प्रत्थिकायाणं यः स्वैः स्वैः प्रदेशैरन्यद्रव्यप्रदेशश्च सह संयोगः स प्रदेशत इतरेतरसंयोगो "भवति । ( उत्तरा चू. पू. २०) ।
धर्मास्तिकाय श्रादि पांच अस्तिकायों का जो अपने अपने प्रदेशों से तथा अन्य द्रव्यों के प्रदेशों के साथ भी संयोग है वह प्रदेशतः - प्रदेशों की अपेक्षा इतरेतरसंयोग है । प्रदेशदीर्घ-सव्वासि पयडीणं सग-सगपात्रोग्गउक्कस्पदेसे बंधमाणस्स पदेसदीहं । धव. पु. १६, पृ. ५०९) ।
यः
सब प्रकृतियों के अपने अपने योग्य उत्कृष्ट प्रदेशों के बांधने वाले जीव के प्रदेशदीर्घ होता है । प्रदेशनामनिधत्ता - १. प्रदेशानां - प्रमितपरिमाणानामायुः कर्म दलिकानां नाम - परिणामो तथाऽऽत्मप्रदेशेषु सम्बन्धनं स प्रदेशनाम, जाति गत्यवगाहनाकर्मणां वा यत्प्रदेशरूपं नामकर्म तत्प्रदेशनाम, तेन सह निघत्तमायुः प्रदेशनामनिधतायुरिति । ( समवा. अभय वृ. १५४, पृ. १३६-३७) । २. प्रदेशा: कर्मपरमाणवः, ते च प्रदेशाः संक्रमतोऽप्यनुभूयमानाः परिगृह्यन्ते, तत्प्रधानं नाम प्रदेशनाम । किमुक्तं भवति ? यद्यस्मिन् भवे प्रदेशतो अनुभूयते तत्प्रदेशनामेति, प्रमेन विपाकोदयमप्राप्त मपि नाम गृहीतम् तेन प्रदेशनाम्ना सह निघत्तायुः प्रदेशनामनिधत्तायुः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १४५, पू. २१८ ) ।.
१ परिमित प्रमाण वाले प्रयुकर्म के प्रदेशों का जो परिणमन है तथा आत्मा के प्रदेशों से सम्बद्ध होना हैं उसे प्रदेशनाम कहते हैं, प्रथवा जाति, गति और अवगाहन कर्मों का जो प्रदेशरूप नामकर्म है उसे प्रदेशनाम कहा जाता है। इस प्रदेशनाम के साथ जो निषिक्त प्रायु है, वह प्रदेशनामनिधत्तश्रायुबन्ध कहलाता है ।
प्रदेश निष्पन्नक्षेत्रप्रमाण - एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे पिएसो गाढे संखिज्जपएसोगाढे असंखिज्ज - एसोगाढे से तं पएस णिप्फण्णे । (अनुयो. सू. १३३, पृ. १५६) ।
एकप्रदेश प्रवगाहवाला क्षेत्र, दो प्रदेश श्रवगाहवाला,
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प्रदेशबन्ध] ७६३, जैन-लक्षणावली
[प्रदेशविरच व.बं.क.४०)। १३. योगभेदादनन्ता ये प्रदेशाः कर्म- नामकर्म जिनका कारण है, ऐसे जो अनन्तानन्त णः स्थिताः । सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु स प्रदेश इति स्थितः ।। सूक्ष्म पुद्गल योगविशेष के आश्रय से सभी भवों में (चन्द्र. च. १८-१०४)। १४. परस्परप्रदेशानु- अथवा सब ओर से प्राकर सूक्ष्म एक क्षेत्र का प्रवप्रवेशो जीव-कर्मणोः। यः संश्लेषः स निदिष्टो बन्धो गाहन करते हुए सभी प्रात्मप्रदेशों पर स्थित होते विध्वस्तबन्धनैः ॥ (ज्ञानार्णव ६-४६, पृ.१०१)। हैं, यह प्रदेशबन्ध का लक्षण है। ४ जीवप्रदेशों का १५. तेषां कर्मस्वरूपपरिणतानामनन्तानन्तानां जीव- और कर्मप्रदेशों का जो सम्बन्ध होता है उसका नाम प्रदेशः सह संश्लेषः प्रदेशबन्धः । (मला. व. ५-४७); प्रदेशबन्ध है। प्रदेशः कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणुपरि
प्रदेशबन्धस्थान-जाणि चेव जोगद्राणाणि ताणि च्छेदेनावधारणम् । (मूला. वृ. १२-३); आत्मनो चेव पदेसबंधट्टाणाणि। (षट्खं. ४, २, ४, २१३--- योगवशादष्टविधकर्महेतवोऽनन्तानन्तप्रदेशा एकैकप्र
पु. १०, पृ. ५०५)। देशे ये स्थितास्ते प्रदेशबन्धा इति । (मूला. व.
जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबन्धस्थान कहे जाते हैं । १२-२०४)। १६. जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां
प्रदेशमोक्ष-अधट्ठिदिगलणाए पदेसाणं णिज्जरा बन्धः-सम्बन्धनं प्रदेशबन्धः । (समवा. अभय. वृ.
पदेसाणमण्णपयडीसु संकमो वा पदेसमोक्खो। (धव. ४; स्थाना. अभय. वृ. २९६)। १७. तस्यैव मोद
पु. १६, पृ. ३३८)।
अंधःस्थिति के गलन से जो कर्मप्रदेशों की निर्जरा कस्य यथा कणिकादिद्रव्याणां परिमाणवत्त्वम् एवं
या उनका अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है उसे कर्मणोऽपि पुद्गलानां प्रतिनियतप्रमाणता प्रदेशबन्ध
प्रदेशमोक्ष कहते हैं। इति । (स्थाना. अभय. व. २९६)। १५. ये सर्वा- त्मप्रदेशेषु सर्वतो बन्धभेदतः। प्रदेशाः कर्मणोऽनन्ताः
प्रदेशवत्त्व-प्रदेशवत्त्वं तु लोकाकाशप्रदेशपरिमाणसः प्रदेशः स्मृतो बुधैः । (धर्मश. २१-११५) ।
प्रदेश एक आत्मा भवति। (त. भा. सिद्ध. व. १६. अशुद्धान्तस्तत्त्व-कर्मपुद्गलयोः परस्परप्रदेशानु
२-८)। प्रवेशः प्रदेशबन्धः । (नि. सा. वृ. ४०)। २०. त्रया
लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर प्रदेशों वाला जो णां (प्रकृति-स्थित्यनुभागानां) आधारभूताश्च
एक प्रात्मा होता है, यह जीव का प्रदेशवत्त्व गुण है परमाणव: प्रदेशाः । (पंचसं. मलय. वृ. सं. क.
जो साधारण है; क्योंकि वह धर्म-अधर्म द्रव्यों में ३३)। २१. xxx अणुगणना कर्मणां प्रदे
भी पाया जाता है। शश्च ॥ (अन. ध. २-३६)। २२. कर्मपुद्गला- प्रदेशविपरिणामना-जं पदेसग्गं णिज्जिण्णं नामेव यद् ग्रहणं स्थिति-रसनिरपेक्षदलिकसंख्या- अण्णपयडिं वा संकामिदं सा पदेसविपरिणामणा प्राधान्येनैव करोति स प्रदेशबन्धः । उक्तं च- णाम । (धव. पु. १५, पृ. २८४) । Xxx प्रदेशो दलसञ्चयः । (कर्मवि. दे. स्वो. जो प्रदेशपिण्ड निर्जीर्ण हो चुका है या अन्य प्रकृति वृ. २, शतक. दे. स्वो. वृ. २१)। २३. कर्मत्वपरि- में संक्रमण को प्राप्त हो चुका है उसका नाम णतपुद्गलस्कन्धानां परिमाणपरिच्छेदनेन इयत्ताव- प्रदेशविपरिणामना है। धारणं प्रदेशः । (त. वृत्ति श्रुत. ८-३) । २४. x प्रदेशविरच-कर्मपुद्गलप्रदेशो विरच्यते अस्मिXx प्रदेशो देशसंश्रयः । (पञ्चाध्यायी २, निति प्रदेशविरचः, कर्मस्थितिरिति यावत् । अथवा
विरच्यते इति विरचः, प्रदेशश्चासौ विरचश्च प्रदेश१ योगविशेष के द्वारा प्राकर जो सूक्ष्म अनन्त- विरचः विरच्यमानकर्मप्रदेशा इति यावत् । (धव. प्रभव्यों से अनन्तगणे व सिद्धों के अनन्तवें भाग पु. १४, पृ. ३५२)। प्रमाण-कर्मप्रदेश एक एक आत्मप्रदेश पर एक कर्मरूप पुद्गलप्रदेश की जिसमें रचना की जाती है क्षेत्रावगाह रूप से स्थित होते हैं, यह प्रवेशबन्ध उसे प्रदेशविरच कहते हैं, दूसरे शब्द से उसे कर्मकहलाता है। २ ज्ञानावरणादिरूप नाम के कारण- स्थिति कहा जाता है। अथवा रचे जाने वाले कर्म भत अथवा गति-जात्यादिभेदरूप अनेक प्रकार का प्रदेशों को ही प्रदेशविरच समझना चाहिए।
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प्रदेशसंक्रम] ७६४, जन-लक्षणावली
[प्रदेशोदय प्रदेशसंक्रम-१. जं दलियमन्नपगई निज्जइ सो प्रदेशसंहार-विसर्प-कार्मणशरीरवशात् उपात्तसंकमो पएसस्स । उव्वलणो विज्झामो अहापवत्तो सूक्ष्म-बादरशरीरानुवर्तनं प्रदेशसंहार-विसर्पः । अमूगुणो सव्वो। (कर्मप्र. सं. क. ६०)। २. जं पदेस- स्विभावस्याप्यात्मनः अनादिसम्बन्धं प्रत्येकत्वात् ग्गमण्णपडि णिज्जदे जत्तो पयडीदो तं पदेसग्गं कथंचिन्मूर्ततां बिभ्रतः लोकाकाशतुल्यप्रदेशस्यापि णिज्जदि तिस्से पयडीए सो पदेससंकमो। जहा कार्मणशरीरवशात् उपात्तसूक्ष्मशरीरमधितिष्ठतः मिच्छत्तस्स पदेसग्गं सम्मत्ते संछहदि तं पदेसगं शुष्कचर्मवत् संकोचनं प्रदेशसंहारः, बादरशरीरमधिमिच्छत्तस्स पदेससंकमो। (कसायपा. चू. पृ. ३९७)। तिष्ठतो जले तैलवत् विसर्पणं विसर्पः । (त. वा. ३. जं पदेसग्गं अण्णपडि संकामिज्जदि एसो ५, १६, १)। पदेससंकमो। (धव. पु. १६, पृ. ४०८)। ४. बि
र छोटे या बड़े वलण-अहापवत्त-गण-सव्वसंकमेहि अण। जं शरीर का अनसरण करना, अर्थात छोटे शरीर के णेइ अण्णपगई पएससंकामणं एयं ।। (पंचसं. सं. क. अनुसार प्रात्मप्रदेशों का संकुचित होकर उसमें ६८); विध्यातसंक्रम उद्वलनासंकमो यथाप्रवृत्त- रहना तथा बड़े शरीर के अनुसार उक्त प्रात्मसंक्रमो गुणसंक्रमः सर्वसंक्रमश्च एतैः पंचभिः संक्रमः प्रदेशों का विस्तृत होकर रहना, इसे प्रदेशसंहारकर्मपरमाणून यन्नयत्यन्यप्रकृतिम्-तत्स्वरूपेण व्यव- विसर्प कहा जाता है। स्थापयति प्रदेशसंक्रमणमेतदुच्यते । (पंचसं. स्वो, वृ. प्रदेशहस्व-सव्वासि पयडीणं सग-सगजहण्णपदेसे सं. क.६८)। ५. यत्कर्मद्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन बंधमाणस्स पदेसरहस्सं । संतं पडुच्च खविदकम्मपरिणाम्यते स प्रदेशसंक्रमः । (स्थाना. अभय. वृ. ४, सियलक्खणेणागंतूण गुणसेडिणिज्जरं काऊण सव्व२, २९६, पृ. २२२)। ६. यत संक्रमप्रायोग्यं जहण्णीकयपदेसस्स पदेसरहस्सं। (धव. पु. १६, प. दलिकम्-कर्मद्रव्यं अन्यप्रकृति नीयते-अन्यप्रकृति- ५११)। रूपतया परिणाम्यते स प्रदेशसंक्रमः । (कर्मप्र. मलय. जो जीव सब प्रकृतियों के अपने अपने जघन्य प्रदेशों - वृ. सं. क. ६०)। ७. परमाणुसंक्रमो हि प्रदेशसंक्रमो को बांध रहा हो उसके प्रदेशह्रस्व होता है, सत्त्व की भवति । XXX परमाणनां च प्रक्षेपणं प्रदेश- अपेक्षा क्षपितकांशिक स्वरूप से प्राकर गणश्रेणिसंक्रमः । (पंचसं. मलय. वृ. सं. क. ३३); विघ्या. निर्जरा के द्वारा जिसने कर्मप्रदेश को सबसे जघन्य तसंक्रमः, उद्वलनसंक्रमः, यथा प्रवृत्तसंक्रमः, गुणसंक्र- कर दिया है उसके प्रदेशह्रस्व होता है। मः, सर्वसंक्रमश्च एतः पंचभिः संक्रमणरणन-कर्म- प्रदेशान-पदेसग्गा अणंताणता प्रायूगकम्मपोग्गला परमाणून-अन्यां प्रकृति नयति-अन्यस्यां पतद्- जेहिं एगमेगो जीवपदेसो वेढियपरिवेढितो। (उत्तरा. ग्रहप्रकृती नीत्वा निवेशयति यत एतत् कर्मपरमाणूनां चू. ५, पृ. १२६) । विध्यातसंक्रमादिभिरन्यप्रकृती नयनम्-प्रदेशंसक्रमणं प्रायुकर्म के उन अनन्तानन्त पुद्गलों को प्रदेशाग्र प्रदेशसंक्रम उच्यते । विध्यातसंक्रमादिभिरणून अन्य- कहा जाता है जो एक एक जीवप्रदेश को वेष्टित प्रकृति यन्नयति स प्रदेशसंक्रमः । (पंचसं. मलय. वृ. करते हैं। सं. क. ६८)।
प्रदेशावीचिकामरण-आयुःसंज्ञितानां पुद्गलानां १ विवक्षित कर्मप्रकृति का जो कर्मद्रव्य अन्य प्रदेशा जघन्यनिषेकादारभ्य एकादिवृद्धिक्रमेणावप्रकृति को प्राप्त कराया जाता है तद्रूप परिण- स्थितवीचय इव तेषां गलनं प्रदेशावीचिकामरणम् । माया जाता है-यह उसका प्रदेशसंक्रम कहलाता (भ. प्रा. विजयो २५) । है। २ जो प्रदेशपिण्ड जिस प्रकृति से अन्य प्रकृति आयुकर्म सम्बन्धी पुद्गलपरमाणुओं के जघन्यको प्राप्त कराया जाता है उसका वह प्रदेशसंक्रम निषेक से लगाकर एक-दो प्रादि की वृद्धि के क्रम कहलाता है। ६ संक्रमण के योग्य जो कर्मप्रदेशपिण्ड जिस किसी विवक्षित प्रकृति से ले जाकर अन्य गलने या झड़ने को प्रदेशावीचिकामरण कहते हैं। प्रकृति के स्वभाव से परिणमित किया जाता है, उसे प्रदेशोदय-तत्रानुदयवतीनां प्रकृतीनामबाधाकाप्रदेशसंक्रमण कहते हैं।
लक्षये सति दलिकं प्रतिसमयमुदयवतीषु मध्ये स्ति
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प्रदोष ]
बुकसंक्रमेण संक्रमय्य यदनुभवति स ( पंचसं. मलय. वृ. ४८, पृ. २५५) । उदय में नहीं आने वाली प्रकृतियों के प्रबाधाकाल के बीत जाने पर उनके कर्मप्रदेशों को स्तिबुक संक्रमण के द्वारा प्रतिसमय उदय में आने वाली प्रकृतियों में संक्रमित करके प्रमुभव करने को प्रदेशोदय कहते हैं ।
७६५, जैन - लक्षणावली
प्रदेशोदयः ।
प्रदोष- - १. तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते कर्याचदनभिव्याहरतः अन्तः पशून्यपरिणामः प्रदोषः । ( स. सि. ६-१० ) । २. ज्ञान कीर्तनानन्तरमन भिव्याहरतोऽन्तः पशून्यं प्रदोषः । मत्यादिज्ञानपञ्चकस्य मोक्षप्रापणं प्रति मूलसाधनस्य कीर्तने कृते कस्यचित् अनभिव्याहरतः अन्तः पशून्यपरिणामो यो भवति स प्रदोष इति कथ्यते । (त. वा. ६, १०, १ ) । ३. कस्यचित्तत्कीर्तनानन्तरमनभिव्याहरतोऽन्तः पशून्यं प्रदोष: । ( त श्लो. ६-१० ) । ४. सम्यग्ज्ञानस्य सम्यग्दर्शनस्य च सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शनयुक्तस्य पुरुषस्य वा त्रयाणां मध्ये अन्यतमस्य केनचित्पुरुषेण प्रशंसा विहिता, तां प्रशंसामाकर्ण्य अन्यः कोऽपि पुमान् पशून्यदूषितः स्वयमपि ज्ञान-दर्शनयोस्तद्युक्तपुरुषस्य वा प्रशंसां न करोति श्लाघनं न व्याहरति, कत्थनं नोच्चारयते, तदन्तः पशून्यम् अन्तर्दुष्टत्वं प्रदोष उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१० ) ।
१
किसी पुरुष के 'द्वारा मोक्ष के साधनभूत तत्त्वज्ञान के कीर्तत करने पर जो व्यक्ति कुछ भाषण नहीं कर रहा है उसके अन्तःकरण में जो मत्सरभाव या दुष्ट परिणाम उत्पन्न होता है वह प्रदोष कहलाता है ।
प्रद्वेष- इष्टदार - वित्तहरणादिनिमित्तः कोषः प्रद्वेषः । ( भ. प्रा. विजयो. ८०७) ।
प्रिय स्त्री और धन श्रादि के हरण करने के निमित्त से जो क्रोध उत्पन्न होता है, उसका नाम प्रद्वेष है। प्रधानतया नामपद- देखो प्राधान्यपद । से कि तं पाहण्णयाए ? असोगवणे सत्तवण्णवणे चंपगवणे चवणे नागवणे पुन्नागवणे उच्छुवणे दक्खवणे सालिवणे, से तं पाहण्णयाए । (अनुयो. सू. १३०, पृ. १४२) ।
अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक, आन, नाग, पुन्नाग, इक्षु, द्राक्षा और शालि आदि की प्रधानता से जो अशोकवन व सप्तपर्णवन इत्यादि नाम बोले जाते हैं,
[प्रपातनकुशील
उन्हें प्रधाननामपद कहा जाता है।
प्रधानद्रव्यकाल - तत्थ पहाणदव्वकालो णाम लोगागासपदेसपमाणो से सपंचदव्वपरिणमनहेदुभूदो रयणरासि व्व पदेसपचयविरहियो प्रमुत्तो प्रणाइणिहणो । ( धव. पु. ११, पृ. ७५) ।
जो लोकाकाश के समान असंख्यात प्रदेश प्रमाण है, शेष पांच द्रव्यों के परिवर्तन का कारण है, रत्नों की राशि के समान प्रदेशसमूह से रहित है तथा अमूर्त व अनादि निधन है उसे तद्व्यतिरिक्त नोश्रागम प्रधान द्रव्यकाल कहा जाता है । प्रधानभावशुद्धि१-१. दंसण-नाण-चरिते तवोविसुद्धी पहाण माएसो । जम्हा उ विसुद्ध मलो तेण विसुद्ध हवइ सुद्धो || ( दशवं. नि. २८७ ) । २. दर्शन -ज्ञान- चारित्रेषु दर्शन - ज्ञान - चारित्रविषयातथा तपोविशुद्धिः प्राधान्यादेश इति यद्दर्शनादीनामादिश्यमानानां प्रधानं सा प्रधानभावशुद्धिः । ( दशवं. नि. हरि वृ. २८७ ) ।
२ दर्शन, ज्ञान एवं चारित्रविषयक शुद्धि और तप की शुद्धि को प्रधानता की अपेक्षा से प्रधानभावशुद्धि कहा जाता है । प्रधानता जैसे - क्षायोपशमिक की अपेक्षा क्षायिक दर्शनादि के तथा तप में अभ्यन्तर तप के श्राराधन को प्रधानता प्राप्त है। इससे साधु निर्मल होता है ।
प्रध्वंसाभाव - १. कार्यस्यैव x x x परेण ( कालेन ) विशिष्ट : ( अर्थः) प्रध्वंसाभाव: । (प्रष्टस. १ - १०, पृ. ε६) । २. यदुत्पत्तौ कार्यस्यावश्यं विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसाभावः । (प्र. न. त. ३ - ५७ ) । ३. नास्तिता पयसां दध्नि प्रध्वंसाभावलक्षणम् । ( प्रमाल. ३८५) ।
१ प्रागामी काल से अगली पर्याय से विशिष्ट जो कार्य है वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है । ३ दही मैं जो दूध का प्रभाव है वह प्रध्वंसाभाव स्वरूप है। प्रपातनकुशील- त्रसानां कीटादीनां वृक्षादीनां पुष्प फलादीनां गर्भस्य परिशातनं अभिसारिकं च यः करोति शापं च प्रयच्छति स प्रपातनकुशीलः । (भ. श्री. विजयो. १६५० ) ।
जो त्रस जीवों; वृक्षादिकों और पुष्प फलादिकों के गर्भ का विनाश करता है, श्रभिसरण क्रिया ( प्रियसमागम ) को करता है, तथा शाप देता है उसे प्रपातनकुशील कहा जाता है ।
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प्रबन्धनकाल ]
[ प्रभावना भव्वाणं पयासदे विमलं । अप्पाणं पि पयासदि णाणेण पहावणा तस्स ।। ( कार्तिके. ४२२ ) ।
प्रबन्धनकाल - वक्कमणावक्कमणकालाणं समासो पबंधणकालो णाम । ( धव. पु. १४ पु. ४८० ) ; प्रबध्नन्ति एकत्वं गच्छन्ति अस्मिन्निति प्रबन्धनः, प्रबन्धनश्चासौ कालश्च प्रबन्धनकाल: । ( धव. पु. १४, पृ. ४८५) ।
८.
वक्रमाण ( उत्पत्ति) और अवक्रमण कालों के योग को प्रबन्धनकाल कहते हैं ।
सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्ररत्नत्रय प्रभावादात्मनः प्रकाशनमथवा ज्ञान-तपः पूजासु ज्ञान - दिनकरकिरणैः परसमय-खद्योता [ तो ] द्योतावरणकरणं च, महोपवासादिलक्षणेन देवेन्द्र विष्टरप्रकंपनसमर्थेन सत्तपसा स्वसमयप्रकटनं च महापूजा - महादानादिभिर्धर्मप्रकाशनं च प्रभावना । (चा. सा. पृ. ३) । ६. निरस्तदोषे जिननाथशासने प्रभावनां यो विदधाति भक्तितः ।
प्रबोध - प्रबोधः तस्मात् ( स्वापात् ) उत्थितचित्तदशा । ( सिद्धिवि. वृ. १ - २३, पृ. १०० ) ।
सोते से उठने पर जो चित्त की अवस्था होती है उसे तपोदया- ज्ञान महोत्सवादिभिः प्रभावकोऽसौ गदितः
सुदर्शनः ॥ ( श्रमित था. ३-८८ ) । १०. निश्चयेन ( धव. पु. पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावनागुणस्य बलेन मिथ्यात्व - विषय - कषायप्रभृतिसमस्त विभावपरिणामरूपपरसमयानां प्रभावं हत्वा शुद्धोपयोगलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन विशुद्धज्ञान- दर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव प्रभावना । (बृ. द्रव्यसं. ४१ ) । ११. त्रिरत्नैरात्मनः सम्यग्भावनं स्यात् प्रभावनम् । सद्धर्मस्य प्रकाशो वा सम्यग्ज्ञानादिभिर्गुणैः ॥ ( प्राचा. सा. ३-६६ ) । १२. प्रभाव्यते मार्गोऽभव वाद- पूजा-दान- व्याख्यान - मंत्र-तंत्रादिभिः सम्यगुपदेर्शमिथ्यादृष्टिरोधं कृत्वार्हत्प्रणीतशासनोद्योतनम् । ( मूला. वृ. ५-४ ) । १३ प्रभावना च स्वतीर्थोनतिहेतुचेष्टासु प्रवर्तनम् । (उत्तरा ने. वृ. २८, ३१) । १४. प्रभवति जैनेन्द्रशासनम्, तस्य प्रभवतः प्रयोजकत्वं प्रभावना । (योगशा. स्वो विव. २-१६) । १५. मिथ्या - तमस्त्वपाकृत्य सद्धर्मोद्योतनं परम् । क्रियते शक्तितो वाढं सैषा प्रभावना मता ।। ( rai. वाम. ४१७ ) । १६. सम्यग्दर्शन - ज्ञानचारित्र- तपोभिरात्मप्रकाशनं जिनशासनोद्योतकरणं वा प्रभावना । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४) । १७. सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र- तपोभिः श्रात्मप्रकाशनं सुतपसा स्वसमय प्रकटनं महापूजा - महादानादिभिः धर्म प्रकाशनं च जिनशासनोद्योतकरणं सम्यक्त्वस्य प्रभावना । ( कार्तिके. टी. ३२६) ।
१ धर्मकथा से - तिरेसठ शलाकापुरुषों के चरित्र अथवा पुण्य-पाप के स्वरूप के कथन से, निर्दोष श्रांतापन श्रादि बाह्ययोगों से तथा प्राणिदया के द्वारा धर्मको प्रकाश में लाना है; इसे प्रभावना कहा जाता है। यह सम्यग्दर्शन का एक (भ्राठवां ) श्रंग है । २ संसार में फैले हुए अज्ञानान्धकार के प्रसार
७६६, जैन-लक्षणावली
प्रबोध कहा जाता है ।
प्रभा - शरीरान्निर्गतरश्मिकला प्रभा । १४, पृ. ३२७) ।
शरीर से निकलती हुई किरणकला का नाम प्रभा है ।
प्रभाव - १. शापानुग्रहलक्षणः प्रभावः । शापोऽनिष्टापादनम्, अनुग्रहः इष्टप्रतिपादनम्, तल्लक्षणः प्रवृद्धो भावः प्रभाव इत्याख्यायते । (त. वा. ४, २०, २) । २. शापानुग्रहलक्षणः प्रभावः । (त. इलो. ४-२० ) । ३. प्रभावो निग्रहानुग्रहसामर्थ्यम् । (ष. बि. मु. वृ. ७-८, पृ. ८७ त. वृत्ति श्रुत ४-२०) ।
१ शाप और अनुग्रह — अनिष्ट और इष्ट के प्रति पादन - रूप प्रबुद्ध भाव का नाम प्रभाव है । ३ निग्रह और अनुग्रह की शक्ति को प्रभाव कहा जाता है।
प्रभावना --१. धम्मकहाकहणेण य बाहिरजोगेहिं चावि णवज्जेहिं । धम्मो पहाविदव्वो जीवेसु दयाणुकंपाए ।। ( मूला. ५ - ६७ ) । २. अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना || ( रत्नक. १-१८ ) । ३. सम्यग् - दर्शन - ज्ञान चारित्ररत्नत्रयप्रभावेनात्मनः प्रकाशनं प्रभावनम् । (तं. वा. ६, २४, ९) । ४ प्रभावना धर्मकथादिभिस्तीर्थख्यापना। (बशवं. नि. हरि. वृ. १८२, पृ. १०३ . बि. मु. वृ. २- ११; धर्मसं. मान. १, पृ. २० ) । ५ प्रभावनं माहात्म्य प्रकाशनं रत्नत्रयस्य तद्वतां वा । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. ४५ ) । ६. आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दान-पोजिनपूजा - विद्यातिशयश्च जिनधर्मः ॥ ( पु. सि. ३० ) । ७. जो दसभेयं धम्मं
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प्रभु]
७६७, जैन-लक्षणावली
[प्रमत्तविरत
- को दूर करके यथायोग्य जिनशासन के माहात्म्य बन्धादिभेदास्तत्परिणत अात्मा प्रमत्तः । इन्द्रियाणि के फैलाने को प्रभावना कहते हैं। ३ रत्नत्रय के स्पर्शनादीनि, तद्द्वारको राग-द्वेषौ, समासादिततत्पप्रभाव से प्रात्मा को प्रकाशित करना, इसका नाम रिणतिरात्मा प्रमत्तः। स्पर्शनादिनिमित्तभेदात् कषाया प्रभावना है। ४ धर्मकथादिकों के द्वारा धर्म- एव प्रमादहेतुत्वेनोपन्यस्ताः। प्रमादश्चात्मनः परितीर्थ को ख्यापित करना-उसे प्रसिद्धि में लाना णामः कषायादिनिमित्तः । दर्शनावरणकर्मोदयात् या प्रचार करना, यह प्रभावना कहलाती है। स्वापो निद्रा पञ्चप्रकारा, तत्परिणामांच्च पीतहप्रभु-१. स प्रभुर्यो बहून् बिभति, किमर्जुनतरोः त्यूरपित्तोदयाकुलितान्तःकरणः पुरुषबदन्धो मूढः करफलसम्पदा या न भवति परेषामुपभोग्या। (नीति- चरणविक्षेपशरीरपर्यवसानक्रियाः कुर्वन् प्रमत्तः । वा. ३२-३१, पृ. ३६१)। २. घाईकस्मखयादो (आसवो) मद्यं मधुवार-शीधु-मदिरादि, तदभ्यवहारे केवलणाणेण विदिदपरमट्ठो । उवदिट्ठसयलतच्चो सत्यागतमूर्च्छ इव विह्वलतामुपेतः प्रमत्तोऽभिधीयते। लद्धसहावो पह होई ॥ (द्रव्यस्व. प्र. नयच. १०७)। विकथा स्त्री-भक्त-जनपद-राजवत्तान्तप्रतिबद्धा; राग३. प्रभुरिन्द्रादीनां स्वामी। (समाधि. टी. ६)। द्वेषाविष्टचेताः स्यादिविकथापरिणतः (प्रमत्तः)। १ जो बहुतों को धारण करता है उनका भरण- (त. भा. सिद्ध. वृ. ७-८)। ३. इन्द्रिय-कषायपोषण करता है-वह प्रभु कहलाता है। यह ठीक निग्रहमकृत्वा प्रमत्त इव यः प्रवर्तते स प्रमत्तः। (चा. भी है-उस अर्जन वृक्ष की फलसम्पत्ति से क्या सा. प्र. ३८)। ४. विकथाक्ष-कषायाणां निद्रायाः लाभ है जो दूसरों के उपभोग के योग्य न हो? प्रणयस्य च । अभ्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्तः परि२ घातिकर्मों के क्षय से प्राप्त केवलज्ञान के द्वारा कीर्तितः ॥ (उपासका. ३१६) । ५. विगहा-कसायतत्त्व को जानकर जो समस्त पदार्थों का उपदेश निद्दा-सद्दाइरो पमत्तोत्ति । (शतक. भा. ८७)। देता है उस परहन्त देव को प्रभु कहते है। ६. प्रमाद्यन्ति स्म मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः संज्वप्रभुप्राच्छेद्य-देखो आच्छेद्य दोष। प्रभुर्गहादि- लनकषाय-निद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयम-योगेषु नायकः, अन्येषां दरिद्रकौटुम्बिकानां बलाद्दातुमनी- सीदन्ति स्म इति प्रमत्ताः। (नन्दी. सू. मलय. वृ. प्सितामपि यद्देयं ददाति, तत्प्रभुपाच्छेद्यम् । (जीत- १३; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २७३, पृ. ४२४; पंचसं. क. चू. वि. व्या. १५-२०, पृ. ४६)।
मलय. वृ. १-१५, पृ. २१)। ७. विकथादिरतो प्रभु का अर्थ गृह का स्वामी है। जो गृहस्वामी यत्र यतिः स्यात् स प्रमत्तकः । (सं. प्रकृतिवि. जय. अन्य कुटुम्बी जनों के-जो कि देने के इच्छुक नहीं १०)। है-देय द्रव्य को बलपूर्वक लेकर देता है, यह १ जो इन्द्रियों के संचारविशेष का निश्चय न करके प्रभुप्राच्छेद्य नाम का उद्गमदोष है।
प्रवृत्त होता है उसे प्रमत्त कहा जाता है । अथवा मद्यप्रमत्त-१. अनवगृहीतप्रचारविशेषः प्रमत्तः । पायी (शराबी) मनुष्य जिस प्रकार कार्य-अकार्य इन्द्रियाणां प्रचारविशेषमनवधार्य प्रवर्तते यः स और वाच्य-अवाच्य को नहीं जानता है उसी प्रकार प्रमत्तः । अभ्यन्तरीकृतेवार्थो वा। अथवा अभ्यन्तरी- जो जीवों के स्थान, योनि और पाश्रयविशेषों को न कृतेवार्थः प्रमत्त इत्युच्यते। कः पुनरुपमार्थः ? यथा जानकर कषाय के वशीभूत होता हा हिंसा के सुरापः प्रवृद्धमदत्वात् कार्याकार्य-वाच्यावाच्याद्यन- कारणों में स्थित रहता है और अहिंसा में उद्यत भिज्ञः, तथा जीवस्थान-योन्याश्रयविशेषानविद्वान् नहीं होता है वह प्रमत्त कहलाता है। अथवा कषायोदयाविष्ट: हिंसाकारणेषु स्थितः अहिंसायां विकथादि पन्द्रह प्रमादों से जो परिणत ढोता है सामान्येन न यतत इति प्रमत्तः । पञ्चदशप्रमाद- उसे प्रमत्त समझना चाहिए। परिणतो वा । अथवा चतसृभिः विकथाभिः कषाय- प्रमत्तविरत-देखो प्रमत्तसंयत । संजलण-णोकसाचतुष्टयेन पञ्चभिरिन्द्रियः निद्रा-प्रणयाभ्यां च परि- याणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादों णतो यः स प्रमत्त इति कथ्यते । (त. वा. ७, १३, वि य तम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥ (गो. जी. ३२)। १-३) । २. प्रमाद्यतीति प्रमत्तः कषाय-विकथेन्द्रियः संज्वलन कषायों और हास्यादि नोकषायों के निद्रासनिमित्तभूतः। तत्र कषायाः षोडशानन्तानु- उदय से यद्यपि संयम तो होता है, पर उसे मलिन
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प्रमत्तसंयत] ७६८, जैन-लक्षणावली
[प्रमाण करने वाला प्रमाद भी साथ में रहता है। इसीलिए नां नोकषायाणां च हास्य-रत्यरति-शोक-भयजुगुत्सा उसे प्रमत्तविरत या प्रमत्तसंयत कहते हैं।
स्त्री-पंनपुंसकवेदानां तीवोदयात् यस्य संयमः सकलप्रमत्तसंयत-१. वत्तावत्तपमाए जो वसइ पमत्त- चारित्रं मलजननप्रमादोऽपि च भवेत्तस्मात् कारसंजो होइ। सयलगुण-सीलकलियो महन्वई चित्त- णात् प्रमादरांयमवान् स जीवः खलु स्फुट प्रमत्तविरतो लायरणो । (प्रा. पंचसं. १-१४; धव. पु. १, पृ. भवति) संज्वलनकषाय-नोकषायाणां सर्वघातिस्पर्द्ध१७८ उद्; भावसं. ६०१, गो. जी. ३३)। कोदयाभावलक्षणक्षये द्वादशकषायाणामनुदयप्राप्त२. परिप्राप्तसंयमः प्रमादवान् प्रमत्तसंयतः। अन- संज्वलननोकषायनिषेकाणां च सदवस्थालक्षणोपशमे न्तानुवन्धिकषायेषु क्षीणेष्वक्षीणेषु वा प्राप्तोदयक्षयेषु च संज्वलन-नोकषायदेशघातिस्पर्द्धकतीव्रोदयात् संयमो अष्टानां च कषायाणां उदयक्षयात् तेषामेव सदुप- मलजननप्रमादश्चोत्पद्यते, तस्मात्कारणात् प्रमत्तशमात् संज्वलन-नोकषायाणाम् उदये संयमलब्धि- श्चासौ विरतश्चेति स षष्ठगुणस्थानवर्ती जीवःप्रमत्तर्भवति । तन्मूलसाधनोपपादितोपजननं बाह्यसाधन- संयत इत्युच्यते । (गो. जी. जी. प्र. ३२)। सन्निधानाविर्भावमापद्यमानं प्राणेन्द्रियविषयभेदात् १ जो व्यक्त (स्थूल) और अव्यक्त (सूक्ष्म) द्वितीं वृत्तिमास्कन्दन्तं संयमोपयोमात्मसात्कुर्वन् प्रमाद में वर्तमान होता हुमा सम्यक्त्व प्रादि समस्त पञ्चदशविधप्रमादवशात् किञ्चित्प्रस्खलितचारित्र- गुणों व व्रतरक्षक शीलों से सहित होकर महावतों परिणामः प्रमत्तसंयत इत्याख्यायते । (त. वा., का पालन करता है उसे प्रमत्तसंयत कहते हैं। १, १७) । ३. प्रकर्षेण मत्ताः प्रमत्ताः, सं सम्यक्, प्रमाद से सहित होने के कारण उसका प्राचरण यता: विरताः, प्रमत्ताश्च ते संयताश्च प्रमत्तसंयताः। चित्रल (चीता) के समान विचित्र होता है-वह (धव. पु. १, पृ. १७५-७६) । ४. प्रमत्तसंयतो हि विशुद्ध नहीं होता। २ जो संयम को प्राप्त करके स्यात् प्रत्याख्याननिरोधिनाम् । उदयक्षयतः प्राप्तः भी विकथादि प्रमादों से युक्त होता है वह प्रमत्तसंयमद्धि प्रमादवान् ॥ (त. सा. २-२३)। ५. न संयत कहलाता है। यस्य प्रतिपद्यन्ते कषाया द्वादशोदयम् । व्यक्ताव्यक्त- प्रमदा-पुरिसं सदा पमत्तं कुणदि त्ति य उच्चदे प्रमादोऽसौ प्रमत्तः संयतः स्म्तः ॥ (पंचसं. अमित. पमदा। (भ. प्रा. ९७८) । १-२८) । ६. स एव सदृष्टि—लिरेखादिसदृशक्रो- जो पुरुष को निरन्तर प्रमादयुक्त-कामोन्मत्तधादितृतीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेन करती है उसका नाम प्रमदा (स्त्री) है। रागाद्युपाधिरहितस्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृता- प्रमाण-१. बिधिर्विषक्तप्रतिषेधरूपः प्रमाणनुभवलक्षणेषु बहिविषयेषु पुनः सामस्त्येन हिंसानृत- xxx । (स्वयम्भू. ५२); परस्परेशान्वयभेदस्तेयाब्रह्म-परिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु च पंचमहाव्रतेषु लिङ्गतः प्रसिद्धसामान्य-विशेषयोस्सव । समग्रतास्ति वर्तते यदा तदा दुःस्वप्नादिव्यक्ताव्यक्तप्रमादसहितो- स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धि लक्षणम् ।। ऽपि षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयतो भवति । (ब. (स्वयम्भू. ६३)। २. तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपद्रव्यसं. टी. १३, पृ. २८) । ७. प्रमत्तसंयतः प्राप्त- त्सर्वभासनम् । (प्राप्तमी. १०१)। ३. प्रमाणं स्वसंयमो यः प्रमाद्यति ॥३३॥ (योगशा. स्वो. विव. पराभासि ज्ञानं बावविवजितम् । (न्यायाव. १; १-१६, पृ. १११ उद्.) । ८. विगहा-कसाय-निद्दा- प्रमाल. १); प्रमाणं स्वान्यनिश्चायि द्वयसिद्धी सद्दाइरो भवे पमत्तो त्ति । (शतक. भा. ६-८७, प्रसिद्धयति ।। (न्यायाव. ७) । ४. प्रमीयतेऽनेनेति पृ. २१; गु. गु. षट्. स्वो. वृ. १७, उद्.)। प्रमप्णम् । (उत्तरा. चू. १, पृ. ११)। ५. प्रमी
यत इति प्रमाणं प्रमितिर्वा प्रमाणं प्रमीयतेऽनेनेति स्पर्द्धकोदयाभावलक्षणे क्षये तेषामेव सदवस्थालक्षणे प्रमाणम् (अनुयो. च. पृ. ५०)। ६. ज्ञानं प्रमाणउपशमे च सति सकलसंयमो भवति, तेषां देशघाति- मात्मादेः xxx । (लघीय. ५२); तदुभयात्मास्पर्द्धकतीव्रोदयात् संयममलजननप्रमादोऽपि भवति । र्थज्ञानं प्रमाणम् । (लघीय. स्वो. बृ. ४८), प्रमाणं (गो. जी. म. प्र. ३२)। १०. यस्मात्करणात् त्रिकालगोचरसर्वजीवादि-पदार्थनिरूपणम् । (लघीय. संज्वलनदेशधातिस्पर्द्धकानां क्रोध-मान-माया-लोभा- स्त्रो.व. ७३) । ७. ज्ञानं प्रमाणमित्याहः Xx
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प्रमाण]
७६६, जैन-लक्षणावली
[प्रमाण
X । (सिद्धिवि. १०-२); यथास्वं प्रमेयस्य व्यव- (परीक्षा. १-१) । २१. प्रकर्षण हि संशयादिव्यसायो यतस्तदेव स्वत: प्रमाणम् । ज्ञानं प्रमाणम् वच्छेदलक्षणेन मीयते अव्यवधानेन परिच्छिद्यते येनाXxx I सिद्धिवि. स्वो. वृ. १-३, पृ. १२); र्थः तत्प्रमाणम् । (न्यायकु. १-३, पृ. २८ व १-३, सिद्धं यन्न परापेक्षं सिद्धौ स्व-पररूपयोः । तत् प्रमाणं प.४८) । २२. क्षयोपशमविशेषवशात् स्व-परप्रमे Xxx॥ (सिद्धिवि. १-२३); तद यतः यस्वरूपं प्रमिमीते यथावज्जानातीति प्रमाणमात्मा । सम्पद्यते तत्प्रमाणम् । (सिद्धिवि. स्वो. वृ. १-२३, Xxx साधकतमत्वादिविवक्षायां तु प्रमीयते येन पृ.६६); तस्मादिदं स्पष्ट व्यवसायात्मकं ज्ञानं तत्प्रमाणं प्रमितिमात्रं वा, प्रतिबन्धकापाये प्रादुभूर्तस्वार्थसन्निधानान्वय-व्यतिरेकानुविधायि प्रतिसंख्या- विज्ञानपर्यायस्य प्राधान्यनाश्रयणात् प्रदीपादेः प्रभाभानिरोध्यविसंवादकं प्रमाणं युक्तम् । (सिद्धिवि. स्वो. रात्मकप्रकाशवत् । (प्र.क.मा. प. ४); मा अन्तरंगवृ. १-२५, पृ. ११२)। ८. तथा चोक्तम्-अर्थ- बहिरंगानन्तज्ञान-प्रातिहार्यादिश्रीः, अण्यते शब्द्यते स्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं xxx । तदनेकान्त- येनार्थोऽसावाणः शब्दो मा चाणश्च माणी, प्रकृष्टौ प्रतिपत्तिः प्रमाणम् । (अष्टश. १०६) । ६. प्रमी- महेश्वराद्यसम्भविनौ माणौ यस्यासौ प्रमाणो भगवान् यत इति प्रमितिर्वा प्रमीयते वाऽनेनेति प्रमाणम् । सर्वज्ञो दृष्टेष्टाविरुद्ध वाक् च । (प्र. क. मा. पृ. ७); (अनुयो. हरि. व. पृ. ७५); प्रमितिः प्रमीयतेऽनेन परनिरपेक्षतया वस्तुतथाभावप्रकाशकं हि प्रमाणम् । प्रमा[मि] णोतीति वा प्रमाणम् । (अनुयो. हरि. (प्र.क.मा. १-३, पृ. २७) । २३. सम्यग्ज्ञानं प्रमावृ. १, ६६)। १०: निर्बाधबोधविशिष्ट: आत्मा णम् । (प्रमाणनि. पृ.१) । २४. प्रमाणम् अवितथप्रमाणम् । (धव. पु. ६, पृ. १४१); अथवा प्रधा- निर्भासं ज्ञानम् । (न्यायवि. विव. १-५०, पृ. नीकृतबोधः पुरुषः प्रमाणम् । (धव. पु. ६, पृ. ३१२) । २५. गेण्हइ वत्थुसहावं अविरुद्धं सम्मरूव १६४) । ११. प्रमाणं सकलादेशि Xxx। जंणाणं । भणियं खु तं पमाणं पच्चक्ख-परोक्खभे(त. श्लो. १, ६, ३)। १२. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । एहिं ।। (द्रव्यस्व. प्र. नयच. १६६) । २६. प्रमी(प्रमाणप. पू. ५१); प्रमाणलक्षणं व्यवसायात्मकं यतेऽनेनेति प्रमाणं स्व-परावभासकं ज्ञानम् । सम्यग्ज्ञानम् । (प्रमाणप. पृ. ६३) । १३. स्वार्थ- (पा. मी. वसु, वृ. १२); अनेकान्तप्रतिपत्तिः प्रमाव्यवसायात्मकं तत्त्वज्ञानं प्रवृद्धं मानं प्रमाणमिति। णम् । (प्रा. मी. वसु. व. १०६)। २७. प्रमितिः (युक्त्यनु. टी. पृ. १०)। १४. प्रमीयतेऽनेन तत्त्व- प्रमीयते वा-परिच्छिद्यते येनार्थस्तत्प्रमाणम् ।(स्थामिति प्रमाणम् । Xxx प्रमिणोत्यवगच्छतीति ना. अभय.व. ४, १, २५८)। २८. स्व-परव्यवसायि प्रमाणम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६)। १५. प्रमीयते ज्ञानं प्रमाणम् । (प्र. न. त. १-२); प्रकर्षण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम्। सन्देहाद्यपनयनस्वरूपेण मीयते परिच्छिद्यते वस्तु येन (सिद्धि. वि. वृ. १-२३, पृ. ६७); स्वतो यतः तत्प्रमाणम् । (स्याद्वादर. १-१) । २६. अदुष्टप्रमेयव्यवसायस्तत्प्रमाणम् । (सिद्धि. वि. द. १, कारणारब्धं प्रमाणं XXX । (त्रि. श. पु. च. ४२); स्व-परव्यवसायस्वभावज्ञानं प्रमाण मित्यर्थः । २, ३, ४४३) । ३०. सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् । (सिद्धि वि. वृ. ३, पृ. (लि.) ५२२)। १६. सक- (प्रमाणमी. १-२) । ३१. प्रमाणं स्व-परव्यवसायि लवस्तुग्राहक प्रमाणम्, प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्तु- ज्ञानम् । (रत्नाकराव. १-२, पृ. १२)। ३२. तत्त्वं येन ज्ञानेन तत्प्रमाणम् । (आलापप. प. प्रमाणं च तदभिधीयते येन वस्तु परिच्छिद्यते;प्रमी१४५) । १७. सम्यग्ज्ञानात्मकं तत्र प्रमाणमुपणि- यते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति प्रमाणमिति व्युत्पत्तेः । तम् । (त. सा. १-१५)। १८.xxx प्रमाणं (प्राव. नि. मलय. वृ. ७५८, पृ. ३७८)। ३३. स्वार्थनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानमिति । (सन्मति. अभय. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । (न्यायदी. पृ. ६)। ३४. स्ववृ. २-१, पृ. ५१८)। १६. प्रमीयते परिच्छद्यते- परव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणमिति प्रकर्षेण संशयाभावऽनेनेति प्रमाणम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. २८, पृ. स्वभावेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तु येन तत्प्रमाणम् । १४)। २०. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । (षड्द. स. वृ. ५४, पृ. २०३); यद्यथैवाविसंवादि
ल.६७
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प्रमाण ७७०, जैन-लक्षणावली
प्रमाणपद प्रमाणं तत्तथा मतम् । (षड्द., स. वृ. ५५, पृ. प्रमाणकालो अहोरत्तं ॥ (प्राव. नि. मलय. वृ. २११, उद) । ३५. प्रमाणं सम्यग्ज्ञानम् । (प्रमाल. वृ. ३९५) । ३६. प्रमाणं च स्वपरावभासि ज्ञानम् । १पल्योपम, सागरोपम, उत्सपिणी अवसर्पिणी और (स्या. मं. १७); प्रमाणं तु सम्यगर्थनिर्णयलक्षणं कल्प प्रादि के भेद से प्रमाणकाल बहुत प्रकार का सर्वनयात्मकम् । (स्या. मं. २८)। ३७. प्रकर्षेण है। २ जिसके प्राश्रय से सौ वर्ष और पल्योपम संशय-विपर्यासानध्यवसायव्यवच्छेदेन मिमीते जानाति आदि का परिज्ञान होता है वह प्रमाणस्वरूप काल स्व-परस्वरूपम्, मीयतेऽनेनेति मितिमात्र वा प्रमाण- प्रमाणकाल कहलाता है। मिति व्युत्पत्तेः । (लघीय. अभय. वृ., पृ. ७)। प्रमाणगव्यूति-द्विसहस्रदण्डमपिता एका प्रमाण३८. अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति xxxr गब्यूतिः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८)। (पंचाध्या. १-५४१); विधिपूर्वः प्रतिषेधः प्रति- दो हजार धनुष प्रमाण मापविशेष को एक प्रमाणषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयोः । मैत्री प्रमाणमिति वा गव्यूति कहते हैं। स्व-पराकारावगाहि यज्ज्ञानम् ॥ (पञ्चाध्या. १, प्रमाणदोष--१. अदिमत्तो पाहारो पमाणदोसो ६६५)। ३६. सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणम्, प्रमीयते हवदि एसो। (मला. ६-५७)। २. द्वात्रिंशत्कवलपरिच्छिद्यते येन ज्ञानेन तत्प्रमाणम् । (कातिके. प्रमाणातिरिक्तमाहारयतः प्रमाणदोषः। (प्राचारा. टी. २६१) । ४०. प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं सू. शी. वृ. २, १, २७३, पृ. ३२१) । ३. अन्नेनार्द्ध येन तत्प्रमाणम् (समय. क. टी. ६)। ४१. सप्त- तृतीयांशं कुक्षेः पानेन पूरयेत् । वायोः सुखप्रचारार्थं भङ्ग्यात्मक वाक्यं प्रमाणं पूर्वबोधकृत् । (नयोप. चतुर्थमवशेषयेत् ।। प्रमाणादतिरिक्तोऽस्मात् प्रमाणा६) ४२. स्व-परव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । (जैनत. गो भवेद्यतः । ध्यानाध्ययनभंगाति-निद्रालस्यादयों
ऽगिनः ॥ (प्राचा. सा. ८, ५५-५६)। ४. कुक्षेरर्ध१ प्रतिषेधरूप से सम्बद्ध (सापेक्ष) विधि को प्रमाण मंशमन्नेन पूरयेत्, तृतीयमंशं कुक्षेः पानेन पूरयेत्, कहा जाता है। स्व और पर के प्रकाशित करने कुक्षेश्चतुर्थमंशं वायोः सुखप्रचारार्थमवशेषयेत् रिक्तं वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। ३ स्व और पर रक्षेत्, अस्मात् प्रमाणादतिरेकोऽधिकग्रहणं प्रमाणके प्रकाशक निर्बाध ज्ञान को प्रमाण जानना दोषः । (भावप्रा. टी. 8) चाहिये । ६ अात्मा आदि के ज्ञान को-जीव-पुद्ग- १ अत्यधिक प्राहार के ग्रहण करने से प्रमाणसादि के अथवा स्व और अर्थ के ज्ञान को-प्रमाण दोष होता है। २ बत्तीस ग्रास प्रमाण प्राहार से कहा जाता है।
अधिक होने पर वह प्रमाणदोष से दूषित होता है। प्रमाणकाल-१. प्रमाणकालो पल्लोवम-सागरो- ३ साधु अपने उदर के अर्ध भाग को अन्न से और चम-उस्सप्पिणी-योसप्पिणी-कप्पादिभेदेन बहुप्पयारो। तृतीय भाग को जल से भरे, शेष चतुर्थ भाग को (घव. पु. ११, पृ.७७)। २. प्रमीयते परिच्छिद्यते वायु के संचार के लिए खाली रखे। यह साधु के येन वर्षशत-पल्योपमादि तत्प्रमाणम्, तदेव कालः आहार का प्रमाण है। इस प्रमाण का उल्लंघन प्रमाणकालः, स च अद्धाकालविशेष एव दिवसादि- करके उससे अधिक पाहार करने पर वह आहार लक्षणो मनुष्यक्षेत्रान्तवर्तीति । उक्तं च-दुविहो सम्बन्धी प्रमाणदोष का भागी होता है। प्रमाणकालो दिवसप्रमाणं च होइ राई य। चउपो- प्रमाणपद -- प्रमाणपदानि शतं सहस्रं द्रोणः रिसियो दिवसो राई चउपोरिसी चेव ॥ (स्थाना. खारी पलं तुला कर्षादीनि । (धव. पु. १, पृ.७७); अभय.व. ४, १, २६४) । ३. प्रमाणकालः अद्धा- सदं सहस्समिच्चादीणि पमाणपदणामाणि। (धव. कालविशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः । (प्राव. नि. पु. ६, पृ. १३६); अट्ठक्खरणिप्फण्णं पमाणपदं । मलय. व. ६६०); अद्धाकालविशेष एव मनुष्य- (धव. पु. १३, पृ. २६६; जयध. १, पृ.६०)। लोकान्तर्वर्ती विशिष्टव्यवहारहेतुरहर्निशारूपः प्रमा- सौ, हजार, द्रोण, खारी, पल, तुला और कर्ष प्रादि णकालः। तथा च प्राह भाष्यकृत्-प्रद्धाकाल- प्रमाणपद माने जाते हैं। पाठ अक्षरों का एक विसेसो पत्थयमाणं व माणुसे खेत्ते । सो संववहारत्थं प्रमाणपद-लोक का एक चरण-होता है।
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प्रमाणप्राप्त आहार] ७७१, जैन-लक्षणावली
[प्रमाणागुल प्रमाणप्राप्त आहार-देखो अवमोदर्य व प्रमाण- प्रतिपादक - सप्तभंगी को प्रमाणसप्तभंगो कहा दोष । १. बत्तीसं किर कवला आहारो कुक्खि- जाता है। पूरणो होइ । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं हवे प्रमाणसंप्लव-प्रमाणसंप्लव एकत्रार्थ प्रवृत्तिरकवला ।। (भ. प्रा. २११)। २. प्रमाणप्राप्त प्रा- नेकप्रमाणस्य । (अष्टस. यशो. वृ. २, पृ. ५)। हारो द्वात्रिंशत्कवला: । (योगशा. स्वो. विव. ४, एक ही पदार्थ के विषय में अनेक प्रमाणों की ९६, पृ. ३११)।
__ प्रवृत्ति को प्रमाणसंप्लव कहते हैं। १ पुरुष का प्रमाणप्राप्त प्राहार बत्तीस ग्रास प्रमाणसंवत्सर--१. युगस्य प्रमाणहेतुः संवत्सर प्रमाण और महिला (स्त्री) का अट्ठाईस ग्रास प्रमाणसंवत्सरः। (सूर्यप्र. मलय, वृ. १०, १६, प्रमाण होता है।
५४, पृ. १५४)। २. प्रमाणं परिमाणं दिवसादीनाम्, प्रमाणप्राप्तात् किंचिदनौनोदर्य-देखो प्रमाण- तेनोपलक्षितो वक्ष्यमाण एव नक्षत्रसंवत्सरादिः प्राप्त आहार । आहारः पुंसो द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणः। प्रमाणसंवत्सरः । (जम्बूद्वी. शा. वृ. १५१)। कवलश्चोत्कृष्टापकृष्टौ वर्जयित्वा मध्यम इह १ जो संवत्सर (वर्ष) युग के प्रमाण का कारण है.
उसे प्रमाणसंवत्सर कहा जाता है। २ दिवस-रात्रि एकादिकवलैरूनश्चतुर्विंशतिकवलान् यावत् प्रमाण- आदि के प्रमाण से उपलक्षित नक्षत्रसंवत्सरादि को प्राप्तात् किंचिदूनौनोदर्यम् । (योगशा. स्वो. विव. प्रमाणसंवत्सर कहते हैं। ४-६६, पृ. ३११)।
प्रमाणागुल-१. से कि तं पमाणांगुले ? पमणांगुले पुरुष का प्रमाणप्राप्त आहार वत्तीस ग्रास एगमेगस्स रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अट्टसोवण्णिए प्रमाण माना गया है। यहां उत्कृष्ट और जघन्य को कागिणीरयणे छत्तले दुवालसंसिए अट्टकण्णिए अहिगछोड़ कर मध्यम ग्रासों को ग्रहण किया गया है। रणसंठाणसंठिए पं०, तस्स णं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुप्रमाणप्राप्त आहार से एक दो आदि ग्रासों से हीन लविक्खंभा, तं समणस्स भगवग्रो महावीरस्स अद्धचौबीस ग्रास तक ग्रहण करने पर किचित् ऊन गुलं, तं सहस्सगुणं पमाणांगुलं भवइ। (अनुयो. सू. औनोदर्य होता है।
१३३, पृ. १७१) । २. उस्सेहंगुलमेगं हवइ पमाणप्रमाणफल-१. प्रमाणस्य फलं साक्षात सिद्धिः गुलं दु पंचसयं । अोस प्पिणीए पढमस्स अंगूलं चक्कस्वार्थविनिश्चयः । (सिद्धिवि. १, ३, पृ. १२)। वट्टिस्स ।। (जीवस. १०१) । ३. तं चिय पंचस२. अज्ञाननिवृत्तिर्हानोपादानोपेक्षाश्च फलम् । याइ अवसप्पिणिपढमभरहचक्किस्स । अंगुल एक्क (परीक्षा. ५-१)।
चेव य तं तु पमाणंगुलं णाम । (ति. प. १-१०८)। १ प्रमाण का साक्षात् फल स्व और अर्थ के निश्चय- ४. प्रमाणागुलमेकं स्यात्तत्पञ्चशतसंगुणम् । प्रथमरूप सिद्धि है। २ अज्ञान का विनाश, परित्याग, स्यावसपिण्यामगुलं चक्रवर्तिनः।। (ह. पु. ७-४२), ग्रहण अथवा उपेक्षा यह प्रमाण का फल है। ५. तदेव (उत्सेधांगुलमेव) पंचशतगुणितं प्रमाणांप्रमाणयोजन -ताभिश्चतुर्गव्यूति (प्रमाणगव्यूति) गुलं भवति । (त. वा. ३, ३८, ६, पृ. २०७-८)। भिर्मपितं एक प्रमाणयोजनम् । मानवानां पञ्चशत- ६ उच्छ्यांगुलं सहस्रगुणितं प्रमाणांगुलमुच्यते xx योजनैरेकं प्रमाणयोजनमित्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. x। (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ८१)। ७ सहस्रगु३-३८)
णितादुत्सेधागुलप्रमाणाज्जातं प्रमाणाङ्गुलम्, प्रथचार प्रमाणगव्यूति मात्र मापविशेष को प्रमाणयोजन वा परमप्रकर्षरूपं प्रमाणं प्राप्तमङ्गुलं प्रमाणामुकहते हैं। वह मनुष्यों के उत्से गांगुलसिद्ध-पांच लम्, नातः परं बृहत्तरमंगुलमस्तीति भावः । यदि वा सौ योजन के बराबर होता है।
-समस्तलोकव्यवहारराज्यादिस्थितिप्रथमप्रयोक्तत्वेन प्रमाणसप्तभंगी-सकलादेशस्वभावा तु प्रमाण- प्रमाणभूतोऽस्मिन्नवसर्पिणीकाले तावद्युगादिदेवो भरसप्तभंगी, यथावद्वस्तुरूपप्ररूपकत्वात् । (प्र. क. मा. तो वा तस्यांगुलम् प्रमाणाङ्गुलम् । (अनुयो. सू. ६-७४, पृ. ६८२)।
मल. हेम. वृ. १३३, पृ. १७१)। ८. उच्छेहसकलादेश स्वभाववाली--अनेकान्तात्मक वस्तु की अंगुलेहि य पंचेव सदेहि तह य घेत्तुणं । णामेण समु
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प्रमाणागुल ]
द्दिट्ठो होदि पमाणगुलो एक्को ।। ( जं. दी. प. १३, २५) । ६. अवसर्पिण्या: सम्बन्धी प्रथमचक्रवर्ती, तस्यांगुलं प्रमाणांगुलम् । अथवा उत्सर्पिण्या: सम्बन्धी चरमचक्रवर्ती, तस्यांगुलं प्रमाणां गुलम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८, पृ. १५२) । १०. चत्वार्युत्सेधाङ्गुलानां शतान्यायामतो मतम् । तत्सार्द्धद्वय गुलव्यासं प्रमाणाङ्गुलमिष्यते ॥ प्रमाणं भरतश्चक्री युगादौ वाऽऽदिमो जिन: । तदङ्गुलमिदं यत्तत् प्रमाणागुलमुच्यते ॥ वस्तुतः पुनरौत्सेधात् सार्द्धद्विगुणविस्तृतम् । चतुःशतगुणं दैर्ध्य प्रमाणाङ्गुलमा स्थितम् ॥ ( लोकप्र. १-३१, ३२ व ३८ ) ।
२ पांच सौ उत्सेधांगुल प्रमाण एक प्रमाणांगुल होता है। इसे अवसर्पिणी प्रथम चक्रवर्ती का अंगुल समझना चाहिए । ६ एक हजार से गुणित उच्छ्रयांगुलके बराबर एक प्रमाणांगुल होता है । प्रमाणातिक्रम तोव्रलोभाभिनिवेशादतिरेकाः प्रमाणातिक्रमाः । एतावानेव परिग्रहो मम, नातोऽन्य इति परिच्छिन्नात् क्षेत्र-वास्त्वादिविषयादतिरेकाः अतिलोभवशात् प्रमाणातिक्रम इति प्रत्याख्यायते । (त. वा. ७, ३६, २) ।
तीव्र लोभ के वश होकर स्वीकृत परिग्रहप्रमाण के उल्लंघन करने को प्रमाणातिक्रम कहते हैं । यह प्रमाणातिक्रम क्षेत्र वास्तु आदि के विषय में सम्भव है, जो क्रम से परिग्रहपरिमाण व्रत के क्षेत्र वास्तुप्रमाणातिक्रम श्रादि पांच प्रतिचाररूप होता है । प्रमाणातिरिक्तता - देखो प्रमाणदोष । १ धृति बल - संयम योगा यावता न सीदन्ति तदाहारप्रमाणम् । अधिकाहारस्तु वमनाय मृत्यवे व्याधये चेति तं परिहरेदिति प्रमाणातिरिक्ततादोषः । योगशा. स्वो. विव. १-३८, पृ. १३८ ) । २. प्रमाणातिरिक्तं षड्भागोतमात्राविकम् । (गु. गु. षट्. २५, पृ. ५८ उद्.) ।
७७२, जैन-लक्षणावली
१ जितने आहार के द्वारा धैर्य, बल, संयम और योग खेद को प्राप्त नहीं होते हैं उतने प्रहार के ग्रहण का प्रमाण श्रागम में कहा गया है। उससे 'अधिक ग्रहण करने पर प्रमाणातिरिक्तता दोष उत्पन्न होता है | अधिक श्राहार का लेना वमन, मृत्यु, अथवा रोग का कारण होता है । प्रमाणातिरेक दोष - अधिकवितस्तिमात्राया भूमे - रधिकाया अपि भुवो ग्रहणं प्रमाणातिरेकदोषः । (भ.
[ प्रमाद
प्रा. विजयो. २३०; कार्तिके. टी. १४८-४६, पृ. ३३६) ।
साधु के लिए जितनी भूमिका प्रमाण श्रागम में कहा गया है उससे एक वितिस्त ( १२ अंगुल ) मात्र भी अधिक लेने पर प्रमाणातिरेक दोष होता है ।
प्रमाणाभास- १. प्रस्वसंविदित- गृहीतार्थ-दर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः । ( परीक्षा. ६-२ ) । २. तदिव स्व- परप्रमेयस्वरूपप्रतिभासिप्रमाणमिव श्राभासत इति तदाभासम् । सकलमतसम्मताऽवबुद्ध्यक्षणिकाद्येकान्ततत्त्वज्ञान -सन्निकर्षाऽविकल्पकज्ञानाप्रत्यक्षज्ञान
ज्ञानान्तरप्रत्यक्षज्ञानानाप्तप्रणीतागमाऽविनाभावविकल लिङ्गनिबन्धनाऽभिनिबोधादिकं संशय-विपर्यासाSaध्यवसायज्ञानं च । (प्र. क. मा. पृ. ५) । १ अस्वसंविदितज्ञान-स्व को न जानकर जो अन्य मतानुसार ज्ञानान्तर से वेद्य है, गृहीतार्थज्ञान (धारावाहिकज्ञान), दर्शन - बौद्धों के द्वारा स्वीकृत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष और संशय इत्यादि प्रमाणाभास हैं- प्रमाण के समान प्रतीत होते हैं, पर वस्तुतः वे प्रमाण नहीं हैं ।
प्रमाता - १. प्रमाता चेतनः परिणामी वक्ष्यमाणो जीवः । ( सिद्धिवि. वृ. १-२३, पृ. ९७ ) । २. प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध श्रात्मा । ( प्र. न. त. ७-५४ ) । १ चेतन व परिणमन स्वभाववाला जीव प्रमाताप्रमिति क्रिया का कर्ता — होता है । प्रमाद - १. स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः । (स.सि. ८ - १ ) २. प्रमादः स्मृत्यनवस्थानं कुशलेष्वनादरो योगदुः प्रणिधानं चेत्येष प्रमादः । ( त. भा. ८- १ ) । ३. स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः मनसोऽप्रणिधानम् । (त. वा. ८, १, ३ ) । ४. प्रमादस्वरूपं महाकर्मेन्धनप्रभवाविध्यातदुःखानलज्वालाकलापपरीतमशेषमेव संसारवासगृहं पश्यंस्तन्मध्यवर्त्यपि सति तन्निर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतधर्मचिन्तामणौ यतो विचित्रकर्मोदयसाचिव्यजनितात् परिणामविशेषादपश्यन्निव तद्भयमविगणय्य विशिष्टपरलोक क्रियाविमुख एवास्ते सत्त्वः, स खलु प्रमाद इति । ( नन्दी. हरि. वृ. पृ. ६० ) । ५. को पमादो णाम ? चदुसंजलण-णवणोकसायाणां तिब्बोदनो । ( धव. पु. ७, पृ. ११ ) । ६. प्रमादस्त्विन्द्रिय-विकथा विकट-निद्रालक्षण: । ( त.भा. सिद्ध. वृ. ८-९ ) । ७. शुद्धयष्टके तथा धर्मे क्षान्त्यादि
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प्रमाद] ७७३, जैन-लक्षणावली
[प्रमादचरित दशलक्षणे । योऽनुत्साहः स सर्वज्ञः प्रमादः परिकीति- स्वबुद्धया भावनीयम् । (श्रा. प्र. टी. २८९)। तः ।। (त. सा. ५-१०)। ८. प्रमादकलितः कथं ६. निष्प्रयोजनवृक्षादिच्छेदन-भूमिकुट्टनादिलक्षणात् भवति शुद्धभावोऽलसः, कषायभरगौरवादलसता प्रमा- प्रमादाचरितात् xxx । (त. श्लो. ७-२१) । दो यतः । (समय. क. ६-११)। ६. संज्वलन-नोकषा- ७. भूखनन-वृक्षमोटन-शाड्वलदलनाम्बुसेचनादीनि । याणामुदये सत्यनुद्यमः । धर्मे शुद्धयष्टके वृत्ते प्रमादो निष्कारणं न कुर्याद्दल-फल-कुसुमोच्चयानपि च ॥ गदितो यतेः ॥ (पंचसं. अमित. १-२६)। १०. अभ्य- (पु. सि. १४३)। ८. प्रयोजनमन्तरेण भूमिकुट्टन-सन्तरे निष्प्रमादशुद्धात्मानुभूतिचलनरूप: बहिविषये लिलसेचनाग्निबिध्यापन-वातप्रतिघात-वनस्या[स्प]तु मूलोत्तरगुणमलजनकश्चेति प्रमादः । (ब. द्रव्यसं. तिच्छेदनाद्य वद्य कर्म प्रमादाचरितम्। (चा. सा. पृ. टी. ३०)। ११. प्रमादश्चायनाचरणं विकथादिस्वरू- १०)। ६. विहलो जो वावारो पूढवी-तोयाण पम् । (मला. व. ११-१०)। १२. प्रमाद्यति मोक्ष- अग्गि-वाऊणं । तह वि वणप्फदिछेदो अणत्थदंडो हवे मार्ग प्रति शिथिलोद्यमो भवत्यनेन प्राणीति प्रमादः। तिदिनो । (कातिके. ३४६)। १०. प्रमादेन(प्रव. सारो. व. २०७)। १३. स च प्रमादः कुशल- घृत-गुडादिद्रव्याणां स्थगनादिकरणे प्रालस्यलक्षणेन कर्मस्वनादरः उच्यते। (त. सुखबो. वृ. ८-१)। -आचरितो यस्तस्य वा यदाचरितं सोऽनर्थदण्ड: १४. प्रमाद्यति जीवः कुशलानुष्ठानेभ्यः प्रच्यवतेऽने- प्रमादाचरितः प्रमादाचरितं वेति । (प्रौपपा. अभय. नेति प्रमादः । सम्यग्दर्शनादिषु गुण-शीलेषु कुशला- वृ. ४०, पृ. १०१) । ११. प्रमादानां गीत-नृत्तादीनुष्ठानेषु अनवधानमनादरः प्रमादः । (गो. जी. मं. नामाचरणं चतुर्थः । (योगशा. स्वो. विव. ३-७३, प्र. ३४) । १५. पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु पृ. ४६७); कुतूहलाद् गीत-नृत्त-नाटकादिनिरीक्षविनय-काय-वाड्मनई-पथव्युत्सगं-भक्ष्य- शयनासन- णम् । कामशास्त्रप्रसक्तिश्च द्यूत-मद्यादिसेवनम् । शुद्धिलक्षणास्वष्टसु शुद्धिषु दशलक्षणधर्मेषु चानुद्यमः जलक्रीडाऽऽन्दोलनादिविनोदो जन्तुयोधनम् । रिपोः प्रमादोऽनेकप्रकारः। (त. वत्ति श्रत. ८-१)। सुतादिना वैरं भक्त-स्त्री-देश-राटकथाः ।। रोग-मार्ग१६. प्रमदनं प्रमादः प्रमत्तता, सदुपयोगाभाव इत्य- श्रमौ मुक्त्वा स्वापश्च सकलां निशाम् । एवमादि र्थः। (सम्बोधस. वृ. ५५, पृ. ४२) ।
परिहरेत् प्रमादाचरणं सुधीः ॥ (योगशा. ३, १ उत्तम क्रियाओं में-व्रत-संयमादि के विषय में- ७८-८०, पृ. ४६६)। १२. प्रमादचयां विफलक्ष्माअनादर करना, यह प्रमाद कहलाता है। २ कर्तव्य निलाग्न्यम्बु-भूरुहाम् । खात-व्याघात-विध्याप-सेककार्यविषयक स्मरण का प्रभाव, प्रागमोक्त क्रिया- च्छेदादि नाचरेत् ।। (सा. ध. ५-१०)। १३. भूमिनुष्ठानों के करने में अनत्साह और योगों की दृष्य- कुट्टन-दावाग्नि-वक्षमोटन-सिञ्चनम् (?) । स्वार्थ वृत्ति; इसे प्रमाद कहा जाता है। ५ चार संज्व- विनापि तज्ज्ञेयं प्रमादचरितं बुधैः ।। (धर्मसं. श्रा. लन और नौ नोकषायों के तीव्र उदय का नाम ७-१२)। १४. प्रयोजनं विना भूमिकुट्टनं जलसेवप्रमाद है।
नम् अप्पित्तसंधुक्षणं व्यजनादिवातक्षेपणं वृक्ष-वल्लीप्रमादचरित–१. क्षिति-सलिल-दहन-पवनारम्भं दल-मूल-कुसुमादिच्छेदनम् इत्याद्यवद्यकर्मनिर्माणं विफलं वनस्पतिच्छेदम् । सरणं सारणमपि च प्रमादचरितमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत.७-२१)।.. प्रमादचर्या प्रभाषन्ते ॥ (रत्नक. ३-३४)। २.प्र. १निष्प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्निव वायुका प्रारम्भ योजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदन-भमिकूटन-सलिलसेच- करना-पृथिवी का खोदना, जल का फैलाना, अग्नि नाद्यवद्य कार्य प्रमादाचरितम् । (स. सि. ७-२१)। का जलाना या बुझाना (वं वायु का करना या ३. वृक्षादिच्छेदनं भमिकूद्रनं जलसेचनम । इत्याद्य- रोकना इत्यादि तथा वनस्पति का छेदना, व्यर्थ में नर्थकं कर्म प्रमादाचरितं तथा। (ह. पु. ५८-१५०)। गमन करना व दूसरे को गमन कराना; इसे प्रमाद४. प्रयोजनमन्तरेणापि वृक्षादिच्छेदन-भूमिकुट्टन- चर्या कहते हैं। प्रमादचरित व प्रमादाचरित ये सलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितमिति कथ्यते । उसी के नामान्तर हैं। यह एक अनर्थदण्ड का भेद (त. वा. ७, २१, २१)। ५. प्रमादाचरितो मद्यादि- है। ५ मद्य प्रादि के प्रमाद से जो पाचरण किया प्रमादेनासे वितः, अनर्थदण्डत्वं चास्योक्तशब्दार्थद्वारेण जाता है उसे प्रमादावरित कहा जाता है।
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प्रमादचर्या ]
प्रमादचर्या - देखो प्रमादचरित । प्रमादाचरित - देखो प्रमादचरित ।
प्रमादाप्रमाद - प्रमादाप्रमादस्वरूप भेद-फल- विपाकप्रतिपादकमध्ययनं प्रमादाप्रमादम् । ( नन्दी. हरि. कृ. पृ. ६० ) ।
प्रमाद और अप्रमाद के स्वरूप, विपाक के प्रतिपादन करने वाले प्रमादाप्रमाद है । यह उत्कालिक है ।
७७४, जैन-लक्षणावली
भेद, फल और
प्रध्ययन का नाम श्रुत के अन्तर्गत
प्रमार्जन - १. प्रमार्जनमुपकरणोपकारः । मृदुनोपकरणेन यत् क्रियते प्रयोजनं तत् प्रमार्जनं प्रत्येतव्यम् । त, वा. ७, ३४, २) । २. प्रमार्जनमुपकरणोपकारः । (त. इलो. ७-३४) । ३. मृदुनोपकरणेन यत्क्रियते प्रयोजनं तत्प्रमार्जनम् । ( चा. सा. पृ. १२) । ४. प्रमार्जनं मृदुनोपकरणेन प्रतिलेखनम् । ( सा. ध. स्वो . टी. ५-४० ) । ५. कोमलोपकरणेन यत्प्रतिलेखनं क्रियते तत्प्रमार्जितम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३४ ) । ६. प्रमार्जनं च मृदुभिः यथोपकरणैः कृतम् । उत्सर्गादान- संस्तरविषयं चोपबृंहणम् ॥ ( लाटीसं. ६, २०७) ।
१ जीवों के संरक्षणार्थ मृदु उपकरण ( वस्त्र आदि ) के द्वारा जो पुस्तक व कमण्डलु श्रादि उपकरणों के झाड़ने श्रादि रूप कार्य किया जाता है उसका नाम प्रमार्जन है ।
प्रमार्जनासंयम -- देखो प्रसृज्यसंयम । प्रेक्षितेऽपि स्थण्डिले रजोहरणादिना प्रमृज्य शयनासनादीन् कुर्वतः स्थण्डिलाच्च स्थण्डिलं संक्रामतः सचित्ताचित्त - मिश्रासु पृथिवीषु रजोऽवगुण्ठितौ चरणौ प्रमार्ण्य गच्छतो वा प्रमार्जनासंयमः । (योगशा. स्वो विव. ४-६३, पृ. ३१६ ) ।
शुद्ध भूमि के देख लेने पर भी रजोहरण आदि से प्रमार्जन करके सोने व बैठने प्रादि रूप काम के करने तथा एक शुद्ध भूमि से अन्य शुद्ध भूमि को प्राप्त होते हुए श्रथवा सचित्त, श्रचित्त व सचित्ताचित पृथिवी पर धूलि से आच्छादित चरणों का प्रमार्जन करके गंमन करने को प्रमार्जनासंयम कहते हैं । प्रमाजित - देखो प्रमार्जन | प्रमिति - व्युत्पत्ति-संशय-विपर्यासलक्षणाज्ञाननिवृत्तिः प्रमिति: । (सिद्धिवि. वृ. १ - २३, ५, ६६ ); प्रमितिः स्वार्थविनिश्चयः प्रज्ञाननिवृत्तिः साक्षात्
[प्रमोदभावना
प्रमाणस्य फलम् । (सिद्धिवि. वृ. १-२३. पू. ७ ) :प्रमितिः प्रमाणफलम् । ( सिद्धिवि. वृ. १-२३, पृ. १०० ) ।
अव्युत्पत्ति (विशेष ज्ञान का प्रभाव ), संशय और विपरीत ज्ञानस्वरूप अज्ञान के हट जाने का नाम प्रमिति है ।
प्रमृज्यसंयम — देखो प्रमार्जनासंयम । परित्यजतः (सिद्ध. वृ. 'प्रमृज्यसंयम') इति प्रेक्षिते स्थण्डिले जोहृत्या प्रमार्जनमनुविधाय स्थानादि कार्यम्, पथि वा गच्छत: सचित्त - (सिद्ध. वृ. 'सचित्ताचित्त'-) मिश्रपृथिवीकायरजोऽनुरंजितचरणस्य स्थण्डिलात् स्थण्डिलं कामतो (सिद्ध. वृ. 'संक्रामतो' ) ऽस्थण्डि लाद् वा स्थण्डिलं प्रमृज्य चरणौ संयमभाक्त्वमा(सिद्ध. वृ. 'म' - ) गार्यादिरहिते श्रन्यथा त्वप्रमार्जयत एव संयम ( ? ) इति । (तं. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ε-६) ।
शुद्ध भूमि के देख लेने पर रजोहरण के द्वारा प्रमार्जन करके झाड़कर बैठने व शयन श्रादि कार्य का करना तथा मार्ग में जाते हुए सचित्त, प्रचित्त व मिश्र पृथिवी काय को धूलि से लिप्त पांवों से युक्त होकर जब शुद्ध भूमि से शुद्ध भूमि पर अथवा अशुद्ध भूमि से शुद्ध भूमि पर जाता है तब वह यदि गृहस्थ आदि नहीं है तो पांवों का प्रमार्जन करने पर संयम का परिपालक होता है, अन्यथा प्रमार्जन न करने पर भी संयम परिपालक होता है ।
प्रमेय - १. प्रमाणविषयः प्रमेयम् । ( सिद्धिवि. वृ. १ - २३, पृ. ७) । २ प्रमाणेन परिच्छेद्यं प्रमेयं प्रणिगद्यते । ( द्रव्यानु. त. ११ - ३, पृ. १८५) ।
१ प्रमाण के विषयभूत पदार्थ को प्रमेय कहते हैं । प्रमोक्ष- XXX बंधविओोश्रो पमोक्खो दु । ( धव. पु. ८, पृ. ३ उद्) ।
वन्ध के वियोग का नाम प्रमोक्ष है। प्रमोदभावना
१. मुदिदा जदिगुणचिता X XXI ( भ. प्रा. १६६६ ) । २. वदनप्रमादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरागः प्रमोदः । ( स. सि. ७- ११; त. श्लो. ७–११) । ३. प्रमोदं गुणाधिकेषु । प्रमोदो नाम विनयप्रयोगः । वन्दन - स्तुति-वर्णवाद - वैयावृत्त्यकरणादिभिः क्त्व-ज्ञान- चारित्र तपोधिकेषु साधुषु परात्मोभयकृत
सभ्य
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प्रमोदभावना] ७७५, जैन-लक्षणावली
[प्रयोगक्रिया पूजाजनितः सर्वेन्द्रियाभिव्यक्तो मनःप्रहर्ष इति । . परिनिमित्तको भावः । (नीतिवा. ६-२६, पृ. ७५)। (त. भा. ७-६) । ४. वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्य- . ३. परार्थेऽन्यकृते यो भावश्चित्तं मयास्यैतदवश्यं मानान्तर्भक्तिरागः प्रमोदः । वदनप्रसादेन नयनप्रह- करणीयमिति स प्रयत्नः । तथा च व(ग)र्ग:लादनेन रोमान्चोद्भवेन स्तुत्यभीक्षणसंज्ञासंकीर्तना- परस्य करणीये यश्चित्तं निश्चित्य धार्यते । प्रयत्नः दिभिश्च अभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरागः प्रकर्षेण मोदः स च विज्ञेयो गर्गस्य वचनं यथा ॥. (नीतिवा. टी. प्रमोद इत्युच्यते । (त. वा. ७, ११, २)। ५. पर- ६-२६)। .. सुखतुष्टिर्मुदिता xxx ॥ (षोडश. ४-१५)। १ कर्मविशिष्ट प्रात्मा के प्रदेशों के हलन-चलन को ६. मुदिता नाम यतिगुणचिन्ता-यतयो हि विनीता प्रयत्न कहते हैं । ३. मुझे यह अवश्य करना है, इस विरागा विभया विमाना विरोषा विलोभा इत्या- प्रकार दूसरे के द्वारा किये गये परार्थ में जो चित्त दिकाः। (भ. प्रा. विजयो. १६६६)। ७. तपोगु- दिया जाता है उसका नाम प्रयत्न है। णाधिके पंसि प्रश्रयाश्रय निर्भरः । जायमानो मनो- प्रयत- चतुरशीतिः प्रयुताङ्गशतसहस्राणि एक रागः प्रमोदो विदुषां मतः ॥ (उपासका. ३३६)। प्रयतम् । (जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १७८, पृ. ८. तपःश्रुत-यमोद्युक्तः चेतसां ज्ञान-चक्षुषाम् । ३४५)। विजिताक्ष-कषायाणा . स्वतत्त्वाभ्यासशालिनाम् ॥ चौरासी लाख प्रयुतांगों का एक प्रयुत होता है । जगत्त्रयचमत्कारिचरणाधिष्ठितात्मनाम् । तद्गुणेषु
गषु प्रयुतान-चतुरशीतिरयुतशतसहस्राणि एकं प्रयुप्रमोदो यः सद्भिः सा मुदिता मता ।। (ज्ञाना. २७,
ताङ्गम् । (जीवाजी, मलय. वृ. ३, २, १७८, पृ. ११-१२, पृ. २७३)। ६. प्रमोदनं प्रमोदो वदन
३४५)। प्रसादादिभिर्गुणाधिकेष्वभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरनुरा
चौरासी लाख अयुतों का एक प्रयुताङ्ग होता है । गः । (योगशा. स्वो. विव. ४-११६, पृ. ३३५); अपास्ताशेषदोषाणां वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेषु
प्रयोग-मण-वचि-कायजोगा पनोप्रो। (धव. पु. पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः । (योगशा. ४,
१२, पृ. २८६)।
मन, वचन और काय योगों को प्रयोग कहा जाता ११६, पृ. ३३६)। १०. मनोनयन-वदनप्रसन्नतया विक्रियमाणोऽन्तर्भक्तिरागः प्रमोद इत्युच्यते । (त.
है। यह ज्ञानावरण की वेदना के कारणों में से
एक है। वृत्ति श्रुत. ७-११) ११. नमन-प्रसादादिभिर्गुणाधिकेष्वभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरनरागः प्रमोदः । (धर्मसं. प्रयोगकरण-१. प्रयोगः जीवव्यापारः, तद्धेतकं यशो. टि. ३, पृ. २)।
करणं प्रयोगकरणम्। (उत्तरा. नि. शा, व. १८५, १ मुनिजनों के गुणों के चिन्तन को प्रमोदभावना पृ. १६५) । २. तत्र प्रयोगो नाम जीवव्यापारः, कहते हैं। २ मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा अन्त- तेन यद् विनिर्माप्यते सजीवमजीवं वा तत् प्रयोगरंग भक्तिरूप अनुराग का प्रगट होना, यह प्रमोद- करणम् । उक्तं च-होइ पयोगो जीवव्वावारो तेण भावना कहलाती है। ३ जो गुणों में अधिक हैं, जं विणिम्मायं । सज्जीवमजीवं वा पयोगकरणं तयं ऐसे व्रती जनों में प्रमोद का विचार करना चाहिए। बहुहा ॥ (प्राव. भा. मलय. वृ. १५५, पृ. ५५६)। प्रमोद का अभिप्राय है विनय का प्रयोग, जो साधु- २ जीव के व्यापार को प्रयोग कहते हैं, उस प्रयोग जन सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र व तप में अधिक हैं के द्वारा जो सजीव और अजीव का निर्माण किया उनको वन्दना, स्तुति, प्रशंसा और वैयावृत्त्य प्रादि जाता है उसे प्रयोगकरण कहा जाता है। के प्राश्रय से स्वयं, दूसरों के द्वारा या दोनों के प्रयोगक्रिया-१. गमनागमनादिप्र(त. वा. 'गमनद्वारा की गई पूजा से सब इन्द्रियों के द्वारा अन्तः- प्र')वर्तनं कायादिभिः प्रयोगक्रिया। (स. सि. करण का हर्ष प्रगट होना, इसे प्रमोदभावना कहा ६-५; त. वा. ६, ५, ७) । २. कायाज्ञादिस [भि] जाता है।
रन्येषां गमनादिप्रवर्तनम् । सा प्रयोगक्रिया वेद्या प्रयत्न-१. कर्मविशिष्टात्मप्रदेशपरिस्पन्दः प्रयत्नः। प्रायोऽसंयमवधिनी ।। (ह.पु. ५८-६३)। ३. प्रयो(सिद्धिवि.व. ७-२७, पृ. ५००)। २. प्रयत्नः गत्रिया विचित्र: कायादिव्यापारो वचनादिः। (त.
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प्रयोग क्रिया ]
७७६,
भा. हरि. वृ. ६-६ ) । ४. कायादिभिः परेषां यद्गमनादिप्रवर्तनम् । सदसत्कार्यसिद्ध्यर्थं सा प्रयोगक्रिया मता ॥ (त. इलो. ६, ५, ४) । ५. आत्माधिष्ठितकायादिव्यापारः प्रयोगः, तत्र योगत्रयकृता ( तं) पुद्गलानां ग्रहणं प्रयोगक्रिया, घावन-वलनादिः काय व्यापारी वा प्रयोगक्रिया । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६) । ६. गमनागमनादिषु मनोवाक्कायैः परप्रयोजकत्वं प्रयोगक्रिया । (त. वृत्ति श्रुत. ६-५) । १ शरीरादि के द्वारा जाने श्राने में प्रवृत्त होना, इसका नाम प्रयोग क्रिया है । ५ जोव से श्रधिष्ठित शरीर आदि के व्यापार को प्रयोग कहा जाता है, तीन योगों के द्वारा जो पुद्गलों का ग्रहण होता है उसे प्रयोगक्रिया कहते हैं । अधवा दौड़ने व मुड़ने आदि रूप शरीर के व्यापार को हिंसाजनक या कठोर वचन की प्रवृत्ति को; तथा द्रोह, अभिमान और ईर्ष्या आदिरूप मन के व्यापार को प्रयोगक्रिया जानना चाहिए । प्रयोगगति- - १. इषु चक्र - कणयादीनां प्रयोगगतिः । (त. वा. ५, २४, २१) । २. प्रयोगगतिः जीवगतिपरि- (सिद्ध. वृ. 'जीवपरि' ) णामसम्प्रयुक्ता शरीराहार-वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श - संस्थानविषया । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ५-२२ ) ।
१ बाण, चक्र और कणय (बाण) यादि की जो गति होती है वह प्रयोगगति कहलाती है । २ जीव के गति परिणाम से सम्बद्ध शरीर सम्बन्धी श्राहार, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और प्राकृतिविषयक गति का नाम प्रयोगगति है । प्रयोगज परिणाम - चेतनस्य Xx X X ज्ञानशील - भावनादिलक्षण: प्राचार्यादिपुरुषप्रयोगनिमित्त त्वात् प्रयोगजः । श्रचेतनस्य च मृदादेः घटसंस्थानादिपरिणामः कुलालादिप्रयोग निमित्तत्वात् प्रयोगज: । (त. वा. ५,२२, १० ) ।
दूसरे के प्रयोग के निमित्त से चेतन या प्रचेतन पदार्थ में जो परिणमन होता है उसे प्रयोगज परिणाम कहते हैं । जैसे—जीव में प्राचार्य प्रादि पुरुषविशेष के प्रयोग के श्राश्रय से ज्ञान, शील व भावना श्रादिरूप परिणाम होता है तथा प्रचेतन मिट्टी आदि का कुम्हार आदि के प्रयोग के निमित्त से घटाकारादिरूप परिणाम होता है ।
प्रयोगज शब्द - देखो प्रायोगिक शब्द । प्रयोगजो
जैन - लक्षणावली
[ प्रयोगबन्ध
जीवव्यापार निष्पन्नः षोढा ततादिः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५- २४, पृ. ३६० ) ।
जीव के व्यापार से उत्पन्न होने वाले तत-विततादि छह प्रकार के शब्द प्रयोगज ' शब्द कहलाते हैं । प्रयोगपरिणाम — प्रयोगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमात् क्षयाद्वा चेष्टा रूपः परिणामः प्रयोगपरिणामः । (त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. १० -५ ) | वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से अथवा क्षय से उत्पन्न होने वाले चेष्टारूप परिणाम को प्रयोगपरिणाम कहते हैं । प्रयोगप्रत्ययस्पर्द्धकप्ररूपणा - १. पोगपच्चयफड्ढगस्स परूवणा णाम वीरितकारणत्ताए चेट्ठतस्स कज्जाभासारिणा विसमवीरितप्परिणामबद्धाणं जीवप्पदेसाणं परूवणा पत्रोगपच्चयफड्ढगपरूवणा । ( कर्मप्र. चू. बं. क. २२ - उत्थानिका) । २. तथा प्रकृष्टो योगः प्रयोगः, तेन प्रत्ययभूतेन कारणभूतेन ये गृहीताः कर्मपुद्गलास्तेषां स्नेहमधिकृत्य स्पर्द्धकप्ररूपणा प्रयोगप्रत्ययस्पर्द्धकप्ररूपणा । ( पंचसं. मलय. वृ. बं. क. १६, पृ. २१ ) ।
२ प्रयोग का अर्थ है प्रकृष्ट (तीव्र) योग, इस प्रयोग के निमित्त से ग्रहण किये गये कर्म-पुद्गलों के स्नेह के श्राश्रय से जो स्पर्द्धकों की प्ररूपणा की जाती है उसे प्रयोगप्रत्ययस्पर्द्धकप्ररूपणा कहते हैं । प्रयोगबन्ध - १. पुरुषप्रयोगनिमित्तः प्रायोगिक :
जीवविषयो जतु-काष्ठादिलक्षणः, जीवाजीव विषयः कर्म-नोकर्मबन्धः । (स. सि. ५ - २४ ) । २. प्रयोगप्रयोजनो बन्धः प्रायोगिकः । स द्वेधा प्रजीवविषयो जीवाजीवविषयश्चेति । तत्राजीवविषयो जतु-काष्ठादिलक्षणः, जीवाजीवविषयः कर्म- नोकर्मबन्धः । (त. वा. ५, २४, ९ ) । ३. प्रयोगबन्धो जीवव्यापारनितितः श्रदारिकादिशरीर जतु- काष्टादिविषयः । (त. भा. हरि. वृ. ५-२४) । ४ जीववावारेण जो सभुप्पण्णी बंधो सो पत्रोग्रवंधो णाम । ( धव. पु. १:४, पृ. ३७ ) । ५. प्रयोगो जीवव्यापारः तेन घटितो बन्धः प्रायोगिकः — श्रौदारिकादिशरीर जतु- काष्ठादिविषय: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२४) ।
१ पुरुषप्रयोग के निमित्त से जो प्रजीवविषयक - जैसे लाख और लकड़ी का बन्ध-श्रौर जीवाजीवविषयक कर्म - नोकर्म का बन्ध - होता है वह प्रायोfre बन्ध कहलाता है । ३ जीव के व्यापार से जो
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प्रयोगस्पर्द्धक]
७७७, जैन-लक्षणावली
[प्रवचन
प्रौदारिक आदि शरीरों का तथा लाख और लकड़ी (तीर्थ ) यथाऽवस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थप्ररूपकं आदि का बन्ध होता है उसे प्रयोगबन्ध कहते हैं। अत्यन्तानवद्यान्याविज्ञातचरण-करणक्रियाधारं अचि४ जीवों के व्यापार से जो कर्मबन्ध और नोकर्मबन्ध न्त्यशक्तिसमन्विताविसंवाद्यडपकल्पं चतुस्त्रिशदतिश(पालापनबन्ध प्रादि) उत्पन्न होता है उसे प्रयोग- समन्वितपरमगुरुप्रणीतं प्रवचनम् । एतच्च संघः बन्ध कहा जाता है।
प्रथमगणधरो वा। (नन्दी. हरि. व. पृ. ५०) । प्रयोगस्पर्द्धक-होति पोगो जोगो ताणविव- ३. पवयणं सिद्धंतो बारहंगाई, तत्थ भवा देस-महव्वड्ढणाए जो उ रसो। परिबड्ढेई जीवो पयोगफड्डं यिणो असंजदसम्माइट्टियो न पवयणा । (धद. पु. ८, तयं वेंति ॥ (पंचसं. बं. क. ३६)।
पृ. ६०); उच्यते भण्वत कथ्यते इति वचनं शब्दप्रकृष्ट योग का नाम प्रयोग है, योग के स्थानों की कलापः, प्रकृष्टं वचनं प्रवचनम् । (धव. पु. १३, वृद्धि के अनुसार जीवों के द्वारा बांधे जाने वाले कर्म- पृ. २८०); प्रकर्षेण कुतीर्थ्यानालीढतया उच्यन्ते परमाणुओं में स्पर्धक के रूप से जीव जो रस (अनु. जीवादयः पदार्थाः अनेनेति प्रवचनं वर्णपंक्त्यात्मक भाग) को बढ़ाता है, यह प्रयोगस्पर्द्धक कहलाता है। द्वादशाङ्गं अथवा प्रमाणाद्यविरोधेन उच्यतेऽर्षोप्रयोगस्पर्द्धकप्ररूपणा- वैसादृश्याज्जीवप्रदेशानां ऽनेन करणभूतेनेति प्रवचनं द्वादशाङ्गम् भावस्ववीर्यहेतुगृहीतकर्मपुद्गलानां स्नेहप्ररूपणा प्रयोग- श्रुतम् । (धव. पु. १३, पृ. २८३) । स्पर्द्धकप्ररूपणा । प्रकृष्टो वा योगो व्यापारः, तद्धेतु- ४. प्रकर्षेण नामादि-नय-प्रमाण-निर्देशादिभिश्च यत्र गृहीतपुद्गलस्नेहस्य प्ररूपणा प्रयोगस्पर्द्धकप्ररूपणा। जीवादयो व्याख्यातास्तत् प्रवचनम्, जिना रागादि(पंचसं. मलय. वृ. बं. क. १६-उत्थानिका, पृ. सन्तानविजि(वजि ?) तास्तेषामिदं वचनमिति । २१)।
(त. भा. सिद्ध. व. १-२०)। ५. प्रोच्यन्ते जीवाजीवप्रदेशों की विसदशता से अपने वीर्य के निमित्त दयः पदार्था अनेनास्मिन्निति वा प्रवचनं जिनागमः । से ग्रहण किये गये कर्मपुद्गलों के स्नेह ( रस या अन- (भ. प्रा. विजयो. ३२)। ६. प्रकृष्टं वचनं प्रवचभाग) को प्ररूपणा को प्रयोगस्पर्द्धकप्ररूपणा कहते नम्, प्रकृष्टस्य वा वचनं प्रवचनं सिद्धान्तो द्वादशाहैं। अथवा प्रकृष्ट योग के प्राश्रय से ग्रहण किये ङ्गमित्यनर्थान्तरम् । तत्र भवा देश-महाव्रतिनः गये पुद्गलों के स्नेह को प्ररूपणा को प्रयोगस्पर्द्धक- असंयतसम्यग्दष्टयश्च प्रवचनम् । (चा. सा. पृ. प्ररूपणा जानना चाहिए।
२६) । ७. इह प्रवचनं सामान्यं श्रतज्ञानम, सुत्रा प्ररूपणा-अोघादेसेहि गुणेसु जीवसमासेसु पज्ज- तु तद्विशेषौ। उक्तं च-जमिह पगयं पसत्थं पहाणत्तीसु पाणेसु सण्णासु गदीसु इंदिएसु xxx वयणं च पवयणं तं च । सामन्नं सुयनाणं विसेसतो पज्जत्तापज्जत्तविसेसणेहि विरोसिऊण जा जीवपरि- सुत्तमत्थो य ॥ (प्राव. नि. मलय. व. १२६, पृ. क्वा सा परूवणा णाम । (धव, पु. २, पृ. ४११) । १२६); प्रवचनं द्वादशाङ्गं तदुपयोगानन्यत्वात् सलो प्रोध और आदेश की अपेक्षा गुणस्थान, जीवसमास, वा प्रवचनम् । (प्राव. नि. मलय. व. . १६१) । पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, गति-इन्द्रिय आदि चौदह ८. पगय-वयणं ति वा, पहाण-वयणं ति मार्गणा और उपयोग ; इन बीस में पर्याप्त-अपर्याप्त वयणं ति वा पवयणं । पवच्चंति तेण जीवादयो की विशेषता के साथ जो जीवों की परीक्षा की पयत्था इति पवयणं । तर्हि वा अहिगरण-भूए पवदजाती है, इसका नाम प्ररूपणा है।
तीति पवयणं-चउबिहो सङ्घो। पइट्ठवयणं ति वा, प्ररोहण-कर्माणि प्ररोहन्ति अस्मिन्निति प्ररोहणं । तदुवयोगाण पण्णत्तानो संघोत्ति जं भणियं होइ। कार्मणशरीरम् । (धव. पु. १४, पृ. ३२८)। जेण तं सुयं, तम्मि पइट्टियं, अणणं-तदुवोगायो जिसमें कर्म अंकुरित होते हैं उस कार्मण शरीर को ति। तं च सामाइयाइ-बिन्दुसारपज्जवसाणं अंगाणंप्ररोहण कहा जाता है।
गपविट्ठ सव्वं सुयणाणं पवयणं ति । (जीतक. चू. पृ. प्रवचन-१. प्रवचनं श्रुतज्ञानं तदुपयोगानन्यत्वाद्वा २)। सङ्घ इति । (प्राव. नि. हरि. वृ. १७६) । २. तच्च १ श्रुतज्ञान को प्रवचन कहते हैं, तद्विषयक उपयोग
ल. १८
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प्रवचनप्रभावना]
७७८, जैन-लक्षणावली
[प्रवचनाद्धा
से अभिन्न होने के कारण संघ अथवा प्रथम गणधर १ जिस प्रकार गाय बछड़े से स्नेह करती है उसी को भी प्रवचन कहा जाता है। ३ बारह अंगस्वरूप प्रकार से सामिक जन के विषय में प्रेम करना, सिद्धान्त (श्रुत) का नाम प्रवचन है। उस प्रवचन में इसे प्रवचनवत्सलता कहते हैं। ४ बारह अंग स्वरूप होने वाले देशवती, महाव्रती और असंयतसम्यग्द- प्रवचन में तथा देशवती, महाव्रती और सम्यग्दृष्टि ष्टियों को भी प्रवचन कहा जाता है।
जीवों में ममत्वबुद्धिपूर्वक अनुराग रखना व उनकी प्रवचनप्रभावना-पागमस्स पवयणमिदि सण्णा, अभिलाषा करना, इसका नाम प्रवचनवत्सलता है। तस्स पहावणं णाम वण्णजणणं तढिकरणं च । प्रवचनविराधना--यदि श्वादयो बालमृतकलेव(घव. पु. ८, पृ. ६१) ।
रादिभक्षयन्तस्तिष्ठन्ति तदा महती प्रवचनकुत्सेति पागमार्थ का नाम प्रवचन है, उसकी प्रशंसा व प्रवचनविराधना । (व्यव. भा. मलय. वृ. ४-२५, वद्धि करना, इसे प्रवचनप्रभावना कहते हैं। प्रवचनभक्ति-१. तम्हि (पवयणम्मि) भत्ती तत्थ भिक्षा प्रादि के निमित्त से सूनी वसति के छोड़ पदुप्पादिदत्थाणदाणं । (धव. पु. ८, पृ. ६०)। जाने पर यदि उसमें बाल निर्जीव शरीर (शव) २. प्रवचने जिनसूत्रेऽनुरागो भक्तिः । (भावप्रा. टी. आदि का भक्षण करते हुए कुत्ता प्रादि स्थित रहते ७७) । ३. प्रवचने रत्नत्रयादिप्रतिपादकलक्षणे मनः- हैं तो यह प्रवचन को भारी विराधना मानी शुद्धियुक्तोऽगुरागः प्रवचनभक्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. जाती है। ६-२४) ।
प्रवचनसन्निकर्ष-उच्यन्ते इति वचनानि जीवा१बारह अंगस्वरूप प्रवचन में प्रतिपादित अर्थ का द्यर्थाः, प्रकर्षेण वचनानि सन्निकृष्यन्तेऽस्मिन्निति प्रवअनुष्ठान करना-तदनुसार आचरण करना--इसे चनसन्निकर्षों द्वादशाङ्गश्रुतज्ञानम् । (धव. पु. १३, प्रवचनभक्ति कहते हैं।
पृ. २८४)। प्रवचनवत्सलत्व-देखो प्रवचन । १. वत्से धेनु- 'उच्यन्ते इति वचनानि' इस निरुक्ति के अनुसार वत्सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम् । (स. सि. ६, जिनका कथन किया जाता है उन जीवादि पदार्थों को २४) । २. अर्हच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बाल- वचन कहा जाता है। जिसमें प्रकर्षरूप से वचनों का वृद्ध-तपस्वि-शैक्ष-ग्लानादीनां च संग्रहोपग्रहानुग्रहका- सन्निकर्ष किया जाता है वह प्रवचनसन्निकर्ष कहरित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति । (त. भा. ६-२३)। लाता है। यह एक श्रुतज्ञान का नामान्तर है। ३. वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम् । वस्तु में अनेक धर्म होते हैं, उनमें किसी एक की यथा धेनुर्वत्से अकृत्रिमस्नेहमुत्पादयति तथा सधर्मा- विवक्षा के होने पर शेष धर्मों के सत्त्व व प्रसत्त्व णमवलोक्य स्नेहार्दीकृतचित्तता प्रवचनवत्सलत्वमि- के विचार तथा किसी एक के उत्कर्ष को प्राप्त होने त्युच्यते । (त. वा. ६, २४, १३)। ४. तेसु (पव- पर शेष धर्मों के उत्कर्ष व अनुत्कर्ष के विचार का यणे देस-महव्वइ-असंजदसम्माइद्रीसु च) अणुरागो नाम सन्निकर्ष है।
आकंखा ममेदंभावो पवयणवच्छलदा णाम । (धव. प्रवचनसंन्यास-देखो प्रवचनसन्निकर्ष । प्रकर्षण पु. ८, पृ. ६०)। ५. धेनोरिव निजवत्से सौत्सुक्य- वचनानि जीवाद्याः संन्यस्यन्ते प्ररूप्यन्ते अनेकान्ताधियः सधर्मणि स्नेहः । प्रवचनवत्सलता स्यात् सस्नेहः त्मतया अनेनेति प्रवचनसंन्यासः । (धव. पु. १३, पृ. प्रवचने यस्मात् ॥ (ह. पु. ३४-१४८)। ६ तेषु २८४)। (प्रवचने देश-महावतिषु असंयतसम्यग्दृष्टिषु च) जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का प्रकर्ष से अनुराग: आकांक्षा ममेदभाव: प्रचवनवत्सलत्वमित्यु- संन्यास किया जाता है-उनकी अनेकान्तरूप से च्यते । (चा. सा. पृ. २६)। ७. यथा सद्य:प्रसूता प्ररूपणा की जाती है-उस श्रुतज्ञान का नाम धेनुः स्ववत्से स्नेहं करोति तथा प्रवचने समिणि प्रवचनसंन्यास है। जने स्नेहलत्वं प्रवचनवत्सलत्वमभिधीयते। (त. वत्ति प्रवचनाद्धा-अद्धा कालः, प्रकृष्टानां शोभनानां श्रुत. ६-२४)। ८. समिणि स्नेहः प्रवचनवत्सल- वचनानामद्धा कालः यस्यां श्रुतौ सा पवयणद्धा श्रुतत्वम् । (भावप्रा. टी. ७७) ।
ज्ञानम् । (धव. पु. १३, पृ. २८४) ।
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प्रवचनार्थ ]
जिस श्रुति में प्रकृष्ट — शोभायमान — वचनों का काल है उसे प्रवचनाद्धा कहते हैं। यह श्रुतज्ञान का नामान्तर है। प्रवचनार्थ– द्वादशाङ्गवर्णकलापो वचनम्, अर्यते गम्यते परिच्छिद्यत इति अर्थो नव पदार्थाः, वचनं च अर्थश्च वचनार्थी, प्रकृष्टी निरवद्यौ वचनार्थी यस्मि नागमे स प्रवचनार्थः । XX X अथवा प्रकृष्टवचनैरयते गम्यते परिच्छिद्यत इति प्रवचनार्थो द्वादशाङ्गभावश्रुतम् । ( धव. पु. १३, पृ. २८१ - २८२ ) । जिसमें प्रकृष्ट ( निर्दोष) वचन - द्वादशांग का वर्णसमूह - और नौ पदार्थरूप अर्थ है उस श्रागम का नाम प्रवचनार्थ है । अथवा 'प्रकृष्टैर्वचनैः श्रर्यते गम्यते इति प्रवचनार्थ:' इस निरुक्ति के अनुसार द्वादशांग को प्रवचनार्थ कहा जाता है । भावश्रुत प्रवचनी- १. प्रकृष्टानि वचनानि श्रस्मिन् सन्तीति प्रवचनी भावागमः । अथवा प्रोच्यते इति प्रवचनोऽर्थः सोऽत्रास्तीति प्रवचनी द्वादशाङ्गग्रन्थः वर्णोपादानकारणः । ( धव. पु. १३, पृ. २८३ - २८४) । २. तत्र प्रवचनं द्वादशाङ्गं गणिपिटकम्, तदस्यास्त्यतिशयवदिति प्रवचनी युगप्रधानागमः । (योगशा. स्वो विव. २- १६, पृ. १८५ ) ।
१ प्रकृष्ट वचन जिसमें रहते हैं उस भावागम को प्रवचनी कहा जाता है । अथवा 'प्रोच्यते इति प्रवचन:' इस निरुक्ति के अनुसार प्रवचन शब्द का वाच्यार्थ पदार्थ है, वह जिसमें रहता है उस द्वादशांग ग्रन्थ का नाम प्रवचनी है । उक्त द्वादशाङ्ग का उपादान कारण वर्ण हैं । २ प्रवचन नाम द्वादशांग का है, जिसे गणिपिटक भी कहा जाता है। वह प्रवचन जिसके प्रतिशययुक्त होता है उसे प्रवचनी या युगप्रधानागम कहा जाता है । प्रवचनीय - प्रबन्धेन वचनीयं व्याख्येयं प्रतिपादनीयमिति प्रवचनीयम् । ( धव. पु. १३, पृ. २८१ ) । 'प्रबन्धेन वचनीयम्' इस निरुक्ति के अनुसार जिसका सन्दर्भ के साथ व्याख्यान किया जाता है उस श्रुत को प्रवचनीय कहते हैं ।
प्रवरवाद - स्वर्गापवर्गमार्गत्वात् रत्नत्रयं प्रवरः, स उद्यते निरूप्यतेऽनेनेति प्रवरवादः । ( धव. पु. १३, पू. २८७ ) ।
स्वर्ग व मोक्ष के मार्गभूत रत्नत्रय को प्रवर कहा
७७६, जैन- लक्षणावली
[ प्रविचार
जाता है, उसका जिसके द्वारा निरूपण किया जाता है उस श्रुतज्ञान का एक नाम प्रवरवाद है । प्रर्वातिनीपदार्हा व्रतिनी- जितेन्द्रिया विनीता च कृतयोगा धृतागमा। प्रियंवदा प्राञ्जला च दयाद्रकृत मानसा || धर्मोपदेशनिरता सस्नेहा गुरु-गच्छयोः । शान्ता विशुद्धशीला च क्षमावत्यतिनिर्मला ॥ निःसंगा लिखनाद्येषु कार्येषु सततोद्यता । धर्मध्वजा
पधिषुकरणीयेषु सत्तमा । विशुद्धकुलसंभूता सदा स्वाध्यायकारिणी । प्रवर्तिनीपदं सा तु व्रतिनी ध्रुवमर्हति ॥ ( आ. दि. पू. ११९ उद्) । जितेन्द्रिय, विनम्र, मन की की एकाग्रता से सहित, श्रागम में निपुण, प्रिय बोलने वाली, सरल, दयालु, धर्म के उपदेश में उद्यत, गुरु व गच्छ के विषय में स्नेह से संयुक्त, शान्त, निर्मल शील की धारक, क्षमाशील, परिग्रह से रहित, लेखन श्रादि कार्यों में निरन्तर उद्यत, करने योग्य धर्मध्वज श्रादि उपाधियों के विषय में अतिशय श्रेष्ठ, निर्दोष में कुल उत्पन्न हुई और निरन्तर स्वाध्याय करने वाली; इन गुणों से सम्पन्न व्रतिनी (साध्वी ) प्रवर्तनीपद के योग्य - साध्वियों को अधिष्ठात्री होती है । प्रवाद - दर्शन मोहोदय परवशैः सर्वथैकान्तवादिभिः प्रकल्पिता वादाः प्रवादा: । ( युक्त्यनु. टी. ६) । दर्शन मोहनीय कर्म के परवश हुए सर्वथा एकान्तवादियों के द्वारा कल्पित वादों का नाम प्रवाद है । प्रविचक्षण - प्रविचक्षणाः चरणपरिणामवन्तः अन्ये तु व्याचक्षते - XX X प्रविचक्षणाः श्रवद्यभीरवः । ( दशवै. सू. हरि. वृ. २ - ११, पृ. ६) । जो चारित्र परिणाम से युक्त होते हैं वे प्रविचक्षण कहलाते हैं । मतान्तर से पाप से डरने वालों को प्रविचक्षण कहते हैं ।
प्रविचार - देखो प्रवीचार । १. प्रविचारा मैथुनोपसेवनम् । ( स. सि. ४-७ ) । २. कायप्रवीचारो नाम मैथुनविषयोपसेवनम् । ( त. भा. ४–८)। ३. मैथुनोपसेवनं प्रवीचारः । XXX प्रविचरणं प्रवीचारः, मैथुनव्यवहार इत्यर्थः । (त. वा. ४, ७, १) । ४. प्रवीचरणं प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम् । (त. श्लो. ४-७ ) । ५. प्रवीचारो मैथुनोपसेवा । (त. भा. सिद्ध. वृ. ४-८ ) । ६. प्रवीचार: स्पर्शनेन्द्रियाद्यनुरागसेवा । (मूला. वृ. १२-२ ) । १ मैथुनसेवन का नाम प्रवीचार है ।
J
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प्रविद्धदोष ]
७८०,
प्रविद्धदोष - १. पविद्धमणुवयारं जं श्रप्पितोणिजंतिम्रो होइ । जत्थ व तत्थ व उज्झइ कियकिच्चोवक्खरं चेव । ( प्रव. सारो. १५६ ) । २. प्रविद्धं चन्दनं ददत एव पलायनम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३०, पृ. २३६) । ओ उपचार ( भक्ति) के विना ही अनियंत्रित -- अनवस्थितचित्त होकर गुरु की वन्दना करता हुआ समाप्ति के पूर्व ही उसे छोड़ कर चला जाता है वह प्रविद्ध नामक वन्दनादोष का भागी होता है । जैसे—कोई कुली किसी के वर्तनों को अन्य नगर में ले जाता है। वहां पहुंचने पर जब वर्तनों का स्वामी उससे यह कहता है कि थोड़ी देर ठहरो, मैं योग्य स्थान देखकर अभी आता हूं, तब उक्त कुली यह कहता है कि मुझे यहीं तक ले श्राने को कहा था, अब मैं रुक नहीं सकता; यह कहता हुआ वह प्रस्थान में ही वर्तनों को छोड़कर चला जाता है । इसी प्रकार उक्त वन्दना का क्रम जानना चाहिए ।
प्रविष्टदोष- देखो प्रविद्धदोष । १. प्रविष्ट: पंचपरमेष्ठिनात्यासन्नो भूत्वा यः करोति कृतिकर्म तस्य प्रविष्टदोषः । (मूला. वृ. ७ - १०६) । २. XX X श्रत्यासन्नभावः प्रविष्टं परमेष्ठिनाम् ॥ ( अन. ध. ८-१८) ।
१ जो पंच परमेष्ठियों के प्रत्यन्त निकट होकर कृतिकर्म करता है उसके कृतिकर्म का प्रविष्ट नाम का दोष उत्पन्न होता है ।
प्रवीचार - देखो प्रविचार | प्रवृत्ति - - १. सव्वत्थुवसमसारं तप्पालणमो पवत्ती उ ।। (योर्गाव. ५) । २. प्रवर्तनं प्रवृत्तिः अनुष्ठानरूपा परिशुद्धप्रतिपत्त्यनन्तरभाविनी तत्त्वविषयैव । ( षोडश. वृ. १६ - १४ ) । ३. प्रवृत्तिः यथायोगं वैयावृत्त्यादौ साधूनां प्रवर्तकः । ( श्राचारा. शी. बृ. २, १२७, पृ. ३२२) । ४. XXX प्रवृत्तिः पालनं परम् । (ज्ञा. सा. २७- ४ ) ; सम्यग्दर्शनादिगुणप्रवृद्धिभूतं क्रियाश्रुताभ्यासपालनं परम्परा उत्कृष्टा सा प्रवृत्तिः । ( ज्ञा. सा. टी. २७-४) । १. उपशम की प्रधानता से विधिपूर्वक स्थान व श्रालम्बन श्रादिरूप पांच प्रकार के योग का परिपालन करना, इसका नाम प्रवृत्ति है । ३ जो बलवीर्य के अनुसार अथवा योग्यता के अनुसार साधुनों
जैन-लक्षणावली
[ प्रव्रज्या
को वैयावृत्ति श्रादि में प्रवृत्त कराता है उसे प्रवृत्ति ( प्रवर्तक) कहा जाता है ।
प्रव्रजित - प्रकर्षेण व्रजितो गतः प्रव्रजितः, ग्रारम्भपरिग्रहादिति गम्यते । ( दशवं. नि. हरि. वृ. २, १५८ ) ।
जो प्रारम्भ व परिग्रह से श्रतिशय हैं- सर्वथा उन्हें छोड़ चुका है, उसे जाता है ।
दूर जा चुका प्रव्रजित कहा
प्रव्रज्या - १. X XX पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता । (बो. प्रा. २५); गिह- गंथ - मोहमुक्का वावीसपरीसहा जिकसाया । पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ घण घण्ण-वत्थदाणं हिरण्ण-सयणासणाइ छत्ताइ । कुद्दाणविरहरहिया (?) पव्वज्जा एरिसा भणिया । सत्- मित्ते व समा पसंस- णिदाअलद्धि-लद्धिसमा । तण - कणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ उत्तम मज्झिमगेहे दारि
ईसरे निराक्खा । सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा
राय णिद्दोसा । णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया || णिण्णेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिक्कलुसा । णिब्भय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया । जहजायरूवसरिसा अवलंबियभुत्र णिराउहा संता । परकियनिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया । उवसम-खम- दमजुत्ता सरीरसक्कारवज्जिया रुक्खा । मय-राय- दोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया || विवरीयमूढभावा पणट्टकम्मट्ठ णटुमिच्छत्ता । सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया || तिलग्रोसत्तनिमित्तं समबाहिरगंथसंगहो णत्थि । पावज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरिसीहि । पसु - महिल-संढसंगं कुसीलसंग ण कुणइ विकहा । सभाय झाणजुत्ता पव्वज्जां एरिसा भणिया । तव वयगुणेहिं सुद्धा संजम सम्मत्तगुणविसुद्धा य । सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ( बो. प्रा. ४५-५३, ५५ व ५७-५८ ) । २. प्राह विरइपरिणामो पव्वज्जा भावप्रो जिणाएसो । ( पंचव. १६४ ) ; विरतिपरिणामः सकलसावद्ययोगविनिवृत्तिरूपः प्रव्रज्या (पंचव. स्वो वृ. १६४) ।
१ गृह, परिग्रह व मोह से रहित; बाईस परीषहों से सहित; कषायों को जीतने वाली, पापजनक
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प्रव्रज्याह]
७८१, जैनाक्षणावली -
प्रशस्त करणोपशामना
प्रारम्भ से रहित; धन, धान्य, वस्त्र, हिरण्य, शयन, (आवीचिमरण) प्रतिसमय होने वाला है, तथा प्रासन और छत्र इत्यादि के दुषित दान से रहित विपाक भयानक है। इस प्रकार जिसने संसार की शत्रु-मित्र, प्रशंसा-निन्दा, लाभ-अलाभ और तृण- निर्गुणता को जान लिया है व इसीलिए जो उससे सुवर्ण इनमें रहने वाले समता भाव से सहित; विरक्त हो चुका है। कषायें जिसकी कृशता को पाहार के निमित्त उत्तम व मध्यम एवं दरिद्र व प्राप्त हो चुकी हैं, जिसके परिहास आदि अल्प हैं, सम्पन्न घर की अपेक्षा न करके सभी जगह ग्रहण जो उपकार का मानने वाला है, विनीत है, जो किये जाने वाले ग्राहार से सहित ; बाह्य-अभ्यन्तर पूर्व में राजा, मंत्री एवं नागरिक जनों के द्वारा परिग्रह से रहित, मान व पाशा से विहीन, राग- बहुमान्य रहा है, द्रोह का करने वाला नहीं है, द्वेष से विरहित, ममता व अहंकार से रहित; कल्याण का अंग है, श्रद्धाल है, स्थिर है, प्रारब्ध स्नेह, लोभ, मोह, विकार, पाप, भय औ' प्राशा से कार्य का अन्त तक निर्बाह करने वाला है, तथा जो रहित; जन्मजात (नग्न) रूप से उपलक्षित; लम्बा- समुपसंपन्न है-श्रात्मसमर्पणरूप सम्यक प्राचरण यमान भजाओं से संयक्त, प्रायुधों से रहित, परकृत द्वारा समीपता को प्राप्त हो चका है: ऐसा महागह में निवास से सहित, उपशम, क्षमा एवं दम- पुरुष प्रव्रज्याह.-----मुनिदीक्षा के योग्य होता है। इन्द्रिय व कषायों के दमन-से युक्त ; शरीरसंस्कार प्रव्राजक -१. प्रव्राजक:-सामायिकव्रतादेरारोपसे रहित, मद, राग व दोष से विरहित; मूढता, यिता। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६, पृ. २०८) । पाठ कर्म व मिथ्यात्व की विघातक; सम्यक्त्व से २. तत्र सामायिकवतादेरारोपयिता प्रव्राजकाचार्यः । विशुद्ध, तिल-तुष मात्र परिग्रह से रहित; पशु, स्त्री, (योगशा. स्वो. विव. ४-६०, पृ. ३१४) । नपुंसक एवं कुशील जन के संग से रहित; विकथाओं १ जो संयम के अभिमुख हुए किसी अन्य के सामाविहीन, स्वाध्याय एवं ध्यान से युक्त, तप व व्रत यिकादि व्रतों का प्रारोपण कराता है-उनमें एवं गणों से विशद्ध; तधा संयम एवं सम्यक्त्व गुणों दीक्षित करता है-उसे प्रवाजक-प्रवज्यादायकसे विशद्धि को प्राप्त ऐसी प्रव्रज्या-जिनदीक्षा- कहते हैं। यह पांच प्रकार के प्राचार्यों में प्रथम है। हमा करती है। २ भावतः समस्त सावद्ययोग के प्रशम---१. रागादीनामनुद्रेकः प्रशमः । (त. वा. परित्यागरूप विरतिपरिणाम-संयमस्वीकृति- १, २, ३०) । २. तत्रानन्तानबन्धिनां रागादीनां का नाम प्रव्रज्या है।
मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्वयोश्चानुद्रेक: प्रशमः । (त. प्रव्रज्याह-प्रव्रज्याहः आर्य देशोत्पन्नः १ विशिष्ट- श्लो. १, २, १२, पृ. ८६)। ३. यद्रागादिषु दोषेषु जाति-कुलान्वितः २ क्षीणप्रायकर्ममलः ३ तत एव चित्तवृत्तिनिवर्हणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समविमलबुद्धिः ४ दुर्लभं मानुष्यं जन्म मरणनिमित्तं स्तव्रतभूषणम् ।। (उपासका. २२८)। ४. प्रशमः सम्पदश्चपला विषयाः दुःखहेतवः संयोगे वियोग: स्वभावत एव क्रोधादिऋरकषाय-विषविकारकटप्रतिक्षणं मरणं दारुणो विपाकः इत्यवगतसंसारनै- फलावलोकनेन वा तन्निरोधः। (ध. बिम गुण्यः ५ तत एव तद्विरक्तः ६ प्रतनुकषायः ७ अल्प- ३-७) । ५. प्रशमो रागादीनां विगमोऽनन्तानुबन्धिहास्यादिः ८ कृतज्ञः ६ विनीतः १० प्रागपि राजा- नां XXX । (अन.ध.२-५२)। ६. रागादिमात्य-पौरजनबहमतः ११ अद्रोहकारी १२ कल्या- दोषेभ्यश्चेतोनिवर्तनं प्रशमः । (त. वनि प्रत णांगः १३ श्राद्धः १४ स्थिरः १५ समुपसम्पन्नः १-२)। ७. प्रशमो विशयेषूच्चैर्भावक्रोधादिकेष १६ चेति। (ध. बि. ४-३)।
च। लोकासंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ॥ ओ प्रार्य देश में उत्पन्न हया हो, उत्तम कुल व (लाटीसं. ३-७१; पंचाध्या. २-४२६)। न.प्र. आति से युक्त हो, जिसका कर्मरूप मल क्षीण हो शमः कषायाभावः । (ज्ञा. सा. व. २७-३.प्र. रहा हो, इसी से- जो निर्मल बुद्धि से सहित हो; ९०)। मनुष्य पर्याय दुर्लभ है, जन्म मरण का कारण है, १ रागादि दोषों की तीव्रता के प्रभाव का नाम सम्पत्ति चंचल (विनश्वर) है, विषय दुःख के कारण प्रशम है । हैं. संयोग वियोग का अविनाभावी है, मरण प्रशस्त करणोपशामना-१.जा सा सव्वकरणोव
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प्रशस्त ध्यान ]
क. पा.
सामणा तिस्से वि दुवे णामाणि सव्वकरणोवसामणाति वि पसत्थकरणोवसामणा त्तिवि । चू. पृ. ७०८ ) । २. सव्वकरणुवसामणाए अण्णाणि दुवे णामाणि गुणोवसामणा तिच पसत्थुवसामणा त्ति च ( धव. पु. १५, पृ. २७५ ) ।
२ सर्वकरणोपशामना को ही प्रशस्त करणोपशामना कहते हैं । अर्थात् प्रशस्त परिणामों के द्वारा उदीरणादि श्राठों करणों के उपशान्त होने को प्रशस्त करणोपशामना कहते हैं । प्रशस्त ध्यान - पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्याव - लम्बनात् । चिन्तनाद्वस्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते ॥ ( ज्ञाना. ३ - २६, पृ. ६६ ) ; अस्तरागो मुनिर्यत्र वस्तुतत्त्वं विचिन्तयेत् । तत् प्रशस्तं मतं ध्यानं सूरिभिः क्षीणकल्मषैः ।। (ज्ञाना. २५-१८, पृ. २५६) ।
पुण्य प्राशय - शुभ उपयोग - के वश शुद्ध लेश्या के श्रालम्बन से वस्तुतत्त्व के चिन्तन करने को प्रशस्त ध्यान कहते हैं ।
प्रशस्त निदान - १. संजमहेदुं पुरिसत्त सत्त-बलवीरिय संघदणबुद्धी । सावत्र बंधुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पत्थं ॥ (भ. प्रा. १२१६ ) । २. परिपूर्ण संयममाराधयितुकामस्य जन्मान्तरे पुरुषादिप्रार्थना प्रशस्तं निदानम् । (भ. श्री. विजयो. २५) ; एतानि पुरुषत्वादीनि संयमसाधनानि मम स्युरिति चित्तप्रणिधानं प्रशस्तनिदानम्, सावयबंधुकुलादिनिदानं दरिद्रकु बन्धुकुले वा उत्पत्तिप्रार्थना प्रशस्तनिदानम् । (भ. श्री. विजयो. १२१६ ) ।
१ संयम के हेतुभूत मनुष्य पर्याय, सत्त्व (उत्साह), बल (शारीरिक), वीर्य और संहनन; इनकी प्रार्थना करना तथा श्रावककुल व बन्धुकुल में उत्पन्न होने की प्रार्थना करना, यह प्रशस्त निदान कहलाता है ।
प्रशस्त निस्सरणतैजस- देखो तंजस व तैजससमुद्घात । जं तं पसत्थं तं पि एरिस (बारहजोयणायामं णवजय वित्थरं सूचिगुलस्स संखेज्जदिभाग बाहल्लं) चेव । णवरि हंसधवलं दक्खिणंससंभवं अणुकंपाणिमित्तं मारिरोगादिपस मणक्खमं । ( धव. पु. ४, पृ. २८); प्रणुकंपादो दक्खिणंसविणिग्गयं डमरमारीदिपसमक्खमं दोसयर हिदं सेदवण्णं णव- बारहजोयणरु दायामं पसत्थं नाम तेया
७८२, जैन - लक्षणावली
[प्रशस्त राग
सरीरं । (धव. पु. ७, पृ. ३०० ) ।
बारह योजन श्रायत, नौ योजन विस्तृत, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण बाहल्य से सहित और हंस के समान धवल वर्ण वाला जो तेजस शरीर अनुकम्पाश साधु के दाहिने कन्धे से निकल कर मारी श्रादि रोगों के शान्त करने में समर्थ होता है उसे प्रशस्त निस्सरणतेजस कहते हैं । प्रशस्त नोश्रागमभावोपक्रम - १. प्रशस्तं श्रुतादिनिमित्तमाचार्य भावोपक्रमः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १, पृ. २ ) । २. परश्च ( प्रशस्तः) श्रुतादिनिमित्तमाचार्य भावावधारणरूपः । ( जम्बूद्वी. शा. व. पृ. ६) ।
१ श्रुत श्रादि के निमित्त श्राचार्यत्व के निर्धारण को प्रशस्त नोश्रागमभावोपक्रम कहते हैं । प्रशस्त प्रभावना तित्थयर - पवयण-निव्वाणमग्गभावणा पसत्था । ( जीतक. चू. २८, पृ. १३ ) । तीर्थंकर, प्रवचन और मोक्षमार्ग के प्रभाव को प्रगट करना; इसे प्रशस्त प्रभावना कहा जाता है । प्रशस्त भावपिण्ड - मुच्चइ य जेण सो उण पसत्यो नवरि विन्नेन । ( पिण्डनि. ६४ ) । जिसके आश्रय से जीव कर्म से छुटकारा पाता है उसे प्रशस्त भावपिण्ड कहते हैं। वह क्रमशः एक-दो श्रादि के भेद से दस प्रकार का है । यथा-एक संयम, दो ज्ञान व चारित्र, तीन ज्ञान, दर्शन व चारित्र; इत्यादि के क्रम से दस - उत्तम क्षमामार्दवादि ।
प्रशस्त भावयोग - x x x सम्मत्ताई पसत्थ XXX । ( श्राव. नि. १०३८ ) । सम्यग्दर्शनादिरूप उत्तम भावों को प्रशस्त भावयोग कहते हैं ।
प्रशस्त भावसंयोग-नाणेणं नाणी दसणेणं दंसणी चरित्तेणं चरित्ती, से तं पसत्थे । ( श्रनुयो. सू. १३०, पृ. १४४) ।
ज्ञान के संयोग से ज्ञानी, दर्शन के संयोग से दर्शनी और चारित्र के संयोग से चारित्री इत्यादि प्रशस्त भावसंयोग पद कहलाते हैं । प्रशस्त राग - १. अरहंत सिद्ध-साहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । श्रणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चति ॥ ( पंचा. का. १३६ ) । २. अरहंतेसु य राम्रो ववगदरागेसु दोस रहिएसु ।
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प्रशस्त राग ]
धम्मम्मिय जो राम्रो सुदे य जो बारसविधम्मि ॥ आयरिस य राम्रो समणेसु य बहुसुदे चरित्तड्ढे । एसो पत्थराम्रो हवदि सरागेसु सव्वेसु ॥ ( मूला. ७, ७३-७४) । ३. प्रशस्तस्त्वर्हदादिविषयः । यथोक्तम्- अरहंतेसु य रागो रागो साहूसु बंभयारीसु । एस पत्थो रागो प्रज्जसरागाण साहूणं ॥ (श्राव. नि. हरि. वृ. १८, पृ. ३८६ ) । ४. प्रशस्तरागो नाम पंचगुरुषु प्रवचने च वर्तमानस्तद्गुणानुरागा - त्मक: । (भ. श्री. विजयो. ५१ ) । ५. रागो यस्य प्रशस्तः- वीतरागपरमात्मद्रव्याद्विलक्षण: पंचपरमेष्ठिनिर्भर गुणानुरागरूपः प्रशस्त धर्मानुरागः × × X । (पंचा. का. जय. वृ. १३५ )। ६. दानशीलोपवास- गुरुजन वैयावृत्त्यादिसमुद्भवः प्रशस्त रागः । नि. सा. वृ. ६) ।
१ अरहन्त, सिद्ध और साधुत्रों में भक्ति; धर्म में व्यवहार धर्मानुष्ठान में— प्रवृत्ति और गुरुश्नों का अनुकरण; इस सब को प्रशस्त राग कहा जाता है । ३ अरहन्तों में राग, साधुओं में राग एवं ब्रह्मचारियों में राग; यह श्रेष्ठ सराग साधुनों का प्रशस्त राग कहलाता है ।
[प्रशस्तेन्द्रियप्रणिधि
७८३, जंन-लक्षणावली रादिवत् प्रशस्तविहायोगतिनाम । ( त वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
१ जो कर्म उत्तम बॅल व हाथी आदि को प्रशस्त गति के समान उत्तम गति ( गमन) का कारण है उसे प्रशस्त विहायोगतिनामकर्म कहते हैं । प्रशस्त स्थिरीकरण - विसीयमाणस्स चरित्ताइसु थिरीकरणं सत्थं । ( जीतक. चू. गा. २८, पृ. १३) ।
चारित्र आदि के विषय में खेद को प्राप्त होने वाले प्राणी को उसमें स्थिर करना, इसे प्रशस्त स्थिरीकरण कहते हैं ।
प्रशस्ता भावशीति - यः पुनर्हेतुभिस्तेषामेव संयमादिस्थानानामुपरितनेषूपरितनेषु विशेषेष्वध्यारोहति सा प्रशस्तोच्चोपरितन एव क्रमेण भावशीतिस्तावद् द्रष्टव्यं यावत् केवलज्ञानम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १०-४०९)।
जिन हेतु के द्वारा जीव संयमादिस्थानों के उपरितन उपरितन विशेष स्थानों पर श्रारोहण करता है इसे क्रम से प्रशस्त उपरितन भावशीति कहते हैं । उक्त प्रारोहणक्रम केवलज्ञान की प्राप्ति तक जानना चाहिए । प्रशस्तेन्द्रियप्रणिधि १. सद्देसु अ रूवेसु श्र गंधेसु रसेसु तह य फासेसु । न वि रज्जइ न विदुसइ एसा खलु इंदिय पणिही ।। ( दशवं. नि. २६५ ) ; तं ( अट्ठविहं कम्म - रयं ) चेव खवेइ पुणो पसत्थपणही समात्तो ॥ ( दशवै. नि. ३०४) । २. तेसु सद्दादिसु विससु मणुन्नामणुन्नेसु जो रागद्दोसविणिग्गहो सो पसत्थो इंदियपणिधी । ( दशवं. चू. पू. २६६ ) ; जो धम्मणिमित्तं इंदियविसयपयारनिरोधो इंदियविसयपत्ताणं च प्रत्थानं राग-दोसविणिग्गहो कसायोदय निरोधो उदयपत्ताणं कसायाणं विणिग्गहो सा पसत्था पणिधी भण्णई । ( दशवं. चू. पृ. २६९ ) ।
१ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन इष्ट व अनिष्ट इन्द्रियविषयों में राग-द्वेष नहीं करना; यह प्रशस्त इन्द्रियप्रणिधि कहलाती हैं। इसके श्राश्रय से जीव आठ प्रकार के कर्म-रज को नष्ट करता है। २ इन्द्रियों के विषयसंचार को रोकना, इन्द्रियविषयता को प्राप्त पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना, कषायों के उदय को रोकना, तथा उदयगत कषायों
प्रशस्त वात्सल्य - आयरिय - गिलाण - पाहुण प्रसहुबाल- बुड्ढाईणं श्राहारोव हिमाइणा समाहिकरणं पसत्थं । ( जीतक. चू. २८, पृ. १३) । प्राचार्य, ग्लान, अतिथि, प्रशक्त, बाल और वृद्ध श्रादि को आहार एवं उपाधि श्रादि के द्वारा समाहित करना- उनके संक्लेश को दूर करनायह प्रशस्त वात्सल्य कहलाता है। प्रशस्त विहायोगति - १. वरवृषभ - द्विरदादिप्रशस्तगतिकारणं प्रशस्त विहायोगतिनाम । (त. वा. ८, ११, १८) २. जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं सीहकुंजर-वसहाणं व पसत्थगई होज्ज तं पसत्थविहायगदी णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ७७ ) । ३. जस्सुदणं जीवो वरवसहगईए गच्छइ गइए । सा सुहिया विहगगई हंसाईणं भवे सा उ ॥ ( कर्मवि. ग. १२८ ) । ४. यस्य कर्मण उदयेन सिंह कुंजर - हंसवृषभादीनामिव प्रशस्ता गतिर्भवति तत्प्रशस्तविहायोगतिनाम । ( मूला. वृ. १२ - १६५ ) । ५. तत्र यदुदयाज्जन्तोः प्रशस्ता विहायोगतिर्भवति, यथा हंसादीनाम्, तत्प्रशस्त विहायोगतिनाम । ( सप्तति. मलय. वृ. ५, पृ. १५३) । ६. गज - वृषभ - हंस-मयू
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प्रशस्तोपबृहण] ७८४, जेन-लक्षणावली
[प्रश्नकुशल का निग्रह करना; इसे प्रशस्त इन्द्रियप्रणिधि कहा लिए उसका प्रशान्तरस नाम सार्थक है । जाता हैं।
प्रश्न--- १. पण्हो उ होइ पसिणं जं पासइ वा सयं प्रशस्तोपबृहण -- पसत्था साहूसु नाण-दसण- तु तं पसिणं । अंगुठुच्चिट्ठ-पडे दप्पण-असि-तोयतव-संजम-खमण-वेयावच्चाइसु अब्भुज्जयस्स उच्छा- कुड्डाई ।। (बृहत्क. १३११) । २. प्रश्नः संशयापतौ हवड्ढणं उवव्हणं ।। (जीतक. चू. २८, पृ. १३)। असंशयार्थ विद्वत्सन्निधौ स्वविवक्षासूचकं वाक्यमिति। साधुनों में ज्ञान, दर्शन, तप, संयम, क्षमण (उप- (पाव. नि. हरि. व. ६१)। ३. नामनि निति वास) और वैयावृत्त्य प्रादि में उद्यत साधु के लक्षणनिर्णयार्थः प्रश्नो भवति, लक्षणे वा निर्माते उत्साह के बढ़ाने को प्रशस्त उपबृहण कहते हैं। नामनिर्ज्ञानार्थः इति । तत्र पूर्वस्मिन् 'किंलक्षणं प्रशंसा-१. गुणोद्भावनाभिप्रायः प्रशंसा। (स. जीवादिद्रव्यम्' इति प्रश्नः, 'उपयोगादिलक्षणम्' सि. ६-२५; त. श्लो. ६-२५); मनसा मिथ्या- इति प्रतिवचनम् । अपरस्मिन् पक्षे 'उपयोगादिलक्षदृष्टेनि-चारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा । (स. सि. ७, णः किन्नामा पदार्थः' इति प्रश्नः, 'जीवादिनामा' २३; त. वा. ७, २३, १; चा. सा. पृ. ४)। इत्युत्तरम् । (न्यायकु. ७-७६, पृ. ८०२) । ४. २. ज्ञान-दर्शन-गुणविशेषोद्धावनं भावतः प्रशंसा। अथिजनेन शुभाशुभ पृष्टो दैवज्ञः स्वप्नादिषु तत्परि(त. भा. ७-१८)। ३. गुणोद्धावनाभिप्रायः ज्ञानार्थं विद्यादिदेवतां यत्पृच्छति स प्रश्नः । (प्राव. प्रशंसा। सद्भूतस्याऽसद्भूतस्य वा गुणस्योद्भावनं हरि. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८३)। ५. या विद्या प्रत्यभिप्रायः प्रशंसेत्युपदिश्यते । (त. वा. ६, २५, मन्त्रा वा विधिना जप्यमानः पृष्टा एव सन्तः शुभा
शुभं कथयन्ति ते प्रश्नाः । (नन्दी. मलय. वृ. १५४, १ गुणों के प्रगट करने के अभिप्राय का नाम प्रशंसा पृ. २३४)। ६. प्रश्नः किमयमस्माभिरनुगृहीतव्यो है। २ ज्ञान व दर्शनरूप विशेष गुणों को भावतः न वेति संघमुद्दिस्य पृच्छा । (अन. ध. स्वो. टी. प्रगट करना, यह प्रशंसा कहलाती है।
७-१८)। प्रशान्तरस-१. निहोसमणसमाहाणसंभवो जो १ देवता आदि से पूछने को प्रश्न कहा जाता है, पसंतभावेणं । अविकारलक्खणो सो रसं पसंतोत्ति अथवा स्वयं व वहां पर स्थित अन्य जन भी जो णायब्दो ॥ (अनुयो. गा. ८०, पृ. १३६) । देखते हैं उसे पसिण (प्राकृत शैली से) कहते हैं । २. हिंसानतादिदोषरहितस्य क्रोधादित्यागेन प्रशान्त- यथा----अंगठे-कंसार (क्षद्र कीड़ा) आदि से स्य इन्द्रियविषयविनिवृत्तस्य स्वस्थमनसः हास्यादि- भक्षित वस्त्र, दर्पण, तलवार, पानी और भित्ती विकारजित: अविकारलक्षण: प्रशान्तो रसो भवति। आदि में अवतीर्ण देवता प्रादि से जो पूछा जाता (अनयो. . पृ. ४६)। ३. निर्दोषमनःसमाधान- है उसे प्रश्न समझना चाहिये । २ किसी पदार्थ के सम्भवः, हिसादिदोषरहितस्य इन्द्रियविषयविनिवृत्त्या विषय में सन्देह के उत्पन्न होने पर उसे दूर करने स्वस्थमनसो यः प्रशान्तभावेन क्रोधादित्यागेन अवि- के लिए विद्वान् के समीप में अपनी विवक्षा के कारलक्षणः हास्यादिविकारजितः असौ रसः सूचक जिस वाक्य का उपयोग किया जाता है प्रशान्तो ज्ञातव्यः । (अनयो. हरि. व. प. ७१)। उसका नाम प्रश्न है। ६ इसके ऊपर हमें अनुग्रह ४. प्रशाम्यति क्रोधादिजनितौत्सुक्यरहितो भवत्यने- करना चाहिये या नहीं, इस प्रकार संघ को लक्ष्य नेति प्रशान्तः, परमगुरुवचःश्रवणादिहेतुसमल्लसितः करके जो पूछा जाता है उसे प्रश्न कहते हैं। यह उपशमप्रकर्षात्मा प्रशान्तो रसः । (अनुयो. गा. भक्तप्रत्याख्यान मरण का इच्छुक जिन अादि मल. हेम. व. ६३, पृ. १३५)।
लिंगों का पाराधक होता है उनमें से एक है। १ निर्दोष-हिंसादि दोषों से रहित, मन के समा- प्रश्नकुशल--चैत्यसंयतानायिकाः श्रावकांश्च बालधान से-उस की विषयविमखतारूप स्वस्थता से, मध्यम-वद्धांश्च पृष्ट्वा कृतगवेषणो याति ा होने वाले निर्विकार-हास्यादि विकारों से रहित-- कुशलः । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. ४०३)। रसको प्रशान्तरस कहते हैं। यह क्रोधादि के जो साधु चैत्यवासी संयतों, प्रायिकाओं, श्रावकों परित्यागरूप शान्तभाव से उत्पन्न होता है, इसी तथा बाल, मध्यम और वृद्धों से पूछकर निर्यापका
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प्रश्नव्याकरण] ७८५, जैन-लक्षणावली
[সহনাসহন चार्य के अन्वेषण के लिए जाता है वह प्रश्नकुशल सुखदुक्ख-जीवियमरणाणि च वण्णेदि। (जयध. कहलाता है।
१, पृ. १३१) । ७. षोडशसहस्र-त्रिनवतिलक्षपदपरिप्रश्नव्याकरण-१. पण्हावागरणेसु णं अठ्ठत्तरं माणं नष्ट मष्टयादीन परप्रश्नानाश्रित्य यथावत्तदर्थपसिणसयं अठ्ठत्तरं अपसिणसयं अठ्ठत्तरं पसिणाप- प्रतिपादकं प्रश्नानां व्याकत प्रश्नव्याकरणम् । (सं. सिणसयं, तं जहा–अंगुट्ठपसिणाई बाहुपसिणाई अद्दा- श्रुतभ. ८, पृ. १७३)। ८. प्रश्नस्य दूतवाक्य-नष्टगपसिणाइ अन्नेवि विचित्ता विज्जाइसया नाग- मष्टि-चिन्तादिरूपस्य अर्थः त्रिकालगोचगे धनधासुवण्णेहि सद्धि दिव्वा संवाया प्राविति, पण्हा- न्यादि-लाभालाभ-सुखदुःख-जीवितमरण-जयपराजयावागरणाणं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुयोगदारा दिरूपो व्याक्रियते व्याख्यायते यस्मिस्तत्प्रश्नव्यासंखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ णिज्ज- करणम् । (गो. जी. जी. प्र. ३५७)। ६. नष्टत्तीअो संखेज्जाम्रो संगहणीयो संखेज्जायो पडिवत्ती- मष्ट्यादिकप्रश्नानामुत्तरप्रदायकं षोडशसहस्राधिकप्रो, से णं अंगट्टयाए दसमे अंगे एगे सुअक्खंधे पण- विनवतिलक्षपदप्रमाण प्रश्नव्याकरणम् । (त. वृत्ति यालीसं अज्झयणा पणयालीसं उद्देसणकाला पणया- श्रुत. १-२०)। १०. पण्हाणं वायरणं अंगपयाणि लीसं समुद्देसणकाला संखेज्जाइं पयसहस्साइं पयग्गेणं तियसुण्ण सोलसियं । तेणवदिलक्खसंखा जत्थ जिणा संखेज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पज्जवा परित्ता वेंति सुणह जणा ।। पण्हस्स दूदवयणणट्ठमुट्टिमरुत्थयतसा अणंता थावरा सासयगडनिवद्ध निकाइया जिण- सरूंवस्स । धादुणरमूलजस्स वि अत्थो तियकालगोचपन्नत्ता भावा प्राविज्जति पन्नविज्जति परूवि- रयोः ।। धणधण्णजयपराजयलाहालाहादिसुहदुहं णेयं । विज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति, जीवियमरणत्थो वि य जत्थ कहिज्जइ सहावेण । से एवं आया से एवं नाया एवं विन्नाया एवं चरण- (अंगप. ५६-५८, पृ. २६८-६६) । करणपरूवणा आघविज्जइ, सेत्तं पण्हावागरणाई १ जिसमें एक सौ आठ प्रश्नों, एक सौ आठ अप्रश्नों, १०। (नन्दी. सू. ५४, पृ. २३४) । २. आक्षेप- एक सौ पाठ प्रश्नाप्रश्नों, तथा अंगुष्ठप्रश्न, बाहुविक्षेपहेतु-नयाश्रितानां प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्या- प्रश्न एवं प्रादर्शप्रश्नरूप विचित्र बिद्यातिशयों के करणम्, तस्मिल्लौकिक-वैदिकानामर्थानां निर्णयः । निरूपण के साथ नागकुमार व सुवर्णकुमारों के साथ (त. वा. १, २०, १२) । ३. प्रश्नितस्य जीवादेर्यत्र होने वाले दिव्य संवादों का भी निरूपण किया जाता प्रतिवचनं भगवता दत्तं तत्प्रश्नव्याकरणम् । (त. है उसे प्रश्नव्याकरण (दसवां अंग) कहा जाता है। भा. हरि. व सिद्ध. वृ. १-२०)। ४. प्रश्न: प्रती- २ जिस अंगश्रुत में शंका-समाधानपूर्वक हेतु तस्तन्निर्वचनं व्याकरणम् । (नन्दी. हरि. व. प. और नयों के आश्रित प्रश्नों का व्याख्यान किया १०५)। ५. पण्हवायरणं णाम अंगं तेणउदिलक्ख- जाता हैं वह प्रश्नव्याकरणांग कहलाता है। इसमें सोलहसहस्सपदेहि ९३१६००. अक्खेवणी विक्खे- लौकिक व वैदिक अर्थों का निर्णय भी किया वणी संवेयणी णिवेयणी चेदि चउविहानो कहानो जाता है। वदि । (धव, पु. १, पृ. १०४); प्रश्नानां व्या- प्रश्नाप्रश्न-१. पसिणापसिणं सुमिणे विज्जासिल करणं प्रश्नव्याकरणम्, तस्मिन् सविनवतिलक्ष-षोडश- कहेइ अन्नस्स । अहवा आइंखिणिया घंटियसिट्ठ पदसहस्र ६३१६००० प्रश्नान्नष्ट-मुष्टि-चिन्ता- परिकहेइ ।। (बृहत्क. भा. १३१२)। २. सुविणयलाभालाभ-सुखदुःख-जीवितमरण - जयपराजय-नाम- विज्जाकहियं प्राइंखणिघंटियाकहियं वा। जं सासइ द्रव्यायुस्संख्यानानि लौकिक-वैदिकानामर्थानां निर्ण- अन्नेसि पसिणापसिणं हवइ एयं ॥ (आव. नि. हरि. यश्च प्ररूप्यते, आक्षेपणी-विक्षेपणी-संवेदनी-निर्वेद- वृ. ११०७, पृ. ५१८ उद्.) । ३. अथिजनप्रश्नाद्देवन्यश्चेति चतस्रः कथा एताश्च निरूप्यन्ते । (धव. पु. तायाः प्रश्नः प्रश्नाप्रश्नः । xxx ६, पृ. २०२)। ६. पण्हवायरणं णाम अंगं अक्खे- द्यया-विद्यादेवतया-कथितं स्वप्नविद्याकथितम्, वणी-विक्खेवणी-संवेयणी-णिव्वेयणीणामाग्रो चउ- अथवा स्वप्नस्य विद्या स्वप्नविद्या, तया कथितं विहं कहानो पण्हादो णट्ठि-मुट्ठि-चिता-लाहालाह- स्वप्नविद्याकथितम्, आख्याति शुभाशुभमित्याख्यायि
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प्रश्वास] ७८६, जैन-लक्षणावली
[प्राकाम्य का देवताविशेषरूपा तया कर्णद्वारे वादितघण्टिका प्रसेनी, सूर्यप्रसेनी और स्वप्न प्रसेनी आदि विद्याओं द्वारेण कथितम्, आख्यायिका देवता हि मन्त्रेणाहूता के द्वारा लोक को अनुरंजित करने वाले साधु को घण्टिकाद्वारेण शुभाशुभं दैवज्ञस्य कथयति, एतच्च प्रसेनिकाकुशील कहते हैं। देवताकथितं यदन्येभ्यः शिष्यते कथ्यते स प्रश्ना- प्रस्थ-- १. Xxx पलाणि पुण अद्धतेरस उ प्रश्नः । (प्राव. हरि. वृ. मल. टि. पृ.८३) । ४. ये पत्थो। (ज्योतिष्क. १६)। २. चतुःकुडवः प्रस्थः । पृष्टा अपृष्टाश्च कथयन्ति ते प्रश्नाप्रश्नाः । (नन्दी. (त. वा. ३, ३८, ३, पृ. २०६)। ३. अर्द्ध त्रयोदशमल. हेम. व. ५४, पृ. २३४) । ५. प्रश्नाप्रश्नं नाम पलानि सार्वानि द्वादशपलानि प्रस्थः । (ज्योतिष्क. यत् स्वप्नविद्यादिभिः शिष्टस्यान्येभ्यः कथनम् । मलय. व. १६)। ४.xxx प्रस्थो द्वादशभि(व्यव. भा. मलय. वृ.पृ. ११७)।
श्च तैः (पलैः) । (लोकप्र. २८-२५७) । १ स्वप्न में अवतीर्ण विद्या-अधिष्ठात्री देवता १ साढ़े बारह पलों का एक प्रस्थ होता है । २ चार
—के द्वारा जो कहा गया है उसे अन्य प्रश्नकर्ता के कुडव प्रमाण माप को प्रस्थ कहते हैं। लिए कहना, अथवा शुभाशुभ का कथन करने वाली प्रहार -प्रहारोऽस्यादिना स्वस्य प्रहारे निकटस्य देवताविशेष के द्वारा घण्टा बजाकर जो कुछ कान वा । (अन. ध. ५-५७) । में कहा गया है उसे अन्य प्रश्नकर्ता के लिये कहना, साधु के भोजन करते समय उसके ऊपर या निकटइसे प्रश्नाप्रश्न कहा जाता है।
वर्ती किसी अन्य के ऊपर तलवार प्रादि से प्राघात प्रश्वास-कोष्ठस्य वायोनिश्वसनं प्रश्वासः। (योग- किये जाने पर प्रहार नाम का भोजनविषयक अन्तशा. स्वो. विव. ५-४)।
राय होता है। उदररूप कोठे को वायु के निःश्वसन को प्रश्वास प्राकाम्य-१. सलिले वि य भूमीए उम्मज्ज-णिमकहते हैं।
ज्जणाणि जं कुणदि । भूमीए वि य सलिले गच्छदि प्रसङ्गसाधन-१. यत्र हि व्याप्याभ्युपगमो व्याप- पाकम्मरिद्धी सा ।। (ति. प. ४-१०२६)। २. अप्सु काभ्यूपगमनान्तरीयकः प्रदश्यते प्रत्प्रसङ्गसाधनम् ।। भूमाविव गमनं भूमौ जल इवोन्मज्जन-निमज्जनकरणं (सिद्धिवि. वृ. ३-६, पृ. ४३)। २. प्रसङ्गसाधनं प्राकाम्यम्। (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३; चा. सा. परस्येष्ट्या अनिष्टापादनात् । (प्र. क. मा. पृ. पृ. ६८)। ३. कुल-सेल-मेरु-महीहर-भूमीणं बाहमका५४४)।
ऊण तासु गमणसत्ती तवच्छरणवलेणुप्पण्णा पागम्म १ जिस साधन में व्याप्य की स्वीकृति को व्यापक णाम। (धव. पु. ६,प. ७६); घणपुढवि-मेरु-सायराकी अविनाभाविनी-व्यापक की स्वीकृति के विना णमंतो सव्वसरीरेण पवेससत्ती पागम्म णाम। (धव. न होने वाली-दिखलाया जाता है उसे प्रसंगसाधन पु. ६,प. ७६)। ४. प्राकाम्यं यत्प्रचुरकामो भवति, कहते हैं । २ पर के मन्तव्य से ही जो उसे अनिष्ट विषयान् भोक्तुं शक्नोति इत्यर्थः। (न्यायकु. १-४, का प्रसंग दिया जाता है, उसे प्रसंगसाधन कहा पृ. १११)। ५. प्राकाम्यमप्सु भूमाविव प्रविशतो जाता है।
गमनशक्तिः तथा अप्स्विव भूमावन्मज्जन-निमज्जने । प्रसन्ना–प्रसन्ना द्राक्षादिद्रव्यजन्या मनःप्रसत्ति- (योगशा. स्वो. विव. १-८, पृ. ३७, प्रव. सारो. वृ. हेतुः । (विपाक. अभय. व. २-१०, पृ. २३)। १५०५, प. ४३२) । ६. भमाविव जला द्राक्षा (अंगूर या मुनक्का) आदि द्रव्यों से उत्पन्न प्रतिहतगमनं प्रागम्यम् । न सर्वत्र गमनम् अगमः, होने वाली और मन को प्रसन्न करने वाली मदिरा प्रगतोऽगमो यस्मात् प्रकृष्टो वा पा समन्तात् गमो को प्रसन्ना कहते हैं।
यस्मादसौ प्रागमस्तस्य भावः प्रागम्यम् । (प्रा. प्रसेनिकाकुशील -- अंगुष्ठप्रसेनिका अक्षरप्रसेनी योगिभ. टी. ६, पृ. १९६)। ७. प्राकाम्यवान् भुवीप्रदीपप्रसेनी शशिप्रसेनी सूर्यप्रसेनी स्वप्नप्रसेनीत्येव- वाप्सु भुवि वाप्स्विव चङ्कमेत् ॥ (गु. गु. षट्. मादिभिर्जनं रंजयति यः सोऽभिधीयते प्रसेनिका- स्वो. व. ८, पृ. ३० उद्.)। ८. जले भूमाविव कुशीलः । (भ. प्रा. विजयो. १९५०)।
गमनं भूमौ जले इव मज्जनोन्मज्जनविधानं प्राकान अंगुष्ठप्रसेनिका, अक्षरप्रसेनिका, प्रदीपप्रसेनी, शशि- म्यम् । अथवा जाति-क्रिया-गुण-द्रव्य-सैन्यादिकरणं
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प्राकार] ७८७, जैन-लक्षणावली
[प्राज्ञश्रमण च प्राकाम्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। सितच्छत्रनिभा शुभा। ऊध्वं तस्याः क्षिते: सिद्धाः १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से स्थल में जल के समान लोकान्ते समवस्थिताः ।। (त. भा. १०, १६-२०, उन्मज्जन-निमज्जन किया जा सकता है तथा भूमि पृ. ३२२)। के समान जल पर गमन विया जा सकता है वह जो प्राग्भार नाम की पृथिवी पतली-मध्य में पाठ प्राकाम्य ऋद्धि कहलाती है । ४ प्राकाम्य ऋद्धि का योजन मोटी होकर सब ओर क्रम से हीन होती हुई धारक जीव प्रचुर अभिलाषायुक्त होता है-वह अन्त में मक्खी के पंख के समान पतली, मनोहर, विषयों के भोगने में समर्थ होता है। ६ भूमिके समान सुगन्धित, पवित्र और दैदीप्यमान होकर मनथ्यलोक जल पर निर्बाध गमन कर सकने का नाम प्रागम्य के समान पैतालीस लाख योजन विस्तृत व सफेद ऋद्धि है । जिस ऋद्धि के होने पर सर्वत्र अगम - छत्र के समान आकार वाली है। उसके ऊपर लोक गमनाभाव-समाप्त हो जाता है, अर्थात सर्वत्र के अन्त में सिद्ध जीव अवस्थित हैं। जाया जा सकता है, उसे प्रागम्य ऋद्धि कहते हैं। प्राचीनदेशावकाशिक- प्राचीनं पूर्वाभिमुखम्, प्राकार-जिणहरादीणं रक्खळं पासेसु विदोलि- प्राच्यां दिश्येतावन्मयाऽद्य गन्तव्यम् XXX त्तीप्रो ट्ठविदानो भित्तीपो] पागारा णाम । (धव. इत्येवंभूतं सः (देशावकाशिकव्रती) प्रतिदिनं प्रत्यापु. १४, पृ. ४०)।
__ ख्यानं विधत्ते । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ७, ७६, जिनगहादिकों की रक्षा के लिये जो उनके पाव- पृ. १८२)। भागों में भी स्थापित (निर्मापित) की जाती हैं पूर्व दिशा में मैं आज इतनी दूर जाऊंगा, इस प्रकार उन्हें प्राकार कहा जाता है।
से जो देशावकाशिकवती पूर्व दिशा में प्राने जाने का प्राकृत भाषा–१. प्रकृतौ भवं प्राकृतम्, स्वभाव- प्रतिदिन नियम करता है, इसे प्राचीनदेशावकासिद्धमित्यर्थः । (बृहत्क. मलय. वृ. २) । २. प्राकृतं शिकव्रत कहते हैं। तज्ज-तत्तुल्य-देश्यादिकमनेकधा । (प्रलं. चि. प्राजापत्य विवाह-१. विनियोगेन कन्याप्रदानात् २-१२०)।
प्राजापत्यः । (नीतिवा. ३१-७, पृ. ३७५) । १ जो भाषावचन प्रकृति (स्वभाव) से सिद्ध हैं २. विनियोगेन विभवस्य कन्याप्रदानात् प्राजापत्यः । उन्हें प्राकृत कहा जाता है । २ संस्कृत से उत्पन्न, (ध. बि. मु. वृ. १-१२)। ३. विभवविनियोगेन उसके सदृश और देशी आदि के भेद से प्राकृत कन्यादानं प्राजापत्यः । (योगशा. स्वो. विव. १-४७; भाषा अनेक प्रकार की है।
श्राद्धगु. पृ. १४; धर्मसं. मान. १, पृ. ५)। ४. तथा प्रागभाव-१. कार्यस्यात्मलाभात् प्रागभवनं प्राग- च गुरुः-धनिनो धनिनं यत्र विषये कन्यकामिह । भावः । (अष्टस. १०, पृ. ६७) । २. उत्पत्तेः पूर्वम- सन्तानाय स विज्ञेयः प्राजापत्यो मनीषिभिः । भावः प्रागभावः । (सिद्धिवि. वृ. ३-१६, प. (नीतिवा. टी. ३१-७ उद्.)। २०४) । ३. क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति प्रागभावः स १ जिस विवाह में सम्पत्ति के विनियोग के साथ उच्यते । (प्रमाल. ३८५)। ४. यन्निवृत्तावेव कन्या को प्रदान किया जाता है उसे प्राजापत्य कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागभावः । (प्र. न. त. विवाह कहा जाता है। ३-५५)।
प्राज्ञश्रमण-देखो प्रज्ञाश्रवण । प्रकृष्टश्रुतावरण१ कार्य के उत्पन्न होने से पूर्व जो उसका प्रभाव वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतासाधारणमहाप्रज्ञद्धिलारहता है उसे प्रागभाव कहते हैं। ४ जिसकी निवृत्ति भा अनधीतद्वादशांग-चतुर्दशपूर्वा अपि सन्तो यमर्थ होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है वह प्रागभाव चतुर्दशपूर्वी निरूपयति तस्मिन् विचारकृच्छ्रे ऽप्यर्थेकहलाता है।
ऽतिनिपुणप्रज्ञाः प्राज्ञश्रमणाः । (योगशा. स्वो. विव. प्रागम्य-देखो प्राकाम्य ।
१-८, पृ. ३७-३८)। प्राग्भारवसुधा- देखो ईषत्प्राग्भार । तन्वी श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के प्रकृष्ट क्षयोपशम मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभास्वरा । प्राग्भारा नाम से प्रगट हुई असाधारण महाबुद्धि ऋद्धि से युक्त होकर वसुधा लोकमूनि व्यवस्थिता । नृलोकतुल्य विष्कम्भा जो बारह अंगों और चौदह पूर्वो का अध्ययन न
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प्राण] ७८८, जैन-लक्षणावली
[प्राणवादपूर्व करके भी चौदह पूर्वो का धारक जिस अर्थ का सो णिस्सासो एगो पाणो त्ति माहिदो एसो॥ (धव. निरूपण करता है उस सूक्ष्म भी पदार्थ के विषय में पु. ३, पृ. ६६ उद्.)। १४. तावुच्छ्वास-निःश्वासाअतिशय निपुणबुद्धि से युक्त होते हैं वे प्राज्ञश्रमण वित्प्रमाणौ शरीरबलयुक्तस्यानुपहतकरणग्रामस्य कहलाते हैं।
नीरुजस्य मध्यं वयोऽनुप्राप्तस्य मनोदुःखेनानभिभूप्राण-१. xxx पाणा पुण बलमिदियमाउ तस्य पुरुषस्य प्राणो नाम कालविशेषो भवति । (त. उस्सासो।। (पंचा. का. ३०)। २. वीर्यान्त राय- भा. सिद्ध. व. ४-१५)। १५. प्राणन्ति यैः सदा ज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामोदयापेक्षिणाऽऽत्म - जीवाः प्राणैर्बाह्य रिवान्तरैः। प्राणा: प्रवर्तमानास्ते ना उदस्यमान: कोष्ठ्यो वायुरुच्छ्वासलक्षण: प्राण प्राणिनां जीवितावधि ॥ (पंचसं. अमित. १-१२३, इत्युच्यते । (स. सि. ५-१६)। ३. तौ उच्छ्वास- प. १६)। १६. प्रकर्षेण नयतीति प्राणः, xxx निःश्वासौ) बलवतः पट्विन्द्रियस्य कल्पस्य मध्य- अथवा प्रसरणेनापसरणेन समन्तात् प्रसरणादूर्ध्व व्यामवयसः स्वस्थमनसः पुंसः प्राणः। (त. भा. ४-१५)। प्त्या अनिति अनेनेति घनन्तः प्राणम् । (योगशा. स्वो. ४. हट्ठस्स प्रणवगल्लस्स निरुवक्किट्ठस्स जंतुणो। एगे विव. ५-१३); प्राणो नासाग्रहृन्नाभिपादाङ्गुष्ठांतऊसास-णीसासे एस पाणु त्ति वुच्चइ। (भगवती. पृ. गो हरित् । (योगशा. ५-१४)। १७. तौ द्वावपि ८२४; अनुयो. गा. १०४, पृ. १७८-७६; जम्बूद्वी. समुदितावेकः प्राणो भण्यते। यथोक्तपुरुषगतोच्छ्वास१८, पृ. ८६; ध्यानश. हरि. बृ. ३, पृ. ५८३ उद्.)। निःश्वासप्रमितः कालविशेषः प्राणः । (ज्योतिष्क. ५. उस्सासो निस्सासो य दो (दुवे) वि पाणत्ति मलय. वृ. ६)। १८. द्वयोरपि (उच्छ्वास-नि.श्वाभन्नए एक्को। (ज्योतिष्क. ६)। ६. हट्टष्णगल्लु- सयोः) कालः प्राणः । (षडशी. दे. स्वो. वृ. ६६)। स्सासो एसो पाणुत्ति सन्निो एक्को। (जीवस. १६. संख्येयाभिश्चावलीभिः प्राणो भवति निश्चितम् ।। १०७) । ७. बाहिरपाणेहिं जहा तहेव अब्भंतरेहिं नीरोगस्यानुपहतकरणस्य बलीयसः । प्रशस्ते यौवने पाणेहिं । जीवंति जेहिं जीवा पाणा ते होंति बोद्ध- वर्तमानस्याव्याकुलस्य च ।। अप्राप्तस्याध्वनः खेदमाब्बा ।। (प्रा. पंचसं. १-४५; धव. पु. १, पृ. २५६ श्रितस्य सुखासनम् । स्याद्यदुच्छ्वास-निःश्वासमानं उद्. गो. जी. १२८)। ८. आहि-वाहिविमुक्कस्स प्राणः स कीर्तितः ॥ उच्छवास ऊर्ध्वगमनस्वभाव: मीसासूसास एगगो। पाणxxx (बृहत्सं. १७९% परिकीर्तितः । अधोगमनशीलश्च निःश्वास इति संग्रहणी. १६६)। ६. xxx तावुभौ प्राण कीर्तितः ।। संख्येयावलिकामानौ प्रत्येकं तावुभावपि । इष्यते ।। (ह. पु. ७-१६)। १०. कोष्ठयो वायुरु- द्वाभ्यां समुदिताभ्यां स्यात्काल: प्राण इति स्मृतः ।। एछ्वासलक्षणः प्राणः । वीर्यान्तराय-ज्ञानावरणक्षयो- (लोकप्र. २८, २१२-१६)। पशमाङ्गोपाङ्गनामोदयापेक्षिणः प्रात्मना उदस्यमानः १ बल, इन्द्रिय, प्रायु और उच्छ्वास ये प्राण कोष्ठयो वायुरुच्छ्वासलक्षणः प्राण इत्युच्यते ।(त. वा. कहलाते हैं। २ बीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म ५, १६, ३५)। ११. तावच्छवास-निःश्वासी, बलवतः के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से शरीरबलेन, पट्विन्द्रियस्यानुपहतकरणग्रामस्य, कल्प- ऊपर जाने वाली उच्छ्वासरूप कोष्ठ (उदर) की स्य नीरुजस्य, मध्यमवयसः भद्रयौवनवतः, स्वस्थमनसो वायु को प्राण कहा जाता है। ३ शारीरिक बल से अनाकूलचेतसः, पुंसः पुरुषस्य प्राणो नाम कालभेदः। सहित, अविनष्ट इन्द्रियों से संयुक्त, रोग से रहित (त. भा. हरि. वृ. ४-१५); ऊर्ध्वगामी समीरणः एवं मध्यम अवस्था से युक्त-न बाल और न वृद्ध प्राणः । (त. भा. हरि. व. ८-१२)। १२. संखे- --ऐसे स्वस्थ मन वाले पुरुष के संख्यात प्रावलियों ज्जायो प्रावलियाओ पाणुत्ति---ऊसासो, संखेज्जाओ प्रमाण उच्छ्वास व निःश्वास इन दोनों रूप कालप्रावलियानो णिस्सासो, दोण्हवि कालो एगो पाण। विशेष का नाम प्राण है। (अनुयो. हरि. व. पृ. ५४) । १३. प्राणिति एभि- प्राणवादपूर्व-देखो प्राणायु । १. कायचिकित्साद्यरात्मेति प्राणः पञ्चेन्द्रिय-मनोवाक्कायानापानायूंषि ष्टांग प्रायुर्वेदः भूतिकर्मजागुलिकप्रक्रमः प्राणापानइति । (धव. पु. २, पृ. २५६); प्राणिति जीवति विभागोऽपि यत्र विस्तरेण वणितस्तत्प्राणावायम् । एभिरिति प्राणः । (धव. पु. २, पृ. ४१२); उस्सा (त. वा. १-२०, १२, पृ. ७७; धव. पु. ६, पृ. २२२,
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प्राणवादपूर्व] ७८६, जैन-लक्षणावली
[प्राणापान २२३)। २. पाणावायं णाम पुव्वं दमण्हं वत्थूणं १० उच्छ्वास-निःश्वास और प्रायु; इन दस प्राणों को विसदपाहुडाणं २०० तेरसकोडिपदेहि १३०००००००। प्राणधारी (जीव) से अलग करना, इसका नाम काय-चिकित्साद्यष्टाङ्गमायुर्वेदंभतिकर्मजालिप्रक्रमं प्राणातिपात है। प्राणापान विभागं च विस्तरेण कथयति । (धव. पु. प्राणातिपातक्रिया-देखो प्राणातिपातिकी। १, पृ. १२२)। ३. पाणावायपवादो दसविधपाणाणं प्राणातिपातिकी क्रिया-- १. आयुरिन्द्रिय-बलहाणिवड्ढीग्रो वण्णेदि । xxxकरि-तुरय-णरथि- प्राणानां वियोगकरणात प्राणातिपातिकी क्रिया । संबद्धमट्ठगमाउव्वेयं भणदि त्ति वुत्तं होदि। (जयध. (स. सि. ६-५, त. वा. ६, ५, ८)। २. इन्द्रिया१, पृ. १४६) । ४. त्रयोदशकोटिपदं प्राणापानविभा- यूर्बलप्राणवियोगकरणात क्रिया । प्राणातिपातिकी गायुर्वेद-मंत्रवाद-गारुडवादादीनां प्ररूपकंप्राणावायम् नाम्ना xxx ॥ (ह. पु. ५८-६८)। ३. १३०००००००। (श्रुतभ. टी. १३, पृ. १७६)। आयुरिन्द्रिय-बलप्राणानां वियोगकारिणी प्राणातिपा५. अष्टांगवैद्यविद्या-गारुडविद्या-मंत्रतंत्रादिनिरूपकं तिकी क्रिया । (भ. प्रा. विजयो. ८०७)। ४. प्राणा त्रयोदशकोटिपदप्रमाणं प्राणावायपूर्वम् । (त. वृत्ति इन्द्रियादयस्तेषामतिपातो विनाशस्तद्विषया, प्राणातिश्रत. १-२०)। ६ पाणावायं पुव्वं तेरहकोडीपयं पात एव वा क्रिया प्राणातिपातक्रिया। (प्रज्ञाप. णमंसामि । जत्थ वि कायचिकिच्छा पमुहठंगायुवे- मलय. वृ. २७६, पृ. ४३५); प्राणातिपातक्रिया यं च ॥ भूदीकम्मं जंगुलिपक्कमाणासाहया परे भेया। जीविताद् व्यपरोपणम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २८१, ईडापिंगलादिपाणा पुढवी-पाउग्गिवायूणं ॥ तच्चाणं प. ४४०)। ५. दशप्राणवियोगकरणं प्राणातिपातिबहुभेयं दहपाणपरूवणं च दव्वाणि। उवयारयावया- कीक्रिया। (त. वा. श्रुत. ६-५)। रयरूवाणि य तेसिमेवं खु ॥ वणिज्जइ गइभेया जि- १ आय, इन्द्रिय और बल प्राणों का वियोग करना; णवरदेवेहि सव्वभासाहि । (अंगप. २, १०७-१०, इसे प्राणातिपातिकी क्रिया कहते हैं। पृ. ३००-३०१)।
प्राणातिपातविरमण- सुहुमादीजीवाणं सव्वेसि १. शरीरचिकित्सादि अष्टांग प्रायवेद, भतिकर्म- सव्वहा सुपणिहाणं । पाणाइवायविरमणमिह पढमो शरीर की रक्षा के लिए किये जाने वाले भस्मलेपन होइ मूलगुणो ।। (धर्मसं. हरि. ८५८)। -जांगुलिप्रक्रम (विषविद्या) और प्राणापानविभाग उत्तम विचारों के साथ सभी सूक्ष्मादि जीवों के --प्राण व अपानरूप वायुनों के विभाग-का भी प्राणघात का परित्याग करना, यह मुनियों का वर्णन करने वाले श्रुत को प्राणवाद या प्राणावादपूर्व प्रथम (अहिंसामहाव्रत) कहते हैं।
प्राणापान-१. प्राणिति जीवति येन जीवः स प्राणः, प्राणातिपात-१. पाणादिवादो णाम पाणेहितो अपग्रनिति हर्षेण जीवति विकृत्या वा जीवति येन पाणीणं विजोगो। सो जत्तो मण-वयण-कायवावारादी- जीवः स अपानः, कोष्ठाद्वहिनिर्गच्छति यः स प्राण हितो ते वि पाणादिवादो। xxx पाणादिवादो उछवास इत्यर्थः, बहिर्वायुरम्यन्तरमायाति यः स अणाम हिंसाविसयजीववावारो। (धव. पु. १२, प्र. पान: निःश्वासः, प्राणश्च अपानश्च प्राणापानौ । २७५-७६) । २. प्राणा उच्छ्वासादयः, तेषामति- xxx वीर्यान्तरायस्य ज्ञानावरणस्य च क्षयोपपातनं प्राणवता सह वियोजनं प्राणातिपातो हिंसेत्य- शमम् अङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयं चापेक्षमाणो जीवोऽयं र्थः । उक्तं च---पञ्चेन्द्रियाणि विविधं बलं च उच्छ- कोष्ठवातं बहिरुदस्यति प्रेरयति स वातः प्राणः वास-निःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरु- उच्छवासापरनामधेयः । तथा तादृग्विधो जीवः क्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ।। (स्थाना. अभय. बहिर्वातमभ्यन्तरे करोति गृह्णाति नासिकादिद्वारेण वृ. १-४८, पृ. २४)।
सोऽपानः निःश्वासापरनामधेयः । (त. वृत्ति श्रुत. १. प्राणों से प्राणियों के वियोग करने का नाम ५-१६. प्र. १६० व १६२) । २. वीर्यान्तराप्राणातिपात है। वह प्राणवियोग जिन मन, वचन व य-ज्ञानावरणक्षयोपशमांगोपांगनामोदयाऽपेक्षेणात्मनोकायके व्यापार प्रादि से होता है उन्हें भी प्राणा- दस्यमानकम्प्रवायुरुच्छ्वासलक्षणः स प्राणः, तेनैव तिपात कहा जाता है। २ पांच इन्द्रियां, तीन बल, वायनात्मनो बाह्यवायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निःश्वास
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प्राणापानपर्याप्ति ]
लक्षणोऽपानः । ( कार्तिके. टी. २०९ ) । १ वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम तथा अंगोपांगनामकर्म के उदय की अपेक्षा से जीव जिस उदरगत वायु को बाहिर निकालता है उसे प्राण या उच्छ्वास कहा जाता है तथा वही जीव बाहिरी वायु को नाक श्रादि के द्वारा भीतर करता है उसे प्रपान या निःश्वास कहा जाता है । प्राणापानपर्याप्ति --- १. प्राणापानक्रियायोग्यद्रव्यग्रहण- निसर्गशक्तिनिवर्तनक्रियापरिसमाप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः । ( त. भा. ८- १२; नन्दी. हरि. वृ. पृ. ४४) । २. प्राणापानौ उच्छ्वास- निःश्वासौ, तद्योग्यकरणनिष्पत्तिः प्राणापानपर्याप्तिः । ( त. भा. हरि वृ. ८ - १२ ) । ३. प्राणापानावुच्छ्वास निःश्वासक्रियालक्षणौ तयोर्वर्गणाक्रमेण योग्यद्रव्य ग्रहणशक्तिः - सामर्थ्यम्, तन्निवर्तनक्रियापरिसमाप्तिः प्राणापानपर्या प्तिः । ( त. भा. सिद्ध वृ. ८ - १२ ) । ४. यया पुनरुच्छ्वासयोग्य वर्गण । दलिकमादाय उच्छ्वासरूपतया परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा प्राणापानपर्याप्तिः । ( प्रव. सारो. वृ. १३१७; बृहत्क. क्षे. वृ. १११२ ) । ५. प्राणापानपर्याप्तिः यया उच्छ्वास- निःश्वासयोग्यं दलिकमादाय तथा परिणमय्यालम्ब्य च निःस्रष्टुं समर्थो भवति । ( संग्रहणी. दे. वृ. २६८; विचारस. वृ. ४३, पृ. ९ ) ।
१ प्राणापान – श्वास और उच्छ्वास क्रिया के योग्य द्रव्य के ग्रहण व त्याग शक्ति के रचनेरूप क्रिया की समाप्ति को प्राणापानपर्याप्ति कहते हैं । प्राणायाम - १. प्राणायामो भवेद्योगनिग्रहः शुभभावनः । (म. पु. २१ - २२७ ) । २. सुनिर्णीतसुसिद्धान्तैः प्राणायामः प्रशस्यते । मुनिभिर्ध्यानसिद्धयर्थं स्थेयार्थं चान्तरात्मनः । त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः । पूरक: कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ।। (ज्ञाना. २६ - १ व ३, पृ. २८४-८५) । ३. प्राणस्य मुख-नासान्तरसंचारिणो वायोः श्रासमन्तात् यमनं गतिविच्छेद: प्राणायामः । (योगशा. स्वो विव. ५ - १ ); प्राणायामो गतिच्छेदः श्वासप्रश्वासयोर्मतः । (योगशा. ५-४ ) । ४. प्राणायामः प्राणयमः, श्वास-प्रश्वासरोधनम् ॥ ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. ८ उद्) ।
७६०, जैन-लक्षणावली
१ उत्तम भावनापूर्वक मन, वचन और काय इन तीनों योगों के निग्रह करने को प्राणायाम कहते हैं ।
[प्राणी
२ जिसके द्वारा ध्यान की सिद्धि और अन्तरात्मा की स्थिरता होती है उसका नाम प्राणायाम है। वह पूरक, कुम्भक और रेचक के भेद से तीन प्रकार का है । ४ श्वास और प्रश्वास के निरोध को प्राणायाम कहा जाता है ।
प्राणायु-देखो प्राणवादपूर्व । प्राणायुर्द्वादशं तत्राप्यायुः प्राणविधानं सर्वं सभेदमन्ये च प्राणा वर्णितास्तत्परिमाणमेका पदकोटी षट्पञ्चाशच्च पदशतसहस्राणीति । (समवा. प्रभय. वृ. १४७, पृ. १२२ ) । जिस श्रुत में भेदों के साथ प्रायु प्राण की विधि तथा अन्य प्राणों का भी वर्णन किया जाता है वह प्राणायु या प्राणवादपूर्व कहलाता है । प्राणावाय पूर्व- देखो प्राणवादपूर्व । प्राणासंयम - १. पाणासंजमो वि छव्विहो पुढविश्राउ-तेउ वाउ वणफदि तसा संजम भेएण । ( धव. पु. ८, पृ. २१) । २. रसजजन्तुपीडा प्राणासंयमः । ( भ. प्रा. विजयो. २१३ ) । ३. यच्च पृथिव्यप्तेजोवायु-वनस्पतिलक्षणपंचस्थावराणां द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रि- चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रियलक्षणत्रसानां च प्रमादचारित्रत्वाज्जीवितव्यपरोपणं सः प्राणासंयमः । ( श्रारा. सा. टी. ६) ।
1
१ पृथिवी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस इन छह प्रकार के जीवों के श्रसंयम- प्राणपीडन - का नाम प्राणासंयम है । वह उक्त जीवभेदों के कारण छह प्रकार का है ।
प्राणिवध प्राणिवधः प्रमादवतो जीवहिंसनम् । (मूला. वृ. ११ - ९ ) ।
प्रमाद के वश होकर जीवों के घात करने को प्राणिवध कहते हैं ।
प्राणिसंयम - १. एकेन्द्रियादिप्राणिपीडापरिहारः प्राणिसंयमः । (त. वा. ६, ६, १४; चा. सा. पृ. ३२) । २. षड्जीवनिकायबाधाऽकरणादपरः प्राणिसंयमः । ( भ. प्रा. विजयो. ४६ ) ।
१ एकेन्द्रियादि जीवों को किसी भी प्रकार से पीडा न पहुंचाना, इसका नाम प्राणिसंयम है । प्राणी - १. पाणा एयस्स संति त्ति पाणी । ( धव. पु. १, पृ. ११६ ) ; प्राणा अस्य सन्तीति प्राणी । ( धव. पु. ६, पृ. २२० ) । २. णयदुगुत्तपाणा अस्स अत्थि इदि पाणी । ( अंगप. पू. २५) ।
१ जिसके इन्द्रिय, बल, श्रायु और श्वासोच्छ्वास
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प्रातराशः ]
ये चार प्राण पाये जाते हैं उसे प्राणी कहते हैं । प्रातराशः --- प्रातरशनं प्रातराशः प्रातर्भोजनकालम् । (श्राव. नि. हरि. वृ. २१७ ) । प्रातःकाल सम्बन्धी भोजन के काल का नाम प्रातराश है।
प्रात्ययिकी क्रिया - १. अपूर्वाधिकरणोत्पादनात् प्रात्ययिकी क्रिया । ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ६) । २. उत्पादनादपूर्वस्य पापाविकरणस्य तु । पापास्रवकरी प्रायः प्रोक्ता प्रात्ययिकी क्रिया ॥ ( ह. पु. ५८-७१ ) । ३. पूर्वप्राणिघातार्थोपकरण प्रवर्तनम् । क्रिया प्रात्ययिकी ज्ञेया इिसाहेतुस्तथापरा ॥ (त. इलो. ६, ५, १४) । ४. अपूर्वहिंसादिप्रत्ययविधानं प्रतीतिजननं प्रात्ययिकी क्रिया । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - ५ ) ।
१ हिंसा के कारणभूत नये नये उपकरणों के बनाने को प्रात्ययिकी क्रिया कहते हैं । प्रादुष्करण - देखो प्रादुष्कार । १ साधूनुद्दिश्य गवाक्षादिप्रकाशकरणं बहिर्वा प्रकाशे श्राहारस्य व्यवस्थापनं प्रादुष्करणम् । ( श्राचारा. सू. शी. वृ. २, १, २६६, पृ. ३१७ ) । २. यदन्धकारव्यवस्थितस्य द्रव्यस्य वह्नि प्रदीप-मण्यादिना भित्त्यपनयनेन वा बहिर्निष्कास्य द्रव्यधारणेन वा प्रकटकरणं तत्प्रादुष्करणम् । (योगशा. स्वो विव. १-३८, पृ. १३३) । ३. यन्महान्धकारस्थितस्य यतिनिमित्तं दीपादिना प्रकटनं बहिरालोके नयनं वा तत्प्रादुष्करणम् । (गु. गु. षट्. स्वो वृ. २० ) ।
१ साधुओं के उद्देश से गवाक्ष ( खिड़की) आदि का प्रकाश करना, अथवा बाहिर प्रकाश में आहार को स्थापित करना, यह प्रादुष्करण नाम का उत्पादनदोष कहलाता है । प्रादुष्कारदोष - देखो प्रादुष्कृत व प्राविष्कृत १. पादुकारो दुविहो संकमण पयासणा य बोधव्वो । भायण - भोयणदीणं मंडवविरलादियं कमसो || ( मूला. ६- १५ ) । २. यद् गृहम् अन्धकारबहुलं तत्र बहुल प्रकाशसम्पादनाय यतीनां छिद्रीकृतकुड्यम् अपाकृतफलक सुविन्यस्तप्रदीपकं वा तत्प्रादुष्कारशब्देन भण्यते । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. २३०; कार्तिके. टी. ४४८ - ४६ ) । ३. पात्रादेः संक्रमः साधौ कटाद्याविष्क्रियाऽऽगते । प्रादुष्कारः X X X ॥ ( अन. ध. ५- १३ ) ; साधौ संयते, आगते
७६१, जैन - लक्षणावली
[प्रादोषिकी क्रिया
गृहमायाते सति, पात्रादेः संक्रमो भाजनादीनामन्यस्थानादन्यतरस्थाने नयनं संक्रमाख्यः प्रादुष्कारो दोषः स्यात् ॥ (न. ध. स्वो . टी. ५- १३ ) । १ प्रादुष्कार उत्पादनदोष संक्रमण और प्रकाशन के भेद से दो प्रकार का है। इनमें पात्र व भोजन श्रादि को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाना, यह संक्रमण नाम का प्रादुष्कार दोष कहलाता है । उक्त पात्र व भोजन श्रादि को प्रकाशित करना-प्रकाश को रोकने वाले कपाट आदि को हटाना या दीपक आदि का प्रकाश करना, इसे प्रकाशन नाम का दूसरा प्रादुष्कारदोष जानना चाहिये २ जो घर प्रचुर अन्धकार से युक्त हो उसे मुनियों के निमित्त प्रकाश उपलब्ध करने के लिए भित्तियों में छेद कराना, पटियेको हटाना, अथवा दीपक रखना; इस प्रकार से संस्कारित वसति (घर) प्रादुष्कार दोष से दूषित होती है ।
प्रादुष्कृतदोष- देखो प्रादुष्कार । तदागमानुरोधेन गृहसंस्कारकालापह्रासं कृत्वा वा संस्कारिता वसतिः प्रदीपकं वा तत्प्रादुष्कृतमित्युच्यते । ( भ. प्रा. विजयो. २३० ) । अथवा मुनियों के श्रागमन को जानकर गृहसंस्कार के काल में कमी करके पूर्व में संस्कारित की गई अथवा प्रकाशयुक्त की गई वसति प्रादुष्कार या प्रादुष्कृत दोष से दूषित मानी जाती है । प्रादेशिक प्रत्यक्ष - १. इन्द्रियार्थज्ञानं स्पष्टं हिताहितप्राप्ति - परिहारसमर्थं प्रादेशिकं प्रत्यक्षम् ग्रवग्रहेहावाय धारणात्मकम् । ( लघीय. स्वो वृ. ६१ ) । २. इन्द्रियाणां कार्यमात्मनः -- सविदां स्वरूपस्य ज्ञानं स्पष्टं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमयं प्रादेशिकं प्रत्यक्षम् । ( न्यायकु. ६१, पृ. ६८३) ।
१ हित की प्राप्ति और अहित के परिहार में समर्थ ऐसे इन्द्रियों के कार्यरूप प्रर्थज्ञान को तथा ज्ञानों के स्वकीय स्वरूप के स्पष्ट ज्ञान को प्रादेशिक प्रत्यक्ष कहते हैं ।
प्रादोषिकी क्रिया - १. क्रोधःवेशवशात् प्रादोषिकी क्रिया ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ८ ) । २. क्रोधावेशवशात् प्रादुर्भूता प्रादोषिकी क्रिया । ( ह. पु. ५८-६६ ) । ३. क्रोधावेशात्प्रदोषो यः सान्तप्रादोषिकी क्रिया । ( त श्लो. ६, ५, ८ ) । ४. क्रोधाविष्टस्य दुष्टत्वं प्रादोषिकी क्रिया । (त.
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प्राद्वेषिकी क्रिया ]
वृत्ति श्रुत ६ - ५ ) ।
१ क्रोध के प्रवेश से होने वाली क्रिया को प्रादोfret क्रिया कहते हैं । प्राद्वेषिकी क्रिया - देखो प्रादोषिकी क्रिया । १. प्रद्वेषो मत्सरस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी । ( समवा. अभय वृ. ५) । २. प्रद्वेषो मत्सरः कर्मबन्धहेतुरकुशलो जीवपरिणाम बिशेष इत्यर्थः, तत्र भवा तेन वा निर्वृत्ता सा एव वा प्राद्वेषिकी । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २७६, पृ. ४३५ ) ; प्राद्वेषिकी मारयाम्येनमित्यशुभमनः संप्रधारणमिति । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २८१, पृ. ४४०)।
२ कर्मबन्ध का कारणभूत जो जीद का श्रशुभ परि णाम (मत्सरभाव ) है उसके आश्रय से होने वाली क्रिया प्राद्वेषिकी क्रिया कहलाती है । प्राधान्यद्रव्यशुद्धि - १. वण्ण-रस-गंध-फासे समगुणा सा पहाण सुद्धी । तत्थ उ सुक्किल - महुरा उ संमया चेव उक्कोसा ।। ( दशवं. नि. २८५ ) । २. वर्ण-रस- गन्ध - स्पर्शेषु या मनोज्ञता - सामान्येन कमनीयता, अथवा मनोज्ञता - यथाभिप्रायमनुकूलता, सा प्राधान्यतः शुद्धिरुच्यते । ( दशवं. नि. हरि. वृ. २८५) ।
७६२, जैन-लक्षणावलो
१ रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में जो मनोज्ञता-सुन्दरता अथवा अनुकूलता होती है उसे प्राधान्यद्रव्यशुद्धि कहते हैं । जैसे - वर्ण में शुक्ल वर्ण, रस में मधुर, रस और गन्ध में सुगन्ध आदि । प्राधान्यपद - देखो प्रधानतया नामपद । प्राधान्यपदानि आम्रवनं निम्बवनमित्यादीनि । ( धव. पु. १, पृ. ७६ ) ; अण्णेहि वि रुक्खेहि सहियाणं कयंबनिबंबरुक्खाणं बहुत्तं पेक्खिय जाणि कयंब- णिबंबवणणामाणि ताणि पाधण्णपदाणि । (धव. पु. ६, पृ. १३६) ।
अन्यान्य वृक्षों के साथ अवस्थित कदम्ब, नीम और श्रम आदि वृक्षों की अधिकता को देख कर जो कदम्ब वन, नीम वन और श्राम वन श्रादि नाम प्रसिद्ध होते हैं वे प्राधान्यपद कहलाते हैं । प्रान्तापना - १. कर-पाय- दंडमाइसु पंतावण X XX। ( वृहत्क. भा. ६०० ) । २. प्रान्तापना यष्टि-मुष्ट्यादिभिस्ताडना । (बृहत्क. भा. क्षे. वृ.
८६६)।
१ लाठी और मुट्ठी आदि से ताड़ना करने को
[प्राभृत, प्राभृतक ( पाहुड)
प्रान्तापना कहते हैं । यह प्रतिषेधना व खरण्टना श्रादि छह भेदों में एक है। प्राप्ति - १. भूमीए चिट्टतो अंगुलिग्गेण सूरससिपदि । मेरुसिहराणि अण्णे जं पावदि पत्तिरिद्धी सा ॥ ( ति प १०२८ ) । २. भूमौ स्थित्वांगुल्यग्रेण मेरुशिखर - दिवाकरादिस्पर्शनसामर्थ्यं प्राप्तिः । (त. वा. ३, ३६. ३, पृ. २०३; चा. सा. पृ. ६८ ) । ३. भूमिट्टियस्स करेण चंदाइच्चबिंबच्छिवणसत्ती पत्ती णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ७५ ) । ४. प्राप्तिः यद् यद् मनसा चिन्तयति तत्तत्प्राप्नोति । ( न्यायकु. १–४, पृ. १११ ) । ५ प्राप्तिर्यद्यन्मनसा चिन्तयति तत्तत्प्राप्नोति, भुवि स्थितस्यांगुल्यादिना मेरुशिखरादिप्रापणशक्तिर्वा प्राप्तिः । ( प्रा. योगिभ. टी. ६, पृ. १६९ ) । ६. प्राप्तिर्भूमिस्थस्य अंगुल्यग्रेण मेरुपर्वताग्र प्रभाकरादिस्पर्शसामर्थ्यम् । (योगशा. स्वो. विव. १ - ८, पृ. ३७ प्रव. सारो वृ. १५०५) । ७. प्राप्तिप्रभावतोऽर्कादीन् स्पृशेद् भूस्थोऽपि हेलया । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. ८ ) । ८. भूमिस्थितोऽप्य( तस्याप्य ) ङ्गुल्यग्रेण मेरुशिखर-चन्द्र-सूर्यादिस्पर्शनसामर्थ्यं प्राप्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३६) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से भूमि पर रहते हुए ही अंगुलि के अग्रभाग से सूर्य-चन्द्रमा, मेरुशिखर तथा अन्य भी वस्तुओं का स्पर्श कर सके या उन्हें पा सके उसका नाम प्राप्ति ऋद्धि है । प्राभृत, प्राभृतक ( पाहुड ) - १. जम्हा पदेहि पुदं (फुडं) तम्हा पाहुडं । (क. पा. चू. पृ. २६) । २. प्रकृष्टेन तीर्थकरेण प्राभृतं प्रस्थापितं इति प्राभृतम् । प्रकृष्टराचार्यै विद्या- वित्तवद्भिराभृतं धारित व्याख्यातमानीतमिति वा प्राभृतम् । ( जयध. १, पृ. (३२५ ) ; एदेहि देहि (मज्झिमत्थपदेहि ) पुदं वत्तं सुगममदि पाहुडं | ( जयध. १, पृ. ३२६ ) । ३. तस्स ( पाहुडपाडसमासस्स ) उवरि एगक्ख रे वड्ढिदे पाहुडो होदि । ( धव. पु. ६, पृ. २५ ) । ४. अहियारो पाहुडयं एयट्टो XX X ॥ दुगवारपाहुडादो उवर वण्णे कमेण चवीसे । दुगवारपाहुडे उड्ढे खलु होदि पाहुड्यं ।। (गो. जी. ३४१–४२) । ५. वस्त्वन्तर्वर्ती अधिकारविशेषः प्राभृतम् । ( शतक. मल. हेम. वृ. ३८, पृ. ४३; कर्मवि. दे. स्वो वृ. ७) । ६. वस्तुनः अधिकार: प्राभृतकम् । (गो. जी. म. प्र. टी. ३४१ ); द्वि
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प्राभृत]
७६३, जेन-लक्षणावलो [प्राभृतप्राभूतसमासश्रुतज्ञान कवारप्राभृतकात्परं तस्योपरि पूर्वोक्तप्रकारेण प्रत्येक- अस्मिन् वर्षादौ दास्यामीति नियमेन यदन्नं मुनिभ्यो मेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धया चतुर्विशतिप्रा- दीयते तत्प्राभृतं कथ्यते । (भावप्रा. टी. ६६)। भृतप्राभृतकेषु वृद्धेषु रूपोनतावन्मात्रेषु प्राभृतक- १ दिन, पक्ष व मास प्रादि काल का परिवर्तन करके प्राभृतकसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमस्य उत्कृ- (बादर), अथवा पूर्वाल व अपराह्न प्रादि वेला का ष्टविकल्पस्योपरि एकस्मिन्नक्षरे वद्ध सति प्राभतकं परिवर्तन करके (सूक्ष्म), जो दान दिया जाता है नाम श्रुतज्ञानं भवति । (गो. जी. म. प्र. टी. वह क्रम से बादर और सूक्ष्म प्राभृत दोष से दूषित ३४२) । ७. वस्तुनामश्रतज्ञानस्याधिकारः प्राभृतकं होता है । वेति द्वौ एकाथौं । (गो. जी. जी. प्र. टी. ३४१); प्राभूतप्राभूत---१. तस्स (अणियोगसमासस्स) द्विकवारप्राभृतकात्परं तस्योपरि पूर्वोक्तक्रमेण प्रत्येक- उरि एगक्ख रसुदणाणे बड्ढिदे पाहुडपाहुडं होदि । मेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धिभिः चतुर्विंशति- संवेज्जहि अणियोगसुदणाणेहि एगं पाहुडपाहुडं णाम प्राभृतप्राभृतकेषु रूपोनतावन्मात्रेषु प्राभृतकप्राभृतक- सुदणाणं होदि । (धव. पु. ६, पृ. २४); संखेज्जाणि ज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमसमासोत्कृष्टविकल्पकस्य अणियोगद्दाराणि घेत्तूण एगं पाहुडपाहुडसुदणाण उपरि एकाक्षरवृद्धौ सत्यां प्राभृतकं नाम श्रुतज्ञानं होदि । (धव. पु. १३, पृ. २७०) । २. चोद्दसमग्गभवति । (गो. जी. जी. प्र. ३४२)।
णसंजुदग्रणियोगादुवरि वढिदे वणे । चउरादी१ जो पदों से पृथक् अथवा स्पष्ट है उसे प्राभूत अणियोग दुगवारं पाहुडं होदि ॥ /XX पाहुकहते हैं। २ जो प्रकृष्ट (तीर्थंकर के द्वारा प्रस्थापित इस्स अहियारा । पाहडपाहुडणामं होदि त्ति जिणेहि है, अथवा विद्यारूप धन के धारक प्रकृष्ट प्राचार्यों के णिहिट्ठ ।। (गो. जी. ३४०-४१)। ३. प्राभृताद्वारा धारित, व्याख्यात अथवा लाया गया है उसे न्तर्वर्ती अधिकारविशेषः प्राभूतप्राभतम् । (शतक. प्राभूत कहते है। ३ प्राभूतप्राभूतसमास श्रुतज्ञान के मल. हेम. व. ३८, पृ. ४३; शतक. दे. स्वो. वृ. ऊपर एक अक्षर की वृद्धि के होने पर प्राभृत श्रुत- ७)। ४. चतुर्दशमार्गणासंयुतानुयोगात्परं तस्योपरि ज्ञान होता है। ५ वस्तु के अन्तर्गत अधिकारविशेष पूर्वोक्तक्रमेण प्रत्येकमेकैकवर्णवद्धिसहचरितपदादि का नाम प्राभूत श्रुतज्ञान है।
वृद्धया चतुरादिषु अनुयोगेषु वृद्धषु रूपोनतावन्मात्रेप्राभूत(पाहुड, पाहुडिग, पाहुडिह) दोष-देखो। ब्वनुयोगसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमस्य अनुप्राभृतिका। १. पाहुडिहं पुण दुविह बादर सुहमं च । योगसमासोत्कृष्ट विकल्पस्योपरि एकस्मिन्नक्षरे वृद्ध दुविहमेक्केकं । प्रोसक्कणमुक्कस्सणमह कालो वट्टणा- सति द्विकवारप्राभृतकम् --प्राभृतप्राभृतकं भवति । वड्ढी ॥ दिवसे पक्खे मासे वास परत्तीय बादरं (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३४०)। दुविहं । पुव्व-पर-मज्झवेलं परियत्तं दुविह सुहुमं १ अनुयोगसमास ज्ञान के ऊपर एक अक्षररूप श्रुतच ।। (मला. ६, १३-१४) । २. संयत: स च ज्ञान की वृद्धि होने पर प्राभूतप्राभूत श्रुतज्ञान होता यावद्भिदिनैरागमिष्यति तत्प्रवेश दिने गृहसंस्कारं है। अभिप्राय यह कि संख्यात अनुयोग श्रुतज्ञानों से सकलं करिष्याम इति चेतसि कृत्वा यत्संस्कारितं एक प्राभतप्राभत नाम का श्रतज्ञान होता है। ३ वेश्म तत्पाहुडिगमित्युच्यते ।(भ. प्रा. विजयो. २३०, प्राभृत श्रुतज्ञान के अन्तर्गत अधिकार विशेष का कातिके. टी. ४४८-४४६)। ३. वेला-दिवस-मास- नाम प्राभृतप्राभूत है। तु-वर्षादिनियमेन यत् । यतिभ्यो दीयमानान्न प्राभृतं प्राभृतप्राभृतज्ञानावरणीय - पाहुडपाहुडसुदणापरिकीर्तितम् ॥ (प्राचा. सा. ८-२८)। ४. संयता णस्स जमावारयं तं पाहुडपाहुडणाणावरणीयं । इयद भिदिनैरागमिष्यन्ति, तत्प्रवेशदिने गृहसंस्कार (धव. पु. १३, पृ. २७८) । सकलं करिष्याम इति चेतसि कृत्वा यत्संस्कारित प्राभूतप्राभृत श्रुतज्ञान को प्रावृत करने वाला कर्म वेश्म तत्पाहुडिदं । (भ. प्रा. मूला. २३०)। प्राभृतप्राभृतज्ञानावरणीय कहलाता है । ५. अस्यां वेलायां दास्यामि, अस्मिन् दिवसे दास्या- प्राभृतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान-१. एदस्स (पाहुडमि, अस्मिन् मासे दास्यामि, अस्यामृतौ दास्यामि, पाहुडसुदणाणस्स) उवरि एगवखरे वड्ढिदे पाहुड
ल. १००
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प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय] ७६४, जेन-लक्षणावली
[प्रामित्य पाहुडसमाससुदणाणं होदि। एवमेगेगक्खर-उत्तर- डिया होइ ठवणा उ ॥ (पिण्डनि. २८४) । गड्ढीए पाहुडपाहुडसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि भिक्षा का ग्राहक एक साधु एक घर में उपयोग भाव एगक्खरेणूणपाहुडसुदणाणेत्ति । (धव. पु. १३, करता है-उपयोग से पर्यालोचन करके एक पंक्ति पृ. २७०)। २. तद्वयादिसंयोगस्तु प्राभृतप्राभृत- में स्थित तीन घरों में से एक घर में हस्तगत भिक्षा समासः । (शतक. मल. हेम. व. ३८, पृ. ४२, को ग्रहण करता है। दूसरा साधु दो घरों में उपकर्मवि. दे. स्वो. व. ७)।
योग करता है-- उक्त रीति से दो घरों में हस्तगत १ प्राभूतप्राभूत श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर के बढ़ने हो जिनामों को गण
दो भिक्षाओं को ग्रहण करता है। तीन घरों के पर प्राभृतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान होता है। इस अतिरिक्त जहां तक अन्य घर नहीं है वहां तक प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर की वृद्धि के होने भिक्षा के ग्रहण में स्थापना दोष नहीं होता है। पर एक अक्षर से हीन प्राभूतश्रुतज्ञान के प्राप्त होने प्रागे गहान्तर में साध के निमित्त हस्तगत भिक्षा के तक प्रकृत प्राभूतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान के विकल्प
ग्रहण में उपयोग के असम्भव होने से प्राभति का चलते हैं।
स्थापना दोष होता है। प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय-पाहुडपाहुडसमा
प्रामाण्य--१. प्रमाणस्य भावः अर्थपरिच्छेदिका ससुदणाणस्स जमावारय कम्म त पाहुडपाहुडसमासा- शक्तिः कर्म वा अर्थपरिच्छेदः प्रामाण्यम । (न्यायकु. वरणीयं । (धव. पु. १३, पृ. २७८)।
१-६, पृ. १६५)। २. इदमेव हि प्रमाणस्य प्रामाजो कर्म प्राभूतप्राभूतसमास श्रुतज्ञान का प्रावरण ण्यं यत्प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम । करता है उसे प्राभूतप्राभृतसमासावरणीय कहते हैं। (प्रमाणनि. प.१)। ३. ज्ञानस्य प्रमेयाऽव्यभिचाप्रातिका-देखो प्राभृतदोष। १. प्रकरणस्य रित्वं प्रामाण्यम् । (प्र. न. त. १-१८) । ४. प्रमीयसाध्वर्थमुत्सर्पणमबसर्पणं वा प्राभृतिका। (प्राचा. माणार्थऽव्यभिचरणशीलत्वं यज् ज्ञानस्य तत् प्रामाशी. व. २, १, २६६, पृ. ३१७)। २. कालान्तर- ण्यम् । (रत्नाकरा. पृ. १-१६) । ५. किमिदं प्रमाभाविनो विवाहादेरिदानी सन्निहिताः साधवः सन्ति,
सान्त, णस्य प्रामाण्यम् नाम ? प्रतिभातविषयाव्यभिचारितेषामप्युपयोगे भवत्विति बुद्धया इदानीमेव करणं त्वम् । (न्यायदी. पृ. १४-१५) । समयपरिभाषया प्राभूतिका, सन्निकृष्टस्य विवाहादेः १ मीमांसक मत के अनसार प्रमाण के भाव कोकालान्तरे साधूसमागमनं संचिन्त्योत्कर्षणं वा ।
पदार्थ के जानने की शक्ति को-अथवा उसके
जानकीको (योगशा. स्वो. विव. १-३८, पृ. १३३) । ३. जाननेरूप कर्म को प्रामाण्य कहते हैं। २ प्रमिति यत्स्वनिमित्तमपि गही वतिनः प्राजिगमिषन् जिग- क्रिया के प्रति प्रतिशय साधक रूप से कारण होना, मिषन् वा ज्ञात्वा अर्वाक् परतो वा तदर्थमारभते यही प्रमाण का प्रामाण्य है। ३ ज्ञान का अपने तत्प्राभृतिका । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २०)। विषयभूत पदार्थ का व्यभिचारी (अन्यथा) न १ साध के निमित्त प्रकृत कार्य को बढ़ा लेना या
होना-पदार्थ यथार्थ में जैसा है उसी रूप से उसे सोता_ता
और घटा लेना, यह प्राभृतिका दोष है। २ कुछ काल के
जानना-इसका नाम प्रामाण्य या प्रमाणता है। पश्चात् होने वाले पुत्रविवाहादि की अपेक्षा साधुओं प्रामित्य (पामिच्च, पामिच्छ)-१. डहरिय का प्रागमन समीपवर्ती है, अतः उनके उपयोग में
रिणं तु भणियं पामिच्छं प्रोदणादिअण्णदरं । तं भी पा जावे, इस विचार से इसी समय विवाहादि पुण दुविहं भणिदं सवड्ढियमवड्ढियं चावि ।। का करना ठीक है, इस प्रकार समय के पूर्व में
(मूला. ६-१७) । २. पामिच्चं पि य दुविहं लोइय उनका करना; अथवा विवाहादि यदि समीपवर्ती
लोगुत्तरं समासेण । लोइय सझिलगाई लोगुत्तर हों और साधुओं का आगम पीछे होने वाला हो तो वत्थमाईस ॥ (पिण्डनि. ३१६) । ३. प्रामित्यं उक्त विचार से उनके समय को बढ़ा लेना; यह साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम् । (दशवै. सू. हरि. वृ. प्राभतिका नामक उत्पादनदोष कहलाता है।
५-५५, पृ. १७४) । ४. अल्पमृणं कृत्वा वृद्धिसहित प्राभतिकास्थापना- भिक्खागाही एगत्थ कुणइ अवृद्धिकं वा गृहीतं संयतेभ्यः पामिच्छमुच्यते । (भ. विइयो उ दोसु उवयोगं । तेण परं उक्खित्ता पाहु- प्रा. विजयो. २३०, कार्तिके. टी. ४४८-४६)।
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प्रामित्य] ७६५, जैन-लक्षणावली
(प्रायश्चित्त ५. विद्या-द्रव्यादिभिः क्रीतं क्रीतं प्रामृश्यमिष्यते। अथवा यथावस्थितं प्रायश्चित्तं शुद्धमस्मिन्निति प्रायस्तोकर्ण वृद्धयवृद्धिभ्यां यतिदानार्थमजितम् ॥ श्चित्तमिति ।। (दशवै. नि. हरि. वृ. ४८) । (प्राचा. सा. ८-३०)। ६. यत्साध्वर्थमन्नादि ५. कयावराहेण ससंवेय-णिव्वेएण स उद्यतकं गृहीत्वा दीयते तत्प्रामित्यकम् । (योगशा. यरणठं जमणाणं कीरदि तप्पायच्छित्तं णाम स्वो. विव. १-३८, पृ. १३४)। ७. उद्धारानीत- तवोकम्म । (धव. पु. १३, पृ. ५६); प्राय इत्युमन्नादि प्रामित्यं वृद्धघवृद्धिमत् । (अन. ध.५-१४); च्यते लोकस्तस्य चित्तं मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहक उक्तं च-भक्तादिकमृणं यच्च तत्प्रामित्यमुदाहृतम्। कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।। (धव. पु. १३, पृ. तत्पुनद्विविधं प्रोक्तं सवृद्धिकमथेतरत् ॥ प्रमीयते स्म ५६ उद्.; उपासका. ३५०; अन. प. स्वो. टी. प्रमितम्, प्रमितमेव प्रामित्यम् । चातुर्वर्णादिभ्यः ७-३७ उद.)। ६. प्रायश्चित्तं तपः प्राज्यं येन स्वार्थेऽप्यण् । (अन. ध. स्वो. टी. ५-१४)। पापं पुरातनम् । क्षिप्रं संक्षीयते तस्मात् XXX॥ ८. अल्पमृणं कृत्वा सवृद्धिकमवृद्धिकं वा संयतार्थ (प्रायश्चित्तस. १-४)। ७. पारो लोगो चित्तं गृहीतं पामिच्छम् । (भ. प्रा. मूला. २३०)। तस्स मणो चित्तगाहयं कम्मं । लोयस्स जं तमेव हि 1. यदुच्छिन्नं याचित्वा गृही दत्ते तत्प्रामित्यम् । पायच्छित्तं ति जिणवुत्तं ॥ (छेदपिण्ड ३१८) । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २०)। १०. कालान्तरेणा- ८. कर्तव्यस्याकरणे वर्जनीयस्यावर्जने यत्पापं सोऽतीव्याजेन वा स्तोकमृणं कृत्वा यतीनां दानार्थ यजितं चारस्तस्य शोवनं प्रायश्चित्तम् । (चा. सा. पृ.६०)। तत्प्रामृष्यं मृष्यते। (भावप्रा. टी. ६६)। ६. तत्र ज्ञानमेव प्रायश्चित्तम्, यतः तदेव पाप छिनत्ति १ वृद्धि (व्याज) से युक्त या वृद्धि से रहित थोड़ा प्राय: चित्तं वा शोधयतीति निरुक्तिवशात् ज्ञानसा ऋण करके साध को देने के लिए जो भात व प्रायश्चित्तमिति । (स्थाना. अभय. व. २६३, पृ. अन्य मण्डक (खाद्यविशेष) प्रादि लिया जाता है २००)। १०. येनागो गलति प्रत्नं प्रायश्चित्तं वह प्रामुष्य या प्रामित्य नामक उद्गमदोष से तदुच्यते । कर्म प्रायो जनस्तस्य चित्त चेतोहरं यतः ।। दूषित होता है। २ प्रामित्य दोष लौकिक और (प्राचा. सा. ६-२२)। ११. पाबं छिन्दन्तीति नोकोत्तर के भेद से दो प्रकार का है। उनमें भी पायच्छित्तं । चित्तं वा जीवो भण्णइ । पाएण वा वि प्रत्येक उसी द्रव्यविषयक व अन्य द्रव्यविषयक के चित्तं सोहइ अइयार-मल-मइलिय, तेण पायच्छित्तं । भेद से दो प्रकार का है। भगिनी प्रादि के द्वारा (जीतक. च. पृ. २) । १२. प्रकर्षेण अयते गच्छत्यखरीदी गई भोज्य वस्तु के देने पर लौकिक प्रामित्य स्मादाचारधर्म इति प्रायो मुनिलोकस्तेन विचिन्त्यते दोष होता है तथा परस्पर साधनों के ही वस्त्रादि- स्मर्यतेऽतिचारविशुद्धयर्थमिति निरुक्तात् प्रायश्चित्तविषयक लोकोत्तर प्रामित्य दोष होता है। लौकिक मनुष्ठानविशेषः। अथवा प्रायो बाहल्येन व्रतातिक्रम प्रामित्य के विषय में भगिनी (सझिल्लगा) शब्द से चेतसि संजानीते चेतश्च न पुनराचरत्यतः प्रायश्चिजिस कथामक की सूचना की गई है उसका निर्देश तम् । अथवा प्रायोऽपराध उच्यते, स येन चेतति संक्षेप में स्वयं नियुक्तिकार ने (३१७-१९) किया विशुद्धयति तत् प्रायश्चित्तम् । (योगशा. स्वो. विव. है तथा विस्तार से टीका में मलयगिरि प्राचार्य ने ४-६०, पृ. ३१२)। १३. शुभं प्रशस्तं कर्म अनुउसे प्रगट किया है।
ष्ठानम्, तस्माच्च्युतवतः तत्परित्यक्तवतः संप्रत्यवप्रामृष्य-देखो प्रामित्य ।
स्थापनं सम्यक्पुनः स्वस्थापनं चिरन्तनभावेष्वारोपणं प्रायश्चित्त-१. पायच्छित्तं त्ति तवो जेण विसु- प्रायश्चित्तमित्यर्थः । (चारित्रभ. टी. ५, पृ. १८८). ज्झदि हु पुवकयपावं। पायच्छित्तं पत्तो त्ति तेण १४. यत्कृत्याकरणे वाऽवर्जने च रजोजितम् । वुत्तं दसविहं तु ॥ (मूला. ५-१६४) । २. पावं सोऽतिचारोऽत्र तच्छुद्धिः प्रायश्चित्तं दशात्म तत् ।। छिदइ जम्हा पायच्छित्तं तु भन्नई तेणं । पाएण प्रायो लोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धिकृक्रिया । वावि चित्तं विसोहए तेण पच्छित्तं ॥ (प्राव. नि. प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तन्निरुच्यते । (अन. १५०३)। ३. प्रमाददोषपरिहारः प्रायश्चित्तम्। ध. ७-३४ व ३७); प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं (स. सि. ६-२०) । ४. पापं छिनत्तीति पापच्छित्, निश्चयनं युतम् । तपो निश्चयसंयोगात् प्रायश्चित्तं
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प्रायश्चित्त ]
निगद्यते । ( अन. ध. स्वो टी. ७-३७ उद्) । १५. प्रकृष्टो यः शुभावहो विधिर्यस्य साधुलोकस्य स प्रायः प्रकृष्टचारित्रः प्रायस्य साधुलोकस्य चित्तं यस्मिन् कर्मणि तत्प्रायश्चित्तम् श्रात्मशुद्धिकरं कर्म, अथवा प्रगतः प्रणष्टः श्रयः प्रायः अपराधः तस्य चित्तं शुद्धिः प्रायश्चित्तम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२० ) । १६. अपराधं प्राप्तः सन् येन तपसा पूर्वकृतात् पापात् विशुद्धयते पूर्वव्रर्तः संपूर्णो भवतीति प्रायश्चित्तम् । ( कार्तिके. टी. ४४६ ) १७. प्रायो दोषेऽप्यतीचारे गुरौ सम्यग्निवेदिते । उद्दिष्टं तेन कर्तव्यं प्रायश्चित्तं तपः स्मृतम् ।। ( लाटीसं. ७, ८२) ।
१ प्रायश्चित्त यह एक तप है, अपराध को प्राप्त होकर जीव जिस तप के द्वारा पूर्वकृत पाप से शुद्धि को प्राप्त होता है उसे प्रायश्चित्त तप कहा गया है । वह प्रालोचनादि के भेद से दस प्रकार का हैं । २ प्रायश्चित्त चूंकि पाप को नष्ट करता है, इसीलिए उसे प्रायश्चित्त (पापच्छित् ) कहा जाता है । अथवा उससे प्रायः चित्त शुद्धि को प्राप्त होता है, इसलिये वह प्रायश्चित्त कहलाता है । प्रायश्चित्तप्रद द्वादशांगधरोऽप्येको न कृच्छ दातुमर्हति । तस्माद् बहुश्रुताः प्राज्ञाः प्रायश्चित्तप्रदाः स्मृताः ॥ ( उपासका ३५१ ) । द्वादशांग का धारक भी एक आचार्य प्रायश्चित्त देने के योग्य नहीं होता, इसलिए बहुत श्रुत के पारंगत अनेक विद्वान् प्रायश्चित्तप्रद-प्रायश्चित्त के देने वाले माने गये हैं । प्रायश्चित्तानुलोम्य - प्रायश्चित्तानुलोम्यं च गीतार्थस्य शिष्यस्य भवति । स हि पञ्चक- दशकपञ्चदशक क्रमेण प्रायश्चित्तानि गुरु-लघ्वपराधानुरूपाणि विज्ञाय योऽपराधो गुरुस्तं प्रथममालोचयति, पश्चाल्लघु लघुतरं च । (योगशा. स्वो विव. ४, ६०, पृ. ३१२) । प्रायश्चित्तानुलोम्य गीतार्थ ( विद्वान् ) साधु के होता है । कारण कि वह पंचक, दशक और पंचदशक के क्रम से गुरु और लघु अपराध के अनुकूल प्रायश्चित्त को जानकर जो अपराध गुरु ( महान् ) होता है, उसकी आलोचना प्रथम करता है, तत्पश्चात् लघु और लघुतर अपराध की आलोचना करता है । प्रायोगमनमरण - देखो पादोपगमनमरण ।
[ प्रायोपगमन
प्रायोगिक बन्ध - देखो प्रयोगबन्ध | प्रायोगिक भाषात्मकशब्द भाषात्मकः सर्वोऽपि साक्षरानक्षररूपः प्रायोगिक : इत्युच्यते, पुरुषप्रयोगहेतुत्वात् XXX प्रायोगिक : ( प्रभाषात्मकः ) चतुष्प्रकारः तत वितत-घन-सुषिरभेदात् । (त. वृत्ति श्रुतः ५-२४) ।
पुरुष के प्रयोग से उत्पन्न हुए अक्षरात्मक व अनक्षरात्मक शब्दों को प्रायोगिक भाषात्मक व प्रभाषात्मक शब्द कहते हैं । प्रायोग्यगमनमरण- देखो पादोपगमनमरण । प्रायोग्यलब्धि - १. सव्वकम्माणमुक्कस्सट्ठिदिमुकस्साणुभागं च घादिय तोकोडाकोडिद्विदिम्हि ट्टणाणुभागे च प्रवद्वाणं पात्रोग्गलद्धी णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २०४ ) । २. अंतोकोडाकोडी विद्वाणे ठिदि-रसाण जं करणं । पाउग्गलद्विणामा भव्वाभव्वेसु सामण्णा || (लब्धिसा. ७) । ३. अन्त. कोटीकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्यमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामयोगेन सत्कर्मसु संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामन्तःकोटीकोटी सागरोपमस्थितौ स्थापितेषु श्राद्यसम्यक्त्वयोग्यता भवतीति प्रायोगिकी लब्धिः । (पंचसं श्रमित. १-३७ ग्रन्. ध. स्वो. टी. २-४६) । ४. कश्चिज्जीवो लव्धित्रयसम्पन्नः प्रतिसमयं विशुद्धयन् ग्रायुर्वजितसप्तकर्मणां तत्कालीन स्थितिमेक कांडकघातेन छित्त्वा कांडकद्रव्यमन्तःकोटाकोटिमात्रावशिष्टस्थितौ निक्षिपति । अप्रशस्तानां घातिनामनुभागं वानन्तबहुभागप्रमाणं खंडयित्वा तद् द्रव्यं लता - दारुसमाने द्विस्थानमात्रे अघातिनां च निब- कांजीरसमाने अवशिष्टानुभागे निक्षिपति तदा जीवस्य तत्करणं प्रायोग्यतालब्धिर्नाम । ( ल. सा. टी. ७) ।
१ सब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को घात कर श्रन्तःकोडाकोडी प्रमाण स्थिति में तथा अनुभाग को घातकर द्विःस्थान अनुभाग में पापस्वरूप घातिया कर्मों के लता और दारुरूप अनुभाग में तथा श्रघातिया कर्मों के नीम श्रौर कांजीररूप अनुभाग में स्थापित करने का नाम प्रायोग्यलब्धि है । प्रायोपगमन ( पावगमण ) -- देखो पादोपगमनमरण । १. वोसट्टचत्तदेहो दु णिक्खिवेज्जो जहि जथा अंगं । जावज्जीवं तु सयं तहि तमंगं ण चालेज्ज || एवं णिप्पडियम्मं भणति पानोवगमणमर
७६६, जैन-लक्षणावली
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प्रारम्भक्रिया
७९७, जैन-लक्षणावली
[प्रासुक जल
हता । णियमा अणिहारं तं सिया य णीहारमुव- अथवा भाजनादीनां स्थानान्तरकरणं वा प्राविष्कृतसग्गे ।। (भ. प्रा. २०६८-६९) । २. प्रात्मोपकार- मुच्यते । (भावप्रा. टी. ६६) । निरपेक्षं प्रायोपगमनम्। (धव. पु. १, पृ. २३)। १ साधु के निमित्त से घर में प्रकाश करना तथा ३. स-पगेवयारहीण मरणं पायोगमणमिदि। (गो. वर्तनों आदि का संस्कार करना-भस्म आदि से क. ६१)। ४. स्व-परोपचाररहितं तन्मरणं प्रायोप- उन्हें स्वच्छ करना-और उन्हें स्थान्तरित करना, गमन मिति । (गो. क. जी. प्र. टी. ६१)। ५. उभ- यह प्राविष्कृत नाम का एक उद्गमदोष है। योपकार- (स्व-परोपकार-) निरपेक्षं प्रायोपगमनम्। प्रासाद-१. पक्कसइला सइला यावासा पासादा (कातिके. टी. ४६७)।
णाम । (धव. पु. १४, पृ. ३६)। २. प्रासाद: स्व१ पण्डितमरण में पाराधक शरीर से ममत्व गतायामापेक्षया द्विगुणोच्छ्यः । (विपाकसू. अभय. को छोड़कर उसे जहां जिस प्रकार से रखता है वृ. २-१, पृ. ५६)। ३. राज्ञां देवतानां च भवजीवन पर्यन्त उसे वहीं पर स्थिर -हलन-चलन नानि प्रासादाः, उत्सेधबहुला वा प्रासादा:, ते चोभक्रिया से रहित--रखता है। इस प्रकार स्व और येऽपि पर्यन्तशिवराः। (जीवाजी. मलय. व. १४७)। पर के प्रतीकार (सेवा-शुश्रूषा) से रहित जो उसका ४. नरेन्द्राध्यासितः सप्तभूमादिराबासविशेषः प्रासामरण होता है उसे प्रायोपगमनमरण कहा जाता दः। (बृहत्क. क्षे. ८२६)। है। पादपोपगमन और पादोपगमन ये इसी के नामा- २ जो भवन अपने अायाम की अपेक्षा ऊंचाई में न्तर हैं।
दुगुना होता है वह प्रासाद कहलाता है। ३ राजाओं प्रारम्भक्रिया-देखो प्रारम्भक्रिया। प्राणिछेदन- और देवतानों के भवनों को प्रासाद कहा जाता है, भेदन-हिंसादिकर्मपरत्वं प्राणि छेदनादौ परेण विधीय- अथवा जो ऊंचाई में अधिक होते हैं उन्हें भी माने वा प्रमोदनं प्रारम्भक्रिया। (त. वत्ति श्रुत. प्रासाद जानना चाहिए, वे दोनों ही शिखरों से
सुशोभित होते हैं। प्राणियों के छेदन, भेदन और हनन आदि क्रियाओं प्रासुक--१. पगदा प्रोसरिदा पासवा जम्हा तं में स्वयं प्रवृत्त होने तथा अन्य के उनमें प्रवृत्त होने पासुग्रं, अधवा जं णिरवज्ज तं पासग्रं। कि? णाण. पर हषित होने को प्रारम्भक्रिया कहते हैं।
दसण-चरित्तादि । (धव. पु. ८, पृ. ८७). प्रावचन-१. सुयधम्म तित्थ मग्गो पावयणं पव- २. अतिप्रशस्तं मनोहरं हरितकायात्मकं क-] यणं च एगट्ठा। (प्राव. नि. १३०)। २. प्रगतं सूक्ष्मप्राणिसंचारागोचरं प्रामुकमित्यभिहितम् । (नि. अभिविधिना जीवादिषु पदार्थेषु वचनं प्रावचनम् । सा. टी. ६३)। (पाव. नि. हरि. व. १३०)। ३. प्रवचने प्रकृष्ट- १ जो कर्मानवों से रहित अथवा निष्कलंक है उसे शब्दकलापे भवं ज्ञानं द्रव्यश्रुतं वा प्रावचनं नाम। प्रासुक कहते हैं। ऐसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र (धव. पु. १३, पृ. २८०)।
हो सकते हैं। २ जो अत्यन्त प्रशस्त, मनोहर एवं १ श्रुतधर्म, तीर्थ, मार्ग, प्रावचन और प्रवचन ये वनस्पतिकाय प्रादि सूक्ष्म जीवों के संचार से रहित समानार्थक शब्द हैं। २ जीवादि पदार्थविषयक होता है उसे प्रासुक कहा जाता है। वचन (श्रुत) को प्रावचन कहा जाता है। ३ प्रासुक जल-मुहूर्ताद् गालितं तोयं प्रासुकं प्रहरप्रकृष्ट शब्दसमूह में होने वाले ज्ञान को अथवा द्वयम् । उप्णोदकमहोरात्रं ततः सम्मूच्छितो भवेत् ॥ द्रव्यश्रुत को प्रावचन कहते हैं ।
तिल-तण्डुलतोयं च प्रासुकं भ्रामरीगृहे। न पानाय प्रावर्तित-देखो प्राभृतदोष ।
मतं तस्मान्मुखशुद्धिर्न जायते ॥ पाषाणोत्स्फुटितं प्राविष्कृत-देखो प्रादुष्कार दोष। १. गेहप्रकाश- तोयं घटीयंत्रेण ताडितम् । सद्यःसन्तप्तवापीनां करणं यत्प्राविष्कृतमीरितम्। संस्कारो भाजनादीनां प्रासुकं जलमश्नुते ॥ (रत्नमाला ६१-६३)। वा स्थानान्तरधारणम् ॥ (प्राचा. सा. ८-२६)। योग्य वस्त्र से छाना गया जल दो पहर तक प्रासुक २. भगवन्निदं मदीयं गृहं वर्तते, यवं गहप्रकाश- रहता है तथा गरम किया हुआ जल एक दिन-रात करणं भवति, निजगहस्य गृहिणा प्रकटनं क्रियते, प्रासुक रहता है, इसके पश्चात वह सम्मर्छन जीवों
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प्राकमार्ग ]
से युक्त हो जाता है । तिलों का प्रथवा चावलों का प्रासुक पानी पीने के योग्य नहीं माना गया है, क्योंकि उससे मुख की शुद्धि नहीं होती । पत्थरों से विदीर्ण अथवा प्ररहट से ताडित जल तथा वापि - कानों का तपाहुना जल प्रासुक माना जाता है । प्राकमार्ग - सड जाण जुग्गं वा रहो वा एवमादिया । बहुसो जेण गच्छति सो मग्गो फासुग्रो भवे ।। हत्थी अस्सो खरोढो वा गो-माहिस - गवेलया । बहुसो जेण गच्छति सो मग्गो फासुग्रो भवे ।। इत्थी पुंसा व गच्छति श्रादवेण य जं हृदं । सत्थपरिणदो चेव सो मग्गो फासुग्रो हवे || ( मूला. ५, १०७-९) ।
शकट ( बैलगाड़ी), यान—मत्तवारणयुक्त पल्यंकजात जो हाथी, घोड़ा एवं मनुष्यादिकों के द्वारा खींचा जाता है; युग्य (पालकी) और रथ इत्यादि बहुत प्रकार के वाहन जिस मार्ग से जाते हैं वह प्रासुक माना जाता । हाथी, घोढ़ा, गधा, ऊंट, गाय, भैंस और गवेलक ( भेड़-बकरी) ये पशु जिस मार्ग से बहुतायत से निकल जाते हैं वह मार्ग प्रासुक होता है । जिस मार्ग से पुरुष व स्त्रियों का श्रावागमन चालू हो चुका है तथा जो सूर्य के ताप श्रादि से सन्तप्त हो चुका है, जो शस्त्रपरिणत हैं-जहां खेती की गई है— उसे प्रासुकमार्ग जानना चाहिए ।
प्रिय-स्वरुचि विषयीकृतं वस्तु प्रियम्, यथा पुत्रादि: । ( जयध. १, पृ. २७१ ) । अपनी रुचि के विषयभूत पुत्रादि पदार्थों को प्रिय समझा जाता है ।
७६८, जैन - लक्षणावली
प्रिय वचन - तत्र प्रियं यत् श्रुतमात्रं प्रीणयति । (योगशा. स्वो विव. १ - २१ ) । जिस वचन के सुनने मात्र से प्रसन्नता होती है वह प्रिय माना जाता है, यह सत्य वचन की एक विशेबता | अप्रिय वचन यथार्थ होते हुए भी सत्य में नहीं गिना जाता ।
प्रीतिदान - यत्पुनः स्वनगरे भगवदागमननिवेदकाय नियुक्तायानियुक्ताय वा हर्षप्रकर्षाधिरूढमानसैर्दीयते तत्प्रीतिदानम् । (बृहत्क. क्षे. वृ. १२०७ उत्थानिका) ।
अपने नगर में भगवान् के तीर्थंकर या केवली के -- श्रागमनविषयक समाचार देने वाले नियुक्त या
[प्रेक्ष्य सयम
नियुक्त पुरुष के लिए जो हर्षपूर्वक दान दिया जाता है उसे प्रीतिदान कहते हैं । प्रीति-भक्तिगत कृत्य - प्रत्यन्तवल्लभा खलु पत्नी तद्वद्धिता च जननीति । तुल्यमपि कृत्यमनयोर्ज्ञातं स्यात् प्रीति-भक्तिगतम् ।। ( षोडशक. १०-५; ज्ञा. सा. टी. २७-७ उद्) ।
अत्यन्त प्यारी पत्नी के प्रति किये जाने वाले कार्य को प्रीतिगतकृत्य कहते हैं तथा प्यारी और हितंषिणी जननी के प्रति किये जाने वाले कार्य को भक्तकृत्य कहते हैं ।
प्रीत्यनुष्ठान -- १. यत्रादरोऽस्ति परमः प्रीतिश्च हितोदया भवति कतुः । शेषत्यागेन करोति यच्च तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ॥ ( षोडशक. १० - ३ ) । २. यत्रादरोऽस्ति परमः, प्रीतिः स्वहितोदयात् भवेत्कर्तुः । शेषत्यागेन करोति यत्तु तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ।। (ज्ञा. सा. वृ. ७-७ उद्) ।
१ जिस अनुष्ठान में कर्ता का अतिशय आदर-अधिक प्रयत्न - श्रौर हितोत्पादक होने से उसका प्रेम भी रहता है, तथा जिसे वह अन्य कार्य को छोड़कर करता है, उसे प्रीति श्रनुष्ठान कहते हैं । प्रेक्षा- असंयम- प्रेक्षायामसंयमो यः स तथा ( प्रेक्षासंयमः ), स च स्थानोपकरणादीनामप्रत्युपेक्षण
प्रत्युपेक्षणं वा । ( समवा. अभय वू. १७ ) । देखने में जो संयम होता है वह प्रेक्षा असंयम कहलाता है और वह स्थान एवं उपकरण श्रादि के न देखने पर अथवा श्रागमोक्त विधि के विना देखने पर होता है । प्रेक्षासंयम - देखो प्रेक्ष्यसंयम | प्रेक्ष्यसंयम - १. प्रेक्ष्यसंयम इत्यत्र क्रियाध्याहारःप्रेक्ष्य क्रियामाचरन् संयमेन युज्यते । प्रेक्ष्येति चक्षुषा दृष्ट्वा स्थण्डिलं बीज - जन्तु - हरितादिरहितं पश्चादूर्ध्व निषद्या त्वग्वर्तन स्थानानि विदधीतेत्येवमाचरतः संयमो भवति । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६-६, पृ. १८) । २. तथा प्रेक्ष्य चक्षुषा दृष्टं वा स्थण्डिलं बीज-जन्तु हरितादिरहितम्, तत्र शयनासनादीनि कुर्वीतेति प्रेक्षासंयमः । (योगशा. स्वो विव. ४, ६३, पृ. ३१६) ।
१ देख करके श्रावश्यक कार्य का करने वाला संयम से युक्त होता है - प्रेक्ष्य प्रर्थात् बीज, जन्तु श्रौर हरितकाय आदि से रहित शुद्ध भूमि को प्रांख से
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प्रेत्यभाव ७९६, जैन-लक्षणावली
[प्रोषधोपवास देखकर तत्पश्चात् बैठना, सोना व स्थित होना; नयाम्यहम् । एवं कुर्विति नियोगो प्रेष्यप्रयोग उच्यते ।। इस प्रकार प्रावरण करने वाले के जो संयम होता (लाटीसं. ६-१३०)। है वह प्रेक्षासंयम या प्रेक्ष्यसंयम कहलाता है। १ अपने द्वारा प्रतिज्ञात देश में स्थित रहकरप्रत्यभाव-मृत्वाऽमुत्र प्राणिनः प्रादुर्भाव: प्रेत्य- स्वयं उसके बाहिर न जाकर-'ऐसा करो' इस भावः । (प्रा. मी. वसु. वृ. २६)।
प्रकार से सेवक को आदेश देकर मर्यादित क्षेत्र के मर करके जो परभव में प्राणी का जन्म होता है, बाहिर अभीष्ट कार्य कराना, यह देशवत का प्रेष्यइसका नाम प्रेत्यभाव है।
प्रयोग नाम का एक अतिचार है। ३ जिसे बलप्रेम-१. प्रियत्वं प्रेम । (धव. पु. १२, पृ. २८४)। पूर्वक आदेश दिया जा सकता है वह प्रेष्य कहलाता २. प्रीतिलक्षणं प्रेम, पुत्र-कलत्र-धन-धान्याद्यात्मीये) है, देशावकाशिकवत में क्षेत्र का जितना प्रमाण रागः । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ५, २२, पृ. १२६)। स्वीकार किया गया है उसके बाहिर व्रतभङ्ग के ३. प्रेमशब्देनाभिष्वङ्गलक्षणो रागोऽभिधीयते । (बृह- भय से 'तुम्हें वहां जाकर अवश्य ही मेरे लिये गाय रक. क्षे. वृ. ८३१)।
ग्रादि को लाना है, अथवा यह कार्य करना है' १प्रियभाव का नाम प्रेम है। २ पुत्र, स्त्री, धन इस प्रकार से प्रेष्य को प्रेरित करना, यह प्रेष्यऔर धान्य प्रादि स्वकीय पदार्थों में जो राग होता प्रयोग कहलाता है जो उक्त व्रत को मलिन करने है उसे प्रेम कहा जाता है। वह प्रीतिस्वरूप है। वाला है। प्रेष्यप्रयोग-१. (प्रात्मनः संकल्पितदेशे स्थितस्य) प्रोषध-xxx प्रोषधः सद्भुक्तिः । (रत्नक. एवं कविति नियोग: प्रेष्यप्रयोगः । (स. सि. ७-३१; ४-१६)। त. श्लो. ७-३१)। २. एवं कुविति विनियोगः एक बार भोजन करने (एकाशन) का नाम प्रेष्यप्रयोगः । परिच्छिन्नदेशाद् बहिः स्वयमगत्वा प्रोषध है। अन्यमप्यनानीय प्रेष्यप्रयोगणवाभिप्रेतव्यापारसाधनं प्रोषधोपवास-देखो पौषधोपवास । १. पर्वण्यष्टप्रेष्यप्रयोगः । (त. वा. ७, ३१, २)। ३. बलात् । भ्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां विनियोज्यः प्रेष्यः तस्य प्रयोगः यथाभिगृहीतप्रविचा- प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥ चतुराहारविसर्जनमुपवासः रदेशव्यतिक्रमभयात् त्वयाऽवश्यमेव गत्वा मम गवा- प्रोषधः सकृदभुक्ति: । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्याद्यानेयमिदं वा तत्र कर्तव्यमित्येवंभूतः प्रेष्यप्रयोगः। रम्भमाचरति ॥ (रत्नक. ४-१६ व १६)। २. प्रोष(प्राव.हरि. व. अ.६, पृ. ८३५;श्रा.प्र. टी. ३२०)। धशब्द: पर्वपर्यायवाची, शब्दादिग्रहणं प्रति निवत्ती४. परिच्छिन्नदेशात बहिः स्वयमगत्वाऽन्यप्रेष्यप्रयोगे- त्सूक्यानि पञ्चापीन्द्रियाण्युपेत्य तस्मिन् वसन्तीनवाभिप्रेतव्यापारसाधनं प्रेष्यप्रयोगः । (चा. सा. पृ. त्युपवासः, चतुर्विधाऽऽहारपरित्याग इत्यर्थः, प्रोषधे ६)। ५. प्रेष्यस्य प्रादेश्यस्य प्रयोगो विवक्षितक्षेत्राद् उपवास: प्रोषधोपवासः । (स. सि. ७-२१)। बहिः प्रयोजनाय स्वयं गमने व्रतभङ्गभयादन्यस्य ३. मासे चत्वारि पर्वाणि तान्यूपोष्याणि यत्नतः । व्यापारणं प्रेष्यप्रयोगः । (ध. बि. मु. वृ. ३-३२)। मनोवाक्कायसंगुप्त्या स प्रोषधविधिः स्मृतः ॥ ३. मर्यादीकृते देशे स्वयं स्थितस्य ततो बहिरिदं (वरांगच. १५-१२३)। ४. चतुराहारहानं यनिकुर्विति विनियोग: प्रेषणम् । (रत्नक. टी. ४६)। रारम्भस्य पर्वसु । स प्रोषधोपवासोऽक्षाण्युपेत्यास्मिन् ७. प्रेष्यस्याऽऽदेश्यस्य प्रयोगो विवक्षितक्षेत्राद् बहिः वसन्ति यत् । (ह. पु. ५८-१५४)। ५. उपेत्य तस्मिन् प्रयोजनाय ब्यापारणम्, स्वयं गमने हि व्रतभङ्गः वसन्तीन्द्रियाणि इत्युपवासः । शब्दादिग्रहणं प्रति स्यादिति प्रेष्यप्रयोगः । (योगशा. स्वो. विव. ३, निवृत्तौत्सुक्यानि पञ्चापीन्द्रियाणि उपेत्य तस्मिन् ११७) । ८. प्रैषं मर्यादीकृतदेशे स्थित्वा ततो बहिः वसन्तीत्युपवासः, अशन-पान-भक्ष्य-लेह्यलक्षणचतुप्रेष्यं प्रत्येवं कुविति व्याणरणम् । (सा. ध. स्वो. विधाहारपरित्याग इत्यर्थः। प्रोषधशब्दः पर्वपर्यायटी. ५-२७) । ६.प्रतिषिद्धदेशे प्रेष्यप्रयोणव अभि- वाची, प्रोषधे उपवास: प्रोषधोपवास: । (त. वा. ७, प्रेतव्यापारसाधनं प्रेष्यप्रयोगः । (त. वृत्ति श्रुत, २१, ८)। ६. उपेत्य स्वस्मिन् वसन्तीन्द्रियाणी७-३१)। १०. उक्त केनाप्यनुक्तेन स्वयं तच्चा- त्युपवासः, स्वविषयं प्रत्यव्यावृत्तत्वात् प्रोषधे पर्वण्यु
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प्रोषधोपवास]
पवास: प्रोषधोपवासः । ( त श्लो. ७-२१) । ७. सामायिक संस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षार्धयोर्द्वयोरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ।। मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिन पूर्व वासरस्यार्थे । उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देहादौ । श्रित्वा विविक्तवसति समस्तसावद्ययोगमपनीय | सर्वेन्द्रियार्थविरतः काय - मनोवचन गुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥ धर्म ध्यानाश [ स ] क्तो वासरमतिवाह्य विहितसान्ध्यविधिः । शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत् स्वाध्याय जितनिद्रः । प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिकं क्रियाकल्पम् । निर्वर्तयेद्यथांक्तं जिनपूजां प्रासुकैर्द्रव्यैः ॥ उक्तेन ततो विधिना नीत्वा दिवसं द्वितीयरात्रि च । प्रतिवाहयेत् प्रयत्नादर्धं च तृतीय दिवसस्य । इति यः षोडश यामान् गमयति परिमुक्तसकलसावद्यः । तस्य तदानीं नियतं पूर्ण महिसाव्रतं भवति ।। (पु. सि. १५१-५७ ) । ८. ण्हाण - विलेवण- भूषण- इत्थी संसग्ग-गंध-धूवादी । जो परिहरेदि णाणी वेरग्गाभूसणं किच्चा || दोसु वि पव्वेसु सया उववासं एयभत्त - णिव्वियडी । जो कुणदि एवमाई तस्स वयं पोसहं बिदियं ॥ ( कार्ति - के. ३५८-५६ )। ६. प्रोषधः पर्वपर्यायवाची शब्दादिग्रहणं प्रति निवृत्तौत्सुक्यानि पंचापीन्द्रियाणि उपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवासः । उक्तं च - उपेत्याक्षाणि सर्वाणि निवृत्तानि स्वकार्यतः । वसन्ति यत्र स प्राज्ञरुपवासोऽभिधीयते । पर्वणि चतुर्विधाहारनिवृत्तिः प्रोषधोपवासः । (चा. सा. पृ. १२) । १०. चत्वारि सन्ति पर्वाणि मासे तेषु विधीयते । उपवासः सदा यस्तत्प्रोषधव्रतमीर्यते ॥ ( सुभाषित ८०८ ) । ११. सदनारम्भनिवृत्तैराहारचतुष्टयं सदा हित्वा । पर्व चतुष्के स्थेयं संयम यमसाधनोद्युक्तैः ॥ ताम्बूलगन्ध-माल्य-स्नानाभ्यंगादिसर्व संस्कारम् । ब्रह्मव्रतगतचित्तः स्थातव्यमुपोषितस्त्यक्त्वाः ।। उपवासानुपवासैकस्थानेष्वेकमपि विधत्ते यः । शक्त्यनुसारपरोऽसौ प्रोषधकारी जिनैरुक्तः ॥ ( श्रमित. श्री. ६, ८८ - ० ) । १२. निवृत्तिर्भुक्तभोगानां या स्यात् पर्वचतुष्टये । प्रोषधाख्यं द्वितीयं तच्छिक्षाव्रतमितीरितम् ।। (धर्मश २१ - १५० ) । १३. स प्रोषधोपवासो यच्चतुष्प यथागमम् । साम्यसंस्कारदार्द - याय चतुर्भुक्त्युज्भनं सदा ॥ (सा. ध. ५-३४) । १४. अष्टमी चतुर्दशी च पर्वद्वयं प्रोषध इत्युपचर्यते, प्रोषधे उपवास: स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण- शब्दलक्षणेषु
[प्रोषधोपवासप्रतिमा
पंचसु विषयेयु परिहृतौत्सुक्यानि पंचापीन्द्रियाण्युपेत्य आगत्य तस्मिन् उपवासे वसन्ति इत्युपवासः । अशनपान-खाद्य-लेह्य लक्षणचतुर्विधाहारपरिहार इत्यर्थः । सर्व सावद्यारम्भ-स्वशरीरसंस्कारकरण-स्नान - गन्धमाल्याभरण - नस्यादिविवर्जितः पवित्रप्रदेशे मुनिवासे चैत्यालये स्वकीयप्रोषधोपवासमन्दिरे वा धर्मकथां कथयन् शृण्वन् चिन्तयन् वा अवहितान्तःकरण एकाग्रमनाः सन् उपवासं कुर्यात् स श्रावक: प्रोषधोपवासव्रतो भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - २१) । १५. प्रोषधः पर्ववाचीह् चतुर्धाहारवर्जनम् । तत्प्रोपथोपवासाख्यं व्रतं साम्यस्य सिद्धये ।। ( धर्मसं. श्री. ७-६० ) । १६. चतुर्दश्यामथाष्टम्यां प्रोषधः क्रियते सदा । शिक्षाव्रतं द्वितीयं स्यान्मुनिमार्गविधानतः ॥ ( पू. उपासका ३२, पृ. २२) । १७. स्यात्प्रोषधोपवासाख्यं व्रतं च परमौषधम् । जन्म-मृत्यु-जरातङ्कविध्वंसनविचक्षणम् ॥ चतुर्धाशनसंन्यासो यावद् यामांश्च षोडश । स्थितिर्निरवद्यस्थाने व्रतं प्रोषधसंज्ञकम् ।। (लाटीसं. ६, १६६-६७) ।
१ चतुर्दशी और अष्टमी के दिन प्रशन, पान खाद्य श्रौर लेहा इन चार प्रकार के भोज्य पदार्थों का सदा उत्सुकतापूर्वक प्रत्याख्यान करना - उनका परित्याग करना, इसे प्रोषधोपवास जानना चाहिए। २ प्रोषध शब्द का अर्थ पर्व है, 'उपेत्य वसन्ति तस्मिन् इन्द्रियाणि इति उपवास:' इस निरुक्ति के अनुसार जिस चार प्रकार के आहार के परित्याग स्वरूप उपवास में पांचों ही इन्द्रियां अपने अपने विषयग्रहण की प्रोर से विमुख होकर निवास करती हैं उसका नाम उपवास है, प्रोषध (अष्टमी - चतुर्दशी श्रादि पर्व दिन) के समय में जो उपवास किया जाता है, वह प्रोषधोपवास कहलाता है । प्रभिप्राय यह है कि इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए जो पर्व दिनों में चार प्रकार के श्राहार का परित्याग किया जाता है उसे प्रोषधोपवास जानना चाहिए । प्रोषधोपवासप्रतिमा -- १. पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणधिर: प्रोषधानशनः । ( रत्नक. ५ - १६ ) । २. सत्तमि तेरसिदिवसे अवरण्हे जाइऊण जिणभवणे । किच्चा किरियाकम्मं उववासं चउविहं गहिय ॥ गिवावारं चत्ता रति गमिऊण धम्मचिताए ।
८००, जेन - लक्षणावली
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प्रोषधोपवास प्रतिमा ]
पच्चूहे उट्टित्ता किरियाकम्मं च काढूण | सत्यभासेण पुणो दिवसं गमिऊण वंदणं किच्चा । ि दूतहा पच्चूहे वंदणं किच्चा || पुज्जणविहिं च किच्चा पत्तं गहिऊण णवरि तिविहं पि । भुंजावि ऊण पत्तं भुंजतो पोसहो होदि । ( कार्तिके. ३७३ से ३७६) । ३. मासे चत्वारि पर्वाणि तेषु यः कुरुते सदा । उपवासं निरारम्भः प्रोषधो स मतो जिनैः ।। ( सुभासं. ८ - ३६) । ४. मन्दीकृताक्षार्थसुखाभिलाषः करोति यः पर्वचतुष्टयेऽपि । सदोपवासं परकर्म मुक्त्वा स प्रोषधी शुद्धवियामभीष्टः ॥ ( श्रमित. श्रा. ७–७०)। ५. प्रोषधोपवासः मासे मासे चतुर्ष्वपि पर्व दिनेषु स्वकीयां शक्तिमनिगृह्य प्रोषधनियमं मन्यमानो भवतीति व्रतिकस्य यदुक्तं शीलं प्रोषधोपवासस्तदस्य व्रतमिति । (चा. सा. पृ. १) । ६. उत्तममज्जहणं तिविहं पोसहविहाणमुद्दिट्ठ । सगसतीए मासम्मि चउस्सु पव्वेसु कायव्वं ॥ सत्त मि तेरसिदिवसम्मि प्रतिहिजणभोयणावसाणम्मि | भोत्तूण भुंजणिज्जं तत्थवि काऊण मुहसुद्धि | पक्खालिऊण वयणं कर-चरणे नियमिऊण तत्थेव । पच्छा जिणिदभवणं गंतूण जिणं णमंसित्ता ॥ गुरुपुरश्रो किदियम्मं वंदणपुव्वं कमेण काऊण | गुरुसक्खियमुववासं गहिऊण चउव्विहं विहिणा || वायण कहाणुपेण- सिक्खावण-चिंतणोप्रोगेहिं । ऊण दिवस सेसं श्रवराहियवंदणं किच्चा ।। रयणिसमयम्हि ठिच्चा काउस्सग्गेण णिययसत्तीए । पडिले हिऊण भूमि
पपमाणेण संथारं ।। दाऊण किंचि रति सइऊण जिणालए णियघरे वा । श्रहवा सयलं रति काउस्सग्गेण णेऊण || पच्चूसे उद्वित्ता वंदणविहिणा जिणं णमंसित्ता । तह दव्व-भावपुज्जं जिण सुय- साहूण काऊ ॥ उत्तविहाणेण तहा दियहं रत्ति पुणो वि गमिऊण । पारणदिवसम्मि पुणो पूयं काऊण पुव्वं व | गंतूण निययगेहं अतिहिविभागं च तत्थ काऊण । जो भुंजइ तस्स फुडं पोसहविहि उत्तमं होइ ॥ वसु. श्रा. २८० - ८९ ) । ७. स प्रोषधोपवासी स्याद्यः सिद्धः प्रतिमात्रये । साम्यान व्यवते यावत् प्रोषधानशनव्रतम् ।। (सा. ध. ७-४) । दसि दुमिहि जो पालइ उववासु । साव भणिउ दुक्किय कम्मविणासु ॥ दो. १३) । ६. यः प्राग्धर्मत्रयारूढः प्रोषधानशन
८. उयचउ
सो चउत्थु ( सावयध.
ल. १०१
८०१, जैन-लक्षणावली
[ फलचारण
व्रतम् । यावन्न च्यवते साम्यात्स भवेत्प्रोषधव्रती ॥ ( धर्मसं. श्री. ८-९ ) ।
१ प्रत्येक मास के चारों ही पर्वों ( दो श्रष्टमी और दो चतुर्दशी) में अपनी शक्ति को न छिपाकर नियमपूर्वक उपवास करते हुए ध्यान में रत रहना, यह श्रावक को तीसरी प्रोषधोपवास प्रतिमा है । प्रोषधोपवासव्रता तिचार- ९-१. अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादान -संस्तरोपक्रमणानादर- स्मृत्यनुपस्थानानि । (त. सू. ७-३४) । २. ग्रहण - विसर्गास्तरणान्यदृष्ट- मृष्टान्यनादरास्मरणे । यत्प्रोषधोपवासव्यतिलङ्घनपंचक तदिदम् ॥ ( रत्नक. ४-२० ) । ३. अनवेक्षिताप्रमार्जितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः । स्मृत्यनुपस्थानमनादरश्च पञ्चोपवासस्य ।। (पु. सि. १६२) । ४. अनवेक्षा प्रतिलेखनदुष्कर्मारम्भदुर्मनस्कारा: । आवश्यकविरतियुताश्चतुर्थमेते विनिघ्नन्ति ।। ( उपासका ७५६ ) ।
१ भूमि आदि के विना देखे व किसी कोमल उपकरण के द्वारा विना झाड़े मल-मूत्रादि का त्याग करना, पूजोपकरण आदि को ग्रहण करना, विस्तर व श्रासन आदि बिछाना व उस पर सोना-बैठना, भूख से पीड़ित होकर प्रोषधोपवास के प्रति श्रनादरभाव रखना और उसकी विधि का स्मरण न रहना; ये पांच प्रोषधोपवासव्रत के प्रतिचार हैं ।
प्लुत - त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो X X X ॥ ( धव. पु. १३, पृ. २४८ उद्) । तीन मात्रा वाले स्वर को प्लुत कहा जाता है । फलचारण- १. प्रविशहिदूण जीवे तल्लीणे वणफलाण विविहाणं । उवरिम्मि जं पधावदि स च्चिय फलचारणा रिद्धी ॥ ( ति प ४- १०३८) । २. नानाद्रुमफलान्युपादाय फलाश्रयप्राण्यविरोधेन फलतले पादोत्क्षेप - निक्षेपकुशलाः फलचारणाः । (योगशा. स्वो विव. १-६, पृ. ४१ ) । ३. फलमस्पृश्य फलोपरि गमनं फलचारणत्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से अनेक प्रकार के वनफलों में स्थित जीवों की विराधना न करकेउन्हें पीड़ा न पहुंचा कर - साधु उनके ऊपर से दौड़ सकता है वह फलचारण ऋद्धि कहलाती है ।
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फिरिक्की] ८०२, जैन-लक्षणावली
[बन्ध फिरिक्की-देखो गिल्ली । चुंदेण वठ्ठलागारेण चरणः । (धर्मसं. मान. ३-५६, पृ. १५२) । घडिदणेमि-तुंबाधारसरलट्टकट्टा फिरिक्की णाम । १ जो निर्ग्रन्थता (मुनिधर्म) पर आरूढ होकर (धव. पु. १४, पृ. ३८)।
अखण्डित रूपमें व्रतों का पालन करते हुए शरीर और गोल चुद से सम्बद्ध नेमि (पहिये का घेरा) और उपकरणों को स्वच्छता का अनुसरण करते हैं तथा तुम्ब (गाड़ी का मध्य) की प्राधारभत सीधी पाठ जिनका परिवार से मोह नहीं छटा है वे साध बकुश लकड़ियों से युक्त गाड़ी को फिरक्को कहा जाता कहलाते हैं। बकुश शब्द का अर्थ अनेक वर्ण वाला है। इसका दूसरा नाम गिल्ली भी है।
होता है। तदनुसार अभिप्राय यह हुआ कि जो बकुश -१. नैग्रंन्थ्यं प्रति स्थिता अखण्डितव्रताः अनेक प्रकार के मोह से संयुक्त होते हुए विचित्र शरीरोपकरणविभूषानुवतिनोऽविविक्तपरिवारा मोह- संयम वाले होते हैं, उन्हें बकुश मुनि जानना चाहिए। शबलयुक्ता बकुशाः । शबलपर्यायवाची बकुशशब्दः । २ जो निर्ग्रन्थता के प्रति प्रस्थान कर चुके हैं(स. सि. ६-४६) । २. नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता: मुनिधर्म को स्वीकार कर चुके हैं, साथ ही शरीर शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिनः ऋद्धि-यशस्कामाः सात- और उपकरणों की सुन्दरता के अभिलाषी हैं, गौरवाश्रिता अविविक्तपरिवारा: छेदशबलयुक्ताः ऋद्धि एवं यश के इच्छुक हैं, सातगौरव-सुखनिर्ग्रन्था बकुशाः । (त. भा. ६-४८)। ३. अख- शीलता के प्राश्रित हैं; जांघों के घिसने, तेल आदि ण्डितव्रताः काया करणानुगाः । अविविक्तपरि- से शरीर का मार्जन करने व बालों को कैची से वारा: शबला बकुशाः स्मृताः ।। बकुश: सोपकरणो काटे गये के समान रखने प्रादि रूप जिनका परिबहुपकरणप्रियः । शरीरबकुशः कायसंस्कारं प्रति- वार संयम के प्रतिकल है; तथा जो छेद प्रायश्चित्त
।। (ह. पु. ६४-६० व ७२)। ४. अखण्डित- के योग्य प्रतीचार जनित विचित्रता से युक्त होते व्रताः शरीरसंस्कारद्धि-सुख-यशोविभूतिप्रवणा बकु- हैं उन्हें बकुश कहा जाता है। शाः। नैर्ग्रन्थ्यं प्रस्थिताः अखण्डितव्रताः शरीरोप- बद्धप्रलाप-भाषा बद्धप्रलापाख्या चतुर्वर्गविवजिकरणविभूषानुवर्तिनः ऋद्धि-यशस्कामाः सातगौरवा- ता । (ह. पु. १०-६३)। श्रिताः अविविक्तपरिवारा: छेदशबलयुक्ता: बकुशाः। चतुर्वर्ग से रहित-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन शबलपर्यायवाची बकुशशब्दः ॥ (त. वा. ६, ४६, चार पुरुषार्थों के वर्णन से रहित-भाषा का नाम २)। ५. अखण्डितव्रताः शरीरसंस्कारद्धि-सुख-यशो- बद्धप्रलाप है। विभूतिप्रवणाः बकुशाः, छेदशबलयुक्तत्वात् । बकुश- बद्धरागवेदनीयपुद्गल - निर्वृत्तबन्धपरिणामाः शब्दो हि शबलपर्यायवाचीह । (त. श्लो. ६-४६)। सत्कर्मतया स्थिता जीवेनाऽऽत्मसात्कृता बद्धाः । ६. नैर्ग्रन्थ्यमुपस्थिता अखण्डितव्रताः शरीरोपकरण- (प्राव. नि. हरि. वृ. ६१८, पृ. ३८७) । विभूषणानुवर्तिनो वृद्धि-यशःकामा: सातगौरवाश्रिता जो रागवेदनीयपुद्गल (कर्मद्रव्यराग) बन्ध परिप्रविविक्तपरदाराश्च परिवाराश्च] छेदशबलयूक्ता णाम को प्राप्त होकर सत्कर्मरूप से स्थित होते बकुशाः । शबलपर्यायवाची बकुशशब्द इति । (चा. हुए जीव के द्वारा प्रात्मसात् कर लिए गये हैं--- सा. पृ. ४५)। ७. उवगरण-देहचोक्खा रिद्धी-जसगा- जीव के प्रात्मप्रदेशों से एकक्षेत्रावगाहरूप में रवा सिया निच्चं । बहुसवलछेयजुत्ता णिग्गंथा वाउसा सम्बद्ध हो चुके हैं उन्हें बद्धरागवेदनीयपुद्गल भणिया ।। (धर्मरत्नप्र. १३५, पृ.८४ उद्.); बकुशा: कहा जाता है। शरीरोपकरणविभूषाकारिणः । (धर्मरत्नप्र. १३५, बद्धश्रुत-xxx बद्धं तु दुवालसंगनिद्दिढें । पृ. ८४)। ८. बकुशत्वं कश्मलचारित्रत्वम् । (प्राव. नि. १०२०)। (जीतक. चू. वि. व्या. पृ. ४३) । ६. निर्ग्रन्थ- गद्य-पद्यरूप बन्धन से बद्ध प्राचारादिरूप द्वादशांग त्वे स्थिता अविध्वस्तव्रताः शरीरोपकरणद्धि-भूषण- श्रुत बद्धश्रुत कहलाता है। यह जीवभावकरण का यशःसुखविभूत्याकांक्षिगः अविविक्त परिच्छिदानुमो- एक भेद है । दनशबलयुक्ता ये ते बकुशाः उच्यन्ते । (त. वृत्ति बन्ध---देखो बन्धन । १. जं सुहमसुहमुदिण्णं भावं श्रुत. ६-४६) । १०. बकुशः शुद्धयशुद्धिव्यतिकीर्ण- रत्तो करेदि जदि अप्पा । सो तेण हवदि बंधी
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बन्ध]
८०३, जैन-लक्षणावलो
[बन्ध
पोग्गलकम्मेण विविहेण !! (पंचा. का. १४७)। माणून्, लात्यादत्ते गृह्णातीत्यनर्थान्तरम्, स बन्धः । २. जीवो कसायजुनो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा। योऽसौ तथा स्थित्वा त्वादानविशेषः स बन्ध इत्यु गेण्हइ पोग्गलदव्वे बंधो सो होदि णायव्वो ॥ च्यते । (श्रा. प्र. टी. ८०)। १२. कषायकलुषो (मला. १२-१८३) । ३. सकषायत्वाज्जीवः कर्म- ह्यात्मा कर्मणो योग्यपुद्गलान् । प्रतिक्षणमुपादत्ते स णो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः। (त. सू. ८, बन्धो नैकधः मतः ॥ (ह. पु. ५८-२०२)। २)। ४. प्रात्मकर्मणोरन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको १३. जीव-कम्माणं मिच्छत्तासंजम-कषाय-जोगेहि बन्धः । (स. सि. १-४); Xxx अतो मिथ्या- एयत्तपरिणामो बंधो। उत्तं च-बंधेण य संजोगो दर्शनाद्यावेशादाीकृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषात् पोग्गलदव्वेण होइ जीवस्स । बंधो पुण विण्णेयो x तेषां सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहिनामनन्तानन्तप्रदेशानां पुद्ग- XX॥ (धव. पु. ८, पृ. २-३); बंधो णाम लानां कर्मभावयोग्यानामविभागेनोपश्लेषो बन्ध दुभावपरिहारेण एयत्तावत्ती। (धव. पु. १३, पृ. इत्याख्यायते । (स. सि. ८-२; त. वा. ८, २,८; ७); बन्धनं बन्धः, बध्यतेऽनेनास्मिन्निति वा बन्धः । मला. व. १२-१८३) । ५. कम्मयदव्वहि समं (धव. पु. १३, पृ. ३४७); जीव-कम्माणं समवाओ
जो उ जीवस्स। सो बंधो ‘नायवो बंधो णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३५२); बंधो xxx ॥ (प्राचारा. नि. २६०, पृ. २६६)। बंधणं, तेण बंधो सिद्धो। बध्नातीति बन्धनः, तदो ६. बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रं वा बन्धः। बध्यते येन बंधगाणं गहणं । बध्यते इति कर्मसाधने समाश्रीयअस्वतंत्रीक्रियते येन, अस्वतंत्रीकरणमात्र वा बन्धः । माणे बंधणिज्जस्स गहणं । बध्यते अनेनेति करण(त. वा. १,४, १०); प्रात्मकर्मणोरन्योऽन्यप्रदे- साधने शब्दनिष्पत्तौ सत्यां बन्धविधानोपलब्धिः । शानुप्रवेशलक्षणो बन्धः। मिथ्यादर्शमादिप्रत्ययोप- तेण बंधणस्स चउव्विहा चेव कम्मविभासा होदि । नीतानां कर्मप्रदेशानात्मप्रदेशानां च परस्परानुप्रवेश- दव्वस्स दव्वेण दव्व-भावाणं वा जो संजोगो समलक्षणो बन्धः । (त. वा. १, ४, १७); अतस्तदु- वानो वा सो बंधो णाम । (धव. पु. १४, पृ.१.२)। पश्लेशो बन्धः । (त. वा. ८, २, ८)। ७. चेतनस्य १४. कम्मइयवग्गणादो प्रावरियसव्वलोगादो मिच्छहीनस्थानप्रापणं बन्धः । (प्रमाणसं. स्वो, ७.६६)। तासंजम-कसाय-जोगवसेण लोगमेत्तजीवपदेसेसु अक्क८. बन्धः कर्मणो योगः । (त. भा. हरि. व. १.३); मेण प्रागंतुण सबंध[संबद्धा]कम्मक्खंधा अणंताणतपरआश्रवरात्तस्य कर्मणः प्रात्मना संयोगो बन्धः । (त. माणुसमुदयसमागममुप्पण्णा कम्मपज्जाएण परिणयभा. हरि.३.१-४); बन्धनं बन्धः परस्पराश्लेषः। पढमसमए बंधववएस पडिवज्जति। (जयध. १, पृ. (त. भा. हरि. व. ५-२४); बन्धः कर्मवर्गणायो- २६१)। १५. कर्मणो योग्यानां सूक्ष्मकक्षेत्रावगाहिग्यस्कन्धानामात्मप्र देशानां चाग्योऽन्यानुगतिलक्षणः नामनन्तानामादानादात्मनः कषायार्दीकृतस्य प्रतिक्षीरोदकादेरिव सम्पर्को बन्धः । (त. भा. हरि. वृ. प्रदेशं तदुपश्लेषो बन्धः, स एव बन्धों नान्यः संयोग८-१); मात्मप्रदेशानां कर्मपुद्गलानां चान्योऽन्या- मात्र स्वगुणविशेषसमवायो वेति तात्पर्यार्थः । (त. नुगतिलक्षणः क्षीरोदकवद् बन्धः । (त. भा. हरि. व श्लो. ८-२)। १६. बंधो नाम यदाऽऽत्मा रागसिद्ध.व. १०-२); बध्यते येन रज्ज्वादिना स द्वेष-स्नेहलेशावलीढसकलात्मप्रदेशो भवति तदा बन्धः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ.१०.६)। ६. तस्य तेष्वेवाकाशदेशेष्ववगाढस्तेष्वेवावस्थितान् कार्मणवि(कर्मणः) बन्धो विशिष्टरचनयात्मनि स्थापनं तेन ग्रहयोग्याननेकरूपान् पुद्गलान् स्कन्धीभूतानाहारववा पात्मनो बन्धः स्वरूपतिरस्कारलक्षण: कर्मबन्धः। दात्मनि परिणामयति सम्बघयतीति स्वात्मा ततस्तान(प्राव. नि. हरि. वृ. ११०८)। १०.xxx ध्यवसायविशेषाज्ज्ञानादीनां गुणानामावरणतया विभबन्धो जीवस्य कर्मणः । अन्योन्यानुगमात्मा तु यः जते हंसः क्षीरोदके यथा, वा यथा आहारकाले परिसम्बन्धो द्वयोरपि ।। (षड़द. स. ५१, पृ. १८०)। णतिविशेषक्रमविशेषादाहर्ता रस-खलतया परिणति११. कषायाः क्रोधादयः, सह कषायैः सकषायः, मानयत्यनाभोगवीर्यसामर्थ्यात् एवमिहाप्यध्यवसायतद्भावः [सकषायत्वम्] तस्मात् सकषायत्वाज्जीवो विशेषात् किञ्चिद् ज्ञानावरणीयतया किञ्चिद् योग्यानुचितान् कर्मणः ज्ञानावरणादेः पुद्गलान् पर- दर्शनाच्छादकत्वेनापरं सुख-दुःखानुभवयोग्यतया परं
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बन्ध] ८०४, जैन-लक्षणावली
[बन्ध च दर्शन-चरणव्यामोहकारितयाऽन्यन्नारक-तिर्यग्मनु- २५. जो अण्णोण्णपवेसो जीवपएसाण कम्मखंधाणं । ष्यामरायुष्केनान्यद् गति-शरीराद्याकारेणाऽपरमुच्च- सव्वबंधाण वि लम्रो सो वंधो होदि जीवस्स ।। नीचगोत्रानुभावेनाऽन्यद् दानाद्यन्त रायकारितया व्य- (कातिके. २०३) । २६. बन्धः प्रात्मकर्मणोरत्यन्तवस्थापयति । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-३); बन्धो संश्लेषः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ४) । २७. सकषानाम तैः (शुभाशुभकर्मादानहेतुभिः) आस्रवैर्हेतु- यतया जन्तोः कर्मयोग्यनिरन्तरम् । पुद्गलः सह भिरात्तस्य कर्मणः प्रात्मना सह संयोगः प्रकृत्यादि- सम्बन्धो बन्ध इत्यभिधीयते ।। (च. च. १५-६६)। विशेषित:। Xxx बन्धस्तु कर्म पुद्गलात्मक- २८. परस्परं प्रदेशानां प्रवेशो जीव-कर्मणोः । एकमात्मप्रदेशसंश्लिष्टम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-४); त्वकारको बन्यो रुक्म-काञ्चनयोरिव ॥ (पंचसं. xxx बन्धः पुनरन्योऽन्याङ्गाङ्गिभावपरिणामः। अमित. ३-६, पृ. ५४) । २६. ये गृह्यन्ते पुद्गलाः (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२६, पृ. ३६८); बन्धनं कर्मयोग्याः क्रोधाद्याढ्यश्चेतनरेष बन्धः। (अमित. बन्धः परस्पराश्लेषः प्रदेशपुद्गलानां क्षोरोदकवद् श्रा. ३-५४) । ३०. बन्धातीतशुद्धात्मोपलम्भभाप्रकृत्यादिभेदः बध्यते वा येनाऽऽत्मा अस्वातंत्र्यमाप- वनाच्यूतजीवस्य कर्मप्रदेशः सह संश्लेषो बन्धः । द्यते ज्ञानावरणादिना स बन्धः पुद्गलपरिणामः। (व. द्रव्यसं. टी. २८)। ३१. अन्योऽन्यानप्रवेशेन xxx प्रात्मप्रदेशानां पुदगलानां चान्योन्यानु- बन्धः कर्मात्मनो मतः । अनादि: सावसानश्च गतिलक्षण एव बन्धो भवति। (त. भा. सिद्ध. वृ. कालिका-स्वर्णयोरिव ॥ (उपासका. १११) । ८-३) । १७. बध्यन्ते अस्वतंत्रीक्रियन्ते कार्मण- ३२. सकषायत्वाज्जीवस्य कर्मणो योग्यानां पूदगलानां द्रव्याणि येन परिणामेन पात्मनः स बन्धः, अथवा बन्धनम् आदानं बन्धः। (स्थाना. अभय. वृ. २६६; बध्यते परवशतामापद्यते प्रात्मा येन स्थितिपरिणतेन समवा. अभय. व. ४, पृ. ६)। ३३. बन्धो जीवस्य कर्मणा तत्कर्म बन्धः । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. कर्मपुद्गलसंश्लेषः। (समवा. अभय. वृ. १, पृ. ३८)। १८. यज्जीव: सकषायत्वात् कर्मणो योग्य- ५)। ३४. बध्यतेऽनेन बन्धनमात्र वा बन्धो जीवपुदगलान । पादत्ते सर्वतो योगातु स बन्धः कथितो कर्मप्रदेशान्योऽन्यसंश्लेषोऽस्वतंत्रीकरणम् । (मला. वृ. जिनैः ।। (त. सा. ५-१३)। १६. मोह-राग-द्वेष- ५-६)। ३५. अण्णोण्णाणुपवेसो जो जीवपएसस्निग्धपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तेन कर्मत्वपरि- कम्मखंधाणं । सो पयडि-ट्ठिदि-अणुभाव-पएसदो णतानां जीवेन सहान्योऽन्यसम्मूर्छनं पुद्गलानां च चउविहो बंधो। (धसु. श्रा. ४१)। ३६. बन्धः बन्धः । (पंचा. का. अमृत. वृ. १०८); बन्धस्तु कर्मणाऽस्वतंत्रीकरणम् । (प्रा. मी. वसु. वृ. ४०)। कर्मपुद्गलानां विशिष्टशक्तिपरिणामेनावस्थानम्। ३७. मिथ्यात्वादिभिर्बन्धहेतुभिरञ्जनचूर्णपुर्णसमुद्ग(पंचा. का. अमृत. व. १४८) । २०. तत्र बन्धः स कवनिरन्तरं पूदगलनिचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणाहेतुभ्यो यः संश्लेषः परस्परम् । जीव-कर्मप्रदेशानां पुद्गलरात्मनो वह्नययःपिण्डवदन्योऽन्यानुगमपरिणास प्रसिद्धश्चतुर्विधः ।। (तत्त्वानु. ६) । २१. जीव- मात्मकः सम्बन्धो बन्धः। (शतक. मल. हेम. वृ. कम्माण उहयं अण्णोण्णं जो पएसपवेसो हु । सो ३, पृ. ६; षडशी. ह. वृ. १२) । ३८. मिथ्यात्वाजिणवरेहिं बंधो भणियो इय विगयमोहेहिं । जीव- रति-प्रमाद-कषाय-योगलक्षणहेतुवशादुपाजितेन कर्मपएसेक्केक्के कम्मपएसा हु अंतपरिहीणा। होति णा सहात्मनः संश्लेषो बन्धः । (रत्नक. टी. २-५)। घणा निविडभूया सो बंधो होइ णायव्वो ।। (भाव- ३६. बन्धो नाम कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशः सह सं. ३२४-२५) । २२. अप्पपएसा मुत्ता पुग्गलसत्ती वह्नययःपिण्डवदन्योऽन्यानुगमः । (कर्मप्र. मलय. वृ. तहाविहा गया । अण्णोण्णं मिल्लंता बंधो खलु होइ ब. क. २, पृ. १८)। ४०. बन्धो हि जीव-कर्मसंयोगणिद्धाइ ।। (द्रव्यस्व. प्र. नयच. पृ.८८ उद.)। लक्षणः । (प्राव. नि. मलय. वृ. ६२०, पृ. ३२६)। २३. प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशात्मकतया कर्मपुद्ग- ४१. ततस्तैः कर्मपुद्गलैः सहात्मनो बह्नययःपिण्डलानां जीवेन सव्यापारतः स्वीकरणम् । (सूत्रकृ. सू. वदन्योऽन्यानुगमलक्षणः सम्बन्धो बन्धः। (षडशी. शी. वृ. २, ५, १५, पृ. १२७) । २४. कम्माणं मलय. वृ. २, पृ. १२२; पंचसं. मलय. वृ. १-३, संबंधो बंधो xxx। (गो. क. ४३८)। पृ. ४)। ४२. बन्धो मिथ्यात्वादिहेतुभ्यो जीवस्य
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बन्ध]
८०५, जैन-लक्षणावलो [बन्ध (अतिचारविशेष) कर्मपुद्गलानां च वह्नययःपिण्डयोरिव नीर-क्षीरयो- प्रदेशप्रवेशात्मको बन्धः । (पारा. सा. टी. ४) । रिव बा परस्परमविभागपरिणामेनावस्थानम् । ५२. पात्मनः कर्मणश्च परस्परप्रदेशानुप्रवेशस्वभावो (धर्मसं. मलय. वृ. १६)। ४३. कर्मणां बन्धनाद् बन्धः । (त. वृत्ति श्रुत. १-४); मिथ्यादर्शनादिबन्धोxxxu (विवेकवि. ८-२५२, प. १८८)। भिराीकृतस्य जीवस्य सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्म४४. स बन्धो बध्यन्ते परिणतिविशेषेण विवशी- कक्षेत्रावगाहस्थितानामनन्तानन्तप्रदेशानां कर्मभावक्रियन्ते कर्माणि प्रकृतिविदुषो येन यदि वा। स योग्यानां जीवप्रदेशः सहान्योऽन्यमुपश्लेषो बन्धः । तत्कर्माम्नातो नयति पुरुषं यत्सुवशतां प्रदेशानां यो (त. वृत्ति श्रुत. ८-२)। ५३. अात्मप्रदेशेषु प्रास्त्रवा स भवति मिथः श्लेष उभयोः॥ (अन. ध. २, वानन्तरं द्वितीयसमये कर्मपरमाणवः श्लिष्यन्ति स ३८); xxx कर्मपूदगलानां जीवप्रदेशवति- बन्धः। (भावप्रा. टी. ६५)। ५४. बन्धः परगुणाकर्मस्कन्धान योगद्वारेणानुप्रविष्टानां कषायादिवशा- कारा क्रिया स्यात् पारिणामिकी। (पंचाध्या. २, विशिष्टशक्तिपरिणामेनावस्थानमित्यर्थः। (अन. ध. १३०)। ५५. बन्धः कर्मात्मसंश्लेष: Xxx। स्वो. टी. २-३८)। ४५. मिथ्यात्वादिभिर्बन्ध हेतु- (अध्यात्मसार १८-१६६) । भिरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकवत् निरन्तरं पुद्गलनिचिते १ रागी जीव उदयप्राप्त जिस शुभ या अशुभ भाव लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलरात्मनो वह्नययःपिण्ड- को करता है व उसके आश्रय से जो अनेक प्रकार के वदन्योऽन्यानुगमाभेदात्मकः सम्बन्धो बन्धः । (कर्म पौद्गलिक कर्म से सम्बन्ध होता है उसका नाम स्त. गो. वृ. १, पृ. ६६)। ४६. बन्धः कर्मपुद्गलः बन्ध है । २ कषाय से संयुक्त प्राणी योग के प्राश्रय सह प्रतिप्रदेशमात्मनो वह्नययःपिण्डवद् अन्योऽन्यसं- से कर्मरूप परिणत होने के योग्य जो पुद्गलों को श्लेषः । (स्या. म. म. वृ. २७) । ४७. मिथ्यात्वा- ग्रहण करता है वह बन्ध कहलाता है। ५ जीव का दिभिर्बन्धहेतुभिरञ्जनचर्णपूर्णसमदगकवद निरन्तरं जो कर्मद्रव्यों के साथ संयोग होता पुद्गल निचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलरात्मनः जानना चाहिए। क्षीर-नीरवद् वह्नययःपिण्डवद्वाऽन्योऽन्यानुगमाभेदा- बन्ध (अतिचारविशेष)-१. अभिमतदेशगतित्मकः सम्बन्धो बन्धः । (कर्मस्त. दे. स्वो. वृ. १; निरोधहेतुर्बन्धः । (स. सि. ७-२५; त. श्लो. षडशी. दे. स्वो. वृ.१; शतक. दे. स्वो. वृ. १); ७-२५) । २. अभिमतदेशगतिनिरोधहेतुर्बन्धः । अभिनवकम्मग्गहणं बन्धो Xxx। (कर्मस्त. अभिमतदेशगमनं प्रत्युत्सुकस्य तत्प्रतिबन्धहेतुः कीला. दे. ३); मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिरभिनवस्य नूतनस्य, दिषु रज्ज्वादिभिर्व्य तिषंगो बन्ध इत्युच्यते । (त. वा. कर्मणः ज्ञानावरणादेर्ग्रहणम् उपादानं बन्ध इत्यु- ७, २५, १) । ३. गतिरोधकरो बन्धः Xxx। च्यते । (कर्मस्त. दे. स्वो. वृ. ३)। ४८. शुभाशु- (ह. पु. ५८-१६) । ४. बन्धनं बन्धः संयमनं रज्जुभानां ग्रहणं कर्मणां बन्ध इष्यते। (षड़द. स. रा. दामनकादिभिः । (श्रा. प्र. टी. २५८)। ५. अभि१५)। ४६. योगनिमित्तः सकषायस्यात्मनः कर्म- मतदेशगमनं प्रत्युत्सुकस्य तत्प्रतिबन्धहेतोः कीलादिषु वर्गणापुद्गलैः संश्लेषविशेषो बन्धः। (षड्द. स. वृ. रज्ज्वादिभिर्व्यतिषंगो बन्धः । (चा. सा. पृ. ५) । ४७); बन्धः परस्पराश्लेषलक्षणः प्रयोग-विस्रसादि- ६. बन्धो रज्जु-दामनकादिना संयमनम् । (ध. बि. जनित औदारिकादिशरीरेषु जतु-काष्ठादिश्लेषवत् पर- मु. वृ. ३-२३)। ७. अभिमतदेशे गतिनिरोधहेतुमाणुसंयोगवद् वेति । (षड्द. स. वृ. ४६, पृ. १६६); बन्धनम् । (रत्नक. टी. ३-८)। ८. बन्धो रज्ज्वातत्र बन्धः परस्पराश्लेशो जीवप्रदेश-पुद्गलानां क्षीर- दिना गो-मनुष्यादीनां नियन्त्रणम् । (सा. ध. स्वो. नीरवत्, अथवा बध्यते येनात्मा पारतंत्र्यमापद्यते टी. ४-१५)। ६. उष्ट्र-गजादिधरणार्थमवष्टब्धग
तमखकी लितग्रन्थिविशिष्टवारी रज्जुरचनाविशेषो (षड्द. स. वृ. ५१, पृ. १८०)। ५०. मिथ्यात्वादि- बन्धः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३०३)। परिणामैर्यत्पुद्गलद्रव्यं ज्ञानावरणादिरूपेण परिणमति १०. जनेष्टदेशगमनप्रतिबन्धकारणं बन्धनं बन्धः । तच्च ज्ञानादीन्यावृणोतीत्यादिसम्बन्धो बन्धः । (गो. (त. वृत्ति. श्रुत. ७-२५) । ११. बन्धो मात्राधिको क. जी. प्र. टी. ४३८) । ५१. जीव-कर्मणोरन्योन्य- गाढं दुःखदं शृंखलादिभिः । आतताया (?) प्रमा
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बन्धक] ८०६, जैन-लक्षणावली
[बन्धननाम दाद्वा न कुर्याच्छावकोत्तमः ॥ (लाटीसं. अभय. वृ. ४, १, २५०); बन्धनं कर्मपुद्गलानां ५-२६४) । १२. (क्रुधः) बन्धो रज्ज्वादिना निय- जीवप्रदेशानां च परस्परं सम्बन्धनम् । xxx न्त्रणम् । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. १-४३, पृ. आसकलितावस्थस्य वा कर्मणो बद्धावस्थीकरणं १००)।
बन्धनम् । (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २९६)। १ प्रभीष्ट स्थान में जाने से रोकने में जो कारण ३. बन्धनं नाम-ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानां है उसे बन्ध कहते हैं, वह अहिंसाणुव्रत का एक यथोक्तप्रकारेण स्व-स्वाबाधाकालोत्तरकालं निषिक्ताअतिचार है। ४ रस्सी अथवा सांकल प्रादि के नां यद् भूयः कषायपरिणतिविशेषान्निकाचनम् । द्वारा गाय व भंस प्रादि को बांध कर जो नियं- (प्रज्ञाप. १४-१६०); तथा बध्यतेऽनेनेति बन्धत्रित किया जाता है यह बन्ध नाम का एक अहि- नम्, यदौदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां साणुव्रत का प्रतिचार है। ६ ऊंट और हाथी च परस्पर तैजसादिपुद्गला सह सम्बन्धजनकं प्रादि के पकड़ने के लिये खोदे गये गड्ढे के तद् बन्धनं नाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. मख को ढकने के लिये जो रस्सियों की गांठों ४७०)। ४. बध्यतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तद्बन्धनम् । से विशिष्ट वारी-गजबन्धनी-बनायी जाती है (कर्मप्र. मलय. व. बं. क. २, पृ. १६) । ५. बध्यते उसे बन्ध कहा जाता है। इस प्रकार के बन्ध, यन्त्र अष्टप्रकारं कर्म येन वीर्यविशेषेण तद् बन्धनम् । व पिंजरा आदि विषयक ज्ञान को मिथ्याज्ञान (पंचसं. मलय. व. १)। जानना चाहिए।
१रस्सी अथवा सांकल मादि के द्वारा परतंत्र बन्धक-बन्धस्स दव्व-भावभेदभिण्णस्स जे कत्तारा। करना, इसका नाम बन्धन है। २ ज्ञानावरणादिरूप ते बंधया णाम । (धव. पु. १४, पृ. २) ।
से निषिक्त-निषेकरूपता को प्राप्त-उसी कर्मद्रव्य और भाव के भेद से दो भेदों में विभक्त बन्ध दलिक का जो कषायपरिणाम की विशेषता से फिर के जो कर्ता हैं उन्हें बन्धक कहा जाता है।
से भी निविडबन्ध होता है, उसका नाम बन्धन है। बन्धकाद्धा-१. करणाइए अपुवो जो बन्धो सो न बन्धनकरण-देखो बन्ध । बंधणकरणं ति बन्धनहोइ जा अन्नो। बंधगद्धा सा तुल्लिगा उ ठिइकंडग- क्रिया-पगति-ठिति-अणुभाग-पररसतया पुग्गलाण द्धाए ॥ (पंचसं. उप. क. १५); अपूर्वकरणस्यादौ परिणामक्रिया तब्भावेण तं बन्धनकरणं जोगकसाएयो बन्धः प्रारब्धः यावदन्यो न भवति, प्रारब्धं हिंसा बंधणक्रिया भवति । XXX तत्थ 'बंधणसमाप्ति न नयति यावता कालेन सा बन्धकाद्धो- करणं' ति कम्मपोग्गलाण जीवप्पतेसाण य परोप्परं च्यते, सा च तुल्या स्थितिघातकालेन। (पंचसं. उप. संबंधणं बंधणकरणं । (कर्मप्र. चू. १-२, पृ. १८) । क. स्वो. वृ. १५)। २. अपूर्वकरणस्यादी प्रथमसमये पुद्गलों की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रवेशरूप यो बन्धः प्रारब्धः स बन्धकादा उच्यते। xxx से परिणमाने की जो क्रिया है, उसे बन्धनकरण इदमुक्तं भवति-स्थितिघात-स्थितिबन्धो युगपदा- कहते हैं। यह कर्मप्रकृतिग्रन्थगत पाठ करणों में रभ्येते, युगपदेव च निष्ठां यात इति । (पंचसं. प्रथम है। मलय.व. उप. क. १५)।
बन्धनगुण-पोग्गलाणं जेण गुणेण परोप्परं बंधो १ अपूर्वकरण के मादि में प्रथम समय में-जो होदि सो बंधणगुणो णाम । (धव. पु. १४, पृ. बन्ध प्रारम्भ किया गया है, जब तक अन्य बन्ध ४३५)। नहीं होता है-प्रारम्भ किया हुमा बन्ध समाप्त जिस गुण के द्वारा पुद्गलों का परस्पर में बन्ध नहीं होता है-उतने काल को बन्धकाद्धा कहा होता है वह बन्धनगुण कहलाता है । नाता है। वह स्थितिकाण्डककाल के समान है। बन्धननाम-१. शरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तानां बन्धन-देखो बन्ध । १. बन्धनं संयमनं रज्जु- पुद्गलानामन्योऽन्यप्रदेशसंश्लेषणं यतो भवति तद् निगडादिभिः । (ध्यानश. हरि. वृ. १६)। २. बन्ध- बन्धननाम । (स. सि. ८-११) । २. सत्यां प्राप्तौ नं तस्यैव ज्ञानावरणीयादितया निषिक्तस्य पुनरपि निर्मितानामपि शरीराणां बन्धक बन्धननाम, अन्यथा कषायपरिणतिविशेषानिकाचनमिति । (स्थानां. वालुकापुरुषवदनद्धानि शरीराणि स्युः । (त. भा..
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बन्धननाम ]
- १२ ) । ३. शरीरनामक मोंदयोपात्तानां यतोऽन्योऽन्यसंश्लेषणं तद् बन्धनम् । शरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तानां पुद्गलानामन्योऽन्यसंश्लेषणं यतो भवति तद् बन्धनमित्याख्यायते । (त. वा. ८, ११, ६) । ४. शरीरनामकर्मोदयात् गृहीतेषु गृह्यमाणेषु वा तद्योग्य पुद् गलेष्वात्मप्रदेशस्थितेषु शरीराकारेण परिणामितेष्वपि परस्परमवियोगलक्षणं बन्धननाम । (त. भा. हरि व सिद्ध वृ. ८ - १२ ) । ५. बन्धननाम यत्सर्वात्मप्रदेशं गृहीतानां गृह्यमाणानां च पुद्गलानां सम्बन्धजनकं अन्यशरीरपुद्गलैर्वा जतुकल्पमिति । ( श्रा. प्र. टी. २० ) । ६. कर्मोदयवशोपात्तपुद्गलान्योऽन्यबन्धनम् । शरीरेषूदयाद्यस्य भवेद् बन्धननाम तत् ।। (ह. पु. ५८- २५० ) । ७. शरीरनामकर्मो दयोपात्तानां यतोऽन्योन्यसंश्लेषणं तद् बन्धननाम | (त. इलो. ८-११ ) । ८ एतेषां च पुद्गलानामो दारिकादिशरीरनाम्नः सामर्थ्याद् गृहीतानां संघात - नामसामर्थ्यादन्योऽन्यसन्निधानेन संघातितानामन्योऽन्यसंश्लेषकारि बन्धननाम । ( शतक. मल. हेम. वृ. ३८, पृ. ४८ ) । ६. बन्धननाम यत्सर्वात्मप्रदेशगृहीतानां गृह्यमाणानां च पुद्गलानामन्योऽन्यशरीरैर्वा सम्बन्ध जनकं जतुकल्पम् । ( धर्मसं. मलय. वृ. ६१७) । १०. बध्यतेऽनेनेति बन्धनम् -- श्रदारिकादिपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परसंश्लेषकारि । ( प्रव. सारो. वृ. १२७४) । ११. बध्यत इति बन्धनमौदारिकबन्धनादि, तद्येन कर्मणा क्रियते तदौदारिक (कादि) बन्धनं नाम भवति । ( कर्मवि. ग. पू. व्या. ७१ ) । १२. श्रौदारिकादिशरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तानां पुद्गलानामन्योन्यप्रदेशसंश्लेषणं यतो भवति तद् बन्धनं नाम । (भ. श्री. मूला. २१२४) । १३. शरीरनामकर्मोदयवशात् उपात्तानामाहारवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानाम् ग्रन्योन्य प्रदेशसंश्लेषणं यतो भवति तद् बन्धनं नाम । ( गो . क. जी. प्र. ३३) । १४. बध्यन्ते – गृह्यमाणपुद्गलाः पूर्वगृहीतपुद्गलैः सह श्लिष्टाः क्रियन्तेयेन तद् बन्धनम्, तदेव नाम बन्धनं नाम । ( कर्मवि. -दे. स्व. वृ. २४) । १५. शरीरनामकर्मोदयाद् गृहीतानां पुद्गलानां परस्परं प्रदेशसंश्लेषणं बन्धनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
१ शरीरमामकर्म के उदय से प्राप्त पुद्गलों के प्रदेशों का परस्पर में सम्बन्ध ( एकरूपता ) जिस
[बन्धविधान
कर्म के प्रश्रय से होता है उसे बन्धननामकर्म कहते हैं । ४ शरीरनामकर्म के उदय से गृहीत और गृह्य माण शरीरयोग्य पुद्गलों के शरीराकार परिणत हो जाने पर भी जिस कर्म के उदय से उनका वियोग नहीं होता है उसका नाम बन्धन है । इस प्रकार का यदि बन्धन न हो तो वालु के पुरुष के समान वे पुद्गल सम्बन्ध से रहित होकर बिखर जाएंगे । बन्धविमोचनगति - जण्णं अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुंगाण वा बिल्लाण वा कविद्वाण वा [भव्वाण वा] फणसाण वा दालिमाण वा पारेवताण वा श्रक्खोलाण वा चाराण वा बोराण वा तिडुयाण वा पक्काणं परियागयाण बंधणातो विप्पमुक्काणं णिव्वाघातेणं अधे वीससाए गती पवत्तइ, से तं बंधणविमोयणगती | ( प्रज्ञाप. २०५, पृ. ३२८ ) ।
श्राम, श्रांवला, बिजौरा, बेल, कैथ, कटहल, अनार, पारापत, अखरोट, प्रचार (चिरौंजी ), बेर अथवा तेंदू आदि पर्यायगत पके हुए फलों की बन्धनमुक्त होकर बिना किसी व्याघात के स्वभाव से जो नीचे की प्रोर गति होती है वह बन्धनविमोचन गति कहलाती है । बन्धनीय बन्धणिज्जं णाम अहियारो तेवीसवगणाहि बंधजोग्गमबंधजोग्गं च पोग्गलदव्वं परूवेदि । (धव. पु. ८, पृ. २); बंधपात्रोग्गपोग्गलदव्वं बंधणिज्जं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. २); जीवादो पुधभूदा कम्म-णोकम्मबंध पात्रोग्गखंधा बंधणिज्जा णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ४८ ) । महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के कृति- वेदनादिरूप चौबीस अनुयोगद्वारों में छठा बन्धन नाम का धनुयोगद्वार है । वह बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान के भेद से चार प्रकार का है। उनमें से प्रकृत बन्धनीय प्रनुयोगद्वार में बन्ध के योग्य व प्रयोग्य पुद्गल द्रव्य की प्ररूपणा तेईस वर्गणानों के द्वारा की जाती है । जीव से पृथग्भूत कर्म- नोकर्मबन्ध के योग्य पुद्गल स्कन्धों को बन्धनीय कहा जाता है । बन्धविधान - पर्याड-द्विदि- श्रणुभाग-पदेस भेदभिण्णा बंधवियप्पा बंधविहाणं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. २) ।
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से भेद
८०७, जैन - लक्षणावली
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बन्धस्थान]
८०८, जैन-लक्षणावली - [बहिरङ्ग धर्मध्यान को प्राप्त बन्ध के विकल्पों का नाम बन्धविधान है। बलमानवशार्तमरण-वृक्ष-पर्वताद्युत्पाटनक्षमोऽहं बन्धस्थान-एगजीवम्मि एक्कम्हि समए जो दीसदि योधवानहं मित्राणां च बलं ममास्ति इति बलाभिकम्माणुभागो तं ठाणं णाम ।xxx तत्थ जं मानोद्वहनान्मानवशार्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. बंधेण णिप्फण्णं तं बंधट्ठाणं णाम । पुव्वबंधाणुभागे २५) । घादिज्जमाणे जं बंधाणुभागेण सरिसं होदूण पददि मैं वृक्ष और पर्वत आदि के उखाड़ने में समर्थ व तं पि बंधट्ठाणं चेव, तस्सरिसअणुभागबंधुवलंभादो। सुभट हूं तथा मेरे पास मित्रों का भी बल है, इस (धव. पु. १२, पृ. १११-११२) ।
प्रकार बल के अभिमानपूर्वक जो मरण होता है वह एक जीव के एक समय में जो अनुभाग दिखता है बलमानवशार्तमरण कहलाता है। उसका नाम स्थान है। बन्ध से जो स्थान निर्मित बलवाहनकथा-बलं हस्त्यादि, वाहनं वेगसरादि, होता है वह बन्धस्थान कहलाता है। पूर्वबद्ध अनु- तत्कथा बलवाहनकथा । यथा-हेसंतहयं गज्जंतभाग का घात करते समय जो बन्धानुभाग के मयगलं घणघणंतरहलक्खं । कस्सऽन्नस्स वि सेन्नं समान स्थान होता है उसे भी बन्धस्थान ही कहा णिन्नासियसत्तुसिन्नं भो॥ (स्थना. अभय. वृ. जाता है।
२८२, पृ. २००)। बन्धोत्कृष्ट-यासां उत्तरप्रकृतीनां 'मूलपगईणं' हाथी प्रादि का नाम बल और वेगसर प्रादि का ति मूलप्रकृतीनामनुसारेण 'बंधनिमित्तो' बन्धहेतुकः नाम वाहन है, इनकी चर्चा को बल-वाहनकथा उत्कृष्टो बन्ध:-स्थितिबन्धो भवति ता बन्धोत्कृ- कहा जाता है। ष्टाः । इदमुक्तं भवति–यावती मूलप्रकृतीनां उत्कृ- बलिशेषदोष--१. जक्खय-णागादीणं बलिसेसं स ष्टस्थितिरभिहिता तावत्येव यासामत्तरप्रकृतीनां बलित्ति पण्णत्तं । संजदमागमणह्र बलियम्म वा बन्धनिमित्ता उत्कृष्टा स्थितिर्भवति ता बन्धोत्कृष्टाः। बलि जाणो ॥ (मला. ६-१२) । २. यक्षादिबलि(पंचसं. मलय. वृ. सं. क. ३६)।
शेषोऽर्चासावा वा यतो बलिः । (अन. ध. ५, मूल प्रकृतियों की जितनी उत्कृष्ट स्थिति बतलाई १२)। ३. यक्ष-नाग-मातृका-कुलदेवताद्यर्थं कृतं गृह गई है उतनी ही जिन उत्तर प्रकृतियों की बन्धनि- तेम्यश्च यथास्वं दत्तं तद्दत्तावशिष्टं यतिभ्यो दीयमानं मित्तक उत्कृष्ट स्थिति होती है उन्हें बन्धोत्कृष्ट बलिरित्युच्यते । (भ. प्रा. मूला. २३०) । ४. यक्षाप्रकृति कहते हैं।
दीनां बलिदानोद्घतमन्नं बलिरुच्यते, अथवा संयताबल-१. द्रविणदान-प्रियभाषणाभ्यामरातिनिवार- गमनार्थं बलिकरणं बलिः । (भावप्रा. टी. ६६)। णेन यद्धि हितं स्वामिनं सर्वावस्थासु बलते संवृणो- यक्ष व नाग आदि के लिए जो बलि (उपहार) दी तीति बलम् । (नीतिवा. २२-१, पृ. २०७)। गई है उससे शेष रहे भाग को मुनि के लिए देना, २. बलं जम्बूद्वीपपरावर्तनलक्षणं सत्त्वं प्रतीन्द्रादिकं यह बलिशेषनामक उत्पादनदोष माना गया है । देवसैन्यम् अतिमनोहरं रूपं वा विद्यतेऽस्येति बलः ॥ अथवा साधुनों के आगमानार्थ किये जाने वाले (त्रि. सा. टी. १)। ३.xxx तथा च शुक्रः बलिकर्म को-पूजा प्रादि को-बलिदोष जानना -धनेन प्रियसंभाषैर्यतश्चैव पुराजितम् । प्रापद्भ्यः चाहिए। स्वामिनं रक्षेत्ततो बलमिति स्मृतम् । (नीतिवा. बहिरङ्गच्छेद-परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्गः(छेदः)। टी. २२-१ उद्.)।
(प्रव. सा. अमृ. वृ. ३-१७) । १ धनदान और प्रियभाषण के द्वारा जो शत्र का दूसरों के प्राणों का विघात करना, इसे बहिरंगनिवारण करते हुए सभी अवस्थानों में स्वामी को च्छेद कहा जाता है। बल प्रदान करता है-उसका हित करता है- बहिरङ्ग धर्मध्यान--पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादि-तदउसका नाम बल (सैन्य) है । २ जम्बूद्वीप के परा- नुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरङ्गधर्मध्यानम् । (बृ. वर्तनरूप बल, प्रतीन्द्रादिरूप सैन्यबल अथवा अति- द्रव्यसं. टी. ४८, पृ. १८५)। शय मनोहर रूप बल जिसके है उस इन्द्र को बल पांच परमेष्ठियों की भक्ति प्रादि के साथ उनके अनकहा जाता है।
कूल उत्तम पाचरण का नाम बहिरंग धर्मध्यान है।
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बहिरात्मा]
बहिरात्मा - १. अंतर- बाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरा । (नि. सा. १५० ) । २. देह कलत्तं पुत्तं मित्ताइ विहाव चेदणारूवं । अप्पसरूवं भावइ सो व हवेइ बहिरप्पा | इंदियविसयसुहाइसु मूढमई रमइ ण लहइ तच्चं । बहुदुक्खमिदि ण चितइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥ जं जं श्रक्खाण सुहं तं तं तिव्वं करेइ बहुदुक्खं । अप्पाणमिदि ण चितइ सो चैव हवेइ बहिरप्पा || ( रयणसार १३७-३६) । ३. बहिरात्मा शरीरादी जातात्मभ्रान्तिः ×× X | ( समाधि . ५ ) । ४. देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढ हवेइ || ( परमा. १ - १३ ) । ५. मिच्छा दंसणमोहिय पर अप्पा ण मुणेइ । सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुण संसार भमेइ || ( योगसार ७)। ६. मिच्छत्तपरिणदप्ण तिव्वकसाएण सुट्ठ ग्राविट्ठो । जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा || (कार्तिके. १९३ ) । ७. आत्मबुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मविभ्रमात् । बहिरात्मा स विज्ञेयो मोह निद्रास्त चेतनः ।। (ज्ञाना. ३२-६, पृ. ३१७) । ८. बहिरात्मा - ऽऽत्मविश्रान्तिः शरीरे मुग्धचेतसः । ( श्रमित. श्रा. १५-५८ ) । ९. स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवास्तवसुख प्रतिपक्षभूतेन्द्रियसुखेनासक्तो बहिरात्मा । (बृ. द्रव्यसं. टी. १४) । १०. मय- मोह - माणस हिश्रो रायहोसेहि णिच्चसंतत्तो । विसयेसु तहा गिद्धो बहिरप्पा भण्णए एसो ।। (ज्ञा. सा. ३०) । ११. आत्मधिया समुपात्तः कायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा । ( योगशा. १२ - ७ ) । १२. हेयोपादेयवैकल्यान्न च त्यहितं हितम् । निमग्नो विषयाक्षेषु बहिरात्मा विमूढधीः ॥ ( भावसं वाम. ३५३ ) । १३. बहिद्रव्यविषये शरीर - पुत्र - कलत्रादिचेतनाचेतनरूपे प्रात्मा येषां ते बहिरात्मानः । ( कार्तिके. टी. १६२ ) । १४. विषय कषायावेशः तस्वाश्रद्धा गुणेषु च दोषः । श्रात्माज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ॥ (अध्यात्मसार २० - २२ ) । १५. यस्य देह - मनोवचनादिषु श्रात्मत्वभास देह एवात्मा एवं सर्वपौद्गलिकप्रवर्तनेषु आत्मनिष्ठेषु आत्मत्वबुद्धिः स बाह्यात्मा । ( ज्ञा. सा. वू. १५ - २, पृ. ५३ ) । १ जो स्वाध्याय, प्रत्याख्यान एवं स्तवनादिविषयक बाह्य जल्प (कथन) तथा अनशनादिविषयक सत्कारादि का इच्छुक होकर अभ्यन्तर जल्प में मन
ल. १०२
[बहिःशम्बूक
को लगाता है उसे बहिरात्मा कहते हैं । २ जो शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्रादि एवं विभावचेतनारूपराग-द्वेषादिरूप विभावपरिणति को प्रात्मस्वरूप मानता है; इन्द्रियविषयजनित सुखादिक में मूढ़बुद्धि होकर रमता है व वस्तुस्वरूप को नहीं प्राप्त करता हुआ 'यह सब प्रतिशय कष्टदायक है' ऐसा विचार नहीं करता है; तथा जो कुछ भी इन्द्रियों का सुख है, वह आत्मा को बहुत दुख देने वाला है; यह भी विचार नहीं करता है उसे बहिरात्मा जानना चाहिए । १४ विषय कषायों में संलग्न रहना, जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान न करना, गुणों में द्वेष करना और ग्रात्मस्वरूप को न जानना; ये बहिरात्मा के लक्षण हैं । बहिर्मल - एकत्र बहिर्मलः शरीरेन्द्रियादिकम्, अन्यत्र बहिर्मलः किट्टमादिकम् । (श्र. मी. वसु. बु. ४) ।
एक स्थान में - श्रात्मा के विषय में- शरीर व इन्द्रियों श्रादि को बाह्य मल कहा जाता है, तथा अन्यत्र - श्रात्मभिन्न सुवर्णादि में कोट आदि को बाह्य मल कहा जाता है ।
८०६, जैन - लक्षणावली
बहिर्योग - बाह्य क्रिया बहिर्योग: XXX I ( ब्रष्यान. त . १ - ५, पृ. ६ ) । बाहिरी क्रिया को बहियोंग कहते हैं । बहिर्व्याप्ति- दृष्टान्ते व्याप्तिः बहिर्व्याप्तिः X XX। ( सिद्धिवि. वृ. ५-१५, पृ. ३४६ पं. ३-४ ) ; पक्षादन्यत्र व्याप्तिः बहिर्व्याप्तिः । (सिद्धिवि. वृ. ६-५, पृ. ३८२ ) ।
पक्ष को छोड़कर अन्यत्र ( दृष्टान्त में ) साध्यसाधन के अविनाभाव के दिखलाने को बहिर्व्याप्ति कहते हैं ।
बहिः पुद् गलक्षेप --- देखो पुद्गलक्षेप | बहिःपुद्गलक्षेपोऽभिगृहीत देशाद् बहिः प्रयोजनभावे परेषां प्रबोधनाय लेष्ट्वादिक्षेप: पुद्गलप्रक्षेप इति । (श्रा. प्र. टी. ३२० ) ।
मर्यादित देश के बाहिर प्रयोजन के उपस्थित होने पर दूसरों को संबोधित करने के लिए कंकड़ आदि के फेंकने पर देशावकाशिक व्रत का बहिःपुद्गलक्षेप नामक एक अतिचार होता है।
बहिः शम्बूका--यस्यां तु क्षेत्रबहिर्भागात् तथैव
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बहु] ८१०, जैन-लक्षणावली
[बहुबीजक भिक्षामटन् मध्यभागमायाति सा बहिःशम्बूका। एषोऽष्टम पालोचनादोषः। (व्यव. भा. मलय. वृ. (बृहत्क. क्षे. वृ. १६४६)।
१-३४२, पृ. ३१६) । ८. दोषो बहुजनं सूरिदत्ताजिस गोचरभूमि में साघु भिक्षार्थ क्षेत्र के बाह्य न्यक्षुण्णतत्कृतिः । (अन. प. ७-४३)। ६. यदा भाग से गोलरूप में परिभ्रमण करता हुमा मध्य- बहवः श्रावकादयो मिलिता भवन्ति तदा पापं भाग में प्राता है उसे बहिःशम्बूका भूमि कहते हैं। प्रकाशयतीति बहुजनदोषः । (भावप्रा. टी. ११८)। यह ऋज्वी प्रादि पाठ गोचरभूमियों में अन्तिम है। १ नौवें प्रत्याख्यानपूर्व, कल्पव्यवहार (अंगबाह्य), बह-१. बहुशब्दस्य संख्या-वैपुल्यवाचिन्नो ग्रहणम- शेष अंगों और प्रकीर्णक श्रुत में वर्णित प्रायश्चित्त विशेषात् । संख्यावाची यथा एको द्वौ बहव इति, दिया गया है, फिर भी जो उस प्रायश्चि वैपुल्यवाची यथा बहुरोदनो बहुसूप इति । (स. सि. वाले प्राचार्यों पर श्रद्धा न रखकर अन्य प्राचार्यों १-१६; त. वा. १, १६, १)। २: बहुशब्दो हि से उसके विषय में पूछता है उसके बहुजन नामक संख्यावाची वैपुल्यवाची च। (धव. पु. ६, पृ. १४६; आलोचना का प्राठवां दोष होता है। है जब धव. पु. १३, पृ. २३५)।
बहुत श्रावक प्रादि सम्मिलित होते हैं तब जो पाप १ बहु यह शब्द संख्या का और विपुलता (प्रचुरता) को प्रकाशित करता है वह पालोचना के बहुजन का वाचक है।
नामक आठवें दोष का पात्र होता है । बहु-अवग्रह-देखो बहुज्ञान । बहूणमेगवारेण गहणं बहुज्ञान-१. प्रकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरण-वीर्यान्तरायबहुअवग्गहो। (धव. पु. ६, पृ. १६)।
क्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामोपष्टम्भात् संभिन्नसंश्रोतान्यो बहुत पदार्थों का जो एक बार में ग्रहण होता है वा युगपत्तत-वितत-धन-सुषिरादिशब्दश्रवणाद् बहु. उसे बहु-अवग्रह कहते हैं।
शब्दमवगृह्णाति । (त. वा. १, १६, १६)। बहुजनदोष-१. णवमभ्मि य जं पुव्वे भणिदं २. बहोः संख्याविशेषस्यावग्रहो विपुलस्य वा । क्षयोकप्पे तहेव ववहारो। अंगेसु सेसएसु य पइण्णए पशमतो नुः स्यात् xxx ॥ (त. श्लो. १, १६, चावि तं दिण्णं ॥ तेसि असद्दहंतो पाइरियाणं पुणो २)। ३. बहु च युगपत्समानजातीयानां बहूनां ग्रहवि अण्णाणं । जइ पुच्छइ सो आलोयणाए दोसो दु णम् । (सिद्धिवि. वृ. १-२७, पृ. ११६) । ४. बहुअट्टमो ॥ (भ. प्रा. ५६५-६६) । २. गुरूपपादितं वत्ति-जादिगहणे बहु-बहुविह xxx । (गो. जी. प्रायश्चित्तं किमिदं युक्तमागमे स्यान्न वेति शंकमान- जी. ३११)। ५. बहूनामेकवारेण ग्रहणं बह्ववग्रहः स्यान्यसाधुपरिप्रश्नोऽष्टमः । (त. वा. ६, २२,२)। युगपत् पंचांगुलिग्रहणवत् । (मूला. वृ. १२-१८७)। ३. किमिदं गुरूपपादितं प्रायश्चित्तं युक्तमागमे न ६. बह्वेकव्यक्तिविज्ञानं स्याद् बढकं च क्रमाद्यथा । वेत्यनुगुरुप्रश्नः ।। (त. श्लो. ६-२२)। ४. गुरूप- बहवस्तरवः सूपो बहुश्चकं वनं नरः ॥ (प्राचा. सा. पादितं प्रायश्चित्तं किमिदं युक्तमागमे स्यान्न वेति ४-१७) । ७. बहुव्यक्तीनां ग्रहणे मतिज्ञाने तद्विषयो यावल्लघु प्रतिपादयति तावद्वा शङ्कमानस्यान्यसाधु- बहुरित्युच्यते यथा खंड-मुंड-शबलादिवहुगोव्यक्तयः । परिप्रश्नोऽष्टमो बहुजनदोषः। (चा. सा. पृ. ६१)। (गो. जी. जी. प्र. ३११)। ५. एकस्मै प्राचार्यायात्मदोषनिवेदनं कृत्वा प्रायश्चि- १संभिन्नश्रोतृत्व ऋद्धि का धारक अथवा अन्य भी तं प्रगह्य पुनरश्रदृधानोऽपरस्मै प्राचार्याय निवेद- कोई श्रोता श्रोत्रेन्द्रियावरण और वीर्यान्तराय के यति यस्तस्य बहजनं नामाष्टममालोचनादोषजातं उत्कृष्ट क्षयोपशम के साथ अंगोपांगनामकर्म के स्यात् । (मूला. वृ. ११-१५) । ६. प्रायश्चित्तमिदं उदय के होने पर जो तत, वितत, धन और सुषिर युक्तं न वेत्यल्पतदाशया। बहुसूरिपरिप्रश्नो याव- प्रादि शब्दों को सुन कर बहुत शब्दों को एक साथ दल्पं स बह्विति ॥ (प्राचा. सा. ६-३५)। ग्रहण करता है वह श्रोत्रेन्द्रियजन्य बहु-अवग्रह कह७. बहुजनमध्ये यद्वालोचनं तद् बहुजनम् । अथवा लाता है। २ बहुत संख्याविशेष का अथवा प्रमाण बहवो जना आलोचना गुरवे यत्र तत् बहूजनमा- में बहुत पदार्थों का जो ग्रहण होता है उसे बहुलोचनम् । किमुक्तं भवति–एकस्य पुरतः आलोच्य अवग्रह कहते हैं। तदेवापराधजातमन्यस्यान्यस्य पुरत आलोचयति बहुबीजक-अत्थिय तेंदु कविढे अंवाडगमाउ
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बहुबीजक] ८११, जन-लक्षणावली
[बहुबिधज्ञान लिंग बिल्ले या। मामलग फणिस दालिम आसोठे इसका नाम बहुमान है। यह पाठ प्रकार के ज्ञानाउंवर बडे य॥ णग्गोह णंदिरुक्खे पिप्परी सयरी चार में चौथा है। २ गुरु आदि के प्रति हृदय से पिलुक्खरुक्खे य । काउंवरि कुत्थंभरि बोद्धव्वा देव- अतिशय प्रादर का भाव रखना, इसे बहुमान नामक दाली य॥ तिलए लउए छत्तोह सिरीस सत्तवन्न ज्ञानाचार कहा जाता है। ३ गरुविनय, स्वाध्याय, दहिवन्ने। लोद्धद्धव चंदणज्जुण णीमे कुडए कयंबे ध्यानाभ्यास, परार्थकरण और इतिकर्तव्यता; इस या ॥ जे यावन्ने तहप्पगारा एतेसि णं मूलावि प्रकार की साधुजन की प्रवृत्ति हुमा करती है। असंखेज्जजीविया कंदावि खंधावि सालावि पत्ता इनमें गुरुविनय के अन्तर्गत बहुमान है। निर्मल पत्तेयजीविया पुप्फा अणेगजीविया फला बहुबीयगा अन्तःकरण से गुरु के प्रति अनुराग का भाव रखना, से तं बहुबीयगा, सेत्तं रुक्खा । (प्रज्ञाप. सू. २३, गा. इसे बहुमान कहते हैं। ससंग प्रतिपत्तिरूप१५-१७)।
प्रासक्तिस्वरूप-जो मोह होता है वह बहुमान का अस्थिक, तिन्दुक, कपित्थ, अम्बाडक, मातुलिंग, लक्षण नहीं है, क्वोंकि उसका शास्त्र में निषेध बेल, प्रांवला, कटहल, अनार, अश्वत्थ (पीपल), किया गया है। ऊमर, वट, न्यग्रोध, नन्दिवृक्ष, पिप्पली, शतरी, बहुविधज्ञान-१. प्रकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपप्लक्ष, कादुम्बरि, कुस्तुम्भरि, देवदालि, तिलक, शमादिसन्निधाने सति, ततादिशब्दविकल्पस्य प्रत्येकलवक, छत्रोपग, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, मेक-द्वि-त्रि - चतुःसंख्येयासंख्येयानन्तगुणस्यावग्राहकधव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुटज और कदम्बक ये त्वात् बहुविधमवगृह्णाति । (त. वा. १, १६, तथा इसी प्रकार के अन्य वृक्ष भी जो फलान्तर्गत १६)। २. बहुपयाराणं हय-हत्थि-गो-महिसादीणं बहत बीजों वाले हैं, वे बहबीजक कहलाते हैं। प्रा. गद्रणं बहविहावग्गहो। (धव. प. ६, प. मलयगिरि के अनुसार इस देश में प्रसिद्ध अमलक बहुविधं बहुप्रकारमित्यर्थः । जातिगतभूयःसंख्याविष(प्रांवला) प्रादि बहबीजक नहीं हैं, अतः देशान्त- यः प्रत्ययो बहविधः । (धव. पु. ६, पृ. १५१); र्गत प्रांवला प्रादि को बहुबीजक समझना चाहिए, प्रकारार्थे विधशब्दः, बहुविधं बहुप्रकारमित्यर्थः । एतद्देशीय वे एकास्थिक हैं न कि बहुबीजक। , जातिगतभूयःसंख्याविशिष्टवस्तुप्रत्ययो बहुविधः । बहुब्रीहि-अन्यपदार्थप्रधानो बहुब्रीहिः । (अनुयो. (धव. पु. १३, पृ. २३७) । ३. बहुविधस्य श्यादिहरि. व. पृ. ७३)।
प्रकारस्य विपुलप्रकारस्य वावग्रहः। (त. इलो. १, जिस. समास में अन्य पदार्थ प्रधान हो उसे बहुब्रीहि १६, पृ. २२४) । ४. बहुविधं भिन्नजातीयानां ग्रहकहते हैं।
णम् । (सिद्धिवि. वृ. १-२७, पृ. ११६) । ५. बहुबहुमान-१. सुत्तत्थं जप्पंतो वायंतो चावि णिज्ज- वत्ति-जादिगहणे बहुविहं xxx। (गो. जी. जी. राहेदुं । प्रासादणं ण कुज्जा तेण किदं होदि बहु- ३११) । ६. बहुप्रकाराणां हस्त्यश्व-गो-महिष्यादीनां माणं ॥ (मूला. ५-८६) । २. बहुमानो नामा- नानाजातीयानां ग्रहणं बहुविधावग्रहः । (मूला. व. ऽऽन्तरो भावप्रतिबन्धः । (दशवं. नि. हरि. वृ. १८३, १२-१८७)। ७. बह्वेकजातिविज्ञानं स्याद् बढेकव्यव. भा. मलय. वृ. १-१६२, पृ. २५) । ३. बहु- विधं यथा । वर्णा नृणां बहुविधा गौर्जात्येकविधेति मानः प्रान्तरः प्रीतिविशेषो भावप्रतिबन्धः सदन्तः- च ॥ (प्राचा. सा. ४-१८)। ८. बहुजातीनां ग्रहणे करणलक्षणो न मोहः, मोहो हि ससङ्गप्रतिपत्तिरूपः मतिज्ञाने तद्विषयो बहुविध इत्युच्यते, यथा गोशास्त्रे निवार्यते, गुरुषु गौतमस्नेहन्यायेन तस्य मोक्षं महिषाश्वादयो बहुजातयः । (गो. जी. जी. प्र. प्रत्यनुपकारकत्वात्, मोक्षानुकूलस्य तु प्रतिबन्धस्या- ३११)। निषेधात्, ततः सकलकल्याणसिद्धेः । (षोडश. वृ. १ श्रोत्रेन्द्रियावरण और वीर्यान्तराय के उत्कृष्ट १३-२)। ४. बहुमानं पूजा-सत्कारादिकेन पाठा- क्षयोपशम के साथ अंगोपांग नामकर्म के उदय का दिकं बहमानाचारः । (मला. वृ. ५-७२)। सहकार होने पर तत-विततादि शब्दों का एक-दो. १निर्जरा के कारणभत सूत्रार्थ का उच्चारण व तीन प्रादि संख्यात. असंख्यात व अनन्तगा वाचन करते हुए गुरु प्रादि का अनादर न करना, से संयुक्त ग्रहण करना; इसका नाम बहुविध अवग्रह
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[बादर अद्धासागरोपम
कोटिव्यतिक्रान्तिसमकालम् । ( त. भा. सिद्ध. वू. ४-१५, पृ. २४) । २. तत्र स एवोत्सेघाङ्गुलप्रमितयोजनप्रमाणायाम - विष्कम्भोद्वेधः पल्यो मुण्डिते
बहुश्रुतता - बहुश्रुतता युगप्रधानागमता । ( उत्तरा शिरसि यानि संभाव्यमानानि एकाहोरात्र - द्वय होनि. शा. खू. ५८, पृ. ३६ ) । रात्रयावत्सप्ताहोरात्रप्ररूढानि बालाग्राणि तैः प्रायुगश्रेष्ठ भागमों की जानकारी को बहुश्रुतता ग्वन्निचितो भ्रियते ततो वर्षशते वर्षशतेऽतिक्रान्ते कहते हैं । एक बालाग्रापहारेण यावता कालेन स पल्यो निर्लेपो बहुश्रुतभक्ति- १. वारसंगपारया बहुसुदा णाम, भवति तावान् कालविशेष: संख्येयवर्ष कोटीप्रमाणो तेसु भत्ती तेहि वक्खाणिदश्रागमगंथाणुवत्तणं तद- बादरमद्धापल्योपमम् । (बृ. संग्रहणी मलय. वृ. द्वाणपासो वा बहुसुदभत्ती । (धव. पु. ८, पृ. ८) ४) । ३. तस्मिन्नेवोत्सेधाङ्गुलप्रमितयोजनप्रमाणा२. स्व-परसमयविस्तरनिश्चयेषु बहुश्रुतेषु विशुद्धि- याम - विष्कम्भोद्वेधे पल्ये पूर्वोक्तसहजबादरबालायुक्तोऽनुरागो भक्ति: । (चा. सा. पृ. २६) । ३. बहु- निभूतं भृते सति प्रतिवर्षशतमेकैकं बालाग्रमपह्रियते श्रुतेष्वनुरागो भक्तिः । ( भावप्रा. टी. ७७ ) । यावता कालेन स पल्यो निर्लेपीक्रियते तावान् कालो १ जो बारह अंगों के पारगामी हैं वे बहुश्रुत कह- बादरमद्धापल्योपमं विज्ञेयम् । तत्र बादरेऽद्धापल्योलाते हैं, उनके द्वारा व्याख्यात ( उपदिष्ट) आगम पमे संख्या वर्षको यो भवन्तीति । ( प्रव. सारो. ग्रन्थों का पारायण करना व तदनुसार श्राचरण वृ. १०२४ ) । ४. तथा वर्षशते वर्षशते प्रतिक्रान्ते करना, यह उन बहुश्रुतों की भक्ति कहलाती है । पूर्वोक्तपल्यादेक कबालाग्रापहारेण निर्लेपनाकालः २ जो स्व-पर समयों (सिद्धान्तों) के ज्ञाता हैं उन्हें संख्येयवर्ष कोटीमानो बादरमद्धापल्योपमम् । ( संग्रबहुभुत कहा जाता है, उनके विषय में निर्मल परिहणी दे. वृ. ४) । ५. एकादिसप्तान्तदिनोद्गतैः नाम के साथ अनुराग रखना, इसे बहुश्रुतभक्ति केशान्नराशिभिः । भृतादुक्तप्रकारेण पल्यात् पूर्वोक्तकहते हैं । मानतः ॥ प्रतिवर्षशतं खण्डमेकमेकं समुद्धरेत् । निःशेषं निष्ठिते चास्मिन्नद्धापल्यं हि बादरम् ।। (लोकप्र. १, ६८-६६ ) |
१ एक योजन विस्तीर्ण और एक योजन गहरे गोल गड्ढे को एक दिन से लेकर अधिक से अधिक सात दिन के उत्पन्न शरीरगत रोमों से ठसाठस भरने पर उनसे परिपूर्ण वह पल्य कहलाता है; उसमें से सौ सौ वर्षों में एक एक रोम के निकालने पर जितने समय में वह रिक्त होता है उतने समय का नाम बादर श्रद्धापल्य है । २ उत्सेघांगुल के प्रमाण से एक योजन लम्बे, चौड़े व गहरे गड्ढे को बालाग्रों से भरकर उनमें से सौ सौ वर्ष में एक एक बाला के निकालने पर जितने सभय में वह रिक्त होता है उतने काल को बादर श्रद्धापल्योपम कहते हैं, जो संख्यात कोटि वर्ष प्रमाण होता है । बादर श्रद्धासागरोपम - १ तथा वर्षशते वर्ष - शते प्रतिक्रान्ते पूर्वोक्तपल्यादेकैकबालाग्रापहारेण निलॅपनाकालः संख्ये वर्ष कोटीमानो बादरमद्धापल्योपमम् । तद्दशकोटीकोट्यो बादरमद्धासागरोपमम् । ( संग्रहणी दे. वृ. ४) । २. तेषां च बादराद्धापल्यो
बहुश्रुतता]
( श्रोत्रेन्द्रियजनित) है । २ बहुत प्रकार के घोड़ा, हाथी, गाय और भैंस आदि का जो ग्रहण होता है, इसे बहुविध प्रवग्रह कहा जाता है ।
८१२, जैन-लक्षणावली
बादर - १. बादरशब्दः स्थूलपर्याय: । ( धव. पु. १, पृ. २४६ ) ; बादरसद्दो कम्मक्खंधस्स स्थूलत्तं भदि । ( धव. पु. १३, पृ. ५० ) । २. छिन्नाः स्वयं संघानसमर्थाः क्षीर-घृत-तैल-तोय- रसप्रभृतयो बादरा: । (पंचा. का. अमृत. वृ. ७६ ) । ३. ये तु छिन्नाः सन्तः तत्क्षणादेव संधानेन स्वयमेव समर्थास्ते स्थूलाः (बादराः) सर्पिस्तैल-जलादय: । (पंचा. का. जय. वृ. ७६) । ४. जलं बादरम्, यत् छेत्तुं भेत्तुमशक्यमन्यत्र नेतुं शक्यं तद्वादरमित्यर्थः । ( कार्तिके. टी. २०६ ) ।
१ बादर शब्द स्थूल का पर्यायवाची है । २ छिन्न होकर जो स्वयं जुड़ने में समर्थ हैं वे दूध, घी, तेल और पानी आदि बादर माने जाते हैं । बादर श्रद्धापल्योपम - १. तत्रोक्तलक्षणं भाष्ये ( तद्यथा हि नाम योजनविस्तीर्णं योजनोच्छ्रायं वृत्तं पत्यमेकत्राद्युत्कृष्टसप्तरात्रजातानामङ्ग लोम्नां गाढं पूर्णं स्यात्, वर्षशताद् वर्षशताद् एकैकस्मिन्नुद्प्रियमाणे 'शुद्धिनियमतो यावता कालेन तद्रिक्तं स्यादेतत् पल्योपमम् ।) बादराद्धापल्यं संख्येयवर्ष -
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बादर आलोचनादोष ]
८१३,
पमानां दश कोटीकोटयः एकं बादरमद्धासागरोपमम् । (बृ. संग्रहणी मलय. वृ. ४) । ३. एतेषामथ पल्यानां दशभिः कोटिकोटिभिः । भवेद् बादरमद्धाख्यं जिनोक्तं सागरोपमम् ॥ ( लोकप्र. १ - १०० ) । १ दश कोड़ाकोड़ी बादर श्रद्धापल्योपम प्रमाण काल को बादर श्रद्धासागरोपम धहते हैं। बादर श्रालोचनादोष - १. XXX इय जो दो लहुगं समालोचेदि गूहदे थूलं । भय-मय-मायाहिदो जिणवयणपरंमुहो होदि ।। (भ. श्री. ५८१ ) । २. आलस्यात् प्रमादाद्वाल्पापराधावबोधनिरुत्सुकस्य स्थूलदोषप्रतिपादनं चतुर्थः । (त. वा. ६, १२, २ ) । ३. प्रमादालस्याभ्यामल्पदोषावज्ञानेन स्थूलदोषप्रति पादनम् । (त. इलो. ε- २२ ) । ४. बादरं च स्थूलं च - व्रतेष्वहिंसादिकेषु य उत्पद्यते दोषस्तमालोचयति सूक्ष्मं नालोचयति यस्तस्य चतुर्थो बादरनामालोचनादोषः स्यात् । (मूला. बृ. ११ - १५ ) । ५. X XX बादरं स्मृतम् । स्थूलानामेव दोषाणामालस्याद्यैनिवेदनम् | ( श्राचा. सा. ६-३१) । ६. बादरं दोषजातमालोचयति न सूक्ष्मम्, तत्रावज्ञापरत्वादेषः चतुर्थः बादर आलोचनादोषः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-३४३, पृ. १६) । ७. बादरं बादरस्यैव ( गुरो: प्रथा ) x x x 1 (अन. ध. ७-४१ ) । ८. स्थूलं पापं प्रकाशयति, सूक्ष्मं न कथयतीति बादरदोष: । ( भावप्रा. टी. ११८ ) ।
१ जो अन्तःकरण में भय, मद अथवा माया से युक्त होकर सूक्ष्म दोष को तो श्रालोचना करता है, पर स्थूल दोष को छिपाता है, वह बादर नामक झालोचनादोष से लिप्त होता है । ६ स्थूल दोषों की आलोचना करना, पर सूक्ष्म दोष की आलोचना न करना; यह अवज्ञा में तत्पर होने से श्रालोचना का बादर नामक चौथा दोष है ।
बादर उद्धारपल्योपम- १. उद्धारपल्योपमं तु बादरं स्थूलबालाग्रापहारे प्रतिसमयमेकैकस्मिन् सति भवति, तच्च संख्येयसमयपरिमाणं वेदितव्यम् । ( त भा. सिद्ध. वृ. ४- १५ ) । २. तत्रायाम-विष्कम्भाभ्यामवगाहेन चोत्सेधाङ्गुलप्रमितयोजनप्रमाणः पल्य:
जैन - लक्षणावली
fus शिरसि यान्यनेका होरात्रप्ररूढानि यावत्सप्ताहोरात्रप्ररूढानि संभाव्यन्ते बालाग्राणि तैराकर्ण भ्रियते, स च तथा कथंचनापि प्रचय-. विशेषमापाद्य भरणीयो यथा न तानि बालाग्राणि
[बादर उद्धारपल्योपम
वायुरपहरति नापि वह्निस्तानि दहति नापि तेषु सलिलं प्रविश्य कोथमापादयति । तथा चात्रायें अनुयोगद्वारसूत्रम् — से णं पल्ले एगाहिय- बेहियतेहियाणं उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं समट्ठेणं संनिचिए भरिए बालग्गकोडीणं तेणं बालग्गा नो अग्गी हिज्झा, नो वायु हरिज्भा, नो कुथिज्झा इत्यादि । तत एवं बालायैस्तं पयमापूर्य समये समये तत एकैकं बालाग्रमपहरेत् । यावता च कालेन स पल्यो निर्लेपो भवति तावान् कालविशेष: संख्येयसमय प्रमाणो बादरमुद्धारपल्योपमम् । (बृ. संग्रहणी मलय. वृ. ४ ) । ३. तत्रायाम-विस्ताराभ्यामवगाहेन चोत्सेधाङ्गुल निष्पन्नै कयोजनप्रमाणो वृत्तत्वाच्च परिधिना किञ्चिन्न्यूनषड्भागाधिकयोजनत्रयमानः पल्यो मुण्डिते सिरसि एकेनाह्ना द्वाभ्यामहोभ्यां यावदुर्षतः सप्तभिरहोभिः प्ररूढानि यानि बालाग्राणि तैः प्रचयविशेषानिविडतरमाकर्ण तथा भ्रियते यथा तानि बालाग्राणि वह्निर्न दहति वायुर्नापहरति, जलं च न कोथयति, ततः समये समये एकैकबालाप्रापहारेण यावता कालेन स पल्यः सकलोऽपि सर्वात्मना निर्लेपो भवति तावान् काल: संख्येयसमयमानो बादरमुद्धारपल्योपमम् । ( संग्रहणी दे. वृ. ४) । ४. उत्सेधागुल सिर्द्धकयोजनप्रमितोऽबटः । उण्डत्वायामविष्कभैरेष पल्य इति स्मृतः ॥ परिधिस्तस्य वृत्तस्य योजनत्रितयं भवेत् । एकस्य योजनस्योनषष्ठभागेन संयुतम् || सम्पूर्य उत्तरकुरुनृणां शिरसि मुण्डिते । दिनैरेकादिसप्तान्तं रूढकेशाग्रराशिभिः ॥ क्षेत्रसमासबृहद्वृत्ति-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्त्यभिप्रायोऽयम्, प्रवचनसारोद्धारवृत्ति-संग्रहणीबृहद्वृत्त्योस्तु मुण्डिते शिरसि एकेनाह्ना द्वाभ्यामहोभ्यां यावदुत्कर्षतः सप्तभिरहोभिः प्ररूढानि बालाग्राणीत्यादि सामान्यतः कथनादुत्तरकुरुनरबालाग्राणि नोक्तानीति ज्ञेयम् । वीरंजयसेहरक्षेत्रविचारसत्कस्वोपज्ञवृत्तौ तु देवकुरूत्तरकुरूद्भवसप्तदिनजातोरणस्योत्सेधाङ्गुलप्रमाणं रोम
T
सप्तकृत्वोऽष्टखण्डीकरणेण विंशतिलक्ष-सप्तनवतिसहस्रकशत द्वापंचाशत्प्रमितखण्डभावं प्राप्यते तादृशै रोमखण्डैरेष पल्यो भ्रियते इत्यादिरर्थतः सम्प्रदायो दृश्यत इति ज्ञेयम् । XX X तथा निबिडमाकण्ठं भ्रियते स यथा हि तत् । नाग्निर्दहति बालाग्रं सलिलं च न कोथयेत् ॥ तथा च चक्रिसैन्येन तमाक्रम्य प्रसर्प्यता । न मनाकु क्रियते नीचैरेवं निविढतां
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बादर उद्धारसागरोपम] ८१४, जैन-लक्षणावली [बावर क्षेत्रपल्योपम गतात् ॥ समये समये तस्माद् बालखण्डे समुद्धृते । कालपुद्गलपरावर्तः । एतदुक्तं भवति-यावता कालेन यावता पल्यः स भवेन्निष्ठितोऽखिलः ॥ कालेनैको जीवः सर्वानप्यूत्सपिण्यवसर्पिणीसमयान कालस्य तावतः संज्ञा पल्योपमिति स्मृता । तत्राप्यु- क्रमेणोत्क्रमेण वा मरणेन व्याप्तान् करोति तावान् द्धारमुख्यत्वादिदमुद्धारसंज्ञितम् ।। इदं बादरमुद्धार- कालविशेषो बादर-(काल-) पुद्गलपरावर्तः । (पंचपल्योपममुदीरितम् । प्रमाणमस्य संख्याता: समयाः सं. मलय. व. ३-४०)। ४. अवसर्पिण्या उपकथिताः जिनैः।। (लोकप्र. ७१-७३ व ८१-८५)। लक्षणत्वादुत्सपिण्याश्च यावन्तः समयाः परमसूक्ष्माः १ प्रत्येक समय में एक एक स्थूल बालान के निका- कालविभागास्ते यदा एकजीवेन निजमरणेन क्रमेणोलने पर संख्येय समय प्रमाण बादर उद्धारपल्योपम क्रमेण स्पृष्टा भवन्ति तदा कालपुद्गलपरावतों होता है । २ उत्सेधांगुल के प्रमाण से निष्पन्न एक भवेत्स्थूलः । अयमर्थः-यावता कालेनैको जीवः योजन विस्तृत, आयत और गहरे गड्ढे को शिखा- सर्वानवसर्पिण्युत्सर्पिणीसमयान् क्रमेणोत्क्रमेण वा मरपर्यन्त एक दिन से सात दिन तक के उत्पन्न रोमों न व्याप्तान् करोति तावान् कालविशेषो बादरः से इस प्रकार सघन भरा जाय कि उन बालानों कालपुद्गलपरावर्तः । (प्रव. सारो. वृ. १०४७) । को वायु उड़ा न सके, अग्नि जला न सके, और १ उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालों के जितने समय जल उनमें प्रविष्ट होकर सड़ा-गला न सके। तत्प- हैं उनमें एक जीव अनन्तर अथवा परम्परा श्चात् उसमें से प्रत्येक समय में एक एक बालान के प्रकारों से-क्रम से अथवा प्रक्रम से भी जितने निकालने पर जितने काल में वह रिक्त होता है काल में मरण को प्राप्त होता है उतने काल का उतना काल बादर उद्धारपल्योपम कहलाता है। णाम बादर कालपरावर्त है। बादर उद्धारसागरोपम-१. एतेषां (बादरो- बादर क्षेत्रपरावर्त-१. लोगागासपएसा जया द्धारपल्योपमानां) च दशकोटिकोटयो बादरमुद्धार- मरतेण एत्थ जीवेणं । पुट्टा कमुक्कमेणं खेत्तपरट्टो सागरोपमम् । (संग्रहणी दे. वृ. ४)। २. इत्थं भवे थूलो ।। (प्रव. सारो. १०४४)। २. लोकस्य भूतानां च बादरोद्धारपल्योपमानां दशकोटिकोटयो चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्याकाशप्रदेशा निविभागा नभोबादरमुद्धारसागरोपमम् । (बृ. संग्रहणी मलय. वृ. भागा यदा म्रियमाणेनात्र जगति जीवेन स्पृष्टा ४)। ३. एतेषामथ पल्यानां दशभिः कोटिकोटि- व्याप्ताः क्रमेण तदन्तरभावलक्षणेनोत्क्रमेण वा भिः। भवेद् बादरमुद्धारसंज्ञकं सागरोपमम ॥ प्रर्द-वितर्दमरणाक्रान्तक्षेत्रप्रदेशरूपेण तदा क्षेत्रपुद्(लोकप्र. १-८७)।
गलपरावर्ती भबेत् स्थूलो बादरः । किमुक्तं भवति ? १ दश कोड़ाकोड़ी बादर उद्धारपल्योपम प्रमाण यावता कालेनैकेन जीवेन क्रमेणोत्क्रमेण वा यत्र तत्र काल को बादर उद्धारसागरोपम कहते हैं। म्रियमाणेन सर्वेऽपि लोकाकाशप्रदेशा मरणे संस्पृष्टा बादर कालपुद्गलपरावर्त-१. उसप्पिणिसम- क्रियन्ते स तावान् कालविशेषो बादरः क्षेत्रपुद्गलएसु अणंतर-परंपराविभत्तीहिं । कालम्मि बायरो सो परावर्तः । (प्रव. सारो. वृ. १०४४)। xxx ॥ (पंचसं. २-४०, पृ. ७५); उत्सर्पि- १ जितने काल में एक जीव अपने मरण के द्वारा क्रम णीग्रहणादवसपिण्यपि ग्राह्या। xxx उत्सपि- या व्युत्क्रम से लोकाकाश के समस्त प्रदेशों को ण्यवसर्पिणीसमयेसु निकृष्टकालविभागेसु अनन्तर- स्पृष्ट करता है उतने काल को बादर क्षेत्रपुद्गलपरम्परप्रकाराभ्याम् एको जीवो यावता कालेन मृतो परावर्त कहते हैं । भवति स बादरः कालपुद्गलपरावर्तः। (पंचसं. बादर क्षेत्रपल्योपम...१. स एवोत्सेधागुलप्रस्वो. व. २-४०) । २. अोसप्पिणीय समया जाव- मितयोजनप्रमाणविष्कम्भायामावगाढः पल्यः पूर्वइया ते य निययमरणेणं। पूदा कमक्कमेणं काल- वदेकाहोरात्रयावतसप्ताहोरात्रप्ररूढीलाराकर्ण निपरदो भवे थलो ॥ (प्रव. सारो. १०४७)। चितो भ्रियते. ततस्तै लार्य नभ:प्रदेशा: स्प ३. उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयेषु सर्वेष्वपि अनन्तर-पर- समये समये एकैकनभःप्रदेशप्रतिसमयावहारेण यावता म्पराविभक्तिभ्यां अनन्तरप्रकारेण परम्पराप्रकारेण च कालेन सर्वात्मना निष्ठामुपयाति [न्ति] तावान् मृतस्य यावान कालो भवति तावान बादर:-बादर- कालविशेषो बादरं क्षेत्रपल्योपमम्, एतच्चासंख्योत्स
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बादर क्षेत्रपुद्गलपरावर्त] ८१५, जन-लक्षणावली [बादर द्रव्यपुद्गलपरावर्त पिण्यवसर्पिणीमानम् xxx। (प्रव. सारो. वृ. शेषाः बादराः । (धव. पु. १, पृ. २६७); बादर१०२६; बृ. संग्रहणी मलय. वृ.४)। २. तथा णामकम्मोदयसहिदपुढविकाइयादयो बादराः। (षव. प्राग्वत् पल्याद् बालाग्रस्पृष्टनभःप्रदेशानां प्रतिसमयः पु. ३, पृ. ३३०); (अण्णेहि पुग्गलेहि) पडिहम्ममेकैकापहारेण निर्लेपनाकालोऽसंख्येयोत्सपिण्यवसपि. माणसरीरो बादरो। (घव. पू. ३, प.३३१) । णीमानो बादरं क्षेत्रपल्योपमम् । (संग्रहणी वृ. ४)। २. बादरनामकर्मोदयाद् बादराः । (पंचसं. स्वो. वृ. १ एक योजन लम्बे चौड़े गहरे गड्ढे को एक दिन ३-६)। ३. बादरत्वं परिणामविशेषः, यद्वशात् से सात दिन तक के उत्पन्न बालानों से ठसाठस पृथिव्यादेरेकैकस्य जन्तुशरीरस्य चक्षुर्ग्राह्यत्वाभावेभरने पर उन बालानों से जितने प्राकाशप्रदेश ऽपि बहूनां समुदाये चक्षुषां ग्रहणं भवति । (पंचसं. स्पष्ट हैं उनमें एक एक प्राकाशप्रदेश के प्रत्येक मलय. वृ. ३-८, पृ. ११६ प्रज्ञाप, मलय. वृ. समय में निकाले जाने पर जितने काल में वे २६३, पृ. ४७४) । ४. बादरनामकर्मोदयवर्तिनो समाप्त होते हैं उतने कालविशेष को बादर क्षेत्र- बादराः । (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. १११२) । पल्योपम कहा जाता है।
१ जिनके बादर नामकर्म का उदय पाया जावे ऐसे बादर क्षेत्रपुद्गलपरावर्त- १. लोगस्स पएसेसु प्राधार के आश्रित जीवों को बादर कहते हैं। अणंतर-परंपराविभत्तीहिं । खेत्तंमि बायरो सो x बादर द्रव्यपुद्गलपरावर्त-१. संसारंमि अडतो xx। (पंचसं. च. २-३६); लोकस्य चतुर्दश- जाव य कालेण फुसिय सव्वाणू । इगु जीव मुयइ रज्जुप्रमाणाकाशखण्डस्य प्रदेशेषु निविभागखण्डेषु बायर xxx ॥ (पंचसं. २-३८); संसारे अनन्तर-परम्पराप्रकाराभ्यां मृतस्यैकजीवस्य, किम- अटन् भ्राम्यन् यावता कालेन स्पृष्ट्वा आत्मभावेन क्तं भवति ? प्रत्येकं सर्वप्रदेशेषु यावता कालेन परिणमय्य सर्वानप्यणून् परमाणून् एको जीवो एको जीवो मृतो भवति स बादरः क्षेत्रपुद्गलपरा- मुञ्चति, एषोऽद्धाविशेषो बादरो द्रव्यपुद्गलपरावर्तः । वर्तः । (पंचसं. स्वो. वृ. २-३६)। २. लोकस्य (पंचसं. स्वो. वृ. ३-३८)। २. अोराल-विउव्वाचतुर्दशरज्ज्वात्मकस्यानन्तर • परम्पराविभक्तिभ्यां तेय-कम्म-भाषाणपाण-मणएहिं । फासेवि सव्वपोअनन्तरप्रकारेण परम्पराप्रकारेण च सर्वेषु प्रदेशेष्वे- ग्गल मुक्का अह वायरपरट्टो॥ अहव इमो दव्वाइ कजीवस्य मृतस्य यावान् कालविशेषो भवति, स ओराल-विउव्व-तेय-कम्मेहिं । नीसेसदव्वगहणंमि तावान् क्षेत्रविषयो बादरपुद्गलपरावर्तः। किमुक्तं बायरो होइ परियट्टो॥ (प्रव. सारो. १०४१-४२)। भवति ? यायता कालेन एकेन जीवेन क्रमेणोत्क्रमेण ३. एकेन जन्तुना विकटां भवाटवीं पर्यटता अनन्तेषु वा यत्र तत्र म्रियमाणेन सर्वेऽपि लोकाकाशप्रदेशा भवेषु औदारिक-वैक्रिय-तैजस-कार्मण-भाषाऽऽनप्राणमरणसंस्पृष्टाः क्रियन्ते स तावान् कालविशेषः क्षेत्र- मनोलक्षणपदार्थसप्तकरूपतया चतुर्दशरज्ज्वात्मकबादरपुद्गलपरावर्तः । (पंचसं. मलय. वृ. २-३६)। लोकवर्तिनः सर्वेऽपि पुद्गलाः स्पृष्ट्वा परिभुज्य १ चौदह राजु प्रमाण लोक के समस्त प्रदेशों पर यावता कालेन मुक्ता भवन्ति एष बादरद्रव्यपुद्गलएक जीव क्रम या अक्रम से मरकर जितने काल में परावर्तः । किमुक्तं भवति ? यावता कालेनैकेन उन सबका स्पर्श करता है उतने कालविशेष को जीवेन सर्वेऽपि जगद्वर्तिनः परमाणवो यथायोगमौदाबादर क्षेत्रपुद्गलपरावर्त कहते हैं।
रिकादिसप्तकस्वभावत्वेन परिभुज्य २ परित्यक्ताबादर क्षेत्रसागरोपम-१. तेषां च बादरक्षेत्र- स्तावान् कालविशेषो बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्तः, पापल्योपमानां दशकोटीकोटयः एकं बादरक्षेत्रसागरोप- हारकशरीरं चोत्कृष्टतोऽप्येकजीवस्य वारचतुष्टमेव मम् । (बृ. संग्रहणी मलय. वृ. ४)। २. तद्दश सम्भवति ततस्तस्य पुद्गलपरावर्त प्रत्यनुपयोगान्त [तेषां बादरक्षेत्रपल्यौपमानां दश] कोटीकोटयो ग्रहणं कृतमिति । Xxx अथवा-अन्येषामाबादरं क्षेत्रसागरोपमम् । (संग्रहणी दे. वृ. ४)। चार्याणां मतेनौदारिक-वैक्रिय-तैजस-कार्मणशरीरचतु१ दश कोडाकोडी बादर क्षेत्रपल्योपम प्रमाण काल ष्टयरूपतया निःशेषद्रव्यग्रहणे एकजीवेन सर्वलोकको बादर क्षेत्रसागरोपम कहते हैं।
पुद्गलानां परिभुज्य २ परित्यजनेऽयं बादरः-स्थूल: बावर जीव-१. बादरनामकर्मोदयोपजनितवि- पुद्गलपरावर्तो भवति । (प्रव. सारो. वृ. १०४१,
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बादरनाम]८१६, जैन-लक्षणावलो
- [बादर-बादर १०४२)। ४. संसारे अटन् परिभ्रमन्नेको जीव: सक- १ नो कर्म दूसरों को बाधा पहुंचाने वाले शरीर लेऽपि संसारे ये केचन परमाणवस्तावान् सर्वानपि का कारण है उसे बादरनामकर्म कहते हैं । ३ बादर यावता कालेन स्पृष्ट्वा मुञ्चति-प्रौदारिकादिरूप- शब्द का अर्थ स्थूल होता है, जिस कर्म के उदय से तया परिभुज्य परिभुज्य परित्यजति, तावान् काल- किन्हीं जीवों के शरीर में स्थूलता होती है वह विशेषो बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्तः । किमुक्तं भवति ? बादर नामकर्म कहलाता है। १० जिस कर्म के यावता कालेनैकेन जीवेन सर्वेऽपि जगद्वतिन: पर- उदय से जीवों का शरीर चक्षु से ग्रहण करने के माणवो यथायोगमौदारिक-वैक्रिय-तैजस-कार्मण- योग्य होता है उसे बादर नामकर्म कहा जाता है। भाषा-प्राणापान-मनस्त्वेन परिभुज्य परिक्तास्तावान् बादर निगोदद्रव्यवर्गणा-बादरणिोददव्ववग्गकालविशेषो बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्तः । (पंचसं. णाणाम बादरणियोदाणं जीवाणं उरालिय-तेयामलय.. २-३८)।
कम्मतिगेसु विस्ससापरिणामोपचिता पोग्गला एक्के१ एक जीव संसार में परिभ्रमण करता हमा जितने काल में समस्त परमाणुगों को स्पर्श करके । जीवाणं अणंतगुणउवचिता तातो बादरणियोयदव्वछोड़ता है उतने काल को बादर द्रव्य पुदगलपरावर्त वग्गणातो कुव्वंति । (कर्मप्र. च. ब. क. २०, पृ. कहा जाता है।
४२)। बादरनाम--१. अन्यबाधाकरशरीरकारणं बादर- बादरनिगोदिया जीवों के औदारिक, तंजस और नाम । (स. सि. ८-११;त. श्लो. ८-११; भ. प्रा. कार्मण इन तीन शरीरों में जो पुद्गल स्वाभाविक मूला. २२२१)। २. अन्यबाधाकरशरीरकारणं बाद- परिणाम से उपचय को प्राप्त होते हैं वे एक रनाम । अन्यबाधानिमित्तं स्थुलं शरीरं यतो भवति एक जीव के एक एक शरीरकर्मप्रदेश मे सर्व जीवों तद् बादरनाम । (त. वा. ८, ११, ३०)। ३. बा- से अनन्तगुणी उपचयप्राप्त पुद्गलवर्गणाएं बादर दरं स्थूलम्, केषाञ्चिज्जीवानां यस्य कर्मण उद- निगोदद्रव्यवर्गणायें कहलाती हैं।। यात् स्थूलशरीररता भवति तत् बादरनाम । (त. बादरनिगोदप्रतिष्ठित - जे बादरणिगोदाणं भा. हरि. वृ. ८-१२)। ४. बादरनाम यदुदयाद् जोणीभूदसरीरपत्तेगसरीरजीवा ते बादरणिगोदपदिबादरो भवति, स्थूर इत्यर्थः । इन्द्रियगम्य इत्यन्ये । टिदा भण्णंति । (धव. पु. ३, पृ. ३४८) । (श्रा. प्र. टी. २२) । ५. तद्विपरीत-(परैमूर्तद्रव्यः बादर निगोदजीवों के योनिभूत प्रत्येक शरीर वाले प्रतिहन्यमान-) शरीरनिर्वर्तकं बादरकर्म। (धव. पु. जीव बादर निगोदप्रतिष्ठित कहलाते हैं। १, पृ. २५३); जस्स कम्मस्स उदएण जीवो बाद- बादर प्राभूतकदोष-दिवसे पक्खे मासे वास पररेषु उप्पज्जदि तस्स कम्मस्स बादरमिदि सण्णा। तीय बादरं दुविहं । (मूला. ६-१४) । (धव. पु. ६, पृ. ६१); जस्स कम्मस्स उदएण दिन, पक्ष, मास अथवा वर्ष को परिवर्तित कर जो जीवा बादरा होति तं बादरणाम । (धव. पु. १३, साधु को दान दिया जाता है वह बादर प्राभृतक पृ. ३६५) । ६. बायरनामुदएणं बायरकाो उ होइ दोष से दूषित होता है। सो नियमा। (कर्मवि. १३५)। ७. बादरनाम बादर-बादर-१. तत्र छिन्नाः स्वयं सन्धानासमर्थाः यदुदयाज्जीवा बादरा भवन्ति । (पंचसं. मलय. व. काष्ठ-पाषाणादयो बादर-बादराः। (पंचा. का. ३-८, पृ. ११६) । ८. तथा बादरनाम यदुदया- अमृत. वृ. ७६) । २. ये छिन्नाः सन्तः स्वयमेव ज्जीवा बादरा भवन्ति । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, सन्धातुमसमर्थाः स्थूल-स्थूलाः भू-पर्वतादयः । (पंचा. पृ. ४७४; प्रव. सारो. वृ. १२६५)। ६. बादरः का. जय. वृ. ७६) । ३. पृथ्वीरूपपुद्गलद्रव्यं बादरस्थूलस्तल्लक्षणं नाम बादरनाम, यदुदये जीवो बादर- बादरम्, छेत्तुं भेत्तुमन्यत्र नेतुं शक्यं तद् बादरबादरपरिणामपरिणतो भवति । (कर्मवि. पू. व्या. ७३)। मित्यर्थः । (गो. जी. जी. प्र. ६०३; कार्तिके. टी. १०. यदुदयाज्जीवानां चक्षुाह्यशरीरत्वलक्षणं बाद- २०६)। रत्वं भवति तद् बादरनाम । (कर्मप्र. यशो. वृ. १, १ जो पुद्गलस्कन्ध टूटने या खण्डित होने पर स्वयं पृ. ७)।
जड़ने में असमर्थ होते हैं वे बादर-बादर कहलाते
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बादर भावपुद्गलपरावर्त ]
८१७,
हैं। जैसे - काष्ठ व पत्थर आदि । स्थूल स्थूल यह उक्त बादर बादर स्कन्धों का समानार्थक है । ३ जो पृथिवीरूप पुद्गल द्रव्य छेदा भेदा जा सकता है तथा अन्यत्र भी ले जाया जा सकता है उसे बादर- बादर कहते हैं ।
बादर भावपुद्गलपरावर्त - १. प्रणुभागट्टाणेसुं नंतर परंपराविभत्तीहि । भावंमि बायरो सो X X X ॥ ( पंचसं च २ - ४१ ) ; तेषु ( अनुभागस्थानेषु) बन्धकत्वेन वर्तमानो जीवोऽनन्तर- परम्परप्रकाराभ्यां यावता कालेन सर्वेष्वनुभागस्थानेषु मृतो भवति स बादरः भावपुद्गलपरावर्तो भवति । (पंच सं. स्व. वृ. २- ४१) । २. तानि अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि सर्वाण्य संख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि म्रियमाणेन यदा जीवेनैकेन क्रमेण श्रानन्तर्येणोत्क्रमेण च - पारम्पर्येण - स्पृष्टानि भवन्ति एष बादरभावपुद्गलपरावर्तः । किमुक्तं भवति ? यावता कालेन क्रमेणोत्क्रमेण वा सर्वेष्वप्यतुभाग बन्धाध्यवसायेसु वर्तमानो मृतो भवति तावान् कालो बादरभावपुद्गलपरावर्त: । ( प्रव. सारो वू. १०५२ ) । ३. अनुभागस्थानेषु अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानेषु असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेषु सर्वेष्वपि यावता कालेन को जीवोऽनन्तर- परम्पराविभक्तिभ्याम् - अनन्तर- परम्परारूपे ये विभक्ती विभागौ ताभ्याम् - आनन्तर्येण पारम्पर्येण चेत्यर्थः, मृतो भवति, तावान् कालविशेषो बादरभावपुद्गलपरावर्तः। किमुक्तं भवति ? यावता कालेन क्रमेणोत्क्रमेण वा सर्वेष्वप्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानेषु वर्तमानो मृतो भवति, तावान् कालो बादरभावपुद्गलपरावर्तः । ( पंचसं मलय. वृ. २- ४१, पु. ७५ ) । ४. अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानानि मन्द-प्रवृद्ध-प्रवृद्धतरादिभेदेनासंख्येयानि वर्तन्ते । XX X ततो यर्दकैकस्मिन्ननुभागबन्धाध्यवसायस्थाने क्रमेणोत्क्रमेण च म्रियमाणेन जन्तुनाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि सर्वाण्यपि तानि स्पृष्टानि भवन्ति तदा बादरो भावपुद्गलपरावर्ती भवति । ( शतक. दे. स्वो वृ. ८८ ) । १ एक जीव उन अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानों में बन्धकस्वरूप से रहते हुए क्रम से या व्युत्क्रम से जितने काल में सब अनुभागस्थानों में मरण को प्राप्त होता है उतने काल को बादर भावपुद्गल -
ल. १०३
जैन - लक्षणावली
[बादर सूक्ष्म
परावर्त कहते हैं ।
बादर युग्मराशि - जम्हि रासिम्हि (चदुहि अवहिरिज्जमाणे) दोणि ट्ठांति तं बादरजुम्मं । ( धव. पु. ३, पृ. २४६ ) ; जो रासी चदुहि अवहिरिज्जमाणो दोरूवग्गो होदि सो बादरजुम्मं । ( धव. पु. १०, पृ. २३); जत्थ ( चदुहि अवहिरिज्जमाणे ) दो एंति तं बादरम्मं । ( धव. पु. १४, पृ. १४७ ) । जिस राशि में ४ का भाग देने पर २ शेष रहते हैं उसे बादर युग्मराशि कहते हैं ।
बादरसम्पराय - १. साम्परायः कषायः, बादरः साम्परायो यस्य स वादरसाम्परायः । ( स. सि. ६, १२; त. सुखबो. वृ. ६-१२ ) । २. साम्परायाः कषायाः, बादराः स्थूलाः, बादराश्च ते साम्परायाश्च बादरसाम्परायाः । ( धव. पु. १, पृ. १८४ ) । ३. संपरैति पर्यटति संसारमनेनेति संपरायः कषायोदय:, बादरः सूक्ष्मकिट्टीकृतसं परायापेक्षया स्थूरः संपरायो यस्य स बादरसंपरायः । ( पंचसं. मलय. वृ. १-१५, पृ. २३; कर्मस्त. दे. स्वो बृ. २ ) । ४. तथा किट्टीकृतसूक्ष्मसंपरायव्यपेक्षया । स्थूलो यस्यास्त्यसौ स स्याद् बादरसंपरायकः ॥ ( लोकप्र. ३-११८८ ) ।
१ साम्पराय नाम कषाय का है, जिस जीव के बादर (स्थूल) सांपराय होता है उसे बादरसांपराय कहा जाता है। तदनुसार उससे प्रमत्तादि श्रनिवृत्तिकरणान्त गुणस्थानवर्ती संयत जीव विवक्षित हैं । ३ 'संपति पर्यटति संसारमनेनेति संपराय:' इस निरुक्ति के अनुसार संसार में परिभ्रमण कराने वाले कषायोदय का नाम संपराय है । जिसके सूक्ष्म किट्टियोंरूप किये गये संपराय की श्रपेक्षा स्थूल संपराय होता है उसे बादरसंपराय - स्थूल कषाय वाला कहा जाता है। संपराय और सांपराय ये दोनों समानार्थक शब्द हैं । बादरसाम्पराय - देखो बादरसम्पराय | बादरसूक्ष्म – १. स्थूलोपलम्भा अपि छेत्तुं भेत्तुमादातुमशक्याः छायाऽऽतप-तमोज्योत्स्नादयो बादरसूक्ष्मा: । (पंचा. का. अमृत. वृ. ७६ ) । २. ये तु हस्तेनादातुं देशान्तरं नेतुम् अशक्यास्ते स्थूल सूक्ष्मा: छायातपादय: । ( पंचा. का. जय. वृ. ७६ ) । ३. छाया बादरसूक्ष्मम्, यच्छेत्तुं भेत्तुं अन्यत्र नेतुम
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बादरस्थिति ]
शक्यं तद् बादरसूक्ष्ममित्यर्थः । (गो. जी. जी. प्र. ६०३; कार्तिके. टी. २०६ ) ।
१ स्थूलता से उपलब्धि के होने पर भी जिनका छेदन, भेदन एवं ग्रहण नहीं हो सकता है वे छाया, प्रातप, अन्धकार एवं चांदनी प्रादि बादर-सूक्ष्म माने जाते हैं ।
८१८, जैन-लक्षणावली
बादर स्थिति - कम्मट्टिदिमावलियाए प्रसंखेज्जदिभागेण गुणिदे बादरट्टिदी जादा । ( धव. पु. ४, पृ. (३०); के विग्राइरिया कम्मट्ठिदीदो बादरट्ठिदी परियम्मे उप्पण्णा त्ति कज्जे कारणोवयारमवलंबिय बादरट्टिदीए चेव कम्मट्ठिदिसण्णमिच्छति XXX। ( धव. पु. ४, पृ. ४०३ ) । कर्मस्थिति को श्रावली के श्रसंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादरस्थिति उत्पन्न होती है । बाल- १. बालो ह्यसदारम्भो XXX। ( षोडशक. १-३) । २. कुतश्चिदसूक्ष्मादसंयमादनिवृत्ति - त्वाद् बालः । X X X यतश्च सर्वत्रासंयतोऽसंयतसम्यग्दृष्टिस्ततो यथोक्तपाण्डित्य वियुक्तत्वाद् बाल: । (भ. श्री. मूला. २६) । ३. बाल: विशिष्टविवेकविकलो XXX। ( षोडषक. वृ. १) । ४. बालो वर्षाष्टकादर्वाक् । (श्र. वि. पृ. ७४) । ५. द्वाभ्याम् - बुभुक्षया तृषा वा ऽऽगलितो बालः । (बृहत्क. मलय. वृ. १६६ ) ।
१ जिसकी प्रवृत्ति प्रसत् ( निकृष्ट) होती है, अथवा जो असत् - श्रागम में अविद्यमान - श्राचरण करता है, अथवा जो अपनी शक्ति व समय के अनुसार सदा श्राचरण नहीं करता है; उसे बाल कहा जाता है । २ जो स्थूल असंयम से भी निवृत्त नहीं होता है उसे बाल कहते हैं । बालतप - १. बालतपो मिथ्यादर्शनोपेतमनुपायकायक्लेशप्रचुरं निकृतिबहुलव्रतधारणम् । ( स. सि. ६, २०)। २. बालो मूढः इत्यनर्थान्तरम्, तस्य तपो बालतपः । ( त. भा. ६ - २० ) । ३. यथार्थप्रतिपत्त्यभावादज्ञानिनो बाला मिथ्यादृष्ट्यादयस्तेषां तपः बालतपः अग्निप्रवेश- कारीषसाधनादि प्रतीतम् । (त. वा. ६, १२, ७) । ४. मिथ्याज्ञानोपरक्ताशया बालाः - शिशव इव हिताहितप्राप्ति परिहारविमुखाः, तपो जलानलप्रवेशेहिनीसाधन गिरिशिखर - भृगुप्रपातादिल क्षणं XXX अथवा बालं तपो येषां ते वालतपसः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१३ ) । ५. बालानां मिथ्या
[बालबाल
दृष्टितापस - सांन्यासिक-पाशुपत परिव्राजकै कदण्ड-त्रिदण्ड- परमहंसादीनां तपः कायक्लेशादिलक्षणं निकृतिबहुलव्रतधारणं च बालतपः । (त. वृत्ति श्रुत. ६–२०) ।
१ मिथ्यादर्शन से युक्त जो तप मोक्ष का साधक न होकर अधिक कायक्लेश से परिपूर्ण होता है तथा जिसमें मायाचार से युक्त व्रतों को धारण किया जाता है वह बालतप कहलाता है । २ बाल और मूढ़ (मूर्ख) ये समाधार्थक शब्द हैं, बाल के तप को बालतप कहा जाता है ।
बाल - पण्डितमरण – १. देसेक्क देसविरदो सम्मादिट्ठी मरिज्ज जो जीवो। तं होदि बाल पंडिदमरणं जिणसास दिट्ठ || ( भ. प्रा. २०७८ ) । २. मिस्सा णाम बाल - पण्डिताः, संयतासंयता इत्यर्थः, तस्य मरणं बाल-पण्डितमरणम् ।। (उत्तरा चू. पृ. १२८, १२९ ) । ३. XX X बाल्यं पाण्डित्यं च यस्य भवति बालपण्डितः, तस्य मरणं बाल-पण्डितमरणम् । (भ. श्री. विजयो. २६ ) । ४. बालपण्डिताः देशविरता:, तेषां मरणं बालपण्डितमरणं । ( समवा. अभय. वृ. १७) |
१ जो समस्त श्रसंयम के परित्याग में असमर्थ होता हुआ हिंसादि पापों से एकदेश विरत होता है— स्थूल हिंसादि पापों का ही त्याग करता है-वह देशविरत कहलाता है । इस देशविरत में भी जो देशतः विरत होता है उसे एकदेशविरत ( सम्यग्दृष्टि )। कहा जाता है । उसके मरण को बालपण्डितमरण कहते हैं । २ बाल का अर्थ असंयतसम्यग्दृष्टि प्रौर पंडित का अर्थ संयत है, इनके असंयत-संयत के -- मिश्रणरूप ( संयतासंयत ) बालपण्डित कहलाते हैं । उनके मरण को बाल-पण्डितमरण जानना चाहिए। बालप्रयोगाभास — बालप्रयोगाभासः पञ्चावयवेषु कियद्धीनता । ( परीक्षा. ६ - ४६ ) | प्रतिज्ञा व हेतु आदि पांच अवयवों में से कुछ की हीनता का नाम बालप्रयोगाभास है । बालबाल - अत एव (यथोक्तपाण्डित्यवियुक्तत्वादेव) मिथ्यादृष्टिबलबाल इत्युच्यते, सम्यक्त्वस्याप्यभावेन प्राप्तबाल्यातिशयत्वात् । (भ. आ. मूला. २६) । चारित्र के साथ सम्यग्दर्शन और सम्यज्ञान से भी रहित होने के कारण मिथ्यादृष्टि को बालबाल कहा जाता है ।
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बालबालमरण]
बालबालमरण - सर्वतो न्यूनो बालबालस्तस्य मरणं बालबालमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २६) । जो व्यवहारपाण्डित्य, सम्यक्त्वपाण्डित्य, ज्ञानपाण्डित्य और चारित्रपाण्डित्य इन सबसे रहित होता है उसे बालबाल और उसके मरण को बालबालमरण कहा जाता है ।
बालमरण – १. बालमरणम् प्रसंजममरणमित्यर्थः । (उत्तरा चू. पृ. १२८ ) । २. बाला इव बालाः अविरताः, तेषां मरणं बालमरणम् । ( समवा. प्रभय. वृ. १७) ।
१ असंयमी के मरण को बालमरण कहते हैं । बाहिर - देखो बाह्य ।
बाह्य – बाहिरो नाम प्रत्ताणं मोत्तूण जो सो लोगो सो बाहिरो भइ । ( दशवं. चू. पृ. २८४) । अपने को छोड़कर जो अन्य जन हैं उन्हें बाह्य ( बाहिर) कहा जाता है। उनके तिरस्कार का प्रकृत में (सू. ८ - ३० ) निषेध किया गया है । बाह्य श्रनात्मभूतहेतु प्रदीपादिरनात्मभूतः । (त. वा. २, ८, १ ) । उपयोग के हेतुभूत, जो अपने से प्रसम्बद्ध दीपक श्रादि हैं, वे बाह्य अनात्मभूत हेतु माने जाते हैं । बाह्य श्रात्मभूतहेतु- - तत्रात्मना सम्बन्धमापन्नविशिष्टनामकर्मोपात्तपरिच्छिन्न स्थान- परिमाणनिर्माणरचक्षुरादिकरणग्राम श्रात्मभूतः । (त. वा. २, ८, १) ।
विशिष्ट नामकर्म के उदय से नियत स्थान थोर प्रमाणसे युक्त जो आत्मासे सम्बद्ध चक्षु प्रावि इन्द्रियों का समुदाय है वह उपयोग का बाह्य प्रात्मभूत हेतु है ।
८१६, जेन-लक्षणावली
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बाह्य उपकरण - १. बाह्य मक्षिपत्र -पक्ष्मद्वयादि । ( स. सि. २ - १७; त. वा. २, १७, ६) । २. बाह्योपकरणं त्वक्षिपक्ष्मपत्रद्वयादिकम् । (त. सा. २ - १३ ) । ३. तत्र बाह्यमुपकरणं शुक्ल- कृष्णगोलकादीन्द्रियोपकारकं पक्ष्मपटल - कर्णपालिकादिरूपं बाह्यमुपकरणम् । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १७) ।
१ प्रांखों के पलक व रोम आदि बाह्य उपकरण ( निर्वृत्ति के उपकारक ) माने गये हैं । बाह्य उपधि - १. अनुपात्तं वास्तु-धन-धान्यादि बाह्योपधि: । (स.सि. ६ - २६ ) । २. आत्मनाऽनुपात्तस्य एकत्वमनापन्नस्य वस्तुनस्त्यागो बाह्योपधि
[ बाह्य तप
व्युत्सर्गोऽवगन्तव्यः । (त. वा. ६, २६, ३) । ३. स्वयमात्मनाऽनुपात्तोऽर्थो बाह्योपधिः । (त. सुखबो. वृ. ε-२६) ।
१ जो गृह और धन-धान्यादि श्रात्मा के साथ एकता को प्राप्त नहीं है उन्हें बाह्य उपधि कहा जाता है।
बाह्य उपधिव्युत्सर्ग- – १. बाह्यो (व्युत्सर्गो) द्वादशरूपकस्योपधे: । ( त. भा. ६ - २६ ) । २. धनुपात्तवस्तुत्यागो बाह्योपधिव्युत्सर्गः । आत्मनानुपातस्य एकत्वमनापन्नस्य वस्तुनस्त्यागो बाह्योपधिव्युत्सर्गोऽवगन्तव्यः । (त. वा. ६, २६, ३) | ३. श्रनुपात्तवस्तुत्यागो बाह्योपधिव्युत्सर्गः । (त. श्लो. ६ - २६ ) । ४. बाह्यस्य तावद् द्वादशरूपकस्योपधेः पात्र - तद्बन्ध - पात्र स्थापनादीनि द्वादशरूपाण्यस्येति द्वादशरूपकः । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६ - २६ ) 1 ५. बाह्यान्तरोपधित्यागाद् व्युत्सर्गो द्विविधो भवेत् ॥ क्षेत्रादिरुपधिर्बाह्यः क्रोधादिरपरः पुनः ॥ (त. सा. ७-२६) । ६. आत्मना अनुपात्तस्य एकत्वमनापन्नस्य आहारादेस्त्यागो बाह्योपधिव्युत्सर्गः । (चा. सा. पृ. ६८ कार्तिके. टी. ४६९ ) ।
१ पात्रादिरूप बारह रूपों वाली उपधि के त्याग को बाह्य व्युत्सर्ग कहा जाता है । २ जो वस्तु अपने साथ एकता को प्राप्त नहीं है उसके त्याग को बाह्य उपधिव्युत्सर्ग कहते हैं ।
बाह्य चारित्राचार - देखो चारित्राचार । पञ्चमहाव्रत - पञ्चसमिति - त्रिगुप्तिनिर्ग्रन्थरूपो बाह्य चा+ रित्राचारः । (परमा वृ. १-७) ।
पांच महाव्रतों, पांच समितियों और तीन गुप्तियोंरूप निर्ग्रन्थ ( मुनि) के स्वरूप को बाह्य चारित्राचार कहा जाता है ।
बाह्य ज्ञानाचार - देखो ज्ञानाचार । काल-विनयाद्यष्टभेदो बाह्यज्ञानाचार: । (परमा वृ. १-७) काल व विनयादिरूप प्राठ प्रकार के ज्ञानविषयक प्राचार को बाह्य ज्ञानाचार कहते हैं । बाह्य तप - १. सो णाम बाहिरतवो जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि । जेण य सद्धा जायदि जेण य जोगा ण हीयते ॥ (मूला. ५-१६१; भ. मा. २३६ ) । २. बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् । ( स. सि. ९-१९ ) । ३. बाद्रव्यापेक्षत्वादु बाह्यत्वम् । बाह्यमशनादिद्रव्यमपेक्ष्य क्रियत
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बाह्य तप]
८२०,
वा
इति बाह्यत्वमस्य ग्राह्यम् । परप्रत्यक्षत्वात् । परेषां खल्वप्यनशनादि प्रत्यक्षं भवति, ततश्चास्य बाह्यत्वम् । तोर्थ्य - गृहस्थ कार्यत्वाच्च । अनशनादि हि तीयैर्गृहस्थैश्च क्रियते ततोऽस्य बाह्यत्वम् । (त. वा. ६, १६, १७-१६) । ४. एतदनशनादि बाह्यं कृत्वा बाह्यमित्युच्यते, विपरीत ग्राहेण कुतीर्थिकैरपि क्रियते इति कृत्वा तपो भवति, लौकिकैरप्यासेव्यमानं ज्ञायते इति कृत्वा ( बाह्य मित्युच्यते ) | ( दशवं. नि. हरि. बृ. ४७, पृ. २६) । ५. अनशनादि बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् परप्रत्यक्षलक्षणत्वाच्च बाह्यम् । (चा. सा. पृ. ५६ ) । ६. एते ( अनशनादयः) षडपि भेदा बाह्यमस्मदादिकरणग्राह्यं तपः कर्मनिर्दहनसमर्थमवबोद्धव्यभ् । (त. सुखबो. वृ. ६ -१९ ) । ७ यत्र संक्लिश्यते काय - स्तत्तपो बहिरुच्यते । ( धर्मसं. श्री. ९ - १६६ ) । १ जिस तप के द्वारा मन में दुष्ट विचार नहीं उत्पन्न होता है, तत्वविषयक श्रद्धा प्रादुर्भूत होती है, तथा योग — मूलगुण - हीनता को प्राप्त नहीं होते हैं; उसका नाम बाह्य तप है । २ जो तप बाह्य द्रव्य की अपेक्षा करता है तथा दूसरों के देखने में भी आता है उसे बाह्य तप कहते हैं । ४ जिस तप के सेवन को लौकिक जन भी जान लेते हैं, अथवा जिसका श्राचरण कुतीर्थिक - श्रन्यमतानुयायी मिथ्यादृष्टि-भी किया करते हैं उस अनशनादिरूप तप को बाह्य तप कहा जाता है ।
जैन - लक्षणावली
[बाह्य निर्वृत्ति बाह्य निवृत्ति - १. तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा ( धव. 'स' ) बाह्या निर्वृत्ति: । ( स. सि. २ - १७; घव. पु. १, पु. २३७ ) । २. तत्र नामकर्मोदयापादितावस्था विशेषः पुद्गलप्रच्यो बाह्या । तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक् यः प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः स बाह्या निर्वृत्तिः । (त. वा. २, १७, ४) । ३. तस्यां (अभ्यन्तरायां निर्वृत्तौ ) कर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयो बाह्या । ( त. इलो. २ - १७ ) । ४. तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक् यः प्रतिनियतसंस्थानो निर्माणनाम्ना पुद्गलविपाकिना वर्द्धकिसंस्थानीयेन प्रारचितः कर्णशष्कुल्यादिविशेषः अङ्गोपाङ्गनाम्ना च निष्पादित इति बाह्या निर्वृतिः । ( श्राचारा. सू. शी. वृ. १, २, ६४, पृ. ६४) । ५. तेष्वात्मप्रदेशेषु करणव्यपदेशिषु । नामकर्म कृतावस्थः पुद्गलप्रचयोऽपरा ।। (त. सा. २-४२) । ६. तेष्वात्मप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदेशभाग् यः प्रतिनियत संस्थाननामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा बाह्या निर्वृतिः । ( मूला. वृ. १ - १६) । ७. तत्र बाह्या कर्णपर्पट ( प्रव. वृ. 'कर्पटि' ) कादिरूपा । सापि विचित्रा न प्रतिनियतरूपतयोपदेष्टुं शक्यते । ( नन्दी. सू. मलय. वृ. ३, पृ. ७५; प्रव. सारो. वृ. ११०५) । ८. चक्षुरादिमसूरिकादिसंस्थानरूपः श्रात्मप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदेशश्चाक्षुषः प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः यः सा बाह्या निर्वृत्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १७ ) । ६. XX X बाह्या तु स्फुटमीक्ष्यते । प्रतिजातिपृथग्रूपा श्रोत्रपर्पटिकादिका ॥ नानात्वान्नोपदेष्टुं सा शक्त्या नियतरूपतः । नानाकृतीनीन्द्रियाणि यतो वाजि-नरादिषु ।। ( लोकप्र. ३, ४६६–७० ) ।
१ इन्द्रिय के श्राकार व इन्द्रिय नाम वाले श्रात्मप्रदेशों में नामकर्म के उदय से विशेष अवस्था को प्राप्त जो प्रतिनियत श्राकार वाला पुद्गलों का समूह होता है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहा जाता है । ४ उन श्रात्मप्रदेशों में बढ़ई के समान पुद्गलविपाको नामकर्म के द्वारा जो कर्णविवरादिरूप विशेष रचना की जाती है तथा अंगोपांग नामकर्म से भी जो निष्पन्न है उसका नाम बाह्य निर्वृत्ति है ।
बाह्य तपश्चरणाचार - देखो तप-प्राचार | अनशनादि द्वादशभेदरूपो बाह्यतपश्चरणाचारः । ( परमा. वृ. १-७) | अनशनादिरूप बारह प्रकार तप के अनुष्ठान को बाह्य तपश्चरणाचार कहा जाता है । बाह्य दर्शनाचार - देखो दर्शनाचार | निःशंकाद्यष्टगुणभेदो बाह्यदर्शनाचार: । (परमा वृ. १-७) । निःशंकित श्रादि श्राठ अंग स्वरूप सम्यग्दर्शन के आराधन का नाम बाह्य दर्शनाचार है । बाह्य द्रव्यमल - १. सेद- मल- रेणु-कद्दमपेहुदी बाहिरमलं समुद्दिट्ठे । ( ति प १ - ११) । २. स्वेद - रजो- मलादि बाह्यम् (मलम् ) | ( धव. पु. १, पृ. ३२)।
१ पसीना, मैल, धूलि और कीचड़ आदि को बाह्य द्रव्यमल कहा जाता है ।
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बाह्य परमशुक्लध्यान ]
बाह्य परमशुक्लध्यान - गात्र नेत्रपरिस्पन्दविर - हितं जम्भ - जृम्भोद्गारादिवर्जितमनभिव्यक्तप्राणापान प्रचारत्वमुच्छिन्नप्राणापानप्रचारत्वमपराजितत्वं बा `ह्यम्, तदनुमेयं परेषाम् । (चा. सा. पृ. ६०-६१ ) । जो शुक्लध्यान शरीर व नेत्रों के हलन चलन से रहित होकर जंभाई और डकार के शब्द आदि से हीन होता है, तथा जिसमें श्वासोच्छ्वास की क्रिया प्रगट न होकर नष्ट हो जाती हैं ऐसे पराजय से रहित ध्यान को बाह्य परमशुक्लध्यान कहा जाता है ।
बाह्य योग -- लेसा कसायवेयण - वेश्रो अन्नाणमिच्छ मीसं च । जावइया दइया सव्वो सो बाहिरो जोगो ॥ (उत्तरा. नि. ५२ ) । लेश्या, कषाय, साता प्रसातारूप वेदना, पुरुषादि की अभिलाषारूप वेद, श्रज्ञान, मिथ्यात्व और मिश्र-शुद्ध - अशुद्ध पुद्गलप्रदेशरूप सम्यग्मिथ्यात्व; इत्यादि जितने भी श्रदयिक परिणाम हैं उन सबको बाह्य योग - बाह्यापित सम्बन्धरूप संयोग - कहा जाता है ।
८२१, जैन-लक्षणावली
बाह्य वीर्याचार - बाह्यशक्त्यनवगूहनरूपो बाह्यवीर्याचारः । (परमा वृ. १-७) । बाहिरी शक्ति को न छिपाना, इसे बाह्य वीर्याचार कहा जाता है ।
बाह्य व्युत्सर्ग- देखो बाह्य उपधिव्युत्सर्ग । तत्र बाह्य द्वादशादिभेदस्यो पधेरतिरिक्तस्य अनेषणीयस्य -संसक्तस्य वा ऽन्न-पानादेर्वा त्यागः । (योगशा. स्वो. विव. ४–६०, पृ. ३१४ ) ।
बारह आदि भेदभूत उपधि को छोड़कर अन्य जो सम्बद्ध प्रनेषणीय - साधु के लिए अग्राह्य है उसका अथवा अन्न-पानादि हैं उनके त्याग को -बाह्य व्युत्सर्ग कहते हैं ।
बाह्य सल्लेखना - 1- १. Xxx बाहिरा होदि हु सरीरे ॥ (भ. आ. २०६ ) । २. बाह्या भवति सल्लेखना शरीरविषया। (भ. श्री. विजयो. २०६ ) । ३. सत् सम्यक् लेखना कायस्य कषायाणां च कुशी करणं तनूकरणं सल्लेखना, कायस्य सल्लेखना बाह्य सल्लेखना । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - २२ ) । १ शरीरविषयक सल्लेखना को — उसके कृश करने -को- बाह्य सल्लेखना कहते हैं ।
[बिलस्थगन बिडालीसमान शिष्य- यथा बिडाली भाजनसंस्थं क्षीरं भूमौ विनिपात्य पिवति, तथा दुष्टस्वभावत्वात् शिष्योऽपि यो विनयकरणादिभीततया न साक्षात् गुरुसमीपे गत्वा शृणोति, किन्तु व्याख्यानादुत्थितेभ्यः केभ्यश्चित् स बिडालीसमानः स चायो - ग्य: । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पृ. १४४) । जैसे बिल्ली अपने वैसे स्वभाव के कारण पात्र में रखे हुए दूध को भूमि पर गिरा करके पीती है उसी प्रकार से जो शिष्य विनयादि करने के भय से प्रत्यक्ष में गुरु के समीप जा करके धर्मोपदेश नहीं सुनता है, किन्तु व्याख्यान से उठ कर श्राये हुए किन्हीं दूसरों से उसे सुनता है, उसे बिडाली समान शिष्य कहते हैं। ऐसा शिष्य योग्य नहीं माना
जाता ।
बिभ्यद्वन्दन- - १. गुर्वादिभ्यो बिभ्यतो भयं प्राप्नुवतः परमार्थात् परस्य बालस्वरूपस्य वन्दनाभिधानं बिभ्यद्दोष: । (मूला. वृ. ७–१०७) । २. बिभ्यतः सङ्घात् कुलात् गच्छात् क्षेत्राद्वा निष्कासयिष्येऽहमिति भयाद् वन्दनम् । (योगशा. स्वो विव. ३-१३०, पृ. २३६) । ३. XX X बिभ्यत्ता बिभ्यतो गुरोः ॥ ( अन. घ. ८-१०२ ) ।
१ गुरु आदि से भय को प्राप्त होकर परमार्थ से बाह्यभूत बालस्वरूप की वन्दना करने पर वन्दनाविare विभ्यत् नामके दोषसे लिप्त होता है । २ संघ, कुल, गच्छ अथवा क्षेत्र से मुझे निकाल देंगे; इस प्रकार के भय से वन्दना करना, यह वन्दना का विभ्यत् नामक दोष है । ३ गुरु से भयभीत होकर जो वन्दना करता है वह बन्दनाविषयक बिभ्यत्ता (बिभ्यत्व ) दोष का भागी होता है । बिम्बमुद्रा - पद्ममुद्रेव प्रसारिताङ्गुष्ठसंलग्नमघ्य माङ्गल्यग्रा बिम्बमुद्रा । ( निर्वाणक पृ. ३३) । पद्ममुद्रा के समान अंगुष्ठ को पसारकर उससे मध्यमा अंगुली के अग्रभाग के संलग्न करने को बिम्बमुद्रा कहते हैं । बिलस्थगन बिलस्थगनं कोलादिकृत बिलेष्विseकाशकलादि प्रक्षिप्योपरि गोमय मृत्तिकादिना विधानम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ४-२७)। चूहों आदि के द्वारा किये गये बिलों में ईंट के दुकड़ों प्रादि को भरकर ऊपर से गोबर या मिट्टी आदि से ढक देना, यह बिलस्थगन कहलाता है ।
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बीजपद ]
यह अपने लिए अथवा संयत जनों के सुखपूर्वक स्वाध्यायादि के निमित्त किये जाने वाले वसति सम्बन्धी परिकर्म के अन्तर्गत है ।
बीजपद - बीजमिव बीजम्, जहा बीजं मूलंकुर-पत्तपोरक्खंद - पसव- तुस - कुसुम खीर तंदुलादीणमाहारं तहा दुबालसंगत्थाहारं जं पदं तं बीजतुल्लत्तादो बीजं । (धव. पु. ६, पृ. ५६ ) ; संखित्तसद्द रयणम - णंतत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसंगयं बीजपदं णाम । ( धव. पृ. ६, पृ. १२७ ) । जिस प्रकार बीज मूल, अंकुर, पत्र पोर, स्कन्ध, फूल, तुष, कुसुम, क्षीर और तन्दुल श्रादि का आधार होता है उसी प्रकार जो पर्दाद्वादशांग के अर्थ का आधार है उसे बीज के समान होने से बीजपद कहा जाता है ।
बीजबुद्धि - १. गोइंदिय-सुदणाणावरणं वीरिनंतरायाए । तिविहाणं पगदीणं उक्कस्सख उवसमविसिस्स ।। संखेज्जसरुवाणं सद्दाणं तत्थ लिंगसंजुत्तं । एक्कं चिय बीजपदं लद्धूण परोपदेसेणं ॥ तम्मि पदे आधारे सयलसुदं चितिऊण गेहेदि । कस्स वि महेसिणो जा बुद्धी सा बीजबुद्धि त्ति ॥ ( ति. प. ४, ९७५- ७७) । २. बीजबुद्धित्वं पद प्रकरणोद्दे शाध्याय-प्राभृत-वस्तु-पूर्वाङ्गानुसारित्वम् । ( त. भा. १०-७, पृ. ३१६ ) । ३. जो प्रत्थपएणत्थं प्रणुसरई स बीजबुद्धी उ ।। (विशेषा. ८०३; प्रव. सा. १५०३ ) । ४. सुकृष्ट-सुमथीकृते क्षेत्रे सारवति कालादिसहायापेक्षं बीजमेकमुप्तं यथानेकबीजकोटिप्रदं भवति तथा नोइन्द्रियावरण- श्रुतावरण- वीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षे संत एकबीजपदग्रहणादनेकपदार्थप्रतिपत्तिर्बीजबुद्धिः । (त. वा. ३, ३६, ३) । ५. बीजमिव बीजं - जहा बीजं मूलंकुर-पत्र-पोरक्खंद- पसव- तुस- कुसुम - खीर तंदुलादीणमाहारं तहा दुवालसंगत्थाहारं जं पदं तं बीजतुल्लत्तादो बीजं, बीजपदविसयमदिणाणं पि बीजं कज्जे कारणोवयारादो । संखेज्जसद्द - प्रणतत्थडिबद्धणंतलिंगेहि सह बीजपदं जाणंती बीजबुद्धित्ति भणिदं होदि । ( धव. पु. ६, पु. ५६ ) ; बीजपदपरिच्छेदकारिणी बीजबुद्धि त्ति । ( धव. पु. ६, पृ. ५७ ); बीजपदसरूवावगमो बीजबुद्धी । ( धव. पु. ६, पृ. ५६ ) । ६. बीजबुद्धित्वं स्वल्पमपि दर्शितं वस्तु अनेकप्रकारेण गमयति । तद्यथा - पदेन प्रदर्शितेन प्रकरणेनोद्देशकादिना सर्वमर्थं ग्रन्थं चानु
[ बीजमान
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धावति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १० - ७, पृ. ३१७ ) । ७. सुकृष्टवसुमती - [ष्ट- सुमथी - ] कृते क्षेत्रे सारवति कालादिसहायापेक्षं बीजमेकमुप्तं यथाऽनेककोटिबीजप्रदं भवति तथा नोइन्द्रिय- श्रुतावरण - वीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षे सति संख्येयशब्दस्यानन्तार्थप्रतिबद्धस्यानन्तलिङ्गः सहैकपदस्य ग्रहणादनेकार्थप्रतिपत्तिबजबुद्धि: । (चा. सा. पृ. ६५-६६ ) । ८. सर्वश्रुतमध्ये एकं बीजं प्रधानाक्षरादिकं सम्प्राप्य सर्वमवबुध्यन्ते बीजबुद्धयः । (मूला. वृ. ६-६६ ) । ६. बीजमिव विविधार्थाधिगमरूपमहातरुजननाद् बुद्धिर्येषां ते तथा ( बीजबुद्धयः) । ( श्रपपा. प्रभय.. वृ. १५, पृ. २८ ) । १०. विशिष्टक्षेत्रे कालादिसाहाय्यमेकमप्युप्तं बीजमनेकबीजप्रदं भवति यथा तथैकबीजपदग्रहणादनेकपदार्थ प्रतिपत्तिर्यस्यां बुद्धी सा बीजबुद्धि: । ( श्रुतभ. टी. ३, पृ. १६६ - ७०) । ११. ज्ञानावरणादिक्षयोपशमातिशयप्रतिलम्भादेकार्थबीजश्रवणे सति अनेकार्थबीजानां प्रतिपत्तारो बीजबृद्धय: । (योगशा. स्वो विव. १ - ८ ) । १२. या पुनरेकमर्थपदं तधाविधमनुस्मृत्य शेषमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमर्थमवगाहते सा बीजबुद्धिः । ( प्रज्ञाप.. मलय. वृ. २७३, पृ. ४२४; नन्दी. मलय. वृ. १७, पू. १०६) । १३. येषां पुनर्बुद्धिः एकमर्थपदं तथाविधमनुमृत्य शेषमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमर्थ - पदमवगाहते ते बीजबुद्धयः । ( आव. नि. मलय. वू. ७५ ) । १४. एकबीजाक्षरात् शेषशास्त्रज्ञानं बीजबुद्धि: । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
१ नोइन्द्रियमतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण और: वीर्यान्तराय इन तीन प्रकृतियों के उत्कृष्ट क्षयोपशम से युक्त किसी महर्षि की जो बुद्धि संख्यात शब्दों में लिंगयुक्त एक ही बीजपद को दूसरे के उपदेश से प्राप्त करके उसके श्राश्रय से जो समस्त श्रुत को विचारपूर्वक ग्रहण करती है उसे बीजबुद्धि ऋद्धि कहा जाता है । २ दिखलाये गये पद, प्रकरण, उद्देश और अध्याय श्रादि के श्राश्रय से जो बुद्धि समस्त अर्थ का अनुसरण किया करती है उसका नाम बीजबुद्धि ऋद्धि है । बीजमान -- कुडवादि बीजमानम् । (त. वा. ३, ३८, ३) ।
-२२, जैन - लक्षणावली
कुडव, प्रस्थ एवं श्राढक आदि बीजमान कहे जाते हैं, क्योंकि उनसे धान्य मापा जाता है ।
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बीजरुचि] ८२३, जैन-लक्षणावली
[बुद्धबोधित बोजरुचि-१. एगेण अणेगाइं (प्रज्ञाप. व प्रव. 'एग- वस्तु बीभत्समुच्यते, तद्दर्शन-श्रवणादिप्रभवो जुगुप्सापएणेगाई') पदाइं जो पसरइ उ सम्मत्तं । उदए व्व प्रकर्षस्वरूपो रसोऽपि बीभत्सः। (अनुयो. सू. मल. तेल्लबिंदू सो बीजरुइ ति नायव्वो ॥ (उत्तरा. सू. हे. वृ. ६३, पृ. १३५)। ५. अहृद्यदर्शनादिविभावाङ्ग२८-१२, प्रज्ञाप. गा. १२१, पृ. ५६; प्रव. सारो. संकोचाद्यनुभावापस्मारादिव्यभिचारिणी जगुप्सा ९५५) । २. बीजपदग्रहणपूर्वकसूक्ष्मार्थतत्त्वार्थश्रद्धा- बीभत्सः । (काव्यानु. २, पृ. ७६)। ना बीजरुचयः । (त. वा. ३, ३६, २)। ३. x १ मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थ, सड़े-गले शव (निर्जीव XX दुरधिगमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः॥ कैश्चिज्जा- शरीर) और दूसरे भी ऐसे घृणित पदार्थ जिनका तोपलब्धेरसमसमवशाद् बीजदृष्टिः पदार्थात् xx देखना भी कष्टकर होता है। उनके बार-बार x ॥ (आत्मानु. १३)। ४. या तु बीजपदादान- देखने व दुर्गन्ध के ग्रहण से जो रस-घृणात्मक पूर्वसूक्ष्मार्थजा रुचिः । बीजजासौ पदार्थानां xx भाव-उदित होता है उसका नाम बीभत्स रस X । (म. पु. ७४-४४४) । ५. सकलसमयदलसू- है। उसके अनुभवन से शरीर के स्वभाव का चनाव्याज बीजम । (उपासका. प. ११४; अन. ध. विचार कर जो उद्वेग या विरक्ति होती है उससे स्वो. टी. २-६२)। ६. एगपयाणेगपए जस्स मई विवेको जन हिंसादि पापों से निवृत्त हुग्रा करते हैं। पसरए स बीयरुई। (गु. ग. षट्. स्वो. वृ. १४, बुद्ध-१. बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधात् x 'पृ. ३९) । ७. उपलब्धिवशाद् दुरभिनिवेशविध्वंसा- xx। (भक्तामर २५) । २. अज्ञान-निद्राप्रसुप्ते निरुपमोपशमाभ्यन्तरकारणाद्विज्ञातदुर्व्याख्येयजीवा- जगत्यपरोपदेशेन जीवाजीवादिरूपं तत्त्वं बुद्धवन्तो दिपदार्थबीजभूतशास्त्राद्यदुत्पद्यते तद् बीजसम्यक्त्वं बुद्धाः । (ललितवि. पृ. ५८)। ३. केवलज्ञानाद्यप्ररूप्यते । (दर्शनप्रा. टी. १२) । ८. एकेन पदेना- नन्तगुणसहितत्वाद् बुद्धः । (बृ. द्रव्यसं. टी. २७)। नेकपद-तदर्थप्रतिसंधानद्वारोदके तैलबिन्दुवत् प्रसरण- ४. मति-श्रुतावधिज्ञानं सहजं यस्य बोधनम् । मोक्षशीला रुचिर्बीजरुचिः । (धर्मसं. मान. २-२२, पृ. मार्गे स्वयं बुद्धस्तेनासौ बुद्धसंज्ञितः ॥ केवलज्ञानबो
धेन बुद्धवान् स जगत्त्रयम् । अनन्तज्ञानसंकीणं तं त १ जाने हुए एक पद के आश्रय से जल में तेल की बुद्धं नमाम्यहम् ।। (प्राप्तस्व. ३८-३९)। बूंद के समान जो रुचि या तत्त्वश्रद्धा फैलती है १ जिनके बुद्धिबोध की देवों व पण्डित जनों के उसे बीजरुचि या बीजसम्यक्त्व कहते हैं। २ बीज द्वारा पूजा की जाती है वे बुद्ध कहलाते हैं। पदके परिज्ञानपूर्वक जिनके सूक्ष्म पदार्थों के परमार्थ २ प्रज्ञानरूप नींद में सोये हुये लोक में जिन्होंने स्वरूप का श्रद्धान प्रादुर्भूत होता है वे बीजरुचि- बिना किसी अन्य के उपदेश के जीव-अजीवाविरूप बीजसम्यक्त्व के धारक-कहलाते हैं।
तत्त्व के परिज्ञान को स्वयं ही प्राप्त किया है उन्हें बीजसम्यक्त्व देखो बीजरुचि।
बुद्ध कहा जाता है। बीभत्सरस-१. असुइ-कूणिम-दुईसणसंजोगब्भास- ब्रद्धजागरिका-जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्णगंधनिप्फण्णो । निव्वेअऽविहिंसालक्खणो रसो होइ णाण-दसणधरा जहा खंदए जाव सव्वण्णू सव्वर बीभत्सो।। (अनुयो. गा. ७४, पृ. ३८) । २. अशु- दरिसी एए णं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति । (भगचि-कुणपदर्शनसंयोगाभ्यासगन्धनिष्पन्नः, कारणा- वती १२, १, ११-खण्ड ३)। शुचित्वादशुचि शरीरम्, तदेव प्रतिक्षणमासन्नकुण- उत्पन्न हुए ज्ञान-दर्शन के धारक जो अरिहंत भगपभावात् कुणपम्, तदेव च विकृतप्रदेशत्वाद् दुर्दर्श- वान् हैं, वे स्कन्धक अधिकार (खण्ड १, पृ. २७८) नम्, तेन संयोगाभ्यासात्तद्गन्धोपलब्धेर्वा समुत्पन्न में कहे अनुसार सर्वज्ञ व सर्वदर्शी होते हैं, ये निश्चय इति निर्वेदाद् विहिंसालक्षणो रसो भवति बीभत्स से बुद्ध होते हुए बुद्धजागरिका जागते हैं। इति । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ७०)। ३. बीभत्सः बुद्धबोधित-१. बुद्धा प्राचार्यास्तर्बोधिताः xx स्याज्जुगुप्सातः सोऽहृद्यश्रवणेक्षणात् । निष्ठीवनास्य- X । (श्रा. प्र. टी. ७६)। २. बुद्धेन ज्ञातसिद्धाभङ्गादि स्यादत्र महतां न च । (वाग्भ. ५-३०)। न्तेन विदितसंसारस्वभावेन बोधितो बुद्धबोधितः । ४. शुक्र-शोणितोच्चार-प्रश्रवणाद्यनिष्टमुद्वेजनीयं (त. भा. सिद्ध. वृ. १०-७) ।
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बद्धबोधितकेवलज्ञान] ८२४, जैन-लक्षणावलो
[बुद्धिसिद्ध १ बुद्ध का अर्थ प्राचार्य है, प्राचार्यों के द्वारा जो करता हूं' इस प्रकार की बुद्धि जिस विपाक के प्रबोध को प्राप्त हुए हैं वे बोधितबुद्ध कहलाते हैं। पूर्व में हुआ करती है उसे बुद्धि पूर्व विपाक कहते २ जिसने सिद्धान्त और संसार के स्वभाव को हैं। जान लिया है उसे बुद्ध कहते हैं, उसके द्वारा ब्रद्धिमान -१. तथौत्पत्तिक्यादिचतुर्विधबुद्ध्युपेता प्रबोध को प्राप्त हुए बुद्धबोधित कहलाते हैं। बुद्धिमन्तः। (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ६, १६, पृ. बुद्धबोधितकेवलज्ञान - बुद्धराचार्यादिभिर्बोधि- १४५) । २. क्रम-विक्रमयोरधिष्ठानं बुद्धिमानाहार्यतस्य यत्केवलज्ञानं तत् बुद्धबोधितकेवलज्ञानम् । बुद्धिर्वा । यो विद्याविनीतमतिः स बुद्धिमान् । (प्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ. ८४)।
(नीतिवा, ५, ३०-३१)। बद्धों-प्राचार्य प्रादि-के द्वारा बोध को प्राप्त हुए १ जो प्रोत्पत्तिकी व पारिणामिकी प्रादि चार जीवोंके केवलज्ञान को बुद्धबोधितकेवलज्ञान कहते हैं। प्रकार की बुद्धि से सम्पन्न होते हैं उन्हें बुद्धिमान बुद्धबोधित सिद्ध-१. बुद्धा प्राचार्यास्तैर्बोधिता: कहा जाता है । २ बुद्धिमान् राजा वह कहलाता सन्तो ये सिद्धास्ते इह ग्रह्यन्ते । (श्रा. प्र. टी. ७६)। है जो क्रम और विक्रम का स्थान होता है तथा २. बद्धा प्राचार्या अवगततत्त्वाः, तैर्बोधिताः सन्तो जिसकी बुद्धि प्राहार्य-मंत्री के उपदेश के ग्रहण ये सिद्धाः ते बद्धबोधितसिद्धाः। (योगशा. स्वो. योग्य होती है । पिता-पितामह आदि को परम्परा विव. ३-१२४)। ३. बुद्धा प्राचार्याः तैर्बोधिताः से राज्य की प्राप्ति को क्रम और शूरवीरता को सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धबोधितसिद्धा : (प्रज्ञाप. मलय. विक्रम कहा जाता है । ये दोनों राज्य की स्थिरता वृ.७, पृ. २०)।
के कारण माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त जिसकी १ जो प्राचार्यों द्वारा प्रबोध को प्राप्त होकर सिद्ध बुद्धि विद्या से विशेष नम्रता को प्राप्त होती है हए हैं उन्हें बुद्धबोधितसिद्ध कहा जाता है। उस राजा को बुद्धिमान जानना चाहिए। बुद्धि-१. ऊहितोऽर्थो बुध्यते अवगम्यते अनया इति बुद्धिवेशद्य-१. अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभाबुद्धिः । (धव. पु. १३, पृ. २४३) । २. बुद्धिः इह- सनम् । तद् वैशद्यं मतं बुद्धेः xxx ॥ (लघीय. परलोकान्वेषणपरा। (भ. प्रा. मूला. ४३१, पृ. ४) । २. अनुमानादिभ्योऽतिरेकण-आधिक्येन ६४३) । ३. अर्थग्रहणशक्तिर्बुद्धिः । (अन.ध. स्वो.. वर्ण-संस्थानादिरूपतया अर्थग्रहणलक्षणेन प्रचुरतरटी. ३-४; त. वृत्ति श्रुत. १-१३)।
विशेषान्वितार्थावधारणरूपेण वा-यद् विशेषाणाम् १ जिसके द्वारा ऊहित-ईहा के द्वारा तकित- नियतदेश-काल-संस्थानाद्यर्थाकाराणां प्रतिभासनं पदार्थ का निश्चय होता है उसका नाम बुद्धि है। तद् बुद्धिवैशद्यम् । (न्यायकु. १-४, पृ. ७४) । यह अवाय ज्ञान का समानार्थक शब्द है। २ जो १ अनमान आदि की अपेक्षा जो नियत देश, काल, इस लोक और पर लोक के खोजने में तत्पर रहती एवं प्राकार प्रादि की विशेषता के साथ पदार्थों का है उसे बुद्धि कहा जाता है। ३ पदार्थ के ग्रहण प्रतिभास होता है, यह बुद्धि का वैशद्य कहलाता करने-जानने-की शक्ति को बुद्धि कहते हैं। है। बुद्धि-आकार-देखो आकार व ज्ञानाकार । स्व- बुद्धिसिद्ध-विउला विमला सुहुमा जस्स मई जो परप्रकाशकत्वं हि बुद्धराकारः । (न्यायकु. १-५, चउविहाए व । बुद्धीए संपन्नो स बुद्धिसिद्धो Xx पृ. ११७)।
X ॥ (प्राव. नि. ६३७) ।। स्व को और अन्य पदार्थों को प्रकाशित करना, यही जिसकी बुद्धि विपुल-एक पद से अनेक पदों का बुद्धि या ज्ञान का प्राकार माना जाता है। अनुसरण करने वाली; संशय, विपर्यय और अनध्यवबुद्धिपूर्वविपाक-बुद्धिः पूर्वा यस्य कर्म शाटयामी- सायरूप मल से रहित तथा सूक्ष्म-अतिशय दुरवत्येवंलक्षणा बुद्धिः प्रथमं यस्य विपाकस्य स बुद्धि- बोध पदार्थों के जानने में समर्थ होती है उसे पूर्वविपाकः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-७, पृ. २२०)। बुद्धि सिद्ध कहा जाता है। अथवा जो प्रोत्पत्तिकी, विपाक का अर्थ निर्जरा है, 'मैं कर्म को निर्जीर्ण पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा के भेद से
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बुध]
८२५, जैन-लक्षणावली [बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा चार प्रकार की बुद्धि से सम्पन्न होता है उसे बुद्धि- समुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा । Xxx सिद्ध जानना चाहिए।
तस्मिन् सति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिन्तनं बुध-ज्ञेय इह तत्त्वमार्गे बुघस्तु मार्गानुसारी यः । बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा । एवं ह्यस्य भावयतो बोधि प्राप्य (षोडश. १-३)।
प्रमादो न कदाचिदपि भवति । (स. सि. ६-७) । जो तत्त्वमार्ग-प्रवचन को उन्नति के निमित्तभूत ५. अनादौ संसारे नरकादिषु तेषु तेषु भवग्रहणेष्वपरमार्थ मार्ग में स्थित होता हुआ मार्गानुसारी- नन्तकृत्वः परिवर्तमानस्य जन्तोविविधदुःखाभिहतस्य रत्नत्रय का अनुसरण करने वाला होता है उसे मिथ्यादर्शनाद्युपहतमतेर्ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायोदबुध जानना चाहिए।
याभिभूतस्य सम्यग्दर्शनादिविशुद्धो बोधिदुर्लभो बोध-देखो ज्ञान । xxx आत्मपरिज्ञानमि- भवतीत्यनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य बोधिदुर्लभत्वमनुध्यते बोधः । (पु. सि. २१६)।
चिन्तयतो बोधि प्राप्य प्रमादो न भवतीति बोधिआत्मस्वरूप का जो परिज्ञान होता है उसे बोध दुर्लभत्वानुप्रेक्षा । (त. भा. ६-७) । ६. सभावाकहते हैं।
दिलाभस्य कृच्छ्रप्रतिपत्तिः बोधिदुर्लभत्वम् । उक्तं बोधि-१. इह बोधिः जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिः, इयं च-एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा। पुनर्यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणत्रयव्यापाराभिङ्ग्यम- सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वेणवि तीदकालेण ।। इत्यागमभिन्नपूर्वग्रन्थिभेदतः पश्चानुपा प्रशम-संवेग-निर्वेदा- प्रामाण्यादेकस्मिन् निगोतशरीरे जीवा: सिद्धानामननुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्य- न्तगुणाः I XXX तस्मिन् सति बोधिलाभः भवग्दर्शनम्, विज्ञप्तिरित्यर्थः । (ललितवि. पृ. ४४)। तीति चिन्तनं बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा। (त. वा. ६, २. बोधिश्च जिनशासनावबोधलक्षणा सकलदुःख- ७, ६) । ७. मोक्षारोहणनिःश्रेणिः कल्याणानां परविरेकभूता। (प्राव. नि. हरि. वृ. ११०६)। म्परा। अहो कष्टं भवाम्भोधौ बोधिर्जीवस्य दुर्लभा । ३. अप्राप्तानां हि सम्यग्दर्शनादीनां प्राप्तिर्बोधिः। (त. सा. ६-४१)। ८. बोधिर्बोधनमित्युक्तमनन्य(रत्नक. टी. २-२) ।
मनसात्मनः । दुर्लभा सा हि जीवानां बोधिदुर्लभ १ जिनोपदिष्ट धर्म की प्राप्ति का नाम बोधि है। इष्यते ।। (जम्ब. च. १३-१३९)। ६. अनन्तकालयह उस सम्यग्दर्शनस्वरूप है जो यथाप्रवृत्त, अपूर्व- दुर्लभमनुष्यभावादिसामग्रीयोगेऽपि दुष्प्रापं प्रायो करण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों के बोधिबीजं जीवानामित्यादिचिन्तनं बोधिदुर्लभभावव्यापार के द्वारा पूर्व में नहीं भेदी गई प्रन्थिके भेदन ना । (सम्बोधस. १६, पृ. १८) । से प्रगट होता है तथा जिसके प्राविर्भूत हो जाने पर १ जिस उपाय के द्वारा सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है प्रशम, संवेग, निवेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण उस उपाय को चिन्ता का नाम बोधि है, वह प्रगट हो जाते हैं । ३ पूर्व में नहीं प्राप्त हुए सम्य- अत्यन्त दुर्लभ है । इस प्रकार से जो निरन्तर ग्दर्शनादि की प्राप्ति को बोधि कहा जाता है। चिन्तन होता है उसे बोधिदुर्लभ भावना कहते हैं ।
--१. उप्पज्जदि सण्णाणं ५. अनादि संसार में उन उन नरकादि भवों में जेण उवाएण तस्सुवायस्स । चिंता हवेइ बोही अच्चं- अनन्त वार परिवर्तन करने वाला यह जीव अनेक तं दल्लहं होदि ॥ (द्वादशान. ८३)। २. लद्धेस् दुःखों से अभिभत होता है, उसकी बद्धि मिथ्यादर्शवि एदेसू य बोधी जिणसासणम्हि ण हु सुलहा। नादि के द्वारा विपरीतता को प्राप्त होती है तथा कुपहाणमाकुलत्ता जं बलियो राग-दोसा य ।। (मला. वह ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों के उदय से ८-६७)। ३.दंसण-सूद-तव-चरणमइयम्मि धम्मम्मि प्राक्रान्त रहता है। इसी से उसे सम्यग्दर्शनादि से दुल्लहा बोही। जीवस्स कम्मसत्तस्स संसरंतस्स विशद्ध बोधि दुर्लभ होती है। इस प्रकार से चिन्तन संसारे ।। (भ. प्रा. १८६६) । ४. एकस्मिन् निगो- करने वाला जीव बोधि को प्राप्त करके कभी तशरीरे जीवाः सिद्धानामनन्तगुणा, एवं सर्वलोको प्रमाद को प्राप्त नहीं होता । यही बोधिदुर्लभत्वानुनिरन्तरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुका- प्रेक्षा है।
ल. १०४
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बोधिलाभ ]
बोधिलाभ - जिन प्रणीतधर्मप्राप्तिर्बोधिलाभोऽभि
धीयते । (लिवि. पृ. ८० ) ।
जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट धर्म की प्राप्ति को बोधि- ब्रह्म या ब्रह्मचर्य है ।
८२६, जैन - लक्षणावली
लाभ कहा जाता है ।
बोधिसत्त्व - सर्वार्थभाषया सम्यक् सर्वक्लेशप्रघा तिनाम् । सत्त्वानां बोधको यस्तु बोधिसत्त्वस्ततो हि सः ॥ ( प्राप्तस्व. ४० ) ।
जो समस्त क्लेशों के नष्ट करने वाले प्राणियों के लिए सर्वार्थभाषा – समस्त भाषाओं रूप दिव्य भाषा - के द्वारा प्रबोधित करने वाला हो उसे बोधिसत्त्व कहा जाता है ।
बोल - बोलो नाम मुखे हस्तं दत्त्वा महता शब्देन पूत्करणम् । ( जीवाजी. मलय. वृ. १७६, पृ. ३४६, ३४७)।
मुंह में हाथ देकर महान् शब्द के साथ पूत्कार करना - बुलाना, इसे बोल कहते हैं । इस प्रकार की ध्वनि मेरु की प्रदक्षिणा करते हुए सूर्य-चन्द्रमादि ज्योतिषी देव किया करते हैं ।
ब्रह्म - १. श्रहिंसादिगुणबृंहणाद् ब्रह्म । श्रहिंसादयो गुणा यस्मिन् परिपाल्यमाने बृंहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्मेत्युच्यते । (त. वा. ७, १६, १० ) । २. मेहुणसण्णाविजएण पंचपरियारणापरिच्चानो । बंभे मणवत्तीए जो सो बंभं सुपरिसुद्धं ॥ ( यतिध. वि. १४, पृ. १३) । ३ श्रहिंसादिगुणा यस्मिन् बृहन्ति ब्रह्म तत्त्वतः । (ह. पु. ५८-१३२ ) । ४. दिव्यौदारिककामानां कृतानुमति कारितैः । मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधा मतम् ।। (योगशा. १- २३; त्रि. श. पु. च. १, ३, ६२५ ) ; नवब्रह्मगुप्तिसनाथमुपस्थसंयमो ब्रह्म । 'भीमो भीमसेनः' इति न्यायाद् ब्रह्मचर्यम्, बृहत्त्वाद् ब्रह्मात्मा, तत्र चरणं ब्रह्मचर्यमात्मारामतेत्यर्थः । (योगशा. स्वो. विव. ४ - ६३, पृ. ३१६ ) । ५. बृंहन्ति श्रहिंसादयो गुणा यस्मिन् सति तद् ब्रह्म ब्रह्मचर्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - १ ) ; अहिंसादयो गुणा यस्मिन् परिरक्षमाणे बृहन्ति वृद्धि प्रयान्ति तद् ब्रह्मोच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - १६) । ६. नवब्रह्मचर्य गुप्तिसनाथ
[ ब्रह्मचर्य
की अभिलाषा होती है उसका मन-वचन-काय व कृत कारित श्रनुमति से त्याग करना, इसका नाम
[स्] संयमी ब्रह्म । ( सम्बोधस. १६, पृ. १७) । १ जिसके परिपालन से श्रहिंसादि गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं उसका नाम ब्रह्म है । ४ वंऋियिक और प्रौदारिक शरीर से सम्बन्धित जो विषयभोगों
ब्रह्मचर्य - देखो ब्रह्म । १. व्रतपरिपालनाय ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकाय च गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यम् । ( त. भा. ६ - ६, पृ. २०७ ) । २. श्रब्रह्मासेवननिवृत्तिः ब्रह्मचर्यम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७, ३ ) ; तच्च ब्रह्मचर्यं गुरुकुलवासलक्षणम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६) । ३. XX X बंभं मेहुणवज्जणं । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. १३, पृ. ३८ ) । ४. ब्रह्मचर्यं मैथुनविरतिः । ( जम्बूद्वी. शा. वृ. १६२ ) । १ व्रतों के परिपालन, ज्ञान की वृद्धि और कषायों के शान्त करने के लिए गुरुकुल में रहना, इसे ब्रह्मचर्य कहा जाता है ।
ब्रह्मचर्य - १. सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं । सो बम्हचेरभावं सु[ स ] क्कदि खलु दुद्धरं धरदि [दु] । ( द्वादशानु. ८० ) । २. जीवो बंभा जी - afम्म चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो। तं जाण बंभचेरं विमुक्क परदेह तित्तिस्स ॥ ( भ. प्रा. ८७८ ) । ३. मैथुनाद्विरतिर्ब्रह्म । (भ. प्रा. विजयो ५७ ) ; जीवो बंभा - ब्रह्मशब्देन जीवो भण्यते, ज्ञान-दर्शनादिरूपेण वर्द्धते इति वा, यावल्लोकाकाशं वर्धते लोकपूरणाख्यायां क्रियायाम् इति वा । जीवम्मि चैव ब्रह्मण्येव चर्या - जीवस्वरूपमनन्तपर्यायात्मकम् एवं निरूपयतो वृत्तिर्या । तं जाण जानीहि बंभचरियं ब्रह्मचर्यम् । विमुत्तपरिदेह तित्तिस्स विमुक्तपरदेहव्यापारस्य । (भ. प्रा. विजयो ८७८ ) । ४. निरस्ताङ्गांगरागस्य स्वदेहेऽपि विरागिणः । जीवे ब्रह्मणि या चर्या ब्रह्मचर्यं तदीर्यते ॥ ( भ. प्रा. श्रमित. ८६० ) । ५. ज्ञानं ब्रह्म दया ब्रह्म ब्रह्म कामविनिग्रहः । सम्यगत्र वसन्नात्मा ब्रह्मचारी भवेनरः ॥ ( उपासका ८७२ ) । ६. आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं परं स्वाङ्गासंग विवजितैकमनसस्तद् ब्रह्मचर्यं मुनेः । एवं सत्यबलाः स्वमातृ-भगिनी - पुत्रीसमाः प्रेक्षते वृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् ॥ ( पद्म. पंच. १२ - २ ) । ७. या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धेश्चर्या परद्रव्यमुचः प्रवृत्तिः । तद् ब्रह्मचर्यं व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ॥ ( भ. प्रा. मूला. ८. प्रादुःषन्ति यतः फलन्ति च गुणाः
८७८) ।
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ब्रह्मचर्य-अणुव्रत ८२७, जैन-लक्षणावली
[ब्रह्मचर्य धम सर्वेऽप्यखाजसो यत्प्रह्वीकुरुते चकास्ति च यतस्तद् तुल्या निरीक्ष्य परयोषितः । स्वकलत्रेण यस्तोषश्चब्राह्ममुच्चमहः। त्यक्त्वा स्त्रीविषयस्पृहादि दशधा- तुर्थं तदणुव्रतम् ॥ (सुभा. सं. ७७८) । १४. पब्बेसु ऽब्रह्मामलं पालय स्त्रीवैराग्यनिमित्तपञ्चकपरस्तद् इत्थिसेवा अणंगकीडा सया विवज्जतो। थूलयडबंभब्रह्मचर्य सदा॥ या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या यारी जिणेहि भणिो पवयणम्मि ॥ (वसु. श्रा. परद्रव्यमुचः प्रवृत्तिः । तद् ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये २१२)। १५. हिंसानृतवचःस्तेय-स्त्रीमैथुन-परिग्रहात् । पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ॥ (अन. ध. ४-५६ देशतो विरति था पञ्चधाणुव्रतस्थितिः ॥ (धर्मश.
२१-१४२)। १६. षण्ढत्वमिन्द्रियच्छेदं वीक्ष्या१. स्त्रियों के सब अंगों को देखता हा भी जो ब्रह्मफलं सुधीः । भवेत स्बदारसन्तुष्टोऽन्यदारान उनके विषय में दुर्भाव को छोड़ता है-उनमें मुग्ध विवर्जयेत ।। (योगशा. २-७६); x नहीं होता है-वह दुर्धर ब्रह्मचर्य के धारण में समर्थ दारेषु धर्मपत्न्यां सन्तुष्टो भवेदित्येक गृहस्थब्रह्महोता है।
चर्यम्, अन्यदारान वा परसम्बन्धिनीः स्त्रियो विवब्रह्मचर्य-अणुव्रत-१. परिहारो परपिम्मे xx जयेत्, स्वस्त्रीसाधारणसेवीत्यर्थः, इति द्वितीयम् । x॥ (चारित्रप्रा. २३) । २. न तु परदारान् (योगशा. स्वो. विव. २-७६) । १७. प्रतिपक्षभावगच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् सा पर- नैव न रती रिरंसारुजि प्रतीकारः । इत्यप्रत्ययितदारनिवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ॥ (रत्नक. ३, मनाः श्रयत्वहिंस्रः स्वदारसन्तोषम् ।। सोऽस्ति स्व१३) । ३. उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्गनायाः दारसन्तोषी योऽन्यस्त्री-प्रकटस्त्रियो। न गच्छत्यंहसो सङ्गानिवृत्ततिगृहीति चतुर्थमणुव्रतम् । (स. सि. भीत्या नान्यर्गमयति त्रिधा ॥ (सा. घ. ४-५१, ७-२०)। ४. xxx परदारसमागमात् (वि- ५२)। १८. परस्त्रीरमणं यत्र न कुर्यान्न च काररतिः) ॥ (पद्मपु. १४-१९४)। ५. परदारस्य य येत् । अब्रह्मवर्जनं नाम स्थूलं तुर्य तु तद् व्रतम् ।। विरई उराल-वेउवभेयो दुविहं । एयमिह (धर्मसं. श्रा. ६-६३)। १९. परेषां योषितो मुणेयव्वं सदारसन्तोसमो एत्थ ।। (पंचाशक १-१५)। दृष्ट्वा निजमातृ-सुतासमाः । कृत्वा स्वदारसन्तोष ६. परदारपरिच्चायो सदारसंतोसमो वि य चउत्थं । चतुर्थं तदणुव्रतम् ॥ (पू. उपासका. २६) । २०. दुबिहं परदारं खलु उराल-बेउविभेएणं ॥ (श्रा. प्र. चतुर्थ ब्रह्मचर्य स्याद् व्रतं देवेन्द्रवन्दितम् । देशतः २७०) । ७. दारेषु परकीयेषु परित्यक्तरतिस्तु यः। श्रावकाचं सर्वतो मुनिनायकः ।। (लाटीसं. ६, स्वदारेष्वेव सन्तोषस्तच्चतुर्थतणुव्रतम् ॥ (ह. पु. ५६)। २१. तत्र हिंसानृत-स्तेयाब्रह्म-कृत्स्नपरिप्र५८-१४१)। ८. उपात्तानुपात्तान्याङ्गनासङ्गाद्वि- हात् । देशतो विरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम् ।। रतरतिः। उपात्ताया अनुपात्तायाश्च अन्याङ्गनाया: (पंचाध्या. २-७२०)। २२. स्वकीयदारसन्तोषो सङ्गाद्विरतरतिः विरताविरत इति चतुर्थमणुव्रतम् । वजनं वान्योषिताम् । श्रमणोपासकानां तच्चतुर्थमणु.(त. वा. ७, २०, ४)। ६. उपात्तानुपात्तान्याङ्ग- व्रतं मतम् ।। (धर्मसं. मान. २-२८, पृ. ६७) । नासंगाद् विरतिः । (त. श्लो. ७-२०)। १०. ये १ परस्त्री विषयक अनुराग के परित्याग का नाम निजकलत्रमात्र परिहर्तुं शक्नुवन्ति न हि मोहात् । ब्रह्मचर्याणुव्रत है। २ परस्त्री के साथ न स्वयं निःशेषशेषयोषिन्निषेषणं तैरपि न कार्यम् ॥ (पु. समागम करना और न दूसरे से कराना, इसे ब्रह्मसि. ११०)। ११. उपात्ताया अनुपात्तायाश्च परा- चर्याणुव्रत कहते हैं। दूसरे शब्दों में इसे परदारङ्गनायाः सङ्गाद्विरतरतिर्विरताविरत इति चतुर्थ- निवृत्ति व स्वदारसन्तोष भी कहा जाता है। १६ मणुव्रतम् । (चा. सा. पृ. ६)। १२. असुइ- अपनी पत्नी में सन्तुष्ट रहना, यह गृहस्थ का अणुमयं दुग्गंधं महिलादेहं विरच्चमाणो जो। रूवं व्रतरूप एक ब्रह्मचर्य है, अथवा पर से सम्बद्ध लावण्णं पि य मण-मोहण-कारणं मुणइ ॥ जो स्त्रियों का परित्याग करना-स्वकीय जैसी स्त्री मण्णदि परमहिलं जणणी-बहिणी-सुप्राइसारिच्छं। का सेवन करना, यह गृहस्थ का दूसरा ब्रह्मचर्य मण-वयणे काएण वि बंभवई सो हवे थूलो॥ है। (कातिके. ३३७-३३८)। १३. मातृ-स्वसृ-सुता- ब्रह्मचर्य धर्म-१. अनुभूताङ्गनास्मरण-कथाश्रवण
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ब्रह्मचर्य धर्म ] स्त्रीसंसक्तशयनासनादिवर्जनाद् ब्रह्मचर्यं परिपूर्णमवतिष्ठते । स्वतन्त्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थो वा गुरुकुलावास ब्रह्मचर्यम् । ( स. सि. ६-६ ) । २. श्रनुभूताङ्गनास्मरण-कथा श्रवण स्त्रीसंसक्तशयनासनादिवर्जनाद ब्रह्मचर्यम् । मया अनुभूताङ्गना कला-गुणविशारदा इति स्मरणम्, तत्कथाश्रवणम्, रतिपरिमलादिबासित स्त्रीसंसक्तशयनासनमित्येवमादिवर्ज नात् परिपूर्णं ब्रह्मचर्यमवतिष्ठते । श्रस्वातन्त्र्यार्थं गुरौ ब्रह्मणि चर्यमिति वा । अथवा ब्रह्मा गुरुस्तस्मिश्चरणं तदनुविधान मस्य अस्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थं ब्रह्मचर्यमित्याचर्यते । (त. वा. ६, ६, २२-२३) । ३. ब्रह्मचर्यं नवविधब्रह्मपालनम् । (भ. श्री. विजयो ४६ ) ; सर्षपूर्णायां नाल्यां तप्तायसशलाकाप्रवेशन वद्योनिद्वारस्थानेकजीवपीडा साधनप्रवेशेनेति तद्बाधापरिहारार्थं तीव्रो रागाभिनिवेशः कर्मबन्धस्य महतो मूलमिति ज्ञात्वा श्रद्धावतः मैथुनाद्विरमणं चतुर्थं व्रतम् । (भ. ग्रा. विजयो. ४२१, पृ. ६१४ ) । ४. स्त्रीसंसक्तस्य शय्यादेरनुभूताङ्गनास्मृतेः । तत्कथायाः श्रुतेश्च स्याद् ब्रह्मचर्यं हि वर्जनात् ॥ (त. सा. ६ - २१) । ५. जो परिहरेदि संगं महिलाणं णेव पस्सदे रूवम् । कामकहा दिणिरीही णवभिं वे तस्स || ( कार्तिके. ४०३) । ६. अनुज्ञाताङ्गनास्मरण-कथाश्रवण स्त्रीसंसक्तशयनादिवर्जनं स्वतन्त्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थो वा गुरुकुलावासो ब्रह्मचर्यम् । ( मूला. वृ. ११ - ५ ) । ७. पूर्वानुभुक्तवनितास्मरणं वनिताकथास्मरणं वनितासंगासक्तस्य शय्यासनादिकं च ब्रह्म तद्वर्जनाद् ब्रह्मचर्यं पूर्ण भवति । स्वेच्छाचारप्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थं गुरुकुलवासो वा ब्रह्मचर्य - मुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-६ ) ।
१ अनुभूत स्त्री का स्मरण करने, उसकी कथा को सुनने और स्त्री से सम्बद्ध शयन एवं प्रासन श्रादि के छोड़ देने से पूर्ण ब्रह्मचर्य धर्म का परिपालन होता है ।
ब्रह्मचर्यपोषध - ब्रह्मचर्यपोषधोऽपि देशतो दिवैव रात्रावेव वासदेव द्विरेव वा स्त्रीसेवां मुक्त्वा ब्रह्मचर्यकरणम् ; सर्वतस्तु अहोरात्रं यावत् ब्रह्मचर्य पालनम् । (योगशा. स्वो विव. ३-८५, पृ. ५११) ।
देश और सर्व के भेद से ब्रह्मचर्यपोषध दो प्रकार का है। दिन में हो या रात में ही स्त्री का सेवन
[ ब्रह्मचर्य प्रतिमा
करना, श्रथवा एक बार या दो बार ही स्त्रीसमागम को छोड़कर ब्रह्मचर्य का परिपालन करना; इसे देशतः ब्रह्मचर्यपोषध कहा जाता है । दिन-रात ( सदा ) ही ब्रह्मचर्य का परिपालन करना, यह सर्वतः ब्रह्मचर्यपोषध का लक्षण है । ब्रह्मचर्य प्रतिमा - १. मलबीजं मलयोनि मलन्मलं पूतगन्धि बीभत्सम् । पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥ ( रत्नक. १४३ ) । २. संसारभयमापन्नो मैथुनं भजते न यः । सदा वैराग्यमारूढो ब्रह्मचारी स भव्यते ।। (सुभा. सं. ८४६ ) । ३. यो मन्यमानो गुण-रत्नचौरों विरक्तचित्तस्त्रिविधेन नारीम् । पवित्र चारित्रपदानुसारी स ब्रह्मचारी विषयापहारी ॥ ( श्रमित. श्री. ७-७३ ) । ४. यः कटाक्षविशिखैर्न वधूनां जीयते जितनरामरवगैः । मर्दितस्मरमहारिपुदर्पो ब्रह्मचारिणममुं कथयन्ति ।। ( धर्म - प. २०-५६ ) । ५० सव्वेसि इत्थीणं जो अहिलासं ण कुब्वदे णाणी । मण वाया- कायेण य बंभवई सो हवे सदो || (कार्तिके ३८४ ) । ६. ब्रह्मचारी शुक्र- शोणितबीजं रस- रुधिर- मांस- मेदोऽस्थि-मज्जाशुक्रसप्तधातुमयमनेकस्रोतोविलं मूत्र - पुरीषभाजनं कृमिकुलाकुलं विविधव्याधिविधुरमपायप्रायं कृमिभस्मविष्ठापर्यवसान मंगमित्यनङ्गाद् विरतो भवति । (चा. सा. पृ. १६) । ७. पुव्वत्तणवविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवज्जतो । इत्थिकहाइणिवित्तो सत्तमगुणबंभयारी सो । (वसु. श्रा. २९७ ) । ८ तत्तादृक्संयमाभ्यास वशीकृतमनास्त्रिधा । यो जात्वशेषा नो योषा भजति ब्रह्मचार्यसौ ॥ (सा. ध. ७–१६) । ६. स्त्रीयोनिस्थानसंभूतजीवघातभयादसौ । स्त्रियं नो रमते त्रेघा ब्रह्मचारी भवत्यतः ॥ ( भावसं वाम. ५३६ ) । १०. सूक्ष्मजन्तुगणाकीर्णं योनिरन्ध्रं मलाविलम् । पश्यन् यः संगतो नार्याः कष्टादिभयतोऽपि च ॥ विरक्तो यो भवेत्प्राज्ञस्त्रियोगैस्त्रिकृतादिभिः । पूर्वषव्रतनिर्वाही ब्रह्मचार्यत्र स स्मृतः ॥ ( धर्मसं. श्री. ८,२६-२७) । ११. सप्तमी प्रतिमा चास्ति ब्रह्मचर्याह्वया पुनः । यत्रात्मयोषितश्चापि त्यागो निःशल्यचेतसः ॥ ( लाटीसं. ७-२४) ।
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१ जो शरीर रज-वीर्यरूप मल से उत्पन्न हुआ है, मल का कारण है, मल को बहाने वाला है, और दुर्गन्धित होता हुआ घिनावना है; उसको देखकर कामभोग से जो विरक्त रहता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमा
८२८, जैन - लक्षणावली
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ब्रह्मचर्य महाव्रत ]
का धारक होता है । ब्रह्मचर्य महाव्रत - १. प्रबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्टियं । नायरंति मुणी लोए भेप्राययणवज्जि - णो । मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणग्गं णिग्गंथा वज्जयंति णं ।। (दशवै. सू. ६, १५-१६, पृ. १ε७–६८ ) । २. तुरियं प्रबंभविरई X XX ॥ ( चारित्रप्रा . २६) । ३. दट्ठूण इत्थिरूवं वांछाभावं वित्तदे तासु । मेहुणसण्णविवज्जि यपरिणामो ग्रहव तुरीयवदं । (नि. सा. ५६ ) । ४. मादु- सुदा भगिणीवय दट्ठूणित्थित्तियं च पडिरूवं । इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्जं हवे बंभं ॥ ( मूला. १ - ८ ) ; प्रच्चित्तदेव माणुस - तिरिक्खिजादं च मेहुणं चधा । तिविहेण तं ण सेवदि णिच्च पि मुणी हि पदमणो ॥ ( मूला. ५ - ६५ ) । ५. अहावरे चउत्थे भन्ते महत्वए मेहुणाओ वेरमणं सव्वं भन्ते मेहुणं पच्चक्खामि से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सयं मेहुणं सेविज्जा नेवनहि मेहुणं सेवावेज्जा मेहुणं सेवन्तेवि अन्ने न समजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भन्ते पडिक्कमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ( पाक्षिकसू. पृ. २३) । ६. X X X सव्वाश्रो मेहुणा वेरमणं । ( समवा. ५ ) । ७. स्त्री-पुंसंगपरित्यागः कृतानुमतकारितः । ब्रह्मचर्यमिति प्रोक्तं चतुर्थं तु महाव्रतम् ॥ ( ह. पु. २ - १२० ) । ८. श्रहिंसादिगुणबृंहणाद् ब्रह्म, न ब्रह्म ब्रह्म, तिर्यङ्मनुष्य- देवाऽचेतनभेदाच्चतुविधस्त्रीभ्यो मातृ-सुता-भगिनीभावनया मनोवाक्कायप्रत्येक कृत-कारितानुमोदितभेदेन नवविधाद् विरतिश्चतुर्थव्रतम् । (चा. सा. पृ. ४२ ) । ९ विन्दति परमं ब्रह्म यत्समालम्ब्य योगिनः । तद् व्रतं ब्रह्मचर्यं स्याद् धीर-धौरेयगोचरम् ।। (ज्ञाना. १, पृ. १३३ ) । १०. रागलोककथात्यागः सर्वस्त्रीस्थापनादिषु । माताऽनुजा तनूजेति मत्या ब्रह्मव्रतं मतम् ॥ ( श्राचा. सा. १-१६ ) ; तेनानुमथितं चेतो यत्तद् ब्रह्मव्रतं स्मृतम् । व्रतव्रातलतामूलं मूलं स्वर्गापवर्गयोः । ( श्राचा. सा. ५ - ५७ ) । ११. दिव्यमानुष - तैरश्च मैथुनेभ्यो निवर्तनम् । त्रिविधं त्रिविधेनैव तद् ब्रह्मव्रतमीरितम् ॥ ( धर्मसं. मान. ३-४३) ।
[ब्राह्मण
स्त्रियों को क्रम से माता, पुत्री और बहिन के समान मानकर स्त्री सम्बन्धी कथा श्रादि से निवृत्त होना -- रागादि के वश होकर उनका स्पर्श श्रादि न करना; यह ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है । उक्त सचेतन स्त्रियों के ही समान चित्रादिरूप श्रचेतन, स्त्रियों के विषय में भी समझना चाहिए । प्रचेतन देव, मनुष्य और तिथंच इन चार से उत्पन्न होने के कारण मैथुन चार प्रकार का है । ब्रह्मचर्य महाव्रत का धारक मुनि उक्त चारों प्रकार के मैथुन का सेवन मन, वचन व काय से कभी भी नहीं करता है । ५ मैं देव, मनुष्य व तियंच सम्बन्धी सब मैथुनका त्याग करता हूं; न उसका मैं स्वयं सेवन करूंगा, न अन्य जनों से कराऊंगा, और न सेवन करने वालों की अनुमोदना करूंगा; मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना इन नौ प्रकार से जीवन पर्यंत त्याग करता हूं तथा इसके लिए प्रतिक्रमण, निन्दा व गर्हा करता हूं; इस प्रकार से परित्यक्त मैथुन का नाम चतुर्थ ( ब्रह्मचर्य) महाव्रत है । ब्रह्मर्षि - १. ब्रह्मर्षयो बुद्धयौषधिऋद्धियुक्ताः कीर्त्यन्ते । (चा. सा. पृ. २२) । २. बुद्धघोषद्धसम्पन्नो ब्रह्मर्षिरि भाषितः । ( धर्मसं. श्री. २८७) ।
१ जो बुद्धि और श्रौषधि ऋद्धियों से युक्त होते है वे ब्रह्म कहलाते हैं ।
८२६, जैन-लक्षणावली
ब्रह्मा प्राणिनां हितवेदोक्तं ( ? ) नैष्ठिकः संगवर्जितः । सर्वभाषश्चतुर्वक्त्री ब्रह्मासा कामव जितः ॥ ( प्राप्तस्व. ३५ ) ।
जो प्राणियों को हितकर उपदेश देता है, तत्त्व पर निष्ठा रखता है, परिग्रह से रहित है, सब भाषाओं में उपदेश देने वाला है तथा चतुर्मुख है— परमौदारिक शरीर के कारण जिसका मुख सब श्रोर देखा जाता है, ऐसे सर्वज्ञ जिन को ब्रह्मा कहा जाता है ।
ब्राह्मण – १. विरए सव्वपावकम्मेहिं पिज्ज- दोस कलह० अब्भक्खाण० पेसुन्न० परपरिवाय० अरति रइ० माया मोस० मिच्छादंसणसल्लविरए समिए सहिए सया जए नो कुज्झे नो माणी माहूणे ति वच्चे । (सूत्रकृ. सू. १, १६, १, पृ. २७१) । २. जो लोए बंभणो वृत्तो अग्गी वा महिओ जहा । सदा
४ 'वृद्धा, बाला और युवती इन तीन प्रकार की कुसलसंदिट्ठ, तं वयं बूम माहणं ॥ जो न सज्जइ
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ब्राह्मण]
८३०, जैन-लक्षणावलो
[भक्तकथा
आगंतं, पव्वयंतो न सोअई। रमए अज्जवयणम्मि, २. ब्राह्मो विवाहो यत्र वरायालङ्कृता कन्या प्रदीतं वयं बम माहणं ।। जायरूवं जहामठें, निद्धत- यते 'त्वं भवास्य महाभागस्य सधर्मचारिणीति' । मलपावगं । रागहोसभयातीतं, तं वयं बम माहणं ॥ (धर्मवि. म. व. १-१२, पृ. ६)। ३. तत्रालंकृत्य तसपाणे वियाणित्ता, संगहेण य थावरे। जो न कन्यादानं ब्राह्मो विवाहः । (योगशा. स्वो. विव. हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं ॥ कोहा वा १-४७, पृ. १४७)। ४. तत्रालंकृत्य कन्यादानं जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया। मुसंन ब्राम्यो विवाहः । (श्राद्धग. प्र. १४) । वयई जो उ, तं वयं बम माहणं ।। चित्तमंतमचित्तं १ वर के लिए अलंकृत करके कन्या का प्रदान वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । न गिण्हई अदत्तं जो, करना, यह ब्राह्म या ब्राह म्य विवाह कहलाता है। तं वयं बम माहणं ॥ दिव्व-माणुस्स-तेरिच्छं, जो न ब्राह्मीलिपि-ब्राह्मी आदिदेवस्य भगवतो दुहिता, सेवइ मेहुणं । मणसा काय-वक्केणं, तं वयं बूम ब्राह्मी वा संस्कृतादिभेदा वाणी, तामाश्रित्य तेनैव माहणं ।। जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारि- वा दर्शिता अक्षरलेखनप्रक्रिया सा ब्राह्मीलिपिः । णा। एवं अलितं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ॥ (समवा. अभय. व. १६)। अलोलुयं मुहाजीवि, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं श्रादिनाथ भगवान ने अपनी पुत्री ब्राह्मी का अथवा गिहत्थेहि, तं वयं बूम माहणं । जहित्ता पुव्वसंजोगं, संस्कृतादिरूप विविध प्रकार की सरस्वती (वाणी) नाइसंगे य बंधवे । जो न सज्जइ एएसुं, तं वयं बूम का प्राश्रय लेकर जिस अक्षरादिरूप लेखन की माहणं ॥ (पाठा. २७; उत्तरा. २५, १६-२७)। प्रक्रिया का आविष्कार किया था उसे ब्राह्मीलिपि ३. Xxx ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यतः । (पद्मपु. ६, कहा जाता है । २०६) । ४. ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् xxx। ब्रायविवाह-देखो ब्राह्म विवाह । (म. पु. ३८-४६)। ५. अहिंसः सवतो ज्ञानी भक्तकथा-१. भक्तस्य कथा---रसनेन्द्रियलुब्धस्य निरीहो निष्परिग्रहः । यः स्यात् स ब्राह्मणः सत्यं चतुविधाहारप्रतिबद्धवचनानि-तत्र शोभनं भक्ष्यं न तु जातिमदान्धलः ॥ (उपासका. ८८६)। खाद्यं लेां पेयं सुरसं मिष्टमतीव रसोत्कटम्, १ जो समस्त पापक्रियाओं से रहित होता हुआ जानाति सा संस्कर्तुं बहूनि व्यञ्जनानि, तस्या प्रेम, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान (असत्य प्रारोप) • हस्तगतमशोभनमपि शोभनं भवेत्, तस्य च गृहे पिशुनता (चुगली), परनिन्दा, परति-संयमसे द्वेष, सर्धमनिष्टं दुर्गन्धं सर्व स्वादुरहितं विरसमित्येवमा. रति-विषयों से अनुराग, माया, मृषा (असत्य) दिकथनं भक्तकथाः । (मूला. वृ. ६-८६) । मौर मिथ्यादर्शन-अतत्वश्रद्धानरूप शल्य इन २. अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमण्डकावलीखण्डसबका परित्याग करता है। ईर्या-भाषा आदि समि- दधिखण्डशिताशनपानप्रसंसा भक्तकथा । (नि. सा. तियों का पालन करता है, हित से-परमार्थ से- व.६७)। ३. तथा भक्तकथा यथा- इदं चेदं च अथवा ज्ञानादि से सहित होता है, तथा सदा संयम मांस्पाकमाष-(सा. ध. 'श्यामाकषाय-') मोदकादि के अनुष्ठान में प्रयत्नशील रहता है। ऐसे साधु को साधु भोज्यम्, साध्बनेन भुज्यते, अहमपि बा इदं ब्राह्मण कहना चाहिए। ३ जो ब्रह्मचर्य का पालन भोक्ष्ये इत्यादिरूपा । (योगशा. स्वो. विय. ३-७६; करने वाला है उसे ब्राह्मण कहा जाता है। ४जो सा.ध. स्वो. टी. ४-२२) । व्रतों से संस्कृत होता है वह ब्राह्मण कहलाता है। १ रसना इन्द्रिय का लोलुपी पुरुष 'यह अन्न व ५ जो हिंसा से दूर रहता है, समीचीन व्रतों का खाद्य प्रादि बहुत मधुर है, वह अनेक व्यञ्जनों को पालन करता है, ज्ञानवान होता है, निःस्पृह रहता है संस्कृत करना जानती है, उसके हाथ में पाया और परिग्रह से रहित होता है उसे ब्राह्मण जानना हमा नीरस पदार्थ भी बहुत स्वादिष्ट बन जाता चाहिए । जो जाति के मद से अन्धा रहता है उसे है, इसके विपरीत अमुक के घर पर सभी अनिष्ट, ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता।
दुर्गन्ध युक्त व स्वाद से रहित है, इत्यादि प्रकार से ब्राह्मविवाह-१. स ब्राह्मयो विवाहो यत्र वरा- जो चार प्रकार के भोजन से सम्बद्ध चर्चा की यालङ्कृत्य कन्या प्रदीयते। (नीतिवा. ३१-४)। ज्ञाती है उसे भक्तकथा कहा जाता है ।
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भक्तपरिज्ञा ]
[भक्ति
भक्तपरिज्ञा - १. भक्तपरिज्ञा पुनस्त्रिविध चतुर्वि धाहारविनिवृत्तिरूपा सा नियमात् सप्रतिकर्मशरीरस्यापि घृति - संहनवतो यथासमाधिभावतोऽवगन्तव्या । ( दशवं. नि. हरि. वृ. ४७ ) । २. भक्तस्य भोजनस्य परिज्ञा ज्ञपरिज्ञया परिज्ञानं प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याख्यानं भक्तपरिज्ञा । ( धर्मसं. मान. ३- १४६, पृ. १७४) ।
१ तीन अथवा चार प्रकार के आहार के परित्याग का नाम भक्तपरिज्ञा है । जिसका शरीर कुछ रुग्ण है, पर जो धैर्य व संहनन से युक्त है, उसको भी समाधि के अनुसार इस भक्तपरिज्ञा को समझना चाहिए ।
भक्तप्रत्याख्यानं मरणमिति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१६) । ४. भज्यते सेव्यते इति भक्तम्, तस्य पइण्णा त्यागो भत्तपइण्णा । (भ. श्री. विजयो. २६ ) | ५. भक्तं भोजनम्, तस्यैव न चेष्टाया अपि पादपोपगमन इव प्रत्याख्यानं वर्जनं यस्मिस्तद्भक्तप्रत्याख्यानमिति । (स्थाना. अभय वृ. २, ४, १०२ ) । ६. यस्तु गच्छमध्यवर्ती समाश्रितमृदुसंस्तारकः समुत्सृष्टशरीरोपकरणममत्वस्त्रिविधं चतुविधं वाऽऽहारं प्रत्याख्याय स्वयमेवोद्ग्राहितनमस्कारः समीपवर्तिसाधुदत्तनम - स्कारो वोद्वर्तन-परिवर्तनादि कुर्वाणः समाधिना कालं करोति, तस्य भक्तप्रत्याख्यानमनशनम् । (योगशा. स्वो विव. ४-६६ ) । ७. यस्मिन् समावये स्वान्यवैयावृत्त्यमपेक्ष्यते । तद्द्वादशाब्दानीषेऽन्तर्मुहूर्त चाशनोज्झनम् ॥ ( श्रन. ध. ७-१०१ ) । ८. भज्यते देहस्थित्यर्थमिति भक्तमाहारस्तस्य प्रतिज्ञा प्रत्याख्यानं त्यागः । भक्तप्रतिज्ञा स्व-परवैयावृत्त्यसापेक्षं मरणम् । (भ. ना. मूला. २६) । ६. उभयोपकारसापेक्षं भक्तप्रत्याख्यानं मरणम् । ( कातिके. टी. ४६७) ।
भक्त - पान विवेक - भक्त - पानयोरनशनं वा कायेन भक्तपानविवेकः । एवंभूतं भक्तं पानं वा न गृह्णामीति वचनं वाचा भक्तपानविवेक: । (भ. श्री. विजयो. व मूला. १६६ ) । शरीर से भोजन - पान का परित्याग करना अथवा इस प्रकार के भोजन या पान ( दूध आदि) को मैं ग्रहण नहीं करूंगा, इस प्रकार के वचन को भी भक्त - पानविवेक कहा जाता है ।
भक्त -पानसंयोग — सम्मूर्छनादिसम्भवे पानं पानेन पानं भोजनेन भोजनं पानेनेत्यादिसंयोजनं भक्तपानसंयोग: । (अन. घ. स्वो टी. ४ - २८ ) । सम्मूर्छन आदि जीवों की सम्भावना होने पर पान (दूध प्रादि) का पान के साथ, पान का भोजन के साथ, भोजन का भोजन के साथ और भोजन का पान के साथ; इत्यादि प्रकार से किये जाने वाले संयोग का नाम भक्तपानसंयोग है । भक्तप्रतिज्ञा - देखो भक्तप्रत्याख्यान । भक्तप्रत्याख्यान - १. भत्तपच्चक्खाणं णाम केवलमेव भत्तं पच्चक्खातं, ण तु चंक्रमणादिक्रिया, पाणं वा ण रुिभति । ( उत्तरा चू. पृ. १२९) । २. प्रात्म- परोपकारसव्यपेक्षं भक्तप्रत्याख्यानमिति । ( धव. पु. १, पृ. २४) । ३. भक्तप्रत्याख्यानं तु गच्छमध्यवर्तिनः, स कदाचित् त्रिविधाहारप्रत्याख्यायीति, कदाचिच्चतुविधाहारप्रत्याख्यायी पर्यन्ते कृतसमस्तप्रत्याख्यानः समाश्रितमृदुसंस्तारकः समुत्सृष्टशरीराद्युपकरणममत्वः स्वयमेवोद्ग्रा हितनम - स्कारः समीपवर्तिसाधुदत्तनमस्कारो वा उद्वर्तन
१ केवल भोजन का परित्याग करना, इसका नाम भक्तप्रत्याख्यानमरण है । इसमें न तो गमनादिक्रिया का त्याग किया जाता है और न पान का ही निरोध किया जाता है । २ अपने और अन्य के उपकार की अपेक्षा रखते हुए जो मरण प्राप्त होता है वह भक्तप्रत्याख्यानमरण कहलाता है। दूसरा नाम इसका भक्तप्रतिज्ञा भी है। इसे भक्तप्रत्यख्यानमरण भी कहा जाता है । भक्तप्रत्याख्यान अनशन-देखो भक्तप्रत्याख्यान । भक्तप्रत्याख्यानमरण- देखो भक्तप्रत्याख्यान । भक्तयुत क्षेत्र - भक्तयुतमोदनक्षेत्रं यत्र तुषधान्यानि प्राचुर्येणोत्पद्यन्ते सर्वकालमोदनोऽभ्यवहियते । ( प्राय. समु. चू. ४- १३८ ) ।
जहां तुच्छ धान्य- जैसे कोद्रव श्रादि - श्रधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं, उसे भक्तयुत श्रोदनक्षेत्र कहा जाता है ।
भक्ति - १. अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः । ( स. सि. ६, २४ ) । २. श्रहंदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः । श्रहंदाचार्येषु केवलपरिवर्तनादिकुर्वाणः समाधिना करोति कालमेतद् श्रुतज्ञानादिदिव्यनयनेषु परहितकरप्रवृत्तेषु स्व-पर
८३१, जैन- लक्षणावली
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भक्ति ]
समयविस्तरनिश्चयज्ञेषु च बहुश्रुतेषु प्रवचने च श्रुतदेवतासन्निधिगुणयोगदुरासदे मोक्षपदभवनारोहणसुरचितसोपानभूते भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागः भक्तिः त्रिविधा ( चतुविधा ) कल्प्यते । (त. वा. ६, २४, १०) । ३. अर्हत्सु योऽनुरागो यश्चाचार्ये बहुश्रुते यच्च । प्रवचन विनयश्चासौ चातुर्विध्यं भजति भक्तिः ॥ ( ह. पु. ३४ - १४१ ) । ४ अर्हत्स्वाचार्यवर्येषु बहुश्रुतयतिष्वपि । जैने प्रवचने चापि भक्तिः प्रत्युपवर्णिता ॥ भावशुद्धया नुता शश्वदनुरागपरैरलम् । विपर्यासितचित्तस्याप्यन्यथा भावहानित: ॥ ( त श्लो. ६, २४, १२-१३ ) । ५. प्रर्हदादिगुणानुरागो भक्ति: । ( भ. प्रा. विजयो ४७ ); वदन निरीक्षणादिप्रसादेनाभिव्यज्यमानोऽन्तर्गतोऽनुरागो भक्तिः । ( भ. प्रा. विजयो. ११७ ) । ६. जिने जिनागमे सूरौ तपः श्रुतपरायणे । सद्भावशुद्धि सम्पन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ।। ( उपासका २१५ ) । ७. अनन्तगुणयुक्तेष्वर्हत्सिद्धेषु गुणानुरागयुक्ता भक्ति: । ( प्रव. सा. जय. वृ. ३ - ४६ ) । ८. भक्तिः प्रवचने विनयवैयावृत्त्यरूपा प्रतिपत्तिः । (योगशा. स्वो विव. २ - १६ ) । ६. भक्ति: पात्रगुणानुरागः । (सा. ध. स्वो टी. ५ - ४७ ) । १०. भक्तिः भावविशुद्धियुक्तो नुरागः । ( भ. प्रा. मूला. ४७ ) । ११. तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात् । ( पञ्चाध्यायी २-४७०) ।
८३२, जैन लक्षणावलो
१ अरहंत, आचार्य, बहुश्रुत ( उपाध्याय) और प्रवचन के विषय में जो विशुद्ध परिणाम युक्त श्रनुराग होता है उसका नाम भक्ति है ।
भक्ति - श्रनुष्ठान- देखो भक्त्यनुष्ठान । भक्ति चैत्य - भक्त्या क्रियमाणं जिनायतनम् । ( जीतक. चू. वि. व्या. पृ. ४० ) । भक्तिपूर्वक किये जाने वाले जिनायतन को भक्तिचैत्य कहा जाता है । भक्त्यनुष्ठान-गौरवविशेषयोगाद् बुद्धिमतो यद्विशुद्धतरयोगम् । क्रिययेतरतुल्यमपि ज्ञेयं तद्भक्त्यनुठानम् । ( षोडशक. १०-४; ज्ञा. सा. सू. दे. २६–७, पृ. ε२) ।
व.
गुरुता ( पूज्यता) के अधिक सम्बन्ध से बुद्धिमान् पुरुष का जो प्रतिशय विशुद्ध व्यापार होता है उसे भक्त्यनुष्ठान जानना चाहिए। वह गद्यपि क्रिया की अपेक्षा इतर अनुष्ठान के समान ही होता है,
[भजमानवन्दनक
फिर भी उसे भक्त्यनुष्ठान कहा जाता है । भगवान् - १. भगः समग्रैश्वर्यादिलक्षणः । उक्तं च - ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना ।। समग्रैश्वर्यादिभगयोगाद्भगवन्तोऽर्हन्त इति । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ८०, पृ. ५६ ) ; भगः खल्वैश्वर्यादिलक्षणः, सोsस्यास्तीति भगवान् । (आव. नि. हरि. वृ. ३१८, पृ. १४४; जम्बूद्वी. शा. वृ. १-२, पृ. १५ ) । २. भगः समग्रैश्वर्यादिलक्षणः, तथा चोक्तम्ऐश्वर्यस्य ॥ भगोऽस्यास्तीति भगवान् । ( नन्दी. हरि वृ. पू. ८१ पंचसू. हरि. बृ. पृ. २) । ३. भगः समग्रैश्वर्यादिलक्षणः । उक्तं च - ऐश्वर्यस्य .........।। सोऽस्यास्तीति भगवान् । ( दशवं. सू. हरि वृ. ४- १, पृ. १३६ ) । ४. ज्ञान-धर्ममाहात्म्यानि भगः सोऽस्यास्तीति भगवान् । ( धव. पु. १३, पृ. ३४६ ) । ५. भगः समग्रैश्वर्यादिलक्षणः, स एषामस्तीति भगवन्तः । ( जीवाजी. मलय. वृ. २ - १४२ )। ६. भगः समग्रैश्र्यादिरूपः, भगोऽस्यास्तीति भगवान् । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-२ ) ।
१ समस्त ऐश्वयं का नाम भग है, उसके सम्बन्ध से अरहन्तों को भगवान् कहा जाता है । ४ ज्ञान और धर्म के माहात्म्य का नाम भग है, इस भग से जो युक्त होते हैं वे भगवान् कहलाते हैं । भजमानवन्दन - देखो भयवन्दनदोष । भजमानवन्दनक - १. भयइ व भविस्सइत्ति य इय वन्द होरयं निवेसंतो । ( प्रव. सारो. १६२ ) । २. स्मर्त्तव्यं भो प्राचार्य ! भवन्तं वन्दमाना वयं तिष्ठाम इत्येवं निहोरकं निवेशयन् वन्दते । किमितीत्याह -- भयइ व भइस्सइ व ममेति हेतोः किमुक्तं भवति ? एष तावद्भजते- अनुवर्तयति माम्, सेवायां पतितो मे वर्त्तत इत्यर्थः, अग्रे वा मम भजनं करिष्यत्यसौ ततश्चाहमपि वन्दनकसत्कं निहोरकं निवेशयामीत्यभिप्रायवान् यत्र वन्दते तत् भजमानवन्दनकभिधीखते । (श्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८८ ) । ३. भजमानं भजते मां सेवायां पतितो मम अग्रे वा मम भजनं करिष्यति ततोऽहमपि वन्दनसत्कं निहोरकं निवेशयामीति बुद्ध्या वन्दनम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३० ) । ४. भो प्राचार्य, भवन्तं वन्दमाना वयं तिष्ठाम इत्येवं निहोरकं निवेशयन् वन्दते । किमर्थम् ? भजते वा मां भजनं वा मे
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भट्टारक]
८३३, जन-लक्षणावली [भय (नोकषायविशेष) करिष्यतीति हेतोः । किमुक्तं भवति ? एष तावद्भ- पु. ६, पृ. २५२) । जते-अनुवर्तते मां सेवायां पतितो वर्तते ममेत्यर्थः, युक्तिपूर्वक समाधान करके पूर्वापर विरोध का परिअग्रे च मम भजनं करिष्यत्यसौ, ततश्चाहमपि वन्द- हार करते हुए सिद्धान्तगत समस्त पदार्थों की जो नसत्कं निहोरकं निबेशयामीत्याभिप्रायेण वा यत्र व्याख्या की जाती है उसका नाम भद्रा व्याख्या है। वन्दते तद्भजमानवन्दनकमभिधीयते । (प्रव, सारो. यह चार प्रकार की वाचना में दूसरी है। वृ. १६२)।
भद्रासन-सम्पुटीकृत्य मुष्काग्रे तलपादौ तथोपरि। १ यह मेरी सेवा करता है व आगे भी मेरी सेवा पाणिकच्छपिकां कुर्यात् यत्र भद्रासनं तु तत् ।। करेगा; इस कारण से हे प्राचार्य, मैं आपको (योगशा. ४-१३०)।। बन्दना करता हुमा
अण्डकोश के प्रागे दोनों पांवों के तलभाग को मिला रक स्थापित करते हए जो वन्दना की जाती है वह कर ऊपर हाथों की कच्छपिका के करने पर भद्राभजमानवन्दनक दोष से दूषित होती है यह ३२ सन होता है ।। वन्दनादोषों में १२वां दोष है।
भय-देखो भयसंज्ञा । १. परचक्कादो भयं णाम । भट्टारक-१. सर्वशास्त्रकलाभिज्ञो नानागच्छाभि- (धव. पु. १३, पृ. ३३६)। २. सनिमित्तमनिमित्तं वर्द्धकः । महामनाः प्रभाभावी भट्टारक इतीष्यते। वा यद् विभेति तद् भयम् । (बृहत्क. क्षेम. व. (नी. सा. १८) । २. भट्टान् पण्डितान् अरयति ८३१) । प्रेरयतीति भट्टारकः । (जिनसह. प्राशा. टी. ३-६, १ शत्रुके प्राक्रमण आदि का नाम भय है । २ किसी पृ. १५५)।
निमित्त अथवा विना निमित्त के भी जो भीति १ जो समस्त शास्त्रों एवं कलाओं से परिचित व (डर) उत्पन्न होती है उसे भय कहा जाता है । अनेक गच्छों का बढ़ाने वाला है, ऐसे प्रभावशाली भय (नोकषाय विशेष)-१. यदुदयादुद्वेगस्तद्भमहामनस्वी को भट्टारक कहा जाता है। २ जो भट्ट यम्। (स. सि. ८-९; त. वा. ८, ९, ४)। अर्थात् पण्डितों को प्रेरित किया करता है उसका २. भीतिर्भयम्, जेहिं कम्मक्खंधेहिं उदयमागदेहि नाम भट्टारक है।
___ जीवस्स भयमुप्पज्जइ तेसि भयमिदि सण्णा । (धव. भद्र-१. भाति शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितु- पु. ६, पृ. ४७); जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स श्चित्तनिर्वृत्तिमिति भद्रः, स एव भद्रकः । (उत्तरा. सत्त भयाणि समुप्पज्जति तं कम्मं भयं णाम । नि. शा. वृ. ६४, पृ. ४६) । २. कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्म (धव. पु. १३, पृ. ३६१) । ३. भीतिर्यस्माद् बिभेति लघुकर्मतयाऽद्विषन् । भद्रःXxx(सा. घ. १.६)। वा भयम्, यैः कर्मस्कन्धरुदयमागतैर्जीवस्य भय१जो अपने गणों से सशोभित होता हया प्रेरक के मत्पद्यते तेषां भयमिति संज्ञा। (मला. व. १२, चित्त को निवृत्ति को देता है वह भद्र कहलाता है। १९२)। ४. येन सनिमित्तमनिमित्तं वा बिभेति २ जो मिथ्या धर्म में अवस्थित रहकर भी कर्म की तद्भयमोहनीयम् । (शतक. मल. हेम, वृ. ३८)। अल्पता से समीचीन धर्म से द्वेष नहीं करता है उसे ५. यदुदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा बिभेति तद् भयभद्र कहा जाता है।
वेदनीयम् । (कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. ८४)। भद्रा प्रतिमा-भद्रा पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं प्रह- ६. यदुदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा भयमुपगच्छति रचतुष्टयकायोत्सर्गकरणरूपा अहोरात्रद्वयमानेति । तत् भयवेदनीयम् । (धर्मसं. मलय. बू. ६१५) । (स्थाना. अभय, वृ. २,३,८४) ।
७. यदुदयवशात् सनिमित्तमनिमित्तं वा तथारूपस्वपूर्वादि चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में दो दिन संकल्पतो बिभेति तद्भयमोहनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. रात प्रमाण चार प्रहर तक कायोत्सर्ग करना, वृ. २३-२६३, पृ. ४६६; पंचसं. मलय. वृ. ३-५, इसका नाम भद्रा प्रतिमा है।
पृ. ११३)। ८. यदुदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा भद्रा व्याख्या-युक्तिमिः प्रत्यवस्थाय पूर्वापरवि- तथा रूपस्वसंकल्पतः "जीवस्य इह १ परलोया २ रोधपरिहारेण तत्रस्थाशेषार्थव्याख्या भद्रा। (धव. ऽऽदाण ३ मकम्हा ४ आजीव ५ मरण ६ मसिलोय
ल. १०५
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भयनिःसृता असत्या भाषा] ८३४, जैन-लक्षणावली
[भव ७" [पाव. सं. गा. पत्र ६४५-२] इति गाथा- २. मोहनीयोदयात् सात्म-(अस्वास्थ्य-) लक्षणा धोक्तं सप्तविधं भयं भवति तद् भयमोहनीयम् । भयसंज्ञा भयपरिज्ञानं बिभेमीति । (त. भा. हरि. (कर्मवि. दे. स्वो. व. २१)। ६. यदुदयात् त्रास- वृ. २-२५) । ३. भयसंज्ञा भयाभिनिवेशः भयमोहोलक्षण उद्वेग उत्पद्यते तद् भयम् । (त. वृत्ति श्रुत. दयजो जीवपरिणाम एव । इयमपि चतुभिः स्थानः ८-७)।
समुत्पद्यते । तद्यथा -हीणसत्तयाए १ भयमोहणिके उदय से प्राणी को उद्वेग हा ज्जोदएण २ मइए ३ तयट्रोवोगेणं तया । (प्राव. करता है उसे भय प्रकषायवेदनीय कहा जाता है। सू. प्र. ४, हरि. वृ. पृ. ५८०)। ४. भयसंज्ञा भयनोकषाय, भयमोहनीय और भयवेदनीय प्रादि भयात्मिका। (घव. पु. २, पृ. ४१४)। ५. साध्वउसके नामान्तर हैं। ४ जिसके उदय से कुछ सलक्षणा भयसंज्ञा भयपरिज्ञानं बिभेमीति । (त. निमित्त पाकर अथवा बिना निमित्त के भी प्राणी भा. सिद्ध. व. २-२५)। ६. भयसंज्ञा त्रासरूपा। गरता है उसका नाम भयमोहनीय है।
(प्राचारा. नि. शी. वृ. १, १, १, ३६, पृ. ११)। भयनिःसृता असत्या भाषा-सा य भयणिस्सिया ७. भयसंज्ञा भयमोहनीयसम्पाद्यो जीवपरिणामः । खलु जं भासइ भयवसेण विवरीयं । जह णिवगहिरो (स्थाना. अभय. कृ. ४, ४, ३५६)। ८. भयसंज्ञा चोरो नाहं चोरोत्ति भणइ नरो। (भाषार. ४६)। भयवेदनीयोदयजनितत्रासपरिणामरूपा। (जीवाजी. भयभीत होकर जो विपरीत (प्रसत्य) भाषण मलय. व. १३, प्र. १५)। ६. भयसंज्ञा भयं त्रासकिया जाता है वह भयनिःसृत प्रतत्य भाषा कह- रूपं यदनुभूयते । (लोकप्र. ३-४४५)। १०. भयलाती है । जैसे- राजा के द्वारा पकड़ा गया चोर संज्ञा मोहनीयोदयात् भयोत्पादः। (धर्मसं. मान. जो यह कहता है कि मैं चोर नहीं हूं।
३-२७, पृ. ८०)। भयमोहनीय-देखो भय (नोकषायविशेष)। १ अतिशय भयानक पदार्थ के देखने से, उधर उपभयवन्दनादोष-देखो भजमानवन्दनक । १. भयेन योग के जाने से, बल की हीनता से और भयकर्म चैव मरणादिभीतस्य भयसंत्रस्तस्य यद्वन्दनाका[क]- की उदीरणता से जो भीतिरूप परिणाम होता है रणं भयदोषः । (मूला. वृ. ७-१०७) । २. xx उसका नाम भयसंज्ञा है । ३ भय मोहनीय के उदय X भयंति निज्जूहणाईअं॥ (प्रव. सारो. १६१)। से भय के अभिप्रायरूप जो जीवपरिणाम होता है ३. निर्जूहणम् गच्छान्निष्कासनं तवादिकं यद्भयं उसे भयसंज्ञा कहते हैं। वह इन चार स्थानों से तेन यत्र वन्दते तद्भयवन्दनकमाख्यायते। (प्राव. होती है-बल की हीनता, भयमोह का उदय, उस ह. व. मल. हेम. टि. पृ. ८८; प्रव. सारो. वृ. प्रकार की बुद्धि और अोर उस उपयोग की वर्त. १०७)। ४. भयं क्रिया सप्तभयात् xxx ॥ मानता। (अन. ध. ८-१०२)।
भलन-तत्र भलनं न भेतव्यं भवता, अहमेव १ मरण प्रादि के भय से पीड़ित होकर जो वन्दना तद्विषये भलिष्यामीत्यादिवाक्यचौर्यविषयं प्रोत्साकी जाती है वह भय नामक वन्दनादोष से कलुषित हनम् । (प्रश्नव्या. अभय. व. पृ. १६३, श्राद्धगु होती है । उसे भयवन्दनक भी कहा जाता है। पृ. १०)। भयविनय-दुष्प्रधर्षन्नृपति-सामन्तादेः प्राणादिभ- 'पापको डरना नहीं चाहिए, उसके विषय में मैं ही
नूवर्तनं भयविनयः। (उत्तरा. शा.व. २६१७)। सम्हालंगा' इत्यादि वाक्यों द्वारा चोरी के विषय मरण आदि के भय से जो दुर्योध्य राजा के सामन्त में जो प्रोत्साहित किया जाता है उसका नाम प्रादि के प्रति अनूकूल प्रवृत्ति की जाती है उसे भय- भलन है। विनय कहा जाता है।
भव-१. अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावभयवेदनीय—देखो भय (नोकषायविशेष)। सामि भवम् । (रत्नक. १०४) । २. आयुर्नामकर्मोभयसंज्ञा-१. अइभीमदंसणेण य तस्सुवोगेण दयनिमित्त प्रात्मनः पर्यायो भवः । (स. सि. १, ऊणसत्तेण । भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायदे २१)। ३. भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः चरहिं । (प्रा. पंचसं. १-५३; गो. जी. १३५)। इति भवः । (प्राव. नि. हरि. वृ. २५; नन्दी हरि.
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भव]
८३५, जेन-लक्षणावली
[भवपरिवर्तन वृ. पृ. २६; श्रा. प्र. टी. ४८; पंचसू. हरि. ध्या. अणुयोगद्दारं केण कम्मेण णेरइय-तिरिक्ख-मणुसप. २)। ४. प्राय मकर्मोदयविशेषापादितपर्यायो देवभवा धरिजति त्ति परूवेदि। (धव. पु. ६, पृ. भवः। प्रात्मनो यः पर्यायः प्रायूषो नाम्नश्चोदय- २३५) । विशेषाच्छेषकारणापेक्षादाविर्भवति साधारणलक्षणो किस कर्म के उदय से जीव नारकी, तियंच, मनुष्य भव इत्युच्यते । (त. वा. १, २१, १) । ५. उत्तरो- और देव की पर्याय को धारण किया करते हैं। त्तरदेहस्य पूर्वपूर्वधियो भवः । (न्यायवि. २-७२, पृ. इसकी प्ररूपणा जिस अनुयोगद्वार में की जाती है १०२)। ६. पूर्वशरीरपरित्यागद्वारेणोत्तरशरीरोपादा- उसका नाम भवधारणीय अनुयोगद्वार है । यह कर्मनं भवः । (धव. पु. १४, पृ. ४२५); उप्पण्णपढम- प्रकृतिप्राभूत के कृति प्रादि चौबीस अनुयोगद्वारों में समयप्पहुडि जाव चरिमसमो त्ति जो अवत्थावि- अठारहवां अनुयोगद्वार है। सेसो सो भवो णाम । (धव. पु. १५, पृ. ६-७)। भवन-१. वलहि-कूडविवज्जिया सुर-णरावासा ७. नामायुरुदयापेक्षो नुः पर्यायो भवः स्मृतः । (त. भवणाणि णाम । (धव. पु. १४, पृ. ४६५)। श्लो. १, २१, २)। ८. आयुष्कर्मोदयनिमित्तको २. भवनं त्वायामापेक्षया पादोनसमच्छ यमेव । जीवस्य पर्यायः भवः । (त. वृत्ति श्रुत. १-२१)। (विपाक. अभय. वृ. २-१)। १ जीव को जो अवस्था रक्षण से रहित, अशुभ, १ जो देवों और मनुष्यों के निवासस्थान छज्जे विनश्वर, दुःखस्वरूप और प्रात्मस्वरूप से भिन्न और कूट से रहित होते हैं उन्हें भवन कहा जाता होती है उसका नाम भव (संसार) है। २ प्रायु है। २ लम्बाई की अपेक्षा जिसकी ऊंचाई एक नामक कर्म के उदय के निमित्त से जो जीव की चौथाई कम हुआ करती है वह भवन कहलाता है । अवस्था होती है उसे भव कहते हैं। ३ जिसमें भवनवासी-१. भवनेषु वसन्तीत्येवं शीला भवनप्राणी कर्म के वशीभूत होते हैं उसे भव कहा वासिनः । (स. सि. ४-१०, बृहत्सं. मलय. व. २3 आता है।
प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-३८) । २. भवनेषु वसन्तीति भवक्षयनिबन्धन प्रतिपात--तत्थ भवक्खयणि- भवनवासिनः । (त. भा. ४-११)। ३. भवनेषु बंधणो णाम उवसमसेढिसिहरमारूढस्य तत्थेव झी- वसनशीला भवनवासिनः । भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला णाउअस्स कालं काढूण कसाएसु पडिवादो। (जयध. भवनवासिन इति प्रथमनिकायस्येयं सामान्यसंज्ञा । -कसायपा. पृ. ७१४, टि. २)।
(त. वा. ४, १०, १)। ४. भवनवासिनामकर्मोदये उपशमश्रेणी के शिखर पर चढ़े हुए, अर्थात् ग्यारहवें सति भवनेषु वसनशीला भवनवासिनः । (त. श्लो. गुणस्थानवर्ती, जीव का प्रायु का क्षय हो जाने से ४-१०) । ५. भवनेषु वसन्तीत्येवंस्वभावाः भवनमरण को प्राप्त होकर जो कषायों में पतन होता वासिनः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-१०)। है उसे भवक्षयप्रतिपात कहते हैं।
१जो देव स्वभावतः भवनों में निवास करते हैं वे भवग्रहणभव - गलिदभुज्जमाणाउअस्स उदिण्ण- भवनवासी कहलाते हैं । ४ भवनवासी नामकर्म के अपुव्वाउकम्मस्स पढमसमए उप्पण्णजीवपरिणामो उदय से भवनों में रहने वाले देवों को भवनवासी वंजणसण्णिदो पुव्वसरीरपरिच्चाएण उत्तरसरीरगह- कहा जाता है। णं वा भवग्गहणभवो णाम । (धव. पु. १६, पृ. भवपरिवर्तन--देखो भवसंसार । १. नरकगतौ ५१२)।
सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि, तेनायुषा तत्रोत्पन्नः जीवनकाल का नाम भवनग्रहण है। जिसकी भुज्य- पुनः परिभ्रम्य तेनैवायुषा जातः, एवं दशवर्षसहस्रामान प्रायु क्षीण हो चुकी है तथा अपूर्व प्रायु उदयको णां यावन्तः समयास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जातो मृतः प्राप्त हो चुकी है उसके प्रथम समय में जो व्यञ्जन पुनरेकैकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिशत्सागरोषमाणि नामक परिणाम होता है उसको, अथवा पूर्वशरीर परिसमापितानि । ततः प्रच्युत्य तिर्यग्गतावन्तर्मुहूर्तायुः को छोड़कर नवीन शरीर के ग्रहण करने को भव- समुत्पन्न: पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त्रीणि पल्योपमानि तेन ग्रहणभव कहा जाता है।
परिसमापितानि । एवं मनुष्यगतौ च । देवगतौ नारकभवधारणीय अनुयोगद्वार-भवधारणीय ति वत् । अयं तु विशेषः--एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परि
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भवपरिवर्तन ८३६, जैन-लक्षणावली
[भवलोक समापितानि यावत्तावद्भवपरिवर्तनम् । (स. सि. हरि. व. पृ. २९) । २. भव उत्पत्तिः प्रादुर्भावः, स २-१०; मूला. वृ. ८-१४)। २. णिराउा प्रत्ययः कारणं यस्य अवधिज्ञानस्य तद् भवप्रत्ययजहण्णा जाव दु उवरिल्लग्नो दु गेवज्जो । जीवो कम् । (धव. पु. १३, पृ. २६०)। ३. स (भवः) मिच्छत्तवसा भवद्विदि हिडिदो बहसो। (धव. पु.४, बहिःप्रत्ययो यस्य स भवप्रत्ययोऽवधिः । (त. श्लो. प. ३३३ उद्.)। ३. रइयादिगदीणं अवरदिदिदो १, २१, २)। ४. भवप्रत्ययं बहिरंगदेवभव-नारकवरदिदी जाव । सव्व दिदिसु वि जम्मदि जीवो गेव- भवप्रत्ययनिमित्तत्वात, तद्धावे भावात तदभावेऽभाज्जपज्जंतं । (कार्तिके. ७०)। ४. नरकगतौ सर्व वात्, तत्तु देशावधिज्ञानमेव । (प्रमाणप. प. ६६)। जघन्यायुर्दशसहस्रवर्षाणि, तेनायुषा तत्रोत्पन्नः ५ भवः प्रत्ययो यस्य स भवप्रत्ययः । अवश्यं ह्यपुन: संसारे भ्रान्त्वा तेनैवायुषा तत्रैवोत्पन्नः, एवं दश- त्पन्नमात्रस्यैव देवस्य नारकस्य वा सोऽवधिरुद्भवति, सहस्रवर्षसमयवारं तत्र वोत्पन्नो मृतः, पुनः एकैक- एतावता स भवप्रत्यय इत्यभिधीयते, तद्भावे भावात् समयाधिकभावेन त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि परिसमा- तदभावे चाभावात् इति । (त. भा. सिद्ध. वृ. १, प्यन्ते । पश्चात् तिर्यग्गतौ अन्तर्मुहर्तायुषा उत्पन्नः, २१)। ६. तत्र भबन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोप्राग्वत् अन्तर्महर्तसमयवारमत्पन्न उपरि समयाधिक- ऽस्मिन्निति भवो नारकादिजन्म Xxx, भव भावेन त्रिपल्योपमानि तेनैव जीवन परिसमाप्यन्ते । एव प्रत्ययः कारणं यस्य स भवप्रत्ययः । प्रत्ययएवं मनुष्यगतावपि त्रिपल्योपमानि तेनैव जीवेन परि- शब्दश्चेह कारणपर्यायः,Xxx स एव स्वार्थिकसमाप्यन्ते । नरकगतिवद्देवगतावपि दशसहस्रवर्ष- क-प्रत्यय विधानात् भवप्रत्ययकः । (प्रज्ञाप. मलय. समयसमाप्तेरुपरि समयोत्तरक्रमेण एकत्रिंशत्सागरो. वृ. ३१७, पृ. ५३६)। पमाणि समाप्यन्ते । एवं भ्रान्त्वागत्य पूर्वोक्तजघन्य- १ प्राणी जिसमें कर्म के वशीभूत होते हैं उसका स्थितिको नारको जायते । तदा तदेतत्सर्वं भवपरि- नाम भव है जो नारकादि अवस्थास्वरूप है, यह वर्तनं भवति । (गो. जी. जी. प्र. ५६०)। भव जिस अवधिज्ञान का कारण है वह भवप्रत्यय १ नरकगति में सबसे जघन्य प्रायु दस हजार वर्ष अवधिज्ञान कहलाता है। है। इस प्रायु के साथ कोई जीव वहां उत्पन्न हुना, भवप्रत्यय-प्रकृतियां-भवप्रत्ययाः भवन्ति अस्मिन पश्चात् परिभ्रमण करके फिर से भी उसी प्राय के कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः, स च नारकादिसाथ वहीं पर उत्पन्न हुना, इस प्रकार से १०००० लक्षणः, स एव प्रत्ययः कारणं यासां अवधिज्ञानवर्षों के जितने समय हैं उतने बार वहीं उत्पन्न प्रकृतीना ताः भवप्रत्ययाः पक्षिणां गगनगमनवत्, हुमा और मरा, फिर एक एक समय अधिक के ताश्च नारकामराणामेव । (प्राव. नि. हरि. व. क्रम से तेतीस सागरोपमों को वहां समाप्त किया। २५)। तत्पश्चात् नरकगति से निकल कर अन्तर्मुहूर्त प्रायु जिन अवधिज्ञानप्रकृतियों का कारण नारकादि जन्म के साथ तिर्यञ्चगति में उत्पन्न हुआ, वहां हुआ करता है वे कर्मप्रकृतियां भवप्रत्ययप्रकृतियां पूर्वोक्त क्रम से तीन पल्योपमों को उसने समाप्त कहलाती हैं। किया। तिर्यञ्चगति के समान मनुष्यगति में भी भव-मरण-यस्मिन् भवे तिर्यग्मनुष्यभवलक्षणे उसने तीन पल्योपमों को समाप्त किया। देवगति में वर्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बद्धवा पुनः तत्क्षयेण उत्पन्न होने व मरने का क्रम नरकगति के समान म्रियमाणस्य यद्भवति । (समवा. अभय. वृ. १७)। है। विशेष इतना है कि वहां पर ३३ सागरोपमों जीव जिस नारकादि भव में रह रहा है उसके के स्थान में ३१ सागरोपमों को समाप्त किया। योग्य प्रायु को बांधकर पश्चात् उसके क्षीण होने इस परिभ्रमण में जितना समय व्यतीत हा उतने पर जो मरण होता है वह विवक्षित भवमरण कहसमय का नाम भवपरिवर्तन है।
लाता है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान-१. भवन्त्यस्मिन् कर्म- भवलोक - १. रइय-देव-माणुसतिरिक्खजोणि वशवर्तिनः प्राणिन इति भवः, नरकादिजन्मेति भावः, गदा य जे सत्ता। णिययभवे वट्टता भवलोगं तं भव एव प्रत्ययः कारणं यस्य तद्भवप्रत्ययम् । (नन्दी. विप्राणाहि ॥ (मूला. ७-५२) । २. नेरइय-देव
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भवविचय धर्मध्यान ]
८३७, जैन - लक्षणावली रिक्खोणीया य जे सत्ता । तम्मि भवे वट्टता भवलोगं तं विश्राणाहि ॥ (श्राव. भा. २०१, पृ. ५६३) । ३. नैरयिक- देव मनुष्यास्ति र्यग्योनिगताश्च ये सत्त्वाः प्राणिनस्तस्मिन् भवे वर्तमाना यदनुभावमनुभवन्ति तं भवलोकं जानीहि भव एव लोको भवलोक इति व्युत्पत्तेः । मलय. वृ. २०१, पृ. ५६३ ) ।
श्राव. भा.
१ नारक, देव, मनुष्य और तिर्यच श्रवस्था को प्राप्त प्राणी जो अपने उस भव में रहते हैं उसे भवलोक जानना चाहिए ।
भवविचय धर्मध्यान - १. प्रेत्यभावो भवोऽमीषां चतुर्गतिषु देहिनाम् । दुःखात्मेत्यादिचिन्ता तु भवादिविचयं पुनः ।। (ह. पुं. ५६-४७ ) । २. भवविचयं सचित्ताचित्त-मिश्र-शीतोष्ण मिश्र - संवृत- विवृत- मिश्रभेदासु योनिषु जरायुजाण्डज-पोतोपपाद- सम्मूर्च्छनजन्मनो जीवस्य भवाद्भवान्तरसंक्रमण इषुगति-पाणिमुक्ता- लांगलिका- गोमूत्रिकाश्चतस्रो गतयो भवन्ति । XXX एवमनादिसंसारे सन्धावतो जीवस्य गुणविशेषानुपलब्धितस्तस्य भवसंक्रमणं निरर्थकमित्येवमादिभवसंक्रमणदोषानुनिन्तनं सप्तमं धर्म्यम् । (चा. सा. पृ. ७८ कार्तिके. टी. ४८२ ) । १ चार गतियों में परिभ्रमण करने वाले प्राणियों का जो परलोकगमन - अन्य श्रन्य जन्म की प्राप्ति रूप भव है - वह दुखरूप है, इस प्रकार के चिन्तन का नाम भवविचय धर्मध्यान है । यह धर्मध्यान के दस भेदों में सातवां है । भवविपाक — भवे नारका दिरूपे स्व-स्वयोग्ये विपाकः फलदानाभिमुखता भवविपाकः । ( पंचसं मलय., वृ. ३ - २४, पृ. १२९ ) । अपने-अपने योग्य नारक आदि भव में जो कर्मगत फल देने की अभिमुखता है उसका नाम भवविपाक है ।
भबविपाकिनी प्रकृतियाँ - १. उचितभवप्राप्तावेव विपाको यासां ता भवविपाकिन्यः । (पंचसं. च. स्वो वृ. ३-४६ ) । २. भवे नारकादिरूपे स्वयोग्ये विपाकः फलदानाभिमुख्यं यासां ता भवविपाकिन्यः । ( कर्मप्र. यशो. वृ. १, पृ. १२) ।
१ जिन कर्मप्रकृतियों का विपाक — फलदानोन्मुखता - उचित भव की प्राप्ति होने पर ही होती है उनको भवविपाकिनी प्रकृतियाँ कहा जाता है ।
[भवसिद्धिक
भवविमोचक —भवाद् दुःखबहुलकुयोनिलक्षणाद् दुःखितजीवान् काक-शृगाल- पिपीलिका-मक्षिकादीस्तथाविध- कुत्सितसंस्कारात् प्राणव्यपरोपणेन मोचयत्युत्तारयतीति भवविमोचकः पाखण्डिविशेषः । ( उपदे. प. मु. वृ. १८८ ) ।
जो उस प्रकार के कुसंस्कार के वश कौवा, गीदड़, चींटी और मक्खी श्रादि प्राणियों को प्रचुर दुःखों से परिपूर्ण कुयोनि रूप भव से प्राणविघात के द्वारा मुक्त करता है-उनका उद्धार करता है— उसे भवविमोचक कहा जाता है। यह एक पाखण्डी सम्प्रदायविशेष है ।
भवसंसार - देखो भवपरिवर्तन - १. णिरयाउज हण्णादिसु जाव दु उवरिल्लवा [ या ] दु गेवेज्जा | मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवट्टिदी भमिदा । ( द्वादशानु. २८ स. सि. २- १० उद्) । २. प्रभेदरत्नत्रयात्मकसमाधिबलेन सिद्धगतौ स्वात्मोपलब्धिलक्षण सिद्धपर्यायरूपेण योऽसावुत्पादो भवस्तं विहाय नारक- तिर्यग्मनुष्यभवेषु तथैव देवभवेषु च निश्चयरत्नधयभावनारहितभोगाकांक्षानिदानपूर्वकद्रव्यतपश्चरणरूप जिनदीक्षाबलेन नवग्रैवेयकपर्यन्तं "सक्को सक्क्कम हिस्सी दक्खिणइंदा य लोयवाला य। लोयंतिया देवा तत्थ चुदा णिव्वुद्दि जंति ॥ [ मुला. १२-१४२]" इति गाथाकथितपदानि तधागमनिषिद्धान्यपदानि च त्यक्त्वा भवविध्वंसकनिज • शुद्धात्मभावनारहितो भवोत्पादक मिथ्यात्व - रागादि • भावनासहितश्च सन्नयं जीवोऽनन्तवारान् जीवितो मृतश्चेति भवसंसारो ज्ञातव्य: । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३५, पृ. ६० ) । ३. दशवर्षसहस्रजघन्यायुः प्रभृतिसमयोत्तरवृद्धिक्रमसमापितोत्कृष्टायुःस्थितिकपर्यायवृत्तिभवसंसारः । (भ. आ. मूला. ४३० ) ।
१ मिथ्यात्व के श्राश्रित होकर जीव जघन्य, नारक श्रायु ( १०००० वर्ष ) से लेकर समयाधिक के क्रम से उपरिम ग्रैवेयक तक जो बहुत प्रकार से समस्त भवों की स्थिति पर्यन्त परिभ्रमण करता है, उसका नाम भवसंसार है । भवसिद्धिक- देखो भव्य । १. भवा भाविनी सिद्धि: मुक्तिर्येषां ते भवसिद्धिका भव्याः । ( समवा. अभय वृ. २, पृ. ७) । २. भविष्यतीति भवा भाविनी सा सिद्धिनिवृतिर्येषां ते भवसिद्धिकाः भव्याः | ( स्थाना. अभय वृ. १-५१) ।
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भवस्थकेवलज्ञान] ८३८, जैन-लक्षणावली
[भव्य १ भविष्य में जिनको मुक्ति प्राप्त होने वाली है वे (व्यव. भा. पी. द्वि. वि. १२, पृ. ६)। २. भवं भवसिद्धिक कहलाते हैं।
नारकादि, भवं क्षपयन् भवान्तः भवमन्तयति भवभवस्थकेवलज्ञान-यद् मनुष्यभवे अवस्थितस्य स्यान्तं करोतीति व्युत्पत्तेः। (व्यव. भा. पो. द्वि. चतुर्वघातिकर्मस्वक्षीणेषु केवलज्ञानं तद् भवस्थकेव- वि. मलय. वृ. १२, पृ. ६) । लज्ञानम् । (प्राव. नि. मलय. व. ७८, पृ. ८३)। जो जीव नारकादि भव का-संसार का-क्षय कर मनष्य भव में स्थित जीव के चार अधातिया कर्मो रहा है उसे भवान्त कहते हैं। के क्षीण न होने पर उनके विद्यमान रहते हुए- भवाभिनन्दी-क्षुद्रो लाभरतिर्दीनो मत्सरी भयजो केवलज्ञान होता है वह भवस्थकेवलज्ञान कह- वान् शठः । अज्ञो भवाभिनन्दी स्यान्निष्फलारम्भलाता है।
संगतः । (योगदृ. ७६) । भवस्थिति-१. भवविषया स्थितिः भवस्थितिः ।
क्षुद्र, (कृपण), लाभ में अनुराग रखने वाला (त. वा. ३, ३६, ६)। २. का भवट्ठिदी णाम ?
(याचक), दीन, ईर्ष्यालु, सदा भयभीत रहने वाला, पाउट्ठिदिसमूहो । (धव. पु. ४, पृ. ३६८)।
शठ (मायावी), मूर्ख और निरर्थक प्रारम्भ में रत १ भवविषयक स्थिति का नाम भवस्थिति है । २
रहने वाला जीव भवाभिनन्दी-संसार को बहुत पायुस्थितियों के समूह को भवस्थिति कहते हैं।
मानने वाला होता है।
भविष्यत्काल-१. तदेव वय॑स्थितिसम्बन्धभवस्थितिकाल-भवे एकस्मिन् स्थितिर्भवस्थि
वर्तनापेक्षं भविष्यदिति व्यपदिश्यते, कालाणुश्च तिस्तस्याः कालो भवस्थितिकालः । (पंचसं. मलय.
भविष्यन्निति । (त. वा. ५, २२, २५) । २. भविवृ. २-३४, पृ. ७०)।
ष्यतीति भविष्यत् । (धव. पु. १३, पृ. २८६)। एक भव में जो अवस्थान होता है उसके काल को
१ वही क्रियापरिणत द्रव्य पागे वर्तने वाली स्थिति भवस्थितिकाल कहते हैं।
के सम्बन्ध से वर्तना की अपेक्षा रखता हुआ भवाननुगामी अवधिज्ञान-१. जं (प्रोहिणाणं) भविष्यकाल कहलाता है। भवंतरं ण गच्छदि, खेत्तंतरं चेव गच्छदि; तं भवा- भव्य ---१. सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति णणुगामी णाम । (धव. पु. १३, पृ. २६४)। भव्यः । (स. सि. २-६); सम्यग्दर्शनादिभिर्व्यक्ति२. यद्भवान्तरं न गच्छति स्वोत्पन्नभवे एव विनश्यति, यस्य भविष्यतीति भव्यः । (स. सि. ८-६)। क्षेत्रान्तरं गच्छतु मा वा, तत् भवाननुगामि । (गो. २. अर्हद्भिः प्रोक्ततत्त्वेषु प्रत्ययं संप्रकुर्वते । श्रद्धाजी. म. प्र. व जी. प्र. ३७२)।
वन्तश्च तेष्वेव रोचन्ते ते च नित्यशः।। अनादिनिधने १ जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के भव से अन्य भव
काले निर्यास्यन्ति त्रिभिर्युताः । भव्यास्ते च समाख्यामें नहीं जाता है, क्षेत्रान्तर में हो जाता है। उसे
ता हेमधातुसमाः स्मृताः ।। (वरांगच. २६, १०-११)। भवाननुगामी अवधिज्ञान कहते हैं।
३. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रपरिणामेन भविष्यतीति भवानुगामी-१. जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं तेण भव्यः । भव्यादीनां प्रायेण भविष्यत्कालविषयत्वात् जीवेण सह अण्णभवं गच्छदि तं भवाणुगामी णाम। सम्यग्दर्शनादिपर्यायेण य आत्मा भविष्यति स भव्य (धव. पु. १३, २६४) । २. यत्स्वोत्पन्नभवादन्यः इतीमं व्यपदेशमास्कन्दति । (त. वा. २, ७,७); स्मिन् भवेऽपि वर्तमान जीवमनुगच्छति तद् भवानु- निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः । (त. वा. ६, ७, ११)। गामि । (गो. जी. म. प्र. ३७२) । ३. यत् उत्पत्ति. ४. भव्वा जिणेहि भणिया इह खलु जे सिद्धिगमणभवादन्यभवे स्वस्वामिनमनुगच्छति तद्भवानुगामी जोगाउ। ते पुण प्रणाइपरिणामभावप्रो हुंति नायभवति । (गो. जी. जी. प्र. ३७२) ।
व्वा ।। (श्रा. प्र. ६६)। ५. भव्याः अनादिपारि१ जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता हुमा उस जीव के णामिकभव्यभावयुक्ताः । (नन्दी. हरि, वृ. पृ. साथ अन्य भव में जाता है उसका नाम भवान- ११४)। ६. भव्यत्वं नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वमनागामी है ।
दिपरिणामिको भावः । (ललितवि. पृ. २८; पञ्चभवान्त-१. Xxx भवं खवंतो भवंतो य। सूत्र हरि. ३. पृ. ३; ध. बि. मु. वृ. २-६८)।
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भव्य
८३६, जैन-लक्षणावली [भव्यशरीरद्रव्यावश्यक ७. निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः । उक्तं च--सिद्धत्तणस्स भव्यद्रव्यदेव-जे भविय पंचिदियतिरिक्खजोणिए जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा। ण उ मल- वा मणुस्से वा देवेसु उववज्जित्तए से तेणद्वेणं विगमे णियमो ताणं कणगोपलाणमिव ॥ (धव. पु. गोयमा एवं वुच्चइ भवियदव्वदेवा। (भगवती. १२, १, पृ. १५०) । ८. भव्या सिद्धिर्यस्यासौ भव्यः। ६, १, पृ. १७६४) । (त. भा. सिद्ध.व २-७)। ६. भविष्यत्सिद्धत्व- जो पंचेन्द्रिय तिथंच या मनुष्य देवों में उत्पन्न होने
हि भव्याः। (भ. प्रा. विजयो. २५)। वाले होते हैं उन्हें भविक (भावी) द्रव्यदेव कहा १०. भविष्यत्सिद्धिको भव्यः सुवर्णोपलसन्निभः। जाता है। (म. पु. २४-१२८; जम्बू. च. ३६६)। ११. भव्यनोप्रागमद्रव्यमङ्गल -- भव्यनोप्रागमद्रव्यं भव्याः सिद्धत्वयोग्याः स्युः xxx ॥ (त. सा. भविष्यत्काले मङ्गलप्राभृतज्ञायको जीवः मङ्गल२-६०)। १२. भविष्यति तेन तेनावस्थात्मना सत्तां पर्यायं परिणंस्यतीति वा । (धव. पु. १, पृ. २६)। प्राप्स्यति यः स भव्यो जीवः । (उत्तरा. नि. शा.. जो जीव भविष्य में मंगलप्राभत का ज्ञाता अथवा ६६, पृ. ७२)। १३.xxx भव्वा निव्वाणगमण- मंगलपर्याय से परिणत होने वाला है उसे भव्यरिहा ॥ (षडशी. जिन. ६२)। १४. भविष्यति विव- नोप्रागमद्रव्यमंगल कहा जाता है। क्षितपर्यायेणेति भव्यः । (ललित. मु. वृ. पृ. २८)। भव्यशरीरद्रव्यमङ्गल-भव्यो योग्यः, मंगल१५. भव्यः तथाविधानादिपारिणामिकभावात् सिद्धि- पदार्थ ज्ञास्यति यो न तावद्विजानाति स भव्य इति, गमनयोग्यः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ.१.१)। १६. भव्य- तस्य शरीरं भव्यशरीरम्, भव्यशरीरमेव द्रव्यमंगस्तथारूपानादिपारिणामिकभावात सिद्धिगमनयोग्यः। लम्, अथवा भव्यशरीरं च तद् द्रव्यमंगलं चेति (पञ्चसं.मलय.वृ.१-८, पृ. १२)। १७. भव्यः समासः । अयं भावार्थः-भाविनी वृत्तिमङ्गीकृत्य सिद्धिगमनयोग्यः। (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. ७१४)। मङ्गलोपयोगाधारत्वात् मधुघटादिन्यायेनैव तत् १८. मोक्षहेतुरत्नत्रयरूपेण भविष्यति परिणस्यतीति बालादिशरीरं भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलमिति । (प्राव. भव्यः । (लघीय. अभय. वृ. पृ. ६६) १६. रयणत्त- हरि. व. पृ. ५)। यसिद्धीए अणंतचउट्टयसरूवगो भवितुं । जुग्गो जीवो भव्य का अर्थ योग्य होता है, जो जीव मंगल पदार्थ भव्यो xxx। (भावत्रि. १४)। २०. सामग्री- के जानने के योग्य है-भविष्य में उसका ज्ञान बिशेषः रत्नत्रयानन्तचतुष्टयस्वरूपेण परिणाममितुं प्राप्त करने वाला है, किन्तु बर्तमान में उसे नहीं योग्यो भव्यः । (गो. जी. जी. प्र. ७०४)। जानता है उसे भव्य और उसके शरीर को भव्य १ जो जीव भविष्य में सम्यग्दर्शनादिस्वरूप से शरीर कहते हैं। इस भव्यशरीर का नाम हो परिणत होने वाला है उसे भव्य कहते हैं। ४ जो भव्यशरीरद्रव्यमंगल है। अनादि पारिणामिक भाव (भव्यत्व) से मुक्ति भव्यशरीरद्रव्यावश्यक-१. से कि त भविप्रप्राप्त करने के योग्य होते हैं वे भव्य कहलाते हैं। सरीरदब्वावस्सयं? जे जीवे जोणिजम्मणनि१२ जो उस उस अवस्थास्वरूप से सत्ता को आगे क्खंते इमेणं चेव प्रात्तएणं सरीरसमस्सएण जिणोवा प्राप्त करने वाला है उसे भव्य कहा जाता है। यह दिठेणं आवस्सएत्ति पयं सेयकाले सिक्खिस्सइन नोमागमद्रव्य निक्षेप के अन्तर्गत है।
ताव सिक्खइ, जहा को दिलैंतो अयं महकुंभे भवित भव्यत्व-देखो भव्य ।
स्सइ अयं घयकुंभे भविस्सइ, से तं भविग्रसरीरदन भव्यदिवाकर-सुप्रभातं सदा यस्य केवलज्ञानर- व्वावस्सयं । (अनुयो. सू. १७, पृ. २१)। २. भव्यो श्मिना । लोकालोकप्रकाशेन सोऽस्त भव्यदिवाकरः। योग्यो दलं पात्रमिति पर्यायाः, तस्य शरीरं तदेव (प्राप्तस्व. १२)।
भाविभावाऽऽवश्यककारणत्वात् द्रव्यावश्यकं भव्यजिसका सुन्दर प्रभात (सबेरा) लोक व अलोक शरीरद्रव्यावश्यकम्, यो जीवो योन्या अवाच्यदेशल को प्रकाशित करने वाली केवलज्ञान की किरण से। क्षणया जन्मत्वेन सकलनिर्वृत्तिलक्षणेन, अनेनामग -केवलज्ञानरूप सूर्योदय के साथ होता है वह भव्यवच्छेदमाह, निष्क्रान्तो निर्गतोऽने व शरीरस. भव्य-दिवाकर कहलाता है।
मुच्छ्रयेणेति पूर्ववत्, पादत्तेन गृहीतेन, अन्ये त्वभिः
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भव्यशरीरद्रव्योपक्रम ]
दधति अत्तणं त्ति आत्मीयेन जिनदृष्टेन भावेनेत्यादि पूर्ववत्, अथवा तदावरणक्षयोपशमलक्षणेन सेयकाले ति छान्दसत्वादागामिनि काले शिक्षिव्यते न तावच्छिक्षते, तदेतद् भाविनीं वृत्तिमङ्गीकृत्य भव्यशरीरद्रव्यावश्यकमित्युच्यते । ( श्रनुयो. हरि वृ. पू. १५) ।
१ जो जीव योनिजन्म से निकलने पर - गर्भ से बाहिर आने पर प्राप्त शरीर के श्राश्रय से जिनोपदिष्ट भाव से श्रावश्यक इस पद को सीखेगा भविष्य में उसका ज्ञान प्राप्त करेगा, किन्तु वर्तमान में नहीं सीखता है; वह भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यावश्यक कहलाता है ।
भव्यशरीरद्रव्योपक्रम - यस्तु बालको नेदानीमुपक्रमशब्दार्थमवबुध्यते, अथ चाऽवश्यमायत्यां भोत्स्यते, संभावनाभाविनिबन्धनत्वाद् भव्यशरीरद्रव्यो'पक्रमः । | ( व्यव. भा. १, पू. १ जम्बूद्वी. शा. वृ. पृ. ५) ।
जो बालक उपक्रम शब्दार्थ को अभी तो नहीं जान रहा है, किन्तु भविष्य में वह उसे श्रवश्य जानेगा; इस प्रकार भविष्य में सम्भावना का कारण होने 'से उसे भव्यशरीरद्रव्योपक्रम कहा जाता है । भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यश्रुत-से किं तं भविअशरीरदव्वसु ? जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खते जहा दव्वावस्सए तहा भाणिश्रव्वं जाव से तं भवि
सरीरदव्वसु । ( श्रनुयो. सू. ३६, पृ. ३३) । जो जीव योनिजन्म से निकलने पर प्राप्त शरीर के श्राश्रय से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार श्रुत पदार्थ को नहीं जानता है, पर भविष्य में उसे जानेगा; उसे भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यश्रुत कहा जाता है ।
८४०, जैन-लक्षणावली
भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यानुपूर्वी- -- से किं तं भवियसरी रदव्वाणुपुव्वी ? जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खते सेसं जहा दव्वावस्सए जाव से तं भविश्र सरीरदव्वाणुपुव्वी । (अनुयो. सू. ७२, पृ. ५२ ) । जो जीब योनिजन्म से निकलने पर प्राप्त शरीर के श्राश्रय से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार श्रनुपूर्वी पद को वर्तमान में तो नहीं जानता है, किन्तु भविष्य में उसे अवश्य जानेगा, उसे भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यानुपूर्वी कहते हैं ।
भव्य सिद्ध - १. भव्याः भविष्यन्तीति सिद्धिर्येषां
[भाटकजीविका
ते भव्यसिद्धयः । ( धव. पु. १, पृ. ३६२ ) ; भविया सिद्धी जेसि जीवाणं ते भवंति भवसिद्धा । (धव. पु. १, पृ. ३६४ उद्) । २. भव्या भवितुं योग्या भाविनी या सिद्धि: अनन्तचतुष्टय स्वरूपोपलब्धिर्येषां ते भव्यसिद्धाः । (गो. जी. जी. प्र. ५५७ ) । १ जिनको भविष्य में सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त होने वाली है वे भव्यसिद्ध कहलाते हैं । भव्यस्पर्श-जहा विस-कूड-जंत-पंजर-कंदय-वग्गुराणिकत्ता समोद्दियारो य भवियो फुसणदाए णय पुण तावतं फुसदि सो सव्वो भवियफासो णाम । ( षट्खं. ५, ३, ३०, पु. १३, पृ. ३४) । विष, कूट, यन्त्र, पंजर, कन्दक और वागुरा आदि; उनके कर्ता (निर्माता) तथा उन्हें इच्छित प्रदेश में रखने वाले; जो स्पर्श के योग्य हैं पर वर्तमान में स्पर्श नहीं करते हैं, उन सबको कारण में कार्य के उपचार से भव्यस्पर्श कहा जाता है । भाक्तिक- यो धर्मधारिणां धत्ते स्वयं सेवापरायणः । निरालस्योऽशठः शान्तो भाक्तिकः समतो बुधैः ॥ ( श्रमित. श्री. ६-४ ) ।
जो धर्म के धारक महापुरुषों को सेवा में स्वयं तत्पर होकर उन्हें धारण करता है तथा आलस्य से रहित होकर सरल व शान्त होता है वह भाक्तिक माना गया है ।
भाजन सम्पात श्रन्तराय - १. x x x संपादो भायणाणं च ।। (मूला. ६-७८ ) । २. तथा सम्पातो भाजनस्य परिवेषिक हस्ताद् भाजनं यदि पतेत् । (मूला. वृ. ६-७८ ) ।
१ परोसने वाले के हाथ से पात्र के गिर जाने पर साधु के भोजन में भाजनसम्पात नाम का प्रन्तराय होता है ।
भाटकजीविका १. भाडीकम्मं सएण भंडोववखरेण भाइएण वहइ, परायगं ण कप्पति अण्णेसि वा सगडं बलद्दे य न देति । (श्राव. ६, पृ. ८२६; श्रा. प्र. टी. २८८ ) । २. शकटोक्ष- लुलायोष्ट्र-खराश्वतर- वाजिनाम् । भारस्य वाहनाद् वृत्तिर्भवेद्भाटकजीविका ॥ (योगशा. ३-१०५; त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३३९ ) । ३. भाटकजीविका शकटादिभारवाहनमूल्येन जीवनम् । (सा. ध. स्वो टी. ५, २१) ।
२ गाड़ी, बैल, भैसा, ऊंट, गधा, खच्चर और घोड़ा;
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भाटीकर्म ]
[भाबकाय
द्भावमात्रं वा विनयाश्रयः ॥ ( श्राचा. सा. ६ - १७) । १०. भावो जीवस्याध्यवसायः । ( व्यव. भा. मलय. बृ. १ - ३६, पृ. १६) । ११. भवनं मावः विवक्षितरूपेण परिणमनम्, यदि वा भवतीति भावः । (श्राव. मलय. वृ. पृ. ९ ) । १२. भवनं भावो जीवस्यावस्थान्तरभावित्वम् । (पंचसं. मलय. वृ. ३-१६४, पृ. ५० ) । १३. भावश्चारित्रादिकः परिणामः । ( बृहत्क. क्षे. वृ. २१५० ) । १४. भावस्तत्परिणामो ऽस्ति धारावाह्येकवस्तुनि ॥ ( पंचाध्या. २ - २६ ) | १ कर्मविशेष के उपशम आदि के आश्रय से जो जीव की परिणति होती है उसे भाव कहा जाता है । २ चारित्र श्रादि रूप परिणाम का नाम भाव पति के द्वारा जिसका भरण-पोषण किया जाता है है ( इस भाव को दग्ध करने वाले वेद को प्रकृत में उसका नाम भार्या है ।
इनको भाड़े के निमित्त से चलाकर श्राजीबिका करना, यह भाटकजीविका कहलाती है । भाटीकर्म - देखो भाटकजीविका । भार- १. भारो य तुला वीस x x x ( ज्योतिष्क १६ ) । २. विंशतिस्तुला भारः । ( ज्योतिष्क मलय. वृ. १९) । ३. घटीभिर्दशभिस्ताभिरेको भारः प्रकीर्तितः । ( कल्पसू. विनय. वृ. ६, पृ. २१) ।
१ बीस तुलानों का एक भार होता है । ३ दस घटिकाओं का एक भार होता है । भार्या - त्रियते पोष्यते भर्त्रेति, भार्या । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ५७) ।
भावाग्नि कहा गया है ।) ३ विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त भाव ( भावनिक्षेप) कहलाता है । जैसे इन्दन क्रिया का अनुभव करने वाले देवराज को भावनिक्षेप से इन्द्र कहा जाता है । ५ वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं । भावकरण - यत्सामायिककरणं तद् भावकरणम् । ( आव. नि. मलय. वृ. १०७२ ) ।
जो सामायिक करण है उसे भावकरण कहते हैं । भावकर्म- - १. जं तं भावकम्मं णाम । उवजुत्तो पाहुडजाणगो तं सव्वं भावकम्मं णाम । ( षट्खं. ५, ४, २६-३०-- पु. १३, पू. ६० ) । २. X× × तस्सत्ती (पोग्गलपिंडसत्ती) भावकम्मं तु ॥ (गो. क. ६) ।
८४१, जैन - लक्षणावली
भाव - १. भावः श्रपशमिकादिलक्षण: । ( स. सि. १-८) । २. भावो चरितमादी XX X ॥ ( बृहत्क. २१५० ) । ३. भावो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वज्ञैरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥ प्रस्यायमर्थः - भवनं भावः, स हि वक्तुमिष्टक्रियानुभवलक्षणः सर्वज्ञैः समाख्यातः इन्दनादिक्रियानुभवन युक्तेन्द्रादिवदिति । श्राव. हरि वू. पृ. ५) । ४. भवनं भूतिर्वा भावो वर्णादिज्ञानादि। ( श्रनुयो. हरि. यू. पू. ६९ ) । ५. वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः । ( धव. पु. १, पू. २६ ) ; भावो णाम जीवपरिणामो तिव्व-मंदणिजराभावादिरुवेण श्रणेयपयारो । ( धव. पु. ५, पू. १८६) । ६. भावः श्रात्मनो भवनं परिणामविशेषः शक्तिलक्षणः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-७ ) । ७. औपशमिकादिर्भावः । ( न्यायकु. ७६, पृ. ८०३) । अथ को भावः ? XXX विवक्षितप्रकारेण उपयोगो व्यापारः । यदि वा तथा —-आगम-नोआगमरूपतया उपयोग: जीवस्योपयुक्तत्वं न्यायकु. ७६, प. ८०७ ८. भवति - विवक्षितवर्तमानसमयपर्यायरूपेण उत्पद्यते इति भाव:, XX X अथवा भूतिर्भावः, वज्रकिरीटा दिघारण वर्तमानपर्यायेणेन्द्रादिरूपतया वस्तुनो भवनम्, तद्गुणपर्यायेण वा ज्ञानस्य भवनम् । ( सन्मति प्रभय वू. १ - ६, पृ. ४०६ ) । ६. अपितेन विवर्तन वर्तमानेन संयुतम् । द्रव्यं भावो भवेल. १०६
भावः ।
1
१ कर्मप्राभृत का ज्ञाता होकर जो जीव तद्विषयक उपयोग से सहित हो उसे भावकर्म कहते हैं । २ पुद्गल पिण्डरूप द्रव्यकर्म की शक्ति को भावकर्म कहा जाता है ।
भावकलङ्कल --भावकलङ्कः संक्लेशः, तं लावि प्रदत्त इति भावकलङ्कलः । (घव. पु. १४, पृ. २३४) ।
भावकलङ्क नाम संक्लेश का है, उसे जो ग्रहण करता है वह भावकलङ्कल कहलाता है । भावकाय - १. XX X बद्धा पुण भावमौ का ॥ (विशेषा. भा. ४२७२ ) । २. भावकायस्तु तत्परिणामपरिणता जीवबद्धा जीवसंयुक्ताश्च पुद्गलाः । (श्राव. सू. मलय. वृ. पृ. ५५७) ।
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भावकायोत्सर्ग] ८४२, जैन-लक्षणावली
[भावजिन २ जो शरीररूप से परिणत पुद्गल जीव से दसपूर्वी, असम्पूर्णदसपूर्वी, संविग्न (उद्यत बिहारी), सम्बद्ध हैं उन्हें भावकाय कहते हैं ।
असंविग्न, सारूपिक (उस्तरे से मुण्डित सिर वाले भावकायोत्सर्ग-मिथ्यात्वाद्यतीचारशोधनाय भा- श्वेताम्बर), श्रावक, दर्शनश्रावक (अविरतसम्यवकायोत्सर्गः, कायोत्सर्गव्यावर्णनीयप्राभूतज्ञ उपयुक्त-ग्दष्टि) और जिनप्रतिमा; इन्हें सम्यग्दर्शन-ज्ञानसंज्ञानजीवप्रदेशो वा भावकायोत्सर्गः । (मूला. वृ. चारित्र की उत्पत्ति के कारण होने से भावग्राम ७-१५१)।
कहा जाता है। मिथ्यात्वादिविषयक प्रतीचारों की शुद्धि के लिए भावचविशति-- भावचतुर्विशतिः चतुर्विंशतिजो कायोत्सर्ग किया जाता है उसे भावकायोत्सर्ग र्भावसंयोगाः चतुर्विशतिगुणकृष्णादिद्रव्यं वा भावकहते हैं, अथवा कायोत्नर्ग के प्ररूपक प्राभूत के
चतुर्विशतिः । (प्राव. भा. मलय. वृ. १६२, पृ. ज्ञाता को भावकायोत्सर्ग जानना चाहिए।
५६०)। भावकाल-१. साई सपज्जवसिप्रो चउभंगवि- चौबीस भावसंयोगों को-भावों के संयोगी भंगों भागभावणा इत्थं । उदईआईआणं तं जाणसु भाव- को----भावचतुविशति कहते हैं। अथवा चौबीस गुण कालं तु ॥ (प्राव. नि. ७३२)। २. भावानामो- वाले कृष्णादि द्रव्य को भावचतुविशति जानना दयिकादीनां स्थिति वकालः। (प्राव. नि. हरि. वृ. चाहिए। ७३१)। ३. भवत्यौदयिकादीनां या भावानामवस्थि
भावचपल-जं जं सुयमत्थो वा उद्दिठें तस्स 'तिः। सादि-सान्तादिभिर्भङ्गभावकालः स उच्यते।
पारमपप्पत्तो । अन्नन्नसुय-दुमाणं, पल्लवगाही उ (लोकप्र. २८-१९४)।
भावचलो ।। (बृहत्क. ७५५)। १ौदयिक प्रादि भावों में सादि-सपर्यवसान आदि
आवश्यक या दशवकालिक प्रादि ग्रन्थ के जिस जिस (सादि-अपर्यवसान, अनादि-सपर्यवसान और अनादि
सूत्र या अर्थ को प्रारम्भ किया गया है उस उस के अपर्यवसान) चार भंगों के विभाग की भावना के
पार को प्राप्त न होकर अन्य अन्य प्राचारादि विषयभत काल को भावकाल जानना चाहिए।
श्रतरूप वक्षों के पल्लवों के—उनके मध्यवर्ती २ प्रौदयिक आदि भावों की स्थिति को भावकाल
पालापक, श्लोक या गाथा प्रादि रूप लेश मात्र कहते हैं।
श्रुत वप्रर्थ के---ग्रहण करने वाले को भावचपल भावक्रीत--विद्या-मन्त्रादिदानेन वा क्रीतं भाव
कहते हैं। क्रीतम् । (भ. प्रा. विजयो. २३०, कातिके. टी.
भावचरण---भावचरणं गुणानां चरणम् । (उत्तरा. ४४८-४६) । विद्या व मन्त्र आदि देकर जो स्थान प्राप्त किया ५.2
चू. पृ. २३६) जाता है वह भावक्रीत दोष से दूषित होता है, कारण गुणों के प्राचरण का नाम भावचरण है। कि वह साधु के लिए अग्राह्य होता है। भावचारित्र- देखो भावसम्यक्चारित्र । भावक्षपणा-अविहं कम्मरयं पोराणं जं खवेइ भावजिन-१. जिणसरूवपरिच्छेदिणाणपरिणदो जोगेहिं । एयं भावज्झयणं णेयव्वं आणुपुव्वीए ॥ . उवजुत्तभावजिणो। जिणपज्जायपरिणदो तप्परि. (उत्तरा. नि. ११)।
णयभावजिणो । (धव. पु. ६, पृ. ८) । २. xx जीव योगों के द्वारा-भावाध्ययनविषयक चिन्तन र भावजिणा समवसरणत्था ।। (चैत्यव. भा. दे. मादिरूप शुभ व्यापार के द्वारा–चूंकि पूर्वसंचित वृ, ५१)।। कर्मरूप धूलि को नष्ट करता है, इसीलिए उस १ उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से नोमागम भावाध्ययन को भावक्षपणा कहा जाता है। भावजिन दो प्रकार के हैं। इनमें जिनस्वरूप के भावग्राम-तित्थगरा जिण चउदस, दस भिन्ने । ज्ञापक ज्ञान से परिणत जिन उपयुक्त भावजिन संविग्ग तह असंविग्गे। सारूविय वय दंसण, पडि- कहलाते हैं। तथा जिनपर्याय से परिणत तत्परिणत माओ भावगामो उ ॥ (बृहत्क. १११४)। भावजिन कहलाते हैं। २ समवसरण में स्थित केवली तीर्थकर, जिन (सामान्य केवली), चतुर्दशपूर्वी, जिनों को भावजिन कहते हैं।
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भावजीव] ८४३, जैन-लक्षणावली
[भावदीप भावजीव---१. भावतो जीबा औपशमिक-क्षायिक- दूसरों के अपमानादि की कारणभूत चित्त की कलुक्षायोपशमिकोदयिक-पारिणामिकभावयुक्ता उपयोग- षता के अभाव को भावतः क्रोधविवेक कहते हैं। लक्षणाः.xxx । (त. भा. १-५) । २. ज्ञाना- भावतः मानविवेक-भावतः 'एतेभ्योऽहं प्रकृष्टः' दिगुणपरिणतिभाक्त्वं तु भावजीवः। (त. भा. हरि. इति मनसाहंकारवर्जनं भावतो मानकषायविवेकः । वृ. १-५) । ३. स एव ज्ञानादिगुणपरिणतिभाक्त्वेन (भ. प्रा. विजयो. व मूला. १६८) । विवक्षितो भावजीवः । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, “इनसे मैं श्रेष्ठ हूँ" इस प्रकार का मन से अभिमान पृ. ४५); भावैः सह वर्तन्ते इति ते भावजीवाः। न करना, इसे भावतः मानविवेक कहते हैं। (त. भा. सिद्ध. व. १-५, पृ. ४८)। ४. भावतो- भावतः लोभविवेक-भावतो ममेदंभावरूपमोहऽनन्तज्ञानानन्तदर्शन-चारित्र- देशचारित्राचारित्रागुरु- जपरिणामापरिणतिः । (भ. प्रा. मूला. १६८)। लघुपर्यायवान् । (प्राव. नि. मलय. बृ. १२६, पृ. 'यह मेरा है' इस प्रकार के ममेदभावरूप मोह से १३१) ।
जो परिणाम उत्पन्न होता है उस रूप परिणत न १ प्रौपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, प्रौदयिक होना; इसका नाम भावतः लोभविवेक है। ' और पारिणामिक भावों से युक्त उपयोगस्वरूप भावतीर्थ-१. सण-णाण-चरित्ते णिज्जुत्ता जिणजीवों को भावजीव कहा जाता है। ४ जो भावत: वरा दु सव्वेपि । तिहि कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, चारित्र, देशचारित्र, भावदो तित्थं । (मला. ७-६३)। २. अट्टविहं प्रचारित्र और प्रगुरुलघु पर्याय से युक्त हो वह कम्मरयं बहुएहि भवेहिं संचिग्रं जम्हा । तव-संजभावजीव कहलाता है।
मेण धुव्वइ तम्हा तं भावग्रो तित्थं ।। दंसण नाणभावज्ञान-देखो भावसम्यग्ज्ञान ।
चरित्तेसु निउत्तं जिणवरेहि सव्वेहि। तिसु अत्थेसु भावतप-भावतपः प्रात्मस्वरूपैकाग्रत्वरूपम् । निउत्तं तम्हा तं भावप्रो तित्थं ॥ (पाव. नि. (ज्ञा. सा. वृ. ३१-१)।
१०६८-६९)। ३. इह भावतीर्थ क्रोधादिनिग्रहमात्मस्वरूप में एकाग्रता का होना ही भावतप समर्थ प्रवचनमेव गृह्यते । (प्राव. नि. हरि. वृ. कहलाता है।
१०६७)। भावतः इन्द्रियविवेक-१. भावत इन्द्रियविवेको १ सभी जिनेन्द्र (तीर्थकर) दर्शन, ज्ञान और चारित्र नाम जातेऽपि विषय-विषयिसम्बन्धे रूपादिगो- से संयुक्त रहते हैं। इसीलिए दाह को शान्ति, चरस्य विज्ञानस्य भावेन्द्रियाभिधानस्य राग-कोपा- तृष्णा का छेद और मलरूप कीचड़ का भ्यां विवेचनं राग-कोपसहचारिरूपादिविषयमानस- शोधन, इन तीन कारणों से उन्हें भावसतीर्थ कहा ज्ञानापरिणतिर्वा । (भ.प्रा. विजयो. १६८) । जाता है। २ बहत भवों से संचित कर्मरूप रज २. भावतस्तु जातेऽप्यक्षार्थयोगे रूपादिज्ञानस्य भावे- (धलि) चंकि तप-संयम के द्वारा धोयी जाती है, न्द्रियाभिधानस्य राग-द्वेषाभ्यां विवेचनं तत्सहचारि- इसीलिए दाहशान्ति प्रादि तीन अर्थों में नियुक्त रूपादिविषयमानसज्ञानापरिणतिर्वा । (भ. प्रा. प्रवचन को अथवा तप-संयम को भावतः तीर्थ कहते मूला. १६८)।
हैं। सभी जिनेन्द्रों ने दर्शन, ज्ञान व चारित्र में नियक्त १ विषय (रूपादि) और विषयी (इन्द्रिय) का किया है, इसीलिए उक्त तीन अर्थों में नियुक्त सम्बन्ध होने पर भी भावेन्द्रिय नामक रूपादिविष- उसे (प्रवचन को) भावतः तीर्थ कहा जाता है। यक ज्ञान की राग-द्वेष से पृथकता को अथवा राग- भावदीप-यस्तु श्रुतज्ञानात्मको भावदीप: अक्षरद्वेष के सहचारी रूपादिविषयक मानस ज्ञान से पद-पाद-श्लोकादिसंहतिनिर्वत्तित: स संयोगिमः, परिणत न होने को भावतः इन्द्रियविवेक कहा यस्त्वन्यनिरपेक्षो निरपेक्षतया च न संयोगिमः स जाता है।
केवलज्ञानात्मकोऽसंयोगिमो भावदीपः । (उत्तरा. काधाववक-परपरिभवादिनिमित्तचित्त- शा. वृ. २०७, पृ. २१२)। कलंकाभावो भावतः क्रोधविवेकः। (भ.पा. विजयो. भावदीप संयोगिम और प्रसंयोगिम के भेद से दो व मूला. १६८)।
प्रकार का है। उनमें जो अक्षर, पद, पाद और
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भावदेव] ८४४, जन-लक्षणावली
[भावनिक्षेप श्लोक आदि से रचित श्रुतज्ञान रूप भावदीप है भावनमस्कार-नमस्कारकर्तव्यानां गुणानुरागो उसे संयोगिम भावदीप तथा अन्य किसी की भावनमस्कारः। (भ. प्रा. विजयो. ७२२)। अपेक्षा न करने वाले केवलज्ञानरूप भावदीप को जो प्राप्त प्रादि नमस्कार करने के योग्य हैं उनके असंयोगिम भावदीप कहा जाता है।
गुणों में जो अनुराग होता है उसे भावनमस्कार भावदेव-जे इमे भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय- कहते हैं। वेमाणिया देवा देवगइ-नामगोयाई कम्माई वेति से भावना-----१. भाव्यते इति भावना, भावना ध्यानातेणठेणं जाव भावदेवा। (भगवती. १२, १.२. भ्यासक्रियेत्यर्थः । (ध्यानश. हरि. व. २)। २. पृ. १७६६)।
अणुव्रतस्य चोपरि बन्ध-वघादिकातिचारपरिहाररूपा जो भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमा. वक्ष्यमाणा अपायावद्यदर्शनादिकाश्च सामान्यरूपाः निक देव देवगति नामगोत्र कमों का वेदन करते महाव्रतं चोपभोगा (वर्गा ?) भिलाषिभिः प्राणिहैं वे भावदेव कहलाते हैं।
भिति-संहननपरिहाण्या प्रमादबहुलैः दूरक्षमतस्तभावद्रव्य--१. भावतो द्रव्याणि धर्मादीनि सगुण
त्प्रतिपातपरिहारार्थ भाव्यन्त इति भावनाः । (त. पर्यायाणि प्राप्तिलक्षणाणि Xxx (त. भा.
भा. सिद्ध. वृ. ७-३)। ३. वीर्यान्तरायक्षयोपशम.
चारित्रमोहोपशम-क्षयोपशमापेक्षेणात्मना भाव्यन्ते१-५) । २. अथवा भावद्रव्य मिति-द्रव्यार्थ उप
ऽसकृत्प्रवर्त्यन्ते इति भावनाः। (भ. प्रा. विजयो. युक्तो जीवो भावद्रव्यमुच्यते । (त. भा. सिद्ध. वृ.
११८५)। ४. भावना निरुपाधिको जीववासक: १-५, पृ. ५०)।
परिणामः । (ध. बि. मु. वृ. ६-२७)। ५. भाव्य१ भावनिक्षेप से प्राप्ति लक्षण (परिणमन स्वभाव)
न्ते वास्यन्ते गुणविशेषमारोप्यन्ते महाव्रतानि यकावाले गुण-पर्याय युक्त धर्मादि द्रव्य ग्रहण किये
भिस्ता भावना: । (योगशा. स्वो. विव. १-२५) । जाते हैं। २ द्रव्य के अर्थ में उपयुक्त जीव को
६. रत्नत्रयघरेष्वेका भक्तिस्तत्कार्यकर्म च । शुभभव्यद्रव्य कहा जाता है।
कचिन्ता संसारजुगुप्सा भावना भवेत् ॥ (त्रि. श. भावधर्म-१. प्रशमादिलिङ्गगम्यो जीवस्वभावलक्षणो भावधर्मः । (धर्मसं. मलय. वृ. ३४)। १ ध्यान के अभ्यास की क्रिया को भावना कहते हैं । २ स च क्षायोपशमिकादिकशुभलेश्यापरिणामविशे- २ प्रणवत के ऊपर बन्ध-बधादि अतिचार के परिपाहानादी सर्वत्र स्वारसिक: चित्तसमुल्लास एव हाररूप एवं अपाय व अवध के दर्शनादिरूप भावधर्म उच्यते । यदाह---दाने शीले तपसि च सामान्य तथा जो धैर्य व संहनन की हानि से यत् स्वारसिको मनःसमुल्लासः । शुभलेश्यानन्दमयो प्रमाद की अधिकता से युक्त होते हुए उपभोग के भवत्यसो भावधर्म इति ॥ (गु. ग. षट्. स्वो. वृ. अभिलाषी प्राणी हैं उनके द्वारा दूरक्ष महाव्रत से २, पृ. ७)।
भ्रष्ट न होने के लिए जो भायी जाती हैं उन्हें १ जो प्रशम प्रादि चिह्नों के द्वारा जाना जाता है भावना कहा जाता है। जीव के स्वभावभूत उसे भावधर्म कहते हैं। २ भावनायोग-सर्वपरभावान् अनित्यादिभावनया क्षायोपशमिकादि रूप शुभलेश्या परिणामविशेष से विबुध्य अनुभवभावनया स्वरूपाभिमुखयोगवृत्तिमध्यजो दानादि कार्यों में मन को उल्लास या हर्ष होता स्थः आत्मानं मोक्षोपाये युजन् भावनायोगः । (ज्ञा. है उसे भावधर्म कहा जाता है।
सा. वृ. ६-१)। भावनपुंसक-नपुंसकवेदोदयेन उभयाभिलाषरूप- समस्त पर भावों को प्रनित्यादि भावना के द्वारा मैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावनपुंसकम् । (गो. जी. जानकर अनुभव भावना से प्रात्मस्वरूप के अभिजो. प्र. २७१)।
मुख योगवृत्ति के मध्य में स्थित होकर प्रात्मा को नपुंसक वेद के उदय से उभय (स्त्री-पुरुष) को जो मोक्षमार्ग में लगाता है, इसे भावनायोग कहते अभिलाषा रूप जो मैथुन संज्ञा होती है उससे युक्त हैं। जीव को भावनपुंसक कहते हैं।
भावनिक्षेप-१. वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं
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भावनिक्षेप ८४५, जैन-लक्षणावली
[भावपरिवर्तन भावः । (स. सि. १-५; धव. पु. १, पृ. २६)। संवरपूर्विका भावनिर्जरा। (पंचा. का. जय. वृ. २. वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः। वर्तमानेन १०८)। ६. रागादीनां विभावानां विश्लेषो भावतेन जीवन-सम्यग्दर्शनपर्यायेणोपलक्षितं द्रव्यं भाव-निर्जरा। (प्राचा. सा. ३-३५)। ७. आत्मनः जीवो भावसन्यग्दर्शनमिति चोच्यते । (त. वा. १, ५, शुद्धभावेन गलत्येतत्पुराकृतम् । वेगाद् भुक्तरसं कर्म ८) । ३. तथोपयोगलक्षणो भावनिक्षेपः । (लघीय. सा भवेद्भावनिर्जरा ॥ (जम्बू च. १३-१२७) । स्वो. वृ. ७४)। ४. बट्टमाणपज्जाएण उबलक्खियं ८. सा शुद्धात्मोपलब्धः स्वसमयवपुषा निर्जरा भावदव्वं भावो णाम। (जयध. १, पृ. २६०)। संज्ञा नाम्ना भेदोऽनयोः स्यात्करणविगतः कार्यनाश५. वर्तमानेन यत्नेन पर्यायेणोपलक्षितम् । द्रव्यं प्रसिद्धः ।। (अध्यात्मक. ४-६)। ६. तस्माद् ज्ञानभवति भावं तं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ॥ (त. सा. मयः शुद्धस्तपस्वी भावनिर्जरा । (अध्यात्मसार १-१३)। ६. तत्कालपर्ययाक्रान्तं वस्तु भावो विधी- १८-१६५)। यते ॥ (उपासका. ८२७, परमाध्या. १-६)। १ सम्यग्ज्ञानादि के उपदेश व अनुष्ठानपूर्वक जो ७. तथैवोपयोगपरिणामलक्षणो भावनिक्षेपः। (सि- कर्म प्रात्मा से पृथक होते हैं, इसे भावनिर्जरा कहते द्धिवि. वृ. १२-२, पृ. ७३६) । ८. द्रव्यमेव वर्त- हैं । २ पुद्गलों को कर्मत्व पर्याय का विनाश होना, मानपर्यायसहित भावः । (त. वृत्ति श्रुत. १-५)। इसका नाम भावनिर्जरा है।। ६. तत्पर्यायो भावो यथा जिनः समवसरणसंस्थि- भावपक्व-संजम-चरित्तजोगा उग्गमसोही य तिक: । घातिचतुष्टयरहितो ज्ञानचतुष्टययुतो हि भावपक्कं तु । अन्नो वि य आएसो निरुवक्कमजीवदिव्यवपुः ।। (पंचाध्या. १-७४४)।
मरणं तु ॥ (बृहत्क. भा. १०३५)। १ वर्तमान विवक्षित पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को प्रांखों से देखने प्रादि रूप संयमयोग, मूल एवं उत्तर भावनिक्षेप कहते हैं।
गुण रूप चारित्र और उद्गमदोषों को शुद्धि को -भावनिद्रा तु ज्ञान-दर्शन-चरित्रशुन्य- भावपक्व कहते हैं। अन्य भी आदेश (उपदेश) ता। (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. ४२, पृ. ५६)। हैं-जिस जीव ने जितनी प्रायु बांधी है उस सब ज्ञान, दर्शन और चारित्र से रहित होने का नाम का पालन करके निरूपक्रमायष्क जीव का जो भावनिद्रा है।
मरण होता है उसे भावपक्व जानना चाहिए। भावनिबन्धन.---.-"ज दव्वं भावस्य पालंबणमाहारो भावपरिक्षेप-नच्चा नरवइणो सत्त-सार-बद्धी होदितं भावनिबंधणं जहा लोहस्स हिरण्ण-सूवण्णा- परक्कमविसेसे । भावेण परिक्खित्तं तेण तगन्ने परित दीणि णिबंधण, ताणि अस्सिऊण तदुप्पत्तिदंसणादो हरंति ।। (बृहत्क. भा. ११२५) । xxx I (धव. पु. १५, पृ. ३)।
किसी राजा के सत्त्व (धैर्य), सार (सेना व कोश जो द्रव्य भाव का पालम्बन या प्राधार होता है प्रादि), बुद्धि और पराक्रम को जानकर जो अन्य उसे भावनिबन्धन कहा जाता है। जैसे लोभ के राजा उसके नगर को छोड़ देते हैं, इसे उसके निबन्धन चांदी-सोना आदि।
सत्त्व व सार प्रादि रूप भाव से परिक्षिप्त जानना भावनिर्जरा--१. भावनिर्जरा कर्मपरिशाट: सम्य- चाहिए। ग्ज्ञानाद्युपदेशानुष्ठानपूर्वकः । (त. भा. सिद्ध. वृ. भावपरिणाम-भावस्य जीवाजीवादिसम्बन्धिन। १-५, पृ. ४६) । २. भावनिर्जरा नाम कर्मत्वपर्या- परिणामाः तेन तेन अज्ञानात् ज्ञानं नीलाल्लोहिता यविगमः पुद्गलानाम् । (भ. प्रा. विजयो. १८४७)। मित्यादिप्रकारेण भवनानि भावपरिणामाः। (माव. ३. जहकालेण तवेण य भूत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण। भा. मलय. व. २०४, पृ. ५९४)।
दि णेया xxx ॥ (द्रव्यसं.३६)। जीव-अजीव प्रादि सम्बन्धी भाव के परिणामों को ४. निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारानभतिसञ्जा- -उस उस प्रकार से, जैसे प्रज्ञान से ज्ञान व नील तसहजानन्दस्वभावसूखामृतरसास्वादरूपोभावो भाव- से लाल, होने वाले परिवर्तनों कोनिर्जरा । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३६) । ५. कर्मशक्ति- कहते हैं। शातनसमर्थो द्वादशतपोभिवृद्धि गतः शुद्धोपयोगः भावपरिवर्तन----१. पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तको
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भावपरिवर्तन] ८४६, जैन-लक्षणावली
[भावपरिवर्तन मिथ्यादष्टि: कश्चिज्जीवः स सर्वजघन्यां स्वयोग्यां जीव ने अपने योग्य ज्ञानावरण प्रकृति की अन्त:ज्ञानावरणप्रकृतेः स्थितिमन्तःकोटीकोटीसंज्ञिकामा- कोड़ाकोडि नामक सबसे जघन्य स्थिति प्राप्त की, पद्यते । तस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोक- उसके उक्त स्थिति के योग्य असंख्यात लोक प्रमाण प्रमितानि षट्स्थानपतितानि तस्थितियोग्यानि छह स्थानपतित कषायाध्यवसायस्थान होते हैं। भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थाननिमि- इनमें सबसे जघन्य कषायाध्यवसायस्थान के निमित्त तान्यनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमित्तानि अनुभागाध्यवसायस्थान असंख्यात लोक प्रमाण भवन्ति । एवं सर्वजघन्यां स्थिति सर्वजघन्यं च होते हैं। इस प्रकार सर्वजघन्य स्थिति सर्वकषायाध्यवसायसायस्थानं सर्वजघन्यमेवानुभाग- जघन्य कषायाध्यवसायस्थान और सर्वजघन्य ही बन्धस्थानमास्कन्दतस्तद्योग्यं सर्वजघन्यं योगस्थानं अनुभागबन्धस्थान को प्राप्त करने वाले उस जीव भवति । तेषामेव स्थिति-कषायानुभागस्थानानां द्वि- के उसके योग्य सर्वजघन्य योगस्थान होता है। तीयमसंख्येयभागवृद्धियुक्तं योगस्थानं भवति । एवं उन्हीं स्थितिस्थानों, कषायस्थानों और अनुभागच तृतीयादिषु चतुःस्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयभाग- स्थानों का दूसरा योगस्थान असंख्यातभागवृद्धि से प्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थिति युक्त होता है। इसी प्रकार तृतीय प्रादि योगतदेव कषायाध्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वि- स्थानों में वे योगस्थान चार स्थानपतित श्रेणि के तीयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति । तस्य च योग- असंख्यातवें भाग मात्र होते हैं। इसके पश्चात् स्थानानि पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि उसी स्थिति और उसी कषायाध्यवसायस्थान को अनुभवाध्यवसायस्थानेषु प्रा. संख्येयलोकपरिसमाप्तेः। प्राप्त होने वाले उक्त जीव के द्वितीय अनुभागाएवं तामेव स्थितिमापद्यमानस्य द्वितीयं कषाया- ध्यवसायस्थान होता है । उसके योगस्थानों का क्रम ध्यवसायस्थानं भवति । तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्था- पूर्व के समान समझना चाहिए। यही क्रम प्रसंनानि योगस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृती. त्यात लोक प्रमाण तृतीय प्रादि अनुभागाध्यवसाययादिष्वपि कषायाध्यवसायस्थानेषु या असंख्येयलोक- स्थानों में जानना चाहिए। इस प्रकार उसी स्थिति परिसमाप्तेर्वृद्धिक्रमो वेदितव्यः । उक्ताया जघन्यायाः को प्राप्त उक्त जीव के द्वितीय कषायाध्यवसाय. स्थितेः समयाधिकायाः कषायादिस्थानानि पूर्ववत् । स्थान होता है। उसके भी अनुभागाध्यवसायस्थानों एवं समयाधिकक्रमेण मा उत्कृष्टस्थितेस्त्रिशत्साग- और योगस्थानों के क्रम को पूर्वके समान ही जानना रोपमकोटीकोटीपरिमितायाः कषायादिस्थानानि चाहिए। इस प्रकार से तृतीय प्रादि असंख्यात लोक वेदितव्यानि । अनन्तभागवृद्धिः असंख्येयभागबृद्धिः प्रमाण कषायख्यानों में वृद्धि के क्रम को जानना संख्येयभागवृद्धिः संख्येयगुणवृद्धि: असंख्येयगुणवृद्धिः चाहिए। पश्चात् पूर्वोक्त जघन्य स्थिति के एक अनन्तगुणवुद्धिः इमानि षट् वृद्धिस्थानानि । हानि- समय अधिक होने पर कषायादिस्थानों का क्रम पूर्व रपि तथैव । अनन्तभागवृद्धयनन्तगुणवृद्धिरहितानि के समान रहता है। इस प्रकार समयाधिक्रम से उक्त चत्वारि स्थानानि । एवं सर्वेषां कर्मणां ज्ञानावरण प्रकृति को उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च परिवर्तनक्रमो वेदि- प्रमाण स्थिति तक कषायादिस्थानों के क्रम को तव्यः, तदेतत्सर्वं समुदितं भावपरिवर्तनम् । (स. सि. पूर्व के समान जानना चाहिए। अनन्तभागवृद्धि, २-१०; मूला. वू. ८-१४) । २. सव्वासि पगदीणं असंख्येयभागवृद्धि, संख्येयभागवृद्धि, संख्येयगुणवृद्धि, घणुभाग-पदेसबंधठाणाणि । जीवो मिच्छत्तवसा असंख्येयगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि, ये छह वृद्धि परिभमिदो भावसंसारे ॥ (धव. पु. ४, पु. ३३४ के स्थान हैं। इसी प्रकार से हानि भी जानना उद्.) । ३. परिणमदि सण्णिजीवो विविहकसाएहिं चाहिए। पर उसमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तठिदिणिमित्तेहिं । अणुभागनिमित्तेहिं य वटतो गुणवृद्धि से रहित चार ही स्थान होते हैं। इस भावसंसारे । (कार्तिके. ७१; भ. प्रा. मूला. प्रकार ज्ञानावरण के समान शेष मूल प्रकृतियों और १७८१ उद्.)।
उनकी उत्तर प्रकृतियों में भी परिवर्तन के क्रम को १ किसी पंचेन्द्रिय, संजी, पर्याप्तक, मिथ्यावृष्टि, जानना चाहिए। इस प्रकार से यह भावपरिवर्तन
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भावपाप ]
होता है । भावपाप - १. जीवस्य कर्तृनिश्चय कर्मतामापन्नोऽशु भपरिणामो द्रव्यपापस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूत त्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपापम् । (पंचा. अमृत. बृ. १३२ ) । २. मिथ्यात्व - रागादिरूपो जीवस्याशुभपरिणामो भावपापम् । (पंचा. का. जय. वू. १०८; अन. घ. स्व. टी. २-४० ) ।
१ जीव के जो प्रशुभ परिणाम होता है उसका कर्ता जीव है व वह परिणाम कर्म है, वह अशुभ परिणाम द्रव्यपाप का निमित्त मात्र होने से कारणीभूत है, इसी से प्रात्रवक्षण के बाद उसे भावपाप कहा जाता है ।
८४७, जैन - लक्षणावली
भावपुण्य - १. जीवस्य कर्तुः निश्चयकतापन्नः शुभ परिणामो द्रव्यपुण्यस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भवति भावपुण्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३२; अन. ध. स्वो टी. २ - ४० ) । २. दान-पूजा - षडावश्यकादिरूपो जीवस्य शुभपरि णामो भावपुण्यम् । (पंचा. जय. वृ. १०८ ) |
१ शुभ परिणाम का कर्ता जीव है व वह शुभ परिणाम कर्म है, यह शुभ परिणाम द्रव्य पुण्य का निमित्त है; इसी से उसे प्रात्रवक्षण के बाद भावपुण्य कहा जाता है ।
भावपुरुष - १. भावपुरिसो उ जीवो भावे पगयं तु भावेणं ॥ (श्राव. नि. ७३६) । २. पुंवेदोदयेन स्त्रियाम् अभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावपुरुष: । (गो. जी. जी. प्र. २७१) ।
१ 'पूः शरीरम्, पुरि शेते इति पुरुष:' इस निरुक्ति के अनुसार जो शरीर में रहता है उसे पुरुष या जीव कहा जाता है, वही भावपुरुष है । अथवा भावद्वार की प्ररूपणा में या भावनिर्गमप्ररूपणा के अधिकार में भावपुरुष- शुद्ध जीव तीर्थंकर या गणघर प्रकृत हैं ।
भावपुलाक - भावपुलाए जेण मूलगुण- उत्तरगुणपण पडिसेविएण निस्सारो संजमो भवति सो भावपुलाश्रो । ( दशवं. चू. पू. ३४६ ) ।
जिस मूल गुण व उत्तरगुण पद के सेवन द्वारा संयम निस्सार होता है उसे भावपुलाक कहते हैं । भावपूजा - १. अभ्युत्थान- प्रदक्षिणीकरण- प्रणमनादिका कायक्रिया च, वाचा गुणसंस्तवनं च भावपूजा, मनसा तद्गुणानुस्मरणम् (भ. प्रा. विजयो ४७ ) ।
[भावप्रकाशदीप
२. काऊणातच उट्टयाइगुणकित्तणं जिणाईणं । जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं खु ॥ पंचणमोवकारपएहिं ग्रहवा जावं कुणिज्ज सत्तीइ । श्रहवा जिणिदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि ।। पिंडत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववज्जियं ग्रहवा । जं भाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिद्दिट्ठ ।। (वसु. श्री. ४५६-५८ ) । ३. भावपूजा कायेनाभ्युत्थान- प्रदक्षिणीकरण-प्रणामादिका, वाचा गुणस्तवनम्, मनसा गुणानुस्मरणम् । (अन. घ. स्वो टी. २- ११०; भ. प्रा. मूला. ४७) ४. यदनन्त चतुष्काद्यैविधाय गुणकीर्तनम् । त्रिकालं क्रियते देवबन्दना भावपूजनम् ।। परमेष्ठिपदैर्जापः क्रियते यत्स्वशक्तितः । श्रथवाऽर्हद्गुणस्तोत्रं साप्यच भावपूर्विका ॥ पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । ध्यायते यत्र तद्विद्धि भावार्चन नमनुत्तरम् ॥ ( धर्मसं. श्री. ६, ६८- १०० ) ५. भावपूजा स्तुतिभिः सद्भूततीर्थ कृद्गुणपरावर्तनपराभिर्वाग्भिः । ( चैत्यव. सोम. अव. १०, पृ. ५) १ उठना, प्रदक्षिणा करना और प्रणाम आदि करना; इस प्रकार की कार्यक्रिया के साथ वचन से स्तुति करना तथा मन से उनके गुणों का स्मरण करना; इस सबको भावपूजा कहते हैं । भावपूति - उग्गमको डिप्रवयवमितेण वि मीसियाँ सुसुद्धपि । सुद्धपि कुणइ चरणं पूइं तं भावओ पूई ( पिण्डनि. २४७ ) ।
जो भोजन श्रादि उद्गमदोषसमूह के विभागत श्राषाकर्मादि के श्रवयव ( अंश ) मात्र से भी मिश्रित हो वह स्वरूपतः उद्गमादिदोषों से रहित होकर भी निरतिचार चारित्र को चूंकि मलिन करता है, इसी से उसे भावपूति कहा जाता है । भावपृथिवी जीव - XXX भावेण य होइ पुढवी जीवो उ। जो पुढविनामगोयकम्मं वेएइ सो जीवो ॥ ( श्राचा. नि. ७०, पृ. २६ ) । जो जीव पृथिवी नामगोत्र कर्म का वेदन करता है - जिसके स्थावर नामकर्म से भेदभूत पृथिवी नामकर्म का उदय रहता है- वह भाव से पृथिवी जीव कहलाता है । भावप्रकाशदीप - तथा यथैव तमसाऽन्धी कृतानामपि प्रकाशदीपः तत्प्रकाश्यं वस्तु प्रकाशयति एवमज्ञान मोहितानां ज्ञानमपीति भावप्रकाशदीप उच्यते । (उत्तरा. नि. शा. वृ. २०७ )
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भावप्रतिक्रमण] ८४८, जैन-लक्षणावलो
[भावबन्ध जिस प्रकार अन्धकार से अन्ध हुए प्राणियों के लिए वानाम् उत्कृष्ट: केवलिनः। (त. वा. ३, ३८, प्रकाश दीप-लोकप्रसिद्ध दीपक-उससे प्रकाशित ४)। ३. भवनं भूतिर्वा भावो वर्णादिज्ञानादि, होने योग्य वस्तु को प्रकाशित करता है उसी प्रकार प्रमितिः प्रमीयते अनेन प्रमाणोतीति वा प्रमाणम्, प्रज्ञान से मढ़ता को प्राप्त हए जीवों के लिए ज्ञान ततश्च भाव एव प्रमाणं भावप्रमाणम। (अनयो. भी कि वस्तुबोध कराता है इसी से उसे भाव. हरि. व.पृ. ६६)। ४. भावपमाणं णाम णाणं । प्रकाश-दीप कहा जाता है।
(धव. पु. ३, पृ. ३२)। भावप्रतिक्रमण - राग-द्वेषाद्याश्रितातीचारावर्तनं १ द्रव्य, क्षेत्र और काल के प्राश्रय से होने वाले भावप्रतिक्रमणम् । (मूला. वृ. ७-११५) ।
परिज्ञान का नाम भावप्रमाण है। २ साकार और राग-द्वेष के प्राश्रित अतिचार से रहित होना, इसका अनाकार उपयोग को भावप्रमाण कहते हैं। वह नाम भावप्रतिक्रमण है।
जघन्य सूक्ष्म निगोदिया जीव के, मध्यम अन्य जीवों भावप्रतिसेवना–यस्तु जीवस्य तथा तथा प्रति- के और उत्कृष्ट केवली के होता है। घेवकत्वपरिणामः, सा भावरूपा प्रतिसेवना। (व्यव. भावप्राण-१. चित्सामान्यान्वयिनो भावप्राणाः । भा. मलय. व. पी. १-३६, पृ. १६)।
(पंचा. अमृत. वृ. ३०)। २. पुद्गलसामान्यानुजीव का जो प्रतिसेवन करने रूप परिणाम होता है विधायी चित्परिणामो भावप्राणाः । (मन.ध. स्वो. उसे भावरूप प्रतिसेवना कहते हैं।
टी. ४-२२)। भावप्रतिसेवा-१. दर्पः प्रमादः अनाभोगः भयं १जो प्राण सामान्य चैतन्व के अविनाभावी हैं प्रदोषः इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्तिर्भावसेवा। उन्हें भावप्राण कहते हैं। २ पुद्गलसामान्य के (भ. प्रा. विजयो. ४५०) । २. भावं दर्प-प्रमादाना- अनुसरण करने वाले चैतन्य परिणाम को भावप्राण भोगभयाभि[त्मि] का भावप्रतिसेवा । (भ. पा. कहा जाता है । मूला. ४५०)।
भावबन्ध-१. उवयोगमयो जीवो मज्झदि रज्जे१ अभिमान, प्रमाद, अनाभोग, भय और प्रदोष दि वा पदुस्सेदि । पप्पा विविध विसए जो हि पूणो इत्यादि परिणामों में जो प्रवृत्ति होती है उसे भाव. तेहिं संबंधो ।। (प्रव. सा. २-८३) । २. तत्कृतः प्रतिसेवा कहते हैं।
क्रोधादिपरिणामवशीकृतो भावबन्धः। (त. वा. २, भावप्रत्याख्यान-- १. एतद्विपर्ययाद्भावप्रत्या- १०,२)। ३. अयमात्मा साकार-निराकारपरिच्छेख्यानं जिनोदितम् । सम्यक्चारित्ररूपत्वानियमान्म- दात्मकत्वात्परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थजातं येनैव मोहक्तिसाधनम् ॥ (प्रष्टक. ८-७) । २. भावोऽशुभ- रूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेन पश्यति परिणामस्तं न निर्वर्तयिष्यामि इति संकल्पकरणं जानाति च तेनैवोपरज्यत एव । योऽयमुपरागः स भावप्रत्याख्यानम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६)। खलु स्निग्ध-रूक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः । (प्रव. सा. ३. भावस्य सावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्या- प्रमत.व. २-८४)। ४. बज्झदि कम्म जेण दू नम्, भावतो वा शुभात् परिणामात् प्रत्याख्यानम्, चेदणभावेण भावबन्धो सो । (द्रव्यसं. ३२)। भाव एव वा सावद्ययोगविरतिलक्षणः प्रत्याख्यानं ५. समस्तकर्मबन्धविध्वंसनसमर्थाखण्डकप्रत्यक्षप्रतिभावप्रत्याख्यानम् । (प्राव. नि. मलय. ७. १०५३, भासमयपरमचैतन्यविलासलक्षणज्ञानगुणस्य अभेदनयेपृ. ५७२)।
नानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतपरमात्मनो वा सम्बन्धिनी १ द्रव्यप्रत्याख्यान से विपरीत जो सम्यक्चारित्र. या तु निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन मिथ्यात्व-रागारूप परिणाम से प्रत्याख्यान किया जाता है उसे दिपरिणतिरूपेण वाऽशुद्धचेतनभावेन परिणामेन भावप्रत्याख्यान कहा गया है।
बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स भावबन्धः । भावप्रमाण-१. तिण्हं (दव्व-खेत्त-कालाणं) पि (बृ. द्रव्यसं. टी. ३२) । ६. प्रकृत्यादिबन्धशून्यअधिगमो भावपमाणं । (षटखं.१,२, ५--धव. पु. परमात्मपदार्थप्रतिकलो मिथ्यात्व-रागादिस्निग्धपरि३, पृ. ३८)। २. भावप्रमाणमुपयोगः साकारा- णामो भावबन्धः । (पंचा. का. जय. वृ. १०८)। नाकारभेदः जघन्यः सूक्ष्मनिगोतस्य मध्यमोऽन्यजी- ७. द्रव्यास्रवजमिथ्यात्व-योगाविरमणादिभिः । नत
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भावभाषा] '८४६, जैन-लक्षणावली
भावमन्द नैरात्मनः श्लेषो भावबन्धस्तदात्मता ॥ (प्राचा. २५९; त. वृत्ति श्रुत. २-११)। २.xxxभावसा. ३-३७) । ८. बध्यते कर्म भावेन येन तद्भाव- मणो भण्णए मंता॥ (विशेषा. ४२६८)। ३. जीवो बन्धनम् । (भावसं. वाम. ३८७)। ६. राग-द्वेषा. पुण मणपरिणामकक्रियावण्णे भावमणो, एस उभयदिरूपो भावबन्धः । (कातिके. टी. २०६)। रूवो मणदव्वालंबणो जीवस्स णाणव्वावारो भाव१०. रागात्मा भावबन्धः स जीवबन्ध इति स्मृतः। मणो भण्णति। (नन्दी, चू. पृ. २६)। ४. भाव(पंचाध्या. २-४७) ।
__ मनो ज्ञानम् । (त. वा. ५, ३, ३)। भावमन१ उपयोगस्वरूप जीव अनेक प्रकार के इन्द्रियविषयों स्तावत् लब्ध्युपयोगलक्षणं पुद्गलावलम्बनत्वात् पौद्को प्राप्त करके उनमें मोहित होता है, राग करता गलिकम् । (त. वा. ५, १६, २०, कातिके. टी. है या द्वेष करता है। इस प्रकार उक्त मोह, राग २०६)। ५. भावमनस्तु जीवस्योपयोगः चित्तचेतनाऔर द्वेष के साथ जो जीव का सम्बन्ध होता है योगाध्यवसानावधानस्वान्तमनस्काररूपः परिणामः । उसे भावबन्ध जानना चाहिए।
(त. भा. सिद्ध. व. २-१२)। ६. भावमनो मंता भावभाषा-१. उवउत्ताणं भाषा णायव्वा एत्थ जीव एव ॥ (प्राव. सू. मलय. वृ. पृ. ५५७)। भावभासत्ति । (भाषार. १३) । २. जेणाहिप्पाएण ७. तथा द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन जीवस्य यो मननपरुिभासा भवइ सा भावभासा। (वाक्यशुद्धिचूणि---- णामः स भावमनः । (नन्दी. म. मलय. वृ. २६, पृ. भाषार. यशो. व.पृ. ६ उद्.)।
१७४; प्रज्ञाप. मलय. वृ. १५-२०१)। ८. भाव१ उपयोगयुक्त-तद्रूप अभिप्राय से सहित --- मनस्तु तद्रव्योपाधिसंकल्पात्मक आत्मपरिणामः । जीवों की भाषा को भावभाषा जानना चाहिए। (योगशा. स्वो. विव. ४-३५)। ६. नोइन्द्रियाभावमङ्गल-१. मंगलपज्जाएहिं उवलक्खिय- वरण-वौर्यान्तरायक्षयोपशमसविधाने सति द्रव्यमनसा जीवदन्वमेत्तं च। भावं मंगलमेदं पढियं सत्यादि- कृतानुग्रह आत्मा मनुते जानाति मूर्तममूतं च वस्तु मज्झयंतेसु ॥ (ति. प. १-२७) । २. तविवरीयं गुण-दोषविचार-स्मरणादिप्रणिधानरूपेण विकल्पयभावे तं पि य नंदी भगवती उ। (बृहत्क. भा. १०)। त्यनेनेति मनो गुण-दोषविचार-स्मरणादिप्रणिधान३. भावतो मङ्गलं भावमङ्गलम्, अथवा भावश्चासौ लक्षणं भावमन इत्यर्थः । भवति चात्र पद्यम्-गुणमङ्गलं चेति समासः। (प्राव. नि. हरि. व. पृ. ६)। दोषविचार-स्मरणादिप्रणिधानमात्मनो भावमनः । ४. णोआगमदो भावमङ्गलं दुविहं-उपयुक्तस्तत्प- (अन. ध. स्वो. टी. १-१, पृ. ४; भ. प्रा. मूला. रिणत इति । आगममन्तरेण अर्थोपयुक्त उपयुक्तः। १३५)। १०. भावमनः परिणामो भवति तदात्मोमंगलपर्यायपरिणतस्तत्परिणत इति । (धव. पु. १, पयोगमात्रं वा। लब्ध्युपयोगविशिष्टं स्वावरणस्य पृ. २६)।
क्षयात्क्रमाच्च स्यात् ।। (पंचाध्या. १-७१४)। १मंगलपर्याय से परिणत जीव को भावमंगल कहते १वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशम हैं । २ अनैकान्तिक और अनात्यन्तिक से भिन्न---- की अपेक्षा से प्रात्मा के जो विशुद्धि होती है ऐकान्तिक व प्रात्यन्तिक-मंगल भावमंगल कह- उसका नाम भावमन है। २ मनन करने वालालाता है। वह भावमंगल भगवान् नन्दी-मति- जानने वाला--जो जीव है उसे भावमन कहा ज्ञानादि पांच ज्ञानस्वरूप है। यह भावमंगल किसी जाता है। के हो और किसी के न हो, ऐसा न होकर वह भावमनोयोग-प्रात्मप्रदेशानां कर्म-नोकर्माकर्षणसमान रूप से सबके होता है, इसी का नाम ऐका- शक्तिरूपो भावमनोयोगः । (गो. जी. जी. प्र. न्तिक है । वह किसी के द्वारा नष्ट नहीं किया जा २२६) । सकता है, इसीलिए उसे प्रात्यन्तिक कहा जाता है। कर्म और नोकर्म के खींचनेरूप जो प्रात्म-प्रदेशों को भावमन-१. वीर्यान्तराय-नोइन्द्रियावरणक्षयोप- शक्ति है उसे भावमनोयोग कहते हैं। शमापेक्षा प्रात्मनो विशुद्धिर्भावमनः । (स. सि. भावमन्द-भावमन्दोऽप्यनुपचितबुद्धिर्बालः कुशा२-११; त. वा. २, ११, १; धव. पु. १, पृ. स्त्रवासितबुद्धिर्वा, अयमपि सद्बुद्धेरभावाद् बाल
. ल.१०७
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भावमल] ८५०, जैन-लक्षणावली
[भावलेश्या एव । (प्राचारा. सू. शी. वृ. ५०, पृ. ६४)। मिलाप होता है उसका नाम भावयुति है। बुद्धि के उपचय (वृद्धि) से रहित बालक को भाव- भावयोग-१. xxx अंगोपाङ्ग-शरीरनाममन्द कहा जाता है, अथवा जिसकी बुद्धि कुशास्त्रों कर्मोदयागतपुद्गलस्कन्धकर्म - नोकर्मतापरिणामहेतुः से संस्कृत है उसे भी सदबुद्धि के अभाव के कारण शरीर-भाषा-मनःपर्याप्तिपरिणतस्य काय-वाग्मनोभावमन्द जानना चाहिए।
वर्गणावलम्बिनः संसारिजीवस्य लोकमात्रप्रदेशगता भावमल-१. भावमलं णादव्वं अण्णाण-दसणादि या शक्तिः स भावयोगः । (गो. जी. म. प्र. २१६)। परिणामो ॥ (ति. प. १-१३) । २. अज्ञानादर्शना- २. पुद्गलविपाकिनः अङ्गोपाङ्गनामकर्मणः देहस्य दिपरिणामो भावमलम् । (धव. पु. १, पृ. ३२, च शरीरनामकर्मणः उदयेन मनोवचन-कायपर्याप्ति
परिणतस्य काय-वाग्मनोवर्गणालम्बिनः संसारिजी१ प्रज्ञान व प्रदर्शन आदि परिणाम को भावमल वस्य लोकमात्रप्रदेशगता कर्मादानकारणं या शक्तिः जानना चाहिए।
सा भावयोगः। (गो. जी. जी. प्र. २१६)। भावमोक्ष-१. भावमोक्षः समस्तकर्मक्षयलाञ्छ- १ शरीर, भाषा और मन पर्याप्ति से परिणत नः । (त. भा. सिद्ध. व. १-५, पृ. ४६)। होकर कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनवर्गणा का २. सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो ह परि- प्राश्रय लेने वाले संसारी जीव की जो प्रङ्गोपाङ्ग णामो। यो स भावमुक्खो Xxx ॥ (द्रव्यसं. और शरीरनामकर्म के उदय से पाये हुये पुद्गल३७)। ३. निश्चयरलत्रयात्मककारणसमयसाररूपो स्कन्धों को कर्म और नोकर्मरूप परिणमाने की शक्ति xxx य आत्मनः परिणामः Xxx सर्वस्य होती है उसे भावयोग कहते हैं। द्रव्य-भावरूपमोहनीयादिघातिचतुष्टयकर्मणो यः भावलिङ्ग-१. नोकषायोदयापादितवृत्ति भावक्षयहेतुरिति। xxx स भावमोक्षः ॥ (बृ. लिङ्गम् । (स. सि. २-५२) । २. भावलिङ्गमात्मद्रष्यसं. टी. ३७, पृ. १३५) । ४. कर्म निर्मूलनसमर्थः परिणामः स्त्री-पुं-नपुंसकान्योन्यामिलाषलक्षणः । शुद्धात्मोपलब्धिरूपजीवपरिणामो भावमोक्षः । (त. वा. २. ६.३); नोकषायोदयाद् भावलिङ्गम् । (पंचा. का. जय. वृ. १०८)। ५. कर्मक्षयाय यो (त. वा. २, ५२, १)। ३. भावलिङ्गं ज्ञान-दर्शनभावो भावमोक्षो भवत्यसौ । (भावसं. वाम, चारित्राणि । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६, पृ. ३६१)। ६. सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिर्बोधमती कृत्स्नकर्म- २८९); भावलिङ्गं श्रुतज्ञान-क्षायिकसम्यक्त्व-चरलयहेतुः । ज्ञेयः स भावमोक्षः कर्मक्षयजा विशुद्धिरथ णानि । (त. भा. सिद्ध. वृ. १०-७, पृ. ३०८)। च स्यात् ॥ (अध्यात्मक. ४-१५) । ७. भावमोक्ष- १ नोकषाय के उदय से जो स्त्री-पुरुषादि की अभिस्तु तद्धेतुरात्मा रत्नत्रयान्वयी । (अध्यात्मसार लाषास्वरूप प्रवृत्ति होती है उसे भावलिङ्ग कहा १८-१७८)।
जाता है । ३ मुनिजन का भावलिङ्ग ज्ञान, दर्शन १ समस्त कर्मों के क्षय को भावमोक्ष कहते हैं। और चारित्ररूप माना जाता है। २. जो प्रात्मा का परिणाम समस्त कर्मों के क्षय - भावलिङ्गी-देहादिसंगरहियो माणकसाएहि सयका कारण है उसे भावमोक्ष कहा जाता है। लपरिचत्तो। अप्पा अप्पम्मि रो स भावलिंगी भावमोह-द्विविधस्यापि मोहस्य पौद्गलिकस्य हवे साहू ॥ (भावप्रा. ५६)। कर्मण:। उदयादात्मनो भावो भावमोहः स उच्यते ॥ जो जीव शरीर प्रादि रूप परिग्रह से-तद्विषयक (पंचाध्या. २-१०६.)।
ममत्वभाव से-रहित होता हुआ मानादि कषायों दोनों प्रकार के पौद्गलिक मोह कर्म के उदय से को पूर्ण रूप से छोड़ चुका है तथा प्रात्मस्वरूप में जो मात्मा का भाव होता है उसे भावमोह कहते लीन रहता है उसे भावलिंगी साधु जानना चाहिए।
भावलेश्या-१. भावलेश्या कषायोदयरजिता भावयुति-कोह-माण-माया-लोहादीहि सह मेलणं योगप्रवृत्तिः । (त. वा. २, ६, ८) । २. भावलेस्सा भावजुडी णाम । (पव. पु. १३, पृ. ३४६)। दुविहा आगम-णोआगमभेएण । आगमभावलेस्सा कोष, मान, माया और लोभ मादि के साथ जो सुगमा। नोागमभावलेस्सा मिच्छत्तासंजमकसा
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भावलेश्या ]
कम्मपोग्गलादाण निमित्ता
या रंजियजोगपवृत्ती मिच्छत्तासंजम - कसायजणिदसंसकारो त्ति वृत्तं होदि । ( धव. पु. १६, पृ. ४८८ ) । ३. भावलेश्यास्तु कृष्णादिवर्णद्रव्यावष्टम्भज निता [ताः ] परिणाम[माः] कर्मबन्धनस्थितेविधातारः । ( त. भा. सिद्ध. बृ. २-६) । ४. मोहुदय-खओवसमोवसम-खयजजीवफंदणं भावो ॥ (गो. जी. ५३६ ) । ५. योगाविरति मिथ्यात्व कषाय-जनिताङ्गिनाम् । संस्कारो भावलेश्यास्ति कल्मषास्रवकारणम् ॥ ( पंचसं श्रमित. १-२६१, पृ. ३३) । ६. असंयतान्तगुणस्थानचतुष्के मोहस्योदयेन, देशविरतत्रये क्षयोपशमेन, उपशमके उपशमेन, क्षपके क्षयेण च संजनितसंस्कारो जीवस्पन्दनसंज्ञः स भावलेश्या जीवपरिणामप्रदेशस्पन्देन कृतेत्यर्थः । (गो. जी. जी. प्र. ५३६ ) । ७. भावलेश्या तु तज्जन्यो जीवपरिणाम इति । ( स्थाना. अभय वृ. ५१, पृ. ३२ ) । ८. कषायोदयानुरंजिता योगप्रवृत्तिः भावलेश्या । (त. वृत्ति श्रुत. २-६) ।
१. कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को भावलेश्या कहते हैं । ३ कृष्ण श्रादि वर्णों वाले द्रव्यों के श्राश्रय से जो कर्मबन्ध की स्थिति के कारणभूत परिणाम होते हैं उन्हें भावलेश्या कहा जाता है ।
८५१, जैन - लक्षणावली
भावलोक - १. तिव्वो रागो य दोसो य उदिण्णा जस्स जंतुणो । भावलोगं वियाणहि प्रणतजिणदेसि - दं ।। (मूला. ७-७३) । २. तिब्वो रागो य दोसो य, उइन्नो जस्स जन्तुणो । जाणाहि भावलोगं प्रणंतजिणदेसिश्रं सम्मं ।। (श्राव. भा. २०३, पृ. ५६३) । जिस जीव के तीव्र राग व द्वेष उदय को प्राप्त है उसे भावलोक जानना चाहिए । भाववध - जीवशङ्कयाऽजीवस्य वघे भाववधः । ( पंचसं स्वो वृ. ४-१६) ।
जीव की शंका से श्रजीव का वध होने पर उसे भाववध कहते हैं ।
भाववाक् - १. भाववाक् तावद् वीर्यान्तराय-मति श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभनिमित्त - त्वात् पौद्गलिकी । (त. वा. ५, १६, १५ ) । २. भाववाक् पुनस्त एव पुद्गलाः शब्दपरिणाममापन्ना: । ( श्राव. सू. मलय. वू. पू. ५५७ ) । १ जो वीर्यान्तराय और मति श्रुत ज्ञानावरण के
[ भावविशुद्धि
क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से होता है उसे भाववाक् कहते हैं । २ जीव के द्वारा ग्रहण किये गये शब्द परिणाम के योग्य वे ही पुद्गल जब शब्दरूप से परिणत हो जाते हैं तब उन्हें भाववाक् कहा जाता है भावविचिकित्सा - XXX खुधादिए भावविदिगिछा || ( मूला ५-५५) ।
क्षुधा एवं पिपासा आदि परीषह क्लेशजनक हैं, इस प्रकार से उनके प्रति जो घृणा का भाव उत्पन्न होता है उसे भावविचिकित्सा कहते हैं। भावविपाकि प्रकृति — भवनं भावो जीवस्यावस्थान्तरभावित्वम्, तद्धेतुर्यासां तास्तथा ( भावविपाकिन्यः ), जीवावस्थान्तरविशेषात् तासामुदयोपलब्धिर्भवतीति भावः । (पंचसं स्वो वृ. ३-४६, पू. १४३) ।
जीव की अन्य अवस्था का होना, इसका नाम भाव है । वह जिन प्रकृतियों के विपाक का कारण होता है वे भावविपाकिनी प्रकृतियाँ कहलाती हैं । भावविवेक - १. सर्वत्र शरीरादी अनुरागस्य ममेदंभावस्य वा मनसाऽकरणं भावविवेकः । (भ. श्री. विजयो. १६९ ) । २. भावतस्तु कषायपरिहारात्मकं ( बिवेकं ) x x x । ( उत्तरा. सू. शा. वू. ४, १०, पृ. २२५) ।
१ शरीर आदि सब में मन से अनुराग के न करने श्रथवा ममेदभाव - 'यह मेरा है' इस प्रकार की बुद्धि के न करने का नाम भावविवेक है । भावविशुद्धप्रत्याख्यान — देखो परिणामविशुद्ध
प्रत्याख्यान |
भावविशुद्धि - १. भावविशुद्धिनिष्कल्मषता, धर्मसाधनमात्र स्वपि अनभिष्वङ्गः । ( त. भा. ६-६, पृ. १६५ ) । २. भावविशुद्धिर्ममत्वाभावो निःसङ्गता च, अपरद्रोहेणात्मार्थानुष्ठानम् निष्कल्मषतानिर्मलता भाव ( धर्भ ? ) साधनमात्रा: रजोहरणमुखवस्त्रिका - चोलपट्टक- पात्रादिलक्षणाः, तास्वप्यनभिष्वङ्गो विगतमूर्च्छ इत्यर्थः । ( त. भा. सिद्ध. वू. - ६ ) ।
१ निष्कल्मषता अन्तःकरण की निर्मलता - का नाम भावविशुद्धि हैं, अभिप्राय यह है कि धर्म के साधन मात्र जो रजोहरणादि हैं उनके विषय में
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भावबेद] ८५२, जैन-लक्षणावली
(भावशुद्धि भी प्रासक्ति न रखना, इसे भावविशुद्धि जानना १ ऊपर अथवा नीचे जाने के लिए चढ़ने उतरने चाहिए।
का कारणभूत जो लकड़ी आदि का मार्ग (नसैनी भाववेद-xxx परिसेसादो मोहणीयदव्व- प्रादि) होता है उसका नाम सिति या शीति है। कम्मक्खंघो तज्जणिदजीवपरिणामो वा [दव्व-भाव] भावशीति प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो वेदो। (धव. पु. ५, पृ. २२२)।
प्रकार की है। जिन कारणों से संयमस्थानों, मोहनीयकर्मरूप पुदगलस्कन्ध को द्रव्यवेद और संयमकण्डकों और लेश्यापरिणाम विशेषों में नीचे के उसके प्राश्रय से होने वाले जीव के परिणाम को संयमस्थानों में भी जाया जाता है वह अप्रशस्त भाववेद कहा जाता है।
भाबशीति कहलाती है, तथा जिन कारणों से उक्त भावव्यतिरेक-भवति गुणांशः कश्चित् स भवति संयमादिस्थानों के ऊपर ऊपर के विशेषों में क्रम से नान्यो भवति स चाप्यन्यः । मोऽपि न भवति तदन्यो केवलज्ञान तक अध्यारूढ़ होता है, उसे प्रशस्त भवति तदन्योऽपि भावव्यतिरेक: ।। (पंचाध्या. भावशीति कहा जाता है। १-१५०)।
भावशुद्ध दान-भावशुद्ध त्वनाशंसं श्रद्धया यत्प्रविवक्षित जो कोई गुणांश है वह वही है, अन्य नहीं दीयते । (त्रि. श. पु. च. १, १, १८४)। हो सकता; तथा जो अन्य गुणांश है वह वह जो दान विना किसी प्रकार की अपेक्षा के श्रद्धा (पूर्वोक्त) नहीं हो सकता, अन्य ही रहनेवाला है। पूर्वक दिया जाता है उसे भावशुद्ध दान समझना यही भावयतिरेक है।
चाहिए। भावव्युत्सर्ग - भावव्युत्सर्गस्त्वज्ञानादिपरित्यागः, भावशुद्धि----१. मद-माण-माय-लोहविवज्जियभावो अथवा धर्म-शुक्लध्यायिनः कायोत्सर्गः। (प्राव. नि. दु भावसुद्धिति । परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पमलय. वृ. १०६३, पृ. ५८५)।
दरिसीहि ॥ (नि. सा. ११२)। २. एमेव भावमज्ञानादि के परित्याग को भावव्युत्सर्ग कहते हैं; सुद्धी तब्भावाएसो पहाणे य । तब्भावगमाएसो अथवा धर्म और शुक्ल ध्यान के चिन्तन करने अणण्ण-सीसा हवइ सुद्धी ।। दसण-णाण-चरिते तवोवाले के कायोत्सर्ग को भावव्यत्सर्ग जानना चाहिए। विसुद्धी पहाणमाएसो। जम्हा उ विरुद्धमलो तेण भावशस्त्र-१. xxx भावे य असंजमो विसद्धो हवइ सदो॥ (दशव. नि. २८६-८७)। सत्थं ॥ (प्राचारा. नि. १५०) । २. भावशस्त्र ३. भावसोधी तव-संजमादीहि अट्ठविहकम्ममललित्तो पुनरसंयमः दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायलक्षण: । जीवो सोधिज्जति । (उत्तरा. चू. पृ. २११) । (प्राचारा. नि. शी. वृ. १५०, पृ. ५५)। ४. भावशुद्भिः कर्मक्षयोपशमजनिता मोक्षमार्गरुच्या२ मन, बचन एवं काय के दुष्प्रणिधान (दूषित हितप्रसादा रागाद्युपप्लवरहिता। तस्यां सत्यामाप्रवृत्ति) रूप असंयम को भावशस्त्र कहा जाता है। चारः प्रकागते परिशुद्धभित्तिगतचित्रकर्मवत् । (त. भावशीति-१. संजमठाणेणं कंडगाणालसाविती वा. ६,६, १६ त. श्लो. ६-६, चा. सा.प. विसेसाणं । उवरिल्लपयकमलं भावसिती केवलं ३२)। ५. अवगयराग-दोसाहंकारट्र-रुज्झाणस्स जाव ॥ (व्यव. भा. १०-४०६)। २. सितिनाम पंचमहव्वय कलिदस्स लिगुत्तिगुत्तस्स गाण-दसणऊर्ध्वमधो वा सुखोत्तरोवतारहेतुः काष्ठादिमयः चरणादिचारणवढिदस्स भिक्खुस्स भावसुद्धी होदि। पन्थाः।xxx भावशीतिरपि द्विधा प्रशस्ता- (धव. पु. ६, पु. २५४) । ६. यशःपुजापुरस्कारप्रशस्ता च। तत्र यहेतु भिस्तेषामेव संयमस्थानानां निःकांक्षा निर्मदा मतिः । श्रुतामृतकृतानन्दा भाव. संयमकण्डकानां लेश्यापरिणामविशेषाणां बा अघ- शुद्धिर्मनेर्मता॥(प्राचा. सा. ४-८४)। स्तात् संयमस्थानेष्वपि गुच्छति सा अप्रशस्ता भाव- १मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव को शौतिः, यैः पुनर्हेतुभिस्तेषामेव संयमादिस्थानानामुप... भावशुद्धि कहते हैं। २ भावशुद्धि तीन प्रकार की है-- रितनेषुपरितनेषु विशेषेष्वध्यारोहति सः प्रशस्तोच्चो- तद्भावशुद्धि, आदेशभावशुद्धि और प्राधान्यभावशुद्धि। परितन एव क्रमेण भावशीतिस्तावद् द्रष्टव्यं यावत् अन्य भाव से प्र
अन्य भाव से प्रसंयुक्त रहकर जो भाव शुद्ध होता है केवलज्ञानम् । (व्यव. भा. मलय. ३. १०-४०६) से उसका नाप तदभावशुद्धि है, जैसे-~-भूखे आदि की
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भावश्रमण ८५३, जैन-लक्षणावली
[भावसमाधि अन्नविषयक अभिलाषा । प्रादेशभावशुद्धि अन्यत्व ऽप्यलम् । दुष्टदोषापहारेण गुणपोषणकुन्मनः ॥ और अनन्यत्व के सम्बन्ध से दो प्रकार की है। झावस्तेन वचः सत्यं भावसत्यमिदं पयः। प्रासुकं अन्यत्वविषयक जैसे- शुद्धभाव साधु का गुरु, नेदमित्यादि वचो वा वृनिगोचरम् ॥ (प्राचा. सा. अनन्यत्वविषयक-शुद्ध भाव ही। दर्शन, ज्ञान और ५, ३०-३१)। ७. भावसत्यं शुद्धान्तरात्मता। चारित्र को विषय करने वाली शुद्धि तथा अभ्य. (समवा. अभय. वृ. २७, पृ. ४४)। ८. छद्यस्थन्तर तप की शुद्धि, इसे प्रधानभावशुद्धि कहा जाता ज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य संयतासंयहै। प्रधानभावशुद्धि कहने का कारण यह है कि तस्य वा स्वगुणपरिपालनार्थं प्रासुकमिदमप्रासुकमिउससे साधु मल से विशुद्ध होता है।
त्यादि यद्वचस्तद्रावसत्यमित्यर्थः। प्रगता असवः भावश्रमण-भावश्रमणो ज्ञानी चरित्रयुक्तश्च । प्राणा यस्मात् तत्प्रासु, प्रासुकामित्यर्थः। निरीक्ष्य (उत्तरा. चू.पु. २४४)।
स्वप्रयताचारो भवत्येवमादिकं वा भावसत्यमहिंसाजो ज्ञानवान् होकर महाव्रतादिरूप चारित्र से युक्त लक्षणभावपालनाङ्गत्वात् ॥ (अन. ध. स्वो. टी. होता है उसे भावश्रमण कहा जाता है।
४-४७, भ. प्रा. मला. ११९३)। ६. अतीन्द्रियाभावश्रुत--१. इंदिय-मणोनिमित्तं जं विण्णाणं सु. थेषु प्रवचनोक्तविधि-निषेघसंकल्पपरिणामो भावः, याणुसारेणं । नियनत्थुति समत्थं तं भावसुयं xx तदाधितं वचनं भावसत्यम् । (गो. जी. जी. प्र.
। (विशेषा. १००)। २. खयोवसमलद्धी २२४) । १०. सा होइ भावसच्चा, जा सदभिप्पापावसुतं । (नन्दी. च. पृ. ३४)। ३. स्वशुद्धात्मा- यपुव्वमेवुत्ता। जह परमत्थो कुंभो, सिया बलाया नुभूतिलक्षणं भावश्रुतम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४८)। य एसत्ति ॥ (भाषार. ३२) । ४. भावश्रुतं द्वादशाङ्गीसमुत्पन्नोपयोगरूपम् । १ जो वचन हिंसा प्रादि दोषों से रहित हो उसे भाव. (दण्डकप्र. वृ. ४, पृ. ३)।
सत्य माना जाता है, वह कदाचित् अयोग्य (असत्य) १ इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो श्रूत के अनु- भी हो तो भी भाव से---हिंसा प्रादि दोषों से सार विशेष ज्ञान होता है वह भावभुत कहलाता रहित होने के कारण परमार्थ से--सत्य है। २ है। २ क्षयोपशमलब्धि का नाम भावभुत है। अभिप्राय से जो वचन बोला जाता है उसे भाव३ अपनी शुद्ध प्रात्मा के अनुभव को भावभुत सत्य कहा जाता है। जैसे-- 'घट ले प्रायो' इस कहते हैं।
अभिप्राय से 'घड़ा ले पायो' ऐसा प्रादेशवचन । भावसत्य--.-.१. हिसादिदोमविजदं सच्चमकप्पि- भावसमवाय--१. क्षायिकसम्यक्त्व-केवलज्ञानयवि भावदो भावं। (मला. ५-११६) । २. भाव- दर्शन-यथाख्यातचारित्राणां यो भावस्तदनभवस्य सच्चं नाम जमहिप्पायतो, जहा घडमाणहित्ति तुल्यानन्तप्रमाणत्वात् भावसमवायनात् भावसमवाअभिप्पाईतो घडमाणेहिति भणियं, गावीअभिप्पा- यः। (त. वा. १, २०,१२, धव. पु. ६, प्र. १६. येण गावी, अस्सो वा अस्सो भणियो, एवमादिति । २००)। २. भावदो केवलणाणं केवलदंसणेण समं (दशवै. चू. पृ. २३६, भाषार. पृ. १४ उद्.)। यप्पमाणं, णाणमेत्तचेयणोवलंभादो। (धव. पु. १, ३. छद्मस्थज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य पृ. १०१)। ३. केवलणाणं केवलदसणेण समाणं. संयतासंयतस्य वा स्वगुणपरिपालनार्थं प्रासुकमिदम- एसो भावसमवायो। (जयध. १, पृ. १२५) । प्रासुकमित्यादि यद्वचस्तद्भावसत्यम् । (त. वा. १, ४. केवलज्ञानं केवलदर्शनेन सदृशमित्यादिविसम२०, १२, पृ. ७३ धव. पु. १, पृ. ११८%, चा. वायः । (गो. जी. जी. प्र. २५६) । सा. पृ. ३०)। ४, नास्थे द्रव्ययाथात्म्यज्ञानवैक-- १क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और ल्यवत्यपि। प्रासुकाप्रासुकत्वेऽपि भावसत्यं वचः यथाख्यात चारित्र इनका जो भाव है उसके अनस्थितम् ॥ (ह. पु. १०-१०६) । ५. अहिंसालक्षणो भव के तुल्य अनन्त प्रमाण होने से उन चारों में आवः पाल्यते येन बचसा तद्भावसत्यं निरीक्ष्य स्व- भावसमवाय है---भाव की अपेक्षा परस्पर समा. प्रयताचारी भवेत्येवमादिकम् । (भ. प्रा. विजयो. नता है। ११९३)।६. छद्मस्थज्ञानिनो वस्तुयाथात्म्यादर्शने- भावसमाधि-भावसमाधिः ज्ञान-दर्शन-चारित्र
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भावसम्यक्चारित्र] ८५४, जैन-लक्षणावली
[भावसंवर तपसात्मिका । (उत्तरा. चू. पृ. २३६)। क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी इत्यादि पदों को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप समाधि को भाव-भावसंयोगी पद जानना चाहिए। समाधि कहा जाता है।
भावसंलेखना-यो राग-द्वेष-मोहानां कषायाणां भावसम्यकचारित्र-उपयुक्तस्य क्रियानुष्ठानमा- च सर्वतः । नैसर्गिकद्विषां छेदो भावसंलेखना तु सा ।। गमपूर्वकं भावचारित्रम् । (त. भा. १-४, पृ. ४६)। (त्रि. श. पु. च. १, ६, ४३६)। उपयोग युक्त जीव का जो पागम के अनुसार स्वाभाविक शत्रुस्वरूप राग, द्वेष एवं मोहरूप कषायों क्रिया का अनुष्ठान है उसे भावचरित्र कहा
को नष्ट करना; इसे भावसंलेखना कहते हैं। जाता है।
भावसंवर- १. संसारनिमित्तक्रियानिवृत्तिर्भावभावसम्यक्त्व-देखो भावसम्यग्दर्शन ।
संवरः। (स. सि. ९-१; त. श्लो. ९-१)।
२. संसारनिमित्तक्रियानिवत्तिर्भावसंवरः। आत्मनो भावसम्यग्ज्ञान-भावज्ञानमुपयोगपरिणतिविशेषावस्था । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, पृ. ४६)।
द्रव्यादिहेतुकभवान्तरावाप्तिः संसारः, तन्निमित्तउपयोग के परिणमन की विशेष अवस्था का नाम
क्रियापरिणामस्य निवृत्तिर्भावसंवर इति व्यपदिश्यते ।
(त. वा. ६, १,८)। ३. क्रियाणां भवहेतूनां निभावज्ञान है।
वृत्तिर्भावसंवरः । (ह. पु. ५८-३००) । ४. भावसंभावसम्यग्दर्शन-१. एते (मिथ्यादर्शनपुद्गलाः)
" वरो गुप्त्यादिपरिणामापन्नो जीवः । (त. भा. सिद्ध. एव विशुद्धा आत्मपरिणामापन्ना भावसम्यग्दर्शनम् ।
वृ.१-५)। ५. रोधस्तत्र कषायाणां कथ्यते भाव(त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, पृ. ४६)। २. नय
___ संवरः । (योगसारप्रा. ५-२)। ६. क्रोध-लोभ-भयनिक्षेप-प्रमाणादिभिरधिगमोपायो जीवाजीवादिसक
मोहरोधनं भावसंवरमुशन्ति देहिनाम् । (अमित. लतत्त्वपरिशोधनरूपज्ञानात्मकं भावसम्यक्त्वम् ।
श्रा. ३-६०)। ७. या संसारनिमित्तस्य क्रियाया (धर्मसं. मान. २-२२, पृ. ३५)। ३. केवलं सत्सं
विरतिः स्फुटम् । स भावसंवरस्त विज्ञेयः परमाख्यादिभार्गणास्थानस्तन्निर्णयो भावसम्यक्त्वम् ।
गमात् । (ज्ञाना. ३, पृ. ४५) । ८. चेदणपरिणामो (अध्यात्मो. पृ. १४०)।
जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू । सो भावसंवरो खलु १ आत्मपरिणाम को प्राप्त होकर विशुद्धि को प्राप्त
xxx॥ (द्रव्यसं. ३४)। ६. कर्मनिरोधे हुए मिथ्यादर्शनरूप पुद्गलों को भावसम्यग्दर्शन कहा
समर्थो निर्विकल्पात्मोपलब्धिपरिणामो भावसंवरो। जाता है।
(पंचा. का. जय. व. १०८)। १०. भावतस्तु भावसंकोच-१. भावसंकोचस्तु विशुद्धस्य मनसो जीवद्रोण्यामाश्रवत्कर्मजलानामिन्द्रियादिच्छिद्राणां नियोगः । (ललितवि. पृ. ६)। २. भावसङ्कोचनं समित्यादिना निरोधनं संवरः । (स्थाना. अभय. वृ. विशुद्धस्य मनसो व्यापारः। (आव. नि. मलय. वृ. १-१४)। ११. भवहेतुक्रियात्यागः स पुनर्भाव८६०, पृ. ४८७)।
संवरः। (योगशा, ४-८०) । १२. कर्मास्रव१ विशुद्ध मन के व्यापार का नाम भावसंकोच है। निरोधात्मा चिद्भावो भावसंवरः । (भावसं. भावसंक्रम-कोधादिएगभावम्हि ट्टिददव्वस्स भा- वाम. ३८६) । १३. भावसंवरः भवकारवंतरगमणं भावसंकमो। (धव. पु. १६, पृ. ३४०)। णपापक्रियानिरोधः XXX । संसारकारणक्रियाक्रोध आदि किसी एक भाव में स्थित द्रव्य का निरोधलक्षणः भावसंवरः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१)। अन्य भाव को प्राप्त होना, इसका नाम भावसं- १४. येनांशेन कषायाणां निग्रहः स्यात् सुदृष्टिनाम् ।
तेनांशेन प्रयुज्येत संवरो भावसंज्ञकः। (जम्बू, च. भावसंयोगपद-भावसंयोगपदानि क्रोधी मानी १३-१२३)। १५. त्यागो भावास्रवाणां जिनवरमायावी लोभीत्वादीनि । (धव. पु. १,५.७८); गदितः संवरो भावसंज्ञो भेदज्ञानाच्च स स्यात्स्वगेरइनो तिरिक्खो कोही माणी बालो जुवाणो समयवपुषस्तारतम्यः कथंचित् । (अध्यात्मक. ४, इच्चेवमाईणि भावसंजोगपदाणि। (धव. पु. ६, पृ. ६)। १६. भावसंवरस्तु संसारकारणभूताया: १३७)।
क्रियाया आत्मव्यापाररूपायास्त्यागः । (धर्मसं.
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भावसंसार]
८५५, जन-लक्षणावलो
[भावसामायिक
मान. स्वो. व. ३-४७, पृ. १३३)।
दर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्बसम्यश्रद्धान- ज्ञानानु१ संसार की कारणभूत क्रियाओं से जो निवृत्ति चरणरूपाणि यानि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि होती है, इसका नाम भावसंवर है। ४ जो जीव । तान्येव न लब्धानि । इति भावसंसारः । (बृ. द्रव्यगुप्ति प्रादि परिणाम को प्राप्त है उसे भावसंवर सं. ३५, पृ. ६१)। ५. संसारशब्दार्थज्ञः तत्रोपयुक्तो कहते हैं। १० जिन इन्द्रियरूप छेदों के द्वारा जीव-पुद्गलयोर्वा संसरणमात्रमुपसर्जनीकृतसम्बन्धिजीवरूप नौका में कर्मरूप जल पा रहा है उनको द्रव्यं भावानां वौदयिकादीनां वर्णादीनां वा संसरणसमिति प्रादि के द्वारा रोक देना, इसे भावसंवर परिणामो भावसंसार इति। (स्थाना. अभय.व. कहा जाता है।
२६१)। ६. कषायाध्यवसायस्थानविवर्तवत्तिर्भावभावसंसार-१. सव्वे पयडि-ट्ठिदिनो अणुभाग- संसारः। (भ. प्रा. मूला. ४३०)। प्पदेसबंधठाणाणि । जीवो मिच्छत्तवसा भमिदो १ प्राणी मिथ्यात्व के वशीभत होकर प्रकृतिबन्वपुण भावसंसारे ॥ (द्वादशानु. २९स. सि. २.१० स्थान, स्थितिबन्धस्थान, अनुभागबन्धस्थान और उद्.) । २. सव्वासिं पगदीणं अणभाग-पदेसबंधठा- प्रदेशबन्धस्थानों के प्राश्रय से जो दीर्घकाल तक णाणि । जीवो मिच्छत्तवसा परिभमिदो भावसंसारे॥ संसारमें परिभ्रमण करता है। इसका नाम भाव(धव. पु. ४, पृ. ३३४ उद्.)। ३. जीवस्यासंख्यात- संसार है। ५ तद्विषयक उपयोगसे युक्त संसार लोकप्रमाणेष्वध्यवसायसंज्ञितेषु भावेषु परावृत्ति - पदार्थ के ज्ञाता को भावसंसार कहते हैं, अथवा वसंसारः। (भ. प्रा. विजयो. १७८०)। ४. अथ जिसमें सम्बन्धी द्रव्यों को गौण किया गया है ऐसे
संसरण (परिभ्रमण) मात्र को भावसंसार जानना निमित्तानि सर्वजघन्यमनोवचन-कायपरिष्पन्दरूपाणि चाहिए, अथवा जीव के औदयिकादि भावों और घेण्यसंख्येयभागप्रमितानि चतु:स्थानपतितानि सर्व- पुदगलों के वर्णादि भावों को भावसंसार कहा जघन्ययोगस्थानानि भवन्ति, तथैव सर्वोत्कृष्टप्रकृतिबन्ध-प्रदशबन्धानामत्तानि सर्वोत्कृष्टमनोवचन-काय- भावसाधु-१. XXX भावंमि य संजतो ब्यापाररूपाणि तद्योग्यश्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि । साहू ॥ (प्राव. नि. १००८, पृ. ५५१); निव्वाणचतुःस्थानपतितानि सर्वोत्कृष्टयोगस्थानानि च भव- साहए जोगे, जम्हा साहेति साहुणो । समा य सव्व न्ति, तथैव सर्वजघन्य स्थितिबन्धनिमित्तानि सर्व- भूएसु, तम्हा ते भावसाहुणो॥ (प्राव. नि. १०१० जघन्यकषायाध्यवसायस्थानानि तद्योग्यासंख्येयलोक- पृ. ५५१)। २. जे णिव्वाणसाहए जोगे साधयंति प्रमितानि षट्स्थानपतितानि च भवन्ति, तथैव च ते भावसाधवो भण्णंति । (दशवै. च. पृ. २६१)। सर्वोत्कृष्टकषायाध्यवसायस्थानानि, तान्यप्यसंख्येय- ३. भावे विचार्यमाणे साधुः संयतः-सम्यक् जिनालोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च भवन्ति, तथैव ज्ञापुरस्सरं सकलसावधव्यापारादुपरतः । (प्राव. सर्वजचन्यानुभागबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यानुभागा- नि. मलय. वृ. १००८)। ध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्- १ जो संयत है-जिनाज्ञापूर्वक समस्त सावध स्थानपतितानि भवन्ति, तथैव च सर्वोत्कृष्टानु- व्यापार को छोड़ चुका है उसे भावसाधु कहते हैं । भागवन्धनिमित्तानि सर्वोत्कृष्टानुभागाध्यवसायस्था- जो मुक्ति के साधक योगों को सम्यग्दर्शनादिनानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपति- रूप व्यापारों को-सिद्ध करते हैं तथा समस्त तानि च विज्ञेयानि । तेनैव प्रकारेण स्वकीय-स्व- प्राणियों में सम-राग-द्वेष से रहित होते हैं वे कीयजघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये तारतम्येन मध्यमानि च भावसाधु कहलाते हैं। भवन्ति, तथैव जघन्यादुत्कृष्टपर्यन्तानि ज्ञानावरणा- भावसाम-देखो भावसामायिक । दिमूलोत्तरप्रकृतीनां स्थितिबन्धस्थानानि च, तानि भावसामायिक-१. प्रायोवमाए परदुक्खमकरणं सर्वाणि परमागमकथितानुसारेणानन्तबारान् भ्रमि- राग-दोसमज्झत्थं । नाणाइतिगं तस्सायपोअणं भाव. तान्यनेन जीवेन, परं किन्तु पूर्वोक्तसमस्तप्रकृति- सामाई ॥ (प्राव. नि. १०४५, पृ. ५७५) । बन्धादीनाम् सद्भावविनाशकारणानि विशुद्धज्ञान- २. णिरुद्धासेसकसायस्स वंतमिच्छत्तस्स गय
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भावसामायिक ]
णिउणस्स छदव्वविसनो बोहो बाहबिवज्जिओ प्रक्वलि भावसामाइयं णाम । ( जयध. १, पृ. ६८) । ३. सर्वजीवेषूपरि मैत्रीभावोऽशुभपरिणामवर्जनं भावसामायिकं नाम । (मूला. वू. ७-१७ ) । ४. आत्मनीव परदुःखाकरणपरिणामो भावसाम, तथा राग-द्वेषमाध्यस्थ्यम् अनासेवनया राग-द्वेषमध्यवर्तित्वम्, सर्वत्रात्मनस्तुल्यरूपेण वर्त्तनं भावसमम् XXX I ( श्राव. नि. मलय. वु. १०४५, पृ. ५७५ ) । ५. भावसामायिकं सर्वजीवेषु मैत्री भावोऽशुभपरि - णामवर्जनं वा । X X X वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः, तस्य सामायिकं भावसामायिकम् । (अन. ध. स्वो टी. ८-१६, पृ. ५५२-५३ ) । ६. भावस्य जीवादितत्त्वविषयोपयोगरूपस्य पर्यायस्य मिथ्यादर्शन - कषायादिसंक्लेशनिवृत्तिः सामायिकशास्त्रोपयोगयुक्तज्ञायकः तत्पर्यायपरिणतसामायिकं वा भावसामायिकम् । (गो. जी. जी. प्र. ३६७ ) । ७. णामभावस्स जीयादितच्चविसयुवयोगरूवस्स पज्जायस्स मिच्छादंसण-कसायादिसं किलेसणियट्टी सामाइयसत्युपयुत्तणायगो तप्पज्जायपरिणदं सामाइयं वा भावसामाइयं । (प्रंगप. पू. ३०६ ) । १ प्रपने समान दूसरों को दुखित न करने का अभिप्राय रखना तथा राग-द्वेष के मध्य में स्थित रहना - न इष्ट से राग करना और न अनिष्ट से द्वेष करना, इसका नाम भावसाम या भावसामाfor है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ( रत्नत्रय) रूप जो समीचीन भाव है उसका श्रात्मा में प्रवेश कराना, इसे भावसामायिक जानना चाहिए। २ जिसने समस्त कषायों को रोककर मिथ्यात्व का वमन कर दिया है--उसे नष्ट कर दिया हैं - तथा जो नयों के व्यवहार में कुशल है ऐसे जीव के जो निर्बाध व स्खलित छह द्रव्यविषयक बोध होता है उसका नाम भावसामायिक है । भावसिद्ध- प्रदइयाई भावे, प्रत्थेणं सव्वहा खवि - ताणं । साहियवं जं खतियं, भावं तो भावसिद्धी उ ॥ ( सिद्धप्राभृत ५ ) ।
जिसने श्रदयिक श्रादि भावों को सर्वथा नष्ट करके केवलज्ञान- दर्शनादिरूप क्षयिक भाव को सिद्ध कर लिया है उसे भावसिद्ध कहते हैं । भावसेवा-दर्पः प्रमादः श्रनाभोगः भयं प्रदोष इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्तिर्भावसेवा । (भ. प्रा.
८५६, जैन - लक्षणावली
[भावागम
विजयो. ४५० ) ।
प्रभिमान, प्रमाद, असावधानी, भय और प्रदोष (द्वेष) इन परिणामों में जो प्रवृत्ति होती हैं उसे भावसेवा कहते हैं । भावस्तव - १. x x x संतगुणकित्तणा भावे ॥ ( श्राव. भा. १६३, पृ. ५६० ) । २. तेसि जिणाण
तणाण- दंसण विरिय सुह-सम्मत्तव्वाबाह- विरायभावादिगुणाणुसरण - परूवणात्रो भावत्थश्रो णाम । ( जयध. १, पृ. १११) । ३. केवलज्ञान- केवलदर्श नादिगुणानां स्तवनं भावस्तव: । (मूला. वृ. ७, ४१) । ४. वर्ण्यन्तेऽनन्यसामान्या यत्कैवल्यादयो गुणाः । भावकैर्भावसर्वस्वदिशां भावस्तवोऽस्तु सः ॥ ( श्रन. ध. ८-४४ ) । ५. भावविषयो भावस्तवः । ( श्राव. भा. मलय. वृ. १६३, पृ. ५६० ) । १ विद्यमान गुणों का कीर्तन करना, इसका नाम भावस्तव है । २ तीर्थंकरों के अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, सम्यक्त्व, अव्याबाध और विरागता श्रादि गुणों के स्मरण व प्ररूपण करने को भावस्तव कहा जाता है । भावस्त्री- स्त्रीवेदोदयेन पुरुषाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावस्त्री । (गो. जी. जी. प्र. २७१) 1
जो जीव स्त्रीवेद के उदय से पुरुष की अभिलाषारूप मैथुन संज्ञा से पीड़ित हो उसे भावस्त्री कहते हैं ।
भावस्नान-ध्यानाम्भसा तु जीवस्य सदा यच्छुद्विकारणम् । मलं कर्म समाश्रित्य भावस्नानं तदुच्यते ॥ ( श्रष्टक. हरि. २ - ६) |
जो कर्मरूप मैल का आश्रय लेकर सदा शुद्धि का कारण है ऐसा जो जीव का ध्यानरूप जल से स्नान है उसे भावस्तान कहा जाता है । भावस्पर्श - १. जो सो भावफासो णाम । उवजुत्तो पाहुडजाणश्री सो सव्वो भावफासो नाम ॥ ( षट्खं. ५, ३, ३१-३२ - पु. १३, पृ. ३५) । २. फासपाहुडं णादूण जो तत्थ उवजुत्तो सो भावफासोत्ति घेत्तव्वो । ( धव. पु. १३, पृ. ३५) 1 १ जो स्पर्शप्राभूत का ज्ञाता होकर उसके विषय में उपयोगयुक्त हो उसका नाम भावस्पर्श है । भावागम - तेषामेव पञ्चानां (जीवाद्यस्तिकायानाम्) मिथ्यात्वोदयाभावे सति संशय-विमोह-विभ्रम
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भावागमकर्म 1
रहितत्वेन सम्यगवायो बोधो निर्णयो निश्चयो ज्ञानसमयोऽर्थ परिच्छित्तिर्भावश्रुतरूपो भावागम इति यावत् । (पंचा. का. जय. वृ. ३) । fararea कर्म के उदय का प्रभाव हो जाने पर जो जीवादि पांच अस्तिकायों का संशय, अनध्यवसाय और विपरीत ज्ञान से रहित यथार्थ बोध होता है उसे भावागम कहा जाता है । भावागमकर्म - देखो श्रागमभावकर्म ।
भावागार चारित्रमोहोदये सत्यगारसम्बन्धं प्रत्यनिवृत्तः परिणामो भावागारमित्युच्यते । (स. सि. ७-१९) ।
चारित्रमोह का उदय रहने पर जो परिणाम घर की प्रोर से निवृत्त नहीं होता है-उसके विषय में अनुरागरूप रहता है - उसे भावागार कहते हैं । भावाग्नि- १. उदयं पत्तो वेदो, भावग्गी होइ तदुवोगेणं । भावो चरित्तमादी, तं डहई तेण भावग्गी ।। (बृहत्क. भा. २१५० ) । २. 'वेद' स्त्री - वेदादिरुदयं प्राप्तः सन् तस्य स्त्रीवेदादेः सम्बन्धी य उपयोग :- पुरुषाभिलाषादिलक्षणस्तेन हेतुभूतेन भावाग्निर्भवति । कुतः इत्याह- भावश्चारित्रादिकः परिणामः तं भावं येन कारणेन दहति तेन भावाग्निरुच्यते, 'भावस्य दाहकोऽग्निर्भावाग्निः' इति व्युत्पत्तेः । (बृहत्क. क्षे. वृ. २१५० ) ।
१ उदय को प्राप्त वेद ( स्त्रीवेद श्रादि ) तद्विषयक उपयोग से -- पुरुषादिविषयक अभिलाषा के द्वाराचूंकि चारित्र श्रादिरूप भाव (परिणाम) को दग्ध करता है, इसीलिए उसे भावाग्नि कहा जाता है । भावाचार्य - देखो आचार्य । आयारो नाणाई तस्सायरणा पभासणातो वा । जे ते भावायरिया भावयारोवउत्ता य ॥ (श्राव. नि. ९६५ ) । ज्ञान दर्शनादिरूप प्रचार पांच प्रकार का है। जो भावाचार में उपयुक्त होकर स्वयं उस श्राचार का परिपालन करते हैं तथा अन्य साधुनों के लिए उसका व्याख्यान करते हैं उन्हें भावाचार्य कहा जाता है
८५७, जेन - लक्षणावली
भावाजीव- १. भावाजीवो धर्मादिर्गत्याद्युपग्रहकारीति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, पृ. ४६ ) 1 २. भावतस्त्वेकरस एकवर्ण एकगन्धो द्विस्पर्श इति । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १२६, पृ. १३१) ।
ल. १०८
[भावाभिग्रह
१ गति स्थिति श्रादि के उपकारक धर्म-अधर्म आदि द्रव्य भाव की अपेक्षा श्रजीव माने जाते हैं । २ भाव की अपेक्षा अजीव (परमाणु) वह है जो एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और दो स्पर्शो ( स्निग्ध-रुक्ष और शीत-उष्ण में से एक-एक ) से सहित हो ।
भावाधः कर्म – संजमठाणाणं कंडगाण लेसा - ठिईविसेसाणं । भावं हे करेई तम्हा तं भावहेकम्मं ॥ (fquefa. &ε) I
जो प्राचरण संयमस्थानों के काण्डकों, लेश्याविशेषों और कर्म प्रकृतियों के स्थितिविशेषों सम्बन्धी विशुद्ध व विशुद्धतर स्थानों में वर्तमान भाव ( श्रध्यवसाय) को श्रधः करता है - हीन व हीनतर स्थानों में करता है—उसे भावाधः कर्म कहा जाता है । यह साधु के श्राहारविषयक १६ उद्गमदोषों में प्रथम है ।
भावानुयोग - भावानामनुयोगो नाम बहूनामौदयिकादीनां भावानां व्याख्यानम् । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १२६, पृ. १३२) । श्रदयिक श्रादि भावों में किसी एक के अथवा बहुतों के व्याख्यान को भावानुयोग कहते हैं । भावापरिणत - दायकादेरशुद्ध भावे भावापरिणतम् । (गु. गु. षट्ट २५, पृ. ५८ ) । दाता आदि के भाव के अशुद्ध होने पर भावापरिणत नाम का एषणादोष ( ८वां ) होता है । भावाभिग्रह - उक्खित्तमाइचरगा, भावजुया खलु अभिग्गा होति । गायंतो व रुदंतो, जं देइ निसन्नमादी वा ॥ श्रसक्कण अहिसवकण परम्मुहाङलं किएयरो वा वि । भावन्नयरेण जुम्रो, ग्रह भावाभिग्गहो नाम ।। (बृहत्क. भा. १६५२-५३ ) । उत्क्षिप्त -- दाता के द्वारा पाकपात्र से पूर्व में ही निकाल कर रखे हुए - भोज्य पदार्थ का अन्वेषण करने वाले भावयुक्त श्रभिग्रह ( भावाभिग्रह ) होते हैं, अर्थात् "मैं पाकपात्र से पूर्व में निकाली गई वस्तु को ही ग्रहण करूंगा, इस प्रकार के नियम का नाम भावाभिग्रह है । अथवा गाता हुआ, रोता हुया या बैठा हुधा श्रादि दाता यदि देगा तो ग्रहण करूंगा, ऐसा जो नियम किया जाता है उसे भावाभिग्रह कहते हैं । तथा हटता हुआ, सन्मुख श्राता
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भावार्त] ८५८, जन-लक्षणावली
[भावाहार हुना, पराङ्मुख होता हुमा, अलंकारयुक्त अथवा भावत एवम्भूतश्चारित्रेऽवसीदतीत्यवसन्नः। (भ. अलंकारों से रहित दाता यदि देगा तो ग्रहण प्रा. विजयो. १९५०)। करूंगा; इस प्रकार के अभिप्रायों में किसी भी जो साधु का वेष धारण करके शुद्ध चारित्र से अभिप्राय से युक्त भावाभिग्रह होता है।
रहित होता हुआ उपकरण, वसति व संस्तर के भावार्त्त-क्रोधादिभिरभिभूतो भावार्तः । (बृहत्क. प्रतिलेखन में; स्वाध्याय में, विहारभूमि के शोधन भा. क्षे. वृ. १२५१)।
में, गोचारशद्धि में, ईर्यासमिति प्रादि में, स्वा. जो क्रोधादि कषायों से पीड़ित है वह भावात कह- ध्याय की समाप्ति में तथा गोचर में प्रयत्नशील लाता है।
नहीं रहता है; अावश्यकों के परिपालन में प्रालस भावा-१.xxx भावेणं होइ रागडें ॥ करता है या होनाधिक रूप में करता है तथा वचन (सूत्रकृ. नि. २, ६, १८५)। २. भावा व काय से करता हुआ भी उसे मन से नहीं करता तु पुनः राग:-स्नेहोऽभिष्वङ्गस्तेनार्द्र यज्जीवद्रव्यं हैं। इस प्रकार से जो चारित्र में खिन्न रहता है तद्भावामित्यभिधीयते । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. २, उसे भावावसन्न साधु जानना चाहिए। ६, १८५)।
भावात्रव-१. भावास्रवास्तु ते (आत्मसमवेताः १ राग का अर्थ स्नेह या प्रासक्ति है, उससे जो पुद्गलाः) एवोदिताः। (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, जीव द्रव्य प्रार्द्र (भीगा हुआ) है उसे भावार्द्र कहा पृ. ४६) । २. मिच्छत्ताइचउक्कं जीवे भावासवो जाता है।
भणियं ।। (द्रव्यस्व. प्र. नयच. १५२) । ३. प्रासभावावग्रह-चउरो प्रोदइअम्मी, खग्रोवसमियम्मि वदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेयो। पच्छिमो होइ। मणसी करणमणुन्नं, च जाण जं भावासमो जिणुत्तो xxx ॥ (द्रव्यसं २६) । जत्थ ऊ कमइ ॥ भावोग्गहो अहव दहा, मइ-गहणे ४. कर्मास्रवनिर्मलनसमर्थशुद्धात्मभावनाप्रतिपक्षमतेन अत्थ-वंजणे उ मई। गहणे जत्थ उ गिण्हे, 'मणसी येन परिणामेनास्रवति कर्म, कस्य? आत्मनः स्वस्य, कर' अकरणे तिविहं । (बृहत्क. भा. ६८४-८५)। स परिणामो भावानवो विज्ञेयः । (बु. द्रव्यसं. टी. देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गहपति-अवग्रह, सागारिक- २६) । ५. निरास्रवशुद्धात्मपदार्थ विपरीतो रागअवग्रह और सार्धामक अवग्रह इन पांच अवग्रहों में देष-मोहरूपो जीवपरिणामो भावानवः । (पंचा. से चार तो 'यह मेरा क्षेत्र है' इत्यादि प्रकार की का. जय. वृ. १०८)। ६. उदयोदीरणाकर्मद्रव्यामूर्छा रहने के कारण प्रौदयिक भाव के अन्तर्गत स्रवो यतः (?) । स्यान्नूत्न (?) द्रव्य-भाव! भावहैं तथा अन्तिम (पांचवां) कषायमोहनीय के क्षयो- द्रव्यास्रवाः क्रमात् । (प्राचा. सा. ३-३०)। पशम से मूर्छा न होने के कारण क्षायोपशमिक ७. आद्यो जीवात्मको भाव: xxx॥ (जम्बू. भाव के अन्तर्गत है। यह भावाग्रह है। भावाग्रह च. ३-५३); तत्र रागादयो भावाः कर्मागमनमति और ग्रहण के भेद से दो प्रकार का है। हेतवः ॥ तस्माद्भावाश्रवो ज्ञेयो रागभावः शरीरिइनमें मतिप्रवग्रह प्रर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह के णाम् । (जम्बू. च. १३, १००-१)। भेद से दो प्रकार का है। जिस देवेन्द्रावग्रह आदि १मात्मा में समवाय को प्राप्त हुए वे ही कर्मरूप में साधु जब किसी सचित्त, अचित्त या मिश्र वस्तु पुदगल उदय को प्राप्त होने पर भावानव कहलाते को ग्रहण करता है तब वह ग्रहणभावावग्रह कह- हैं। २ जीव में जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय लाता है।
और योग ये चार विद्यमान रहते हैं उन्हें भावात्रव भावावसन्न - भावावसन्नोऽशुद्धचरित्रः सीदति कहते हैं। उपकरणे वसति-संस्तरप्रतिलेखने स्वाध्याये विहार- भावाहार-भावाहारस्त्वयम्-क्षुधोदयाद् भक्ष्यभूमिशोधने गोचारशुद्धौ ईसिमित्यादिषु स्वाध्याय- पर्यायापन्नं वस्तु यदाहरति स भावाहारः । (सूत्रकृ. कालावलोकेन स्वाध्यायविसर्गे गोचरे चान्द्यतः नि. शी. व. २, ३, १६६, पृ.८७)। आवश्यकेष्वलसः जनातिरिक्तो वा जनाधिकं करोति क्षुधा के उदय से भक्ष्य अवस्था को प्राप्त वस्तु को कुर्वश्च यथोक्तमावश्यकं वाक्कायाभ्यां करोति न जो ग्रहण किया जाता है उसे भावाहार कहते हैं ।
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भाविद्रव्यकृति
८५६, जैन-लक्षणावली [भा विनोआगमद्रव्यान्तर भाविद्रव्यकृति-जा सा भवियदव्वकदी णाम जे परिणामप्राप्ति प्रत्यभिभुखं द्रव्यं भावीत्युच्यते। (त. इमे कदित्ति अणियोगद्दारा भविप्रोवकरणदाए जो वा. १, ५, ७) । २. गत्यन्तरे स्थितो मनुष्यभवट्रिदो जीवो ण ताव तं करेदि सा सव्वा भविय- प्राप्ति प्रत्यभिमखो भाविजीवः, स एक दव्वकदी णाम । (षठ्खं. ४,१, ६४-पु. ६, पृ. दिप्राभूतं न जानाति केवलमग्रे ज्ञास्यति तदा भावि२७१)।
नोग्रागमः । (न्यायकु. ७४, पृ. ८०७) । ३. अथवा जो जीव भविष्य में कृति अनुयोगद्वारों के उपकरण यदा जीवादिप्राभृतं न जानाति अग्रे तु ज्ञास्यति रूप से स्थित होकर वर्तमान में उसे नहीं कर रहा तदा भाविनोआगमद्रव्यजीवः । (त. वृत्ति श्रुत. है उसे भावी (नोप्रागम) द्रव्यकृति कहते हैं। १-५)। भाविद्रव्यासंख्यात-जं तं भवियासंखेज्जयं तं १ जीवन-मनुष्यादि जीवन-परिणाम और भविस्सकाले असंखेज्जपाहुडजाणुगजीवो। (धव. पु. सम्यग्दर्शन परिणाम की प्राप्ति के प्रति जो अभि३, पृ. १२४)।
मुख द्रव्य है उसे कम से भावी नोमागमद्रव्यजीव जो जीव भविष्य में असंख्यातप्राभूत का ज्ञाता होने और भावी नोप्रागमसम्यग्दर्शन कहते हैं। २ अन्य वाला है उसे भावी द्रव्यासंख्यात कहा जाता है। गति में स्थित जो जीव मनुष्यभव की प्राप्ति के भाविनैगमनय - १. णिप्पण्णमिव पयंपदि भावि- प्रति प्रभिमुख हो रहा है उसे भावी नोमागमद्रव्यजीव पयत्थं खु णरो अणिप्पण्णं । अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ कहते हैं; वही जब जीवादिप्राभृत को वर्तमान में सो भाविणइगमोत्ति णो ॥ (नयच. ३५; नहीं जानता है, किन्तु आगे अवश्य जानेगा तब द्रव्यस्व. प्र. नयच. २०५)। २. भाविनि भूतवत्क- उसे भावी नोग्रागमद्रव्यजीव कहा जाता है । थनं यत्र स भाविनैगमो यथा अर्हन् सिद्ध एव। भाविनोआगमद्रव्यभाव - भावपाहुडपज्जयस(पालापप. पृ. १३८)। ३. भविष्यन्तम् अर्थम् रूवेण जो जीवो परिणमिस्सदि सो णोप्रागमभवियअलीतवत् कथनं भाविनि भूतवत् कथनं भाविनैगमः, दव्वभावो णाम । (धव. पु.५, पृ. १८४)। यथा अर्हन् सिद्ध एव । (कातिके. टी. २७१)। जो जीव प्रागे भावप्राभृत पर्यायरूप से परिणत १ अनिष्पन्न (अनुत्पन्न) भावी पदार्थ को जो होने वाला है उसे भावी नोप्रागमद्रव्य भाव कहते हैं। निष्पन्न के समान कहा जाता है उसे भावी नंगम- भाविनोप्रागमद्रव्यसामायिक-भाविकाले सानय कहते हैं। जैसे-जो प्रस्थ (एक मापविशेष) मायिकप्राभृतज्ञायिजीवो भाविनोग्रागमद्रव्यसामायिअभी उत्पन्न नहीं हना है-मागे उत्पन्न होने कम् । (अन. ध. स. टी. -१६)। वाला है-उसे वर्तमान में प्रस्थ कहना, अथवा जो जीव अागामी काल में सामायिकप्राभत का प्ररहन्त को सिद्ध कहना।
ज्ञाता होने बाला है उसे भावी नोग्रागमद्रव्यसामाभाविनोप्रागमज्ञायकशरीरद्रव्यभाव-भाव- यिक कहा जाता है। पाहडपज्जायपरिणदजीवस्स आहारो जे होसदि भाविनोप्रागमद्रव्यानन्त-जं तं भवियाणंतं तं सरीरं तं भवियं णाम । (धव. ५, पृ. १८४)। अणंतप्पाहुडजाणुगभावी जीवो। (धव. पु. ३, पृ. भावप्राभूतपर्यायरूप से परिणत जीव का जो शरीर प्राधार होगा उसे भावी नोमागमज्ञायकशरीरद्रव्य- जो जीव भविष्य में अनन्तप्राभूत का जानकार भाव कहते हैं।
होने वाला है उसे भावी नोग्रागमद्रव्यानन्त कहा भाविनोप्रागमद्रव्यकाल- भवियणोप्रागमदब्ब- जाता है। कालो भविस्सकाले कालपाहडजाणो जीवो । भाविनोग्रागमद्रव्यान्तर-भवियणोप्रागमदध्वंत(धव. पु. ४, पृ. ३१४)।
रं भविस्सकाले अंतरपाहडजाणो। संपहि संतेवि जो जीब आगामी काल में कालप्राभत का ज्ञाता उवजोए अंतरपाडवगमरहियो। (धव. पु. ५, होने वाला है उसे भावी नोग्रागमद्रव्यकाल कहा पृ. २) । जाता है।
जो जीव भविष्य में अन्तरप्राभूत का ज्ञाता होने भाविनोमागमद्रव्यजीव-१. जीवन-सम्यग्दर्शन- वाला है, पर वर्तमान में उपयोग के होने पर भी
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भाविप्रतिक्रमण] ८६०, जैन-लक्षणावली
[भावेन्द्रिय जो अन्तरप्राभृत के ज्ञान से रहित हैं उसे भावी नो कहलाता है। इन्द्र के अधिकार को-शब्दार्थ को आगमद्रव्यान्तर कहते हैं।
----जो जानता है और तद्विषयक उपयोग से सहित भाविप्रतिक्रमण – चारित्रमोहक्षयोपशमसान्निध्ये हो उसे भाव-इन्द्र जानना चाहिए। भविष्यत्प्रतिक्रमणपर्याय श्रात्मा भाविप्रतिक्रमणम्। भावेन्द्रिय-१. लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् । (त. भ. प्रा. विजयो. ११६)।
सू. २-१८; धव. पु. १, पृ. २३६) ॥ २. लब्ध्यु पचारित्रमोहनीय का क्षयोपशम होने पर जो जीव योगौ भावेन्द्रियम्---अर्थग्रहणशक्तिः लब्धिः, उपयोगः आगे होने वाली प्रतिक्रमण पर्याय से परिणत होने पुनरर्थग्रहणव्यापारः । (लघीय. स्वो. विव. ५, पृ. वाला है उसे भावी प्रतिक्रमण कहते हैं।
११५)। ३. श्रोत्रेन्द्रियादिविषया सर्वात्मप्रदेशानां भाविव्रत-चारित्रमोहस्य क्षयात् क्षयोपशमाद्वा तदावरणक्षयोपशमलब्धिरूपयोगश्च भावेन्द्रियम् । यस्मिन्नात्मनि भविष्यन्ति विरतिपरिणामाः स भा. (नन्दी. हरि. वृ. पृ. २०)। ४. भावेन्द्रियं तु विव्रतम् । (भ. प्रा. विजयो. ११८५)।
क्षयोपशम उपयोगश्च । (ललितवि. पृ. ३९)। चारित्रमोह के क्षय या क्षयोपशम से जिस प्रात्मा ५. भावेन्द्रियाणि तु भावात्मकान्यात्मपरिणतिरूपामें आगे विरतिरूप परिणाम होने वाले हैं उसे भावी- णीति । (त. भा. सिद्ध. व. २-१६); लब्ध्युपयोगी व्रत कहते हैं।
भावेन्द्रियम्-लब्धिः प्रतिस्वमिन्द्रियावरणकर्मक्षयोभाविसामायिक-चारित्रमोहनीयक्षयोपशमविशे- पशमः, स्वविषयव्यापारः प्रणिधानं वीर्यमुपयोगः, षसहायो य आत्मा भविष्यत्सर्वसावद्ययोगनिवृत्ति- एतदुभयं भावेन्द्रियमात्मपरिणतिलक्षणं भवति । परिणामः सोऽभिधीयते भाविसामायिकशब्देन । (भ. (त. भा. सिद्ध. वृ. २-१८)। ६. भावेन्द्रियं नाम प्रा. विजयो. ११६)।
ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषोपलब्धिः, द्रव्येन्द्रियनिमिचारित्रमोहनीय के क्षयोपशम के प्राश्रय से जो जीव तरूपाद्युपलब्धिश्च । (भ. प्रा. विजयो. ११५); आगामी काल में समस्त सावद्ययोग की निवृत्तिरूप भावेन्द्रियं ज्ञानावरणक्षयोपशम इन्द्रियजनितो रूपापरिणाम से युक्त होने वाला है उसे 'भावीसामा- धुपयोगश्च । (भ. प्रा. विजयो. ३१३)। ७. लब्धियिक' शब्द से कहा जाता है।
स्तथोपयोगश्च भावेन्द्रियमुदाहृतम् । (त. सा. भाविसिद्ध-भविष्यत्सिद्धत्वपर्यायो जीवो भावि- २-४४)। ८. मदिनावरणखोवसमुत्थविसुद्धी हु सिद्धः । (भ. प्रा. विजयो. १)।
तज्जबोहो वा। भाविदियं तु xxx ॥ (गो. जिस जीव को आगे सिद्धत्व पर्याय प्राप्त होने जी. १६५)। ६. आत्मप्रदेशावरणक्षयोपशमरूपं वाली है उसे भावीसिद्ध कहा जाता है। भावेन्द्रियम् । (सिद्धिवि. वृ. ८-२६, पृ. ५७०)। भावी अर्हन-देखो भाव्यर्हन् ।
१०. भावेन्द्रियं तु लब्ध्युपयोगात्मकम् । (प्र. क. भावेन अनुयोग - भावेनानुयोग: संग्रहादीनां मा. २-५, पृ. २२६)। ११. लब्धिः सदोपयोगश्च पञ्चानामध्यवसायानामन्यतरेणाध्यवसायेन योऽनु- स्याद् भावेन्द्रियमात्मनः । (प्राचा. सा. ४-२७)। योगः । (प्राव. नि. मलय. व. १२६, पृ. १३२)। १२. xxx इयरं पूण, लदधूवप्रोगेहि नाय संग्रह आदि (संग्रहार्थता, उपग्रहार्थता, निर्जरार्थता, (गु. ग. षट्. स्वो. वृ. १५, उद्.)। १३. जन्तोः श्रतपर्यवजात और अब्यवच्छित्ति) पांच अध्यव- श्रोत्रादिविषयस्तत्तदावरणस्य यः। स्यात् क्षयोपशमो सायों में से किसी एक अध्यवसाय (अभिप्राय) के लब्धिरूपं भावेन्द्रियं हि तत् ॥ स्व-स्वलब्ध्यनुसारेण द्वारा जो ब्याख्या की जाती है उसे भावेन अनुयोग विषयेषु य आत्मनः । व्यापार उपयोगाख्यं भवेद् कहा जाता है।
भावेन्द्रियं च तत् ।। (लोकप्र. ३, ४८०-८१)। भावेन्द्र-जो पुण जहत्थजुत्तो, सुद्धनयाणं तु एस १ लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। भाविदो। इंदस्स व अहिगारं, वियाणमाणो तव. २. अर्थ के ग्रहण करने की शक्ति का नाम लब्धि उत्तो ॥ (बृहत्क. भा. १५)।
और अर्थग्रहण के प्रति जो ब्यापार होता है उसका जो परमैश्वर्यरूप यथावस्थित अर्थ से सहित हो वह नाम उपयोग है, इन दोनों को भावेन्द्रिय कहा शुद्ध नयों-शब्दादि नयों के अनुसार भाव-इन्द्र जाता है। ३ समस्त प्रात्मप्रदेशों सम्बन्धी श्रोत्र
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भावैकान्त ]
आदि इन्द्रियों विषयक उनके आवरण के क्षयोपशम रूप लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं । भावैकान्त- - भाव एवेति सन्नेवेति एकान्तः ग्रसहायधर्मग्रहो भावैकान्तः, सर्वथा सत्त्वाभ्युपगम इत्यर्थ: । ( प्राप्तमी वसु वृ. १ - ९ ) । विवक्षित वस्तु 'सत् ही है' इस प्रकार से जो श्रसत्त्व धर्म की अपेक्षा से रहित ग्रहण होता हैकेवल सत्ता को ही स्वीकार किया जाता है, इसका नाम भावैकान्त है । भावोज्झित - लद्धूण अन्नवत्थे, पोराणे सो उ देइ अन्नस्स । सो वि अनिच्छइ ताई, भावुज्झियमेवायं । (बृहत्क. भा. ६१४) । कोई अन्य नवीन वस्त्रों को प्राप्त करके पुराने बस्त्र किसी दूसरे को देता है, वह ( दूसरा ) भी उन्हें पुराने होने के भाव (अभिप्राय ) से नहीं स्वीकार करता है; इसीलिए इत्यादि प्रकार के त्याग को भावोज्झित कहा जाता है । भावोत्थान कायोत्सर्ग - ध्येयैकवस्तुनिष्ठता ज्ञानयस्य भावस्य भावोत्थानम् । (भ. श्री. विजयो. ११६) ।
ज्ञानमय भाव, जो एक ध्येय वस्तुमें रहता है, इसका नाम भावकायोत्सर्ग है ।
भावोद्योत -- १. भावज्जोवो णाणं जह भणियं सव्वभावदरिसीहिं । तस्स दुपयोगकरणे भावुज्जोवोत्ति णादव्वो । (मूला. ७- १५६ ) । २. भावुज्जोवउज्जोनो लोगालोगं पगासेइ || ( श्राव. नि. १०६२) ।
१ भावोद्योत ज्ञान है, ऐसा सर्वज्ञ ने कहा है, उस का उपयोग करने पर भावोद्योत होता है, ऐसा जानना चाहिए । २ जो उद्योत लोक व अलोक को प्रकाशित करता है वह भावोद्योत उद्योत कहलाता है ।
भावोपक्रम - भावोपक्रमो हि नाम परहृदयाकूतस्य यथावत्परिज्ञानम् । (श्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ. ε२)।
दूसरे के हृदयगत अभिप्राय का जो यथार्थ ज्ञान होता है उसका नाम भावोपक्रम है । भावोपयोगवर्गणा - उबजोगो णाम कोहादिकसा एहि सह जोबस्स संपजोगो, तस्स वग्गणाओ वियप्पा भेदात्ति एट्टो । XXX भावदो तिब्व
८६१, जैन-लक्षणावली
[भाषाद्रव्यवर्गणा
मंदादिभावपरिणदाणं कसायुदयद्वाणाणं जहण्णवियcrogs जावुक्कस्सवियप्पो त्ति छवड्ढिकमेणावट्ठियाणं भावोवजोगवग्गणा त्ति ववएसो; भावविसेसि - दाश्रो उबजोगवग्गणाओ भावोवजोगवग्गणाग्रत्ति विवक्खियत्तादो | जयध. - कसायपा. पृ. ५७६, fz. 2) 1 क्रोधादि कषायों के साथ जो जीव का संयोग होता है उसका नाम उपयोग है, इस उपयोग के विकल्पों या भेदों को उपयोगवर्गणा कहा जाता है। तीव्रसन्द आदि भावों से परिणत कषायों के जघन्य विकल्प से लेकर उत्कृष्ट विकल्प तक षड्-वृद्धिक्रम से श्रवस्थित उदयस्थानों को भावोपयोगवर्गणा कहते हैं ।
भाव्यर्हन्– यस्मिन्नात्मनि अरिहननादयो भविष्यन्ति गुणाः स भाव्यर्हन् । (भ. श्री. विजयो. ४६ ) । जिस जीव में श्रागे अरिहनन - कर्मरूप शत्रु का विनाश - आदि गुण होने वाले हैं उसे भावी प्रर्हन् कहा जाता है।
भाषक - भाषत इति भाषकः । ( श्राव. नि. हरि वृ. ८, पृ. १६ ) ; भाषालब्धिसम्पन्नाः भाषकाः । ( आव. नि. हरि. वृ. १५, पृ. २१) । जो भाषालब्धि से युक्त होते हैं वे भाषक कहलाते हैं ।
भाषा - १. भाष्यत इति भाषा । (श्राव. नि. हरि. वृ. ६ व ८ ) । २. व्यक्तवाग्भिर्वर्ण-पद- वाक्याकारेण भाष्यत इति भाषा । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५- २४, पृ. ३६० ) । ३. भाष्यते इति भाषा, तद्योग्यतया परिणामितनिसृज्य मानद्रव्यसंहतिः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १६१) ।
१ जो बोली जाती है उसे भाषा कहते हैं । २ स्पष्ट वचन बोलने वाले व्यक्ति वर्ण, पद और वाक्य के श्राकार से जो कुछ बोलते हैं उसका नाम भाषा है । भाषाद्रव्यवर्गणा - १. भाषादव्ववग्गणा णाम चव्विहाए भासाए गहणं पवत्तति । तं जहासच्चाए मोसाए सच्चासोसाए असच्चामोसाए । जाई दव्वाई घित्तूणं सच्चादिभासत्ताए परिणामेउ णिस्सरंति जीवा ताणि ताणि दव्वाणि भासादव्ववग्गणा । ( कर्मप्र. चू. १६, पृ. ४० - ४१) । २. तत कोत्तरवृद्धि मत्स्कन्धारब्धा एता अपि भाषानिष्प
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भाषापर्याप्ति] ८६२, जैन-लक्षणावली
[भाषासमिति त्तिहेतुभूता अनन्ता भाषावर्गणा मन्तव्याः । वर्गणास्कन्धान् चतुर्विधभाषारूपेण परिणमयितुं (शतक. मलय. हेम. वृ. ८७, पृ. १०५)। पर्याप्त-स्वरनामकर्मोदयजनिता आहारवगंणावष्टम्भ२ जो वर्गणाएं उत्तरोत्तर एक एक वृद्धि वाले युक्तस्य पात्मनः शक्तिनिष्पत्तिर्भाषापर्याप्तिः । (गो. स्कन्धों से प्रारम्भ होकर भाषा की उत्पत्ति में जी. म. प्र. ११२)। १०. स्वरनामकर्मोदयवशाद कारण होती हैं वे भषावर्गणाएं कहलाती हैं। भाषावर्गणायातपुद्गलस्कन्धान सत्यासत्योभयानुभयभाषापर्याप्ति-१. भाषायोग्यद्रव्यग्रहण-निसर्ग- भाषारूपेण परिणमयितुं शक्तिनिष्पत्तिः भाषापर्याशक्तिनिवर्तनक्रियापरिसमाप्तिर्भाषापर्याप्तिः । (त. प्तिः । (गो. जी. जी. प्र. ११६; कार्तिके. टी. भा. ८-१२; नन्दी. हरि. व. पृ. ४४) । २. भासा- १३४)। ११. येन करणेन सत्यादिभाषायाः प्रायोजोग्गगहण-णिसिरणसत्ती भासापज्जत्ती। (नन्दी. च. ग्यद्रव्याण्यवलम्ब्य चतुर्विधभाषाया परिणमय्य भाषापृ. १५)। ३. भाषायोग्यपुद्गलग्रहण-विसर्गसमर्थ- निसर्जनप्रभः स्यात् तस्य करणस्य निष्पत्तिर्भाषाकरणनिष्पत्तिर्भाषापर्याप्तिः। (त. भा. हरि. व पर्याप्तिः । (भगवती. दा. वृ. ६-४, पृ. ६२)। सिद्ध. वृ. ८-१२, पृ. ३६८ व १६०); अत्रापि १२. भाषाह दलमानाय, गीस्त्वं नीत्वाऽवलम्ब्य च । वर्गणाक्रमेणव भाषायोग्यद्रव्याणां ग्रहण-निसों यया शक्त्या त्यजेत् प्राणी, भाषापर्याप्तिरित्यसौ ॥ तद्विषया शक्तिः सामर्थ्य तन्निवर्तनक्रियापरिसमाप्ति- (लोकप्र. ३-२६)। र्भाषापर्याप्तिः। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ.८, १ भाषा के योग्य द्रब्य के ग्रहण और छोड़ने की १२, पृ. ४०० व १६१)। ४. भाषावर्गणायाः शक्ति के निर्वर्तन रूप क्रिया की समाप्ति को भाषास्कन्धाच्चतुर्विधभाषाकारेण परिणमनशक्तेनिमित्त- पर्याप्ति कहा जाता है। ४ भाषावर्गणा के स्कन्ध नोकर्मपुद्गलप्रचयावाप्तिर्भाषापर्याप्तिः । (धव. पु. १, से चार प्रकार की भाषा के प्राकार से परिणमाने पृ. २५५) । ५. तथा भाषापर्याप्तिरिति । किमुक्तं की शक्ति के कारणभूत नोकर्मरूप पुद्गलसमूह भवति ? येन कारणेन सत्य-मृषा-[सत्यमृषा-असत्य- की प्राप्ति को भाषापर्याप्ति कहते हैं। मृषाया भाषायाश्चतुर्विधाया प्रायोग्यानि पुद्गल- भाषार्य-१. भाषार्या नाम ये शिष्टभाषानियतद्रव्याण्याश्रित्य चतुर्विधाया भाषायाः स्वरूपेण परि- वर्ण लोकरूढस्पष्टशब्दं पञ्चविधानामप्यार्याणां णमय्य समर्थो भवति तस्य कारणस्य निर्वृत्तिः सम्पूर्ण- संव्यवहारं भाषन्ते । (त. भा. ३-१५) । २. भाता भाषापर्याप्तिरुच्यते । (मूला. वृ. १२-४); पार्या नाम ते शिष्टभाषानियतवर्णकम् । पंचानामपि भाषावर्गणायाश्चतुर्विधभाषाकारपरिणमनशक्तेः परि- चार्याणां व्यवहारं वदन्ति ये ॥ (त्रि. श. पु. च. २, समाप्तिर्भाषापर्याप्तिः । (मूला. वृ. १२-११६६)। ३, ६७८)। ६. भाषापर्याप्तिर्वचोयोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वा १ जो शिष्टभाषा में नियत वर्णों से तथा लोकभाषात्वेन परिणमय्य वाग्योग्यतया निसर्जनशक्तिः । प्रसिद्ध स्पष्ट शब्दों से युक्त समीचीन व्यवहार (स्थाना. अभय. वृ. ७३)। ७. यया तु भाषाप्रा- को पांच प्रकार के प्रार्यों के मध्य में बोला करते योग्यं वर्गणाद्रव्यमादाय भाषारूपतया परिणमय्य हैं वे भाषार्य कहलाते हैं । सिद्धसेन गणी के अनुसार मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिः । (शतक. मल. हेम. व. सब अतिशयों से युक्त गणधर प्रादि शिष्ट कहलाते ३८, पृ. ५०)। ८. यया तु भाषाप्रायोग्यान् पुद्ग- हैं तथा उनकी संस्कृत व अर्धमागधी प्रादि भाषा लानादाय भाषात्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मञ्चति शिष्टभाषा मानी गई है। सा भाषापर्याप्तिः । (जीवाजी. मलय. वृ. १२; भाषासमिति-१. पेसुण्ण-हास-कक्कस-परणिदप्पप्रज्ञाप. मलय. वृ. १२; नन्दी. सू. मलय, वृ. १३, पसंसियं वयणं । परिचत्ता स-परहियं भासासमिदी षडशी. मलय. वृ. ३, सप्तति. मलय. वृ. ६ वदंतस्स ॥ (नि. सा. ६२)। २. पेसण्ण-हासपंचसं. मलय. वृ. ५, पृ. ८प्रव. सारो. वृ. १३१७; कक्कस-परणिदाप्पप्पसंस-विकहादी। बज्जिता स-परसंग्रहणी दे. वृ. २६८; बृहत्क. क्षे. वृ. १११२; हियं भासासमिदी हवे कहणं ॥ (मूला. १-१२); कर्मस्त. गो. व. १० षडशी. दे. स्वो. व. २; सच्चं असच्चमोसं अलियादीदोसवज्जमणवज्जं । विचारस. वृ. ४३)। ६. उचितकालायातभाषा- वदमाणस्सणुवीची भासासमिदी हवे सुद्धा ॥ (मूला.
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भाषासमिति ]
५ - ११०; भ. प्रा. १९६२ ) । ३. हित- मितासंदिधानवद्यार्थ नियतभाषणं भाषासमितिः । ( त. भा. ६- ५ ) । ४. हितमितासंदिग्धाभिधानं भाषासमितिः । (त. वा. ६, ५, ५; त. इलो. ६ - ५ ) । ५. आत्मने परस्मै च हितमायत्यां तदात्वे चोपकारकं मुखवसनाच्छादितास्येन, नातिबहु प्रयोजनमात्रसाधकमिदम्, असंदिग्धं सूक्तवर्णमर्थप्रतिपत्तौ वा न सन्देहकारि, निरवद्यार्थमनुपघातकं षण्णां जीवनिकायानांम्, एवंविधं च नियतं सर्वदैव भाषणं भाषासमिति: । ( त. भा. हरि वृ. ६ - ५ ) । ६. भाषणं भाषा, तद्विषया समितिर्भाषासमितिः । उक्तं चभाषासमितिर्नाम हित- मितासन्दिग्धार्थ भाषणम् । ( श्राव. हरि. वृ. पृ. ६१६ ) । ७. त्यक्त्वा कार्कश्य पारुष्यं यतेर्यत्नवतः सदा । भाषणं धर्मकार्येषु भाषासमितिरिष्यते 11 (ह. पु. २ - १२३ ) । ८. आत्मने परस्मै हितमायत्यामुपकारकं मुखवसनाच्छादिता यता, नातिबहु प्रयोजनमात्रसाधकम् मितम्, असं दिदिग्धं सूक्तं अर्थ वर्णप्रतिपत्ती वा न सन्देहकारि निरवद्यार्थमनुपघातकं षण्णां जीवकायानाम्, एवंविधं च नियतं सर्वदैव भाषणं भाषासमितिः । आह चत्यक्तानृतादिदोषं सत्यमसत्यानृतं च निरवद्यम् । सूत्रानुयायि वदतो भाषासमितिर्भवति साधोः ॥ ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-५) । ६. व्यलीकादिविनिर्मुक्तं सत्यासत्यामृषाद्वयम् । वदतः सूत्रमार्गेण भाषास मितिरिष्यते ॥ ( त. सा. ६-८ ) । १०. दशदोषविनिर्मुक्तां सूत्रोक्तां साधुसम्मताम् । गदतोऽस्य मुने र्भाषां स्याद्भाषासमितिः परा ।। (ज्ञानार्णव १८-६६ पृ. १८९ ) । ११. भाषासमितिः श्रुतधर्माविरोधेन पूर्वापरविवेक सहित मनिष्ठुरादि वचनम् । (मूला. वृ. १- १० ) । १२. भेद - पैशून्य - परुषप्रहासोक्त्यादिवर्जिता । हित-मिता निःसन्देहा भाषा भाषासमित्याख्या || ( श्राचा. सा. १ - २३ ) ; मित- सत्य - हितस्योक्तिर्मन:सन्देहभेदिनः । वचसोऽनुभयस्यापि भाषासमितिरिष्यते । ( याचा. सा. ५-६१ ) । १३. भाषासमितिः निरवद्यवचनप्रवृत्तिः । ( समवा. अभय वृ. ५) । १४. श्रवद्यत्यागतः सर्वजनीनं मितभाषणम् । प्रिया वाचंयमानां सा भाषासमितिरुच्यते ।। (योग शा. स्वो विव. १-४२ ) । १५. कर्कशा परुषा कवी निष्ठुरा परकोपिनी । छेदङ्करा मध्यकृशातिमानिन्यनयङ्करा ॥ भतहिंसाकरी चेति दुर्भाषां दश
८६३, जैन-लक्षणावली
[भाषासमित्यतिचार
धा त्यजन् । हितं मितमसन्दिग्धं स्याद् भाषासमितो वदन् । (अन. ध. ४, १६५-६६ ) । १६. हितं परमितमसन्दिग्धं सत्यमनसूयं प्रियं कर्णामृतप्रायमशंकाकरं कषायानुत्पादकं सभास्थानयोग्यं मृदु धर्माविरोधि देश-कालाद्युचितं हास्यादिरहितं वचोऽभिधानं सम्यक् भाषासमितिर्भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ६.५ ) । १७. भाषासमितिः श्रागमानुसारेण वचनम् । ( चारित्रप्रा. टी. ३६) । १८. परबाधाकरं वाक्यं न ब्रूते धर्मदूषितम् । यस्तस्य समितिर्भाषा जायते वदतो हितम् ॥ ( धर्मसं. ६ - ५ ) । १६. हितं यत्सर्वजीवानां निरवद्यं मितं वचः । तद्धर्महेतोर्वक्तव्यं भाषासमितिरित्यसौ । तदुक्तम् — सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयात् सा भाषासमितिर्भवेत् ॥ ( लोकप्र. ३०, ७४५-४६) । २०. वचो धर्माश्रितं वाच्यं वरं मौनमथाश्रयेत् । हिंसाश्रितं न तद्वाच्यं भाषासमितिरिष्यते ।। (लाटीसं. ५ - २२७ ) । २१. भाषाजात वाक्यशुद्धयध्ययनप्रतिपादितां सावद्यां भाषां घूर्त्त कामुक क्रव्याद-चौरचार्वाकादिभाषितां निर्दम्भतया वर्जयतः सर्वजनीनं स्वल्पमप्यतिप्रयोजनसाधकमसन्दिग्धं च यद्भाषणं सा भाषासमिति: । ( धर्मसं. मान ३-४७, पृ. १३१) ।
1
१ पैशुन्य, हास्य, कर्कश, परनिन्दात्मक और श्रात्मप्रशंसारूप वचन को छोड़कर जो स्व और पर के लिए हितकर वचन को बोलता है उसके भाषासमिति होती है । ३ हितकर, परिमित, सन्देह से रहित और निष्पाप अर्थ के सूचक वचन के सदा बोलने का नाम भाषासमिति है । भाषासमित्यतिचार - इदं वचनं मम गदितुं युक्तं न वेति अनालोच्य भाषणम्, अज्ञात्वा वा । अत एवोक्तम्- 'अपुट्ठो दु ण भासेज्ज भासमाणस्स अंतरे' इति । श्रपृष्टश्रुतधर्मतया मुनिः अपृष्ट इत्युच्यते । भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात् इत्यर्थः । एवमादिको भाषासमित्यतिचारः । ( भ. प्रा. विजयो. १६) ।
यह वचन बोलने योग्य है या नहीं, इस प्रकार का विचार न करके भाषण करना, अथवा बिना जाने भाषण करना तथा बिना पूछे भाषण करना; इत्यादि भाषासमिति के प्रतिचार हैं- उसे दूषित करने वाले हैं ।
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भाष्य] ८६४, जैन-लक्षणावली
[भिक्षु भाष्य - भाष्यो वर्ण-पद-वाक्याकारेण भाष्यत इति व याग आदि के घर को छोड़ना; दीनवृत्ति का त्याग कृत्वा । (त. भा. हरि. वृ. ५-२६)।
करना, प्रासुक आहार के खोजने में सावधान रहना जो शब्द वर्ण, पद और वाक्य के प्राकार से बोला। तथा प्रागमोक्त निदोष भोजन के द्वारा जीवनयात्रा जाता है उसे भाष्य कहते हैं। यह छह प्रकार के को सफल करना; इस सबका नाम भिक्षाशुद्धि है। शब्द में अन्तिम है।
जिस प्रकार गुणरूप सम्पदा का कारण साधु जन भाष्य जप-यस्तु परैः श्रूयते स भाष्यः । (निर्वा- की सेवा है उसी प्रकार चारित्ररूप सम्पदा का णक. पृ. ४)।
कारण यह भिक्षाशुद्धि है। लाभ-अलाभ और जो जप दूसरों के द्वारा सुना जाता है उसे भाष्य सरस-नीरस भोजन में समान सन्तोष होने से इसे जप कहते हैं।
भिक्षा कहा जाता है। भिक्षापरिमाण-भिक्षापरिमाणम् एकां भिक्षां भिक्षु-१. भिक्खू अणुन्नए विणीए नामए दन्ते द्वे एव वा गृह्णामि नाधिकामिति । (भ.पा. विजयो. दविए वोसट्टकाए संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोव२१९)।
सग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवट्टिए ठिअप्पा संखाए मैं एक अथवा दो ही भिक्षाओं को ग्रहण करूंगा, परदत्तभोई भिक्ख ति वच्चे। (सत्र. कृ. १, १६, अधिक को नहीं; इस प्रकार के नियम का नाम ३)। २. मोणं चरिस्सामि समेच्च धम्म, सहिए भिक्षापरिमाण है।
उज्जकडे णियाण छिन्ने । संथवं जहेज्ज अकामकामे, भिक्षाशुद्धि-१. भिक्षाशुद्धिः परीक्षितोभयप्रचारा अन्नायएसी परिव्वए स भिक्खू ॥ राम्रोवरयं चरेप्रमृष्टपूर्वापरस्वांगदेशविधाना आचारसूत्रोक्तकाल- ज्ज लाढे, विरए वेदवियाऽऽयरक्खिए। पन्ने अभिभूय देश-प्रकृति प्रतिपत्तिकुशला लाभालाभ-मानापमान- सव्वदंसी, जे कम्हि वि ण मुच्छिए स भिक्खू ॥ (त. श्लो. 'मान-प्रतिमान-')समानमनोवृत्तिः लोक- अक्कोसवहं विइत्तु धीरे, मुणी चरे लाढे णिच्चमायगर्हितकुलपरिपर्जनपरा चन्द्रगतिरिव हीनाधिकगृहा गुत्ते । अव्वग्गमणे असंपहिछे, जे कसिणं अहियासए
शिष्टोपस्थाना दीनानाथ-दानशाला-विवाह-यजन- स भिक्ख ॥ पंतं सयणासणं भइत्ता, सीउण्हं विविहं गेहादिपरिवर्जनोपलक्षिता (त. श्लो. 'त-') दीनवृत्ति- च दंसमसगं । अव्वग्गमणे असंपहिछे, जे कसिणं विगमा प्रासुकाहारगवेषणप्रणिधाना आगमविहित- अहियासए स भिक्खू ॥ णो सक्कियमिच्छती न पूयं, निरवद्याशनपरिप्राप्तप्राणयात्राफला, तत्प्रतिबद्धा हि णो वि य वंदणगं कुप्रो पसंसं । से संजए सुव्वए चरणसंपत् गुणसम्पदिव साधुजनसेवानिबन्धना सा तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥ जेण पुण लाभालाभयोः सुरस-विरसयोश्च समसन्तोषाद्भिक्षेति जहाइ जीवियं, मोहं वा कसिणं मियच्छई। नरभाष्यते । (त. वा. ६, ६, ६ त. श्लो. ६-६; नारिं पजहे सया तवस्सी, ण य कोऊहलं उवेइ स चा. सा.पृ. ३५)। २. वाश्चित्त-काय-कारित-कृता- भिक्खू ।। छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्खं, सुमिणं लक्षण नुमतकर्मणा। नवभेदं तदेतेन कर्मणा परिवजिता ॥ दंड वत्थविज्जं । अंगवियारं सरस्सविजयं, जे विज्जायोदगमोत्पादनेषणर्दोषः संयोजनेन च । प्रमाणाडार- हिण जीवई स भिक्ख || मंतं मूलं विविहं विज्जधूमाख्य यंपेता कारणान्विता ॥ एषणासमितिप्रोक्त- चितं, वमण-विरेयण-धूम-नेत्त-सिणाणं । आउरे क्रमाप्ताशनसेवना । भिक्षाशुद्धिर्गणवातरक्षादक्षा सरणं तिगिच्छियं च, तं परिन्नाय परिचए स स्मृता नुता ।। (प्राचा. सा. ८, १६-१८)। भिक्खू ॥ खत्तिय-गण-उग्ग-रायपुत्ता, माहणभोइय १ भिक्षा को जाते हुए दोनों ओर देखकर गमन विविहा य सिप्पिणो। नो तेसि वयइ सिलोगपूर्य, करना, अपने पूर्वापर शरीर के भाग का विधिपूर्वक तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खु ।। गिहिणो जे प्रतिलेखन करना; आचारशास्त्र में निर्दिष्ट काल, पवइएण दिट्ठा, अप्पव्वइएण व संथुया हवेज्जा । देश और प्रकृति के जानने में कुशल होना; लोक- तेसि इहलोइयप्फलटा, जो संथवं न करेइ स निन्द्य कुलों को छोड़ना, चन्द्रगति के समान भिक्ख ॥ सयणासण-याण-भोयणं, विविहं खाइमहोन-अधिक घरों में जाना, उपस्थान की विशेषता साइमं परेसिं । अदए पडिसेहिए नियंठे, जे तत्थ ण से सहित होना; दीन, अनाथ, दानशाला, विवाह पउस्सई स भिक्खू ।। जं किंचि आहारपाणं विविहं
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भिक्षु] ८६५, जन-लक्षणावली
.. [भिक्षु खाइम-साइमं परेसि लर्बु । जो तं तिविहेण णाणु- गुणतवोरए अनिच्चं, न सरीरं चाभिकंखए जे स कंपे, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खु ॥ आयामगं भिक्खू ॥ असई वोसट्टचत्तदेहे, अक्कुठे व हए चेव जवोदणं च, सीयं सोवीरजवोदगं च । णो लूसिए वा । पुढविसमे मुणी हविज्जा, अनिपाणे हीलए पिंडं णीरसं तु, पंतकुलाइं परिव्वए स अकोउहल्ले जे स भिक्खू ।। अभिभूत्र काएण परीभिक्खू ॥ सदा विविहा भवंति लोए, दिव्वा माणु- सहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं । विइत्तु जाईमरणं स्सया तहा तिरिच्छा । भीमा भयभेरवा उराला, जो महन्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ॥ हत्थसोच्चा ण विहेज्जई स भिक्खू ॥ वायं विविहं संजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए । अज्झप्परए समिच्च लोए, सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा। सुसमाहिअप्पा, सुत्तत्थं च विप्राणइ जे स भिक्खू ॥ पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, उवसंते अविहेडए स उवहिंमि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पु. भिक्ख ॥ असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइंदिए लाए। कयविक्कयसंनिहियो विरए, सव्वसंगावगए सव्वो विप्पमक्के । अणक्कसाई लहअप्पभक्खी, अजे स भिक्ख ॥ अलोल भिक्खु न रसेसू गिज्झे, चिच्चा गिह एगयरे स भिक्खू ॥ (उत्तरा. १५, उंछं चरे जीविन नाभिकंखे । इड्ढि च सकारण१-१६) । ३. निक्खम्ममाणाइ अ बुद्धवयणे, निच्चं पूअणं च, चए ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू । न चित्तसमाहियो हविज्जा । इत्थीण वसं न प्रावि गच्छे, परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज्ज न तं वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू | पुढवि न खणे न वइज्जा । जाणिन पत्तेग्रं पुण्णपावं, अत्ताणं ण समु. खणावए, सीग्रोदगं न पिए न पियावए। अगणिसत्थं कसे जे स भिक्खू ।। न जाइमत्ते न य रूवमत्ते न लाभजहा सुनिसिअं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥ मत्ते न सुएण मत्ते। मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिदे न धम्मज्भाणरए जे स भिक्खू ॥ पवेअए अज्जपयं छिदावए। बीआणि सया विवज्जयंतो, सच्चित्तं महामणी, धम्मे ठिपो ठावयई परं पि । निक्खम्म नाहारए जे स भिक्खू ।। वहणं तस-थावराण होइ, वज्जिज्ज कुसीललिङ्ग, न प्राविहासंकुहए जे स पुढवीतणकट्ठनिस्सिपाणं । तम्हा उद्देसिधे न भुंजे, भिक्खू ॥ तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए नोऽवि पए न पयावए जे स भिक्खू ॥ रोइन नाय- निच्चहिअट्ठअप्पा । छिदितु जाइमरणस्स बंधणं, पुत्तवयणे, अत्तसमे मन्निज्ज छप्पि काए । पंच य फासे उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई॥ (दशवै. सू. १०, महव्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खु ॥ चत्तारि- १-२१) । ४. भिदंतो यावि खुहं भिक्खू xxxi वमे सया कसाए, धुवजोणी हविज्ज बुद्धवयणे। (व्यव. भा. पी. द्वि. वि. १२)। ५. भिक्षणशीलो अहणे निज्जायरूवरयए, गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्षुः भिनत्ति वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भिक्षुः। (दशवै. भिक्ख ॥ सम्महिदी सया प्रमुढे, अस्थि है नाणे तवे नि.हरि. व. २-१५८); प्रारम्भपरित्यागाद्धर्मसंजमे अ। तवसा धुणइ पुराणपावगं, मणवयकाय- कायपालनाय भिक्षणशीलो भिक्षुः । (दशव. सू. हरि. सुसंवुडे जे स भिक्खू ॥ तहेव असणं पाणगं वा, वृ. ४-१०, पृ. १५२) । ६. क्षुधमष्टप्रकारं कर्म विविहं खाइम-साइमं लभित्ता। होही अदो सुए परे भिदानो भिक्षः। (व्यव. भा. पी. द्वि. वि. मलय.. वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ तहेव १२) । ७. विनिजितेन्द्रियग्रामः, सर्वजीवदयापरः । असणं पाणगं वा, विविहं खाइम-साइमं लभित्ता। सर्वशास्त्रार्थदर्शी च, भिक्षुर्मोक्षपदं व्रजेत् ।। (बुद्धिसा. छदिन साहम्मिमाण भुंजे, भुच्चा सज्झायरए जेस ५२) । भिक्खू ।। न य वुग्गहियं कहं कहिज्जा, न य कुप्पे १जो शरीर से व भाव से-अभिमान से-उन्नत निहुइंदिए पसंते । संजमे धुवं जोगेण जुत्ते, उवसंते न हो, विनीत हो, अपने को गुरु आदि के प्रति अविहेडए जे स भिक्खू ॥ जो सहइ ह गामकंटए, नमाने वाला हो अथवा विनय से पाठ प्रकार के अक्कोस-पहार-तज्जणाप्रो अ। भयभेरवसहसप्पहासे, कर्म को नमाने वाला हो, इन्द्रियों व मन का दमन समसुदुक्खसहेन जे स भिक्बू ॥ पडिमं पडिवज्जि करने वाला हो, शरीर से ममत्व को छोड़ चुका हो, श्रा मसाणे, नो भीयए भयभेरवाइं दिस्स । विविह- अनेक प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल परीषह व उप
ल. १०६
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[भीर
भित्तिकर्म]
८६६, जैन-लक्षणावली सों को नष्ट करके उन्हें सहन करके-अध्यात्म- भिन्नदशपूर्वी कहते हैं । योग से-धर्मध्यान से-निर्मल पादान (चारित्र) भिन्नमुहूर्त-१. समऊणेक्कमुहुत्तं भिण्णमुहुत्तं x वाला हो, सम्यकचारित्र में उद्यत होकर उन्नति xx। (ति. प. ४-२८८) । २. Xxx वे को प्राप्त हो, स्थितात्मा-जिसकी प्रात्मा परीषह णालिया मुहुत्तो दु । एगसमएण हीणो भिण्णमुहुत्तो व उपसर्ग से अधृष्य होकर मोक्षमार्ग में स्थित हो, भवे सेसं ।। (धव. पु. ३, पृ. ६६ उद्.); तत्थ जो संसार को प्रसारता और बोधि को दुर्लभता (मुहुत्ते) एगसमए अवणिदे सेसकालपमाणं भिण्णको जानकर संयम के परिपालन में उद्यत हो, तथा मुहत्तो उच्चदि । (धव. पु. ३, पृ. ६७); भिण्णमुदूसरों के द्वारा दिये गये पाहार का उपयोग करने हुत्तं समऊणमुहुत्तं । (धव. पु. १३, पृ. ३०६) । वाला हो; इन गुणों से जो सम्पन्न हो उसे भिक्ष ३. एयसमएण हीणं भिण्णमहत्तं तदो सेसं। (जं. कहना चाहिए।
दी. प. १३-६; गो. जी. ५७५) । ४. एकेन समभित्तिकर्म-घरकुड्डेसु तदो अभेदेण चिदपडिमानो येन न्यूनो मुहूर्तो भिन्नमुहूर्तः । (चारित्रप्रा. टी. भित्तिकम्मं । (धव. पु. ६, पृ. २५०); कुड्डेहितो १७)। अभेदेण कदएहि णिप्पाइयपडिमानो भित्तिकम्माणि १ एक समय कम मुहूर्त को भिन्नमूहूर्त कहा जाता णाम। (धव. पु. १३, पृ. १०); कुड्डेसु अभेदेण है। घडिदपंचलोगपालपडिमानो भित्तिकम्माणि णाम । भिन्नाभिन्नाक्षरचतुर्दशपूर्वधरत्व-भिन्नाक्षरा(धव. पु. १३, पृ. २०२); तेण चेव (मट्टियपिंडेण) णि किञ्चिन्यूनाक्षराणि चतुर्दशपूर्वाणि सम्पूर्णानि कडडेस घडिदरूवाणि भित्तिकम्माणि णाम । (धव. वा, तद्धारणत्वम् । (त. भा. सिद्ध. व. १०-७, पृ. पु. १४, पृ. ६)।
३१७)। घर की दीवालों पर जो उनसे अभिन्न प्रतिमायें
कुछ अक्षरों से कम अथवा सम्पूर्ण चौदह पूर्वो को रची जाती हैं, इसे भित्तिकर्म कहा जाता है।
धारण करना, इसका नाम भिन्नाभिन्नाक्षरचतुर्दशदीवालों पर उनसे अभिन्न रूप में रची गई पांच
ऋद्धि है। लोकपालों की प्रतिमाओं का नाम भित्तिकर्म है।।
भिषग् - भिषगायुर्वेद विद्वैद्यः शस्त्रकर्मविच्च । भिन्नदशपूर्वी- देखो अभिन्नदशपूर्वी । तत्थ
(नीतिवा. १४-२६, पृ. १७४) । एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्त-पढ
जो आयुर्वेद को जानता है वह भिषग् कहलाता है माणियोग-पुव्वगय-चूलियात्ति पंचहियारणिबद्धदिट्ठि
तथा जो प्रायुर्वेद और शस्त्रक्रिया को भी जानता है वादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादि कादूण पढंताणं
वह वैद्य कहलाता है। दसपुवीए विज्जाणुपवादे समत्ते रोहिणीपादिपंचसयमहाविज्जाओ अंगुट्ठपसेणादिसत्तसयदहरविज्जाहि
भिषग्वृत्ति- १. गजाश्वजांगुलीबालवद्याद्यैर्नीच
वृत्तिभिः । भिषग्वृत्तिर्मता तादगन्यरप्यशनार्जनम् ॥ अणुगयाओ किं भयवं प्राणवेदि त्ति ढुक्कंति । एवं । ढक्कंताणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो
(प्राचा. सा. ८-३८)। २. गजचिकित्सा विषभिण्णदसपुवी। (धव. पु. ६, पृ.६६)।
चिकित्सा जांगुल्यपरनामा बालचिकित्सा तादृशान्यग्यारह अंगों को पढ़कर तत्पश्चात् परिकर्म, सूत्र,
चिकित्साभिरशनार्जनं भिषग्वृत्तिः। (भावप्रा. टी. प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका, इन पांच अधि
६९)। कारों में विभक्त दृष्टिवाद के पढ़ते समय उत्पाद- १
१ हाथी, घोड़ा, विष या मन्त्र और बालक प्रादि पूर्व को प्रादि लेकर प्रागे के पूर्वो को पढ़ते हुए
को चिकित्सा द्वारा तथा इसी प्रकार की दूसरी भी दसवें विद्यानुवाद पूर्व के समाप्त होने पर रोहिणी
नीच वृत्तियों से-हीन भाजीविका के साधनों सेआदि पांच सौ महाविद्याएं तथा अंगुष्ठप्रसेनादि सात
भोजन प्राप्त करना, इसे भिषग्वृत्ति कहते हैं। सो लघुविद्याएं प्राकर पूछती हैं कि भगवन् क्या भीरु-भीरुः ऐहिकामुष्मिकापायभीलुकः । (सम्बोआज्ञा देते हैं, इस प्रकार से प्रार्थना करने वाली धस. गु. वृ. २३, पृ. २०) । उक्त विद्यानों के लोभ को जो प्राप्त होता है उसे इस लोक सम्बन्धी व परलोक सम्बन्धी अपाय से
पर्वधरत
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भुक्त] ८६७, जैन-लक्षणावलो
[भूतनगमनय जो भयभीत रहता है उसे भीर कहते हैं। यह श्रानक भूत (व्यन्तरविशेष)-१. भूताः श्यामाः सुरूपाः के २१ गुणों में छठा है।
सौम्याः पापीवरा नानाभक्तिविलेपनाः सुलसध्वजाः भुक्त-रज्ज-महन्वयादिपरिपालणं भुत्ती णाम, तं कालाः। (त. भा. ४-१२)। २. भूताः सुरूपाः भुत्तं XXX । (धव. पु. १३, पृ. ३५०)। सौम्या नानाभक्तिविलेपनाः । (बृहत्सं. मलय. वृ. राज्य और महावतों आदि के परिपालन को भुक्त पृ. ५८)। या भुक्ति कहते हैं।
१ जो व्यन्तरदेव वर्ण से श्याम, सुन्दर, प्रियदर्शन, भुक्ति-देखो भुक्त।
कुछ स्थूल, अनेक प्रकार के विलेपनों से सहित और भुक्तिरोध-देखो अन्न-पाननिरोध । भुक्तिरोधो- लाल वर्ण वाली ध्वजा से युक्त होते हैं उनका नाम ऽन्न-पानादिनिषेधः । सोऽपि दुर्भावाद् बन्धवदतिचारः। भूत है। Xxx। (सा. ध. स्वो. टी. ४-१५)। भूत (प्राणी)-१. तासु तासु गतिषु कर्मोदयवशाभोजन पान को रोक देना, इसका नाम भुक्तिरोध द्भवन्तीति भूतानि, प्राणिन इत्यर्थः । (स. सि.६-१२)। है। यह अहिंसाणव्रत का एक अतिचार है। २. प्रायुर्नामकर्मोदयवशाद्भवनाद् भूतानि । तासु तासु भजाकार उदय-जमेण्हि पदेसग्गमुदिण्णं तत्तो योनिष्वायुर्नामकर्मोदयवशाद् भवनाद् भूतानि, सर्वे अणंतर उवरिमसमए बहुपदेसग्गे उदिदे एसो भजगारो प्राणिनः इत्यर्थः। (त. वा. ६, १२, १)। ३. आयु. णाम । (धव. पु. १५, पृ. ३२५) ।
र्नामकर्मोदयवशाद् भवनाद् भूतानि सर्वे प्राणिनः । जितना प्रदेश पिण्ड इस समय उदय को प्राप्त है, (त. श्लो. ६-१२)। ४. उक्तं च -प्राणा द्वि-त्रिअनन्तर प्रागे के समय में उससे अधिक प्रदेश पिण्ड चतुः प्रोक्ताः भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेके उदय को प्राप्त होने पर वह भुजाकार (भूयस्कार) न्द्रिया प्रोक्ताः शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ।।१।। इति, प्रदेशोदय कहलाता है।
यदि वा Xxx कालत्रयभवनात् भूताः । भजाकार उदीरणा-जानो एण्हि पयडीयो उदी- (प्राचारा. सू. शी. वृ. १, १, ६, ५१) । रेदि तत्तो अणंतरप्रोसक्काविदे समए अप्पदरियानो १ जो कर्म के उदय के वशीभूत होकर उन उन उदीरेदि ति एसो भुजगारो। (धव. पु. १५, पृ. गतियों में होते हैं उन प्राणियों का नाम भूत है।
४ तरुनों (वनस्पति जीवों) को भूत कहा जाता जितनी प्रकृतियों को इस समय उदीरणा करता है, है । अथवा जो तीनों कालों में होते हैं वे भूत कहअनन्तर पीछे के समय में उससे कम प्रकृतियों को लाते हैं। उदोरणा के होने पर वह भुजाकार उदीरणा कह- भूत काल-तदेव (क्रियापरिणतं द्रव्यम्) काललाती है।
___वशादनुभूतवर्तनासम्बन्धं भूतम्, कालाणुरपि भूतः । भुजाकार बन्ध-देखो भूयस्कारबन्ध । तत्र प्रथमो (त. वा. ५, २२, २५) । (भुजाकारबन्धो) अल्पप्रकृतिकं बध्नतो बहुप्रकृति- जो क्रियापरिणत द्रव्य वर्तना सम्बन्ध का अनुभव बन्धे स्यात् । (गो. क. जी. प्र. ५६४)। कर चुका है उसको तथा कालपरमाणु को भी थोड़ी प्रकृतियों को बांधते हुए आगे बहुत प्रकृतियों भूत कहा जाता है। के बांधने पर उसे भुजाकार बन्ध कहा जाता है। भूतनैगमनय-१. णिव्वत्तदव्वकिरिया वट्टणकाले भुजाकार संक्रम-जे एण्हि अणुभागस्स फद्दया दु जं समाचरणं । तं भूयणइगमणयं जह अड णिव्वुसंकामिज्जति ते जइ अणंतरविदिक्कते समए संका. इदिणं वीरे ।। (नयच. दे. ३३; द्रव्यस्व. प्र. नयच. मिदफद्दएहितो बहुमा होति तो एसो भुजगारसंकमो। २०६)। २. प्रतीते वर्तमानारोपणं यत्र स भूतनै(धव. पु. १६, पृ. ३६८)।
गमः, यथा अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी अनभाग के जो स्पर्धक इस समय संक्रमण को प्राप्त मोक्षं गतः । (पालापप. पृ. २१६) । ३. अतीतं हो रहे हैं, यदि वे अनन्त र पिछले समय में संक्रम भूतम्, अतीतार्थं विकल्परूपं वर्तमानारोपणम् अर्थ को प्राप्त कराये गये उक्त स्पर्धकों से बहुत होते हैं पदार्थ साधयति स भूतनगमः । (कातिके. टी. तो यह भुजाकारसंक्रम कहलाता है।
२७१)।
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भूतविद्या]
८६८, जंन - लक्षणावली
[भूयस्कार उदय
१ जो कार्य हो चुका है उसका वर्तमान काल में ताया राजिरुत्पन्ना वर्षापेक्षसंरोहा परमप्रकृष्टाऽष्टजो आरोप किया जाता है उसे भूतनैगमनय कहते मास स्थितिर्भवति, एवं यथोक्तनिमित्तो यस्य क्रोवोहैं । जैसे- श्राज वर्धमान जिन मुक्तिको प्राप्त हुए। Sनेकवर्ष स्थायी दुरनुनयो भवति स भूमिराजिसदृशः । भूत विद्या - भूतानां निग्रहार्था विद्या शास्त्रं भूत- ( त. भा. ८-१० पु. १४४ ) । २. पृथ्वीभेदसमाविद्या, सा हि देवासुर- गन्धर्व-यक्ष-राक्षसाध्युपसृष्ट- नानुत्कृष्टशक्तिविशिष्टः कोध स्तिर्यग्गतौ जीवमुत्पादचेतसां शान्तिकर्म - वलिकरणादिभिर्ग्रहोपशमनार्था । यति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २८४)। ( विपाक. सू. श्रभय. वृ. पू. ४६ ) । १ जिस प्रकार सूर्य की किरणों के समूह से जिसकी चिक्कणता ग्रहण कर ली गई है तथा जो वायु से ताड़ित हुई है ऐसी पृथिवी के रेखा उत्पन्न हुई, वह वर्षा से भर जाती है । उसके भरने का उत्कृष्ट काल आठ मास है । इसी प्रकार यथोक्त कारण से जिसके क्रोध उत्पन्न हुआ है उसका वह क्रोध अनेक वर्ष रहता है व कष्ट से दूर होता है । इस प्रकार का वह क्रोध भूमिराजिसदृश कहलाता है। २ जो क्रोध पृथिवीभेद के समान अनुत्कृष्ट ( उत्कृष्ट से भिन्न) शक्ति से युक्त होता है वह पृथिवीराजि के सदृश माना जाता है और वह जीव को तिर्यंचगति में उत्पन्न कराता है ।
भूमिसंस्तर - घसे समे प्रसुसिरे श्रहिसुयनविले य अप्पपाणे य । असिणि घण गुत्ते उज्जोवे भूमिसंथारो ।। (भ. प्रा. ६४१ ) ।
जिस विद्या या शास्त्र के निमित्त से देव, असुर, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस श्रादि से पीड़ित जीवों की पीड़ा को शान्तिकर्म आदि के द्वारा शान्त किया जाता है उसे भूतविद्या कहा जाता है । भूतिकर्म- - १. भूईए मट्टियाए व, सुत्तेण व होइ भूइकम्मं तु । वसही - सरीर- भंडगरक्खाग्रभियोगमाईया || (बृहत्क. भा. १३१० ) । २. ज्वरितादीनां तदपगमार्थं भूत्याः भस्मनोऽभिमन्त्र्य यत्प्रदानं तत् भूतिक । ( श्राव. हरि वृ. मल. हेम. टि. पू. ८२-८३) ।
१ विद्या से मन्त्रित भूति ( भस्म ), गीली मिट्टी अथवा धागे से चारों ओर वेष्टित करना; इसका नाम भूतिकर्म है। यह क्रिया वसति, शरीर और वर्तनों की रक्षा के निमित्त एवं प्रभियोग ( वशीकरण) आदि के लिए की जाती है । २ ज्वर श्रादि से पीड़ित जीवों को उसे दूर करने के लिए जो मन्त्रित भस्म को दिया जाता है वह भूतिकर्म कहलाता है । भूतिकुशील - भूत्या घूल्या सिद्धार्थकः पुष्पैः फलैरुदकादिभिर्वा मन्त्रितं रक्षां वशीकरणं वा यः करोति स भूतिकुशीलः । (भ. प्रा. विजयो. १६५० ) । मन्त्रित भस्म, धूलि, सरसों, पुष्पों, फलों और जल आदि के द्वारा जो रक्षण या वशीकरण करता है उसे भूतिकुशील कहा जाता है । भूमिकर्म्म - १. भूमिकर्म्म नाम विषमाणि भूमिस्थानानि भक्त्वा संमार्जन्या संमार्जनम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ४-२७) । २. 'भूमि' त्ति समभूमिकरणम् । (वृहत्क. भा. मलय. वृ. ५८३ ) ।
१ विषम ( ऊंचे-नीचे) भू-भागों को खण्डित करके संमार्जनी (झाडू) से संमार्जन करना, इसका नाम भूमिकर्म है। भूमिराजसदृश क्रोध - १. भूमिराजिसदृशो नाम । यथा भूमेर्भास्कररश्मिजालादात्तस्नेहाया वाय्वभिह
क्षपक का भूमिगत बिछौना ऐसी चाहिए जो मृदु न हो, ऊंची नीची पोली न हो, दीमक से रहित हो, बिलों से रहित हो, जीव-जन्तुनों से शून्य हो; अथवा क्षपक के शरीर प्रमाण हो, गीली न हो, सघन हो, गुप्त हो श्री प्रकाश से युक्त हो
भूमिस्पर्शान्तराय - भूस्पर्शः पाणिना भूमेः स्पर्शे XXX I ( अन ध. ५ - ५५ ) ।
हाथ से भूमि का स्पर्श हो जाने पर भूस्पर्श नाम का भोजन का अन्तराय होता है ।
भूम्यलीक - देखो क्ष्मालीक । भूम्यलीकं परसत्कामप्यात्मादिसत्कां विपर्ययं वा वदतः, इदं च शेषपादपाद्यपदद्रव्य विषयालीकस्योपलक्षणम् । ( योगशा. स्वो विव. २- ५४, पृ. २८७ ) । दूसरे की भूमि को अपनी कहना या अपनी भूमि को दूसरे की बतलाना, यह भूम्यलीक भूमिविषयक असत्य कहलाता है। इससे चरणविहीन वृक्षादिविषयक सत्य को भी ग्रहण करना चाहिए । भूयस्कार उदय -- देखो भुजाकार उदय |
भूमि में होना हो- - सम हो,
न
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भूयस्कार बन्ध ]
भूयस्कार बन्ध - देखो भुजाकार बन्ध । यदा स्तोकाः प्रकृती राबध्नन् परिणामविशेषतो भूयसी: प्रकृतीर्बध्नाति यदा सप्त बद्ध्वा अष्टौ बध्नाति यद्वा षट् एकां च बद्ध्वा सप्त, तदा स बन्धो भूयस्कारः । ( कर्मप्र. मलय. वृ. ५२ ) ।
जब थोड़ी प्रकृतियों को बांघता हुआ परिणाम विशेष से 'बहुत प्रकृतियों को बांधता है, जैसे- सात को बांध कर ग्राठको, अथवा छह या एक को बाँधकर सात को, तब वह भूयस्कार बन्ध कहलाता है । भृङ्गारमुद्रा पराङ्मुखहस्ताभ्यामङ्गुलीविद मुष्टिबध्वा तर्जन्यो समीकृत्य प्रसारयेदिति भृङ्गारमुद्रा । (निर्वाणक. पृ. ३३ ) । उल्टे दोनों हाथों द्वारा अंगुलियों को विदर्भत करके व मुट्ठी बांध करके दोनों तर्जनियों को समान करे व फैला दे । इस प्रकार से भृंगारमुद्रा होती है ( ? ) । भृत, भृतक - १. त्रियते पोष्यते स्मेति भृतः, स एवानुकम्पितो भृतकः कर्म्मकरः । ( स्थाना. २७१, पू. २०३) । २. भृतको वस्त्र भोजनादिमूल्येन परस्य दास्यं गतः । (श्रा. बि. पू. ७४) । ३. भृतको वृत्तिकिङ्करः । (गु. गु. षट्. स्वो वृ. २२, पृ. ५३ ) । १ जिसका भरण-पोषण किया जाता है वह स्वामी की अनुकम्पा से युक्त सेवक भूत या भूतक कहलाता है ।
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८६६, जैन-लक्षणावली
भेण्ड कर्म - भेंडो सुपसिद्धो, तेण घडिदपडिमाओ भेंडकम्मं । (धव. पु. ६, पृ. २५० ); भेंडमोएण ( ? ) घपिडिमा भेंडकम्माणि णाम । ( धव. पु. १३, पृ. १० ) ; भेंडेसु घडिदपडिमा भेंडकम्माणि णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २०२ ) ; भेंडेहि घडिदरुवाणि भेंडकम्माणि णाम । ( धव. पु. १४, पू. ६) ।
भेण्ड से निर्मित प्रतिमानों को भेण्डकर्म कहते हैं । भेद – १. समणिद्धदा समल्हुक्खदा भेदो । ( षट्खं ५, ६, ३३ – पु. १४, पृ. ३० ) । २. संघातानां द्वितयनिमित्तवशाद्विदारणं भेद: । ( स. सि. ५ - २६ ) । ३. संहतानां द्वितयनिमित्तवशात् विदारणं भेदः । बाह्याभ्यन्तरविपरिणामकारणसन्निधाने सति संहतानां स्कन्धानां विदारणं नानात्वं भेद इत्युच्यते । (त. बा. ५, २६, १) । ४. खंधाणं विहडणं भेदो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. १२१ ) । ५. भेदः स्वामिनः
[भोक्तृत्व
पदातीनां च स्वामिन्य विश्वासोत्पादनम् । ( विपाक. श्रभय. वृ. पू. ३६ ) ; भेद: नायक-सेवकयोश्चित्तभेदकरणम् । ( विपाक. अभय वृ. पू. ४२ ) ।
१ समान स्निग्धता और समान रूक्षता का नाम भेद है । ३ प्रभेद को प्राप्त हुए स्कन्ध जो बाह्य व अभ्यन्तर निमित्त के वश विभक्त होते हैं इसका नाम भेद है । ५ स्वामी और पादचारी सैनिकों के मध्य में भेद उत्पन्न करना- उनका स्वामी के विषय में अविश्वास उत्पन्न करना, इसका नाम भेद है । भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक – गुणगुणिन याइच उक्के प्रत्थे जो जो करेइ खलु भेयं । सुद्धो सो दव्वत्थो भेदवियप्पेण णिरवेक्खो । ( नयच. दे. ३०, द्रव्यस्व. प्र. नयच. १६२ ) ।
गुण-गुणी प्रादि ( स्वभाव-स्वभाववान्, पर्याय- पर्यायी और धर्म- धर्मी) चतुष्टयरूप अर्थ में जो भेद को नहीं करता है वह भेद के विकल्प से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहलाता है ।
भेदकल्पनासापेक्ष श्रशुद्धद्रव्यार्थिक- भेए सदि संबंधं गुण-गुणियाईहि कुणइ जो दव्वे । सो वि असुद्धो दिट्ठो सहिम्रो सो भेदकप्पेण 11 (नयच. दे. २३; द्रव्यस्व. प्र. नयच. १६५ ) ।
जो नय भेद के होने पर गुणी-गुणी श्रादि के द्वारा द्रव्य में सम्बन्ध को करता है वह भेदकल्पना से सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक कहलाता है । भेदव्यवहार — देखो अपोद्धारव्यवहार । भेदसंघात - भेदं गंतूण पुणो समागमो भेदसंघादो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. १२१ ) । भेद को प्राप्त होकर फिर से संयोग को प्राप्त होना, इसका नाम भेदसंघात है ।
भोक्ता श्रमर - णर- तिरिय णारयमेएण चउव्विहे संसारे कुसलमकुसलं भुंजदित्ति भोत्ता । (घव. पु. १, पृ. ११९ ) ; चतुर्गतिसंसारे कुसलमकुसलं भुंक्ते इति भोक्ता । ( धव. पु. ६, पृ. २२०-२१) । देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक के प्रकार के संसार में कुशल अकुशल के को भोक्ता कहते हैं ।
भेद से चार
भोगने वाले
भोक्तृत्व - कर्तृत्वादेव च भोक्तृत्वं स्वप्रदेशव्यवस्थितशुभाशुभकर्म कर्तृत्त्वात् XXX भोक्तृत्वं मदि
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भोग] ८७०, जैन-लक्षणावली
[भोगभूरिता रादिष्वत्यन्तप्रसिद्धं भुक्तोऽनया गुड इति । (त. भोगकृतनिदान - १. देविग-माणुसभोगो [गे] भा. सिद्ध. वृ, २-७)।
णारिस्सर-सिट्ठि-सत्थवाहत्तं । केसव-चक्कधरत्तं पच्छंशुभ-अशुभ कर्मों के निर्वर्तन का नाम कर्तृत्व है, इस तो होदि भोगकदं ॥ (भ. प्रा. विजयो. १२१६) । कर्तृत्व के कारण ही उक्त शुभ-अशुभ कर्मों के फल २. इह परत्र च भोगा अपि इत्थम्भूता अस्माद् व्रतका जो भोगना है इसे भोक्तृत्व कहा जाता है, वह शीलादिकाद् भवन्त्विति मनःप्रणिधानं भोगनिदानम् । भोक्तृत्व मदिरा प्रादि में अत्यन्त प्रसिद्ध है। (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ. ८६)। जैसे- इसने गुड़ का उपभोग किया।
१ देवों व मनुष्यों सम्बन्धी भोगों की इच्छा करना भोग-१. भुक्त्वा परिहातव्यो भोगः xxxतथा स्त्रीत्व, ईश्वरत्व, श्रेष्ठीपना, सार्थवाहत्व, (रत्नक. ८३)। २. सकृद् भुज्यत इति भोगः। वासुदेवत्व और चक्रवर्तित्व इनकी इच्छा करना; (त. भा. हरि. वृ. २-४; श्रा. प्र. टी. २६; पंचसं. इसे भोगकृतनिदान कहा जाता है। २ इस व्रतमलय. वृ. ३-३, पृ. १०९ धर्मसं. मलय. व. शीलादि से मुझे इस लोक या परलोक में इस ६२३; कर्मप्र. यशो. वृ. ८) । ३. सकृद् भुज्यत इति प्रकार के भोग प्राप्त हों, ऐसा मन से विचार भोग: ताम्बूलाशन-पानादिः। (षव. पु. ६, पृ. करना, इसे भोगकृतनिदान कहते हैं । ७८); सकृद् भुज्यत इति भोगः, गन्ध-ताम्बूल-पुष्पा- भोगपत्नी-परणीता नात्मज्ञातिर्या पितृसाक्षिपूर्वहारादिः । (धव. पु. १३, पृ. ३८६) । ४. शुभवि- कम् । भोगपत्नीति सा ज्ञेया भोगमात्रकसाधनात् ॥ विषयसुखानुभवो भोगः, अथवा भक्ष्य-पेय-लेह्यादि- (लाटीसं. २-१८३)। सकृदुपयोगाद् भोगः । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-४); जिसके साथ पिता की साक्षीपूर्वक विवाह किया भोगो मनोहारिशब्दादिविषयानुभवनम् । (त. भा. गया है, किन्तु जो अपनी जाति की नहीं है, उसे सिद्ध. वृ. ५-२६)। ५. सइ भुज्जइत्ति भोगो सो एक मात्र भोग की साधन होने से भोगपत्नी जानना पुण आहार-पुप्फमाईप्रो। (कर्मवि. ग. १६५; चाहिए। प्रश्नव्या. अभय. व. पु. २२० उद.)। ६. यः भोगपरिमाणक-स्नान-गन्ध-माल्यादावाहारे बहुसकृत्सेव्यते भावः स भोगो भोजनादिकः। (उपास- भेदजे । प्रमाणं क्रियते यत्तु तद्भोगपरिमाणकम् ।। का. ७५६) । ७. भोगः सुखाद्यनुभवः। (समाधि. (धर्मसं. श्रा. ७-२८)। टी. ६७)। ८. सकृदेव भुज्यते यः स भोगोऽन्न- स्नान व गन्ध-माला प्रादि तथा बहुत प्रकार के स्रगादिकः। (योगशा. ३-५)। ६. भोगः सेव्यः प्राहार के विषय में जो प्रमाण किया जाता है वह सकृदुप Xxx। (सा. घ. ५-१४)। १०. भोगपरिमाण कहलाता है। भुज्यते-सकृदुपभुज्यत इति भोगः पुष्पाहारादिः। भोगपुरुष-तथा भोगप्रधान: पुरुषो भोगपुरुषः (कर्मवि. दे. स्वो. व. ५१)। ११. भुक्त्वा संत्य- चक्रवादिः । (सूत्रकृ. नि. शी.व. ५५, पृ. १०३)। ज्यते वस्तु स भोगः परिकीर्त्यते। (भावसं. वाम. जिस पुरुष के भोग ही प्रधान हो वह भोगपुरुष कह५०८) । १२. एकशो भुज्यते यो हि भोगः स परि- लाता है । जैसे-चक्रवर्ती प्रादि। कथ्यते । (धर्मसं. श्रा. ७-१७)। १३. सकृद् भुज्यत भोगभूमिज मनुष्य-तिर्यञ्च-मंदकसायेण जुदा इति भोगः, अन्न-माल्य-ताम्बूल-विलेपनोद्वर्तन- उदयागदसत्थपयडिसंजुत्ता । विविहविणोदासत्ता स्नान-पानादिः । (धर्मसं. मान. स्वो. व. २-३१, णर-तिरिया भोगजा होति ।। (ति. प. ४-४२०) । पु. ७०)।
भोगभूमिज मनुष्य व तियंच मन्द कषाय से युक्त १जिसे एक बार भोग कर छोड़ दिया जाता है उसे होकर उदय को प्राप्त हुई प्रशस्त कर्मप्रकृतियों से भोग कहते हैं । २ जो एक ही बार भोगने में प्राता सहित होते हए अनेक प्रकार के विनोद में प्रासक्त है वह भोग कहलाता है। ४ अभीष्ट विषयजनित रहते हैं। सुख के अनुभव का नाम भोग है; अथवा भक्ष्य, पेय भोगभूरिता – देखो उपभोग-परिभोगानर्थक्य ।
और लेद्य आदि पदार्थों का जो एक बार उपयोग भोगस्य उपलक्षणत्वादुपभोगस्य च उक्तनिर्वचनस्य, होबा है इसे भोग जानना चाहिए।
स्नान-पान-भोजन-चन्दन-कुङ्कुम-कस्तूरिका-वस्त्राभ
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भोगान्तराय ]
८७१, जैन - लक्षणावली
[भोगोपभोगपरिमाण
रणादेर्भूरिता स्व-स्वीयकुटुम्बव्यापारणापेक्षयाऽधिक- ख्यानादिपरिणामे कार्पण्यान्नोत्सहते भोक्तुं तद्भोगात्वम् । ( धर्मसं. मान. स्वो वृ. २- ५४, पृ. ११३ ) । न्तरायम् । ( कर्मप्र. यशो. वृ. १, पृ. ८) । भोग के साथ यहां उपभोग को भी ग्रहण करना १ जिसके उदय से वैभव के रहते हुए तथा त्याग चाहिए । स्नान, पान, भोजन, चन्दन, केसर, परिणाम के न होने पर भी जीव भोगों को नहीं कस्तूरी और वस्त्र - श्राभरणादि रूप जो भोग-उपभोग भोग सकता है उसे भोगान्तराय कहते हैं । २ जिस की सामग्री है उसकी भूरिता - अधिकता का कर्म के उदय से भोग के विषय में विघ्न होता है नाम भोगभूरिता है । यह अनर्थदण्डव्रत का एक उसे भोगान्तराय कहा जाता है। प्रतिचार है । भोगोपभोगपरिमाण - देखो उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत । १. अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । श्रर्थवतामप्यवधी रागरतीनां तनूकृतये ॥ ( रत्नक. ३ - ३६ ) । २. गन्ध- ताम्बूल - पुष्पेषु स्त्रीवस्त्राभरणादिषु । भोगोपभोगसंख्यानं द्वितीयं तद् गुणव्रतम् ।। ( वरांगच १५ - ११८ ) । ३. जाणित्ता संपत्ती भोयण- तंबोल- वत्थमादीणं । जं परिमाणं कीरदि भोउभोयं वयं तस्स ।। ( कार्तिके. ३५० ) । ४. यः सकृत्सेव्यते भावः स भोगो भोजनादिकः । भूषादिः परिभोगः स्यात् पौनःपुन्येन सेवनात् ॥ परिमाणं तयोः कुर्याच्चित्तव्याप्तिनिवृत्तये । प्राप्ते योग्ये च सर्व स्मिन्निच्छया नियमं भजेत् ॥ ( उपासका ७५६, ७६० ) । ५. भोगोपभोगसंख्यानं क्रियते यद्वितात्मना । भोगोपभोगसंख्यानं तच्छित्त्या [च्छक्त्या ] व्रतमुच्यते ॥ ( सुभा. सं. ८१२ ) । ६. भोगोपभोगसंख्या विधीयते येन शक्तितो भक्त्या । भोगोपभोगसंख्या शिक्षाव्रतमुच्यते तस्य ॥ ( श्रमित. श्री. ६-६२ ) । ७. कृत्यं भोगोपभोगानां परिमाणं विधानतः । भोगोपभोगसंख्यानं कुर्वता व्रतमर्चितम् ॥ माल्य - गन्धान्न ताम्बूल-भूषा- रामाम्बरादयः । सद्भिः परिमितीकृत्य सेव्यन्ते व्रतकांक्षिभिः । ( धर्मप. १६, ८६-६० ) । ८. वच्छच्छ - [वत्थत्थि - ] भूसणाणं तंबोलाहरण-गंधपुप्फाणं । जं किज्जइ परिमाणं तिदियं तु गुणव्वयं होइ || ( धम्मर. १५१ ) । ६. भोगोपभोगयोः संख्या शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमानं तद् द्वैतीयिकं गुणव्रतम् ॥ ( त्रि.श. पु. च. १, ३, ६३६; योगशा. ३-४ ) । १०. भोगोऽयमियान् सेव्यः समय मि यन्तं सदोपभोगोऽपि । इति परिमायानिच्छस्तावधिकौ तत्प्रमाव्रतं श्रयतु ॥ ( सा. ध. ५- १३ ) । ११. तयोः (भोग- परिभोगयोः ) यत् क्रियते मानं तत्तृतीयं गुणव्रतम् । ज्ञेयं भोगपरिभोगपरिमाणं जिनेरितम् । (धर्मसं. श्री. ७-१८ ) । १२. यान- भूषण - माल्यानां ताम्बूलाहार-वाससाम् । परिमाणं भवेद् यत्तत्प्राहुः
भोगान्तराय – १. भोगान्तरायं तु यदुदयात् सति विभवे अन्तरेण विरतिपरिणामं न भुंक्ते भोगान् । ( श्रा. प्र. टी. २६) । २. जस्स कम्मस्स उदएण भोगस्स विग्धं होदितं भोगंतराइयं । ( धव. पु. ६, पू. ७८); भोगविग्घयरं भोगंतराइयं । ( धव. पु. १५, पृ. १४) । ३. तथा सकृदुपभुज्य यत् त्यज्यते पुनरुपभोगाक्षमं माल्य-चन्दनागुरुप्रभृति, तच्च सम्भवा [व] दपि यस्य कर्मण उदयात् यो न भुङ्क्ते तस्य भोगान्तरायकर्मोदयः । ( त. भा. सिद्ध वृ. ८, १४) । ४: मणुत्ते वि हु पत्ते लद्धे विहु भोगसा
विभवे । भुत्तुं नवरि न सक्कइ विरइविहूणो वि जस्सुदए || ( कर्मवि. ग. १६३ ) । ५. तं भोगं XXX विद्यमानमनुपहताङ्गोऽपि यदुदयाद्भोक्तुं न शक्नोति तद्भोगान्तरायम् । ( शतक. मल. हेम. वृ. ३८, पृ. ५२; कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. ८८ ) । ६. तथा यदुदयवशात् सत्यपि विशिष्टाहारादिसम्भवे असति च प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा केवलकाप्र्प्पण्यान्नोत्सहते भोक्तुं तद्भोगान्तरायम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७५; पंचसं. मलय, वृ. ३ - ३; सप्तति मलय. वृ. ६) । ७. सति विभवे संपद्यमाने श्राहार-माल्यादी विरतिपरिणामरहितोऽपि यदुदयवशात् तत् आहार- माल्यादिकं न भुङ्क्ते तत् भोगाग्तरायम् । ( धर्मसं. मलय. वृ. ६२३) । ८. यत्प्रभावतो भोगान् न प्राप्नोति तद्भोगान्तरायम् । ( प्रव. सारो वृ. ६० ) । ६ तस्य ( अन्तरायस्य) उदयात् XXX भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते । (त. सुखबो. वृ. ८ - १३) । १०. यदुदयात्सति विभवादौ सम्पद्यमाने चाहार-माल्यादौ विरतिहीनोऽपि न भुङ्क्ते तद् भोगान्तरायम् । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. ५१ ) । ११. भोगस्यान्तराये भोक्तुकामोऽपि न भुंक्ते । (त. वृत्ति श्रुत. ८ - १३ ) । १२. यदुदयाद्विशिष्टाहारादिप्राप्तावप्यसति च प्रत्या
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भोगोपभोगसंख्यान] ८७२, जैन-लक्षणावली
[भ्रूविकारदोष शिक्षाव्रतं बुधाः ॥ (पू. उपासका. ३३)। १३. (योगशा. ५-४३)। भोगोपभोगयोः संख्याविधानं यत्स्वशक्तितः । भोगो- पृथिवी बीज से परिपूर्ण, वज्र के चिह्न से संयुक्त, पभोगमानाख्यं तद् द्वितीयं गुणवतम् । (धर्मसं. मान. चौकोण और सुवर्ण जैसी कान्तिवाला भौम मण्डल २-३१)।
होता है। १ प्रयोजन की सिद्धि के कारण होने पर भी राग. भ्रमराहार-१. दातजनबाघया बिना कुशलो मुनिजनित प्रासक्ति को कम करने के लिए जो उनकी भ्रमरवदाहरतीति भ्रमराहार इत्यपि परिभाष्यते । संख्या निश्चित कर ली जाती है उसे भोगोपभोग- (त. वा.. ६, १६, पृ. ५६७; त. श्लो. ६-६; चा. परिमाणवत कहते हैं।
सा. पृ. ३६; कातिके. टी. ३६६, पृ. ३०२) । भोगोपभोगसंख्यान-देखो भोगोपभोगपरिमाण । २. भृङ्गः पुष्पासवं यद्वत् गृह्णात्येकगृहेऽशनम् । भौम निमित्त-१. घण-सुसिर-णिद्ध-लुक्खप्पहुदि- गृहिबाधां बिना तद्वद् भुञ्जीत भ्रमराशनः । (प्राचा. गुणे भाविदूण भूमीए । जं जाणइ खय-वड्ढि तम्मयस- सा. ५-१२७)। ३. भ्रमरस्येवाहारो भ्रमराहारो कणय रजदपमहाणं । दिसि-विदिस-अंतरेसं चउरंग
दातृजनपुष्पपीडानवतारात् परिभाष्यते । (अन. घ. बलं ट्ठिदं च दट्टणं । जं जाणइ जयमजयं तं भउमणिमित्तमुद्दिढें ॥ (ति. प. ४, १००४-५)। १ जिस प्रकार भ्रमर फूलों को बाधा न पहुंचाकर २. भुवो घन-सुषिर-स्निग्ध-रूक्षादिविभावनेन पूर्वा- उनके रस को ग्रहण करता है उसी प्रकार कुशल दिदिक्सूत्रनिवासेन (चा. सा. 'सूत्रविन्यासेन') वा मुनि दाता जन को बाधा न पहुंचा कर जो उनके वृद्धि हानि-जय-पराजयादिविज्ञानं भूमेरन्तर्निहितसु- यहां पाहार को ग्रहण करता है, उसे भ्रमराहार वर्ण-रजतादिसंसूचनं (चा. सा. 'संस्तवनं') च कहा जाता है। भौमम् । (त. वा. ३, ३६, ३; चा. सा. पृ. १४)।
भ्रान्ति-१. वस्तुन्यन्यत्र कुत्रापि तत्तुल्यस्यान्यवस्तु३. भमिगयलक्खणाणि दट्ठण गाम-णयर-खंड-कव्वड- नः। निश्चयो यत्र जायेत भ्रान्तिमान् स स्मृतो बुधैः ।। घर-पुरादीणं वुड्ढि-हाणिपदुप्पायणं भोम्म णाम महा
(वाग्भटा. ४-७३) । २. भ्रान्तिः अतस्मिस्तद्ग्रहणिमित्तं । (धव. पु. ६, पृ. ७३)। ४. यं भूमिवि
' रूपा शुक्तिकायां रजताध्यारोपवत् । (षोडश. व. भागं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य शुभाशुभं ज्ञायते तद्भौम
१४-३)। ३. सदृशदर्शनाद्विपर्ययज्ञानं भ्रान्तिः । निमित्तं न म। (मूला. वृ. ६-३०) । ५. भौमं
(काव्यानु. ६, पृ. २८४)। भूमिविकार-फलाभिधानप्रधानं निमितशास्त्रम् । किसी वस्त में उसके समान जो अन्य वस्तु का (समवा. अभय. वृ. २६)।
बोष होता है उसे भ्रान्ति कहा जाता है। २ जो १ भूमि की सान्द्रता, पोलापन, चिक्कणता और
वह नहीं है, उसमें जो उसका ज्ञान होता रूखेपन आदि गुणों को देखकर जो तांबा, लोहा,
है उसे भ्रान्ति कहते हैं। जैसे-जो (सीप) चांदी सुवर्ण और चांदी प्रादि धातुओं की हानि-वृद्धि का नहीं है उसमें चांदी का ज्ञान । ज्ञान होता है उसे भीमनिमित्त कहते हैं। तथा
भ्रदोष-- व्यापारन्तरनिरूपणार्थं भ्रूनृत्तं कुर्वतः दिशा, विदिशा और अन्तराल में स्थित चतुरंग सेना को देखकर जय-परायज को जान लेना, यह
स्थानं भ्रूदोषः (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। भी भौम निमित्त कहलाता है। ३ भमिगत लक्षणों अन्य व्यापार के कहने के लिए भृकुटियों को नचाते (चिह्नों) को देखकर ग्राम, नगर, खेट, कर्वट, घर हुए स्थित होना, यह एक कायोत्सर्ग का सूंदोष है। और नगर आदि की वृद्धि-हानि का कथन करन भ्रविकारदोष-देखो भ्रूदोष । १ तथा भ्रूविकारः इसका नाम भौम महानिनिमित्त है । ५ प्रधनता से -कायोत्सर्गेण स्थितो यो भ्रूविक्षेपं करोति तस्य जिसमें भूमिविकार के फल का कथन किया जाता भ्रूविकारदोषः पादाङ्गुलिनर्तनं वा। (मूला. वृ. है उसे भौम निमित्तशास्त्र कहते हैं।
७-१६२) । २. भ्रूक्षेपो भ्रूविकारः स्यात् Xxx भौम मण्डल-पृथिवीबीजसम्पूर्ण वज्रलाञ्छन- (अन. ध. ८-११६) । संयुतम् । चतुरस्रं हृतस्वर्णप्रभं स्याद्भौममण्डलम् । १जो कायोत्सर्ग से स्थित होता हुमा कुटियों को
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सस्कार ]
चलाता है अथवा पांव की अंगुलियों को नचाता है उसके भ्रूविकार नाम का दोष होता है ।
८७३, जैन - लक्षणावली [मविज्ञान Sवस्थितप्रामाणि । ( कल्पसू. बिनय बू. ८८, पृ. १११) ।
१ पांच सौ ग्रामों में जो प्रधानभूत ग्राम हो वह मडम्ब कहलाता है । ३ जिसके समीप में अन्य गांव या नगर आदि न हों उसे मडम्ब कहते हैं । मण – × × × तेषां (गद्यानां ) सार्द्धसतं मणे । ( कल्पसू. विनय वृ पृ. २१ उद्.) । डेढ़ सौ गद्यानों का एक मण होता है । मण्डनधात्री- देखो मंडनधात्री । मति - देखो मतिज्ञान ।
संस्कार - १. विकटोत्थितानां रोम्णाम् उत्पाटनम् प्रानुलोम्यापादनं लम्बयो रुन्नतिकरणं संस्कारः । (भ. श्री. विजयो. ६३) । २. बिकटोत्थितानां रोम्णां केशानामुत्पाटनम् श्रानुलोम्यापादनं च भ्रुवोरेव वा लम्बयोन्नतीकरणं भ्रूसंस्कारः । (भ. श्रा. मूला. ६३ ) ।
१ श्रस्त-व्यस्त रोमों को निकाल कर अनुरूप करना तथा लम्बी भ्रुकुटियों को उन्नत करना, इसका नाम संस्कार है ।
मकरमुख - १. मकरस्य मुखमिव कृत्वा पादाववस्थानम् । (भ. श्री. विजयो. २२४) । २. मकरम्य मुखमिव कृत्वा पादावासनम् । (भ. प्रा. मूला. २२४ ) ।
१ मगर के मुख के समान दोनों पांवों को करके स्थित होना, यह मकरमुख श्रासन ( योगासन ) कहलाता है ।
मग्न - प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यूहं समाधाय मनो निजम् । दधच्चिन्मात्रविश्रान्तिर्मग्न [न्ति मग्न ] इत्यभिधीयते ॥ ( ज्ञा. सा. वृ. २- १ ) | इन्द्रियसमूहको विषयों की प्रोर से हटाकर तथा अपने मन को समाधि में स्थित कर - श्रात्मस्वरूप में एकाग्र कर - चिन्मात्र ( चैतन्यमात्र ) में विश्रान्ति को धारण करने वाले ध्याता को मग्न कहा जाता है।
मङ्गल -- देखो मंगल ।
मंच - देखी मंच |
मडम्ब - १. पणसय माणगामप्पहाणभूदं मडंबणाम । ( ति प ४ - १३३९ ) । २. पञ्चशतग्रामपरिवारितं मडव णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३३५) । ३. मडम्बम् अविद्यमानासन्ननिवेशानन्तरम् । ( श्रपपा प्रभय. वृ. ३२, पृ. ७४ ) । ४. यस्य प्रत्यासन्न ग्राम-नगरादिकमपरं नास्ति तत्सर्वत छिन्न जनाश्रयविशेषरूपं मडम्बम् । ( जीवाजी. मलय. वृ. २- १४७ ) । ५. मडम्बम् श्रर्द्ध तृतीयान्तग्रमरहितम् ( जम्बूद्वी. शा. वृ. ६६ ) । ६. मडंबानि सर्वतोऽर्द्धयोजनात् परतो
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ल. ११०
मतिज्ञान- देखो अभिनिबोध व ग्राभिनिबोधिक । १. तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । (त. सू. १-१४ ) । २, इन्द्रियैर्मनसा यथास्वमर्थान् मन्यते अनया, मनुते, मननमात्र वा मतिः ( स. सि. १ - ९ ) । ३. उत्प नाविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानम् । XXX मतिज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्, श्रा त्मनोज्ञस्वाभाव्यात् पारिणामिकम् । ( त. भा. १ -२० ) । ४. इंदियपच्चक्खपि य प्रणुमाणं उवमयं च मइनाणं । ( जीवस. १४२ ) । ५. मननं मतिः कथञ्चिदर्थ परिच्छित्तावपि अपूर्व सूक्ष्मतरधर्मालोचनरूपा बुद्धि: । (विशेषा. को. वृ. ३६७; श्राव. नि. मलय बृ. १२ ) । ६. तदावरणकर्मक्षयोपशमे सतीन्द्रियानिन्द्रियापेक्षमर्थस्य मननं मतिः । X X X मनुतेऽर्थान् मन्यतेऽनेनेति वा मतिः । (त. वा. १, ६, १ ) । ७. मननं मतिः कथञ्चिदथं परिच्छि
त्तावपि सूक्ष्मघर्मालोचनरूपा बुद्धिः । ( श्राव नि. हरि. वृ. १२, पृ. १८) ८. मननं मतिः इन्द्रियानिन्द्रियपरिच्छेदः, ज्ञातिर्ज्ञानम्, सामान्येन वस्तुस्वरूपावधारणम्, ज्ञानशब्दः मत्या विशेष्यते - मतिश्वासौ ज्ञानं चेति मतिज्ञानम् । ( त. भा. हरि. वृ. १ - ९ ) । ६. उत्पन्नाविनष्टार्थ ग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानम् । X X x अथवा आत्मप्रकाशकं मतिज्ञानम् । ( श्राव. नि हरि वृ. १, पृ. ६) १०. विशेषता मतिः स्वामिविशेषेण सम्यग्दृष्टेमंतिर्मतिज्ञानम् । ( नन्दो हरि वृ. पृ. ५६ ) । ११. पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च यदर्थग्रहणं तन्मतिज्ञानम् । ( धव. पु. १, पृ. ३५४ ) ; × × × छपर्णामदियाणं खमत्रसमो तत्तो समुप्पण्णणाणं वा मदिणाणं । ( धव. पु. ७, पृ. ६७ );
प्रणागयत्थ
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मतिज्ञान]
८७४, जैन-लक्षण वली
[मतिज्ञान
विसयमदिणाणेण विसेसिद जीवो मदी णाम । मनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः, (धव. पु. १३, पृ. ३३३)। १२. जं पंचिदिय- योग्यदेशावस्थितवस्तूविषय इन्द्रिय-मनोनिमित्तोऽवमणेहिंतो उप्पज्जइ णाणं तं मदिषाणं णाम ।। गमविशेषः। (पञ्चसं. मलय. व. १-५; षष्ठक. (जयध. १, पृ. १४); इंदिय-णोइंदिएहिं सद्द-रस- मलय. वृ. ६; षडशी. मलय. वृ. १५; कर्मवि. ग. परिस-रूब-गंधादिविसएसु प्रोग्गह-ईहावाय-धार- परमा. व्या. १३; प्रव. सारो. वृ. १२५१; कर्मवि. णाप्रो मदिणाणं । (जयघ. १, पृ. ४२)। १३. दे. स्षो. व. ११)। २५. अवग्रहादिभिभिन्न बह्वाइन्द्रियानिन्द्रियोत्थं स्यान्मतिज्ञानमनेकधा। परोक्ष- दुरितरैरपि । इन्द्रियानिन्द्रियभवं मतिज्ञानमुदीरिमर्थसान्निध्ये प्रत्यक्षं व्यवहारिकम् ॥ क्षयोपशमसा- तम् ॥ (योगशा. १-१६; त्रि. श. पु. च. १, ३, पेक्षं निजावरणकर्मणः । अवग्रहेहावायाख्या धारणा- ५८.)।२६. मतिज्ञानावरणक्षयोपशमे सतीन्द्रियतश्चतुर्विधः । (ह. पु. १०, १४५-४६)। १४. मनसी अग्रे कृत्वा व्यापृतः सन्नर्थ मन्यते जानात्यामत्यावरणविच्छेदविशेषान्मन्यते यथा । मननं मन्यते त्मा यया सा मतिः, तभेदा: मत्यादयः । तत्र यावत्स्वार्थे मतिरसौ मता ॥ (त. श्लो. १,६, मन्यते यया बहिरन्तश्च परिस्फूटं सावग्रहाद्यात्मिका ३)। १५. परोक्षस्यापि मतिज्ञानस्येन्द्रियानिन्द्रिय- मतिः स्वसंवेदनमिन्द्रियज्ञानं च सांव्यवहारिक निमित्तं स्वार्थाकारग्रहणं स्वरूपम् । (प्रष्टस. १-१५, प्रत्यक्षम् । (प्रनध. स्वो. टी. ३-४)। २७. अर्थापृ. १३२) । १६. बुद्धिर्मेधादयो याश्च मतिज्ञा- भिमुखो नियतो बोधोऽभिमिबोधः, अभिनिबोध नाभिदा हिताः। इन्द्रियानिन्द्रियेभ्यश्च मतिज्ञानं एवाऽऽभिनिबोधिकम, इकणि, तच्च तज्ज्ञानं चेति प्रवर्तते । (त. सा. १-२०)। १७. मननं मतिः, समासः । उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं परिच्छेद इत्यर्थः । xxxज्ञप्तिर्ज्ञानम्, वस्तु- प्रवग्रहाद्यष्टाविंशतिभेदभिन्नम् प्रात्मप्रकाशकं प्राभिस्वरूपावधारणमित्यर्थः। yxx मतिश्च सा निबोधिकं ज्ञानं मतिज्ञानमित्यपरपर्यायम् । (गु ग. ज्ञानं च मतिज्ञानम् । (त. भा. सिद्ध. ५.१-६); षट्. स्वो. वृ. ३३, पृ. ६७)। २८. इन्द्रियमनसा मननं मतिस्तदेव ज्ञानं मतिज्ञानम्)। (त. भा. च यथायथमर्थान् मन्यते मतिः, मनुतेऽनया वा सिद्ध. वृ. १-१३)। १८. स्वार्थावग्रहनीतभेद- मतिः, मननं वा मतिः । (त. वृत्ति श्रुत. १-६; विषयाकांक्षात्मिकेयं मतिः। (सिद्धिवि. व. २-१, कार्तिके. टी. २५७) । २६. परोक्षस्यापि मतिज्ञानपृ. १२०)। १६. इन्द्रियानिन्द्रियैरर्थग्रहणं मननं स्येन्द्रियानिन्द्रियजन्यत्वे सति स्वार्थाकारध्यवसायामतिः । विकल्पाः विविधास्तस्याः क्षयोपशमसम्भ- त्मकत्वं स्वरूपम् । (सप्तभं. पृ. ४७) । ३०. प्रनावाः ॥ (पंचसं. अमित. १-२१४)। २०. स गतकालविषया मतिः। (कल्पसू. विनय. वृ. ६, (मात्मा) च व्यवहारेणानादिकर्मबन्धप्रच्छादितः पृ. १६)। ३१. इन्द्रिय-मनोनिमित्तं श्रुतानुसारिसन् मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमाद् वीर्यान्तरायक्षयो- ज्ञान मतिज्ञानम् । (जैनत. पृ. ११४) । ३२. मतिपशमाच्च बहिरङ्गपञ्चेन्द्रिय-मनोऽवलम्बनाच्च मूर्ता- ज्ञानत्वं श्रुताननुसार्यनतिशयितज्ञानत्वं अवग्रहादिमतवस्त्वेकदेशेन विकल्पाकारेण परोक्षरूपेण सांव्य- क्रमवदुपयोगजन्यज्ञानत्वं वा । (ज्ञानवि. पृ. १३६)। वहारिकप्रत्यक्षरूपेण वा यज्जानाति तत्क्षायोपशमिकं ३३. पञ्चभिरिन्द्रियः षष्ठेन मनसा जीवस्य यज्ज्ञानं मतिज्ञानम । (ब. द्रव्यसं. टी. ५)। २१. मननं स्यात्तन्मतिज्ञानम् । (दण्डकप्र. टी. ४, पृ. २) । मातिरर्थस्य यत्तदिन्द्रिय-मानसः । (प्राचा. सा. १ इन्द्रिय व मन के निमित्त से जो ज्ञान होता है ४-१)। २२. मतिः-वायो निश्चय इत्यर्थः। उसे मतिज्ञान कहते हैं। २ इन्द्रियों व मन के द्वारा (समवा. अभय. व. १४०, पृ. १०७) । २३. द्रव्य- जो यथायोग्य पदाथों को जानता है (कर्ता), जिसके भावेन्द्रियालोक- मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादिसा- द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं (करण) उसे, अथवा मग्रीप्रभवरूपादिविषयग्रहणपरिणतिश्चात्मनोऽवग्रहा- जानने मात्र (भाव) को मतिज्ञान कहा जाता है। टिपा मतिज्ञानशब्दवाच्यतामश्नुते । (सन्मति. ३ वर्तमान काल को विषय करने वाला जो ज्ञान प्रभय. व. २-१०, पृ. ६२०)। २४. 'मति (षष्ठक.- अविनष्ट (उत्पन्न होकर नष्ट न हुए) पदार्थ को 'मन') ज्ञाने' मननं मतिः, यद्वा मन्यते इन्द्रिय- ग्रहण करता है वह मतिज्ञान कहलाता है ।
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मतिज्ञ नावरण]
८७५, जन-लक्षणावली [मत्स्योद्वत्तदोष ५ किसी प्रकार से पदार्थ के परिज्ञान के हो जाने दातृगुणासहिष्णुत्वं वा मत्सरः । यथाऽनेन तावच्छापर भी अपूर्व और सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ के पालो- वकेण मागितेन दत्तम्, किमहमस्मादपि हीनः इति चनरूप जो बद्धि होती है उसका नाम मति है। परोन्नतिवैमनस्याद् ददाति । एतच्च मत्सरशब्द३० जो बद्धि भविष्यत काल को विषय करने वाली स्यानेकार्थत्वात् संगच्छते । तदुक्तम् -मत्सरः पर. है उसे मति कहते हैं।
__ सम्पत्त्यक्षमायां तद्वति ऋधि । (सा. घ. स्वो. टी. मतिज्ञानावरण-१. तस्स (मदिणाणस्स) पाव- ५-५४) । ३. मत्सरः परसंपदसहिष्णुता। (सम्बोरणं मदिणाणावरणं । (घव. पु. ७, पृ. ६७)। धस. व. ४) । २. अट्ठावीसइभयं मइनाणं इत्थ वणियं समए । तं १ मत्सर नाम क्रोध का है । जैसे-अन्वेषित होता (मतिज्ञानं) आवरेइ जं तं मइयावरणं हवइ पढमं ॥ हुमा क्रोध करता है, अन्वेषित याचित द्रब्य के होने (कर्यबि. ग. १३) ।
पर भी नहीं देता है, अथवा खोजने पर इस दरिद्र १ जो कर्म मतिज्ञान को आच्छादित करता है उसे ने तो दिया है, क्या मैं इससे भी हीन हूं; इस मतिज्ञानावरण कहते हैं।
प्रकार के मात्सर्य भाव से देता है। इस प्रकार मत्यज्ञान-१. विस-जंत-कड-पंजर-बंधादिसू अणु- दूसरे की उन्नति में खेदखिन्न होना, इनका नाम वएमकरणेण । जा खलु पवत्तए मई मइअण्णाणंत्ति णं मात्सर्य है । यह अतिथिसंविभागवत का एक विति ॥ (प्रा. पंचसं. १-११८ धव. पु. १, पृ. (चौथा) अतिचार है। ३५८ उद्.; गो. जी. ३०३) । २. मिथ्यादृष्टेमति: मत्स्योवृत्तदोष-१. उटुिंत-निवेसिंतो उव्वत्तइ मत्यज्ञानम् । (नन्दी. हरि. व.पृ. ५६) । ३. मिथ्या- मच्छउव्व जलमज्झे । वंदिउकामो वऽन्नं झसो व त्वसमवेतमिन्द्रियजज्ञानं मत्यज्ञानम् । (धव. पु. १, परियत्तए तुरियं ॥ (प्रव. सारो. १५६) । २. उत्तिपृ. ३५८) । ४. मिथ्यादृष्टिपरिगृहीता मतिर्मत्य- ष्ठन् निविशमानो वा जलमध्ये मत्स्य इवोद्वर्तते उद्वेलज्ञानम् । (त. भा. सिद्ध. वृ.१-३२)। ५. रूपादौ यति यत्र तन्मत्स्योद्वत्तम्, अथवा एकमाचार्यादिक यद्विपर्यस्तं मत्यज्ञानं तदक्षजम् ॥ (पंचसं. अमित. वन्दित्वा तत्समीप एवापरं वन्दनाह कश्चन वन्दितु. १-२३१)। ६. उपवेशक्रियां विना यदीदृशं ऊहा- मिच्छंस्तत्समीपे जिगमिषुरुपविष्ट एव झष इव--- पोहविकल्पात्मकं हिंसानृत-स्तेयाब्रह्म-परिग्रहकारण- मत्स्य इव त्वरितमन परावृत्य यत्र गच्छति तद्वा मार्त-रौद्रध्यानकारणं शल्य-दंड-गारवसंज्ञाद्यप्रशस्त- मत्स्योद्वत्तम् । इत्थं च यदङ्गपरावर्तनं तद् रेचकापरिणामकारणं च इन्द्रिय-मनोजनितविशेषग्रहणरूपं वर्त इत्यभिधीयते । (प्राव. हरि. व. मल. हेम. टि. मिथ्याज्ञानं तन्मत्यज्ञानम् । (गो. जो. म. प्र. पृ. ८८; प्रव. सारो. वृ. १५६)। ३. मत्स्योद्वतः
पार्श्व द्वयेन वन्दनाकरणमथवा मत्स्यस्येव कटिभागे१ विष, यन्त्र, कूट, पंजर और बन्धन प्रादि के नोद्वत्तं कृत्वा यो वन्दनां विदधाति तस्य मत्स्योद्वर्तविषय में जो बिना उपदेश के बुद्धि प्रवृत्त होती है दोषः ।। (मूला. वृ. ७-१०७) । ४. मत्स्योद्वत्तउसे मत्यज्ञान कहते हैं। २ मिथ्यावृष्टि की बुद्धि मुत्तिष्ठन् निविशमाना वा जलमध्ये मत्स्य इवोद्वर्तते को मत्यज्ञान कहा जाता है।
उद्वेल्लते यत्र तत, यद्वा एक वन्दित्वा द्वितीयस्य मत्सर-देवो मात्सर्य । १. तथा मत्सरः कोपः, साघोर्दुतं द्वितीयपान रेचकावर्तेन मत्स्यवत्परायथा मागितः सन् कुप्यति, सदपि मागितं न ददाति, वृत्य वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०). अथवाऽनेन तावद द्रमकेण मागितेन दत्तम, किमहं ५. मत्स्योद्वत स्थितिमत्स्योद्वर्तवत् त्वेकपाश्र्वतः । ततोऽपि हीन इति मात्सर्याद् ददाति, अत्र परोन्नति- (अन. ध. ८-१०१)। वैमनस्यं मात्सर्यम् । यदुक्तमस्माभिरेवाऽनेकार्थसंग्रहे १ जो जल में स्थित मछली के समान उठता-बैठता -- मत्सरः परसम्पत्यक्षमायां तद्वति क्रुधि । इति हुअा (उछलता हुमा) वन्दना करता है, अथवा चतुर्थः । (योगशा. स्वो. विव ३-११६)। २. अन्य प्राचार्य की वन्दना का इच्छुक होकर जो मत्सरः कोप:, यथा मागितः सन् कुप्यति, सदपि वा मत्स्य के समान पाश्र्व भाग को परिवर्तित कर मागितं न ददाति, प्रयच्छतोऽप्यादराभावो वा, अन्य- वन्दना करता है वह मत्स्योवृत्त नामक वन्दना
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मद] ८७६, जैन-लक्षणावली
[मधुर दोष का भागी होता है।
मदनात्याग्रह है। यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का चतुर्थ मद-१. मद्यादिमदवदनालापदर्शनान्मदः । (त. अतिचार है। भा. मिद्ध. व. ८-१०, पृ. १४५)। २. कुल. मद्य--१. माद्यन्ति येन तत् मद्यम्, यद्वशाद् गम्याबलश्वर्य-रूप-विद्यादिभिरात्माहंकारकरणं परप्रकर्ष- गम्य-वाच्यावाच्यादिविभागं जनो न जानाति । निबन्धनं वा मदः । (नीतिवा. ४-६); पान-स्त्री- (उत्तरा. नि. शा. वृ. १८०, पृ. १९०) । २. हृषोसगादिजानता हषा मदः । (नातिवा. १०-३८, पृ. कज्ञानयुक्तस्य मादनान्मद्यमुच्यते । ज्ञानाद्यावृत्ति११६)। ३. सहजचतुरकवित्वनिखिलजनताकर्णा
हेतुत्वात् स्यात्तदवद्यकारणम् ।। (लाटीसं. २-६७)। मृतस्यन्दिसहजशरीर-कुल-बलैश्वर्यरात्माहंकारजन्मा
१ जिसके पीने से मनुष्य गम्य-अगम्य (सेव्यमदः । (नि. सा. वृ. ६); तीव्रचारित्रमोहो
प्रसेव्य) पीर वाच्य-प्रवाच्य का विभाग नहीं दयबलेन बेदाभिधाननोकषाय विलासो मदः । (नि.
जानता है-यद्वा तद्वा बोलता है-वह मद्य कहसा वृ. ११२) । ४. कुल-बलैश्वर्य-रूप-विद्यादिभि
लाता है। रहका रकरणं परप्रवर्ष निबन्धनं वा मदः । (योगशा.
मद्यव्यसन-यत्पुनर्मद्यपानकेन नित्य मूच्छित स्वो. विव. १-५६, पृ. १६०; धर्मसं. मा. स्वो.
इवाऽऽस्ते तद् मद्यव्यसनम् । (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. व. १ ५; सम्वोधस. वृ. ४, पृ. ५)। ५. मद १४०)। आनन्द सम्मोहसम्भेदः । ( काव्यानु. वृ. २, मद्य के पीने से प्राणी जो निरन्तर बेसुध जैसा रहता पृ.८५); मद्यपानादानन्द-संमोहयो: संगमो मदः ।
है, इसी का नाम मद्यव्यसन है। (काव्यानु. वृ. २, पृ. ८८)। ६. ज्ञानं पूजा तपो लक्ष्मी रूपं जातिर्बलं कुलम् । यादग मेऽन्यस्य ना- मधु-१. मक्षिकागर्भसभूतबालाण्डविनिपीडनात । स्तीति मानो ज्ञेयं मदाष्टकम् ।। (धर्मसं. श्रा. ४, जात मधु कथं सन्तः सेवन्ते कललाकृतिम् ।। (उपा. ४३)। ७. तथा च जैमिनि:-कुल-वीर्य-स्वरूपाचर्यो
सका. २६४)। २. मधु च माक्षिकनिष्पन्नम् । गर्वो ज्ञानसम्भवः। स मदः प्रोच्यतेऽन्यस्य येन वा
(विपाक. अभय. व. पृ. २३)। ३. मधुकृवातकर्षणं भवेत् ।। (नीतिवा. टी. ४-६)।
घातोत्थं मध्वशुच्यपि बिन्दुश: । खादन् बध्नात्यघं १ मद्य प्रादि के मद के समान प्रनालाप (असम्भा
सप्तग्रामदाहाहसोऽधिकम् ।। (सा. ध. २-११) । षण) के देखने से मद होता है। २ कुल. बल, ऐश्वर्य,
४. मक्षिकाबालकाण्डोत्थमत्युच्छिष्टं मलाविलम् । रूप और विद्या प्रादि के द्वारा जो अपना अभिमान सूक्ष्मजन्तुगुणाकीर्णं तन्मधु स्यात् कथं वरम् ।। (धर्मप्रगट किया जाता है उसे; अथवा जो दूसरे के
सं. श्रा. ५-१३८)। आकर्षण का कारण होता है उसे मद कहते हैं। १ मधुमक्खियों के गर्भ से उत्पन्न बाल अण्डों के मदनात्याग्रह - देखो. कामतीव्राभिलाष । मदने निचोड़ने से जो उत्पन्न होता है उसका नाम मध कामेऽत्याग्रहः परित्यक्तान्यसकलव्यापारस्य तदध्यव- (शहद) है। सायतः योषामुख-कक्षोरूपस्थान्तरेष्ववितृप्ततया प्र- मधुर-१. मधुरं श्रवणमनोहरम् । (प्राव. नि. क्षिप्य प्रजननं महती वेलां निश्चलो मृत एवास्ते, हरि. वृ. ८८५, पृ. ३७६) । २. ह्लादनबृहणचटक इव चटकायां मुहुर्मुहुर्योषायामारोहति, जात- कृन्मधुरः । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ६०; त. भा. बलक्षयश्च वाजीकरणान्युपयुङ्क्ते ; अनेन खल्वौष- सिद्ध वृ. ५-२३)। ३. मधुरं ललिताक्षरपदाद्याधप्रयोगेण गजप्रसेकी तुरगावमर्दीव पूरुषो भवतीति त्मकतया श्रोत्रमनोहारि । (व्यव. भा. मलय. व. बुद्धया। इति चतुर्थः । (पोगशा. स्वो. विव. ७-१६०)। ४. पित्तादिप्रशमक: खण्ड-शर्कराद्या३-१४, पृ. ५५६-५७)।
श्रितो मधुरः। (कर्मवि. दे. स्वो.. ४०, प. अन्य समस्त व्यापार को छोड़कर काम (मैथुन) ५१)। के विषय में अतिशय प्रासक्त रहना, तृप्ति के लिए १ जो वचन सुनने में मनोहर होता है उसे मधुर अंग-अनंग का विचार न करना, तथा बलवर्धक वचन कहते हैं । २ जो रस प्रानन्दवर्धक होता है उसे प्रौषधियों का प्रयोग करना; इत्यादि का नाम मधुर रस कहा जाता है। ३ जिसमें ललित प्रक्षर
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मधुर गेय ]
व पद रहते हैं तथा जो सुनने में मनोहर होता है उस जिनवचन की मधुर माना जाता है । मधुर गेय - मधुरस्वरेण गीयमानं मधुरं कोकिलारुतवत् । (रायप. मलय. वृ. पृ. १३१) । जो कोयल के शब्द के समान मधुर स्वर से गाया जाता है उसे मधुर गेय कहते हैं । मधुर नाम -१ एवं सेसरसाणमत्थो वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गला महुररसेण परिणमति तं महुरणामं ) | ( धव. पु. ६, पृ. ७५) । २. यदुदयाज्जन्तुशरीरमिक्ष्वादिवद् मधुरं भवति तद् मधुरनाम । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. ४०, पृ. ५१) ।
१ जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल मधुर रस रूप से परिणत होते हैं उसे मधुरनामकर्म कहा जाता है।
८७७, जैन-लक्षणावली [मध्यम आत्मा मध्यगत अवधि - १ मज्झगयं से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिश्रं वा अलातं वा मणि वा पईवं वा जोइं वा मत्थए काउं समुव्वहमाणे २ गच्छिज्जा से तं मज्झगयं । ( नन्दी. सू. १०, पृ. ८२-८३) । २. इह मध्यं प्रसिद्धं दण्डादिमध्यवत्, तत्रात्मप्रदेशानां मध्ये मध्यवर्तिष्वात्मप्रदेशेषु गतः स्थितो मध्यगतः अयं च स्पर्द्धकरूपः सर्वदिगुपलम्भकारणं मध्यवर्तिनामात्मप्रदेशानामवधिरवसेयः । अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोशमभावेऽपि श्रीदारिकशरीर मध्य भागेनोरलब्धिः स मध्ये गतो मध्यगतः, X X X अथवा तेनावधिना यदुद्योतितं क्षेत्र सर्वासु दिक्षु तस्य मध्ये मध्यभागे स्थितो मध्यगतः, अवधिज्ञानिनः तदुद्योतितक्षेत्र मध्यवतित्वात् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१७, पृ. ३३७ व ३३८ ) । ३. मध्यं प्रसिद्धं दण्डादिमध्यवत्, ततो मध्ये गत मध्यगतम् इदमपि त्रिधा व्याख्येयम् --- आत्मप्रदेशानां मध्ये-मध्यवर्तिष्वात्मप्रदेशेषु, गतम् - स्थितं मध्यगतम्, इदं च स्पर्द्धकरूपमवधिज्ञान सर्व दिगुपलम्भकारणं मध्यवर्तिनामात्मप्रदेशानामवसेयम्, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽप्यौदारिकशरीर मध्यभागेनोपलब्धिस्तन्मध्ये गतं मध्यगतम् × × × अथवा तेनावधिज्ञानेन यदुद्योतितं क्षेत्रं सर्वासु दिक्षु, तस्य मध्ये मध्यभागे गतं स्थितं मध्यगतम्, अवधिज्ञानिनः तदुद्योतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात् । (नन्दी. सू मलय. वृ. १०, पृ. ८३-८४) ।
१ जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का ( छोटा दीपक), चलिका ( अन्त में जलते हुए तृणों की पूलिका), अलात (अग्रभाग में जलती हुई लकड़ी), मणि, प्रदीप अथवा ज्योति ( शराब श्रादि में स्थित जलती हुई श्रग्नि) को मस्तक पर करके गमन करता हुआ सब दिशाओं को देखता है उसी प्रकार जिस अवधिज्ञान के द्वारा श्रवधिज्ञानी जीव सब दिशाओंों में देखता जानता है उसे मध्यगत अवधि कहा जाता है।
मधुरवचनता - देखो मधुर मधुरं रसवद् यदर्थतो विशिष्टार्थवत्तयाऽर्थावगाढत्वेन शब्दतश्चापरुषत्व-सौस्वयं गाम्भीर्यत्वादिगुणोपेतत्वेन श्रोतुराह्लादमुपजनयति तदेवंविधं वचनं यस्य स तथा, तद्भावो मधुरवचनता। (उत्तरा. नि. शा. वू, ५८, पू. ३६ ) ।
जो रसयुक्त मधुर वचन अर्थ की अपेक्षा विशिष्ट अर्थ से संयुक्त व अर्थ से अधिष्ठित होने के कारण तथा शब्द की अपेक्षा कठोरता से रहित, सुन्दर स्वर से सहित व गम्भीरता श्रादि गुणों से संयुक्त होने के कारण श्रोता को श्रानन्द उत्पन्न किया करता है, इस प्रकार के स्वरूप वाला वचन जिन श्राचार्यों का होता है वे मधुरवचन कहे जाते हैं । यह मधुरवचनता उनकी ४-४ प्रकार की लाठ (४ X ८ = ३२ ) गणिसम्पदानों में से एक हैं। मधुस्रवी - हत्थक्खित्तासेसाहाराणं महु-गुड- सण्डसक्करासादसरूवेण परिणमणक्खमा महुसविणो जिणा । ( धव. पु. ६, पृ. १०१ ) । जिस ऋद्धि के प्रभाव से हाथों में रखे गए समस्त आहार मधु, गुड़, खांड और शक्कर शादि के स्वादस्वरूप से परिणत हो जाते हैं उसे मधुस्रवी ऋद्धि कहते हैं ।
मध्य – तयोः ( प्राद्यन्तयोः ) अन्तरं मध्यमुपचर्यते । (अनुयो. हरि. वृ. पू. ३२ ) । आदि और अन्त के अन्तर को मध्य कहा जाता है ।
मध्यम श्रात्मा - देखो अन्तरात्मा । १. सिविणे वि
भुंजइ विसयाई देहाइभिण्णभावमई । जइ णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो । ( रयणसार १४१) । २. सावयगुणेहि जुत्ता पमत्तविरदा य मज्झिमा होंति । जिणवयणे अणुरत्ता उवसमसीला
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मध्यम उपवास ८७८, जैन-लक्षणाबली
[मध्यस्थ महासत्ता । (कातिके. १९६)।
मध्यमं पात्रमित्याहुविरताविरतं बुधाः ।। (पू. उपा१ जो विजयी-जितेन्द्रिय-जीव प्रात्मा को देहादि सका. ४६) । से भिन्न जानता हा मोक्षसुख में अनुरक्त १ संयतासंयत-देशव्रती श्रावक-मध्यम पात्र कहे होकर प्रात्मस्वरूप का अनुभव करता है और जाते हैं। २ शील और व्रतों की भावनामो से विषयों का स्वप्न में भी सेवन नहीं करता है उसे रहित सम्यग्दृष्टि मध्यम पात्र कहलाता है। मध्यम प्रात्मा कहते हैं । २ श्रावक के गुणों से मध्यम बुद्धि-xxx मध्यमबुद्धिस्तु मध्ययुक्त-पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक-और प्रमत्त- माचारः । (षोडश. १-३)। विरत ये मध्यम आत्मा होते हैं।
बाल, मध्यमबुद्धि और बुध इन तीन प्रकार के मध्यम उपवास-साम्बर्मध्ये xxx॥ (अन. परीक्षकों में मध्यम प्राचार वाला परीक्षक मध्यमघ. ७-१५); उक्तं च-xxx उपवासः सपा- बुद्धि कहलाता है। नीयस्त्रिविधो मध्यमो मतः ॥ (प्रन.ध. स्वो. टी. मध्यम लोक-१. मज्झिमलोयायाशे उ ७-१५)।
मुर अद्धसारिच्छो॥ (ति. प. १-१३७) । २. भदरधारण (सप्तमी आदि) और पारण (नवमी आदि) परिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति । (धव. पु. ४, पृ६); के दिन एकाशनपूर्वक पानी के साथ जो उपवास हेट्ठा मज्झे उवरि वेत्तासण-झल्लरी-म इगाणहो । किया जाता है-पानी को छोड़कर अन्य सब (धव. पु. ४, पृ. ११ उद्.); ण च एत्थ झल्लरीप्रकार के प्राहार का परित्याग किया जाता है- संठाणं णत्थि, मज्झम्हि सयंभुरमणोदहिपरिविखत्तउसे मध्यम उपवास कहा जाता है।
देसेण चंदमंडल मिव समतदो प्रसंखेज्जजोयणरु देण मध्यम पद-१. सोलससद चोत्तीसकोडि-तेसीदि. जोयणलक्खबाहल्लेण झल्लरीसमाणत्तादो। (धव. लक्ख-अट्ठहत्तरिसय-अट्ठासीदिअक्खरेहिं (१६३४८- पु. ४, पृ. २१)।
०७८८८) एगं मज्झिमपदं होदि। (जयघ. १, १ मध्यम लोक का प्राकार खड़े किए हए मदंग के पृ. ६२; घव. पु. ९, पृ. १९५)। २. एकपदवर्णन- अर्ध भाग-बीच के भाग-के समान है। २ मध्य मस्कारोऽयम् षोडशशतं चस्त्रिशत्कोटीनां ज्य- लोक मेरु पर्वत के प्रमाण है, अर्थात् वह मेरु शीतिमेव लक्षाणि । शतसंख्याष्टासप्ततिमष्टाशीति पर्वत की ऊंचाई के बराबर (१४०००० यो.) च पदवर्णान् ॥ (धव. पु. ६, पृ. १६५); सोलस- गोल प्राकार में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त सदचोत्तीसं कोडी तेसीदि चेव लक्खाई। सत्त- अवस्थित है। सहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा ॥ एत्तियाणि मध्यमा प्रतिष्ठा-देखो क्षेत्राख्या प्रतिष्ठा । अक्खराणि घेत्तूण एगं मज्झिमपदं होदि। (धव. ऋषभाद्यानां तु तथा सर्वेषामेव मध्यमा ज्ञेया । पु. १३, पृ. २६६)।
(षोडश. ८-३)। १ सोलह सौ चौंतीस करोड़, तेरासी लाख, सात ऋषभादि सभी (चौबीस) तीर्थंकरों के बिम्बों की हजार, पाठ सौ अठासी (१६३४८३०७८८८), प्रतिष्ठा व्यक्त्याख्य, क्षेत्राख्य और महारुप इन इतने वर्णों का एक मध्यम पद होता है।
तीन प्रकार की प्रतिष्ठानों में मध्यम (क्षेत्राख्य) मध्यम पात्र - १. मध्यमं तु भवेत्पात्रं संयता- प्रतिष्ठा मानी जाती है। संयता जनाः। (ह. पु. ७-१०६)। २. सदष्टि- मध्य लोक-देखो मध्यम लोक । झल्लरिसमो य मध्यमं पात्रं निःशीलवतभावनः ॥ (म. प्र. मज्झे xxx॥ (पउमच. ३-१६)। २०-१४०; पुरु. च.८-१६, पृ. १६२) । ३. उपा. लोक मध्य में झालर जैसे प्राकार बाला है, अर्थात सकाचारविधिप्रवीणो मन्दीकृताशेषकषायवृत्तिः । मध्य लोक प्राकार में झालर के समान है। उत्तिष्ठते यो जननव्यपाये त मध्यमं पात्रमुदाह- मध्यस्थ-१. जो णवि वट्टइ रागे णवि दोसे दोण्ह रन्ति ।। (अमित. श्रा. १०-३०)। ४.xxx मज्भयारंमि । सो होइ उ मज्झत्थो Xxx ॥ मध्यम श्रावको xxx। (सा. घ. ५-४४)। (प्राव. नि. ८.३)। २. राग-दोषयोरन्तरालं ५. सम्यक्त्व-व्रतसम्पन्नो जिनधर्मप्रकाशकः । मध्यम, तत्र स्थितो मध्यस्थः-राग-द्वषेष्ववक्ति
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मध्यस्थ]
८७६, जैन-लक्षणावली रिति । ( त. भा. हरि वृ. ७-६ ) । ३. यो नापि वर्तते रागे नापि द्वेषे, किं तर्हि ? X XX द्वयोमंध्ये इत्यर्थः, स भवति मध्यस्थ: । ( श्राव. नि. हरि वृ. ८०३ ) । ४. मध्यस्थो राग-द्वेषरहितः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १३, पृ. ६० ) । ५. मध्यस्थो राग-द्वेषरहितोऽत एवासौ सोमदृष्टि:, यथावस्थित धर्म विचारवत्त्वाद् दूरं दोषत्यागी । ( सम्बोघस. गु. वृ. २० ) । ६. नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने । समशीलं मनो यस्य स मध्यस्थो महामुनिः ॥ ( ज्ञा. सा. १६-३) ।
१ सामायिक में स्थित जो श्रावक साधु के समान न राग में रहता है और न द्वेष में, किन्तु उन दोनों के मध्य में स्थित ( उदासीन) रहता है उसे मध्यस्थ कहा जाता है । ६ जो नय अपने विषय में सत्य ( यथार्थ ) और इतर पक्ष में निरर्थक होते है उनमें जिसका मन सम स्वभाव वाला होता है - जो - पक्षपात से रहित होकर नयविवक्षा के अनुसार अनेक धर्मस्वरूप वस्तु के विवक्षित धर्म को ग्रहण करता है - वह मध्यस्थ कहलाता है । मध्यस्थ राजा - उदासीनवदनियतमण्डलोऽपरभूपापेक्षया समधिकबलोऽपि कुतश्चित् कारणादन्यस्मिन् नृपतो विजिगीषुमाणे यो मध्यस्थभावमालम्बते स मध्यस्थः । ( नीतिवा. २६ - २२, पृ. ३१८) ।
जो राजा उदासीन राजा के समान अनियतमण्डल होता हुआ विजयेच्छु राजा से अधिक बलवान् - होने पर भी किसी कारण वश विजय की इच्छा रखने वाले राजा के विषय में “यदि मैं एक किसी की सहायता करूंगा तो दूसरा वैरी हो सकता है" इस विचार से मध्यस्थ भाव का श्राश्रय लेता है वह मध्यस्थ राजा कहलाता है । मध्वाश्रव - देखो मध्वास्रवी मध्वाश्रवी - १. मुणिकरणिक्खित्ताणि लुक्खाहारादियाण होंति खणे । जीए महुररसाई स च्चिय महोसवी रिद्धी ॥ श्रहवा दुक्खप्पहुदी जीए मुणिवयणसवणमेत्तेणं । णासदि णर- तिरियाणं तच्चिय महुवासवी रिद्धी । (ति. प. ४, १०८२ - १०८३) । २. येषां पाणिपुटपतित श्राहारो नीरसोऽपि मधुररस वीर्यपरिणामितां भजते येषां वा वचांसि श्रोतृणां दुःखादितानामपि मधुगुणं पुष्णन्ति ते मध्वा
[मन
३.
स्रविणः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०४) । येषां पाणिपुटे पतित श्राहारो नीरसोऽपि मधुररसवीर्यपरिणामितां भजते येषां वा वचांसि श्रोतॄणां दु:खदितानामपि मधुरगुणं पुष्णन्ति ते मध्वाऽऽस्राविणः । (चा. सा. पृ. १०० ) । ४. तथा क्षीर-मधुसर्पिरसृतास्राविणो येषां पात्रपतितं कदन्नमपि क्षीर मधुसर्पिरमृतरस- वीर्यविपाकं जायते, वचनं वा शरीर-मानसदुखप्राप्तानां देहिनां क्षीरादिवत्सन्तर्पकं भवति ते क्षीरास्रविणो मध्वास्रविणः सर्पिरास्रविणोsमृतास्रविणश्च । (योगशा. हेम. स्वो विव. १-८, पृ. ३६ ) । ५. मध्वपि किमप्यतिशायि शर्करादि मधुरद्रव्यं द्रष्टव्यम् XXX मध्विव वचनमाश्रवन्तीति मध्वाश्रवाः । (श्राव. नि. मलय. वृ. ७५, पृ. ८० ) । ६. येषां पाणि-पात्रगतमशन नीरसमपि मधुररसपरिणामि भवति वचनानि वा श्रोतॄणां मधुरस्वादं जनयन्ति ते मध्वास्राविणः प्रोच्यन्ते । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के हाथों में रखे गये रूखे आहार आदि क्षण भर में मधुर रस युक्त हो जाते हैं उसका नाम मध्वास्रवी ऋद्धि है । अथवा जिसके प्रभाव से मुनि के वचन के सुनने मात्र से मनुष्य-तियंञ्चों के दुःख आदि नष्ट हो जाते हैं उसे मध्वास्रवी ऋद्धि जानना चाहिए । ५ जिनके वचन मधु - शक्कर आदि मधुर द्रव्य के समान निकलते हैं उन्हें मध्वाश्रव नाम से कहा जाता है ।
मन - देखो श्रनिन्द्रिय । १. मनश्च मनोवर्गणापरिणतिरूपं द्रव्येन्द्रियम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-६); मनोऽपि मनोवर्गणायोग्य स्कन्धाभिनिर्वृत्तमशेषात्मप्रदेशवृत्तिद्रव्यरूप मनुते साधकतमत्वात् करणमात्मनः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-८ ) । २. यतः स्मृतिः प्रत्यवमर्षणमूहापोहनं शिक्षालाप क्रियाग्रहणं च भवति तन्मनः । ( नीतिवा. ६-६ ) । ३. X X x समस्त शुभाशुभविकल्पातीतपरमात्मद्रव्यविलक्षणं नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते XX X (बृ. द्रव्यसं. टी. १३) । ४. सर्वार्थग्रहणं मनः । (प्रमाणमी. १, १, २४) । ५. तत्र 'बुधी मनी ज्ञाने' मननं मन्यते वाऽनेनेति मनः, श्रौणादिकोऽस् प्रत्ययः । श्राव. सू. मलय वृ. १, पृ. ५५७ ) । ६. मन्यते चिन्त्यते वस्त्वनेनेति मनः । ( शतक. दे.
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मनविनय] ८८०, जैन-लक्षणावली
[मनःपर्यय स्वो. ३.७६)।
विचारों को मन में स्थान देना, इसका नाम मन१ मनोवर्गणा की परिणतिस्वरूप द्रव्य-इन्द्रिय को संयम है। २ द्रोह, अभिमान और ईर्ष्या प्रादि
हते हैं। वह समस्त प्रात्मप्रदेशों में रहता दर्गगों से दूर रहकर धर्मध्यान प्रादि में प्रवत्त है तथा पर पदार्थ के प्रकासन में अतिशय साधक होना, इसे मनसंयम कहा जाता है। होने से प्रात्मा का करण है। २ जिसके प्राश्रय से मनःपर्यय--१. वीर्यान्तराय-मनःपर्ययज्ञानावरणस्मृति, प्रत्यभिज्ञान, ऊहापोह और शिक्षालाप क्षयोपशाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भादात्मनः परकीयक्रिया का ग्रहण होता है उसे मन कहते हैं। मन:सम्बन्धेन लब्यवत्तिरुपयोगो मनःपर्ययः । (स. ४ जिसकी सहायता से सब अर्थों का ग्रहण होता सि. १-२३)। २. परमनसि स्थितमर्थ मनमा है-चक्षरादि इन्द्रियों के समान केवल नियत परविद्य मन्त्रिमहितगणम्। ऋजु-विपुलमतिविकल्प रूपादि का ही ज्ञान नहीं होता है--उसका नाम स्तौमि मन:पर्ययज्ञानम् ॥ (बृ. श्रुतम. २८, पृ. मन है।
१८१)। ३. मणपज्जवणाणं पुण जणमणपरचिति-१. इदाणि मणविण मो-प्रायरिया- अत्थपागडणं । माणसखित्तनिबद्धं गुणपच्चइयं ईणं उवरि अकुसलो मणो निरुभियन्वो कुसलमण. चरित्तवयो। (नन्दी. गा. ५७, पृ. १०२; प्राव. उदीरणं च कायव्वं । (दशवै. च. प. २७) । २. जं नि. ७६धर्मसं. हरि. व. ८२६)। ४. तं मणदुप्परिणामामो मणं णियत्ताविऊण सुहजोए। ठा- पज्जवणाणं, जेण वियाणाइ सन्निजीवाणं । दट्ठ विज्जइ सो विणो जिणेहि माणस्सियो भणियो॥ मणिज्जभावे, मणदव्वे माणसं भावं ॥ जाणइ य (वसु. श्रा. ३२६)।
पिहुजणो वि हु फुडमागारेहि माणसं भावं । एमेव १ प्राचार्य आदि के ऊपर-उनके विषय में- य तस्सुवमा मणदव्वपगासिये अत्थे । (वृहत्क. अपवित्र मन को रोकना व पवित्र मन को प्रेरित भा. ३५-३६)। ५. पज्जवणं पज्जयणं पज्जायो करना, इसका नाम मनविनय है। अभिप्राय यह वा मणम्मि मणसो वा । तस्स व पज्जायादिन्नाणं है कि प्राचार्य प्रादि पूज्य पुरुषों के सम्बन्ध में मणपज्जवं नाणं ॥ (विशेषा. ८३)। ६. परि घृणित विचार न करके उत्तम विचार रखना, यह सव्वतोभावेण गमणं पज्जवणं पज्जबो मणसि मणसो मनविनय कहलाता है। २ मन को दुष्ट परिणामों वा पज्जवो २, एस एव णाणं मणपज्जवणाणं, तथा से हटाकर शुभ योग में जो स्थापित किया जाता पज्जयणं पज्जयो मणसि मणसो वा पज्जयः मन:है उसे मनविनय या मनोविनय कहा जाता है। पर्यायः, स एव णाणं मणपज्जवणाणं, तथा प्रायो मनशद्धि --मनःशुद्धिरात रौद्रवर्जनम् । (सा. ध. पावणं लाभो इत्यनर्थान्तरं, सव्वनो आयो पज्जाम्रो स्वो. टी. ५-४५)।
मणसि मणसो वा पज्जायो मणपज्जायो स एव आर्त और रौद्र ध्यानों के छोड़ने से मनशद्धि होती णाणं मणपज्जवणाणं, मण सि मणसो वा पज्जवा
तेस वा णाणं मणोपज्जवणाणं, तथा मणसि मणसो मनसंयम-१. मणोसंजमो णाम अकूशलमण- वा पज्जवा पज्जाया वा तेसिं तेसु वा णाणं मणनिरोहो कुसलमण उदीरणं वा। (दशवै. चू. पृ. पज्जवणाणं-- गमणपरावत्तीगो लोगो भेदादयो २१) । २. मन:संयमोऽभिद्रोहाऽभिमानेादिनिब. वहपरावत्ता । मणपज्जवंमि णाणे निरुत्तवण्णत्यमेवेत्तिः, धर्मध्यानादिषु च प्रवृत्तिः । (त. भा. सिद्ध. ति । (नन्दी चू. पृ. ११) । ७. अवन अवः, अवनं वृ. ६-६) । ३. मनसोऽभिद्रोहाभिमानेादिभ्यो गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परिः सर्वतोभावे, पयवनं निवृत्तिर्वमध्यानादिषु च प्रवृत्तिर्मन:संयमः । (योग- पर्यव:-सर्वतः परिच्छेदनमिति भाव:, xxx शा. स्वो. विव. ४-६३)। ४ मनमो द्रोहेाभि- मनसि ग्राह्ये मनसो वा ग्राह्यस्य सम्बन्धी पर्यवो मानादिगे निवृत्तिधर्मध्यानादिषु च प्रवृत्तिर्मन:- मनःपर्यवो मनःपर्यवश्चासौ ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानम्, संयमः । (धर्मसं. मानवि. ४६, पृ. १२६)। अथवा Xxx अयनं प्रयः, अयनं गमनं वेदन१ अकुशल मन का निरोध करना-अपवित्र मिति पर्यायाः, परिः सर्वतोभावे, पर्ययनं पर्यय: विचारों को उत्पन्न न होने देना--तथा पवित्र सर्वतः परिच्छेदनमिति भावः । xxx मनसि
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मनःपर्यय]
८८१, जैन-लक्षणावली
[मनःपर्यय
ग्राह्ये मनसो वा ग्राह्यस्य सम्बन्धी पर्ययो मनःपर्ययः, व. १, पृ. ६)। १३. मनःपर्यायज्ञानमित्यत्र परिः पुन: समानाधिकरणः, अथवा 'पज्जायोत्ति' इण सर्वतोभावे, अयनं अयः गमनं वेदनमिति पर्यायाः, गतौ आयो लाभ: प्राप्तिरिति पर्यायाः, परिः सर्वतो- परि अयः पर्ययः, पर्ययनं पर्यय इत्यर्थः, मनसि भावे समन्तादायः पर्यायः xxx मनसि ग्राह्य मनसो वा पर्ययो मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परिच्छेद मनसो वा ग्राह्यस्य सम्बन्धी पर्यायो मनःपर्याय:, इत्यर्थः, स एव ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, अथवा मनसः मनःपर्यायश्चासौ ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् । एवं पर्याया मनःपर्याया धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनादितावत् समानाधिकरणमङ्गीकृत्योक्तम्, अथ वैयधि- प्रकारा इत्यनन्तरम्, तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् करणमङ्गीकृत्योच्यते-मनःपर्यवाः (पर्यायाः), तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । इदं चार्द्धपर्याया भेदा धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यर्थः, तृतीयद्वीप-समुद्रान्ततिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनमेवेति ततश्च 'तस्स वेत्यादि' पच्छद्धं-तस्य वा द्रव्यमनसः भावार्थः। (नन्दी. हरि. व. पृ. २५) । १४. मणसम्बन्धिषु पर्यायादिष्वधिकरणभतेपू तेषां वा सम्बन्धि, पज्जवणाणं णाम परमणोगयाइं मुत्तिदव्वाइं तेण पादिशब्दात् पर्यय-पर्यवयोर्ग्रहः । ज्ञानं परिच्छेदन- मणेण सह पच्चक्खं जाणदि। (धव. पु. १, पृ. मिदमनेन चिन्तितमिति मनःपर्यायज्ञानमिति ९४); साक्षान्मनः समादाय मानसार्थानां साक्षावैयधिकरण्यम । (विशेषा. भा. को.५.८३)। करणं मनःपर्ययज्ञानम् । (धव. पु. १, पृ. ३५८); ८. चितियमचिन्तियं वा अद्धं चिन्तिय अणेयभेय- परकीयमनोगतार्थो मनः, तस्य पर्यायाः बिशेषाः गयं । मणपज्जवं त्ति णाणं जं जाणइ तं खुणर- मनःपर्यायाः, तान् जानातीति मनःपर्ययज्ञानम् । लोए॥ (प्रा. पंचसं. १-१२५; धव. पु. १, पृ. (धव. पु. ६, प. २८); परकीयमनोगतोऽर्थो ३६० उद्.; गो. जी. ४३८)। ६. चिताए अचि- मनः, मनस: पर्यायाः विशेषाः मनःपर्यायाः, तान् ताए अद्धचिन्ताए विविहभेयगयं । जं जाणइ जानातीति मनःपर्ययज्ञानम् । (धव. पु. १३, पृ. णरलोए तं चिय मणपज्जवं णाणं ॥ (ति. प. २१२); परकीयमनोगतोऽर्थों मनः, परि समन्तात् ४-९७३)। १०. मनः प्रतीत्य प्रतिसंधाय वा अयः विशेषः [पर्ययः], मनसः पर्ययः मनःपर्ययः, ज्ञानं मनःपर्ययः। तदावरणकर्मक्षयोपशमादिद्वितय. मनःपर्ययस्य ज्ञानं मनःपर्ययज्ञानम् । (धव. पु. निमित्तवशात् परकीयमनोगतार्थज्ञानं मनःपर्ययः । १३, पृ. ३२८)। १५. मनसः पर्ययः मनःपर्ययः, (त. वा. १, ६, ४); मनःसम्बन्धेन लब्धवृत्तिर्मनः- तत्साहचर्याज्ज्ञानमपि मनःपर्ययः, मनःपर्ययश्च सः पर्ययः । वीर्यान्तराय-मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोप- ज्ञानं च तत् मनःपर्ययज्ञानम् । (जयष. १, पृ. १६ शमाङ्गोपाङ्गनामलाभोपष्टम्भादात्मीय-परकीयमन:- व २०); xxx [चितिय-] अद्धचितियसम्बन्धेन लब्धवत्तिरुपयोगो मनःपर्ययः । (त. वा. अचितिय प्रत्थाणं पणदालीसजोयणलक्खभंतरे वट्ट१, २३, १)। ११. मनसः पर्यायः मनःपर्याय:- माणाणां जं पच्चक्खेण परिच्छित्ति कुणइ, मोहिणाजीवादिज्ञेयालोचनप्रकाराः, परगता: मन्यमान- णादो थोवविसयं पिहोदूण संजमाविणाभावितणेण मनोद्रव्यधर्मा इत्यर्थः, साक्षात्कारेण तेषु तेषां वा गउरवियं तं मणपज्जवं णाम । (जयध. १, पृ. ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । (त. भा. हरि. ७.१-६)। ४३) । १६. यन्मनःपर्ययावारपरिक्षय विशेषतः । १२. अयं भावार्थः-परिः सर्वतोभावे, अवनं अव:, ........." (?) मनः पर्येति योऽपि वा ॥ सः मन:प्रवनं गमनं बेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः पर्ययो ज्ञेयो मनोन्नार्था मनोगताः। परेषां स्वमनो पर्यवन वा पर्यव इति, मनसि मनसो वा पर्यवो वापि तदालम्बनमात्रकम् ॥ (त. इलो. १,६, मनःपर्यव., सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, स एव ज्ञानं ६-७); मनः परीत्यानुसन्धाय वाऽयनं मनःपर्यय मन:पर्यवज्ञानम्, अथवा मनस: पर्यायाः मनःपर्यायाः, इति व्युत्पत्ती बहिरंगनिमित्तकोऽयं मनःपर्ययः । पर्याया भेदा धर्मा बाह्य वस्त्वालोचनप्रकारा इत्य- (त. श्लो. १, २३, ६, पृ. २४६)। १७. प्रत्यक्षनर्थान्तरम, तेषू ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम, तेषां वा स्यापि विकलस्यावधि-मन:पर्ययलक्षणस्य मनोसम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । (प्राव. नि. हरि. क्षानपेक्षं स्पष्टात्मार्थग्रहणं स्वरूपम् । (प्रष्टस.
ल. १११
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८८२, जैन - लक्षणावली
मन:पर्यय ]
१-१५, पृ. १३२ ) । १८. मनो द्विविधं - द्रव्य - मनो भावमतश्च तत्र द्रव्यमनो मनोवर्गणा, भावमनस्तु ता एव वर्गणा जीवेन गृहीताः सत्यो मन्यमानाश्चिन्त्यमाना भावमनोऽभिधीयते । तत्रेह भावमनः परिगृह्यते, तस्य भावमनसः पर्यायास्ते चैवंविधा: - यदा कश्चिदेवं चिन्तयेत् किस्वभाव श्रात्मा ? ज्ञानस्वभावोऽमूर्तः कर्ता सुखादीनामनुभविता इत्यादयो ज्ञेयविषयाध्यवसायाः परगतास्तेषु यज्ज्ञानं तेषां वा यज्ज्ञानं तन्मनःपर्यायज्ञानम् । तानेव मनःपर्यायान् परमार्थतः समवबुध्यते, बाह्यास्त्वनुमानादेवेत्यसो तन्मनः पर्यायज्ञानम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १ - ९ ) ; मनः पर्यायेषु ज्ञानं मनः पर्यायज्ञानम् । X X X तथा ऽऽत्मनो मनोद्रव्यपर्यायान् निमित्तीकृत्य यः प्रतिभासो मनुष्यक्षेत्राभ्यन्तरवृत्तिपल्योपमासंख्येयभागावच्छिन्नपश्चात्पुरः कृतपुद् - गलसामान्य विशेषग्राही मनःपर्यायज्ञानसंज्ञः । (त. भा. सिद्ध वृ. ८-७ ) 1 १६. परकीयमनःस्वार्थज्ञानमक्षानपेक्षया । स्यान्मनः पर्ययौ भेदौ तस्यर्जु - विपुले मती । (त. सा. १ - २८ ) । २०. यत्तदावरणक्षयोपशमादेव परमनोगतं मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तन्मनः पर्ययज्ञानम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. ४१ ) । २१. परमणगदाण प्रत्थं मणेण श्रवधारिण अवबोधो । रिजु-विपुलमदि वियप्पो मणपज्जयणाणपच्चक्खो । ( जं. दी. प. १३-५२) । २२. द्रव्यादिभेदैः प्रत्येकमवगम्यमानर्जुविपुलमतिविकल्पं मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशम
[मन:पर्यय
करण निरपेक्षस्यात्मनः मनःपर्यायज्ञानमिति वदन्ति विद्वांसः । ( सम्मति. अभय वृ. १० पृ. ६२० ) । २७. संज्ञिभिर्जीवः काययोगेन मनोवर्गणाभ्यो गृहीतानि मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि ( शतक'परिणमय्यालम्ब्यमानानि ' ) द्रव्याणि मनांसीत्युच्यन्ते, तेषां मनसां पर्यायाः चिन्तनानुगुणाः परिणामास्तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, अथवा यथोक्तस्वरूपाणि मनांसि पर्येति अवगच्छतीति मनःपर्यायम्, XX X तच्च तज्ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् । (अनुयो. सू. मल. हेम. वृ. १, पृ. २; शतक. मल. हेम. पू. ३८, पृ. ४३-४४ ) । २८. परकीय मनोगतार्थं मन इत्युच्यते, तत् परि समन्तात् प्रयते इति मनःपर्ययः । ( मूला. वृ. १२ - १८७ ) । २६. मनो देशावर्धर्ज्ञेयं मध्यमं चिन्तितादिकम् । परैः पर्येति तद्यत्तन्मनः पर्ययबोधनम् । ( प्राचा. सा. ४-५१) । ३० मनसा गमः परिच्छेदो मनःपर्यायाणामवगम इत्यर्थः । एष च अर्द्ध तृतीयद्वीप समुद्रान्तर्गत संज्ञिमनोगोचर: : ( प्रमाल. वृ. ३, पृ. ७) । ३१. संविशुद्धि निवन्धनाद्विशिष्टावरण विच्छेदाज्जातमनोद्रव्यपर्यायालम्बनं मनः पर्यायज्ञानम् । (प्र. न. त. २-२२) । ३२. मनसि मनसो वा पर्यवः परिच्छेद:, स एव ज्ञानमथवा मनसः पर्यवाः पर्यायाः पार्याया वा विशेषा अवस्था मनः पर्यवादयस्तेषां तेषु वा ज्ञानं मनः पर्यवज्ञानमेवमितरत्रापि समयक्षेत्रगत संज्ञिमन्यमानमनोद्रव्य साक्षात्कारीति । ( स्थानां श्रभय. वृ. २, १, ६४, पृ. ४७ ) । ३३. विशिष्टचारित्रवशेन योऽसौ मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपसमस्तस्मादुद्भूतं मानुषक्षेत्रवर्तिसंज्ञिजीवगृहीत मनोद्रव्य पर्यायसाक्षात्कारि यज्ज्ञानं तन्मनःपर्यायज्ञानमित्यर्थः । ( रत्नाकरा. २ - २२ ) । ३४. संज्ञिभिर्जीवै: काययोगेन गृहीतानि मनःप्रायोग्यवर्गणापुद् गलद्रव्याणि चिन्तनीयवस्तु चिन्तनव्यापृतेन मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमय्यावलम्ब्यमानानि मनांसीत्युच्यन्ते तेषां मनसां पर्यायाश्चिन्तनानुगुणाः परिणामाः, तेषु ज्ञानं मन:पर्ययज्ञानम् । अथवाऽऽत्मभिर्वस्तु चिन्तने व्यापारितानि मनांसि पर्येति परिगच्छत्यवैतीति मनः पर्यायम्, XX X तस्य कथंचित् कर्तुरनन्यत्वात् कर्तृत्वम् । कर्ता वाऽऽत्मा यथोक्तानि मनांसि पर्येति श्रनेनेति मनःपर्यायम् । XX X तत्पुनस्तदावरणक्षयोपशमजो लब्धिविशेषः, तदुपयोगो
कारणं रूपिद्रव्यानन्तभागविषयं मन:पर्ययज्ञानम् । ( चा. सा. पृ. ६५ ) । २३. योऽन्यदीयमनोजातरूपिद्रव्यावबोधकः । मनः पर्ययो द्वेधा विपु लर्जुमती मतः ॥ ( पंचसं अमित १-२२७, पृ. २६) । २४. मन:पर्ययोऽपि संयमकार्थसमवायी तदावरण वीर्यान्तरायक्षयोपशम विशेष निबन्धनः परमनोगतार्थं साक्षात्कारो प्रत्यय: । ( प्रमाणनि. पृ. २६ ) । २५. मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च स्वकीयमनोऽवलम्बनेन परकी
मनोगतं मूर्तमर्थमेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदिह मतिज्ञानपूर्वकं मन:पर्ययज्ञानम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ५) । २६. अर्द्ध तृतीय द्वीप समुद्रान्तवतिसकलमनोविकल्पग्रहणपरिणतिर्मनः पर्यायज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादिविशिष्टसामग्रीसमुत्पादिता चक्षुरादि
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मनःपर्यय]
८८३, जैन-बक्षणावली
[मनःपर्यय
वा विषयग्रहणात्मक इति। तच्च तद् ज्ञानं च मनः- पर्यायाः, परि अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवः पर्यायज्ञानम् । (कर्मस्त. गो. व. ९-१०, पृ. ८२)। मनःपर्यवः, सर्वतो मनोद्रव्यपरिच्छेद इत्यर्थः, अथवा ३५. पर्यवति समन्तादवगच्छतीति पर्यवम्, मनसः मनःपर्यय इति पाठः, तत्र पर्ययणं पर्ययः, मनसि पर्यवं मनःपर्यवम्, तच्च तज्ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञा- मनसो वा पर्ययो मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परिच्छेद नम् । (कर्मवि. ग. परमा. व्या. १६)। ३६. परिः इत्यर्थः, स चासो ज्ञानं च मनःपर्ययज्ञानम् । अथवा सर्वतोभावे, अवनम् अवः, अवनं गमनं वेदनमिति मनःपर्यायज्ञानमिति पाठः-ततः मनांसि मनोद्रव्यापर्यायाः, परि अव: पर्यवः, पर्यय इति वा पाठः, तत्र णि पर्येति सर्वात्मना परिच्छिनत्ति मनःपर्यायम्, x पर्ययणं पर्ययो मनसि मनसो वा पर्यवः पर्ययो वा xx मनःपर्यायं च तज्ज्ञानं च मनःपर्याय मनःपर्यव: मन:पर्यायो वा, सर्वतस्तत्परिच्छेद इति (यज्ञानम्), यद्वा मनसः पर्यायाः मनःपर्यायाः, पर्याया यावत् । अथवा मनसः पर्यायाः मनःपर्यायाः, पर्या- भेदा धर्मा बाह्य वस्त्वालोचनप्रकाराः, तेषु तेषां वा या भेदा धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यनर्थान्त- सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्। (नन्दी. सू. मलय. रम्, तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । वृ. १, पृ. ६५-६६)। ४०. परि सर्वतोभावे, अवनं (धर्मस. मलय. व. ८१६) । ३७. परि सर्वतोभावे, प्रवः, xxx अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः, अवनं अवः, xxx अवनं गमनं वेदनमिति परि अव: पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवः, सर्वतपर्यायाः, परि अव: पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवः स्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, मनःपर्यवश्च स ज्ञानं च मन:मनःपर्यवः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः । इदं च मन:- पर्यवज्ञानम्, इदं चार्द्धतृतीयद्वीप-समुद्रान्तर्वतिसंज्ञिपर्यवज्ञानमर्द्धतृतीयद्वीप - समद्रान्तर्वतिसंज्ञिमनोगत- मनोगतद्रव्यालम्बनमवसेयम् । मनःपर्यायज्ञानमित्येवद्रव्यालम्बनं मनःपर्यायज्ञानमित्येवमप्येतदभिधीयते, मप्येतदुच्यते, तत्र मनसः पर्यायाः बाह्यवस्त्वालोचनतत्र मनसः पर्याया बाह्य वस्त्वालोचनप्रकारा धर्मा प्रकारा धर्मा मनःपर्यायाः, तेषु तेषां वा सम्बन्धि मनःपर्यायाः, तेषु तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्याय- ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । (सप्तति. मलय. वृ. ६) । ज्ञानमिति पदैकदेशे पदसमदायोपचाराच्च मन ४१. परि सर्वतोभावे, अवनं अवः 'तुदादिभ्योऽनइत्युक्तेऽपि मनःपर्थव इति मनःपर्यायज्ञानमिति कावित्यधिकारे अकितौ च' इत्यनेन ऊणादिकोव्याख्यातम् । (षडशी. मलय. व. १५) । ३८. परिकार-प्रत्ययः, अवन गमनं बेदनमिति पर्यायाः । सर्वतोभावे, अवनमवः xxx प्रवनं गमनं वेदन- परि प्रवः पर्यवः. मनसि मनसो वा पर्यवः मनःपर्यवः, मिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः । पाठान्तरं वा पर्यय पर्यवो मनःपर्यवः, सर्वतो मनोद्रव्यपरिच्छेद इत्यर्थः। इति-तत्र पर्ययणं पर्यय: 'भावे अल्प्रत्ययः' मनसि अथवा मनःपर्यय इति पाठः, तत्र पर्ययणं पर्ययः मनसो वा पर्ययः मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परिच्छेदः, स मनसि मनसो वा पर्ययो मन:पर्यय:-सर्वतस्तत्परि- चासौ ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं वा । च्छेद इति, स चासौ ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानं मन:- अथवा मनांसि पयनि सर्वात्मना तानि परिच्छिनत्तीपर्यय ज्ञानं वा। मणपज्जवणाणमिति पाठेऽपि मन:- ति मनःपर्यायम् 'कर्मणोऽणिति अण्प्रत्ययः' मनःपर्यायज्ञानमिति शब्दसंस्कारमाचक्षते । तत्रैवं व्यु- पर्याय च तद् ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् । यद्वा त्पत्तिः--मनांसि मनोद्रव्याणि, पर्येति सर्वात्मना मनसः पर्याया मनःपर्यायाः, पर्याया धर्मा बाह्यवपरिच्छिनत्ति मनःपर्यायम्, xxx मनःपर्यायं च स्त्वालोचनप्रकारा इत्यप्यनर्थान्तरम्, तेषु तेषां वा तज्ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् । यदि वा मनसः सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । इदं चार्द्धतृतीयपर्यायाः मनःपर्यायाः, पर्याया भेदा धर्मा बाह्यव- द्वीप-समुद्रान्तर्वत्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनम् । (पंचवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यर्थः, तेषु तेषां वा सम्बन्धि सं. मलय. वृ.१-१, पृ. ७) । ४२. तथा परि ज्ञानं मनःपर्ययज्ञानम् । इदं चार्द्धतृतीयद्वीप समुद्रा- सर्वतोभावे, अवनं अवः, XXX अवनं गमनन्तर्वत्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनमेव । (प्राव. नि.. मिति पर्यायः परि अव: पर्यवः, मनसि मनसो वा १, मलय. वृ. पृ. १६) । ३६. परिः सर्वतोभावे, पर्यवो मनःपर्यवः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः । प्रवनं प्रवः xxx प्रवनं गमनं वेदनमिति पाठान्तरं पर्यय इति-तत्र पर्ययणं पर्ययः xxx
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मनःपर्यय]
८८४. जैन-लक्षणावली
[मनःपयय
मनसि मनसो वा पर्ययः मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परि- गमनं वेदनं वा, ततः पर्यवः, मनसि मनसो वा च्छेद इत्यर्थ, स चासौ ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानं मनः- पर्यवः, स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं मनुष्यक्षेत्रवतिपर्ययज्ञानं वा, अथवा मनःपर्यायेति पाठान्तरम्-तत्र संज्ञिपंचेन्द्रियद्रव्यमनोगतभावविज्ञानविषयम् । तच्च मनांसि पर्येति सर्वात्मना परिच्छिनत्ति मनःपर्यायं ऋद्धिप्राप्ताप्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्त संख्याताxxx सनःपर्यायं च तत् ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, युष्क-कर्मभूमिक-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणामेव सम्भयदि वा मनसः पर्यायाः मनःपर्यायाः, पर्याया धर्मा वि, नैतद्विपरीतानामिति । (गु.गु. षट. स्वो. बाह्य वस्त्वालोचनप्रकारा इत्यनर्थान्तरम्, तेषु तेषां वृ. ३३) । ४८. परकीयमनसि स्थितोऽर्थः साहचर्यावा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, इदं चार्द्धत- न्मन इत्युच्यते, तस्य पर्ययणं परिगमनं परिज्ञानं तीयद्वीप-समुद्रान्तर्वत्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनम् । मनाय॑यः । (त. वृत्ति श्रुत. १-६); वीर्यान्तराय(प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१२, पृ. ५२७) । ४३. पर- मनःपर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते, तस्य परिस्फुटमयनं ष्टम्भात् प्रात्मनः परकीयमनोलब्धिवृत्तिरुपयोगो परिच्छेदनं मनःपर्ययः । तल्लक्षणं यथा-स्वमनः मनःपर्यय उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-२३) । परीत्य यत्परमनोऽनुसंधाय वा परमनोऽर्थम् । ४९. मनस्त्वेन परिणतद्रव्याणां यस्तु पर्यवः । परिविशदमनोवृत्तिरात्मा वेत्ति मनःपर्ययः स मतः ॥ च्छेदस्स हि मनःपर्यवज्ञानमुच्यते ॥ यद्वा-मनोतत्स्वरूपविशेषशास्त्रं त्विदम्-चिन्तिताचिन्तिता- द्रव्यपर्याया नानावस्थात्मका हि ये। तेषां ज्ञानं
दिचिन्तिताद्यर्थवेदकम् । स्यान्मनःपर्ययज्ञानं खलु मन:पर्यायज्ञानमुच्यते । (लोकप्र. ३, ८४६ व चिन्तकश्च न लोकगः। (प्रन. घ. स्वो. टी. ३-४)। ८५०)। ५०. प्रत्यक्षस्यापि विकलस्यावधि ४४. तथा सज्ञिभिर्जीवः काययोगेन मनोवर्गणाभ्यो यलक्षणस्येन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षत्वे सति स्पष्टतया गृहीतानि मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य- स्वार्थव्यवसायात्मकत्वं स्वरूपम्। (सप्तभं. पृ. ४७)। मानानि द्रव्याणि मनांसीत्युच्यन्ते, तेषां पर्याया:- ५१. मनःपर्यायज्ञानं सार्द्धद्वी-[द्वय-द्वीप-समुद्रस्थितचिन्तानुगुणाः परिणामास्तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, संज्ञिपंचेन्द्रियमनोविषयं द्विभेदं ऋजुमति-विपुलमतिइदं चार्द्धतृतीयसमुद्रान्तर्वत्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्ब- रूपम् । (दण्डकप्र. टी. ४, पृ.३)। ५२. मन:नम् । (प्रव. सारो. वृ. १२५१)। ४५. परिः पर्ययज्ञानं मनसा परमनसि स्थितं पदार्थ पर्येति सर्वतोभावे, अवनम् अवः,xxx अवनं गमनं जानाति इति मनःपर्ययम्, तच्च तज्ज्ञानं च मन:वेदनमिति पर्यायाः, परि अव: पर्यवः, मनसि मनसो पर्ययज्ञानं वा परकीयमनसि स्थितोऽर्थः साहचर्यावा पर्यवो मनःपर्यव:--सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, न्मनः इत्यूच्यते, तस्य मनसः पर्ययणं परिगमनं परिमनःपर्यवश्च स ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानम्, यद्वा ज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं क्षायोपशमिकम । (कातिके. टी. मनःपर्यायज्ञानम्-तत्र संज्ञिभिर्जीवः काययोगेन २५७)। ५३. मनोमात्रसाक्षात्कारि मनःपर्यवज्ञागीतानि मनःप्रायोग्यवर्गणाद्रव्याणि चिन्तनीयवस्तु- नम, मनःपर्यायानिदं साक्षात्परिच्छेत्तमलम, बाह्याचिन्तनव्याप्रतेन मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणाम- नर्थान् पुनस्तदन्यथाऽनुपपत्त्याऽनुमानेनैव परिच्छिय्यालम्ब्यमानानि मनासीत्युच्यन्ते, तेषां मनसां नत्तीति द्रष्टव्यम् । (जैनत. पृ. ११८)। पर्यायाश्चिन्तनानुगताः परिणामा मनःपर्यायाः, तेषु १ वीर्यान्तराय और मनःपर्ययज्ञानावरण के क्षयोपतेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, यद्वा शम तथा अंगोपांगतामकर्म के लाभ के बल से प्रात्मभिर्वस्तचिन्तने व्यापारितानि मनांसि पर्येति प्रत्मा के जो दूसरे के मन के सम्बन्ध से उपयोग अवगच्छतीति मनःपर्यायम् xxx मनःपर्यायं च उत्पन्न होता है वह मनःपर्ययज्ञान कहलाता है। तज्ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् । (कमवि. दे. स्वो. ३जो जीवों के द्वारा मन से चिन्तित अर्थ को प्रगट व.४; षडशी. दे. स्वो. व. ११)। ४६. मनः- किया करता है उसे मनःपर्यव, मनःपर्यय अथवा पर्ययज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमसमुत्थं पर- मनःपर्याय ज्ञान कहते हैं। उसका सम्बन्ध मनुष्यमनोगतार्थविषयं मनःपर्ययज्ञानम् । (न्यायदी. पृ. क्षेत्र से है, अर्थात् वह मनुष्यलोक में अवस्थित ३४-३५)। ४७. परि सर्वतोभावे, अवनं अवः संजी जीवों के मन से चिन्तित अर्थ को ही जानता
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मनःपर्ययज्ञानावरण] ८८५, जैन-लक्षणावली
[मनःपर्याप्ति है, मनुष्यलोक के बाहिर स्थित जीवों के चिन्तित चू. पृ. १५)। ३. मनस्त्वयोग्यद्रव्यग्रहण-निसर्गअर्थ को नहीं जानता। वह चारित्रयुक्त संयत के शक्ति निवर्तनक्रियापरिसमाप्तिर्मन:पर्याप्तिरित्येके । क्षान्ति प्रादि गुणों के निमित्त से उत्पन्न होता है। नन्दी. हरि. वृ. पृ. ४४)। ४. मनोवर्गणास्कन्ध४ जिस ज्ञान के द्वारा जीव संज्ञी जीवों के मन्यमान निष्पन्नपुद्गलप्रचयः अनुभूतार्थस्मरणशक्तिनिमित्तः -मन के द्वारा व्यापार्यमाण-मन द्रव्यों को देख- मनःपर्याप्तिः । द्रव्यमनोऽवष्टम्भेनानुभूतार्थस्मरणकर उनके मनोगत भाव को जानता है उसे मनः- शक्तेरुत्पत्तिर्मनःपर्याप्तिर्वा । (धव. पु. १, पृ. पर्ययज्ञान कहा जाता है। इसके लिए यह उदा. २५५)। ५. मनस्त्वयोग्यानि मनोवर्गणायोग्यानि हरण दिया जाता है कि जिस प्रकार व्यवहारी मनःपरिणामप्रत्ययानि यानि द्रव्याणि, तेषां ग्रहणजन प्राकार के द्वारा शरीर की चेष्टा को देख- निसर्गसामर्थ्यस्य निर्वर्तनक्रियापरिसमाप्तिर्मनःपकर-स्पष्टतया लोगों के मनोगत भाव को जान र्याप्तिरिति । (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-१२) । लिया करते हैं उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान भी मन ६. मनःपर्याप्तिर्मनोयोग्यान् पुदगलान गहीत्वा द्रव्य से प्रकाशित अर्थ को जानता है। ५ मन में मनस्तया परिणमय्य मनोयोग्यतया निसर्जनशक्तिअथवा मन सम्बन्धी पर्यव, पर्यय अथवा पर्यायरूप रिति । (स्थाना. अभय. बृ. २. १, ७३) । ७. यया ज्ञान को मनःपर्यव मनःपर्यय, अथवा मनःपर्याय तु मनःप्रायोग्यवर्गणाद्रव्यमादाय मनस्त्बेन परिणमय्य ज्ञान कहते हैं।
मुञ्चति सा शक्तिर्मनःपर्याप्तिः । यदुक्तम्-पाहारमनःपर्ययज्ञानावरण-देखो मनःपर्यवज्ञानावरणीय। सरीरिदिय-ऊसास-बोमणोभिनिव्वत्ति। होइ जो मनःपर्ययज्ञानावरणीय-१. मणपज्जवणाणस्स दलियाउ करण पई सा उ पज्जत्ती ।। (शतक. मल. प्रावरणं मणपज्जवणाणावरणीयम् । (धव. पु. ६, हेम. वृ. ३८)। ८. मनोवर्गणाभिनिष्पन्नद्रव्यमनोपृ. २६); तस्स (मणपज्जवणाणस्स) प्रावरणीय ऽवष्टम्भभेदानुभूतार्थस्मरणशक्तेरुत्पत्तिर्मन:पर्याप्तिः । मणपज्जवणाणावरणीयम् । (धव. पु. १३, पृ. (मला. द. १२-१९६) । ६. यया पुनर्मनःप्रायोग्य३२८) । २. तस्या-(मनःपर्यायज्ञानस्या-)वरण वर्गणादिदलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य देशघाति-मनःपर्यायज्ञानावरणम् । (त. भा. सिद्ध. च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः । (जीवाजी. मलय. व.८-७)। ३. रिउमइ-विउलमईहिं, मणपज्ज- व. १२; नन्दी. सू. मलय. वृ. १३; सप्तति. मलय. वनाणवण्णणं समए । तं प्रावरियं जेणं, तंपि व.६, पंचसं. मलय. व. १-५ षडशी. मलय. ह मणपज्जवावरणं ।। (कर्मवि. ग. १६)। ४. तदे. वृ. ३; कर्मस्त. गो. व. १०, प्रव. सारो.व. वमेतयोर्द्वयोरपि मनःपर्यायज्ञानभेदयोर्यदावरणस्व- १२५१, कर्म वि. दे. स्वो. वृ. ४८; षडशी. दे. भावं कर्म तन्मन:पर्यायज्ञानावरणम् । (शतक. स्वो. वृ. २)। १०. यया पुनर्मनःप्रायोग्यान पुदमल. हेम. वृ. ३८)। ५. तद् (मन:पर्यवज्ञानम्) गलानादाय मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मञ्चप्रावतं येन कर्मणा तज्जानीहि मनःपर्यवज्ञाना- ति सा मनःपर्याप्तिः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-१२)। वरणम् । (कर्मवि. परमा. व्या. १६, पृ. ११)। ११. यया पुनर्मनःप्रायोग्याणि दलिकान्यादाय मन१ मनःपर्ययज्ञान के प्रावारक कर्म को मनःपर्यय- स्त्वेन वा परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा मन:ज्ञानावरण कहते हैं। ४ जो कर्म मनःपर्यायज्ञान के पर्याप्तिः । (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. १११२)। १२. भेदभूत ऋजुमतिमनःपर्याय और विपुलमतिमनः- मनोवर्गणायातपुद्गलस्कन्धान् द्रव्यमनोरूपेण परिपर्याय इन ज्ञानों का स्वभावतः प्रावरण करता है णमयितुं गुण-दोषविचार-दृष्टाद्यर्थस्मरणादिविशिउसका नाम मनःपर्यायज्ञानावरण है।
ष्टस्य पात्मनः पर्याप्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मद्वयोदयमनःपर्यव-देखो मनःपर्ययज्ञान ।
जनिता शक्तिनिष्पत्तिर्मनःपर्याप्तिः । (गो. जी. मं. मनःपर्याप्ति-१. मनस्त्वयोग्यद्रव्यग्रहण-निसर्ग: प्र. ११६)। १३. मनोवर्गणायातपुद्गलस्कन्धान शक्तिनिवर्तनकियासमाप्तिर्मनःपर्याप्तिरित्येके । (त. अङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयबलाधानेन द्रव्यमनोरूपेण पभा. ८-१२) । २. मणजोग्गे पोग्गले घेत्तूण मण= रिणमयितुं तव्यमनोबलाधानेन नोइन्द्रियावरणताए परिणामण-णिसिरणसत्ती मणपज्जत्ति। (नन्दी. वीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषेण गुण-दोषविचारा
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मनःपर्याप्ति] ८८६, जैन-लक्षणावली
[मनुष्यगतिनाम नुस्मरणप्रणिधानलक्षणभावमन:परिणमनशक्तिनिष्प- शिष्यस्य सम्बन्धिनः सुहृदादेः सम्मुखं सूरिणा किमत्तिर्मन:पर्याप्तिः । (गो. जी. जी. प्र. ११६; प्यप्रियमुक्तं भवतीत्येवंप्रकारैरन्यैरपि स्व-परप्रत्ययः कातिके. टी. १३४)। १४. येन कारणेन चतुर्विध- कारणान्तरैर्मनसः प्रद्वेषो भवति यत्र तन्मनसा मनोयोग्य द्रव्याणि गृहीत्वा मनसः मननसमर्थः स्या- प्रदुष्टमुच्यते । (प्राव. हरि. व. मल. हेम. टि, पृ. त्तस्य करणस्य निष्पत्तिर्मन:पर्याप्तिः । (भगवती. ८८; प्रव. सारो. वृ. १६०)। २. मनसा प्रदुष्टम् दा. वृ. ६, ४, ६२) । १५. यया मनोवर्गणादलिक- -शिष्यस्तत्सम्बन्धी वा गुरुणा किञ्चित् परुषमादाय मनस्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मनःसमर्थो मभिहितो यदा भवति तदा मनसो दूषितत्वाद् भवति सा मनःपर्याप्तिः । (विचारस. ४३)। १६. मनसा प्रदुष्टम्, यद्वा वन्द्यो हीनः केनचिद् गुणेन दलं लात्वा मनोयोग्यं तत्तां नीत्वाऽवलम्ब्य च। ततोऽहमेवंविधेनापि वन्दनं दापयितुमारब्ध इति यया मननशक्तः स्यान्मनःपर्याप्तिरत्र सा। (लोकप्र. चिन्तयतो वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३,. ३-३०)।
१३०) । १ मनरूप होने के योग्य द्रव्य के ग्रहण और त्याग १ मनःप्रद्वष अनेक निमित्तों से उत्पन्न होता है। की शक्ति जिस क्रिया से निर्मित होती है उसकी वह सब ही प्रात्मप्रत्यय से व परप्रत्यय से होता समाप्ति का नाम मनःपर्याप्ति है, ऐसा किन्हीं का है। प्रात्मप्रत्यय से जैसे-जब गुरु ने केवल शिष्य मत है। ४ अनुभूत पदार्थों के स्मरण की शक्ति से कुछ कठोर वचन कहे, परप्रत्यय जैसे—उसी का निमित्तभूत जो मनोवर्गणा के स्कन्धों से पुत्- शिष्य के सम्बन्धी मित्र आदि के समक्ष जब गुरु ने गलसमूह उत्पन्न होता है उसे मनःपर्याप्ति कहते कुछ कठोर वचन कहा, इत्यादि प्रकारों से तथा हैं। अथवा द्रव्य मन के पालम्बन से जो मनभत अन्य कारणों से भी जो शिष्य के मन में द्वेष होता पदार्थों के स्मरण की शक्ति उत्पन्न होती है उसे है उसे मनःप्रदुष्ट कहते हैं। मनःपर्याप्ति जानना चाहिए।
मनु-देखो कुलकर । १. जादिभरणेण केई भोगमनःपर्यायज्ञान-देखो मनःपर्ययज्ञान ।
मणुस्साण जीवणोवायं । भासंति जेण तेणं मणुणो मनःपर्यायज्ञानलब्धि-मनःपर्यायज्ञानलब्धिर्मनो- भणिदा मुणिदेहिं ॥ (ति. प. ४-५०८)। २. आद्यद्रव्यप्रत्यक्षीकरणशक्तिः । (योगशा. स्वो. विव. संस्थान-संघात-गम्भीरोदारमूर्तयः । स्वपूर्वभववि१-६)।
ज्ञाना मनवस्ते चतुर्दश । (ह. पु. ७-१७३) । मन द्रव्य के साक्षात्कार करने की जो शक्ति है उसे कोई जातिस्मरण के द्वारा भोगभूमि के मनुष्यों मनःपर्यायज्ञानलब्धि कहा जाता है।
को प्राजीविका का उपाय बतलाते हैं, इससे उन्हें मनःपर्यायज्ञानावरण - देखो मन:पर्ययज्ञाना- मनु कहा गया है । वरण।
मनुज-मानुषीसु मैथुनसेवकाः मनुजा नाम । मनःप्रणिधान-देखो नोइन्द्रियप्रणिधि । णो- (धव. पु. १३, पृ. ३६१)। इंदियपणिधाणं कोहे माणे तदेव मायाए। लोहे य जो मनुष्यनियों में मैथुन सेवन किया करते हैं णोकसाए मणपणिधाणं तु तं वज्जे। (मूला. ५, उनका नाम मनुज है । १०३)।
मनुष्यगतिनाम-१. अशेषमनुष्यपर्याय निष्पादिक्रोध, मान, माया और लोभ तथा नोकषाय के का मनुष्यगतिः । अथवा मनुष्यगतिकर्मोदयापादितविषय में जो मन की प्रवृत्ति होती है उसे नोइन्द्रियः मनुष्यपर्यायकलापः कार्य कारणोपचारान्मनूष्य. प्रणिधान या मनःप्रणिधान कहते हैं।
गतिः। अथवा मनसा निपुणाः मनसा उत्कटा इति मनःप्रदुष्टवन्दन-देखो मनोदुष्टदोष । १. मन:- वा मनुष्याः, तेषां गतिः मनुष्य गतिः । (धव. पु. १, प्रद्वेषोऽनेकोत्थान:-अनेकनिमित्तो भवति, स च पृ. २०२-३); जस्स कमस्स उदएण मणुयसर्वोऽपि प्रात्मप्रत्ययेन परप्रत्ययेन वा स्यात्, तत्रा- भावो जीवाणं होदि, तं कम्मं मणुसगदि त्ति उच्चदि त्मप्रत्ययेन यदा शिष्य एव गुरुणा किञ्चित् परुष- कारणे कज्जुवयारादो। (धव. पु. ६, पृ. ६७); मभिहितो भवतीति, परप्रत्ययेन तु यदा तस्यैव .जं णिरय-तिरिक्ख-मणुस्स-देवाणं णिबत्तयं तं
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मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम] ८८७, जैन-लक्षणावली
[मनोगुप्ति गदिणामं (जं मणुस्सणिव्वत्तयं कम्मं तं मणुस्स- कम्मं मणस भवं धारेदि तं मणुसाउअं णाम । (धव. गदिणामं । (धव. पु. १३, पृ. ३६३)। २. यदु- पु. १३, पृ. ३६२)। ३. शारीर-मानस-सुख-दुःखदयाज्जीवो मनुष्य भावस्तन्मनुष्यगतिनाम । (त. भूयिष्ठेषु मनुष्येषु जन्मोदयान्मानुष्यायुषः। (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)।
श्लो. ८-१०)। ४. यत्प्रत्ययान्मनुष्येषु जीवति १ जो कर्म मनुष्य की सब अवस्थानों की उत्पत्ति जीवः तत् मानुषमायुः। (त. वृत्ति श्रुत. ८-१०)। का कारण है वह ममुष्यगतिनामकर्म कहलाता है। १ जिस कर्म के उदय से प्रचुर शारीरिक एवं मान. मनुष्यगतिप्रायोग्यानपूर्वोनाम-एवं सेसप्राण- सिक दुःखों से युक्त मनुष्यों में जन्म होता है उसे पुवोणं पि अत्थो वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण मनुष्यायु कर्म कहते हैं । मणुसगइं गयस्स जीवस्स विग्गहगईए वद्रमाणयस्स मनोगुप्ति-१. जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीमणुसगइपापोग्गसंठाणं होदि तं मणसगदिपायोग्गा- हि तम्मणोगुत्ती। (नि. सा. ६६; मला. ५-१३५: णुपुव्वीणाम)। (धव. पु. ६, पृ. ७६)।
भ. पा. ११८७) । २. सावद्यसंकल्पनिरोधः कुशलजिस कर्म के उदय से मनुष्यगति को प्राप्त जीव
संकल्पः कुशलाकुशलसंकल्पनिरोध एव वा मनोके विग्रहगति में वर्तमान होने पर मनुष्यगति के
गुप्तिः । (त. भा ६-४) । ३. मनसो गुप्तिः मनो
गुप्तिः मनसो रक्षणमार्तरौद्र ध्यानाप्रचारः धर्मध्याने योग्य प्राकार रहता है उसे मनुष्यगतिप्रायोग्यानु
चोपयोगो मनोगुप्तिः। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. पू:नामकर्म कहते हैं।
७-३); तत्र राग-द्वेषपरिणतेरात-रौद्राध्यवसायात् मनुष्यभाविजीव-गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो
मनो निर्वयं निराकृतहिकामुष्मिकविषयाभिलाषस्य मनुष्य भवप्राप्ति प्रत्यभिमुखो मनुष्य भाविजीवः ।
मनोगुप्तत्वादेव न रागादिप्रत्ययं कर्मास्रोष्यति । (स. सि. १-५)।
(त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-२); अवयं गर्हितं जो जीव गत्यन्तर में स्थित रहकर मनुष्यभव की
पापम्, सहावद्येन सावद्यः, सकल्पः चिन्तनमालोचनप्राप्ति के उन्मुख होता है उसे मनुष्यभावी जीव
मात्त-रौद्रध्यायित्वं चलचित्ततया वा यदवद्यच्चिकहा जाता है।
न्सयति तस्य निरोध: प्रकरणमप्रवृत्तिर्मनोगुप्तिः । मनुष्यलोक-१. तसणालीबहमज्झे चित्ताय
तथा च कुशलसंकल्पानुष्ठानं सरागसंयमादिलक्षणम् खिदीय उवरिमे भागे । अइवट्टो मणवजगो जोयण
येन धर्मोऽनुबध्यते, यावान् वा ऽध्यवसायः कर्मोच्छेपणदाललक्ख विक्खंभो ॥ (ति. प. ४-६)। २. दाय यतते सोऽपि सर्वः कुशलसंकल्पो मनोगुप्तिः । मण सलोगपमाणपणदालीसजोयणसदसहस्सविक्खंभ
अथवा न कुशले सरागसंयमादौ प्रवृत्तिः, नाप्यकुशले जोयणसदसहस्सुस्सेधम् । (धव. पु. ४, पृ. ४२); मंसारहेतौ, योगनिरोधावस्थायामभावादेव मनसोपणदालीसजोयणलक्खघणो मणुवलोगो। (धव. पु. गुप्ति: मनोगुप्तिः। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. १३, पृ. ३०७)।
६-४); दोषेभ्यो वा हिंसादिभ्यो विरतिर्मनोगु१ त्रसनाली के ठीक बीच में चित्रा पृथिवी के प्तिः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ६-४ उद्.) । उपरिम भाग में पैंतालीस लाख योजन विस्तार
४. राग-कोपाभ्याम् अनुपप्लुता नोइन्द्रियमतिः
गकोपाध्याम वाला गोल मनुष्यलोक है।
मनोगुप्तिरिति XXX अथवा राग-द्वेष-मिथ्यामनुष्यायु- १. शारीर-मानससुख-दुःखभूयिष्ठेसु त्वाद्यशुभपरिणामविरहो मनोगुप्तिः सामान्यभूता, मनुष्येसु जन्मोदयात् मनुष्यायुषः। शारीरेण मान- इन्द्रिय-कषायाप्रणिधानं तद्विशेषः । (भ. प्रा. विजसेन च सुख-दुःखेन समाकुलेषु मनुष्येषु यस्योदया- यो. ११५); xxx तेन मनसस्तत्त्वावग्राहिणो ज्जन्म भवति तन्मानुषमायुरवसेयम् । (त. वा. ८, रागादिभिरसहचारिता या सा मनोगुप्तिः । मनो१०, ७) । २. एवं मणुस-देवाउपाणं पि वत्तव्वं ग्रहणं ज्ञानोपलक्षणम्, तेन सर्वो बोधो निरस्तराग(जेसि कम्मक्खंधाणमुदएण जीवस्स उद्धगमण- द्वेषकलंको मनोगुप्तिः। xxx अथवा मनःसहावस्स मणुसभवम्मि अवाणं होदि तेसि मणु- शब्देन मनुते य आत्मा स एव भण्यते, तस्य रागास्साउअमिदि सण्णा) । (धव. पु. ६, पृ. ४६), जं दिभ्यो या निवृत्तिः राग-द्वेषरूपेण या अपरिणतिः
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मनोगुप्ति]. ८८८, जन-लक्षणावली
[मनोज्ञ (आध्यान) सा मनोगुप्तिरित्युच्यते । अथैवं ब्रूषे सम्यग्योगनि- जो वर्ण-गन्धादि अनुकूल होने के कारण अपनी ग्रहो गुप्तिः इष्टफलमनपेक्ष्य योगस्य वीर्यपरिणाम- प्रवृत्ति के विषय किए जाते हैं वे मनोज्ञ कहलाते स्य निग्रहो रागादिकार्यकरणनिरोधो मनोसुप्तिः। हैं। यह प्रसंगप्राप्त मणियों के वर्णादि का विशेषण (भ. प्रा. विजयो. ११८७) । ५. सम्यग्दण्डो वपुषः मात्र है। सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य। मनसः सम्यग्दण्डो मनोज्ञ (साधुविशेष)-१. मनोज्ञो लोकसम्मतः । गुप्तित्रितयं समनुगम्यम् । (पु. सि. २०२)। ६. (स. सि. ६-२४)। २. मनोज्ञोऽभिरूपः। अभिरूपो विहाय सर्वसंकल्पान् राग-द्वेषावलम्बितान् । स्वा- मनोज्ञ इत्यभिधीयते । (त. वा. ६, २४, १२) । ३. धीनं कुरुते चेतः समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ॥ सिद्धान्त- मनोज्ञोऽभिरूपः, सम्मतो वा लोकस्य विद्वत्त्व-वक्तृत्वसूत्रविन्यासो शश्वत्प्रेरयतोऽथवा । भवत्यविकला महाकुलत्वादिभिः, असंयतसम्यग्दष्टिर्वा। (त. श्लो. नाम मनोगुप्तिर्मनीषिणः ॥ (ज्ञाना. १८, १५-१६, ६-२४)। ४. अभिरूपो मनोज्ञः, प्राचार्याणां सम्मतो पृ. १६०)। ७. मन:पंचेन्द्रियेभेन्द्रस्वैरचारनिवा- वादीक्षाभिमुखो वा मनोज्ञः, अथवा विद्वान् वाग्मी रिणी । स्वगोचरे मनोगुप्तिर्ज्ञान-ध्यानरता मतिः। महाकुलीन इति यो लोकस्य सम्मतः स मनोज्ञस्तस्य (प्राचा. सा. ५-१३८)। ८. विमुक्तकल्पनाजालं ग्रहणं प्रवचनस्य लोके गौरवोत्पादनहेतुत्वादसंयत. समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । प्रात्मारामं मनस्तज्ज्ञर्मनो- सम्यग्दृष्टि संस्कारोपेतरूपत्वान्मनोज्ञः। (चा. सा. गुप्तिरुदाहृता ॥ (योगशा. १-४१) । ६. रागादि- पृ. ६७)। ५. शिष्टसम्मतो विद्वत्त्व-वक्तृत्व-महाकुशत्यागरूपामुत समयसमभ्याससध्यानभूताम्, चेतो- लत्वादिभिर्मनोज्ञः प्रत्येतव्योऽसंयतसम्यग्दृष्टिर्वा । गुप्ति xxx। (अन. प. ४-१५६) । १०. (त. सुखबो. वृ. ६.२४) । ६. वक्तृत्वादिगुणविरामणस्य नोइन्द्रियज्ञानलक्षणस्य मनस्तत्त्वावग्राहिणो जितो लोकाभिसम्मतो विद्वान् मुनिर्मनोज्ञ उच्यते । जा रागादिणियत्ती-राग-द्वेषादिभिरात्मपरिणाम. (त. वृत्ति श्रुत. ६- २४) । रसहचरिता सा मनोगुप्तिः। मनोग्रहणं ज्ञानोपलक्षणम्, तेन सर्वो बोधो निरस्तरागादि-कलङ्को मनो- उसे मनोज्ञ कहा जाता है । २. अभिरूप (मनोहर) गुप्तिः स्यात्, अथवा मनुते विचारयति हेयमुपादेयं को मनोज्ञ कहते हैं । ३, जो विद्वत्ता, वक्तृत्व और च तत्त्वं योऽसावात्मात्र मनःशब्देनोच्यते, तस्य प्रतिष्ठित कुल प्रादि के कारण लोकसम्मत (जनरागादिरूपेणापरिणतिर्मनोगुप्तिरिति ग्राह्यम् । (भ. प्रिय) होता है वह मनोज्ञ कहलाता है । असंयतमा. मूला. ११८७)। ११. कल्पनाजालनिर्मुक्तं सम्यग्दृष्टि को भी मनोज्ञ माना जाता है । समभावेन पावनम् । मुनीनां यन्मनःस्थैर्य मनो- मनोज्ञ (प्रार्तध्यान)- देखो अमनोज्ञ आर्तगुप्तिर्भवत्यसो॥ (लोकप्र. ३०-७४६)। ध्यान व मार्तध्यान । १. विपरीतं मनोज्ञस्य । १ मन से रागादि का हट जाना, इसका नाम मनो- (त. सू. ६-३१)। २. मणुन-संपयोगसंपउत्ते गुप्ति है। २ पापपूर्ण प्रात-रौद्रादि स्वरूप संकल्प तस्स अविप्पमोगसतिसमण्णागते यावि भवति २ । (चिन्तन) को रोकना, सरागसंयमाविरूप कुशल (स्थाना. २४७) । ३. मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपत्रसंकल्प का अनुष्ठान करना, अथवा कुशल व अकु- दार-धनादेविप्रयोगे तत्संप्रयोगाय संकल्पश्चिन्ताशल दोनों ही प्रकार के संकल्प का निरोध करना, प्रबन्धो द्वितीयमार्तम् । (स. सि. ६-३१) । इसे मनोगुप्ति कहते हैं ।
४. मणुण्णसंपयोगसंपउत्तो तस्स अविप्पयोगाभिकंखी मनोगुप्ति-अतिचार-रागादिसहिता स्वाध्याये सइसमन्नागए यावि भवइ, सद्दाइसु विसएसु परमवृत्तिर्मनोगुप्तिरतिचारः । (भ. प्रा. विजयो. १६)। पमोदमावन्नो प्रणिट्ठसु पदोसमावण्णो तप्पच्च इयरागादि के साथ जो स्वाध्याय में प्रवृत्ति होती है, स्स राग-दोसं अजाणमाणो गमो इव सलिल उल्लियह मनोगुप्ति का अतिचार है।
यंगो पावकम्मरयमलं उवचिणोतित्ति अट्टस्स वितिप्रो मनोज्ञ (वर्णादि)-मनसा ज्ञायन्ते अनुकूलतया भेदो गयो । (दशवं. चू. पृ. ३०)। ५ इट्ठाणं विसस्वप्रवृत्तिविषयीक्रियन्त इति मनोज्ञा: मनोऽनुकलाः। याईण वेप्रणाए म रागरत्तस्स । मवियोगज्झवसाणं (जीवाजी. मलय. वृ. १२६, पृ. १९०)। तह संजोगाभिलासो म। (ध्यानश. ८)। ६. मनो
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मनोश (आर्तध्यान )
ज्ञस्य विषयस्य विप्रयोगे संप्रयुयुक्षां प्रति या परिध्यातिः स्मृतिसमन्वाहार - शब्दचोदिता श्रसावप्यात ध्यानमिति निश्चीयते । (त. वा. ६, ३१, १) । ७. मनोज्ञविप्रयोगस्य यच्चानुत्पत्तिचिन्तनम् । ( ह. पु. ५६ - ८ ) ; पशु-पुत्र - कलत्रादि मनोज्ञं सुखसाधनम् । बाह्यं स्याद्धन-धान्यादि सचेतनमचेतनम् ॥ आध्यात्मिकं च पित्तादिसाम्यादारोग्यमांगिकम् । मानसं सौमनस्यादि रत्यशोकाभयादिकम् । विप्रयोगश्च मे मा भूदैहिकामुत्रकस्य तु । मनोज्ञस्येति संकल्पस्तृतीयं चार्तमुच्यते ॥ ( ह. पु. ५६, १४-१६) । ८. प्रियस्य मनोज्ञस्य विप्रयोगो विश्लेषस्तस्मिन् सति तत्संप्रयोगाय पुनः पुनचिन्ताप्रबन्धः, सा मे प्रिया कथं प्रयोगिनी स्यादिति प्रबन्धेन चिन्तनमार्तध्यानमप्रशस्तम् । ( त. श्लो. ६-३१) ।
१ श्रमनोज्ञ से विपरीत मनोज्ञ पदार्थ का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए जो अतिशय चिन्ता होती है उसे मनोज्ञविषयक प्रार्तध्यान कहते हैं । २ मनोज्ञ इन्द्रियविषयों का संयोग होने पर उनसे सम्बद्ध हुआ प्राणी जो उनके श्रवियोग का - सदा उनके संयोग के बने रहने का — निरन्तर चिन्तन करता है, यह मनोज्ञविषयक श्रार्तध्यान का लक्षण है । मनोज्ञवैयावृत्त्य - प्रायरिएहि सम्मदाणं गिहत्या दिवखाभिहाणं वा जं कीरदे तं मणुष्णवेज्जावच्चं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ६३ ) । जो प्राचार्यों को सम्मत हैं अथवा जो दीक्षा के श्रभिमुख हुए गृहस्थ हैं उनकी जो सेवा-शुश्रूषा की जाती है उसे मनोज्ञवैयावृत्य कहते हैं । मनोदुष्टदोष -- देखो मनः प्रदुष्टवन्दन । १. मनसाचार्यादीनां दुष्टो भूत्वा यो वन्दनां करोति तस्य मनोदुष्टदोषः संक्लेशयुक्तेन मनसा यद्वा वन्दनाकरणम् । (मूला. वृ. ७-१०७) । २. मनोदुष्टं
८८६, जैन - लक्षणावली
कृतिर्गुर्वाद्युपरि चेतसि ।। (अन. घ. ८-१०१ ) । १ जो श्राचार्यादिकों के प्रति मन से द्वेष युक्त होकर अथवा संक्लेश युक्त मन से वन्दना करता है वह वन्दनाविषयक मनोदुष्ट नामक दोष का भागी होता है । मनोदुष्प्रणिधान - १. प्रणिधानं प्रयोगः परिणाम
ल. १२२
[ मनोबल ऋद्धि
इत्यनर्थान्तरम् । दुष्टु पापं प्रणिधानं दुष्प्रणिधानम्, अन्यथा वा प्रणिधानं दुष्प्रणिधानम् । तत्र X X × मनसोऽनपितत्वं चेत्यन्यथाप्रणिधानम् । (त. वा. ७, ३३, २) । २. क्रोध लोभाभिद्रोहाभिमानेर्ष्यादिकार्यव्यासङ्गजातसम्भ्रमो दुष्प्रणिधत्ते मन इति मनोदुष्प्रणिधानम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-२८ ) । ३. मनसोऽनपितत्वं मनोदुः प्रणिधानम् । (चा. सा. पृ. ११) । ४. क्रोध लोभ-द्रोहाऽभिमानेर्ष्यादयः कार्यव्यासङ्गसम्भ्रमश्च मनोदुष्प्रणिधानम् । (योगशा. स्वो विष. ३-११६; सा. घ. स्वो. टी. ५-३३; धर्मसं. मान. स्वो वृ. ५५, पृ. ११४) । ५. सामायिकादितोऽन्यत्र मनोवृत्तिर्यदा भवेत् । मनोदुष्प्रणिधानाख्यो दोषोऽतीचारसंज्ञकः । (लाटीसं. ६-११०) ।
१ पापपरिपूर्ण प्रवृत्ति प्रथवा श्रन्यथा प्रवर्तन का नाम दुष्प्रणिधान है । मन को सामायिक में संलग्न न करना अथवा अन्य विषयों में लगाना, यह सामायिक को दूषित करने वाला उसका एक मनोदुष्प्रणिधान नाम का प्रतिचार है । २ क्रोध, लोभ, द्रोह, अभिमान, ईर्ष्या और कार्य की व्यस्तता से उत्पन्न हुआ क्षोभ मन को जो दुष्प्रवृत्त करता है, इसका नाम मनोदुष्प्रणिधान है । मनोद्रव्यवर्गणा - १. मणदव्ववग्गणा णाम का ? मणदव्ववग्गणा चउव्विहस्स मणस्स गणं पवतदि । सच्चमणस्स मोसमणस्स सच्च- मोसमणस्स
सच्च मोसमणस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्ताए मोसमणत्ताए सच्च- मोसमणत्ताए प्रसच्चमोसमणत्ताए परिणामेण परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि मणदव्ववग्गणा णाम । ( षट्ख. ५, ६, ७४-७५१ - पु. १४, पृ. ५५१ - ५५२ ) । २. एदीए वग्गणाए दव्वमणणिव्वत्तणं कीरदे । (जीए दव्वमणणिव्वत्तणं कीरदे सा मणदव्ववग्गणा णाम ) | ( धव. पु. १४, पु. ६२ ) । १ जिस वर्गणा के द्वारा सत्य, असत्य, सत्य-असत्य और असत्यमृषा इस चार प्रकार के मन की रचना की जाती है उसे मनोद्रव्यवगंणा कहते हैं । मनोबल ऋद्धि - १. सुदणाणावरणाए पगडीए वीरियंतरायाए । उक्कत्सक्ख उवसमे मुहुत्तमेत्तं - तरम्मि सयलसुदं । चितइ जाणइ जीए सा रिद्धी
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मनोयोग] ८६०, जैन-लक्षणवली
[मनोयोग मणबलाणामा। (ति. प. ४, १०६१-६२)। २. जो जीवस्स संकोच-विकोचो सो मणजोगो । मनःश्रुतावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षे सत्यन्त- (धव. पु. ७, पृ. ७६); वीरियंतराइयस्स सव्व
__ श्रुतार्थचिन्तनेऽवदाता मनोबलिनः । घादिफद्दयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण (त. वा. ३, ३६, ३)। ३. बारहंगुद्दिट्ठतिकाल- णोइंदियावरणस्स सव्वघादिफयाणमुदयक्खएण
तटू-वंजणपज्जायाइण्णछदव्वाणि णिरन्तरं तेसिं चेव सन्तोवसमेण देसधादिफयाणमुदएण मणचितिदे वि खेयाभावो मणबलो, एसो मणबलो पज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स जेण मणजोगो समुप्पज्जजेसिमत्थि ते मणबलिणो। (धव. पु. ६, प. ६२)। दि xxx। (धव. पु. ७, प.७७): बज्झ४. श्रुतावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षे सति चिंतावावदमणादो समुप्पण्णजीवपदेसपरिप्फंदो खेदमन्तरेणान्तर्मुहूर्ते सकलश्रुतार्थचिन्तनेऽवदाता मनो- मणजोगो णाम । (धव. पु. १०, पृ. ४३७) । ५. बलिनः । (चा. सा. पृ. १०१) । ५. तत्र प्रकृष्ट- मनोवर्गणालम्बनो (ह्यात्मप्रदेशपरिष्पन्दो) मनोज्ञानावरण-बीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषेण वस्तूद्- योगः। (प्राप्तप. १११, पृ. २४२)। ६. तेन धृत्यान्तर्मुहूर्तेन सकलश्रुतोदध्यवगाहनावदातमनसो मनसा सहकारिकारणभूतेन योगो मनोयोगो मनोमनोबलिनः । (योगशा. स्वो. विव. १-८, पृ. ३८, विषयो योगो वा मनोयोगः। (शतक. मल. हेम. ३६)। ६. अन्तर्मुहुर्तेन निखिलश्रुतचिन्तनसमर्था ये वृ. २)। ७. मननं मनः-प्रौदारिकादिशरीरव्याते मनोबलिनः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। पाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनो१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से जीव श्रुतज्ञानावरण योग इति भावः, मन्यते वा ऽनेनेति मनोद्रव्यमात्रऔर वीर्यान्तराय के उत्कृष्ट क्षयोपशम के होने मेवेति । (स्थानां. अभय. वृ. १६, पृ. २०); पर एक अन्तर्मुहूर्त मात्र में समस्त श्रुत का चिन्तन मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य योगो वीर्यपर्यायो करता है व उसे जानता है उसका नाम मनोबल दुर्बलस्य यष्टिकाद्रव्यवदुपष्टम्भकरो मनोयोग इति । ऋद्धि है। ३ बारह अंगों में उद्दिष्ट तीनों कालों xxx मनसो वा योगः करण-कारणानुमतिसम्बन्धी अनन्त अर्थपर्यायों एवं व्यञ्जनपर्यायों ___ रूपो व्यापारो मनोयोगः। (स्थानां अभय. व. से व्याप्त छह द्रव्यों का निरन्तर चिन्तन करने पर १२४, पृ. १०७)। ८. तत्रात्मना शरीरवता सर्वभी खेद को प्राप्त न होना, इसे मनोबल कहते हैं, प्रदेशर्गहीता मनोयोग्याः दगलाः शुभादिमननाथ यह मनोबल ऋद्धि जिनके होती है वे मनोबली करणभावमालम्बन्ते, तत्सम्बन्धादात्मनः पराक्रमकहलाते हैं।
विशेषो मनोयोगः। (योगशा. स्वो. विव. ४-७४)। मनोयोग-१. अभ्यन्तरवीर्यान्तराय-नोइन्द्रिया- ६. तनुयोगेन मनःप्रायोग्यवर्गणाभ्यो गृहीत्वा मनोवरणक्षयोपशमात्मकमनोलब्धिसन्निधाने बाह्यनि- योगेन मनस्त्वेन परिणमितानि वस्तचिन्ताप्रबर्तमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मनःपरिणामाभि- कानि द्रव्याणि मनः इत्युच्यन्ते, तेन मनसा सहकामुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोगः। (स. सि. रिकारणभूतेन योगो मनोयोगः, मनोविषयो वा ६-१; त. वा. ६, १, १०)। २. मनोयोग्यपुद्ग- योगो मनोयोगः । (षडशी. दे. स्वो. पृ. १०)। लात्मप्रदेशपरिणामो मनोयोगः । (त. भा. ६-१)। १०. नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमयुक्तजीवप्रदेशप्रचये ३. औदारिक-वक्रियिकाहारकशरीरव्यापाराहृत- लब्ध्युपयोगलक्षणं भाव मनः, तद्व्यापारो मनोयोगः। मनोद्रव्यसमूहसाचिघ्याज्जीवव्यापारो मनोयोगः । (गो. जी. जी. प्र. ७०३) । ११. अभ्यन्तरवीर्यान्त(नन्दी. हरि. वृ. पृ. ४६; ध्यानश. हरि. वृ. ३; राय - मानसावरणक्षयोपशमस्वरूपमनोलव्धिनकट्य स्थानां. अभय. वृ. ५१, पृ. २८; योगशा. स्वो. सति बाह्यकारणमनोवर्गणालम्बने च सति चित्त
व. ११-१०)। ४. भावमनसः समुत्पत्त्यर्थः परिणामसन्मुखस्य जीवस्य प्रदेशानां परिस्पन्दनं प्रयत्नो मनोयोगः । (घव. पु. १, पृ. २७६); परिचलनं परिस्फुरणं मनोयोग इति मन्यते । (त. चतां मनसां सामान्यं मनः, तज्जनितवीर्येण परि- वत्ति बत. ६-१)। पादलक्षणेन योगो मनोयोगः। (घव. पु. १, पृ. १ अभ्यन्तर वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण के ३०): मणवग्गुणादो णिप्फण्णदव्वमणमवलंबिय क्षयोपशम रूप मनोलब्धि की समीपता के होने पर
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मंत्र ]
तथा बाह्य निमित्तभूत मनोवर्गणा का प्रालम्बन होने पर मनपरिणाम के श्रभिमुख हुए जीव के श्रात्मप्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है उसे मनोयोग कहते हैं । २ मन के योग्य पुद्गलों के ( मनोवर्गणा के ) श्राश्रय से जो श्रात्मप्रदेशों में परिणमन होता है उसका नाम मनोयोग है । मनोविनय - देखो मनविनय ।
`मन्त्र – १. × × × साहणरहियो अ मंतुति । ( प्राव. नि. ९३१) । २. कर्मणामारम्भोपायः पुरुषद्रव्यसम्पद्देश-कालविभागो विनिपातप्रतीकारः कार्यसिद्धिश्चेति पञ्चाङ्गो मन्त्रः । ( नीतिवा. १०–२५, पू. ११५) । ३ पाठमात्र प्रसिद्धः पुरुषाधिष्ठानो वा मन्त्रः । (योगशा. स्वो विब. १-३८, पृ. १३६ ) । ४. प्रसाधनो मन्त्रः, यस्याधिष्ठाता पुरुषः स मन्त्रः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. तृ. वि. पू. ११७ ) । ५. पाठमात्र सिद्धः पुरुषाधिष्ठानो वा मन्त्रः । ( धर्मसं. मान. ३ - २२, पृ. ४१ ) ।
१ जिस मंत्र में देवता पुरुष होता है तथा जो मंत्र जप व हवन श्रादि रूप साधना से रहित होता है उसे मंत्र कहते हैं । २ जो सभी कार्यों के प्रारम्भ करने का उपायभूत होता है ( १ ); जिसमें पुरुष, द्रव्य व सम्पत्ति - सामर्थ्य – (२) एवं देश - काल के विभाग ( ३ ) का भी विचार किया जाता है, जो श्रापत्ति का प्रतीकार करने वाला हो ( ४ ) तथा कार्यसिद्धि का भी जिसमें विचार (५) ; इन पांच अंगों से जो सम्पन्न हो उसे मंत्र कहा जाता है। इस प्रकार का मंत्र मन्त्रियों द्वारा राजा को दिया जाता है । मन्त्रपिण्ड - देखो मन्त्रोत्पादनदोष | १. तथैव मन्त्र जापावाप्तो मन्त्रपिण्ड: । ( प्रचारा. शी. वृ. २; १, २७३, पृ. ३२० ) । २. पुरुषदेवाधिष्ठितं पठितमिद्धं च प्रभाववर्णाम्नायं प्रयुञ्जानस्य पुरर्मन्त्रपिण्ड: । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. २०, पू. ४६)।
१ मंत्र जाप का उपयोग करके जो भोजन प्राप्त किया जाता है वह मन्त्रपिण्ड नामक उत्पादनदोष से दूषित होता है ।
मन्त्रभेद - देखो विश्वस्तमन्त्रभेद व साकारमस्त्रभेद । मन्त्रभेदोऽङ्गविकार-भ्रूक्षेपादिभिः पराभिप्रायं ज्ञात्वाsसूयादिना तत्प्रकटनम् विश्वसितमित्रादिभिव
८१, जंन लक्षमावली
[मन्त्रोपजोवन
आत्मना सह मंत्रितस्य लज्जादिकरस्यार्थस्य प्रकाशनम् । ( सा. घ. स्व. टी. ४-४५ ) शरीर के विकार व भ्रुकुटियों के निक्षेप प्रादि से दूसरे के अभिप्राय को जानकर उसे प्रगट कर देना अथवा विश्वासपात्र मित्र आदि के द्वारा जो अपने साथ लज्जाजनक कार्य का विचार किया गया है उसे प्रगट कर देना, यह मन्त्रभेद नामक सत्याणुव्रत का एक प्रतिचार है ।
मन्त्रानुयोग - मन्त्रानुयोगश्चेटका हिमन्त्रसाधनोपायशास्त्राणि । (समवा. अभय वृ. २६, पृ. ४७)। चेटक और अहि (सर्प) मंत्र की सिद्धि के उपायभूत शास्त्रों को मंत्रानुयोग कहा जाता है । मन्त्री- देखो मन्त्र । १. श्रकृतारम्भमारब्धस्याप्यनुष्ठानमनुष्ठित विशेषं विनियोगसम्पदं च ये कुर्युस्ते मन्त्रिणः । ( नीतिवा. १०- २४, पृ. ११५ ) । २. मंत्री पञ्चाङ्गमन्त्रकुशलः । ( त्रि. सा. टी. ६८३) । ३. तथा च शुक्रः - दर्शयन्ति विशेषं ये सर्वकर्मसु भूपतेः । स्वाविकारप्रभावं च मंत्रिणस्तेऽन्यथा परे । ( नीतिवा. टी. १०-२४) । ४. मन्त्रिणो राज्याधिष्ठायकाः सचिवाः । ( कल्पसू. विनय. वृ. ६२, पृ. ε६) ।
१ जो नहीं किये गये कार्य को प्रारम्भ करते हैं, प्रारब्ध कार्य का विधिवत् निर्वाह करते हैं, धनुठित कार्य को प्रतिशयित करते हैं, तथा सम्पत्ति का यथोचित विनियोग करते हैं, वे मंत्री कहलाते हैं । २ जो पांच अंगयुक्त मंत्र में कुशल होते हैं उन्हें मंत्री कहते हैं ।
मन्त्रोत्पादनदोष - देखो मन्त्रपिण्ड | १. सिद्धे पढिदे मंते तस्स य श्रासापदाणकरणेण । तस्स य माहप्पेण य उप्पादो मंतदोसो दु । ( मूला. ६-३६) XXX मन्त्रश्च तद्दान-माहात्म्याभ्यां मलोऽश्नतः ॥ ( प्रन. ध. ५-२५) ।
२.
१ जो मंत्र पढ़ने पर ही सिद्ध होने वाला है उसके देने की प्राशा दिलाकर प्रौर उसकी महिमा को दिखला कर यदि ग्राहार प्राप्त किया जाता है तो वह मंत्रोत्पादनदोष से दूषित होता है । मन्त्रोपजीवन- देखो मंत्रोत्पादन दोष । प्रङ्गशृङ्गारकारिणः पुरुषस्य पाठसिद्धादिमन्त्राणामुपदेशनं मंत्रोपजीवनम् । ( भावप्रा. टी. EE ) । शरीरशृङ्गार करने वाले पुरुष के लिए पढ़ने मात्र
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मन्मनत्व ]
८६२, जैन - लक्षणावली
[मरणभय
से सिद्ध आदि होने वाले मंत्रों का उपदेश देना, तदुच्छेदो मरणम् । तस्य जीवितस्योच्छेदों जीवस्य यह मंत्रोपजीवन नामक एक श्राहारविषयक उत्पादनदोष है ।
मन्मनत्व - देखो मन्मनमूक । मन एव मन्तृ यत्र तन्मन्मनं परस्याप्रतिपादकं वचनम्, तद्योगात् पुरुषोSपि मन्मनस्तस्य भावो मन्मनत्वम् । (योगशा. स्वो. विव. २ - ५३ ) ।
जिस वचन में मन ही मन्ता होता है ऐसे पर के अप्रतिपादक वचन का नाम मन्मन है । इस वचन के योग से पुरुष को भी मन्मन कहा जाता है । इस प्रकार के पुरुष के स्वरूप को मन्मनत्व कहते हैं । यह प्रसत्यभाषण के फलरूप है । मन्मनमूक - यस्य तु ब्रुवतः खञ्च्यमानमिव वचनं स्खलति स मन्मनमूकः । (गु. गु. षट् स्वो वृ. २२) ।
मरणमित्यवसेयम् । (त. वा. ५, २०, ४); स्वायुरिन्द्रिय-वलसंक्षयो मरणम् । स्वपरिणामोपात्तस्यायुषः इन्द्रियाणां बलानां च कारणवशात् संक्षयो मरणम् । (त. वा. ७, २२, १) । ४. मरणं प्राणपरित्यागलक्षणम् । ( श्रा. प्र. टी. ३७८ उपदे. मु. वृ. ३६६ ) ; मरणं प्राणत्यागरूपम् । ( श्रा. प्र. टी. ३६७; प्रज्ञाप. मलय. वृ. १ - १ ) । ५. तस्स ( जीविदस्स) परिसमत्ती मरणं नाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३३३ ) । ६. कि मरणं मूर्खत्वम् X Xx (प्रश्नो र मा. १७) । ७. मरणं नाम इन्द्रियादिप्राणेभ्यो विगम श्रात्मनः । (भ. प्रा. विजयो. २१); मरणं नाम उत्पन्नपयायविनाशः, अथवा प्राणपरित्यागो मरणम्, अथवा अनुभूयमानायुः संज्ञकपुद्गल - गलनं मरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५) । ८. मरणं प्राणत्याग: । ( स्थानां. अभय वृ. २, ३, ८५, पृ. ६७) । ६. मरणं प्राणत्यागरूपम् । ( सूर्यप्र. मलय. वृ. २०-१०८, पृ. २६७ ) । १०. मरण च शरीरादिप्रच्युतिः । ( रत्नक. टी. ५-१० ) । ११. अ।युः संज्ञकपुद्गलगलनं मरणम् । मरणमनुभूयमानायु:पुद्गलगलनम् । (भ. प्रा. मूला. २५) । १२. आयु:पुद्गलानां प्रतिसमयं क्षया मरणम् । ( भगवती. दान. वृ. १-१, पृ. ४) । १३. निजपरिणामेन पूर्वभवादुपार्जितमायुः इन्द्रियाणि च बलानि च तेषां कारणवशेन योऽसौ विनाशः संक्षयः तन्मरणमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२२) ।
बोलते हुए जिस पुरुष का वचन खींचे जाने के समान स्खलित हुआ करता है, उसे मन्मनमूक कहते हैं ।
१ प्रायु के क्षय से जो प्राणों का वियोग होता है, इसका नाम मरण है । २ श्रपने परिणामों के
अनुसार जिस श्रायु को प्राप्त किया है उसके विनाश के साथ इन्द्रियों व बल का भी जो कारणवंश विनाश होता है उसे मरण कहा जाता है । ४ प्राणों के परित्याग को मरण कहते हैं । मरणभय - १. मरणभयं प्रतीतम् । ( ललितवि. मु. वृ. पृ. ३८ ) । २. प्राणपरित्यागभयं मरणभयम् । (श्राव. भा. हरि. व मलय. वृ. १८४ ) । ३. मृत्युः प्राणात्ययः प्राणाः काय वागिन्द्रियं मनः । निःश्वासोच्छ्वासमायुश्च दशैते वाक्यविस्तरात् ॥ तद्भीतिर्जीवितं भूयान्मा भून्मे मरणं क्वचित् । कदा लेभे न वा देवादित्याधिः स्वे तनुव्यये । (पंचाध्या. २, ५३६ -४०; लाटीसं. ४, ६२-६३ )
ममकार - १. सामर्थ्यादिदं मम भोग्यमित्यात्मपरिणामो ममकारः । ( युक्त्यन. टी. ५२ ) । २. शवदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेषु कर्मजनितेषु । श्रात्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देहः ॥ ( तत्वानु १४ ) । ३. कर्मजनितदेह पुत्र कलत्रादौ ममेदमिति ममकारः । (बृ. द्रव्यसंसं. टी. ४१ ) । १ अहंकार परिणाम के सामर्थ्य से 'यह मेरा भोग्य है' इस प्रकार का जो जीव का परिणाम होता है उसे ममकार कहते हैं । २ कर्मोदयजनित अपने शरीर श्रादि श्रात्मभिन्न पदार्थों में जो श्रात्मीयत्व का अभिप्राय रहता है, उसका नाम ममकार है ममत्त्वतः प्रात्तपुद्गल - जे श्रणुराएण पडिग्गहिया ते ममत्ती दो अत्ता पोग्गला । ( धव. पु. १६, पू. ५१५ ) ।
।
जो पुद्गल अनुराग से ग्रहण किये जाते हैं उन्हें ममत्वतः प्रात्त पुद्गल कहा जाता है । यह ग्रहण व परिणाम श्रादि छह प्रकार से आत्मसात् किये जाने वालों में से एक है ।
मरण - देखो मृत्यु । १. भाउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ( समयप्रा. २६६ ) । २. स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियाणां बलानां च कारणवशात् संक्षयो मरणम् । ( स. सि. ७-२२ ) : ३.
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मरणाशंसा]
८६३,
३ काय, वचन, इन्द्रिय पांच, मन, उच्छ्वास - निःश्वास और प्रायु इन १० प्राणों के परित्याग के भय को मरणभय कहते हैं ।
जैन - लक्षणावली
मरणाशंसा - १. जीवन संक्लेशान्मरणं प्रति चित्तानुरोधो मरणाशंसा। रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवन संक्लेशस्य मरणं प्रति चित्तस्य प्रणिधानं मरणाशंसा इति व्यपदेशमर्हति । (त. वा. ७, ३७, ३) । २. मरणाशंसाप्रयोगः न कश्चित्तं प्रतिपन्नानशनं भवेषते न सपर्यायामाद्रियते न कश्चिच्छ्लाघते ततस्तस्यैवंविधचित्तपरिणामो भवति यदि शीघ्रं म्रिये
ऽहम् पुण्यकर्मेति मरणाशंसा । ( श्री. प्र. टी. ३८५ ) । ३. जीवितसंक्लेशान्मरणं प्रति चित्तानु रोधो मरणाशंसा । (त. श्लो. ७-३७ ) । ४. रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवन संक्लेशस्य मरण प्रति चित्तत्रणिधानं मरणाशंसा। (चा. सा. पृ. २३) । ५. मरणाशंसा रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवनमंक्लेशस्य मरणं प्रति चित्तप्रणिधानम्, यदा न कश्चित्तं प्रतिपन्नाशनं प्रति सपर्यया श्राद्रियते, न च कश्चित् श्लाघते तदा तस्य यदि शीघ्रं म्रियेय तदा भद्रकं स्यादित्येवंविधपरिणामोत्पत्तिर्वा । (सा. घ. स्वो टी. ८-४५ ) । ६. रुगादिभीतेर्जीवस्यासंक्लेशेन मरणे मनोरथो मरणाशंसा । (त. वृत्ति ७-३७ ) ।
१ रोग के उपद्रव से व्याकुल होकर जीवन में संक्लेश को प्राप्त होने से मरने का जो भाव उदित होता है, इसका नाम मरणाशंसा है । यह सल्लेखना का एक प्रतिचार है । २ जिसने सल्लेखना में उपवास को स्वीकार किया है उसको जब न कोई खोजता है, न पूजा में आदर करता है, और न प्रशंसा ही करता है तब उसके मन में जो यह परिणाम होता है कि मुझ पापी का मरण यदि शीघ्र हो जाता है तो अच्छा है, इसे मरणाशंसा कहा जाता है । मरालि - म्रियत इव शकटादी योजितो राति चददाति लत्तादि, लीयते च भुवि पतनेनेति मरालिः । ( उत्तरा. नि. ६४, पृ. ४९ ) ।
जो घोड़ा श्रथवा बैल गाड़ी या तांगे आदि में जोतने पर मरासा हो जाता है, लातें आदि मारता तथा जमीन पर पड़ जाता है उसे मालि कहते हैं ।
{
[मलपरीषहजय
मर्कटतन्तुचारण - १. मक्कडयतंतुपंतीउवरि दिलघु तुरिदपदखेवे । गच्छेदि मुणिमहेसी सा मक्कतंतुचारणा रिद्धी ॥ ( ति प ४ - १०४५) । २. कुब्जवृक्षान्तरालभाविनभः प्रदेशेषु कुब्जवृक्षादिसम्बद्धमर्कटतन्त्वालम्बनपादोद्धरण- निक्षेपावदाता ( प्रव. वृ. 'लम्बनतः पादोत्क्षेपनिक्षेपसमा ) मर्कटतन्तुनच्छिन्दन्तो यान्तो कर्कटतन्तुचारणाः । ( योगशा. स्वो विव. १-६, पृ. ४१; प्रव. सारो. वृ. ६०१) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से महर्षि मकड़ी के तन्तुनों की पंक्ति के ऊपर से पांवों को रखते हुए शीघ्रता से गमन कर सकते हैं उसका नाम मर्कट तन्तुचारण ऋद्धि है । २ कुब्जक वृक्ष के अन्तरालवर्ती श्राकाशप्रदेशों में उक्त वृक्ष श्रादि से सम्बद्ध मकड़ी के तन्तुनों का आलम्बन लेकर जो पांवों को उठाते धरते हुए पवित्र रहते हैं- जीवों को बाधा नहीं पहुंचाते हैं और तन्तुम्रों को छिन्नभिन्न नहीं करते हैं वे मर्कटतन्तुचारणऋद्धि के धारक होते हैं ।
मल - देखो मल्ल । १. स्वेद - वारिसम्पर्कात् कठिनीभूतं रजो मलोऽभिधीयते । ( श्राव. सू. हरि. वृ. प्र. ४, पृ. ६५८ ) । २. मलं प्रङ्गैकदेशप्रच्छादकम् । (मूला. वृ. १-३१)
१. पसीना के जल के सम्बन्ध से जो धूलि कठिनता को प्राप्त हो जाती है उसे मल कहा जाता है । २ जो मेल शरीर के एक भाग को श्राच्छादित करता है वह मल कहलाता है । मलधारण - देखो मलपरीषहजय । मलपरीषहजय - १. प्रकायिकजन्तु पीडापरिहारायामरणादस्नानव्रतधारिणः पटुर विकिरणप्रतापजनितप्रस्वेदाक्तपवनानीतपांसुनिचयस्य, सिध्मकच्छू-दद्रदीर्णकण्डूयायामुत्पन्नायामपि कण्डूयन- विमर्दन - संघट्टन विवर्जितमूर्तेः, स्वगतमलोपचय- परगतमलापन्नययोरसंकल्पितमनसः, सज्ज्ञान- चारित्रविमलसलिलप्रक्षालनेन कर्ममल-पङ्कजाल निराकरणाय नित्यमुद्यतमते लपीडासनमाख्यायते । ( स. सि. ६-६) । २. स्व- परमलापचयोपचयसंकल्पाभावो मलधारणम् । जलजन्तुपीडापरिहारायास्नानप्रतिज्ञस्य स्वेदपङ्कदिग्घसर्वाङ्गस्य, सिध्म-कच्छू-दद्वदीर्णनख - रोम-श्मश्रु केश विकृत सहज बाह्य मल
कायस्य
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मलपरीषहजय ]
[ मल्ल
संपर्क कारणानेकत्वग्विकारस्य स्वगतमलापचये परमलोपचये चाप्रणिहितमनसः कर्म- मलपं कापनोदार्य
नादिकं तदुत्पन्न जन्तुपीडापरिहारार्थं न करोति, माङ्गे मलं वर्तते, अस्य भिक्षोरङ्गे कीदृशं नैमल्यं
ताप
वोद्यतस्य पूर्वानुभूतस्नानानुलेपनादिस्मरणपराङ्मुख- वर्तते इति संकल्पनं न करोति, अवगम-चरित्रपूतपा चित्तवृत्तेर्मलघारणमाख्यायते । (त. वा. ६, ६, नीय प्रधावनेन कर्ममलकर्दमापनयनार्थं च सदैवोद्यत२३) । ३. मलपङ्करजोदिग्धो ग्रीष्मोष्णवेदनादपि । मतिर्भवति केशलोचासंस्कारखेदं न गणयति, स नोद्विजयेत् स्नानमिच्छेद्वा सहेतोद्वर्तयेन्न वा । (प्राव. मुनिर्मलपरीषहसहनशीलो भवति । (त. वृत्ति श्रुत. नि. हरि. वृ. ६१८, पृ. ४०३ ) ; स ( मल: ) वपुषि ९ - ९ ) । स्थिरतामितो ग्रीष्मोष्मसन्तापजनितधर्मजलादार्द्रतां गतो दुर्गन्धिर्महान्तमुद्वेगमापादयति, तदपनयनाय न कदाचिदभिलषेत् । (श्राव. सू. हरि. वृ. प्र. ४, पृ. ६५८ ) । ४. स्व-पराङ्गमलोपचयापचयसंकल्पाभावो मलधारणम् । (त. श्लो. ६ - ६ ) । ५. रजः परागमात्रं मलस्तु स्वेदवारिसम्पर्क कठिनीभूतो वपुषि स्थिरतामितो ग्रीष्मोष्मसंतापजनितधर्मजलार्द्रतां गतो दुर्गन्धिर्महान्तमुद्वेगमुत्पादयति । तदपनयनाय न कदाचिदभिषेकाद्यभिलाषं करोतीति मलपरीषहजयः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-९ ) । ६. प्राणाघातविभीतितस्तनुरतित्यागाच्च भोगास्पृहः, स्नानोद्वर्तन - लेपनादिविगमात् प्रस्वेदपांसूदितम् । लोकानिष्ट मनिष्टमात्मवपुषः पापादिमूलं मलम्, गोत्रत्राणमिवादधाति वृजिनं जेतुं मलक्लेशजित् ॥ ( श्राचा. सा. ७-६)। ७. प्रप्कायिकादिजन्तु पीडापरिहारायामरणादस्नानव्रतधारिणः पटुरविकिरणप्रतापजनितप्रस्वेदवारिसम्पर्क लग्नपवनानीतपांशुनिचयस्य मला - पनयनासंकल्पितमनसः सज्ज्ञान-दर्शन- चारित्रविमल सलिलप्रक्षालनेन कर्म - मलनिराकरणाय नित्य मुद्यतमतेर्मल पीडासहनं मलपरीषहसहनम् । ( पंचसं मल. वू. ४ - २१) । ८. रोमास्पदस्वेद मलोत्थसिध्मप्रायायं वज्ञातवपुःकृपावान् । केशापनेतान्यमलाग्रहीता, नैर्मल्यकामः क्षमते मलोमिम् । (अन. घ. ६-१०६) । ६. रविकिरणजनितप्रस्वेदलवसं लग्नपां सुनिचयस्य सिमा- कच्छू - दद्र् भूत का यत्वादुत्पमनायामपि कण्ड्वां कण्डूयन मर्दनादिरहितस्य स्नानानुलेपनादिकमस्मरतः स्वमलापचये परमलोपचये च [चा ] प्रणिहितमनसो मलधारणम् । ( श्रारा सा. टी. ४० ) । १०. यो मुनिरम्बुकायिकप्राणिपीडापरिहरणचेताः मरणपर्यन्तमस्नानव्रतवारी भवति, तीव्र तपन भानुसञ्जनितपरितापस मुत्पन्नप्रस्वेदवशमरुदानीत पांशुनिचयोऽपि किलास-कच्छू दद्र्कण्डूयादि विकारे समुत्पन्नेऽपि संघट्टन प्रमर्दन- कण्डूय
१ जलकायिक जीवों की पीड़ा को दूर करने के लिए जीवन पर्यन्त स्नान का परित्याग करने वाले साधु के शरीर में जब तीक्ष्ण सूर्य की किरणों के उत्पन्न हुए पसीना के श्राश्रय से वायु के द्वारा लायी गई धूलि का समूह सम्बद्ध होता है और उसके निमित्त से शरीर में सेहुश्रा, खुजली एवं दाद उत्पन्न हो जाती है तब खुजली के उत्पन्न होने पर भी जो खुजला कर या घिसकर उसका प्रतीकार नहीं करता है तथा जो अपने शरीर में मल का संचय और दूसरे के शरीर में उसकी हानि को देखते हुए भी मन में किसी प्रकार का विकल्प नहीं करता है, किन्तु सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्ररूप निर्मल जल के द्वारा पापरूप कीचड़ के दूर करने में उद्यत रहता है, इस प्रकार से जो वह उसकी पीड़ा को सहन करना है उसको मलपरोषहजय कहा जाता है । मलयपट्ट - मलय विसयुप्पण्णो मलयपट्टो भण्णति । (अनुयो चू. पू. १५) ।
मलय देश में जो पट्ट (वस्त्र) उत्पन्न होता है वह मलयपट्ट कहलाता है ।
मलौषधि - १. जीहोट्ठ- दंत - णासा-सोत्तादिमलं पि जीए सत्तीए | जीवाण रोगहरणं मलोसही णाम सा रिद्धी ॥ ( ति प ४ - १०७१ ) । २. कर्ण-दन्तनासाक्षिसमुद्भवं मलं भौषधिप्राप्तं येषां ते मलौषधिप्राप्ताः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३; चा. सा. पू. ६९ ) ।
१ जिस शक्ति के प्रभाव से जिह्वा, मोठ, नासिका और श्रोत्र आदि का मल भी जीवों के रोगों का हरनेवाला होता है उसका नाम मलौषधि ऋद्धि है । मल्ल - शरीरैकदेशवर्ती मल्लः । (प्रा. योगिभ. टी. १३, पृ. २०२ ) ।
शरीर के एक भाग में रहने वाले मल को मल्ल कहा जाता है ।
८६४, जैन - लक्षणावली
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मल्लि ] ८६५, जैन-लक्षणावली
[महत्त्व मल्लि-परीषहादि-मल्लजयान्निरुक्तान्मल्लिः, तथा २ जो कुल में वृद्ध होता है उसे महत्तर कहा जाता गर्भस्थे मातुः एकऋतौ सर्वर्तुसुरभिकुसुममाल्य- है । शयनीयदोहदो देवतया पूरित इति मल्लिः । (योग- महत्तरापदानीं-कुरूपा खण्डिताङ्गी च हीनाशा. स्वो. विव. ३-१२४)।
ग्वयसमुद्भवा । मूढा दुष्टा दुराचारा सरोगा कटुपरीषहादिरूप मल्लों पर विजय प्राप्त करने के भाषिणी ।। सर्वकार्ये वनभिज्ञा कुमुहूर्तोद्भवा तथा । कारण १९वें तीर्थकर मल्लि कहलाये । उक्त कुलक्षणाचारहीना युज्यते न महत्तरा ॥ (प्राचारदि. तीर्थकर के गर्भ में स्थित होने पर माता को एक पृ. १२० उद्.)। ऋतु में सब ऋतुओं के सुगन्धित फूलों की शय्या जो कुरूप हो, विकलांग हो, हीन कुल में उत्पन्न हुई का दोहला उत्पन्न हुआ, जिसे देवता ने पूरा किया हो, मूर्ख हो, दुष्ट स्वभाववाली हो, दूषित पाचरण था। इससे उनका नाम मल्लि प्रसिद्ध हुआ। से सहित हो, रोगयुक्त हो, कटु भाषण करने वाली मषिकर्म - xxx मषिलिपिविधी स्सृता । हो, सब कार्यों के ज्ञान से रहित हो, प्रशुभ मुहूर्त (म. पु १६-१८१)।
में उत्पन्न हुइ हो, तथा कुत्सित लक्षणों से युक्त लेखन क्रिया का नाम मषिकर्म है।
होती हुई प्राचार से हीन हो; वह महत्तरा होने के मषिकर्मार्य - १. द्रव्याय-व्ययादिलेखननिपुणा
योग्य नहीं होती।
महत्तरापदार्हा-सिद्धान्तपारगा शान्ता कृतयोमषीकर्माः । (त. वा. ३, ३६, २)। २. पाय
गोत्तमान्वया । चतुःषष्टिकलाज्ञात्री सर्व विद्याविशारव्ययादिलेखनवित्ता मषीकार्याः। (त. वृत्ति श्रुत.
दा।। प्रमाणादिलक्षणादिशास्त्रज्ञा मजुभाषिणी। ३-३६)।
उदारा शुद्धशीला च पञ्चेन्द्रियजये रता ॥ धर्म१. द्रव्य के प्राय और व्यय के लिखने में जो चतुर
व्याख्याननिपुणा लब्धियुक्ता प्रबोधकृत् । समस्तोहोते हैं वे मषीकार्य या मषिकर्मार्थ कहलाते हैं। .
पधिसन्दर्भकृताभ्यासातिधैर्ययुक् ।। दयापरा सदामसक समान शिष्य-यः शिष्यो मसक इव
नन्दा तत्वज्ञा बुद्धिशालिनी। गच्छानुरागिणी नीतिजात्यादिकमुद्घट्टयन् गुरोर्मनसि व्यथामुत्पादयति
निपुणा गुणभूषणा ॥ सबला च विहारादौ पञ्चास मसकसमानः, स चायोग्यः। (प्राव. नि. मलय.
चारपरायणा। महत्तरापदार्हा स्यादीदशी व्रतिनी व. १३६, पृ. १४४)।
ध्रुवम् ।। (प्राचारवि. पृ. १२० उद्.)। जो शिष्य मसक के समान जाति प्रादि को नष्ट
सिद्धान्त में पारंगत, शान्त, अनुष्ठेय क्रियानों की करता हुमा गुरु के मन में पीड़ा को उत्पन्न करता
करने वाली, उत्तम कुल में उत्पन्न, चौसठ कलानों है उसे मसक समान शिष्य कहा जाता है।
की जानकार, समस्त विद्यामों में निपुण, प्रमाण मस्तिष्क-मस्तिष्कं मस्तुलुङ्गकं शिरोऽङ्गस्या- प्रादि व लक्षण प्रादि शास्त्रों की जानने वाली,
भकोऽवयवः । (त. भा. सिद्ध. व. ८-१२, मधरभाषिणी, उदारहृदय, शील से पवित्र, पांचों पृ. १५२)।
इन्द्रियों के जीतने में उद्यत, धर्म के व्याख्यान में मस्तलंग (सिर में से निकलने वाला एक चिक्कण कुशल, ज्ञानावरणादि कमो के क्षयोपशम रूप लब्धि पदार्थ) को मस्तिष्क कहते हैं। वह शिर रूप अंग से सम्पन्न, प्रबोध की करने वाली, समस्त उपधियों का प्रारम्भक एक अवयव (उपांग) है।
के सन्दर्भ में किए गये अभ्यास से सहित, अतिशय महत्तर-१. गंभीरो मद्दवितो, कुसलो जाइ- धीरता को प्राप्त, दयालु, सदा प्रसन्न रहने वाली, विणयसंपन्नो। जुवरण्णाए सहितो पेच्छइ कज्जाइं वस्तुस्वरूप की जानकार, बुद्धिमती, गच्छ से अनमहत्तरप्रो। (व्यव. भा. (तृ. वि.) पृ. १२९)। राग करने वाली, नीति में चतुर, गुणों से विभषित, २. महत्तरः कुलवृद्धः । (त्रि. सा. टी. ६८३)। विहारादि में समर्थ और पांच प्राचारों के परि१ जो गम्भीर, विनीत, कुशल एवं जाति व विनय से पालन में तत्पर; इन गुणों से संयुक्त साध्वी मह. सम्पन्न होता हुआ युवराज के साथ राज्य के कार्यो तरा पद के योग्य होती है। को देखता है उसे महत्तर या महत्तरक कहते हैं। महत्त्व-महत्त्वं मेरोरपि महत्तरशरीरकरणसा
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महद्धिकदेव]
, ८६६, जन-लक्षणावली
[महाकालनिधि
मर्थ्यम् । (योगशा. स्वो. विव. १-८)।
दवाणं च सरूवं छक्काले अस्सिद्रण परूवेदि । जिस ऋद्धि के प्रभाव से जीव अपने शरीर को (धव. पु.६, प.१६१)। २. साहणं गहण-सिक्खा . अतिशय विशाल कर सकता है, उसका नाम महत्त्व गणपोसणप्पसंस्करणसल्लेहणुत्तमट्ठाणगयाणं जं कप्पइ ऋद्धि है।
तस्स चेव दव्व-खेत्त-काल-भावे अस्सिदूण परूवणं महद्धिक देव-महती ऋद्धिविमान-परिवारादिका कुणइ महाकप्पियं । (जयध. १, पृ. १२१)। यस्य स महद्धिकः। (जीवाजी. मलय. वृ.१-८४)। ३. दीक्षा-शिक्षा-गणपोषणात्मसंस्कारभावनोत्तमार्थविमान व परिबार प्रादि रूप ऋद्धि से सम्पन्न भेदेन षटकालप्रतिबद्धयतीनामाचरणं प्रतिपादयत् देवों को महद्धिक कहा जाता है।
महाकल्प्यम् । (श्रुतम. टी. २५, पृ. १८०) । ४. मषि-देखो महैषि ।
महतां कल्प्यमस्मिन्निति महाकल्प्यम् , तन्महासाधूनां महाअडड - चतुरशीतिमहाअडडाङ्गशतसहस्रा- जिनकल्पानाम् उत्कृष्टसंहननादिविशिष्ट द्रव्य-क्षेत्रण्येकं महाप्रडडम् । (ज्योतिष्क. मलय. वृ. ७०)। काल-भावतिनां योग्यं त्रिकालयोगाद्यनुष्ठानं स्थविचौरासी लाख महाप्रडडांग का एक महाप्रडड रकल्पाना शिक्षा-दाक्षा-ग
रकल्पानां शिक्षा-दीक्षा-गणपोषणात्मसस्कार-सल्लेहोता है।
खनोत्तमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेषं च वर्णयति। महाअडडाडा - चतुरशीतिअडडशतसहस्राण्येकं (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३६८) । ५. यति महाऽडडाङ्गम् । (ज्योतिष्क. मलय. व. ७०)। दीक्षा-शिक्षा-भावनात्मसंस्कारोत्तमार्थगणपोषणादिचौरासी लाख अडडों का एक महाअडडांग प्रकटकं महाकल्पम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। होता है।
६. महकप्पं णायव्वं जिणकप्पाणं च सव्वसाहूणं । महाकमल-ततः परतश्चतुरशीतिमहाकमलाङ्ग- उत्तमसंहडणाणं दव्व-खेत्तादिवत्तीणं ।। तियकालयोगशतसहस्राण्येकं महाकमलम् । (ज्योतिष्क. मलय. कप्पं थविरकप्पाण जत्थ वणिज्जइ । दिक्खापृ. ६७)।
सिक्खा-पोसण-सल्लेहणप्रप्पसक्कारं ॥ उत्तमठाणचौरासी लाख महाकमलांगों का एक महाकमल गदाणं उक्किट्ठाराहणाविसेसं च। (अंगप. ३-२६, होता है।
३०, पृ. ३१०)। महाकमलाड - चतुरशीतिकमलशतसहस्राण्येक १ जो प्रागम काल और संहननों का प्राश्रय लेकर महाकमलाङ्गम् । (ज्योतिष्क. मलय. व.६७)। साधु के योग्य द्रव्य व क्षेत्र प्रादि का वर्णन करता चौरासी लाख कमलों का एक महाकमलांग होता है उसे महाकल्प या महाकल्प्य कहा जाता है ।
महाकवि-सुश्लिष्टपदविन्यासं प्रबन्धं रचयन्ति महाकल्प (कालविशेष)-एएणं सरप्रमाणेणं ये । श्रव्यबन्धं प्रसन्नाथं ते महाकवयो मताः । (म. तिण्णिसरसयसाहस्सीनो से महाकप्पे। (भगवती. पु. १-६८) ३, १५, १३, पृ. ३८१)।
जो अनेक अर्थों के सूचक इसेष युक्त पदों की रचना तीन लाख सरप्रमाण काल का एक महाकल्प से विशिष्ट एवं सुनने में मनोहर शब्दयोजना होता है । बादरबोंदिरूप उद्धार (गंगाबालुकाकण) वाले प्रबन्ध (सन्दर्भ) की रचना किया करते हैं। में से सौ सौ वर्ष में एक-एक बालुकाकण के वे महाकवि माने गये हैं। निकालने पर जितने काल में वह (बालुकाकणों महाकालनिधि-देखो नैसर्प व पाण्डु निधि । का समदाय रूप उद्धार) खाली होता है उतने १. काल-महाकाल-पंडूxxxIxxx उडुकाल का नाम महाकल्प है।
जोग्गदव्वभायण-धण्णायुह xxx॥(ति. प. ४, शेष)-देखो महाकल्प्य। ७३६-४०)। २. लोहस्स य उप्पत्ती होइ महाकालि महाकल्प्य-१. महाकप्पियं काल-संघडणाणि आगराणं च । रुप्पस्स सुवण्णस्स य मणि-मुत्त-सिलअस्सिऊण साहुपायोग्गदव्व-खेत्तादीणं वण्णणं कुणइ। प्पवालाणं । (जम्बूद्वी. ६६, पृ. १५६) । ३. प्रवाल(धव. पु. १, पृ. ९८); महाकप्पियं भरह-इरावद- रजत-स्वर्णशिला-मुक्ताफलायसाम् । तथा लोहाद्याविदेहाणं तत्थतणतिरिक्ख-मणुस्साणं देवाणमणेसिं कराणां महाकाले समुद्भवः ।। (त्रि.श.पु. प. १,
महाक
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महाकाव्य ]
४, ५८० ) ।
१ जो निधि धान्य को दिया करती है उसका नाम महाकालनिधि है । २. जिस निधि में लोहा, चांदी, सोना, मणि, मोती, शिला (स्फटिक यादि) प्रौर प्रवाल (मूंगा) इनकी खानों की उत्पत्ति होती हैउसका कथन किया जाता है, उसे हाकालनिषि कहते हैं ।
८६७, जंन - लक्षणावली
महाकाव्य – १. महापुराणसम्बन्धि महानायकगोचरम् । त्रिवर्गफलसन्दर्भ महाकाव्यं तदिष्यते । ( म. पु. १ - ९९ ) । २. पद्यं प्रायः संस्कृत प्राकृतापभ्रंशाम्यताषानिबद्ध भिन्नान्त्यवृत्तसगश्वास - सन्ध्यवस्कन्धकबन्धं सत्संधिशब्दार्थ वैचित्र्योपेतं महाकाव्यम् । ( काव्यानु. ८, पृ. ३३० ); छन्दोविशेषरचितं प्रायः संस्कृतादिभाषानिबर्द्धभिन्नान्त्यवृत्तैर्यथासंख्यं सर्गादिभिनिर्मितं सुश्लिष्टमुख - प्रतिमुखगर्भविमर्श निर्वहणसन्धिसुन्दरं शब्दार्थवै चित्रयोपेतं महाकाव्यम् | ( काव्यानु. स्वो वृ. ८, पृ. ३३० ) । १ जो अतिशय प्राचीन महापुरुषों के चरित्र से सम्बन्ध रखने वाला हो, महानायक (तीर्थंकर श्रादि) जिसका विषय ( श्रभिधेय) हो, और जिसमें धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थ रूप त्रिवर्ग का सन्दर्भ ( प्रथन या वर्णन ) हो वह महाकाव्य कहलाता है। महाकुमुद चतुरशीति महावु मुदाङ्ग शतसहस्राभ्येकं महाकुमुदम् । (ज्योतिष्क मलय. वृ. ६८ ) । चौरासी लाख महाकुमुदांगों का एक महाकुमुद होता है । महाकुमुदाङ्ग चतुरशीतिकुमुदशतसहस्राण्येकं महाकुमुदाङ्गम् । ( ज्योतिष्क मलय. वृ. ६८ ) । चौरासी लाख कुमुरों का एक जहाकुमुदांग होता है । महागङ्गा से जहा वा गंगा महानदी जम्रो पत्रढा, जहि वा पज्जुवत्थिया, एस णं श्रद्धा पंचजीवनसयाई श्रायामेणं, अद्धजोग्रणं विवखभेणं, पंचत्रणहपयाई उब्वेहेणं एएणं गंगापमाणेणं सत्त गंगाओ सा एगा महागंगा । ( भगवती ३, १५, १३, पू. ३८१) ।
जिसमें गंगा नदी प्रवाहित हुई है-निकली हैव जहां वह समाप्त होती है यह मार्ग पांच सौ योजन लम्बा, प्राधा योजन विस्तृत और पांच सौ धनुष प्रमाण ऊंचा ( गहरा ) है । इस
प्रकार के
ल. ११३
[महात्रुटिताङ्ग
गंगा के प्रमाण से सात गंगाएं मिलकर एक महागंगा होती है ।
महातप-- १. मंदरपंतिप्पमुद्दे महोववासे करेदि सव्वे वि । चउसण्णाणबलेणं जीए सा महतवा रिद्धी । ( ति प ४- १०५४) २. सिंहनिःक्रीडितादिमहोपवासानुष्ठानपरायणा यतयो महातपसः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३ ) । ३. प्रणिमादिश्रट्टगुणोवेदो जलचारणा दिट्ठविचारणगुणालंकरियो फुरंत सरीरप्पहो दुविक्खीणलद्धिजुत्तो सव्वोसहिसरूवो पाणि-पत्तणिवदिदसव्वाहारे श्रमियसादसरूवेण पल्लट्टावणसमत्थो सयलिहितो वि श्रणंतबलो आसी-दिट्ठिविलद्धिसमणि तत्ततवो सयलविज्जाहरो मदि-सुद प्रोहि मण्णपज्जवणाणेहि मुणिदतिहुवणदावारो मुणी महातवो णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ९९ ) । ४. सकलविद्याधारिणो मति श्रुतावधि - मन:पर्ययज्ञानावगतत्रिभुवनगतव्यापारा महातपसः । (चा. सा. पृ. १०० ) । ५ पक्ष- मासोपवासाद्यनुष्ठानपरा महातपसः । । ( प्रा. योगिभ. टी. १५, पृ. २०३ ) ६. पक्ष मास - षण्मास वर्षोपवास+ विधातारः ये मुनयस्ते महातपसः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
जिस ऋद्धि के प्रभाव से जीव मतिज्ञानादि चार सम्यग्ज्ञानों के बल से मंदरति श्रादि सभी महान् उपवासों को करता है उसे महातप ऋद्धि कहते हैं । इस ऋद्धि के धारक महातप ( महातपस्वी ) कहलाते हैं ।
महात्मा - अनन्तज्ञान-वीर्ययुक्तत्वान्महानात्मा यस्य स महात्मा । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ५) ।
अनन्त ज्ञान और अनन्त वीर्य से युक्त होने के कारण जिसकी श्रात्मा महान् है उसे महात्मा कहा जाता है ।
महात्रुटितक - चतुरशीतिमहात्रुटिताङ्ग शतसहत्राण्येकं महात्रुटितकम् । ( ज्योतिष्क मलय. वृ६९) ।
चौरासी लाख महात्रुटियों का एक महात्रुटिक होता है ।
महात्रुटिताङ्ग- चतुरशीतित्रुटितशतसहस्राण्येकं महात्रुटिताङ्गम् । (ज्योतिष्क मलय. वृ. ६६)
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महादुःख]
चौरासी लाख त्रुटियों का एक महात्रुटिताङ्ग होता है ।
८६८, जैन-लक्षणावली
महादुःख -- परस्पृहा महादुःखम् X X X | ( ज्ञा. सा. १३ - ८ ) ।
पर पदार्थ की जो इच्छा होती है, वह अतिशय दुःखरूप है ।
महादेव—महामोहादयो दोषा ध्वस्ता येन यदृच्छया । महाभवार्णवोत्तीर्णे [र्णो ] महादेवः स कीर्तितः । ( प्राप्तस्व. २६) ।
जो महामोह आदि दोषों को स्वेच्छा से नष्ट कर चुका है तथा संसार रूप महासमुद्र से पार हो चुका है उसे महादेव कहा जाता है । महाद्युतिक - महती द्युतिः शरीराभरणविषया यस्य स महाद्युतिकः । ( जीवाजी. मलय. वृ. ८४) । जिसकी शरीर व श्राभरण विषयक कान्ति श्रधिक होती है उसे महाद्युतिक कहते हैं । महानलिन -- चतुरशीतिमहान लिनाङ्गशतसहस्रा - येकं महानलिनम् । ( ज्योतिष्क मलय. वृ. ६६ ) । चौरासी लाख नलिनांगों का एक महानलिन होता है ।
महानलिनाङ्ग- चतुरशीतिन लिनशतसहस्राण्येकं महानलिनाङ्गम् । ( ज्योतिष्क, मलय. वृ. ६६ ) । चौरासी लाख नलिनों का एक महानलिनाङ्ग होता है ।
महानस - महानसम् अन्नपाकस्थानं तदाश्रितत्वा
नमपि महानसम् । ( श्रपपा. अभय वृ. पु. २८)।
अन्न के पकाने के स्थान को रसोईघर को - महानस कहते हैं, श्रथवा उसके श्राश्रय से धन्न को भी महान कहते हैं ।
महापद्म चतुरशीति महापद्माङ्गशतसहस्राण्येकं महापद्मम् । ( ज्योतिष्क, मलय. वृ. ६७ ) । चौरासी लाख महापद्माङ्गों का एक महापद्म होता है । महापद्मनिधि - १. वत्थाण य उप्पत्ती गिष्फत्ती चैव सव्वभत्तीणं | रंगाण य घोव्वाण य सव्वा एसा महापउमे । ( जम्बूद्वी. ६६, पृ. २५६ ) । २. वस्त्राणां सर्वभक्तीनां शुद्धानां रागिणामपि । संजायते समुत्पत्तिर्महापद्मान्महानिधेः । (त्रि. श. पु. च. १, ४, ५७८ ) ।
[महाप्रज्ञापना
१ महापद्मनिधि से वस्त्रों, वस्त्ररचनाओं, रंगों और धोने की विधियों की उत्पत्ति होती है, यह सब महापद्मनिधि कहलाती है।
महापद्माङ्ग - चतुरशीतिपद्मशतसहस्राण्येकं महापद्माङ्गम् । (ज्योतिष्क. मलय. पू. ६६ ) । चौरासी लाख पद्मों का एक महापद्म होता है । महापुण्डरीक – १. महापुण्डरीयं सर्याल - पडिदे उत्पत्तिकारणं वण्णेई । ( धव. पु. १, पृ. ६८ ) ; महापुण्डरीयं देविदेसु चक्कवट्टि - बलदेव - वासुदेवेसु च कालमस्सिदूण उववादं वण्णेदि । ( धव. पु. ६, पृ. ११) । २. तेसि चैव पुब्वृत्त - ( चउब्विह-) देवाणं देवी उप्पत्तिकारणतवोववासादियं महापुण्डरीयं परूवेदि । ( जयध. १. पू. १२१ ) । ३. अमरामराङ्गनाप्सरः सूत्पत्तिहेतुप्रतिपादकं महापुण्डरीकम् । ( श्रुतभ. टी. २५, पृ. १८० ) । ४. महच्च तत् पुण्डरीकं च तत् महापुण्डरीकम्, तत् महधिकेषु इन्द्रप्रतीन्द्रादिषु उत्पत्तिकारणतपोविशेषाद्याचरणं वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३६८ ) । ५. देवांगनापदप्राप्तिहेतुपुण्यप्रकाशकं महापुण्डरीकम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ -२० ) ।
१ जिस श्रुत में काल के श्राश्रय से समस्त इन्द्रों प्रतीन्द्रों व चक्रवर्तियों श्रादि में उत्पत्ति की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम महापुण्डरीक है । २ भवन
वासी श्रादि चार प्रकार के देवों को देवियों में उत्पन्न होने के कारणभूत तप व उपवास श्रादि का वर्णन जिस श्रुत में किया जाता है उसे महापुण्डरीक (प्रनंगश्रुत ) कहा जाता है ।
महापुरुष - १. स खलु महान् यः खल्वात न दुर्वचनं ब्रूते । ( नीतिवा. ३२-१२, पू. ३८४ ) । २. तथा च शुक्रः - दुर्वाक्यं नैव यो ब्रूयादत्यर्थं कुपितोऽपि सन् । स महत्त्वमवाप्नोति समस्ते धरणीतले । ( नीतिवा. टी. ३२-१२) ।
१ जो पीड़ित होकर भी दुष्ट वचन ( अपशब्द ) नहीं बोलता है उसे महापुरुष कहा जाता है । महाप्रज्ञापना जीवादीनां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना, बृहत्तरा ( प्रज्ञापना) महाप्रज्ञापना । ( नन्दी. हरि वु, पृ० ६० ) ।
जीवादिकों के ज्ञापन कराने वाले श्रतिशय विस्तीर्ण शास्त्रविशेष का नाम महाप्रज्ञापना है ।
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महाप्रतिष्ठा ]
महाप्रतिष्ठा - सप्तत्यधिकशतस्य तु चरमेह महाप्रतिष्ठेति । ( षोडश ८-३) | एक सौ सत्तर तीर्थंकरों को बिम्बप्रतिष्ठा को महाप्रतिष्ठा कहा जाता है । ५ भरत व ५ ऐरावत क्षेत्रों के ५-५ र ५ विदेह क्षेत्रों के १६० (३२X ५ + १० = १७० ) इस प्रकार एक साथ अधिक से अधिक १७० तीर्थङ्कर रह सकते हैं । महाभद्रा महाभद्रापि तथैव, नवरमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रचतुष्टयमाना । ( स्थानां प्रभय. वृ. ८४, पृ. ६५ ) ।
महाभद्रा नामक भिक्षुप्रतिमा भद्रा प्रतिमा के समान है । विशेष इतना है कि इसमें जो चारों दिशाओं में से प्रत्येक में चार पहर कायोत्सर्ग किया जाता है वह दिन-रात किया जाता है व उसका प्रमाण चार दिन-रात है । महामण्डलीक - १. महमण्डलियो णामो अट्ठसहस्साणं श्रहिवई ताणं । ( ति प १-४७ ) । २. अष्टसहस्र महीपतिनायकमाहुर्बुधाः महामण्डलि - कम् । (धव. पु. १, पृ. ५८ उद्) । ३. पंचसयरायसामी अहिराजो तो महाराजो | तह अद्धमण्डली मंडलियो तो महादिमंडलिनो । तिय-छक्खंडाणहिवा पहुणो राजाण दुगुण- दुगुणाणं || (त्रि. सा. ६८४-८५) । ४ प्रष्टसहस्रराजस्वामी महामण्डलिक: । (त्रि. सा. टी. ६८५) ।
८६६, जंन - लक्षणावलो
[-] हावीर चौरासी लाख महाकल्पो का एक महामानस होता है ।
महामुद्रा - प्रसारिताधोमुखाभ्यां हस्ताभ्यां पादाङ्गुलीतलामस्तकस्पर्शान्महामुद्रा । ( निर्वाणक. पू.
३१) ।
फैलाये हुए प्रधोमुख दोनों हाथों के साथ पांवों को गुलियों से मस्तक का स्पर्श करने पर महामुद्रा होती है ।
महायोजन - पंचशन मानवयोजनैरेकं महायोजनं प्रमाणयोजनं दिव्ययोजनं भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८) ।
पांच सौ मानव योजनों (उत्सेधयोजनों) का एक महायोजन, प्रमाणयोजन श्रथवा दिव्ययोजन होता है ।
महाराज - १. रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महाराजो | ( ति प १ - ४५ ) । २. राजसहस्राधिपतिः प्रतीयतेऽसौ महाराजः ॥ (धव. पु. १, पृ. ५७ उद्) । ३. सहस्रराजस्वामी महाराज: । ( त्रि. सा. टी. ६८४) ।
१ जो एक हजार राजानों का परिपालन करता है - वह महाराज कहलाता है । महार्थत्व – महार्थत्वं परिपुष्टार्थाभिधायिता । ( रायप. मलय. वृ. पृ. २७ ) ।
परिपुष्ट श्रर्थ के कथन से युक्त होना, इसका नाम
महालता-चतुरशीतिलताशतसहस्राण्येका महालता । ( ज्योतिष्क मलय. वृ. ६४ ) ।
1
चौरासी लाख लतानों का एक महालता काल कहलाता है ।
१ आठ हजार राजाओं का जो प्रधिपति होता है महार्थत्व है । यह ३५ वचनातिशयों में प्राठवां है। वह महामण्डलीक कहलाता है । महामन्त्री - महामन्त्रिणस्ते एव विशेषाधिकारवन्त: । ( कल्पसू. विनय वृ. ६२ ' पू. १६) । राज्य के अधिष्ठायक जो मंत्री होते हैं वे ही विशेष अधिकार से युक्त होने पर महामंत्री कहलाते हैं । महामाण्डलिक - महामाण्डलिकः स एवानेकदेशाविपतिः । ( जीवाजी. मलय. वृ. ३६, पृ. ४० ) । जो राजा अनेक देशों का अधिपति होता है उसे महामाण्डलिक कहा जाता है।
महावाक्य - वाक्यान्येव विशिष्टतरंकार्थचालितार्थप्रत्यवस्थानरूपं महावाक्यम् । ( उपदेशप. मु. वृ. ८५)।
अतिशय विशिष्ट अर्थ से चलाए गये अर्थ के व्यवस्थापक वाक्यों को ही महावाक्य कहा जाता है ।
महामात्य - महामात्यः स सर्वाधिकारीत्यर्थः । (त्रि. सा. वृ. ६८३ ) ।
समस्त अधिकार से युक्त महामात्य होता है । महामानस ( कालविशेष ) - चउरासीति महाकपसय सहस्साइं से एगे महामाणसे । ( भगवती ३, १५, १३, पू. ३८१ ) ।
महावीर - १. ईरेइ विसेसेण व खवेइ कम्माई गमयइ सिवं वा । गच्छइ य तेण वीरो स महं वीरो महावीरो । ( विशेषा. भा. १०६५ ) । २. कषा - यादिशत्रुजयात् महाविक्रान्तो महावीरः । ( त. भा. हरि. वृ. का. १३, पृ. ८; नन्दी हरि. वृ. पृ. ५)
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महाव्रत
१००, जैन-लक्षणावली
[महासत्ता
३. विशेषेण ईरयति कर्म गमयति याति वा शिव- क्षेत्र्यां धनं वपन् । दयया चातिदीनेषु महाश्रावक मिति वीरः, महांश्चासौ वीरश्च महावीरः। (योग- उच्यते । (योगशा. ३-११६) । २. एवं पालशा. स्वो. विव. ३-१२४) । ४ वीरयति स्म कषा- यितुं व्रतानि विदधच्छीलानि सप्तामलान्यागर्णः यादिशत्रन प्रति विक्रामति स्मेति वीरः, महांश्चासौ समितिष्वनारतमनोदीप्राप्तवाग्दीपकः । वैय्यावृत्त्यवीरश्च महावीरः। (प्रज्ञाप. मलय. व..१-१)। परायणो गुणवतां दीनानतीवोद्धरंश्च देव१ जो विशेषरूप से ईरित करता है, अर्थात् कर्मों सिकीमिमां चरति यः स स्यान्महाश्रावकः । (सा. ध. का क्षय करता है, अथवा मोक्ष को प्राप्त कराता ५-५५); xxx एतेन सम्यग्दर्शनशुद्धत्वं है वह महान् वीर होने से महावीर कहलाता है। व्रत-भूषणभूषितत्वं निर्मलशीलनिधित्वं संयमनिष्ठत्वं महाव्रत-१. साहति जं महल्ला आयरियं जं जिनागमज्ञत्वं गुरुसुश्रूषकत्वं दयादिसदाचारपरत्वं महल्लपूवेहिं । जं च महल्लाणि तदो महल्लया चेति सप्तगुणयोगान्महाश्रावकत्वं कस्यचित् सुकृतिइत्तहे याई। (चारित्रप्रा. ३०)। २. साहति जं न: कालादिलब्धिविशेषवशाद् भवतीति तात्पर्योऽत्र महत्थं प्राचरिदाणी य ज महल्लेहि। जं च मह- प्रतिपत्तव्य इति । (सा. घ. स्वो. टी. ५-५५) । ल्लाणि तदो महव्वयाई भवे ताई। (मला. ५, १ इस प्रकार जो अणुव्रतादि रूप श्रावक के व्रतों १७) । ३. देश-सर्वतोऽणुमहती। (त. सू. ७-.)। में स्थित होकर भक्तिपूर्वक जिन विम्ब, जिनभवन, ४. एभ्यो हिसादिभ्यः xxx सर्वतो विरतिर्म- जिनागम, साधु, साध्वी, श्रावक और धाविका इन हाव्रतम् । (त. भा. ७-२) । ५. साधेति जं महत्थं सात क्षेत्रों में तथा दया से प्रेरित होकर प्रतिआयरिदाईच ज महल्लेहिं । ज च महल्लाइ सय शय दीन दुखी जीवों में धन को बोता है-उसका महव्वदाई हवे ताइ॥ (भ. प्रा. ११८४)। दान करता है- उसे महाश्रावक कहा जाता है। ६. पंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवचःकायैः। २. पांच प्रणवतों के पालन करने के अभिप्राय से कृत-कारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम् । जो व्रतों के रक्षण रूप सात शीलों को-तीन गुण(रत्नक.७२) । ७. हिंसादेः सर्वतो विरतिर्महा- व्रतों और चार शिक्षाव्रतों को-धारण करता हमा व्रतम् । (त. वा. ७, २, २)। ८. पंच महाव्रतानि निरन्तर समितियों के पालन में उद्यत ।हता है प्राणातिपातादिविनिवृत्तिलक्षणानि । (नन्दी. हरि. तथा गुणी जनों के वैयावृत्य में तत्पर रहता है वृ. पृ. ८; प्राव. नि. हरि. वृ. ११६७) । ६. महा- वह इस दैनिक अनुष्ठान का परिपालन करता व्रतं भवेत्कृत्स्नहिंसाद्यागोविवर्जनम् । (म. पु. ६, हुमा महाश्रावक होता है। ४)। १०. महान्ति च तानि व्रतानि प्राणातिपात- महाश्वाक्ष-ग्राशुगमनादश्वो मनः, अक्षाणि इन्द्रिविरमणादीनि । (सूत्रकृ. शी. व. २, ६, ६)। याणि स्वविषयव्यापकत्वात्; अश्वश्चाक्षाणि च ११. सर्वतो विरति म मुनियोग्यं महाव्रतम् । अश्वाक्षाणि, महान्ति प्रश्वाक्षाणि यस्यासौ महा(लाटीस. ५-५८)। १२. सर्वतो विरतिस्तेषां स्वाक्षः । (जीवाजी. मलय. वृ. ८४, पृ. १०६)। हिंसादीनां व्रतं महत् । (पचाध्या. २-७२१)। शीघ्रतापूर्ण गमन (विषयसंचार) के कारण मन १ जिस कारण महापुरुष उनको सिद्ध करते हैं, को अश्व (घोड़ा) कहा जाता है, अक्ष का अर्थ महापुरुषों ने उनका आचरण किया है, तथा वे स्वयं व्यापक होता है, अपने विषयों में व्यापक होने के महान् हैं; इसलिए हिंसादि के पूर्णतया परित्याग कारण इन्द्रियों को प्रक्ष कहा जाता है, जिसका को महाव्रत कहा जाता है। २ जो महान् अर्थ को मन और इन्द्रियां महान होती हैं वह महाश्वाक्ष -मोक्ष को---सिद्ध करते हैं जो महापुरुषों के इस विशेषण से विशिष्ट होता है। द्वारा प्राचरित (परिपालित) हैं, और जो स्वयं महासत्ता-१. सर्वपदार्थसार्थव्यापिनी सादश्यामहान है उन हिंसादि पापों के त्यागरूप व्रतों को स्तित्वसूचिका महासत्ता। (पंचा. का. अमृत. व. महावत कहते हैं। ४ हिंसादि से सर्वथा विरत ८)। २. समस्त वस्तुविस्तरव्यापिनी महासत्ता, होने का नाम महावत है।
समस्तव्यापकरूपव्यापिनी महासत्ता अनन्तपर्यायमहाश्रावक-१. एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्त- व्यापिनी महासत्ता । (नि. सा. व. ३४)। ३.
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महासुख] ९०१, जैन-लक्षणावली
[महोरग किन्तु सदित्यभिधानं यत्स्यात्सर्वार्थसार्थसंस्पशि। गाहमानश्च सकलमपि कलुषीकरोति, ततो न स्वयं सामान्यग्राहकत्वात् प्रोक्ता सन्मात्रतो महासत्ता। पातुं शक्नोति, नापि यूथम्, तद्वच्छिष्योऽपि यो (पंचाध्या. १-२६५) ।
व्याख्यानप्रबन्धावसरेऽकाण्ड एव क्षुद्रपृच्छाभिः कलह१ जो समस्त पदार्थसमूह मे व्याप्त होती हुई सादृश्य विकथादिभिर्वा आत्मनः परेषां चानुयोगश्रवणविके मास्तिक की सूचक है वह महासत्ता कहलाती है। घातमाधत्ते स महिषसमानः । स चैकान्तेनायोग्यः । महासुख-xxx निःस्पृहत्वं महासुखम् । (प्राव. नि. मलय. व. १३६, पृ. १४४)। . (ज्ञा. सा. १२-८, पृ. ४४) ।
१ जिस प्रकार भैसा पानी को गंदा करके न स्वयं निःस्पृहता-बाह्य विषयों की इच्छा न करना, यह पीता है और न अन्य पशुओं के समूह को पीने महासुख का लक्षण है।
देता है, उसी प्रकार जो कुत्सित शिष्य कलह, महास्कन्धवर्गणा-१. महाकंधवग्गणा णाम टंक- विकथा और असामयिक प्रश्नों के द्वारा तात्त्विक पव्वय-कूड़ादीण अस्सिया पोग्गला महाखंधा वुच्चंति। व्याख्यान के सुनने में बाधा पहुंचाता है उसे महिष (कर्मप्र. च.१-१८, पृ. ४३) । २. महास्वन्धवर्गणा नाम ये पुद्गलस्कन्धा विश्रसापरिणामेन टङ्क- महोशय-देखो क्षितिशयन व्रत । प्रसन्नप्रासुकाकूट-पर्वतादिसमाश्रिताः । (कर्मप्र. मलय. वृ. ऽनात्मसंस्कृतेला-शिलादिषु । एकपाश्र्वन कोदण्ड१-१८, पृ. ४८)।
दण्डशय्या महीशयः ।। (प्राचा. सा. १-४४) । १ टाँकी, पर्वत और कूट (पर्वतीय शिखर आदि) स्वच्छ, प्रासुक एवं प्रात्मसंस्कार से रहित पृथिवी के प्राश्रित जो पुदगलस्कन्ध हो
उन्हें महास्कन्ध- अथवा शिला प्रादि के ऊपर एक पार्श्वभाग (करवर्गणा कहा जाता है।
वट) से धनुष या दण्ड के समान शयन करना, यह महिमा --१. मेरूवमाणदेहा महिमा xxx। मुनि के २८ मूल गुणों में महीशय नाम का एक (ति. प. ४-१०२७) । २. मेरोरपि महत्तरशरीर- मूल गुण है । विकरणं महिमा । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३; महैषी (महेसी)-महः एकान्तोत्सवरूपत्वान्मोक्षः, चा सा. पृ. ९७)। ३. परमाणुपमाणदेहस्स मेरु- तमिच्छतीत्येवशीलो महैषी वा। (उत्तरा. सू. शा. गिरिसरिससरीरकरणं महिमा णाम । (धव. पु. ६, पृ. वृ. ४-१०, पृ. २२५)। ७५)। ४. महिमा महतः कायस्य करणं । (प्रा. 'मह' का अर्थ एकान्त उत्सवरूप मोक्ष है, उसकी योगिभ. ६, पृ. १६६) । ५. महन्महिमवान्मेरोरपि जो अभिलाषा करता है वह महेसी कहलाता है। कुर्याद्वपुः क्षणात् । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ८)। 'महेसी' इस प्राकृत भाषागत शब्द के संस्कृत में दो ६: महाशरी रविधान महिमा। (त. वृत्ति श्रुत. रूप होते हैं - महर्षि और महैषी। ऋषियों में जो
श्रेष्ठ हो उसे महर्षि कहा जाता है । १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से मेरुपर्वत के समान महोरग-१. महोरगा: श्यामावदाता महावेगा: विशाल शरीर किया जा सकता है उसका नाम । सौम्या: सौम्यदर्शना महाकायाः पृथुपीनस्कन्ध-ग्रीवा महिमा ऋद्धि है।
विविधानुविलेपना विचित्राभरणभूषणा नागवृक्षमहिला-पालं जणेदि पुरिसस्स महल्लं जेण तेण । ध्वजाः । (त. भा. ४-१२; बृहत्सं. मलय. वृ. महिला सा । (भ. श्रा. ९८१)।
५८)। २. सकारेण विकरणप्रिया: महोरगा: स्त्री चंकि पुरुष के महान माल-दोषारोपण को
१ जो व्यन्तर जाति के देव वर्ण से कृष्ण होते हए महिषसमान शिष्य-१. सयमवि न पियइ महिसो निर्मल, अतिशय वेगशाली, सुन्दर, सौम्यदर्शन, न य जूहं पियइ लोलियं उदगं । विग्गह-विकहाहि विशाल शरीर वाले, विस्तृत कन्धों व ग्रीवा से तहा अथककपुच्छाहिं य कुसीसो । (विशेषा. युक्त, अनेक प्रकार के विलेपनों से सहित, विचित्र १४७६)। २. यथा महिषो निपानस्थानमवाप्तः अलंकारों से विभूषित और नागवृक्ष की ध्वजा से सन् उदकमध्ये तदुदकं मुहुर्मुहुः शृंगाभ्यां ताडयन्नव- चिह्नित होते हैं उन्हें महोरग कहा जाता है।
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महोह ]
२ जिनको सर्प के आकार से विक्रिया करना रुचिकर होता है उनका नाम महोरग है । महोह - चतुरशीतिमहोहाङ्गशतसहस्राण्येकं महोहम् । ( ज्योतिष्क. मलय. वृ. ७० ) । चौरासी लाख महा ऊहाङ्गों का एक महोह ( महाकह ) होता है ।
०२. जैन - लक्षणावली
मंगल - १. गालयदि विणासयदे धादेदि दहेति हंति सोधयदे । विद्धंसेदि मलाई जम्हा तम्हा य मगलं भणिदं ॥ श्रहवा बहुभेयगयं णाणावरणादिदव्व-भाव मलभेदा । ताइं गालेदि पुढं जदो तदो मंगलं भणिदं ॥ अहवा मंगं सोक्खं लादि हु गेहेदि मंगलं तम्हा । एदेण कज्जसिद्धि मंगइ गच्छेदि गंथकत्तारो || पावं मलं ति भण्णइ उवचारसरूवण जीवाणं । तं गालेदि विणासं णेदित्ति भणति मंगलंई ॥ ( ति.प. १-६, १४-१५ व १७ ) । २. जं गालयते पावं मं लाइव कहममंगलं तं ते । जाय श्रणुष्णा सव्वा, कहमिच्छसि मंगलं तं तु । (बृहत्क. भा. ८०६ ) । ३. मंगिज्जएऽधिगम्मइ जेण हिप्रं तेण मंगलं होइ । श्रहवा मंगो घम्मो तं लाइ तयं समादत्ते ॥ श्रहवा निवायणाश्रो मंगलमिट्ठत्थपगइ-पच्चयो । सत्थे सिद्धे जं जह तयं जहाजोगमाग्रोज्जं ॥ मं गालयइ भवाश्री व मंगल मिह एवमाइनेरुता । भाति सत्यवसप्रो नामाइ चउव्विहं तं च ॥ (विशेषा. भा. २२-२४ ) । ४. मंगं नारकादिषु पवडतं सो लाति मंगलं, लाति गेण्हइत्ति वृत्तं भवति । ( दशवं. चू. पृ. १५) । ५. मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलम् मङ्गयतेऽधिगम्यते साध्यत इति यावत्, अथवा मंगेति धर्माभिधानम्, × × × मंगं लातीति मङ्गलम् धर्मोपादान हेतुरित्यर्थः, श्रथवा मां गालयति भवादिति मंगलम्, संसारादपनयतीत्यर्थः । ( श्राव. हरि. वृ. पृ. ४; दश. नि. हरि. वृ. १, पृ. ३ )। ६. मङ्गलं पुण्यं पूतं पवित्रं प्रशस्तं शिवं शुभं कल्याणं भद्रं सौख्यमित्येवमादीनि मंगलपर्यायवचनानि | X XX मङ्गलस्य निरुक्तिरुच्यते--मलं गालयति विनाशयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयतीति मंगलम् । ××× श्रथवा मंगं सुखम्, तल्लाति श्रादत्ते इति वा मंगलम् । उक्तं च — मङ्गशब्दोऽयमुद्दिष्ट: पुण्यार्थस्याभिधायकः । तल्लातीत्युच्यते सद्भिमंगलं मंगलार्थिभि: । ( बव. पु. १, पृ. ३१-३३ ) । ७. मंगलं
[ मंगल
मलं पापं गालयति विनाशयतीति, मंगं पुण्यं लात्यादत्ते इति वा मंगलम् । ( चारित्रभ. टो. ८) । ८. मथ्नाति विनाशयति शास्त्रपारगमनविघ्नान्, गमयति प्रापयति शास्त्रस्थैर्यम्, लालयति च श्लेष-यति तदेव शिष्य प्रशिष्यपरम्परायामिति मङ्गलम् । यद्वा मन्यन्ते श्रनापायसिद्धि गायन्ति प्रबन्धप्रतिष्ठिति लान्ति वा व्यवच्छिन्नसन्तानाः शिष्य-प्रशिव्यादयः शास्त्रमस्मिन्निति मङ्गलम् । (उत्तरा. शा.. वृ. पृ. २) । ६. मलं पापं गालयति विध्वऩयतीति मंगलम् । अथवा मंगं पुण्यं सुखम् तल्लाति प्रादत्ते गृह्णाति वा मंगलम् । (पंचा. का. जय. वृ. १, पृ. ५) । १०. मङ्गयतेऽधिगम्यते हितमनेनेति मंगलम् । अथवा मङ्ग इति धर्मस्याख्या, तं लाति श्रादत्ते इति मंगलम् । XX X यदि वा मां गालयति अपनयति भवादिति मंगलम् । मा भूद् गलो विघ्नो गालो वा नाशः शास्त्रस्यास्मादिति मंगलम् । ( जीवाजी. मलय. वृ. पृ. २) । ११. मयते श्रधिगम्यते, प्राप्यते इति यावत्, हितमनेनेति मंगलम् × × × अथवा मयते प्राप्यते स्वर्गोऽपवर्गो वा श्रनेनेति मंग:, मंगो नाम धर्मः XX X तं लाति श्रादत्ते इति मंगलम् XX X मंगो नाम धर्मः, धर्मोपादानहेतुरिति भाव:, XX X श्रपरे पुनरेवं व्युत्पत्तिमाचक्षते - मडु भूषायाम् मण्ड्यते शास्त्रमलं क्रियतेऽनेनेति मंगलम्, XXX मन्यते ज्ञायते निश्चीयते विघ्नभावोऽनेनेति मंगलम् । यदि वा 'मदै हर्षे' माद्यन्ति, विघ्नाभावेन हृष्यन्ति शिष्या अनेन, 'मह पूजायां' वा मह्यते पूज्यते शास्त्रमनेनेति मंगलम् X XX मां गालयति - अपनयति संसारादिति मङ्गलम्, यदि वा मलं पापं गालयति स्फेटयति मंगलम् मा भूत् गलो विघ्नोऽस्मादिति वा मंगलम् । (श्राव. मलय. वृ. पृ. ५) । १२. मां लाति दुर्गती पतन्तं गृह्णति पापं च गालयतीति मंगलम् । (बृहत्. क्षे. वृ. ८०९ ) । १३. मं मलं पापं गालयति मंगं वा पुण्यं लात्यादत्ते इति मंगलम् । ( न. घ. १-६ ) । १४. मलं पापं गालयति ध्वंसयति, भंगं पुण्यं लात्यादत्ते अस्मादिति मंगलम् । ( लघीय. अभय वृ. १) । १५. मलं पापं गालयन्ति मूलादुन्मूलयन्ति निर्मूलकाषं कपन्तीति मंगलम्, अथवा मंगं सुखं परमानन्दलक्षणं लान्ति ददति इति मंगलम् । एते पञ्चपरमेष्ठिनो मंगल-
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मंगलचैत्य ९०३, जैन-लक्षणावली
[मंडलिक, मंडलीक मित्युच्यन्ते । (भावप्रा. टी. १२२) ।
वृ. १२-७८, पृ. २३३)। १ 'म' नाम मल का है। जो पापरूप मल को नष्ट जिस योग में सूर्य, चन्द्र व नक्षत्र मचान के प्राकार करता है उसे मंगल कहते हैं, अथवा द्रव्य व भाव में रहते हैं उसे मंचयोग कहा जाता है। यह ज्योमल के भेदभूत जो अनेक प्रकार का ज्ञानावरणादि तिष शास्त्र में प्रसिद्ध दस योगों में तीसरा है। रूप मल है उसे जो गलाता है-नष्ट करता है- मंचातिमंचयोग-मञ्चात् व्यवहारप्रसिद्धात् द्विउसे मंगल कहा जाता है; अथवा मंग नाम सुख का। त्रादिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चो मञ्चातिहै, उसको जो लाता है-प्राप्त कराता है- मञ्चस्तत्सदृशो योगोऽपि मञ्चातिमञ्चः । (सूर्यप्र. वह मंगल कहलाता है। ३ गमनार्थक मङ्ग धातु मलय. वृ. १२-७८, पृ. २३३)। से अल् प्रत्यय होकर मंगल शब्द बना है, उसका जो मचान सामान्य मचान से दो-तीन खण्डों के अर्थ यह है कि जिसके द्वारा हित जाना जाता है रूप में अतिशय युक्त होता है उसे मंचातिमंच कहते या सिद्ध किया जाता है वह मंगल कहलाता है। हैं। जिस योग में सूर्य, चन्द्र व नक्षत्र मंचातिमंच अथवा व्याकरणप्रसिद्ध अभीष्ट प्रकृति-प्रत्ययरूप के प्राकार रहते हैं उसे मंचातिमंचयोग कहा निपातन क्रिया से मंगल शब्द सिद्ध होता है, तदनु. जाता है । सार यथायोग्य प्रायोजन करना चाहिए। अथवा मंडनधात्री दोष-बालं स्वयं मण्डयति मण्डन'म' का संस्कृतरूप 'माम्' होता है-तदनुसार निमित्त बा कर्मोपदिशति यस्मै दा स तेन भक्तः जो मुझे ससार से छुड़ाता है-मुक्ति प्राप्त कराता । सन् दानाय प्रवर्तते, तद्दानं गृह्णाति साधुस्तस्य है -उन मंगल जानना चाहिए। अथवा 'म' का मण्डनधात्रीनामोत्पादनदोषः । (मला. वृ. ६-२८)। अर्थ निषेधवाचक मा और 'गल' का अर्ध विघ्न बालकों को स्वयं सजाता है तथा सजाने की विधि होता है। तदनुसार यह अभिप्राय हुआ कि शास्त्र का जिस दाता के लिए उपदेश देता है वह दाता परिसमाप्ति में विघ्न मत होमो, इसके लिए मंगल उससे प्रेरित होकर दान में प्रवृत्त होता है। साधु किया जाता है।
उस दाता के दान को यदि ग्रहण करता है तो मंगलचंत्य - देखो मंगलकारिता जिनप्रतिमा। उसके मण्डनधात्री नाम का उत्पादन दोष होता है। १. अरहतपइट्टाए महुरानयरीए मंगलाई तु। मंडल (देश)- सर्वकामदुधात्वेन पतिहृदयं मण्डगेहेसु चच्चरेसु य छन्नउईगाम अद्धेसु । (बृहत्क. यति भूषयतीति मण्डलम् । (नीतिवा. १६-४, पृ. १७७६) । २. मथुरापुर्यां गृहेषु कृतेषु मङ्गलनिमित्तं १६१) । यद् निवेश्यते तद्मङ्गलचैत्यम् । (बृहत्क. क्षे. वृ. जो कामधेनु के समान पति (राजा) की इच्छानों १७७४ ।। ३. मङ्गलचैत्यं गृहद्वारदेशादिनिकुट्टित- की पूर्ति का कारण होने से उसके हृदय को मण्डित प्रतिमारूपम् । (जीतक. चू. वि. प. व्या. ७-२४, या भूषित करता है उसे मण्डल कहा जाता है। पृ. ४०) ।
मंडलस्थान-१. मण्डलं नाम दोवि पाए दाहिण१ मथुरा नगरी में गहों की रचना करते हुए घरों वामहत्ता ऊण्णो (दोण्हं) अन्तरा चत्तारि पया। में और चत्वरों में-चौक या चौरास्तों में- (प्राव. नि. मलय. व. १०३६, पृ. ५६७ । मंगल के निमित्त जो प्ररहंत प्रतिमानों की प्रतिष्ठा २. द्वावपि पादौ समौ दक्षिण-वामतोऽपसार्य ऊरू की जाती है उसे मंगलचैत्य कहा जाता है। प्रसारयति यथा मध्ये मण्डलं भवति अन्तरा चत्वारः मंगल्यकारिता जिनप्रतिमा-मङ्गल्यकारिता या पादास्तत् मण्डलम् । (व्यव. भा. मलय. व. पी. गृहेषु द्वारपत्रेषु मङ्गलाय कार्यन्ते । (योगशा. स्वो. द्वि वि. १-३५, पृ. १३)। विव. ३.-१२०)।
२ योद्धानों के जिस स्थान विशेष में दोनों सम पांवों जो जिनप्रतिमायें मंगल के निमित्त घरों में प्रौर को दाहिनी और बायीं पोर हटाकर जंघानों को द्वारपत्रों में की जाती हैं उन्हें मंगलकारिता जिन- फैलाते हुए चार पादों का अन्तर रखा जाता है प्रतिमा कहा जाता है।
उसे मण्डलस्थान कहते हैं। मंचयोग-मञ्चो मञ्चसदृशः । (सूर्यप्र. मलय. मंडलिक, मंडलोक-१. चउराजसहस्साणं अहि
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मंडली वात]
राम्रो होइ मण्डलिओ । ( ति प १-४६) । २. मण्डलिकश्च तथा स्याच्चतुः सहस्रावनीशपतिः । ( धव. पु. १, पृ. ५७ उद्) । ३. चतुः सहस्रराजस्वामी मण्डलिकः । ( त्रि. सा. वृ. ६८५ ) । १ चार हजार राजानों का जो श्रधिपति होता है वह मण्डलिक या मण्डलीक कहलाता है । मंडलीवात मण्डलाकृतिरामूलात् मण्डलीवात उच्यते । ( लोकप्र. ५ - २५ ) ।
प्रारम्भ से मण्डलाकार में जो वायु उठती है उसे मंडलीबात कहते हैं ।
मंडूकगति - जण मंडयो फिडिता गच्छति से तं मण्डूयगती । (प्रज्ञाप. २०५, पृ. ३२६ ) । मेंढक जो उछल कर जाता है उसे मण्डूकगति कहते हैं ।
६०४, जंन - लक्षणावली
मंदभाव - १ तद्विपरीतो ( बाह्याभ्यन्तर हेत्वनुदीरणवशादनुद्रिक्तः परिणामः ) मंदः । ( स. सि. ६ - ६ ) । २. अनुदीरणप्रत्ययसन्निधानात् उत्पद्यमानोऽनुद्रिक्तः परिणामो मन्दनात् गमनात् मन्द इत्युच्यते । (त. वा. ६, ६, २ ) । ३. मन्दते अल्पो भवति अनुत्कटः संजायते यः परिणामः स मन्द उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-६ ) ।
१ बाह्य और अभ्यन्तर कारणों की श्रनुदीरणा से जो जीव का अनुत्कट परिणाम होता है उसे मंदभाव कहते हैं ।
मागध प्रस्थ - १. चत्तारि चेत्र कुलवा पत्थ पुण मागहो होइ । ( ज्योतिष्क २५ ) । २. चत्वारश्च कुडवा एकत्र पिण्डिता एक प्रस्थो मागधो भवति । (ज्योतिष्क मलय. वृ. २५) ।
१ चार कुडवों का एक मागध प्रस्थ ( मगध देश का एक मापविशेष ) होता है । माडम्बिक - १ माडम्बिक: छिन्नमण्डलाधिपः । ( अनयो. हरि वृ. पृ. १६) । २. यस्य प्रत्यासन्न ग्राम-नगरादिकमपरं नास्ति तत्सर्वतश्छिन्नं जनाश्रयविशेषरूपं मडम्बम् तस्याधिपतिर्माडिम्बिकः । ( जीवाजी. मलय. वृ. १४७ ) ।
२ जिस स्थान के निकट दूसरे गांव व नगरादि -नहीं रहते ऐसे सब श्रोर से छिन्न जनों के श्राश्रयभूत स्थानविशेष का नाम मडम्ब है । इस प्रकार के मडम्ब के स्वामी को माडम्बिक कहा जाता है ।
[मातृका पदास्तिक
माणवक निधि
देखो नैसर्प व पाण्डनिधि । १. जोहान य उप्पत्ती श्रावरणाणं च पहणाणं च । सव्वा य जुद्धणीई माणवगे दंडणीई । ( जम्बूद्री. ६६, पृ. २५६-५७ ) । २. काल - महाकाल पडू माणव XXX। उडुजोग्गदव्ब भायण- घण्णायुहXXX देंति कालादिया कमसो ॥ ( ति. प. ४, ७३६-४० ) । ३. काल - महाकाल - माणव XXX उडुजोग्गकुसुमदामपहूदि भायणयमाज्हाभरणं । X X X अणुक्रमसो । (त्रि. सा. ८२१-२२) । ४. योधानामायुधानां च सन्नाहानां च संपदः । युद्धनीतिरशेषापि दण्डनीतिश्च माणवात् । (त्रि. श. पु. च. १, ४, ५८१ ) ।
१ जिस निधि में योद्धानों, श्रावरणों ( ढाल व कवच आदि) और अस्त्र-शस्त्रों की उत्पत्ति तथा सब युद्धनीति एवं दण्डनीति कही जाती है यह मानवनिधि कहलाती है । २ माणवनिधि श्रायुधों को दिया करती है ।
माण्डलिक - देखो मंडलिक । माण्डलिक : सामान्यराजाऽल्पद्धिकः । (जीवाजी. मलय. वृ. ३६) । श्रल्प ऋद्धि के धारक साधारण राजा को माण्डलिक कहा जाता है ।
माण्डूकप्लुतयोग- -तत्र माण्डूकप्लुत्या यो जातो योगः स माण्डूकप्लुतः, स च ग्रहेण सह वेदितव्यः । ( सूर्यप्र. मलय. वृ. १२ - ७६, पृ. २३३) ।
मेंढक के उछलने से जो योग निष्पन्न होता है वह मण्डूकप्लुत योग कहलाता है । उक्त योग ग्रह के साथ जानना चाहिए ।
मातृका पदास्तिक - व्यवहारनयानुसारि मातृकापदास्तिकम् 1 XX X सन्मात्रं शुद्धद्रव्यमात्र वा विद्यमानमपि न जातुचिद् व्यवहारक्षमम्, अतः स्थूल कतिपय व्यवहारयोग्य विशेषप्रधानं मातृकापदास्तिकम् । ( त. भा. सिद्ध वृ. ५-३१, पृ. ४०० ) ।
सत् मात्र प्रथवा शुद्ध द्रव्य मात्र विद्यमान रहकर भी कभी व्यवहार में समर्थ नहीं होता, अतः व्यव हार के योग्य कुछ विशेषों की प्रधानतायुक्त मातृकापास्तिक सत् होता है । यह व्यवहारनय का अनुसरण करने वाला है, जब कि द्रव्यास्तिक संग्रहनय का अनुसरण करता है ।
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मात्सर्य (अतिचारविशेष ) ]
१.
वा
मात्सर्य ( श्रतिचार विशेष ) देखो मत्सर । प्रयच्छतोऽप्यादराभावोऽन्यदातृगुणासहनं मात्सर्यम् । ( स. सि. ७-३६ ) । २. प्रयच्छतोप्यादराभावो मात्सर्यम् । प्रयच्छतोऽपि सतः श्रादरमन्तरेण दानं मात्सर्यमिति प्रतीयते । (त. वा. ७, (३६, ४) । ३. मात्सर्यमिति याचितः कुप्यते सदपि न ददाति परोन्नतिवैमनस्यं च मात्सर्यमिति । तेन तावद् द्रमकेण दत्तम्, किमहं ततोऽपि न्यूनः इति मात्सर्याद् ददाति कषायकलुषितेन वा चित्तेन ददतो मात्सर्यमिति । ( श्रा. प्र. टी. ३२७) । ४. प्रयच्छतो ऽपि सत श्रादरमन्तरेण दानं मात्सर्यम् । (चा. सा. पृ. १४) ५. मत्सरः प्रसहनं साधुभिर्याचितस्य कोपकरणं तेन रङ्कन याचितेन दत्तमहं तु किं ततोऽपि हीन इत्यादिविकम्पो वा, सोऽस्यातीति मत्सरी, तद्भावो मात्सर्यम् । (ध. बि. मु. वृ. ३, ३४) । ६. यद् दानं प्रददन्नपि आदरं न कुरुते प्रपरदातृगुणान् न क्षमते वा तन्मात्सर्यमुच्यते । ( त. वृत्ति श्रुत. ७-३६) । ७ प्रयच्छन्नच्छमन्नादि गर्वमुहते यदि । दूषणं लभते सोऽपि महामात्सर्य संज्ञकम् । (लाटीसं. ६-३० ) ।
१ श्राहारादि को देते हुए भी आदरभाव न रखना तथा अन्य दाता के गुणों को सहन न करना, इसे मात्सर्य कहा जाता है । यह प्रतिथिसंविभागवत का एक प्रतिचार है । ३ याचना करने पर क्रोध करना, देय द्रव्य के होते हुए भी न देना, दूसरे की उन्नति में खिन्न होना, तथा याचना करने पर उस दरिद्र ने तो दिया है, क्या मैं उससे भी हीन हूँ, इस प्रकार ईर्ष्याभाव से अथवा कषाय- कलुषित हृदय से देना, यह मात्सर्य नामक प्रतिथिसंविभागव्रत का एक प्रतिचार है । मात्सर्य (ज्ञानप्रतिबन्धक कारण ) - १. कुतश्चित्कारणाद् भावितमपि विज्ञानं दानामपि यतो न दीयते तन्मात्सर्यम् । ( स. सि. ६-१० ) । २. याव द्यथावद्वेयज्ञानाप्रदानं मात्सर्यम् । कुतश्चित्कारणादात्मना भावितज्ञानं दानामपि योग्याय यतो न दीयते तन्मात्सर्यम् । (त. वा. ६, १०, ३) । ३. याबहाथावद्वेषस्य [देयस्या- ] प्रदानं मात्सर्यम् । (त. इलो. ६–१०) । ४, श्रात्मसदभ्यस्तमपि ज्ञानं दातुं योग्यमपि दानयोग्यायापि पुंसे केनापि हेतुना यन्न दीयते
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ल. ११५
[मान ( मापविशेष )
तन्मात्सर्यमुच्यते । (त. वृत्ति भुत. ६-१० ) । १ किसी कारण से अभ्यस्त या सुसंस्कृत और देने योग्य ज्ञान के होते हुए भी जिस कारण से उसे दिया नहीं जाता है उसे मात्सर्य कहा जाता है । यह ज्ञानावरण के बन्धक कारणों में से एक है । माध्यस्थभावना -- १. राम-द्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थम् । ( स. सि. ७-११; त. इलो. ७-११) ० २. माध्यस्थ्य मौदासीन्यमुपेक्षेत्यनर्थान्तरम् । (त. भा. ७-६ ) । ३. राग-द्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थ्यम् । रागात् द्वेषाच्च कस्यचित् पक्षे पतनं पक्षपातः, तदभावात् मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, मध्यस्थस्य भावः कर्म वा माध्यस्थ्यम् । (त. वा. ७, ११, ४) । ४. हर्षामर्षोज्झिता वृत्तिर्माध्यस्थ्यं निर्गुणात्मनि । ( उपासका ३३७) । ५. क्रोधविद्वेषु सत्त्वेषु निस्त्रिशक्रूरकर्मसु । मधु-मांस - सुरान्यस्त्रीलुब्धेष्वत्यतपापिषु ॥ देवागम-यतिव्रातनिन्दकेष्वात्मशंसिषु । नास्तिकेषु च माध्यस्थ्यं यत्सोपेक्षा प्रकीर्तिता ॥ ( ज्ञाना. २७, १३ – १४, पृ. २७३ ) । ६. रागद्वेषयोरन्तरालं मध्यम्, तत्र स्थितो मध्यस्थः रागद्वेषवृत्तिः, तद्भावो माध्यस्थ्यमुपेक्षा । ( योगशा. स्व. विव. ४-११७ ) ; क्रूरकर्मसु निःशंकं देवतागुरुनिन्दिषु । श्रात्मशसिषु योपेक्षा तन्माध्यस्थमुदीरितम् । (योगशा. ४ - १२१ ) । ७. प्रतिमि याविनः पापा मद्य मांसातिलोलुपाः । नाराध्या न विराध्यास्ते मधास्यमिति भाव्यते । ( धर्मसं. श्री. १०- १०५) । ८. मध्यस्यस्य भावः कर्म वा माध्य स्थं राग-द्वेषजनितपक्षपातस्याभाव: माध्यस्थम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-११) ।
६०५, जैन- लक्षणावली
१ राग या द्वेष के वशीभूत होकर पक्षपात न करना, इसका नाम माध्यस्थ्य है । २ माध्यस्थ्य, उदासीनता और उपेक्षा ये समानार्थक शब्द हैं ।
माध्यस्थ्य - देवो माध्यस्थभावना ।
मान ( मापविशेष ) - १. प्रस्थादि मानम् । (त. वा. ७, २७, ४) । २. प्रस्थः चतुः सेरमानम्, तत्काष्ठादिना घटितं मानमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२७) ।
१ प्रस्थ ( चार कुडव प्रमाण) प्रति रूप मापने के उपकरण मान कहलाते हैं ।
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मान ( कषायविशेष ) ]
मान ( कषायविशेष ) - १. जात्याद्युत्सेकावष्टम्भात् पराप्रणतिर्मान: । (त. वा. ८, ६, ५) । २. स्वगुणकल्पनानिमित्तत्वेऽप्रग [ण ] तिर्मानः । (त. भा. हरि. वृ. ८- २ ) । ३. रोषेण विद्या- तपोजात्यादिमदेन वा ऽन्यस्यावनतिः मानः । (घव. पु. १, पृ. ३४६ ) ; मानो गर्वः स्तब्धमित्येकोऽर्थः । ( घव. पु. ६, पृ. ४१ ); विज्ञानैश्वर्य जाति कुल तपो विद्याजनितो जीवपरिणामः श्रौद्धत्यात्मको मानः । ( चव. पु. १२, पृ. २८३ ) । ४. स्वगुणपरिकल्पनानिमित्तत्वात् श्रप्रणतिर्मानः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८-२ ) । ५. दुरभिनिवेशामोक्षो यथोक्ता (ध. बि. व श्राद्धगु. 'युक्तोक्ता' - ) ऽग्रहण वा मान: । ( नीतिवा. ४-५, पृ. ४०; ध. बि. मु. वृ. १-१५, पृ. ७; श्रद्धग्. पृ. ८० ) । ६. परुषेष्यं मनो मानो निर्दयः परमर्दनः । स्वोन्नतानत्यहंकारः परासनलक्षणः ॥ (लाचा. सा. ५–१७) । ७. जात्यादिगुणवानहमेवे - त्येवं मननम् श्रवगमनं मन्यते वा ऽनेनेति मानः । ( स्थानां. अभय. वृ. २४८, पृ. १६३) । ८. चतुरसन्दर्भ गर्भीकृत वैदर्भ कवित्वेन प्रादेयनाकर्मोदये सति सकलजनपूज्यतया मातृ-पितृसम्बन्ध कुलजातिविशु
या वा शतसहस्रकोटिभटाभिघान ब्रह्मचर्य व्रतोपाजित निरुपमबलेन च दानादिशुभकर्मोपार्जित संपद्वृद्धिविलासेन अथवा बुद्धि-तपोर्वकुर्वणौषध-रस
लाक्षीणद्धिभिः सप्तभिर्वा कमनीयका मिनीलोचनानन्देन वपुलवण्यरसविरसेण वा श्रात्माहंकारो मानः । (नि. सा. टी. ११२ ) । ६. दुरभिनिवेशा - रोही युक्तोक्ताग्रहणं वा मानः । (योगशा. स्व. विव. १-५६, पृ. १५६-६०; धर्मसं. मान. स्वो. यू. पू. ५) । १०. मानो गर्यो जात्याद्युद्भवममार्दवम् । (शतक. मल. हेम. वृ. ३८; कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. ८४) । ११. मानो गर्वपरिणामः । ( जीवाजी. मलय. वृ. १३) । १२. मानो जात्यादिसमुस्थोऽहङ्कारः । ( कर्मवि. दे. स्त्री. वृ. १७) । १३. मान: दुरभिनिवेशामोचनं युक्तोक्ताग्रहणं वा ( सम्बो. स. टी. ४) ।
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६०६, जैन-लक्षणावली
१ जाति आदि के प्राश्रय से दूसरों के प्रति नत्रतापूर्ण प्रवृत्ति न करना, इसका नाम मान है । २ अपने गुणों की कल्पना के निमित्त से नम्रतापूर्ण व्यवहार न करने को मान कहा जाता है । ५ दूषित अभिप्राय (कदाग्रह) को न छोड़ना अथवा यथोक्त
[मानव
- शिष्ट जनके द्वारा कहे गये वचन को ग्रहण न करना, इसे मान कहते हैं । मानक्रिया - १. मानक्रिया अहंकृतिरूपा । ( गु.
गु. षट्. स्व. वृ. १५) । २. जात्यादिमदे: परहीलनं मानक्रिया । ( धर्मसं. मान. स्वो वृ. ८७, पू. ८२ ) । १ ग्रहंकार रूप क्रिया का नाम मानक्रिया है । मानदोष – १. मानं गवं कृत्वा यद्यात्मनो भिक्षादिकमुत्पादयति तदा मानदोषः । (मूला. वृ. ६, ३४) । २. मानेनान्नार्जनं मानः । ( भावप्रा. टी. εε) 1
१ श्रभिमान को प्रगट करके यदि साधु अपने लिये भिक्षा ( श्राहार) आदि को उत्पन्न करता हैं तो यह उसके लिए मान नामक एक उत्पादनदोष होता है ।
माननिःसृता श्रसत्यभाषा - सा माणणिस्सिया खलु माणाविट्ठो कहेई जं भासं । जह बहुघणवतोऽहं हवा सव्वंपि तव्वयणं || ( भाषार. ४२ ) । मान से युक्त होकर जो वचन बोलता है उसे माननिःसृता श्रसत्यभाषा कहा जाता है। जैसे—मैं बहुत धनवान् हूं, श्रथवा मानी के सभी वचन को माननिःसृता श्रसत्यभाषा समझना चाहिए । मानपिण्ड- देखो मानदोष । १. श्रोच्छाहिश्रो परेण व लद्धिपसंसाहि वा समुत्तइ । श्रवमाणिश्रो परेण य जो एसइ माणपिंडो सो । ( पिण्डनि. ४६५ ) । २. लब्धिप्रशंसोत्तानस्य परेणोत्साहित - स्यावमतस्य वा गृहस्थाभिमानमुत्पादयतो मानपिण्ड: । (योगशा. स्वो विव. १-३८, पृ. १३५; धर्मसं. मान. स्वो वृ. ३- २२, पृ. ४१ ) । ३. प्रशंसितोऽपमानितो वा दातुरभिमानोत्पादनेन यल्लभते स मानपिण्डः । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २०, पृ. ४६) ।
१ दूसरे साधु यादि के द्वारा उत्साहित करके, लब्धि ( ऋद्धि) व प्रशंसा से गर्वयुक्त करके प्रथवा अपमानित करके जो भोजन को खोजता है उसके मानपिण्ड नाम का यह उत्पादन दोष होता है । मानव - या देयानि मन्यन्ते ये मनोज्ञानलोचनाः । द्वेषा म्लेच्छार्यभेदेन मानवास्ते निवेदिता: । (पंचसं. प्रमित. १-१३९ ) ।
जो मनजनित ज्ञानरूप नेत्रों से युक्त होते हुए हेय
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मालवयोजन ]
और उपादेय पदार्थों को मानते हैं-जानते हैं - वे मानव कहलाते हैं । मालवयोजन- चतुर्गव्यूतिभिर्मानवयोजनं भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३८ ) ।
चार गव्यूतियों का एक मानव ( उत्सेध) योजन होता है ।
[मानान्यत्व
मन की प्रसन्नता, स्वभावतः शान्त परिणति, मौन, प्रात्मदमन और परिणामों को निर्मलता; इसे मानस तप कहा जाता है ।
मानस मणम्मि भवं लिंगं माणसं, अधवा मणो चेव माणसो । (घव. पु. १३, पृ. ३३२); माणसं पोइदियं मणोवग्गणखंघ णिव्वत्तिदं ××× । ( धव. पु. १३, पृ. ३४१ ) ।
मानस ध्यान - मानसं त्वेकस्मिन् वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता । (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. १६४२ ) । एक वस्तुविषयक मन की एकाग्रता को मानस ध्यान कहा जाता है । मानसासमीक्ष्याधिकरण --- देखो असमीक्ष्याधिकरण | मानसं (समीक्ष्याधिकरणं) परानर्थककाव्यादिचिन्तनम् । (त. वा. ७, ३२, ५, चा. सा. पृ. १० ) ।
मनवर्गणा से रचित नोइन्द्रिय ( मन ) का नाम मानस है ।
मानस श्रविनय -- यत्किञ्चिल्लब्ध्वा गुरवस्तुष्यन्ति लघुप्रायचित्तदायिनो भविष्यन्तीति स्वबुद्धया असद्दोपाध्यारोपणान्मानसोऽविनयः (मूला. 'रोपणाद्धि मानसो विनयः) । ( भ. प्रा. विजयो. व मूला. ५६४ ) ।
दूसरों के निरर्थक काव्य श्रादि के चिन्तन को मानस श्रमीक्ष्याधिकरण कहा जाता है । मानसिक अर्थ - मनोवग्गणाए णिव्वत्तियं हिययपउम मणो णाम । मणोजणिदणाणं वा मणो वुच्चदे | मणसा चितिदट्ठा माणसिया । ( धव. पु. १३, पृ. ३५० ) । मनवर्गणा से निर्मित हृदय कसल का नाम मन है, अथवा मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को मन कहा जाता है। इस प्रकार के मन से जिन पदार्थों का चिन्तन किया जाता है वे मानसिक अर्थ कहलाते हैं ।
कुछ भी पाकर गुरु सन्तुष्ट होंगे व लघु ( साधारण) प्रायश्चित्त देंगे, इस प्रकार अपनी बुद्धि से गुरु के विषय में श्रसत् दोष का श्रारोप करने से मानस श्रविनय होता है ।
मानस अशुभयोग - देखो श्रभिघ्या, असूया और मानसिक विनय - १. पाप-विसोत्तिनपरिणामईर्ष्या । अभिध्या व्यापादेष्यसूयादीनि
मानसः ।
वज्जणं पिय-हिदे य परिणामो । णादव्वो संखेवेणंसो माविण ॥ ( मूला. ५- १८२ ) । २. माणसिश्रो पुण विणओ दुविहो उ समासप्रो मुणीयव्वो । प्रकुसल मणोनिरोहो कुसलमण- उदीरणं चेव । ( व्यव. भा. पी. १-७७, पृ. ३०) 1 ३. अकुशलस्य) ध्यानाद्युपगतस्य मनसो निरोधः अकुशलमनोनिरोधः, कुशलस्य धर्मध्यानाद्युत्थितस्य मनस उदीरणं मानसिको विनयः । ( ब्यव. भा. मलय. वृ. पी. १-७७) ।
१ पापस्वरूप विरुद्ध श्राचरण की परिणति को रोकना तथा प्रिय एव हितकर मार्ग में परिणत ( तत्पर) रहना, इसका नाम मानसिक विनय है । २ मानसिक विनय दो प्रकार का है, अकुशलदुर्ध्यान को प्राप्त- मन को रोकना और कुशलसमीचीन ध्यान जो प्राप्त मन को उद्यत करना, इसे मानसिक विनय कहा जाता है । मानान्यत्व -- देखो हीनाधिकमानोन्मान । तथा मीयतेऽनेनेति मानं कुडवादि पलादि हस्तादि, तस्या
६०७, जैन-लक्षणावली
( त. भा. ६-१ ) । श्रभिध्या, व्यापाद, ईर्ष्या और प्रसूया श्रादि को मानस प्रशुभ योग कहा जाता है । श्रपाय सहित उत्पादन का नाम व्यापाद है । जैसे—इसका शत्रु इन्द्र का घातक वज्र है, भ्रतः उसी को कुपित करता हूं ।
मानस - समीक्ष्याधिकरण - देखो मानसासमीक्ष्याधिकरण |
मानस जप - मानसो मनोमात्रवृत्तिनिर्वृत्तः स्वसंवेद्यः । (निर्वाणक. पृ ४) ।
एक मात्र मन के व्यापार से जो जप होता है उसे मानस जप कहते हैं; वह स्वसंवेद्य होता है - श्रपने श्राप ही जाना जाता है। तीन प्रकार के जप में यह प्रथम है ।
मानस तप- मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतन्मानसं तप उच्यते । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. २, पृ. ६ उद्) ।
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मानुष ]
न्यत्वं हीनाधिकत्वम् — होनमानेन ददाति अधिकमानेन गृह्णाति । (योगशा. स्वो विव. ३-१२, पृ. ५५४)।
कुडव, पल और हस्त प्रादि मान कहलाते हैं । उनको भिन्न रखना - -हीन ( कम ) मान से देना और अधिक मान से लेना, इसका नाम मानान्यत्व है । यह प्रचर्यव्रत को दूषित करने काला एक प्रतिचार है ।
मणेण णिउणा
पृ. ३६२ ) ।
मानुष- - १. मण्णंति जदो णिच्वं जदो टू जे जीवा । मणउक्कडा य जम्हा तम्हा ते माणुसा भणिया । ( प्रा. पंचसं. १-६२ ) । २. अथवा मनमा निपुणाः मनसा उत्कटा इति वा मनुष्याः । ( व. पु. १, पृ. २०२ - २०३ ); मण्णंति जदो णिच्च मणेण णिउणा मणुक्कडा जह्मा । मणुउब्भवा य सब्वे तह्मा ते माणुसा भणिया । ( घव पु. १, पृ. २०३ उद्; गो. जी. १४६ ) ; मनसा उत्कटाः मानुषाः । ( धव. पु. १३, १ जो जीव मन से निपुण होकर सदा पदार्थों को मानते हैं-जानते हैं - तथा मन से उत्कट ( प्रखर ) होते हैं उन्हें मानूस (मनुष्य) कहा जाता है । मानुषोत्तर शैल - १. प्रव्भन्तरम्मि भागे टंकुक्किण्णो बहिम्मि कमहीणो । सुर-खेयरमणहरणो श्रणाइणिणो सुवण्णणिहो । ( ति प ४ -२७५१) । २ ते टंकच्छिण्णो बाहि कमवड्ढि हाणि कणयणिहो । दिणिग्गमपहचोद्दस गुहाजुदो माणुसुत्तरगो । (त्रि. सा. ३७ ) । १ पुष्कर द्वीप के मध्यगत जो सुवर्ण सदृश पर्वत अभ्यन्तर भाग में टांकी से उकेरे गये के समान (भित्ति के समान हानि-वृद्धि से रहित ) तथा बाह्य भाग में क्रम से ऊपर होन होता गया है, उसका नाम मानुषोत्तर है और वह अनादि विधन है ।
६०८, जैन-लक्षणावली
माया - १. चारित्रमोहकर्मविशेषस्योदयादाि भूतात्मनः कुटिलभावो माया निकृतिः । ( स. सि. ६-१६) । २. चारित्रमोहोदयात् कुटिलभावो माया 1 चारित्रमोहकर्मोदयाविर्भूत आत्मनः कुटिल स्वभादो मायेति व्यपदिश्यते । (त. वा. ६, १६, १ ) ; परातिसन्धानतयोपहितकौटिल्यप्रणिधिर्माया प्रत्यासन्नवंशपर्वोपचितमूलमेष - मोमूत्रिका लेखनीसदृशी चतुविधा । (त.
प्रायः
,
[मायाक्रिया
वा. ८, ६, ५) ३ मिमीते परानिति माया । ( त. भा. हरि. वृ. ७ - १३ ) ; परातिसन्धाननिमित्तः छद्मप्रयोगो माया । ( त. भा. हरि वृ. ८-२ ) | ४. निकृतिर्वञ्चना मायाकषायः । ( घव. पु. १, पृ. ३४९ ) ; माया निकृतिर्वञ्चना अनृजुत्वमिति पर्यायशब्दाः | ( धव. पु. ६, पृ. ४१ ) । स्वहृदयप्रच्छादनार्थमनुष्ठानं माया । ( धव. पु. १२, पृ. २८३) । ५. पचरा - [ श्रपरा ] भिसन्धाननिमित्तश्छप्रयोगो माया । ( त. भा. सिद्ध वृ. ८-२) । ६. मानं हिंसनं वञ्चनं इत्यर्थो मीयते वाऽनयेति माया | (स्थानां. अभय वृ. २४८, पृ. १६३) । ७. माया वञ्चनाद्यात्मिका जीवपरिणतिः । ( शतक. मल. हेम. वृ. ३८ ) 1 ८. माया स्वप्नेन्द्रजालादि: । ( श्री. मी. वसु. वृ. ८४) । ६. नानाप्रतारणोपायैर्वचनाकुलिता मतिः । माया विनयविश्वासाऽऽभासचेतोहराकृतिः ॥ ( प्राचा. सा. ५, १८) । १०. माया निकृतिरूपा । (जीवाजी. मलय. बृ. १३) । ११. माया वञ्चन - प्रतिकुञ्चनाद्यात्मिका परिणतिः । ( कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. ८४) । १२. माया परवञ्चनाद्यात्मिका । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. १७) ।
१ चारित्रमोहनीय के भेदभूत मायाकषाय के उदय से जो जीव के कुटिल परिणाम उत्पन्न होता है उसे माया कहते हैं, दूसरे शब्द से उसे निकृति भी कहा जाता है । ३ दूसरे के ठगने का कारणभूत जो कुटिलतापूर्ण प्रयोग है उसका नाम माया है । मायाक्रिया - देखो मायाप्रत्यया क्रिया । १. ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया । ( स. सि. ६–५, त वा. ६, ५, ११) । २. दुर्वक्तृकवचो ज्ञानादी सा मायादि (?) किया परा ।। (त. श्लो. ६, ५, २४) । ३. मायाक्रिया तु मोक्षसाधनेषु ज्ञानादिषु मायाप्रधानस्य प्रवृत्तिः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६ ) । ४. चित्तकौटिल्यप्रधाना मायाक्रिया | ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. १५) । ५. ज्ञान-दर्शनचारित्र तपस्सु तद्वत्सु पुरुषेषु च मायावचनं वंचना - करणं मायाक्रिया । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - ५ ) | ६. कौटिल्येनान्यद्विचिन्त्य वाचाऽन्यदभिधायान्यदाचर्यते यत्सा मायाक्रिया । (धर्मसं. मान. स्वो वृ. ३-८७, पृ. ८२) ।
१ ज्ञान दर्शनादि के विषय में कुटिलता का परिणाम
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मापागता चूलिपा] ९०६, जैन-लक्षणावली
[मायाशल्य रखना, इसका नाम मायाक्रिया है।
वचन को प्रथवा उसके सभी कथन को मायानि:मायागता चूलिका-१. मायागया तेत्तिएहि चेय सृता असत्यभाषा कहा जाता है । पदेहि २०६८६२०० इदंजालं वण्णेदि। (धव. पु. मायापिण्ड-१. नानावेष-भाषापरिवर्तनं भिक्षार्थं १, पृ. ११३); मायागतायां द्विकोटि-नवशतसह- कुर्वतो मायापिण्डः। (योगशा. स्वो. विव. १-३८%) स्रकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०६८६२०० माया- धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-२२, पृ. ४१) । २. एककरणहेतुविद्या-मंत्र-तंत्र-तपांसि निरूप्यन्ते । (धव. गृहाद् गृहीत्वा रूपान्तरं कृत्वा मायावशाद्यत्पुनर्ग्रहपु. ६, पृ. २१०)। २. मायागया पुण महिंदजालं णार्थं प्रविशति स मायापिण्डः । (गु.गु. षट्. स्वो. वण्णेदि। (जयघ. १, पृ. १३६)। ३. माया- व. २०, पृ. ४६)। गता इन्द्रजालादिक्रियाविशेषप्ररूपिका। (श्रुतभ. १ भिक्षा प्राप्त करने के लिए अनेक वेष व भाषा टी. ६)। ४. मायागता मायारूपेन्द्रजालविक्रिया- का परिवर्तन करने पर मायापिण्ड नामक दोष कारणमंत्र-तंत्र-तपश्चरणादीनि वर्णयति । (गो. जी. होता है। म. प्र ३६२) । ५. इन्द्रजालादिमायोत्पादकमन्त्र- मायाप्रत्यया क्रिया- माया अनार्जवमुपलक्षणतन्त्रादि निरूपिका पूर्वोक्त (द्विशताधिकनवाशीति- त्वात् क्रोधादेरपि परिग्रहः, माया ' प्रत्ययं कारणं सहस्र-नवलक्षाधिकद्विकोटि) पदप्रमाणा मायागता यस्याः सा मायाप्रत्यया । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २८४, चूलिका। (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। ६. माया- पृ. ४४७) । रूवमहेंदजाल विकिरियादिकारणगणस्स । मंत-तंत- माया का अर्थ ऋजुता का अभाव है, माया उपतयस्स य णिरूवगा कोदुयाकलिदा। (प्रंगप. ३-५, लक्षण है, अतः उससे क्रोधादि को ग्रहण करना पृ. ३०२)।
चाहिए । अभिप्राय यह है कि माया कषायादि के १ जिस में माया करने के कारणभूत विद्या, मंत्र, प्राश्रय से जो प्रवृत्ति की जाती है, उसे मायाप्रत्यया तंत्र और तप की प्ररूपणा की जाती है उसे माया- क्रिया कहते हैं। गता चलिका कहा जाता है।
मायामृषावाद - वेषान्तर भाषान्तरकरणेन यत्परमायाचार-देखो मायापिण्ड । अन्यादृष्टदो षि- __ वञ्चन तन्मायामृषावादः । (औपपा. अभय. व. गृहनं कृत्वा प्रकाशदोषनिवेदनं मायाचारस्तृतीयो ३४, पृ. ७६) । दोषः । (त. वा. ६, २२, २)।।
अन्य वेष व भाषा को करके जो दूसरों को धोखा १ जो दोष दूसरे के द्वारा नहीं देखे गये हैं उनको दिया जाता है इसे मायामषावाद कहते हैं। प्रगट न करके केवल प्रकाश में आए हुए दोषों का मायाशल्य-१. रागात् परकलत्रादिवाञ्छारूपम्, निवेदन करना, यह मायाचार नामक प्रालोचना का द्वेषात् परवध-बन्धच्छेदादिवाञ्छारूपं च मदीयापतीसरा दोष है।
ध्यानं कोऽपि न जानातीति मत्वा स्वशुद्धात्मभामाया नामक उत्पादनदोष-१. मायां कुटिल. वनासमुत्पन्नसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसनिर्मलजलेन भावं कृत्वा यद्यात्मनो भिक्षादिकमुत्पादयति तदा चित्तशुद्धिमकुर्वाणः सन्नयं जीवो बहिरङ्गवेषण मायानामोत्पादनदोषः । (मला. वृ. ६-३४)। यल्लोकरञ्जनं करोति तन्मायाशल्यम् । (ब. द्रव्य२. माययाऽन्नार्जनं माया। (भावप्रा. टी. ६६)। सं. टी. ४२)। २. परवंचनं मायाशल्यम् । (त. १ यदि कुटिलता करके अपने लिए भिक्षा उत्पन्न वृत्ति श्रुत. ७-१८, कार्तिके. टी. ३२६)।। की जाती है तो यह माया नाम का उत्पादनदोष १राग से परस्त्री प्रादि की इच्छारूप तथा द्वेष से होता है।
दूसरे जीवों के बध-बन्धन प्रादि रूप मेरे दुर्ध्यान मायानिःसृता असत्यभाषा -मायाइणिस्सिया को कोई नहीं जानता है, ऐसा समझकर जीव जो सा मायाविट्ठो कहेइ जं भासं। जह एसो देविदो अपने मन को शुद्धि न करके बाह्य बगलावेष द्वारा अहवा सव्वं पि तव्वयणं । (भाषार. ४३)। लोकानुरंजन किया करता है उसे मायाशल्य जानना जो (इन्द्रजालिक) मायाचार से युक्त होकर यह चाहिए । २ दूसरे को ठगना, इसी का नाम मायाकहता है कि 'यह इन्द्र है' उसके इस प्रकार के शल्य है।
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मायाशल्य मरण]
[माग
मायाशल्य मरण - पार्श्वस्थादिरूपेण चिरं विहृत्य पश्चादपि श्रालोचनामंतरेण यो मरणमुपैति तन्मायाशल्यं मरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५) । पार्श्वस्थ आदि के रूप में दीर्घ काल तक बिहार करके - प्रवृत्ति करके जो प्रालोचना के विना ही मृत्यु को प्राप्त होता है उसके मरण को मायाशत्यमरण कहा जाता है ।
जन है उसे मारणान्तिकसमुद्घात कहते हैं ।" २ अपने वर्तमान शरीर को न क्षोड़कर ऋजुगति से अथवा विग्रह (मोड़ वाली ) गति से जहां उत्पन्न होना है उस क्षेत्र तक जाकर शरीर से तिगुणे बाहल्य से प्रथवा अन्य प्रकार से अन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थित रहना, इनका नाम मारणान्तिकसमुद्घात है ।
मायी माया (एयस्स) प्रत्थित्ति मायी । पु. १, पृ. १२० ) ; मायास्यास्तीति मायी । पु. ६, पृ. २२१) ।
जिस जीव का व्यवहार मायापूर्ण होता है उसे मायी कहा जाता है ।
मारणान्तिका तिसहनता - मारणान्तिका तिसहनता कल्याणमित्रबुद्ध्या मारणान्तिकोपसर्गसहन मि ति । (समवा. अभय वृ. २७) । मरणकाल में होने वाले उपसर्ग को कल्याणकर मित्र की बुद्धि से सहन करना, इसका नाम मारणान्तिक प्रतिसहनता है । यह २७ अनगार गुणों में प्रतिम है ।
भाविनी, श्रतएव मारणान्तिकी मरणरूपे अन्ते अवसाने भवा मरणान्तिकी संलेखना – कायस्य तपसा कृशीकरणम् । ( श्रौपपा. अभय वृ. ३४, पृ. ८२ ) । तप के द्वारा शरीर के कृश करने का नाम संलेखना है । वह चूंकि भरणरूप प्रन्त समय में होती है इसलिए उसे मारणान्तिकी, पश्चिमा व प्रपश्चिमा संलेखना भी कहा जाता है ।
मारण - मारणं प्राणवियोजनमसि शक्ति कुन्तादिभि: । (ध्यानश. हरि. वृ. १६) । तलवार, शक्ति अथवा भाला प्रादि के द्वारा किये मारणान्तिको संलेखना - पश्चिमा पश्चात्कालजाने वाले प्राणवियोग का नाम मारण है । मारणसमुद्धात - देखो मारणान्तिकसमुद्घात । मारणान्तिकसमुद्घात - - १. श्रीपऋमिकानुपक्रमायुः क्षयाविर्भूतमरणान्तप्रयोजनो मारणान्तिकसमुद्घातः । (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७७ ) । २. मारणंतियसमुग्धादो णाम अप्पणी वट्टमाणसरीरमच्छड्डिय उजुगईए विग्गहगईए वा जावुप्पज्जमाणखेत्त ताव गंतॄण सरीरतिगुणबाहल्लेण श्रण्णहा वा श्रतो मुहुत्तमच्छणं । ( धव. पु. ४, पृ. २६ - २७ ) ; अप्पणो अच्छिदपदेसादो जात्र उप्पज्ज माणखेत्तं ति श्रयामेण एगपदेसमादि कादूण जावुक्कस्सेण सरीरतिगुणबाहल्लेण कंडेक्कथं भट्टि यत्तोरण-हल गोमुत्तायारेण अंतमहुत्तावद्वाणं मारनियममुग्धादो णाम । ( धव. पु. ७, पृ. २६६, ३०० ) । ३. मरणान्तसमये मूलशरीरमपरित्यज्य यत्र कुत्रचिद् वद्धमायुस्तत्प्रदेश स्फुटितुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति मरणान्तिकसमुद्घातः । (बृ. द्रव्यसं. टी. १०१ कार्तिके. टी १७३) । ४. मरणे भवो मारण:, स चासो समुद्घातश्च मारणसमुद्घातः । ( जीवाजी. मलय. वृ. १३) । ५. मरणे मरणकाने भवो मारण:, मारणश्चासौ समुद्घातश्च मारणसमुद्घातः, सोऽन्तम्हूर्नावशेषायुःकर्मविषयः । ( पंचस. मलय. वृ. २-२७) ।
१ श्रपकनिक अथवा अनौपक्रमिक श्रायु के क्षय से प्रगट होने वाला तथा मरण का अन्त जिसका प्रयो
१०, जन-लक्षणावली
( धव.
( घव.
मारुतचारण - णाणा विहगदिमा रुदपदेस पंतीसुदेंति पदखेवे । जं श्रक्खलिया मुणिणो सा मारुदचारणा रिद्धी । ( ति प ४-१०४७) ।
जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनिजन अनेक प्रकार की गतिवाली वायु को प्रदेशपंक्तियों पर पादक्षेप करते हुए निर्बाध रूप से गमन करते हैं वह मारतचारण ऋद्धि कहलाती है ।
मार्ग - १. सृजेः शुद्धिकर्मणो मार्ग इवार्थाभ्यन्तरीकरणात् । मृष्टः शुद्धोऽसाविति मार्गः, मार्ग इव मार्गः । क उपमार्थः ? यथा स्थाणुकण्टकोपल शर्करादिदोषरहितेन मार्गेण मार्गगाः सुखमभिप्रेतस्थानं गच्छन्ति तथा मिथ्यादर्शनाऽसंयमादिदोषरहितेन त्र्यंशेन श्रेयोमार्गेण सुखं मोक्षं गच्छन्ति । (त. वा. १, १, ३८ ) । २. स्वाभिप्रेतप्रदेशाप्ते-रुपायो निरुपद्रवः । सद्भिः प्रशस्यते मार्गः X X X ॥ ( त श्लो. १, १, ५) । ३. मार्गो हि परमवैराग्यकरणप्रवणा पारमेश्वरी परमाज्ञा । (पंचा. का.. श्रमृत. वृ. १७३) । ४. मार्गस्तावच्छुद्धरत्नत्रयम् ॥
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मार्गणा] ६११, जैन-लक्षणावली
[मार्गदूषणा (नि. सा. वृ. २)। ५. मृज्यते शोध्यतेऽनेनात्मा वस्तुप्रकर्षापकर्षानुविधायिनावित्यन्वयधर्मालोचनं माइति मार्गः, मार्गणं वा मार्गः, शिवस्यान्वेषण- र्गणा । (जम्बूद्वी. शा. वृ. ७०)। मिति भावः। उक्तं च-मग्गिज्जइ सोहिज्जइ जेण १ अन्वय धर्म को प्रार्थना (अन्वेषण) का नाम ता पवयणं तपो मग्गो। प्रहवा सिवस्स मग्गो मार्गणा है। यह प्राभिनिबोधिक ज्ञान का नामान्तर मग्गणमण्णेसणं पंथो ॥ (प्राव. नि. मलय. वृ. है। ४ मार्गणा, गवेषण और अन्वेषण ये समनार्थक १२७)।
शब्द हैं। इसमें चंकि सत-संख्या प्रादि से विशिष्ट १ जो शुद्ध है उसका नाम मार्ग है। अभिप्राय यह चौदह जीवसमासों (गुणस्थानों) का अन्वेषण है कि जिस प्रकार कांटे, कंकड़ और बालु प्रादि किया जाता है अतएव गति, इन्द्रिय व काय प्रादि दोषों से रहित मार्ग से पथिक सुखपूर्वक अभीष्ट चौदह स्थानों का मार्गण या मार्गणा यह सार्थक स्थान को पहुंचते हैं उसी प्रकार मिथ्यादर्शन एवं नाम है। xxx अवग्रह से गहीत पदार्थ विशेष असंयमादि दोषों से रहित तीन अंशरूप (रत्नत्रय का जिसके द्वारा अन्वेषण किया जाता है उसे स्वरूप) कल्याणकर मार्ग (मोक्षमार्ग) से मुमुक्षु मार्गणा कहा जाता है। यह एक ईहा मतिज्ञान का जन सुखपूर्वक मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
नामान्तर है। ६ अपनी रत्नत्रय की शुद्धि व मार्गणा - १. मार्गणा त्वन्वयधर्मप्रार्थना । (विशे- समाधिमरण के सम्पादन करने में समर्थ प्राचार्य षा को वृ. ३६६, पृ. १५२) । २. अन्वयधर्मान्वे- के अन्वेषण को मार्गणा कहा जाता है। यह भक्तषणा मार्गणा । (प्राव. नि. हरि. व मलय. ७. प्रत्याख्यान को स्वीकार करने वाले क्षपक के प्रहादि १२) । ३. मार्गणा विशेषधर्मान्वेषणारूपा संविदि- लिंगों में से एक है। त्यर्थः । यथा-शब्दः किं शाङ्खः किं वा शाङ्गः इति ।
मार्गतः अन्तगत: अवधिज्ञान-मग्गयो अन्तगयं xxx अथवा अवगतार्थाभिलाषे, तत्प्रार्थना
-से जहानामए केइ पुरिसे उवकं वा चडुलिग्रं वा मार्गणा । (नन्दी. हरि. वृ पृ. ७८)। ४. xx
अलायं वा मणि वा पईवं वा जोई वा मग्गो काउं x मार्गणा गवेषणमन्वेषण मित्यर्थः । xxx
अणुकड्ढमाणे २ गच्छिज्जा से तं मग्गओ अंतगयं । चतुर्दशजीवसमासाः सदादिविशिष्टाः माय॑न्तेऽस्मि
(नन्दी. सू. १०, पृ. ८२)। ननेन वेति मार्गणम् । (धव. पु. १, पृ. १३१);
जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का (दीपिका) चडुलिका जेस जीवा मग्गिज्जति तेसिं मग्गणाप्रो इदि सण्णा ।
(अन्त में जलती हुई तृणपूलिका), अलात (अग्र(धव. पु. ७, पृ. ७); अवगृहीतार्थविशेषो मृग्यते
__ भाग में जलती हुई लकड़ी), मणि, प्रदीप, अथवा अन्विष्यते अनया इति मार्गणा। (घव. पु. १३, पृ.
ज्योति (शराव आदि के प्राधित अग्नि) को मार्ग २४२)। ५. जाहि वा जासु व जीवा मग्गिज्जते
की प्रोर करके उसे खींचता हा जाता है उसी जहा तहा दिट्ठा । तानो चोद्दस जाणे सुयणाणे मग्गणा
प्रकार जिस अवधिज्ञान के द्वारा प्रवधिज्ञानी मार्ग होति । (धव. पु. १, पृ. १३२ उद्.; गो. जो
की ओर जानता देखता है उसे मार्गतः अन्तगत १४१)। ६. यकाभिर्यासु वा जीवा मार्यन्तेऽनेकधा स्थिताः । मार्गणा मार्गणादक्षस्ताश्चर्तुश भाषिताः।
अवधिज्ञान कहा जाता है। (पंचसं. अमित. १-१३१)। ७. मार्गणं मार्गणा मार्गदूषणा-नाणादि तिहा मग्गं दूसयए जेय 'मृग अन्वेषणे' अशेषसत्त्वापीडया यदन्वेषणं सा मग्गपडिवन्ना। अबुहो पंडियमाणी समद्वितो तस्स मार्गणेत्युच्यते । (प्रोधनि. द्रो. व. ४, पृ. २६)। घायाए। (वृहत्क. भा. १३२३)। ८. एतेषु जीवादयाः पदार्थाः सर्वेऽपि प्रायो मृग्यन्ते- जो मूर्ख तत्त्वज्ञान से रहित होकर अपने को पण्डित ऽन्विष्यन्ते विचार्यन्त इति यावदित्येतानि मार्गणा- मानता हमा ज्ञानादि रूप तीन प्रकार के मोक्षमार्ग स्थानान्युच्यन्ते । (शतक. मल. हेम. ७.५, पृ.) को और उसको प्राप्त हुए साधुनों प्रादि को दूषित ६. मार्गणा पात्मनो रत्नत्रयशुद्धि समाधिमरणं च करता है व उसके घात में उद्यत है उस के इस सम्पादयितुं समर्थस्य सूरेरन्वेषणम् । (मन. प. स्वो. प्रकार के प्राचरण का नाम मार्गदूषणा है। यह एक टी.७-९८)। १०. अस्याः प्रकर्षाप्रकर्षों बाह्य- सम्मोही भावना का लक्षण है।
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मार्गप्रभावना] ६१२, जैन-लक्षणावली
[मार्गशुद्धि मार्गप्रभावना - १. ज्ञान-तपोजिनपूजाविधिना पु. ७४-४४२) । ३. त्यक्तग्रन्थ प्रपञ्चं शिवममृतधर्मप्रकाशनं मार्गभावना । (स. सि. ६-२४; चा. पथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः । मार्गश्रद्धानमाहुः । xx सा. पृ. २६)। २. सम्यग्दर्शनादेर्मोक्षमार्गस्य नि- x। (प्रात्मान. १२) । ४. रत्नत्रयविचारसर्गो हत्य मानं करणोपदेशाभ्यां प्रभावना। (त. भा. मार्गः। (उपासका. २३४, पृ. ११४; अन. घ. ६-२३)। ३. ज्ञानतपोजिनपूजाविधिना धर्मप्रका- स्वो. टी. २-६२)। ५. निर्ग्रन्थलक्षणो मोक्षमार्गों शनं मार्गप्रभावनम् । ज्ञानरविप्रभया परसमय-खद्योत- न वस्त्रवेष्टितः पुमान् कदाचिदपि मोक्ष प्राप्स्यति तिरिस्कारिण्या, सत्तपसा महोपवासादिलक्षणेन एवंविधो मनोऽभिप्रायो निर्ग्रन्थलक्षणमोक्षमार्गे रुचिसुरपतिविष्टरप्रकम्पनहेतुना, जिनपूजया वा भव्यजन- मर्गिसम्यक्त्वम् । (दर्शनप्रा. टी. १२)। कमलषण्डप्रबोधनप्रभाकरप्रभया, सद्धर्मप्रकाशनं मार्ग- १ निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग के सुनने मात्र से जिनको प्रभावन मिति संभाव्यते । (त. वा. ६, २४, १२)। तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न हम्रा है वे मार्गरुचि-मार्ग४. परमतभेदसमर्थज्ञान-तपोजिनमहामहैर्जगति । सम्यग्दर्शन के धारक-होते हैं । मार्गप्रभावना स्यात्प्रकाशनं मोक्षमार्गस्य । (ह. पु. मार्गवर्णजनन-रत्नत्रयालाभादनन्तकालम् अयम३४-१४७)। ५. मार्गप्रभावना ज्ञान-तपोऽर्हत्पूजना- नादिनिधनोऽपि भव्यराशिर्न निर्वाणपुरमुपति, दिभिः । धर्मप्रकाशनं शुद्धबौद्धानां परमार्थतः ॥ तल्लाभे च सकला: सम्पद: सुलभा इति मार्गवर्ण(त. श्लो. ६, २४, १५)। ६. सकलकर्मक्षयोत्तर- जननम् । (भ. प्रा. विजयो ४७) । कालमात्मनः स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः, तस्य मार्गः रत्नत्रय की प्राप्ति के बिना अनादि-अनन्त भी भव्वपन्थाः प्राप्त्युपायो ज्ञान-क्रियालक्षणः, तस्य प्रभावना जीवराशि अनन्त काल में भी मुक्ति को प्राप्त नहीं प्रख्यापनं प्रकाशनम् । Xxx मानः अहंकारः, हो सकती, और उसके प्राप्त हो जाने पर समस्त स च जात्यादिस्थानोदभतः श्रेयोविघातकारी x सम्पदाएं सलभ हो जाती हैं, इस प्रकार से मोक्षyx तमेवंविधं मानं न्यक्कृत्य करणम्- स्वय- मार्ग के कीर्तन का नाम मार्गवर्णजनन है। मनुष्ठानं श्रद्दधतः काल-विनय-बहुमानाद्यासेवनं मागं विप्रतिप्रत्ति-जो पुण तमेव मग्गं दूसेउममूलोत्तरगुणप्रपञ्चानुष्ठानं चेति उपदेशोऽन्यस्मै प्रति
पंडिग्रो सतक्काए । उम्मग्गं पडिवज्जइ अकोविअप्पा पादनं बहुबिध विद्वज्जनसमितिषु स्याद्वादिन्यायाव
जमालीव । (बृहत्क. भा. १३२४)। ष्टम्भेन प्रसभमपहृत्य प्रतिभामेकान्तवादिनामहत्प्र
जो विवेकहीन मनुष्य उसी मोक्षमार्ग को अपनी णीतस्यानवद्यस्य सर्वतोभद्रस्य मार्गस्यकान्तिकात्यन्तिकनिरतिशयाबाधकल्याणफलस्योच्नः प्रकाशनं
कुयुक्तियों के द्वारा दूषित करके उन्मार्ग (कुमार्ग) प्रभावना । (त. भा. सिद्ध. व. ६-६३) । ७. ज्ञा
को प्राप्त होता है उसकी इस प्रकार की प्रवृत्ति
को मार्गविप्रतिपत्ति कहा जाता है। प्रकृत में यहां नेन दानेन जिनपूजन विधानेन तमोऽष्ठानेन जिनधर्मप्रकाशनं प्रभावना । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४) ।
जमालि का उदाहरण दिया गया है। ८. ज्ञानादिना धर्मप्रकाशनं मार्ग प्रभावना । (भाव- मागंशुद्धि-१. सयडं जाण जुग्गं वा रहो वा प्रा. टी ७७) ।
एवमादिया। बहसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुग्रो १ ज्ञान, तप और जिनपूजा प्रादि की विधि से धर्म भवे । हत्थी अस्सो खरोढो वा गो-महिस-गवेलया। को प्रकाश में लाना, इसका नाम मार्गप्रभावना है। बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासपो भवे । इत्थी २ मान को दूर करके किया (स्बयं प्रनष्ठान) पुंसा व गच्छन्ति प्रादवेण य जंहदं । सत्थपरिणदो और उपदेश के द्वारा मोक्ष के मार्गभत सम्यग्दर्श- चेव सो मग्गो फासुमो हवे। (मला. ५, १०७-६)। नादि को प्रकाशित करना, इसे मार्गप्रभावना कहा २. मार्गस्य शुद्धिः पिपीलिकादित्रसाल्पत्वं बीजाकूरजाता है।
तृण-हरितपत्र-जल-कर्दमादिरहितत्वं स्फूटतरत्वं व्यामार्गरुचि -१. निःसंगमोक्षमार्गश्रवणमात्रजनित- पित्वं च । (भ. प्रा. मूला. ११६१)। रुचयो मार्गरुचयः। (त. वा. ३, ३६, २) । २. १ जिस मार्ग से गाड़ी, यान, युग्य (हाथी प्रादि के मोक्षमार्ग इति श्रुत्वा या रुचिर्मार्गजा त्वसौ ॥ (म. द्वारा खींचा जाने वाला अथवा गेममुष्यों के द्वारा
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मार्ग संश्रय]
खींची जाने वाली पालकी) अथवा रथ इत्यादि निकल जाते हैं; तथा हाथी, घोड़ा, गधा, ऊंट, गाय, भैंस, भेड़ें, स्त्रियां और पुरुष जाने-श्राने लगते हैं वह मार्ग प्रासुक माना जाता है। जो मार्ग सूर्यताप से सन्तप्त हो चुका है अथवा शस्त्रपरिणत है जहां खेती आदि की गई है- वह भी प्रासुक होता है। मार्ग का प्रासुक होना ही मार्गशुद्धि है ।
मार्गसंश्रय श्रागन्तुक मुनेर्मार्गयानागमनजातयोः । यः सुखासुखयोः प्रश्नः सोऽयं स्यान्मार्गसंश्रयः ॥ ( श्राचा. सा. २ - २१ ) ।
श्राने वाले मुनि के मार्ग में जाने-माने से उत्पन्न हुए सुख दुःख के विषय में जो पूछ-ताछ करना है, इसे मार्गसंश्रय समाचार कहते हैं। इच्छा-मिथ्याकारादिरूप दस प्रकार के समाचार में अन्तिम संश्रय है। उसके विनयसंश्रयादि रूप पांच भेदों में यह तीसरा है ।
९१३, जैन - लक्षणावली
मार्गोपसम्पत्-देखो मार्गसंश्रय | पाहुणवत्थव्वाणं अण्णागमण-गमण सुहपुच्छा । उवसंपदा यमग्गे संजम-तव-णाण - जोगजुत्ताणं ।। (मूला. ४ - २२ ) । संयम, तप, ज्ञान और योग से युक्त अभ्यागत के रूप में स्थित हुए साधु जन के परस्पर में जो मार्गविषयक सुख-दुख के विषय में प्रश्न किया जाता है उसे मार्ग उपसम्पत् कहते हैं । मार्दव - १. कुल-रूप-जादि बुद्धिसु तव सुद-सीले सु गारवं किचि । जो ण वि कुव्वदि समणो मद्दवधम्मं हवे तस्स ।। (द्वादशानु. ७२ ) । २. जात्यादिमदावेशाभिमानाभावो मार्दवम् । ( स. सि. ६-६) । ३. नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको मार्दवलक्षणम् । मृदुभावो मृदुकर्म वा मार्दवम् माननिग्रहो मानविधातश्चेत्यर्थः । तत्र मानस्येमान्यष्टौ स्थानानि भवन्ति । तद्यथाजातिः कुलं रूपम् ऐश्वर्यं विज्ञानं श्रुतं लाभः वीर्यम् इति । ( त. भा. ६-६ ) । ४. मद्दवं नाम जाइकुलादीहीणस्स अपरिभवणसीलत्तणं, जहाऽहं उत्तमजातीयो एस नीयजातीत्ति मदो न कायव्वो, एवं च करेमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, प्रकरेंतस्स य कम्मोवचयो भवइ, माणस्स उदिन्नस्स निरोहो उदयपत्तस्स विफलीकरणमिति । ( दशवं. चू. पृ. १८ ) । ५. जात्यादिमदावेशादभिमानाभावो मार्ववम् ।
ल. ११५
[मालदोष
उत्तमजाति-कुल-रूप- विज्ञानैश्वर्य श्रुतलाभ वीर्यस्यापि सतस्तत्कृतमदावेशाभावात् परप्रयुक्तपरिभवनिमित्ता भिमानाभावो मार्दवं माननिर्हरणमवगन्तव्यम् । (त. बा. ९, ६, ३) । ६. जात्यादिभावेऽपि मानत्यागामार्दवम् । ( दशवं. नि. हरि. वृ. ३४६, पृ. २६२ ) । ७. जात्यादिमदावेशादभिमानाभावो मार्दवम् । (त. श्लो. ६-६ ) । ८. जात्याद्यभिमानाभावो मानदोषानपेक्षश्च दृष्टकार्यानपाश्रयो मार्दवम् । (भ. श्री. विजयो ४६ ) । ६. अभावो योऽभिमानस्य परैः परिभवे कृते । ज्यात्यादीनामनावेशान्मदानां मार्दवं हि तत् ॥ ( त. सा. ६-१५) । १०. उत्तम
पाणी उत्तमतवयरणकरणसीलो वि । श्रप्पाणं जो होलदि मद्दवरयणं भवे तस्स । ( कार्तिके. ३५) । ११. उत्तमजाति-कुल- रूप- विज्ञानैश्वर्यश्रुत-जप-तपोलाभ वीर्यस्यापि तत्कृतमदावेशाभावात् परप्रयुक्तमपरिभवनिमित्ताभावो मार्दवं माननिर्हरणम् । (खा. सा. पृ. २८) । १२. मृदोर्भावो मार्दवं जात्यादिमदावेशादभिमानाभाव: । (मूला. वृ. ११, ५) । १३. मार्दव मानोदय निरोधः । ( श्रौपपा. अभय. वृ. १६, पृ. ३३ ) । १४. मृदुः प्रस्तब्धस्तस्य भावः कर्म वा मार्दवम्, नीचैर्वृत्यनुत्सेकश्च । (योगशा. स्वो विव. ४-६३; धर्मसं. मान. ३-४५, पू. १२८ ) । १५. X XX मद्दवो माणनिग्गहो । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. १३, पृ. ३८ ) । १६. "ज्ञानं पूजा.." इति श्लोककथिताष्टविधस्य मदस्य समावेशात् परकृतपराभवनिमित्ताभिमानमुक्तिर्मार्दवमुच्यते, मृदोर्भावः कर्म वा मार्दवमिति निरुक्तेः । (त. वृत्ति - ६ ) ।
१ कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील इनमें से किसी का भी प्रभिमान न करना; यह मुनि का भार्दव धर्म है । ३ नीचेर्वृत्ति-नम्रतापूर्ण प्रवृत्ति- और अनुत्सेक - उत्सेक (अहंकार) के प्रभाव – को मार्दव कहा जाता है । मालदोष - १. मालापीठाद्युपरि स्थानमथवा मस्तकादूध्वं यत्तदाश्रित्य मस्तकस्योपरि यदि किञ्चिदत्र यतिस्तथापि ( ? ) यदि कायोत्सर्गः वियते स मालदोष: । ( मूला. वृ. ७ - १७१ ) । २. माले शिरोऽवष्टभ्य स्थानं मालदोषः । (योगशा. स्वो विव. ३-१३०) । ३. X XX मालो मालादि मूनल
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मालापहृत] ६१४, जैन-लक्षणावली
[मांस म्ब्योपरि स्थितिः ॥ (मन. ध.८-११३) । मालास्वप्न-१. पुवावरसंबंधं सउणं तं माल१मालापीठ प्रादि के ऊपर जो कायोत्सर्ग से स्थित सउणोत्ति ।। (ति. प. ४-१०१६)। २. पूव्वाहोना है, इसे मालदोष कहते हैं, यह कायोत्सर्ग का वरेण घडताणं भावाणं सुमिणंतरेण सणं मालाएक दोष है। ३ शिर से माल (उपरिम भाग) सुमणो नाम । (धव. पु. ६, पृ. ७४)। मादि का पालम्बन लेकर ऊपर कायोत्सर्ग में स्थित १ पूर्वापर सम्बन्ध रखने वाले स्वप्न को मालाहोना, यह कायोत्सर्ग का एक माल नामक दोष है। स्वप्न कहा जाता है। २ पूर्वापर सम्बन्ध से घटित मालापहत-देखो मालारोहणदोष । १. मालाधव- होने वाले पदार्थों का जो स्वप्नान्तर से अवलोकन स्थितं निश्रेण्यादिनाऽवतार्य ददाति तन्मालाहृतम् । होता है उसका नाम मालास्वप्न है। (प्राचा. शी. वृ. २, १, २६६) । २. यदुपरिभूमि- मास ~~१. तो वो शुक्ल-कृष्णौ मासः । (त. भा. कातः शिक्यादेर्भूमिगृहाद्वा आकृष्य साधुभ्यो दानं ४-१५) । २. दो पक्खा मासो। (भगवती. ६, ७, तन्मालापहृतम् । (योगशा. स्वो. विव. १-३८)। २५. पृ. ८२५; जम्बद्वी. १८ प्रनयो. स. १३७.प्र. ३. मालं सीकक-प्रासादोपरितलादिकमभिप्रेतम् । ८९)। ३.xxx तीसं दिणा मासो। (ज्योतिष्क. तस्मादाहृतं कर ग्राह्य यदन्नादि दात्री ददाति तन्मा- ३०)। ४. Xxx पक्खा य दो भवे मासो। लापहृतम् । (जीतक. चू. वि. व्या. पृ. ४६)। (जीवस. ११०)। ५. दो पक्खेहिं मासोxxxi ४. यत्कराह्य मालादिभ्य उत्तार्य गही दत्ते (ति. प. ४-२८९)। ६. xxx पक्षद्वयं मासतन्मालापहृतम् । (गु. गु. षट्, स्वो. व. २०, पृ. मुदाहरन्ति । (वरांगच. २७-५) । ७. द्वौ पक्षी ४९)। ५. यन्मालातः शिक्ककादेरपहृतं साध्वर्थ- मासः। (त. वा. ३,३८,८, पृ. २०६% प्राव. भा. मानीतं तन्मालापहृतम् । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. हरि. व. १६८, पृ. ४६५; धव. पु. ४, पृ. ३२०, ३-६२, पृ. ४०)।
सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २०, ५७, पृ. १६६% प्राव. १ घर के उपरिम भाग में स्थित बेय द्रव्य (प्रन्न भा. मलय.व. २००, पृ. ५९३; जीवाजी. मलय. मादि) को नसैनी मावि के प्राश्रय से उतार कर वृ. २-१७८) । ८. मासः तद्-(पक्ष-) द्विगुणः। साषु के लिए देने में मालापहत नामक दोष होता है। (भाव. नि. हरि. वृ. ६६३)। ६. वेहि पक्खेहि मालारोहणदोष-देखो मालापहृत । १. णिस्से- मासो। (घव. पु. १३, पृ. ३००)। १०. शुक्लभीकट्ठादिहि णिहिदं पूयादियं तु घेत्तूणं । मालारोहं कृष्णो द्वो पक्षो मासः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ४-१५)। किच्चा देयं मालारोहणं णाम ॥ (मूला. ६-२३)। ११.xxx तो [पक्षो] मासो xxx। २. निश्रेण्यादिभिरारुह्य इत प्रागच्छत, युष्माकमियं (ह. पु. ७-२१)। १२. विहि पक्खेहि य मासो बसितिरिति या दीयते द्वितीया तृतीया वा भूमिः xxx (भावसं. दे. ३१४) । १३. xxx सा मालारोहम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. तीसं दिवसाणि मासमेक्को दु। (जं. वी. प. १३, २३०)। ३. xxx मालिकारोहणं मतम् । ७)। १४. त्रिंशदिवसर्मासः। (पंचा. जय. वृ. मालिकादिसमारोहणेनानीतं घृतादिकम् ॥ (प्राचा. २५)। १५. त्रिंशदहोरात्रैर्मासः। (नि. सा. वृ. ३१)। सा. ८-३३)। ४. निश्रेण्यादिभिरारुह्य मालमादाय १६. ताभ्यां (पक्षाभ्यां) द्वाभ्यां मासः । (अनुयो. दीयते । यद् द्रव्यं संयतेभ्यस्तन्मालारोहणमिष्यते ॥ स. मल. हेम. व. ११४; प्रज्ञाप. मलय. वृ. ५, (अन. घ. ५-१८)। ५. मालिकादिसमारोहणेन १०४) । १७. त्रिंशद् दिनानि अहोरात्रा एको यदानीतं तन्मालिकारोहणम्, उपरितनभूमेर्यद् घता- मासः। (ज्योतिष्क. मलय. व. ३०)। १८.x दिकमधस्तनभूमौ समानीतं तन्न कल्पते। (भावप्रा. xx मासः पक्षद्वयात्मकः। (लोकप्र. २८-२८६)। टी. ६६)।
१दो पक्षों का एक मास होता है। १ नसनी या लकड़ी आदि के सहारे घर के उपरिम मांस-मांसं पिशितमसृम्भवम् । (योगशा. स्वो. भाग पर चढ़कर वहां पर रखे हुए पुमा प्रादि को विव. ४-७२) । लेकर मुनि के लिए देने पर मालारोहण नाम का रुधिर से जो धातुविशेष उत्पन्न होती है उसे मांस दोष उत्पन्न होता है।
कहा जाता है।
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मांसनियुक्ति ६१५, जन-लक्षणावलो
मिथ्याचारित्र मांसनियुक्ति-यस्याहं मांसमम्यत्र प्रेत्य मांस की है उसका स्मरण करने से मित्रानुराग नामक ममत्स्यति । एतां मांसस्य नियुक्तिमाहुः सूरिमत- सल्लेखना का अतिचार होता है। दूसरे शब्द से ल्लिका: ।। (धर्मसं. श्रा. ५-३५)।
इसे मित्रस्मृति भी कहा जाता है। जिस पशु प्रादि का मांस इस लोक में मैं खाता हूँ मिथ्याकार-१. xxx मिच्छाकारो तहेव वह परलोक में मुझे भी खाएगा, इसे प्राचार्य श्रेष्ठ
अवराहे । (मूला. ४-५)। २. मिथ्या वितयममांस की नियुक्ति कहते हैं।
नृतमिति पर्यायाः, मिथ्याकरणं मिथ्याकारः, मिथ्यामित -१. मितं वर्णादिनियतपरिमाणम् । (प्राव.
क्रियेत्यर्थः; तथा च संयम-योगवितथाचरणे विदितनि. हरि. व. ८८५, पृ. ३७६) । २. मितं परि
जिनवचनसाराः साधवस्तत्क्रियाया वैतथ्यप्रदर्शनाय
मिथ्याकारं कुर्वते, मिथ्या क्रियेयमिति हृदयम् । मिताक्षरम् । (व्यव. भा. मलय. व. १-१६०, पृ. ३४)।
(प्राव. नि. हरि. व. ६६६, प. २५८)। ३. मिथ्या
वितथमयथा, यथा भगवदभिरुक्तं न तथा, दुष्कृतमे१ वर्ण-पदादि से जिसका प्रमाण निश्चित होता है उसे मित कहा जाता है। यह सर्वज्ञभाषित सूत्रवचन
तदिति प्रतिपत्ति: मिथ्यादुष्कृतम्, मिथ्या प्रक्रियाके पाठ गुणों में से सातवां है।
निवत्युपगमः मिथ्याकरणं मिथ्याकारः । (प्रनयो.
हरि. व. पृ. ५८)। ४. यन्मया दुष्कृतं पूर्व तन्मिमित्र--१. xxx कि मित्रं यन्निवर्तयति पापा
ध्यास्तु न तत्पुरः। करोमीति मनोवृत्तिमिथ्याकारोत। (प्रश्नो. मा. १४)। २. यः कारणमन्तरेण ऽति निर्मलः ॥ (प्राचा. सा. २-७)। ५. मिथ्या रक्ष्यो रक्षको वा भवति तन्नित्यं मित्रम् । (नीतिवा. अलीकं करोतीति मिथ्याकारो विपरिणामस्य त्यागः । २३-२)।
(मूला. वृ. ४-४)। १ जो पाप से बचाता है उसे मित्र समझना चाहिए। १अपराध होने पर-व्रतादि के विषय में प्रति२ जो अकारण ही रक्षणीय अथवा रक्षक होता है चार के होने पर--काय और मन से उसका परिवह नित्य मित्र होता है।
हार करना, इसका नाम मिथ्याकार है। २ मिथ्या, मित्रस्मृति- देखो मित्रानुराग ।
वितथ और अन्त ये समानार्थक शब्द हैं। अभिमित्रानुराग-१. पूर्वसुहृत्सहपांसुक्रोडनाद्यनुस्म
प्राय यह है कि सयम व योग के विषय में प्रसदारणं मित्रानुरागः। (स. सि. ७-३७)। २. पूर्व
चरण के होने पर तत्वज्ञ साधुजन उस माचरण की कृतसहपांसुक्रीडनाद्यनुस्मरणान्मित्रानुरागः । व्यसने
असत्यता को दिखलाने के लिए 'यह प्रवृत्ति मिथ्या सहायत्वमुत्सवे संभ्रम इत्येवमादिषु कृतं बाल्ये यूग- हा इस प्रकार से मिथ्याकार किया करत ह। पत् क्रीडनमित्येवमादीनामनुस्मरणात मित्रेऽनरागो मिथ्याचार-मिथ्या अलीको विशिष्टभावशून्यः भवति । (त. वा. ७, ३७, ४)। ३. पूर्वसुहृत्सह
माचारो मिथ्याचारः । Xxx मिथ्याचारस्वरूप पांसुक्रीडनाद्यनुस्मरणं मित्रानुरागः। (त. श्लो. ७,
चेदम-बाह्यन्द्रियाणि संयम्य य प्रास्ते मनसा ३७) । ४. व्यसने सहायत्वमुत्सवे संभ्रम इत्येवमादि स्मरन् । इन्द्रियार्थविमूढात्मा मिथ्याचारः स सकृत बाल्ये सहपाशक्रीडनमित्येवमादीनामनस्मरणं उच्यते । (षोडश. वृ. १-६)। मित्रानुरागः । (चा. सा. पृ. २४) । ५. मित्रस्मृतिः विशिष्ट अभिप्राय से रहित जो प्रसत्य आचरण वाल्याद्यवस्थायां सहक्रीडितमित्रानुस्मरणम् । (रत्न- किया जाता है उसे मिथ्याचार कहते हैं। मिथ्याक. टी. ५-८)। ६. चिरन्तनमित्रेण सह क्रीडनानु- चार का स्वरूप यह कहा गया है-बाह्य इन्द्रियों स्मरणं कथमनेन ममाभीष्टेन मित्रेण मया सह का दमन करके जो मुख जीव मन से इन्द्रियविषयों पांशुक्रीडनादिक कृतं कथमनेन ममाभीष्टेन व्यसन- का स्मरण करते हुए स्थित रहता है उसकी इस सहायत्वमाचरितं कथमनेन ममाभीष्टेन मदुत्सवे प्रवृत्ति को मिथ्याचार कहा जाता है। संभ्रमो विहितः इत्याद्यनुस्मरण मित्रानुरागः । (त. मिथ्याचारित्र-१. वृत्तमोहोदयाज्जन्तोः कषायवृत्ति श्रुत. ७-३७)।
वशवर्तिनः । योगप्रवृत्तिरशुभा मिथ्याचारित्रमूचिरे ।। १ पूर्व में भित्रों के साथ जो धूलि प्रादि में कीड़ा (तत्त्वानु. ११) । २. तन्मार्गाचरणं (भगवदहत्पर
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मिथ्याचारित्रसेवा) ११६, जन-लक्षणावली
[मिथ्यात्व मेश्वर मार्ग स्कूिल मार्गाभासमार्गाचरणम्) मिथ्या- को उत्पन्न कराता हूं, इस अभिप्राय से नयनिरपेक्ष चारित्रम् । (नि. सा.व. ११)।
दर्शनों का-एकान्तवाद का-उपदेश करना, १चारित्रमोहनीय के उदय से कषाय के व मिथ्याज्ञानियों के साथ रहना, उनमें अनुराग रखना, हुए जीव के योगों की जो प्रशभ प्रवृत्ति होती है, और उनका अनुसरण करना; इसे मिथ्याज्ञानसेवा उसे मिथ्याचार कहते हैं।
कहा जाता है। मिथ्याचारित्रसेवा-१. मिथ्याचारित्रं नाम मि- मिथ्यात्व- देखो मिथ्यात्ववेदनीय व मिथ्याथ्याज्ञानिनामाचरणम्, तत्रानुवृत्तिर्द्रव्यलाभाद्यपेक्षया दर्शन । १. अरिहंतवृत्तपत्थेसु विमोहो होइ मिच्छद्रव्यलाभोद्यतेषु वा सांगत्यादिकम् । (भ. प्रा. त्तं ॥ (मला. ५-४०, भ. प्रा. १८२५)। २. तं विजयो. ४४)। २. मिथ्याचारित्रसेवा द्रव्यलाभा- मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं । संसद्यपेक्षया मिथ्याज्ञानिनामाचरणस्यानुवर्तनम, मिथ्या- इयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं च तं तिविहं ।। (भ. चारित्रिसेवा पञ्चाग्निसाधकादिषु संगत्यादिकम् । प्रा. ५६)। ३. यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्(भ. प्रा. मूला. ४४) ।
मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारा१ मिथ्याज्ञानी जो प्राचरण करते हैं उसका नाम (त. वा. 'विभागा-') समर्थों मिथ्यादृष्टिर्भवति मिथ्याचरण है । द्रव्य की प्राप्ति प्रादि की अपेक्षा तन्मिथ्यात्वम् । (स. सि. ८-९; त. वा. ८, ६, रखकर उस मिथ्यावरण का अनुसरण करना २)। ४. मिथ्यात्वम् अतत्त्वार्थश्रद्धानम् । (प्राव. अथवा द्रव्यादि प्राप्ति में उद्यत पुरुषों की संगति नि. हरि. व. ७४०, पृ. २७६)। ५. शंका-पदार्थ प्रादि करना, यह मिथ्याचारित्रसेवा कहलाती है। विपरीताभिनिवेशश्रद्धानं मिथ्यादर्शनम । (त. वा. मिथ्याज्ञान-१. बौद्ध-नयायिक-सांख्य-मीमांसक- १, १, ४७); दशमोहोदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो चार्वाक-वैशेषिकादिदर्शनरुच्यनुविद्धं ज्ञानं मिथ्याज्ञानम् । (धव. पु. १२, पृ. २८६)। २. अन्यथा- बन्धकारणस्य दर्शनमोहस्योदयात् तत्त्वार्थेषु निरूप्यधीस्तु लोकेऽस्मिन मिथ्याज्ञानं हि कथ्यते । (क्षत्रच. माणेष्वपि न श्रद्धानमत्पद्यते तन्मिथ्यादर्शनम ६-१६) । ३. ज्ञानावृत्त्युदयादर्थेष्वन्यथाधिगमो । मित्याख्यायते । (त. वा. २, ६, ४) । ६. मिथ्याभ्रमः । प्रज्ञानं संशयश्चेति मिथ्याज्ञानमिदं विधा॥ त्वमोहनीयकर्मपुद्गलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामो (तत्त्वानु. १०)। ४. तत्रैव वस्तुनि (भगवदर्हत्पर- मिथ्यात्वम् । (प्राव. नि. हरि. वृ. १२५०, पृ. मेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गे) वस्तुबुद्धिमिथ्या- ५६४)। ७. xxx मिच्छत्तकम्मोदयजादत्तण ज्ञानम् । (नि. सा. वृ. ११)।
अत्तागम-पदस्थाणमसद्दहणेण xxx। (धव.पु. १ बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, मीमांसक, चार्वाक और ५, पृ. ६); जस्सोदएण अत्तागम-पयत्थेस असद्धा वैशेषिक प्रादि दर्शनों में रुचि रखकर उनसे सम्बद्ध होदि तं मिच्छत्तम् । (धव. पु. ६, पृ. ३६); ण जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है उसे मिथ्याज्ञान कहा च तित्थयरादीणमासादणालक्खणमिच्छत्तेण xx जाता है।
____X । (धव. पु. १०, पृ. ४३); अत्तागम-पयत्थेसु मिथ्याज्ञानसेवा-१. मिथ्याज्ञानसेवा नाम निर- असधुप्पाययं कम्म मिच्छत्तं णाम। (घव. पु. १३, पेक्षनयदर्शनोपदेश इदमेव तत्त्वमिति श्रद्धानमत्पाद- प. ३५६) । ८. एकान्तधर्मेऽभिनिवेश: एकान्तयामि श्रोतृणामिति क्रियमाणो मिथ्याज्ञानिभिः सह धर्माभिनिवेशः नित्यमेव सर्वथा न कथंचिदनित्यमिसंवासः, तत्र अनुरागो वा तदनुवृत्तिर्वा तत्सेवा। त्यादिमिथ्यात्वश्रद्धानम्, मिथ्यादर्शन मिति यावत् । (भ. प्रा. विजयो. ४४) । २. मिथ्याज्ञानसेवनं पुन- (युक्त्यन. टी. ५२) । ६. तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं रिदमेव तत्त्वमिति श्रद्धानमत्पादयामि श्रोतणामिति सम्यक्त्वम. तद्विपरीतं मिथ्यात्वम । (त. भा. सिद्ध. क्रियमाणो निरपेक्षनयदर्शनोपदेशः, मिथ्याज्ञानिसेवा वृ. ८-१०)। १०. प्रदेवे देवताबुद्धिरगुरौ गुरुमिथ्याज्ञानिभिः सह संवासस्तत्रानुरागस्तत्रानुवत्तिर्वा। सम्मतिः । अतत्त्वे तत्त्वसंस्था च तथाऽवादि जिने(भ.प्रा. मला. ४४)।
श्वरः ॥ (जिनदत्तच. ४-८२)। ११. अश्रद्धानं १ 'यही तत्त्व है' इस प्रकार का श्रद्धान मैं श्रोताओं पदार्थानां जिनोक्तानां यथागमम् । तन्मिथ्यात्वं
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मिथ्यात्व] ६१७, जैन-लक्षणावलो
[मिथ्यात्व xxx ॥ (प्रद्युम्नच. ६-३४)। १२. मिथ्यात्व- तत्त्वबुद्धिश्च तन्मिथ्यात्वं विलक्षणम् ॥ (धर्मश. मुदयेनोक्तं मिथ्यादर्शनकर्मणः । (त. सा. २-६२)। २१-१३१) । ३१. अनन्तद्रव्य-पर्यायात्मकेषु भावेषु १३. अन्यथावस्थितेष्वर्थेष्वन्यथैव रुचिर्नृणाम् । दृष्टि: विपरीताभिनिवेशलक्षणमश्रद्धानम् । (भ. प्रा. मूला. मोहोदयान्मोहो मिथ्यादर्शनमुच्यते ।। (तत्त्वानु. ६)। १८२५)। ३२. मिथ्यात्वं महत्प्रणीततत्त्वविपरी१४. जिणधम्ममि परोसं बहइ य हियएण जस्स तावबोधरूपम् । (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. ८३१) । उदएणं । तं मिच्छत्तं कम्मं संकिट्ठो तस्स उ वि- ३३. जीवाणं मिच्छुदया अणउदयादो अतच्चसद्धाणं । वागो। (कर्मवि. ग. ३६)। १५. वस्त्वन्यथा परि- हवदि ह तं मिच्छत्तं अणंतसंसारकारणं जाणे ॥ च्छेदो ज्ञाने सम्पद्यते यतः। तन्मिथ्यात्त्वं मतं सद्धिः (भावत्रि. १५)। ३४. मिच्छोदयेणf कर्मारामोदयोदकम् ॥ (योगसा. प्रा. १-१३)। हणं तु तच्चप्रत्थाणं । (प्रास्रवत्रि. ३)। ३५. १६. मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्चप्रत्था- अदेवागुर्वधर्मेषु या देव गुरु धर्मघी: । तस्मिथ्यात्वम् णं । (गो. जो. १५)। १७. मिथ्यादर्शनमतत्त्व- Xxx ॥ (गुण. मा. ६); महामोहाद्यथा श्रद्धानम् । (चा. सा. पू. ४) । १८. सम्यक्त्व ज्ञान- जीवो न जानाति हिताहितम । धर्मावमौ न जानाति चारित्रविपर्ययपरं मनः । मिथ्यात्वं नषु भाषन्ते तथा मिथ्यात्वमोहितः ॥ (गुण. क्रमा. ८) । सूरयः सर्वदेहिनः ।। (उपासका. ७) । १६. xx ३६. Xxx मिच्छ जिणधम्मविवरीयं । (कर्मX पदार्थानां जिनोक्तानां तदश्रद्धानलक्षणम । वि. दे. १६); मिथ्यात्वं जिनधर्माद विपरीतं (अमित. श्रा. २-५)। २०. अभ्यन्तरे वीतराग- पर्यस्त ज्ञेयमिति शेषः । अत्रायमाशयः-राग-द्वेषनिजात्मतत्त्वानुभूतिरुचिविषये विपरीताभिनिवेश- मोहादिकलङ्काङ्कितेऽदवेऽपि देवबुद्धिः, “धर्मज्ञो धर्मजनकं बहिविषये तु परकीयशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिसमस्त- कर्ता च सदा धमपरायणः । सत्त्वानां धर्मशास्त्रार्थद्रव्येषु विपरीताभिनिवेशजनकं मिथ्यात्वम् । (बृ. देशको गुरुरुच्यते ॥” इत्यादिप्रतिपादितगुरुलक्षणद्रव्यस. टी. ३०)। २१. विपरीताभिनिवेशोपयोग- विलक्षणेऽगुरावपि गुरुबुद्धिः, सयम-सूनत-शौच-ब्रह्मविकाररूपं शुद्धजीवादिपदार्थविषये विपरीतश्रद्धानं सत्यादि- (ब्रह्माकिञ्चन्यादि-) स्वरूपधर्मप्रतिमिथ्यात्वम् । (समयप्रा. जय. वृ. ६५)। २२. पक्षेऽधर्मेऽपि धर्मबुद्धि रिति मिथ्यात्वम् । (कर्मवि.
दे. स्वो. व. १६) । ३७. दर्शनमोहनीयप्रकृतिभेसायरूपो मिथ्यात्वम् । (मूला. वृ. ५-४०) । दस्य मिथ्यात्वकर्मण उदयेन फलदानशक्तिविपाकेन २३. भगवदर्हत्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्ग- जायमानं तत्त्वार्थानां जीवाजीवास्रव-बन्ध-संवरश्रद्धानं मिथ्यादर्शनम् । (नि. सा. वृ. ६१) । २४. निर्जरा-मोक्षणाम् अश्रद्धानम् अनभ्युपगमो मिथ्यामिथ्यात्वं नाम सर्वज्ञप्रज्ञप्तेषु जीवाजीवादिभावेषु त्वम् । (गो. जो. म. प्र. १५) । ३८. यदुदयात्सर्वनित्यानित्यादिविचित्रपर्यायपरम्परापरिगतेषु विपरी- ज्ञवीतरागप्रणीतसम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्रलक्षणोपलततया श्रद्धानम् । (उपदेप. मु. वृ. २८)। २५. क्षितमोक्षमार्गपराङ्मुखः सन्नात्मा तत्त्वार्थश्रद्धानमिथ्यात्वमतत्त्वेषु तत्त्वाभिनिवेशः। (कर्मवि. पू. निरुत्सुक: तत्त्वार्थश्रद्धानपराङ्मुखः अशुद्धतत्त्वपरित व्या. २)। २६. प्रदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च णामः सन् हिताहितविवेकविकलः जडादिरूपतयावया। अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ।। तिष्ठते तन्मिथ्यात्वं नाम दर्शनमोहनीयमच्यते । (योगशा. २-३; प्राचारदि. पृ. ४७ उद्.)। (त. वृत्ति श्रुत. ८-६)। ३६. तत्त्वार्थमश्रद्धानं २७. मिथ्यात्वं तत्त्वार्थाश्रद्धानरूपम् । (पंचसं. मलय. श्रद्धानं वा तदन्यथा। मिथ्यात्वं प्रोच्यते प्राज्ञैः वृ. ४-२; आव. नि. मलय. वृ. ७४०, पृ. ३६५)। तच्च भेदादनेकधा ॥ (जम्बू. च. १३-१०४) । २८. मिथ्यात्वम् अतत्त्वादिषु तत्त्वाद्यभिनिवेशः। ४०. यदुदयाज्जिनप्रणीततत्त्वाश्रद्धानं तन्मिथ्यात्वम । (धर्मसं. मलय. वृ. १५); मिथ्यात्वम् अतत्त्वाभि- (कर्मप्र. यशो. वृ. १, पृ. ४)। ४१. मिथ्यात्वं निवेशः (धर्मसं. मलय. वृ. ३७)। २६. मिथ्यात्वं विपर्यासरूपम् । (ज्ञा. सा. वृ. ४-७, पृ. २१)। विपरीतावबोधस्वभावम। (षडशी. मलय.व. ७४)। १ जिनोपदिष्ट तत्त्वों में जो संशय, विपर्यय और ३०. अदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरावपि । अतत्त्वे अनध्यवसायरूप विमोह (मूढता) रहता है उसका
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मिथ्यात्वक्रिया]
६१८, जैन-लक्षणावली [मिथ्यादर्शनक्रिया नाम मिथ्यात्व है। २ तत्त्वार्थों के प्रश्रद्धान को श्रद्धानरूपेण ज्ञाने स्वदमानो मिथ्यात्वोदयः । (सम-- मिथ्यात्व कहते हैं। वह संशयित, अभिगृहीत और यप्रा. अमृत. वृ. १४२) । ३. मिथ्यात्वोदयो भवति अनभिगृहीत के भेद से तीन प्रकार का है। जीवानामनन्तज्ञानादिचतुष्टयरूपं शुद्धात्मतत्त्वमुपा३ मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय के उदय से सर्वज्ञोक्त देयं विहायान्यत्र यच्छद्धानं रुचिरुपादेय बुद्धिः । मार्ग से विमुख होकर तत्त्वार्थ के श्रद्धान में उत्सु- (समयप्रा. जय. वृ. १४२) । कता से रहित होते हुए जो हित व अहित के १ जीवों के जो अयथार्थ तत्त्वों का श्रद्धान होता है विचार में असमर्थता होती है, इसे मिथ्यात्व कहा उसका नाम मिथ्यात्वोदय है । जाता है।
मिथ्यादर्शन-देखो मिथ्यात्व । १. मोहनीयभेदमिथ्यात्वक्रिया-१. अन्यदेवतास्तवनादिरूपा मि
मिथ्यात्वोदयात् विपरीतार्थदर्शनं मिच्छादसणं थ्यात्वहेतुका प्रवृत्तिमिथ्यात्वक्रिया । (स. सि. ६-५;
हृत्पूरकफलभक्षितपुरुषदृष्टिदर्शनवत् । (अनुयो. चू. त. वा. ६, ५, ७)। २. प्रवृत्तिरकृतादन्यदेवतास्त
पु.८६)। २. मिथ्यादर्शनमतत्त्वश्रद्धानम् । (त. वनादिका । सा मिथ्यात्वक्रिया ज्ञेया मिथ्यात्वपरि
वा. ७, १८, ३)। ३. तत्त्वार्थाश्रद्धानं मिथ्यादर्शवद्धिनी ॥ (ह. पु. ५८-६२) । ३. कुचैत्यादिप्रति
नम् अभिगृहीतानभिगृहीत-सन्देहभेदात् त्रिधा । ष्ठादिर्या मिथ्यात्वप्रवधिनी । सा मिथ्याक्रिया बोध्या
(त. भा. हरि. वृ. ७-१३)। ४. यदहंदवर्णवादमिथ्यात्वोदयसंसृता । (त. श्लो. ६, ५, ३)।
हेतुलिंगमहदादिश्रद्धाविघातकं दर्शनपरीषहकारण ४. मिथ्यात्वक्रिया तत्त्वार्थाऽश्रद्धानलक्षणा । (त.
तन्मिथ्यादर्शनम् । (अनुयो. हरि. व. पु. ६३) । भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। ५. परदेवतास्तुतिरूपा
५. मिथ्यादर्शन विपरीतपदार्थश्रद्धानरूपम् । (धा. मिथ्यात्वप्रवृत्तिकारणभूता मिथ्यात्वक्रिया। (त. वृत्ति प्र. टी. ३४१)। ६. मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणि श्रुत. ६-५)।
मिच्छदंसणम् । (धव. पु. १२, पृ. २८६) । ७. १ अन्य देवतानों की स्तुति प्रादि रूप जो मिथ्यात्व
जीवादितत्त्वार्थाश्रद्धानम् । (सिद्धिवि. वृ. ४-११, को कारणभूत क्रिया की जाती है उसे मिथ्यात्व
पृ. २७०)। ८. मिथ्यादर्शनम् अतत्त्वार्थश्रद्धानमिति । प्रिया कहा जाता है।
(समवा. अभय. व. ३)। ६. मिथ्यादर्शनं त्वशुद्धमिथ्यात्ववेदनीय-देखो मिथ्यात्व। १. मिथ्या
मिथ्यात्वदलिकोदयसमत्थजीवपरिणामः । (भगवती. त्वरूपेण वेद्यते यत्ततन्मिथ्यात्ववेदनीयम् । (श्रा. प्र.
दान. वृ.८, २, पृ. १२०) । १५) । २. यत् पुनर्जिनप्रणीततत्त्वाश्रद्धानात्मकेन मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते तत् मिथ्यात्ववेदनीयम् ।
१ जिस प्रकार हत्पूर (धतूरा) फल के खाने वाले (प्रजाप. मलय. ब. २६३, पृ. ४६८)। ३.
पुरुष की दृष्टि दूषित हो जाने से वह वस्तुनों को
विपरीत देखता है उसी प्रकार मोहनीय के भेवभूत यददयाज्जिनप्रणीततत्त्वाश्रद्धानं तन्मिथ्यात्वम् ।
मिथ्यात्व के उदय से जो पदार्थों का विपरीत वर्शन (सप्तति. मलय. वृ. ६)। ४. यदुदयवशाज्जिन
होता है वह मिथ्यावर्शन कहलाता है । २ तत्वों के प्रषीततत्त्वाश्रद्धानं तन्मिथ्यात्वम् । (पंचसं. मलय.
विपरीत श्रद्धान को मिथ्यावर्शन कहते हैं । वृ. ३-६)। २ जिस कर्म का मनभवन जिनोपदिष्ट तत्वों के मिथ्यावर्शनक्रिया-१. अन्यं मिथ्यादर्शनक्रियाप्रश्रद्धानस्वरूप मिथ्यात्व के रूप में किया जाता है करण-कारणाविष्टं प्रशंसाभिर्दढयति यथा साधु करोउसे मिथ्यात्ववेदनीय कहते हैं।
षीति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। (स. सि. ६-५; त. मिथ्यात्वसेवा-मिथ्यात्वस्य सेवा तत्परिणाम- वा. ६, ५, ११)। २. मिथ्यादिकारणाविष्टदष्टीयोग्य द्रव्याधुपयोगः । (भ.ग्रा. मला. ४४) । करणमत्र यत् । प्रशंसादिभिरुक्तान्या सा मिथ्यामिथ्यात्व परिणाम के योग्य द्रव्य प्रादि का उपयोग दर्शनक्रिया ॥ (त. श्लो. ६, ५, २५) । ३. मिथ्याकरना, इसका नाम मिथ्यात्वसेवा है।
दर्शनमार्गेण सन्ततं प्रयाणमन्यं साधयामीत्यनुमोदमिथ्यात्वोदय-१.मिच्छत्तस्स दु उदयं जं जीवा. मानस्य मिथ्यादर्शनक्रिया। (त. भा. सिद्ध. व. णं दु अतच्चसद्दहणं । (समयप्रा. १४२)। २. तत्त्वा-६-६)। ४. मिथ्यामतोक्तक्रियाविधान-विधापन
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मिथ्यादर्शनवाक्] ६१९, जैन-लक्षणावली
[मिथ्यादृष्टि तत्परस्य पुंसः साधुत्वं विदधासोति मिथ्यामतदृढनं तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होइ । ण य धम्म दर्शनक्रिया । (त. वृत्ति ६-५) ।
रोचेदि हु महुरं पि रसं जहा जरिदो ।। (प्रा. पंचसं. १ मिथ्यादर्शनरूप प्राचरण के करने-कराने में उद्यत १-६, धव. पु. १, पृ. १६२ उद. गो. जी. १७); अन्य को 'तुम ठीक कर रहे हो' इस प्रकार की प्राप्तागमविषयश्रद्धारहिता मिथ्यादृष्टयः। (धव. प्रशंसा प्रादि के द्वारा दृढ़ करना, इसे मिथ्यादर्शन- पु. १, पृ. २७४)। ७. पज्जयरत्तउ जीवडउ मिक्रिया कहते हैं। ३ मिथ्यादर्शन के मार्ग से निरन्तर च्छादिदि हवेइ। बंधइ बहुविहकम्मडा जे संसारु चलने वाले अन्य को मैं साधता हूं, इस प्रकार से भमेइ । (परमा. १-७७)। ८. तत्र मिथ्यादर्शनोअनुमोदन करने वाले पुरुष की प्रवृत्ति को मिथ्या- दयवशीकृतो मिथ्यादृष्टिः। तेषु मिथ्यादर्शनकर्मोदर्शनक्रिया कहा जाता है।
दयेन वशीकृता जीवा मिथ्यादृष्टिरित्यभिधीयते । मिथ्यादर्शनवाक्-१. तद्विपरीता (सम्यग्दर्शन- (त. वा. ६, १, १२) । ६. मिथ्या वितथा व्यलीका वागविपरीतासम्यङ्मार्गस्योदेष्ट्री) मिथ्यादर्शनवाक्। असत्या दृष्टिदर्शन विपरीतकान्त-विनय-संशयाज्ञान(द. वा. १, २०, १२, पृ. ७५; धव. पु. १, पृ. रूपमिथ्यात्वकर्मोदयजनिता येषां ते मिथ्यादृष्टयः । ११७)। २. मिथ्यादर्शनवाक् सा या मिथ्यामार्गो- xxx अथवा मिथ्या वितथं तत्र दृष्टिः रुचिः पदेशिनी। (ह. पू. १०-६७)। ३. मिच्छामग्गोव- श्रद्धा प्रत्ययो येषां ते मिथ्यादष्टयः। (धव. प. १. देशकं वयणं सिच्छादसणवयणमिदि। (अंगप. पृ. प. १६२) । १०. मिथ्यादष्टि वेज्जीवो मिथ्या२६३)।
दर्शनकर्मणः । उदयेन पदार्थानामश्रद्धानं हि यत्कृ१ सम्यग्दर्शनवाक् से विपरीत-मिथ्यामार्ग के तम् ॥ (त. सा. २-१८)। ११. दोससहियं पि उपदेशक-वचन को मिथ्यादर्शनवाक कहते हैं। देवं जीवहिंसाइसंजदं घम्म । गंथासत्तं च गुरु मिथ्यादर्शनशल्य- १. मिथ्यादर्शनमतत्त्वश्रद्धा- जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी ॥ (कातिके. ३१८) । नम् । (स. सि. ७-१८ त. वा. ७, १८, ३)। १२. इंदियसोक्खणिमित्तं सद्धाणादीणि कुणइ सो २. मिथ्यादर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानाभावः। (त. वृत्ति मिच्छो। (द्रव्यस्व.प्र. नयच. ३३३)। १३. तत्त्वाश्रुत. ७-१८ कातिके. टी. ३२६)।
नि जिनदृष्टानि यस्तथ्यानि न रोचते। मिथ्यात्व१ तत्त्वों के विपरीत श्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते स्योदये जीवो मिथ्यादृष्टिरसो मतः ॥ (पंचसं. हैं। यह तीन प्रकार के शल्यों में से एक है। अमित. १-१९) । १४. मिथ्या वितथाऽसत्या दृष्टिमिथ्यादृष्टि-देखो मिथ्यादर्शन । १. मिच्छादिट्ठी दर्शनं विपरीतकान्त-विनय-संशयाज्ञानरूपमिथ्यात्वणाम कथं भवदि ? मिच्छत्तकम्मस्स उदएण। कर्मोदयजनिता येषां ते मिथ्यादृष्टयोऽथवा मिश्या (षट्खं. २, १, ८०-८१-धव. पु.७, पृ.१११)। वितथम्, तत्र दृष्टी रुचिः श्रद्धा प्रत्ययो येषां ते २. सहजप्पण्णं रूवं दटुं जो मण्णए ण मच्छरियो। मिथ्यादृष्टयोऽनेकान्ततत्त्वपराङ्मुखाः। (मला. वृ. सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो॥ प्रम- १२-१५४) । १५. मिथ्या विपर्यासवती जिनाराण वंदियाणं एवं दट्ठण सीलसहियाणं। जे भिहितार्थसार्थाश्रद्धानवती दष्टिः दर्शनं श्रद्धानं मेषां गारवं करंति य सम्मत्तविवज्जिया होति। (दर्शन- ते मिथ्यादष्टिका: मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदयादरुचितप्रा. २४-२५) । ३. जो पुण परदव्वरो मिच्छा- जिनवचनाः । (स्थाना. अभय. वृ. १-५१) । १६. दिट्टी हवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो उण तं पंचविहं मिच्छं तद्दिट्टी मिच्छदिट्टी य । (शतक. बज्झदि दुट्टट्ठकम्मेहिं ॥ कुच्छियदेवं धम्म कुच्छिय- भा. ८३)। १७. मिथ्यादृष्टिर्भवेन्मिथ्यादर्शनस्योलिंगं च वंदए जो दु । लज्जा-भय-गारवदो मिच्छा- दये सति । गुणस्थानत्वमेतस्य भद्रकत्वाद्यपेक्षया ॥ दिट्टी हवे सो हु ॥ (मोक्षप्रा. १५ व ६२)। ४. (योगशा. स्वो. विव. १-१६, पृ. १११)। १८. सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहिदं। मिथ्या विपर्यस्ता दृष्टिर्वस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते तस्सोदएण जीवो मिच्छादिवि त्ति णादव्वो ॥ मिथ्यादृष्टयः। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २४०, पृ. (समयप्रा. १७१) । ५. मिथ्यादर्शनकर्मोदयवशीकृत ३८८) । १६. मिथ्या विपर्यस्ता दृष्टिर्येषां भक्षितआत्मा मिथ्यादृष्टिः। (स.सि. ६-१)। ६. मिच्छ- हत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् मिथ्यादृष्टयः ।
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[मिथ्यादृष्टिसंस्तव
पिथ्यादृष्टिगुणस्थान] ६२०, जैन-लक्षणावली (जीवाजी. मलय. वृ. १३, पृ. १८) । २०. मिथ्या दृष्टिमबिभ्रतः। मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं यदुक्तं पूर्वविपर्यस्ता दृष्टिर्जीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य भ- सूरिभिः ॥ (लोकप्र. ३, ११३४-३५) । क्षितधत्तूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् स मिथ्या- १ मिथ्यात्व के उदय से जीव के जो प्रौदयिक भाव दृष्टिः । (पंचसं. मलय. वृ. १-१५; कर्मस्त. गो. होता है उससे मिथ्यावृष्टि गुणस्थान होता है । वृ. २, पृ. ७०; कर्मस्त. दे. स्वो. व. २, पृ. ६७)। ५ जिनोपदिष्ट तत्त्वों के विषय में श्रद्धान न करना, २१. तत्त्वार्थविपरीतरुचिमिथ्यादृष्टिः। (त. वृत्ति । विपरीत श्रद्धान करना, अन्यथा कथन करना, सन्देह श्रुत. ६-१)। २२. तत्र मिथ्या विपर्यस्ता जिन- करना तथा उनके विषय में अनादर करना; इसका प्रणीतवस्तुषु । दृष्टियंस्य प्रतिपत्तिः स मिथ्यादृष्टि- नाम मिथ्यात्व है। उसके होने पर मिथ्यादृष्टि रुच्यते ॥ (लोकप्र. ३-११३४)। २३. यस्यास्ति गुणस्थान होता है। कांक्षितो भावो ननं मिथ्यादगस्ति सः। (लाटीसं. मिथ्यादष्टिप्रशंसा-१. मनसा ४-७४)।
चारित्र-गुणोद्भावनं प्रशंसा। (स. सि. ७-२३; १ मिथ्यात्व कर्म के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि त. वा. ७, २३, १)। २. मिथ्या जिनागमविपहोता है। ३ जो साधु पर पदार्थों में अनुरक्त रहता रीता दृष्टिदर्शनं येषां ते मिथ्यादृष्ट यस्तेषां प्रशंसनं है वह मिथ्यादष्टि होता है। जो भय, लज्जा या प्रशंसा। (योगशा. स्वो. विव.२-१७, पृ. १८६)। गारव से कुदेव, कुधर्म और कुगुरु की वन्दना करता ३. मिथ्यादृष्टीनां मनसा ज्ञान-चारित्रगुणोद्भावनं है उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए। १५ जिनकी प्रशंसा । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२३)।। वृष्टि मिथ्यास्वमोहनीय कर्म के उदय से जिनप्रणीत १ मन से मिथ्यावृष्टि के ज्ञान और चारित्र गुणों पदार्चसमूह के श्रद्धान से रहित होती है तथा के कीर्तन का नाम मिथ्यादृष्टिप्रशंसा है। यह जिनको जिनवाणी नहीं रचती है वे मिथ्यादृष्टि सम्यग्दर्शन का एक प्रतीचार है। २ जिनकी दृष्टि कहलाते हैं।
जिनागम से विपरीत होती है वे मिथ्यादृष्टि कहमिच्यादृष्टि गुणस्थान- देखो मिथ्यादृष्टि । लाते हैं, ऐसे मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा को मिथ्या१. मिच्छत्तस्सुदएण य जीवे संभवइ उदइओ भावो। दृष्टिप्रशंसा कहते हैं। तेष य मिच्छादिट्ठी ठाणं पावेइ सो तइया ॥ (भाव- मिथ्यादृष्टिश्रुत-देखो मिथ्याश्रुत । सं. दे. १२) । २. सहजशुद्धकेवलज्ञान-दर्शन- मिथ्यादृष्टिसंस्तव- १. (मिथ्यादृष्टेः) भूतारूपाखण्डकप्रत्यक्षप्रतिभासमयनिजपरमात्मप्रतिषड्- भूतगुणोद्भावनवचनं संस्तवः। (स. सि. ७-२३, द्रव्य-पंचास्तिकाय-सप्ततत्त्व-नवपदार्थेषु मूढत्रयादि- त. वा. ७, २३, १)। २. तैमिथ्यादृष्टिभिरेकत्र पंचविंशतिमलरहितं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन संवासात्परस्परालापादिजनितः परिचयः संस्तवः । यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिः। (बृ. द्रव्यसं., एकत्र वासे हि तत्प्रक्रियाश्रवणात् ताक्रियादर्शनाच्च दौ. १३)। ३. तस्य मिथ्यादृष्टेः गुणस्थानं ज्ञाना- दृढसम्यक्त्ववतोऽपि दृष्टिभेद: सम्भाव्यते, किमुत दिगुणानामविशुद्धिप्रकर्ष-विशुद्धयपकर्षवतः स्वरूपवि- मन्दबुद्धेर्नवधर्मस्य इति संस्तवोऽपि सम्यक्त्वदूषणम् । शेषो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् । (कर्मस्त. दे. स्वो. वृ. (योगशा. स्वो. वि. २-१७, पृ. १८६) । ३. विद्य. ६७)। ४. तत्राद्यं यद् गुणस्थानं मिथ्यात्वं नाम मानानामविद्यमानानां मिथ्यादृष्टेर्गुणानां वचनेन जायते । पंचानां दृष्टिमोहाख्यकर्मणामुदयोद्भवम् ।। प्रकटनं संस्तव उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२३)। (भावसं. वाम. २५)। ५. जिनादिष्टेषु तत्त्वेषु न १ मिथ्यादृष्टि के विद्यमान व अविद्यमान गुणों का श्रद्धानं भवेदिह । श्रद्धानं चापि यन्मिथ्याऽन्यथा या वचन से कीर्तन करना, इसे मिथ्यादृष्टिसंस्तव च प्ररूपणा ॥ सन्देहकरणं यच्च यदेतेष्वप्यनादरः। कहते हैं। यह सम्यक्त्व का एक प्रतीचार है। तन्मिथ्या पञ्चधा तस्मिन् दृग्मिथ्यादृष्टिको गुणः ।। २ मिथ्यादृष्टियों के साथ एक स्थान पर रहने से (सं. प्रकृतिवि. जयति. ५-६)। ६. तत्र मिथ्या जो परस्पर में वार्तालाप आदि के द्वारा परिचय विपर्वस्ता, जिनप्रणीतवस्तुषु । दृष्टिर्यस्य प्रतिपत्तिः उत्पन्न होता है उसे मिथ्याष्टिसंस्तव कहते हैं । स भिथ्यादष्टिरुच्यते ॥ यत्त तस्य गुणस्थानं सम्य- यह सम्यक्त्व का अतिचार है। इसका कारण यह है
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मिथ्यादृष्टिसेवा] १२१, जैन-लक्षणावली
[मिथ्योपदेश है कि एक स्थान पर साथ में रहने से मिथ्यादृष्टियों मितरद्वा मिथ्याश्रुतम्, यथास्वरूपमनवगमात् । (कर्मकी प्रक्रिया के देखने व सुनने से दृढ सम्यग्दृष्टि के भी वि. दे. स्वो. वृ. ६)। दृष्टिभेद हो जाना सम्भव है, फिर भला मन्दबुद्धि १ जो श्रुत अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के द्वारा स्वतन्त्र का तो कहना ही क्या है ?
प्रवग्रह वा ईहा रूप बुद्धि से तथा अपाय (प्रवाय) मिथ्यादृष्टिसेवा-मिथ्यादष्टिसेवा नाम एकान्त- व धारणा रूप मति से कल्पित हो उसे मिथ्याश्रत ग्रहरक्तानां बहुमननम् । (भ. प्रा. मूला. ४४)।
कहते हैं। जो एकान्तरूप पिशाच से पीड़ित हैं उनको बहुत
मिथ्यास्तिक्य-xxx मिथ्यास्तिक्यं ततोमानना, इसका नाम मिथ्यादृष्टिसेवा है।
ऽन्यथा (सम्यक्त्वेनाविनाभूतस्वानुभूतिभिन्नम्) । मिथ्यानेकान्त-१. तदतत्स्वभाववस्तुशून्यं परि
(लाटोसं. ३-१०२)।
सम्यक्त्व के बिना-मिथ्यात्व के साथ-जो प्रात्मकल्पितानेकान्तात्मकं केवलं वाग्विज्ञान मिथ्यानेकान्तः । (त. वा. १, ६, ७)। २. प्रत्यक्षादि
परपदार्थों का अयथार्थ अनुभवन होता है उसे
मिथ्यास्तिक्य कहा जाता है। विरुद्धानेकधर्मपरिकल्पनं मिथ्यानेकान्तः। (सप्तभं.
मिथ्र्यकान्त-१. एकात्मावधारणेन अन्याशेषनिरापृ. ७४).
करणप्रवणप्रणिधिमिथ्यकान्तः। (त. वा. १,६,७)। १ तत्-प्रतत् (सत्-असत् व नित्य-अनित्य प्रादि)
२. मिथ्यकान्तस्त्वेकधर्ममात्रावधारणेनान्याशेषधर्मस्वभाव से रहित वस्तु में केवल कल्पना से स्वीकृत अनेक धर्म स्वरूप वचन के ज्ञान को मिथ्या अने
निराकरणप्रवणः । (सप्तभं. पृ. ७४) ।
१ एक धर्म का निश्चय करके जो अन्य समस्त धर्मों कान्त कहते हैं।
के निराकरण की व्यवस्था की जाती है वह मिथ्यामिथ्यार्थ--देखो तत्त्वार्थ । ततः (तत्त्वार्थात् )
एकान्त है। अन्यस्तु सर्वथकान्तवादिभिरभिमन्यमानो मिथ्यार्थः,
मिथ्योपदेश-१. अभ्युदय-निःश्रेयसार्थेषु क्रियातस्य प्रमाण-नयस्तथार्यमाणत्वाभावादिति । (त. विशेषेष अन्यस्यान्यथाप्रवर्तनमतिसन्धापनं वा श्लो. १, २५, पृ. ८४)।
मिथ्योपदेशः । (स. सि. ७-२६) १२. मिथ्योपदेशो तत्वार्थ से भिन्न, अर्थात सर्वथैकान्तवादियों के द्वारा
नाम प्रमत्तवचनमयथार्थवचनोपदेशो विवादेष्वतिमाना गया अर्थ (वस्तुस्वरूप) मिथ्यार्थ कहलाता है। सन्धानोपदेश इत्येवमादिः । (त. भा. ७-२१) । मिथ्याशल्य-१. निजनिरञ्जन-निर्दोषपरमात्मै- ३. मिथ्यान्यथाप्रवर्तनमतिसन्धापन वा मिथ्योपदेशः। वोपादेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्या- अभ्युदय-निःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्यान्यथाशल्यम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४२)। २ मिथ्यात्वं प्रवर्तनमतिसन्धापन वा मिथ्योपदेश इत्युच्यते । (त. विपरीताभिनिवेशः। (सा. घ. स्वो. टी. ४-१)। वा. ७, २६, १)। ४. मषोपदेशमसदुपदेस मिदमेव १ अपना निर्मल व निर्दोष उत्कृष्ट प्रात्मा ही उपा- चैवं च कुवित्यादिलक्षणम् । (था. प्र. टी. २६३) । देय है, इस प्रकार की रुचि रूप सम्यक्त्व से भिन्न ५. अतिसन्धापन मिथ्योपदेश इह चान्यथा। यदभ्युमिथ्याशल्य कहलाती है।
दय-मोक्षार्थक्रियास्वन्यप्रवर्तनम् ॥ (ह. पु. ५८, मिथ्याश्रत-१. जं इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिदि- १६६) । २. मिथ्यान्यथाप्रवर्तनमतिसन्धापनं वा एहिं सच्छंदबुद्धि-मइविगप्पिनं से तं मिच्छासुझं। मिथ्योपदेशः सर्वथकान्तप्रवर्तनवत् सच्छास्त्रान्य(नन्दी. सू. ४१, पृ. १६४) । २. मिथ्यादृष्टे: पुन- थाकथनवत् परातिसन्धायकशास्त्रोपदेशवच्च । रप्रशमादिमिथ्यापरिणामोपेतत्वाद्वस्तुनः स्वरूपेणा- (त. श्लो. ७-२६) । ७. अभ्युदय निःश्रेयसार्थेषु प्रतिभासनान्मिथ्याश्रुतम्, पित्तोदयाभिभूतस्याशर्करा- क्रियाविशेषेषु अन्यस्यान्यथाप्रवर्तनमभिसन्धापनं वा दिवदिति । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ५२)। ३. तदेव मिथ्योपदेशः । (चा. सा. पृ. ५)। ८. मिथ्योपदेशो मिथ्यादृष्टेरन्यथावगमान्मिथ्याश्रुतम् । (कर्मवि. ग. नाम अलीकवादविषय उपदेश इदमेवं चैवं च ब्रहीपरमा. व्या. १०)। ४. मिथ्यादृष्टेः पुनरर्हत्प्रणीत- त्यादिकमसत्याभिधानं शिक्षणम् । (घ. बि. मु.व.
ल. ११६
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मिथ्योपदेश] ६२२, जैन-लक्षणावली
[मिश्रग्रहणाद्धा ३-२४) । ६. मिथ्योपदेशोऽसदुपदेशः प्रतिपन्नसत्य- प्रभाव में व्यतिरेक का विचार करना उसे मिथ्याव्रतस्य हि परपीडाकरं वचनमसत्यमेव, ततः प्रमा- तर्क या तर्काभास कहते हैं, कारण कि वचन की दात् परपीडाकरणे उपदेशे अतिचारो यथा वाह्य- प्रवृत्ति विवक्षा के अनुसार हुआ करती हैं। न्तां खरोष्टादयो हन्यन्तां दस्थव इति । यद्वा यथा- मिश्रकाल-मिस्सकालो जहा सदंससीदकालो स्थितोऽर्थस्तथोपदेशः साधीयान्, विपरीतस्तु अयथा- इच्चेवमादि। (धव. पु. ११, पृ. ७६) ।
र्थोपदेशो यथा-परेण सन्देहापन्नेन पृष्टे न तथोप- डांस-मच्छर युक्त काल, इत्यादि मिश्रकाल कहदेशः, यद्वा विवादे स्वयं परेण वा अन्यतराभिसन्धा- लाता है। नोपायोपदेश इति प्रथमोऽतिचारः। (योगशा. स्वो. मिश्रगुणस्थान-देखो मिश्रदर्शन । १. दहि-गुडविव. ३-६१, पृ. ५५०)। १०. अभ्युदय-निःश्रेय- मिव वा मिस्सं पिहुभावं णेव कारिदुं सक्कं । एवं सार्थेषु क्रियाविशेषेष्वन्यस्यान्यथाप्रवर्तनम्, परेण मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो ॥ (प्रा. सन्देहापन्नेन पृष्टेऽज्ञानादिनाऽन्यथाकथनमित्यर्थः । पंचसं. १-१०; धव. पु. १, पृ. १७० उद्.; गो. अथवा प्रतिपन्नसत्यव्रतस्य परपीडाकरं वचनमसत्य- जी. २२)। २. सम्मामिच्छदएण य सम्मिस्सं णाम मेव, ततः प्रमादात परपीडाकरणे उपदेशेऽतिचारो होइ गुणठाणं । खय-उवसमभावगयं अंतरजाई समयथा वाह्यन्तां खरोष्ट्रादयो हन्यन्तां दस्यव इति दिळें ॥ (भावसं. दे. १९८)। ३. निजशुद्धात्मानिष्प्रयोजनं वचनम् । यद्वा विवादे स्वयं परेण वा. दितत्त्वं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतं परप्रणीतं च मन्यते यः ऽन्यतरातिसन्धानोपायोपदेशो मिथ्योपदेशः। (सा. स दर्शनमोहनीयभेदमिश्रकर्मोदयेन दधि-गुडमिश्रभावघ. स्वो. टी. ४-४५)। ११. तयोरभ्युदय-निःश्रेय- वत् मिश्रगुणस्थानवर्ती भवति । (बृ. द्रव्यसं. टी. सयोनिमित्तं या क्रिया सत्यरूपा वर्तते तस्याः क्रिया- १३)। ४. जह गुड-दहीणि विसमाणि भावरहियाणि याः मुग्धलोकस्य अन्यथाकथनमन्यथाप्रवर्तनं धना- होति मिस्साणि । भुंजतस्स तहोभयतद्दिट्टी मीसदिट्टी दिनिमित्त परवंचनं च मिथ्योपदेश उच्यते । (त. य॥ (शतक. ६, भा. ८५, प. २१)। ५. मिश्रवृत्ति श्रुत. ७-२६)। १२. अभ्युदय-निःश्रेयसयो- कर्मोदयाज्जीवे पर्यायः सर्वधातिजः। न सम्यक्त्वं रिन्द्राहमिन्द्र-तीर्थकरादिसुखस्य परमनिर्वाणपदस्य न मिथ्यात्वं भावोऽसौ मिश्र उच्यते ॥ (भावसं. च निमित्तं या क्रिया सत्यरूपा वर्तते तस्याः क्रिया- बाम. ३०५)। ६. मिश्रकर्मोदयाज्जीवे सम्यग्मियाः मुग्धलोकस्य अन्यथाकथनम् अन्यथाप्रवर्तनं थ्यात्वमिश्रितः । यो भावोऽन्तमहत्तं स्यात्तन्मिश्रस्थाधनादिनिमित्तं परवचनं च मिथ्योपदेशः । (कार्तिके. नमुच्यते ॥ जात्यन्तरसमुद्भूतिवंडवा-खरयोर्यथा । टो. ३३३-३४) । १३. तत्र मिथ्योपदेशाख्यः परेषां गुड-दघ्नोः समायोगे रसभेदान्तरं यथा ॥ तथा धर्मप्रेरणं यथा । अहमेवं न वक्ष्यामि वद त्वं मम मन्म- द्वये श्रद्धा जायते समबुद्धितः। मिश्रोऽसौ भण्यते नात् ॥ (लाटीसं. ६-१८)।
तस्माद् भावो जात्यन्तरात्मकः । (गुण. क्र. १३, १ स्वर्गादिरूप अभ्युदय एवं मोक्ष की प्राप्ति में १५)। ७. गुड-दघ्नोर्यथा स्वादो मिश्रयोर्जेमतामिह । प्रयोजनीभूत विशिष्ट क्रियानों के विषय में दूसरे मिथ्या-सम्यक्त्वयोरेवं मिश्रयोमिश्रको गुणः ।। (सं. को विपरीत प्रवर्ताना अथवा ठगना, इसे मिथ्योपदेश प्रकृतिवि. जय. ८)। कहा जाता है। यह सत्याणुव्रत का एक अतिचार १ जिस प्रकार मिले हुए दही और गुड़ के स्वाद है । २ प्रमाद से युक्त होते हुए बोलना, वस्तुस्वरूप को पृथक् नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार के विपरीत उपदेश देना, अथवा विवाद (कलह) सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तत्वार्थ के मिथ्या के विषय में कपटपूर्ण उपदेश करना, इसका नाम श्रद्धान के साथ जो उसका सम्यक् श्रद्धान मिश्रित मिथ्योपदेश है।
रहता है उसे मिश्रगुणस्थान समझना चाहिए। मिथ्योह-देखो कुतर्क । विवक्षातो वाचोवृत्तेरन्य- मिश्रग्रहणाद्धा-अप्पिदपोग्गलपरियट्टन्भन्तरे गहित्रानुपलभ्भेन सर्वतः तदभावे व्यतिरेकचिन्ता मिथ्योहः। दागहिदपोग्गलाणमक्कमेण गहणकालो मिस्सय(प्रमाणसं. स्वो. वि. १५)।
गहणद्धा णाम । (धव. पु. ४, पृ. ३२८) । अन्यत्र साधन की उपलब्धि न होने से सर्वत्र उसके विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर गृहीत और
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मिश्रचारित्र ]
अगृहीत पुद्गलों के एक साथ ग्रहण करने के काल को मिश्रग्रहणाद्धा कहते हैं । मिश्रचारित्र - देखो क्षायोपशमिक चारित्र । अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यान- प्रत्यख्यानलक्षणानां द्वादशानां कषायाणां उदयस्य क्षये सति विद्यमानलक्षणोपशमे सति संज्वलनचतुष्काऽन्यतमस्य देशघातिनश्चोदये सति हास्य रत्य रति-शोक-भय- जुगुप्सा स्त्री-पुंनपुंसक - वेदलक्षणानां नवानां नोकषायाणां यथासंभवमुदये च सति मिश्रं चारित्रम् । (त. वृत्ति श्रुत. २-५) । अनन्तानुबन्धी, श्रप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान रूप बारह कषायों का उदयक्षय, उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम, देशघाती चार संज्वलनों में से किसी एक का उदय तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद रूप नो नोकषायों का यथासम्भव उदय होने पर जो चारित्र होता है उसे मिश्रचारित्र कहते हैं मिश्रजात - १. मिश्रजातं च - श्रादित एव गृहिसंयत-मिश्रोपस्कृतरूपम् । ( वशवै. गा. हरि. वृ. ५५, पृ. १७४) । २. यदात्मनो हेतोर्गृहस्थेन यावदर्थिका दितोश्च मिलितमारभ्यते तन्मिश्रम् | ( गु. गु. षट्. स्व. वृ. २०, पृ. ४८ ) ।
१ प्रारम्भ में ही जो भोजन गृहस्थ और साधु दोनों के लिए मिश्रित रूप में पकाया गया हो वह मिश्रजात नामक दोष से दूषित होता है । यह १६ उद्गम दोषों में चौथा है ।
मिश्रदर्शन - देखो मिश्रगुणस्थान | सम्यक्त्व-मिध्यात्वयोगान्मुहूर्त मिश्र दर्शनः । (योगशा. स्वो. विव. १-१६, पृ. १११ उद्.) । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के योग से जो एक मुहूर्त मिश्रित श्रद्धान होता है उसे मिश्रदर्शन या सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं । मिश्रवर्णनमोहनीय रागं नवि जिणघम्मे णवि दोस जाइ जस्स उदएणं । सो मीसस्स विवागो अंतमुत्तं भवे कालं || (कर्मवि. ३८ ) | जिस कर्म के उदय से जीव जैन धर्म के विषय में न तो राग को प्राप्त होता है और न द्वेष को भी प्राप्त होता है उसे मिश्रदर्शनमोहनीय (सम्यग्मिथ्यास्व का विपाक (परिणाम) जानना चाहिए । मिश्रदृष्ट-यस्यां जिनोक्ततत्वेषु न रागो नापि मत्सरः । सम्यग्मिथ्यात्वसंज्ञा सा मिश्रदृष्टि: प्र
६२३, जैन-लक्षणावली
[मिश्रद्रव्यसंयोग
कीर्तिता ।। ( लोकप्र. ४-६६६ ) ।
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जिस दृष्टि में जिन प्ररूपित तत्त्वों में न तो राग होता है और न मत्सरभाव भी होता है उसे मिश्रदृष्टि कहा जाता है । मिश्रदोष- - १. पासंडेहि य सद्धं सागारेहिं य जदण्णमुद्दि सियं । दादुमिदि संजदाणं सिद्धं मिस्सं वियाणाहि ॥ ( मूला. ६-१० ) । २. पाषण्डिनां गृहस्थानां वा क्रियमाणे गृहे पश्चात्संयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रणेन निष्पादितं वेश्म मिश्रम् । (भ. प्रा. विजयो. २३० ) । ३. संयतासंयताद्यर्थमादेरारम्याहारपरिपाको मिश्रम् । (प्राचा. सू. शी. वृ. २, १, २६६ ) । ४. मिश्रसंगे हि पाखण्डियतिभ्यो द्वितीयते । (प्राचा. सा. ८- २५) । ५. यदात्मार्थं साध्वर्थं चादित एव मिश्रं पच्यते तम्मिश्रम् | ( योगशा. स्वो विव. १-३८) । ६. पाषण्डिभिर्गृहस्थैश्च सह दातुं प्रकल्पितम् । यतिभ्यः प्रासुकं सिद्धमप्पन्नं मिश्रमिष्यते ॥ ( श्रन. घ. ५-१० ) । ७. पाषण्डिनां गृहस्थानां वा सम्बन्धितत्वेन क्रियमाणे गृहे पश्चात् संयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रणेन निष्पादितं वेश्म मिश्रम् । ( भ. प्रा. मूला. २३० ) । ८. यत् प्रासुकेन मिश्रं तन्मिश्रम् । XXX षड्जीवसम्मिश्रं मिश्रः । ( भावप्रा. टी. ६६, पृ. २४६ व २५२) । १ पाखण्डियों और गृहस्थों के साथ संयतों के देने के लिए जो भोजन तैयार किया गया है वह मिश्र नामक उद्गमदोष से दूषित होता है । मिश्रद्रव्यवेदना - मिस्सदव्ववेदणा दव्वं । ( धव. पु. १०, पृ. ७) । संसारी जीव द्रव्य को मिश्रनोकर्म-नोश्रागमद्रव्यवेदना कहा जाता है ।
संसारिजीव
मिश्रद्रव्यसंयोग - १. से कि तं मीसए ? हले हालिए सगदेणं सागडिए रहेणं रहिए नावाए नात्रिए, से तं मिसए से तं दब्वसंजोगे | (अनुयो. सू. १३६, पृ. १४४) । २. इदाणि मीस संजुत्तदब्वसंजोगो, स च जीव-कर्मणोः, तयोः स्थानादिसंयोगे सति यदुपचीयते स मिश्रसंयुक्तसंयोगो भवति । ( उत्तरा. चू. पृ. १६) ।
१ हल से हालिक ( हलवाहा ) शकट से शाकटिक, रथ से रथिक और नाव से नाविक; इत्यादि संयोग का नाम मिश्रद्रव्यसंयोग है । २ जीव और कर्म में जो उनके स्थान प्रादि का संयोग होने पर उपचय
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मिश्रद्रव्यस्थान]
६२४, जैन-लक्षणावलो
मिश्रयोग
होता है उसे मिश्रसंयुक्तसंयोग कहते हैं।
अनसार जो प्रतिक्रमण किया जाता है उसे मिश्र मिश्रद्रव्यस्थान-जं तं मिस्सदव्वठाणं तं लोगा- (मालोचन-प्रतिक्रमण) प्रायश्चित्त कहते हैं। गासो। (धव. पु. १०, पु. ४३६)।
मिश्रभाव-१. उभयात्मको (उपशम-क्षयात्मको) मिश्र (सचित्त-अचित्त) द्रव्यस्थान लोकाकाश है। मिश्रः। यथा तस्मिन्नेवाम्भसि कतकादिद्रव्यसम्बमिश्रद्रव्यस्पर्शन-मिस्सयदव्वफोसणं छण्हं दव्वा- न्धात् पङ्कस्य क्षीणाक्षीणवृत्तिः। (स. सि. २-१; णं संजोएण एगूणसट्ठिभेयभिण्णं । (धव. पु. ४, पृ. पारा. सा. टी. ४) । २. उभयात्मको मिश्रः १४३)।
क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत । यथा प्रक्षालनविशेमिश्रद्रव्यस्पर्शन छह द्रव्यों के संयोग से उनसठ षात् क्षीणाक्षीणमदशक्तिकस्य कोद्रवस्य द्विधा वृत्तिः, (५६) भेद रूप है।
तथा यथोक्तक्षय हेतुसन्निधाने सति कर्मण एकदेशस्य मिश्रद्रव्योपक्रम-१. मिश्रद्रव्योपक्रमः सचित्तस्यैव क्षयादेकदेशस्य च वीर्योपशमादात्मनो भाव: उभयाद्विपदादेः प्रचित्तकेशादिसहितस्य स्नानादिसंस्कार. त्मको मिश्र इति व्यपदिश्यते । (त. वा. २,१, ३)। करणम् । Xxx मिश्र द्रव्योपक्रमोऽपि तथैव १ उपशम और क्षय उभयस्वरूप भाव को मिश्र शंख-शृंखलाद्यलंकृतद्विरदादेः सचेतनस्य मगरादि- (क्षायोपशमिक) भाव कहते हैं। जैसे -- मलिन भिरभिधातः। (उत्तरा. नि. शा. वृ. २८, पृ. ११)। जल में निर्मली आदि के डालने पर उसके सम्बन्ध २. तेषामश्वादीनामेडकान्तानां कुङ्कुमादिभिर्मण्डि- से जल कुछ स्वच्छ हो जाता है, साथ ही नीचे तानां स्थासकादिभिस्तु विभूषितानां यच्छिक्षादिगुण- कीचड़ भी बैठा रहता है उसी प्रकार कर्म के कुछ विशेषकरण खड्गादिभिविनाशो वा स मिश्रदव्योप- उपशम और क्षय के साथ देशघाती स्पर्धकों का क्रमः । (अयो. स. मल. हेम. व. ६६, १४७)। उदय बना रहने पर जो भाव उत्पन्न होता है उसे १अचेतन बालों आदि से सहित चेतन द्विपद (दो मिश्र या क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। पांव वाले) प्रादि प्राणियों को स्नान प्रादि से संस्कृत मिश्रमंगल-मिश्रमंगलं सालंकारकन्यादिः । (धव. करना, यह परिकर्मविषयक मिश्रद्रव्योपक्रम कह- पु. १, पृ. २८)। लाता है। शंख व सांकल ग्रादि से अलंकृत हाथी अलंकार सहित कन्या प्रादि को मिश्रमंगल कहा प्रादि सचेतन प्राणियों का मुद्गर प्रादि से विनाश जाता है। करना, इसे विनाशविषयक मिश्रद्रव्योपक्रम कहा मिश्रयोग-जो सरिवाइनो खलु भावो उदएण जाता है।
मीसिनो होइ । पन्नारस संजोगो सम्वो सो मीसिनो मिश्रपूजा-१. जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा जोगो ।। (उत्तरा. नि. गा. ५३, प. ३५) ।। मिस्सपूजा सा ॥ (वसु. श्रा. ४५०)। २. यत्पुनः जो सान्निपातिक भाव उदय से मिश्रित होता है वह क्रियते पूजा द्वयोः (अहंदादि-तच्छरीरयोः) सा मिश्र- पन्द्रह प्रकार के संयोग वाला मिश्रयोग (मिश्रसंज्ञिका ।। (धर्मसं. था. ६-६३)।।
सम्बन्धसंयोग) कहलाता है। वे पन्द्रह संयोग ये १ जिन आदि और उनके शरीर दोनों की जो पूजा हैं । द्विकसंयोग ४–प्रौदयिक-औपशमिक, प्रौदयिककी जाती है वह मिश्रपूजा कहलाती है। क्षायिक, औदयिक-क्षायोपशमिक और प्रौदयिकमिश्रप्रक्रम-साभरणाणं हत्थीणं अस्साणं बा। पारिणामिक । त्रिकसंयोग ६-प्रौदयिक-प्रौपशपक्कमो मिस्सपक्कमो णाम। (धव. पु. १५, प. मिक-क्षायिक, प्रौदयिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक, प्रो. १५)।
दयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक, प्रौदयिक-प्रोपप्राभरणों से सहित हाथी अथवा घोड़ों आदि के शमिक-क्षायोपशमिक, प्रौदयिक-ग्रौपशमिक-पारिप्रक्रम को मिश्रप्रक्रम कहते हैं।
णामिक और प्रौदयिक क्षायिक-पारिणामिक । मिश्रप्रायश्चित्त- मिश्रमालोचन प्रतिक्रमणरूपम्, चतुःसंयोग ४-प्रौदयिक-प्रौपशमिक-क्षायिक-क्षायोप्रागालोचनं पश्चाद् गुरुसन्दिष्टेन प्रतिक्रमणम् । पशमिक, औदयिक क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणा(योगशा. स्वो. विव. ४-६०)।
मिक, प्रौदयिक-प्रौपशमिक-क्षायिक-पारिणामिक पूर्व में मालोचना करके पश्चात गुरु के सन्देश के और प्रौदयिक-प्रौपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणा
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मिश्रयोनि ]
मिक | पंचसंयोग १ - श्रौदयिक - श्रौपशमिकक्षायिक- क्षायोपशमिक-पारिणामिक (४+६+ ४+१=१५) ।
मिश्रयोनि - १. मिश्रा (योनि) जीवविप्रमुक्ताविप्रमुक्तस्वरूपा । (प्रज्ञाप. मलय. बृ. १५१, पृ. २२६)। २. सचित्ताचित्तयोगे तद्योनेमिश्रत्वमाहितम् । ( लोकप्र. ३ - ५५ ) ।
१ जो योनि जीवप्रदेशों से रहित व उनसे सहित भी होती है उसे मिश्र (सचित्ता चित्त ) योनि कहते हैं ।
मिश्रवचन - तदेव बाध्यमानाबाध्यमानं मिश्रम् । ( श्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. पू. ७९ ) । जो वचन वस्तु के साधक अथवा बाधक रूप से प्रमाणान्तरों से बाधित श्रौर अबाधित भी बोला जाता वह मिश्र ( सत्य - मृषा ) वचन कहलाता है। मिश्रवेदनीय - १. मिश्रग्रहणात् सम्यग्मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते यत्तत् सम्यक्त्व - मिथ्यात्ववेदनीयम् । ( श्रा. प्र. टी. १५ ) । २. यत्तु मिश्ररूपेण जिनप्रणीततत्त्वेषु न श्रद्धानं नापि निन्देत्येवंलक्षणेन वेद्यते तन्मिश्रवेदनीयम् । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४६८) ।
१ मिश्र से अभिप्राय सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय का है । जो सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप से अनुभव में श्राता है उसे मिश्र ( सम्यक्त्व - मिथ्यात्व) वेदनीय कहते हैं ।
मिश्रसम्यक्त्व - श्रनन्तानुबन्धिचतुष्क - मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वानां षण्णामुदयक्षयात् सद्रूपमशमात् सम्यक्त्वनाम मिथ्यात्वस्य देशघातिनो न तु सर्वधा - तिनः उदयात् मिश्रसम्यक्त्वं भवति । (त. वृत्ति श्रुत. २ - ५ ) ।
६२५, जैन- लक्षणावलां
क्रोधादिरूप चार अनन्तानुबन्धी, मिथ्यात्व श्रौर सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयक्षय और सदवस्थारूप उपशम से तथा सम्यक्त्व नामक दर्शनमोहनीय के देशघाति स्पर्धकों के उदय से मिश्र ( क्षायोपशमिक ) सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । मिश्रसंयुक्तकद्रव्यसंयोग - इदमुक्तं भवति - जीवो ह्यनन्तकर्माणुवर्गणाभिरावेष्टित प्रवेष्टितोऽपि न स्वरूपं चैतन्यमतिवर्तते न चार्चतन्यं कर्माणव इति तद्युक्ततया विवक्ष्यमाणोऽसौ संयुक्तकमिश्रद्रव्यम्, ततोऽस्य कर्म प्रदेशान्तरैः संयोगो मिश्रसंयुक्तकद्रव्य
[मिश्रानुकम्पा
संयोग उच्यते । ( उत्तरा. नि. शा. वृ. ३४, पृ. २५ )।
जीव कर्म की अनन्त परमाणुवर्गणानों से श्रावेष्टित प्रवेष्टित होता हुआ भी अपना जो चैतन्य स्वरूप है उसका प्रतिक्रमण नहीं करता है, इसी प्रकार कर्मपरमाणु भी अपने प्रचेतनात्मक स्वरूप का प्रतिक्रमण नहीं करते हैं, इस कारण कर्मपरमाणुवगंणानों से युक्त जो उसकी विवक्षा की जाती है वह संयुक्तकमिश्रद्रव्य है । इसलिए उसका जो कर्मप्रदेशान्तरों से संयोग है उसे मिश्रसंयुक्तकद्रव्य कहा जाता है । मिश्रसंयुक्तद्रव्यसंयोग - इदाणि मीमसंजुत्त दव्वसंजोगा - सच जीव- कर्मणोः, तयोः स्थानादिसंयोगे सति यदुपचीयते स मिश्रसंयुक्तसंगोगो भवति । यथा धातवः सुवर्णादी स्वेन स्वेन भावेन परस्परसंयोगेन संयुक्ता भवन्ति, अथर्वतेषां क्रमेण पृथग्भावो भवति, अन्यत् किटं अन्यच्च सुवर्ण, एवं गृहाण जीवस्यापि मनतिकर्मणाना दिसयुक्तसयोगो भवनि, स च यदा निरुद्धयोगाश्रवो भवति तदा जीव-कर्मणोः पृथक्त्वं भवति । (उत्तरा चू. पृ. १६-१७) । स्थान आदि का सयोग होने पर जो उपचय को प्राप्त होता है वह मिश्रसंयुक्तसंयोग कहलाता है, वह जीव और कर्म में हुआ करता है । जिस प्रकार सुवर्णादि धातुएं अपने-अपने परिणाम से परस्पर के संयोग से संयुक्त होती हैं, अथवा इनकी क्रम से पृथक्ता ( लगाव ) होती है-कीट भिन्न है और सुवर्ण भिन्न है । इसी प्रकार जीव का भी परम्परागत कर्म के साथ अनादि संयुक्तसंयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। जब उस जीव के योगाश्रवों का निरोध हो जाता है तब जीव और कर्म की पृथक्ता हो जाती है ।
मिश्रानुकम्पा - १. मिश्रानुकम्पोच्यते - पृथुपापकर्ममूलेभ्यो हितादिभ्यो व्यावृत्ताः सन्तोष- वैराग्यपरमनिरताः दिग्विरति देशविरति अनर्थदण्डविरति चोपगतास्तीव्रदोषाद् भोगोपभोगान्निवृत्य शेषे च भोगे कृतप्रमाणाः पापात् परिभीतचित्ताः विशिष्ट - देशे काले च विवर्जितसर्वसावद्याः पर्वस्वारम्भयोगं सकलं विसृज्य उपवासं ये कुर्वन्ति तेषु संयतासंयतेषु क्रियमाणानुकम्पा मिश्रानुकम्पोच्यते । ( भ. प्रा. विजयो. १८३४) । २. यद्वत्संयतासंयतेषु जिनसूत्र
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मिश्रिकागति] १२६, जैन-लक्षणावली
मुक्ताशुक्तिमुद्रा] बाह्य कष्टतपश्चारिषु च यथायोग्यं क्रियमाणानुकम्मा [सेणीण] भत्तिजुत्ताणं ॥ वररयणमउडधारी सेवयमिश्रानुकम्पोच्यते । (भ. प्रा. मूला. १८३४)। माणाण वत्ति तह अह्र । देता हवेदि राजा जिद१ जो महापापस्वरूप हिंसादि से निवृत्त हैं, सन्तोष सत्तू समरसंघ? ॥ (ति. प. १, ४१-४२) । व वैराग्य में निरत हैं। दिग्विरति, धेशविरति व २. अष्टादशसंख्यानां श्रेणीनामधिपतिविनम्राणाम् । अनर्थदण्डविरति का परिपालन करते हैं। तीव्र दोष राजा स्यान्मकटघरः कल्पतरुः सेवमानानाम् ।। (घव.
मत भोग व उपभोग से निवृत्त होकर १, पृ. ५७ उद.)। ३. इदि अटारससे ढीणहियो शेष भोग का प्रमाण कर चुके हैं, अन्तःकरण में राजो हवेज्ज मउडधरो। (त्रि. सा. ६८४)। पाप से भयभीत हैं, विशिष्ट देश व काल के अनुः १ जो भक्तियुक्त घोड़ा व हाथी प्रादि अठारह सार सर्व सावध से रहित हैं, तथा पर्वदिनों में सेनामों या श्रेणियों का स्वामी होता हुमा सेवक समस्त प्रारम्भ को छोड़कर उपवास को किया जनों को वत्ति व अर्थ को देता है तथा युद्ध में करते हैं; वे संयतासंयत कहलाते हैं। उनके विषय शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है वह मुकुट का में की जाने वाली दया को मिधानुकंपा (संयता. धारक राजा कहलाता है। संयतानुकम्पा) कहा जाता है।
मुक्त-१. निरस्तद्रव्य-भावबन्धा मुक्ताः। XX मिश्रिकागति-मिश्रिका (गतिः) प्रयोग-विस्रसा- X स (बन्धः) उभयोऽपि निरस्तो यः ते मुक्ता:। भ्यामुभयपरिणामरूपत्वाज्जीवप्रयोगसहचरिताचेतन- (त. वा. २, १०, २)। २. सयलकम्मवज्जियो द्रव्यपरिणामात् कुम्भ-स्तम्भादिविषया, कुम्भादयो अणंतणाण-दसण-वीरिय-चरण-सुह- सम्मत्तादिगुणगहि ते न तादृशा परिणामेनोत्पत्तुं स्वत एव शक्ताः, णाइण्णो णिरामो णिरंजणो णिच्चो कयकिच्चो कुम्भकारादिसाचिव्यादुपजायन्ते । (त. भा. सिद्ध. मुत्तो णाम । (धव. पु. १६, पृ. ३३८) । ३. मुक्तावृ.५-२२, पृ. ३५६)।
स्तु ज्ञानावरणादिकर्मभिः समस्तैर्मुक्ता एकसमयजीव के प्रयोग से सहकृत जो प्रचेतन द्रव्य के परि- सिद्धादयः। (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, पृ. ४६); णाम से कुम्भ और स्तम्भ प्रादि की गति होती है मच्यन्ते स्म [संसारात] मक्ताः। (त. भा. सिद्ध. वह प्रयोग और स्वभाव दोनों के प्राश्रय से होने के व. २-१०): सकलकर्मविमक्त प्रात्मा मुक्तः । कारण मिश्रिकागति कहलाती है। कारण यह है (त. भा. सिद्ध. वृ. १०-३)। ४. लोयग्गसिहरकि कुम्भ आदि उस प्रकार के परिणाम से (स्व- वासी केवलणाणेण मुणियतइलोया। असरीरा गइभावतः) स्वयं उत्पन्न होने में असमर्थ होते हए रहिया सुणिच्चला सुद्धभावट्ठा॥ (भावसं. दे. ३)। कुम्भकार आदि के प्रयोग की अपेक्षा रखा करते हैं। ५. तत्र क्षताष्टकर्माणः प्राप्ताष्टगुणसम्पदः । त्रिलोकमीमांसा -१. मातुमिच्छा मीमांसा प्रमाणजिज्ञा- वेदिनो मुक्तास्त्रिलोकाग्रनिवासिनः ॥ (अमित. श्रा. सा । (प्राव. नि. हरि. वृ. २३, पृ. २६; नन्दी. ३-३)। ६. तस्मान्निर्मूलनिर्मुक्तकर्मबन्धोऽतिनिर्महरि. वृ. पृ. ११७) । २. मीमांस्यते विचार्यते अव- लः । व्यावृत्तानुगताकारोऽनन्तमानन्द-दृग्बलः ॥ गहीतोऽर्थो विशेषरूपेण अनया इति मीमांसा । (धव. निःशेषद्रव्य-पर्यायसाक्षात्करणभूषणः । जीवो मुक्तिपु. १३, पृ. २४२)। ३. मीमांसा सद्विचाररूपा पदं प्राप्तः प्रपत्तव्यो मनीषिभिः ॥ (प्रमाणनि. प्र. बोधानन्तरभाविनी तत्त्वविषयव । (षोडश. ७. ७४) । ७.xxx मुक्तः कृत्स्नैनसोऽत्ययात् ।
हेमोपलो मलोन्मुक्त्या हेम स्यादमलं यथा ।। (प्राचा. १ मान (प्रमाण) के लिए जो इच्छा होती है उसका सा. ३-१०)। ८. मुक्तः बाह्याभ्यन्तरग्रन्थात् कर्मनाम मीमांसा है। २ अवग्रह से गृहीत अर्थ का जो बन्धनाद्वा। (औपपा. अभय. वृ. १०, पृ. १५)। विशेषरूप से विचार किया जाता है उसे मीमांसा १ जो जीव द्रव्यबन्ध और भावबन्ध दोनों से रहित कहते हैं। यह ईहा ज्ञान का एक नामान्तर है। हो चुके हैं वे मुक्त कहलाते हैं । ३ जो समस्त ज्ञाना३ ज्ञान के पश्चात् जो तत्त्वविषयक विचार होता है वरणादि कर्मों से छुटकारा पा गये हैं उन्हें मुक्त उसे मीमांसा कहा जाता है ।
कहते हैं। मुकुटधरराजा -१. अट्ठारसमेत्ताणं सामी सेणाण मुक्ताशुक्तिमुद्रा-१. किञ्चित् गभिती हस्ती
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मुक्ति ] ९२७, जैन-लक्षणावली
[मुदिता समौ विधाय ललाटदेशयोजनेन मुक्ताशुक्तिमुद्रा। इसका नाम मुखरोगिता है। (निर्वाणक. पृ. ३३)। २. मुत्तासुत्तीमुद्दा जत्थ मुखसंस्कार-१. मुखस्य तेजःसम्पादनं लेपेन समा दो वि गब्भिया हत्था । ते पुण णिडालदेसे मंत्रेण वा मुखसंस्कारः । (भ. प्रा. विजयो. ६३)। लग्गा अन्ने अलग्ग त्ति ॥ (चैत्यव. भा. १७)। २. लेपेन मंत्रेण वा तेजःसम्पादनं मुखसंस्कारः। ३. मुक्ताशुक्तिरिय मुद्रा हस्तविन्यासविशेषात्मिका (भ. प्रा. मूला. ६३)। मुक्ताशुक्तिमुद्रा। यस्यां 'समौ' नान्योन्यान्तरिता- १ लेप अथवा मंत्र के द्वारा मुख में तेज उत्पन्न द्यङ्गुलितया विषमो, 'द्वावपि' न तु मकूटाञ्जलि- करना, यह मखसंस्कार कहलाता है। मुद्रयोरिव कदाचिदेकोऽपि, गभिताविव गभितौ मुख्य-विवक्षितो मुख्य इतीष्यते-xxx उन्नत मध्यौ न तू नीरन्ध्रौ चिप्पिटावित्यर्थः। हस्ती (स्वयम्भू.५३)। करौ स्याताम् । तो पुनरुभयतोऽपि सोल्लासौ करौ प्रकृत में जिसकी विवक्षा की जाती है उसे मुख्य भालस्थलमध्यभागे लग्नौ कृत्वा पश्चाद्विधिना प्रणि- कहा जाता है। धत्ते इत्येके । अन्ये पुनस्तत्रालग्नावित्येवं वदन्ति । मुख्य काल-१. जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्ट(चैत्यव. भा. प्रवचूरि. १७) ।
णाई विविहाई। एदाणं पज्जाया बट्टते मुक्खकाल१ मोती की सीप के समान कुछ गभित (मध्य में प्राधारे ।। (ति. प. ४-२८०) । २. लोकाकाशप्रदेकुछ उठे हुए) दोनों हाथों को सम करके मस्तक शस्था भिन्ना: कालाणवस्तु ये। भावानां परिवर्ताय स्थान पर जोड़ने से मुक्ताशक्तिमुद्रा होती है। मख्यः कालः स उच्यते ॥५२।। (योगशा. स्वो. विव, मुक्ति-१. मुक्तिः सा च बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु तृष्णा- १-१६, पृ. ११३)। विच्छेदरूपा, लोभाभाव इत्यर्थः।xxx इति १ जीवों और पुगलों में जो अनेक प्रकार के परिलोभपरिहाररूपा निर्भयत्व-स्वपरहितात्मप्रवृत्तिमत्त्व. वर्तन होते हैं उनका मापार मुख्य काल है। २ पदार्थों ममत्वाभाव-निस्सङ्गताऽपरद्रोहकत्वादिगुणयुक्ता रजो- के परिवर्तन के निमित्तभूत भिन्न-भिन्न कालाणुओं हरणादिकेष्वप्युपकरणेष्वनभिष्वङ्गस्वभावा मुक्तिः। को मुख्य काल कहा जाता है। ये कालाणु लोका(योगशा. स्वो. विव. ४-६३)। २. मुक्तिःप्राणेन्द्रि- काश के एक एक प्रदेश पर स्थित हैं। यविषयासंयमत्यागः । (भ. प्रा. मूला. ४६) । ३. मुख्य प्रत्यक्ष-१. मुख्यमतीन्द्रियज्ञानम् । (लघीय. मुक्ती लोहस्स निग्गहो । (गु. गु. षट् स्वो. वृ. पृ.
।। (गु.गु. षट्. स्वो. वृ. पृ. स्वो. विव. १-४) । २. सामग्रीविशेषविश्लेषिता३८, उव.) । ४. नात्यन्ताभावरूपा न च जडिममयी खिलावरणमतीन्द्रियमशेषतो मुख्यम् । (परीक्षा. व्योमवद्व्यापिनी नो, न व्यावृत्तिं दधाना विषय- २-११)। ३. मुख्यमतीन्द्रियज्ञानमशेषविशेषालम्बनसुखधना नेष्यते सर्वविद्भिः । सद्रूपात्मप्रसादाद् मध्यक्षम् । (सन्मति. अभय. वृ. १, पृ. ५५२) । दृगवगमगुणौधेन संसारसारा, निःसीमाऽत्यक्षसौख्यो- ४. पारमाथिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम् । (प्र. न. दयवसतिरनिःपातिनी मुक्तिरुक्ता ॥ (गुणस्थानक्र. त. २-१८) । ५. तत्सर्वथावरणविलये चेतनस्य स्व१३४) । ५. मोचनं मुक्तिः, बाह्याभ्यन्तरवस्तुतृष्णा- रूपाविर्भावो मुख्यं केवलम् । (प्रमाणमी. १, १, विच्छेदः लोभपरित्यागः। (सम्बोषस. वृ. १६, पृ. १५) । ६. यत्पुनरात्मनः इन्द्रियमप्यनपेक्ष्य साक्षा
दुपजायते तत्परमार्थतः प्रत्यक्षम् । (नन्दी. मलय. वृ. १ बाह्य और अभ्यन्तर वस्तुविषयक तृष्णा या २, पृ. ७४) । लोभ के परित्याग का नाम मुक्ति है । २ प्राणवि- १ अतीन्द्रिय ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं । ५ विषयक और इन्द्रियविषयक असंयम के त्याग को प्रावरण (ज्ञानावरण) के सर्वथा नष्ट हो जाने पर मुक्ति कहते हैं।
जो प्रात्मस्वरूप का प्राविर्भाव होता है उसे मुख्य मुखरोगिता-मुखस्य रोगा उपजिह्वादयस्तेऽस्य प्रत्यक्ष कहते हैं, जो केवलज्ञानस्वरूप है। पारमासन्ति मुखरोगी, तस्य भावो मुख रोगिता। (योगशा. थिक प्रत्यक्ष भी उसे कहा जाता है। स्वो. विव. २-५३)।
मुदिता-देखो प्रमोदभावना। उपजिह्वा प्रादि रूप मुख के रोगों से युक्त होना, मुनि-१. मन्यते मनुते वा मुनिः। (उत्तरा. चू.
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[मुहूर्त
मुनिसुव्रत]
६२८, जन-लक्षणावली पृ. २०६) । २. मुनिर्मन्यते जगतस्त्रिकालावस्था- १, १, ३, १८)। मिति मुनिः । (दशवै. हरि. वृ. पृ. २६२; श्रा. प्र. १ छार (भस्म) से युक्त अग्नि को मुर्मुर कहते हैं । टी. ६१; योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । ३. मुन- २ इधर उधर विखरे हुए अग्निकणों से व्याप्त भस्म योऽवधि-मनःपर्यय-केवलज्ञानिनश्च कथ्यन्ते । (चा. (राख) को मुर्मर कहा जाता है। सा. प. २२) । ४. मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः मुशल-दंडं धणुं जुगं नालिया य अक्ख मुसलं च कीर्त्यते मुनिः। (उपासका. ८६१) । ५. जीवादि- चउहत्था । (ज्योतिष्क. ७६) । पदार्थयाथात्म्यमननान्मुनयः । (मा. मी. वसु. वृ. चार हाथ का एक मुसल होता है। दण्ड, धनुष, २०)। ६. मन्यते यो जगत्तत्वं स मनिः परिकीति- युग, नालिका और प्रक्ष ये मसल के समानार्थक तः। (ज्ञा. सा. १३-१)। ७. यः शम-संवेग- शब्द हैं। निर्वेदानुकम्पास्तिक्यलक्षणलक्षित: जगद् लोकं जीवा- मुसली-१. 'मोसलि' त्ति तिर्यगूर्वमयो वा घट्टना। जीवलक्षणं मन्यते जानाति तत्त्वं यथार्थोपयोगेन (उत्तरा. नेमि. व. २६-२५)। २. अह-उड्ढ-तिरि. द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकस्वभावगुण-पर्यायः निमित्तो- यभूमालभित्तिसंघट्टणा हवे मुसली। (गु. गु. षट. पादानकारण-कार्यभावोत्सर्गापवादपद्धतिः, तां जानाति स्वो. व. २८, पृ. ६१ उद्.)। स मुनिः। (ज्ञा. सा. वृ. १३-१)।
१ प्रतिलेखन करते हुए तिर्यक्, ऊर्ध्व अथवा प्रध२ जो संसार को तीनों काल सम्बन्धी अवस्था को स्तन भूमि का स्पर्श कर लेने पर मुसली या मोसली जानता है-उसका विचार करता है --उसका नाम नाम का दोष होता है। यह प्रतिलेखन के छह मुनि है। ३ अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और दोषों में तीसरा है। केवलज्ञानियों को मुनि कहा जाता है। मुहूर्त-१. ते (नालिके) द्वे मुहूर्तः। (त. भा. मुनिसुव्रत-मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः, ४-१५)। २. लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुहुत्ते वियाशोभनानि व्रतान्यस्येति सुव्रतः, मुनिश्चासौ सुव्रतश्च हिए ॥ तिण्णि सहस्सा सत्तसयाइं तेहत्तरि च मुनिसुव्रतः, तथा गर्भस्थे जननी मुनिवत्सुव्रता जातेति ऊसासा । एस मुहुत्तो दिट्ठो सव्वेहिं अणंतनाणीहिं ।। मुनिसुव्रतः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४)। (भगवती. ६, ७, ४, पृ. ८२५; जम्बूद्वी. १८, पृ. जो जगत की त्रिकालावस्था को जानता है वह मुनि ८६ अनुयो. गा. १०५-६, पृ. १७९) । ३. वे कहलाता है, उत्तम व्रतों के परिपालक का नाम नालिया मुहुत्तो xxx। (ज्योतिष्क. ३०)। सुवत है। इस प्रकार उत्तम व्रतों के परिपालक को ४. दो नालिया मुहुत्तो xxx । (जीवस. मुनिसुव्रत कहा गया है। इसके अतिरिक्त गर्भ में १०८)। ५. लवसतहत्तरीए होइ मुहुत्तो xx स्थित होने पर माता उत्तम व्रतों से विभूषित हुई, X । (बृहत्सं. १८०)। ६.xxx बेणालिया इस कारण से भी २०वें तीर्थंकर का नाम मुनिसुव्रत मुहुत्तं च ॥ (ति. प. ४-२८७)। ७. सप्तसप्ततिप्रसिद्ध हुअा है।
___लवा मुहूर्तः। (त. वा. ३, ३८, ८) । ८. एको मुमुक्षु-य: कर्मद्वितयातीतस्तं मुमुक्षू प्रचक्षते । मुहूर्तः खलु नाडिके द्वौ xxx। (वरांगच. पार्लोहस्य हेम्नो वा यो बद्धो बद्ध एव सः॥ २७-५)। ६. मुहूर्तः सप्तसप्ततिलवप्रमाणः काल(उपासका. ८६५) ।
विशेषो भण्यते। उक्तं च-लवाणं सत्तहत्तरीए, एस जो पुण्य प्रौर पाप इन दोनों ही प्रकार के कर्मों से मुहुत्ते वियाहिए ॥ (ध्यानश. हरि. वृ. ३ उद् )। रहित हो चुका है उसे मुमुक्षु (मोक्षाभिलाषी) १०. द्विघटिको मुहूर्तः । (प्राव. नि. हरि. व मलय, कहते हैं। कारण इसका यह है कि जो लोहमय या वृ. ६६३; प्राव. भा. हरि. वृ. १९८, पृ. ४६५; सुवर्णमय सांकलों से भी बंधा हुआ है वह बन्धन से प्राव. भा. मलय. वृ. २००, पृ. ५८३) । ११. सत्तबद्ध (परतंत्र) ही होता है।
___ हत्तरिलवो एगमुहुत्तो। (अनुयो. हरि. व. पृ. ५४)। मुर्मुर-१. मुम्मुरो नाम जो छाराणुगो अग्गी सो १२. xxx वेणालिया मुहुत्तो दु। (धव. पु. मुम्मरो। (दशवं. चू. पृ. १५६) । २. प्रविरलाग्नि- ३, पृ. ६६ उद्.); वेहि णालियाहि मुहुत्तो होदि । कणानुविद्धं भस्म मर्मुरः। (प्राचारा. नि. शी. वृ. (धव. पु. ४, पृ. ३१८); विंशतिकलो मुहूर्तः ।
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मूक ]
(घव. पु. ६, पृ. ६६ ); सत्तहत्तरिलवेहि एगो मुहुत्तो होदि । (घव. पु. १३, पृ. २६९ ) । १३. ते (लवा: ) सप्तसप्ततिः सन्तो मुहूर्त: × × × ( ह. पु. ७-२० ) । १४. नालिकाद्वयं मुहूर्त: । (त. भा सिद्ध. वृ. ४-१५) । १५. घडियहि दोहि मुहतहु XXX 1 ( म. पु. पुष्प. १, २, ५, पृ. २३) । १६. XXX वे पालिया मुहुत्तं तु ॥ ( भावसं. दे. ३१३; गो. जी. ५७५; जं. दी. प. १३-६ ) । १७. सप्तसप्तत्या लवानां मुहूर्त: । ( धनुयो. सू. मल. हेम. वृ. ११४, पृ. ६६ ) । १८. लवाण सत्तहत्तरीए, होइ महुत्तो । ( संग्रहणी. १३७ ) । १६. घटिकाद्वयं मुहूर्तः । ( पंचा. का. जय. वृ. २५) । २०. तत्र द्वे घटिके एको मुहूर्त: । (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २०,५७, पृ. १६६ ) । २१ द्वे नालिके घटिके समुदिते एको मुहूर्त: । (ज्योतिष्क मलय. वृ. ३० ) । २२. सप्तसप्तति संख्या लवा एको मुहूर्तः । ( जीवाजी. मलय. वृ. १७८ ) । २३. सप्तसप्तत्या लवानामेको मुहूर्त: । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ १०४ ) । २४. मुहूर्तः सप्तसप्ततिलवमान: । ( कल्पसू. वि. वृ. ११८, पृ. १७४) ।
१, ६ दो नालिकाओं का एक मुहूर्त होता है । २, ७ सत्तर लवों का एक मुहूर्त होता है । मूक - १. को मूको य: काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति । ( प्रश्नो. मा. १६) । २. मूकोऽवाक्, तस्य भावो मूकत्वम् । (योगशा. स्वो विव. २, ५३)।
६२६, जंन - लक्षणावली
१ मूक ( गूंगा) किसे समझना चाहिए ? मूक उसे समझना चाहिए जो समय पर प्रिय बोलना नहीं जानता । २ वचनों से रहित होना- उनका उच्चारण न कर सकना, इसका नाम मूकता ( गूंगापन ) है । इसे प्रसत्य भाषण का फल माना है । मूकदोष - १. मूक इव मुखमध्ये यः करोति वन्दनामथवा वन्दनां कुर्वन् हुंकारांगुल्यादिभिः संज्ञां च यः करोति तस्य मूकदोषः । ( मूला. वृ. ७-११० ) । २. मूकं प्रालापाननुच्चारयतो वन्दनम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३० ) । ३. मूको मुखान्तर्वन्दारो हुंकाराद्यथ कुर्वतः । (अन. घ. ८ - ११० ) । १ वन्दना करते समय मुख के भीतर मूक के समान रहना - 'नमोsस्तु' प्रादि किन्हीं विशेष शब्दों का ल. ११७
[ मूर्छा
उच्चारण न करना, अथवा 'हुंकार' आदि के द्वारा संकेत को करना, यह मूक नाम का एक वन्दना का दोष है । २ श्रालापों का उच्चारण न करते हुए वन्दना करने पर मूक नाम का वन्दनादोष होता है। मूकितदोष - १. मूक इव कायोत्सर्गेण स्थितो मुखविकारं नासिका विकारं च करोति तस्य मूक्तिदोषः । (मूला. वृ. ७ - १७२ ) । २. मूकस्येवाव्यक्तशब्द कुर्वतः स्थानं मूकदोषः । (योगशा. ३ - १३० ) । ३. XXX संज्ञा मुख-नासाविकारतः । मूकवन्मूकिताख्यः स्यात् XXX ॥ ( श्रन. ध. ८-११८ ) । १ जो मूंगे के समान कायोत्सर्ग से स्थित होकर मुख और नासिका की विरूपता को करता है उसके मूकित नामक कायोत्सर्ग का दोष होता है । २ मूक के समान अस्पष्ट शब्द करते हुए कायोत्सर्ग में स्थित होना, यह कायोत्सर्ग का मूकदोष है । मूढ - देखो बहिरात्मा ।
मूढदृष्टि - १. बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदा रेण णियसरूवचु । णियदेहं प्रप्पाणं श्रज्भवसदि मूढदिट्ठीओ ॥ ( मोक्षप्रा . ८) । २. मूढदिट्ठी परतित्थियया इसयमयाणि वा सोऊण मइवामोहो होज्जा । ( जीतक. चू. पू. १३) । ३. कुमार्गे पथ्यशर्मणां तत्रस्थेऽप्यतिसंगतिः । त्रियोगः क्रियते यत्र मूढदृष्टिरितीरिता ॥ ( धर्मसं. श्री. ४-४८ ) । ४. अतस्त्वे तत्त्वश्रद्धानं मूढदृष्टिः स्वलक्षणात् । ( लाटीसं. ४ - १११ ) ।
१ श्रात्मस्वरूप से च्युत होकर इन्द्रियों के द्वारा बाह्य पदार्थों में मुग्ध होता हुआ जो अपने शरीर को ही श्रात्मा मानता है वह मूढदृष्टि कहलाता है । यह सम्यग्दर्शन का एक दोष है । २ परतीर्थिक ( मिथ्यादृष्टि ) जनों की पूजा-प्रतिष्ठा को प्रथवा अतिशयों को देख-सुनकर जो मतिव्यामोह होता है, उसका नाम मूढदृष्टि है ।
मूत्र अन्तराय - मूत्राख्यो मूत्र शुक्रादे: (निर्गमे ) × × × । (अन. ध. ५-५३) । आहार के समय अपने मूत्र व वीर्य आदि के निकल जाने पर मूत्र नामक भोजन का अन्तराय होता है। मूर्छा - १. बाह्यानां गो-महिष मणि मुक्तादीनां चेतनाचेतनानामाभ्यन्तराणां च रागादीनामुपधीनां संरक्षणार्जन-संस्कारादिलक्षणा व्यावृत्ति - [ व्यापृति- ]
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मूर्छा] ९३०, जैन-लक्षणावली
[मूलकरणकृति मूर्छा । (स. सि. ७-१२) । २. बाह्याभ्यन्तरोपषि- मूर्त पदार्थ का मूर्तत्व है। संरक्षणादिव्यापतिर्मूर्छा । बाह्यानां गो-महिष-मणि- मूर्तद्रव्य-भाव- वण्ण-गंध-रस-फासादिनो मुत्ता मुक्तादीनां चेतनाचेतनानाम् अभ्यन्तराणां च रागा- दव्वभावो। (धव. पु. १२, पृ. २)। दीनामुपधीनां संरक्षणार्जन-संस्कारादिलक्षणव्यापृतिः वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदि को मूर्तद्रव्यभाव मूर्छति कथ्यते । (त. वा. ७, १७, १)। ३. मूर्छा (प्रचित्त नोमागम मर्तद्रव्यभाव) कहा जाता है। लोभपरिणतिः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ७, मूर्ति-देखो मूर्त । १. रूपादि-संस्थानपरिणामो १२)। ४. बाह्याभ्यन्तरोपधिसंरक्षणादिव्यापृति- मूर्तिः। (स. सि. ५-५)। २. रूपादिसंस्थानपरि(चा. सा. 'व्यावृत्ति-') मूर्छा । (त. श्लो. ७-१७; णामो मूर्तिः। रूपमादिर्येषां ते इमे रूपादयः । के चा. सा. पृ. ४३)। ५. भावतोऽभिष्वङ्गो मूर्छा। पुनस्ते ? रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः, परिमण्डल-त्रिकोण(त. भा. सिद्ध. वृ. २-२५); मूर्छा प्रकर्षप्राप्ता चतुरस्रायत-चतुरस्रादिराकृतिः संस्थानम्, तैः रूपामोहवद्धिः। (त. भा. सिद्ध. व. ८-१०)। ६. या दिभिः संस्थानैश्च परिणामो मूतिरित्याख्यायते । मुर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः । मोहोदया- (त. वा. ५, ५, २)। ३. रूपं मूर्तिरिति गृह्यते, दुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः॥ (पु. सि. १११)। रूपादिसंस्थानपरिणामो मूर्तिरिति वचनात् । (त.
# मोहः सदसद्विवेकविनाशः। (स्थानां. श्लो. ५-५) । ४. रूप-गन्ध-रस-स्पर्शव्यवस्था मृतिअभय. व. २, ४, १०६) । ८. मूर्छा मोहवशान्म. रुच्यते। (योगसारप्रा. २-३) । ५. शुद्धात्मनो मेदमहमस्येत्येवमावेशनम्। (अन. घ. ४-१०४)। विलक्षणस्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवती मतिः। (ब. द्रव्यसं. ९. उभयप्रकारस्यापि परिग्रहस्य संरक्षणे उपार्जने टी. २७)। ६. प्रसर्वगतद्रव्यपरिमाणं मूतिः । संस्करणे बर्धनादी व्यापारो मनोभिलाषः मूर्छा। (सिद्धिवि. बृ. ८-३४, पृ. ५७८)। ७. रूपादि(त. वृत्ति श्रुत. ७-१७)।
संस्थान विशेषो मूर्तिः। (धर्मसं. मलय. व. ६६)। १ गाय, भैंस, मणि व मोती प्रादि चेतन-प्रचेतन १रूप आदिकों से तथा त्रिकोण-चौकोण प्रादि बाह्य एवं अभ्यन्तर रागादि उपषियों के संरक्षण, संस्थानों (प्राकारों) से जो परिणाम होता है अर्जन और संस्करण प्रादि में व्याप्त रहना, उसका नाम मूर्ति है । ६ असर्वगत (अध्यापक) द्रव्य इसका नाम मी है। ५ इन्द्रियविषयों में जो के परिमाण को मति कहते हैं। ७ रूपादियक्त भावतः प्रासक्ति हुआ करती है उसे मूर्छा कहा प्राकारविशेष को मूर्ति कहा जाता है। जाता है।
मूलकरण-देखो मूलप्रयोगकरण । यदवयववि. मूर्त--१. जे खलु इंदियगेज्झा विसया जीवेहिं हुंति भागविरहितमौदारिकशरीराणां प्रथममभिनिवर्तन ते मुत्ता । (पंचा. का. ६६)। २. स्पर्श-रस-गन्ध- तत् मूलकरणम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १८८) । वर्णसद्भावस्वभाव मूर्तम् । (पंचा. अमृत. वृ. ६७)। अवयवों के विभाग से रहित जो प्रौदारिक शरीरों ३. रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवन्मूर्तम् । (सिद्धिवि. वृ. ११, की प्रथम रचना होती है उसे मूलकरण कहा १, पृ. ६९६) । ४. मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम्, 'रूपादि. जाता है। मयी मूर्तिः' इत्यभिधानात् । (न्यायकु. ६७, पृ. मूलकरणकृति- करणेसु जं पढमं करणं पंच७८७) । ५. श्वेतादिवर्णाधारो मूर्तः। (नि. सा. सरीरप्पयं तं मूलकरणम् । XXX सा च मूलवृ.)। ६. मूर्तत्वं रूपादियुक्तत्वम् । xxx करणकदी ओरालिय-वेगुब्विय-पाहार-तेया-कम्मइयरूपादियुक् मूर्त्तत्वं मूर्ततागुणः । रूपादिसन्निवेषाभि- सरीरभेएण पंचविहा चेव, छट्ठादिसरीराभावादो। व्यङ्ग्यपुद्गलद्रव्यमात्रवृत्तित्वम् । (द्रव्यानु. त. व्या. एदेसि मूलकरणाणं कदी कज्ज संघादणादी तं मूल. ११-५)।
करणकदी णाम, क्रियते कृतिरिति व्युत्पत्तेः । अथवा १ जीव जिन विषयों को इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण मूलकरणमेव कृतिः, क्रियते अनया इति व्युत्पत्तेः । कर सकते हैं वे मूर्त कहे जाते हैं। २ स्पर्श, रस, (धव. पु. ६, पृ. ३२५) । गन्ध और वर्ण के सद्भाव रूप स्वभाव वाले पदार्थ करणों में जो पांच शरीर स्वरूप प्रथम करण है को मूर्त कहते हैं। ६ रूपादि से संयुक्त होना, यही उसका नाम मूलकरण है। मूलकरण रूप इन प्रौदा.
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मूल कर्मदोष] ६३१, जैन-लक्षणावली
[मूलप्रथमानुयोग रिक प्रादि शरीरों के संघातन-परिशाटन प्रादि रूप भवानुगतनाम-गोत्रकर्मोदयतो माषद्रव्यप्रायोग्यानि कार्य को मलकरणकृति कहा जाता है।
द्रव्याणि गृहीतानि । (व्यव. भा. मलय. वृ. I मूलकर्मदोष-देखो मूलकर्मपिण्डदोष । १. अव. १४, पृ. ६)। साणं वसियरणं संजोयणं च विप्पजुत्ताणं । भणिदं जिस जीव ने 'माष' भव को प्राप्त होकर प्रथम ही तु मूलकम्मं xxx॥ (मला. ६-४२) । २. नाम और गोत्र कर्म के उदय से माष पर्याय के योग्य मूलकर्मणां वा भिन्नकन्यायोनिसंस्थापना मूलकर्म- द्रव्यों को ग्रहण कर लिया है उसे मूलगुण-निवर्तना. विरक्तानां अनुरागजननं वा। (भ, प्रा. विजयो. निवतित तद्व्यतिरिक्त नोमागमद्रव्यमाष कहते हैं । २३०)। ३. स्यान्मूलकर्म चावशवशीकृतिवियुक्त- मूलगुणनितितद्रव्यताल-स्वायुषः परिक्षयादयोजनाभ्यां तत् ॥ (अन. ध. ५-२७)। पगतजीवो यः स्कन्धादिरूपस्तालः स मूलगुणनिवर्ति१ जो (दाता) वश में नहीं हैं उनको वश में करना तः । (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. ८४७) । तथा वियुक्तों का संयोग कराना, यह मूलकर्म नाम अपनी आयु के क्षीण हो जाने पर जो स्कन्ध प्रादि का एक उत्पादनदोष है।
रूप ताल है उसे मूलगुणनितितद्रव्यताल कहते हैं । मूलकर्मपिण्ड---१. यदनुष्ठानाद् गर्भशातनादेर्मल- मूलगुणनिवतितमाष-यो जीवविप्रमुक्तो माषः स मवाप्यते तद्विधानादवाप्तो मूलपिण्डः। (प्राचारा. मूलगुणनिवर्तितः । (बहत्क. भा. क्षे. वृ. ११२७) ।
जो माष (उडद) जीव से रहित हो चुका है उसे प्रसव-स्नपनक-मूलरक्षाबन्धनादि भिक्षार्थ कुर्वतो मूलगुणनिवतित मास कहते हैं । मूलकर्मपिण्डः । (योगशा. स्वो. विव. १-३८, पृ. मूलगुणनिष्पन्नमंगल-मूलो नाम पृथिवीकाया१३६; धर्मसं. मान. ३-२२, पृ. ४१) । ३. मङ्ग- दिजीवः, तस्य गुणात् प्रयोगात् पुद्गलानां द्रव्यादिलस्नान-मूलिकाद्यौषधिरक्षादिना गर्भकरणविवाह- त्वेन व्यापारणात् निष्पन्नं मूलगुणनिष्पन्नं मृद्रव्याभङ्गादि वशीकरणादि च पिण्डार्थं कुर्वतो मूलकर्म। दि। (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. ६)। (गु.गु. षट्. २०, पृ. ५०)।
मूल का अर्थ है पृथिवीकायादि जीव । उसके गुण १ जिस अनुष्ठान से गर्भशातन प्रादि का मल प्राप्त से-प्रयोग से-जो मिट्टी प्रादि द्रव्य निष्पन्न होता किया जाता है उस प्रकार के अनुष्ठान से भोजन है उसे मूलगुणनिष्पन्न मगल कहते हैं । प्राप्त करने पर मलपिण्ड नामक उत्पादनदोष मलपिण्ड-देखो मुलकर्मपिण्ड ।। होता है । २ जो गर्भ के स्तम्भन, गर्भाधान, प्रसूति, मूलप्रकृति - संगहियासेसवियप्पा दवट्टियणयणिस्नान कराना और मूलरक्षाबन्धन प्रादि को बंधणा मूलपयडी णाम । (धव. पु. ६, पृ. ५)। भिक्षा का साधन बनाता है उसके मलकर्मपिण्ड द्रव्याथिक नय के प्राश्रय से जो समस्त भेदों का नाम का उत्पादनदोष होता है।
संग्रह करने वाली प्रकृति है उसे मूलप्रकृति कहते मूलगुणनिवर्तना-१. मूलगुणनिवर्तना पञ्चशरी- हैं। राणि वाङमनःप्राणापानाश्च। (त. भा. ६-१०)। मूलप्र '- १. इहैकवक्तव्यताप्रणयना२. एवंविधानेकविशेषनिरपेक्षा यथोत्पन्नवर्तिनी न्मूलं तावत्तीर्थकरास्तेषां प्रथमः सम्यक्त्वाप्तिलक्षऔदारिकादिप्रायोग्यद्रव्य वर्गणा मलकारणव्यवस्थि- णपर्वभवादिगोचरोऽनयोगो मलप्रथमानयोगः । (नन्दी. तगुणनि वर्तनोच्यते । (त. भा. सिद्ध. व. २-१७)। हरि. व. पु. १०६)। २. इह धर्मप्रणयात् मूल १ पांच शरीर, वचन, मन और प्राणापान इन्हें तावत्तीर्थकरास्तेषां प्रथम [म:] सम्यक्त्वाप्तिलक्षणमूलगुणनिवर्तना कहा जाता है। जिस प्रकार उत्तर- पूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः । (समगुणनिवर्तना में चक्षुरादि इन्द्रियों का प्रजन प्रादि वा. अभय. वृ. १४७) । से संस्कार अपेक्षित है उस प्रकार मलगुणनिवर्तना १एक वक्तव्यता के प्रणेता होने से तीर्थकर मल हैं। में अन्य किन्हीं विशेषों की अपेक्षा नहीं रहती। उनका सम्यक्त्व को प्राप्ति रूप पूर्व भवादि को मूलगुणनिवर्तनातव्यतिरिक्तद्रव्यमाष-मूल- विषय करने वाला जो प्रथम अनुयोग-विस्तृत गुणनिवर्तिता नाम येन जीवेन तत्प्रथमतया माष- व्याख्यान-है उसे प्रथमानुयोग कहा जाता है ।
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मूलप्रयोगकरण]
मूलप्रयोगकरण - देखो मूलकरण । पञ्चानामौदारिकादिशरीराणामाद्यं सङ्घातकरणं मूलप्रयोगकरणमुच्यते । ( श्राव. भा. मलय. वृ. १५८, पृ. ५५ε)।
श्रदारिक श्रादि पांच शरीरों का जो प्रथम संघात करण है उसे मूलप्रयोगकरण कहा जाता है । मूलप्रायश्चित्त-१. मूलं नाम सो चेव से परिया मूलतो छिज्जइ । ( वशवं चू. पृ. २६ः । २. 'मूल' त्ति प्राणातिपातादौ पुनव्रं तारोपणम् । ( श्राव. हरि. वृ. पू. ७६४ ) । ३. सव्वं परियाय महारिय पुणो दिक्खणं मूलं णाम पायच्छित्तं । धव. पु. १३, पृ. ६२) । ४. मूलारिहं – जेण पडिसेविएण पुणो महव्वया रोवणं निरवसेसपरियायावणयणान्तरं कीरइ, एयं मूलारिहं । ( जीतक. चू. पू. ६ ) । ५. मूलं महाव्रतानां मूलत श्रारोपणम् । (योगशा. स्वो विव. ४ - ६० ) । ६. मूलं पार्श्वस्थ संसक्त-स्वच्छन्देष्ववसन्तके । कुशीले च पुनर्दीक्षा दानं पर्यायवर्जनात् ॥ ( प्रन. ध. ७- ५५ ) । ७. पुनरद्यप्रभृतिव्रतारोपणं मूलप्रायश्चित्तम् । ( कार्तिके. टी. ४५१) ।
१ अपराध को जानकर उसी साधुपर्याय को मूलतः नष्ट कर देना, इसका नाम मूलप्रायश्चित्त है । ३ समस्त पूर्व पर्याय का अपहरण करके फिर से दीक्षा देना, इसे मूलप्रायश्चित्त कहते हैं। मूलहर - १. यः पितृपैतामहमर्थमन्यायेन भक्षयति स मूलहरः । ( नीतिवा २-८; योयशा. स्वो विव. १-५२) । २. तथा च गुरुः - पितृपैतामहं वित्तं व्यसनैर्यस्तु भक्षयेत् । श्रन्यन्नोपार्जयेत् किंचित् स दरिद्रो भवेद् ध्रुवम् ॥ ( नीतिवा. टी. २-८ ) । १ जो पिता और पितामह के धन को अन्यायपूर्वक खाता है - दुर्व्यसनों द्वारा नष्ट करता है व स्वयं कुछ कमाता नहीं है- उसे मूलहर कहा जाता है । मृग - रोमन्थवजितास्तिर्यञ्च मृगाः नाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३६१ ) ।
रोमन्थ से रहित जो भी तिर्यञ्च हैं उन्हें मृग कहा जाता है ।
३२, जैन-लक्षणावली
मृगचारित्र - १. त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्दविहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्रः स्वच्छन्दः इति वा । (चा. सा. पू. ६३ ) । २. स्वच्छन्दो यो गणं त्यक्तुं [क्त्वा ] चरत्येकाक्यसंवृतः । मृगचारी
[मृत्यु
XXX ॥ ( श्राचा. सा. ६-५२ ) । ३. स्वच्छन्दो यस्त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्द विहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्र इति यावत् । उक्तं च - प्रायरियकुलं मुच्चा विहरदि एगागिणो य जो समणो । जिणवयणं णिदंतो स्वच्छंदो हवइ निगचारी ॥ (अन. ध. स्वो टी. ७-५५) ।
१ जो गुरुकुल को छोड़कर स्वेच्छा से अकेला ही विहार करता है तथा जिनागम को दूषित करता है उसे मृगचारित्र कहते हैं। मृगचारी व स्वच्छन्द भी उसे कहा जाता है। यह पार्श्वस्थ श्रादि पांच कुत्सित साधुनों में से एक है । मृगचारी - देखो मृगचारित्र ।
मृगयाव्यसन – यत्तु मृगया आखेटकस्तत्रानेकेषां मृगादिजन्तूनां वधं करोति तद्मृगयाव्यसनम् । (बुहल्क. भा. क्षे. वृ. ६४० ) ।
मृगया नाम शिकार का है, उसमें जो अनेक मृग प्रादि प्राणियों का घात किया करता है उसे मृगया व्यसन कहते हैं ।
मृतकशायी - मडयसाई मृतकस्येव निश्चेष्ट शयनम् । (भ. प्रा. मूला. २२५ ) ।
जो मृतक के समान हलन चलन से रहित होकर सोता है, उसे मृतकशायी कहते हैं। यह क्षपक के शयन करने के प्रकारों में से एक है । मृत्यु - - देखो मरण । १. मरणं प्राणनाशः । (ललित. वि. पू. १०१ ) । २. मरणं प्राणत्यागलक्षणम् X X X 1 ( पञ्चसू. वृ. पू. १३) । ३. मरणं दशविधप्राणवियोगरूपम् । XXX | ( श्राव. नि. ५६६) । ४. प्रागुपात्त जीवन कालावधे रर्वाक्काले स्वोपात्तमनुष्याद्यायुर्द्रव्याणामनुभवतः कृत्स्नपरिक्षयो मृत्यु: । ( त. भा. सिद्ध वृ. २- ५१ ) । ५. मृत्यु: प्राणोपरमः । ( ललितवि. मुनि वृ. पू. २३) । ६. सादि निधनमूर्तेन्द्रियविजातीयनर-नारकादिविभावव्यञ्जन पर्याय विनाशः एव मृत्युः । (नि. सा. वृ. ६ ) । ७. मृर्तिम्रियमाणता । ( काव्यानु. २, पू. ८५ ); सर्व विष-गजादिसंभवोऽभिघातस्ताभ्यां मृतेः प्रागवस्था मृतिः । ( काव्यानु. २, पृ. ८ ) । १ प्राणों के विनाश को मृत्यु या मरण कहा जाता है । ४ पूर्व में प्राप्त जीवनकाल की अवधि के पहिले ही — पूर्वबद्ध प्रायुप्रमाण के पूर्व हो - प्रपने प्राप्त (भुज्यमान) मनुष्यादि प्रायुद्रव्यों का (निषेकों का )
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मृत्युगंगा] ६३३, जैन-लक्षणावला
[मृषावचन अनुभवन करते हुए जो पूर्णरूप से उनका विनाश मृषारौद्रं प्रकीर्तितम् ॥ (ज्ञाना. २६-१६, पृ. २६५)। हो जाता है, इसे मृत्यु कहते हैं। ६ सादि, सान्त ६. रोषेाद्युदितरसत्यवचनैरन्यस्य हान्या मृषानन्दं
और मर्त इन्द्रियों से विजातीय ऐसी नर-नरकादि रोद्रमसातसन्ततिपदे मिथ्याप्रलापे रुचिः। (प्राचा. विभाव पर्यायों के विनाश का ही नाम मृत्यु है। सा. १०-२०)। ७. मृषा असत्यम्, तदनुबध्नाति -सत्तसादीण गंगाग्रो सा एगा मच्च
पिशुनाऽसभ्यासद्भूतादिभिर्वचनभेदैस्तन्मृषानुबन्धि । गंगा । (भगवती. १५-८६, पृ. २०५५)।
(स्थाना. अभय. वृ. ४, १, २४७)। ८. असत्यसात सादीन गंगानों की एक मृत्युगंगा होती है। वचने परिणतः मृषावादकरणे परिणतः अनृतानन्दा
ख्यं रौद्रध्यानम् । (कार्तिके. टी. ४७५) । ६. पैमृदङ्ग-मृदङ्गो वाद्यविशेषः, स चाधस्तात् विस्तीणं उपरि च तनुकः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१६, पृ.
शून्यासभ्य-वितथवचसा परिचिन्तनम् । अन्येषां ५४२)।
द्रोहबुद्ध या यन्मृषावादानुबन्धि यत् ।। (लोकप्र. ३०, मृदंग एक प्रकार का वह बाजा है जो नीचे विस्तृत
४४७) । १०. पिशुनासभ्यासद्भूत-भूतघातादिवचनऔर ऊपर कृश होता है।
प्रणिधानं मृषानुबन्धि । (धर्मस. मान. स्वो. वृ.
३-८७, पृ. ८०)। मृदु -- १. सनतिलक्षणो मृदुः । (अनुयो. हरि. वृ.
१ जो कर्म के भार से युक्त होने के कारण सदा ही पृ. ६०)। २. सो [स.] नतिलक्षणो मृदुः। (त..
असत्य या असमीचीन व प्रसद्भुत वचनों से सन्तुष्ट भा. सिद्ध. ३.५-२३)। ३. सन्नतिकारणं तिनि
रहता है तथा जो नहीं देखे गये हैं उनको देखे गये सलतादिगतो मृदुः । (कर्मवि. स्वो. वृ. ४०)।
कहता है, इत्यादि ये सब मृषानुबन्धी रौद्रध्यान के १ सम्यक् प्रकार से जो नमने की स्थिति होती है,
लक्षण हैं। ३ श्रद्धा के योग्य तत्त्व के विषय में यह मृदु का लक्षण है।
अपनी कल्पित युक्तियों के द्वारा दूसरों के ठगने का मृदस्पर्शनाम-१. एवं सेसफासाणं पि अत्थो जो विचार रहता है उसे मषानन्दरौद्रध्यान कहते हैं । वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं
मृषानुबन्धी-देखो मृषानन्दरौद्रध्यान । मडवभावो होदि तं मडवं णाम)। (धव. पु. ६, मृषाभाषा - देखो मोषवाक् । १. विराहिणी पृ. ७५) । २. यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु मृदुः स्पर्शो मोसा। (प्रज्ञाप. १६१, पृ. २४६) । २. xxx भवति तत् मृदुस्पर्शनाम । (सप्तति. मलय. वृ. ६)। मोसा विराहिणी होइ। (दशवं. नि. २७२)। ३. यदृदयाज्जन्तूशरीरं हंसरुतादिव मृदु भवति तद् ३. विपरीत स्वरूपा मुषा | XXX उक्त च-- मृदु स्पर्शनाम । (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४०)। ___xxx तविवरीया मोसा xxxn (प्रज्ञाप. १ जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में मृदुता मलय. वृ. १६१)। होती है उसे मृदु नामकर्म कहते हैं।
१ जो भाषा यथार्थ वस्तुस्वरूप के प्ररूपक सत्य की मृषानन्दरौद्रध्यान--देखो अनृतानन्द । १. मोसा- विराधक होती है उसे मृषा भाषा कहते है । णुबंधी णाम जो कम्मभारिययाए निच्चमेव असंत- मृषामनयोग- देखो मोषमनयोग । असब्भूतेहिं अभिरमइ, अदिवाणि य भणइ दिट्ठाणि मृषारौद्रध्यान- देखो मृषानन्दरौद्रध्यान । मए, एवमादि मोसाणुबन्धी । (दशर्व. चू. पृ. ३१)। मृषावचन-देखो मृषाभाषा। १. प्रागभिहित२. पिसुणाऽसब्भासब्भूय-भूयधायाइवयणपणिहाणं । सामान्यलक्षणयोगे सति सद्भूतनिह्नवासद्भूतोद्मायाविणोऽतिसंधणपरस्स पच्छन्नपावस्स ।। (ध्यान- भावन-विपरीत-कटुक-सावद्यादि मृषावचनम् । (त. श. २०)। ३. श्रद्धेये परलोकस्य स्वविकल्पित- भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ७-१)। २. तदेव प्रमाणेयुक्तिभिः । विप्रलम्भनसंकल्पो मृषानन्दं सुनन्दितम् ॥ बर्बाध्यमानं सन्मृषा । (प्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. (ह. पु. ५६-२३)। ४. मृषानन्दो मृषावादरति- पृ. ७६) । सन्धानचिन्तनम् । वाक्पारुष्यादिलिङ्गं तत् द्वितीयं १ सद्भूत के अपलापक, असद्भूत के प्रकाशक, रौद्रमिष्यते ॥ (म. पु. २१-५०)। ५. असत्य- विपरीत, कटुक और पापयुक्त वचन को मृषावचन कल्पनाजालकश्मलीकृतमानसः । चेष्टते यज्जनस्तद्धि कहा जाता है।
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मृषावाद ]
मृषावाद प्रसंतवणं मुसावादी । किमसंतवयणं ? मिच्छत्तासंजमकषाय- पमादुट्टावियो वयणकलावो । (घव. पु. १२, पृ. २७९ ) ।
प्रशस्त वचन का नाम भूषावाद है । ऐसा वचनकलाप मिथ्यात्व, श्रसंयम, कषाय और प्रमाद के श्राश्रय से उत्पन्न होता है । मृषावादविरमण - अहावरे दुच्चे भंते महत्वए मुसावाया वेरमणं । सव्वं भंते मुसावायं पच्चक्खामि, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुखं वइज्जा नेवऽन्नेहि मुसं वायाविज्जा मुसं वयं तेऽवि अन्नेन समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए का एणं न करेमि न कारवेम करतं पि श्रन्नं न समणुजाजामि, तस्स भंते पक्किमामि निदामि गरिहामि श्रप्पाणं वोसिरामि । दुच्चे भंते महव्वए उवद्विप्रोमि सव्वाश्रो मुसावायाश्रो वेरमणं ।। ( दशवं. सु. ४-४, पु. १४६) ।
क्रोध, लोभ, भय प्रथवा परिहास से असत्यभाषण के परित्याग की प्रतिज्ञा करना कि मैं न स्वयं असत्य बोलूंगा, न दूसरों को उसके बोलने के लिए प्रेरणा करूंगा, स्वयं प्रसत्य भाषण करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करूंगा; जीवन पर्यन्त मैं मन, वचन एवं काय से न स्वयं करूंगा, न कराऊंगा और न करते हुए अन्य की अनुमोदना करूंगा; इस प्रकार से प्रसत्य वचन का परित्याग करने वाले के मृषावादविरमण नाम का दूसरा महाव्रत होता है ।
मेघ - वारिसु वा कसणवण्णा मेहा णाम । (घव. पु. १४, पृ. ३५ ) ।
वारिश के समय काले रंग के जो बादल हुधा करते हैं उन्हें मेघ कहा जाता है । मेघचारण- १. अविराहिदूण जीवे अपुकाए बहुविहाण मेघाणं । जं उवरि गच्छिइ मुणी सा रिद्धी मेघचारणा णाम । ( ति प ४ - १०४३) । २. नभोवर्त्मनि प्रविततजलधरपटलपटास्तरणे जीवानुपघातिचङ्क्रमणप्रभवो मेघचारणाः । ( योगशा. स्व. वि. १-६, पु. ४१ ) ।
१ मुनि बहुत प्रकार के मेघों के जलकायिक जीवों को विराधना न करके जो उनके ऊपर से जाता है, इसे मेघचारण ऋद्धि कहा जाता है ।
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६३४, जैन - लक्षणावली
[मेषसमान शिष्य
मेद -- मेदो वसा मांससम्भवम् । (योगशा. स्वो. विव. ४-७२ ) ।
मांस से जो शरीरगत धातु उत्पन्न होती हैं उसे मेदा (चव) कहा जाता है ।
मेघा - १. मेघा ग्रन्थग्रहणपटुः परिणामः ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमजः चित्तधर्म इति भावः । (ललिवि. पू. ८१ ) । २. मेध्यति परिच्छिनत्ति अर्थ - मनया इति मेधा । ( धव. पु. १३, पृ. २४२) । ३. मेधा च सच्छास्त्रग्रहणपटुः पापश्रुतावज्ञाकारी ज्ञानावरणीय क्षयोपशमजश्चित्तधर्मः, अथवा मेघा मर्यादावर्तिता । (योगशा. स्वो विव. ३-१२४ ) । ४. विशिष्टो ग्रन्थग्रहणपटुरात्मनः परिणामविशेषो मेघा । (धर्मसं. मलय. पू. १४) । ५. पाठग्रहणशक्तिर्मेधा । (न. घ. स्वो टी. ३-४; त. वृत्ति श्रुत. १-१३ ) । ६. XXX मेधा कालत्रयात्मिका । (त. वृत्ति श्रुत. १-१३ उद् . ) । १ ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला जो चित्त का धर्म ग्रन्थ के ग्रहण करने में दक्ष होता है उसे मेधा कहते हैं । जाना जाता है उसका नाम का एक नामान्तर है । मेधावी - मेघा विद्यते येषां ते मेधाविनो ग्रहणधारणसमर्थाः । (सूत्रकृ. सू. शी. २, ६, १६, पृ. १४४) ।
२ जिसके द्वारा पदार्थ मेघा है । यह श्रवग्रह
जो मेधा के स्वामी होकर ग्रहण व धारण में समर्थ होते हैं वे मेघावी कहलाते हैं।
मेरक- मेरकं तालफल निष्पन्नम् । ( विपाक. अभयवृ. पु. २३) ।
ताल के फल से जो मद्य उत्पन्न होता है उसका नाम मेरक है ।
मेषसमान शिष्य - यथा मेषो वदनस्य तनुत्वात् स्वयं च निभृतात्मा गोष्पदमात्रस्थितमपि जलमकलुषीकुर्वन् पिवति तथा यः शिष्योऽपि पदमात्रमपि विनयपुरः सरमाचार्यचित्तं प्रसादयन् पृच्छति स मेषसमानः स चैकान्तेन योग्य: । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पू. १४४ ) ।
जिस प्रकार मेष मुख के छोटे होने से गाय के खुर के प्रमाण में भी स्थित जल को कलुषित न करके पीता है उसी प्रकार जो शिष्य भी विनयपूर्वक प्राचार्य के चित्त को प्रसन्न करता हुआ पद मात्र
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मंत्री भावना ]
भी पूछता है वह मेष के समान माना जाता है । ऐसा शिष्य सर्वथा योग्य होता है । मैत्रीभावना - १. जीवेसु मित्तचिता मेत्ती × × X | (भ. प्रा. १६६६ ) । २. परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री । ( स. सि. ७-११; त. श्लो. ७, ११; भ. प्रा. विजयो. १३१) । ३. परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री | स्वकाय वाङ्मनोभिः कृत-कारितानुमतविशेषणः परेषां दुःखानुत्पत्ती अभिलाषः मित्रस्य भावः कर्म वा मंत्री । (त. वा. ७, ११, १ ) । ४. परहितचिन्ता मंत्री XX X | ( षोडशक. ४-१५) । ५. अनन्तकालं चतसृषु गतिषु परिभ्रमतो घटीयंत्रवत्सर्वे प्राणभृतोऽपि बहुशः कृतमहोपकारा इति तेषु मित्रताचिन्ता मंत्री । ( भ. प्रा. विजयो. १६९६) । ६. क्षुद्रेतरविकल्पेषु चरस्थिरशरीरिपु । सुख-दुःखाद्यवस्थासु संसृतेषु यथायथम् ॥ नानायोनिगतेष्वेषु समत्वेनाविराधिका । साध्वी महत्त्वमापन्ना मतिर्मैत्रीति पठ्यते । जीवन्तु जन्तवः सर्वे क्लेशव्यसनवर्जिताः। प्राप्नुवन्तु सुखं त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम् ॥ (ज्ञाना. २७, ५–७, पृ. २७२ ) । ७. कायेन वचसा वाचाऽपरे सर्वत्र देहिनि । प्रदुःखजननी वृत्तिमंत्री मंत्रीविदां मता ॥ ( उपासका ३३५) । ८. मेद्यति स्निह्यतीति मित्रम्, तस्य भावः समस्तसत्वविषयः स्नेहपरिणामो मैत्री । (योगशा. स्वो विव. ४ - ११७ ) ; माकार्षीत् कोऽपि पापानि मा च भूत्कोऽपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा मतिर्मंत्री निगद्यते || (योगशा. ४ - ११८ ) । ६. काय-वाङ्मनोभिः कृत-कारितानुमतैरन्येषां कृच्छ्रानुत्पत्तिकांक्षा मैत्रीत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-११) ।
१ सभी प्राणियों के विषय में जो मित्रता का विचार रहता है, उसे मंत्री भावना कहते हैं । ४ दूसरों के हित के चिन्तन का नाम मंत्री है । मंत्रीवन्दन - १. यथा निहोरकदोषादिदुष्टं वन्दते तथा मंत्र्यापि हेतुभूतया कश्चिद्वन्दत एव, आचार्येण सह मंत्री प्रीति इच्छन् वन्दत इत्यर्थः तदिदं मैत्रीवन्दनकमुच्यते । ( आव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पू. ८८) २. मैत्रीतो मम मित्रमाचार्यं इति, प्राचा
६३५, जैन - लक्षणावलो
दानी मैत्री भवत्विति वा वन्दनम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३०) । ३. मंत्र्याऽपि - मंत्री माश्रित्य कश्चिद् वन्दते, प्राचार्येण सह मैत्रीं प्रीतिमिच्छन्
[ मैथनसंज्ञा
वन्दत इत्यर्थः तदिदं मंत्रीवन्दनमुच्यते । ( प्रव. सारो. वृ. १६२ ) ।
१ जिस प्रकार निहोरक दोषादि से दुष्ट की वन्दना की जाती है उसी प्रकार आचार्य के साथ मेरी मैत्री हो, इस प्रकार इच्छा करके मित्रता के निमित्त से जो वन्दना की जाती है उसे मंत्रीवन्दन कहा जाता है।
मैथुन - १. स्त्री-पुंसयोश्चारित्र मोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शनं प्रति इच्छा मिथुनम्, मिथुनस्य कर्म मैथुनमित्युच्यते । ( स. सि. ७- १६; मूला. वृ. १ - ४ ) । २. स्त्री-पुंसयोः परस्परगात्रोपश्लेषे रागपरिणामो मैथुनम् । चारित्रमोहोदये सति स्त्री-पुंसयोः परस्परगात्रोपश्लेषे सति सुखभुपलिप्समानयोः रागपरिणामो यः स मैथुनव्यपदेशभाक् । (त. वा. ७, १६, ४) । ३. त्थी पुरिसविसवावारो मण वयण काय सरूवो मेहुणम् । ( धव. पु. १२, पृ. २८२ ) । ४. स्त्री-पुंमोर्वेदोदये वेदनापीडितयोर्यत्कर्म तन्मैथुनमथवैकस्यापि चारित्रमोहोदयोदृक्तरागस्य हस्तादिसंघट्टनेऽस्ति मैथुनमिति । (चा. सा. पृ. ४२ ) । ५ वेदतीव्रोदयात् कर्म मैथुनं मिथुनस्य यत् । तदब्रह्मापदामेकं पदं सद्गुणलोपनम् ।। (आचा. सा. ५ - ४७ )। ६. मिथुनस्य कर्म मैथुनम् । किं तत् मिथुनस्य कर्म ? स्त्री-पुंसयोश्चारित्रमोहविपाके रागपरिणतिप्राप्तयोरन्योन्यपर्वणं
( स्पर्शनं ) प्रति अभिलाषः स्पर्शोपायचिन्तनं च मिथुन कर्मोच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-१६) । १ चारित्रमोह का उदय होने पर राग से प्राक्रान्त स्त्री-पुरुषों के जो परस्पर के स्पर्श की इच्छा होती है उसे मिथुन और मिथुन की क्रिया को मैथुन कहा जाता है ।
मैथुनसंज्ञा - १. पणिदरसभोयणेण य तस्सुवोगेण कुसीलसेवाए । वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं || ( प्रा. पंचसं. १-५४; गो. जी. १३६ ) । २. मैथुनसंज्ञा मैथुनाभिलाषः वेदमोहोदयजो जीवपरिणामः । ( श्राव. हरि. वृ. ४, पृ. ५८० ) । ३. पुरुषादिवेदोदयाद् दिव्यौदारिकशरीरसम्बन्धाभिलाषासेवने मैथुनसंज्ञा । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. २- २५ ) । ४. मैथुनसंज्ञा वेदमार्गणाप्रभेदः, स्त्रीपुंनपुंसकवेदानां तीव्रोदयरूपत्वात् । ( धव. पु. २, पू. ४१४ ) । ५. मैथुनसंज्ञा वेदोदयजनितो मैथुना
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मोक्ष] ६३६, जैन-लक्षणावलो
। मोक्ष भिलाषः । (स्थानां. ४,४, ३५६ ; जीवाजी. मलय. ८३)। ११. मोक्षः अशेषकर्मवियोगलक्षणः । (त. वृ. १३)। ६. मैथुनेच्छात्मिका वेदोदयजा मैथुना- भा. हरि. वृ. पृ. ५); अत्र मोक्षः कर्म विमुक्तः
(लोकप्र. ३-४४५)। ७. मैथनसंज्ञा प्रात्मोच्यते । xxx यथा (दापोषप्राग्भावेदोदयान्मथुनाभिलाषः । (धर्मसं. मानवि. ३-८७, राधरोपलक्षितं क्षेत्रं मोक्षस्तदा xxx। (त. पृ. ८०)।
भा. हरि. वृ. १-१, पृ. १५) । १२. मोक्षः सर्वथा१ सुन्दर रसयुक्त भोजन करने, भोजन की ओर इष्टविधकर्ममलवियोगलक्षणः । (प्राव. नि. हरि. उपयोग के रहने, कुशील का सेवन करने और वेद- वृ. १०३, पृ. ७२)। १३. कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षो कर्म को उदीरणा से मैथुनसंज्ञा हुआ करती है। जन्म-मृत्यादिवर्जितः। सर्वबाधाविनिर्मुक्त एकान्त२ वेद मोहनीय के उदय से मैथुन की अभिलाषारूप सुखसंगतः ॥ यन्न दुःखेन संभिन्नं न च भ्रष्टमनन्तजो जीव का परिणाम होता है उसका नाम मैथुन- रम् । अभिलाषापनीतं यत्तज्ज्ञेयं परमं पदम् ।। संज्ञा है।
(प्रष्टक. ३२, १-२)। १४. प्रात्यन्तिको वियोगस्तु मोक्ष-१. बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्र- देहादेर्मोक्ष उच्यते। (षड़द. स. ५२) । १५. मोचनं मोक्षो मोक्षः। (त. स. वि. १०-२); कृत्स्नकर्म- मोक्षः, मुच्यते अनेनास्मिन्निति वा मोक्षः। (धव. क्षयो मोक्षः। (त. सू. श्वे. १०-३)। २. कृत्स्न- पु. १३, पृ. ३४८); जीव-कम्माणं वियोगो मोक्खो कर्मक्षयलक्षणो मोक्षः। (त. भा. १०-३)। ३. णाम । (घव. पु. १६, प. ३३८)। १६. निःशेष बन्धवियोगो मोक्षः xxx। (प्रशमर. २२१)। कर्मनिर्मोक्षो मोक्षोऽनन्तसुखात्मकः । सम्यविशे४. अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि पणज्ञान-दृष्टि चारित्रसाधनः ॥ (म. पु. २४-१६) । भवम् । मोक्षस्तद्वीपरात्मेति xxx॥ (रत्नक. १७. निःशेषकर्मनिर्मोक्षः स्वात्मलाभोऽभिधीयते । १०४)। ५. निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्या- मोक्षो जीवस्य नाभावो न गुणाभावमात्रकम् ॥ (त. शरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्याबा- श्लो. १,१,४,५.५८)। १८. स्वात्मलाभस्ततो धसुखमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति । (स. सि. मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयान्मतः। निर्जरा-संवराभ्यां तू १-१ उत्थानिका); कृत्स्नकर्मविप्रयोगलक्षणो सर्वसद्वादिनामिह ॥ (प्राप्तप. ११६)। १६. मोक्ष मोक्षः। (स. सि. १-४)। ततो भवस्थितिहेतुसमीकृ- इति च ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मक्षयलक्षणः केवलात्मतशेषकर्मावस्थस्य युगपदात्यन्तिकः कृत्स्नकर्मविप्र- स्वभावः कथ्यते स्वात्मावस्थानरूपो न स्थानम् । मोक्षो मोक्षः प्रत्येतव्यः । (स. सि. १०-२)। xxx अथवेषत्प्राग्भारधरणी मोक्षशब्देनाभि६. कम्मयदव्वेहि समं संजोगो होइ जो उ जीवस्स। धातुमिष्टा । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-१); ज्ञानसो बंधो नायव्वो तस्स विनोगो भवे मुक्खो॥ शम-वीर्य - दर्शनात्यन्तिककान्तिकाबाधनिरुपमसुखा(प्राचा. नि. २६०)। ७. ऐकान्तिकात्यन्तिकनि- त्मन प्रात्मनः स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः। xxx त्यमुक्तं कर्मक्षयोद्भूतमनन्तसौख्यम् । xxx मोक्षोऽप्ययमात्मा समस्तकर्मविरहित इति । xx मोक्षमुदाहरिष्ये ॥ (वरांगच. १०१)। ८. प्रात्य- X कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः। न्तिकः सर्वकर्मनिक्षेपो मोक्षः। मोक्ष असने इत्ये- (त. भा. सिद्ध. वृ. १-४)। २०. अभावाद् बन्धतस्य धन भावसाघनो मोक्षणं मोक्षः असनं क्षेपण- हेतूनां बन्धनिर्जरया तथा। कृत्स्नकर्मप्रमोक्षो हिं मित्यर्थः; स प्रात्यन्तिकः सर्वकर्मनिक्षेपो मोक्ष इत्यु- मोक्ष इत्यभिधीयते ॥ (त. सा. ८-२) । २१. प्राच्यते । (त. वा. १, १, ३७); कृत्स्नकर्मवियोग- त्म-बन्धयोद्धिधाकरणं मोक्षः । (समयप्रा. अमत. व. लक्षणो मोक्षः। सम्यग्दर्शनादिहेतुप्रयोगप्रकर्षे सति ३१६-१८)। २२. अत्यन्तशुद्धात्मोपलम्भो जीवस्य कृत्स्नस्य कर्मणश्चतुर्विधबन्धवियोगो मोक्षः । (त. जीवेन सहात्यन्तविश्लेषः कर्मपुद्गलानां च मोक्षः । वा. १, ४, २०)। ६.मात्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मलक्षयम् । (सिद्धिवि. ७, १९, प. ४८५)। स्वहेतोर्यो विश्लेषो जीव-कर्मणोः । स मोक्षः xx १०. नीसेसकम्मविगमो मुक्खो जीवस्स सुद्धस्वस्स। x॥ (तत्त्वानु. २३०)। २४. मोक्षोऽपि पाथिसाइ-प्रपज्जवसाणं मवावाहं प्रवत्थाणं ॥ (धावप्र. वात्यन्तं विश्लेषो जीव-कर्मणोः। (प्रद्युम्नच. ६,
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मोक्ष ]
४६) । २५. प्रभावे बन्धहेतुनां निर्जरायां च भास्वरः । समस्तकर्म विश्लेषो मोक्षो वाच्योऽपुनर्भवः ॥ ( योगसा. प्रा. ७ - १) । २६. मोक्ष्यतेऽस्यते येन मोक्षणमात्रं वा मोक्षः । निरवशेषाणि कर्माणि येन परिणामेन क्षायिकज्ञान-दर्शन यथाख्यातचारित्रसंज्ञितेनास्यन्ते स मोक्षः, विश्लेषो वा समस्तानां कर्मणाम् । (भ. श्री. विजयो. १३४) । २७. णिस्सेकम्ममुक्खो सो मुक्खो जिणवरेहि पण्णत्तो । रायदोस भावे सहावथक्कस्स जीवस्स || ( भावसं. दे. ३४६ ) | २८. सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणी हु परिणामो । यो सो भावमुक्खो दव्वविमुक्खो
कम्मभावो ॥ ( द्रव्यसं. ३७ ) । २६. अनन्तचतुष्टय स्वरूप लाभलक्षणमोक्षप्रसिद्धेः X ×× । ( न्यायकु. ७६, पृ. ८३६) । ३० वदन्ति योगिनो मोक्षं विपक्षं जन्मसन्ततेः । निष्कलङ्क निराबाधं सानन्दं स्वस्वभावजम् ॥ ( ज्ञाना. १-४५ ) ; नि:शेषकर्मसम्बन्धपरिविध्वंसलक्षणः । जन्मनः प्रतिपक्षो यः स मोक्षः परिकीर्तितः ॥ दृग्वीर्यादिगुणोपेतं जन्मक्लेशः परिच्युतम् । चिदानन्दमयं साक्षान्मोक्षमात्यन्तिकं विदुः । प्रत्यक्षं विषयातीतं निरोपम्यं स्वभावजम् | अविच्छिन्नं सुखं यत्र स मोक्षः परिपठ्यते ॥ (ज्ञाना. ६-८, पृ. ६२ ) । ३१. कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षो भव्यस्य परिणामिनः । ज्ञान- दर्शनचा - रित्रत्रयोपायः प्रकीर्तितः ॥ ( चन्द्र च १८ - १२३ ) । ३२. जीव- पुद्गल संश्लेषरूपबन्धस्य विघटने समर्थः स्वशुद्धात्मोपलब्धिपरिणामो मोक्षः । (बृ. द्रव्यसं. टी. २८, पृ. ७६ ) ; निरवशेषनिराकृतकर्म मलकलङ्कस्याशरीरस्यात्मन प्रात्यन्तिक- स्वाभाविका चिन्त्याद्भुतानुपमसकल विमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणास्पदमवस्थान्तरं मोक्षो भण्यते XXX । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३७, पृ. १३९ ) । ३३. श्रानन्दो ज्ञानमैश्वर्यं वीर्य परमसूक्ष्मता । एतदात्यन्तिकं यत्र स मोक्षः परिकीर्तितः ॥ ( उपासका ४५ ) ; आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यान्तर्म लक्षयात् । नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ॥ ( उपासका. ११३) । ३४. मुच्यतेऽनेन मुक्तिर्वा मोक्षो जीवप्रदेशानां कर्मरहि तत्वं स्वतंत्र भावः । ( मूला. वृ. ५-६ ) । ३५. णिस्सेसम्ममोक्खो मोक्खो जिणसासणे समुद्दिट्ठो । तम्हि कए जीवोsयं श्रणुहवइ प्रणंतयं सोक्खं ॥
ल. ११८
[ मोक्ष
( वसु. श्री. ४५ ) ; ३६. मोक्षः स्वात्मोपलब्धिः । ( प्रा. मी. वसु. वृ. ४० ) । ३७. भाव द्रव्यात्मकाशेषकर्म - नोकर्मणां क्षयात् । भाव द्रव्यात्मको मोक्षचारुचारित्र सम्पदा ।। (झाचा. सा. ३-४१) । ३८. सकलकर्मविप्रमोक्षलक्षणो मोक्षः । (बृहत्स्व. टी. ११० ) । ३६. स्वस्वभावजमत्यक्षं यदस्मिन् शाश्वतं सुखम् । चतुर्वर्गाग्रणीत्वेन तेन मोक्षः प्रकीतितः ॥ (योगशा. स्वो विव. १-१६, पृ. ११५ उद्) । ४०. मोचनं कर्म्म- पाशवियोजनमात्मनो मोक्षः । ( स्थाना. अभय वृ. १ - १० ) । ४१. मोक्षः श्रशेषकर्मक्षयलक्षणो विशिष्टाकाशप्रदेशाख्यो वा । (प्राचा. शी. वृ. १, ५, ६, १७२) । ४२. पुद्गल परिणामकर्म - शरीरसम्बन्धो बन्वस्ततो विश्लेषो मुक्ति: । (बृ. सर्वज्ञसि. पृ. १८७) । ४३. तयोरेवाऽऽत्यन्तिकः पृथग्भाव: : ( उत्तरा. नि. शा. वृ. ४) । ४४, मोक्षोsशेषकर्म वियोगलक्षणो XXX । ( त. भा. कारिका. दे. वृ. ५) । ४५. मोक्ष: सकलकर्म्मसलविकलतालक्षणः । ( धर्मसं. मलय. वृ. ११७५ ) । ४६. येन कृत्स्नानि कर्माणि मोक्ष्यन्तेऽस्यन्त श्रात्मनः । रत्नत्रयेण मोक्षोऽसौ मोक्षणं तत्क्षयः स वा ॥ ( अन. ध. २-४४) । ४७. मोक्ष्यन्तेऽस्यन्ते श्रात्मनः पृथक् क्रियन्ते समस्तानि कर्माणि येन सम्पूर्णरत्नत्रयलक्षणेनात्मपरिणामेन स मोक्षः । अथवा मोक्ष्यते विश्लि ष्यते जीवो येन नीरसीभूतेन कर्मणा तच्छादितफलदानसामथ्यं कर्म मोक्षः । यदि वा मोक्षणं मोक्षः जीव-कर्मणोरात्यन्तिको विश्लेषः । (भ. प्रा. मला. ३८ ) । ४८. प्रभावाद् बन्धहेतुनां निर्जरायाश्च यो भवेत् । निःशेषकर्म निर्मोक्षः स मोक्षः कथ्यते जिनः ॥ ( धर्मश. २१ - १६० ) । ४६. मोहस्तु संबनिर्जराभ्यामात्यन्तिको वियोगः कर्मभिः । (प्रमाल. ३०५) । ५०. मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयः । (स्याद्वादम. २७, पृ. ३०२) । ५१. अष्टकर्मक्षयान्मोक्षः XX X | ( विवेकवि ८ - २५३, पृ. १८८ ) । ५२. सकलकर्मक्षये लोकाग्रप्रदेशे नित्यज्ञानानन्दमयश्च मोक्ष: । (गु. गु. षट्. स्वो वृ. ५) । ५३. व मंक्षयेण जीवस्य स्वस्वरूपस्थितिः शिवम् | ( षड्द स. राज. १६) । ५४. XX X जीवस्य समस्तकर्म मलकलंकरहितत्वं अशरीरत्वमचिन्तनीयसर्गिक ज्ञानादिगुणसहिताव्याबाधसोख्यं ईदृशमात्यन्ति
६३७, जंन - लक्षणावलो
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मोक्षतरुबीज ]
कमवस्थान्तरं मोक्ष उच्यते । ( त वृत्ति श्रुत. १ - १ उत्थानिका) । ५५. पुंसोऽवस्थान्तरं मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षये सति । ज्ञानानन्दादिधर्माणामाविर्भावात्मकः स्वतः । ( जम्बू. च. ३-६० ) । ५६. मोक्षः स्वात्मप्रदेशस्थितविविधविधेः कर्म पर्याय हानिर्मूलात्तत्कालचित्ताद्विमलतरगुणोद्भूतिरस्या यथावत् ।
स्याच्छुद्धात्मोपलब्धेः परमसमरसीभावपीयूषतृप्तिः शुक्लध्यानादिभावापरकरणतनोः संवरान्निर्जरायाः ॥ ( अध्यात्मक. १ - ५ ) । ५७. मोक्षं सर्वकर्मविचटनरूपं निःश्रेयसम् । ( सम्बोधस. वृ. २) । ५८. मोक्षः सर्वकर्मक्षयलक्षणः । (ज्ञा. सा. वृ. ७-१) । ५६. मोक्षः पुनः सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रेभ्यः कर्मणामत्यन्तोच्छेदः । ( धर्मसं. मान. स्वो वृ. पू. २४) । १ बन्ध के हेतुभूत श्रात्रव के निरोध स्वरूप संवर और निर्जरा के द्वारा जो समस्त कर्मों का क्षय होता है उसका नाम मोक्ष है 1 ६ कर्मद्रव्यों के साथ जो जीव का संयोग होता है उसे बन्ध प्रोर उसके वियोग को मोक्ष जानना चाहिए । मोक्षतरुबीज - कि मोक्षतरोर्बीजं सम्यग्ज्ञानं क्रियासहितम् । ( प्रश्नो ४ ) ।
मोक्षरूप वृक्ष का बीज क्या है ? क्रिया ( श्राचरण ) सहित सम्यग्ज्ञान उस मोक्ष रूप वृक्ष का बीज ( उपाय ) है ।
३८, जैन- लक्षणावली
मोक्षमार्ग - १. रायादिदोसर हिलो जिणसासणे मोक्खमग्गुति ॥ ( चारित्रप्रा . ३८ ) । २. निच्चेलं पाणिपत्तं उवइट्ठे परमजिनवरिदेहि । एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य श्रमग्गया सव्वे ॥ ( सूत्रप्रा . १० ) । ३. सम्मत्त - णाणजुत्तं चारितं राग-दोसपरिहीणं | मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धबुद्धीणं ॥ ( पंचा. का. १०६); धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं नाणमंग-पुव्वगदं । चिट्ठा तवंमि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो ति ॥ णिच्चयणयेण भणिदो तिहि तेहि समाहिदो हु जो श्रप्पा । ण कुणदि किंचिवि अण्णं ण मुर्यादि मोक्खमग्गोत्ति ।। (पंचा. का. १६०-६१ ) । ४. दंसण - णाण चरिताणि मोक्खमग्गं जिणाविति ॥ ( समयप्रा ४४० ) । ५. सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । (त. सू. १-१; पंचा. श्रमृत. वृ. १६० ) । ६. सम्यक्त्व -ज्ञान-चारित्रः संपदः साधनानि मोक्षस्य । तास्वेकतराभावेऽपि
[ मोक्षसुख
मोक्षमार्गोऽप्यसिद्धिकरः ॥ ( प्रशमर. २३० ) । ७. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मको मोक्षमार्गः । (त. इलो. पृ. १०) ८. XXX सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्राहमको मोक्षमार्ग: XXX। (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. २७, पृ. ६) । ६. एवं सम्यग्दर्शन - बोध चरित्रत्रयात्मको नित्यम् । तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्तिः ॥ ( पु. सि. २० ) ; सम्यक्त्वचरित्र - बोधलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ।। ( पु. सि. २२२ ) । १०. स्यात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयात्मकः । मार्गो मोक्षस्य भव्यानां युक्त्यागमसुनिश्चितः ॥ (त. सा. १-३) । ११. न खलु द्रव्यलिंगं मोक्षमार्गः, शरीराश्रितत्वे सति परद्रव्यत्वात् । तस्माद् दर्शन-ज्ञानचारित्राण्येव मोक्षमार्गः, श्रात्माश्रितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात् । ( समयप्रा. अमृत. वृ. ४४० ) । १२. स च मुक्तिमार्गः सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्रात्मक एव युक्तः । (बृ. सर्वज्ञसि. पू. १८० ) । १३. ज्ञान-दर्शनचारित्र तपसां संहतिश्च या । सम्यक्पदोपसंसृष्टा मोक्षमार्ग. प्रकीर्तितः ।। (मोक्षपं १) । १४. मोक्षः सर्वकर्मविप्रयोगलक्षणः, तस्य मार्गः सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रलक्षणः । (त. वृत्ति श्रुत. पृ. १) । १५. सम्यग्दृग्ज्ञान-वृत्तं त्रितयमपि युतं मोक्षमार्गो विभ क्तात् सर्वं स्वात्मानुभूतिर्भवति च तदिदं निश्चयातत्त्वदृष्टेः । (अध्यात्मक. १- ६) |
२ वस्त्र का परित्याग कर दिगम्बर होते हुए पात्र के बिना हाथों से ही भोजन करना, यह मोक्षमार्ग का लक्षण माना गया है । ३ सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से सहित तथा राग-द्वेष से रहित चारित्र को मोक्षमार्ग जानना चाहिए । मोक्षविनय - इहलोकानपेक्षस्य श्रद्धान-ज्ञान-शिक्षादिषु कर्मक्षयाय प्रवर्तनं मोक्ष विनयः । ( उत्तरा. नि. शा. वृ. २६) ।
इस लोक सम्बन्धी सुख की अपेक्षा न करके कर्मक्षय के लिए श्रद्धान, ज्ञान और शिक्षा आदि में प्रवृत्त होना; इसका नाम मोक्षविनय है । मोक्षसाधन - देखो मोक्षमार्ग । मोक्षसुख - आत्मायत्तं निराबाधमतीन्द्रियमनश्वरम् । घातिकर्मक्षयोद्भूतं यत्तन्मोक्षसुखं विदुः ॥ ( तत्वानु. २४२) ।
जो सुख पर पदार्थों की अपेक्षा से रहित होकर ग्रात्मा
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मोक्षोपाय |
धीन होता हुआ बाधा से रहित, प्रतीन्द्रिय, श्रविनश्वर और घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है उसे मोक्षसुख जानना चाहिए।
मोक्षोपाय - देखो मोक्षमार्ग । परनिरपेक्षतया निजपरमात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धान परिज्ञानानुष्ठानशुद्धरत्नत्र यात्मक मार्गो मोक्षोपाय: । (नि. सा. वृ. २) । बाह्य पदार्थों से निरपेक्ष रह कर अपने उत्कृष्ट श्रात्मतत्वविषयक समीचीन श्रद्धान, ज्ञान श्रौर प्रनुष्ठानरूप जो शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष का मार्ग है उसे मोक्ष का उपाय जानना चाहिए । मोषमनयोग - मोषवचननिबन्धनमनसा योगो मोमनोयोगः । ( धव. पु. १, पृ. २८१) । मृषा वचन के कारणभूत मन से जो योग होता है मोहः । ( परमा. त. १ - २३ ) । उसे मोषमनोयोग कहते हैं । मोषवाक्- १. यां श्रुत्वा स्तेये वर्तते सा मोषवाक् । (त. वा. १,२०,१२ ) । २. या प्रवर्तयति ये मोघ [ष] वाक् सा समीरिता । (ह. पु. १०, ε६) :
१ जिस वचन को सुनकर प्राणी चोरी में प्रवृत्त होता है उसे मोषवाक् (मृषाभाषा) कहते हैं । मोह - १. भावोवयमईओ मुज्झइ नाण-चरणंतराईसु । इड्ढी बहुविहा दट्ठे परतित्थियाणं तु ।। (बृहत्क. भा. १३२५ ) । २. मोहश्चाज्ञानम् । (त. वा. १, १, ४४ ) । ३. धर्माय हीनकुलादिप्रार्थनं मोहः, तद्धेतुकत्वात्, ऋद्धयभिष्वङ्गतो धर्मप्रार्थनापि मोहः, तद्धेतुकत्वादेव । ( ललितवि. पू. ६४ ) । ४. गुह्यतेऽनेनेति मोहः मोहवेदनीयं कर्म । मोहनं वा मोहः, मोहवेदनीयकर्मापादितोऽज्ञानपरिणाम एव । ( पंचसू. व्या पृ. १) । ५. हेयेतरभावाधिगमप्रतिबन्धविधानान्मोह इति । ( घ. वि. ८-११) । ६. श्रज्ञानलक्षणो मोहः । (श्रा. प्र. टी. ३६३) । ७. क्रोध-मानमाया- लोभ-हास्य रत्य रति शोक भय जुगुप्सा-स्त्रीपुन्नपुंसक वेद- मिथ्यात्वानां समूहो मोहः । ( धव. पु. १२, पृ. २८३ ) ; पंचविहमिच्छतं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं च मोहो । ( धव. पु. १४, पृ. ११) । ८. लब्धे (वस्त्रे ) ममेदभावलक्षणो मोहः । (भ. श्री. विजयो. ८५) । ६. सामान्येन दर्शन- चारित्रमोहनीयोदयोपजनिता विवेकरूपो मोहः । (पंचा. का. अमृत. वृ. १४० ) । १०. शुद्धात्मश्रद्धानरूपसम्यक्त्वस्य विनाशको दर्शनमोहाभिधानो मोह इत्युच्यते ।
[ मोहनीय
( प्रव. सा. जय. वृ. १-७) । ११. मोहः पदार्थेष्वयथावबोधः । ( समवा. अभय वृ. १३७ ) । १२. मुह्यतेऽनेनेति मोह :- मोहवेदनीयं कर्म तेन यथावस्थितवस्तुतत्त्वपरिच्छेदविषये जन्तोरज्ञानपरिणामापादात्, मोहनं वा मोहः मोहनीयकर्म्मविपाकोदयजनितो जन्तोरज्ञानपरिणाम एव । ( धर्मसं. मलय. वृ. १ ); बाह्यार्थे यद्विज्ञानं तत्सत्त्वसाधनप्रवणमुपजायते तत्मोहः । (धर्मसं. मलय. वृ. ६६५) । १३. मोहयति जानानमपि प्राणिनं सदसद्विवेक विकलं करोतीति मोहः । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. ३) । १४. मोहिताहित विवेक विकलत्वम् । ( सा. ध. स्वो. टी. ४-५३) । १५. शरीरस्याहमित्येकत्वलक्षणो
६३६, जन-लक्षणावली
१३, पृ. २०८ ) ;
१ शंकादिरूप परिणामों से दूषित बुद्धिवाला प्राणी जो ज्ञानविशेषों ( श्रवधि व मनःपर्यायादि) और चारित्रभेदों में व्यामोह को प्राप्त होता है तथा अन्य मिथ्यादृष्टियों की बहुत प्रकार की ऋद्धियों को देखकर जो मुग्ध होता है, इसका नाम मोह है । २ प्रज्ञान या अविवेक को मोह कहा जाता है । ७ क्रोधादि कषायों और हास्यादि नोकषायों के समूह को मोह कहते हैं । मोहनीय- - १. मोहयतीति मोहनीयं मिथ्यात्वादिरूपत्वात् । (श्रा. प्र. टी. ८) । २. मुह्यत इति मोहनीयम् XXX अथवा मोहयतीति मोहनीयम् । ( धव. पु. ६, १२ ); विमोहसहावं जीवं मोहेदित्ति मोहणीयं । ( धव. पु. मोहयतीति मोहनीयं कम्मदव्वं । ( धव. पु. १३, पृ. ३५७ ) । ३. मोहयति मोहनं वा मुह्यतेऽनेनेति वा मोहनीयम् । ( त. भा. सिद्ध वृ. ८-५) । ४. मोहयति सदसद्विवेक विकलान् प्राणिनः करोतीति मोहनीयम् । (पंचसं स्वो वृ. ३-१, पृ. १०७ ) । ५. मोहेइ मोहणीयं XXX । ( कर्मवि. ग. ३५) । ६. नीयते येन मूढत्वं मद्येनेव शरीरवान् । मोहनं XXX ॥ ( पंचसं प्रमित. २- १०, पृ. ४९) । ७. मुह्यन्ति सत्कृत्येभ्यः पराङ्मुखीभवन्ति जीवा श्रनेनेति मोहनीयम् । ( शतक. मल. हेम. वृ. ३८) । ८. सुरापानसमं प्राज्ञा मोहनीयं प्रचक्षते । यदनेन विमूढात्मा कृत्याकृत्येषु मुह्यति ॥ ( त्रि. श. पु. च. २. ३, ४७० ) । ६. मोहयति सदसद्विवेकविकलं करोत्यात्मानमिति मोहनीयम् । ( प्रज्ञाप.
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मौर्य ]
मलय. वृ. २८८, पृ. ४५४; प्रव. सारो. वृ. ४६; कर्मवि. ग. परमा व्या. ५; कर्मप्र. यशो. वृ. १, पृ. ४) । १०. मोहयति विपर्यासमापादयति इति मोहनीयम् । ( धर्मसं. मलय. वृ. ६०७ ) ।
१ जो मिथ्यात्वादिस्वरूप होकर प्राणी को मोहित किया करता है उसे मोहनीयकर्म कहते हैं । २ जो पुद्गल द्रव्यस्वरूप कर्म जीव को मोहित (विमूढ ) करता है वह मोहनीय कर्म कहलाता है । ४ जो प्राणियों को मोहित करता है—उन्हें सत्असत् के विवेक से रहित] करता है उसका नाम मोहनीय है ।
मौखर्य - १. घाटयप्रायं यत्किञ्चनानर्थकं बहुप्रलपितं मौखर्यम् । ( स. सि. ७-३२) । २. मौखर्यमसंबद्धबहुप्रलापित्वम् । ( त. भा. ७-२७ ) । ३. घाटचप्रायमबद्ध बहुप्रलापित्वं मौखर्यम् । प्रशालीनतया यत्किञ्चनानर्थक- बहुप्रलपनं मौखर्यमिति प्रत्येतव्यम् । (त. वा. ७, ३२, ३) । ४. मौखर्यं घार्ष्ययात् प्राथोऽपत्यासंबद्धप्रलापित्वमुच्यते । ( श्रा. प्र. १५७; प्राव. हरि. वृ. ६, पृ. ८३० ) । ५. घाटय प्रायोऽसंबद्ध बहुप्रलापित्वं मौखर्यम् । (त. श्लो. ७-३२ ) । ६. अशालीनतया यत्किञ्चनानर्थकं बहुप्रलपनं तन्मौखर्यम् । (चा. सा. पू. १० ) । ७. धार्ष्टप्रायं बहुप्रलापित्वं मौखर्यम् । ( रत्नक. टी. ३-३५ ) । ८. मुखमस्यास्तीति मुखरः, तद्भावः कर्म वेति मौखयं धार्ष्टयप्रायमसभ्यासत्यासंबद्धप्रलापित्वम् । अयं च पापोपदेशव्रतस्यातिचारो मौखर्ये सति पापोपदेशसम्भवात् । (ध. वि. मु. वृ. ३ - ३० ) । ६. मौखर्यं मुखमस्यास्तीति मुखरोऽनालोचितभाषी वाचाट:, तद्भावो मौखर्यं धार्ष्टयप्रायमसभ्यासंबद्धबहुप्रलापित्वम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-११५; सा. ध. स्वो टी. ५-१२; धर्मसं. मान. स्वो वृ. २-५४, १. ११३) । १०. धृष्टत्वप्रायो बहुप्रलापः यत्किचिदनर्थकं वचनं यद्वा तद्वा तद्वचनं मौखर्यमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३२) । ११. मौखर्यदूषणं नाम रतप्रायं वचः शतम् । अतीव गर्हितं घटाद्यद्वात्यर्थं प्रजल्पनम् ।। (लाटीसं. ६, १४३)। १ धृष्टता से प्रायः जो कुछ भो निरर्थक बहुत बकवाद किया जाता है उसका नाम मौखर्य यह श्रर्थदण्डव्रत का एक प्रतिचार है । ८ धृष्टता के
[ म्लेच्छ
साथ असभ्य, असत्य व श्रसम्बद्ध बकवाद करने को मौर्य कहा जाता है । यह पापोपदेशव्रत ( श्रनर्थदण्डव्रत का एक भेद) का प्रतिचार है, क्योंकि मुखरता के होने पर पापोपदेश की सम्भावना है । प्रक्षित - १ ससिणिद्वेण य देयं हत्थेण य भायणेण दब्बीए । एसो मक्खिददोसो परिहरदव्वो सदा मुणिणा ॥ ( मूला ६-४५) । २. तदानीमेव सिक्ता सत्यालिप्ता सती वा छिद्रस्रुत ( ? ) जलप्रवाहेण वा, जलभाजनलोठनेन वा तदानीमेव लिप्ता वा म्रक्षिता । (भ. श्री. विजयो. २३० ) । ३. म्रक्षितस्तं - लाद्यभ्यक्तस्तेन भाजनादिना दीयमानमाहारं यदि गृह्णाति म्रक्षितदोषो भवति । (मूला. वृ. ६-४३) । ४. सस्नेहहस्त-पात्रादिदत्तं यन्म्रक्षितं मतम् । श्राचा. सा. ८-४६) । ५. पृथिव्युदक- वनस्पतिभिः सचितरचित्तैरपि मध्वादिभिहितैराश्लिष्टं यदादि तन्म्रक्षितम् । (योगशा. स्वो विव. ३८, पृ. १३७; धर्मसं. मान. स्वो वृ. ३ - २२, पृ. ४२ ) । ६. म्रक्षितं स्निग्धहस्ताद्यैर्दत्त XXX । (अन. ध. ५-३० ) । ७. तदानीमेव सिक्ता लिप्ता वा म्रक्षिता । (भ. प्रा. मूला. २३० ) । ८. सस्नेहहस्त-पात्रादिना यद्दत्तं तन्म्रक्षितम् । ( भावप्रा. टी. EE )
९४०, जैन-लक्षणावली
१ चिकने हाथ, पात्र अथवा दव ( कलछी या चम्मच) से भोज्य पदार्थ के देने पर वह प्रक्षित नामक एषणा (प्रशन ) दोष से दूषित होता है । २ जो वसति उसी समय जलप्रवाह से सींची गई है या लीपी गई है अथवा जलपात्र के लुढ़कने से लिप्त हुई है वह वसति प्रक्षित दोष से युक्त होने के कारण साधु के लिए अग्राह्य होती है । ५ सचित्त पृथिवी, जल और वनस्पति से तथा श्रचित्त भी मधु आदि निन्द्य पदार्थ से सम्बद्ध अन्न प्रक्षितदोष से दूषित होता है । यह १० एषणा दोषों में दूसरा
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म्लेच्छ - १. से किं तं मिलिक्खू ? मिलिक्खू क्षणेगविहा पं० तं० सगा जवणा चिलाया सबर बब्बर-मुरंstars-for-वकणिया कुलक्ख-गोंड - सिंहलपारस- गोघा कोंच-अंबड इद मिल- चिल्लल-पुलिंद-हारोस- दोव वोक्काण गन्धाहारवा पहलिय प्रज्झल - रोमपास उसा मलया य बंधुया य सूर्यालि कोंकणग-मेयपल्हव - मालव- मग्गर अभासिया कणवीर ल्हसिय खसा खासिय-दूर मोंढ डोंबिल गलग्रोस पोस
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म्लेच्छ] ९४१, जैन-लक्षणावली
[यति कक्कय अक्खाग हणरोमग हूणरोमग भरु मरुय कर्मभूमिज म्लेच्छ माने जाते हैं। चिलाय वियवासी य एवमाइ, सेत्तं मिलिक्खू । यक्ष-१. यक्षाः श्यामावदाता गम्भीरास्तुन्दिला (प्रज्ञाप. १-३७, पृ. ५५)। २. णामेण मेच्छखंडा वन्दारकाः प्रियदर्शना मानोन्मानप्रमाणयुक्ता रक्तअवसेसा होंति पंच खंडा ते। बहविहभावकलंका
पाणि-पादतल-नख-तालु-जिह्वौष्ठा भास्वरमुकुटधरा जीवा मिच्छागुणा तेसुं ॥ णाहल-पुलिंद-बब्बर- नानारत्नविभूषणा वटवृक्षध्वजाः । (त. भा. ४, किरायपहदीण सिंघलादीणं । मेच्छाण कुलेहि जुदा १३)। २. लोभभूयिष्ठा: भाण्डागारे नियुक्ताः भणिदा ते मेच्छखंडायो॥ (ति. प. ४-२२८८, यक्षाः। (धव. पु. १३, पृ. ३६१)। ३. यक्षा ८६) । ३. म्लेच्छा द्विविधाः अन्तर्वीपजाः कर्मभूमि- गम्भीराः प्रियदर्शना विशेषतो मानोन्मान-प्रमाणोपजाश्चेति । तत्रान्तीपा लवणोदधेरभ्यन्तरे पाश्व- पन्ना रक्तपाणि-पादतल-नख-तालुजिह्वौष्ठा भास्वरऽष्टासु दिक्षवष्टौ, तदन्तरेषु चाष्टी, हिमवच्छिखरि- किरीटधारिणो नानारत्नात्मक विभषणा:। (बहत्सं. गोरुभयोश्च विजयार्द्धयोरन्तेष्वष्टौ । xxx
मलय. वृ. ५८)। कर्मभूमिजाश्च शक-यवन-शवर-पुलिन्दादयः । (स.
१ जो वर्ण से श्याम, गम्भीर, तन्दिल (विशाल उदर लि. ३-३६; त. वा. ३,३६, ४) । ४. सग-जवणसबर-बब्बर-कायमुरुडोडु-गोंड-पक्कणया । अरदाग
वाले) और वृन्दारक (मनोहर) होते हैं; जिनका
दर्शन रुचिकर होता है, जो मान व उन्मान प्रमाण होण-रोमय-पारस-खसखासिया चेव ॥ दुबिलय
से युक्त होते हैं, जिनके हस्ततल, पादतल, नख, ल उस-बोक्कस-भिल्लंघ-पुलिंद - कुंच - भमररुया ।
ताल, जीभ एवं प्रोष्ठ लाल होते हैं। जो चमकते हुए कोवाय-चीण-चंचय-मालव-दमिला कुलग्घा य ।।
मुकुट के धारक होते हैं, अनेक रत्नों से विभाषित केक्कय-किराय-यमुह-खरमुह-गय - तुरय-मिढयमुहा
होते हैं तथा वट वृक्ष की ध्वजा से सहित होते हैं वे य । हयान्ना गयकन्ना अन्नेवि प्रणारिया बहवे ॥
यक्ष कहलाते हैं । २ जो प्रचुर लोभ से युक्त होते (प्रव सारो. १५८३-८५)। ५. म्लेच्छा: अव्यक्त
हुए भाण्डागार (खजाना) में नियुक्त होते हैं उन्हें भाषा-समाचाराः, 'म्लेच्छ अव्यक्तायां वाचि' इति
यक्ष कहा जाता है। वचनात्, भाषाग्रहणं चोपलक्षणम्, तेन शिष्टासंमत
यजमान-पाक्षिकाचारसम्पन्नो धीसम्पबन्धुबन्धुसकलव्यवहारा म्लेच्छा इति प्रतिपत्तव्यम् । (प्रज्ञाप.
रः। राजमान्यो वदान्यश्च यजमानो मतः प्रभुः ।। मलय. व. ३७, पृ. ५५)। ६. म्लेच्छन्ति निलंज्जतया व्यक्तं ब्रुवन्ति इति म्लेच्छाः । (त. वृत्ति श्रुत.
(प्रतिष्ठासा. १-११६)।
जो पाक्षिक श्रावक के प्राचार से विभषित, बद्धि१ म्लेच्छ अनेक प्रकार के हैं-शक, यवन, चिलात मान्, राजा से सम्मान्य और उदार अथवा महान किरात), शबर, बब्बर, मुरुण्ड, उडड, भडग, हो वह यजमान माना जाता है। निम्लग, पक्कणिय, कुलक्ष, गोण, सिंहल, पारसी, यति-१.xxx जयमाणगो जई होइ। (व्यव. गोध, क्रौञ्च, अंबड, द्रविड़, चिल्लल, पुलिन्द, भा. पी. द्वि. वि. १२, प. ६)। २. यतय उपशमहारोष, दोव इत्यादि । २ पांच म्लेच्छखण्डों में क्षपकश्रेण्यारूढा भण्यन्ते । (चा. सा. पृ. २२) । अनेक प्रकार के भाव से कलंकित तथा दूषित जो ३. य: पाप-पाशनाशाय यतते स यतिर्भवेत् । (उपानाहल, पुलिन्द, बर्बर, किरात और सिहल प्रादि सका. ८६२)। ४. यो देहमात्रारामः सम्यग्विद्यानोमिथ्यादृष्टि जीव रहते हैं वे म्लेच्छ कहलाते हैं। लाभेन तृष्णा-सरित्तरणाय (अन. 'तारणाय') योगाय ३ अन्तरद्वीपज और कर्मभूमिज के भेद से म्लेच्छ यतते यतिः। (नीतिवा. ५-२४, पृ. ५१; अन. ध. दो प्रकार के हैं। उनमें लवणोदधि के भीतरी पाश्र्व स्वो. टी. ४-१०३)। ५. चिरप्रवजितः साधुर्यतिः भाग में पाठ दिशात्रों में पाठ, उनके मध्य में पाठ, xxx। (प्राचा. सा. ६-८९)। ६. यते प्रयत्ने और हिमवान् आदि पर्वतों के पार्श्वभागों में स्थित संयम-योगेषु यतमानः प्रयत्नवान् यतिः । (व्यव. भा. पाठ द्वीपों में जो रहा करते हैं वे अन्तीपज म्लेच्छ पी. द्वि. वि. मलय. वृ. १२, पृ. ६)। ७. तथा च कहलाते हैं। शक, यवन, शबर और पुलिन्द प्रादि हारीत:-मात्मारामो भवेद्यस्तु विद्यासेवनतत्परः।
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यतिदोष] १४२, जैन-लक्षणावली
यथाख्यातचारित्र] संसारतरणार्थाय योगभाग् यतिरुच्यते ॥ (नीतिवा. मानुष्येषु तर्यग्योनिषु च स्थानान्तरेषु च यत्र यत्र टी. ५-३४)।
कामयते तत्र तत्र पावसतीति । (न्यायकु. १-४, पृ. १ जो संयम व योग में प्रयत्न कर रहा है वह यति १११) । कहलाता है। २ जो उपशम या क्षपक श्रेणी पर ब्राह्म, प्राजापत्य, देव, गान्धर्व, यक्ष, राक्षस, पित्र्य प्रारूढ होते हैं उन्हें यति कहा जाता है। ३ जो और पैशाच इस पाठ प्रकार के देवसर्ग में; मानुष्यपापरूप पाश को नष्ट करने का प्रयत्न करता है सर्ग में; पश, पक्षी, मग, सरीसृप और स्थावर इन उसका नाम यति है। ४ जो शरीररूप उद्यान से पांच तिर्यग्भेदों में तथा और भी विभिन्न स्थानों में युक्त होता हुमा समीचीन विद्यारूप नौका के प्राश्रय इच्छानुसार निवास करना; इसका नाम यत्रकामा. से तुष्णारूप नदी से पार होने के लिए प्रयत्न करता वसायिता है। यह अणिमा-लघिमादि रूप पाठ है उसे यति कहा जाता है। ५ जो दीर्घकाल से । प्रकार के ऐश्वर्य में अन्तिम है। दीक्षित है उसे यति कहते हैं।
यस्थितिबन्ध (जदिदिबंध)-जट्टिदिबंधो णाम यतिदोष-यतिदोषः अस्थानविच्छेदः प्रकरणं वा। आबाहाए सहिदजहण्णट्टिदिबंधो, पहाणीकयकालत्ता(प्राव. नि. मलय. व. ८८३)।
दो। (धव. पु. ११, पृ. ३३६) । प्रस्थान में यति (विश्रान्ति) का विच्छेद करना, प्राबाधा से सहित जघन्य स्थितिबन्ध का नाम अथवा करना ही नहीं; यह ३२ सूत्रदोषो में २२वां यस्थितिबन्ध है। यतिदोष है।
यस्थितिसंक्रम-जा जंमि संकमणकाले ट्ठिति सा यतिधर्म-१. निजागमोक्तमनुष्ठानं यतीनां स्वो जट्टिती, सा जस्स अस्थि सो संकमो जट्ठितिसंकमो। धर्मः। (नीतिवा. ७-१५, पृ. ८६)। २. यतिधर्मः (कर्मप्र. च. सं. क. ३१, पृ. ६०)। सर्वसावद्ययोगविरतिलक्षणः। (योगशा. स्वो. विव. कर्म की संक्रमण के समय जो स्थिति होती है वह ३-१२४) । ३. सावज्जजोगपरिवज्जणामो सव्वुत्त- यस्थिति कहलाती है और उसके संक्रमण को मो जईधम्मो। (प्राचारदि. पृ. २ उद्.); यति- यत्स्थितिसंक्रमण कहते हैं। धर्मो हि महाव्रत-समिति-गुप्तिधारण-परीषहोपसर्ग- यथाख्यातचारित्र-देखो यथाख्यातसंयत । १ मोसहन-कषाय-विषय-जय-श्रुतधारण-बाह्याभ्यन्तरतप:- हनीयस्य निरवशेषस्योपशमात् क्षयाच्च प्रात्मस्वभाकरणयोगैर्दुरासदो मोक्षस्य पन्था। (प्राचारदि. पृ. वावस्थापेक्षालक्षणम् प्रथाख्यातचारित्रमित्याख्याय२ उद्.)। ४. तथा चारायण:- स्वागमोक्तमनुष्ठानं ते । पूर्वचारित्रानुष्ठायिभिराख्यातं न तत् प्राप्तं यत् स धर्मो निजः स्मृतः । लिङ्गिनामेव सर्वेषां यो- प्राङ्मोहक्षयोपशमाभ्यामित्यथाख्यातम् । अथशब्दऽन्यः सोऽधर्मलक्षणः ।। (नीतिवा. टी. ७-१५)। स्यानन्तर्यार्थवृत्तित्वान्निरवशेषमोहक्षयोपशमानन्तर१ अपने प्रागम में निर्दिष्ट धर्म का प्राचरण करना, माविर्भवतीत्यर्थः। यथाख्यातमिति बा, यथात्मस्वयह यतियों का निज धर्म है। २ समस्त सावद्ययोग। भावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात् । (स. सि. ६-१८)। से विरत होना, इसका नाम यतिधर्म है।
२. निरवशेषशान्त-क्षीणमोहत्वादथाख्यातचारित्रम् । यतिप्रायश्चित्त- १. स्वधर्मव्यतिक्रमेण यतीनां चारित्रमोहस्य निरवशेषस्योपशमात् क्षयाच्चात्मस्वस्वागमोक्तं प्रायश्चित्तम् । (नीतिवा. ७-१६, पृ. भावावस्थापेक्षलक्षणमथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते । ८६)। २. तथा च वर्ग:-स्वदर्शनविरोधेन यो पूर्वचारित्रानुष्ठायिभिराख्यातम्, न तु परिप्राप्त धर्माधर्ममाचरेत् । स्वागमोक्तं भवेत् तस्य प्रायश्चित्तं प्राङ्मोहक्षयोपशमाभ्यामित्यथाख्यातम् । अथ शब्दविशुद्धये। (नीतिवा. टी. ७-१६) ।
स्यानन्तर्यार्थवृत्तित्वानिरवशेषमोहक्षयोपशमानन्तर . १अपने धर्म के विपरीत प्राचरण करने पर यतियों माविर्भवतीत्यर्थः । यथाख्यातमिति वा । अथवा के लिए अपने प्रागम के अनुसार प्रायश्चित्त । यथात्मस्वभावोऽवस्थितः तथैवाख्यातत्त्वात् यथाहोता है।
ख्यातमित्याख्यायते । (त. वा. ६, १८, ११-१२)।
३. प्रथशब्दो यथा-शब्दार्थो (सिद्ध. व. 'थे') यथाब्राह्म-प्राजापत्य-देव-गान्धर्व-यक्ष-राक्षस-पित्र्य-पैशाचेष ख्यातः संयमो भगवता तथाऽसावेव । कथं च
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यथाख्यातचारित्र ]
६४३, जैन - लक्षणावली
[ यथाख्यातसंयत
आख्यातः ? अकषायः, स चैकादश-द्वादशयोर्गुणस्थान- चारित्रं पूर्वं जीवेन न प्राप्तम्, अथ अनन्तरं मोहक्षयोयोः, उपशान्तत्वात् क्षीणत्वाच्च कषायाभाव इति । पशमाभ्यां तु प्राप्तं यच्चारित्रं तत् प्रथाख्यातमुच्यते । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ६-१८ ) । ४. निरव- (त. वृत्ति श्रुत. ६-१८ ) । शेषशान्त क्षीण मोहत्वाद्यथाख्यातचारित्रम्, यथाख्यातमिव आत्मस्वभावाव्यतिक्रमेण ख्यातत्वात् । ( त श्लो. ६-१८ ) । ५. दर्शन मोहजन्यम् श्रश्रद्धानं शंका-कांक्षा-विचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवरूपम्, चारित्रमोहजन्यौ राग-द्वेषी, तदनुन्मिश्रं ज्ञानं दर्शनं च यथाख्यातचारित्रमित्युच्यते । (भ. श्री. विजयो. ११) । ६. क्षयाच्चारित्रमोहस्य कार्त्स्न्येनोपशमात्तथा । यथाख्यातमथाख्यातं चारित्रं पंचमं जिनैः । (त. सा. ६-४९ ) । ७. चारित्रमोहस्य निरवशेषस्योपशमात् क्षयाच्चात्मस्वभावावस्थोपेक्षालक्षण मथाख्यात चारित्रम् । श्रथशब्दस्यानन्तयथार्थ[स्यानन्तर्यार्थ - ] वृत्तित्वान्निरवशेषमोहक्षयोपशमानन्तरमाविर्भवतीत्यथाख्यातम् । अथवा यथाऽऽत्मस्वभावावस्थितस्तथैवाऽऽख्यातत्वाद्यथाख्यातम् । चा. सा. पृ. ३८ ) 15. चारित्रमोहनीयस्य प्रशमे प्रक्षयेऽपि वा । संयमोऽस्ति यथाख्यातो जन्मारण्यदवानलः ॥ ( पंचसं प्रमित. १ - २४३ ) । ६. यथा सहज शुद्ध स्वभावत्वेन निष्कम्पत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूप तथैवाख्यातं कथित यथाख्यातचारित्रमिति । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३५, पृ. १३३ ) । १०. यथा विरागं स्वं रूपं तथैवाऽऽख्यात इत्ययम् । यथाख्यातो मतोऽघौघ- घनसंघप्रभंजनः ।। (प्राचा. सा. ५- १४७ ) । ११. जहाक्खादमित्यांदि - मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमात्क्षयाच्च यथावस्थिात्मस्वभावं यथाख्यातं, तु पुनः, चारित्रम् । तहाखादं तु पुणो- तथा तेन निरवशेष मोहोपशम-क्षयप्रकारेण प्राप्यते इत्याख्यातं तथाख्यातम् । ( प्रा. चारित्रभ. टी. ४, पृ. १६४, १५) । १२. मोहस्य निरवशेषस्य उपशमात् क्षया
१ समस्त मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय हो जाने से जो प्रात्मस्वभाव में अवस्थान होता है उसका नाम श्रथाख्यातचारित्र है । पूर्वचारित्र का श्रनुष्ठान करने वाले संयतों ने उसको कहा है, पर मोहनीय के क्षय या उपशम के पहले उसे प्राप्त नहीं किया है, इसीलिए उसको श्रथाख्यात कहा जाता है। यहां प्रथ शब्द ग्रानन्तर्य ( अनन्तरता ) के अर्थ में वर्तमान है । इसका अभिप्राय यह है कि वह सम्पूर्ण मोह के क्षय प्रथवा उपशम के अनन्तर प्रगट होता है । प्रथवा दूसरे शब्द से उसे 'यथाख्यात' भी कहा जाता है, जिसका अभिप्राय है - जैसा श्रात्मा का स्वभाव प्रवस्थित है वैसा उसका कथन किया गया है । ३ भगवान् ने 'यथा ख्यातः संयमः' अर्थात् जैसा उसे कषाय रहित संयम कहा है वैसा ही वह सार्थक नाम वाला यथाख्यातचारित्र है । वह कषाय के पूर्णतया उपशान्त हो जाने से कषाय के प्रभाव में ग्यारहवें गुणस्थान में तथा उसका सर्वथा क्षय हो जाने पर वह बारहवें गुणस्थान में कषाय का अभाव होने पर होता है ।
याख्यात विहारशुद्धिसंयत - देखो यथाख्यातसंयत । यथाख्यातसंयत - देखो यथाख्यातचारित्र । १. उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि । छदुमत्थो व जिणो वा जहखाम्रो संजय साहू ॥ ( प्रा. पंचसं. १-१३३; घव. पु. १, पृ. ३७३ उद्.; गो. जी. ४७५ ) । २. यथाख्यातो यथा प्रतिपादितः विहार: कषायाभावरूपमनुष्ठानम्, यथाख्यातो विहारो येषां ते यथाख्यातविहाराः यथाख्यातविहाराश्च ते शुद्धिसंयताश्च यथाख्यातविहारशुद्धिसंय
ग्रात्मस्वभावावस्था [स्थो ] पेक्षालक्षणं यथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते । (गो. जी. जी. प्र. ४७५) । १३. सर्वस्य मोहनीयस्योपशमः क्षयो वा वर्तते यस्मिन् तत् परमौदासीन्यलक्षणं जीवस्वभावदर्श यथाख्यातचारित्रम् । यथा स्वभावः स्थितस्तथैव ख्यातः कथितः श्रात्मनो यस्मिन् चारित्रे तद्यथाख्यातमिति निरुक्तेः यथाख्यातस्य प्रथाख्यातमिति च द्वितीया संज्ञा वर्तते । तत्रायमर्थः - चिरन्तनचारित्रविधायिभिर्यदुत्कृष्टं चारित्रमाख्यातं कथितं तादृशं
। ( धव. पु. १, पृ. ३७१) । ३. अशुभमोहनीयकर्मणि उपशान्ते क्षीणे वा यः उपशान्त क्षीणकषायछद्मस्थः सयोगायोगजिनो वा सः, तु पुन:, यथाख्यातसंयतो भवति । (गो. जी. प्र. ४७५) । १ अशुभ मोहनीय कर्म के उपशम अथवा क्षय के हो जाने पर छद्मस्य ( ११-१२ गुणस्थानवर्ती) अथवा जिन (१३-१४वें गुणस्थानवर्ती) यथाख्यातसंयत कहलाते हैं । २ विहार का अर्थ कषाय के
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यथाछन्दमुनि ]
६४४, जैन-लक्षणावली
[ यम
प्रभावरूप श्राचरण है, परमागम में प्रतिपादित वह श्राचरण ( चारित्र) जिन शुद्धि युक्त संयतों के होता है उन्हें यथाख्यातविहार-शुद्धि-संयत कहा जाता है। यथाछन्दमुनि - - १. उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छावि कल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाछन्द इति । ( भ. प्रा. विजयो. १६४९ ) । २. यथाच्छन्दोऽभिप्राय इच्छा तथैवागमनिरपेक्षं यो वर्तते स यथाच्छन्दः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. पी. तृ. वि. १०७) ।
१ जो श्रागम में श्रनुपदिष्ट सूत्रविरुद्ध तत्त्व का अपनी मनगढन्त कल्पना के अनुसार निरूपण करता है उसे यथाछन्द कहा जाता है । २ छन्द का अर्थ अभिप्राय या इच्छा है, जो श्रागम की अपेक्षा न करके अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति किया जरता है उसे यथाछन्द कहते हैं ।
जिसके द्वारा यथावस्थित जीवादिपदार्थ खोजे जाते हैं उसका नाम यथानुमार्ग है। यह श्रुतज्ञान का नामान्तर है। 1 यथाप्रवृत्तकरण अनादिसंसिद्धिनैव प्रकारेण प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तम् । क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणम् यथाप्रवृत्तं च तत्करणं च यथाप्रवृत्तकरणम्, अनादिकालात् कर्मक्षपणाय प्रवृत्तो गिरिसरिदुपलघोलना [ न्यायेन ] कल्पोऽध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तकरणमिति । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १०६) । यथाप्रवृत्त का अर्थ 'अनादिसिद्ध प्रकार से प्रवृत्ति में प्राया' है तथा करण का अर्थ है कर्मक्षपण का प्रतिशयित कारण, अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार पर्वत की नदी में पड़े पाषाणों में से कुछ विना किसी प्रकार के प्रयोग के घर्षणवश स्वयमेव गोल हो जाते हैं उसी प्रकार अनादि काल से कर्मक्षपण यथाजात - यथाजातो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रह चिन्ता के लिए जो श्रध्यवसाय में प्रवृत्त हैं उसे यथाप्रवृत्तव्यावृत्तः । ( रत्नक. टी. ५-१८ ) । बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की चिन्ता से जो मुक्त हो चुका है उसे यथाजात - शिशु के समान निर्द्वन्द्व कहा जाता है । यथातथानुपूर्वी - जमणुलोभ-विलोमेहि विणा जहा तहा उच्चदि सा जत्थतत्थाणुपुव्वी । ( धव. पु. १, पृ. ७३ ) ; अणुलोभ - विलोमेहि विणा परूवणा जहातहाणुपुव्वी । ( धव. पु. ६, पृ. १३५) । अनुरूप व प्रतिरूप क्रम के विना जो प्ररूपणा की जाती है उसे यथातथानुपूर्वी कहते हैं । यथानुपूर्व - यथानुपूर्वी यथानुपरिपाटी इत्यनर्थान्तरम् । तत्र भवं श्रुतज्ञानं द्रव्यश्रुतं वा यथानुपूर्वम् । सर्वासु पुरुषव्यक्तिषु स्थितं श्रुतज्ञानं द्रव्यश्रुतं च यथानुपरिपाट्या सर्वकालमवस्थितमित्यर्थः । ( धव. पु.१३, पृ. २८९ ) ।
करण जानना चाहिए ।
यन्त्र - १. सीह-वग्धधरणट्टमोद्दिमन्भंत रकयछालियं जंतं णाम । (घव. पु. १३, पृ. ३४ ) । २. सिंह - व्याघ्रादिधारणार्थमभ्यन्तरीकृत छागादिजीवं काष्ठादिरचितं तत्पादनिक्षेपमात्रकवाटसंपुटीकरणदक्षसूत्र कीलितं यंत्रम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३०३) ।
१ सिंह व व्याघ्र प्रादि के पकड़ने के लिए जिसके भीतर बकरे को रखा जाता है उसे यंत्र कहा जाता है ।
यथानुपूर्वी और यथानुपरिपाटी ये समानार्थक शब्द हैं। यथानुपूर्वी में जो श्रुतज्ञान अथवा द्रव्यश्रुत होता है उसे यथानुपूर्व कहते हैं । अभिप्राय यह है कि सभी पुरुष व्यक्तियों में स्थित श्रुतज्ञान श्रीर द्रव्यश्रुत यथानुपरिपाटी से सर्वकाल अवस्थित रहता है।
यथानुमार्ग- - यथा स्थिताः जीवादयः पदार्थाः तथा अनुमृग्यन्ते अन्विष्यन्ते प्रनेनेति यथानुमार्गः श्रुतज्ञानम् । (धव. पु. १३, पृ. २८६) ।
यन्त्रपीडाकर्म- १. तिलेक्षु सर्षपै रण्ड - जलयन्त्रादिपीडनम् । दलतैलस्य च कृतिर्यन्त्रपीडा प्रकीर्तिता ॥ (त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३४५; योगशा. ३ - १११ ) । २. यन्त्रपीडाकर्म तिलयंत्रादिपीडनम्, तिलादिकं च दत्त्वा तैलादिप्रतिग्रहणम् । तत्कर्मणश्च पीलनाय तिलादिक्षोदात्तद्गतत्रसघाताच्च दुष्टत्वम् । (सा. घ. स्वो टी. ५ - २१ ) ।
१ तिल, ईख, सरसों, एरण्डबीज और जल इनके यंत्र ( मशीन ) द्वारा पोलन करने तथा तेल निकालने के लिए तिलों के देने को यंत्रपीडाकर्म कहते हैं ।
यम - १. XXX यावज्जीवं यमो धियते । ( रत्नक. ३ - ४१ ) । २. यावज्जीवं यमो ज्ञेयः X X X ॥ उपासका ७६१; धर्मसं. आ. ७-१९ ) ।
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यव] ९४५, जैन-लक्षणावली
[यष्टा ३. यमस्तत्र यथा यावज्जीवनं प्रतिपालनम् । दैवाद् यशःकीर्तिनामकर्म-देखो यश । १. पुण्यगुणख्याघोरोपसर्गेऽपि दुःखे वा मरणावधि ॥ (लाटीसं. ५, पनकारणं यशःकीर्तिनाम । (स. सि. ८-११; भ. प्रा. १५६)।
मला. २१२१)। २. पुण्यगणण्यापनकारणं यशः१ भोग और उपभोग का प्रमाण करने के लिए जो कीतिनाम । पुण्यगुणानां ख्यापनं यदुदयाद् भवति जीवन पर्यन्त के लिए नियम किया जाता है उसे यम तद् यश:कीतिनाम । (त. वा. ८, ११, ३८)। कहा जाता है।
३. जसो गुणो, तस्स उब्भावणं कित्ती । जस्स कम्मयव–१. यूकाभिस्तु यवोऽष्टाभिः xxx॥ स्स उदएण संताणमसंताणं वा गुणाणमुब्भावणं (ह. पु. ७-४०)। २. अष्टभिः सिद्धार्थैः पिण्डितः लोगेहि कीरदि तस्स कम्मस्स जसकित्तिसण्णा । एको यवः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८)।
(धव. पु. ६, पृ. ६६); जस्स कम्मस्सुदएण जसो १ पाठ जूनों का एक यव (मापविशेष) होता है। कित्तिज्जई कहिज्जइ जणवयेण तं जसगित्तिणाम । २ पाठ सरसों का एक यव होता है।
(घव. पु. १३, पृ. ३६६) । ४. पुण्यगुणख्यापनयवमध्य-१. अष्टौ यूका एक यवमध्यम् । (त. कारणं यशस्कीर्तिनाम । यशो गुणविशेषः, कीर्तिस्तस्य वा. ३, ३८, ६)। २. योगो चेव जवो, तस्स मज्झं शब्दनमिति । (त. श्लो. ८-११)। ५. पुण्यगुणजवमझ, अट्ठसमइयजोगट्ठाणाणि त्ति उत्तं होदि ।। ख्यापनकारणं यशःकीर्तिनाम, अथवा यस्य कर्मण (धव. पु. १०, पृ. ५६); अट्ठसमयपाप्रोग्गाणं सेडीए उदयात् सद्भूतानां [-नामसद्भूतानां] च ख्यापनं असंखेज्जदिभागमेत्तजोगट्ठाणाणं जोगजवमज्झमिदि भवति तद्यशःकीर्तिनाम । (मूला. वृ. १२-१९६) । सण्णा I Xxx जोगो चेव जवमझ जोगजव- ६. तथा तपःशौर्य-त्यागादिना समुपाजितेन यशसा मझXxx अथवा जो जोगजवस्स मज्झं कीर्तनं संशब्दनं यशःकीतिः, यद्वा यशः सामान्येन अट्ठसमयकालो सो जोगजवमझं। (धव. पु. १०, ख्यातिः, कीर्तिः गुणोत्कीर्तनरूपप्रशंसा, अथ च सर्वपृ. २३६); जवमझ णाम अट्रसमयपापोग्गजोग- दिग्गामिनी पराक्रमकृता वा सर्वजनोत्कीर्तनीय ट्ठाणाणि | (घव. पु. १४, पृ. ४०२)।
यशः, एकदिग्गामिनी पुण्यकृता वा कीतिः, ते यदुदय१ माठ जूमों का एक यवमध्य (मापविशेष) होता वशात् भवतस्तद्यशःकीर्तिनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. है । २ योगरूप यव के मध्य को यवमध्य कहा जाता २९३, पृ. ४७५)। ७. पुण्यगुणकीर्तनकारणं यश:है।XXXणि के प्रसंख्यातवें भाग मात्र योग- कीतिनाम । (त. वत्ति श्रुत.८-११)। स्थानों का नाम यवमध्य है। प्रथवा योगरूप यव १जो नामकर्म पवित्र गुणों की ख्याति का कारण के पाठ समय काल वाले काल को योगमध्य जानना है उसे यशःकोतिनामकर्म कहते हैं। ६ तप, शूरता चाहिए।
और त्याग (दान) इत्यादि के द्वारा जिस यश को यश-देखो यश कीर्तिनाम । १. यशो नाम गुणः । उपाजित किया जाता है उसको जो शब्दों के द्वारा (त. वा. ९, ११, ३८)। २. पराक्रमकृतं यशः । प्रगट किया जाता है उसका नाम यशःकीति है। (श्रा. प्र. टी. २५)। ३. यशः पराक्रमकृतस, परा- अथवा पराक्रम के प्राश्रय से सर्व जन के द्वारा क्रमसमुत्थः साधुवाद इति भावः। (प्राव. नि. कीर्तनीय गुणों का समस्त दिशाओं में फैलना, इसका मलय. वृ. १०८७)। ४. सर्वदिग्गामिनी पराक्रम- नाम यश तथा पुण्य के प्रभाव से एक ही दिशा में कृता वा सर्वजनोत्कीर्तनीयगुणता यश:xxx। उन गुणों का फैनना, इसका नाम कीति है। जिसके (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३) ।
उदय से यश और कीति दोनों होते हैं उसे यश:१ एक विशेष गुण का नाम यश है। २ पराक्रम के कीर्तिनामकर्म कहा जाता है। द्वारा जो ख्याति होती है उसका नाम यश है। यष्टा-भाव-पुष्पर्य जेद्देवं व्रत-पुष्पर्वपुर्गृहम् । क्षमा४ कीर्तनीय गुणों की जो ख्याति सब दिशात्रों में पुष्पर्मनोति यः स यष्टा सतां मतः ॥ (उपासका. फैलती है, अथवा जो पराक्रम के आधार से गणों का ८८२)। कीर्तन होता है, उसे यश कहा जाता है।
जो भावरूप पुष्पों से देव की, व्रतरूप पुष्पों से ल. ११९
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याचना] १४६, जैन-लक्षणावली
[याचनीभाषा शरीररूप गृह की और क्षमारूप पुष्पों से मनरूप प्राणात्ययेऽपि रोगादिभिः पीडितस्यायाचयतः अयाअग्नि की पूजा करता है उसे यष्टा माना गया है। उचापीडा। अथवा वरं मृतो न कश्चिद्याचितव्यः याचना-याचना भिक्षणं तथाविधे प्रयोजने मार्गणं शरीरादिसंदर्शनादिभिः, याञ्चा तु नाम महापीडा वा । (समवा. अभय. वृ. २२)।
XXX तस्याः क्षमणं सहनं XXX ततः परीभिक्षा मांगना अथवा वैसे प्रयोजन के होने पर षहजयो भवति । (मला. व.५-५८)। ६. प्राज्य उसका अन्वेषण करना, इसका नाम याचनापरीषह राज्यमुदस्य शाश्वतपदप्राप्त्यै तपोहणे, देहो हेतुहै। साघुजन ऐसी परीषह पर विजय प्राप्त किया रयं हि भुक्त्य नूगता चास्य स्थितिस्तत्कृतः। भिक्षाय करते हैं।
भ्रमणं हियः पदमिदं यस्मान्महास्पदं नीचैर्वत्तिर. याचनापरीषहजय-१. बाह्याभ्यन्तरतपोऽनुष्ठा- निन्दितेति विचरन् याञ्चाजयः स्यान्मनि: ॥ नपरस्य तद्भावनावशेन निस्सारीकृतमूर्तः पटुतपन- (प्राचा. सा. ७-२३)। ७. भृशं कृशः क्षुन्मुखसन्नतापनिष्पीतसारतरोरिव विरहितछायस्य त्वगस्थि- वीर्यः, शम्पेव दातुन् प्रतिभासितात्मा । ग्रासं पुटीकृसिराजालमात्रतनुयन्त्रस्य प्राणात्यये सत्यप्याहार. त्य करावयाञ्चावतोऽपि गलन सह याचनातिम् ।। वसति-भेषजादीनि दीनाभिधान-मुखवैवाङ्गसंज्ञादि- (अन. ध.६-१०२) । ८. क्षुदध्वश्रम-तपोरोगादिभिरयाचमानस्य भिक्षाकालेऽपि विद्यदुद्योतवत् दुरुप- भिः प्रच्यावितवीर्यस्यापि शरीरसंदर्शनमात्रव्यापारलक्ष्यमूर्तेर्याचनापरीषहसहनमवसीयते । (स. सि. स्य प्राणात्ययेऽप्याहार-वसति-भेषजादीनाभि--दीनि ह-६)। २. प्राणात्ययेप्याहारादिषु दीनाभिधान- दीनाभि-] धान-मुखवैवांगसंज्ञादिभिरयाचमानस्य निवत्तिर्याचनाविजयः। क्षुधाध्वपरिश्रम-तपोरोगा- याचनसहनम् । (प्रारा. सा. टी. ४०)। दिभिः प्रच्यावितबीर्यस्य शुष्कपादपस्येव निरामूर्ते- १ बाह्य और अभ्यन्तर तप के प्राचरण से जिसका रुन्नतास्थि-स्नायुजालस्य निम्नाक्षिपुटपरिशुष्काधरो- शरीर निर्बल हो चुका है, तीक्ष्ण सूर्य के ताप से ष्ठ-क्षामपाण्डकपोलस्य चर्मवत्संकुचितांगोपाङ्गत्वचः मुरझाये हुए छायाविहीन वृक्ष के समान जिसके शिथिलजानु-गुल्फ-कटि-बाहुयंत्रस्य देश-काल-क्रमोप- शरीर की हड्डियां व शिराये स्पष्ट दिखने लगी हैं, पन्नकल्पादायिनः वाचंयमस्य मौनिसमस्य वा शरीर- प्राण जाने पर भी जो दीन बनकर आहार, वसति सन्दर्शनमात्रव्यापारस्य जितसत्त्वस्य प्रज्ञाप्यायित- एवं प्रौषध प्रादि की याचना नहीं करता है, तथा मनसः प्राणात्ययेऽप्याहार-वसति-भेषजादीनि दीना- भिक्षा के समय भी बिजली की चमक के समान भिधान-मुखवैवांगसंज्ञादिभिरयाचमानस्य रत्नवणि- अदृश्य सा रहता है-क्षणिक दिखायी देता है, वह जो मणिसन्दर्शनमिव स्वशरीरप्रकाशनमकृपणं मन्य- याचनापरीषह का विजेता होता है। ३ याचना का मानस्य वन्दमानं प्रति स्वकरविकसनमिव पाणिपूट- अर्थ अन्वेषण है। भिक्षु को वस्त्र, पात्र, अन्न-पान धारणमदीनमिति गणयतः याचनसहनमवसीयते। एवं वसति प्रादि सब दूसरों से-गृहस्थों से(त. वा. ६, ६, १९)। ३. परदत्तोपजीवित्वाद् प्राप्त हुआ करते हैं, परन्तु धाटता से रहित या यतीनां नास्त्ययाचितम् । यतोऽतो याचनादुःखं लज्जालु साधु याचना में प्रादरभाव नहीं रखता। क्षाम्येन्नेच्छेदगारिताम् ॥ (प्राव. नि. हरि. व. धृष्टता युक्त (धीर) साधु कार्य के होने पर अपने ११८, पृ. ४०३); याचनं मार्गणम्, भिक्षोहि वस्त्र- धर्म व शरीर के संरक्षण के लिए याचना अवश्य पात्रान्नपान-प्रतिश्रयादि परतो लब्धव्यं सर्वमेव, करता है, इस प्रकार प्राचरण करने वाला याचनाशालीनतया च न याञ्चां प्रत्याद्रियते, साधुना तु परीषह का विजेता होता है। प्रागल्भ्यभाजा सजाते कार्य स्वधर्म-कायपरिपाल. याचनापरीषहसहन-देखो याचनापरीषहजय । नाय याचनमवश्यं कार्यमिति, एवमनुतिष्ठता या. याचनीभाषा-१. जायणि मग्गणी भण्णति, ञ्चापरीषहजयः । (प्राव. सू. हरि. वृ.अ. ४, पृ. यथाऽस्माकं भिक्षां प्रयच्छ एवमादि । (दशवै. चू. ६५७) । ४. प्राणात्ययेऽप्याहारादिषु दीनाभिधान- प. २३६)। २. ज्ञानोपकरणं पिच्छादिकं वा भवनिवृत्तिर्याचनाविजयः । (त. श्लो. ६-६)। ५. द्भितिव्यम् इत्यादिका याचनी। (भ. प्रा. विजयो. 'जायणं' अयाञ्चा, अकारोऽत्र लुप्तो दृष्टव्यः, ११६५)। ३. याच्यतेऽनया याचना। (मूला. वृ.
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याञ्चाभाषा] ९४७, जन-लक्षणावली
[युगनद्ध ५-११८)। ४. याञ्चा मयाऽथितं किंचिद्यत्तद्देय- जो कोई भी प्रावेगा उस सबके लिए मैं दूंगा, इस मिति त्वया। (प्राचा. सा. ५-८७)। ५. याचनी प्रकार के उद्देश से जो भोजन बनाया जाता है प्रार्थनाभाषा, यथा इदं मे देहीत्यादिः । (गो. जी. उसको यावान्-उद्देश कहा जाता है। यह चार म. प्र. २२५) । ६. इदं मह्यं देहीति प्रार्थनाभाषा प्रकार के प्रोटेशिक में प्रथम है। याचनी। (गो. जी. जी. प्र. २२५)। ७. सा युक्ताहार-एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जायणी य या जं इच्छियपत्थणापरं वयणम् । जघा लद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण (भाषार. ७४) ।
मधु-मंसं । (प्रव. सा. ३-२६)। १ हमें भिक्षा दो, इस प्रकार मार्गणी-मांगने भिक्षावृत्ति से जिस प्रकार का भोजन प्राप्त हुमा रूप भाषा को, याचनीभाषा कहते हैं। २ ज्ञान के है उसको रस की अपेक्षा न करके एक ही समय में उपकरण (शास्त्र आदि) अथवा पिच्छी प्रादि प्राप व उदर की पूर्णता से रहित-मात्रा से कुछ कमदीजिए, इस प्रकार की भाषा याचनीभाषा कह- ही ग्रहण करना तथा मधु-मांस को छोड़ कर दिन लाती है।
में ही लेना-रात में नहीं लेना, यह युक्ताहार याञ्चाभाषा-देखो याचनीभाषा ।
कहलाता है। याञ्चापरीषहजय- देखो याचनापरीषहजय। युग (कालविशेष)-१. xxx पंचेहिं वरियात्राभतक-यात्रा देशान्तरगमनम्, तस्यां सहाय सेहिं जुगं ।। (ति. प. ४-२६०)। २. पंचसंवत्सर इति भ्रियते यः स यात्राभतकः । xxx इह युगम् । (प्राव. भा. हरि. वृ. १६८, पृ. गाथे-XXX । जत्ता उ होइ गमणं उभयं वा ४९५; प्राव. भा. मलय. व. २००, पृ. ५६३)। एत्तियधणेणं । (स्थाना. अभय. व. २७१)। ३. पंचभिर्वर्युगः । (धव. पु. ४, पृ. ३२०); यात्रा का अर्थ गमन है, उसमें सहायक मानकर पंचहि संवच्छरेहि जुगो । (धव. पु. १३, जिसका भरण-पोषण किया जाता हैं उसे यात्राभतक पू. ३००)। ४.xxx पञ्चाब्दानि युगं पुनः । कहते हैं।
(ह. पु. ७-२२)। ५. पंचहिं वच्छ रेहिं जुगु वुच्चयान-अभ्युदयो यानम् । (नीतिवा. २८-४५, इ। (म. पु. पुष्प. २-५, पृ. २३)। ६. युगं पंचवर्षापृ. ३२४)।
त्मकम् । (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २०, ५४, पृ. शत्रु के ऊपर जब गमन किया जाता है-चढ़ाई १५४)। ७. XXX पंच य वस्साणि होति की जाती है-तब अभ्युदय किया जाता है । इसी- जुगमेगं । (जं. दी. प. १३-८) । लिए अभ्युदय को यान कहा जाता है अथवा शत्रु १ पांच वर्षों का एक युग होता है। को बलवान जानकर अन्यत्र जो गमन किया जाता युग (शकटविशेष)-गरुवत्तणण महल्लत्तण है उसे यान जानना चाहिए।
य जं तुरय-वेसरादीहि वुभदि तं जुगं णाम । (धव . यावत्काथिकपरिहार विशुद्धिक-ये पुनः कल्प- पु. १४, पृ. ३८)। समाप्त्यनन्तरमव्यवधानेन जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते भारी और अतिशय महान होने से जिसे घोड़ा व यावत्कथिकाः । उक्तं च --इत्तरिय थेरकप्पे जिण- खच्चर प्रादि खींचा करते हैं उसे युग कहते हैं। कप्पे प्रावक हियत्ति । (प्राव. नि. मलय. वृ. ११४, युगदोष-१. तथा यो युगनिपीडितबलीवर्दवत् पृ. १२२)।
ग्रीवां प्रसार्य तिष्ठति कायोत्सर्गेण तस्य युगदोषः । जो परिहारविशुद्धिसंयत कल्प समाप्ति के अनन्तर (मूला. वृ. ७-१७१)। २. ग्रीवां प्रसार्यावस्थानं विना किसी व्यवधान के जिनकल्प को स्वीकार युगार्तगववद्युगः । (अन. ध. ८-११७) । करने के इच्छुक रहते हैं वे यावत्कथिकपरिहार- १ युग (गाड़ी व हल का वह भाग जो बैलों के विशुद्धिसंयत कहलाते हैं।
कन्धे पर रखा जाता है) से पीड़ित बैल के समान यावानुद्देश-यावान् कश्चिदागच्छति तस्मै सर्वस्मै जो गर्दन को फैलाकर कायोत्सर्ग से स्थित होता है दास्यामीत्युद्दिश्य यत्कृतमन्नं स यावानुद्देशः । (मूला. वह कायोत्सर्ग के युगदोष से दूषित होता है। वृ. ६-७)।
युगनद्ध--युगमिव नद्धो युगनदः, यथा युगं वृषभ
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युगसंवत्सर ]
स्कन्धयोरारोपितं वर्तते तद्वत् योगोऽपि यः प्रतिभाति सः युगनद्ध इत्युच्यते । ( सूर्यप्र. मजय. वृ. १२-७८, पृ. २३३) ।
जिस प्रकार बैलों के कन्धों पर युग (जुना) प्रारोमें पित रहता है उसी प्रकार पांच वर्षात्मक युग जो योग प्रतिभात होता है उसे युगनद्ध योग कहते हैं। यह दस प्रकार के योग में सातवां है । युगसंवत्सर - युगं पंचवर्षात्मकम्, तत्पूरक: संवसरो युगसंवत्सरः । ( सूर्यप्र. मलय. वू. १०, २०, ५४) ।
पांच वर्ष स्वरूप युग के पूरक वर्ष को युगसंवत्सर कहते हैं ।
युग्म - जुम्मं सममिदि एयट्टो । ( धव. पु. १०, पृ. २२) ।
युग्म और सम ये समानार्थक शब्द हैं। अभिप्राय यह कि सम संख्या व सम द्रव्य को युग्म समझना चाहिए ।
युति - दव्वक्खेत्त-काल-भावेहि जीवादिदव्वाणं मेलणं जुडी णाम । XXX सामीप्यं संयोगो वा युतिः । ( धव. पु. १३, पृ. ३४८ ) । द्रव्य, क्षेत्र, काल प्रोर भाव से जो जीवादि द्रव्यों का मिलाप है उसे युति कहते हैं । समीपता श्रथवा संयोग का नाम युति है ।
युवती - १. जोजेदि णरं दुक्खेण तेण जुवदीय जोसा य ।। (भ. प्रा. ९७६) । २. नरं दुःखेन योजयतीति युवतिर्योषा च । (भ. प्रा. मूला. ९७e ) 1 १ जो मनुष्य को दुःख से योजित किया करती है उसे युवति व योषा कहा जाता है । युवराज - १. युवराजो द्वितीयस्थानवर्ती । ( व्यव. भा. मलय. वृ. पी. द्वि. वि. ३३); श्रावस्सयाई काउंसो पुव्बाई तु निरवसेसाइं । प्रत्थाणी मज्झगतो पेच्छइ कज्जाई जुवराया ॥ ( व्यव. भा. तृ. वि. पू. १२९) । २. यो नाम प्रातरुत्थाय पूर्वाणि प्रथमानि आवश्यकानि शरीर चिन्ता देवतार्चनादीनि निरवशे षाणि कृत्वा श्रास्थानिकामध्यगतः सन् कार्याणि प्रेक्षते चिन्तयति स युवराजः । ( व्यव. भा. मलय. वृ.तृ. वि. पू. १२९ ) 1
राजा के बाद दूसरा स्थान युवराजका होता है, अर्थात् जो सवेरे उठकर शरीर की चिन्ता व देवपूजा आदि समस्त कार्यों को करता है और तत्पश्चात् सभा
६४८, जैन-लक्षणावली
[ योग स्थान में बैठकर कार्यों को देखता है वह युवराज कहलाता है ।
यूका - १. अष्टी लिक्षा संहताः एका यूका भवति । (त. वा. ३, ३८, ६) । २. ताभि: ( लिक्षाभिः ) यूका तथाष्टाभिः XXX। ( ह. पु. ७-४० ) । १ माठ लिक्षाओं (लीखों) की एक यूका होती है । यूष - यूषो मुद्ग-तण्डुल-जीरक- कडुभाण्डादिरसः । ( सूर्यप्र. मलय. वू. २०, १०६ ) ।
मूंग, चावल और जीरा श्रादि के रस को यूष (जूष ) कहते हैं ।
योग - १. विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जेण्हकहियतच्चेसु । जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ॥ (नि. सा. १३९ ) । २. XXX जोगो मण - वयण-कायसंभूदो। (पंचा. का. १४८ ) । ३. काय वाङ्मनःकर्म योगः । (त. सु. ६- १ ) । ४. योगो वाङ्मनस- काय वर्गणानिमित्त श्रात्मप्रदेशपरिस्पन्द: । ( स. सि. २ - २५ ) ; आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योग: । (स. सि. ६- १ ) ; योगः समाधिः, सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । ( स. सि. ६-१२ ) ; योग: कायवाङ्मनः कर्मलक्षणः । ( स. सि. ६-४४ ) । ५. एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः । एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ।। ( समाधि १७ ) । ६. मणसा वाया कारण वा वि जुत्तस्स विरिय-परिपरिणामो | जीवस्सप्पणिश्रोगो जोगो त्ति जिणेहि णिद्दिट्ठो ॥ ( प्रा. पंचसं. १-८८; धव. पु. १, पृ. १४० उद्) । ७. योग श्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दः । कायादिवर्गणानिमित्त श्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दः योग इत्याख्यायते । (त. वा. २, २५, ५); निरवद्यक्रियाविशेषानुष्ठानं योगः । निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं स योगः समाधिः, सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । (त. वा. ६, १२, ८) । ८. योग: व्यापारः पञ्चाग्न्याद्यनुष्ठानलक्षण: । ( त. भा. हरि वृ. ६-१३) । ६. युज्यन्त इति योगा: मनोवाक्कायव्यापारलक्षणाः । (ध्यानश. हरि. वृ. १ ) ; योगा: तत्त्वतः श्रदारिकादिशरीरसंयोगसमुत्था आत्मपरिणामविशेषव्यापारा: । (ध्यानश. हरि. वृ. ३ ) । १०. युज्यत इति योगः । XX X अथवा आत्मप्रवृत्तेः कर्मादाननिबन्धनवीर्योत्पादो योगः । श्रथवा श्रात्मप्रदेशानां सङ्कोच - विकोचो योगः । धव. पु. १, पू. १४० ) ; वाङ्मनः काय वर्गणानिमित्तः प्रात्म
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योग ]
प्रदेशपरिस्पन्दो योगो भवति । (घव. पु. १, पृ. २६९); श्रात्मप्रवृत्तेः सङ्कोच - विकोचो योगः । ( धव. पु. ७, पृ. ६); जोगो णाम कि ? मणवयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिष्कन्दो । (घव. पु. ७, पृ. १७ ) ; कि जोगो णाम ? जीवपदेसाणं परिप्फन्दो संकोच - विकोचब्भमणसरूवप्रो । ( धव. पु. १०, पृ. ४३७ ) ; मण वयण काय कि रियासमुप्पत्तीए जीवस्स उवजोगो जोगो णाम । ( धव. पु. १२, पृ. ३६७) । ११. काय वाङ्मनसां कर्म योग: स पुनरास्रव: । (ह. पु. ५८-५७) । १२. काय वाङ्मनसां कर्म योगो योगविदां मतः । (म. पु. २१-२२५) । १३. काय वाङ्मनसां कर्म योगोऽस्ति X ××॥ (त. इलो. ६, १, १ ) ; निरवद्यक्रियाविशेषानुष्ठानं योग:, समाधिरित्यर्थः । (त. इलो. ६-१२) । १४. वीर्यान्तराय क्षयोपशमजनितेन पर्यायेणात्मनः सम्बन्धो योगः । स च वीर्य-प्राणोत्साह-पराक्रम चेष्टाशक्ति सामर्थ्यादिशब्दवाच्यः । श्रथवा युनक्त्येनं जीवो वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं पर्यायमिति योगः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६- १ ) ; लोकाभिमतनिरवद्यक्रियानुष्ठानं योगः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१३ ) । १५. सति वीर्यान्तरायस्य क्षयोपशमसम्भवे । योगो ह्यात्मप्रदेशानां परिस्पन्दो निगद्यते । (त. सा. २-६७ ) ; काय वाङ्मनसां कर्म स्मृतो योगः स श्रस्रव: । (त. सा. ४ - २ ) । १६. योगो वाङ्मन:काय - कर्म वर्गणालम्बनात्मप्रदेशपरिष्पदः । ( पंचा. का. अमृत. वृ. १४८)। १७ पुग्गल विवाइदेहो - दएण मण वयण- कायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥ (गो. जी. २१६) । १८. आत्मदेशपरिस्पन्दो योगो योगविदां मतः । मनोवावकायतस्त्रेधा पुण्य-पापास्रवाश्रयः ॥ ( उपासका. ३५३ ) । १९. आत्मनो वीर्यविघ्नस्य क्षयोपशमने सति । य: प्रदेशपरिस्पन्दः स योगो गदितस्त्रिधा ॥ (पंच. अमित. १ - १६५, पू. २३) । २०. मनस्तनुवचः कर्म योग इत्यभिधीयते । (ज्ञाना. १, पू. ४२) । २१. योगो मनोवचन-कायसम्भूतः निष्क्रिय - निर्विका ज्योतिः परिणामाद् भिन्नो मनोवचन- कायवर्गणावलम्बनरूपो व्यापारः श्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणो वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितः कर्मादान हेतुभूतो योगः । (पंचा. का. जय. वृ. १४८ ) । २२. निश्चयेन निष्क्रियस्यापि परमात्मनो व्यवहारेण वीर्यान्तराय
[ योग क्षयोपशमोत्पन्नो मनोवचन - कायवर्गणालम्बनः कर्मादानहेतुभूत श्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दो योग इत्युच्यते । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३०) । २३. योग: काय वाङ्मनस्कर्म । ( मूला. वृ. १२ - ३ ) । २४. एषः - बहिरन्तर्जल्पत्यागलक्षणः, योगः - स्वरूपे चित्तनिरोधलक्षण: समाधिः । ( समाधि. टी. १७) । २५. स पुनर्योगः शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः । ××× कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यं परिणतियोगः । ( स्थाना. अभय वृ. ५१ ) ; वीर्यान्तरायक्षय-क्षयोपशमसमुत्थलब्धि विशेष प्रत्ययमभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वमात्मनो वीर्यं योगः । X X Xx युज्यते जीवः कर्मभिर्येन XXX गुंक्ते प्रयुक्ते यं पर्यायं स योगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति । श्राह च - मणसा वयसा काएण वावि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्स श्रप्पणिज्जो स जोगसन्नो जिणक्खाओ || तेश्रोजोगेण जहा रत्तत्ताई घडस्स परिणामो । जीवकरणप्पए विरियमवि तहप्पपरिणामो ॥ ( स्थाना. अभय वृ. १२४) । २६. पादप्रलेपादयः सौभाग्य- दौर्भाग्यकरा योगाः । (योगशा. स्वो विव. १-३८, पृ. १३६) । २७. योग आत्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणो मनोवाक्कायव्यापार: । (अन. घ. स्वो टी. २-३७) । २८. संसारिणो जीवस्य कर्मागमकारणम्, कर्मेत्युपलक्षणात् कर्म- नोकवर्गणारूपपुद्गलस्कन्धस्य ज्ञानावरणादिकर्मभावेन श्रोदारिकशरीरादिनोकर्मभावेन च परिणमनहेतुर्या शक्तिः सामर्थ्यं तद्विशिष्टात्मप्रदेशपरिस्पन्दश्च स योग इत्युच्यते । (गो. जी. म. प्र. २१६ ) । २६. मनोवाक्कायानां तपः समाधी योजनं योग:, अथवा सिद्धान्तवाचनायामन्यविहितया ( ? ) तपसा योजनं योगः । ( श्राचारदि. पू. ८१ ) । ३०. कर्म - नोकर्म वर्गणा रूपपुद्गलस्कन्धस्य ज्ञानावरणादिकमौदारिकादिनो कर्मभावेन परिणमन हेतुर्यत् सामर्थ्यम् श्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दश्च योग इत्युच्यते । (गो. जी. जी. प्र. २१६ ); पुद्गल विपा किशरीरां गोपांगनामकर्मोदयैः मनोवचन- काययुक्तजीवस्य कर्मनोकर्मागमकारणा या शक्तिः तज्जनितजीवप्रदेशपरिस्पन्दनं वा योग: । (गो. जी. जी. प्र. ७०३) । ३१. एवमुप्पण्णपदेस पर फंदे णुप्पा इदजीवपदेसाणं कम्मादाणसत्ती जोगं णाम । ( सत्कर्मपंजिका - घव. पु. १५, पृ. २२) । ३२. वाङ्मनस- कायवर्गणाकार -
६४६, जैन - लक्षणावली
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योग] ६५०, जैन-लक्षणावली
[योगसंक्रान्ति णभूतं जीवप्रदेशपरिस्पन्दनं योगः कथ्यते । (त. वृत्ति तथा समस्त विकल्पों के अभाव में-निविकल्प
: शरीर-वचन-मानसानां यत्कर्म क्रिया समाधि में-योजित करता है वह योगभक्ति से स योग: । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१); काय-वाङ्मन- युक्त होता है, अन्य के-राग-द्वेषादि से सहित होकर सा यत्कर्म स योग उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७, नाना विकल्पों से व्याप्त जीव के-भला वह योग ३३)। ३३. योगः स्यादात्मपदेशप्रचयचलनता कैसे सम्भव है ? असम्भव है। वाङ्मनःकायमार्गः ॥ (अध्यात्मक. ४-२)। योगमुद्रा-१. अन्नुन्नंतरिअंगुलिको सागरेहि १ जो प्रात्मपरिणाम विपरीत अभिप्राय को छोड़कर दोहिं हत्थेहिं । पिट्टोवरि कुप्परसंठिएहि तह जोगमुद्द जिनप्ररूपित तत्त्वों में प्रात्मा को योजित (संलग्न) त्ति ॥ (चैत्यवन्दन भा. १५) । २. उभयक रजोडकरता है उसे योग कहते हैं। २ मन, वचन और नेन परस्परमध्यप्रविष्टांगलिभिः कृत्वा पद्मकोशाकाय के प्राश्रय से जो प्रात्मप्रदेशों में परिस्पन्दन काराभ्यां द्वाभ्यां हस्ताभ्यां तथोदरस्योपरि कुहणिहोता है उसे योग कहा जाता है। ४ वचन, मन । कया व्यवस्थिताभ्यां योगो हस्तयोर्योजनविशेषस्तऔर शरीर वर्गणा के निमित्त से जो प्रात्मप्रदेशों प्रवाना मुद्रा योगमुद्रा भवतीति गम्यम् । (चैत्यमें परिस्पन्दन होता है उसका नाम योग है। वन्दन भा. अवचूरि १५)। सम्यक् प्रणिधान-एकाग्रचिन्तानिरोध-रूप समा- १ परस्पर अंगुलियों को अन्तरित करके कमलकोश घि-को योग कहते हैं । ८ पंचाग्नि प्रादि के अनु- के आकारयुक्त दोनों हाथों को कुहनियों को पेट के
मध्य में स्थित करने पर योगमद्रा होती है। न्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हई पर्याय से जो योगवक्रता-१. काय-वाङ्मनसा कौटिल्येन वृत्तिप्रात्मा का सम्बन्ध होता है उसका नाम योग है। र्योगवऋता। XXX तेषां (काय-वाङ्मनसां)
, प्राण, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति कुटिलतायोगवक्रता इत्युच्यते, अनार्जवं [व-] प्रणिऔर सामर्थ्य प्रादि शब्दों से कहा जाता है। अथवा धानमिति यावत् । (त. वा. ६, २२, १)। २. योगः जीव इसे चूंकि वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न xxxशक्तिरूप प्रात्मन: करणविशेषः काय-वाङ्पर्याय से योजित करता है, इसीलिए उसे योग कहा मनोलक्षणस्तद्गता कौटिल्यप्रवृत्तिः स्वयमेव योगजाता है। २६ सौभाग्य अथवा दौर्भाग्य के करने वक्रताऽनार्जवप्रणिधानं मायाचित्तं योगविपर्यास इत्यवाले पादप्रलेपादि को योग कहा जाता है। यह नर्थान्तरम् । (त. वा. सिद्ध. वृ. ६-२१)। ३. योगसाधु के आहारविषयक १६ उत्पादन दोषों में स्य वक्रता कौटिल्यं योगवक्रता-कायेनान्यत्करोति १५वां है।
वचसाऽन्यद ब्रवीति मनसान्यच्चिन्तयति योगवक्रता। योगकृष्टि - पूर्वापूर्वस्पर्धकस्वरूपेणेष्टकापंक्तिसं- (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२)। स्थानसंस्थितं योगमुपसंहृत्य सूक्ष्म-सूक्ष्माणि खण्डा- १ शरीर, वचन और मन की कुटिलतापूर्ण प्रवृत्ति नि निर्वर्तयति, ताम्रो किट्टीग्रो णाम वुच्चंति । (जय- को योगवक्रता कहा जाता है। घ.-धव. पु. १०, पृ. ३२३, टि. ३)।
योगसत्य-योगसत्यं योगानां मनःप्रभृतीनामविपूर्व और अपूर्व स्पर्धकों स्वरूप से ईंटों की पंक्ति के तथत्वम् । (समवा. अभय. व. २७)। प्राकार में स्थित योग का संकोच करके जो उसके __मन प्रादि योगों की यथार्थता का नाम योगसत्य है। सूक्ष्म-सूक्ष्म खण्ड किए जाते हैं उन्हें कृष्टियां कहा योगसंक्रान्ति-१. काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं जाता है।
गृह्णाति, योगान्तरं त्यक्त्वा काययोगमिति योगसंयोगभक्ति-रायादीपरिहारे अप्पाणं जो दु जंजदे क्रान्तिः । (स. सि. ९-४४; त. वा. ६-४४) । साह। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य कहं हवे २. काययोगाद्योगान्तरे ततोऽपि काययोगे संक्रपणं जोगो।। सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जंजदे योगसंक्रान्तिः। (त. श्लो. ९-४४)। ३. कायसाहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे योगोपयुक्तध्यानस्य वाग्योगसंचारः, वाग्योगोपयुक्त. जोगो। (नि. सा. १३७-३८)।
ध्यानस्य वा मनोयोगसञ्चारः [योगसंक्रान्ति:] । जो साधु अपने को राग-द्वषादि के परित्याग में (त. भा. सिद्ध. व. ९-४६)। ४. स्यादियं योग
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योगानुयोग] ६५१, जैन-लक्षणावलो
[योगोद्वहनक्षत्र संक्रान्तिर्योगाद्योगान्तरे गतिः । (जाना. ४२-१७, पृ. रूप जीव की अनेक विशेषताओं में से एक है। ४३३)। ५. काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं गच्छति, ४ जिसकी प्रात्मा तत्त्व में, मन प्रात्मा में और तदपि त्यक्त्वा काययोगं व्रजतीति योगसंक्रान्तिः । इन्द्रियसमूह मन में युक्त (उपयुक्त या संलग्न) (भावप्रा. टी. ७८)।
हो वही योगी हो सकता है, न कि पर पदार्थों की १ काययोग को छोड़कर अन्य योग को तथा अन्य इच्छा रूप दुष्प्रवृत्ति से युक्त । योग को छोड़कर पुनः काययोग को ग्रहण करना, योगोद्वहन-तेषां (योगानां) निरुद्धपारणककालइसका नाम योगसंक्रान्ति है। ३ काययोग में उप- स्वाध्यायादिभिरुद्वहनं योगोद्वहनम् । (प्राचारदि. पृ. युक्त ध्यान का जो वचनयोग में संचार होता है ८१)। अथवा वचनयोग में उपयुक्त ध्यान का जो मनोयोग १पारणाकाल और स्वाध्याय प्रादि के निरोधपूर्वक में संचार होता है, इसे योगसंक्रान्ति कहते हैं। योगों के धारण या निर्वाह का नाम योगोद्वहन है। योगानुयोग--योगानयोगो वशीकरणादियोगाभि- योगोद्वहनकाल-सुभिक्षं साधूसामग्री सर्वोत्पाताघायकानि हरमेखलादिशास्त्राणि । (समवा. अभय. द्यभावता । कालिकेपूत्कालिकेषु योगेषु समयो ह्ययं ।। वृ. २६)।
आर्द्रादिस्वात्यन्ते नक्षत्रगणे विवस्वता युक्ते । कालिवशीकरण प्रादि योगों के प्ररूपक हरमेखल (कला- कयोगानामयमुपयोगी काल उद्दिष्टः ।। पार्दादिस्वाविशेष) प्रादि शास्त्रों को योगानुयोग कहा जाता त्यन्ते नक्षत्रगणे विवस्वता भुवते । स्तनिते विद्युति है । यह उनतीस प्रकार के पाप के उपादान स्वरूप वष्टौ कालग्रहण न कर्तव्यम ।। (आचारदि. प. पापश्रुत में २८वां है।
८२ उद्.) । योगाविभागप्रतिच्छेद-एक्कम्हि जीवपदेसे जो- सुभिक्ष, साधुसामग्री और समस्त उपद्रवों का गस्स जा जहणिया वड्ढी सो जोगाविभागपडि- प्रभाव, यह कालिक और उत्कालिक योगों के लिये च्छेदो। (धव. पु. १०, पृ. ४४०)।
उपयुक्त समय है। प्रार्द्रा से लेकर स्वाति तक सूर्य एक जीवप्रदेश में योग की जो जघन्य वृद्धि हुमा से युक्त नक्षत्रसमूह में कालिक योगों का यह करती है उसे योगाविभागप्रतिच्छेद कहा जाता है। उत्कृष्ट काल निर्दिष्ट किया गया है। प्राा से योगी-१. विकहाइविप्पभुक्को प्राहाकम्माइविर- स्वाति तक सूर्य से युक्त नक्षत्रसमूह में मेघगर्जन हिनो णाणी । धम्मुद्देसणकुसलो अणुपेहाभावणाजुदो विजली व वृष्टि के होने पर काल का ग्रहण नहीं जोई ॥ प्रवियप्पो णिइंदो णिम्मोहो णिक्कलंकरो करना चाहिए । णियदो। णिम्मलसहावजुत्तो जोई सो होइ मुणि- योगोद्वहनक्षेत्र - बहुसलिल मृदुलभिक्षं स्वचक्ररानो । (र. सा. १००-१०१) । २. जोगो अत्थि परचक्रभयविनिर्मुक्तम् । वहुयति-साध्वी-श्राद्धं बहूत्ति जोगी। (धव. पु. १, पृ. १२०); योगो अस्या- शास्त्रविशारदाकीर्णम् ॥ नीरोगजलान्नयुतं चर्मास्तीति योगी। (धव. पु. ६, पृ. २२१) । ३ कंद- स्थि-कचादिसङ्करविमुक्तम् । अहि-जंबुक-वृष-दंशक. प्पदप्पदलणो डंभविहीणो विमुक्कवावारो। उग्ग- वृषपल्ली-सरट निर्मुक्तम् ॥ प्रायः पवित्ररथ्यं रुग्मारीतवदित्तगत्तो जोई विण्णायपरमत्थो॥ (ज्ञानसार प्रभृतिजितं नित्यम् । अल्पकषायपुरजनं योगोद्वहने ४) । ४. तत्त्वे पुमान् मनः पुंसि मनस्यक्षकदम्बकम् । शुभं क्षेत्रम् ।। (प्राचारदि. पृ. ८२ उद्.)। यस्य युक्तं स योगी स्यान्न परेच्छादुरीहितः ॥ जहां बहुत पानी और मृदु भिक्षा हो, जो स्वचक्र (उपासका. ८७०)।
और परचक्र के भय से रहित हो, जहां साधु, १ जो मुनीन्द्र विकथा आदि से रहित, प्राधाकर्म साध्वी और श्रावक बहुत हों, जो बहुत से शास्त्रज्ञों का त्यागी, धर्मोपदेश में कुशल, अनप्रेक्षा व भाव- से व्याप्त हो, स्वास्थ्यप्रद जल व अन्न से परि नामों से युक्त, विकल्पों से रहित, निर्द्वन्द्व, निर्मोह, हो, चमड़ा, हड्डी व बालों आदि के सम्पर्क से रहित निष्कलंक और निर्मल स्वभाव से सहित होता है हो; सर्प, शृगाल, बैल, डांस, वृषपल्ली एवं गिरउसे योगी समझना चाहिए। २ योग से सहित गिटों से शून्य हो; जहां की गलियां प्रायः पवित्र हों, योगी कहलाता है। यह कर्ता, वक्ता व प्राणी प्रादि जो रोग व मारी (प्लेग) आदि से रहित हो, तथा
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योगोढहनसदन] ६५२, जैन-लक्षणावली
[रज जहां मन्दकषायो जन का निवास हो; ऐसा क्षेत्र योग योजन को पाठ से गुणित करने पर योजनपृथक्त्व के धारण में उत्तम माना जाता है।
होता है। यह मनःपर्ययज्ञान के उत्कृष्ट क्षेत्र का योगोद्वहनसदन - चर्मास्थि-दन्त-नख-केश - गूथ- प्रमाण है। मूत्रापवित्रतारहितम् । अध उपरि च निश्छिद्रं निर- योनि-१. योनयो जोवोत्पत्तिस्थानानि । (मूला. वकर घृष्टमृष्टं च ॥ सूक्ष्माङ्गिवृन्दसंवासयोग्यभू. वृ. १२-३); यूयते भवपरिणत आत्मा यस्यामिति स्फोटवजितं परितः। रम्यमपरार्थरचितं योगोद्वहने योनिर्भवाधारः । (मूला. वृ. १२-५८) । २. यौति शुभं सदनम् ॥ (प्राचारदि. पृ. ८२ उद्.)। मिश्रीभवति औदारिकादिनोकर्मवर्गणापुद्गलैः सह जो निवास स्थान चमड़ा, हड्डी, दांत, नाखून, बाल, , संबद्धयते जीवो यस्यां स योनिः जीवोत्पत्तिस्थानम् । विष्ठा एवं मत्र प्रादि की अपवित्रता से रहित हो; (गो. जी. जी. प्र. ८१)। जहां नीचे-ऊपर छेद न हों, जो कचरा से रहित हो, १ जीवों के उत्पत्तिस्थानों को योनियां कहा मल से विहीन हो तथा जो सूक्ष्म जीवों के रहने जाता है।। योग्य छेदों आदि से रहित हो, ऐसा निवासस्थान यौवन-विशरारुनानारागपल्लवोल्लास-विलासोपयोगधारण के लिए उत्तम होता है।
वनं यौवनम् । (गद्यचि. पृ. ५६); अविनयविहङ्गयोग्यता-१. अर्थग्रहणं योग्यतालक्षणम् । (लघीय. लीलावनं यौवनम् । (गद्यचि. पृ. ६४)। स्वो. वृ. ५)। २. स चात्मविशुद्धिविशेषो ज्ञाना- यौवन गिरते हुए अनेक पत्तों के उल्लास-विलास के वरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमभेदः स्वार्थप्रमितौ शक्ति- उपवन के समान है, अथवा वह प्रविनयरूप पक्षियों योग्यतेति च स्याद्वादवेदिभिरभिधीयते। (प्रमाणप. के क्रीडावन जैसा है पु. ५२); योग्यताविशेषः पुनः प्रत्यक्षस्येव स्ववि. रक्त गेय-गेयरागानुरक्तेन यत् गीयते तत् रक्तम् । षयज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषःXX (रायप. मलय. वृ. १. १६२)। xI (प्रमाणप. पृ. ६७) । ३. स्वावरणक्षयोप- गाने योग्य गीत के स्वर में अनुरक्त पुरुष के द्वारा शमलक्षणयोग्यतया xxx । (परीक्षा. २-६)। जो गाया जाता है उसे रक्त गेय कहते हैं। ४. योग्यता नियतार्थग्रहणसामर्थ्यम् । (न्यायकु. ५,
रचित-रचितं नाम संयतनिमित्तं कांस्यपात्रादौ पृ. १६५)। ५. का नाम योग्यता इति ? उच्यते
मध्ये भक्तं निवेश्य पार्वेषु व्यञ्जनानि बहुविधानि -स्वावरणक्षयोपशमः । (न्यायदी. पृ. २७)।
स्थाप्यन्ते। (व्यव. भा. मलय. वृ. ३-१६४, पृ. २ ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम
३५)। विशेषरूप मात्मा की शुद्धिविशेष का नाम योग्यता
साधु के निमित्त कांसे मादि के पात्र में भोजन को है। यह योग्यता स्व और अर्थ के ग्रहण की शक्ति
रखकर उसके पार्श्वभागों में जो बहत प्रकार के
व्यञ्जनों को स्थापित किया जाता है, इसका नाम योजन-१. चउकोसेहिं जोयण xxx । (ति.
रचित है। प. १-११६) । २. चतुर्गव्यूतं योजनम् । (त. वा.
रचितकभोजी-- रचितकं नाम कांस्यपात्रादिषु ३, ३८, ६, पृ. २०८)। ३. अट्टहिं दंडसहस्सेहिं
पटादिषु वा यदशनादि देयबद्धया वैविक्त्येन जोयणं । (धव. पु. १३, पृ. ३३६) । ४. अष्टौ दण्डसहस्राणि योजनं परिभाषितम। (इ. प. ७. तद् भुंक्ते इत्येवंशीलो रचितकभोजी। (व्यव. भा. ४६) । ५. Xxx दंडहिं असहासिहिं पावहि। पृ. ११६) ।
कांसे के पात्र प्रादि में अथवा पट (वस्त्र) आदि जोयणु Xxx। (म. पु. पुष्प. २-७, पृ.
पर जो देने के विचार से भोजन स्थापित किया २४) । ६. चउगाउदेहि य तहा जोयण मेगं विणि
जाता है उसका नाम रचितक है, उसका खाने वाला द्दिढें । (जं. दी. प. १३-३४)। १ चार कोसों का एक योजन होता है ।
रचितकभोजी कहलाता है। योजनपृथक्त्व-तं (जोयणं) अढहि गुणिदे जोय- रज--१. रजस्तु सर्वशुष्कः XXX शुष्क मात्रस्तु णपुधत्तं । (धव. पु. १३, पृ. ३३६) ।
रजः । (उत्तरा. चू. पृ. ७६)। २. बध्यमान च
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रज्जु] ६५३, जैन-लक्षणावली
[रथरेणु कर्म रज: XXX अथवा बद्धं रजः, अथवा ऐर्या. (त. वृत्ति श्रुत. ८-६)। पथं रजः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । १ जिसके उदय से विषयादिकों में उत्सुकता रहती १ पूर्णरूप से सूखे हुए मैल को रज कहा जाता है। है उसे रति नोकषाय कहते हैं । २ जिस कर्म के उदय २ वर्तमान में बांधे जाने वाले कर्म को अथवा पूर्व से देश आदिकों के विषय में उत्सुकता उत्पन्न होती में बांधे गये कर्म को रज कहते हैं । अथवा ईर्यापथ है उसका नाम रति है । ७ जिसके उदय से अभ्यकर्म को रज समझना चाहिये।
न्तर वस्तुप्रों में हर्ष को प्राप्त होता है उसे रतिरज्ज़-१. जगसेढीए सत्तमभागो रज्ज पभासते ॥ मोहनीय कहा जाता है।। (ति. प. १-१३२) । २. का रज्जू णाम ? तिरिय- रतिवाक्-१. शब्दादिविषय-देशादिषु रत्युत्पादिका लोगस्स मज्झिमवित्थारो। (धव. पु. ३, पृ. ३४)। रतिवाक् । (त. व. १, २०, १२, पृ. ७५) । ३. जगसेढिसत्तभागो रज्जू xxx। (त्रि. सा. २. शब्दादिविषयेषु रत्युत्पादिका रतिवाक् । (धव. ७)। ४. पञ्चविंशतिकोटीकोटीनामुद्धारपल्यानां पु. १, पृ. ११७) । ३. इंदियविषयेसु रइ उप्पाइया यावन्ति रूपाणि लक्षयोजनार्द्धछेदनानि च रूपाधि- वाया रदिवाया।। (अंगप. २-७६, पृ. २६२)। कान्येकैकं द्विगुणीकृतान्यन्योन्यभ्यस्तानि यत्प्रमाणं १शब्द प्रादि विषयों और देश प्रादिकों में राग सा रज्जुरिति । (मला. व. १२-८५)। ५. जग- उत्पन्न करने वाले वचन को रतिवाक् कहते हैं। च्छण्याः १८-४२ सप्तमभागो रज्जुः । (त्रि. सा.
रत्नगर्भ-यस्य षण्णवमासानि रत्नवृष्टिः प्रवार्षिटी. ७)।
ता। शक्रेण भक्तियुक्तेन रत्नगर्भस्ततो हि सः ।। १जगश्रेणि के सातवें भाग को रज्जु कहते हैं।
प्राप्तस्व. ३७)। २ तिर्यग्लोक का जितना विस्तार प्रमाण है उतना जिसके गर्भ में पाने के छह महीने पूर्व से ही छह और प्रमाण एक रज्जु का है।
नौ (६+६=१५) मास भक्तियुक्त इन्द्र के द्वारा रति -१. यदुदयाद्विषयादिष्वौत्सुक्यं सा रतिः ।
रत्नों की वर्षा करायी गई, उस प्राप्त (तीर्थकर) (स. सि. ८-६)। २. यदुदयाद्देशादिष्वौत्सुक्यं सा
को रत्नगर्भ कहा गया है। रतिः । (त. वा. ८, ९, ४)। ३. रमणं रतिः ,
रनि-द्वाभ्यां वितस्तिभ्यां रत्निरुच्यते । (त. रम्यते अनया इति वा रतिः । जेसि कम्मक्खंधाण
वृत्ति श्रुत. ३-३८)। मदएण दव्व-खेत्त-काल-भावेसु रदी समुपज्जइ
दो वितस्तियों (२४ अंगुल) को एक रत्नि (हाथ) तेसि रदि त्ति सण्णा। (धव. पु. ६, पृ. ४७); जस्स कम्मस्स उदएण दव्व-खेत्त-काल-भावेसु जीवाणं रई
होती है। समुप्पज्जदि तं कम्म रई णाम । (धव. पु. १३, प. रथ-जुद्धे अहिरह-महारहाणं चडणजोग्गा रहा ३६१) । ४. रम्यतेऽनयेति रमणं वा रतिः कुत्सिते णाम । (धव. पु. १४, पृ. ३८) । रम्यते, येषां कर्मस्कन्धानामुदयेन द्रव्य-क्षेत्र-काल- युद्ध के समय जिनके ऊपर अधिरथ और महारथ भावेषु रतिरुत्पद्यते तेषां रतिरिति संज्ञा । (मला. योद्धा प्रारूढ़ होते हैं, उन्हें रथ कहा जाता है । वृ. १२-१६२)। ५. रतिः विषयेषु मोहनीयाच्चि- रथरेणु - १. अट्ठ तसरेणूग्रो सा एगा रहरेणू । त्ताभिरतिः । (औपपा. अभय. व. ३४, प. ७६) । (अनयो. स. प. १६२)। २. तित्तियमेत्तह ६. मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेव रतिः । (नि. तसरेणू हि पि रहरेणू ॥ (ति. प. १, १०५-६) । सा. वृ. ६) । ७. यदुदयाच्चाभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रमो- ३. अष्टौ त्रसरेणवः संहता: एको रथरेणुः। (त. दमाधत्ते तद्रतिमोहनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. वा. ३, ३८, ६, पृ. २०७) । ४. अहिं तसरेणुहि २६३, पृ. ४६६)। ८. देशान्तरोद्यानौत्सुक्य निमि- पिंडयहिं एक्कु जि रहरेणुउ हवइ । (भ. पु. पुष्प. त्तोदया रतिः । (भ. पा. मूला. २०६७) । ६. यदु- २-६, पृ. २३)। ५. अष्टभिस्त्रसरेणुभिः पिण्डितैदयाद्देश-पुर-ग्राम-मन्दिरादिषु तिष्ठन् जीवः परदेशा- रेकत्रीकृतैरेका रथरेणुरुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ३, दिगमने च प्रोत्सूक्यं न करोति सा रतिरुच्यते । ३८)।
ल. १२०
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रम्यकक्षेत्र]
१ श्राठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु होता है । २ श्राठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु होता है । रम्यकक्षेत्र रमणीयदेशयोगाद्रम्यका भिधानम् । यस्माद्रमणीयदेशैः सरित्पर्वत काननादिभिर्युक्तस्तस्मादसौ रम्यक इत्यभिधीयते । (त. वा. ३, १०, १४) ।
रमणीय देशों, नदियों, पर्वतों और वनों से युक्त होने के कारण जम्बूद्वीपस्थ चौथे क्षेत्र को रम्यक कहा जाता है ।
रस ( धातु विशेष ) - रसो भुक्त-पीतान - पानपरिनामजो निस्यन्दः । (योगशा. ४ -७२ ) । खाये गये अन्न व पिये गये पान ( दूध आदि) के परिपाक से जो निस्यन्द ( पतली धातुविशेष) उत्पन्न होता है उसका नाम रस है । यह शरीरगत सात धातुत्रों में प्रथम है । रस (जिह्वन्द्रिय का विषय ) - १. तथा रस आस्वादन - स्नेहनयोः, रस्यते श्रास्वाद्यते रसः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७३ ) । २. रस्यते रसः, रसयुक्तोऽर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. २ -२० ) । १ जिसका जिह्वा से प्रास्वाद लिया जाता है वह रस कहलाता है । २ रसयुक्त पदार्थ को रस कहते हैं ।
रसकषाय - १. रसकसानो णाम कसायरसं दव्वं दव्वाणि वा कसाओ । ( कसायपा. चू. पृ. २५) । २. रसश्रो रसो कसायो । (विशेषा. गा. ३५३२-ला. द. ग्रह.) । ३. रसतो रसकषायः कटु-तिक्तकषायपञ्चकान्तर्गतः । ( श्राचा. नि. शी. वृ. १६०, पृ. ८२ ) ।
२ रस के श्राश्रय से जो कषाय होती है उसे रसकषाय कहा जाता है । रसगौरव
६५४, जैन- लक्षणावली
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अभिमतरसात्यागोऽनभिमतानादरश्च नितरां रसगौरवम् । (भ. श्री. विजयो. ६१२ ) । श्रभीष्ट रस का त्याग न करना तथा श्रनिष्ट रस के विषय में अनादर का भाव (द्वेषबुद्धि) रखना, इसे रसगौरव कहा जाता है । रसत्याग - देखो रसपरित्याग । तथा रसानां मतुलोपाद् विशिष्टरसवतां वृष्याणां विकारहेतूनाम्, अतएव विकृतिशब्दवाच्यानां मद्यमांस-मधु-नवनीता नां दुग्ध-दधि-तैल- गुडावग्राह्यादीनां च त्यागो वर्जनं रसत्यागः । (योगशा. स्वो विव. ४-८९ ) ।
[ रसनाम
विशिष्ट रस से युक्त व विकार के कारणभूत गरिष्ठ पदार्थों का तथा मद्य, मांस, मधु, मक्खन एवं दूध, दही, घी, तेल व गुड आदि का त्याग करना, इसे रसत्याग (तपविशेष ) कहते हैं । रसन - १. वीर्यान्तराय-मतिज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भादात्मना XXX रस्यतेऽनेनेति रसनम् । XX X रसतीति रसनम् । ( स. सि. २ - १९ ) । २. रसयत्यनेनात्मेति रसनम् । XX X रसयतीति रसनम् । (त. वा. २ - १९) । ३. रस्यते प्रास्वाद्यतेऽर्थोऽनेनेति रसनम्, रसयत्यर्थमिति वा रसनम् । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १९ ) ।
१ जिसके द्वारा स्वाद लिया जाता है अथवा जो स्वाद को ग्रहण करती है उस इन्द्रियविशेष को रसन ( जिह्वा) कहा जाता है । रसननिवृत्ति - अर्धचन्द्राकारा क्षुरप्राकारा वा अङ्गुलस्यासंख्येय भाग प्रमिता रसननिर्वृत्तिः । ( धव. पु. १, २३५ ) ।
रसनेन्द्रिय नाम वाले श्रात्मप्रदेशों में जो अर्द्ध चन्द्र श्रथवा खुरपे के प्राकार अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण पुद्गलपिण्ड होता है वह रसना इन्द्रिय की बाह्य निर्वृत्ति कहलाती है ।
रसनाजय - १. असणादिचदुवियप्पे पंचरसे फासूगम्हि णिरवज्जे । इट्ठा णिट्ठाहारे दत्ते जिन्भाजन - गिद्धी । (मूला. १ -२० ) । २. गृहिदत्तेन - पानादावदोषे समतायुतम् । गात्रयात्रानिमित्तं यद् भोजनं रसनाजयः ।। ( श्राचा. सा. १-३१) ।
१ दाता के द्वारा दिये गये पांच रसयुक्त प्रासुक व निर्दोष श्रशनादिरूप ( प्रशन, पान, खाद्य व स्वाद्य ) चार प्रकार के आहार में, चाहे वह इष्ट हो श्रथवा अनिष्ट हो, राग-द्वेष व लोलुपता न होना, यह साधु का जिह्वाजय या रसनेन्द्रियजय कहलाता है । यह २८ मूलगुणों के अन्तर्गत है । रसनामकर्म - १. यन्निमित्तो रसविकल्पस्तद्रसनाम | ( स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १०; भ. प्रा. मूला. २१२४) । २. जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण जीवसरीरे जादिपडिणियदो तित्तादिरसो होज्ज तस्स कम्मक्खंधस्स रससण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ५५ ) ; जस्स कम्मस्सुदएण सरीरे रसणिफत्ती होदि तं रसणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६४) । ३. यस्य कर्म स्कन्धस्योदयाज्जीवशरीरे जातिप्रतिनियततिक्ता
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रसपरित्याग] ९५५, जैन-लक्षणावली
[रसमान दिरसो भवति तद्रस इति संज्ञा । (मूला. वृ. १२, परोधनिवृत्तिरित्येवमाद्यर्थम् । (चा. सा. पृ. ६०)। १९४)। ४. यदुदयेन रसभेदो भवति स रसः । (त. ११. संसारदुक्खतट्ठो विससमविसयं विचितमाणो वृत्ति श्रुत. ८-११)।
जो। णीरसभोज्जं भुंजइ रसचामो तस्स सुविसुद्धो।। १ जिस कर्म के निमित्त से रस का विकल्प उत्पन्न (कातिके. ४४६) । १२. दधि-क्षीराऽऽज्य-तैलादेः होता है उसे रसनामकर्म कहते हैं।
परिहारो रसस्य यः । तपो रसपरित्यागो मधुरादिरसपरित्याग-१. खीर-दहि-सप्पि-तेल-गुड-लव- रसस्य वा ॥ कायकान्ति-मदाक्षेम-क्षोभवारणकारणं च जं परिच्चयणं । तित्त-कड़-कसायंविल-मधुर- णम् । परिहारो रसस्यायं स्याज्जितेन्द्रिययोगिनः॥ रसाणं च जं चयणं ॥ (मूला. ५-१५५) । २. खीर- (प्राचा. सा. ६, १३-१४)। १३. त्यागः क्षीरदहि-सप्पि-तेल्लं गुडाण पत्तेगदो व सव्वेसि । णिज्ज- दधीक्ष-तैल-हविषां षण्णां रसानां च यः कात्स्यनावहणमोगाहिम पणकुसणलोणमादीणं ॥ अरसं च यवेन वा यदसनं सुपस्य शाकस्य च । प्राचाम्लं अण्णवेलाकदं च सुद्धोदणं च लुक्खं च । प्रायविल- विकटोदनं यददनं शुद्धौदनं सिक्थवद्रूक्षं शीतलमप्यमायामोदणं च विगडोदणं चेव ।। इच्चेवमादि सौ रसपरित्यागस्तपोऽनेकधा ॥ (अन. ध.७-२७) । विविहो णायवो हवदि रसपरिपच्चायो। एस तवो १४. रसपरित्यागः षडरसविवर्जन भजिदव्वो विसेसदो सल्लिहतेण ॥ (भ. मा. २१५ टी. ७८) । १५. हृषीकमदनिग्रहनिमित्तं निद्राविजसे २१७) । ३. इन्द्रियदर्पनिग्रह-निद्राविजय-स्वाध्याय- यार्थं स्वाध्यायादिसुख सिद्धयर्थ रसस्य वृष्यस्य सुखसिद्धयर्थो धृतादिवृष्यरसपरित्यागश्चतुर्थं तपः। घृतादेः परित्यागः परिहरणं रसपरित्यागः । (त. (स. सि. ६-१६)। ४. रसपरित्यागोऽनेकविधः। वृत्ति श्रुत. ६-१९)। १६. मधुरादिरसानां यत्सतद्यथा-मद्य-सांस-मधु-नवनीतादीनां रसविकृतीनां . मस्तं व्यस्तमेव वा । परित्यागो यथाशक्ति रसत्यागः प्रत्याख्यानं विरसरूक्षाद्यभिग्रहश्च । (त. भा. सिद्ध. स लक्ष्यते ॥ (लाटीसं. ७-७८) । वृ.६-१६)। ५. दान्तेन्द्रियत्व-तेजोऽहानि-संघमोऽप- १ दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक इन छह का रोधण्यावत्याद्यथं घताविरसत्यजनं रसपरित्यागः। तथा तीखा, कडा, कषायला, प्राम्ल और मधुर दान्तेन्द्रियत्वं तेजोऽहानिः संयमोपरोधनिवत्तिरित्येव- इन पांच रसों का भी जो परित्याग किया जाता है माद्यर्थं घृत-दधि-गुड-तैलादिरसत्यजनं रसत्याग इत्यु- इसे रसपरित्याग कहते हैं। ४ रस के विकारभूत च्यते । (त. वा. ६, १६, ५)। ६. खीर-गुड-सप्पि- मद्य, मांस, मधु और नवनीत प्रादि का परित्याग लवण-दधिमादनो सरीरिदियरागादिवडिढणि मित्ता करना तथा नीरस व रूखे आदि भोज्य पदार्थों का रसा णाम, तेसि परिच्चायो रसपरिच्चाओ। किमळं नियम करना, इसका नाम रसपरित्याग है। एसो कीरदे ? पाणिदियसंजमठें । कूदो ? जिभि- रसपरित्यागातिचार - १. कृतरसपरित्यागस्य दियणिरुद्ध सलिदियाणं णिरोहुवलंभादो, सय- रसातिसक्तिः, परस्य वा रसवदाहारभोजनम्, रसवलिदिएसु णिरुद्धेसु चत्तपरिग्गहस्स णिरुद्धराग-दोसस्स दाहारभोजनानुमननं वातिचारः । (भ. प्रा. विजयो. तिगुत्तिगुत्तस्स पंचसमिदिमंडियस्स वासी-चंदणस- ४५७)। २. रसपरित्यागस्य रसातिसक्तिः परस्य माणस्स पाणासंजमणिरोहुवलं भादो। (धव. पु. १३, वा रसवदाहारभोजनाद्भोजनानुमननं चेति । (भ. पृ. ५७-५८) । ७. दान्तेन्द्रियत्व-तेजोऽहानिसंयमो- प्रा. मूला. ४८७) । परोधव्यावृत्त्याद्यर्थ घृतादिरसपरित्यजनं रसपरि-१ रस में अतिशय प्रासक्ति रखना, दूसरे को रसत्यागः । (त. श्लो. ९-१६) । ८. रसगोचरगार्द्धय- यक्त भोजन कराना, अथवा दूसरे के द्वारा किये
सपरित्यागः। (भ. प्रा. विजयो. ६)। गये रसयक्त भोजन का अनमोदन करना, ये रस. ६. रसत्यागो भवेत्तल-क्षीरेक्ष दधि-सपिषाम् । एक- परित्याग तपको मलिन करने वाले उसके प्रति. द्वि-त्रीणि चत्वारि त्यजतस्तानि पञ्चधा ।। (त. सा. चार हैं। ७-११) । १०. शरीरेन्द्रियरागादिवृद्धिक रक्षीर- रसमान--१. से कि तं रसमाणप्पमाणे ? धण्णदधि-घृत-गुड-तैलादिरसत्यजनं रसपरित्याग इत्यू- माणप्पमाणाम्रो चउभागविवडिढए अभितरसिहाच्यते । तत्किमर्थम् ? दुर्दान्तेन्द्रियतेजोहानि-संयमो- जुत्ते रसमाणप्पमाणे विहिज्जइ। तं जहा-च उ
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रसवाणिज्य] ६५६, जैन-लक्षणावली
[रहोऽभ्याख्यान सट्ठिया ४ [चउपलपमाणा] बत्तीसिया ८ सोलसिया उपकार करके यदि पाहार को ग्रहण किया जाता १६ प्रदुभाइमा ३२ च उभाइमा ६४ अद्धमाणी १२८ है तो वह रसायन चिकित्सा नामक चिकित्साविशेषमाणी २५६ दो चउसट्टीपामो बत्तीसिया दो बत्ती- रूप उत्पादनदोष से दूषित होता है। सिपापो सोलसिमा दो सोलसिमानो अटुभाइमा दो रसायिक-रसायिका:-रसो घृतादिः, तत्र चर्माअदभाइमायो चउभाइया दो चउभाइयायो प्रद्ध- दियोगे प्राय आगमनं विद्यते येषां ते रसायिकाः । माणी दो अद्धमाणीमो माणी। एएणं रसमाणपमाणेणं प्रथमधातूद्भवाः वा रसायिकाः। (त. वृत्ति श्रुत. किं पयोअणं ? एएणं रसमाणेणं वारक-घडक-करक- २-१४)। कलसिम - गागरि-दइअ-करोडिन - कुंडिअ-संसियाणं घी आदि रस का चमड़े आदि से सम्बन्ध होने पर रसाणं रसमाणप्पमाणणि वित्तिलक्खणं भवइ, से तं जो सम्मर्छन पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं वे रसा. रसमाणपमाणे, से तं माणे। (अनुयो. सू. १३२, यिक कहलाते हैं। अथवा जिनकी उत्पत्ति रस पृ. १५१-५२)। २. घृतादिद्रव्यपरिच्छेदकं षोड- नामक प्रथम धातु से होती है, उन्हें रसायिक शिकादि रसमानम् । (त. वा. ३, ३८, ३)। जानना चाहिए। १ धान्यमान के प्रमाण को अपेक्षा चौथे भाग से रहस्याभ्याख्यान--देखो रहोऽभ्याख्यान । अधिक व अभ्यन्तर शिखा से युक्त जो रसमान रहोऽभ्याख्या-देखो रहोऽभ्याख्यान । किया जाता है उसे रसमानप्रमाण कहते हैं। रहोऽभ्याख्यान-१. यत्स्त्री-पुंसाभ्यामेकान्तेऽनुजैसे-- चतुःषष्टिका ४ (माणिका के चौसठवें भाग ष्ठितस्य क्रियाविशेषस्य प्रकाशनं तद्रहोऽभ्याख्यानं से निष्पन्न २५६ :६४=४) पल प्रमाण, द्वात्रिशि- वेदितव्यम् । (स. सि. ७.-२६, चा. सा. पृ. ५)। का ८पल प्रमाण, षोडशिका १६ पल प्रमाण, अष्ट- २. संवतस्य प्रकाशनं रहोभ्याख्यानम् । स्त्री-पुंसाभागिका ३२ पल प्रमाण, चतुर्भागिका ६४ पल भ्यां एकान्तेनुष्ठितस्य क्रियाविशेषस्य प्रकाशनं यत प्रमाण, अर्धमाणिका १२८ पल प्रमाण और माणि- रहोभ्याख्यानं तद्वेदितव्यम् । (त. वा. ७, २६, २)। का २५६ पल प्रमाण होती है। इसका प्रयोजन ३. रहः एकान्तस्तत्र भवं रहस्यम्, तेन तस्मिन् वा बारक प्रादि के पाश्रित रस के प्रमाण का परिज्ञान अभ्याख्यानं रहस्याभ्याख्यानम्। (प्राव. अ. ६, कराना है। २ घी आदि द्रव्यों के प्रमाण का ज्ञान हरि. वृ: पृ. ८२१)। ४. रहः एकान्तः, तत्र भवं कराने वाली षोडशिका आदि को रसमान कहा रहस्यम्, तेन तस्मिन् वाभ्याख्यानं रहस्याभ्याख्या. जाता है।
नम् । एतदुक्तं भवति-एकान्ते मन्त्रयमाणान् रसवाणिज्य-१. नवनीत-बसा-क्षौद्र-मद्य-प्रभतिवि- वक्त्येते हीदं चेदं च राजापकारित्वादि मन्त्रयन्ते क्रयः। द्विपाच्चतुष्पादविक्रयो वाणिज्यं रस-केशयोः॥ इति । (श्रा. प्र. टी. २६३)। ५. रहोभ्याख्यान(योगशा. ३-१०९; त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३४३)। मेकान्तस्त्री-पुंसे हाप्रकाशनम्। (ह. पु. ५८-१६७) । २. रसवाणिज्यं नवनीतादिविक्रयः । नवनीते हि ६. रहोऽभ्याख्या रहसि एकान्ते स्त्री.पंसाभ्यामनष्ठि. जन्तसम्मुर्छनम, मधू-वसा-मद्यादौ तु जन्तुघातोद्भव- तस्य क्रियाविशेषस्याभ्याख्या प्रकाशनम । (रत्नक. स्वम्, मद्येन मदजनकत्वं तद्गतक्रिमिविघातश्चेति टी. ?-१०)। ७. रहस्येकान्ते स्त्री-पंसाभ्यामनुष्ठितद्विक्रयस्य दुष्टत्वम् । (सा. घ. स्वो. टी. ५-२२)। तस्य क्रियाविशेषस्याभ्याख्या प्रकाशनं यया दम्पत्यो१ नवनीत, वसा (चर्बी) और मधु प्रादि का विक्रय रन्यस्य वा पुंस: स्त्रिया वा रागप्रकर्ष उत्पद्यते । सा करना; इसे रसवाणिज्य कहा जाता है।
च हास्यक्रीडादिनैव क्रियमाणोऽतिचारो न त्वभिरसायन-रसायनं वलि-पलितादिनिराकरणं बहु- निवेशेन । (सा. घ. स्वो. टी. ४-४५) । ८. स्त्रीकालजीवितत्वं च । (मूला. वृ. ६-३३)। साभ्यां रहसि एकान्ते यः क्रियाविशेषोऽनुष्ठितः कृत वलि (बढ़ापे के कारण होने वाली चमड़ी को उक्तो वा स क्रियाविशेषो गुप्तवृत्त्या गृहीत्वा शिथिलता) और पलित (बालों की सफेदी) प्रादि अन्येषां प्रकाश्यते तद् रहोभ्याख्यानमुच्यते। (त. के नष्ट करने तथा दीर्घ काल तक जीवित रहने वृत्ति श्रुत. ७-२६; कार्तिके. टी. ३३३)। ६. रहोप्रादि के प्ररूपक शास्त्र के प्राश्रय से दाता का ऽभ्याख्यानमेकान्ते गुह्य वार्ताप्रकाशनम् । परेषां
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राक्षस ]
शंकया किञ्चिद्धेतोरस्त्यत्र कारणम् ॥ ( लाटीसं ६-१९) ।
१ स्त्री और पुरुष के द्वारा एकान्त में किये गये कार्यविशेष के प्रकाशित करने का नाम रहोऽभ्याख्या या रहोsभ्याख्यान है । यह सत्याणुव्रत का एक प्रतिचार है । ४ रहस का अर्थ एकान्त होता है, एकान्त में जो होता है उसे रहस्य कहा जाता है । उससे अथवा उसके विषय में कहना या श्रारोप लगाना कि ये राजा श्रादि के विरुद्ध मंत्रणा कर रहे थे । यह सत्याणुव्रत को मलिन करने वाला उसका एक प्रतिचार है । राक्षस - १. भीषणरूपविकरणप्रियाः राक्षसा नाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३६१) । २. राक्षसा भीमा भीमदर्शनाः कराल - रक्तलम्बोष्ठास्तपनीय विभूषणा नानाभक्तिविलेपनाः । (बृहत्सं. मलय. वृ. ५८ ) । १ जो रुचिपूर्वक भयानक रूप को विक्रिया किया करते हैं वे राक्षस कहलाते हैं । २ जो देखने में भयानक, भयप्रद लाल प्रोठों से सहित और सुवर्णमय भूषणों से युक्त होते हैं उन्हें राक्षस कहा जाता है ।
६५७, जैन-लक्षणावली
राक्षस विवाह १. कन्यायाः प्रसह्यादानाद्राक्षसः । ( नीतिवा. ३१ -१२, पृ. ३७६ ) । २. प्रसह्य कन्यादानाद् राक्षसः । (ध. बि. मु. वृ. १-१२ ) । ३. प्रसह्य कन्याग्रहणाद्राक्षसः । (योगशा. स्वो विव. १–४७) ।
१ बलपूर्वक कन्या के ग्रहण का नाम राक्षस विवाह है ।
राग - १. अभिष्वङ्गलक्षणो रागः । (ध्यानश. हरि. वृ. ८; प्राव. भा. मलय. वृ. २०३, पृ. ५६३) । २. माया लोभ वेदत्रय - हास्य- रतयो रागः । ( धव. पु. १२, पृ. २८३ ) ; माया - लोभ हस्स रदि-तिवेदाणं दव्वकम्मोदयजणिदपरिणामो रागो । ( धव. पु. १४, पृ. ११) । ३. विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीती राग-द्वेषौ । (पंचा. का. प्रमृत. वृ. १३१ ) । ४. निर्विकारस्वसंवित्तिलक्षणवीतराग चारित्रप्रच्छादकचारित्रमोहो राग-द्वेषी भण्येते । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४८, पृ. १८६) । ५ तस्यैवात्मनो विचित्रचारित्रमोहोदये सति निश्चयवीतरागचारित्ररहितस्य व्यवहारव्रतादिपरिणामरहितस्य इष्टानिष्ट विषये प्रीत्यप्रीतिपरिणामी राग-द्वेषी भण्यते । (पंचा. का.
[राजपिण्डाग्रहणस्थितिकल्प
जय. बृ. १३१) । ६. रूपाद्याक्षेपजनितः प्रीतिविशेषो रागः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ७२४, पृ. ३५६) । ७. प्रीतिलक्षणो रागः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६०, पृ. ४५५) ।
१ श्रासक्ति का नाम राग है । २ माया, लोभ, तीन वेद, हास्य और रति इन्हें रागस्वरूप माना जाता है । ४ निर्विकार स्वसंवेदनस्वरूप वीतरागचारित्र के रोधक चारित्रमोह को राग-द्वेष कहते हैं । राजकथा -- १. राज्ञां कथाः नानाप्रजापतिप्रतिबद्धवचनानि, स राजा प्रचण्डः शूरश्चाणक्य निपुणश्चारकुशलो योग-क्षेमोद्यतमतिश्चतुरंगबलो निर्जिताशेषवैरिनिबहो न तस्य पुरतः केनापि स्थीयते इत्येवमादिकं वचनं राजकथा: । ( मूला वृ. ६-८६) । २. राट्रकथा राजकथा, यथा शूरोऽस्मदीयो राजा, सघनचोड: [ - शौण्ड: ] गजपतिगड:, अश्वपतिस्तुरुष्क इत्यादि । (योगशा. स्वो विव. ३-७९) । ३. राज्ञां युद्ध हेतूपन्यासो राजकथाप्रपंच: । (नि. सा. बृ. ६७) । ४. राजकथा शूरोऽस्मदीयो राजा सघनः शौण्ड: गजपतिगौंड : अश्वपतिस्तुरुष्क इत्यादिरूपा । (सा. ध. स्वो टो. ४-२२ ) ।
१ अनेक राजानों से सम्बन्धित वचनालाप का नाम राजकथा है। जैसे - वह राजा पराक्रमी व शूरवीर है, चाणक्य के समान चतुर है, शत्रुपक्ष की गुप्त बात के जानने में कुशल है, योग - श्रप्राप्त राज्यादि की प्राप्ति व क्षेम-प्राप्त के संरक्षण - के विचार में कुशल है, चतुरंग सैन्य से युक्त होकर समस्त शत्रु समूह को जीतने वाला है, तथा उसके सामने कोई भी स्थित नहीं रह सकता है, इत्यादि वार्ता |
राजधर्म - राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः । ( नीतिवा. ५ - २) ।
दुष्टों का निग्रह और सज्जनों का परिपालन करना, यह राजा का धर्म होता है । राजपिण्डाग्रहणस्थितिकल्प १. राजशब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जाताः । राजते प्रकृति रंजयति इति वा राजा राजसदृशो महद्धिको भण्यते, तस्य पिण्ड: तत्स्वामिको राजपिण्डः, तस्य अग्रहणम् । (भ. प्रा. विजयो. ४२१ ) । २. अथ राजशब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जाताः, राजते प्रकृति रञ्जयतीति वा, राज्ञा सदृशो महद्धिको भण्यते । तत्स्वामिभक्तादिवर्जन
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राजर्षि] १५८, जैन-लक्षणावली
[रात्रिभक्तव्रत चतुर्थः स्थितिकाल्यः । (भ. प्रा. मूला. ४२१)। कम्पमानमनाः॥ (रत्नक. ५-२१) । २. रात्री १राज शब्द से यहां जो इक्ष्वाकु प्रादि कुल में भुञ्जानानां यस्मादनिवारिता भवति हिसा। हिसाउत्पन्न हुए हैं उन्हें ग्रहण किया गया है, जो प्रजा विरतेस्तस्मात् त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥ (पु. को अनुरंजित करता है वह तथा उसके समान महा १२९)। ३. रात्रिभक्तव्रता रात्री स्त्रीणां भजनं ऋद्धि का धारक भी राजा कहलाता है। उसके रात्रिभक्तं तद् व्रतयति सेवत इति रात्रिव्रतातियहां भोजन आदि को ग्रहण न करना, यह राज- चारा रात्रिभक्तवतः दिवाब्रह्मचारीत्यर्थः । (चा. पिण्डाग्रहण नाम का चौथा स्थितिकल्प है। सा. पृ. १६)। ४. जो चउविहं पि भोज्जं रयराषि-१. तत्र राजर्षयो विक्रियाऽक्षीणद्धिप्राप्ता णीए व भंजदे णाणी । ण य भंजावइ अण्णं णि सिभवन्ति । (चा. सा. पृ. २२)। २. विक्रियाऽक्षीण- विरो सो हवे भोज्जो ॥ (कार्तिके. ३८२) । ऋद्धीशो यः स राजर्षिरीरितः । (धर्मसं. श्रा. ६, ५. स्त्रीवैराग्यनिमित्तकचित्तः प्राग्वृत्तनिष्ठितः । २८६)।
यस्त्रिधाऽह्नि भजेन्न स्त्री रात्रिभक्तव्रतस्तु सः॥ १ जो विक्रिया और अक्षीण ऋद्धि के धारक होते रात्रावपि ऋतावेव सन्तानार्थमृतावपि । भजन्ति हैं उन्हें राजर्षि कहा जाता है।
वशिनः कान्तां न तु पर्वदिनादिषु ॥ रात्रिभक्तव्रतो राजा-१. वररयणमउडधारी सेवयमाणाण वत्ति रात्री स्त्रीसेवावर्तनादिह । निरुच्यतेऽन्यत्र रात्रौ चतू. तह अट्ठ। देता हवेदि राजा जिदसत्त समरसंघटटे। राहारवर्जनात् ।। (सा. घ. ७-१२ व ७, १४-१५)। (ति. प. १-४२) । २. अष्टादशसंख्यानां श्रेणीना-६. प्राच्यपञ्चक्रियानिष्ठः स्त्रीसंयोगविरक्तधीः । मधिपतिविनम्राणाम् । राजा स्यान्मुकुटघर: कल्पतरुः त्रिधा योऽह्नि श्रियेन्न स्त्रीं रात्रिभक्तवतः स तु ॥ सेवमानानाम् ॥ (धव. पु. १, पृ. ५७ उद्.)। ३. एतद्य[दु]क्त्या किमायातं दिवा ब्रह्मव्रतं त्विति । रात्री योऽनुकूल-प्रतिकूलयोरिन्द्र-यमस्थानं स राजा । भक्तञ्जनीसेवां(?)यः कुर्याद्रात्रिभक्तिकः । अन्ये चा(नीतिवा. ५-१)।
हुर्दिवाब्रह्मचर्य चानशनं निशि । पालयेत्स भवेत्षष्ठः १ जो उत्तम रत्नों के मुकुट को धारण करता है, श्रावको रात्रिभक्तिकः ॥ (धर्मसं. श्रा. ८, २० से सेवा करने वालों की वृत्ति (प्राजीविका) और २२)। ७. रात्रिभक्तपरित्यागलक्षणा प्रतिमास्ति अर्थ को देता है तथा युद्धस्थल में शत्रुओं को जीतने सा। विख्याता संख्यया षष्ठी सद्मस्थश्रावकोचि. वाला है उसे राजा कहते हैं। २ जो मुकुट को ता॥ इतः पूर्वं कदाचिद् वा पयःपानादि स्यान्निशि । धारण करता हुमा विनम्र अठारह श्रेणियों का इतः परं परित्यागः सर्वथा पयसोऽपि तत् ॥ यद्वा स्वामी होता है वह राजा कहलाता है। वह सेवा विद्यते नात्र गन्ध-माल्यादिलेपनम् । नापि रोगोपकरने वालों के लिए कल्पवृक्ष जैसा होता है। शान्त्यर्थं तैलाभ्यंगादिकर्म तत् । किञ्च रात्रौ यथा राजु-देखो रज्जु ।
भक्तं वर्जनीयं हि सर्वदा। दिवा योषिव्रतं चापि राज्य-राज्ञः पृथ्वीपालनोचितं कर्म राज्यम् । षष्ठस्थानं [ने] परित्यजेत् । (लाटीसं. ७, १८ से (नीतिवा. ५-४, पृ. ४३)।
२१)। पृथ्वी के रक्षण के योग्य जो राजा का कार्य है उसे १जो रात में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इस 'राज्य कहा जाता है।
चार प्रकार के प्राहार को ग्रहण नहीं करता है वह राज्याख्यान-अमुष्मिन्नधिदेशोऽयं नगरं वेति रात्रिभक्तिविरत-छठी प्रतिमा का धारक कहतत्पते: । आख्यानं यत्तदाख्यातं राज्याख्यानं जिना- लाता है। ३ जो रात में स्त्री के सेवन का-रात में गमे ॥ (म. पु. ४-७)।
ही सेवन करूंगा, दिन में नहीं-व्रत करता है उसे यह अमुक देश व नगर का अधिपति है इत्यादि रात्रिभक्तविरत कहते हैं। ५ पूर्व की पांच प्रतिप्रकार से उसके स्वामी का वर्णन करने को राज्या- माओं का परिपालन करता हना जो दिन में मन, ख्यान कहा जाता है।
वचन व काय से स्त्री का सेवन नहीं करता है वह रात्रिभक्तवत-१. अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति रात्रिभक्तवती होता है। इस प्रतिमा का धारक यो विभावर्याम् । स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनु- उसका सेवन रात में भी ऋतुमती अवस्था को
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रात्रिभुक्तिविरत] ६५६, जैन-लक्षणावली
[रूपगता छोड़कर सन्तानप्राप्ति के निमित्त ही करता है तथा रुष्टवन्दन-रुष्टं क्रोधाध्मातस्य गुरोर्वन्दनमात्मना पर्व प्रादि के दिनों में उसका रात में भी परित्याग वा क्रुद्धेन वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३, करता है। (चारित्रसार ग्रादि ग्रन्थों के अनसार १३०)। रात में ही स्त्री का सेवन करूंगा ऐसे स्त्रीसेवाव्रत क्रोध से सन्तप्त गरु की वन्दना करने पर अथवा के कारण रात्रिभक्तव्रती कहा जाता है तथा रत्न- स्वयं क्रोध को प्राप्त होते हुए वन्दना करने पर करण्डक प्रादि के अनुसार रात में चार प्रकार के रुष्ट नामक वन्दना का दोष होता है। आहार का परित्याग कर देने के कारण रात्रिभक्त- रूक्ष-१. रूक्षणाद् रूक्षः। (स. सि. ५-३३) । व्रती कहा जाता है)।
२. रूक्षणाद् रूक्ष: । द्वितयनिमित्तवशाद् रूक्षणाद् रूक्ष विरत-देखो रात्रिभक्तविरत। इति व्यपदिश्यते । Xxx स्निग्धत्वं चिक्कणराष्ट्र-पशु-धान्य-हिरण्यसम्पदा राजते शोभते इति त्वलक्षणः पर्यायः, तद्विपरीतः परिणामो रूक्षत्वम् । राष्ट्रम् । (नीतिवा. १६-१, पृ. १६१)। (त. वा. ५, ३३, २) । ३. बहिरभ्यन्तरकारणद्वयपशु, धान्य और सुवर्णरूप सम्पत्ति से सुशोभित होने वशात् रूक्षपरिणामप्रादुर्भावात् रूक्षयति परुषो के कारण देश को राष्ट्र कहा जाता है । यह उसका भवति रूक्षः, रूक्षणं वा रूक्षः । (त. वृत्ति श्रत. निरुक्त लक्षण है।
५-३३)। रिक्कू-देखो किष्कु । xxx वेहत्थेहिं हवे २ बाह्य और अभ्यन्तर कारण के वश परुष पर्याय रिक्कू । (ति. प. १-११४) ।
होती है, स्निग्धता स्वरूप चिक्कणता से विपरीत दो हाथों का एक रिक्कू (किष्कु) होता है। अवस्था या गुण को रूक्ष कहा जाता है। रुजा-वात्त-पित्त-श्लेष्मणां वैषम्यजातकलेवरवि- रूक्षनामकर्म-एवं सेसफासाणं पि अत्थो वत्तव्वो पीडैव रुजा । (नि. सा. वृ. ६)।
(जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं लुक्खभावो वात्त, पित्त और कफ इनकी विषमता से जो शरीर होदि तं लुक्खणामं)। (धव. पु. ६, पृ.७५)। में पीडा उत्पन्न होती है उसे रुजा (रोग) कहते हैं। जिसके उदय से शरीरगत पुद्गलों के रूखापन होता रुद्र-रौद्राणि कर्मजालानि शुक्लध्यानोग्रवह्निना। है उसे रूक्षनामकर्म कहते हैं । दग्धानि येन रुद्रेण तं तु रुद्रं नमाम्यहम् ॥ (प्राप्त- रूपकथा-अन्ध्रीप्रभृतीनामन्यतमाया रूपस्य यत्प्रस्व. ३०)।
शंसादि सा रूपकथा । यथा-चन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी जिसने शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा रौद्र (भया- सद्गीः पीन-घनस्तनी। किं लाटी नो मता साऽस्य नक) कर्मसमूहों को जला डाला है उसका नाम देवानामपि दुर्लभा ॥ इति (स्थाना. अभय. वृ. रुद्र है। यह जिनदेव का नामान्तर है।
२८२, पृ. २१०)। रुधिर-अन्तराय-रुधिरं स्वान्यदेहाभ्यां वहतश्च- प्रान्ध्र प्रादि विविध प्रान्तों में रहने वाली स्त्रियों तुरङ्गुलम् । उपलम्भोऽस्र-पूयादे:xxx॥ (अन. में से किसी एक के रूप प्रादि की जो प्रशंसा की ध. ५-४५)।
जाती है उसे रूपकथा कहा जाता है। अपने अथवा अन्य के शरीर से चा
रूपकदोष-रूपकदोषो नाम स्वरूपावयवव्यत्ययो रुधिर और पीव प्रादि के बहते हुए उपलब्ध होने यथा पर्वते पर्वतरूपावयवानामनभिधानं समुद्रावयपर रुधिर नामक भोजन का अन्तराय होता है। वानां चाभिधानमित्यादि । (प्राव. नि. मलय. वृ. रुधिरनामकर्म-एवं सेसवण्णाणं पि अत्थो वत्त- ८८४, पृ. ४८४)। व्वो (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं रुहिर- स्वरूप के अवयवों में जो विपरीतता की जाती है वण्णो उप्पज्जदि तं रुहिरवण्णणामं)। (धव. पु. ६, उसका नाम रूपकदोष है। जैसे-पर्वत के वर्णन में पृ. ७४)।
उसके अवयवों का निरूपण न करके समुद्र के प्रव. जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों का वर्ण । यवों का निरूपण न करना। रुधिर जैसा (लाल) होता है उसे रुधिरवर्णनाम- रूपगता-१. रूवगया तत्तिएहि चेव पदेहि कर्म कहते हैं।
२०६८६२०० सीह-हय-हरिणादिरूपायारेण परि
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रूपगता] ९६०, जैन-लक्षणावली
[रूपसत्य णमणहेदुमंत-तंत-तवच्छरणाणि चित्त-कट्ठ-लेप्पलेण- से सहित, तेजस्वी और नवीन यौवन से विभूषित कम्मादिलक्खणं च वण्णेदि । (धव. पु. १, पृ. हूं; इस प्रकार का मेरा रूप समस्त जनों के चित्त ११३); रूपगतायां द्विकोटि-नवशतसहस्रकान्नवति- को प्रमुदित करने वाला है। इस प्रकार का चिन्तन सहस्र-द्विशतपदायां २०६८६२०० चेतनाचेतनद्रव्या- करने वाले के मरण को रूपवशार्तमरण कहा णां रूपपरावर्तनहेतुविद्या-मंत्र-तंत्र-तपांसि नरेन्द्र- जाता है। वाद-चित्र-चित्राभासादयश्च निरूप्यन्ते । (धव. पु. रूपश्लेषलक्षणसम्बन्ध-कथंचित् सम्बन्धिनोरेक ६, पृ. २१०)। २. रूपगया हरि-करि-तुरय-रुरु- त्वापत्तिस्वभावस्य रूपश्लेषलक्षणसम्बन्धस्याभ्युपगणर-तरु-हरिण-वसह-सस-पसयादिसरूवेण परावत्तण- मात् । (न्यायकु. ७, पृ. ३०७)। विहाणं णरिंदवायं च वण्णेदि। (जयध. १, पृ. कथंचित् सम्बन्धयुक्त दो पदार्थों के एकत्वापत्ति १३६) । ३. रूपगतापि एतावत- (द्विकोटि-नवलक्ष- स्वभाव को रूपश्लेषलक्षणसम्बन्ध माना जाता है। कोननवतिसहस्रशतद्वय-) परिमाणैव व्याघ्र-सिंह- रूपसत्य-१. उक्कडदरो त्ति वण्णे रूवे सेग्रो जध हरिणादिरूपेण परिणमनकारणमंत्र-तंत्रादेश्चित्र- बलाया ॥ (मूला ५-११३) । २. यदर्थासन्निधानेकर्मादिलक्षणस्य प्रतिपादिका। (श्रुतभ. टी. ६, पू. ऽपि रूपमात्रेणोच्यते तद्रूपसत्यम् । यथा चित्रपुरु१७४-पाठ स्खलित हुआ है)। ४. रूपगता सिंह- षादिषु असत्यपि चैतन्योपयोगादावर्थे पुरुष इत्यादि । करि-तुरग-रुरु-नर-तरु-हरिण-शश-वृषभ - व्याघ्रादि- (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७५; धव. पु. १, पृ. रूपपरावर्तनकारणमंत्र-तंत्र-तपश्चरणादीनि चित्र- ११७; चा. सा. पृ. २६; कार्तिके. टी. ३६८) । काष्ठ लेप्योत्खननादिलक्षणं धातूवाद-रसवाद-खन्य- ३. यदर्थासंन्निधानेऽपि रूपमात्रेण भाष्यते । तद्रूपसत्यं वादादीनि च वर्णयति। (गो. जी. म. प्र. व जी. चित्रादिपुरुषादावचेतने ॥ (ह. पु. १०-६९) । प्र. ३६२) । ५. सिंह-व्याघ्र-गज-तुरग-नर-सुरवरा- ४. रूपग्रहणमुपलक्षणं प्रवृत्तिनिमित्तानाम्, नीलमुदिरूपविधायकमंत्र-तंत्राद्युपदेशिका पूर्वोक्त-(द्विशता. त्पलं धवलो हि मृगलाञ्छन इत्येवमादिकं रूपसत्यम् । धिकनवाशीतिसहस्र-नवलक्षाधिककोटिद्वय) पदप्रमाणा (भ. प्रा. विजयो. ११६३)। ५. रूप्यते दृश्यते रूपगना चूलिका । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२०)। ६. प्रायो यत्तद्रूपं यदर्पणम् । रूपसत्यं वचः श्वेता रूपगता पुण हरि-करि-तुरंग-रुरु-णर-तरु-मिय-वस- वलाकेत्यादिकं यथा ॥ (प्राचा. सा. ५-२६) । हाणं । सस-वग्घादीणं पि य रूवपरावत्तहेदुस्स ॥ तव- ६. वर्णेनोत्कटतरेति श्वेता वलाका। यद्यपि तत्राचरण-मंत-तंत-यंतस्स परूवगा य वययसिला। चित्त- न्यानि रक्तादीनि सम्भवन्ति रूपाणि, तथापि श्वेतेन कट्टलेव्वुवक्खणणादिसु लक्खणं कहदि ॥ पारदपरि- वर्णेनोत्कृष्टतरा वलाका, अन्येषामविवक्षितत्वादिति यट्टणयं रसवायं धादुवायक्खणं च । या चूलिया कहेदि रूपसत्यं द्रव्याथिकनयापेक्षया वाच्यमिति । (मूला. णाणाजीवाण सुहहेदू ॥ (अंगप. ३, ६-८, पृ. वृ. ५-११३) । ७. रूपे सत्यं रूपसत्यं सितः ३०४)।
शशधर इति, सतोऽपि चन्द्रस्य लाञ्छने कार्यस्या१ जिसमें सिंह, घोड़ा और हरिण प्रादि के रूप के विवक्षितत्वात् । (अन. घ. स्वो. टी. ४-४७) । धारण में कारणभूत मंत्र, तंत्र एवं तपश्चरण का ८. रूपसत्यं नानारूपत्वेऽपि कस्यचिद्रूपस्य प्रकर्षतथा चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म और लयनकर्म मपेक्ष्य प्रयुज्यमानं वचनम् । (भ. प्रा. मला. इनके लक्षण का वर्णन किया जाता है उसे रूपगता ११६३)। ६. चक्षुर्व्यवहारस्य प्रचुरत्वात् रूपादिचूलिका कहते हैं।
पुदगलगुणानां मध्ये रूपप्राधान्येन तदाश्रितं वचः रूपजितध्यान-देखो रूपातीतध्यान । रूपसत्यम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २२३) । रूपवशार्तमरण-निरुपहतपञ्चेन्द्रियसमग्रगात्रस्ते- १ अनेक वर्गों में जो वर्ण प्रधान हो उसके प्राश्रय जस्वी प्रत्यग्रयौवनः सकलजनताचेतःसम्मदकररूप- से बोले जाने वाले वचन को रूपसत्य कहा जाता इति भावयतो मृतिः रूपवशार्तमरणम् । (भ. प्रा. है । जैसे-बलाका (एक विशेष जाति का बगुला) विजयो, २५, पृ. ८६) ।
सफेद होती है, यह वचन । यद्यपि सफेद के अतिरिक्त मैं प्रविनष्ट पांचो इन्द्रियों की परिपूर्णतायुक्त शरीर उसके लाल प्रादि अन्य वर्ण भी होते हैं, परन्तु
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रूपस्थध्यान] ६६१, जैन-लक्षणावली
[रूपातीतध्यान सफेद वर्ण की प्रधानता से उसे सफेद कहना रूप- निषण्णस्स वीज्यमानस्य चामरैः । सुरासुरशिरोरत्नसत्य माना जाता है।
दीप्रपादनखद्युतेः ॥ दिव्य-पुष्पोत्कराकीर्णासंकीर्णरूपस्थध्यान-१. जारिसमो देहत्थो झाइज्जइ देह- परिषद्भुवः । उत्कन्धरैर्मृगकुलः पीयमानकलध्वनेः ॥ बाहिरे तह य । अप्पा सुद्धसहावो तं रूवत्थं फूड शान्तवैरेभ-सिंहादिसमुपासितसन्निधेः । प्रभोः समवझाणं ॥ रूवत्थं पुण दुविहं सगयं तह परगयं च सरणस्थितस्य परमेष्ठिनः ॥ सर्वातिशययुक्तस्य णायव्वं । तं परगयं भणिज्जइ झाइज्जइ जत्थ पंच- केवलज्ञान-भास्वतः । अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं पर मेट्ठी ।। सगयं तं रूवत्थं झाइज्जइ जत्थ अप्पणो रूपस्थमुच्यते ॥ राग-द्वेष-महामोहविकाररकलङ्किअप्पा । णियदेहस्स बहित्थो फुरंतरवितेयसंकासो॥ तम् । शान्तं कान्तं मनोहारि सर्वलक्षणलक्षितम् ।। (भावसं. दे. ६२३-२५) । २. प्रतिमायां समारोप्य तीथिकैरपरिज्ञातयोगमुद्रामनोरमम् । अक्ष्णोरमन्दस्वरूप परमेष्ठिनः । ध्यायतः शुद्धचित्तस्य रूपस्थं मानन्दनिःस्यन्दं दददद्भुतम् ॥ जिनेन्द्रप्रतिमारूपध्यानमिष्यते ॥ (अमित. श्रा. १५-५४)। ३. रूप- मपि निर्मलमानसः । निनिमेषदृशा ध्यायन रूपस्थध्यास्थं सर्वचिद्रूपं Xxx ॥ (ब. द्रव्यसं. टी. ४८ नवान् भवेत् ॥ (योगशा. ६, १-१०)। ७. तव उद.)। ४. आदित्यमहिमोपेतं सर्वज्ञ परमेश्वरम । नामाक्षरं शुभ्रं प्रतिबिम्बं च योगिनः। ध्यायतो ध्यायेद्देवेन्द्र-चन्द्रार्कसमान्तस्थं स्वयम्भुवम् ॥ सर्वाति- भिन्नमीशेदं ध्यानं रूपस्थमीडितम् ॥ शुद्धं शुभ्रं शयसंपूर्ण सर्वलक्षणलक्षितम् । सर्वभूतहितं देवं शील- स्वतो भिन्न प्रतिहार्यादिभूषितम् । देवं स्वदेहमहन्तं शैलेन्द्रशेखरम् ॥ सप्तधातुविनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मी- रूपस्थं ध्यान [य] तोऽथवा ॥ (ध्यानस्तव ३०-३१)। कटाक्षितम् । अनन्तमहिमाधारं सयोगिपरमेश्वरम ॥ ८. अात्मा देहस्थितो यद्वच्चिन्त्यते देहतो बहिः । तद् अचिन्त्यचरितं चारुचरित्रः समुपासितम् । विचित्र- रूपस्थं स्मृतं ध्यानं भव्य-राजीवभास्करः। (भावसं. नयनिर्णीतं विश्वं विश्वकबान्धवम् ॥ निरुद्धकरण- वाम. ६६३)। ग्राम निषिद्धविषयद्विषम् । ध्वस्तरागादिसन्तानं १ जिस प्रकार शरीर में स्थित शुद्ध स्वभाव वाले भवज्वल
चम् ।। दिव्यरूपधरं धीरं विशुद्धज्ञान- प्रात्मा का ध्यान किया जाता है उसी प्रकार शरीर लोचनम् । अपि त्रिदशयोगीन्द्रः कल्पनातीतवैभवम ॥ से बाहिर उसका जो ध्यान किया जाता है उसे स्याद्वाद-पविनिर्धातभिन्नान्यमतभूधरम् । ज्ञानामृत- __रूपस्थध्यान कहा जाता है। वह स्वगत और परगत पयःपूरैः पवित्रितजगत्त्रयम् ॥ इत्यादिगणनातीतगुण- के भेद से दो प्रकार का है। पांच परमेष्ठियों के रत्नमहार्णवम् । देवदेवं स्वयम्बद्धं स्मराद्यं जिन- ध्यान का नाम परगत और शरीर से बाह्य अपने भास्करम् ॥ (ज्ञाना. २६, १-८, पृ. ४०६)। प्रात्मा के ध्यान का नाम स्वगत रूपस्थध्यान है। ५. प्रायासफलिहसंणिहतणप्पहासलिलणिहिणिब्ब- २ परमेष्ठी के स्वरूप को प्रतिमा में प्रारोपित डत । णर-सुरतिरीडमणि किरणसमूहरंजियपयंबु- करके जो उसका ध्यान किया जाता है, इसे रूपरथरुहो । वरअपाडिहारेहिं परिउडो समवसरणमझ- ध्यान कहते हैं। गो। परमप्पाणंतचउयणिो पवणमग्गट्रो।। एरि- रूपातीतध्यान-देखो प्ररूप व गतरूप ध्यान । १. सम्रो च्चिय परिवारवज्जियो खीरजल हिमज्झे वा। xxx रूपातीतं निरञ्जनम् ।। (बृ. द्रव्यसं. टी. वरखीरवण्णकंदुत्थकण्णियामझदेसट्रो ॥ खीरुवहि- ४८ उद्.)। २. अथ रूपे स्थिरीभूतचित्तः प्रक्षीणसलिलधाराहिसेयधवलीकयंगसव्वंगो। जं झाइज्जइ विभ्रमः । अमूर्तमजमव्यक्तं ध्यातुं प्रक्रमते ततः ।। एवं रुवत्थं जाण तं झाणं ॥ (वसु. श्रा. ४७२-७५)। चिदानन्दमयं शुद्धममूर्त परमाक्षरम् । स्मरेद्यत्रात्मना६. मोक्षश्रीसम्मुखीनस्य विध्वस्ताखिलकर्मणः । चतु- त्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ।। (ज्ञाना. ४०, १५-१६, मुंग्वस्य निःशेषभुवनाभयदायिनः ॥ इन्दुमण्डलसंका- पृ. ४१६) । ३. वण्ण-रस-गंध-फासेहिं वज्जियो शच्छत्रितयशालिनः । लसद्भामण्डलाभोगविडम्बित- णाण-दसणसरूपो । जं झाइज्जइ एवं तं झाणं रूव. विवस्वतः ॥ दिव्यदुन्दुभिनिर्घोषगीतसाम्राज्यसम्पदः। रहियं ति ॥ (सु. श्रा. ४७६) । ४. अमूर्तस्य रणद्विरेफझङ्कारमखराशोकशोभिनः ॥ सिंहासन- चिदानन्दरूपस्य परमात्मनः । निरञ्जनस्य सिद्धस्।
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रूपानुपात ६६२, जैन-लक्षणावली
[रोग ध्यानं स्याद् रूपवजितम् ॥ (योगशा. १०-१)। रूपाभिव्यक्तिः । (रत्नक. टी. ४-६) । ८. स्व५. रूपातीतं भवेत्तस्य यस्त्वां ध्यायति शुद्धधीः। शरीरदर्शनं रूपानुपातः। (त. वृत्ति श्रुत. ७-३१)। आत्मस्थं देहतो भिन्नं देहमात्रं चिदात्मकम् ।। संख्या- ६. दोषो रूपानुपाताख्यो व्रतस्यामुष्य विद्यते । तीतप्रदेशस्थं ज्ञान-दर्शनलक्षणम् । कर्तारं चानुभो- स्वाङ्गाङ्गदर्शनं यद्वा समस्या चक्षुरादिना ॥ (लाक्तारममूर्तं च सदात्मकम् ॥ कथंचिन्नित्यमेकं च टोसं. ६-१३२) । शुद्धं सक्रियमेव च । न रुष्यन्तं न तुष्यन्तमुदासीन- २ मेरे शरीर को देखकर स्वीकृत क्षेत्र के बाहिर स्वभावकम् ॥ कर्मलेपविनिर्मुक्तमूर्ध्वव्रज्यास्वभाव- स्थित मनुष्य शीघ्र ही कार्य को कर देंगे, ऐसा कम् । स्वसंवेद्यं विभुं सिद्धं सर्वसंकल्पवर्जितम् ।। सोचकर मर्यादीकृत क्षेत्र के भीतर स्थित रहते हुए
उन्हें अपना रूप दिखलाना यह रूपानपात नामक तीतमिदं देव निश्चितं मोक्षकारणम् ॥ (ध्यानस्तव देशव्रत (देशावकाशिकवत) का एक अतिचार है। ३२-३६)। ६. ध्यानत्रयेऽत्र सालंबे कृताभ्यासः ३ मर्यादित क्षेत्र के बाहिर प्रयोजन के उपस्थित पुनः पूनः। रूपातीतं निरालम्बं ध्यातुं प्रक्रमते होने पर शब्द का उच्चारण न करते हुए ही दूसरों यतिः ॥ इन्द्रियाणि विलीयन्ते मनो यत्र लयं व्रजेत् । को समीप लाने के लिए अपने शरीर के रूप को ध्यात-ध्येयविकल्पेल्पोन तद् ध्यानं रूपवजितम् ॥ दिखलाना, इसे रूपानुपात कहा जाता है। अमर्तमजमव्यक्तं निर्विकल्पं चिदात्मकम् । स्मरेद्य- रूपाभिव्यक्ति-देखो रूपानुपात । त्रात्मनात्मानं रूपातीतं च तद्विदुः ॥ (भावसं. वाम. रूपी--देखो अरूपी। १. गुणाविभागपडिच्छेदेहि ६६४-६६)।
समाणा जे णिद्ध-ल्हुक्खगुणजत्तपोग्गला ते रूविणो २ जिसका चित्त रूपस्थ ध्यान में भ्रान्ति से रहित णाम । (धव. पु. १४, पृ. ३१-३२) । २. रूपं होकर स्थिर हो चुका है वह जो फिर अमूर्त, अज रूप-रसादिसंस्थानपरिणामलक्षणा मूर्तिविद्यते येषां ते (जन्म-मरणादि से रहित) अव्यक्त, चेतन, प्रानन्द- रूपिणः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-५)। रूप, शद्ध, कर्म-मल से रहित और अविनश्वर प्रारमा १ जो स्निग्ध प्रौर रूक्ष गुणयुक्त पुद्गल गुणों के का प्रात्मा के द्वारा ध्यान करता है उसे रूपातीत- अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान होते हैं वे रूपी ध्यान कहा जाता है। प्ररूपध्यान व गतरूपध्यान कहलाते हैं। २ रूप-रसादि के संस्थान परिणाम इसके नामान्तर हैं।
स्वरूप मूर्ति जिनके विद्यमान होती है उन्हें रूपी रूपानुपात-१. स्वविग्रहदर्शनं रूपानुपातः । (स. कहा जाता है। सि. ७-३१) । २. स्वविग्रहप्ररूपणं रूपानुपातः। रेचक-१. निःसार्यतेऽतियत्नेन यत्कोष्ठाच्छ्वसनं मम रूपं निरीक्ष्य व्यापारमचिरान्निष्पादयन्ति इति शनैः। स रेचक इति प्राज्ञैः प्रणीतः पवनागमे ।। स्वविग्रहप्ररूपणं रूपानुपात इति निर्णीयते । (त. (जाना. २६-६, पृ. २८५); यत् कोष्ठादतियवा. ७,३१, ४)। ३. रूपानुपातः अभिग्रहीतदेशाद स्नेन नासाब्रह्मपूरातनः। बहिः प्रक्षेपणं वायोः स बहिः प्रयोजनभावे शब्दमनुच्चारयत एव परेषां रेचक इति स्मृतः ॥ (ज्ञाना. २, २८६ उद्.) । समीपानयनाथं स्वशरीररूपदर्शनं रूपानुपातः । २. यः कोष्ठादतियत्नेन नासाब्रह्मपुराननैः । बहिः (प्राव. अ. ६, हरि. व. पृ. ८३५) । ४. स्वविग्रह- प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः॥ (योगशा. प्ररूपणं रूपानुपातः। (त. श्लो. ७-३१) ५. मम ५-६)। ३. निःसार्यते ततो यत्नान्नाभि-पद्मोदराच्छ रूपं निरीक्ष्य व्यापारमचिरान्निष्पादयन्तीति स्वांग- नः। योगिना योगसामर्थ्याद्रेचकारख्यःप्रभञ्जनः ।। दर्शनं रूपानुपातः । (चा. साः पृ. ६)। ६. तथा (भावसं. वाम. ६६६)। रूपं स्वशरीरसम्बन्धि उत्पन्नप्रयोजनः शब्दमनुच्चार- १ प्रतिशय प्रयत्नपूर्वक जो उदर से ॥ यन् आह्वानीयानां दृष्टावनुपातयति, तदर्शनाच्च को निकाला जाता है, इसे रेचक प्राणायाम कहते ते तत्समीपमागच्छन्तीति रूपानुपातः। (योगशा. हैं। स्वो. विव. ३-११७) । ७. मर्यादीकृतदेशे स्थितस्य रोग-खय-कुटु-जरादो रोगो णाम । (धव. पु. बहिर्देशे कर्म कुर्वतां कर्मकराणां स्वविग्रहप्रदर्शनं १३, पृ. ३३६) ।
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रोग परीषहजय ]
क्षय, कोढ़ और ज्वर आदि का नाम रोग है । रोगपरीषहजय - १. सर्वाशुचिनिधानमिदम नित्यमपरित्राणमिति शरीरे निःसङ्कल्पत्वाद्विगतसंस्कारस्य गुणरत्नभाण्डसञ्चयप्रवर्धन संरक्षण-संधारणकारणत्वादभ्युपगत स्थिति विधानस्याक्षम्रक्षणवद् व्रणानुलेपनवद्वा बहूपकारमाहारमभ्युपगच्छतो विरुद्धाहार पान सेवन वैषम्यजनितवातादिविकाररोगस्य युगपदनेकशतसंख्यव्याधिप्रकोपे सत्यपि तद्वशवर्तितां विजहतो जल्लोषधिप्राप्त्याद्यनेकतपोविशेषद्धियोगे सत्यपि शरीरनिःस्पृहत्वात्तत्प्रतिकारानपेक्षिणो रोगपरिषह सहनमवगन्तव्यम् । ( स. सि. ६-६ ) । २. नानाव्याघिप्रतीकारानपेक्षत्वं रोगसहनम् । दुःखादिकारणमशुचिभाजनं जीर्णवस्त्रवत् परिहेयं पित्त-मारुत-कफसन्निपातनिमित्ताने कामयवेदनाभ्यदितमन्यदीयमिव विग्रहं मन्यमानस्य उपेक्षितृत्वाप्रच्युतेश्चिकित्साव्यावृत्तचेष्टस्य शरीरयात्राप्रसिद्धये व्रणालेपनवद्यथोक्तमाहारमाचरतो जल्लोषधिप्राप्त्याद्यने कतपोविशेषद्धि योगे सत्यपि शरीरनिःस्पृहत्वात्प्रतीकारानपेक्षिणः पूर्वकृतपापकर्मणः फलमिदमनेनोपायेनानुणीभवामीति चिन्तयतो रोगसहनं सम्पद्यते । (त. वा. &, ६, २१) । ३. रोगःज्वरातिसार-कास- श्वासादिः, तस्य प्रादुर्भावे सत्यपि न गच्छनिर्गताश्चिकित्सायां प्रवर्तन्ते, गच्छ्वासिनस्त्वल्प - बहुत्वालोचनया सम्यक् सहन्ते, प्रवचनोक्तविधिना प्रतिक्रियामाचरन्तीति, एवमनुष्ठिता रोगपरीषहजयः कृतो भवति । (प्राव. सू. प्र. ४, हरि. वृ. पू. ६५७ ) । ४. नानाव्याधिप्रतीकारानपेक्षत्वं रोगसहनम् । (त. इलो. १-९) । ५. कंडू या गलगंडपांडुदवथुग्रन्थिज्वरश्लीपदश्लेष्मोदुंबर कुष्ठपवनश्वासादिरोगादितः । भिक्षुः क्षीणब लोऽपि भेषजसुहृन्मं त्रानपेक्षः क्षमी दु:कर्मारिविनिमिताऽऽतिविजयी स्याद् व्याधिबाधाजयः ॥ ( प्राचा. सा. ७–१०) । ६. तपोमहिम्ना सहसा चिकित्सितुं शक्तोऽपि रोगानतिदुस्सहानपि । दुरन्तपापान्तविधित्या सुधीः स्वस्थोऽधिकुर्वीत सनत्कुमारवत् ॥ (अन. घ. ७-१०४) । ७. स्वशरीरमन्यशरीरमिव मन्यमानस्य शरीरयात्राप्रसिद्धये व्रणलेपवदाहारमा चरतो जल्लोषधाद्यनेकतपोविशेषद्धियोगेऽपि शरीरनिःस्पृहत्वात् व्याधिप्रतीकारानपेक्षिण: [ पूर्वकृतपापकर्मणः]फलमिदमनेनोपायेनानुणी भवामीति विन्तयतो रोग सहनम् । (प्रारा. सा. टी. ४० ) ।
[ रौद्र
१ यह शरीर अपवित्रता का स्थान, श्रनित्य श्रौर रक्षा से रहित ( अरक्षणीय) है । परन्तु वह सम्यक्त्वादि गुणों का पात्र ( डिब्बा) है, अतः उनके संचय के बढ़ाने, रक्षण व धारण करने का कारण होने से उसको स्थिर रखने के लिए आहार की आवश्यकता इस प्रकार रहती है जिस प्रकार कि गाड़ी के पहिए की कील के लिए श्रोंगन प्रथवा घाव के लिए मलहम के लेपन को श्रावश्यकता रहती है । यह अवश्य है कि वह शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्राप्त होना चाहिए, यदि विरुद्ध श्राहारपानादि के सेवन से रोगादि विकार हुए हैं तो उनके अधीन न होकर औषधिऋद्धि श्रादि के होते हुए भी उनसे प्रतीकार की अपेक्षा न कर रोगों को निराकुलतापूर्वक सहना, इसका नाम रोगपरीषहसहन या रोगपरीषहजय है । ३ ज्वर, अतिसार, कास और श्वास प्रादि रोगों के उत्पन्न होने पर भी गच्छ से निकल कर उनकी चिकित्सा में प्रवृत्त न होना, किन्तु गच्छ में रहते हुए होनाधिकता के विचारपूर्वक उन्हें सहन करना तथा प्रागमोक्त विधि से उनका प्रतीकार करना, इसे रोगपरीषहजय कहा जाता है।
६६३, जैन - लक्षणावली
रोगपरोषहसहन – देखो रोगपरीषहजय । रोग सहन - देखो रोगपरीषहजय । रोचक सम्यक्त्व - १. रोयगसम्मत्तं पुण रुइमित्तकरं मुणेयव्वं ॥ (श्रा. प्र. ४६ ) । २. तत्र श्रुतोक्ततत्त्वेषु हेतुदाहरणैविना । दृढा या प्रत्ययोत्पत्तिस्तद्रोचकमुदीरितम् ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६०९ ) । १ जो सम्यक्त्व जिनप्ररूपित तत्त्वों पर रुचि मात्र को उत्पन्न करने वाला है उसे रोचकसम्यक्त्व कहते हैं ।
रोधनप्रन्तराय - XXX रोधनं तु स्यान्मा भुङ्क्ष्वेति निषेधनम् ॥ ( अन. घ. ५ - ४४) । 'मत खाओ' इस प्रकार धारणक ( धरना देने वाला) आदि के द्वारा रोकने पर रोधन नाम का अन्तराय होता है ।
रोष - क्रोधनस्य पुंसस्तीव्रपरिणामो रोषः । (नि. सा. वृ. ६) ।
क्रोधी पुरुष की तीव्र परिणति का नाम रोष है । रौद्र - १. तेणिक्क - मोस-सारक्खणेसु तह चेव छत्रिहारंभे । रुद्द कसायसहियं झाणं भणियं समासेण ॥
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रौद्र] ९६४, जैन-लक्षणावलो
|लक्षणनिमित्त भ. पा. १७०३) । २. रुद्रः, क्रूराशयः, तस्य कर्म के सम्बन्ध में जो कषायसहित घ्यान होता है उसे तत्र भवं वा रौद्रम् । (स. सि. ६-२८)। ३. रुद्रः रौद्रध्यान कहते हैं। ४ निरन्तर प्राणिवधादिकरः, तत्कर्म रौद्रम् । रोदयतीति रुद्रः, क्रूर इत्यर्थः। विषयक जो चिन्तन होता है उसे रौद्रध्यान कहा तस्येदं कर्म, तत्र भवं वा रौद्रमित्युच्यते । (त. वा. जाता है। ६, २८, २)। ४. उत्सन्न-वधादिलक्षणं रौद्रम् । लक्षण- १. परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं (प्राव. सू. प्र. ४, हरि. वृ. पृ. ५८२) । ५. हिंसा- लक्ष्यते तल्लक्षणम् । बन्धपरिणामानुविधानात् परद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम् । (ध्यानश. हरि. वृ. ५; स्परप्रदेशानुप्रवेशाद् व्यतिकीर्णस्वभावत्वेऽपि सत्यन्यस्थाना. अभय. वृ. २४७)। ६. रुद्रः क्रूराशयः त्वप्रतिपत्तिकारणं लक्षणमिति समाख्यायते। (त. प्राणी रौद्र तत्र भवं ततः । (ह. पु. ५६-१९)। वा. २, ८, २)। २. जस्साभावे दव्वस्साभावो ७. प्राणिनां रोदनाद्रुद्रः क्रूरः सत्त्वेषु निघृणः । होदि तं तस्स लक्खणं । (घव. पु. ७, पृ. ६६) । पुमांस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ॥ (म. ३. उद्दिष्टष्य स्वरूपव्यवस्थापको धर्मः लक्षणम् । पु. २१-४२)। ८. रुद्रः क्रुद्धः, तत्कर्म रौद्रं तत्र भवं (न्यायकु. ३, पृ. २१) । ४. लक्ष्यते अनेनेति तल्लवा । (त. श्लो. ६-२८)। ६. हिंसायामनृते स्तेये क्षणम् । (न्यायवि. विव. १-३, पृ. ८५)। ५. तथा विषयरक्षणे । रौद्रं कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं उद्दिष्टस्यासाधारणस्वरूपनिरूपणं लक्षणम् । (लघीय. समासतः ॥ (त. सा. ७-३७)। १०. कषायक्रूरा- अभय. वृ. १-३, पृ. ६)। ६. व्यतिकीर्णवस्तुव्याशयत्वाद्धिसाऽसत्य-स्तेय-विषयसंरक्षणानंदरूपं रौद्र- वृत्तिहेतुर्लक्षणम् । (न्यायदी. पृ. ५-६)।
पंचा. का. अमृत. व. १४०)। ११. हिंसाणं- १ परस्पर में मिलित होने पर भी जिसके द्वारा देण जदो असच्चवयणेण परिणदो जो ह। तत्थेव विवक्षित वस्तु की भिन्नता का बोध होता है उसे अथिरचित्तो रुई ज्झाणं हवे तस्स ।। परविसयहरण- लक्षण कहते हैं। जैसे-बन्ध परिणाम के अनुसरण सीलो सगीयविसये सुरक्खणे दक्खो। तग्गचिता- व प्रदेशों के परस्पर अनप्रवेश से एकरूपता के होने विट्ठो णिरंतरं तं पि रुदं पि ॥ (कार्तिके. ४७५-७६)। पर भी जीव और पुद्गल को भिन्नता का बोध क्रम १२. बंधण-डहण-वियारण-मारणचिंता रउइंमि ॥ से उपयोग और रूप-रसादि के द्वारा होता है, प्रतः (ज्ञा. सा. ११)। १३. रुद्राशयभवं भीममपि रौद्रं क्रम से ये उन दोनों के लक्षण हैं। २ जिसके प्रभाव चतुर्विधम् । कीर्यमानं विदन्त्वार्याः सर्वसत्त्वाभय- में द्रव्य (वस्तु) का प्रभाव हो सकता है उसे प्रदाः ॥ रुद्रः ऋराशयः प्राणी प्रणीतस्तत्त्वदर्शिभिः । उसका लक्षण जानना चाहिए। जैसे-उपयोग के रुद्रस्य कर्म भावो वा रौद्रमित्यभिधीयते ।। (ज्ञाना. अभाव में जीव का और रूप-रसादि के अभाव में २६, १-२, पृ. २६२) । १४. रोद्रं हिंसानत-चौर्य- पुद्गल का प्रभाव हो सकता है, अतः जीव का धनसंरक्षणाभिसन्धानलक्षणम् । (समवा. अभय. लक्षण उपयोग और पुद्गल का लक्षण रूप-रसादि व. ४)। १५. रोदयत्यपरानिति रुद्रो दुःखहेतुः, तेन (मतिकत्व) है। कृतं तस्य वा कर्म रोद्रम् ॥ (योगशा. स्वो. विव. लक्षणांनमित्त-१. कर-चरणतलप्पहदिसू पंकय३-७३)। १६. चौर-जार-शात्रवजनवध-बन्धन- कुलिसादियाणि दट्टणं । जं तियकालसुहाई लक्खइ निबद्धमहद्द्वेषजनितरौद्रध्यानम् । (नि. सा. वृ. तं लक्खणणिमित्तं ॥ (ति. प. ४-१०१०) । २. श्री८६)। १७. रोदयते प्राणिन इति रुद्रो हिंस्रो रुद्रे वृक्ष-स्वस्तिक-भृङ्गार-कलशादिलक्षणवीक्षणात् त्रैकाभवं रौद्रम् ।। (भ. प्रा. मला. १७०३)। १८. पुंसां लिकस्थानमानैश्वर्यादिविशेषज्ञानं लक्षणम् । (त. वा. यदुत्पत्तिनिमित्तभूता रोषादयो रौद्रतमाः कषायाः। ३, ३६, ३, पृ. २०२)। ३. पाणि-पादतल-वक्ष:रौद्रस्य दुःखस्य च रौरवादेर्यकारणं तत्किल रौद्र- स्थलादिपु श्रीवृक्ष-स्वस्तिक-भगारक-कलश-कुलिशामाहुः ।। (प्रात्मप्र. ६२)। १६. रुद्रः क्रूराशयः दिलक्षणवीक्षणात, कालिकस्थानमानश्वर्यादिविशेप्राणी, तत्कर्म रौद्रम् । (भावप्रा. टी. ७८)। षणं लक्षणम् । (चा. सा. पृ. ६४-६५) । ४. यल्ल१ चोरी, प्राणिहिंसा, असत्य और विषयसंरक्षण क्षणं (नन्दिकावर्त-पद्म-चक्रादिकं) दृष्ट्वा पुरुषस्या(अथवा धनसंरक्षण) तथा छह प्रकार के प्रारम्भ न्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते तल्लक्षणनिमित्तं नाम ।
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लक्षणमहानिमित्त] १६५, जैन-लक्षणावली
लिब्धि (मूला. वृ. ६-३०)।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से वायु की अपेक्षा भी १ हाथ व पांव के तल आदि में कमल एवं वज्र अतिशय लघु शरीर किया जा सकता है उसका प्रादि चिह्नों को देख कर जिस ऋद्धि के प्रभाव से नाम लघिमा है। ३ जिस शक्ति के निमित्त से तीनों काल सम्बन्धी सुखादि को जान लिया जाता मेरु के बराबर शरीर से मकड़ी के तन्तुनों पर से है उसका नाम लक्षणनिमित्त ऋद्धि है।
जाया जा सकता है उसे लघिमा ऋद्धि कहते हैं। लक्षणमहानिमित्त --- सोत्थिय-णंदावत्त - सिरी- लघुकर्मा-लघु अल्पं कर्म सद्धर्मद्वेषनिमित्तं मिथ्यावच्छ-शंख-चक्कंकुस चंद-सूर - रयणायरादिलक्खणा- त्वं यस्य सोऽयं लघुकर्मा । (सा. घ. स्वो. ती. णि उर-ललाट-हत्थ-पादतलादिसू जहाकमेण अठ्ठ- १-६)। तरसद-च उसट्ठि-बत्तीसं दळूण तित्थयर-चक्कवट्टि- जिसके समीचीन धर्म से द्वेष का कारणभूत मिथ्याबलदेव-वासुदेवत्तावगमो लक्खणं णाम महाणिमित्तं। त्वादि कर्म का तीव्र उदय नहीं होता उसे लघुकर्मा (धव. पु. ६, पृ. ७३)।
कहा जाता है। स्वस्तिक, नन्दावर्त, श्रीवृक्ष, शंख, चक्र, अंकुश, चन्द्र, लघुगति-अलाबुद्रुतार्कतूलादीनां लघुगतिः । (त. सूर्य और रत्नाकर आदि चिह्नों को उर (वक्षस्थल), वा. ५, २४, २६) । मस्तक एवं हाथ व पांव के तल प्रादि में एक सौ तूंबड़ी व वेगयुक्त पाक को रुई आदि की गति को पाठ, चौंसठ और बत्तीस संख्या में देखकर क्रम से लघुगति-शीघ्रतायुक्त --गति कहा जाता है। तीर्थकर, चक्रवर्ती तथा बलदेव और वासुदेव पद का लघत्व-देखो लघिमा । लघुत्वं वायोरपि लघुतरजान लेना; इसका नाम लक्षणमहानिमित्त है। शरीरता । (योगशा. स्वो. विव. १-८)। लक्षणसंवत्सर-लक्षणेन यथावस्थितेनोपेतः संव- शरीर का वायु से भी हलका होना, इसका नाम त्सरो लक्षणसंवत्सरः । (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २०, लघुत्व ऋद्धि है। ५४, पृ. १५४)।
लघुनामकर्म-एवं सेसफासाणं पि अत्थो वत्तव्वो जो संवत्सर यथावस्थित लक्षण से युक्त होता है (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं लहुप्रभावो वह लक्षणसंवत्सर कहलाता है। संवत्सर के नक्षत्र- होदि तं लहुमणाम) । (धव. पु. ६, पृ. ७५) । संवत्सरादि पांच भेदों में यह चौथा है।
जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में लघुता लगण्डशायी-१ लग[गं] डसाई संकुचितकरणस्य होती है उसे लघुनामकर्म कहते हैं। शयनम् । (भ. प्रा. मूला. २२५) । २. लग [गं]- लतादोष-१. तथा लता इवांगानि चालयन् यः इसाई संकुचितगात्रस्य शयनम् । (भ. प्रा. मूला. तिष्ठति कायोत्सर्गेण तस्य लतादोषः। (मूला. वृ. २२५) ।
७-१७१) । २. खरवातप्रकम्पिताया लताया इव १वक्र लकड़ी का नाम लगण्ड है, जो लगण्ड के कम्पनं लतादोषः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। समान शरीर को संकुचित करके सोता है उसे लग- ३.XXX मरुद्धतलतावच्चलतो लता ॥ (अन. ण्डशायी कहते हैं।
ध. ८-११२)। लघिमा-देखो लघुत्व । १.xxx अणिलाउ १ जो लता के समान शरीर के अवयवों को चलाता लहुतरो लहिमा । (ति. प. ४-१०२७) । २. वायो- हा कायोत्सर्ग से स्थित होता है उसके लता नामक रपि लघुतरशरीरता लघिमा। (त. वा. ३, ३६, कायोत्सर्ग का दोष होता है। ३;चा. सा. ५.६७)। ३. मेरुपमाणसरीरेण मक्कड- लब्धि-१. लम्भनं लब्धिः । का पुनरसौ ? ज्ञानातंतहि परिसक्कणणिमित्तसत्ती लधिमा णाम । (धव. वरणक्षयोपशमविशेषः । (स. सि. २-१८); तपोपु. ६, पृ. ७५)। ४. लघिमा यल्लघुत्वाद्वायुवद् विशेषादृद्धिप्राप्तिर्लब्धिः । (स. सि. २-४७) । २. विचरति । (न्यायकु. ४, पृ. ११०) । ५. लघिमा इन्द्रियनिर्वृत्तिहेतुः क्षयोपशमविशेषो लब्धिः । यत्सं. यल्लघुत्वाद्वायुवत्सर्वत्र संचरति । (प्रा. योगिभ. टी. निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्ति प्रति व्याप्रियते स ६, पृ. १९६)। ६. लघुशरीरविधानं लघिमा। (त. ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषो लब्धिरिति विज्ञायते । वृत्ति श्रुत. ३-३३)।
(त.वा. २, १८, १); तपोविशेविप्राप्तिलब्धिः ।
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[लव
लब्धि ]
६६६, जैन-लक्षणावली तपोविशेषात् ऋद्धिप्राप्तिर्लब्धिरित्युच्यते । (त. वा. के विषय में जो हर्ष होता है उससे सम्पन्न होना; २, ४७, २) । ३. अर्थग्रहणशक्तिः लब्धिः । (लघीय. इसका नाम लब्धिसंवेगसम्पन्नता है । यह तीर्थंकर स्वो. वि. ५; लघीय. अभय. वृ. ५) । ४. इन्द्रिय- प्रकृति के बन्धक सोलह कारणों में छठा है। निर्वृत्तिहेतुः क्षयोपशमविशेषो लब्धिः । (धव. पु. १, लब्धिस्थान-सव्वाणि चेव चरित्तट्ठाणानि लद्धिपृ. २३६; त. श्लो. २-१८); इंदियावरणखोव- द्वाणानि । (कसायपा. पृ. ६७२) । समो लद्धी। (धव. पु. ७, पृ. ४३६); सम्मइंसण- समस्त चारित्रस्थानों को लब्धिस्थान कहते हैं । णाण-चरणेसु जीवस्स समागमो लद्धी णाम । (धव. लब्ध्यपर्याप्तक-१. उस्सासद्वारसमे भागे जो पु. ८, पृ. ८६)। ५. तपोतिशद्धिलब्धिः । (त. मरदि ण य समाणेदि । एक्को वि य पज्जत्ती लद्धिश्लो. २-४७)। ६. तत्रार्थग्रहणशक्तिर्लब्धिः । अपुण्णो हवे सो दु ॥ (कातिके. १३७) । २. उदये (प्रमाणप. पृ. ६१) । ७. सा लब्धिर्बोधिरोधस्य यः दु अपुण्णस्स य सग-सगपज्जत्तियं ण णिद्ववदि । क्षयोपशमो भवेत् ॥ (त. सा. २-४४) । ८. तत्रा- अंतोमुहुत्तमरणं लद्धिअपज्जत्तगो सो दु॥ (गो. जी. वरणक्षयोपशमप्राप्तिरूपार्थग्रहणशक्तिर्लब्धिः । (प्र. १२२)। ३. अपूर्णस्य अपर्याप्तिनामकर्मण: उदये क. मा. २-५, पृ. २२६; न्यायकु. ५, पृ. १६४)। सति, तु पुनः, जीवः स्वक-स्वकपर्याप्तीनं निष्ठापयति, ६. मदिनावरणखग्रोवसमुत्थविशुद्धी हु xxx। स एव लब्ध्यपर्याप्तक: xxx तस्य जीवस्य (गो. जी. १६५) । १०. लम्भनं लब्धिः, ज्ञाना- अन्तर्मुहूर्त एव उच्छ्वासाष्टादशभागमात्रे एव मरणं वरणकर्मक्षयोपशमविशेषः । यत्सन्निधानादात्मा द्रव्य- भवति । (गो. जी. म. प्र. १२२)। ४. लब्ध्या न्द्रियनिर्वृत्ति प्रति व्याप्रियते सा लब्धिः। (मूला. स्वस्य पर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतया अपर्याप्ता अनिव. १-१६)। ११. मतिज्ञानावरण-वीर्यान्तराय- पन्ना लब्ध्यपर्याप्ताः। (गो. जी. जी. प्र. १२२)। क्षयोपशमोत्था तत्क्षयोपशमाज्जाता पात्मनो विशुद्धिः १जो जीव उच्छ्वास के अठारहवें भागमें मर जाता अर्थग्रहणशक्तिः लब्धिः, योग्यतेत्यपरनामधया । है और एक भी पर्याप्ति को पूर्ण नहीं कर पाता है (गो. जी. म. प्र. १६५)। १२. मतिज्ञानावरणक्षयोप- उसे लब्ध्यपर्याप्तक कहा जाता है। शमोत्था विशुद्धिर्जीवस्यार्थग्रहणशक्तिलक्षणा लब्धिः। लम्बितदोष-लम्बितं नमनं मूर्ध्न: xxx। (गो. जी. जी. प्र. १६५)। १३. लम्भनं लब्धिः , (मन. प. ८-११५) । ज्ञानावरणक्षयोपशमे सति प्रात्मनः अर्थग्रहणे शक्तिः। कायोत्सर्ग के समय शिर को नमाना, यह एक (त. वृत्ति श्रुत. २-१८); तपोविशेषात् संजाता कायोत्सर्ग का दोष (८वां) है। ऋद्धिप्राप्तिर्लब्धिरुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २, लम्बोत्तरदोष-१. तथा लम्बमानो नाभेरूज़
भागो भवति वा कायोत्सर्गस्थस्योन्नमनमघोनमनं वा १ज्ञानावरण कर्म के विशेष क्षयोपशम का नाम च भवति तस्य लम्बोत्तरदोषो भवति। (मला. वसु. लब्धि है। विशिष्ट तप के माश्रय से जो ऋद्धि की वृ. ७-१७१)। २. नाभेरुपर्याजानु चोलपट्टकं प्राप्ति होती है उसे भी लब्धि कहा जाता है। ३ निबध्य स्थानं लम्बोत्तरदोषः। (योगशा. स्वो. बिव. पदार्थ के जानने की शक्ति को लब्धि कहते हैं। ३-१३०) । ४ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषय में जो १ कायोत्सर्ग में स्थित साधु का यदि नाभि का जीव का समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं। ऊर्श्वभाग लम्बायमान रहता है अथवा उन्नमन या लब्धिसंवेगसम्पन्नता–सम्मइंसण-णाण-चरणेसु प्रधानमन होता है तो उसके कायोत्सर्गविषयक यह जीवस्स समागमो लद्धी णाम, हरिसो संतोसो एक लम्बोत्तर नामक दोष होगा। २ नाभि के ऊपर संवेगो णाम, लद्धीए संवेगो लद्धिसंवेगो, तस्स संप- घटने तक चोलपट्रक को बांधकर स्थित होना, यह गणदा संपत्ती लद्धिसंवेगसंपण्णदा। xxx कायोत्सर्ग का एक लम्बोत्तर नाम का दोष है। लद्धिसंवेगो णाम तिरयणदोहलो। (धव. पु.८, लयनकर्म-देखो लेणकर्म । पृ.८६)।
लव-१.xxx सत्तत्थोवा लवित्ति णादवो। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति रूपलब्धि (ति. प. ४-२८७)। २. स्तोकलेवः सप्तभिरेव
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लवणोद]
६६७, जैन-लक्षणावलो
[लाभान्तराय
चैक: Xxx। (वरांगच. २७-४)। ३. सप्त मेरा है' इस प्रकार का ममत्वभाव ही है। इसस्तोका: लवः। (त. वा. ३,३८, ८ कार्तिके. टी. लिए उसका जो परित्याग किया जाता है उसे २२०)। ४.xxxसत्त थोवाणि से लवे। (ध्यान- लाघव कहते हैं। यह शौच धर्म का एक नामान्तर श. हरि. वृ. ३ उद्.) । ५. सत्त थोवे घेत्तूण एगो है। ३ क्रियानों में जो कुशलता होती है उसका लवो हवदि ।xxx उत्तं च-xxx सत्तत्थो- नाम लाघव है। वा लवो एक्को । (धव. पु. ३, पृ. ६५); सत्तहि लाङ्गलिकागति-१. लाङ्गलमिव लाङ्गलिका । त्थोवेहिं लवो णाम कालो होदि। (घव. पु. ४, पृ. क उपमार्थः ? यथा लाङ्गलं द्विवक्रितं तथा द्विवि३१८); सत्तहि खणेहि एगो लवो होदि। (धव. ग्रहा गतिर्लाङ्गलिका समयिकी। (त. वा. २, पु. १३, पृ. २६६)। ६.xxx सप्तस्तोका २८,४; घव. पु. १, प. ३००। २. लांगलियो भवेल्लवः । (ह. पु. ७-२०) । ७. सत्तहिं थोबएहिं दुविग्गहो । (धव. पु. ४, पृ. ३०)। लवु भणियउं। (म. पु. पुष्प. २-५, पृ. २२)। ८. १ लांगल नाम हलका है, जिस प्रकार हल में दो xxx सत्तथोएहिं होइ लमो इक्को। (भावसं. मोड़ होते हैं उसी प्रकार जिस भवान्तरगति में दो ३१३)। ६.xxx सत्तत्थोवा लवो भणियो। मोड़ हमा करते हैं तथा समय तीन लगते हैं उसे (गो. जी. ५७४; जं. दी. प. १३-५)।
लांगलिका विग्रहगति कहते हैं । १ सात स्तोकों का एक लव होता है।
लाभ-१. इच्छिददोवलद्धी लाहो णाम । (धव. लवणोद-लवणरसाम्बयोगाल्लवणोदः । लवणरसे- पु. १३, पृ. ३३४); अभिलषितार्थप्राप्तिभिः । नाम्बुना योगात्समुद्रो लवणोद इति संज्ञायते । (त. (धव. पु. १३, पृ. ३८९)। २. लाभान्तरायक्षयावा. ३, ७, २)।
ल्लाभः । (त. श्लो. २-४)। नमक के समान रस वाले जल के सम्बन्ध से समुद्र १ इच्छित पदार्थ की प्राप्ति का नाम लाभ है। का लवणोद यह नाम प्रसिद्ध है।
२ लाभान्तरायके क्षय से भोग-उपभोग वस्तुओं का लाक्षावाणिज्य-१. लाक्षा-मनःशिला-नीली-धात- लाभ हना करता है। की-टंकणादिनः । विक्रयः पापसदनं लाक्षावाणिज्य- लाभमानवशार्तमरण-व्यापारे क्रियमाणे मम मुच्यते ॥ (योगशा. ३-१०८ त्रि.श. पु. च.., सर्वत्र लाभो जायते इति लाभमानं भावयतो मरणं ३, ३४२)। २. लाक्षावाणिज्यं लाक्षाविक्रयणम् । लाभवशार्तमरणस् । (भ. प्रा. विजयो. २५)। लाक्षायाः सूक्ष्मत्रसजन्तुघातानन्तकायिकप्रबालजालो- व्यापार के करने पर मुझे सर्वत्र लाभ हुमा करता पमर्दाविनाभाविना स्वयोनिवृक्षादुद्धरणेन टङ्कण-मनः है, इस प्रकार अभिमानपूर्ण लाभ का विचार करते शिला-सकूमालिप्रभृतीनां बाह्यजीवधातहेतुत्वेन गुग्गु- हुए जो मरण होता है उसका नाम लाभवशार्तलिकाया घातकीपुष्पत्वचश्च मद्यहेतुत्वेन तद्विक्रयस्य मरण है। पाराश्रयत्वात् । (सा. घ. स्वो. टी. ५-२२)। लाभान्तराय-१. जस्स कम्मस्स उदएण लाहस्स १ लाख. मनःशिल (कुनटी), नीली (गुलिका) विग्धं होदि तं लाभंतराइयं । (धव. पु. ६, पृ. ७८); धातकी (एक वृक्ष की छाल) और टंकण (क्षार- लाभस्य विघ्नकृदन्तरायः लाभान्तरायः। (धव. पु. विशेष); इन पाप को कारणीभूत वस्तुओं के १३, पृ. ३६०); लाहविग्घयरं लाहंतराइयं । (धव. बेचने को लाक्षावाणिज्य कहा जाता है।
पु. १५, पृ. १४)। २. यदुदयवशाद्दानगुणेन प्रसिलाघव-१. द्रव्येषु ममेदंभावमूलो व्यसनोपनिपातः द्धादपि दातुर्गुहे विद्यमानमपि देयमर्थजातं याञ्चासकल इति, ततः परित्यागो लाघवम् । (भ. प्रा. कुशलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते तल्लाभान्तविजयो. ४६) । २. लघोर्भावो लाघवं अनतिचारि- रायम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७५) । त्वं शौचं प्रकर्षप्राप्ती लोभनिवृत्तिः। (मूला. वसु, १ जिसके उदय से लाभ में बाधा पहुंचे उसे लाभावृ. ५) । ३. लाघवं क्रियासु दक्षत्वं । (प्रोपपा. वृ. न्तराय कहते हैं। २ जिसके उदय से दान गुण में १६, पृ. ३३)।
प्रसिद्ध भी दाता से, घर में विद्यमान भी देय पदार्थ १ समस्त प्रापत्तियों का मूल कारण वस्तुओं में 'यह को, याचना में कुशल व गुणवान् भी याचक नहीं
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लिक्षा]
६६८, जैन-लक्षणावली
[लोनता
प्राप्त कर पाता है उसे लाभान्तराय कहा जाता लिंग भी है।
लिङ्गगम्य-लिंगगम्यं परार्थानुमानवचनप्रतिपालिक्षा-१. ताः (केशाग्रकोट्यः) अष्टौ संहताः । द्यम् । (युक्त्यनु. टी. २२) । एका लिक्षा भवति | (त. वा. ३, ३८, ७)। जो पदार्थ प्रत्यक्षज्ञान का विषय नहीं रहता वह
-)रष्टाभिर्भवेल्लिक्षाXXXI(ह. लिंगगम्य होता है। उसका प्रतिपादन परार्थानुमानपु. ७-४०)। ३. xxx अहिं चिहरग्गहिं। वचन के द्वारा किया जाता है। लिक्ख भणिय xxx। (म. पु. पुष्प. २-७, लिङ्गभिन्न-लिङ्गभिन्नं यत्र लिङ्गव्यत्ययः, यथा पृ. २४ ) । ४. अष्टभिश्चिकुराः पिण्डितैरेका इयं स्त्रीति वक्तव्ये अयं स्त्रीत्याह । (प्राव. नि. लिक्षा । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८)।
मलय. वृ. ८८२)। १ समुदित रूप में प्राठ बालानों की एक लिक्षा जहां लिंग को विपरीतता होती है उसे लिंगभिन्न हुआ करती है।
कहा जाता है। जैसे स्त्री के कथन में 'अयं स्त्री' लिङ्ग-१. वेदोदयापादितोऽभिलाषविशेषो लिङ्ग- ऐसा कहना । यहां 'मयं' इस पुल्लिग का प्रयोग न म् । (त. वा. २, ६, ३) । २. स्त्यान-प्रसव-तदु- करके उसके स्थान में 'इयम' स्त्रीलिंग का प्रयोग भयाभावसामान्यलक्षणं लिङ्गम् । (लघीय. स्वो. वि. करना चाहिए था। ७२) । ३. लिङ्गचते साधुरनेनेति लिङ्गं रजोहर- लिप्तदोष-१. गेरुय हरिदालेण व सेडीय मणो. णादिधरणलक्षणम् । (आव. नि. हरि. व. ११३१)। सिलामपिछेण । स-पवालोदणलेवेण व देयं कर. ४. अण्णहाणुववत्तिलक्खणं लिंगं । (धव. पु. १३, भायणे लित्तं ॥ (मूला. ६-५५) । २. तथा लिप्तोपृ. २४५); इदमन्तरेण इदमनुपपन्न मितीदमेव लक्ष- प्रासुकवर्णादिसंसक्तस्तेन भाजनादिना दीयमानणं लिंगस्य । (धव. पु. १३, पृ. २४६)। ५. लिंगं माहारादिकं यदि गृह्णाति तदा तस्य लिप्तनामाशनच लीनं सूक्ष्म स्वकारणं गमयति लयं गच्छति इति दोषः । (मूला. वृ. ६-४३) । ३. लिप्तमप्रासुकै। (न्यायक. ७. प. ३५३): लिगं हि साध्येन स्तोय-मत्तिका-तालकादिभिः। लिप्तर्वी-कराचर्यद
दीयमानाशनादिकम् ॥ (प्राचा. सा. ८-५३) । स्य लिंगत्वीपपत्तेः। (न्यायकु. ११, पृ. ४२७)। ४. वसादिना संसृष्टेन हस्तेन पात्रेण वा ददतोऽ६. लिङ्गं चिह्नम् । (अन. घ. स्वो. टी. ७-१८)। नादि लिप्तम् । (योगशा. स्वो. व. १-३८) । ५. १ वेद के उदय से स्त्री या पुरुष के साथ रमण की यद गरिकादिनाऽऽमेन शाकेन सलिलेन वा । प्राण जो इच्छा होती है उसे लिंग कहते हैं। २ स्त्यान पाणिना देयं तल्लिप्तं भाजनेन वा ॥ (अन. ध. (गर्भ धारण), प्रसव (सन्तानोत्पादन) और उन ५-३५)। ६. लिप्तदंर्वीकराद्यर्दीयमानमशनादिकं दोनों से रहित जो जीव की अवस्था होती है उसे लिप्तं तथाऽप्रासुकजलमृत्तिकोल्मकादिभिलिप्तर्यद्दीसामान्य से लिंग कहा जाता है । अर्थात् जिस लिंग यते तल्लिप्तम् । (भावप्रा. टी. ६६)। के पाश्रय से गर्भ धारण किया जा सकता है उसे १ गेरु, हरिताल (एक पीले रंग की धात), सेडिका स्त्रीलिंग कहा जाता है। इसी प्रकार जिस लिंग के (सफेद रंग की मिट्टी-छुई) मनःशिला, प्रामपिष्ट प्राश्रय से प्राणी सन्तान के उत्पन्न करने में समर्थ अथवा अप्रासुक जल प्रादि से लिप्त हाथों से साध होता है उसे पुल्लिग और जिसके प्राश्रय से प्राणी को प्राहार देने पर वह लिप्त दोष से दूषित होता न गर्भ धारण कर सकता है और न सन्तान को है। ४ वसा आदि से सम्बद्ध हाथ अथवा वर्तन से भी उत्पन्न कर सकता है उसे नपंसकलिंग कहा अन्न प्रादि के देने पर लिप्तदोष होता है । जाता है। साधु के रजोहरण प्रादि रूप चिह्न को लीनता-तया लीनता विविक्तशय्यासनता । सा लिग कहते हैं। ५ साध्य के साथ जो साधन का चैकान्तेनावाधेऽसंसक्ते स्त्री-पशु-पण्डकविजिते शूअविनाभाव सम्बन्ध रहता है उसका नाम लिंग न्यागार-देवकुल-सभा - पर्वत-गुहादीनामन्यतमस्मिन् है। यह लोन (परोक्ष) अर्थ का ज्ञापक होता है। स्थानेऽवस्थानं, मनोवाक्कायकषायेन्द्रियसंवृतता च । ६ भक्तप्रत्याख्यान मरण के प्रर्हादि चिह्नों में एक (योगशा. स्वो. विव. ४-८९)।
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लेणकर्म]
९६९, जैन-बक्षणावली
[लेश्या
स्त्री, पशु व नपुंसक मादि के संसर्ग से रहित निर्वाष योगवृत्तिलेश्या । (त. वा. ६, ७, ११)। ३. [कर्मएकान्त स्थान में रहना तथा मन, वचन, काय, भिः] लिम्पतीति लेश्या। xxx अथवा आत्मकषाय और इन्द्रियों को वश में रखना, यह लीनता प्रवृत्तिसंश्लेषणकरी लेश्या ।xxx कषायानुरनाम का बाह्य तप है। इसे विविक्तशय्यासन के जिता काय-वाङ्मनोयोगप्रवृत्तिलेश्या। xxx नाम से भी कहा जाता है।
कषायानुविद्धा योगप्रवृत्तिर्लेश्या। (धव. पु. १. पृ. लेणकर्म-लेणं पब्वरो, तम्हि घडिदपडिमानो १४६-५०); कर्मस्कन्धरात्मानं लिम्पतीति लेश्या । लेणकम्मं । (धव. पु. ६, पृ. २४६); सिलामय- (धव. पु. १, पृ. ३८६); कम्मलेवहेदूदो जोगपव्वदेहितो अभेदेण घडिदपडिमानो लेणकम्माणि ___कसाया चेव लेस्सा । (घव. प. २,५.४३१); का णाम । (घव. पु. १३, पृ. १०); पव्वदेसु लेस्सा णाम ? जीव-कम्माणं संसिलेसणयरी, मिच्छसुक्खदजिणादिपडिमामो लेणकम्माणि णाम । तासंजम-कसाय-जोगा त्ति भणिदं होदि। (घव. (धव. पु. १३, पृ. २०२); पत्थर-कट्टएहि जाणि पु. ८, पृ. ३५६); [णोप्रागमदो भावलेस्सा] पव्वदेसु घडिदाणि रूवाणि ताणि लेणकम्माणि मिच्छत्तासंजम-कसायाणुरंजियजोगपवुत्ती कम्मपो. णाम । (घव. पु. १४, पृ. ५)।
ग्गलादाणणिमित्ता, मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगजलेण (लयन) नाम पबंत का है, उससे प्रभेद रूप में णिदसंसकारो ति वृत्तं होदि । (धव. पु. १६, पृ. जो प्रतिमायें रची जाती हैं, इसे लेणकर्म या लयन- ४८५)। ४. कषायोदयतो योगप्रवृत्तिरुपदर्शिता । कर्म कहते हैं।
लेश्या जीवस्य कृष्णादिः[दि-]षड्भेदा भावतोऽनलेपकर्म-कड-सक्खर-मट्टियादीणं लेवो लेप्पं, तेण धैः॥(त. श्लो. २, ६, ११); कषायानुरंजिता योगघडिदपडिमानो लेप्पकम्मं । (अव. पु. ६, पृ. २४९); प्रवृत्तिलेश्या। (त. श्लो. ४-२०; भ. प्रा. विजयो. मट्टिया-खड-सक्करादिलेवेण घडिदामो पडिमानो ४८ व ७०; मूला. वृ. १२-३; मन. घ. स्वो. टी. लेप्पकम्माणि णाम । (धव. पु. १३, पृ. ६); ७-९८% भ. प्रा. मला. ७० त. वृत्ति श्रुत. ४, मट्टिय-छुहादीहि कदपडिमानो लेप्पकम्माणि णाम । २०)। ५. योगवृत्तिर्भवेल्लेश्या कषायोदयरञ्जिता। (धव. पु. १३, पृ. २०२); लेप्पयारेहि लेविऊण भावतो द्रव्यतः कायनामोदयकृताङ्गरुक् ॥ (त. सा. जाणि णिप्पाइदाणि रूवाणि ताणि लेप्पकम्माणि २-८८)। ६. प्रवृत्तियोंगिकी लेश्या कषायोदयणाम । (धव. पु. १४, पृ. ५) ।
रञ्जिता। (पंचसं. अमित. १-२५३) । ७. जोगकट, शर्करा और मिट्टी मादि के लेप से जो प्रति- पउत्ती लेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होई । (गो. जी. मानों की रचना की जाती है उसे लेपकर्म कहा ४६०)। ८. लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या । जाता है।
(स्थाना. अभय. यू. ५१, पृ. ३१ उद्.); कृष्णादिलेपकृतमाहार-१. लेवड हस्तलेपकारि। (भ. द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो यात्मनः । स्फटिकस्येव प्रा. विजयो. २२०)। २. लेवड हस्तलेपकारि तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ।। (ध्यानश. हरि. वृ. १४ घोलादिकम् । (भ. प्रा. मूला. २२०)।
उन्.; स्थाना. अभय. व.पृ. ३१ उ.; बृहत्सं. मलय. १ जिस माहार से हाथ लिप्त होता है उसे लेप्य वृ. १६३ उद्.)। ६. कृष्ण-नील-कापोत-तेजःपद्मया लेपकृत पाहार कहा जाता है।
शुक्ल-वर्णद्रव्यसाचिव्यादात्मनस्तदनुरूप: परिणामः । लेप्याहार-देखो लेपकृतमाहार ।
(योगशा. स्वो. विव. ४-४४) । १०. लिप्यते प्रात्मा लेश्या-१. लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णिययपुण्ण- कर्मणा सहानयेति लेश्या कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मपावं च । जीवो त्ति होइ लेस्सा लेस्सागुणजाणय- नः परिणामविशेषः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १७, पृ. क्खाया ॥ (प्रा. पंचसं. १-१४२; पब. पु. १, पृ. ३३०) । ११. लिश्यते श्लिश्यते जीवः कर्मणा सहा१५० उद्.; गो. जी. ४८६) । २. कषायोदयरंजि. नयेति लेश्या कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मनः शुभाशुभता योगप्रवृत्तिलेश्या। (त. वा. २, ६, ८, पंचा. रूपः परिणामविशेषः । (हत्सं. मलय. व. १९३)। का. जय. वृ. १४०); कषायश्लेषप्रकर्षांपकर्षयुक्ता १२. मनोवाक्कायपूर्विकाः कृष्णादिद्रव्यसम्बन्धजनि
ल. १२२
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लोक ]
ताः खल्वात्मपरिणामा लेश्या: । (श्राव. भा. मलय. वृ. ६६, पृ. २६३ ) । १३. XX X कसाय- जोगप्पवित्तिदो लेस्सा ॥ ( भावत्रि. १७) । १४. अनया कर्मभिरात्मानं लिम्पतीति लेश्या, XX X कषायोदयानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्वा लेश्या । (गो. जी. जी. प्र. ४६६) ।
१ जीव जिसके द्वारा अपने को पुण्य-पाप से लिप्त करता है उसे लेश्या कहते हैं । २ कषाय के उदय सेनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहा जाता है । ८ जिसके द्वारा प्राणी कर्म से संश्लिष्ट होता है उसका नाम लेश्या है । कृष्ण आदि द्रव्य की सहायता से जो जीव का परिणाम होता है उसे लेश्या कहते हैं ।
लोक - १. लोयदि आलोयदि पलोयदि सल्लोयदि ति एत्थो । जम्हा जिणेहि कसिणं तेणेसो बुच्चदे लोप्रो ।। (मूला. ७-४३) । २. प्रत्थि प्रणन्ताणन्तं आगासं तस्स मज्झयारम्मि । लोश्रो अणाइनिहणो तिभेयभिण्णो हवइ णिच्चो | (पउमच. ३ - १८ ) । ३. श्रादिणिहणेण हीणो पर्गादिसरूवेण एस संजादो । जीवाजीवसमिद्धो सव्वण्हावलोइन लोश्रो || ( ति. प. १ - १३३ ) । ४. अनन्तसर्वमाकाशं मध्ये तस्य प्रतिष्ठितः । सुप्रतिष्ठितसंस्थानो लोकः × × ×॥ ( वरांगच . ५ - १ ) । ५. प्रलोकाकाशस्यानन्तस्य बहुमध्ये सुप्रतिष्ठिक संस्थानो लोकः ऊर्ध्वमधस्तिर्य - मृदङ्ग-वेत्रासन-झल्लर्याकृतिः तनुवातवलयपरिक्षित ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्षु प्रतरवृत्तश्चतुर्दशरज्ज्वायामः । (त. बा. १,२०, १२, पृ. ७६ ) ; यत्र पुण्य-पापफललोकनं सः लोकः । पुण्य-पापयोः कर्मणोः फलं सुख-दुःखलक्षणं यत्रालोक्यते स लोकः । × × × लोकतीति वा लोकः । लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोकः । (त. वा. ५, १२, ११-१२ ) ; लोक्यत इति वा लोकः । सर्वज्ञेनानन्ताप्रतिहत केवलदर्शनेन लोक्यते यः सः लोकः । (त. वा. ५, १२, १३) । ६. को लोगो नाम ? सेढिघणो । (घव. पु. ३, पृ. ३३); लोक्यन्ते उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादिद्रव्याणि स लोकः । ( धव. पु. ४, पृ. ६ ) ; एत्थ लोगेत्ति वृत्ते सत्तररज्जूणं घणो घेत्तव्वो । (घव. पु. ४, पृ. १०); लोगो प्रकट्टिमो खलु प्रणाहिणिहणो सहावणिव्वत्तो। जीवाजीवेहि फुडो णिच्चो तलरुक्खसठाणो ॥ ( धव. पु. ४, पृ. ११ उद्.) ; तत्थ
[लोक
लोक्यन्ते उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादयः पदार्थाः स लोकः । ( धव. पु. ११, पृ. २; धव. पु. १३, पृ. २८८ व ३४७) । ७. लोक्यन्तेऽस्मिन् निरीक्ष्यन्ते जी - वाद्यर्थाः सपर्ययाः । इति लोकस्य लोकत्वं निराहुस्तत्वदर्शिनः । लोको कृत्रिमो ज्ञेयो जीवाद्यर्थावगाहकः । नित्य: स्वभावनिर्वृत्तः सोऽनन्ताकाशमध्यगः ।। (म. पु. ४, १३ व १५ ) । ८. सामान्यविशेषात्मकोऽनाद्यपर्यवसानश्चतुर्दशरज्ज्वात्मको वा लोकः । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ५, १, पृ. ११९ ) ; लोक: ऊर्ध्वावस्तिर्यग्रूपो वैशाखस्थान स्थित कटिन्यस्तकरयुग्मपुरुष सदृशः पञ्चास्तिकायात्मको वा । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ५, १२, पृ. १२५ ) । ६. धर्माधर्मास्तिकायाभ्यां व्याप्तः कालाणुभिस्तथा । व्योम्नि पुद्गलसंछन्नो लोकः स्यात् क्षेत्रमात्मनाम् ॥ श्रधो वेत्रासनाकारो मध्येऽसौ झल्लरीसमः । ऊर्ध्वं मृदङ्गसंस्थानो लोकः सर्वज्ञवर्णितः । (त.सा. २, १७६-७७) । १०. स्वलक्षणं हि लोकस्य षड् द्रव्यसमवायात्मकत्वम् । ( प्रव. सा. अमृत. वृ. २-३६) । ११. सव्वागासमणंतं तस्स य बहुमज्भदेस भाग हि । लोगोसंखपदेसो जगसेढिघणप्पमाणो हु || लोगो अकिट्टिमो खलु प्रणाइ- णिहणो सहावणिव्वत्तो। जीवाजीवेहि फुढो सव्वागासवयवो णिच्चो || धम्माधम्मागासा गदिरागदि जीव-पोग्गलाणं च । जावत्तावल्लोगो XXX ॥ ( त्रि. सा. ३ - ५ ) । १२. श्रनादिनिधनो लोको व्योमस्थोऽकृत्रिमः स्थिरः । नैतस्य विद्यते कर्ता गगनस्येव कश्चन । (धर्मप. १३ - ६२ ) । १३. लोक्य ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यस्मिन् परमात्मस्वरूपे यस्य केवलज्ञानेन वा स भवति लोकः । (परमा वृ. १- ११० ) । १४. धम्माघमा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिये । श्रायासे सो लोगो XXX ॥ ( द्रव्यसं. २०) । १५. लोक्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोक इति वचनात् पुद्गलादिषड् द्रव्यैनिष्पन्नोऽयं लोकः, न चान्येन केनापि पुरुषविशेषेण क्रियते ह्रीयते धीयते वेति । (पंचा. का. जय. वृ. ७६); षड्द्रव्यसमूहात्म को लोकः । (पंचा. का. जय. वृ. ८७ ) । १६. धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत्क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोक: XX X ( स्थाना. अभय वृ. पू. १४ उद्.) ; एकोऽविवक्षितासंख्य प्रदेशाघ स्तिर्यगादिदिभेदतया लोक्यते दृश्यते केवलालोकेनेति लोक: धर्मास्तिकायादिद्रव्याधारभूत आकाशविशेषः । ( स्था
९७०, जैन - लक्षणावली
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लोक]
६७१, जन-लक्षणावली [लोकपूरणसमुद्धात ना. अभय. वृ. ५, पृ. १४) । १७. लोकः पंचास्ति- नित्या तावंतो लोकसंज्ञा जिनवरगदिताः xxxi कायमयः । (प्रौपपा. अभय. वृ. ३४, पृ. ७६)। (अध्यात्मक. ३-३४) । १८. कटिस्थकरवैशाखस्थानकस्थनराकृतिः। द्रव्यः २ जो अनन्तानन्त आकाश के ठीक मध्य भाग में पूर्णः स तु लोकः स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मकः ॥ वेत्रा- स्थित होता हुआ अनादि-अनन्त है तथा प्रधः, मध्य सनसमोऽधस्तान्मध्यतो झल्लरीनिभः । अग्रे मुरज- और ऊर्ध्व लोक के भेद से तीन प्रकार का है उसे संकाशो लोकः स्यादेवमाकृतिः ॥ (त्रि. श. प. च. लोक कहा जाता है। ३ जो आदि व पन्त से रहित २, ३, ४७८-६)। १६. लोक्यते प्रमाणेन दृश्यते होकर स्वभाव से उत्पन्न हुआ है तथा जीवादि छह इति लोकः । अयं चेह पञ्चास्तिकायात्मको गृह्यते। द्रव्यों से समृद्ध है उसे लोक कहते हैं । ५ जो अनन्त (प्राव. भा. मलय. वृ. १६६, पृ. ५६१); लोक्यते प्रलोकाकाश के ठीक मध्य में सुप्रतिष्ठक के प्राकार इति लोकः । (प्राव. नि. मलय. वृ. १०७०, पृ. से स्थित होकर तनुवातवलयादि से वेष्टित है वह ५९४); लोको हि चतुर्दशरज्ज्वात्मकत्वेन परिमितः। लोक कहलाता है। (प्राव. नि. मलय. वृ. १०६१ पृ. ५६८) । २०. लोकनाली-देखो वसनाली। लोगो नाम सव्वालोक्यन्ते जीवादयः पदार्था यत्रासौ लोकस्त्रिचत्वा- गासमज्झत्थो चोद्दसरज्जुआयामोxxx चोदसरिशदधिकशतत्रयपरिमितरज्जुपरिमाणः। (रत्नक. रज्जुप्रायद-रज्जुवग्गमुह-लोगणालिगब्भो । (धव. टी. २-३) । २१. जोवेहि पुग्गले हि य धम्माधम्मे- पु. ४, पृ. २०)। हि जं च कालेहिं । उद्धद्धं तं लोगं सेसमलोगं हवे- लोक के मध्य में चौदह राज लम्बी और एक वर्गणतं ।। लोगमणाइअणिहणं अकिट्रिम तिविहभेय- राज महवाली लोकनाली स्थित है। संठाणं । खंधादो तं भणियं पोग्गलदव्वाण सव्वदरि- लोकपाल-१.लोकपाला: लोकं पालयन्तीति लोकसीहिं ।। (द्रव्यस्व. प्र. नयच.९८-९९); विगय- पाला:। (स. सि. ४-४)। २. प्रारक्षिकार्थचरशिरो कडिहत्थो ताडियजंघो जुवा णरो उड्ढो। तेणा- समा लोकपालाः। लोकं पालयन्तीति लोकपाला यारेण ठिो तिविहो लोगो मणेयम्वो॥ (द्रव्यस्व. अर्थचरारक्षिकसमाः ते वेदितव्याः। (त. वा. ४, प्र. नयच. १४५) । २२. षद्रव्यसमवायो लोकः। ४, ६)। ३. लोकपालास्तु लोकान्तपालकाः दुर्ग(लघीय. अभय. वृ. पृ. ७७) । २३. जीवाद्यर्थचितो पालवत् । (म. पु. २२-२८) । ४. पारक्षकार्थचरदिवर्धमुरजाकारस्त्रिवातीवृत्तः, स्कन्धः खेऽतिमहा- पुंस्थानीया लोकपालकाः ॥ (त्रि. श. पु. च. २, ३, ननादिनिधनो लोकः सदास्ते स्वयम् । नन मध्येऽत्र ७७३) । ५. तथा लोकान् पालयन्तीति लोकपाला:, सुरान् यथायथमधः श्वभ्रांस्तिरश्चोभित:, कर्मोद- ते चारक्षकचौरोद्धरणिकरस्थानीयाः । (बहत्स. चिरुपप्लुतानधियतः सिध्यै मनो धावति ॥ (अन. मलय. वृ. २)।
. ६-७६); लोक्यन्ते दश्यन्ते जीवादयः पदार्था २ जो लोक का पालन किया करते हैं वे लोकपाल अस्मिनिति लोकः । (प्रन. घ. स्वो. टी. ६-७६)। कहलाते हैं। वे कोतवाल अथवा चार पुरुष के २४. जम्बद्वीपोऽस्य मध्यस्थो मन्दरस्तस्य मध्यगः। समान हुमा करते हैं। तस्माद्विभागो लोकस्य तिर्यगूोऽधरस्तथा ॥ तिर्य- लोकपूरणसमुद्घात-१. वेदनीयस्य बहुत्वादल्पग्लोकस्य बाहल्यं मेर्वायामसमं स्मृतम् । तस्मादूवों त्वाच्चायुषोऽनाभोगपूर्वकमायुःसमकरणार्थं द्रव्यस्वभवेदूवो ह्यधस्तादधरोऽपि च ॥ झल्लरीसदृशो भावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुद्बुदाविर्भावोपमध्यो वेत्रासनसमोऽधरः। ऊवो मृदंगसंस्थान इति शमनवद् देहस्थात्मप्रदेशानां बहिः समुद्घातनं केवलोकोऽर्हतोदितः ॥ (लोकवि. १, ४-६)। २५. लिसमुद्घातः । (त. वा. १,२०, १२, पृ. ७७)। लोक्यन्ते विलोक्यन्ते धर्मादयः पदार्थाः यस्मिन्निति २. लोगपूरणसमुग्धादो णाम के वलिजीवपदेसाण लोकः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-१२)। २६. लोक्यते घणलोगमेत्ताणं सव्वलोगापूरणं । (धव. पु. ४, पृ. दृश्यते यत्र जीवाद्यर्थकदम्बकः । स लोकस्त्रिविधो- २६); चउत्थसमए सव्वलोगमावूरिय घादिदसेसऽनादिनिधनः पुरुषाकृतिः ॥ (धर्मसं. श्रा. १०-६८)। ट्ठिदीए एगसमएण घादिदअसंखेज्जाभागं संघादिद२७. यावलवाकाश देशेषु सकलचिदचित्तत्त्वसत्तास्ति सेसाणभागस्स घादिदमणताभागं सम्वकम्माणं ठवि
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लोकबिंदुसार]
दंतोमुहुत्तट्ठिदि लोगवूरणं करेदि । ( षव. पु. १०, पृ. ३२१ ) ; चउत्यसमए सव्वलोगागासमावूरिय सेसट्टिदि - अणुभागाणमसंखेज्जे भागे प्रणंते भागे च घादिय जमवद्वाणं तं लोगपूरणं णाम । ( घव. पु. १३, पृ. ८४) ।
१ जब वेदनीय कर्म की स्थिति बहुत घोर प्रायु कर्म की स्थिति कम होती है तब केवली के ग्रात्मप्रदेश उपयोग के विना ही उक्त कर्मों की स्थिति को श्रायु के समान करने के लिए शरीर से बाहिर निकल कर क्रम से चार समयों में समस्त लोक को व्याप्त कर देते हैं। इस प्रक्रिया का नाम केवलसमुद्घात है । जिस प्रकार मद्य द्रव्य के फेन का वेग बुदबुद के आविर्भाव में शान्त हो जाता है उसी प्रकार इस केवलिसमुद्घात में केवली की प्रायु को स्थिति के समान वेदनीय श्रादि अन्य प्रघातिया कर्मों की भी स्थिति हो जाती है । लोकबिंदुसार - १ यत्राष्टी व्यवहाराश्चत्वारि बीजानि परिकर्म - राशि क्रियाविभागश्च सर्वश्रुतसंपदुपदिष्टा तत्खलु लोकविन्दुसारम् । (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७८) । २. चोद्दसमं लोगबिंदुसारं तं च इमम्मि लोए सुप्रलोए वा बिंदुमिव अक्खरस्स सव्वुतमं सव्वक्खरसन्निवायपरि (? ढित) सणश्रो लोगबिन्दुसारं भणियं, तस्स य पयपरिमाणं श्रद्धतेरस - पकोडी १४ । से तं पुण्वगते । ( नन्दी. हरि वृ. १०६, पृ. ८६ प्रा. प्रन्थ प. अहमदाबाद ) । ३. लोकविन्दुसारं णाम पुव्वं दसण्हं वत्थूणं १० विसयपाहुडाणं २०० बारकोडि- पण्णास लक्खपदेहि १२५०००००० अष्टौ व्यवहारान् चत्वारि बीजानि मोक्षगमनक्रियाः मोक्षसुखं च कथयति । ( धव. पु. १, पृ. १२२ ) ; यत्राष्टो ब्यवहाराश्चत्वारि बीजानि क्रियाविभागश्चोपदिष्टम्तल्लोकबिंदुसारम् । (घव. पु. ६, पृ. २२४ ) । ४. लोकबिन्दुसारो परियम्मव्यवहार-रज्जुरासि-कलासवण्ण-जावंताव-वग्ग घण - बीजगणिय- मोक्खाणं सरूवं वण्णेदि । (जयष. १, पृ. १४८ ) । ५. लोकबिन्दुसारं च चतुर्दशमम्, तच्चास्मिन् लोके श्रुतलोके वा बिन्दुरिवाक्षरस्य सर्वोत्तम - मिति, सर्वाक्षरसन्निपातप्रतिष्ठितत्वेन च लोकबिन्दुसारं भणितम्, तत्प्रमाणमर्द्ध त्रयोदश- पदकोट्यः । ( समवा. वृ. १४७ ) । ६ पञ्चाशल्लक्ष- द्वादस कोटिपदं लोकबिन्दुसारं चतुर्दशं पूर्वम् । (भुतभ. १३, पू.
६७२, जैन-लक्षणावली
[लोकमूढ़ता
१७५) । ७. निर्वाणसुखहेतुभूतं सार्द्धद्वादशकोटिपदप्रमाणं लोकबिंदुसार पूर्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. १, २०) । ८. तिल्लोयबिदुसारं कोडीबारह दसग्धपणलक्खं । जत्थ पयाणि तिलोयं छत्तीसं गुणिदपरियम्मं ॥ ग्रडववहारात्थि पुणो अंक विपासादि चारि वीजाई | मोक्खसरूवग्गमणकारणसुषम्मकिरिया || लोयस्स बिदवयवा वणिज्जंते च एत्थ सारं च । तं लोर्याबदुसारं चोहसपुब्वं णमंसामि ॥ (अंगप. २, ११४-१६, पृ. ३०१-२) ।
१ जिस श्रुत में प्राठ व्यवहारों, चार बीजों, परिकर्म और राशि क्रिया के विभाग का उपदेश दिया गया है वह लोकबिंदुसार कहलाता है । २ चौदहवां पूर्व जो लोकविदुसार है वह इस लोक में श्रथवा श्रुतलोक में अक्षर की बिंदु के समान सर्वोतम है, इस कारण से तथा समस्त अक्षरों के संयोग पर प्रतिष्ठित होने के कारण से भी लोकबिंदुसार कहलाता है । उसका प्रमाण साढ़े बारह करोड़ पदों रूप है ।
जनस्य
लोकमूढ़ता - १. श्रापगा - सागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ।। ( रत्नक. १-२२) । २. गङ्गादिनदीतीर्थस्नानसमुद्रस्नान-प्रातः स्नान- जलप्रवेशमरणाग्निप्रवेशमरण - गोग्रहणादिमरण-भूम्यग्नि- वटवृक्षपूजादीनि पुण्यकार - णानि भवन्तीति यद्वदन्ति तल्लोकमूढत्वं विज्ञेयम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४१ ) । ३. गेहभक्ताग्नि-भू-स्वर्णरत्नास्त्राद्यपकारकम् । वस्तु यत्तत्र वंद्यधीर्लोकमूढता ॥ ( आचा. सा. ३-४५)। ४. सूर्यार्घो वह्निसत्कारो गोमूत्रस्य निषेवणम् । तत्पृष्टान्तनमस्कारो भृगुपातादिसाधनम् ॥ देहली- गेहरत्नाश्व- गज-शस्त्रादिपूजनम् । नदी- हृद- समुद्रेषु मज्जनं पुण्यहेतवे ॥ संक्रान्ती च तिलस्नानं दानं च ग्रहणादिषु । संध्यायां मौनमित्यादि त्यज्यतां लोकमूढताम् || ( भावसं वाम. ४०२ - ४ ) । ५. नद्यादेः स्नानमह्यादेरच्चरमादेः समुच्चयः । गिरिपातादि लोकज्ञैर्लोकमूढं निगद्यते ।। ( धर्मसं. श्री. ४-४१ ) । ६. कुदेवाराधनां कुर्यादैहिकश्रेयसे कुधीः । मृषालोकोपचारत्वादश्रेया लोकमूढता ॥ ( लाटीसं. ४, ११८) ।
१ नवी या समुद्र में स्नान करना, बालु व पत्थरों का ढेर लगाना, पर्वत से गिरना तथा श्रग्नि में
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लोकवाद ]
पढ़ना - सती होना प्रादि-इत्यादि प्रज्ञानतापूर्ण क्रियाओं को लोकमूढता कहा जाता है । लोकवाद - लोयपसिद्धी सत्था पंचाली पंचपंड. वत्थी ही । सइउट्टिया ण रुज्झद्द मिलिदेहि सुरेहि दुव्वारा ॥ ( अंगप. २ - ३३, पृ. २८२ ) । द्रौपदी पांच पाण्डवों की स्त्री थी, इत्यादि लोकप्रसिद्धि को लोकवाद कहा जाता है। ऐसी दुर्वार प्रसिद्धि एक बार उठी कि उसका रोकना देवों द्वारा भी कठिन हो जाता है । लोकविचय- देखो संस्थानविचय । प्रकृत्रिमो विचित्रात्मा मध्ये च त्रसराजिमान् । मरुत्रयीवृतो लोकः प्रान्ते तद्धामनिष्ठितः ।। ( उपासका ६५६) । यह लोक प्रकृत्रिम है-किसी ब्रह्मा आदि के द्वारा रचा नहीं गया है, उसका स्वरूप विचित्र है - वह अनेक प्राकृतियों में विभक्त है, वह मध्य में त्रसराजि-- त्रस जीवों युक्त त्रसनाली-से सहित है, तीन वातवलयों से वेष्टित है और अन्त में सिद्धों के स्थान से परिपूर्ण है; इत्यादि प्रकार से लोक के विषय में जो चिन्तन किया जाता है वह लोकविचय धर्मध्यान कहलाता है । लोकाकाश-देखो लोक । १. पोग्गल-जीवणिबद्धो घम्माधम्मात्थिकाय- कालड्ढो । वट्टदि श्रायासे जो लोगो सो सव्वकाले दु || ( प्रव. सा. २-३६) । २. सव्वेसि जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च । जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि श्रायासं ॥ जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणा । (पंचा. का. ६०-६१) । ३. लोश्रो अकिट्टिमो खलु अणाइणि सहावणपणो । जीवाजीवेहि भुडो णिच्चो तालरुक्ख संठाणो ॥ धम्माधम्मागासा गदिरागदि जीव- पुग्गलाणं च । जावत्तावल्लोगो Xx X X॥ (मूला. ८ २२ - २३ ) । ४. धम्माधम्मणिबद्धा गदिरागदी जीव-पोग्गलाणं च । जेत्तियमेत्ताप्रासे लोयामास स णादव्वो । लोयायासद्वाणं सयंपहाणं सदव्वछक्कं हु । सव्वमलोयायासं तं सव्वासं हवे नियमा ॥ ( ति प १, १३४ - ३५) । ५. धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक इति । (स. सि. ५ - १२ ) । ६. द्रव्यंस्तु पञ्चभिर्व्याप्य लोकाकाशं प्रतिष्ठितम् । ( वरांगच. २६-३२ ) । ७. यत्र- पुण्यपापफललोकनं स लोकः । पुण्य-पापयोः कर्मणोः फलं सुख-दुःख लक्षणं यत्रा - ( यत्र ) लोक्यते स लोकः ।
[लोकानुप्रेक्षा
कः पुनरसी ? श्रात्मा । लोकयतीति वा लोकः । लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोकः । × × × लोक्यत इति वा लोकः । सर्वज्ञेनानन्ताऽप्रतिहतकेवलदर्शनेन लोक्यते यः स लोकः । तेन धर्मादीनामपि लोकत्वं सिद्धम् । (त. वा. ५, १२, १०-१३ ) । ८. असंख्येयप्रदेशात्मा लोकाकाशविमिश्रितः । कालः पञ्चास्तिकायाश्च सप्रपंचा इहाखिलाः ॥ लोक्यन्ते येन तेनायं लोक इत्यभिलप्यते । (ह. पु. ४-५, व ४–६) । ε. सव्वायासमणतं तस्स य बहुमज्भसंद्वियो लोभो । सो केवि णेव को ण य घरिश्रो हरि-हरा दीहि ॥ श्रण्णोष्णपवेसेण य दव्वाणं श्रच्छणं भवे लो | (कार्तिके. ११५-१६ ) ; दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ । ( कार्तिके. १२१) । १०. यत्र धर्माधर्म- जीव- पुद्गलानां सम्भवोऽस्ति तल्लोकाकाशम् । (योगशा. स्वो विव. ४, ६७) । ११. पुद्गलादिपदार्थानामवगा है कलक्षणः । लोकाकाशः स्मृतो व्यापी XXX ॥ ( धर्मश. २१-८६ ) । १२. लोकस्य सम्बन्धी प्राकाशः लोकाकाशः । (त. वृत्ति श्रुत. ५ - १२) |
१ जो जीव और पुद्गलों से सम्बद्ध तथा धर्म व अधर्म अस्तिकायों एवं काल से व्याप्त होकर सदा प्रकाश में रहता है उसे लोकाकाश कहा जाता है । ५ जहां धर्मादि द्रव्य देखे जाते हैं उसका नाम लोकाकाश है । ७ जिसमें पुण्य पाप कर्मों का सुखदुःख रूप फल देखा जाता है वह लोक कहलाता है । इस निरुक्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा होता है । अथवा जो समस्त पदार्थों को लोकता है — देखता है - उसे लोक जानना चाहिए । इस निरुक्ति के अनुसार भी लोक शब्द से श्रात्मा का ही ग्रहण होता है । प्रथवा सर्वज्ञ केवलदर्शन के द्वारा जिसको लोकते हैं - देखते हैं, उसे लोक माना जाता है । इस निरुक्ति के अनुसार धर्मादि द्रव्यों के भी लोकरूपता सिद्ध है ।
लोकाख्यान - लोकोद्देश- निरुक्त्यादिवर्णनं यत्सविस्तरम् । लोकाख्यानं तदाम्नातं विशोषितदिगन्तरम् ।। ( म. पु. ४-४)।
पुराणों में जो लोक के उद्देश और निरुक्ति श्रादि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता है उसे लोकाख्यान कहा जाता है । लोकानुप्रेक्षा- देखो लोक । १. जीवादिपयद्वाणं
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लोकानुप्रेक्षा ]
समवायो सो णिरुच्चये लोगो । तिविहो हवेइ लोगो ग्रह - मज्झिम - उड्ढभेण ॥ णिरया हवंति हेट्ठा मझे दीवंबुरासयो संखा । सग्गो तिसद्विभेश्रो एत्तो उड़ढ हवे मोक्खो || इगितीस सत्त चत्तारि दोणि एक्क्क छक्क चदु कप्पे । त्तित्तिय एक्केक्केंदि [द]णामा उआदि तेसट्टी || असुहेण णिरय - तिरियं सुहउवजोगेण दिविज - णरसोक्खं । सुद्धेण लहइ सिद्धि एवं लोयं विचितिज्जो || ( द्वादशानु. ३९-४२) । २. एगविहो खलु लोम्रो दुविहो तिविहो तहा बहुविहो वा । दव्वेहि पज्जएहि य चितिज्जो लोयसब्भावं ।। (मूला. ८- २१) । ३. समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिर्व्याख्यातः, तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा । (स- सि. ६-७ ) । ४. लोकसंस्थानादिविधिर्व्याख्यातः । समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिर्व्याख्यातः (तृतीय - चतुर्थाध्याययोः) तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा । (त. वा. ६, ७, ८ ) । ५. नित्याध्वगेन जीवेन भ्रमता लोकवत्र्त्मनि । वसतिस्थानवत्कानि कुलान्यध्युषितानि न ।। (त. सा. ६-४० ) ६. प्र सारिताङ्घ्रिणा लोकः कटिनिक्षिप्तपाणिना । तुल्यः पुंसोर्ध्वमध्याधो विभागस्त्रिमरुद्वृतः ॥ ( क्षत्रचू. ११-७० ) । ७. अथ लोकानुप्रेक्षावर्णनं विधीयते - जीवादिपदार्थाधिकरणं लोकः, समन्तादनन्तानन्तस्वात्मप्रतिष्ठाऽऽकाश सुबहु मध्य प्रदेश स्थित स्तनुवातघ नानिल-घनोदधिवेष्टितो लोकस्तन्मध्यगता वसनाडी, तन्मध्ये महामेरुस्तस्याधः स्थिता नरकप्रस्तराः, मेरुपरिवृता: शुभनामानो द्वीप समुद्रा द्विद्विविष्कम्भा वलयाकृतयो मेरोरुपरि स्वर्गपटलानि तेषामुपरि सिद्धक्षेत्रम् । एवमघस्तिर्यगूर्ध्वभेदभिन्नस्य चतुर्दशरज्जू त्सेधस्य सप्तक - पंचैक रज्जुप्रसृतपूर्वापरविभागस्य सप्तरज्जु विस्तार-दक्षिणोत्तरदिग्विभागस्य वेत्रासन-झल्लरी - मृदंगसमानाकारस्य षद्रव्यनिचितस्याकृत्रिमस्यानादिनिधनस्य लोकस्य स्वभावपरिणामपरिणाहसंस्थानाऽनुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा । (चा. सा. पृ. ८८) ८. अनन्तानन्ताकाशबहुमध्यप्रदेशे घनोदधि-घनवात-तनुवाताभिधानवायुत्रयवेfष्टितानादिनिधन कृत्रिम निश्चला संख्यातप्रदेशो लोकोsस्ति, तस्याकारः कथ्यते - (पृ. १०० - २६ ) । x x x निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमाह्लादसुखा
६७४, जैन-लक्षणावली
[ लोकान्तिक
मृतरसास्वादानुभवनेन च या भावना सेव निश्चयलोकानुप्रेक्षा, शेषा पुनर्व्यवहारेण । (बृ. द्रव्यसं. टो. ३५, पृ. १०० - १ व १२ ) । ६. मध्यांशः परितोऽप्यनन्तवियतो लोकस्त्रिवाताऽऽवृतः, पञ्चद्रव्यचितः प्रकर्तृरहितो नित्यः सदाऽवस्थितः । संस्थानेन तु सुप्रतिष्ठिकसमोऽसंख्यप्रदेशप्रमो मध्यस्थत्रसनालिरत्र भाविना स्पृष्टं न दृष्टं पदम् ॥ ( श्राचा. सा. १०, ४२)।
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१ जीवादि पदार्थों के समदायस्वरूप जो श्रधोमध्यादि के भेद से तीन प्रकार का लोक है उसमें कहाँ कौन से जीव रहते हैं, इत्यादि प्रकार से उनके निवासस्थान, प्रायु एवं सुख-दुखादि का विचार करना, इसे लोकानुपेक्षा कहा जाता है । लोकानुवृत्तिविनय - प्रब्भुट्टाणं अंजलि -प्रासणदाणं च प्रतिहिपूजा य । लोगाणुवित्तिविणो देवदपूया सविहवेण || भासाणुवत्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च । लोकाणुवत्तिविणश्रोअंजलिकरणं च अत्थकदे ॥ मला. ७, ८४-८५ ) ।
गुरुजन के आने पर उठ खड़े होना, उन्हें प्रणाम करना, श्रासन देना, प्रतिथि की पूजा करना, अपने विभव के अनुसार देव की पूजा करना, वक्ता के वचनानुसार वचन का व्यवहार करना, गुरुजनों के अभिप्राय के अनुसार श्राचरण करना, और देशकाल के अनुसार दान देना; इस सबको लोकानवृत्तिविनय कहा जाता है। यह पांच विनय के भेदों में प्रथम है।
लोकान्तिक- देखो लौकान्तिक । १. लोकान्ते भवा: लोकान्तिकाः, अत्र प्रस्तुतत्वात् ब्रह्मलोक एव परिगृह्यते, तदन्तनिवासिनो लोकान्तिकाः । XX X जरामरणाग्निज्वालाकीर्णो वा लोकस्तदन्तवतित्वात् लोकान्तिकाः कर्मक्षयाभ्यासभावाच्च । (त. भा. सिद्ध. वृ. ४-२५) । २. लोकस्य ब्रह्मलोकस्यान्तः समीपं कृष्णराजीलक्षणं क्षेत्रं निवासो येषां ते, लोकान्ते वा श्रदयिकभावलोकावसाने भवा अनन्तरभवे मुक्तिगमनादिति लोकान्तिकाः । ( स्थाना. अभय. वृ. १३४, पृ. ११७ ) ।
२ लोक से अभिप्राय ब्रह्मलोक (पांचवां कल्प) का है, उसके समीपवर्ती कृष्णराजी क्षेत्र में जो रहते हैं उनका नाम लोकान्तिक है । प्रथवा लोक से श्रयिकभावस्वरूप संसार अभीष्ट है। उसके
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लोकायतिक] २७५, जैन-लक्षणावली
[लोभपिण्ड अन्त में होने वाले–अनन्तर दूसरे भव में संसार जयाऽदैन्य-वैराग्यासंग-संयमाः॥ तच्चतुस्त्रि-द्विमासेषु से मुक्त होकर सिद्धि के प्राप्त करने वाले–देव सोपवासे विधीयते । जघन्यं मध्यमं ज्येष्ठं सप्रति लोकान्तिक कहलाते हैं। दोनों प्रकार से उनका क्रमणे दिने ॥(प्राचा. सा. १, ४०-४१) । ३. लोचो वह नाम सार्थक है।
द्वि-त्रि-चतुर्मासे वरो मध्योऽधमः क्रमात् । लघुलोकायतिक-ऐहिकव्यवहारप्रसाधनपर लोकाय- प्राग्भक्तिभिः कार्यः सोपवासप्रतिक्रमः ॥ (अन. ध. तिकम् । (नीतिवा. ६-३२)।
६-८६)। जो परलोक की अपेक्षा न कर केवल इस लोक १ दो, तीन अथवा चार मास में जो क्रम से उत्कृसम्बन्धी व्यवहार में-मद्य, मांस एवं स्त्री के सेव. ष्ट, मध्यम और जघन्य रूप में प्रतिक्रमण व उपनादि कार्यों में संलग्न रहते हैं उन्हें लोकायतिक वास के साथ बालों को उखाड़ा जाता है उसे लोच कहा जाता है। वे प्रायः चार्वाक मत के अनुयायी कहा जाता है। यह साधु के अट्ठाईस मूलगुणों होते हैं :
में से एक (२२वां) है। लोकोत्तरवाद (श्रुतज्ञान)-लोकोत्तरः अलोकः, लोभ-१. अनुग्रहप्रवणद्रव्याद्यभिकांक्षावेशो लोभः स उच्यते कथ्यते अनेनेति लोकोत्तरवादः। (धव. पु. क्रमिराग-कज्जल-कर्दम - हरिद्रारागसदृशश्चतुर्विधः । १३, पृ. २८८)।
(त. वा. ८, ९, ५)। २. गर्दा काङ्क्षा लोभः । जिस श्रुत में लोकोत्तर (प्रलोक) का कथन किया उक्तं च-xxx किमिराय-चक्क-तणुमल-हरिजाता है उसे लोकोत्तरवाद कहा जाता है। द्वाराएण सरिसो लोहो। णारय-तिरिक्ख-माणुसलोकोत्तरशब्दलिंगज श्रतज्ञान-असच्चकारण- देवेसप्पायनो कमसो ॥ (धव. पु. १, पृ. ३४६); विणिम्मुक्कपुरिसवयणविणिग्गयवयणकलावजणियसु. लोभो गृद्धिरित्येकोऽर्थः। (धव. पु. ६, पृ. ४१); दणाणं लोउत्तरियसद्दजं । (जयध. १, पृ. ३४१)। बाह्यार्थेषु ममेदंबुद्धिर्लोभः। (धव. पु. १२, पृ. असत्य भाषण के कारणों से रहित (विश्वस्त) २८३); बज्झत्थेसु ममेदंभावो लोभो। (धव. पु. पुरुष के मुख से निकले हुए शब्दसमूह के द्वारा जो १२, पृ. २८४) । ३. दानाहेषु स्वधनाप्रदानं परधनश्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे लोकोत्तरशब्दलिंगज ग्रहणं वा लोभः । (नीतिवा. ४-४) । ४. लोभनम् श्रुतज्ञान कहते हैं।
अभिकांक्षणं लभ्यते वा अनेनेति लोभः। (स्थाना. लोकोत्तरशचित्व-तत्रात्मनः प्रक्षालितकर्ममल- अभय. व. २४९)। ५. दानाहेषु स्वधनाप्रदानं कलंकस्य स्वात्मन्यवस्थानं लोकोत्तरं शुचित्वम् । निष्कारणं परधनग्रहणं च लोभः । (योगशा. स्वो. (त. वा. ६, ७, ६)।
विव. १-५६)। ६. परिग्रह-ग्रहातीवलालस मानसं प्रान्मा का कर्मरूप मल को धोकर अपने प्रात्मस्व- स्मृतः। लोभो लाभातिमोदात्तरक्षणार्थोपलक्षितः ।। रूप में स्थित होना, यह लोकोत्तरशचित्व (शद्धि) (प्राचा. सा. ५-१६)। ७. स्थले धनव्ययाभावो कहलाता है।
लोभः। Xxx निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरि. लोकोत्तर सामाचारकाल-लोउत्तरीयो सामाचा- त्यागलक्षणनिरजननिजपरमात्मतत्त्वपरिग्रहात् अन्यरकालो जहा वंदणकालो णियमकालो सज्झायकालो त परमाणुमात्रद्रव्यस्वीकारो लोभः । (नि. सा. व. झाणकालो इच्चेवमादि । (धव. पु. ११, पृ. ७६)। ११२)। वन्दना का काल, नियत अनुष्ठान का काल, स्वा- १ जो द्रव्य (धन) आदि अनुग्रह में तत्पर रहता है ध्याय का काल (अथवा सांध्यविधि का काल) और उसकी अभिलाषा रखने रूप अभिप्राय का नाम ध्यान का काल इत्यादि सदमष्ठान से सम्बद्ध काल लोभ है। २ बाह्य पदार्थों में जो 'यह मेरा है इस को लोकोत्तरसामाचारकाल कहा जाता है। प्रकार की बुद्धि रहा करती है उसे लोभ कहा जाता लोचकरणविधि-१. विय-तिय-चउक्कमासे लोचो है। ३ देने योग्य पात्रों के लिये अपने धन को न उक्कस्स-मज्झिम-जहण्णो । सपडिक्कमणे दिवसे देना अथवा दूसरे के धन को ग्रहण करना, इसे लोभ उववासेणेव कायव्वो ॥ (मूला. १-२६) । २. कूर्च- कहते हैं । श्मश्रुकचोल्लुञ्चो लुञ्चनं स्यादमी यतः । परीषह- लोभपिण्ड-१. तथा लोभं कांक्षा प्रदर्श्य भिक्षां
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लोभवशार्तमरण]
यद्यात्मन उत्पादयति तदा लोभोत्पादनदोषो भावदोषादिदर्शनात् । (मूला. वृ. ६-३४) । २. प्रतिलोभाद् भिक्षार्थं पर्यटतो लोभपिण्डः । (योगशा स्वो विव. १-३८, पृ. १३६ ) । ३. लोभेन अन्नाजैनं लोभ: । ( भावप्रा. टी. ६९ ) ।
१ साधु यदि लोभ को प्रगट करके अपने लिए भिक्षा को उत्पन्न करता है तो उसके लोभ नाम का उत्पदानदोष होता है । २ यदि साधु प्रतिशय लोभ के वशीभूत होकर भिक्षा के लिए भ्रमण करता है तो उसके लोभपिण्ड नाम का उत्पादनदोष होता है । लोभवशार्तमरण उपकरणेषु भक्त - पानक्षेत्रेषु शरीरे निवासस्थानेषु च इच्छां मूच्छ च वहतो मरणं लोभवशार्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५) । उपकरणों, अन्न-पान के स्थानों, शरीर और निवासस्थानों के विषय में इच्छा को धारण करते हुए जो मरण होता है उसे लोभवशार्तभरण कहते हैं । लोभविजयी राजा-स लोभविजयी राजा यो द्रव्येण कृतप्रीतिः प्राणाभिमानेषु न व्यभिचरति । ( नीतिवा. ३०-७१, पृ. ३६२ ) ।
जो राजा द्रव्य (धन) से प्रीति रखता हुआ प्राण और अभिमान के विषय में प्रजाजन से व्यभिचरित नहीं होता — उनकी भलाई का सदा ध्यान रखता है-उसे लोभविजयी राजा समझना चाहिए । लोभोत्पादनदोष - देखो लोभपिण्ड | लोमाहार - १. XX X तथा य फासेण लोमआहारो । ( सुत्रकृ. नि. १७१; बृहत्सं. १६७ ) । २. लोमाहारस्तु शरीरपर्याप्त्युत्तरकालं बाह्यया त्वचा, लोमभिराहारो लोमाहारः । X XX तदुत्तरकालं (प्रोजाहारानन्तरं ) त्वचा स्पर्शेन्द्रियेण यः श्राहारः स लोमाहारः । ( सुत्रकृ. नि. शी. वृ. १७१, पृ. ८७); Xx X X प्रभ्ये त्वाचार्या श्रन्यथा व्याचक्षते XXX यः पुनः स्पर्शेन्द्रियेणैवोपलभ्यते धातुभावेन (च) प्रथाति स लोमाहार इति । (सूत्र कृ.नि. शी. वृ. १७१, पृ. ८८ ) । ३. लोमभिराहारो लोमाहारः, XX X तत्र यः खल्वोघतो वर्षादिषु पुद्गलप्रवेशो मूत्रादिगम्यः स लोमाहारः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३०६, पृ. ५०७ - ८ ) । ४. तथा त्वचा त्वमिन्द्रियेण स्पर्शे स्पर्शने सति य श्राहारः शरीरोपष्टम्भकपुद्गल संग्रहः स लोमाहारः लोममि,
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१७६, जैम-लक्षणावली
[लौकिकभावश्रुतग्रन्थ
लॉमरन्ध्रराहारो लोमाहारः । ( बृहत्सं मलय. वृ. १७) ।
२ शरीरपर्याप्ति के पश्चात् बाहिरी त्वचा ( चमड़ा) के द्वारा रोमों के प्राभय से जिस श्राहार को ग्रहण किया जाता है वह लोमाहार कहलाता है । लौकान्तिक—देखो लोकान्तिक । १. ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः । (त. सू. ४ - २४ ) । २. संसारवारिरासी जो लोभो तस्स होंति अंतम्मि । जम्हा तम्हा दे देवा लोयंतिय त्ति गुणणामा । (ति. प. ८- ६१५) । ३. ब्रह्मलोको लोकः, तस्यान्तो लोकान्तः तस्मिन् भवा लौकान्तिकाः । XX X अथवा जन्म-जरा-मरणाकीर्णो लोकः संसारः, तस्यान्तो लोकान्तः, लोकान्ते भवा लोकान्तिकाः । ( स. सि. ६-२४) । ४. ब्रह्मलोकास्यन्तो लोकान्तः, तस्मिन् भवा लौकान्तिकाः । अथवा जाति-जरा-मरणाकीर्णो लोकः, तस्यान्तो लोकान्तः, तत्प्रयोजना लोकान्तिकाः । ते हि परीत संसाराः ततश्च्युता एकं गर्भवासमवाप्य परिनिर्वान्ति । (त. वा. ४, २४, २ ) । ५. ब्रह्मलोकस्यान्तो हि लोकान्तः, लोकान्ते भवा लौकान्तिकाः । XX X श्रथवा लोकः संसारः जन्मजरा-मृत्युसंकीर्णः, तस्यान्तो लोकान्तः, तत्प्रयोजना लोकान्तिकाः । ते हि परीतसंसाराः ततश्च्युत्वा एकं गर्भवासमवाप्य परिनिर्वान्ति । (त. श्लो. ४-२४) । ६. लोकस्य ब्रह्मलोकस्य ग्रन्तोऽवसानं लोकान्तः, लोकान्ते भवा लौकान्तिकाः । x x x प्रथवा जन्म-जरा-मरणव्याप्तो लोकः संसारः, तस्य अन्तः लोकान्तः, लोकान्ते परीतसंसारे भवा लौकान्तिकाः, ते हि ब्रह्मलोकान्ताच्च्युत्वा एकं गर्भवासं परिप्राप्य निर्वाणं गच्छन्ति, तेन कारणेन लौकान्तिका: उच्चते । (त. वृत्ति श्रुत. ४ - २४ ) ।
३ लोक से यहां ब्रह्मलोक (पांचवां कल्प) विवक्षित है, उसके अन्त में जो रहते हैं वे लौकान्तिक कहलाते हैं । अथवा लोक से अभिप्राय जन्म, जरा और मरण से व्याप्त संसार का रहा है, उसके अन्त में जो हों-प्रागे एक मनुष्यभव को पाकर मुक्त होने वाले हों— उन्हें लौकान्तिक देव जानना चाहिए ।
लौकिक भावतग्रन्थ- हस्त्यश्व तन्त्र- कोटिल्य - वात्स्यायनादिवोधो लौकिकभावश्रुत ग्रन्थः । ( धव. पु. , पू. ३२२) ।
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लौकिक मुनि] ६७७, जैन-लक्षणावमी
[वचनबलप्राण हाथी, घोड़ा, तंत्र, कौटिल्य और बात्स्यायन आदि भूमि जोतने, लुनने और बोने प्रादि के काल को ग्रन्थविषयक बोध को लौकिक भावश्रुत कहते हैं। लौकिक सामाचारकाल कहा जाता है। लौकिक मुनि-१.णिग्गंथो पव्वइदो वदि जदि वक्ता-१. सच्चमसच्चं सतमसंतं वददीदि बत्ता। एहिगेहि कम्मेहिं । सो लोगिगो त्ति भणिदो संजम- (धव. पु. १, पृ. ११६); सत्यमसत्यं ब्रवीतीति तव-संपजुदो चावि ।। (प्रव. सा. ३-६६) । २. वक्ता । (धव. पु. ६, पृ. २२०) । २. प्राज्ञः प्राप्तप्रतिज्ञातपरमन ग्रन्थ्यप्रव्रज्यत्वादुदूढसंयम-तपोभारोऽपि समस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोक स्थितिः, प्रास्ताशः मोहबहुलतया श्लथीकृतशुद्धचेतनव्यवहारो मुहुर्मनु- प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः व्यव्यवहारेण व्याघूर्णमानत्वादहिककर्मानिवृत्ती प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद्धर्मलौकिक इत्युच्यते । (प्रव. सा. अमृत. ३-६६)। कथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥ (प्रात्मा१ जो निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) स्वरूप से दीक्षित होकर नु. ५)। इस लोक सम्बन्धी क्रियाओं के प्राश्रय से प्रवृत्ति १ जो सत्य-असत्य तथा समीचीन व असमीचीन करता है उसे संयम और तप से संयुक्त होने पर भी भाषण करता है उसे सामान्य से वक्ता कहा जाता लौकिक श्रमण (ब्यवहारप्रधान) कहा गया है। है। २ जो बुद्धिमान, समस्त शास्त्रों के रहस्य का लौकिक मूढ-कोडिल्लमासुरक्खा भारह-रामाय- जानने वाला, लोकव्यवहार में दक्ष, प्राशा से णादि जे धम्मा। होज्जु व तेसु विसुत्ती लोइयमूढो रहित, प्रतिभाशाली, शान्त, प्रश्न का उत्तर पहिले हवदि एसो ।। (मूला. ५-६०)।
ही देख लेने वाला, प्रश्न को सहने वाला, दूसरे के कौटिल्य-लोकवञ्चनादि रूप धर्म, प्रासुरक्ष- चित्त को खींचने वाला, निन्दा से रहित तथा स्पष्ट छेदन-भेदनादि रूप से वंचनापूर्ण रक्षा का सूचक व मधुर भाषण करने वाला जो वक्ता होता है वही धर्म-एवं भारत व रामायण प्रादि जो कल्पित धर्म धर्मकथा का व्याख्याता हो सकता है। हैं उनके श्रवणादि में प्रवृत्त होने वाले को लौकिक वचननिविषा ऋद्धि-देखो पास्यविष और प्रामूढ कहा जाता है।
स्याविष । तित्तादिविविहमण्णं विसजुत्तं जीए वयणलौकिक वाद-लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन जी- मेत्तेण । पावेदि णिव्विसत्तं सा रिद्धी वयणणिविसा वादयः पदार्थाः स लोकः, लोक एव लौकिकः, स णामा ॥ अहवा बहुवाहीहिं परिभदा झत्ति होति लोकः कथ्यते अनेनेति लौकिकवादः सिद्धान्तः । णीरोगा। सोदं वयणं जीए सा रिद्धी वयणणि व्वि(धव. पु. १३, पृ. २८८) ।
सा णामा ।। (ति. प. १०७४-७५) । जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं वह लोक कह- जिस ऋद्धि के प्रभाव से ऋद्धिधारी के बोलने मात्र से लाता है, स्वार्थ में ठक् प्रत्यय होने से उसी को विषसंयक्त तीखा व कडुमा प्रादि अन्न निषिषता को लौकिक कहा जाता है। जिस श्रुत में उक्त प्रकार प्राप्त हो जाता है उसका नाम वचन निविषा ऋद्धि के लोक का कथन किया जाता है उसे लौकिकवान है। अथवा जिस ऋद्धि के प्रभाव से ऋद्धिधारी के कहते हैं । यह सिद्धान्त का एक पर्यायनाम है। वचन को सुनकर बहुत से रोगों से अभिभूत प्राणी लौकिक शब्नलिंगज श्रुतज्ञान-सामण्णपुरिस- नीरोग हो जाता है उसे वचन निविषा ऋद्धि जानना बयण विणिग्गयवयणकलावजणियणाणं लोइयस दृ। चाहिए। (जयध. १, पृ. २४१)।
वचनबलप्राण-१. स्वरनामकर्मोदयसहितदेहोसामान्य पुरुष के मुख से निकले हुए वचनसमूह के दये सति वचनव्यापारकारणशक्तिविशेषरूपो बचोद्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे लौकिक शब्द- बलप्राणः । (गो. जी. म. प्र. टी. १३१) । २. स्वरलिंगज श्रुतज्ञान कहते हैं।
नामकर्मोदयसहकारिभाषापर्या-त्यूत्तरकालविशिष्टोपलोकिक सामाचारकाल-लोगियसामाचारकालो योगप्रयोजनात्मको वलप्राणः । (गो. जी. जी. प्र. जहा कसणकालो, लुणणकालो ववणकालो इच्चेव- १२६)। मादि । (धव. पु. ११, पृ. ७६) ।
१ स्वरनामकर्म के साथ शरीर नामकर्म का उदय ल. १२३
कहा जाता
जाता है पनाम है
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वचनबला ऋद्धि]
६७८, जैन-लक्षणावली [वज्रर्षभनाराचसंहनन होने पर जो वचनविषयक व्यापार के करने की वज्जरिसहवज्जियो जस्स कम्मस्स उदएण होदि तं विशेष शक्ति होती है उसे वचनबलप्राण कहते हैं। कम वजनारायणसरीरसंघडणमिदि भण्णदे । वचनबला ऋद्धि-देखो वाग्बली। १. जिभि- (धव. पु, ६, पृ. ७३); वज्राकारेण स्थितास्थः दिय-णोइंदिय-सुदणाणावरण-विरियविग्घाणं । उक्क- नेष्टकः ऋषभः तो भित्त्वा स्थितवज्रकीलक-वज्रनास्सखोवसमे महुत्तमेत्तंतरम्मि मणी ॥ सयलं पि राच (?) ऋषभरहितं वज्रनाराचशरीरसंहननम् । सूदं जाणइ उच्चारइ जीए विप्फूरतीए। असमो (घव. प. १३, प. ३६६)। ३. एष एवास्थिबन्धो अहिकंठो सा रिद्धीउ णेया वयणबलणामा ॥ (ति. ऋषभरहितो यस्योदयेन भवति तत द्वितीयम् । प. ४, १०६३-६४) । २. वारसंगाणं बहुबारं (मला. वृ. १२-१९४)। ४. तद्वलयरहितं वज्रपडिवाडि काऊण वि जो खेयं ण गच्छइ सो वचि- नाराचसंहननं नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। बलो, तवोमाहप्पुप्पाइदवयणबलो वचिबली त्ति उत्तं २ जिस नामकर्म के उदय से वज्रमय वेष्टन के होदि। (धव. पु. ६, पृ. ९८-९६)। ३. अन्त- बन्धन से रहित वज्रमय हड्डियां दोनों प्रोर वज्रमय मुंहतन अखिलश्रुतपाठशक्तयो ये ते वचोबलिनः । कीलों से कोलित हुआ करती हैं उसे वज्रनाराच(त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)।
संहनन कहते हैं। १ जिस ऋद्धि के प्रगट होने पर मुनि जिह्वेन्द्रिया- वज्रर्षभनाराचसंहनन--१. तत्र वज्राकारोभयावरण, नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्या- स्थिसंधि प्रत्येक मध्ये वलयबन्धनं सनाराचं सुसंहतं न्तराय के उत्कृष्ट क्षयोपशमपूर्वक एक मुहूर्त के वज्रर्षभनाराचसंहननम् । (त, वा. ८, ११, ६) । भीतर समस्त श्रुत को श्रम से रहित जानता है २. संहननमस्थिचयः, ऋषभो वेष्टनम्, वनवदभेश्व.
और उत्तम स्वर के साथ उच्चारण करता है उसे त्वाद्वजवृषभः, वज्रवन्नाराच: वज्रनाराचः, तो द्वा. वचनबला नाम की ऋद्धि जानना चाहिए। वपि यस्मिन् वज्रशरीरसंहनने तद्वज ऋषभ-वजना. वचनभिन्न-वचनभिन्नं यत्र वचनव्यत्ययो, यथा राचशरीरसंहननम् । जस्स कम्मस्स उदएण वज्जवृक्षावेतो पुष्पिता इत्यादि । (प्राव. नि. मलय.व, हड्डाई वज्जवेढेण वेट्टियाई वज्जनाराएण ८८२)।
खीलिमाइं च होंति तं वज्जरिसहवइरणरायणसरीरजहां वचन की विपरीतता हो वहां वचनभिन्न नाम संघडणमिदि उत्तं होदि । (धव. पु. ६, पृ. ७३); का दोष होता है। जैसे-'एतौ वृक्षो पुष्पिता.' इस वज्रमिव वज्रम, वज्रऋषभः वज्रनाराचश्च वज्रर्षवाक्य में 'वृक्षौ' जहां द्विवचनान्त है वहां 'पष्पिताः' भ-नाराची, तो एव शरीरसंहननं वज्रऋषभ-वज्रनायह बहुवचनान्त है। यह वचन को विपरीतता है। राचशरीरसंहननम् । (धव. पु. १३, पृ. ३६६) । ३. वस्तुतः "एतौ वृक्षौ पुष्पितो" अथवा 'एते वृक्षाः अस्थिसंचयं ऋषभवेष्टनं वज्र वदभेद्यत्वादृषभ: वनपुष्पिता:' इस प्रकार का निर्दोष वाक्य होना चाहिए। श्च नाराचश्च वज्र-नाराचौ,तो द्वावपि यस्य शरीरसं. यह ३२ सूत्रदोषों में से १४वां सूत्रदोष है। हननं[संहननस्य]तद्वज्रर्षभनाराचसंहननम्, यस्य कर्मण
क--वचनमात्रहेतुकं यथा विवक्षिते उदयेन वज्रास्थीनि वज्रवेष्टनेन वेष्टितानि बज्रभूप्रदेशे इदं लोकमध्यमिनि । (प्राव. नि. मलय. नाराचेन च कीलितानि भवन्ति । (मूला. वृ. १२, वृ. ८८३)।
१६४): ४. तत्र वज्र कीलिका, ऋषभः परिवेष्टनवाक्य में जहां वचन मात्र कारण हो-यथार्थता पट्टः, नाराचमुभयतो मर्कटबन्धः । उक्तं च-रिसहो न हो-वहां सूत्र का वचन मात्रहेतुक नामक ३५वां य होइ पट्टो वज्ज पुण कीलिया पुणेयव्वा । उभयो दोष होता है। जैसे-विवक्षित भूमिप्रदेश को मक्कडबंधं नारायं तं वियाणाहि ॥ ततश्च द्वयोरलोक का मध्य न होने पर भी लोकमध्य कहना। स्थ्नोरुभयतो मर्कटबन्धनबद्धयो: पट्टाकृतिना तृतीयेवचिबली-देखो वचनबला ऋद्धि ।
नास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्त्रियभेदिकीलिकावज्रनाराचसंहनन-१. तदेव (वज्रर्षभनाराचसं- ख्यं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तत्र वज्रर्षभनाहननमेव) वलयबन्धनविरहितं वज्रनाराचसंहननम् । नाराचसंहननम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. (त. वा. ८, ११. ६)। २. एसो चेव हड्डबंधो ४७२)।
वचन
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वडभा ६७६, जैन-लक्षणावली
[वध १ जिस नामकर्म के उदय से वज्र जैसी हड्डियों की गृही रुष्टो वसति मे न प्रयच्छेदिति संप्रधार्य तदनुसंधियों में से प्रत्येक के मध्य में नाराच सहित कूलकथनादुत्पादिता वणिगवदुष्टा। (भ. प्रा. मूला. भलीभांति योजित वलयबन्धन (वेष्टन का बन्धन) २३०)। रहता है उसे वज्रर्षभनाराचसंहनन कहते हैं । १ हे भगवन् ! आहार और वसति के दान से २ हड्डियों के संचय का नाम संहनन है, ऋषभ का क्या महान् पुण्य होता है, ऐसा पूछने पर प्रतिकूल अर्थ वेष्टन होता है, जिसके उदय से वज्र के समान वचन यदि कहा जाय तो उससे रुष्ट होकर गृहस्थअभेद्य हड्डियां वज्रमय वेष्टन से वेष्टित और वज्र- जन मुझे वसति नहीं देंगे, यह सोचकर यदि साधु मय नाराचों से कोलित रहा करती हैं उसे वज्र- उनके अनुकूल बोलकर वसति को प्राप्त करता है
में कहा जाता है। तो वह वणिगवा (वनीपक) नामक उत्पादनदोष से ४ जिस शरीरसंहनन में मर्कटबन्धन से बंधी हुई दूषित होती है। दो हड्डियां दोनों प्रोर पट्र के प्राकार वाली तीसरी हड्डी से वेष्टित होती हैं तथा ऊपर उन तीनों वत्से धेनुवत्संप्रकीर्तितम् । जनप्रवचने सम्यक् द्धाहड्डियों को भेदन करने वाली कीलिका नाम की ज्ञानवत्स्वपि ॥ (त. इलो. ६, २४, १६)। वज्रनामक हड्डी होती है वह वज्रर्षभनाराचसंहनन जिस प्रकार गाय बछड़े से प्यार किया करती है नामकर्म कहलाता है।
उसी प्रकार साधर्मी जन से, तथा समीचीन श्रद्धा वडभ-वडभा: संकुचितकर-चरणा: । (प्राचारदि. और ज्ञान से युक्त (सम्यग्दृष्टि व सम्यग्ज्ञानी) पृ. ७५)।
जीवों से भी जो प्यार किया जाता है उसका नाम जिनके हाथ-पांव संकुचित होते हैं उन्हें बडभ कहा वत्सलत्व है। इसे प्रवचनवत्सलत्व कहा जाता है। जाता है। ऐसे मनुष्यों का पृष्ठभाग बाहिर निकला यह तोयंकर प्रकृति को बन्धक सोलह भावनामों रहता है।
में अन्तिम है। वणिक्कर्यि- देखो वाणिज्यकर्मार्य । १. चन्द- वध- १. आयुरिन्द्रिय-बलप्राणवियोगकरणं वधः। नादिगम्ध-घृतादि रस-शाल्यादिधान्य कार्यासाद्याच्छा- (स. सि. ६-११); दण्ड-कशा-वेत्रादिभिरभिघातः दन-मुक्तादिनानाद्रव्यसंग्रहकारिणो बहुविधा वणि- प्राणिनां वधः । (स. सि. ७-२५)। २. प्रायुरिकार्याः। (त. वा. ३, ३६, २)। २. धान्य- न्द्रिय-बलप्राणवियोगकरणं वधः। भवधारणस्यायुषः कार्पास-चन्दन-सुवर्ण-रजत-मणि-माणिक्य - धतादिर- रूपादिग्रहणनिमित्तानामिन्द्रियाणां कायादिवर्गणालसांशुकादिसंग्रहकारिणो वाणिज्य कर्मावदाता वणि- म्बनबलस्योच्छ्वास-निःश्वासलक्षणस्य च प्राणस्य परवकर्मार्याः शब्द्यन्ते । (त. वत्ति श्रत. ३-३६)। स्परतो वियोगकरणं वध इत्यवधार्यते। (त. वा. ६, १ जो चन्दन प्रादि सुगन्धित द्रव्यों, घी आदि रसों, ११, ५); प्राणिपीडाहेतुर्वधः । दण्ड-कशा-वेत्रादिशाली प्रादि धान्यों (अनाजों), कपास प्रादि शरीर भिरभिघातः प्राणिनां वध इति गह्मते, न प्राणब्यके पाच्छादक द्रव्यों और मोती प्रादि अनेक द्रव्यों परोपणम् । (त. वा. ७, २५, २) । ३. वधः ताडनं का संग्रह किया करते हैं वे वणिक्कआर्य कहलाते करकशलतादिभिः। (ध्यानश. हरि. व. १६)। हैं । वे अनेक प्रकार के होते हैं।
४. xxx वधो दण्डातितारणा। (ह. पु. ५८, वणिगवावसति-देखो वनीपकवचन । १. भगवन् १६४)। ५. वधः कशादिताडनम् । (प्रोधनि. व. सर्वेषां प्राहारदानाद् वसतिदानाच्च पुण्यं किम मह- ४६)। ६. वधो यष्ट्यादिताडनम् । (समवा. दुपजायते इति पृष्टो न भवतीत्युक्ते गहिजनः अभय. वृ. २२)। ७. यष्टितजनक वेत्र दण्डादिभिः प्रतिकलवचनरुष्टो वसति न प्रयच्छेदिति एवमिति प्राणिनां ताडनं हननं वधः। (त. वृत्ति ७-२५ तदनुकूलमुक्त्वा योत्पादिता सा वणिगवा शब्देनो- कातिके. टी. ३३२) । च्यते । (भ. प्रा. विजयो. २३०)। २. भगवन् १प्रायु, इन्द्रिय और बल प्राणों के वियोग करने सर्वेषामाहारदानाद् वसतिदानाद् वा किं पुण्यं जायेत का नाम वध है। यह असातावेदनीय के बन्ध का उत नेति पृष्टो यदि न जायत इति ब्रवीमि तदेष कारण है । लकड़ी चाबुक या वेत प्रादि से ताड़ित
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वधकोपदेश ९८०, जैन-लक्षणावली
[वनजीविका करने को भी वध कहा जाता है। इस प्रकार का भवति । (मूला. वृ. ५-५८) । ५. रुष्टः पूर्वभवावध अहिंसाणुव्रत के अतिचारों के अन्तर्गत है। पकारकलनात्तज्जन्मवैरात् खलैम्लेंच्छनिःकरुणरकावधकोपदेश-१. वागुरिक-सौकरिक-शाकुनिकादिरणगुणद्वैषैश्च पापात्मकः । देहच्छेदन-भेदनादिभ्यो मृग-वराह-शकुन्तप्रभृतयोऽमुष्मिन् देशे सन्तीति विधिना यो मार्यमाणोऽप्यलं देहात्मात्मविभेदवेदनवचनं बधकोपदेशः । (त. वा. ७, २१, २१, चा. भवक्षान्तिर्वधातिक्षमी ॥ (प्राचा. सा. ७-१३)। सा. पृ. ६) । २. शाकुनिकाः पक्षिमारकाः, वागु- ६. नशंसेऽरं क्वचित्स्वरं कुतश्चिन्मारयत्यपि । शुद्धा. रिकाः मृग-वराहादिमारकाः, धीवराः मत्स्यमारका त्मद्रव्यसंवित्तिवित्तः स्याद्वधमर्षणः। (अन. घ. ६, इत्यादीनां पापोपकर्मोपजीविनाम् ईदृशीं वाताँ कथ- १०१)। ७. चौरादिभिः ऋद्धे शस्त्राग्न्यादिभिर्यिमाथति-अस्मिन् प्रदेशे वन-जलाधुपलक्षिते मृग-वराह- णस्याप्यनुत्पन्नवरस्य मम पुराकृतकर्मफल मिटमिति, तित्तिर-मत्स्यादयो बहवः सन्तीति कथनं वधकोपदेश- इमे वराका किं कर्वन्ति. शरीरमिदं स्वयमेव विननामा तृतीयः पापोपदेशः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. श्वरं दुःखदमेतर्हन्यते, न ज्ञानादिकम् इति भावयतो ७-२१)।
वधपरीषहक्षमा। (प्रारा. सा. टी. ४०)।। १वागरिक-जाल में फंसाकर मग प्रादि के पकड़ने १तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रादि के द्वारा घात करने पर वाले, सौकरिक-बन्दूक प्रादि से शकर प्रादि हिस्त्र भी घातक जनों के विषय में क्रोधादि विकार को जीवों का वध करने वाले (शिकारियों)-और प्राप्त न होकर यह विचार करना कि यह सब मेरे पक्षियों के संहारक मनुष्यों के लिए ऐसा उपदेश पूर्वकृत कर्म का फल है, ये वेचारे मेरा क्या बिगाड़ करना कि अमुक देश में मृग, शूकर और पक्षी कर सकते हैं ? शरीर तो विनम्वर है, उसी को ये मादि पाये जाते हैं। इसे वधकोपदेश कहा जाता है। नष्ट कर सकते हैं, इत्यादि विचार करते हुए उसे वधपरीषहजय-१. निशितविशसन-मुशल-मुद्- शान्तिपूर्वक सहन करना, इसे वधपरीषहजय कहा गरादिप्रहरण-ताडन-पीडनादिभिर्व्यापाद्यमानशरीरस्य जाता है। इसे परीषहजय के अतिरिक्त परीषहक्षम, व्यापादकेषु मनागपिं मनोविकारमकुर्वतो मम पुरा- परीषहमर्षण और परीषहसहन प्रादि अनेक नामों कृतदुष्कर्मफलमिदमिमे वराका किं कुर्वन्ति, शरीर- से कहा गया है। मिदं जलबुद्बुद्वद्विशरणस्वभावं व्यसनकारणमेत- वधमर्षण-देखो वधपरीषहजय । |बाध्यते, संज्ञान-दर्शन-चारित्राणि मम न केनचि- वधू-पुरिसं वधमुवणेदि त्ति होदि वहुगा णिरुत्तिदुपहन्यन्ते इति चिन्तयतो वासितक्षण-चन्दनानुलेपन- वादम्मि । (भ. प्रा. ९७७)। समदशिनो वधपरीषहक्षमा मन्यते। (स. सि. ६-६)। जो पुरुष को वध को प्राप्त कराती है उसका नाम २. मारकेष्वमर्षापोहभावनं वधमर्षणम् । ग्रामोद्या- वधू है । यह उसका निरुक्त लक्षण है। नाटवी-नगरेषु नक्तं दिवा चैकाकिनो निरावरणमूर्तेः वधुदोष-शिरोऽवनम्य कुलवध्वा इव स्थानं वधुसमन्तात्पर्यटद्भिश्चौर-राक्षस - म्लेच्छ-शवर-परुष-व- दोषः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। धिरपूर्वापकारिद्विषत्परलिंगिभिराहितक्रोधस्ताडनाक- कुलवधु के समान शिर को नीचा करके कायोत्लर्ग र्षणबन्धन- शस्त्राभिघातादिभिर्मार्यमाणस्याप्यनुपपन्न- में स्थित होना, यह कायोत्सर्ग का एक दोष है जो वैरस्यावश्यप्रपातुकमेवेदं शरीरं कुशलद्वारेणानेनापनी- उसके २१ दोषों में ७वां दोष है। यते, न मम व्रत-शील-भावनाभ्रंसनमिति भावशुद्धस्य वनकर्म ---देखो वनजीविका । दह्यमानस्यापि सुगन्धमत्सृजतश्चन्दनस्येव शुभपरि- वनजीविका-१. जो वणं किणति, पच्छा रुवखे णामस्य स्वकर्मनिर्जरामभिसन्दधानस्य दृढमतेः क्षमौ- छिदित्तुं मुल्लेण जीवति । (प्राव. चू. पृ. ८२६)। षधिबलस्य मारकेषु सुहृत्स्विवामर्षापोहभावनं वध- २. छिन्नाछिन्नवनपत्र-प्रसून-फल विक्रयः । कणानां मर्षणमित्याम्नायते । (त. वा. ६, ६, १८)। ३. दलनात्पेषाद् वृत्तिश्च वनजीविका ॥ (योगशा. ३, मारकेष्वमर्षापोहनभावनं वघमर्षणम् । (त. इलो. १०३; त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३३७)। ३. तत्र ६, ६)। ४. वधः मुद्गरादिप्रहरणकृतपीडा, ४ वनजीविका छिन्नस्याछिम्नस्य वा वनस्पतिसमूहाXx तस्याः सहनम्.xxxतता परीषहजयो दैविक्रयेण तथा गोधुमाधिधान्यानां घरट्रशिलादिना
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वनस्पति] ६८१, जैन-लक्षणावली
[वन्दना पेषणेन दलनेन वर्तनम् । (सा. घ. स्वो. टी. को शरीररूप से ग्रहण नहीं करता है उसे वनस्पति५-२१)।
जीव कहा जाता है। १ वन को खरीदकर पीछे वृक्षों को काटना और वनिताकथा-स्त्रीणां कथाः-स्वरूपास्ताः सौभावेचना, इसे वनजीविका कहा जाता है। २ कटे या ग्ययुक्ता मनोरमा उपचारप्रवणा: कोमलालापा इत्येविना कटे वन के पत्तों, फलों और फलों को वेचकर वमादिकथनं वनिताकथाः। (मला. व. 8-८९)। तथा धान्य को दलकर व पीसकर आजीविका वे स्त्रियां सुन्दर, सौभाग्यशालिनी, चित्ताकर्षक, व्यचलाना, इसे वनजीविका कहते हैं।
वहार में कुशल और कोमल वचनालाप करने वाली वनस्पति-देखो वनस्पतिकायिक ।
हैं; इत्यादि प्रकार से स्त्रियों के विषय में चर्चा वनस्पतिकायिक-१. वनस्पतिः कायः येषां ते करना, इसे वनिताकथा कहा जाता है। वनस्पतिकायाः, बनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायि- वनीपकवचन-देखो वणिगवावसति। १. साणकाः। Xxx वणप्फदिणामकम्मोदया जीवा किविणतिधि-माहण-पासंडिय-सवण-कागदाणादी । विगहगईए वट्टमाणा वि वणप्फदिकाइया भवंति । (धव. पु. ३, पृ. ३५७)। २. उदये दु वणफ्फदि- ६-३२) । २. xxx तद् वनीपकं वचनं दानकम्मस्स य जीवा वणफ्फदी होति । (गो. जी. १८५)। पत्यनुकलवचनं प्रतिपाद्य यदि भुञ्जीत तदा तस्य ३ स्थावरनामकर्मोत्तरप्रकृतिभेदस्य वनस्पतिनाम- वनीपकनामोत्पादनदोषः. दीनत्वादिदोषदर्शनादिति । कर्मण उदये सति, तु पूनः, जीवा वनस्पतिकायिका (मला. वृ. ६-३२)। ३. श्रमण-ब्राह्मण-क्षपणाभवन्ति । (गो. जी. मं. प्र. १८५)। ४. वनस्पति- तिथि-श्वानादिभक्तानां पुरतः पिण्डार्थमात्मानं तत्तविशिष्टस्थावरनामकर्मोत्तरप्रकृत्युदये, तु पुनः, दुक्तं दर्शयतो वनीपकपिण्डः । (योगशा. स्वो. विव. जीवा वनस्पतिकायिका भवन्ति । (गो. जी. जी. प्र. १-३८)। ४. वनीपकीभूय पिण्डः उत्पाद्यते स १८५)। ५. सार्द्रः छिन्नो भिन्नो मदितो वा पिण्डोऽपि वनीपकः। (व्यव. भा. मलय.. तु. उ. लतादिर्वनस्पतिरुच्यते। शुष्कादिर्वनस्पतिवनस्पति- पृ. ३५)। ५. दातुः पुण्यं श्वादिदानादस्त्येवेकायः । जीवसहितो वृक्षादिर्वनस्पतिकायिकः । त्यनुवत्तिवाक् । वनीपकोक्तिः xxx॥ (अन. विग्रहगतो सत्यां वनस्पतिर्जीवः वनस्पतिजीवो घ.५-२२) । भण्यते । (त. वृत्ति धुत.२-१३)।
१ कुत्ता, कृपण-कोढ़ प्रादि रोग से पीडित, १ जिनका शरीर बनस्पति हुमा करता है उन्हें अतिथि (भिक्ष), मांसावि भक्षी ब्राह्मण, पाखण्डी वनस्पतिकाय या वनस्पतिकायिक कहा जाता है। (वेषधारी) श्रमण-प्राजीवक अथवा छात्र और वनस्पतिनामकर्म के उदय से विग्रहगति में बर्तमान कौवा; इनको दिये जाने वाले दान प्रादि से पुण्य भी जीव वनस्पतिकायिक होते हैं। ५ छेवी-भेदी गई होता है अथवा नहीं, इस प्रकार पूछे जाने पर यदि अथवा मर्दित सार्द्र लता प्रादि को बनस्पतिकाय कहा उत्तर में यह कहा जाता है कि 'हां, उससे पुण्य जाता है। सजीव वृक्ष प्रादि को वनस्पतिकायिक होता है तो वह वनीपकवचन होता है। इसका कहते हैं । विग्रहगति में वर्तमान वनस्पति जीव का कारण यह है कि वैसे अनुकूल वचन से सन्तुष्ट नाम वनस्पतिजीव है।
होकर दाता दान देने में प्रवृत्त होता है। यह १६ वनस्पतिजीव-१. एवमबादिष्वपि योज्यम् (सम- उत्पादनदोषों में पांचवां है । ४ वनीपक (भिखारी) वाप्तवनस्पतिकायनामकर्मोदय: कार्मणकाययोगस्थो होकर जो भोजन उत्पन्न किया जाता है वह वनीन तावद् वनस्पति कायत्वेन गृह्णाति स वनस्प- पकपिण्ड कहलाता है। तिजीवः) । (स. सि. २-१३) । २. (एवं पृथिवी- वन्दना-१. अरहंत-सिद्धपडिमा तव-सुद-गुणगुरुजीववत्) xxx वनस्पतिजीवः (सर्वार्थसि- गुरूण रादीणं । किदि यम्मेणिदरेण य तियरणसंकोचद्धिवत्) । (त. वा. २, १३, १)।
गं पणमो॥ (मूला. १-२५)। २. वन्दना त्रि१ जो जीव वनस्पतिकाय नामकर्म के उदय से युक्त शुद्धिः द्वधासना चतुःशिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना। होता हुया कामगकाययोग में स्थित होकर वनस्पति (स.वा. ६, २४, ११; चा. मा. पृ. २६) । ३.
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वर्ग
वन्दना]
६८२, जैन-लक्षणावली वंदणा एगजिण-जिणालयविसयवंदणाए णिरवज्ज- वराणमिण एक्कं । चेत्त-चेत्तालयादिथुई च दव्वादि. भावं वण्णेइ । (धव. पु. १, पृ. ६७); उसहाजिय- बहुभेया ॥ (अंगप. ३, १६, पृ. ३०७)। संभवाहिणंदण-सुमइ-पउमप्पह-सुपास - चंदप्पह-पुप्फ- १ अरिहन्त प्रतिमा, सिद्ध प्रतिमा, तप में अधिक, यंत-सीयल-सेयंस-वासुपुज्ज-विमलाणंत - धम्म-संति- श्रुत में अधिक, गुणों में अधिक जन और गुरु कुंथु-पर-मल्लि-मुणिसव्वय-णमि-णेमि-पास-वड्ढमा- (दीक्षा दाता), इनको तीन करणों के संकोचपूर्वक णादितित्थयराणं भरहादिके वलीणं प्राइरिय-चइत्ता- --मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक-कृतिकर्म के लयादीणं भेयं काऊण णमोक्कारो गुणगयभेदमल्ली- द्वारा-कायोत्सर्ग आदि के साथ-अथवा विना णो सद्दकलावाउलो गुणाणुसरणसरूवो वा वंदणा कायोत्सर्ग प्रादि के ही प्रणाम जो किया जाता है णाम । (धव. पु. ८, पृ. ८४); तुहुं णिट्ठवियटकम्मो उसे वन्दना कहते हैं । यह मुनियों के छह केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठो घम्मुम्महसिट्ठगोट्ठीए पुट्ठाभ- आवश्यकों में तीसरा है । २ मन, वचन और काय यदाणो सिढ़परिवालो दुट्ठणिग्गहकरो देव त्ति इन तीन की शुद्धिपूर्वक पद्मासन या खड्गासन से पसंसा वंदणा णाम । (धव. पु. ८, पृ. ६२); वंदणा बारह प्रावर्तनों के साथ चार बार शिर को एदेसि (उसहादिजिणिदाणं तच्चेइय-चेइयहाणं च झुकाना, यह वन्दना नाम का प्रावश्यक है। ३ कट्टिमाकट्टिमाणं) वंदणविहाणं परूवेदि दव्व ट्ठियण- अंगबाह्य श्रुत का एक वन्दना नामक प्राधिकार यमवलंबिऊण । (धव. पु. ६, पृ. १८८) । ४. एय- है जिसमें एक जिन व जिनालय विषयक स्स तित्थयरस्स मंसणं वंदणा णाम। (जयष. १, वन्दना को निर्दोषता का वर्णन किया जाता है। पृ. १११)। ५. द्वयासनया सुविशुद्धा द्वादशवर्ता ४ एक तीर्थकर को नमस्कार करने का नाम प्रवृत्तिषु प्राज्ञः। सशिरश्चतुरानतिकां प्रकीर्तिता वन्दना है। वन्दना वन्द्या । (ह. पु.३४-१४४)। ६. वन्दना वयःस्थविर-वयःस्थविरः सप्तत्यादिवर्षजीवितः । नाम रत्नत्रयसमन्वितानां यतीनां प्राचार्योपाध्याय- (योगशा. स्वो. विव. ४-६०)। प्रवर्तक-स्थविराणां गुणातिशयं विज्ञाय श्रद्धापुर:- जो सत्तर प्रादि वर्षों तक जीवित रहता है उसे सरेण अभ्युत्थान-प्रयोगभेदेन द्विविधे विनये प्रवृत्तिः । वयःस्थविर कहा जाता है। (भ. प्रा. विजयो. ११६) । ७. पवित्रदर्शन-ज्ञान- वर्ग-१. तत्र सर्वजघन्य गुणः प्रदेशः परिगहीतः, चारित्रमयमुत्तमम् । प्रात्मानं वन्द्यमानस्य वन्दना- तस्यानुभागः प्रज्ञाछेदेन तावद्धा परिच्छिन्नः यावत्पुऽकथि कोविदः॥ (योगसारप्रा. ५-४६)। ८. नविभागो न भवति । ते अविभागपरिच्छेदाः सर्ववन्दमा एकतीर्थकृतप्रतिबद्धा दर्शन-वन्दनादिपंच- जीवानामनन्तगुणाः, एको राशिकृतः । (त. वा. २, गुरुभक्तिपर्यन्ता वा। (मूला. बु. १-२२) । ६. जै- ५, ४)। २. एत्थ एगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदाणं नकतीर्थकृत्सिद्ध-साधूनां क्रिययान्वितम् । वन्दनं स्तु- बग्गो त्ति सण्णा । (षव. पु.१०, पृ. ४५०); x तिमात्रं वा वन्दनं पुण्यनन्दनम् ॥ (प्राचा. सा. xx तत्थ सव्वमंदाणूभागपरमाणु घेत्तूण वण्ण१-३६) । १०. वन्दनं वन्दनायोग्यानां धर्माचार्याणां गंध-रसे मोत्तूण पासं चेव बुद्धीए घेत्तूण पण्णाच्छेदो पञ्चविंशत्यावश्यकविशुद्ध द्वात्रिंशहोषरहितं नम- कायव्वो जाव विभागवज्जिदपरिच्छेदो त्ति । तस्स स्करणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। ११. अंतिमस्स खंडस्स अच्छेज्जस्स अविभागपडिच्छेद अर्हदादीनां एककशोऽभिवन्दनाभिधानबोधिका वन्द इति सण्णा। पूणो तेण पमाणेण सव्वफासखडस ना । (श्रुतभ. टी. २४, पृ. १७६) । १२. एक- खंडिदेसु सध्वजीवेहि अणंतगुणप्रविभागपडिच्छेदा तीर्थकरालम्बना चैत्य-चैत्यालयादिस्तुतिः वन्दना, लब्भंति । तेसि सव्वेसि पि वग्ग इदि सपणा। (धव. तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि वन्दनेत्युच्यते । (गो. जी. पु. १२, पृ. ६२-६३)। ३. यः शक्तिसमूहलक्षणो म. प्र. व जी. प्र. ३६७) । १३. एकजिनस्य स्तुति- वर्ग: xxx। (समयप्रा. अमृत. वृ. ५७) । वन्दनाभिधीयते । (भावप्रा. टी. ७७)। १४. एक- ४. वर्गः शक्तिसमूहोऽणोः xxx। (पंचसं. तीर्थकरस्तवनरूपा वन्दना। (त. वृत्ति श्रुत. १, प्रमित. १-४५)। ५. परमाणोरविभागपरिच्छेद२०)। १५. सा वंदणा जिणुत्ता वंदिज्जिह जिण- रूपशक्तिसमूहो वर्ग इत्युच्यते । xxx तथा
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वर्गणा ]
चोक्तं वर्ग वर्गणा स्पर्द्धकानां त्रयाणां लक्षणम् -- वर्ग: शक्तिसमूहोऽणोः XXX 1 ( समयप्रा. जय. वृ. ५७) ।
१ सबसे जघन्य गुण ( शक्त्यंश) वाले कर्मप्रवेश के अनुभाग को बुद्धिरूप छेदक के द्वारा तब तक खण्डित करना चाहिए जब तक उसका दूसरा खण्ड न हो सके, ऐसे श्रविभागप्रतिच्छेद सब जीवों से अनन्तगुणे होते हैं । उनकी एक राशि का नाम वर्ग है ।
वर्गणा - १. एवं तत्प्रमाणाः सर्वे तथैव परिच्छिन्नाः पंक्तीकृताः वर्गा वर्गणा । (त. वा. २, ५, ४) । २. असंखेज्जलोग मेत्त जोगाविभागपडिच्छेदाण मेया वग्गणा होदित्ति भणिदे जोगाविभागपडिच्छेदेहि सरिसवणिय सव्व जीवपदेसाणं जोगाविभागपडिच्छे दासंभवादो प्रसंखेज्जलोग मेत्ता विभागपडिच्छेदपमा
या वग्गणा होदित्ति घेत्तव्वं । ( धव. पु. १०, पृ. ४४२ ) ; समाणजोगसव्वजीवपदेसा विभागपडिच्छेदाणं च वग्गणा त्ति सण्णा सिद्धा । ( धव. पु. १०, पृ. ४५० ) ; किं च कसायपाहुडपच्छिमक्खंधसुत्तादो च गव्वदे जहा सरिसघणियसव्वजीवपदेसा बग्गणा होदिति । ( धव. पु. १०, पू. ४५१ ) ; वग्गाणं समूहो वग्गणा । ( धव. पु. १२, पू. ६४ ) । ३. वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा । ( समयप्रा. प्रमृत. वृ. ५७) । ४. परमाणूहि श्रणंतहि वग्गणसण्णा हु होदि एक्का हु । (गो. जी. २४५ ) । ५. XXX अणूनां ( समूहः ) वर्गणोदिता । ( पञ्चसं प्रमित. १- ४५ ) । ६. वर्गाणां समूहो वर्गणा भण्यते । XXX बहूनां वर्गणोदिता । ( समयप्रा. जय. वृ. ५७) । ७. अनन्तः द्विकवारानन्तमध्यपतितः सिद्धानन्तेकभागमात्रः अभव्यानन्तगुणप्रमाणैश्च परमाणुभिरेका वर्गणा । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २४४ ) ।
१ सब जीवों के श्रनन्तवें भाग प्रमाण वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं । २ श्रसंख्यात लोक प्रमाण योगाविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है । वर्गणादेश - वग्गणाणं संभवसामण्णं वग्गणादेसो णाम । ( व. पु. १४, पृ. १३६) । वर्गणाओं के संभवसामान्य का नाम वर्गणादेश है । वर्ण-वण्यंते अलंक्रियते शरीरमनेनेति वर्णः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७३) । जिसके द्वारा शरीर को श्रलंकृत किया जाता
[ वर्णनामकर्म
उसका नाम वर्ण है । वह श्वेत-पीतादि के भेद से पांच प्रकार का है । वर्णकाल - १. पंचहं वण्णाणं जो खलु वन्नेण कालो वण्णो । सो होइ वण्णकालो वणिज्जइ जो व जं कालं ॥ (श्राव. नि. ७३१) । २. पञ्चानां शुक्लादीनां वर्णानां यः खलु वर्णेन छायया कालको वर्णः, खलु शब्दस्यावधारणत्वात् कालक एव वर्णः, अनेन गौरादेर्नामकृष्णस्य व्यवच्छेदः, स भवति वर्णकाल:, वर्णश्चासौ कालश्च वर्णकालः । × × × वर्ण्यते प्ररूप्यते यो वा कश्चित्पदार्थो यत्कालं स वर्णकालः, वर्णप्रधानः कालो वर्णकालः । ( प्राव. नि. मलय. वृ. ७३१) ।
१ पांच वर्णों का जो वर्ण (छाया) से कालक वर्ण है उसका नाम वर्णकाल है । प्रथवा जिस पदार्थ का जितने काल वर्णन किया जाता है वह वर्णन - काल कहलाता है ।
वर्णकृति - चित्तारयाणमण्णेसि च वण्णुष्पायण कुसलाणं किरियाणिप्पण्णदव्वं णर-तुरयादिबहुसंठाणं वणं णाम । ( व. पु. ६, पृ. २७३ ) । चित्रकार अथवा वर्ण के उत्पादन में कुशल अन्य कलाकारों की क्रिया (प्रयोग) से जो मनुष्य व घोड़े प्रादि के बहुत श्राकार वाले द्रव्य उत्पन्न होते हैं उन्हें वर्णकृति कहा जाता है । वर्णजनन - १. वर्णशब्दः क्वचिद्यशसि तेन श्रहंदादीनां यशोजननम् विदुषां परिषदि अन्येषामविश्ववेदिनां दृष्टेष्टविरुद्धवचनता प्रदर्शनेन निवेद्य तत्संवादिवचनतया महत्ताप्रख्यापनं भगवतां वर्णजननम् । (भ. प्रा. विजयो. ४७ ) । २. वर्णजननं विदुषां परिषदि यशोजननम्, गुणकीर्तनमिति यावत् 1तत्र सुगतादीनां दृष्टेष्टविरुद्धवचनता प्रकाशेन सर्वज्ञत्वं प्रज्ञाप्य तत्संवादिवचनतया महत्त्वप्रख्यापनमर्हतां वर्णजननम् । (भ. प्रा. मूला. ४७ ) । १ 'वर्ण' शब्द कहीं यश का वाचक होता है। तदनुसार गुणकीर्तन का नाम वर्णजनन है। जैसे- विद्वानों की सभा में अल्पज्ञ अन्य बुद्धादिकों के वचनों को प्रत्यक्ष व अनुमानादि से विरुद्ध सिद्ध करके यथाता के कारणभूत अरहन्त के वचन की महिमा को प्रगट करना, यह अरहन्तों का वर्णजनन है । वर्णनामकर्म - १. यद्धेतुको वर्णविभागस्तद्वर्णनाम | ( स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १०; भ. प्रा.
६८३, जैन - लक्षणावली
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वर्णपरिणाम
९८४, जैन-लक्षणावली
[वर्तन
मूला. २१२४) । २. जस्स कम्मस्स उदएण जीव- ल्पैर्वर्तन्त इति कृत्वा तद्विषया वर्तना। (त. वा. ५, सरीरे वण्णणिफ्फत्ती होदि तस्स कम्मक्खंघस्स २२, २-४)। ४. अन्तर्नातकसमयः स्वसत्तानुभवो वण्णसण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ५५; पु. १३, पृ. भिदा। यः प्रतिद्रव्यपर्यायं वर्तना सेह कीर्त्यते ॥ ३६४) । ३. यदुदयाच्छरीरे वर्णनिष्पत्तिस्तद्वर्णनाम। (त. श्लो. ५, २२, १)। ५. वर्तन्ते स्वयमेव पदा(मूला. व. १२-१६४)। ४. यदुदयात् वर्णभेदो स्तेिषां वर्तमानानां प्रयोजिका कालाश्रया वत्तिः, भवति स वर्णनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। वय॑न्ते यया सा वर्तना। Xxx अथवा सैव १ जिसके निमित्त से शरीर में वर्ण का विभाग कालाश्रया वृत्तिर्वर्तनाशीलेति xxx वृत्तिर्वर्तनं हुमा करता है उसे वर्णनामकर्म कहते हैं।
तथाशीलतेति, सा च वर्तना प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तीवर्णपरिणाम-वर्णस्य कालादे:, परिणामः अन्यथा तकसमयस्वसत्तानुभूतिलक्षणा उत्पाद्यस्येतरस्य वा भवनम्, वर्णेन वा कालादिनेतरधर्मत्यागेन पुद्गल
भावस्य प्रथमसमयसंव्यवहारोऽनुमानगम्यस्तण्डुलादिस्य परिणामो वर्णपरिणामः। (स्थाना. अभय व.
विकारवदग्न्युदकसंयोगनिमित्ता विक्रिया प्राथमि२६५)।
क्यतीतानागत विशेषविनिर्मुक्ता, वर्तते पाकः अस्य वा कृष्णादि वर्णों के अन्यथा परिणमन का नाम वर्ण
भावाऽनुसमयस्थितेर्वर्तना प्रतीता सा चातिनिपुणपरिणाम है।
पुरुषबुद्धिगम्या । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२२)।
६. अन्तर्हतैकसमया प्रतिद्रव्यविपर्ययम् । अनुभूति वर्णादिनाम-यदुदयाद् वर्णादिविशेषवन्ति शरीराणि भवन्ति तद् वर्णादिनाम । (समवा. वृ. ४२)।
स्वसत्तायाः स्मृता सा खलु वर्तना ॥ (त. सा. ३
४१)। ७. स्वकीयोपादानरूपेण स्वयमेव परिणममाजिसके उदय से शरीर विशिष्ट वर्ण-गन्धादि से
नानां पदार्थानां पदार्थपरिणतेर्यत्सहकारित्वं सा युक्त होते हैं उसे वर्णादिनामकर्म कहा जाता है।
वर्तना भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. टी. २१)। ८. पूर्वगृहीवर्तक-प्रभावनाधिकोऽबाधमन्नाद्यः संघवर्तकः ।
तस्य सूत्रार्थस्य तदुभयस्य वा पुनः पुनरभ्यसनं जगदादेयवाग्मूर्तिवर्तकः काल-देशवित् ॥ (प्राचा. वर्तना। (व्यव. भा. मलय. वृ. द्वि. वि. १०२, पृ. सा. २-३५)।
३२)। ६. वर्तन्ते स्वयमेव स्वंपर्यायः बाह्योपग्रह जो प्रभावना में अधिक होता हुमा अन्न प्रादि के विना पदार्थाः, तान् वर्तमानान् पदार्थान् अन्यान् प्रयुद्वारा निर्बाध रूप से संघ का प्रवर्तक होता है, ङते या सा वर्तना।xxxसर्वेषां द्रव्याणां स्थूलजिसके वचन व मूर्ति लोक को उपादेय होते हैं, पर्यायविलोकनात् स्वयमेव वर्तनस्वभावत्वेन बाह्यं तथा जो देश-काल का ज्ञाता होता है, उसे वर्तक निश्चयकालं परमाणुरूपमपेक्ष्य प्रतिक्षणमुत्तरोत्तरकहा जाता है।
सूक्ष्मपर्यायेषु वर्तनं परिणमनं यद भवति सा वर्तना वर्तना-१. वतेणिजन्तात कर्मणि भावे वा युटि निर्णीयते । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२२) । स्त्रीलिंगे वर्तनेति भवति, वर्त्यते वर्तनमात्रं वा २ समस्त पदार्थों की कालाश्रित वृत्ति का नाम वर्तना इति । (स. सि. ५-२२)। २. सर्वभावानां वर्तना है। ३ जो वर्तता है-परिवर्तित होता वर्तना कालाश्रया वृत्तिः, वर्तना उत्पत्तिः, स्थिति है-अथवा जिसके द्वारा वाया जाता है उसे रथ गतिः प्रथमसमयाश्रयेत्यर्थः । (त. भा. ५-२२)। वर्तना कहते हैं । अथवा जो वर्तनशील है उसे वर्तना ३. णिजन्ताद युचि वर्तना। स्त्रीलिंगे कर्मणि भावे कहा जाता है। अथवा, एक अविभागी समय में वाणिजन्ताद्यचि सति वर्तनेति भवति, वय॑ते वर्तन- धर्मादिक छहों द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के मात्र वा वर्तनेति । xxx ततस्ताच्छीलिको विकल्पभूत अपनी सादि व अनादि पर्यायों से जो युच वर्तनशीला वर्तना। का पुनर्वर्तना? प्रतिद्रव्य- अपनी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सत्ता का अनुभव पर्यायमन्ततिकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना। x करते हैं उसी का नाम वर्तना है। ८ पूर्व में xx तस्या अनुभूतिः स्वसत्तानुभूतिर्वर्तनेत्युच्यते। ग्रहण किए गये सूत्र, पर्थ अथवा दोनों का जो एकस्मिन्नविभागिनि समये धर्मादीनि द्रव्याणि षडपि बार-बार अभ्यास किया जाता है उसे बर्तना स्वपर्यायरादिमदनादिमद्धिरुत्पाद-व्यय - ध्रौव्यविक. (परिवर्तन) कहते हैं।
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[वर्ष
वर्तमान काल]
९८५, जैन-लक्षणावलो वर्तमान काल-१. यद् द्रव्यं क्रियापरिणतं काल. ३-१२४)। परमाणुं प्राप्नोति तद् द्रव्यं तेन कालेन वर्तमानसमय- भगवान के जन्म से लेकर आगे उत्तरोत्तर ज्ञानादि स्थितिसंबन्धवर्तनया वर्तमानः कालः । कालाणुरपि गुणों से वृद्धिगत होने के कारण तथा गर्भ में वर्तयंस्तद्रव्यमन तिक्रान्तसम्बन्धवर्तनात् तदाख्यो स्थित रहने पर ज्ञातकुल धन-धान्य प्रादि से वृद्धि भवति । (त. वा. ५, २२, २५)। २. घडिज्जमाणो को प्राप्त हग्रा इसलिए भी चौबीसवें तीर्थकर वर्धबट्टमाणो। (चव. पु. ३, पृ. २६) ।
मान इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हए। १ जो द्रव्य क्रिया से परिणत होकर कालपरमाणु वर्धमानप्रवधि-१. अपरोऽवधिः परणिनिर्मथनोको प्राप्त होता है वह द्रव्य उस काल से वर्तमान त्पन्नशुष्कपर्णोचीयमानेन्धननिचयसमिद्धपावकवत् समय की स्थिति के सम्बन्ध रूप वर्तना के निमित्त सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धिपरिणामसन्निधानाद्यत्परिसे वर्तमान काल कहलाता है। साथ ही उस द्रव्य माण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते प्रा असंख्येयलोकेभ्यः । को वर्ताने वाला कालाणु भी अनतिकान्त सम्बग्ध (स. सि. १-२२; त. वा. १, २२, ४) । २. जमो. के वर्तन से वर्तमान काल कहलाता है। २ जो प्रस्थ हिणाणमुप्पण्णं संतं सुक्कपक्खचंदमंडलं व समयं मादि वन रहा है उसे वर्तमान प्रस्थ आदि कहा पडि प्रवट्ठाणेण विणा वड्ढमाणं गच्छदि जाव जाता है।
अप्पणो उक्कस्सं पाविदूण उवरिमसमए केवलणाणे वर्तमाननगम-१. पारद्धा जा किरिया पयण- समुप्पण्णे विणठं ति तं वड्ढमाणं णाम । (धव. पु. विहाणादि कह ह जो सिद्धा। लोए य पुच्छमाणे तं १३, पृ. २६३) । ३. वर्द्धमानोऽवधिः कश्चिद्विशुद्धे भण्णइ वट्टमाणणयं ।। (ल. नयच. ३४) । २. कर्तु वृद्धितः स तु । देशावधिरिहाम्नातः परमावधिरेव मारब्धमीषन्निष्परमनिष्पन्नं वा वस्तु निष्पन्नवत्क- च ॥ (त. श्लो. १, २२, १३)। ४. यत् शुक्लथ्यते यत्र स वर्तमाननगमो यथा प्रोदनः पच्यते। पक्षचन्द्रमण्डलमिव स्वोत्कृष्टपर्यन्तं वर्धते तद्वर्धमा. (पालापप. प. १३८)। ३. पारद्धा जा किरिया नम्। (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३७२)। ५. पचणविहाणादि कहइ जो सिद्धा । लोएसु पुच्छमाणो कश्चिदवधि: सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धिपरिणामसंनिभण्णइ तं वट्टमाणणयं ॥ (द्रव्यस्व. प्र. नयच. धाने सति यावत्परिमाण उत्पन्नस्तस्मादधिकाधिको २०७)। ४. संप्रतिकालाविष्टं वस्तु इदानीं वर्त- वर्द्धते असंख्येयलोकपर्यन्तम् अरणिकाष्ठनिर्मन्थनोदमानकालाविष्टं पदार्थ साधयति स वर्तमाननै गमः। भूतशुष्कपर्णोपवर्द्धमानेन्धनराशिप्रज्ज्वलितहिरण्यरेअथवा कर्त्तमारब्धं ईषनिष्पन्नम अनिष्पन्न वा वस्तू तोवत् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२२) । निष्पन्नवत् कथ्यते यत्र स वर्तमाननगमः, यथा १ जिस प्रकार अरणि (वृक्षविशेष) के संघर्षण से मोदनं पच्यते । (कातिके. टी. २७१) ।
उत्पन्न हुई अग्नि सूखे पत्तों रूप संचित इंधन को १ जो पचन आदि क्रिया प्रारम्भ की गई है उसे पाकर उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होती है उसी जन के पूछने पर जो नय 'सिद्ध (निष्पन्न)' कहता। प्रकार सम्यग्दर्शनादि गुणों के विशुद्धिरूप परिणाम है उसे वर्तमान नंगमनय कहते हैं।
की समीपता से जो अवधिज्ञान जितने प्रमाण में वर्तमान-नोआगम-ज्ञायकशरीर-द्रव्यभाव- उत्पन्न हुआ है उससे असंख्यात लोक पर्यन्त चूंकि भावपाहुडपज्जायपरिणदजीवेण जमेगीभूदं सरीरं तं उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है अतः वह वर्धमान प्रववट्टमाणं णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८४)। धिज्ञान कहलाता है। जो शरीर भावप्राभत पर्याय से परिणत जीव के वर्ष----१.xxx अयणदुगेणं वरिसोxxxii साथ एकोमूत हो रहा है उसे वर्तमान-नोग्राग-ज्ञायक- (ति. प. ४-२८६) । २. वर्ष तथा द्वे अयने वदन्ति शरीर-द्रव्यभाव कहा जाता है।
सख्याविभागक्रमकौशलज्ञाः ।। (बरांगच. २७-६) । वर्द्धमान-उत्पत्तेरारभ्य ज्ञानादिभिर्वर्धत इति वर्ध- ३. द्वादशमासं वर्षम् । (धव. पु. ४, पृ. ३२०)। मानः, तथा भगवति गर्भस्थे ज्ञातकूलं धन-धान्यादि- ४.xxx अयणजयलेण होइ वरिसेक्को। (भावसं. भिर्वर्धत इति वर्धमानः । (योगशा. स्वो. विव. ३१५) । ५. अयनद्वयं वर्ष मिति । (पंचा. का. जय.
ल. १२४
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वलन्मर
१८६, जैन-लक्षणावली
[वश्यकर्म
वृ. २५)। ६. वस्सं वे अयणं पुष xxx। कुल्हाड़ी प्रादि के द्वारा वन के वृक्ष प्रादि को छेदने (जं. दी. प. १३-८)।
का नाम वल्लरिच्छेद है। यह छेदना के दस भेदों १दो अयनों का एक वर्ष होता है।
में छठा है। वलन्मरण-देखो वलायमरण ।
वश उत्पादनदोष-देखो वश्यकर्म । वलाकामरण-देखो आये वलायमरण । वशार्तमरण-१. जे इंदिय विसयवसट्टा मरंति वलायमरण-१. संजमजोगविसना मरंति जे तं वसट्टमरणं । तद्यथा-शलभो रूववग्गो चक्षुरिबलायमरणं, जेसि संजमजोगो अस्थि ते मरणमन्भव- न्द्रियवशा” म्रियते, एवं शेषेरपीन्द्रियः (शेषाः) । गच्छंति, 4 सव्वथा संजममुझंति, से तं वलाय- (उत्तरा. चू. ५, पृ. १२८) । २. इंदियविसममरणं । अथवा वलंता क्षुधापरीसहेहिं मरंति, ण तु वसगया मरंति जे तं वसटें तु ॥ (प्रव. सारो. उवसग्गमरणंति तं वलायमरणं । (उत्तरा. ७. १०१०, पृ. २६८; स्थाना. अभय. वृ. १०२ उद्.)। ५, प. १२८)। २. विनय-वैयावत्यादावतादरः ३. इन्द्रियाणां वशम् अधीनताम, ऋतानां गतानां प्रशस्तयोगोद्वहनालसः प्रमादवान् व्रतेषु समितिषु
स्निग्धदीपकलिकावलोकनाकूलितपतङ्गादीनामिव मगुप्तिषु च स्ववीर्यनिगूहनपरः धर्मचिन्तायां निद्रया रणं वशार्तमरणमिति । (स्थाना. अभय. व. १०२, घर्णित इव ध्यान-नमस्कारादेः पलायते अनुपयुक्ततया, पृ. ६४) । एतस्य मरण वलायमरणम् । (म. प्रा. विजयो. १ जो इन्द्रियविषयों के वश होकर पीड़ित होते २३, पृ. ८९) । ३. संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं हुए मरण को प्राप्त होते हैं उनके उस मरण को वलायमर तु। (प्रव. सारो. १०१०, पृ. २९८%3 वशातमरण कहा जाता है। स्थाना. अभय. वृ. १०२ उद्) । ४. संयम-योगेभ्यो वशित्व-१. वशमेंति तवबलेणं ज जीग्रोहा वरि. वलतां भग्नवतपरिणतीनां वतिनां मरणं वलन्मरणम। त्तरिद्धी सा॥ (ति. प. ४-१०३०)। २. सर्वजीव(समवा. वृ. १७) । ५. वलतां संयमान्निवर्तमाना- वशीकरणलब्धिर्वशित्वम् । (त. वा. ३, ३६, ३, मां परीषहादिबाधितत्वात मरणं वलन्मरणम । पृ. २०३; चा. सा. पृ. ९८%योगिभ. टी. ६; (स्थाना. अभय. वृ. १०२)। ६. पावस्थरूपेण योगशा. स्वो. विव. १-८, पृ. ३७)। ३. मागुनमरपं वलाकामरणम् । (भ. प्रा. मला. २५)। मायंग-हरि-तुरयादीणं सगिच्छाए विउन्वणसत्ती १बो संयम के अनुष्ठान से खिन्न हो करके मरण । वसित्तं णाम । (धव. पु. ६, पृ. ७६) । ४. वशित्व को प्राप्त होते हैं उनके उस मरण को वलायमरण यद् भूतानि स्थावर-जङ्गमानि वशं नयति वश्येन्द्रिकहा जाता है। जिनके संयमयोग होता है वे मरण यश्च भवति । (न्यायकु. ४, पृ. १११)। ५. सर्वको स्वीकार करते हैं, पर सर्वथा संयम को नहीं प्राणिगणवशीकरणशक्तिर्वशित्वम् । (त. वृत्ति अन. छोड़ते हैं, यह वलायमरण कहलाता है। प्रथवा जो ३-३६)। संयम से भ्रष्ट होकर क्षुधा परीषहों के द्वारा मरते हैं १ तप के बल से प्राप्त जिस ऋद्धि के प्रभाव से उनका वह मरण वलायमरण कहलाता है। २ जो जीवसमूह अपने वश में हो जाया करते हैं उसका विनय व वैयावृत्य धादि में प्रादर नहीं करता, प्रशस्त नाम वशित्व ऋद्धि है। २ समस्त जीवों को वश योगके अनुष्ठान में अनादरपूर्वक मालस में करने वाली शक्ति को वशित्व ऋद्धि कहा जाता करता है। व्रत, समितियों व गप्तियों के विषय में है। अपनी शक्ति को छिपाता है तथा धर्मचिन्तन में वश्यकर्म-१.xxx वश्यकर्म यत् । वश्यनिद्रा से अभिभूत के समान होता हुमा ध्यान कृन्मंत्र-तंत्रादिदेशनेनाशनार्जनम् ॥ (प्राचा. सा. नमस्कारादि से दूर भागता है, उसके मरण को ८-४२) । २. वशो वशीकरणम् । (प्रन. प. स्वो. वलायमरण कहते हैं । इसका उल्लेख वलन्मरण से टी. ५-१६); अवशस्य अस्वाधीनस्य वशीकृतिः भी किया जाता है।
स्वाधीनीकरणमवशवशीकृतिः। (अन. प. स्वो. टी. पल्लरिच्छेद--कुढारादीहि भइरुक्खादिखंडणं ५-२७) । ३. वशीकरणमंत्र-तंत्राद्युपदेशेन यदन्मोबस्वरिच्छेदो बाम । (वव. पु. १४, पृ. ४३६)। पार्जनं तश्यकर्म । (भावप्रा. टी. १६)।
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बसति-संस्तरविवेक]
१८७, जैन-लक्षणावली [वस्तुश्रुतज्ञानावरणीय १ मंत्र-तंत्रादि के उपदेश द्वारा दाता को अपने १ जो मुख्य व गौण की अपेक्षा रखकर अनेकात्मक अधीन करके भोजन के प्राप्त करने पर वह वश्य- स्वरूप को न छोड़ते हुए एक है तथा एकरूपता को कर्म नामक उत्पादनदोष से दषित होता है। न छोड़ते हए अनेक भी है उसे ही वस्तु कहा ना बसति-संस्तरविवेक-वसति-संस्तरयोविवेको नाम सकता है। २ जो प्रत्यक्ष प्रादि प्रमाणों की विषय कायेन वसतावनासनं प्रागध्युषितायां संस्तरे वा हो तथा परस्पर विरुद्ध दिखने वाले-जैसे एकप्राक्तने प्रशयनम् अनासनम । वाचा त्यजामि वसति- अनेक व नित्य-अनित्य प्रादि-धर्मों से अधिष्ठित हो संस्तरमिति वचनम् । (भ. प्रा. विजयो. १६६)। वह वस्तु कहलाती है। ३ जिसमें गुण व पर्याय रहा जिस वसति में,पहिले रह रहा था उसमें न रहना, करते हैं उसे वस्तु कहते हैं। इसी प्रकार पूर्व के विछौने पर न सोना-बैठना; यह है गादिधर्मकथा-१. सयलंगेक्कंगेकाय से वसति-संस्तरविवेक कहलाता है तथा में कंगहियार सवित्थरं ससंखेवं । वण्णणसत्थं थयवसति और संस्तर का परित्याग करता हूं, इस थइ-धम्मकहा होइ नियमेण ॥ (गो. क. ८८) । प्रकार वचन से कहना, इसे वचन से वसति-संस्तर- २. एकांगाधिकारार्थसविस्तर-ससंक्षेपविषयसंक्षेपविविवेक कहा जाता है। यह पांच प्रकार के विवेक में षयशास्त्रं च वस्त्वनयोगादिधर्मकथा च भवति निय. दूसरा है।
मेन । (गो. क. जी. प्र. ८८)। बसति-संस्तरशुद्धि-उद्गमोत्पादनषणादोषरहि
१ जिस शास्त्र में एक अंग के अधिकार सम्बन्धी तता 'ममेदम्' इत्यपरिग्राह्यता च वसति-संस्तरयोः
प्रर्थ का विस्तार अथवा संक्षेप से वर्णन किया जाता
। शुद्धिः । (भ. मा. विजयो. १६६) ।
है उसका नाम वस्तु-अनुयोगाविरूप धर्मकथा है। उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषों से रहितता तथा 'ममेदम्-यह मेरा है' इस प्रकार से उन्हें प्राह्य न
वस्तुत्व-सायान्य-विशेषात्मकत्वं वस्तुत्वलक्षणम् । मानना, इसे वसति-संस्तरशुद्धि कहा जाता है।
(अष्टश. १६)।
वस्तु में जो सामान्यरूपता और विशेषरूपता होती वह पांच प्रकार की शुद्धि में दूसरी है। वसा-वसा मांसास्थिगतस्निग्धरसः । (मूला. व.
है, यही वस्तु का वस्तुत्व-उसका लक्षण है। १२-११)।
वस्तुश्रुतज्ञान-१. पुणो एत्थ एगक्खरे वडिदे मांस और हड्डियों में जो चिक्कण रस रहता है वत्थुसुदणाणं होदि । वत्थु त्ति किं वृत्तं होदि ? उसका नाम वसा है । यह शरीर को सात धातुओं पुव्वर जसका नाम दमा है। यह हार को मात धातों पुव्वसुदणाणस्स जे अहियारा तेसि पूध पध वत्थ इदि में से एक है जिसे चर्बी कहा जाता है।
सण्णा । (धव. पु. १३, पृ. २७०) । २. वस्तु नियवसा-वसयोपलिप्तं वसाम । (सूत्रकृ. नि. शी.
तार्थाधिकारप्रतिवद्धो ग्रन्थविशेषोऽध्ययनवदिति । वृ. १८५)।
(समवा. अभय. व. १४७) । जो वसा (चौं) से उपलिप्त हो उसे वसा कहा। १ प्राभृतसमास श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की जाता है । यह नोप्रागम-द्रव्य-माई के भेदों में है। वृद्धि के होने पर वस्तु नामक श्रुतज्ञान होता है। वस्तु-१. नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रजह- उत्पादादि पूर्वो में से प्रत्येक में जो नियत संख्या में च्च नाना। अंगागिभावात्तव वस्त यत्तत क्रमेण अधिकार है वे पृथक्-पृथक वस्तुश्रुतज्ञान कहलाते हैं। वाग्वाच्यमनन्तरूपम् ॥ (युक्त्यनु. ५०) । २. प्रत्य- २ नियत अधिकार से सम्बद्ध प्रकरणविशेष-जैसे क्षादिप्रमाणविषयभूतं विरुद्धधर्माध्यासलक्षणं वाऽवि- अध्ययन प्रादि-का नाम वस्तु है। ये वस्तु अधिरुद्धं वस्तु । (प्रष्टश. ११०)। ३. वसन्त्यस्मिन् कार नियत संख्या में उत्पाद प्रादि पूर्वो में पाये गुण-पर्याया इति वस्तु चेतनादि। (ध्यानश. हरि. जाते हैं। जैसे-उत्पादपूर्व में १० व अग्रायणी पूर्व व. ३)। ४. यदर्थक्रियाकारि तद्वस्तु । (घव. पु. १. में १४, इत्यादि। पृ. १७४) । ५. स्यात् स्व-पररूपादिना सदसदाद्य- वस्तुश्रुतज्ञानावरणीय-वत्थुसुदणाणस्स जमावानेकान्तात्मकं वस्तु । (न्यायकु. १-४) । ६. सामा- रयं कम्मं तं वत्थुनावरणीयं । धव. पु. १३, पृ. न्य-विशेषात्मकं वस्तु । (स्वयम्भू. टी. ४४)। २७६) ।
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वस्तुसमासश्रुतज्ञान] १८८, जैन-लक्षणावली
{वाक्यशुद्धि जो कर्म श्रुतज्ञान को प्राच्छादित करता है उसे गया एक पात्र), चंगेर, किदय (चटाई ?), चालनो, वस्तुश्रुतज्ञानावरणीय कहते हैं ।
कंबल और वस्त्र प्रादि तैयार किये जाते हैं उन्हें वस्तुसमासश्रुतज्ञान-पुणो एदस्स (वत्थुसुदणा- वाइम द्रव्यप्रकृति कहा जाता है । णस्स) उवरि एगक्खरे वड्ढिदे वत्थुसमासो होदि। वाक्छल- अविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायाद् एवमेगेगक्खरुत्तरवड्ढिकमेण वत्थुसमाससुदणाणं अर्थान्तरकल्पना वाक्छलम् [न्यायसू. १, २, १२]। गच्छदि जाव एगक्खरेणूणलोगबिंदुसारसुदणाणेत्ति। (सिद्धिवि. वृ. ५, २, पृ. ३१७) । (धव. पु. ६, पृ. २५, पु. १३, पृ. २७३)। सामान्यरूप से विवक्षित पदार्थ का कयन करने पर वस्तुश्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि के होने वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अन्य पदार्थ की कल्पना
मासश्रतज्ञान होता है । इस प्रकार करना, इसे वाकछल कहा जाता है। जैसे---'सव उत्तरोत्तर एक-एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से एक कम्बलों वाला देवदत्त' ऐसा कहने पर वक्ता को जो अक्षर कम लोकबिन्दुसार (अन्तिम पूर्व) तक वस्तु- 'नव' शब्द से 'नवीन' अर्थ अभिप्रेत है उसको न लेकर समासश्रुतज्ञान चला जाता है।
उसके 'नो' संख्यारूप भिन्न अर्थ की कल्पना करके वस्तुसमासश्रुतज्ञानावरणीय--वत्थुसमाससुदणा- यह कहना कि उसके पास तो एक ही फम्बल है, नौ णस्स जमावारयं कम्मं तं वत्थुसमासावरणीय। कहां हैं? यह वाक्छल कहलाता है। (धव. पु. १३, पृ. २७६) ।
वाकपारुष्य-- ज्ञाति-वयोवृत्त-विद्या-विमवानुचितं जो कर्म वस्तुसमासश्रुतज्ञान को प्राच्छादित करता हि वचनं वाक्पारुष्यम् । (नीतिवा. १६-२८, पृ. है उसे वस्तुसमासश्रुतज्ञानावरणीय कहते हैं। १७६)। वह्नि (लौकान्तिकदेव)--- वह्निवदैदीप्यमानाः जो वचन जाति, पाय, चारित्र, विद्या और वैभव वह्वयः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-२५) ।
के योग्य न हो उसका नाम वाक्पारुष्य है। जो लौकान्तिक देव वह्नि (अग्नि) के समान दैदीप्य- वाक्प्रयोग-वाक्प्रयोगः शुभेतरलक्षणः। (धध. मान होते हैं वे वह्नि नाम से प्रसिद्ध हैं।
पु. ६, पृ. २१७)। वह्निमण्डल-१. स्फुलिङ्गपिङ्गलं भीममूर्ध्वग्वा- वचन का प्रयोग दो प्रकार से होता है--शुभ और
चितम । त्रिकोणं स्वस्तिकोपेतं तदबीज प्रशभ । इसका विवेचन सत्यप्रवाध पूर्व में किया वद्विमण्डलम ॥ (ज्ञाना. २६-२२, पृ. २८८)। जाता है। २. ऊर्ध्वज्वालाञ्चितं भीमं त्रिकोणं स्वस्तिकान्वि- वाक्य--१. पदानां परस्परापेक्षाणा निरपेक्ष. समतम् । स्फूलिङ्गपिङ्ग तबीजं ज्ञेयमाग्नेयमण्डलम ।। दायो वाक्यम् । (अष्टश. १०३; न्यायकु. ७२, पृ. (योगशा. ५-४६)।
७९७; प्राप्तमी. वसु. वृ. १०३; लघीय. अभय. १ अग्निकणों से पीत वर्ण वाला, भयानक, ऊपर वृ. ६४, पृ. ८७)। २. अर्थप्रतिपादक पदसमूहात्मक उठने वाली सैकड़ों ज्वालानों से संयुक्त, तीन कोनों वाक्य मेकतिङ्-सुबन्तं वा। (सूत्रकृ. सू. शी. स. २, के प्राकार से सहित, स्वस्तिक (एक मांगलिक चिह्न- ४, ६३, पृ. १०८)। विशेष---साथिया) चिह्न से चिह्नित प्रौर अग्नि १परस्पर अपेक्षा रखने वाले पदों के निरपेक्ष समबीजाक्षर से युक्त जो मण्डल नासिका के छिद्र में दाय को वाक्य कहा जाता है। २ अर्थ के प्रतिपारहता है उसका नाम वह्निमण्डल है । इसका दक पदों के समूह को अथवा एक तिह' या 'सुप्' उल्लेख अग्निमण्डल और आग्नेयमण्डल प्रादि अन्य (व्याकरण प्रसिद्ध प्रत्ययविशेष) प्रत्ययान्त पड़ों के पर्यायनामों से भी किया जाता है । मण्डल के समूह को वाक्य कहते हैं । स्थान में पुर शब्द का भी व्यवहार हुपा है। वाक्यशुद्धि-१. वाक्य शुद्धिः पृथिवीकायिकारम्मावाइम द्रध्यकृति- वायणकिरियाणिप्फणं सुप्प- दिप्रेरणरहिताः[ता] परुष-निष्ठरादिपरपीडाकरप्रयो
या- चंगेरि-किदय-चालणि-कंवल-वस्था- मनिरुत्सुका व्रत-शील-देशनादिप्रवानफला हित-मितदिवव्वं वाइमं णाम । (धव. पु. ६, पृ. २७२)। मधुर-मनोहरा संयतस्य योग्या। (त. पा.६६, बनवेलप किया से जो सूप, पत्थिया (बांस से बनाया १६; त. श्लो. १-६) । २. वाक्य शुद्धिः पणिवी
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वाक्यस्फोट ]
कायिकाद्यारम्भप्रेरणरहिता युद्ध-काम-कर्कश संभिनालाप - पशून्य-परुष-निष्ठुरादिपरपीडाकर प्रयोगनिरुत्सुका स्त्री-भक्त- राष्ट्रावनिपालाश्रितकथाविमुखा व्रत- शील- देशनादिप्रदानफला स्व-परहित मितमधुरमनोहरा परमवैराग्यहेतुभूता परिहृतपरात्मनिन्दा प्रशंसा संयतस्य योग्या । (चा. सा. पृ. ३६-३७ ) । ३. कन्या प्रदानयोग्येयं क्षेत्रादि लवनोचितम् । प्रोखाताः परिखाः कूप वाप्यः शास्या दुरोहिताः ॥ गीत-वादित्र नृत्यानि हृद्यानीयं वरांगनाः । भेटभमल्लयुद्धानि सुकृतानि वनं वरम् ॥ रोग्यन्धः पङ्गुरित्यादिव्यवहाराश्रिता प्रिया । संयतोचितवाक्त्यागाद्देश-काल- सभोचिता ॥ मृदु-मधुर-गम्भीरा वाङ मोक्षमार्गोपदेशना । वाक्यशुद्धिर्गुणाम्भोविविचुदीदितिरीरिता । ( श्राचा. सा. ८, ६-९) । ४. वाशुद्धिः परुष-कर्कशादिवचोवर्जनम् । ( सा. घ. स्वो. टी. ५-४५) । ५. हुंकारो ध्वनिनोच्चारः शीघ्रपाठी विलम्बनम् । यत्र सामायिके न स्यादेषा वाशुद्धिरिष्यते ॥ ( धर्मसं. श्री. ७-४६ ) ।
१ पृथिवोकायिकादि जीवों के प्रारम्भविषयक प्रेरणा से रहित और परपीडाजनक कठोर प्राबि वचनों के प्रयोग से विहीन जो हितकारक व परमित वचन बोला जाता है, इसका नाम वाक्यशुद्धि है । ४ कठोर निष्ठुर प्रावि वचन के न बोलने का नाम वाशुद्धि है । ५ जिस सामायिक में हूं हूं करने, शब्द से उच्चारण करने तथा शीघ्रता या विलम्ब से पाठ करने का परित्याग किया जाता है वह वाक्शुद्धि से युक्त होती है। इसके विना वह वाक्प्रणिधान नामक प्रतिचार से दूषित होती है । वाक्यस्फोट - १. वाक्यार्थज्ञानावरण- वीर्यान्तराय क्षयोपशमविशिष्टो वाक्यस्फोट: । ( युक्त्यन. टी. ४० ) । २. स्फुटति प्रकटीभवत्यर्थोऽस्मिन् इति स्फोटश्चिदात्मा | X X X वाक्यार्थज्ञानावरणवोर्यान्तरायक्षयोपशम विशिष्टस्तु वाक्यस्फोट इति । (प्र. क. मा. ३-१०१, पृ. ३५६ न्यायकु. ६५, पृ. ७५४) ।
२ 'स्फुटति श्रर्थो ऽस्मिन्' इस निरुक्ति के अनुसार जहां घर्थ प्रगट होता है उसका नाम स्फोट है, इस प्रकार स्फोट का अर्थ ग्रात्मा होता है। तदनुसार वाक्यार्थज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से मुक्त प्रात्मा को वाक्यस्फोट कहा जाता है।
१८६, जैन - लक्षणावली
[ वाग्गुष्ति
वाक्शुद्धि - देखो वाक्यशुद्धि ।
वाक्संयम - वाचो हिंस्र परुषादिवचोभ्यो निवृत्तिः शुभभाषायां च प्रवृत्तिर्वाक्संयमः । (योगशा. स्वो. विव. ४–६३) । हिंसाजनक व कठोर श्रादि वचनों से दूर रहकर शुभ भाषा में जो प्रवृत्ति होती है, इसे वाक्संयम कहा जाता है ।
वागधिकरण - वाग्गतं निष्प्रयोजनकथाख्यानं परपीडाप्रधानं यत्किंचन वक्तृत्वम् । (त. वा. ७, ३२, ५) ।
अनर्थक कथा वार्ता करने तथा अन्य को पीड़ा पहुंचाने वाला जो कुछ भी सम्भाषण हो उसे वागधिकरण कहते हैं ।
वाग्गुप्ति -- १. थी - राज-चोर भत्तक हादिवयणस्स पावउस्स । परिहारो वचगुत्ती अलीयादिणियत्तिवयणं वा ॥ ( नि. सा. ६७ ) ; अलिया दिणियत्ती वा मोणं वा होदि वचियुक्ती ॥ (नि. सा. ६६ ; मूला. ५-१३५; भ. प्रा. ११८७ ) । २. व्यलीकनिवृत्तिर्वाचां संयमत्वं वा वाग्गुप्तिः । (घव. पु. १, पृ. ११६, पु. ६, पृ. २१६ ) ३. अनृत- परुषकर्कश - मिथ्यात्वा संयमनिमित्तवचनानाम् अवक्तृता वाग्गुप्ति: । (भ. श्री. विजयो. ११५); विपरीतार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वात्परदुःखोत्पत्तिनिमित्तत्वाच्चाधर्माद् या व्यावृत्तिः सा वाग्गुप्तिः । x x x व्यलीकात् परुषादात्मप्रशंसापरात् परनिन्दाप्रवृत्तात् परोपद्रवनिमित्ताच्च वचसो व्यावृत्तिरात्मनस्तथाभूतस्य वच
प्रवर्तका वाग्गुप्तिः । यां वाचं प्रवर्तयन् श्रशुभं कर्म स्वीकरोत्यात्मा तस्या वाच इह ग्रहणम् । वाग्गुप्तिस्तेन वाग्विशेषस्यानुत्पादकता वाचः परिहारो वाग्गुप्तिः । मोनं वा सकलाया वाचो या परिहृतिः सा वाग्गुप्ति: । अयोग्यवचनेऽप्रवृत्तिः प्रेक्षापूर्वकारितया योग्यं तु वक्ति वा न वा । (भ. श्री. विजयो. ११८७ ) । ४. XXX सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य । (पु. सि. २०२ ) । ५. साधुसंवृतवाग्वृत्तेमनारूढस्य वा मुनेः । संज्ञादिपरिहारेण वाग्गुप्तिः स्यान्महामुनेः ॥ ( ज्ञाना. १८ - १७, पृ. १६१) । ६. गजाश्व शस्त्र शास्त्रादिव्याख्याया: क्लेशकारिणः । सत्यस्यापि निवृत्तिर्वाग्गुप्तिर्वाचंयमोऽथवा ॥ (प्राचा. सा. ५ - १३६) । ७. संज्ञादिपरिहारेण यन्मोनस्यावलम्बनम् । वाग्वृत्तेः संवृत्तिर्या
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वाग्जीवी]
६६०. जैन-लक्षणावली
[वाग्योग
सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥ (योगशा. १-४२)। १प्रणिधान का अर्थ प्रयोग है। वर्णों के संस्कार का ८. XXX दुरुक्तित्यजनतनुमवाग्लक्षणां वोक्ति- न होना, अर्थ का अनवबोध तथा पाठ में चंचलता, गुप्तिम् । (अन. घ. ४-१५६)। ६. विपरीतार्थ- यह वाग्दुष्प्रणिधान नामक सामायिक का एक अनिप्रतिपत्तिहेतुत्वात्परदुःखोत्पत्तिनिमित्तत्वाच्चाधर्माद्या चार है। वाचो व्यावृत्तिः सा वाग्गुप्तिः, तथाविधवाक्प्रवत्ति- वाग्बली-देखो वचनबला ऋद्धि । १. मनोजिह्वानिमित्त वीर्यरूपेणापरणतिरात्मन इत्यर्थः । (भ. प्रा. श्रुतावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमातिशये सत्यन्तर्मुहूर्वे मूला. ११८७)। १०. असच्चणिवत्ती मोणं वा सकलश्रुतोच्चारणसमर्थाः सततमुच्चरुच्चारणे सत्यपि वाग्गुत्ती । (अंगप. ७८, पृ. २६२ गद्य)। श्रमविरहिताः अहीनकण्ठाश्च वाग्बलिनः । (त. वा. १ पाप को हेतुभूत स्त्रीकथा, राजकथा, चौर्यकथा ३, ३६, ३, पृ. २०३; चा. सा. पृ. १०१)। २. और भोजनकथा इत्यादि विकथानों के परित्याग अन्तर्मुहूर्तेन सकलश्रुतवस्तूच्चारणसमर्था वाग्बलिनः । को अथवा असत्य प्रादि वचनों के परित्याग को अथवा पद-वाक्यालङ्कारोपेतां वाचमुच्चरुच्चारयन्तोवचनगुप्ति कहते हैं। २ असत्य के त्याग करने ऽविरहितवाक्क्रमाहीनकण्ठा वाग्बलिनः । (योगशा. अथवा वचनों पर नियंत्रण रखने को बाग्गुप्ति कहा स्वो. विव. १-८) ।
। ७ संकेत मादि के छोड़ने के साथ जो १ मन व जिहा श्रतज्ञानावरण के क्षयोपशम के मौन का अवलम्बन लिया जाता है अथवा वचन की होने पर अन्तर्मुहूर्त में जो समस्त श्रुत के उच्चारण प्रवृत्ति पर नियन्त्रण रखा जाता है, इसका नाम करने में समर्थ होते हुए निरन्तर ऊंचे स्वर से बाग्गुप्ति है।
उच्चारण करने पर भी परिश्रम से रहित व कण्ठ वाग्जीवी-वाग्जीवी वैतालिकः सूतो वा। (नी. से परिपूर्ण होते हैं उन्हें वाग्बल (वचनवल) तिवा. १४-२६, पृ. १७४) ।
ऋद्धि के धारक समझना चाहिए। वैतालिक (स्तुतिपाठक) अथवा सूत (सारथी) ये वाग्भव-असमीक्ष्याधिकरण-वाग्भवं निष्प्रयोवाग्जीवी-वचन के माधय से भाजीविका चलाने जनकथाव्याख्यानं परपीडाप्रधान यत्किचन वक्तृत्वं वाले हैं।
च। (चा. सा. पु. १०)। वाग्दुष्प्रणिधान-१. दुष्ठु प्रणिधानमन्यथा वा निरर्थक कथा-वार्ता करना तथा दूसरों को पीड़ा दुष्प्रणिधानम् । प्रणिधानं प्रयोगः परिणामः इत्यना- पहुंचाने बाला कुछ भी भाषण करना, यह वाग्भव न्तरम् । दुष्ठु पापं प्रणिधानं दुष्प्रणिधानं अन्यथा वा (वाचिक) असमीक्ष्याधिकरण कहलाता है। यह प्रणिधानं दुष्प्रणिधानम् । xxx वर्णसंस्कारा- अनर्थदण्डव्रत के अतिचारों के अन्तर्गत है। भावार्थागमकत्व-चापलादिवागतम् दुष्प्रणिधानम्]। वाग्योग-१. शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्वर्गणा(त. वा. ७, ३३, २) । २. प्रणिधानं प्रयोगः, दुष्टं ___ लम्बने सति वीर्यान्तराय-मत्यक्षराद्यावरणक्षयोपप्रणिधानं दुष्प्रणिधानम्। Xxx वर्णसंस्कारा- शमापादिताभ्यन्तरवाग्लब्धिसान्निध्ये वाक्परिणामाभावार्थानवगम-चापल्यानि वाक्रिया वाग्दुष्प्रणि- भिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः । (स. सि. घानम् । (त. भा. सिद्ध. वृ.७-२८)। ३. वर्ण- ६-१; त. वा. ६, १, १०)। २. प्रौदारिक-वैक्रिसंस्कारे भावार्थ चागमकत्वं चापलादि वाग्दःप्रणि- याहारकशरीरव्यापाराहृतवान्द्रव्यसमूहसचिव्याज्जीधानम् । (चा. सा. पृ. ११)। ४. वर्णसंस्कारा- वव्यापारो वाग्योगः । (ध्यानश. हरि. वृ. ३, भावोऽर्थानवगमश्चापलं च बाग्दुष्प्रणिधानम् । स्थाना. अभय. वृ. १-२० व १-५१, योगशा. (योगशा. स्वो. विव. ३-११६)। ५. वर्णसंस्कारोद- स्वो. विव. ११-१०)। ३. वचसः समुत्पत्त्यर्थः भवो [-राभावोऽर्थानवगमश्चापलं च वाग्दुष्प्रणि- प्रयत्नो वाग्योगः । (धव. पु. १, पृ. २७९); चतुधानम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५-३३)। ६. वाग्यो- णां वचसा सामान्यं वचः, तज्जनितवीर्येणात्मप्रदेशगोऽपि ततोऽन्यत्र हुङ्कारादिप्रवर्तते। वचोदुष्प्रणि- परिस्पन्दलक्षणेन योगो वाग्योगः। (धव. पु. १, पृ. धानाख्यो दोषोऽतीचारसंज्ञकः । (लाटीसं. ६, ३०८); भासावग्गणपोग्गलक्खंचे अवलंबिय जो १६१)।
जीवपदेसाणं संकोच-विकोचो सो वचिजोगो णाम ।
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वाचक] ६६१, जन-लक्षणावली
[वाचनाह (घव. पु.७, पृ. ७६); भासावग्गणक्खंधे भासारू- वाचना । (भ. प्रा. विजयो. १०४)। ५. वाचना वेण परिणामें तस्स जीवपदेसाणं परिप्फन्दो वचिः सा परिज्ञेया यत् पात्रे प्रतिपादनम् । ग्रन्थस्य वाप जोगो णाम। (घव. पु. १०, पृ. ४३७)। ४. वाग्व- पद्यस्य तत्त्वार्थस्योभयस्य वा॥ (त. सा. ७-१७)। गंणालम्बनो (आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः) वाग्योमः । ६. तत्र निरपेक्षात्मना मुमुक्षुणा विदितवेदितव्येन (प्राप्तप. १११)। ५. भाषायोग्यपदगलात्मप्रदेश- निरवद्यस्य ग्रन्थस्यार्थस्य तद्भयस्य वा पात्रं प्रति परिणामो वाग्योगः। (योगशा. स्चो. विव. ४, प्रतिपादनं वाचनेत्युच्यते । (चा. सा. पृ. ६७) । .४)। ६. भाषापर्याप्तियुक्तजीवस्य शरीरनामो- ७. यत्सूत्रार्थोभयाऽख्यानं शिष्याणां विनयान्वितम् । दयेन स्वरनामोदयसहकारिकारणेन भाषावर्गणायात- मोक्षार्थ वाचना प्रोक्ता कृत्वा शुद्धि चतुर्विधाम् ।। बुद्गलस्कन्धानां चतुर्विधभाषारूपेण परिणमनं वा- (प्राचा. सा. ४-६२) । ८. वाचनाः सूत्रार्थप्रदानग्योगः । (गो. जी. जी. प्र. ७०३)। ७. शरीर- लक्षणाः । (समवा. अभय. वृ. १३६)। ६. शुद्धनामकर्मोदयोत्पादितवाग्वर्गणालम्बने सति वीर्यान्त- ग्रन्थार्थोभयदानं पात्रेऽस्य वाचनाभेदः ।। (अन. घ. रायक्षयोपशमे सति अभ्यन्तरवचनलब्धिसामीप्ये च ७-८३) । १०. वाचना संशयच्छेदाय निश्चितसति वचनपरिणामाभिमुखस्य जीवस्य प्रदेशानां बलाघानाय वा ग्रन्थार्थोभयस्य परं प्रत्यनुयोगः । परिस्पन्दनं चलनं परिस्फूरणं वचनयोगः । (त. वृत्ति (भावप्रा. टी. ७८)। ११. यो गुरुः पापक्रियाश्रुत. ६-१)।
विरतो भवति अध्यापनक्रियाफलं नापेक्षते सः गुरुः १शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त वचनवर्गणा शास्त्रं पाठयति शास्त्रस्यार्थ वाच्यं कथयति ग्रन्थार्थका पालम्बन होने पर तथा वीर्यान्त राय व मत्य- द्वयं च व्याख्याति एवं त्रिविधमपि शास्त्रप्रदानं पात्राय बरादिजानावरण के क्षयोपशम से प्रेरित अभ्यन्तर ददाति उपदिशति सा वाचना कथ्यते । (त. वृत्ति वचनलधि की समीपता के होने पर वचनपरिणाम श्रुत. ६-२५, कातिके. टी. ४६६) ।। के अभिमुख हुए प्रात्मा के प्रदेशों में जो परिस्पन्द १निदोष ग्रन्थ, अर्थ और दोनों का प्रदान करना, होता है उसे वाग्योग कहते हैं। २ प्रौदारिक, इसका नाम वाचना है। ३ शिष्यों के पढ़ाने को क्रियिक और प्राहारक शरीर के व्यापार से प्राप्त वाचना कहते हैं। हुए वचनद्रव्य के समूह की सहायता से जो जीव का वाचनाचार्य-कृतयोगश्च गीतार्थों वाचनारचि. न्यापार होता है उसका नाम वाग्योग है। तश्रमः । सर्वंगुरुगुणयुक्तो वाचनाचार्य इष्यते ।। वाचक-द्वादशाङ्गविद वाचकः। (घव. पु. १४, (प्राचारदि. प. १११)। पृ. २२) ।
जो कृतयोग-क्रिया को कर चुका हो, ज्ञानी हो, बारह मंगों के ज्ञाता को वाचक कहा जाता है। वाचना में परिश्रम करने वाला हो और सभी गुरुवाचन-देखो आगे वाचना।
गुणों से युक्त हो, उसे वाचनाचार्य माना जाता है । -१. निरवद्यग्रन्थार्थोभयप्रदानं वाचना। वाचनार्ह-गुरुभक्तः क्षमावांश्च कृतयोगो निराम(स. सि. ६-२५; त. इलो. ९-२५)। २. निर. यः। प्रज्ञावानष्टभिश्चैव शुद्धर्बुद्धिगुणैर्युतः। विनीतः वद्यग्रन्थार्थोभयप्रदानं वाचना। अनपेक्षात्मना वि- शास्त्ररागी च सर्वव्यापेक्षवजितः। निद्रालस्यादिजेता दितवेदितव्येन निरवद्यग्रन्थस्यार्थस्य तदुभयस्य वा च विषयेच्छाविजितः ।। यतिविज्ञाततत्त्वश्च निर्मपात्रे प्रतिपादनं वाचनेत्युच्यते । (त. वा. ६, २५, सरमनाः सदा । सिद्धान्तवाचनाकार्यमहतीदश १)। ३. शिष्याध्यापनं वाचना। (घष. पु. ६, पृ. उत्तमः ।। (प्राचारदि. पृ. ११०) । २५२; घव. पु. १४, पृ.८; योगशा. स्वो. विव. जो गुरु की भक्ति करने वाला, क्षमावान्, कृतकृत्य, ४-१०); जा तत्थ णवसु आगमेसु वायणा अण्णेसि नीरोग, विशुद्ध पाठ बुद्धिगुणों से संयुक्त, विनम्र, मवियाणं जहासत्तीए गंथत्थपरूवणा उवजोगो शास्त्रानुरागी, सब प्रकार के प्राक्षेपों से रहित, नाम । (धव. पु. ६, पृ. २६२); तत्थ परेसिं निद्रा व मालस्य आदि का विजेता, विषयेच्छा से वक्खाणं वायणा । (धव. पु. १४, पृ. ६) । ४. तत्र रहित और मात्सर्यभाव से दूर रहने वाला हो वह निरवद्यस्य ग्रन्थस्याध्यापनं तदभिधानपुरोषं सिद्धान्तवाचनाकार्य के योग्य होता है।
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वाचनोपगत] ९६२, जैन-लक्षणावली
[वात्सल्य वाचनोपगत-एतासां (नन्दा-भद्रादीनां) वाच- है वे वातकुमार देव कहलाते हैं। नानामुपगतं वाचनोपगतम, परप्रत्यायनसमर्थमिति वातनिसर्ग---अपानेन पवननिर्गमो वातनिसर्गः। यावत् । (घव. पु. ६, पृ. २५२-५३); पत्तणंदा. (श्राव: नि. हरि.व. १४८६, प. ७७६% योगशा. दिसरूव कदिसुदणाणं वायण नगयं णाम । (धव. पु. स्वो. विव. ३-१२४) । ६, पृ. २६८); जो अवगयबारहअंगो संतो परेहि अपान से वाय के निकलने को वातनिसर्ग कहते हैं। वक्खाणक्खमो सो प्रागमो बायणोवगदो णाम। वात्सल्य--१. जो कूणदि वच्छलत्तं तिण्हे साधूण (धव. पु. १४, पृ. ८)।
मोक्खमम्गम्मि । सो यच्छलभावजदो सम्मादिट्री जो उपयोग नन्दा व भद्रा वाचनाओं को प्राप्त मणेदव्या ॥ (समयप्रा. २५३) । २. चादुव्वण्णे संघ है उसे वचनोपगत कहते हैं।
दुगदिसंसारणित्थरणभूदे । वच्छल्लं कादध्वं वच्छे वाचाविवेक--- शरीरपीडां मा कृथा इत्याद्यवचनम्, गावी जहा गिद्धी ।। (मला. ५-६६) । ३. स्वयूमां पालयेति वा, शरीरमिदमन्यदचेतनं चैतन्येन च्यान् प्रति सद्भावसनाथापेतकतवा । प्रतिपत्तिर्यथासुख-दुःखसंवेदनेन वाऽविशिष्टमिति बचन बाचा- योग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥ (रत्नक. १-१७) । विवेकः । (भ. प्रा. विजयो. १६६) ।
४. जिनप्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता वात्सल्यम् । शरीर को पीड़ा नहीं करो अथवा मेरी रक्षा करो, (त. वा. ६, २४, १)। ५. रत्नत्रितयवत्यार्यसंघे इत्यादि वचन के न बोलने को तथा यह शरीर जड़ वात्सल्यमातनु । (म. पु. ६-१२७) । ६. धर्मस्थेषु है व सुख-दुःख के संवेदन से रहित है इत्यादि मातरि पितरि भ्रातरि वानुरागो वात्सल्य रत्नत्रयावचन के बोलने को वाचाविवेक कहा जाता है। दरो वात्मनः । (भ. प्रा. विजयो. ४५)। ७. अनवाचिक विनय-१. पूयावयणं हिदभासणं च वरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे। सर्वे मिदभासणं च मधुरं च । सुत्ताणुवीचिवयणं अणि- ध्वपि च सर्मिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ॥ (पु.
ठुरमकक्कसं वयणं ।। उवसंतवयणमगिहत्थवयणम. सि. २६)। ८, जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि किरियमहीलणं वयणं । एसो वाइयविणो जहारिहं परमसद्धाए । पियवयणं जंपतो वच्छल्लं तस्स होदि कादम्वो। (मला. ५, १८०-८१)। २. हिय- भव्वस्स ।। (कातिके. ४२१)। ६. जिनप्रणीते मियपुज्जं सत्ताणवीचि अफरसमकक्कसं वयणं । धर्मामृते नित्यानुरागताथवा यथा गौर्वत्से स्निह्यति संजमिजणम्मि जं चाडभासणं वाचिनो विणो॥ तथा चातुर्वर्ण्य संघऽकृत्रिमस्नेहकरणं वात्सल्यम् । (वसू. श्रा. ३२७)।
(चा. सा. पृ. ३)। १०. अथित्वं भक्तिसंपत्तिः १ प्रतिष्ठा के अनुरूप वचन, हितकर भाषण, परि- प्रयुक्ति: [प्रियोक्तिः] सत्क्रियाविधिः। सधर्मसु च मित भाषण, मधुर भाषण, आगमानुकूल वचन, सौचित्य कृतिवत्सलता मता ॥ (उपासका. २१२) । निष्ठरता, कठोरता एवं क्रोधादि कषाय से रहित ११. कर्मारण्यं छत्तकामैरकामधर्माधारापतिः वचन, गहस्थ से भिन्न--- गाली-गलौज रहित-वचन, प्राणिवर्गे। भैषज्या मासुकैर्वद्यते या तद्वात्सल्यं निष्क्रिय वचन, और अवहेलना का प्रसूचक वचन, __ कथ्यते तथ्यवोधैः ।। (अमित. श्रा. २-८०); इत्यादि प्रकार के वचन बोलने से वाचिक विनय करोति संघे बहधोपसर्गरुपद्रुते धर्मधियाऽनपेक्षः । होता है।
चतुर्विधव्यापृतिमुज्ज्वला यो वात्सल्यकारी सः मता वाणिज्य- वाणिज्यं वणिजां कर्म xxx सुदुष्टिः ।। (अमित. श्रा. ३-७६) । १२. वत्सलस्व (म. पु. १६-८२)।
भावो वात्सल्यम्---चातुर्वर्ण्यश्रवणसंधे सर्वथानुपवैश्यों के कार्य (व्यवसाय) को वाणिज्यकर्म कहा वर्तनं धर्मपरिणामेनापद्यनापदि सधर्मजीवानामषजाता है।
काराय द्रव्योपदेशादिना हितमाचरणम् । (मला. व. वातकुमार-बान्ति तीर्थंकरविहारमार्ग शोधयन्ति ५-४); वात्सल्यं च कायिक-वाचिक-मानसिकानते वाताः, वाताश्च ते कुमारा: वातकुमाराः। (त. ठानः सर्वप्रयत्नेनोपकरणौषधाहारावकाश-शास्त्रादिवृत्ति श्रुत. ४-१०)।
दानः सधे कर्तव्यमिति । (मूला. वृ. ५-६६) । जो तीर्थकर के विहारमार्ग को शुद्ध किया करते १३. प्रीतिजिनागमे वत्सलत्वं संघे चतुर्विधे । प्रमो
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वात्सल्य]
६६३, जैन-लक्षणावली
विादी
दितोपकारित्वं चोपकागनपेक्षया ।। जैनानापदगतां- -प्राहारादि के द्वारा उनका प्रत्युपकार करता है स्तस्मादुपकुर्वन्तु सर्वथा। य: समर्थोऽप्यूपेक्षेत स कथं -वह सम्यग्दर्शन के वात्सल्य गण का परिपालन समयी भवेत् । (प्राचा. सा. ३, ६४-६५)। करता है। १४. बात्सल्यं सधर्मणि स्नेहः । (चारित्रभ. टी. वाद- १. प्रत्यनीकव्यवच्छेदप्रकारेणकसिद्धये । ३, पृ. १८७) । १५. वात्सल्यं समानधार्मिकस्या- वचनं साधनादीनां वादः सोऽयं जिगीषतोः ।। (न्याहारादिभि: प्रत्युपकरणम् । उक्तं च--- साहम्मि य यवि. २, २, २१३, पृ. २४३) । २.xxx वाद वच्छल्लं पाहाराईम होइ सम्वत्थ । पाएसगुरुगि- एव एकः कथाविशेषः तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणफल: लाणे तवस्सिवालाइसु विसेसा ॥ (व्यव. भा. लाभ-पूजा-ख्यातिहेतु: xxx । (न्यायकु. २, ७, मलय. वृ. ६५, पृ. २७ उद्.)। १६. धेनुः स्ववत्म पृ. ३३६)।। इव रागरसादभीक्ष्णं दष्टि क्षिपेन्न मनसापि सहेत् १विजय की इच्छा रखने वाले वादी व प्रतिवादी क्षति च। धर्म सधर्मसु सुधी: कुशलाय बद्धप्रेमानु- के मध्य में अभीष्ट साध्य की सिद्धि के लिए जो बन्धमथ विष्णवदुत्सहेत् ॥ (अन. ध. २-१०७)। उससे विपरीत का निराकरण करते हए साधन व १७. वात्सल्यमभिलप्यते । किम् ? सधर्मविपदुच्छेदः दृष्टान्त प्रानि का कथन किया जाता है वह वाद स्वयूथ्यानामापदो निरसनम् । (अन. ध. स्वो. टी. कहलाता है। २ तत्त्व के निर्णयपूर्वक उसके संरक्षण २-१०६)। १८. धर्मस्थेषु स्नेहः स्वस्य च रत्न- के प्रयोजन से जो लाभ, प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की त्रयेऽनुरागः । (भ.प्रा मला. ४५)। १६. रोगा- कारणभूत चर्चा की जाती है उसका नाम वाद है। दितश्रमानिां साधनां गहिणामपि । यथायोग्योप- वादक-गीतप्रबन्धगतिविशेषवादकचतुर्विधातोद्यचारस्तद्वात्सल्यं धर्मकाम्यया ॥ (भावसं. वाम. प्रचारकुशलो वादकः। (नीतिवा. १४-२५, प. ४१६) । २०. जिनशासने सदानुरागता वात्सल्यम्। १७४) । (भावप्रा. टी. ७७)। २१. जिनचरणे सदानुरागित्वं जो गीतप्रबन्ध की गतिविशेष के वादक चार प्रकार वात्सल्यम् । (त. वत्ति श्रुत. ६-२४) । २२. जिन- के पातोद्य-तत, प्रानद्ध, शषिर और धन इन चार प्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता जिनशासनसदानुरा. वादित्रों--- के प्रचार में दक्ष होता है वह वादक गित्वम्, अथवा सद्यःप्रसूता यथा गौर्वत्से स्निह्यति कहलाता है। तथा चातुर्वण्ये संघे अकृत्रिमस्नेहकरणं सम्यक्त्वस्य वादित्व ऋद्धि -- १. सक्कादीण वि पक्खं बहुवादेवात्सल्य नामा गुणः । (कातिके. टी. ३२७) । हि णिरुत्तरं कुणदि । परदव्वाइं गवेसइ जीए वा२३. वात्सल्यं तद्गुणोत्कर्षहेतवे सोद्यतं मनः। वित्तरिद्धी सा ।। (ति. प. ४-१०२३) । २. शक्रा(लाटीसं.३-११३, पंचाध्या. २-४७०) २४. दिष्वपि प्रतिबन्धिषु सत्म्वप्रतिहततया निरुत्तराभिवात्सल्यं नाम दासत्वं सिद्धार्हद बिम्ब-वेश्मम । संघे धानं पर रन्ध्रापेक्षण च वादित्वम् । (त. वा. ३, चतुर्विधे शास्त्रे स्वामिकायें सुभृत्यवत् ॥ अर्थादन्यः ३६, ३. पृ. २०२; चा. सा. पृ. ६७)। तमस्योच्चरुद्दिष्टेषु सदष्टिमान । सत्स घोरोपसर्गेष १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से वादी ब तत्परः स्यात्तदत्यये ।। यद्वा न ह्यात्ममामर्थ्य याव- (या इन्द्र प्रादि) के भी पक्ष को बहुत विवाद के न्मंत्रासिकोशकम् । तावद दृष्टुं च श्रोतुं च तद्वाधां द्वारा युक्ति-प्रत्यक्तियों से -- निरुत्तर कर देता है सहते न सः ॥ (पंचाध्या. २, ८०३-५; लाटीसं. तथा प्रतिवादी के द्रव्यों को- उनके अभिग्त तत्त्वों ४, ३०८-१०)।
को -- खोजता है उसका नाम वादित्व ऋद्धि है। १ जो मक्ति के साधनभत सम्यग्दर्शन, ज्ञान और वादी -- वादि-प्रतिवादि-सभ्य- सभापति लक्षणायां चारित्र इन तीनों में अनुराग करता है उसे वात्सल्य नतर ङ्गायां सभायां प्रतिपक्षनिरासपूर्वकं स्वपक्षस्थागण से यक्त सम्यग्दष्टि जानना चाहिए। १५ जो पनार्थमवश्यं वदतीति वादी। (योगशा. स्वो. विव. साधर्मी जन तथा विशेषकर अतिथि, गरु, ग्लान २-१६, पृ. १८५)। और तपस्वी ग्रादि के विषय में अनुराग रखता है वादी, प्रतिवादी सदस्य और सभापति इन चार
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वानप्रस्थ] ६६४, जैन-लक्षणावलो
[वायुजोव अंगों वाली सभा में विपरीत पक्ष के निराकरणपूर्वक पेट प्रादि प्रमाण स्वरूप से युक्त तथा हाथ-पांव आदि अपने पक्ष को प्रतिष्ठित करने के लिए जो अवश्य हीन होते हैं उसे वामनसंस्थान कहते हैं। बोलता है उसका नाम वादी है।
वायसदोष--१. यः कायोत्सर्गस्थो वायस इव वानप्रस्थ-१. वानप्रस्था अपरिगृहीतजिनरूपा काक इव पावं पश्यति तस्य वायसदोषः । (मला. वस्त्रखण्डधारिणो निरतिशयतपःसमुद्यताः (सा. घ. वृ.७-१७१) । २. वायसस्येवेतस्ततो नयनगोलक'तपस्युद्यताः') भवन्ति । (चा. सा. पू. २२, सा. घ. भ्रमणं दिगवेक्षणं वा वायसदोषः। (योगशा. स्वो. स्वो. टी. ७-२०)। २. ग्राम्यमर्थ बहिश्चान्तर्यः विव.३-१३०)। ३. वायसो वायसस्येव तिर्यगीपरित्यज्य संयमी । वानप्रस्थः स विज्ञेयो न वनस्थः क्षा xxx। (अन. घ. ८-११६)। कुटुम्बवान् ।। (उपासका. ८७४)। ३. यः खलु १ जो कायोत्सर्ग में स्थित होकर कौवे के समान यथाविधि जानपदमाहारं संसारव्यवहार च परित्य- पाश्वंभाग को देखा करता है उसके वायस नामक ज्य सकलत्रोऽकलत्रो वा वने प्रतिष्ठते स वानप्रस्थः । कायोत्सर्ग का दोष होता है। २ जो कायोत्सर्ग के (नीतिवा. ५-२२, पृ. ५०)।
अनुष्ठान में कौवे के समान प्रांखों की पुतलियों को १ जो जिनलिंग को धारण न करके वस्त्रखण्ड इधर-उधर चलाता है अथवा दिशाओं का अवलोकन (लंगोट) को धारण करते हुए निरतिशय तप के किया करता है वह कायोत्सर्ग के वायस नामक धाचरण में उद्यत रहते हैं वे वानप्रस्थ कहलाते हैं। दोष का भाजन होता है। २ जो बाह्य और प्रम्यन्तर से ग्राम्य अर्थ को--- वायु-वायुकायिकजीवसन्मूर्छनोचितो वायुः वायुगाली प्रादि निन्द्य व्यवहार को छोड़कर संयम मात्र वायुरुच्यते । (त, वृत्ति श्रुत. २-१३) । का परिपालन करता है उसे वानप्रस्थ समझना वायकायिक जीवों की उत्पत्ति के योग्य जो हो उसे चाहिए । ३ जो विधिपूर्वक जनपदके भोजन को और वायु कहा जाता है, अथवा वायु मात्र को वाय संसार के (लौकिक) व्यवहार को छोड़कर पत्नी जानना चाहिए। सहित अथवा उसके विना भी वन में रहता है उसे वायुकाय - वायुकायिकजीवपरिहृतः सदा विलोवानप्रस्थ कहा जाता है।
डितो वायुर्वायुकायः कथ्यते। (त. वृत्ति श्रुत. २, वामनसंस्थान-१. सर्वांगोपांगह्रस्वव्यवस्थावि. १३)। शेषकारणं वामनसंस्थाननाम । (त. वा. ८, ११, वायुकायिक जीव के द्वारा छोड़े गये सदा विलोडित ८)। २. वामनस्य शरीरं वामनशरीरम्, वामन- वायु को वायुकाय कहा जाता है। शरीरस्य संस्थान मिव संस्थानं यस्य तद्वामन- वायुकायिक-वायुः कायत्वेन गृहीतो येन सः शरीरसंस्थानम् । जस्स कम्मस्स उदएण साहाणं वायुकायिकः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-१३) । रहस्सत्तं कायस्य दीहत्तं च होदि तं वामणसरीर- जिस जीव ने वायु को शरीर के रूप में प्रहण कर संठाणं होदि । (धव. पु. ६, पृ. ७१-७२); वामन- लिया है उसे वायुकायिक कहा जाता है । शरीरस्य संस्थानं वामनशरीरसंस्थानम् । ह्रस्वशाखं वायुचारण- पवनेष्वनेक दिग्मुखोन्मूखेषु प्रतिलोवामनशरीरम् । तस्य कारणकर्मणोऽप्येषैव संज्ञा। मानुलोमवतिषु तत्प्रदेशावलीमुपादाय गतिमस्खलित(धव. पु. १३, पृ. ३६८-६९) । ३. वामनसंस्थानं चरणविन्यासामास्कन्दन्तो वायुणारणाः। (योगशा. शरीरमध्यावयवपरमाणुबहुत्वं हस्त-पादानां च ह्रस्व- स्वो. विव. १-६, पृ. ४२)। त्वम् । (मूला. वृ. १२-४६) । ४. यत्र पुनरुर. जो साधु अनेक दिशानों के उन्मुख होकर विपरीतव उदरादि प्रमाणलक्षणोपेतं हस्त-पादादिकं हीनं तद्वा- अनुकूल चलने वाली वायु को प्रदेशपंक्ति का प्राश्रय मनसंस्थानम् ॥ (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६८ पृ. लेकर अस्खलित रूप से पांवों को धरते उठाते हैं वे ४१२)।
वायुचारण ऋद्धि के धारक होते हैं। १ जो नामकर्म समस्त अंगों व उपांगों को ह्रस्व वायुजीव-वायं कायत्वेन गृहीतुं प्रस्थितो जीवो अवस्थाविशेष (लघुता) का कारण हो उसे वामन- वायुर्जीव उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-१३)। संस्थान नामकर्म कहते हैं। ४ जिसमें छाती पोर मो जीव वायु को शरीररूप से ग्रहण करने के घिए
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वायुमण्डल] ६६५, जैन-लक्षणावलो
[वास्तु चल दिया है -कार्मण काययोग में स्थित है-उसे वाणिज्य-विद्यके । एभिरर्थार्जनं नीत्या वातति गदिता नायजीव कहते हैं।
बुधैः ।। (धर्मसं. श्रा. 8-१५६) ।। वायुमण्डल ---१. सुवृत्तं बिन्दुसंकीर्ण नीलाञ्जनघन- १ असि (शस्त्र धारण), मषि (लेखन क्रिया), प्रभम् । चञ्चलं पवनोपेतं दुर्लक्ष्यं वायुमण्डलम् ॥ खेती, वाणिज्य प्रादि और शिल्प कर्म इनके द्वारा (ज्ञाना. २६-११, पृ. २८६)। २. स्निग्धाञ्जन- विशुद्ध वृत्ति से धनके उपार्जन करने का नाम वार्ता पनच्छायं सुवृत्तं बिन्दुसंकुलम् । दुर्लक्ष्यं पवनाक्रान्तं है। यह गृहस्थ के छह कर्मों में दूसरा है । २ खेती, चञ्चलं वायुमण्डलम् ॥ (योगशा. ५-४५)। पशुपालन और व्यापार का नाम वार्ता है। यह १ जो आकार में गोल, बिन्दुओं से व्याप्त, काले वैश्यों का कर्म है। मंजन (काजल) और मेघ के समान (अथवा वासना--१. वासनायोगस्तदावरणक्षयोपशम इत्यकाजल जैसी घनी प्रभावाला), चंचल, पवन से र्थः। (विशेषा. स्वो. व. २६१) । २. तथा (अविसहित एवं देखने में न पाने वाला हो उसे वायु- च्युत्या) माहितो यः संस्कारः स वासना । सा च मण्डल जानना चाहिए।
संख्येयमसंख्येयं वा यावद् भवति, संख्येयवर्षायुषां वारिधाराचारण-प्रावषेण्यादिजलघरादेविनिर्गत- संख्येयं कालमसंख्येयवर्षायूषामसंख्येयं कालमिति वारिधारावलम्बनेन प्राणिपीडामन्तरेण यान्तो वारि- भावार्थः । (प्राव. नि. मलय. वृ. २, पृ. २३)। धाराचारणाः । (योगशा. स्वो. विव. १.६, पृ. ४१)। २ अविच्युति से जो संस्कार स्थापित होता है उसे प्रावषण्य (वर्षाकालीन) प्रादि मेघों प्रादि से वासना कहते हैं। वह संख्यात वर्ष प्रमाण प्र निकली हुई जलधारा का पालम्बन लेकर प्राणि. के संख्येय काल तक तथा असंख्यात वर्ष प्रमाण प्राय पीडन के विना जो गमन करने में समर्थ होते हैं वालों के प्रसंख्येय काल तक रहता है । अविच्युति, उन्हें वारिधाराचारण जानना चाहिए।
वासना और स्मृति के भेद से तीन प्रकार की धारणा वारुणीदोष-देखो उन्मत्त व वारुणीपायी दोष। में यह उसका दूसरा भेद है । निष्पद्यमानवारुण्या इव बुडबुडारावेण स्थानं वारु- वासुदेव-वासवाद्यैः सुरैः सर्वैः योऽर्च्यते मेरुमस्तके। णीदोषः, वारुणीमत्तस्येव चूर्णमानस्य स्थानं वारुणी. प्राप्तवान् पंचकल्याणं वासुदेवस्ततो हि सः ॥ दोषः इत्यन्ये । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। (आप्तस्व. ३२)। उत्पन्न होने वाले मद्य के समान बड-बड शब्द के वासव (इन्द्र) प्रादि सब देवों के द्वारा मेरु के साथ कायोत्सर्ग में स्थित होने अथवा मद्य से उम्मत्त शिखर पर जिसकी पूजा की जाती है तथा जिसने मनुष्य के समान शरीर को चलायमान करते हुए पांच कल्याणकों को प्राप्त किया है उसे वासुदेव स्थित होने पर कायोत्सर्ग के २१ दोषों में वारुणी कहा जाता है। नाम का २०वां दोष होता है।
वासुपूज्य -- वसवो देवविशेषाः, तेषा पूज्यो वसुवारुणीपायीदोष-देखो उन्मत्त व वारुणी दोष। पूज्यः, प्रज्ञादित्वादणि वासुपूज्य:, तथा गर्भस्थेऽस्मिन् वारुणीपायीव सुरापायीवेति चूर्णमानः कायोत्सर्ग वसु हिरण्यम्, तेन वासबो राजकुलं पूजितवानिति करोति तस्य वारुणीपायीदोषः। (मला. बृ. ७, वासुपूज्यः, वसुपूज्यस्य राज्ञोऽयमिति वा वासुपूज्यः । १७२)।
(योगशा. स्वो. विव. ४-१२४) । जो मद्यपायी (शराबी) के समान इधर उधर हिलते देवविशेषों का नाम वसु है, उनका जो पूज्य हुआ है, इलते हए कायोत्सर्ग को करता है उसके वारुणी- तथा जिसके गर्भ में स्थित होने पर वासव (इन्द्र) ने पायीदोष होता है।
वसु (सुवर्ण) के द्वारा राजकुल की पूजा की थी, वार्ता-१. वार्ताऽसि-मषि-कृषि-वाणिज्यादिशिल्प- अथवा वसुपूज्य राजा के वे पुत्र थे इससे भी उनका (कार्ति. 'ल्पि') कर्मभिविशुद्धवृत्याऽर्थोपार्जनमिति । नाम वासुपूज्य (१२वें तीर्थकर) है। (चा. सा. पृ. २१; कार्तिके. टी. ३६१) । २. कृषिः वास्तु- १. वास्तु अगारम् । (स. सि. ७-२६; पशुपालनं वणिज्या च वार्ता वैश्यानाम् । (नीतिवा. त. वा. ७, २६, १)। २. वास्तु च गृहम् । (त. ८-१, पृ. ६३)। ३. असिमंसि: कृषिस्तिर्य पोषं वृत्ति श्रुत. ७-२६) । ३. वास्तु गृह-हट्टापवरकादि
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विकथा] ६६६, जैन-लक्षणावली
[विक्रिया कम् । (कार्तिके. टी. ३४०)। ४. वास्तु वस्त्रादि- मंशभेदं कृत्वा अनेकात्मकैकत्वव्यवस्थायां नर-सिंहसामान्यम् xxx (लाटीसं. १००)। सिंहत्ववत्समुदयात्मकमात्मरूपमभ्युपगम्य कालादि१ वास्तु नाम घर का है । ४ वस्त्र प्रादि सामान्य भिरन्योन्यविषयानुप्रवेशरहितांशकल्पनं विकलादेषाः, को वास्तु कहा जाता है।
xxx। (त. वा. ४, ४२, १६)। ३. अस्त्येव विकथा-१. विरुद्धा विनष्टा वा कथा विकथा, नास्त्येव प्रवक्तव्य एव अस्तिनास्त्येव अस्त्यवक्तव्य सा च स्त्रीकथादिलक्षणा । (प्राव. सू.प्र. ४, हरि. एव नास्त्यवक्तव्य एव अस्तिनास्त्यवक्तव्य एव घट व.पृ. ५८०)। २. विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्त्र्यादि- इति विकलादेशः। (जयघ. १, प. २०३); प्रचं विषयाः कथाः विकथा:। (समवा. वृ. ४) । ३. च विकलादेशो नयाधीन: नयायत्तः, नयवशादुत्पत्त विरुद्धा संयमबाधकत्वेन, कथा-वचनपद्धतिर्विकथा। इति यावत् । (जयध. १, पृ. २०४) । ४. अभेद. (स्थाना. अभय. व. २८२)। ४. विकथा मार्ग- वृत्त्यभेदोपचारयोरनाश्रयणे एकधर्मात्मकवस्तुविषयविरुद्धाः कथाः। (सा. ध. स्वो. टी. ४-२२)। बोधजनक वाक्यं विकलादेशः । (सप्कभं. ५. २०)। ५. विलक्षणाः संयमविरुद्धाः कथा वाक्यप्रबन्धाः २ निरंश भी वस्तु के गणभेद की अपेक्षा से अंशों विकथाः । (गो. जी. म. प्र. ३४) । ६. संयनविरु- की कल्पना जो की जाती है उसका नाम विकलादेश द्धाः कथाः विकथाः । (गो. जी. जी. प्र. ३४)। है। जिस प्रकार अनेक खांड, अनार और कपूर १ विरुद्ध अथवा घातक स्त्रीकथा व भोजनकथा प्रादि के अनेक रसयुक्त पानक (पेय) द्रव्य का प्रादि जैसी चर्चा को विकथा कहा जाता है । ५ जो स्वाद लेकर अनेक रसस्वरूपता का निश्चय करते चर्चा संयम की विघातक हो उसे विकथा कहते हैं। हए अपनी शक्तिविशेष से यह भी है, यह भी है' विकथानयोग- अर्थ - कामोपायप्रतिपादनपराणि इस प्रकार से विशेष निरूपण किया जाता है उसी कामन्दक-वात्स्यायनादीनि शास्त्राणि । (समवा. प्रकार अनेकात्मक एक वस्तु का निश्चय करके कृ. २६)।
कारणविशेष के सामर्थ्य से विवक्षित साध्यविशेष धन और काम के उपायों की प्ररूपणा करने वाले का जो निर्धारण किया जाता है, इसे विकलादेश कामन्दक एवं वात्स्यायन प्रादि शास्त्रों को विकथा- समझना चाहिए। नयोग कहा जाता है।
विकल्प-अभ्यन्तरे सुख्यहं दुःख्यहम् इत्यादि हर्षविकलचरण-विकलमपूर्णम् अणुव्रतादिरूपं चर- विषादपरिणामो विकल्पः । (पंचा. का. जय. व. णम् । (रत्नक. टी. ३-४) । अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षावतरूप चरण (चारित्र) 'मैं सुखी हूं' अथवा 'मैं दुःखी हूं' इस प्रकार जो को परिपूर्ण न होने के कारण विकलचरण या अन्तरङ्ग में हर्ष-विषाद रूप परिणाम होता है वह विकलचारित्र कहा जाता है।
विकल्प कहलाता है। विकलप्रत्यक्ष-१. दवे खेत्ते काले भावे जो विकल्पधी-xxx तस्य विकल्पधी: निर्णयपरमिदो दु अवबोधो । बहुविहभेदपभिण्णो सो होदि रूपा बुद्धिराविर्भवति, तद्रूपतया दर्शनं परिणमत
प: १३-५०)। इत्यर्थः । (न्यायकु. १-५, पृ. ११६)। २. तत्र कतिपयविषयं (पारमार्थिकप्रत्यक्षं) विक- प्रसंगानुसार निर्णयरूप बुद्धि को विकल्पधी कहा लम् । (न्यायदो. पृ. ३४)।
जाता है। यह विकल्पबुद्धि दर्शन के पश्चात् १ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जो होती है। परिमित ज्ञान होता है उसे विकलप्रत्यक्ष कहते हैं। विकृतिगोपुच्छा--समाणट्ठिदिगोवुच्छाणं समूहो विकलादेश-१. विकलादेशो नयाधीनः । (स. विगिदिगोवुच्छा णाम । (धव. पु. १०, पृ. २५०) । सि. १-६; त. वा. ४, ४२, १३; धव. पु. ६, पृ. समान स्थिति वाली गोपुच्छात्रों के समूह को १६५ उद्.)। २. निरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकृतिगोपुच्छा कहते हैं । विकलादेशः । स्वेन तत्त्वेनाप्रविभागस्यापि वस्तुनो विक्रिया--१. अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाषु-महविविक्वं गणरूपं स्वरूपोपरजकमपेक्ष्य प्रकल्पित- च्छरीरविविधकरणं विक्रिया। (त. वा. २,३६,
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विक्षेपणी कथा]
६ ) ; विविधकरणं विक्रिया । (त. वा. २,४७, ४) । २. प्रणिमादिविक्रिया, तद्योगात् पुद्गलाश्च विक्रियेति भण्यन्ते । ( धव. पु. १, पु. २६२ ) । ३. विक्रिया विकार:, पूर्वाकारपरित्यागाऽजहद्वृत्तोत्तराकारगमनम् । x x x विविधा नानाप्रकारा क्रिया कार्यकारणं सा ( विक्रिया ) | ( न्यायकु. २-६, पृ. ३९६ ) । ४. सतो भावस्यान्तरावाप्तिविक्रिया । ( प्राप्तमी. बसु. वृ. ३७) ।
१ प्रणिमा-महिमावि भ्राठ गुणों के सामर्थ्य से एक व श्रनेक तथा छोटा व बड़ा इत्यादि अनेक प्रकार के जो रूप ग्रहण किए जाते हैं, इसका नाम विक्रिया है ।
विक्षेपणी कथा - १. ससमय परसमयगदा कथा दु विवदेवणी नाम । (भ. प्रा. ६५६ ) २. कहिऊण ससमयं तो कहेइ परसमयमह विवच्चासा । मिच्छासम्मावार एमेव हवंति दो भेया ॥ जा ससमयवज्जा खलु होइ कहा लोग वेयसंजुत्ता । परसमयाणं च कहा एसा विक्खेवणी णाम । जा ससमएण पुव्वि अक्खाया तं छुभेज्ज परसमए । परसासणवक्खेवा परस्स समयं परिकहेइ ।। ( दशवं. नि. १६६-६८ ) । ३. विक्खेवणी णाम परसमएण ससमयं दूसंती पच्छा दिगंतर सुद्धि करेंती ससमयं यावंती छद्दव्व णवपयत्थे परूवेदि । XX X उक्तं च - XX X विक्षेपण तत्त्वदिगन्तशुद्धिम् । ( धव. पु. १, पृ. १०५ व १०६) । ४. या कथा स्वसमयं परसमयं वाश्रित्य प्रवृत्ता सा विक्षेपणी अण्यते - सर्वथा नित्यं सर्वथा क्षणिकम् एकमेवानेकमेव वा सदेव [ प्रसदेव ] विज्ञानमात्रं वा शून्यमेवेत्यादिकं परसमयं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षानुमानेन आगमेन च विरोधं प्रदर्श्य कथंचित्रित्यं कथंचिदनित्यं कथंचिदेकं कथंचिदने कम् इत्यादिस्वसमय निरूपणा च विक्षेपणी । (भ. प्रा. विजयो. ६५६ ) । ५. XXX विक्षेपणीं कुमतनिग्रहण यथार्हम् । (न. ध. ७-८८) ६ प्रमाणनयात्मकयुक्तियुक्तहेतुवादबलेन सर्वथैकान्तादिपरसमयार्थनिराकरणरूपा विक्षेपणी कथा । (गो. जी. म. प्र. व जी प्र. ३५७ ) ७. पंचत्थिकाय कहणं वक्खाणिज्जइ सहावदो जत्थ । विक्खेवणी वि य कहा कहिज्जइ जत्थ भव्वाणं । पच्चक्खं च परोक्खं माणं दुविहं णया परे दुबिहा । परसमयवादखेवो करिज्जई वित्रा जत्थ ॥ दंसण णाण चरितं धम्मो तित्थयर
६६७, जैन - लक्षणावलो
[विग्रहगति देवदेवस्स । तम्हा पभावतेश्रो वीरियवम [र] णाणसुहआदि || ( अंगण. १, ६१-६३, पृ. २६९ ) । १ स्वमत और परमत के श्राश्रयसे जो चर्चा की जाती है उसका नाम विक्षेपणी कथा है । २ प्रथमतः स्वमत को कहकर पश्चात् जो परमत का कथन किया जाता है, इसके बिपरीत प्रथमतः परमत को दिखला कर फिर अपने मत को जो प्रगट किया जाता है; इसी प्रकार मिथ्यावाद को पूर्व में कह कर फिर जो सम्यग्वाद को तथा इसके विपरीत पूर्व में सम्यग्वाद को कहकर फिर जो मिथ्यावाद का कथन किया जाता है, इस सबको विक्षेपणी कथा कहा जाता है । इस प्रकार उक्त कथा के चार भेद हो जाते हैं । स्वमत को छोड़कर जो लोक (भारत व रामायण प्रावि ) और वेद (ऋग्वेद प्रादि) से संयुक्त सांख्य एवं बौद्ध आदि परसमयों की चर्चा की जाती है उसका नाम भी विक्षेपणी कथा है । स्वमत के द्वारा जो पूर्व में कथा की गई है उसका परसमय में दोषोद्भावन करते हुए क्षेपण करना चाहिए । प्रथवा परमत के द्वारा व्याक्षेप के होने पर-श्रोता के सन्मार्ग के श्रभिमुख होने पर - परमत का भी कथन किया जाता है । 'विक्षिप्यते श्रनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद् वा सन्मार्गे श्रोता इति विक्षेपणी' प्रर्थात् जिसके श्राश्रय से श्रोता सन्मार्ग से कुमार्ग में अथवा कुमार्ग से सन्मार्ग में फेंका जाता है उसका नाम विक्षेपणी कथा है। इस निरुक्ति के अनुसार उसका 'विक्षेपणी कथा' यह सार्थक नाम है ।
विग्रह - १. अपराधो विग्रहः । (नीतिवा. २८-४४, पृ. ३२४) । २. यदा यस्य विजगीषोः कोऽप्यपराधं करोति तदा विग्रहः स्यात् । (नीतिवा. टी. २८, ४४) ।
विजय को इच्छा रखने वाले का जब कोई अपराध करता है तब विग्रह होता है । सन्धि श्रादि षाड्गुण्य में यह दूसरा है ।
विग्रहगति - १. विग्रहो देहः, विग्रहार्थी गतिविग्रहगतिः । अथवा विरुद्धो ग्रहो विग्रहः व्याघातः, कर्मादानेऽपि नोकर्म पुद्गलादाननिरोध इत्यर्थः । विग्रहेण गतिः विग्रहगतिः । ( स. सि. २-२५) । २. विग्रहो देहस्तदर्था गतिविग्रहगतिः । श्रदारिकादिशरीरनामोदयात्तन्निवृत्तिसमर्थान् विविधान्
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विघ्न ६६८, जन-लक्षणावली
[विचिकित्सा पुद्गलान् गृह्णाति, विगृह्यते वासो संसारिणेति विचार–स खलु विचारज्ञो य: प्रत्यक्षेणोपलब्धविग्रहो देहः, विग्रहाय गतिविग्रहगतिः । xxx मपि साधु परीक्ष्यानुतिष्ठति । (नीतिवा. १५-६, विरुद्धो ग्रहो विग्रहो व्याघात इति वा । अथवा प. १७५)। विरुद्धो ग्रहो विग्रहो व्याघात.. पदगलादान निरोध जो प्रत्यक्ष से उपलब्ध भी वस्त को भलीभ इत्यर्थः । विग्रहेण गतिविग्रहगतिः, प्रादाननिरोधेन __परीक्षा करके कार्य को करता है उसे विचार गतिरित्यर्थः । (त. वा. २, २५, १-२; धव. पु. माना जाता है। १, पृ. २६६)। ३. विग्रहो वक्रमच्यते, विग्रहेण विचिकित्सा- देखो निविचिकित्सा। १. विचिमुक्ता गतिविग्रहगतिः अश्व-रथन्यायेन, विग्रहप्रधाना कित्सा मतिविभ्रमो यूवत्यागमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं प्रति वा गतिः विग्रहगतिः शाकपाथिबादिवत् । (त. भा. समोहः --किमस्य महतस्तपःक्लेशायासस्य सिकताकसिद्ध. व. २-२६)। ४. विग्रहो हि शरीरं स्यात्तदर्थं णकवलकल्पस्य कनकावल्यादेरायत्यां मम फलसम्पद् या गतिर्भवेत् । विशीर्णपूर्वदेहस्य सा विग्रहगतिः भबिष्यति किं वा नेति, उभयथेह क्रियाः फलवत्यो स्मृता । (त. सा. २-९६)। ५. विग्रहः शरीरम, निष्फलाश्च दृश्यन्ते कृषीबलानाम् Ixxxअथवा तदर्थं गतिविग्रहगतिः। Xxx अथवा विरुद्धो विचिकित्सा विद्वज्ज गुप्सा, विद्वांसः माघवो विदितग्रहो ग्रहणं विग्रहः, कर्मशरीरग्रहणेऽपि नोकर्मलक्षण- संसारस्वभावाः परित्यक्तसमस्तसङ्गास्तेषां जुगुप्सा शरीरपरित्याग इत्यर्थः । विग्रहेण गतिः विग्रहगतिः। निन्दा। तथा हि-xxx। (श्रा. प्र. टी. एकस्य परिहारेण द्वितीयस्य ग्रहणेन गतिः विग्रह- ८७) । २. विचिकित्सा चित्तविलुप्तिर्विद्वज्जुगुप्सा गतिः । (त. वृत्ति श्रुत. २-२५)।
वा। (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. १०-३, पृ. १८६)। ३. १ विग्रह का अर्थ शरीर होता है, शरीर के निमित्त विचिकित्सा चित्तविप्लवः. सा च सत्यपि युक्त्याग-नवीन शरीर को प्राप्त करने के लिए-जो जीव की गति हम्रा करती है उसे विग्रहगति कहते कणकवलवन्निस्वादस्यायत्यां फलसम्पद् भवित्री, अथ हैं । अथवा विग्रह का अर्थ व्याघात-नोकर्मपुद्- क्लेशमात्रमेवेदं निर्जराफलविकलमिति । उभयथा गलों का निरोध है, इस प्रकार के विग्रह से जो हि क्रिया दृश्यन्ते सफला अफज्ञाश्च, कृषीवलादीनागात होती है उसे विग्रहगति समझना चाहिए। मिव इयमपि तथा सम्भाव्यते । (योगशा. स्वो. विघ्न-दानादिबिहननं विघ्नः। (त. वा. ६, विव. २-१७, पृ. १८८)। ४. विचिकित्सा मति२७, १)।
विभ्रमः । (व्यव. भा. मलय. ६७, पृ. २७)। ५. दान-लाभादि के विनाश का नाम विघ्न है। कोपादितो जुगुप्सा धर्माङ्गे या ऽशुचौ स्वतोऽङ्गादौ। विचय-१. विचयनं विचयो विवेको विचारण- विचिकित्सा रत्नत्रयमहात्म्यारुचितया दृशि मलः मित्यर्थः । (स. सि. ६-३६)। २. विचितिविवेको सा॥ (अन. ध. २-७६)। ६. रत्नत्रयपवित्राणां विचारणं विचयः । विचितिविचयो विवेको विचार- पात्राणां रोगपीडिते । दुर्गन्धादौ तनो निन्दा विचि
त्यनान्तरम् । (त. वा. ६, ३६, १)। कित्सा मलं हि नत् ॥ (धर्मसं. श्रा. ४-४७) । १ विचय, विवेक और विचारणा ये समानार्थक ७. विचिकित्सनं विचिकित्सा xxx रत्नत्रयशब्द हैं।
मण्डितशरीराणां जुगुप्सनं स्नानाद्यभावदोषोद्भावनं विचार-देखो वीचार । १. विचारोऽर्थ-व्यञ्जन- विचिकित्सा । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२३; कातिके. योगसंक्रान्तिः । (त. सू. (श्वे.) ६-४६) । २. टी. ३२६)। ८. प्रात्मन्यात्मगुणोत्कर्षबुद्ध या स्वाप्रत्यक्षानुमानागमैर्यथावस्थितवस्तुव्यवस्थापनहेतुर्वि- त्मप्रशंसनात् । परत्राप्यपकर्षेषु बुद्धिविचिकित्सा चारः । (नीतिवा. १२-२)।
स्मता॥ (लाटीसं.४-१००, पंचाध्या. २-५७८)। १ अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) और योग इनके परिवर्तन १यक्ति और पागम से संगत पदार्थ के भी विषय का नाम विचार है। २ प्रत्यक्ष, प्रनमान प्रौर में जो फल के प्रति 'बालुकाकणों के भक्षण के मागम के प्राश्रय से जो यथावस्थित वस्तु को समान इन कनकावली प्रादि तपों के क्लेश का फल व्यवस्था का कारण है उसका नाम विचार है। भविष्य में कुछ प्राप्त होगा या नहीं, क्योंकि किसान
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विचिकित्साविरह |
६६, जैन - लक्षणावली
[विजातिद्रव्य उपचरितप्रस.
निष्फल दोनों प्रकार की देखी जाती हैं' इस प्रकार का जो बुद्धिभ्रम होता है उसे विचिकित्सा कहा जाता है । अथवा विद्वज्जुगुप्सा का नाम विचिकित्सा हैविद्वान् से अभिप्राय उन साधुनों का है जो संसार के स्वभाव को जानकर समस्त परिग्रह का परि त्याग कर चुके हैं। उनके प्रति शरीर की मलिनता श्रादि को देखकर घृणा का भाव होना, यह उक्त विचिकित्सा का लक्षण है । ५ रत्नत्रय के माहात्म्य को न जानकर उसके विषय में रुचि न रखते हुए जो स्वभावतः अपवित्र, परन्तु उक्त रत्नत्रयस्वरूप धर्म के कारणभूत शरीर प्रादि के विषय में कोषादि के वश ग्लानि की जाती है, इसे विचिकित्सा कहते हैं । यह सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाला उसका एक प्रतिचार है । विचिकित्साविरह - देखो निर्विचिकित्सा । शरी
आदि के द्वारा की जाने वाली क्रियायें सफल श्रोर विजातिगुणप्रसद्भूतव्यवहारनय--१ विजातीयगुणे विजातीयगुणारोपणाऽसद् भूतव्यवहारःमुत्तं इह मइणाणं मुत्तिमदव्वेण जण्णियं जह्मा ! जइ हु मुत्तं गाणं ता कह खलियं हि मुत्तेण ।। (ल. न. च. ५४ ) । २. विजातिगुणे विजातिगुणावरोपणोऽसद्भूतव्यवहारः- मुत्तं इह महणाणं मुत्तिमदव्वेण जणि जम्हा । जइ ण हु मृत्तं णाणं तो कि खलिश्रो हु मुत्तेण ॥ ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. २२६) ।
शुचित्व [व] भावमवगम्य शुचीति मिथ्यासंकल्पापनयोऽथ वाऽर्हत्प्रवचने इदमयुक्तं घोरं कष्टं न चेदिदं सर्वमुपपन्नमित्यशुभभावनानिरासो विचिकित्साविरहः । (चा. सा. पृ. ३) । शरीर आदि की पवित्रता को जानकर 'यह पवित्र है' इस प्रकार की मिथ्या कल्पना को दूर करना, इसका नाम निर्विचिकित्साविरह है । अथवा, श्रार्हत मत में कायोत्सर्गादि के रूप में जो भयानक कष्ट का विधान किया गया है यह अनुचित है, यदि यह न होता तो सब संगत था। इस प्रकार की भावना को दूर करना, इसे विचिकित्साविरह जानना चाहिए ।
विचित्त, विचित्र ध्यान - विचित्रं नानाप्रकारं यद् ध्यानम् । अथवा विगतं चित्तं चित्तोद्भवशुभाशुभ विकल्पजालं यत्र तद्विचित्तं ध्यानम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४८ ) । 'विचित्तझाणप्प सिद्धीए' इस गाथांश में उपयुक्त 'विचित्त' शब्द के संस्कृत में दो रूप होते हैंविचित्र और विचित्त । इनमें से टीकाकार ब्रह्मदेव ने प्रथमतः विचित्र का अर्थ नाना प्रकार करके तत्पश्चात् 'विचित्त' को ग्रहण करते हुए यह कहा है कि जिस ध्यान में चित्त के शुभ-अशुभ विकल्प विगत हैं- नष्ट हो चुके है उसे विचित्त ध्यान कहा जाता है ।
१ विजातीय गुण में विजातीय गुण का श्रारोप करके कथन करना, यह विजातिगुण श्रसद्भूतव्यवहारनय का लक्षण है । जैसे- श्रात्मा के श्रमूर्तिक मतिज्ञान गुण में मूर्तिक कर्मपुद्गल से बद्ध होने के कारण कथंचित् मूर्ति प्रात्मा के उस मतिज्ञान को मूर्तिक कहना |
विजातिद्रव्यप्रसदभूतव्यवहारनय- १. विजा
तीयद्रव्ये विजातीयद्रव्यारोपणोऽसद्भूतव्यवहारःएइंदियादिदेहा णिच्चत्ता जे वि पोग्गले काये । ते जो भइ जीवो वहारो सो विजातीनो ॥ (ल. नयच. ५३ ) २. विजातीयद्रव्ये विजातीय द्रव्यावरोपणा प्रसद्भूतव्यवहारः-- एइंदियाइदेहा णिव्वत्ता जे विप्रोग्गले काये । ते जो भणेइ जीवा ववहारो सो विजाईश्री ॥ ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. २२५ ) ।
१ विजातीय द्रव्य में विजातीय द्रव्य का श्रारोपण करके जो कथन किया जाता है उसे विजातिद्रव्य असद्भूतव्यवहारनय कहते हैं। जैसे- विजातीय ( अचेतन) पुद्गल से निर्मित एकेन्द्रिय श्रादि के शरीर को जीव कहना ।
विजातिद्रव्यउपचरित असदभूतव्यवहारनय -- १. विजातीयद्रव्ये विजातीयद्रव्यारोपण उपचरितासद्भूतव्यवहारः - श्राहरणहेमरयणं वत्थादीया ममत्ति जंपतो । उवयारप्रसन्भूयो विजादिदव्वेसु णायव्वो । (ल. नयच. ७४) । २. प्राहरण हेमरयणं वच्छादीया ममेदि जप्यंतो । उवयरियप्रसन्भू विजाइदव्वेसु णायव्वो । द्रव्यस्व. प्र. नयच. २४५) ।
१ विजातीय द्रव्य में विजातीय द्रव्य का प्रारोपण करके जो व्यवहार हुआ करता है उसे विजातिद्रव्य उपचरित प्रसद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। जैसे-
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विजात्य सद्भूतव्यवहारनय ]
१०००,
'श्राभरण और वस्त्र प्रादि मेरे हैं। इस प्रकार का व्यवहार ।
जैन - लक्षणावली
विजात्यसद्भूतव्यवहारनय विजात्य सद्भूतव्यवहारो यथा मूर्त मतिज्ञानं यतो मूर्तद्रव्येण जनितम् । ( श्रालापप. पू. १३६ ) ।
मूर्त द्रव्य से उत्पन्न मतिज्ञान को मूर्त कहना, यह विजाति श्रसद्भूतव्यवहारनय का लक्षण है । विजात्युपचरित प्रसद्भूतव्यवहार नयवि जात्युपचरिता सद्भूतव्यवहारो यथा वस्त्राभरण हेमरत्नादि मम । ( श्रालाप बृ. १३६ ) । विजातीय ( श्रचेतन) वस्त्र, श्राभरण, सुवर्ण और रत्न श्रादि को ये मेरे हैं' ऐसा मानना, इसे विजाति उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है । विजिगीषु राजात्म- देव द्रव्य - प्रकृतिसंपन्नो नयविक्रमयोरधिष्ठानं विजिगीषुः । ( नीतिवा. २६- २३, पु. ३१८ ) ।
राज्याभिषेक, पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म, कोष और श्रमात्य श्रादि रूप प्रकृति इन चार से युक्त होकर जो नीति और पराक्रम का स्थान होता है उसे विजिगीषु कहा जाता है । विजिगीषुकथा - वादि-प्रतिवादिनोः स्वमतस्थापनार्थं जय-पराजयपर्यन्तं परस्परं प्रवर्तमानो वाग्व्यापारो विजिगीषुकथा || ( न्यायदी. पू. ७९ ) । वादी और प्रतिवादी के मध्य में अपने-अपने मत को प्रतिष्ठित करने के लिए जय या पराजय पर्यन्त जो वचन का व्यवहार ( वाद-विवाद ) होता है उसे विजिगीषुकथा कहते हैं ।
विज्ञप्ति - विशेषरूपेण ज्ञायते तर्कितोऽर्थोऽनया इति विज्ञप्ति: । ( धव. पु. १३, पृ. २४३ ) । जिसके द्वारा तर्कसंगत पदार्थ विशेष रूप से जाना जाता है उसे विज्ञप्ति कहते हैं । यह एक प्रवाय मतिज्ञान का पर्यायनाम है । विज्ञान- १. मोह-सन्देह - विपर्यासव्युदासेन ज्ञानं विज्ञानम् । ( नीतिवा. ५-४६, पृ. ५६ ) । २. विविघं स्व-परसम्बन्धि ज्ञानं भासनं यस्य यस्मिन् वा तद्विज्ञानम् । ( न्यायकु . ३, पृ. २६) । ३. विशेषस्य जात्याद्याकारस्य ज्ञानमवबोधनं निश्चयो यस्य तद्विज्ञानम्, विशेषेण वा संशयादिव्यवच्छेदेन ज्ञानमव बोधनं निश्चयो यस्य तद्विज्ञानमिति । ( लघीय. अभय वृ. ३) ।
[वितर्क
१ श्रध्यवसाय, सन्देह और विपरीतता से रहित जो ज्ञान होता है उसे बिज्ञान कहा जाता है । २ जिस ज्ञान में स्व-परविषयक विविध प्रकार का प्रतिभास होता है उसका नाम विज्ञान है । विट - व्यसनिनां प्रेषणाज्जीवी विटः । (नीतिवा. १४ - २०, पृ. १७३ ) ।
जो व्यसनी जनों को भेजकर प्राजीविका चलाता है उसे विट कहा जाता है ।
विटत्व- १. विटत्वं भण्डिमा प्रधानकाय वाक्प्रयोगः । ( रत्नक. टी. ३-१४) । २. विटत्वं भण्डवचनादिकम् प्रयोग्यवचनम् (कार्तिके. टी. ३३७-३८) । १ अश्लील भाषण करना व शरीर की कुचेष्टा करना, इसका नाम विटत्व है । यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक प्रतिचार है । विडौषधिऋद्धि-- १. मुत्त-पुरीसो वि पुढं दारुणबहुजीववायसंहरणा । जीए महामुनीगं विप्पोसहिणाम सा रिद्धी ॥ ( ति प ४ - १०७२ ) । २. वि. डुच्चार प्रौषधिर्येषां ते विडौषधिप्राप्ताः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३ ) । ३. विडुच्चार: शुक्र-मूत्रं चौषधि प्राप्तो येषां ते विडौषधिप्राप्ताः । (चा. सा. पृ. εC) 1
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से महामुनियों का मूत्र और मल भी जीवों के बहुत से रोगों को नष्ट करने वाले होते हैं उसे विडौषधि या विप्रौषधि ऋद्धि कहते हैं ।
वितत - १. तंत्रीकृतवीणा - सुघोषादिसमुद्भवो विततः । ( स. सि. ५ - २४; त. वा. ५, २४, ५; त. श्लो. ५ - २४ ) । २. वितदो णाम भेरी मुदिंग-पटहादिसमुब्भूदो सद्दो । (घव. पु. १३, पृ. २२१) । ३. विततं पटहादिकम् । (पंचा. का. जय. वृ. ७९ ) । ४. विततं वीणादि । (रायप. मलय. वृ. पृ. ९६ ) । ५. तंत्री विहितवीणाद्युद्भवः सुघोषः किन्नरैश्च उल्लपित इत्यादिकं विततः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४) ।
।
१ तंत्रीकृत होगा और सुघोषा श्रादि से जो शब्द उत्पन्न होता है उसे वितत कहा जाता है। वितर्क - १. वितर्कः श्रुतम् । (त. सू. ६-४३ । २. जम्हा सुदं वितक्कं XXX । (भ. श्री. १८८१) । ३. विशेषेण तर्कण मूहनं वितर्कः, श्रुतज्ञानमित्यर्थः । ( स. सि. ६-४३; त. वा. ९-४३ ।।
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वितर्क]
१००१, जैन-लक्षणावली
[विद्या
४. वितर्कः श्रुतं द्वादशाङ्गम् । (धव. पु. १३, पृ. विदूषक-सर्वेषां प्रहसनपात्रं विदूषकः । (नीतिवा. ७७) । ५. वितर्को द्वादशांगं तु श्रुतज्ञानमनाविलम्। १४-२१, पृ. १७३) । (ह. पु. ५६-५७)। ६. Xxx वितर्कः श्रुत- जो सबकी हंसी का पात्र-सबको हंसाने वालामुच्यते । (म. पु. २१-१७२; ज्ञाना. ४२-१५, होता है उसे विदूषक कहा जाता है । पृ. ४३३) । ७. श्रुतं यतो वितर्क: स्यात् xx विदेह-१. विदेहयोगाज्जनपदे विदेहव्यपदेशः । x। (त. सा. ७-४६)। ८. वितर्को द्वादशांग- विगतदेहाः विदेहाः । के पुनस्ते ? येषां देहो नास्ति, श्रुतज्ञानम् । (चा. सा. पृ. ६१)। ६. स्वशुद्धात्मा- कर्मबन्धसन्तानोच्छेदात् । ये वा सत्यपि देहे विगतनुभूतिलक्षणं भावभुतं तद्वाचकमन्तर्जल्पवचनं वा शरीरसंस्कारास्ते विदेहास्तद्योगाज्जनपदे विदेहव्यपवितर्को भण्यते । (ब. द्रव्यसं. टी. ४८)। १०. देशः । (त. वा. ३, १०, ११)। २. अथ देहममविशेषेण विशिष्टं वा तर्कणं सम्यग्ग्रहणं वितर्कः स्वमूलभतमिथ्यात्व-रागादिविभावरहिते केवलज्ञानश्रुतज्ञानम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४३)।
दर्शन-सुखाद्यनन्तगुणसहिते च निजपरमात्मद्रव्ये यया ३ विशेष रूप से जो तर्कणारूप होता है उस श्रुत- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रभावनया कृत्वा विगतदेहा ज्ञान को वितर्क कहा जाता है।
देहरहिताः सन्तो मुनयः प्राचुर्येण यत्र मोक्षं गच्छन्ति वितस्ति-१. xxx वेवादेहिं विह त्थिणामा स विदेहो भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३५) । ३. य । (ति. प. १-११४) । २.द्वादशांगुलो वितस्तिः। विगतो विनष्टो देहः शरीरं मुनीनां येषु ते विदेहाः, (त. वा. ३, ३८, ६, पृ. २०८)। ३. xxx प्रायेण मुक्तिपदप्राप्तिहेतुत्वात् । (त. वृत्ति श्रुत. पादद्वय पुनः । वितस्ति XXX ॥ (ह. पु.
१जो कर्मबंध की परम्परा से रहित हो जाने के पु. पुष्प. २-७, पृ. २४) । ५.xxx वेपादेहि य कारण शरीर से रहित हो जाते हैं उन्हें विदेह कहा तहा विहत्थी दु । (जं.दी. प. १३-३२)। जाता है, अथवा जो शरीर के रहते हुए भी ६. द्वाभ्यां पदाभ्यां वितस्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. ३, शरीरसंस्कार से रहित होते हैं उनको विदेह कहते ३८)।
हैं । उक्त विदेह जनों के सम्बन्ध से जनपद (क्षेत्र) १ दो पादों (१२ चंगुलों) का एक वितस्ति होता को विदेह जनपद या विदेह क्षेत्र कहा जाता है।
विद्या-१. इत्थी विज्जाऽभिहिमा xxx। विदारण क्रिया-१. पराचरितसावधादिप्रकाशनं विज्जा ससाहण वा xxx॥ (विशेषा. विदारण क्रिया। (स. सि. ६-५; त. वा. ६, भा. ३, ३५८९, पृ. ७११) । २. xxx विद्या ५, १०)। २. पराचरितसावधक्रियादेस्तु प्रकाश- शास्त्रोपजीवने ॥ (म. पु. १६-१८१)। ३ याः नम् । विदारणक्रिया सान्या धीविदारणकारिणी॥ समधिगम्यात्मनो हितमे-[म-वैत्यहितं चापोहति (ह. पु. ५८-७६) । ३. पराचरितसावधप्रकाशन- ता विद्याः। (नौतिवा. ५,५४, पृ. ५६)। ४. समिह स्फुटम् । विदारणक्रिया त्वन्या स्यादन्यत्र ___ साधना विद्या । यदि वा यस्याधिष्ठात्री देवता सा विशुद्धितः ।। (त. श्लो. ६, ५, १६)। ४. पर- विद्या । (व्यव. भा. मलय.. तु. वि. पृ. ११७)। विहितगुप्तपापप्रकाशनं विदारणक्रियाः । (त. वृत्ति ५. यत्र मंत्रदेवता स्त्री विद्या, xxx अथवा श्रुत. ६-५)।
साधनसहिता विद्या। (प्राव. नि. मलय. वृ. ६३१, १दूसरे के द्वारा प्राचरित पाप आदि के प्रकाशित पृ. ५१३) । ६. मंत्र-जप-होमादिसाध्या स्त्रीदेवताकरने का नाम विदारण क्रिया है।
धिष्ठाना वा विद्या । (योगशा. स्वो. विव. १-३८, विदिशा-सगदाणादो कण्णायारेण दिदखेत्तं पृ. १३६)। ७. विद्या साधितसिद्धा स्यात् xx विदिसा । (धव. पु. ४, पृ. २२६)।
X । (अन. घ. स्वो. टी. ५-२५ उद्.)। अपने स्थान से कर्ण के प्राकार से स्थित क्षेत्र का १ जिस मंत्र की अधिष्ठात्री स्त्री देवता हुया करती नाम विदिशा है।
है, अथवा जो जप प्रादि अनष्ठान के द्वारा सिद्ध ल. १२६
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विद्या कार्य]
१००२, जैन-लक्षणावली
[विद्यानुप्रवाद
की जाती है उसे विद्या कहते हैं। २ शास्त्र के द्वारा हरा, सयलविज्जायो छंडिऊण गहिदसंजमविज्जाहरा -पठन-पाठन प्रादि करके-जो आजीविका की वि होंति विज्जाहरा, विज्जाविसयविण्णाणस्स तत्थुजाती है उसे विद्यावृत्ति कहा जाता है। ३ निनको वलंभादो। पढिदविज्जाणुपवादा वि विज्जाहरा, जानकर प्राणी अपने हित को समझता है और तेसि पि विज्जाविसयविण्णाणुवलंभादो। (धव. पु. अहित से दूर रहता है उन्हें विद्या कहा जाता है। ६, पृ. ७७-७८)।। विद्याकर्यि-१. आलेख्य-गणितादिद्विसप्तति- १ कुल में-पिता के वंश में-विद्याओं के धारण कलावदाता विद्याकार्याः चतुःषष्टिगुणसम्पन्नाश्च । करने के सम्बन्ध से विद्याधर कहे जाते हैं। (त. वा. ३, ३६, २)। २. गणितादिद्विसप्तति- २ विद्याएं तीन प्रकार की होती हैं-जाति विद्या, कलाप्रवीणा विद्याकार्याः। (त. वृत्ति श्रुत. ३, कुलविद्या और तपविद्या। ये तीन प्रकार की
विद्याएं जिनके हुआ करती हैं वे विद्याधर कहलाते १ जो लेखन व गणित प्रादि ७२ कलानों में निपुण हैं । विजया पर्वत पर रहने वाले मनुष्य भी विद्याव ६४ गुणों से सम्पन्न होते हैं वे विद्याकर्यि कह- घर (जन्मजात) होते हैं। समस्त विद्यानों को लाते हैं।
छोड़कर संयम के धारक भी विद्याधर होते हैं, क्योंकि विद्याचारण-ये पुनविद्या वशतः समुत्पन्नगमना- वहां भी उनके विद्याविषयक ज्ञान पाया जाता है। गमनलब्धयस्ते विद्याचारणाः। (प्राव. नि. मलय. जिन्होंने विद्यानुवाद पूर्व को पढ़ा है वे भी विद्याधर वृ. ६६, पृ. ७८; प्रज्ञाप. मलय. व. २७३)। कहलाते हैं क्योंकि उनके भी विद्याविषयक ज्ञान जिनके विद्या के वश से जाने माने को लब्धि (ऋद्धि पाया जाता है। या शक्ति) उत्पन्न हो जाती है वे विद्याचारण कहन विद्याधर जिन-सिद्धविज्जाणं पेसणं जे ण लाते हैं।
इच्छंति, केवलं धरंति चेव अण्णाणणि वित्तीए, ते विद्यादोष--१. विज्जा साधितसिद्धा तिस्से प्रासा- विज्जाहरजिणा यामधव..
विज्जाहरजिणा णाम । (धव. पु. ६, पृ. ७८)। पदाणकरणेहि। तस्से माहप्पेण य विज्जादोसा दु जो सिट की हुई विद्यानों के प्रेषण-अभीष्ट कार्य उप्पादो। (मला. ६-३८)। २. विद्यागः सिद्ध- की सिद्धि के लिए कहीं भेजने की इच्छा नहीं विद्यादिप्रभावादिप्रदर्शनम् ॥ (प्राचा. सा. ८,
किया करते हैं या उन्हें किसी प्रकार का आदेश ४३)। ३. विद्या मंत्रेण चूर्णप्रयोगेण वा गृहिणं
नहीं दिया करते हैं केवल उनके अज्ञान को दूर वशे स्थापयित्वा लब्धा (वसतिः) । (भ. प्रा.
करने के लिए धारण ही किया करते हैं, वे विद्याविजयो. २३०)। ४. XXX विद्यामाहात्म्य
घर जिन कहलाते हैं। दानतः । विद्या xxx मलोऽश्नतः ।। (अन. घ.
विद्याधर श्रमण-अन्येऽधीतदशपूर्वा रोहिणीप्रज्ञ५-२५) । ५. सिद्धविद्या-साधितविद्यादीनां प्रदर्शनं
प्यादिमहाविद्यादिभिरङगष्ठ-प्रसे निकाभिरल्पविद्याविद्योपजीवनम् । (भावप्रा. टी. ९६)।
दिभिश्चोपनतानां भूयसीनामृद्धीनाम अवशगा विद्या१ विद्या के माहात्म्य को प्रगट करके व उसके देने की प्राशा देकर जो प्राहार प्राप्त किया जाता है
वेगधारणात् विद्याधरश्रमणाः । (योगशा. स्वो. बिब. वह विद्या नामक उत्पादनदोष से दूषित होता है।
१-८, पृ. ३८)। ३ मंत्र अथवा चूर्णप्रयोग के द्वारा गृहस्थ को अपने
जो साधु दस पूर्वो को पढ़कर रोहिणी व प्रज्ञप्ति अनुकूल करके जो वसति प्राप्त की जाती है वह आदि महाविद्याओं से तथा अंगुष्ठप्रसेनिका आदि विद्या नामक उत्पादनदोष से दूषित होती है। क्षुद्र विद्यानों से प्राप्त बहुत सी ऋद्धियों के वशी. विद्याधर-१. कुले विद्याधरा जाता विद्याधरण- भूत नहीं होते हैं वे विद्याधर श्रमण कहलाते हैं। योगतः । (पद्मपु. ६-२११)। २. तिविहाम्रो वि- विद्यानुप्रवाद-१. समस्ता विद्या अष्टौ महानिज्जायो जादि-कुल-तवविज्जाभेएण | xxx मित्तानि तद्विषयो रज्जुराशिविधिः क्षेत्रं श्रेणी लोकएवमेदाओ तिविहानो विज्जाबो जेसि होंति ते प्रतिष्ठा संस्थानं समुद्धातश्च यत्र कथ्यते तद्विद्यानविज्जाहरा । तेण वेअड्ढणिवासिमणुप्रा वि विज्जा- वादम् । (धव. 'विद्यानुप्रवादम्')। (त. वा. १,
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विद्यानुप्रवाद] १००३, जैन-लक्षणावली
[विधाता २०, १२, पृ. ७६; धव. पु. ६, पृ. २२२-२३)। विद्या का प्रयोग करके जो भोजन प्राप्त किया २. विज्जाणुवादंणाम पुव्वं पण्हारसण्हं वत्थूणं १५ जाता है उसे विद्यापिण्ड कहा जाता है। यह साधु तिण्णिसयपाहुडाणं ३०० एगकोडि-दसलक्खपदेहि के लिए पाहारविषयक एक उत्पादनदोष है। ११०००००० अंगुष्ठप्रसेनादीनां अल्पविद्यानां सप्त- विद्यावान - विद्या: प्रज्ञप्त्यादयः शासनदेवतास्ताः शतानि रोहिण्यादीनां महाविद्यानां पञ्चशतानि साहायके [सहायकाः] यस्य स विद्यावान् । (योगअन्तरिक्ष-भौमाङ-स्वर-स्वप्न-लक्षण-ध्यजन-छिन्ना- शा. स्वो. विव. २-१६) । न्यष्टो महानिमित्तानि च कथयति । (धव. पु. १, शासनदेवता स्वरूप प्रज्ञप्ति प्रादि विद्याएं जिसकी पृ. १२१) । ३. विज्जाणुपवादो अंगुट्ठपसेणादिसत्त- सहायक होती हैं वह विद्यावान् कहलाता है। सयमंते रोहिणिग्रादिपंचसयमहाविज्जाओ च विद्युत्-रत्त-धवल-सामवण्णाश्रो तेजब्भहियानो तासि साहणविहाणं सिद्धाणं फलं च वण्णेदि। कुवियभुजंगोव्व चलंतसरीरा मेहेसु उवलब्भमाणामो (जयध. १, पृ. १४४)। ४. विद्यानुप्रबादं दशमं विज्जूनो णाम । (धव. पु. १४, पृ. ३५)। तत्रानेके विद्यातिशया वणितास्तत्परिमाणमेका पद. क्रोध को प्राप्त होते हुए सर्प के समान जो मेंघों के कोटी दश च पदशतसहस्राणीति । (स्थानां. अभय. मध्य में लाल, धवल व श्याम (काले) रंग वाली वृ. १४७)। ५. विद्यानुयोगो रोहिणीप्रभतिविद्या- तेज से संयक्त चंचलप्रभा उपलब्ध होती है उसे साधनाभिधायकानि शास्त्राणि। (समवा. अभय, वृ. विद्युत् (बिजली) कहा जाता है । २६)। ६. दशलक्षककोटिपदं क्षुद्रविद्यासप्तशतीं विद्यासिद्ध-देखो विद्या । १. विज्जाण चक्कवट्टी महाविद्यापञ्चशतीम् अष्टांगनिमित्तानि च प्ररूप- विज्जासिद्धो स जस्स वेगावि । सिज्झिज्ज महायत् पृथुविद्यानुप्रवादम् । (श्रुत. भ. टी. १२, पृ. विज्जा विज्जासिद्धोऽज्जख उडुब्व ।। (प्राव. नि. १७६)। ७. पंचशतमहाविद्याः सप्तशतक्षुद्रविद्या ६३२, पृ. ५१३)। २. विद्यानां सर्वासां चक्रवर्ती अष्टांगमहानिमित्तानिनिरूपयत् दशलक्षाधिककोटिपदप्रमाणं विद्यानुप्रवादपूर्वम् । (त. वृत्ति भुत. १-२०)। ८. विज्जाणुवादपुव्वं पयाणि इगिकोडि सिद्धत् स विद्यासिद्धः, सातिशयत्वात् । (प्राव. नि. होति दसलक्खा । अंगुट्ठपसेणादी लहुविज्जा सत्तसय- मलय. वृ. ६३२)। मेत्ता ॥ पंचसया महविज्जा रोहिणीपमहा पकासये विद्यानों का जो चक्रवर्ती-अधिपति-हो उसे चावि । तेसि सरूवसत्ति साहणपूयं च मंतादि । विद्यासिद्ध कहा जाता है । अथवा जिसे अम्बकूष्मासिद्धाणं फललाहे भोम-गयणंगसद्दछिण्णाणि । सुमिणं डो व महारोहिणी प्रादि कोई एक ही विद्या सिद्ध लक्खणविजण अट्ट णिमित्ताणि जं कहइ॥ (अंगप. है उसे विद्यासिद्ध कहते हैं। जैसे प्रार्य खपुटश्रमण २, १०१-३, पृ. २६६)।
पादि। १ जिस श्रुत में समस्त विद्याओं, पाठ महानिमित्तों, विद्रावण-१. अंगच्छेदनादिव्यापारः विद्दावण । उनके विषय, राजुराशि के विधान, क्षेत्र, श्रेणी, (धव. पु. १३, पृ. ४६)। २. प्राणिनोऽङ्गच्छेदादिलोकस्थिति, संस्थान और समुद्घात का कथन किया विद्रावणमभिधीयते । (भावप्रा. टी. ६६)। जाता है उसे विद्यानुप्रवाद पूर्व कहते हैं । विद्यानुयोग १प्राणियों के नासिका आदि अवयवों के छेदने प्रादि और विद्यानुवाद उसके नामान्तर हैं। जिन शास्त्रों रूप प्रवृत्ति को विद्रावण कहा जाता है। में रोहिणी प्रादि विद्याओं के साधने का कथन किया विधाता-व्यवस्थाना विधाता त्वं भविता विविजाता है उनका नाम विद्यानयोग है।
धात्मनाम् । भारते यत्ततोऽन्वथं विधातेत्यभिधीयते ।। विद्यानुयोग-देखो विद्यानुप्रवाद ।
(ह. पु. ८-२०८)। विद्यानुवाद-देखो विद्यानुप्रवाद ।
जो अनेक प्रकार की व्यवस्थाओं को करता है उसे विद्यापिण्ड-विद्यां (मंत्रं चणं योगं च) भिक्षार्थ विधाता कहा जाता है। प्रकृत में भगवान आदिनाथ प्रयुञ्जानस्य चत्वारो विद्यादिपिण्डाः। (योगशा. ने कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रसि, मसि और कृषि स्वो. विव. १-३८)।
प्रादि से अनभिज्ञ जनता के लिये उक्त क्रियाओं को
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विधि १००४, जैन-लक्षणावलो
[विनयशुद्धि समझाकर उनमें लगाया था, अतः यहाँ स्तुति के च नीचैर्वृत्तिविनयः। (चा. सा. पृ. ६५)। ८. रूप में उन्हें विधाता कहा गया है।
स्वाध्याये संयमै सङ्के गुरौ सब्रह्मचारिणि । यथौविधि-सुपात्रप्रतिग्रहणं समुन्नतासनस्थापनं तच्च- चित्यं कृतात्मानो विनयं प्राहुरादरम् ॥ (उपासका. रणप्रक्षालनं तत्पादपूजनं तन्नमस्कारकरणं निजमन:- २१३)। ६. व्रत-विद्या-वयोधिकेषु नीचराचरणं शुद्धिविधानं वचननमल्यं कायशुद्धिर्भक्त-पानशुद्धिश्चे- विनयः। (नीतिवा. ११-६, पृ. १६२) । १०. ति नवविधपुण्योपार्जनं विधिरुच्यते । (त. वृत्ति विनयः स्याद् विनयनं कषायेन्द्रियमर्दनम् । स नीचंश्रुत. ७-३६)।
वृत्तिरथवा विनया यथोचितम् ॥ (प्राचा. सा. उत्तम पात्र को ग्रहण करना, ऊंचे प्रासन पर बैठाना, ६-६६)। ११. विनीयन्ते निराक्रियन्ते संक्रमणोपाद प्रक्षालन करना, पाद पूजा करना, नमस्कार दयोदीरणादिभावेन प्राप्यन्ते येन कर्माणि तद विनकरना, अपने मन की शुद्धि, वचन की शुद्धि, काय यकर्म । (मला. व. ७-७६)। १२. विनीयते की शद्धि और भोजन-पान की शद्धि, यह सब क्षिप्यतेऽष्टप्रकार कर्मानेनेति विनयः । (योगशा. नवधाभक्ति रूप विधि कहलाती है। मुनि को स्वो. विव. ४-६०)। १३. विनयो गुरुशुश्रूषा । पाहार इस नवधा भक्ति के साथ दिया जाता है। (प्राव. नि. मलय. वृ. ६३८, पृ. ५१६) । १४. विध्यातसंक्रम-१. तेण (गुणसंकमेण) परं अशुभकर्माणि विनयत्यपनयतीति विनयः । (भ. मा. अंगुलस्स असंखेज्जदिभागपडिभागियो विज्झादसंकमो मला. ११२); सददर्शनादीनां निर्मलीकरणे यत्नो होदि। (धव. पु. ६, पृ. २३६); जासि पयडीणं विनयः। (भ. प्रा. मला. ४१६); १५. विनयं जत्थ बंधसंभवो णियमेण णत्थि तत्थ तासि विज्झा- माहात्म्यापादनोपायम् । (अन. घ. स्वो. टी. २, दसंकमो। (धव. पु. १६, पृ. ४०६) । २. विध्यात- ११०); स्यात् कषाय-हृषीकाणां विनीतेविनयोविशुद्धिकस्य जीवस्य स्थित्यनुभागकाण्डक-गुणघेण्या- ऽथवा । रत्नत्रये तद्वति च यथायोग्यमनुग्रहः । यद्विदिपरिणामेष्वतीतेषु प्रवर्तनाद् विध्यातसंक्रमणं नयत्यपनयति च कर्मासत्तं निराहुरिह विनयम् । नाम । (गो. क. जी. प्र. ४१३) ।
शिक्षायाः फलमखिलक्षेमफलश्चेत्ययं कृत्यः॥ (प्रन. १ जिन प्रकृतियों का जहां नियम से बन्ध सम्भव घ. ७, ६०-६१); विनयो मर्यादा। xxx नहीं है वहां उनका विध्यातसंक्रम होता है। उपास्तिर्वा विनयः । (अन. ध. स्वो. टी. ७-६८); विनय-१. जम्हा विणेदि कम्मं अट्रविहं चाउरंग- हिताहिताप्ति-लुप्त्यर्थं तदङ्गानां सदाञ्जसा । यो मोक्खो य । तम्हा वदंति विदुसो विणो त्ति वि- माहात्म्योद्भवे यत्नः स मतो विनय: सताम् । लीणसंसारा ॥ (मूला. ७-८१)। २. पूज्येष्वादरः । (अन. ध. ८-४७)। १६. ज्येष्ठेषु मुनिषु प्रादरो विनय: । (स. सि. ६-२०)। ३. रत्नत्रयवत्सु नीच- विनयः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२०)। १७. गुर्वादीनां र्वृत्तिविनयः । (धव. पु. १३, पृ. ६३)। ४. गुणा- यथाप्येषामभ्युत्थानं च गौरवम् । क्रियते चात्मधिकेष नीचर्वत्तिविनयः। (जयघ. १, पृ. ११७)। सामाद्विनयाख्यं तपः स्मृतम् । (लाटीसं. ५. ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपसामतीचारा अशुभक्रिया:, ७-८३) । तासामपोहनं विनयः । (भ. प्रा. विजयो. टी. ६); १ जो अनुष्ठान पाठ कर्मों को "विनयति' अर्थात् विनयत्यपनयति यत्कर्माशुभं तद्विनयः। (भ. प्रा. नष्ट करता है तथा चतुर्गतिस्वरूप संसार से मुक्त विजयो. टी. ११२) । ६. विणमो पंचपयारो दंसणः कराता है उसे विनयकर्म कहते हैं। २ पूज्य पुरुषों गाणे तहा चरित्ते य । वारसभेयम्मि तवे उवयारो में पादर का भाव रखना-यथायोग्य उनका बहुविहो णेो। दसण-णाण-चरित्ते सुविसुद्धो जो प्रादर-सत्कार करना, इसका नाम विनय है। १५ हवेइ परिणामो। वारस भेदे वि तवे सोच्चिय हित की प्राप्ति और अहित के विनाश के लिए विणो हवे तेसि ॥ रयणत्तयजुत्ताणं अणुकूलं जो उनके अंगों (उपायों) के माहात्म्य के उत्पादन में चरेदि भत्तीए । भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो प्रयत्नशील रहना, इसे विनय कहा जाता है। हवे विणग्रो ॥ (कार्तिके. ४५६-५८) । ७. कषाये- विनयकर्म-देखो विनय । न्द्रियविनयनं विनयः। अथवा रत्नत्रयस्य तद्वतां विनयशुद्धि-१. विनयशुद्धिः अहंदादिषु परमगुरुषु
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विनयशुद्धि]
यथा पूजाप्रवणा ज्ञानादिषु च यथाविधि भक्तियुक्तता गुरोः सर्वत्रानुकूलवृत्तिः प्रश्न- स्वाध्याय वाचना- कथाविज्ञत्यादिषु प्रतिपत्ति कुशला देश-काल- भावावबोधनिपुणा प्राचार्यानुमतचारिणी (त. श्लो. 'सदाचार्यमतानुचारिणी') । (त. वा. ६, ६, १६; त. इलो. ६-६; चा. सा. पृ. ३४ ) । २. कुलद्धि-जातिरूपाज्ञा-तपोज्ञान-बलोद्भवः । मर्दविहीना विनये शुद्धिः सद्गुणसन्नतिः ॥ ( श्राचा. सा. ६-६६) । ३. द्विनति द्वादशावर्त शिरोनतिचतुष्टये । तत्र योSनादराभावः सस्याद्विनयशुद्धिका ॥ ( धर्मसं. श्री. ७-५१) ।
१००५, जैन-लक्षणावली ६-२४) ।
१ अरहन्त श्रादि परम गुरुनों की यथायोग्य पूजा में तत्पर रहना, ज्ञानादि के विषय में विधिपूर्वक भक्ति से युक्त रहना, गुरु के अनुकूल सर्वत्र प्रवृति करना; प्रश्न, स्वाध्याय, वाचना, कथा एवं विज्ञप्ति श्रादिविषयक पूजा-प्रशंसादि में कुशल रहना; देशकालादि का ज्ञान प्राप्त करना, तथा प्राचार्य से अनुमत श्राचरण करना; यह सब विनयशुद्धि कहलाती है । विनयसम्पन्नता - १. सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधनेषु च गुर्वादिषु स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार आदरो विनयस्तेन संपन्नता विनयसंपन्नता । ( स. सि. ६ - २४ ) । २. ज्ञानादिषु तद्वत्सु चादरः कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता । सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधनेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार प्रादरः कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता । (त. वा. ६, २४, २) । ३. ज्ञानादिषु तद्वत्सु च महादरो यः कषायविनिवृत्या । तीर्थकरनामहेतुः स विनयसम्पन्नताभिख्यः ।। (ह. पु. ३४ - १३३ ) | ४. संज्ञानादिषु तद्वत्सु वादरोत्थानपेक्षया । कषायविनिवृत्तिर्वा विनयैर्मुनिसम्मतेः ॥ संपन्नता समाख्याता मुमुक्षूणामशेषतः । सद्दृष्ट्यादिगुणस्थानवर्तिनां स्वानुरूपतः ॥ (त. इलो. ६, २४, ३-४) । ५. सम्यग्दर्शनादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार श्रादरः कषाय-नोकषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता । (चा. सा. पृ. २५)। ६. ज्ञान-दर्शन- चारित्रेषु तद्वत्सु चादरोकषायता वा विनयसम्पन्नता । ( भावप्रा. टी. ७७)। ७. रत्नत्रय मण्डिते रत्नत्रये च महानादर कषायत्वं च विनयसम्पन्नता ॥ ( त वृत्ति श्रुत.
[विनाश
१ मोक्ष के साधनभूत सम्यग्दर्शनादि और उनके भी साधन जो गुरु श्रादि हैं उनका अपनी अपनी योग्यता के अनुसार श्रादर-सत्कार करना, इसका नाम विनयसम्पन्नता है । यह तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक कारणों में से एक है ।
विनयसंश्रय - वीक्ष्यागन्तुकमायान्तं यतिमुत्थाय संभ्रमात् । पदानि सप्त गत्वा च कृत्वा तद्योग्यवन्दनम् || मार्गश्रान्तिमपोह्यासनप्रदानादि यत्नतः । त्रिरत्न सुस्थितादीनां प्रश्नो विनयसंश्रयः ॥ ( श्राचा. सा. २, १७-१८) |
मुनि को प्राते हुए देखकर शीघ्रता से उठकर खड़े हो जाना, सात पग ( कदम ) धागे जाकर उनके अनुरूप वन्दना करना, पश्चात् मार्ग को थकावट को दूर करके प्रयत्नपूर्वक श्रासन श्रादि देना तथा रत्नत्रय आदि की उत्तम परिस्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न करना; इसका नाम विनयसंश्रय है । विनयाचार - कायिक- वाचनिक मानसशुद्धपरिणा मैः स्थितस्य तेन वा योऽयं श्रुतस्य पाठो व्या ख्यानं परिवर्तनं यत्स विनयाचारः । ( मूला. वृ. ५-७२) ।
कायिक, वाचनिक और मानसिक शुद्ध परिणामों के साथ जो स्थित है उसके लिए अथवा उसके द्वाराउक्त शुद्ध परिणामों से स्थित स्वयं के द्वाराशास्त्र का जो पाठ, व्याख्यान श्रौर परिवर्तनबार-बार अनुशीलन किया जाता है, इसे विनयाचार कहा जाता है ।
विनयोपसम्पत् - पाहुणविणउवचारो तेसि चावासभूमिसंपुच्छा । दाणाणुवत्तणादी विणये उपसंपया या ।। (मूला. ४-१६, पृ. १२३ ) । प्राघूर्णिक (अभ्यागत साधुजन) का जो पादमर्दन व नम्रतापूर्ण सम्भाषण प्रादि रूप विनय तथा श्रासन प्रदानादिरूप उपचार किया जाता है, उनसे श्रावास और भूमि (मार्ग) विषयक जो पूछ-ताछ की जाती है, तथा पुस्तक प्रादि के दान के साथ जो उनके अनुकूल व्यवहार किया जाता है, इस सबको विनयोपसम्पत् कहा जाता है। यह पांच प्रकार की उपसम्पत् में प्रथम है ।
विनाश - पूर्वाकारान्यथाभावो विनाशो वस्तुनः पुन: । ( भावसं वाम. ३८० ) ।
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विपरिकुंचित १००६, जैन-लक्षणावली
[विपाक वस्तु के पूर्व प्राकार के अन्यथाभाव (परिवर्तन) मिथ्यादर्शनं विपर्ययमिथ्यादर्शनं अपरनामकम् । का नाम विनाश है, जिसका निर्देश व्यय शब्द के (त. वृत्ति श्रुत. ८-१)। द्वारा अधिक किया जाता है।
१परिग्रह से सहित को निर्ग्रन्थ, केवली को कवलाविपरिकंचित-विपरिकुंचितम् अर्धवन्दित एव हारी तथा स्त्री को मुक्ति प्राप्त करने वाली; देशादिकथाकरणम् । (योगशा. स्वो. विव, ३, इत्यादि प्रकार की विपरीत श्रद्धा का नाम विपरीत १३०)।
मिथ्यात्व है । २ हिंसा, असत्य वचन, चोरी, मैथुन, आधी वन्दना के समय में ही देश आदि की चर्चा परिग्रह, राग, द्वेष, मोह और प्रज्ञान से ही मुक्ति करने पर वह विपरिकंचित नामक वन्दनादोष से प्राप्त होती है। इस प्रकार के विश्वास को विपरीत दूषित होती है।
मिथ्यात्व कहा जाता है। विपरीत मिथ्यादर्शन और विपरीत असत्य--विपरीतमिदं ज्ञेयं ततीयकं यद्वा विपरीत रुचि ये उसके नामान्तर हैं। दन्ति विपरीतम् । सग्रन्थं निर्ग्रन्थं निर्ग्रन्थमपीह सग्र: विपरीत मिथ्यादर्शन-देखो विपरीत मिथ्यात्व । न्थम् ॥ (अमित. श्रा. ६-११) ।
विपरीत रुचि-देखो विपरीत मिथ्यात्व । परिग्रह सहित को निर्ग्रन्थ और उस परिग्रह से विपर्यय-१. विरुद्धकोटिसंस्पर्शी व्यवसायो वि. रहित को सग्रन्थ कहना, यह प्रसत्यवचन का विप. पर्ययः। शुक्तौ रजतबुद्धिः सा विपर्यासो भ्रमोऽपि रीत नामक तीसरा भेद है।
च ।। (मोक्षपं. ६)। २. विपरीतककोटिनिश्चयो विपरीत मिथ्यात्व-१. सग्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली विपर्ययः। (न्यायदी. पु. ६)। कवलाहारी, स्त्री सिध्यतीत्येवमादिः विपर्ययः । १दो पदार्थों में से विरुद्ध का जो निश्चय होता है (स. सि. ८-१; त. वा.८, १,२८)। २. हिंसा- उसे विपर्यय कहते हैं। जैसे सीप में चांदी का लिय वयण-चोज्ज-मेहुण-परिग्गह-राग-दोस-मोहण्णा- निश्चय । णेहि चेव णिव्वुई होइ त्ति अहिणिवेसो विवरीय- विपर्यस्त-१. शुक्तिकाशकले रजताध्यवसायलक्षमिच्छत्तं । (धव. पु. ८, पृ. २०)। ३. विपर्यय- णविपर्यासगोचरस्तु विपर्यस्तः। (प्र. क. मा. ३, मिथ्यात्वं हिंसाया दुर्गतिवतिन्याः स्वर्गादिहेतुता २१) । २. विपर्यस्तं तु विपरीतावभासि विपर्ययवसितिज्ञानम् अहिंसायाश्च प्रत्यपायहेतुतेति। (भ. ज्ञानविषयभूतम् । (प्र. र. मा. ३-२१)। प्रा. विजयो. २३)। ४. सग्रन्थोऽपि च निर्ग्रन्थो १ सीप के टकडे में जो चांदी का निश्चय होता है ग्रासाहारी च केवली। रुचिरेवंविधा यत्र विपरीतं उसकी विषयभत वस्तु को विपर्यस्त कहते हैं। हि तत्स्मृतम् ॥ (त. सा. ५-६)। ५. अतथ्यं विपश्चित् – हेयोपादेयपरिज्ञानफलाः शास्त्रावमन्यते तथ्यं विपरीतरुचिर्जनः । दोषातुरमनास्तिक्त- गतीनिश्चिन्वाना विपश्चितः। (गद्यचि. प. ६१)। ज्वरीव मधुरं रसम् ॥ (अमित. श्रा. २-१०)। जिन शास्त्रावगतियों का फल हेय और उपादेय ६. केवली कवलाहारः सग्रन्यो मोक्षसाधकः। जीव- का ज्ञान प्राप्त करना है उनके जानने वालों को विध्वंसनं धर्मो विपरीतमिदं विदुः ॥ (पंचसं. विपश्चित् (विद्वान्) कहा जाता है। अमित. ४-२४, पृ. ८४) । ७. अहिंसादिलक्षण- विपाक-देखो अनुभव । १. विशिष्टो नानाविधो धर्मफलस्य स्वर्गापवर्गसौख्यस्य हिंसादिरूपयागादि- वा पाको विपाकः । कषायतीव्र-मन्दादिभावविशेकर्मफलत्वश्रद्धानं विपरीतमिथ्यात्वम् । (गो. जी. षाद्विशिष्ट: पाको विपाकः। अथवा द्रव्य-क्षेत्र-कालम. प्र. १५)। ८. अहिंसादिलक्षणसद्धर्मफलस्य भव-भावलक्षणनिमित्तभेदजनितवैश्वरूप्यो नानास्वर्गादिसुखस्य हिंसादिरूपयागादिफलत्वेन, जीवस्य विधः पाको विपाकः । (स. सि. ८-२१) । २. प्रमाण सिद्धस्य मोक्षस्य निराकरणत्वेन, प्रमाणवाधि- विशिष्टः पाको नानाविधो वा विपाकः। ज्ञानावरतस्त्रीमोक्षास्तित्ववचनेन इत्याद्यकान्तताबलम्बनेन णादीनां कर्मप्रकृतीनां अनुग्रहोपघातात्मिकानां पूर्वाविपरीताभिनिवेशो विपरीतमिथ्यात्वम् । गो. जी. स्रवतीव्र-मन्दभावनिमित्तो विशिष्ट: पाको विपाकः । जी. प्र. १५)। ६. सपरिग्रहो नि:परिग्रहः पूमान द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावलक्षणनिमित्तभेदजनितवैश्ववा स्त्री वा कवलाहारी केवली भवतीति विपरीत- रूप्यो नानाविधो वा पाको विपाकः । असावन
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विपाक ]
भव इत्याख्यायते । (त. वा. ८, २१, १ ) । ३. कम्माणमुदश्रो उदीरणा वा विवागो णाम । ( घव. पु. १४, पृ. १० ) । ४. विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्मपरिणामः । (समवा. श्रभय. वृ. १४६ ) । १ कषाय की तीव्रता और मंदता श्रादि भावों को विशेषता के अनुसार जो कर्म की अनुभागशक्ति में विशेषता होती है उसका नाम विपाक है । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप निमित्तों के भेद से जो कर्मों के अनुभाग ( फलदानशक्ति ) में विश्वरूपता ( विविधता ) होती है उसे विपाक कहा जाता है ।
विपाकजा निर्जरा - १. कालेण उवाएण य पच्चं - ति जधा वणफ्फदिफलाणि । तध कालेण उवाएण य पच्चति कदाणि कम्याणि ।। ( मूला. ५ - ४९ ) । २. तत्र चतुर्गतावने कजातिविशेषाव घूर्णिते संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमतः शुभाशुभस्य कर्मणः क्रमेण परिपाककाल प्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा । ( स. सि. ८-२३) । ३. तत्र चतुर्गतावने कजातिविशेषावचूर्णिते संसार - महार्णवे चिरं परिभ्रमतः शुभाशुभस्य कर्मण श्रदयिक भावोदीरितस्य क्रमेण विपाककालप्राप्तस्य यस्य यथा सदसद्वेद्यतान्यतरविकल्पबद्धस्य तस्य तेन प्रकारेण वेद्यमानस्य यथानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य स्थितिक्षयादुदयागतपरिभुक्तस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा । (त. वा. ८, २३, २) । ४. संसारे भ्रमतो जन्तोः प्रारब्धफलकर्मणः । क्रमेणैव निवृत्तिर्या नि
सो विपाकजा (ह. पु. ५८-२९४) । ५. अनादिबन्धनोपाधिविपाकवशवर्तिनः । कर्मा रब्धफलं यत्र क्षीयते सा विपाकजा ।। (त. सा. ७-३) । ६. कालेण उवाएण य पच्चंति जहा वणफ्फइ फलाई । तह कालेण तवेण य पच्चंति कयाई कम्माइं ॥ ( भावसं. दे. ४५ ) । ७ XXX प्राप्तकाला विपाकजा || ( श्राचा. सा. २ -२३) | ८. द्विधाsकामा सकामा च निर्जरा कर्मणामपि । फलानामिव यत्पाकः कालेनोपक्रमेण च ॥ ( श्रन. घ. २- ४३ ) ; तत्र कामा कालपक्व कर्मनिर्जरणलक्षणा, सैव विपाकजाsनौपक्रमिकी चोच्यते ॥ ( मन. घ. स्बो. टी. २-४३ ) । ६. स्वकालेन दत्तफलानां कर्मणां गलनं विपाकजा निर्जरा । ( भ. प्रा. मूला. १८-४० ) ।
१००७, जैन- लक्षणावली
[विपाकप्रत्ययिकजीवभावबन्ध
१ जिस प्रकार समय के अनुसार ग्राम आदि फल परिपाक को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार पूर्वबद्ध कर्म अपनी स्थिति के पूर्ण होने पर जो पकते हैं-उदय में प्राप्त होकर फल देते हैं- उसे विपाकजा निर्जरा कहा जाता है । विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध - जो सो विवागपच्चइप्रोग्रजीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसोपोगपरिणदा वण्णा, पश्रोगपरिणदा सद्दापयोगपरिणदा गंधा पश्रोगपरिणदा रसा पोगपरिणदा फासा पोगपरिणदा गदी पनोगपरिणदा श्रोगाहणा पोगपरिणदा संठाणा पोगपरिणदा खंधा पनोगपरिणदा खंधदेसा पत्रोगपरिणदा खंघपदेसा जे चामण्णे एवमादिया पग्रोगपरिणदसंजुत्ता भावा सो सब्बो विवागपच्चइनो प्रजीवभावबंधो णाम । ( षट्खं. ५, ६, २१ – घव. पु. १४, पृ. २३) । प्रयोग से परिणत वर्ण, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श, गति, श्रवगाहना, संस्थान, स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश तथा श्रौर भी जो इसी प्रकार के प्रयोगपरिणत संयुक्त भाव हैं. इस सबका नाम विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है । विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध - जो सो विपागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिसो -- देवे त्ति मणुस्से त्ति वा तिरिक्खेत्ति वा रइए त्ति वा इत्थिवेदेति वा पुरिसवेदेत्ति वा णवंसयवेदेत्ति वा कोहवेदे त्ति वा माणवेदेत्ति वा मायवेदेत्ति वा लोहवेदेत्ति वा रागवेदेत्ति वा दोसवेदेति वा मोहवेदे त्ति वा किण्हलेस्से त्ति वा णीललेस्से त्ति वा काउलेस्से त्ति वा तेउलेस्से त्ति वा पम्मलेस्से त्ति वा सुक्कलेस्से त्ति वा प्रसंजदेत्ति वा अविरत्ति वा अण्णाणे त्ति वा मिच्छादिट्टित्ति वा जे चामण्णे एवमादिया कम्मोदयपच्चइया उदयविवागणिप्पण्णा भावा सो सव्वो विवागपच्चश्रो जीवभावबंधो णाम । ( षट्खं. ५, ६, १५; धव. पु. १४, पृ. १०-११ ) ।
देव, मनुष्य, तियंच, नारक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंस कवेद, क्रोधवेद, मानवेद, माघावेद, लोभवेद, रागवेद, द्वेषवेद, मोहवेद, कृष्णलेश्या नोललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, प्रसंयत, अविरत, प्रज्ञान, मिथ्यादृष्टि तथा और भी जो इसी प्रकार के उदयविपाक से उत्पन्न कर्मोदय
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विपाकविचय] १००८, जैन-लक्षणावली
विषाकविचय प्रत्ययिक भाव हैं, उस सबको विपाकप्रत्ययिक निम्ब-काजी-विष-हालाहलकटुविपाकानि चतुर्विधजीवभावबन्ध कहा जाता है।
बन्धनानि लता-दार्वस्थि-शैलस्वभावानि कासु गतिसु विपाकविचय-१. एमाणेयभवगयं जीवाणं पुण्ण: योनिष्ववस्थासु च जीवानां विषया भवन्तीति पावकम्मफलं । उदग्रोदीरण-संकम-बंधं मोक्खं विपाकविशेषानुचिन्तनं पञ्चमं धर्म्यम् । (चा. सा. च विचिणादि । (मूला. ५-२०४; भ. प्रा. पृ. ७७) । १३. रेणुवज्जन्तवस्तत्र तियंगूर्वमधोऽपि १७१३, धव. पु. १३, पृ. ७२ उद्.)। २. कर्मणां च । अनारतं भ्रमन्त्येते निजकर्मानिलेरिताः ।। ज्ञानावरणादीनां द्रव्य क्षेत्र-काल-भव-भाव-प्रत्यय- (उपासका. ६५७) । १४. स विपाक इति ज्ञेयो यः फलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः । (स. स्वकर्मफलोदयः। प्रतिक्षणसमुद्भुतश्चित्ररूपः शरीसि. ६-३६) । ३. कर्मफलानुभवनविवेकं प्रति रिणाम् ॥ कर्मजातं फलं दत्ते विचित्रमिह देहिनाम् । प्रणिधानं विपाकविचयः। कर्मणां ज्ञानावरणादीनां आसाद्य नियतं नाम द्रव्यादिचतुष्टयम् ॥ (ज्ञाना. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव-प्रत्ययफलानुभवनं प्रति ३५, १-२, पृ. ३४५)। १५. शुद्धनिश्चयेन शुभाप्रणिधानं विपाकविचयः । (त. वा. ६, ३६, ८)। शुभकर्मविपाकरहितोऽप्ययं जीवः पश्चादनादिकर्म४. पयडि-द्विदिप्पदेसाणुभागभिन्नं सुहासुहविहत्तं । बन्धवशेन पापस्योदयेन नारकादिदुःखविण जोगाणुभावजणियं कम्मविवागं विचितेज्जा ॥ मनुभवति, पुण्योदयेन देवादिसुखविपाकमनुभवतीति (ध्यानश. ५१; धव. पु. १३, पृ. ७२ उद्.)। विचारणं विपाकविचयं विज्ञेयम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ५. कम्माणं सुहासुहाणं पयडि-दिदि-अणुभाग-पदेस- ४८)। १६. गत्यादौ परिणामतस्तनुभृतां प्राप्तोभेएण चउविहाणं विवागाणुसरणं विवागविचयं दयोदीरणं क्लेशाश्लेषकरं सुखोत्करकरं कर्माशुभं णाम तदियधम्मज्झाणं । (धव. पु. १३, पृ. ७२)। तच्छुभम् । शक्त्या युक्तमसंख्यलोकमितषट्स्थाना६. शुभाशुभविभक्तानां कर्मणां परिपाकतः । भवा- न्वितस्थानया इत्येवं विचयो विपाकविचयः प्रत्यस्तवर्तस्य वैचित्र्यमभिसन्दधतो मुनेः ॥ विपाकविचयं दोषोच्चयः ॥ (प्राचा. सा. १०-३१)। १७. वि. धर्म्यमामनन्ति कृतागमाः । (म. पु. २१ व १४३- पाक: कर्मफलम्, तस्य विचयो निर्णयो यत्र तत् १४४) । ७. यच्चतुर्विधबन्धस्य कर्मणोऽष्टविधस्य विपाकविचयम् । (प्रोपपा. अभय. व. २०, ५.४४) । तु । विपाकचिन्तनं धर्म्य विपाकविचयं १८. xxx इति मूलप्रकृतीनां विपाकांस्तान विदुः ।। (ह. पु. ५६-४५) । ८. विपाकोऽनुभवः विचिन्वतः । विपाकविचयं नाम धर्मध्यानं प्रवर्तते ॥ पूर्वकृतानां कर्मणां स्वयम् । जीवाद्याश्रय- (त्रि. श. पु. च. २, ३, ४७६)। १९. कर्मणां भेदेन चतुर्थो घीमतां मतः ॥ (त. श्लो. ६, ज्ञानावरणादीनां द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावप्रत्यय ३६, ४)। ६. समूलोत्तरप्रकृतीनां कर्मणामष्ट- फलानुभवं प्रति चिन्ताप्रबन्धो विपाकविचयः। (भ. प्रकाराणां चतुर्विधबन्धपर्यायाणां मधुर-कटु विपाका- प्रा. मूला. १७०८) । २०.XXX अनुभवस्तेषां नां तीव्र-मध्य-मन्दपरिणामप्रपंचकृतानुभावविशेषाणां विपाकाह्वयः। (प्रात्मप्र. ८८); अष्टानामपि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावोपेक्षाणां एतासु गतिषु योनिषु कर्मणां निज-निजोत्पत्तिक्रमाद्भावनी, या यावत्युदवा इत्थंभूतं फलमिति विपाके कर्मफले विचयो यावली बलवती यद्यद्विधत्ते फलम् । तत्तद्रूपनिरूपणा विचारोऽस्मिन्निति विपाकविचयः । (भ. मा. प्रतिफलत्यन्तर्यतो योगिनां ध्यानं ध्यानधुरंध रास्तदविजयो. १७०८)। १०. द्रव्यादिप्रत्ययं कर्मफलानु- नघं वैपाकधयं विदुः ॥ (प्रात्मप्र. ९२)। २१. भवनं प्रति । भवति प्रणिधानं यद्विपाकविचयस्तु संसारवर्तिजीवानां विपाकः कर्मणामयम् । दुर्लक्षसः ।। (त. सा. ७-४२)। ११. असुह-सुहस्स श्चिन्तयते यत्र विपाकविचयं हि तत् ॥ (भावसं. विवाओ चितइ जीवाण चउगइगयाणं । विवाय- वाम. ६४१)। विचयं झाणं भणियं तं जिणवरिंदेहिं ।। (भावसं. १एक और अनेक भवों में उपाजित जीवों के पुण्य दे. ३६६)। १२. विपाविचयमष्टविधकर्माणि व पाप कर्मों के फल, उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध नाम-स्थापना-द्रव्य-भावलक्षणानि मूलोत्तरप्रकृतिवि- और मोक्ष का जिस ध्यान में विचार किया जाता कल्पविस्तृतानि गुड-खण्ड-सितामृतमधुरविपाकानि है उसे विपाकविचय धर्मध्यान कहते हैं। २ द्रव्य
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विपाकश्रुत]
१००१, जैन-लक्षणावली
[विपुलमति
क्षेत्र, काल, भव, प्रौर भाव के निमित्त से जो ३३८)। शानावरणादि कर्मों के फल के अनुभवन का विचार १काम सेवन की तीव्र अभिलाषा रखना, इसे किया जाता है उसका नाम विपाकविचय धर्मध्यान विपुलतृष कहा जाता है। यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का है। १७ जिस ध्यान में कर्म के विपाक (फल) का एक प्रतिचार है। निर्णय किया जाता है उसे विपाकविचय धर्मध्यान विपुलमति-१. उज्जुगमणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, कहते हैं।
उज्जुगमणुज्जुगं वचिगदं जाणदि, उज्जुगमणुज्जुगं विपाकश्रुत-विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्मपरि- कायगदं जाणदि ॥ मणेण माणसं पडिविंदइत्ता ॥ णामः, तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतम् । (समवा. परेसिं सण्णा सदि मदि चिता जीविद-मरणं लाहाअभय. वृ. १४६)।
लाहं सुह-दुक्खं णयरविणासं देसविणासं जणवयजिस श्रुत में शुभ-अशुभ कर्मों के परिणाम (विपाक) विणासं खेडविणासं कव्वडविणासं मडंबविणासं का निरूपण किया जाता है उसका नाम विपाक- पट्टणविणासं दोणामहविणासं अदिवुट्टि प्रणावुट्टि धुत है।
सुवुट्टि दुवुट्ठि सुभिक्खं दुभिक्खं खेमाखेमं भय-रोगविपाकसूत्र-१. विपाकसूत्रे सुकृत-दुष्कृतानां वि- कालसंपजुत्ते अत्थे जाणदि । (षट्खं. ५, ५, ७० से पाकश्चिन्त्यते । (त. वा. १, २०, १२) । २. विवाग- ७२-घव. पु. १३, पृ. ३४०-३४१) । २. अनिर्वसुत्तं णाम अंगं एगकोडि चउरासीदिलक्खपदेहि तिता कुटिला च विपुला। कस्मादनिर्वतिता (त. १८४००००० पुण्ण-पावकम्माणं विवायं वण्णेदि। वा. 'कस्मात ? अनिर्वतित') वाक्कायमनस्कृतार्थस्य (धव. पु. १, पृ. १०७); विपाकसूत्र चतुरशीति- परकीयमनोगतस्य विज्ञानात् ! विपुला मतिर्यस्य शतपदलक्षे १८४००००० सुकृतदुःकृतविपाकश्चि- सोऽयं विपुलमतिः । (स. सि. १-२३; त. वा. न्त्यते । (धव. पु. ६, पृ. २०३) । ३. विवायसुत्तं १-२३) । ३. विपुलं वत्थुविसेसण माणं तग्गाहिणी णाम अंग दव-खेत्त-काल-भावे अस्सिदूण सुहासुह- मई विपुला । चिंतितमणुसरइ घडं पसंगो पज्जकम्माणं विवायं वण्णेदि । (जयष. १, पृ. १३२)। वसएहिं ।। (विशेषा. ७८८; स्थानां. पृ. ५१ उद्.)। ४. चतुरशीतिलक्षाधिकैककोटिपदपरिमाणं सुकृत- ४. विउलमई पुण चितियमचितियं पि वक्कचितियदुष्कृतविपाकसूचकं विपाकसूत्रम् । (ब. श्रुतभ. टी. मवक्कचिंतियं पि जाणदि । (धव. पु. ६, पृ. २८); ८, पृ. १७३) । ५. कर्मणामुदयोदीरणा-सत्ताकथकं परकीयमनगतोऽर्थी मतिः । विपुला विस्तीर्णा । कुतो चतुरशीतिलक्षाधिककोटिपदप्रमाणं विपाकसूत्रम् । वैपुल्यम् ? यथार्थ मनोगमनात्. अयथार्थ मनोगम(त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। ६. चुलसीदिलक्ख- नात्, उभयथापि तदवगमनात् । यथार्थं वचो गमकोडी पयाणि णिच्चं विवागसुत्ते य । कम्माणं बहु- नात, अयथार्थं वचोगमनात्, उभयथापि तत्र गमसत्ती सुहासुहाणं हु मज्झिमया ॥ तिव्व-मंदाणुभाबा नात, यथार्थ कायगमनात्, अयथार्थ कायगमनात्, दव्वे खेत्तेसु कालभावे य । उदयो विवायरूवो भण्णि- ताभ्यां तत्र गमनाच्च वैपुल्यम् । विपुला मतिर्यस्य ज्जइ जत्थ वित्थारा ।। (अंगप. १, ६५-६६, पृ. स विपुलमतिः । (धव. पु. ६, पृ. ६६) । ५. विपु२७०-७१)।
लमतिमनःपर्ययज्ञानं तु निर्वतितानिर्वतित-प्रगुणा१ जिस सूत्र में पुण्य और पाप के विपाक का विचार प्रगुणवाक्काय-मनस्कृतार्थस्य परमनसि स्थितस्य किया जाता है उसे विपाकसूत्र कहते हैं।
स्फुटतरमवबोधकत्वात् षट्प्रकारम् । (प्रमाणप. पृ. विपलतष-देखो कामतीव्राभिनिवेश। १. विपूल-६९)। ६. अनिवतितकायादिकृतार्थस्य च वेदिका। तृषश्च कामतीब्राभिनिवेशः । (रत्नक. टी. ३-१४)। विपुला कुटिला षोढा वक्रर्जुत्रयगोचरा ॥ (त. श्लो. २. विपुलतृषाः कामसेवायां प्रचुरतृष्णा बहुलाकांक्षा, १, २३, ३)। ७. निर्वतिता कुटिला विपुला च यस्मिन् काले स्त्रियां प्रवृत्तिरुक्ता तस्मिन् काले काम- मतिविपुलमतिनिर्वतिता वाक्कायमनस्कृतार्थस्य परतीव्राभिनिवेशः । व्रतयुक्तबाला-तिरश्चीप्रभृतीनां गमनं कीयमनोगतस्य विज्ञानात् । xxx अथवा x रागपरिणामं विपुलतृषा। (कार्तिके. टी. ३३७, xx विपुला मतिर्यस्यासी विपुलमतिः। (मूला.
ल. १२७
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विपुलमति ]
वृ. १२ - १८७) । ८. विपुला विशेषग्राहिणी मतिविपुलमतिः -- घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति । ( स्थानां श्रभय. वृ. ७१ ) । C. विपुलमतयो मनोविशेषग्राहिमनः पर्ययज्ञानिनः । उक्तं च विउलं वत्थु विसेसण माणं तग्गाहिनी
विला । चितियमणुसरइ घडं पसंगउ पज्जवसएहि । ( प्रश्नव्या. अभय वृ. पृ. ३४३) । १०. विपुला बहुविधविशेषणोपेतमन्यमान वस्तुग्रा हित्वेन मनोमात्रप्राहिणी मतिः मन:पर्ययज्ञानम् । ( श्रौपपा. १५, पृ. २८) । ११. विपुलं बहुविशेषोपेतं वस्तु मन्यते गृह्णाति इति विपुलमतिः, XXX यदि
विपुला पर्यायशतोपेत चिन्तनीय घटादिवस्तुविशेषग्राहिणी मतिर्मननं यत् तद्विपुलमतिः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ७०, पृ. ७९) । १२. प्रगुणाप्रगुण निर्वर्तितमनोवाक्कायगतसूक्ष्मेतरार्थावलम्बनो विपुलमतिमन:पर्ययः । ( लघीय. अभय वृ. ६१, पृ. ८२ ) । १३. विपुला काय वाङ्मनः कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञानान्निर्वर्तिता अनिर्वर्तिता कुटिला च मतिर्यस्य स विपुलमतिः स चासो मनपर्ययश्च विपुलमतिमनः पर्ययः । (गो. जी. जी. प्र. ४३९ ) । १४. वाक्काय-मनः कृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानादनिवर्तिता न पश्चाद्वालिता न व्याघोटिता तत्रैव स्थिरीकृता मतिर्विपुला प्रतिपद्यते । कुटिला च मतिर्विपुला कथ्यते । XXX विपुला मतियस्य मन:पर्ययस्य स विपुलमतिः । (त. वृत्ति श्रुत. १-२३) ।
१ जो ऋजु व प्रनृजु मनोगत, ऋजु व श्रनृजु वचनगत तथा ऋजु व श्रनृजु कायगत को जानता है उसे विपुलमति मन:पर्यय कहते है । श्रभिप्राय यह है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान मन से - मतिज्ञान से, मन अथवा मतिज्ञान के विषय को जानकर दूसरों की संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवन-मरण, लाभ
लाभ, सुख-दुख व नगर आदि के विनाश तथा अतिवृष्टि- अनावृष्टि श्रादि को जानता है । २ जो मन, वचन व काय से किये गये श्रनिवर्तित व कुटिल मनोगत पदार्थ को जानता है उसे विपुलमति मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। ८ इसने घट के सम्बन्ध में विचार किया है। वह सुवर्णनिर्मित; पाटलीपुत्र में बना हुम्रा, वर्तमानकालीन व महान
१०१०, जैन-लक्षणावली
[विप्पाणसमरण
है; इत्यादि विशेषताओं के निर्णय के कारणभूत मन द्रव्य के ज्ञान को विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान कहा जाता है
विप्पाणसमरण - दुर्भिक्षे कान्तारे दुरुत्तरे पूर्वशत्रुभये दुष्टनृपभये स्तेनभये तिर्यगुपसर्गे एकाकिनः सोढुमशक्ये ब्रह्मव्रतनाशादिचारित्रदूषणे च जाते संविग्नः पापभीरुः कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा तं सोढुमशक्तः तन्निस्तरणस्यासत्युपाये सावद्यकरणभीरुः विराधमरणभीरुश्च एतस्मिन् कारणे जाते कालेऽमुष्मिन् किं भवेत्कुशलमिति गणयतो यद्युपसर्गभयत्रासितः संयमाद् भ्रश्यामि ततः संयम भ्रष्टो दर्शनादपि न वेदनामसंक्लिष्टः सोढुमुत्सहेत, ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिर्ममेति निश्चितमतिनिर्मायश्चरण-दर्शन विशुद्धः धृतिमान् ज्ञानसहायोऽनिदानः श्रर्हदन्तिके आलोचनामासाद्य कृतशुद्धिः सुलेश्य: प्राणापाननिरोधं करोति यत्तद्विप्पाणसं मरणमुच्यते । (भ. प्रा. विजयो. २५, भावप्रा. टी. ३२ ) । जिसे अकेला सहन न कर सके ऐसे दुरुत्तर दुर्भिक्ष, जंगल, पूर्व शत्रु के भय, दुष्ट राजा के भय, चोर के भय अथवा तिथंचकृत उपद्रव के उपस्थित होने पर या ब्रह्मव्रत के नाश श्रादि चरित्र सम्बन्धी दूषण के होने पर संवेग को प्राप्त हुआ पापभीरु साधु कर्मों के उदय को उपस्थित जानकर उसके सहन करने में असमर्थ होता हुआ उससे निस्तार का कोई उपाय न होने पर पापाचरण करने से भयभीत होता है व चारित्र की विराधना करना नहीं चाहता । तब वह विचार करता है कि ऐसे कारण के उपस्थित होने पर इस काल में क्या कल्याण हो सकता है ? यदि मैं उपसर्ग से पीड़ित होकर संयम से भ्रष्ट हो जाऊंगा तो दर्शन से भी भ्रष्ट हो जाने पर संक्लेश से रहित होकर उसे सहन न कर सकूंगा । तब वैसी अवस्था में मैं रत्नत्रय के प्राराधन से भ्रष्ट हो जाऊंगा । प्रकार के विचार से वह निश्चल होता हुआ दर्शन और चारित्र से शुद्ध रहकर अरहन्त के पास में आलोचना करके निर्मल परिणामों से अन्न-पान का निरोध करता है । इस अवस्था में उसका जो मरण होता है उसे विप्पाणसमरण कहा जाता है । विप्रौषधि - देखो विडौषधि ऋद्धि । मूत्रस्य पुरी - षस्य वा श्रवयवो विट् उच्यते, अन्येत्वाहुः विडिति
उक्त
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विभक्तिभिन्न]
१०११, जैन-लक्षणावली [विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चिता.
विष्ठा, घु इति प्रश्रवणम, ते औषधिर्यस्यासौ विप्रौ- पर्याया नर-नारकादिकाः। (मालापप. पू. २१२)। षधिः । (प्राव. नि. मलय. वृ. ६६, पृ. ७८)। जीव को जो नर-नारक प्रादि अवस्थायें होती हैं मूत्र और मल के अवयव को विट कहा जाता है, उन्हें विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय कहा जाता है । अन्य प्राचार्य 'विट्' शब्द से मल को ग्रहण करते विभावपर्याय-१. णर-णारय-तिरिय-सुरा पज्जाहैं, का अर्थ प्रश्रवण (मत्र) है, जिसके मल और या ते विभावमिदि भणिदा। (नि. सा. १५) । मूत्र दोनों ही प्रौषधिरूप हो जाते है वह विडौषधि २. विभावपर्यायाश्चतुविधा नर-नारकादिपर्याया या विौषधि ऋद्धि का धारक होता है।
अथवा चतुरशीतिलक्षाश्च । (मालापप. पृ. २१२) । विभक्तिभिन्न-विभक्ति[विभिन्नं च यत्र वि- १ मनुष्य, नारक, तिर्यञ्च और देव ये विभावभक्तिव्यत्ययः, यथेष वक्ष इति वक्तव्ये एष वक्ष- पर्याय हैं। मित्याह । (प्राव. नि.मलय. व. १८२,प. ४८३)। विभाषा-सत्तेण सचिदत्थस्स विसेसिऊण भासा जहां विभक्ति का परिवर्तन होता है उसे विभक्ति- विभासा, विवरणं ति वुत्तं होइ । (जयष.--कसायभिन्न कहा जाता है। जैसे 'एष वृक्षः' इस प्रकार पा. पृ. ३४ टि.)। के प्रयोग के स्थान में 'एष वृक्षम्' ऐसा प्रयोग सूत्र के द्वारा सूचित अर्थ को विशेष रूप से व्याकरना। यहां प्रथमा विभक्ति के स्थान में द्वितीया ख्या करने को विभाषा कहते हैं। विभक्ति का उपयोग किया गया है। विभक्तिभिन्न विभ्यदोष-१. भयतो विभ्यतो गुर्वादिभ्यो यह ३२ सूत्रदोषों में १५वा सूत्रदोष है।
विभ्यतो भयं प्राप्नुवतः परमार्थात्परस्य बालस्वविभङ्गज्ञान-१. विवरीय अोहिणाणं खोव- रूपस्य वंदनाभिधानं विभ्यद्दोषः। (मूला. वृ. ७, समियं च कम्मवीज च। वेभंगो त्ति य वुच्चइ १०७) । २. विभ्यत् संघात् कुलात् गच्छात् क्षेत्राद्वा समत्तणाणीहि समयम्हि ॥ (प्रा. पंचसं. १-१२०; निष्कासयिष्येऽहमिति भयाद् वन्दनम् । (योगशा. धव. पु. १, पृ. ३५६ उद्.; गो. जी. ३०५)। स्वो. विव. ३-१३०)। ३.xxx विभ्यत्ता २. मिथ्यात्वसमवेतमवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानम् । बिभ्यतो गुरोः ॥ (अन. घ. ८-१०२); बिभ्यत्ता (धव. पु. १, पृ. ३५८)। ३. मिथ्यादर्शनोदयसह- नाम दोषः स्यात् । या किम् ? या क्रिया। कस्य ? चारितमवधिज्ञानमेव विभङ्गज्ञानम् । (पंचा. का. विभ्यतः पुंसः । कस्मात् ? गुरोराचार्यात् । बिभ्यतः अमृत. वृ. ४१)। ४. पर्याप्तस्यावधिज्ञानं मिथ्या- कर्म बिभ्यत्ता, बिभ्यदोष इत्यर्थः । (स्वो. टी. पृ. त्व-विषदूषितम् । विभङ्ग भण्यते सद्भिः क्षयोपशम- ६१२) । संभवम् ।। (अमित. श्रा. १-२३२) । ५. विपरीतो १ गरु प्रादि के भय से भयभीत साध परमार्थ से मंगःपरिच्छित्तिप्रकारो यस्य तद्विभङ्गम्, तच्च तत् परे बालस्वरूप अन्य मुनि को जो वन्दना करता है ज्ञानं च विभङ्गज्ञानम् । (प्रज्ञापना. मलय. वृ. उसके विभ्यत् नाम का वन्दनादोष होता है। २ यदि ३१२)।
वन्दना न करूंगा तो संघ, कुल गच्छ अथवा क्षेत्र १ क्षयोपशमिक व कर्मागम के निमित्तभत विपरीत से निकाल दिया जाऊंगा; इस भय से वन्दना अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहा जाता है। २ जो करने पर विभ्यतवन्दन नामक वन्दनादोष का अवधिज्ञान मिथ्यात्व के साथ रहता है उसे विभंग. पात्र होता है। ज्ञान कहते हैं। ५ जिस अवविज्ञान के जानने का विभ्रम-विभ्रमोऽनेकान्तात्मकवस्तुनो नित्य-क्षणिप्रकार विपरीत होता है वह विभंग कहलाता है। कैकान्तादिरूपेण ग्रहणम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४२) । यह उसका निरुक्त लक्षण है।
अनेकान्तात्मक वस्तु को सर्वथा नित्य या सर्वथा विभावगुणव्यञ्जनपर्याय- विभावगुणव्यञ्जन- क्षणिक रूप में जो ग्रहण किया जाता है, यह विभ्रम पर्याया मत्यादयः । (मालाप. पू. २१२) । का लक्षण है। जीव के जो मति-श्रुतादि ज्ञान हैं वे विभावगुण- विभ्रमविक्षेपकि लकिञ्चितादिवियुक्तत्व - व्यञ्जनपर्यायरूप हैं।
विभ्रमो वक्तुन्तिमनस्कता, विक्षेपो वक्तुरेवाभिधेविभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय-विभावद्रव्यव्यञ्जन- यार्थ प्रत्यनासक्तता,किलिकिञ्चितं रोष-भय-लोभा
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विमल]
१०१२, जैन-लक्षणावली
[विरताविरत
दिभावानां युगपदसकृत्करणम्, आदिशब्दान्मनोदोषा- विमान-१. विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनो मानन्तरपरिग्रहः; तैवियुक्तं यत्तत्तथा, तद्भावस्तत्त्वम् । यन्तीति विमानानि । (स. सि. ४-१६; त. वा. (रायप. मलय. वृ. ४, पृ. २८)।
४, १६, १)। २. स्वांस्तु कृतिनो दिशेषेण मानविभ्रम, विक्षेप और किलिकिञ्चित इन दोषों से यन्तीति विमानानि । (त. श्लो. ४-१६)। ३. रहित होना; यह एक (२६वां) सत्य वचन का वलहि-कडसमण्णिदा पासादा विमाणाणि णाम । अतिशयविशेष है। वक्ता के मन में जो भ्रान्ति रहा (धव. पु. १४, पृ. ४६५)। ४. विशेषेण सुकृतिनो करती है उसका नाम भ्रम तथा उसी की अभिधेय मानयन्ति विमानानि। (त. भा. सिद्ध. व. ४-१७)। अर्थ के प्रति जो अनासक्ति होती है उसका नाम १ अपने में स्थित जीव विशेष रूप से पुण्यवान विक्षेप है। क्रोध, भय और लोभ प्रादि भावों का माने जाते हैं अतः सौधर्मादि कल्पों को विमान एक साथ निरन्तर करना; इसे किलिकिञ्चित कहा जाता है। ३ जो प्रासाद छज्जों और कटों से कहा जाता है। आदि शब्द से और भी मनोदोषों संयुक्त होते हैं उनका नाम विमान है। का ग्रहण होता है।
विमानप्रस्तार–सग्गलोअसेडिबद्ध-पइण्णया विविमर्श-विमर्शनं विमर्शः अपायात्पूर्व ईहाया उत्तरः । माणपत्थडाणि णाम। (घव. पु. १४, पृ. ४६५)। प्रायः शिर:कण्डयनादयः पुरुषधर्मा पत्र घटन्ते इति स्वर्गलोक में जो श्रेणिवद्ध और प्रकीर्णक विमान हैं सम्प्रत्ययः। (प्राव. नि. मलय. वृ. १२, पृ. ३८)। उनका नाम विमानप्रस्तार है। अपाय (प्रवाय) के पूर्व और ईहा के पश्चात् विमोचितावास-१. परकीयेषु च विमोचितेष्वाशिरःकण्डयन प्रादि पुरुषधर्म यहां घटित होते हैं, वासः (विमोचितावासः) । (स. सि. ७-६)। इस प्रकार के विचार का नाम विमर्श है। यह २. निःस्वामित्वेन संत्यक्ताः गृहा सन्त्युद्वसाह्वयाः । प्राभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायनामों के अन्तर्गत है। प्राग्वदत्रापि वसतिं न कुर्यात्कुर्याद्वा तथा।। (लाटीविमल--१. विगतमलो विमलः, विमलानि वा सं. ६-४०)। ज्ञानादीन्यस्येति विमलः, तथा गर्भस्थे मातुर्मतिस्त- १ दूसरों के द्वारा छोड़े गये घरों में रहना, इसे नश्च विमला जातेति विमलः। (योगशा. स्वो. विमोचितावास कहा जाता है। २ दूसरों के द्वारा विव. ३-१२४) । २. विमलो विनष्टो मलो द्रव्य- छोड़े गये घरों में 'हे देव ! प्रसन्न हो, मैं यहां पांच रूपो मूलोत्तरकर्मप्रकृतिप्रपंचो यस्य । (रत्नक. टी. दिन रहता हूं' इस प्रकार की प्रार्थनापूर्वक रहना,
अन्यथा न रहना; इसका नाम विमोचितावास है। १ जो मल से रहित हो चुका है अथवा जिसके यह प्रचौर्यवत की पांच भावनामों के अन्तर्गत है। ज्ञान प्रादि विमल (निर्दोष) हैं तथा जिसके गर्भ में विमोह-१. विमोहः परस्परसापेक्षनयद्वयेन द्रव्यस्थित होने पर माता की बुद्धि व शरीर विमल गुण-पर्यायादिपरिज्ञानाभावो विमोहः । तत्र दृष्टान्तः (निर्मल) हो गया था; उसका नाम विमल है। -गच्छत्तृणस्पर्शवद् दिग्मोहवद् वा। (बृ. द्रव्यसं. यह तेरहवें तीर्थकर का एक सार्थक नाम है। टी. ४३)। २. विमोहः शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि २ जिसका मल-द्रव्यरूप मूल व उत्तर कर्मप्रकृ. निश्चयस्वरूपम्। (नि. सा. वृ. ५१)। तियों का विस्तार ----विनष्ट हो चका है उसे विमल १परस्पर सापेक्ष दोनों नयों के प्राश्रय से द्रव्य, कहा जाता है। यह प्राप्त (प्ररहन्त) का एक गण और पर्याय आदि का ज्ञान न होना; इसका नामान्तर है।
नाम विमोह है। २ बुद्ध आदि के द्वारा प्ररूपित विमाता-मादा णाम सरिसत्तं, विगदा मादा वस्तु में जो निश्चयस्वरूप ज्ञान होता है, यह विमादा । (धव. पु. १४, पृ. ३०)।
विमोह का लक्षण है। माता का नाम सदृशता है, जो सदृशता से रहित विरताविरत-देखो संयतासंयत । १. जो तसहो उसे विमाता कहा जाता है । विसदृश स्निग्ध व बहाउ विरदो अविरदनो तह य थावरबहादो। एक्करूक्ष परमाणुषों में जो सादिविस्त्रसाबन्ध होता है समयम्हि जीवो विरदाविरदो जिणेक्कमई॥ (गो. उसके प्रसंग में यह लक्षण किया गया है।
३१ भावसं. ३५१)। २. विरताविरतस्तु स्यात्
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विरति]
१०१३, जैन-लक्षणावली
[विरुद्ध राज्यातिक्रम
प्रत्याख्यानोदये सति । (योगशा. स्वो. विव. १, वृ.अ. ४, पृ. ६६०)। १६, पृ. १११)। ३. तद्यथा यो निवृत्त: स्याद् लोभ के निग्रह कर देने का नाम विरागता है। यावतत्रसबधादिह । न निवृत्तस्तथा पंचस्थावरहिंसया विरागविचय-१. शरीरमशुचिर्भोगा [गाः] गही ॥ विरताविरताख्यः स स्यादेकस्मिन्ननेहसि। किंपाकफलपाकिनः । विरागबुद्धिरित्यादि विरागः लक्षणात त्रसहिंसायास्त्यागेऽणुव्रतधारकः ।। (लाटीसं. विचयं स्मृतम् । (ह. पु. ५६-४६)। २. विराग५, १२५-२६)।
विचयं शरीरमिदमनित्यमपरित्राणं विनश्वरस्वभाव१ जो एक ही समय में हिंसा से विरत और मशुचिदोषाधिष्ठितं सप्तधातुमयं बहुमलपूर्णमनस्थावरहिंसा से अविरत रहता है, पर जिनदेव के वरतनिस्पंदितस्रोतोबिलमतिबीभत्समाधेयमशौचमपि ऊपर श्रद्धा रखता है वह विरताविरत श्रावक कह- पूतिगन्धिसम्यग्ज्ञानिजनवैराग्यहेतुभूतं नास्त्यत्र लाता है । २ प्रत्याख्यान कषाय का उदय होने पर किंचित्कमनीयमिन्द्रियसुखानि प्रमुखरसिकानि जीव विरताविरत होता है-वह स्थूल हिंसादि क्रियावसानविरसानि किंपाकपाकविपाकानि पराउ पापों से तो विरत होता है, पर गृह कार्यों में रत धीनान्यस्थानप्रचुरभंगुराणि यावद्यावदेषां रामणीयकं होने से सूक्ष्महिंसादि पापों का त्याग नहीं कर तावत्तावद्भोगिनां तृष्णाप्रसंगोऽनवस्थो यथाऽग्नेरिपाता।
न्धनैर्जलनिघेः सरित्सहस्रण न तृप्तिस्तथा लोकविरति-१. विरमणं विरतिः। चारित्रमोहोप- स्याप्येतैर्न तृप्तिरुपशान्तिश्चैहिकामुत्रिकविनिपातशम-क्षय-क्षयोपशमनिमित्तोपशमकादिचारित्राविर्भात हेतवस्तानि देहिनः सुखानीति मन्यन्ते महादुःखकारस वात् विरमणं विरतिः। (त. वा. ७, १, २)। णान्यनात्मीयत्वादिष्टान्यप्यनिष्टानीति वैराग्यका२. समईहि विणा महव्वयाणुव्वया विरई। (धव. रणविशेषानुचिन्तनं षष्ठं धर्म्यम् ।। (चा. सा. पृ. पु. १४, पृ. १२)।
७७-७८)। १ चारित्रमोह के उपशम, क्षय और क्षयोपशम के १शरीर अपवित्र और भोग किपाकफल के समान निमित्त से जो प्रोपशमिक प्रादि (क्षायिक वक्षायो- विषैले हैं। इस प्रकार विषयों की प्रोर से जो पशमिक) चारित्र का प्राविर्भाव होता है उसे विरक्ति का विचार होता है उसे विरागविचय धर्मविरति कहते हैं। २ समितियों के बिना महाव्रतों ध्यान कहा जाता है। यह धर्मध्यान के दस भेदों और अणुव्रतों को विरति कहा जाता है।
में छठा है। विरह - अन्तरमुच्छेदो विरहो परिणामतरगमणं विराधक-जो रयणतयमइनो मुत्तणं अप्पणो णत्थित्तगमणं अण्णभावव्ववहाणमिदि एयट्ठो। (धव. विशुद्धप्पा । चितेइ य परदव्वं विराहनो णिच्छयं
भणियो । (प्रारा. सा. २०)। अन्तर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तर गमन, नास्ति- जो रत्नत्रयस्वरूप अपनी विशुद्ध प्रात्मा को छोड़. स्वगमन और अन्य भाव व्यवधान ये सब समाना- कर पर द्रव्य का विचार करता है उसे विराधक र्थक हैं।
कहा गया है। विराग-१. रागकारणभावात विषयेभ्यो विरञ्ज. विरुद्धराज्यातिक्रम-देखो द्विटराज्यलंघन । नं विरागः। चारित्रमहोदयाभावे तस्योपशमात् १. उचितन्यायादन्येन प्रकारेणादानं ग्रहणमतिक्रमः, क्षयात क्षयोपशमाद् वा शब्दादिभ्यो विरंजनं विराग विरुद्धं राज्यं विरुद्धराज्यम विरुद्ध राज्येऽतिक्रमः विइति व्यवसीयते । (त. वा. ७, १२, ४) । २. राग- रुद्धराज्यातिक्रमः । (स. सि. ७-२७) । २. उचिकारणाभावाद् विषयेभ्यो विरंजनं विरागः। (त. तादन्यथा दानग्रहणमतिकमः । उचितान्यायादन्येन श्लो. ७-१२) । ३. विराग:-विगतो रागो भावकर्म प्रकारेण दानग्रहणमतिक्रम इत्युच्यते । विरुद्धं राज्य यस्य । (रत्नक. टी. १-७)।
विरुद्धराज्यम्, विरुद्धराज्ये अतिक्रमः विरुद्धराज्या१ राग के कारणों के अभाव में जो विषयों से तिक्रमः । तत्राल्पमूल्यलभ्यानि महार्धाणि द्रव्याणीति विरक्ति होती है उसका नाम विराग है।
प्रयत्नः । (त. वा. ७, २७, ३)। ३. विरुद्धं राज्यं विरागता-विरागता लोभनिग्रहः । (प्राव. हरि. विरुद्धराज्यम्, उचितन्यायादन्येन प्रकारेणादानं
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विरुद्धराज्यातिक्रम]
१०१४, जैन-लक्षणावलो
[विवाह
ग्रहणमतिक्रमः, तस्मिन् विरुद्धराज्ये योऽसावतिक्रमः वहां उसको भेजना, यह प्रचौर्याणुव्रत को मलिन स विरुद्धराज्यातिक्रमः। (चा. सा. पृ. ६)। करने वाला उसका एक अतिचार है। २ उचित ४. विलोपश्च उचितन्यायादनपेतप्रकारेणार्थस्यादा- न्याय को छोड़कर अन्य प्रकार से वस्तु का देना या नम्, विरुद्धराज्यानिक्रम इत्यर्थः, विरुद्ध राज्ये ह्यल्प- ग्रहण करना, इसका नाम प्रतिक्रम है। विरुद्ध मूल्यानि महााणि द्रव्याणीति । (रत्नक. टी. राज्य में जो उक्त प्रकार से अतिक्रम किया जाता ३-१२)। ५. विरुद्धं विनष्टं विगृहीतं वा, राज्यं है उसे विरुद्ध राज्यातिक्रम कहते हैं । राज्ञः पृथ्वीपालनोचितं कर्म, विरुद्धराज्यं छत्रभङ्गः विरुद्ध हेत्वाभास-१. साध्याभावासम्भवनियमपराभियोगो वेत्यर्थः। तत्रातिक्रम उचितन्यायादन्ये- निर्णय कलक्षणो विरुद्धो हेत्वाभासः। (प्रमाणसं. नैव प्रकारेणार्थस्य दानग्रहणं । विरुद्धराज्येऽल्पमूल्यः स्वो. विव. ४०)। २. अन्यथैवोपपत्त्या कि लभ्यानि महााणि द्रध्याणि इति प्रयततः। अथवा (सिद्धिवि. स्वो. विव. ६-३२, पृ. ४३०) । ३. वि. विरुद्धयोरर्थाद्राज्ञो राज्यं नियमिता भूमिः कटकं वा परीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धः, प्रपरिणामी शब्दः विरुद्धराज्यं, तत्र षष्ठी-सप्तम्योऽर्थं प्रति भेदा- कृतकत्वात्। (परीक्षा.६-२६) । ४. साध्यस्वरूपाभावात् । तस्यातिक्रमो व्यवस्थालङ्कनम् । व्यवस्था द्विपरीतेन प्रत्यनीकेन निश्चितोऽविनाभावो यस्यासी च परस्परविरुद्धराजकत्वे एव । तल्लंघनं चान्यतर- विरुद्धः। (प्र. क. मा. ६-२६)। ५. साध्यार्थभावराज्यनिवासिन इतरराज्ये प्रवेशः इतरराज्यनिवासि- निश्चितो विरुद्धो हेत्वाभासः । (प्रमाणनि. पृ. नो वा अन्यतरराज्ये प्रवेशः। विरुद्धराज्यातिक्रमस्य ५८) । ६. अन्य अन्यथैव साध्याभावप्रकारेणव च यद्यपि स्वस्वामिनोऽननुज्ञातस्यादत्तादानलक्षण- साध्यान्तर एवं उपपत्त्या विरुद्धः। (सिद्धिवि. व.. योगेन तत्कारिणा च चौर्यदण्डयोगेन चौर्यरूपत्वाद् ६-३२, प. ४३०) । ७. साध्यविपरीतव्याप्तो प्रतभंग एव, तथापि विरुद्ध राज्यातिक्रमं कुर्वता यया विरुद्धः । (न्यायदी. पु.१०५) । वाणिज्यमेव कृतं न चौर्य मिति भावनया व्रतसापेक्ष- ३ जिस हेतु का अविनाभाव साध्य से विपरीत के स्वाल्लोके च चोरोऽयमिति व्यपदेशाभावादतिचारता साथ निश्चित है उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं। स्यात् । (सा. ध, स्वो. टी. ४-५०)। ६. राज्ञ- जैसे-शब्द अपरिणामी है, क्योंकि वह कृतक है। आज्ञाधिकरणं यदविरुद्धं कर्म तत् राज्यमुच्यते । यहां कृतक का अविनाभाव अपरिणामी से विपरीत उचितमूल्यादचितदानम् अनुचितं ग्रहणं च प्रति- परिणामी के साथ है। क्रम उच्यते । विरुद्धराज्ये अतिक्रमः विरुद्धराज्याति- विलेपन-घुट-पिट्टचंदण-कुंकुमादिदव्वं विलेवणं ऋमः। यस्मात कारणात राज्ञा घोषणा अन्यथा णाम । (धव. प...प. २७३)। दापिता दानमादानं च अन्यथा करोति स विरुद्ध- घिसे गये अथवा पीसे गये चन्दन व कुंकुम प्रादि राज्यातिक्रमः । (त. वृत्ति श्रुत.७-२७) । ७. रा- द्रव्यों को विलेपन कहा जाता है। ज्ञाज्ञापितमात्मेत्थं युक्तं वाऽयुक्तमेव तत् । क्रियते विलोप-देखो विरुद्धराज्यातिक्रम । न यदा स स्याद्विरुद्धराज्यातिक्रमः । (लाटीसं. विवाह-१. कन्यादानं विवाहः । स. सि. ७, ६-५२)।
२८ । २. सद्वद्यचारित्रमोहोदयाद्विवहनं विवाहः । १ उचित न्याय-शासकीय विधान को छोड़कर सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयाद्विवहनं कन्यावरणं अन्य प्रकार से वस्तु का ग्रहण करना, इसका नाम विवाह इत्याख्यायते । (त. वा. ७, २८, १)। अतिक्रम है, विरुद्ध राज्य में किए गये इस अतिक्रम ३. सद्वेद्यचारित्रमोहोदयाद्विवहनं विवाहः । (त. को विरुद्धराज्यातिक्रम कहा जाता है। अभिप्राय श्लो. ७-२८)। ४. युक्तितो वरणविधानमग्नियह है कि विभिन्न राज्यों में प्रावश्यकतानुसार देव-द्विजसाक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहः। (नीतिवा. कर (टैक्स) प्रादि के नियम निर्धारित किए जाते ३१-३, पृ. ३७३) । ५. कन्यादानं विवाहः । हैं । उनका उल्लंघन करके जहां अभीष्ट वस्तु अल्प (रत्नक. टी. ३-१४)। ६. अग्नि-देवतादिसाक्षिक मूल्य में सुलभ हो सकती है उसे वहां से मंगाना पाणिग्रहणं विवाहः । xxx शुद्धकलत्रलाभफलो तथा जहां से उसका मूल्य अधिक मिल सकता है विवाहः । (योगशा. स्वो. विव. १-४७, पृ. १४७)।
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विविक्त]
१०१५, जैन-लक्षणावली
[विविक्तशय्यासनतप.
७. कन्यादानं विवाहः । (त. वृत्ति धुत.७-२८)। सणाभिग्गही विवित्तसयणासणं णाम तवो होदि । १ कन्या का देना, इसका नाम विवाह है। २ साता किमट्टमेसो कीरदे ? असब्भजणदसणेण तस्सहवासेण वेदनीय और चारित्रमोह के उदय से जो कन्या का जणिदतिकालविसयराग-दोसपरिहरणठं । (घव, वरण किया जाता है उसे विवाह कहते हैं। ४ युक्ति पु. १३, पृ. ५८-५९)। ६. आबाघात्यय-ब्रह्मचर्यसे जो वरण का विधान है तथा अग्निदेव और स्वाध्याय-ध्यानादिप्रसिद्धयर्थ विविक्तशय्यासनम् । ब्राह्मण को साक्षी में जो कन्या के हाथ को ग्रहण (त. श्लो. ६-१६)। ७. चित्तव्याकुलतापराजयो किया जाता है उसे विवाह कहा जाता है। विविक्तशयनासनम् । (भ. प्रा. विजयो. ६)। विविक्त-१. त्थी-पसु-संढयादीहि ज्झाणज्झेय- ८. जन्तुपीडाविमुक्तायां वसतो शयनासनम् । सेवविग्धकारणेहि वज्जियगिरि-गृहा-कंदर-पब्भार-सुसाण- मानस्य विज्ञेयं विविक्तशयनासनम् ॥ (त. सा. सुण्णहरारामुज्जाणाप्रो पदेसा विवित्तं णाम । (धव. ७-१४)। ६. जो राय-दोसहेद पासण-सिज्जादियं पु. १३, पृ. ५८)। २. विविक्तः शरीर-कर्मादिभिर- परिच्चयइ। अप्पा णिव्विसय सया तस्स तवो पंचमो संस्पृष्टः । (समाधि. टी. ६)।
परमो ॥ पूजादिसु हिरवेक्खो संसार-सरीर-भोग१ ध्यान-ध्येय में बाधक स्त्री, पश व नपुंसक णिविण्णो। अब्भंतरतवकूसलो उवसमसीलो महाश्रादि कारणों से रहित पर्वत की गुफा, कन्दरा, संतो॥ जो णिविसेदि मसाणे वण-गहणे णिज्जणे प्रारभार, श्मशान, जनशन्य गृह व उद्यान प्रादि महाभीमे। अण्णत्थ वि एयंते तस्स वि एवं तवं स्थान विविक्त माने जाते हैं। २ जो शरीर और होदि । (कातिके. ४४७-४६)। १०. ध्यानाकर्म प्रादि से स्पृष्ट नहीं है-उनसे रहित हो चुका ध्ययनविघ्नकर - स्त्री-पशु-षण्ढकादिपरिवजितगिरिहै-उसे विविक्त कहा जाता है। यह प्राप्त का गुहा-कन्दर-पितृवन-शून्यागाराऽरामोद्यानादिप्रदेशेषु एक नामान्तर है।
विविक्तेषु जन्तुपीडारहितेषु संवतेषु संयतस्य शयनासनं विविक्तशय्यासन तप-देखो विविक्त । १. तेरि- विविक्तशय्यासनं नाम | तत्किमर्थम् ? आबाधात्ययक्खिय माणुस्सिय सविगारियि [णि] देवि-गेहसं- ब्रह्मचर्य-स्वाध्याय-ध्यानादिप्रसिद्ध्यर्थमसभ्यजनदर्शनेन सत्ते । वज्जेंति अप्पमत्ता णिलए सयणासणदाणे ॥ तत्सहवासेन वा जनितत्रिकालविषयराग-द्वेष-मोहा(मूला. ५-१६०) । २. जत्थ ण सोत्तिग अत्थि दु पोहार्थं वा । (चा. सा. पृ. ६०) । ११. विविक्तेसह-रस-रूव-गंधफासेहिं । सज्झाय-ज्झाणवाधादो वा ऽध्ययन-ध्यानबाधकोत्करवजिते ।। शयनं चाऽऽसनं वसधी विवित्ता सा॥ वियडाए अवियडाए सम- यत्तद्विविक्तशयनासनम् ।। तरुकोटर-शून्यागाराऽऽविसमाए बहिं च अंतो वा। इत्थि-ण उसय-पसु. रामोर्वीधरादयः । विविक्ता: कामिनी-षण्ढ-पशुवज्जिदाए सीदाए उसिणाए ॥ उग्गम-उप्पादण- क्षुद्रांगिजिताः ।. (प्राचा. सा. ६, १५-१६)। एसणाविसुद्धाए अकिरियाए दु । वसदि प्रसंसत्ताए १२. विजन्तुविहिताबलाद्यऽविषये मनोविक्रिया, निणिप्पाहुडियाए सेज्जाए ॥ सुण्ण घर-गिरिगुहा- मित्तरहिते रतिं ददति शून्यसादिके । स्मृतं शयनरुक्खमूल-प्रागंतुगारदेवकुले । अकदप्पब्भाराराम- मासनाद्यथ विविक्तशय्यासनं । तपोतिहतिवणिताघरादीणि य विचित्ताई ।। (भ. प्रा. २२८-३१)। श्रुतसमाधिसंसिद्धये ॥ असभ्यजनसंवासदर्शनो३. शून्यागारादिषु विविक्तेषु जन्तुपीडाविरहितेषु त्थैर्न मथ्यते । मोहानुराग-विद्वविविक्तवसति संयतस्य शय्यासनमाबाधात्यय ब्रह्मचर्य-स्वाध्याय- श्रितः ॥ (अन. ध. ७, ३०-३१)। १३. विविध्यानादिप्रसिद्धयर्थं कर्तव्यमिति पञ्चमं तपः । (स. क्तेषु जन्तु-स्त्री-पशु-नपुंसकर हितेषु स्थानेषु शून्यासि. ६-१६)। ४. प्राबाधात्यय-ब्रह्मचर्य-स्वाध्याय- गारादिषु प्रासनम् उपवेशनं शय्या निद्रा स्थानम् ध्यानादिप्रसिद्धयर्थ विविक्तशय्यासनम् । शून्यागारा- प्रस्थानं वा विविक्तशय्यासनम् । (भावप्रा. टी. दिषु विविक्तेषु जन्तुपीडाविरहितेषु संयतस्य शय्या- ७८)। १४. विविक्तेषु शून्येषु गृह-गुहा-गिरि-कन्दसनं वेदितव्यम् । तत् किमर्थम् ? आबाघात्यय- रादिषु प्राणिपीडारहितेषु शय्यासनं विविक्तशय्याब्रह्मचर्य-स्वाध्याय-ध्यानादिसिद्धयर्थम् । (त. वा. सनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१६)। ६,१६, १२ )। ५. तत्थ (विवित्ते ठाणे) सयणा- १ तियंचनी, मनुष्यिणी, विकारयुक्त देवी और
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विवृतयोनि ]
गृहस्थ इनके संसर्ग से सहित स्थान को प्रयत्नपूर्वक छोड़कर निर्बाध स्थान में शय्या व श्रासन लगाना, इसका नाम विविक्तशय्यासन तप है । ३ ब्रह्मचर्यं के परिपालन और स्वाध्याय व ध्यानादि की सिद्धि के लिए जन्तुपीडा से रहित निर्जन सूने घर प्रावि में शयन करना व बैठना, यह विविक्तशय्यासन तप कहलाता है ।
बिवृतयोनि - विवृतः प्रकटपुद्गलप्रचय प्रदेशः । (मूला. वृ. १२ - ५८ ) ।
जन्म की आधारभूत जिस योनि के पुद्गलप्रदेशों का समूह प्रगट रहता है उसे विवृतयोनि कहते हैं। विवेक - १. संसक्तान्न- पानोपकरणादिविभजनं वि वेकः । (स. सि. ε- २२; त. इलो. ६ - २२; मूला. वृ. १२ - १६; प्रायश्चि. चू. ७-२१) । २. संसक्तान्न पानोपकरणादिविभजनं विवेकः । संसक्तानामन्न-पानोपकरणादीनां विभजनं विवेक इत्युच्यते । (त. वा. ६, २२, ५) । ३. विवेकः अनेषणीयस्य भक्तादेः कथञ्चित् गृहीतस्य परित्यागः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. १४१८, पृ. ७६४) । ४. गण-गच्छदव्व- खेत्तादिहिंतो प्रसारणं विवेगो णाम पायच्छित्तं । ( धव. पु. १३, पृ. ६० ) । ५. येन यत्र वा अशुभोपयोगोऽभूत्तन्निराक्रिया, ततो परासनं विवेकः । ( भ. प्रा. विजयो. ६ ) ; एवमतिचारनिमित्तद्रव्य क्षेत्रादिकान्मनसा अपगतिस्तत्र श्रनादृतिविवेकः । ( भ. प्रा. विजयो. ६) । ६. अन्नपानोषधीनां तु विवेकः स्याद्विवेचनम् । (त. सा. ७ - २५) । ७. संसक्तेषु द्रव्य-क्षेत्रान्न पानोपकरणादिषु दोषानिवर्तयितुमलभमानस्य तद्द्रव्यादिविभजनं विवेक: । अथवा शक्त्यननगूहनेन प्रयत्नेन परिहरतः कुतश्चित्कारणादप्रासुकग्रहण ग्राहणयोः प्रासुकस्यापि प्रत्याख्यातस्य विस्मरणात्प्रतिग्रहे च स्मृ स्वा पुनस्तदुत्सर्जनं विवेक: । ( चा. सा. पृ. ६२ ) । ८. परिहर्तुमशक्तस्य दोषं द्रव्यादिसंश्रयम् । तद्द्रव्यादिपरित्यागो विवेकः कथितोऽथवा ॥ श्रप्रासुकस्य सेवायां त्यक्तस्य प्रासुकस्य च । प्रमादेन पुनः स्मृत्वा स तदा तद्विसर्जनम् || ( श्राचा. सा. ६, ४२-४३ ) । ६. विवेकः श्रशुद्धातिरिक्तभक्त पानवस्त्र शरीरतभ्मलादित्यागः । ( स्थानां. अभय वृ. २५१ ) | १०. देहादात्मन आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनं बुद्ध्या पृथक्करणं विवेक: । ( श्रौपपा.
[विवेकप्रतिमा
२०, पृ. ४४) । ११. धन-धान्य- हिरण्यादिसर्वस्व त्यागलक्षणो विवेक: । (योगशा. स्वो विव. १, १३ ) ; विवेको हेयोपादेयज्ञानम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१६ ) ; विवेकः संसक्तान्नपानोपकरणशय्यादिविषयस्त्यागः । (योगशा. स्वो विव. ४, ६०) । १२. विवेकः परित्यागः, यत् प्रायश्चितं विवेक एव कृते शुद्धिमासादयति नान्यथा, यथाधाकर्मणि गृहीते तत् विवेकार्हत्वात् विवेकः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. पी. १-५३, पृ. २०) १३. विवेक: स्वजन सुवर्णादित्याग: । ( भाव. नि. मलय. वू. ८७२, पृ. ४८० ) । १४. संसक्तेऽन्नादिके दोषान्निवर्तयितुमप्रभोः । यत्तद्विभजनं साधोः स विवेकः सतां मतः ॥ विस्मृत्य ग्रहणेऽप्रासोर्ग्रहणे बाऽपरस्य वा । प्रत्याख्यातस्य संस्मृत्य विवेको वा विसर्जनम् ॥ ( अन. ध. ७, ४६ - ५० ) । १५. शुद्धस्याप्यशुद्धत्वेन यत्र संदेह - विपर्ययौ भवतः अशुद्धस्य शुद्धत्वेन निश्चयो वा यत्र प्रत्याख्यातं यत्तद्वस्तु भाजने मुखे वा प्राप्तं यस्मिन् वस्तुनि गृहीते कषायादिकमुत्पद्यते तस्य सर्वस्य त्यागो विवेक: । ( भावप्रा. टी. ७८) । १६. यद्वस्तु नियमितं भवति तद्वस्तु चेन्निजभाजने पतति मुखमध्ये वा समायाति यस्मिन् वस्तुनि गृहीते वा कषायादिकम् उत्पद्यते तस्य सर्वस्य वस्तुनः क्रियते तद्विवेकनाम प्रायश्चित्तम् । ( कार्तिके. टी. ४५१) ।
१०१६, जैन-लक्षणावली
१ सम्बद्ध अन्न-पान व उपकरण आदि के विभाग को विवेक प्रायश्चित कहा जाता है। ३ अनेषणीय ( अयोग्य या सदोष ) भोजन आदि के किसी प्रकार से ग्रहण किये जाने पर उसका परित्याग करना, इसका नाम विवेक है । ४ गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदि से पृथक करना; यह विवेक प्रायश्चित्त का लक्षण है । ५ जिसके द्वारा या जिसके विषय में अशुभ उपयोग हुना है उसका निराकरण करना व उससे अलग होने को विवेक कहा जाता है . १०. शरीर से श्रात्मा का प्रथवा श्रात्मा से सब संयोगों का बुद्धि से विचार कर उन्हें पृथक् करना, इसे विवेक कहते हैं ।
विवेकप्रतिमा - विवेचनं विवेकः त्यागः स चान्तराणां कषायादीनां बाह्यानां गण-शरीर भक्तपानादीनामनुचितानां तत्प्रतिपत्तिविवेकप्रतिमा । ( स्थानां.. अभय व ८४) ।
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विशदप्रतिभासत्व]
१०१७, जैन-लक्षणावली
[विशेष
TC
माम्यन्तर कषाय प्रादि तथा बाह्य गण, शरीर और होने पर जो प्रात्मा की निर्मलता होती है उसे भक्त-पान प्रादि को अयोग्य होने के कारण जो जो विशद्धि कहते हैं। ३ सातावेदनीय के बन्धयोग्य परित्याग किया जाता है। इसका नाम विवेक है। परिणाम का नाम विशद्धि है। ५ ब्राह्मण प्रादि उसके प्रति प्रास्था रखना या स्वीकार करना, इसे वर्णों और ब्रह्मचारी प्रादि प्राश्रमों के अपने प्राचार विवेकप्रतिमा कहते हैं।
से भ्रष्ट होने पर तीन वेदों के निर्देशानुसार विशुद्धि विशदप्रतिभासत्व-किमिदं विशदप्रतिभासत्वं हमा करती है। ७ अपराध से मलिन हए प्रात्मा नाम? उच्यते-ज्ञानावरणस्य क्षयाद्विशिष्टक्षयोप- के निर्मल करने का नाम विशद्धि है। शमाद्वा शब्दानुमाना ह संभवि यन्नमल्यमनुभव मिद्धम्। विशुद्धिलब्धि -१. पडिसमयमणंतगुणहीणकमेण (न्यायदी. पृ. २४)।
उदीरिदअणभागफयजणिदजीवपरिणामो सादादिज्ञानावरण के क्षय प्रथवा विशिष्ट क्षयोपशम से सुहकम्मबंधणिमित्तो प्रसादादिप्रसुहकम्मबंधविरुद्धो शब्द (भागम) और अनुमान आदि में असम्भव विसोही णाम । तिस्सेवुवलंभो विसोहिलद्धी णाम । ऐसी जो अनुभवसिद्ध निर्मलता प्रगट होती है उसे (धव. पु. ६, पृ. २०४) । २. आदिमलद्धिभवो जो विशदप्रतिभास कहते हैं।
भावो जीवस्स सादपहदीणं। सत्थाणं पयडीणं बंधणविशसिता - विश सिता हतस्याङ्गविभागकरः । जोगो विशुद्ध [द्धि] लद्धी सो॥ (ल. सा. ५)। (योगशा. स्वो. विव. ३-२१)।
३. मिथ्यादृष्टिजीवस्य प्रागुक्तक्षयोपशमलब्धौ सत्यां मारे गये मग प्रादि प्राणी के अवयवों को जो सातादिप्रशस्तप्रकृतिबन्धहेतुर्यो भावो धर्मानुरागरूपविभक्त किया करता है उसे विशसिता कहा जाता शुभपरिणामो भवति तत्प्राप्तिविशुद्धिलब्धिः। (ल. है। यह हन्ता प्रादि के समान घातक के अन्तर्गत है। सा. टी. ५)।
ता--अइतिव्वकसायाभावो मंदकसानो वि- १ प्रत्येक समय में अनन्तगणे हीन क्रम से उदीरणा सुद्धदा। (धव पु. ११, पृ. ३१४)।
को प्राप्त अनुभागस्पर्षकों से जो सातावेदनीय प्रतिशय तीव्र कषाय के प्रभाव या मन्द कषाय का प्रादि पुण्य कर्मों के बन्ध का कारणभूत तथा नाम विशद्धता है। यह सातबन्धकों की विशद्धता प्रसाता प्रादि पाप कर्मों के बन्ध का विरोधी जीव
का परिणाम होता है उसे विद्धि और उसकी विशुद्धि-१. तदावरणक्षयोपशमे सति प्रात्मनः प्राप्ति को विशुद्धिलब्धि कहते हैं। प्रसादो विशुद्धिः । (स. सि. १-२४; त. वा. १, विशुद्धिस्थान-परियत्तमाणियाणं साद-थिर-सुहन २४)। २. तदभावो (संक्लेशाभावो) विशुद्धिरा- सुभग-सुस्सर-प्रादेज्जादीणं सुभपयडीणं बंधकारणस्मनः स्वात्मन्यवस्थानम् । (अष्टशती ६५) । भूदकसायट्ठाणाणि विसोहिट्ठाणाणि । (धव. पु. ११, ३. सादबंधजोग्गपरिणामो विसोही। (धव. पु. ६, पृ. २०८)। पु. १८०); सादबंधपायोग्गकसाउदयटाणाणि परिवर्तमान साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और विसोही । (घव. पु. ११, पृ. २०६) । ४. प्रात्म- प्रादेय प्रादि पुण्य प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत प्रसक्तिरत्रोक्ता विशुद्धिनिजरूपतः । (त. श्लो. १, कषायस्थानों को विशुद्धिस्थान कहा जाता है । २४)। ५. वर्णाश्रमाणां स्वाचारप्रच्यवने त्रयीतो विशेष-१. विशिष्यतेऽर्थोऽर्थान्तरादिति विशेषः। विशुद्धिः। (नीतिवा. ७-१९)। ६. विशुद्धिः प्रमो- (स.सि. ६-८)।२. विशिष्यते विशिष्टिर्वा विशेषः। दादिशुभपरिणामः।। (मा. मी. वसु. वृ. ९५)। विशिष्यतेऽर्थोऽर्थान्तरादिति विशेषः, अथवा विशि७. विशोधनं विशुद्धिः-अपराधमलिनस्यात्मनो ष्टिर्वा विशेषः । (त. वा. ६, ८, ११)। ३. प्रादेनिर्मलीकरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४)। सेण भेदेण विसेसेणेत्ति समाणट्ठो। (धव. पु. ४, ८. मनःपर्ययज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादात्मनः प्रस- प.१४४-४५)। ४. विसेसो अणेयसंखो-वदिरेयनता विशुद्धिः। (त. वृत्ति थुत. १-२४)। लक्खणो विसेसोxxxI(षव.पु. १३, पृ. २३४)। १ विवक्षित ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम के ५. विशेषश्च विसदृशपरिणामलक्षणः। (न्यायवि.
ल, १२८
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विशेषज्ञ ]
१-५२; प्रा. मी. वसु. वृ. ७५ )। ६. उक्तं चअसमानस्तु विशेषो वस्त्वेकमुभयरूपं तु । ( श्राव नि. मलय. वृ. ७५५, पृ. ३७३ ) ।
१ एक पदार्थ में जो दूसरे पदार्थ से भिन्नता होती है उसे विशेष कहा जाता है । ३ श्रादेश, भेव और विशेष ये समानार्थक शब्द हैं। आदेश नाम मार्गणा का है । ५ विसदृश परिणाम को विशेष कहते हैं । विशेषज्ञ - तथा वस्त्ववस्तुनोः कृत्याकृत्ययोः स्वपरयोविशेषमन्तरं जानाति निश्चिनोतीति विशेषज्ञः । अथवा विशेषात्मन एव गुण-दोषाधिरोहलक्षणं जानातीति विशेषज्ञः । (योगशा. स्वो विव. १-५५, पृ. १५८ ) ।
१०१८, जैन - लक्षणावली
वस्तु प्रवस्तु, कृत्य - प्रकृत्य और श्रात्म-पर के विशेष ( अन्तर) को जो जानता है उसे विशेषज्ञ कहा जाता है । अथवा जो अपने ही गुण-दोषों के श्रधिरोहस्वरूप विशेष को जानता है वह विशेषज्ञ कहलाता है । विशोधि-विशेषेण शोधिविशोधिः । एतदुक्तं भवति शिष्येणालोचितेऽपराधे सति तद्योग्यं यत्प्रायचित्तप्रदानं सा विशोधिरभिधीयते । ( श्रोधनि. वृ. २) ।
शिष्य के द्वारा अपराध की श्रालोचना कर लेने पर उसके योग्य जो प्रायश्चित्त दिया जाता है उसे विशोधि कहते हैं । विश्वस्तमन्त्रभेद - देखो मन्त्रभेद । तथा विश्वस्ता विश्वासमुपगता ये मित्र- कलत्रादयस्तेषां मन्त्रो मन्त्रणम्, तस्य भेद: प्रकाशनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-६१ ) ।
विश्वास को प्राप्त जो मित्र व स्त्री आदि हैं उनके मंत्र को – गोपनीय अभिप्राय को प्रगट कर देना, इसका नाम विश्वस्तमंत्रभेद है । यह सत्याणुव्रत का एक प्रतिचार है ।
विष - १. विषं स्थावरजङ्गमं सकृत्रिमभेदभिन्नम् । (मूला वृ. ६-३३ ) । २. विषं श्रृंगिकादि । (योगशा. स्वो विव. ३-११०) ३. तत्र परस्परसंयोगजनितमा रणशक्तिविशिष्ट तेल- कर्पूरादिद्रव्यं वि. षम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३०३) । २ शंखिया श्रादि को प्राणघातक होने से विष कहा जाता है । ३ जिस तेल व कपूर आदि द्रव्य में परस्पर के संयोग से प्राणघातक शक्ति उत्पन्न हुई
[विष्ठौषधिप्राप्त
है वह विष कहलाता है।
विषय - १. विषयस्तावत् द्रव्य-पर्यायात्मार्थः । ( न्यायकु. स्व. वि. १ - ५, पृ. ११५ ) । २. रसादयोऽर्थाः विषयः । ( धव. पु. १३, पृ. २१६ ) । ३. इन्द्रियमनस्तर्पणो भावो विषयः । ( नीतिवा. ६–१६) । ४. तथा च शुक्रः - मनसश्चेन्द्रियाणां च सन्तोषो येन जायते । स भावो विषयः प्रोक्तः प्राणिनां सौख्यदायकः ।। ( नीतिवा. टी. ६-१६) । १ द्रव्य - पर्यायरूप अर्थ को विषय कहा जाता है । २ जिह्वा श्रादि इन्द्रियों से जिन रस आदि को ग्रहण किया जाता है वे उनके विषय माने गए हैं। ३ इन्द्रियों व मन के सन्तुष्ट करने वाले पदार्थ विषय कहलाते हैं । विषयानन्द रौद्रध्यान
स्वकीय विषयसुरक्षणे दक्षः स्वकीययुवती - द्विपद-चतुष्पद स्वाद्य खाद्याशनपान सुस्वरश्रवण सुगन्धगन्धग्रहण - धन-धान्य-गृहवस्त्राभरणादीनां रक्षणे रक्षायां यत्नकरणे दक्षः निपुणः, इदं विषयानन्दाख्यं रौद्रध्यानम् । ( कार्तिके. टी. ४७६) ।
अपने विषयों के संरक्षण में तत्पर रहते हुए युवती स्त्री, दास-दासी आदि द्विपद, गाय-भैंस श्रादि चतुष्पद तथा स्वाद्य व खाद्य भोजन-पान श्रादि सभी इन्द्रिय-विषयों के संरक्षण को जो निरन्तर चिन्ता रहती है; यह विषयानन्द रौद्रध्यान कहलाता है ।
विषयी - १. विषयी द्रव्य-भावेन्द्रियम् । ( लघीय. स्वो विव. ५ ) । २. पडपीन्द्रियाणि विषयिणः । ( धव. पु. १३, पु. २१६) ।
१ रूप रसादि स्वरूप विषयों की ग्राहक होने से द्रव्य व भाव इन्द्रियों कों विषयी कहा जाता है । विषवाणिज्य १. विषास्त्र हल यन्त्रायो हरितालादि वस्तुनः । विक्रयो जीवितघ्नस्य विषवाणिज्यमुच्यते । (योगशा. ३- ११०; त्रि. पु. च. ६, ३, ३४४) । २. विषवाणिज्यं जीवघ्नवस्तुविक्रयः । (सा. घ. स्वो टी. ५-२२ ) ।
१ विष, अस्त्र, हल, यंत्र, लोहमय कुदाली आदि श्री हरिताल (विष) श्रादि जो भी वस्तु प्राणियों की घातक हो उसके बेचने का नाम विषवाणिज्य है । विष्ठौषधिप्राप्त देखो विडौषधि व विप्रौषधि ऋद्धि । विट्ठसद्दो जेण देसामासिओ तेण मुत्त-विट्ठा
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विष्णु] १०१६, जैन-लक्षणावली
[विस्तारानन्तं सुत्ताणं गहणं । एदे अोसहित्तं पत्ता जेसि ते विट्ठो- विसंवादन-१. विसंवादनमन्यथाप्रवर्तनम् । x सहिपत्ता । (धव. पु. ६, पृ. ६७)।
Xx परगतं विसंवादनम । सम्यगभ्युदय-निश्रेय. विष्ठा शब्द सूत्र में देशामर्शक है, अतः उससे मूत्र सार्थासु क्रियासु प्रवर्तमानमन्यं तद्विपरीतकायप्रादि अन्य सूत्रों को भी ग्रहण करना चाहिए। वाङ्मनोभिविसंवादयति मैवं कार्षीरेवं कविति । अभिप्राय यह है कि जिन ऋषियों का मल-मूत्र भी (स. सि. ६-२२)। २. विसंवादनमन्यथाप्रवर्तनम् । औषधिस्वरूप परिणत हो जाता है उन्हें विष्ठौषधि अन्येन प्रकारेण प्रवर्तनं प्रतिपादनं विसंवादनमिति ऋद्धिप्राप्त कहा जाता है।
विज्ञायते। xxx सम्यगभ्यूदय-निश्रेयसार्थास विष्ण-.---१. उपात्तदेह व्याप्नोतीति विष्णः । (धव. क्रियासु प्रवर्तमानमन्यं काय-वाङमनोभिविसंवादपु. १, पृ. ११६); स्वशरीराशेषावयवान् वेष्टीति यति मैवं कार्षीरेवं कुर्विति कुटिलतया प्रवर्तन विविष्णुः । (धव. पु. ६, पृ. २२१)। २. सकल- संवादनम् । (त. वा. ६, २२, २-३) । ३. अन्यथा विमलकेवलज्ञानेन येन कारणेन समस्तं लोकालोकं स्थितेषु पदार्थेषु परेषामन्यथाकथनं विसंवादनम् । जानाति व्याप्नोति तेन कारणेन विष्णुर्भण्यते । (बृ. (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२)। द्रव्यसं टी.१४)। ३ व्यवहारेण स्वोपात्तदेहम्, समु-१स्वर्ग-मोक्षादि की साधक समीचीन क्रियानों में
द्घातेन सर्वलोकम्, निश्चयेन ज्ञानेन सर्वं वेवेष्टीति प्रवर्तमान किसी दूसरे को मन, वचन व काय की विष्णुः । (गो. जी. जी. प्र. ३६६) । ४. विश्वं हि कुटिलता से 'ऐसा मत करो, ऐसा करो' इस प्रकार दव्य-पर्यायं विश्वं त्रैलोक्यगोचरम् । व्याप्तं ज्ञान- से ठगने को विसंवादन कहा जाता है। त्विषा येन स विष्णुापको जगत् ॥ (प्राप्तस्व. विस्तारदष्टि-देखो विस्ताररुचि । ३१) । ५. विष्णानेन सर्वार्थविस्तृतत्वात कथंचन ।
विस्ताररुचि--१. विस्ताररुचि:-अंग-पूर्वविषयजी(लाटीसं. ४-१३२; पंचाध्या. २-६१०)।
वाद्यर्थविस्तारप्रमाण - नयादिनिरूपणोपलब्धश्रद्धाना १ जो प्राप्त शरीर को व्याप्त करता है अथवा
विस्ताररुचयः। (त. वा. ३. ३६, २) । २.xx अपने शरीर के समस्त अवयवों को बार-बार वेष्टित
X यान्या तस्या विस्तारजा तु सा ।। प्रमाण-नयकरता है उसका नाम विष्णु है। यह जीव का एक
निक्षेपायुपायरतिविस्तृतैः । अवगाह्य परिज्ञानात्तत्त्वपर्यायवाची शब्द है। ४ जो ज्ञानरूप प्रकाश के
स्याङ्गादिभाषितम् ।। (म. पु. ७४, ४४५-४६) । द्वारा तीनों लोक सम्बन्धी समस्त द्रव्यों व उनकी पर्यायों को व्याप्त करता है उसे विष्णु कहा जाता
३. यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तारदृष्टिम् । (प्रात्मान. १४) । ४. द्वादशा:
ङ्गचतुर्दशपूर्व प्रकीर्ण विस्तीर्णश्रतार्थ - समर्थन प्रस्तारो विसम्भोगिक-विसम्भोगो दानादिभिरसंव्यवहारः, स यस्यास्ति स विसम्भोगिकः। (स्थानां. अभय. व.
विस्तारः । (उपासका. पृ. ११४; अन. ध. स्वो.
टी. २-६२)। ५. द्वादशाङ्गश्रवणेन यज्जायते तद्वि१७३) ।
स्तारसम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते । (दर्शनप्रा. टी. १२) । दानादि के द्वारा संव्यवहार के प्रभाव को विसंभोग कहते हैं। इस प्रकार के विसम्भोग से जो सहित
२ प्रमाण, नय और निक्षेप प्रादि विस्तृत उपायों होता है उसे विसम्भोगिक कहा जाता है।
द्वारा अंग-पूर्वादि श्रुत में प्ररूपित तत्त्वों को जानविसर्प-बादरशरीरसधितिष्ठतो जले तैलवत् वि
कर जो रुचि या श्रद्धा होती है उसे विस्ताररुचि, सर्पणं विसर्पः । (त. वा. ५, १६, १)।
विस्तारवृष्टि प्रथवा विस्तारसम्यक्त्व भी कहते हैं। जैसे जल के ऊपर तेल फैल जाता है वैसे ही बादर विस्तारानन्त-जं तं वित्थाराणंतं तं पदरागारेण शरीर पर अधिष्ठित हए जीव के जो प्रात्मप्रदेशों मागासं पेक्खमाणे अंताभावादो भवदि । (घव. प. का फैलाव होता है उसे विसर्प कहते हैं।
३, पृ. १६)। विसंवाद-अन्यथा प्रतिपत्तिः पुनविसंवादः । प्रतराकार से प्राकाश के देखने पर उसका अन्त (सिद्धिवि. वृ. २-६, पृ. १३७)।
सम्भव नहीं है। इससे उसे विस्तारानन्त कहा विपरीत प्रतीति का नाम विसंवाद है।
जाता है।
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विस्तारासंख्यात]
[वीतरागकथा
बाहिरपदेसे हिंडणं विहारवदिसस्थाणं णाम । घव. पु. ७, पृ. ३०० ) ।
विस्तारासंख्यात - जं तं विस्थारासंखेज्जयं तं लोगागासपदरं लोगपदरागारपदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो। (घब. पु. ३, पृ. १२५ ) । लोकप्रतराकार प्रदेशों की गणना की अपेक्षा संख्या की संभावना म होने से लोकाकाश-प्रतर को विस्तासंख्यात कहा जाता है ।
जिस ग्राम, नगर प्रथवा वन प्रादि में उत्पन्न हुप्रा है उसको छोड़कर अन्यत्र सोना, बैठना श्रौर गमन श्रादि करना; इसका नाम विहारवत्स्वस्थान है । वीचार - देखो अर्थ संक्रान्ति, योगसंक्रान्ति व
विहायोगति(तथा विहायसा गतिर्गमनं विहायो- व्यञ्जनसंक्रान्ति । १. वीचारोऽर्थ व्यञ्जन-योगसंगति: । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३ ) । क्रान्ति: । (त. सू. ६-४४ ) । २. प्रस्थान वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो । ( भ. प्रा. १८८२ ) । ३. अर्थो ध्येयः द्रव्यं पर्यायो वा व्यञ्जनं वचनम्, योग: काय वाङ्मनस्कर्मलक्षणः, संक्रान्तिः परिवर्तनम् । द्रव्यं विहाय पर्यायमुपैति पर्यायं त्यक्त्वा द्रव्यमित्यर्थ संक्रान्तिः । एकं श्रुतवचनमुपादाय वचनान्तरमालम्बते, तदपि विहायान्यदिति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं गृह्णाति, योगान्तरं च त्यक्त्वा काययोगमिति योगसंक्रान्तिः । एवं परिवर्तनं वीचार इत्युच्यते । (स. सि. ९-४४; त. वा. ९-४४ ) ४. वीचार: संक्रान्तिः अर्थ - व्यञ्जन योगेषु । ( घव. पु. १३, पृ. ७७ ) । ५. अर्थव्यञ्जन- योगानां वीचारः संक्रमः क्रमात् । (ह. पु. ५६ - ५८ ) । ६. अर्थ - व्यञ्जन- योगानां वीचारः संक्रमो मतः (ज्ञाना. 'मः स्मृतः ) | ( म. पु. २१-१७२; त. सा. ७-४७; ज्ञाना. २१-७२ ) । ७. श्रनीहितवृत्यार्थान्तरपरिणमनं वचनाद्वचनान्तरपरिणमनं मनो-वचन-काययोगेषु
प्रकाश से जो गमन होता है उसे विहायोगति कहते हैं । विहायोगतिनामकर्म - - १. विहाय श्राकाशम्, तत्र गतिनिर्वर्तिकं तद्विहायोगतिनाम । ( स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १८) । २. लब्धि - शिक्षद्विप्रत्ययस्याकाशगमनस्य जनकं विहायोगतिनाम | ( त. भा. ८-१२ ) । ३. विहाय श्राकाशमित्यर्थः । विहायसि गतिः विहायोगतिः । जेसि कम्मक्खधाणमुदएण जीवस्स श्रागासे गमणं होदि तेसि विहाय गदित्ति सण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ६१ ) ; जस्स कम्मस्दएण भूमिमोहिय प्रणोहिय वा जीवाणमागासे गमण होदि तं विहायगदिणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६५) । ४. विहाय श्राकाशम्, विहायसि गतिविहायोगतिर्येषां कर्मस्कन्धानामुदयेन जीवस्थाकाशे गमनं तद्विहायोगतिनाम । ( मूला. बृ. १२, १५) । ५. यतः शुभेतरगमनयुक्तो भवति तद्विहायोगतिनाम । (समवा. अभय वृ. ४२ ) । ६. यदुदयेन आकाशे गमनं भवति सा विहायोगतिनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)
योगाद्योगान्तरपरिणमनं
१ विहायस् नाम श्राकाश का है, जिसके उदय से प्रकाश में गति निर्वार्तित होती है उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं । २ लब्धि (जैसे देवादिकों के ) और शिक्षाजनित ऋद्धि (जैसे तपस्वियों के) इनके निमित्त से जो श्राकाश में गमन होता है वह जिस कर्म के निमित्त से होता है उसे विहायोगति नामकर्म कहा जाता है । विहारवत्स्वस्थान विहारवदिसत्थाणं णाम अप्पणी उप्पण्णगाम-णय र रण्णादीणि छड्डिय अण्णत्थ सण- णिसीयण- चंकमणादिवावारेणच्छणं । (घय पु. ४, पृ. २६ ) ; तत्तो ( पडिगहिदत्तादो) बाहि गंतूणच्छणं विहारवदिसत्थाणं । ( षव. पु. ४, पू. ३२) ; तत्तो ( अप्पणी उप्पण्णगामाईणं सीमादो )
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१०२०, जैन-लक्षणावली
चारो भण्या (बृ. द्रव्यसं. ४८ ) ।
१ श्रर्थ, व्यञ्जन श्रोर योग के परिवर्तन को वीचार कहते हैं ।
वीतराग - मोहणीयक्खएण वीयराम्रो । ( धव. पु. ६, पू. ११८ ) ।
मोहनीय कर्म के क्षय से जीव वीतराग-राग-द्वेष से रहित होता है ।
वीतरागकथा - गुरु-शिष्याणां विशिष्टविदुषां वा राग-द्वेष-रहितानां तत्त्वनिर्णयपर्यन्तं परस्परं प्रवर्तमानो वाग्व्यापारो वीतरागकथा । ( न्यायवी. पृ. ७९-८०) ।
गुरु और शिष्य प्रथवा राग-द्वेष से रहित श्रन्य विशिष्ट विद्वानों के मध्य में भी जो वस्तु स्वरूप के निर्णय होने तक वचन का व्यापार चलता है उसे वीतरागकथा कहते हैं ।
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वीतरागचारित्र] १०२१, जन-लक्षणावली
[वीर्य वीतरागचारित्र-तत्-(अपध्यान.) प्रभृतिसमस्त. विक्रान्तौ वीरयति स्म कषायोपसर्ग-परीषहेन्द्रियाविकल्पजालरहितं स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसहजानन्दक- दिशत्रुगणजयं प्रति विक्रामति स्मेति वीरः । 'प्रचः' लक्षणसुख रसास्वादसहितं यत्तद्वीतरागचारित्रं भवति। इत्यच प्रत्ययः । अथवा 'ईर गति-प्रेरणयोः' विशेषण (बृ. द्रव्यसं. टी. २२, पृ. ५८)।
ईरयति गमयति स्फोटयति यद्वा प्रापयति शिवमिति अपध्यान प्रादि समस्त विकल्पों से रहित तथा स्व. वीरः । यदि वा ईर् गतौ' इत्यादिको धातुः विशेसंवेदन से उत्पन्न स्वाभाविक सुख के रसास्वाद से षेण अपुनर्भावेन ईर्ते स्म याति स्मेति वीरः अपश्चिमसहित जो चारित्र होता है उसे वीतरागचारित्र तीर्थकरो वर्द्धमानस्वामीत्यर्थः । (बृहत्सं. मलय. कहते हैं।
व.१)। ५. वीरो विक्रान्तः, वीरयते शरयते वीतरागसम्यक्त्व-१. प्रात्मविशुद्धि मात्रमित. विक्रामति कर्मारातीन् विजयत इति वीरः। (नि. रत् । सप्तानां कर्मप्रकृतीनाम् प्रात्यन्तिकेऽपगमे सा. वृ. १)। सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरद्वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्य. १ 'मा' का अर्थ लक्ष्मी है, जो विशिष्ट मा-मुक्ति ते । अत्र पूर्व (सरागसम्यक्त्वं) साधनं भवति उत्तर और स्वर्गादि के अभ्यदय रूप लक्षमी-को 'राति' साधनं साध्य च । (त. वा. १, २, ३१) । २. राग- अर्थात देता है उसका नाम वीर है। २ विशेषेण द्वयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतरागसम्यग्दर्श- ईरयति इति वीरः'। इस निरुक्ति के प्रनसार जो नम । (भ.प्रा. विजयो. ५१) । ३. वीतरागसम्य- विशेष रूप से मोक्ष के प्रति स्वयं जाता है तथा क्वं निजशद्वात्मानभतिलक्षणं वीतरागचारित्रा- सरों को पाता है तथा मोका मि
दूसरों को पहुंचाता है, अथवा कर्मों का निराकरण विनाभूतम, तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति । (परमा.
करता है, अथवा रागादि शत्रुनों पर विजय प्राप्त टी. २-१७)।
करता है उसे वीर कहा जाता है। यह अन्तिम १सात कर्मप्रकृतियों का सर्वथा क्षय हो जाने पर जो तीर्थकर वर्धमान जिनेन्द्र का एक सार्थक नाम है। प्रात्मा में निर्मलता होती है उसे वीतरागसम्यक्त्व
वीरासन-१. वीरासणं जंघे विप्रकृष्टदेशे कृत्वाकहा जाता है।
सनम् । (भ. प्रा. विजयो. २२५) । २. वीरासनं वोतहेदु-वीतं हि नाम विधिमुखेन साध्यसाधनम् ।
ऊरुद्वयोपरि पादद्वयविन्यासः । (भ. प्रा. मूला. (न्यायवि. विव. २-१७३, पृ २०८)।
२२५) । ३. XXX न्यस्तावूर्वोः वीरासनं क्रमो। विषिमुख से जो हेतु साध्य को सिद्ध किया करता
(प्रन.ध. ८-८३)। है वह सांख्य मतानुसार वीतहेतु कहलाता है ।
१ जांघों को दूर देश में करके बैठना, इसे वीरासन वीतावीत -प्रतिषेधपरमुभयपरं च वीतावीतम् ।
वहते हैं। २ दोनों जंघानों के ऊपर दोनों पांवों के (न्यायवि. विव. २-१७३, पृ. २०८) ।
रखने पर वीरासन होता है। जो हेतु प्रतिषेध को तथा उभय (विधिःप्रतिषेध) को भी सिद्ध करता है उसे सांख्यमतानुसार वीतावीत
वार्य-१. द्रव्यस्य स्वशक्तिविशेषो वीर्यम् । (स. हेतु कहा जाता है।
fr. ६-६) । २. द्रव्यस्यात्मसामर्थ्य वीर्यम् । वोर-१. विशिष्टां मां लक्ष्मी मक्तिलक्षणामभ्यू. द्रव्यस्य शक्तिविशेषः सामर्थ्य वीर्यमिति निश्चीयते । दयलक्षणां वा रातीति वीरः । (यक्त्यन. टी.१)। (त. वा. ६, ६, ६)। ३. वीर्य वीर्यान्तरायक्षयोपन २.विशेषेणेरयति मोक्ष प्रति गच्छति गमयति वा शम-क्षयजं खल्बात्मपरिणाम:। (प्राव. नि. रि. प्राणिनः प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति वीरयति वृ. १५१३, पृ. ७८३) । ४. प्रात्मनो निर्विकारस्य वा रागादिशत्रन प्रति पराक्रमयतीति दीरः। कृतकृत्यत्वधीश्च या । उत्साहो वीर्यमिति तत्कीर्तितं
, (स्थानां. अभय. वृ. ५१); विदारयति यत्कर्म
मनिपंगवः ।। (मोक्षपं. ४७)। ५. द्रव्यस्य पुरुषातपसा च विराजते। तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर देनिजशक्तिविशेषो वीर्यम् ॥ (त. वृत्ति श्रुत. इति स्मृतः ।। (स्थानां. अभय. व. प. ३६ उव.)। ६-६)। ३. विशेषेण ईरयति क्षिपति कर्माणीति वीरः। १ द्रव्य की अपनी शक्तिविशेष को वीर्य कहते हैं। (योगशा. स्वो. विव. १-१)। ४. 'शूर वीर ३ वीर्यान्तराय के क्षयोपशम अथवा क्षय से जो
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वीर्यप्रबाद]
श्रात्मा का परिणाम उत्पन्न होता है उसका नाम वीर्य है ।
वीर्यप्रवाद - १. छद्मस्थ- केवलिनां वीर्य सुरेन्द्र - दैत्याधिपानां ऋद्धयो नरेन्द्र चक्रवर-बलदेवानां च 'वीर्यलाभो द्रव्याणां सम्यक्त्वलक्षणं च यत्राभिहितं च तद्वीर्यप्रवादम् । (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७५) । २. वीरियाणुपवादं णाम पुव्वं प्रटुण्णं वत्थूणं सट्टपाहुडा १६० सत्तरिलक्खपदेहि ७०००००० अपविरियं परविरियं उभयविरियं खेत्तविरियं भवविरियं तवविरियं वण्णेइ ! ( धव. पु. १, पृ. ११५ ); छद्मस्थानां केवलिनां वीर्यं सुरेन्द्र- दैत्याधि पानां वीर्यर्द्धयो नरेन्द्र चक्रधर बलदेवानां वीर्यलाभो द्रव्याणामात्मपरोभय क्षेत्र भवर्षितवोवीर्यं सम्यक्त्वलक्षणं च यत्राभिहित तद्वीर्यप्रवादं सप्ततिशत सहस्रपदम् ७००००० । ( धव. पु. ६, पृ. २१३) । ३. विरियाणुपवादव्वं ग्रप्पविरिय परविरिय-तदुभयविरिय-खेत्तविरिय कालविरिय-भव विरिय-तववि रियादीणं वण्णणं कुणइ । ( जयध. १, पृ. १४० ) । ४. वीर्यप्रवादं तृतीयम्, तत्राप्यजीवानां जीवानां सकर्मतराणां वीर्यं प्रोच्यत इति वीर्यप्रत्रादम् तस्यापि सप्ततिपदशतसहस्राणीति परिमाणम् । ( समवा. वृ. १४७ ) । ५. सप्ततिलक्षपदं चक्रधरसुरपति-धरणेन्द्र केवल्यादीनां वीर्यमाहात्म्य व्यावर्णकं वीर्यानुप्रवादम् । ( श्रुतभ. टी. १० ) । ६. बलदेवचक्रवर्ति तीर्थंकरादिवलवर्णकं सप्ततिलक्षपदप्रमाणं वीर्यानुप्रवादपूर्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२० ) । ७. विज्जाणुवादपुव्वं वज्जं जीवादिवत्थुसामत्थं । अणुवादो अणुवण्णणमिह तस्स हवेत्ति णणमह ॥ तं वर्णादि अप्पबलं परविज्जं उय विज्जमवि णिच्च । खेत्तदलं कालबलं भावबलं तवबलं पुण्णं ।। दब्वबलं गुणपज्जय विज्जं विज्जाबलं च सव्वबलं । सत्तरिलक्खयेहि पुण्ण पुव्वं तदीयं खु ॥ अंगप. ४६, ५१) ।
१ जिस पूर्वश्रुत में छद्मस्थों व केवलियों के वीर्य, इन्द्र और दैत्येन्द्रों की ऋद्धियों; राजा, चक्रवर्ती व बलदेवों के वीर्यलाभ तथा द्रव्यों व सम्यक्त्व के लक्षण का निरूपण किया गया है उसे वीर्यप्रवादपूर्व कहते हैं । ४ जिसमें प्रजीवों तथा सकर्मा ( संसारी) व मुक्त जीवों के वीर्य का कथन किया जाता है उसका नाम वीर्यप्रवादपूर्व है । यह तीसरा
[ वीर्यान्तराय
पूर्व है तथा पदसंख्या उसकी ७०००००० है । वीर्याचार - १. सम्यग्ज्ञान विलोचनस्य दधतः श्रद्धानमर्हन्मते वीर्यस्याविनिगृहनेन तपसि स्वस्य प्रयनाद्यतेः । या वृत्तिस्तरणीव नौरविवरा लघ्वी भवदन्वतो वीर्याचारमहं तमूर्जितगुणं वन्दे सतामचितम् ॥ ( चारित्रभ ६. पू. १८९ ) । २. स्वशक्त्यनिगूहनरूपा वृत्तिर्ज्ञानादौ वीर्याचार: । (भ. श्री. विजयो ४६ ) ; वीर्यान्तरापक्षयोपशमजनितसाम
परिणामो वीर्यम्, तदविगूहनेन रत्नत्रयवृत्तिर्वीर्याचारः । ( भ. प्रा. विजयो. ८५ ); स्वशक्त्यनिगूहनं तपसि वीर्याचारः । (भ. ग्रा. विजयो ४१९ ) । ३. तत्रैव शुद्धात्मस्वरूपे स्वशक्त्यनवगूहनेनाचरणं परिणमनं वीर्याचारः । ( परमा वृ. ७) । ४. वीर्यस्यानिवो वीर्याचारः शुभविषयस्वशक्त्योत्साहः । ( मूला. वृ. ४-२ ) । ५. वीर्याचारो ज्ञानादिप्रयोजनेषु वीर्यस्यागोपनमिति । ( समवा वृ. १३६) । ६. विरियाचारो स्वसामर्थ्यानिगूहनेन निर्मल रत्नत्रये प्रवृत्तिः (भ. प्रा. मूला. ८५) ।
१ जो मुनि जिनशासन पर श्रद्धा रखता है तथा सम्यग्ज्ञानरूप नेत्र से सहित है उसकी अपने सामर्थ्य को न छिपाकर जो प्रयत्नपूर्वक तपमें प्रवृत्ति होती है। उसे वीर्याचार कहा जाता है। जिस प्रकार छेद से रहित छोटी नौका द्वारा समुद्र से पार हो सकते हैं उसी प्रकार इस वीर्याचार रूप प्रवृत्ति के प्राश्रय से संसार रूप समुद्र से पार हो सकते हैं । ५ ज्ञान श्रादि प्रयोजनों में शक्ति को न छिपाना, इसका नाम वीर्याचार है ।
१०२२, जैन-लक्षणावली
वीर्यानुप्रवाद - देखो वीर्यप्रवाद | वीर्यानुवाद - देखो वीर्यप्रवाद । वीर्यान्तराय - १. वीर्यं बलं शुक्रमित्ये कोऽर्थः । जस्स कम्मरू उदएण वीरियस्स विग्धं होदि वं वारियतराइयं गाम । ( धव. पु. ६, पृ. ७८); अन्तरमेति गच्छतीत्यन्तरायः XX X वीर्यः [ ] शक्तिरित्यर्थः । वीर्यस्य विघ्नकृदन्तरायः वीर्यान्तरायः । ( धव. पु. १३, पृ. ३६० ) । २. तथा यदुदयात् सत्यपि नीरुजि शरीरे यौवनिकायामपि वर्तमानोऽल्पप्राणो भवति यद्वा बलवत्यपि शरीरे साध्येऽपि प्रयोजने हीनसत्त्वतया न प्रवर्तते तद्वीर्यान्तरायम् । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पू. ४७५) । १ वीर्य का अर्थ बल और शुक्र (शरीरगत धातु
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वृक्षमूल-उपगत-अतिचार] १०२३, जैन-लक्षणावली
[वृत्तिपरिसंख्यान विशेष) होता है, जिस कर्म के उदय से वीर्य का शा. स्वो. विव. १-४५, पृ. १५७) । विघ्न होता है उसे वीर्यान्तराय कहते हैं । २ जिसके २ समस्त सावध के परित्याग का नाम वत्त है। उदय से शरीर के नीरोग और यौवन अवस्था में ३ अनाचार (कुत्सित प्राचार) को छोड़कर समीवर्तमान होने पर भी प्राणी अल्पप्राण होता है, चीन प्राचार के परिपालन को वृत्त कहते हैं। अथवा शरीर के बलवान होने पर भी तथा प्रयो- वत्तिपरिसंख्यान-.१. गोयरपमाण-दायग-भायणजन के साध्य भी होने पर प्राणी होनबल होने से णाणाविधाण जं गहणं । तह एसणस्स गहणं विविउममें प्रवृत्त नहीं होता है वह वीर्यान्त राय कह धस्स य वुत्तिपरिसंखा ॥ (मूला. ५-१५८) । लाता है।
२. गत्तापच्चागदं उज्जुवी हि गोमुत्तियं च पेलवियं । वृक्षमूल-उपगत-अतिचार-१. वृक्षस्य मूलमुप- संबूका बट्टपि य पदंगवीधी य गोयरिया ॥ गतस्यापि हस्तेन पादेन शरीरेण वाकायानां पीडा। पाडयणियंसणभिक्खापरिमाणं दत्तिघासपरिमाणं । कथम् ? शरीरावलग्नजल कणप्रमार्जनं हस्तेन पादेन पिंडेसणा य पाणेसणा य जागय पुग्गलया ।। संसिट्ठ वा शिलाफलकादिगतोदकापनयनम्, मृत्तिकाायां फलिह परिखा पुप्फोवहिदं व सुद्धगोवहिदं । लेवडभूमौ शयनम्, निम्नेन जलप्रवाहगमनदेशे वा अव- मलेवडं पाणयं च णिस्सित्थगमसित्थं ॥ पत्तस्स स्थानम्, अवनाहे वर्षापात: कदा स्यादिति चिन्ता, दायगस्स य अवगहो वहविहो ससत्तीए । इच्चेववर्षति देवे कदास्योपरमः स्यादिति वा, छत्र-कट- मादिविधिणा णादव्वा वत्तिपरिसंखा ॥ (भ. प्रा. कादिधारणं वर्षानिवारणायेत्यादिकः । (भ. प्रा. २१८-२१)। ३. भिक्षाथिनो मुनेरेकागारादिविविजयो. ४८७)। २. वृक्षमूलाधिवासस्य (अति- षयसंकल्पचिन्तावरोधो वृत्तिपरिसंख्यानमाशानिचार:) हस्तेन पादेन वा शरीरावलग्नजलकणप्रमा- वृत्यर्थमवगन्तव्यम् । र्जनम्, तद्वच्छिला-फलका दिगतोदकापनयनम, जला. गार-सप्तश्करथ्यार्द्धग्रामादिविषयः संकल्पो वृत्तिद्रायां भूमौ शयनम्, निम्नजलप्रवाहगमनदेशे वा परिसंख्यानम् । भिक्षाथिनो मुनेरेकागारादिविषयः अबस्थानम् , अवग्रहे वृष्टि: कदा स्यादिति चिन्ता, संकल्पश्चिन्तावरोधः वृत्तिपरिसंख्य नमाशानिवृत्यवृष्टौ वा कदैतदुपरमः स्यादिति वा, वष्टिप्रति- र्थमवगन्तव्यम् । (त. वा. ६, १६, ४)। ५. भोयणबन्याय छत्रादिधारणं वेत्यादिः । (भ. प्रा. मला. भायण-घर-बाड-दादारा वृत्ती णाम । तिस्से वुत्तीए ४८७)।
परिसंख्याणं गहणं वत्तिपरिसंख्याणं णाम । एदम्मि १हाथ, पांव अथवा शरीर के द्वारा (शरीर में वत्तिपरिसंखाणे पडिवद्धो जो अवगहो सो वुत्तिसंलग्न जलकणों के पोंछने से) जलकायिक, जीवों परिसंख्याणं णाम तवो। (धव. पु. १३, पृ. ५७) । को पीड़ा पहुंचाना, हाथ अथवा पांव से शिला ६. एकागार-सप्तवेश्मैकरसार्धग्रासादि-विषयसंकल्पो अथवा पटिये पर स्थित जल को हटाना, गीली वृत्तिपरिसंख्यानम् । (त. श्लो. ६-१६) । ७. तथा भूमि पर सोना, नीचे जलप्रवाह के जाने के स्थान प्राहारसंज्ञाया जयो बत्तिपरिसंख्यानम् । (भ. प्रा. में स्थित होना, वर्षा के प्रभाव में कब वर्षा होगी' विजयो. ६)। ८. एकवास्तु-दशागार-पान-मुद्गादिऐसा विचार करना, अथवा वर्षा के चाल रहने पर गोचरः। संकल्पः क्रियते यत्र वत्तिसंख्या हि तत्तपः ॥ 'कब यह समाप्त होगी' ऐसा चिन्तन करना, वर्षा (त. सा. ७-१२)। ६. एगादिगिहपमाणं कि वा के निवारण के लिए छत्र व कटक प्रादि को धारण । संकप्पकप्पियं विरसं । भोज्ज पसुब्व भुंजइ वित्तिकरना; इत्यादि ये सब कायक्लेश के अन्तर्गत वर्षा- पमाणं तवो तस्स । (कातिके. ४४३)। १०. वृत्तियोग के अतिचार हैं।
टि-गृहाऽऽहार-पात्र-दातृषु वर्तनम् । संख्या तन्नियमो वृत्त-१. वृत्तं च तद्वयस्यात्मन्यस्खलवत्तिधार- वृत्तिपरिसंख्या निजेच्छया । इयमाशानिरासायादीणम् । (क्षत्रचू. ६-२०)। २. यद्विशुद्धः परं धाम नताभावनाप्तये । गात्रयात्रानिमित्तान्नमात्रकांक्षस्य यद्योगिजनजीवितम् । तद्वृत्तं सर्वसावधपर्युदासैक- योगिनः ॥ (प्राचा. सा. ६, ११-१२) । ११. तथा लक्षणम् ॥ (ज्ञाना. ८-१, पृ. १०६) । ३. वृत्त- वर्ततेऽनयेति वृत्तिर्भेक्ष्यम्, तस्याः संक्षेपणं ह्रासः, मनाचारपरिहार: सम्यगाचारपरिपालनं च । (योग- तच्च दत्तिपरिमाणरूपम् । एक-द्वि-व्याद्यगारनियमो
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वृत्तिपरिसंख्यान]
रथ्या ग्रामार्धं ग्रामनियमश्च । अत्रैव द्रव्य क्षेत्र-कालभावाभिग्रहा अन्तर्भूताः । (योगशा. स्वो विव. ४ - ८६ ) । १२. भिक्षागोचरचित्रदातृचरणामत्रान्नसद्मादिगात् संकल्पाच्छ्रमणम्य वृत्तिपरिसंख्यानं तपोङ्गस्थितिः । नैराश्याय तदाचरेनिजरसासृग्मांससंशोषणद्वारेणेन्द्रियसंयमाय च परं निर्वेदमासे दि वान् ।। (अन. घ. ७-२६ ) । १३. आशा निरासार्थ
मन्दिरादिप्रवृत्तिविधानं तद्विषये संकल्प-विकल्पचिन्तानियन्त्रणं वृत्तेर्भोजनप्रवृत्तेः परिसमन्तात्संख्यानं मर्यादा, गणनमिति यावत्, वृत्ति परिसंख्यानमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१६) । १४. वृत्तिपरिसंख्यानं गणितगृहेषु भोजन वस्तुसंख्या वा । ( भावप्रा. टी. ७८) । १५ वृत्तेः प्रमाणं परिसंख्या वृत्तिपरिसंख्या । स्वकीयतपोविशेषेण रस- रुधिर- मांसशोषणद्वारेणेन्द्रियसंयमं परिपालयतो भिक्षार्थिनो मुनेः एकगृहसप्तगृहैकमार्गार्द्ध दायक भाजन- भोजनादिविषयः संकल्पो वृत्तिसंख्यानम् XXX। ( कार्तिके. टी. ४४५) । १६. त्रिः चतुः पञ्च षष्ठादिवस्तूनां संख्याशनम् । सद्मादिसंख्यया यद्वा वृत्तिसंख्या प्रचक्ष्यते ॥ (लाटोसं. ७-७७) ।
१ गृह के प्रमाण, दाता और पात्र सम्बन्ध में तथा भाजन के सम्बन्ध में प्रकार का नियम किया जाता है उसे वृत्तिपरि संख्यान तप कहा जाता है। जैसे मैं भोजन के लिए दो या तीन आदि घर जाऊंगा, यदि वृद्ध दाता पडिगाहन करेगा तो श्राहार लूँगा, अन्यथा नहीं; इसी प्रकार पात्र (चांदी या पीतल से निर्मित) और भोजन (अमुक प्रकार का धान्य श्रादि ) के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए । ११ जिसके प्राय से वर्तन - शरीर की स्थिति रहती है - उसका नाम वृत्ति है जो भैक्ष्य का बोधक है । घर व गली आदि का नियम करके उक्त भैक्ष्य का जो संकोच किया जाता है उसे बृत्तिसंक्षेप कहते हैं वृत्तिपरिसंख्यानातिचार- १. वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचाराः गृहसप्तकमेव प्रविशामि एकमेव पाटकम्, दरिद्रगृहमेकम् एवभूतेन दायकेन दायिकया वा दत्तं गृहीष्यामीति वा कृतसंकल्पः [ल्पस्य ] गृहसप्तकादिकादधिक प्रवेशः, पाटान्तरप्रवेशश्च परं भोजयामीत्यादिक: । ( भ. प्रा. विजयो. ४८७) । २. वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचारो गृहसप्तकमेव प्रवि
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१०२४, जैन- लक्षणावली
[वृष्येष्टरस
शामि इत्येवमादिसंकल्पं कृतवतः परं भोजयामीत्यभिप्रायेण तदधिकप्रवेशादिकः । (भ. श्री. मूला. ४८७ ) ।
१ वृत्तिपरिसंख्यान तप में सात गृह, एक पाटक अथवा दरिद्र दाता आदि के घर के विषय में जो नियम · किया गया था उससे 'दूसरे को भोजन कराता हूं, इस विचार से अधिक गृह प्रादि में प्रवेश करने पर वह वृत्तिपरिसंख्यान के प्रतिचार से मलिन होता है ।
इत्यादि के
जो अनेक
वृत्तिसंक्षेप - देखो वृत्तिपरिसंख्यान । वृद्ध वृद्धः क्षीणेन्द्रियकर्मेन्द्रियकृत्यः चतुर्थी मवस्थां प्राप्तः सः संस्तारक दीक्षामेवार्हति न प्रव्रज्याम् | ( श्राचारवि. पृ ७४ ) ।
जिसकी बुद्धि इन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का कार्य शिथिल पड़ गया है वह चौथी अवस्था को प्राप्त वृद्ध कहलाता है । वह संस्तारक दीक्षा के योग्य तो होता है, पर प्रव्रज्या -मुनि दीक्षा के योग्य नहीं होता ।
वृषभ - वृषेण धर्मेण भातीति वृषभः । अन. घ. Fat. at. 5-38) I
जो वृष प्रर्थात् धर्म से शोभायमान होता है उसका नाम वृषभ है । यह जिनेन्द्र के १००८ नामों के अन्तर्गत है ।
वृषभानुजात - वृषभानुजात:, अत्र 'अनुजात' शब्दः सदृशवचनो वृषभस्यानुजातः सदृशो वृषभानुजातः, वृषभाकारेण चन्द्र-सूर्य-नक्षत्राणि यस्मिन् योगं प्रवतिष्ठन्ते स वृषभानुजात: । ( सूर्यप्र. मलय. वृ. १२, ७८ पृ. २३३ ) ।
जिस योग में चन्द्र, सूर्य और नक्षत्र वृषभ के प्राकार से श्रवस्थित रहते हैं उसका नाम वृषभानुजात योग है। यहां अनुजात का अर्थ सबुश है ।
वृष्य - इन्द्रियबलबद्ध नो माषविकारादिर्वृष्यः कथ्यते । वृषवत्कामी भवति येनाहारेण स वृष्यः । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३५ ) ।
जो उड़द प्रादि इन्द्रियों के बल को वृद्धिगत करते हैं वे वृष्य कहलाते हैं, जिस प्रहार से मनुष्य बैल के समान कामी होता है उसका वृष्य यह सार्थक नाम है।
वृष्येष्टरस - १. वृषे वृषभे साधवो वृष्याः येषु रसेषु भुक्तेषु पुमान् वृषभवत् उन्मत्तकामो भवति
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वेणुकाजात ]
[वेदकसम्यक्त्व
रसा वृष्याः इत्युच्यन्ते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-७ ) । २. वृष्यमन्नं यथा माषाः पयश्चेष्टरसः स्मृतः । वीर्य वृद्धिकरं चान्यत्त्याज्यमित्यादि ब्रह्मणे || ( लाटीसं ६-६८) ।
१ जिन रसों का उपभोग करने पर मनुष्य बैल के समान उन्मत्त हो जाता है वे वृष्यरस कहलाते हैं । २ वीर्य को वृद्धिंगत करने वाले उड़द श्रादि को वृष्यरस कहा जाता है ।
१२- ७८,
२३३) ।
वेद ( मार्गणा ) - वेद्यत इति वेद: । ( धव. पु. १, पू. १४० ) ; XX X प्रथवात्मप्रवृत्तेः सम्मोहोत्पादो वेद: । XXX प्रथवा श्रात्मप्रवृत्ते मैथुनसंमोहोत्पादो वेद: । ( धव. पु. १, पृ. १४० पु. ७, पृ. ७) ।
तसणिददंसणमोहणीयभेयकम्मस्स उदएण वेदय: सम्माइट्ठी णाम । x x x जो पुण वेदयसम्माइट्ठी सो सिथिल सद्दहणो थेरस्स लट्ठिग्गहणं व सिथि लग्गाहो कुहेउ - कुदितेहि झडिदि विराहम्रो । ( धव. पु. १, पृ. २७१-७२ ) ; दंसणमोहुदयादो उपज्जइ जं पयत्थसद्दहणं । चलमलिणमगाढं तं वेदगसम्मत्तमिह मुणसु ॥ ( धव. पु. १, पृ. ३६६ उद्) । दर्शन मोहवेदको वेदकः, तस्य सम्यग्दर्शनं ' वेणुकानुजात वेणु: वशस्तदनुजातः तत्सदृशो वेदकसम्यग्दर्शनम् । ( धव. पु. १, पृ. ३६८ ) ; दंसणवेणुकानुजात: । ( सूर्यत्र मलय मोहणीयस्स XX X खप्रोवसमेण वेदगसम्मत्तं । (घव. पु. ७, पृ. १०७ ) ; सम्मत्त देसघादिफद्दयाणवेणुनाम बांस का है, बांस के सदृश योग को वेणु- मगंतगुणहाणीए उदय मागदाणमइदहरदेसघादित्तकानजातयोग कहा जाता है । णेण उवसंताणं जेण खप्रोवसमसण्णा श्रत्थि तेण तत्थुपणजीव परिणामो खश्रोवस मलद्धीस णिदो, तीए खप्रोवसमलद्धीए वेदगसम्मत्तं होदि । ( धव. पु. ७, पृ. १०८ ) । ३ सम्मत्त देसघादिस्सुदयादो वेदगं हवे सम्मं । चलमलिनमगाढं तं णिच्चं कम्म क्खवणहेदू ॥ ( गो. जी. २५); दंसणमोहुदयादो उपज्जइ जं पयत्थसद्दहणं । चलमलिणमगाढं तं बेदयमम्मत्तमिदि जाणे ।। (गो. जी. ६४९ ) । ४. व्रजन्ति सप्ताद्यकलं X XX XX X द्वयं ( क्षयं शमं च ) यदा याति तदानुवेदिकम् ॥ ( धर्मप. २०, ६९-७० ) । ५. प्रशमे कर्मणां षण्णामुदयस्य क्षये सति । श्रादत्ते वेदकं वन्द्यं सम्यक्त्वस्योदये सति ॥ ( श्रमित. श्रा. २ - ५५ )। ६. वेदकं नाम सम्यक्त्वं क्षपकश्रेणिमीयुषः । अनन्तानुबन्धिनां तु क्षये जाते शरीरिणः । ( त्रि. श. पु. च. १, ३, ६०५) । ७. पाकाद्देशघ्न सम्यक्त्वप्रकृतेरुदयक्षये । शमे च वेदकं षण्णामगाढं मलिनं चलम् ॥ ( अन. घ. २-५६ ) । ८. छक्कुवसमदो सम्मत्तुदयादो वेदगं सम्मं ॥ ( भावत्रि. 2 ) । ६. दर्शनमोहनीयभेदस्य सम्यक्त्वप्रकृतेः सर्वघातिस्पर्धकानामुदयाभावलक्षणे क्षये तेषामेव सदवस्थालक्षणे उपशमे च उदयनि षेकदेशघातिस्पर्धकस्योदयात् क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानं भवेत् तदेव वेदकमित्युच्यते । (गो. जी. मं. प्र. २५) ।
जो वेदा जाता है— अनुभव में श्राता है-उसका नाम वेद है । अथवा श्रात्मप्रवृत्ति से जो मैथुनक्रिया के प्रति मुग्ध करता है उसे वेद कहा जाता है । वेद (जीव ) - सुखमसुखं वेदयतीति वेद: । ( धव. पु. ६, पृ. २२१) ।
जो सुख-दुख का वेदन या अनुभवन करता है या जानता है उसे वेद कहते हैं। यह एक जीव का पर्याय नाम है ।
वेद ( श्रुत) - प्रशेषपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति प्रवेदीदिति वेदः सिद्धान्तः । ( धव. पु. १३, पृ. २८६ ) । जो समस्त पदार्थों को वर्तमान में जानता है, भविष्य में जानेगा तथा भूत में जान चुका है उसे वेद कहा जाता है । यह श्रुत के वाचक ४१ नामों में से एक है। वेदकसम्यक्त्व - देखो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व | १. ततः सम्यक्त्वभावनामृतरसविवधितविशुद्धिः मिथ्यात्वविघातिवीर्याविर्भावे क्षुद्यमानव्रीहितुषकण- तन्दुलविवेकवत् मिथ्यादर्शनकर्म मिथ्यात्वसम्यक्त्व सम्यं मिथ्यात्वविभागेन त्रिधा विभज्य सम्यक्त्वं वेदयमानः सद्भूतपदार्थं श्रद्धानफलं वेदकसम्यग्दृष्टिर्भवति । (त. वा. ६-४५ ) । २. सम्मल. १२६
१ प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुप्रा जो जीव दले जाने वाले धान के छिलका, कण और तन्दुल इन तीन विभागों के समान मिथ्यादर्शन कर्म को
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वेदना]
मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यङ् मिथ्यात्व इन तीन भागों में विभाजित कर सम्यक्त्व प्रकृति का धनुभव करता है वह सद्भूत पदार्थों के श्रद्धान के फलस्वरूप वेदकसम्यग्दृष्टि होता है । २ अनन्तगुणे हीनक्रम से उदय में आकर व प्रतिशय हीन होकर देशघाती के रूप में उपशम को प्राप्त हुए सम्यक्त्व के देशघाती स्पर्द्धकों का नाम क्षयोपशम है। इस क्षयोपशम के आश्रम से जो जीव का परिणाम होता है उसे क्षयोपशमलब्धि कहते हैं। इस क्षयोपशम लब्धि से वेदकसम्यक्त्व होता है । वेदना - - १. वेयणा कम्माणमुदयो । ( धव. पु. १, पृ. १२५ ) ; वेदना णाम सुह-दुक्खाणि X×× तम्हा सव्वकम्माणं पडिसेहं काऊण पत्तोदय वेदणीयदव्वं चैव वेयणा त्ति उत्तं । (घव. पु. १०, पृ. १६); वेदणी दव्वकम्मोदय ज णिदसुह- दुक्खाणि भटुकम्माणमुदयजणिदजीव परिणामो वा वेदणा । ( प. पु. १०, पृ. १७); श्रट्टाविह कम्मदम्वस्स वेण सणा । (घव. पु. ११, पृ. २); वेद्य वेदिष्यत इति वेदनाशब्दसिद्धेः । अट्टविहकम्म पोग्गलक्खंधो वेयणा । ( धव. पु. १२, पृ. ३०२ ) । २. वेदना कर्मानुभवलक्षणा । (सूत्रकृ.शी. वृ. २, ५, १८, पृ. १२८) । ३. वेदनं वेदना, स्वभावेनोदीरणा करणेन वोदयावलिकाप्रविष्टस्य कर्म्मणोऽनुभवन मिति भावः । ( स्थानां श्रभय. बृ. १५); वेदना सामान्यकर्मानुभवलक्षणा । ( स्थानां श्रभय वृ. ३३); वेदनं स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाकरणेन atoभावमुपनीतस्यानुभवनमिति । ( स्थानां. अभय. वृ. २५० ) ।
१ धवला में विवक्षाभेद से वेदना का लक्षण अनेक प्रकार का उपलब्ध होता है । यथा -कर्म के उदय का नाम वेदना है। सुख-दुख का नाम वेदना है । उमय में प्राप्त हुए वेदनीय कर्म के द्रव्य को ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा वेदना कहा जाता है । शब्द नप की अपेक्षा वेदनीयकर्मद्रव्य के उदय से जो सुख-दुख होते हैं उनको अथवा भ्राठों कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणाम को वेदना कहा गया है। प्राठ प्रकार के कर्मद्रव्य का नाम वेदना है । २ कर्म के अनुभव को वेदना कहते हैं। वेदना श्रार्तध्यान - १. वेदना - शब्दः सुखे दुःखे च वर्तमानोऽपि बार्तस्य प्रकृतत्वात् दुःखवेदनायां
[वेदनाभय
प्रवर्तते तस्या वातादिविकारजनितवेदनाया उपनिपाते तस्या अपायः कथं नाम मे स्यादिति संकल्पश्चिन्ता प्रबन्धस्तृतीयमार्तमुच्यते । ( स. सि. &, ३२ ) । २. तह सूल-सीस रोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं । तदसंपप्रोगचिता तप्पडियाराउल मणस्स || (ध्यानश. ७; योगशा. स्वो विव. ३-७३ उद्) । ३. प्रकरणात् दुःखवेदना संप्रत्ययः । यद्यपि वेदनाशब्दः सुख-दुःखानुभवनविषयसामान्यस्तथापि श्रार्तस्य प्रकृतत्वाद् दुःखवेदनासंप्रत्ययो भवति । तत्प्रतिचिकीर्षां प्रत्यागुर्णस्यानवस्थितमनसो धैर्योपरमात् स्मृतिसमन्वाहार प्रार्तध्यानमवगन्तव्यम् । (त. वा. ९, ३२, १ ) । ४. प्रसद्वेद्योदयोपात्तद्वेषकारणमीरितम् । तृतीयं वेदनायाश्चेत्युक्तं सूत्रेण तत्त्वतः । (त. इलो. ६, ३२, १) । ५. कास - श्वास- भगन्दरोदर-जराकुष्ठातिसार ज्वरैः पित्त - श्लेष्म- मरुत्प्रकोपजनितैः रोगैः शरीरान्तर्कः । स्यात्सत्त्वप्रबलैः प्रतिक्षणभर्वयंद्याकुलत्वं नृणां तद्रोगार्तमनिन्दितैः प्रकटितं दुर्वारदुःखाकरम् ।। स्वल्पानामपि रोगाणां माभूत्स्वप्नेऽपि संभवः । ममेति या नृणां चिन्ता स्यादार्त तत्तृतीयकम् । (ज्ञाना. २५, ३२-३३ ) । ६. शूलादि रोगसम्भवे च तद्वियोगप्रणिधानं तदसंप्रयोगचिन्ता च द्वितीयम् । (योगशा. स्वो विव. ३-७३ ) । १ वेदना शब्द से सामान्यतः सुख-दुःख का बोध होता है, पर ध्यान के प्रसंग में वात-पित्तादि के विकार से जो शरीर में पीडा होती है उसका नाम वेदना है । उसका विनाश कैसे हो, इस प्रकार के चिन्तन को वेदना नाम का श्रार्तध्यान कहा गया है । २ शूल 1 रोग क्षादि की वेदना के होने पर उसके वियोग के लिए तथा भविष्य में उसका संयोग न होने के लिए जो चिन्ता होती है उसे वेदना श्रार्तध्यान कहते हैं । वेदनाभय - १. एर्षकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते निर्भेदोदितवेद्य-वेदकबला देकं सदाना'कुलैः । नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत् तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥ ( समयप्रा. क. १५० ) । २. वेदनागन्तुका बाधा मलानां कोपतस्तनौ । भीतिः प्रागेव कम्पोSस्या (पंचा. 'कम्पः स्यात् ' ) मोहाद्वा परिदेवनम् ॥ उल्लाघोsहं भविष्यामि मा भून्मे वेदना क्वचित् । मूच्छे वेदनाभीति श्चिन्तनं वा मुहुर्मुहुः ॥ ( लाटीसं. ४, ४८ - ४६; पंचाध्या २,५२४-२५) ।
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वेदनासमुद्घात] १०२७, जैन-लक्षणावली
[वैदिम १ वेध और वेदक के भेद से रहित जो स्वयं एक सेण कम्मपज्जयपरिणदो जीवसमवेदो वेदणीयमिदि निश्चल ज्ञान का वेदन किया जाता है यही एक भण्णदे । (षव. पु. ६, पृ. १०); जीवस्स सुह-दुक्खुवेवना है, अन्य बाह्य पदार्थों के सम्बन्ध से होने पाययं कम्मं वेयणीयं णाम । (धव. पु. १३, पृ. वाली दूसरी कोई वेदना नहीं है। फिर भला उसका २०८) । २. तथा वेद्यते पाल्हादिरूपेण यदनुभयते भय कहां से हो सकता है ? इस प्रकार निर्भय तद्वेदनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २८८)। सम्यग्दृष्टि के वेदनाभय सम्भव नहीं है । २ मलों १ जो पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्व प्रादि कारणों के वश के प्रकोप से शरीर में जो रोगादिजनित वेदना कर्मपर्याय रूप से परिणत होकर जीव के लिये सुख. उत्पन्न होती है वह प्रागन्तुक है। उसके पहिले ही दुःख का कारण होता है उसे वेदनीय कहा जाता है। शरीर में कम्प होना, अथवा प्रज्ञानता से उसके २ जिसका प्राह्लादि (हर्ष प्रादि) के रूप से अनुलिए चिन्तातुर होता कि मैं कैसे नीरोग होऊंगा, भवन किया जाता है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। मुझे कहीं व्याधिजनित वेदना न हो; यही वेदना. वेदमूढता-पापोपदेशवेदान्यपुराणादिषु सन्मतिः । भय कहलाता है।
स्याद्वेदमूढता जन्तोः संसृतिभ्रान्तिकारणम् ।। (माचा. वेदनासमुद्घात-१. तत्र वातिकादिरोग-विषादि- सा. ३-४८)। द्रव्यसम्बन्धसन्तापापादितवेदनाकृतो वेदनासमुद्घा- पापजनक उपदेश, वेद और अन्य पुराण प्रादि के तः। (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७७) । २. वेदण- विषय में जो समीचीनता की बुद्धि होती है। इसे समुग्घादो णाम अविख-सिरोवेदणादीहिं जीवाण- वेदमूढता कहते हैं, वह जीव के संसार परिभ्रमण मुक्कस्सेण सरीरतिगुणविप्फुज्जणं । (धव. पु. ४, को कारण है। प. २६): वेदणावसेण ससरीरादो बाहिमेगपदेस- वेदिकाबद्धदोष--१. वेदिकाकारेण हस्ताभ्यां मादि कादण जावककस्सेण सरीरतिगुणविफुजणं बन्धो हस्तपंजरेण वाम-दक्षिणस्तनप्रदेश प्रपीडय वेयणसमुग्धादो णाम । (धव. पु. ७, पृ. २६६); जानुद्वयं वा प्रबद्ध्य वन्दनाकरणं वेदिकाबद्धदोपः। वेयणावसेण जीवपदेसाणं विखंभुस्सेहेहि तिगुणवि- (मूला. वृ. ७-१०७)। २. वेदिकाबद्धं जानुनोरुपरि फंजणं वेयणासमुग्धादो णाम । (धव. पु. ११, पृ. हस्ती निवेश्य अधो वा पार्श्वयोर्वा उत्संगे वा जान. १८) । ३. तीव्रवेदनानुभवान्मूलशरीरमत्यक्त्वा करद्वयान्तः कृत्वा वा इति पञ्चभिर्वेदिकाभिर्बद्ध प्रात्मप्रदेशानां बहिनिगमन मिति वेदनासमुद्घातः। युक्तं वन्दनम्। (योगशा. स्वो. विव.३-१३०)। (ब. द्रव्यसं. टी. १०)। ४. तीव्रवेदनानुभवात् मूल- ३. वेदिबद्ध स्तनोत्पोडो दोया वा जानुबन्धनम् । शरीरमत्यक्त्वा आत्मप्रदेशानां बहिर्गमनं सीतादि- (अन. प.८-१०२)। पीडितानां रामचन्द्रादीनां चेष्टाभिरिव वेदनासमद- १ वेदिका के प्राकार से दोनों हाथों से बायें। धातः दश्यते इति बेदनासमदधातः। (कातिके.टी. दाहिने स्तनप्रदेश को पीड़ित कर वन्दना करना १७६)।
अथवा दोनों घुटनों को बांध कर वंदना करना, १ वातिक (वायजनित) प्रादि रोग तथा विष यह एक वन्दना का वेदिकाबद्ध दोष है। २ दोनों प्रादि द्रव्यों के सम्बन्ध से होने वाले सन्ताप के घुटनों के ऊपर, नीचे, दोनों पार्श्वभागों में प्रथवा कारण जो वेदना होती है व उसके प्राश्रय से शरीर उत्संग में दोनों हाथों को करके अथवा घटने को को न छोड़ते हुए प्रात्मप्रदेश बाहिर निकलते हैं, दोनों हाथों के मध्य में करके; पांच वेदिकानों से इसका नाम वेदनासमुद्घात है। २ प्रांख और युक्त जो वन्दना की जाती है वह वेदिकाबद्ध नामक सिर की वेदना प्रादि से जीवप्रदेशों के अधिक से दोष से दूषित होती है। अधिक शरीर से तिगुने फैल जाने को वेदनासमुद्- वेदिम–सुत्तिधुवकोसपल्लादिदव्वं वेदणकिरियाघात कहा जाता है।
णिप्फण्णं वेदिमं णाम । (घव. पु. ६, पु. २७२, वेदनीय-देखो वेद्यकर्म। १. वेद्यत इति वेदनीयम्, २७३) । अथवा वेदयतीति वेदनीयम् । जीवस्स सुह-दुक्खाणु- वेदनक्रिया क्रिया से सिद्ध शुक्ति, इन्धुव, कोश पल्य हवणणिबंधणो पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तादिपच्चयव- प्रादि द्रव्य का नाम वेदिम है।
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वैद्यकर्म]]
वैद्यकर्म - मधुलिप्तासिधाराग्रास्वादानं वैद्यकर्मयत् । सुख-दुःखानुभवनदं स्वभावं तत्प्रकीर्तितम् ॥ (त्रि. श. पु. च. २, ३, ४६९ ) । शहद लपेटी तलवार की धार के अग्रभाग के श्रास्वादन के समान जो कर्म सुख व दुःख के अनुभवन स्वभाववाला है उसे वैद्यकर्म कहते हैं । वेध - वेधस्तु नासिकादिवेधनं कीलिकादिभिः । (ध्यानश. हरि. वृ. १६) ।
कील श्रादि के द्वारा जो नाक नादि को वेधा जाता है, इसे वेध कहते हैं । वेहाणसमरण - देखो विप्पाणसमरण । वेहाणसं नाम उब्बंधणं । (उत्तरा चू. पू. १२९ ) । उद्बन्धन - पेड आदि के प्राश्रित बन्धन ( फांसी)से जो श्राकाश में मरण होता है उसे बेहाणस या वैहायस मरण कहते हैं । वैक्रिय - १. श्रष्टगुणैश्वर्ययोगादेकाने काणु-महच्छरीरविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम् । ( स. सि. २ - ३६ ) । २. विक्रिया प्रयोजनं वैयिकम् । अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाणु-महच्छ
रविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम् | (त. वा. २, ३६, ६ ) ; विविधधिगुणयुक्तविकरणलक्षणं वैक्रियिकम् । (त. वा. २, ४६, ८) ३. विविधा क्रिया विक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम् । ( श्राव. नि. हरि. बृ. १४३४, पृ. ७६७) । ४. प्रणिमादिविक्रिया, तद्योगात्पुद्गलाश्च विक्रियेति भण्यन्ते । तत्र भवं शरीरं वैक्रियिकम् । ( धव. पु. १, पृ. २६१ ) ; जस्स कम्मस्स उदएण श्राहारवग्गणाए खंधा अणिमादिगुणोवलक्खिय सुहा- सुप्पय वेउविवयसरीररूवेण परिणमति तस्स वेडव्वियसरीरमिति सण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ६६ ); जस्सकम्मस्स उदएण वेव्वियसरीपरमाणू जीवेण सह बंध मागच्छन्ति तं कम्मं वेउव्वियसरीरणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६३ ) ; तेत्तीससागरोवमसंचिदणोकम्मपदेस कलाश्रो वेउब्वियसरीरं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ७८ ) । ५. विक्रियायां भवः कायो विक्रिया वा प्रयोजनम् । यस्य वैऋियिको ज्ञेय: x X X ॥ एकानेकलघु-स्थूलशरीरविविध क्रिया विक्रिया कथिता प्राज्ञैः सुरश्वाभ्रादिगोचरा ॥ ( पञ्चसं श्रमित. १, १७३-७४) ६. तथा यदुदयादाहारवर्गणागतपुद्गलस्कन्धा अणिमादिगुणोप
१०२८, जैन- लक्षणावली
[वैक्रियिककाययोग
लक्षितास्तद्वै क्रियकं शरीरम् । ( मूला वृ. १२, १३ ) । ७. विक्रिया प्रयोजनमस्येति वैक्रियं सूक्ष्म तर विशिष्ट कार्य करणक्षमपुद्गलनिर्वृत्तम् । ( श्रपपा. अभय वृ. ४२, पृ. ११०) ८. तथा विविधा विशिष्टा वा क्रियाविक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम् । ( प्रज्ञाप. मलय. वू. २६७, पृ. ४०९ ) । ९. विविधं करणं विक्रिया, विक्रिया प्रयोजनं यस्य तत् वै क्रियि कम्, विक्रियिकनामकर्मोदयनिमित्तम्, अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकाऽनेक स्थूल सूक्ष्मशरीरकरणसमर्थमित्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. २-३६ ) ; विक्रियाहेतुभूतं वैक्रियिकं शरीरम् । (त. वृत्ति श्रुत. ४-२१) ।
१ श्रणिमा-महिमा श्रादि श्राठ गुणरूप ऐश्वर्य के सम्बन्ध से एक-अनेक तथा छोटे-बड़े श्रादि अनेक प्रकार के रूपों को जो निर्मित किया जाता है, इसका नाम विक्रिया है । इस विक्रियारूप प्रयोजन के सिद्ध करने वाले शरीर को वैक्रिय, वैक्रियिक अथवा वैविक शरीर कहा जाता है। ७ जो शरीर सूक्ष्म से सूक्ष्म कार्य के करने में समर्थ पुद्गल से रचा जाता है तथा जिसका प्रयोजन विविध क्रियानों का करना है वह वैक्रिय शरीर कहलाता है । वैक्रियपरदारगमन - वैक्रियपरदारगमनं देवाङ्गनागमनम् । (श्राव. हरि. वृ. प्र. ६, पृ. ८२३) । देवांगना के साथ समागम करने को वैक्रियपरदारगमन कहते हैं। यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक प्रतिचार है
वैक्रियबन्धन - देखो वैक्रियिक शरीरबन्धन | वैक्रियिक- देखो वैक्रिय । वैक्रियिककाययोग - १. तदवष्टम्भतः ( वैक्रियिकावष्टम्भतः ) समुत्पन्नपरिस्पन्देन योगः वैक्रियिककाययोगः । ( धव. पु. १, पृ. २६१) । २. विविहगुणइििढजुत्तं विविकरियं वा हु होदि वेगुव्वं । तिस्से भवं च णेयं वेगुव्वियकायजोगो सो ॥ (गो. जी. २३२) ।
१ श्रणिमा- महिमा आदि का नाम विक्रिया है, उसके सम्बन्ध से पुद्गलों को भी विक्रिया कहा जाता है । ऐसे पुद्गलों से जो शरीर उत्पन्न होता है उसे वैऋियिक शरीर कहते हैं। उसके श्राश्रय से जो श्रात्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है उससे होने वाला योग वैऋियिक काययोग कहलाता है । उक्त वैकियिक शरीर और वैऋियिक काययोग को क्रम से
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वैक्रियिकशरीर] १०२६, जैन-लक्षणावली
[वैनयिकमिथ्यात्व वैविक शरीर क्षौर वैविक काययोग भी कहा अण्णागारेणच्छण्णं । (घव. पु. ४, पृ. २६); विजाता है।
विहिद्धिस्स माहप्पेण संखेज्जासंखेज्जजोयणाणि वैक्रियिकशरीर-देखो वैक्रिय ।
सरीरेण प्रोटहिय अवट्ठाणं वेउव्वियसमुग्धादो णाम । वैक्रियिकशरीरबन्धन -१... एवं सेससरीरबंध- (धव. पु. ७, पृ. २६६)। ३. मूलशरीरमपरित्यणाणं पि प्रत्थो वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण ज्य किमपि विकर्तुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति वेउब्वियसरीर-परमाण अण्णोण्णेण बंधमागच्छन्ति विक्रियासमुद्घातः । (ब. द्रव्यसं. टी. १०)। तं वेगुब्वियसरीरबंधणं णाम)। (धव. पु. ६, पृ. १ एकत्व व प्थकत्वरूप अनेक प्रकार की वैक्रियिक ७०)। २. यदुदयाद् वैक्रियपुद्गलानां गृहीतानां शरीर, वाक्प्रकार और प्रहरण मावि विक्रियारूप गह्यमाणाणां च परस्परं तेजस-कार्माणपुद्गलैश्च प्रयोजन के सिद्ध करने वाले समधात को-प्रात्मसह सम्बन्धस्तद्वैक्रियबन्धनम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. प्रदेशों के शरीर से बाहिर निकलने को-वैक्रियिक २६३, पृ. ४७०)।
समदघात कहते हैं। २ वैक्रियिक शरीर के उदय १ जिसके उदय से वैक्रियिक शरीर के परमाणु बाले देवों व नारकियों के स्वाभाविक प्राकार को परस्पर में बन्ध को प्राप्त होते हैं उसका नाम छोड़कर भिन्न प्राकार में अवस्थित होने को वैकि. वैक्रियिक शरीरबन्धन नामकर्म है। २ जिसके पिकसमुद्घात कहा जाता है। उदय से गृहीत और गृह्यमाण वैक्रियिक पुद्गलों का वैविक-देखो वैक्रिय । परस्पर में तथा तेजस और कार्माण पद्गलों के साथ वैदिकभावश्रुतग्रन्थ-द्वादशांगादिबोधो वैदिकभी सम्बन्ध होता है उसे वैक्रियिकबन्धन कहते हैं। भावश्रुतग्रन्थः । (घव. पु. ६, पृ. ३२२) । वक्रियिकशरीरसंघात-एवं सेससरीरसंधादा- बारह अंग आदि के बोध को वैदिकभावश्रुतग्रन्थ णं पि अत्थो वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण वेउ- (कृति) कहा जाता है। बियसरीरक्खंधाणं सरीरभावमुवगयाणं बंधणणाम- वैदिकमूढ-ऋग्वेद-सामवेदा वागणुवादादिवेदसकम्मोदएण एकबंधबद्धाणमट्ठत्तं होदि तं वे उब्विय- त्थाई। तुच्छाणि ताणि गेण्हइ वेदियमूढो हवदि सरीरसंघादं णाम)। (धव. प. ६, पृ. ७०)। जिस कर्म के उदय से वैक्रियिक शरीर स्वरूप को ऋग्वेद, सामवेद, वाक (ऋग्वेद प्रतिबद्ध प्रायश्चित प्राप्त हुए तथा बन्धन नामकर्म के उदय से एक प्रादि) और अनुवाद (मनुस्मृति) प्रादि तुच्छ बन्धन में बद्ध हुए वैक्रियिक शरीररूप स्कन्धों में शास्त्रों को जो ग्रहण करता है वह वैदिकमढ होता मुष्टता (एकरूपता) होती है उसे वैक्रियिक शरीर- है। संघात नामकर्म कहते हैं।
वैदेहिक-गृहपति-वैदेहिको ग्रामकूट-श्रेष्ठिनौ । वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग-एवं सेसदोसरीरअंगो- (नीतिवा. १४-११, पृ. १७३)। वंगाणं पि अत्थो वत्तव्यो (जस्स कम्मस्स उदएण राजश्रेष्ठी को वैदेहिक कहा जाता है। यह राजा के वेउब्वियसरीरस्स अंगोवंग-पञ्चंगाणि उप्पज्जति सवसर्पवर्ग के अन्तर्गत है। तं वेउव्वियसरीरअंगोवंग णाम)। (धव. पु. ६, वैधर्म्य-वैधयं च साध्याभावाधिकरणवृत्तित्वेन पु. ७३)।
निश्चितत्वम् । (सप्तभं. पृ. ५३)। जिस कर्म के उदय से वैक्रियिक शरीर के अंग- साध्याभाव के अधिकरण में जिसके न रहने का उपांग और प्रत्यंग उत्पन्न होते हैं उसे वैक्रियिक- निश्चय हो, उसे बैधर्म्य कहा जाता है। शरीरांगोपांग नामकर्म कहते हैं।
बनयिकमिथ्यात्व-१. सर्वदेवतानां सर्वसमयानां वैक्रियिकसमदघात-१. एकत्व-पृथक्त्व-नानावि- च समदर्शनं वनयिकम् । (स. सि. ८-१त. वा. विक्रियशरीरवाक्प्रचार-प्रहरणादिविक्रियाप्रयोजनो ८, १, २८)। २. विनयेन चरन्ति विनयो वा वैक्रियिकसमरातः । (त. वा. १, २०, १२, पृ. प्रयोजनं येषामिति वैनयिकाः। एते चानबधतलि७७) । २. वेउब्वियसमुग्धादो णाम देव-णेरइयाणं नाऽऽचारशास्त्रा विनयप्रतिपत्तिलक्षणा: xxxi वेउब्वियसरीरोदइल्लाणं साभावियमागारं छड्डिय (नन्दी. हरि. वृ. पृ. १०१)। ३. विनयेन चरन्तीति
बनायक
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वैनयिकमिथ्यात्व] १०३०, जैन-लक्षणावली
[वैनयिकवादी वैनयिकाः वसिष्ठ-परासर-वाल्मीकि-व्यासेलापुत्र- विनय से प्राचरण करते हैं वे वनयिक समझे सत्यदत्तप्रभृतयः । एते चानवधृतलिङ्गाऽऽचारशास्त्रा जाते हैं। विनय प्रतिपत्तिलक्षणा वेदितव्याः । (षड्द. सं. १, वैनपिकमिथ्यादर्शन-देखो वनयिकमिथ्यात्व । ५. १६)। ४. अइहिय-पारत्तिय सुहाई सव्वाई पि वैनयिकमिथ्यादष्टि-देखो वनयिकमिथ्यात्व । विणयादो चेव, ण णाण-दसण-तवोववासकिलेसेहिंतो वैनयिकवाद -१. एते चानवधृतलिङ्गाचारशात्ति अहिणिवेसो वेणइयमिच्छत्तं । (धव. पु. ८, स्त्रा विनयप्रनिपत्तिलक्षणा अमनोपायेन द्वात्रिंशदवप. २०) । ५. विनयादेव मोक्ष इत्येवं गोशालक. गन्तव्याः-सुर-नृपति-ज्ञाति- यति-स्थविराधम-मातृ. मतानुसारिणो विनयेन चरन्तीति वैनायिका व्यव- पितृणां प्रत्येक कायेन वाचा मनसा दानेन च देशस्थिताः । (सूत्रकृ. शी. वृ. १, ६, २७, पृ. १५१, कालोपपन्नेन विनयः कार्यः इत्येते चत्वारो भेदाः ५२) । ६. सर्वेषामपि देवानां समयानां तथैव च। सुरादिष्वष्टसु स्थानेषु, एकत्र मेलिता द्वात्रिंशदिति । यत्र स्यात्समदर्शित्वं ज्ञेयं वैनयिकं हि तत् ॥ (त. (नन्दी. हरि. व.पृ. १०२) । २. देव-नपति-ज्ञानिसा. ५-८)। ७. वेणइयमिच्छट्ठिी हवइ फुडं यति-वृद्ध-बाल-मातृ-पितृष्वष्टसु मनोवचन-काय-दानतावसो हु अण्णाणी। णिग्गुणजणम्मि विणो पउंज- विनयश्चत्वारः कर्तव्याश्चेति द्वात्रिंशद्वनयिकवादाः माणो हु गयविवेप्रो॥ विणयादो इह मोक्खं किज्जइ स्युः । (गो. क. जी. प्र. ८८८)। पूण तेण गद्दहाईणं । अमुणियगुणागुणेण य विणयं विनय को स्वीकार करने वाले वैनयिकमिथ्यामिच्छत्त-ण डियेण ।। जक्खय-णायाईणं दुग्गा-खंधाइ- वृष्टि बत्तीस हैं, जो इस प्रकार से जाने जा सकते अण्णदेवाणं । जो णवइ धम्महेउं जो वि य हेउं च है-सुर, राजा, ज्ञाति, यति, स्थविर (ढ), सो मिच्छो।। (भावसं. दे.७३-७५)। ८. सर्वेषु देव- प्रथम, माता और पिता; इनमें से प्रत्येक का वेशव धर्मेष साम्यं वैनयिक मतम् ॥ (पंचसं. अमित. ४.२५, काल की उपपत्ति के साथ काय, वचन, मन और प. ८४)। ६. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनिरपेक्षगुरु- दान इन चार के द्वारा विनय करना चाहिए। इन पादपूजादिलक्षणविनयेनैव भवत्येव स्वर्गापवर्गप्राप्ति- चार भेदों को उपर्युक्त सुरादि पाठ भेदों में मिलाने रिति श्रद्धानं विनय मिथ्यात्वं । (गो. जी. म. प्र. पर सब बत्तीस (८४४ =३२) होते हैं। २ देव, १५)। १०. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनिरपेक्षतया राजा, ज्ञानी, यति वृद्ध, बालक, माता और पिता गुरुपादपूजादिरूपविनयेनैव मुक्तिरेतच्छद्धानं वैनयि- इन पाठ के विषय में मन, वचन, काय और दान कमिथ्यात्वम् । (गो. जी. जी. प्र. १५) । ११. सर्वे इन चार से विनय करना चाहिए। इस प्रकार इस देवाः सर्वसमयाश्च समानतया दृष्टव्या वन्दनीया चार प्रकार के विनय का सम्बन्ध उक्त देवादि में एव, न च निन्दनीया इत्येवं सर्वविनयप्रकाशकं वैन- से प्रत्येक के साथ होने से वनयिकवादी बत्तीस हो यिकमिथ्यादर्शनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-१)। जाते हैं । १ समस्त देवों और सब शास्त्रों को समान रूप में वैनयिकवादी-१. विणइत्ता वेणइयवादी। (सत्रदेखना -उनकी यथार्थता और अयथार्थता का कृ. नि. ११८)। २. विनयेन चरन्ति तत्प्रयोजना विवेक न रखना, यह वनयिकमिथ्यात्व का लक्षण वा वैनयिकाः। Xxx वैनयिकाः विनयादेव है। २ लिंग और प्राचारशास्त्र के अवधारण से केवलात् स्वर्ग-मोक्षावाप्तिमभिलषन्तो मिथ्यादृष्टयः, रहित जो विनय के प्राशय से प्राचरण करते हैं अथवा यतो न ज्ञान-क्रियाभ्यामन्तरे मोक्षवाप्तिरिति । जिनका प्रयोजन एक मात्र विनय ही होता है वे (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. ११८, पृ. २१२) । ३. विनवैनयिकमिथ्यादष्टि माने गये हैं। ४ इहलोक और येन चरन्ति स वा प्रयोजनं एषामिति वैनयिकाः। ते परलोक सम्बन्धी सभी सुख विनय से ही प्राप्त होते च ते वादिनश्चेति वैनयिकवादिनः । विनय एव वा हैं; न कि ज्ञान, दर्शन, तप और उपवास के क्लेश वैनयिकम्, तदेव ये स्वर्गादिहेतुतया वदन्त्येवं शीलाश्च से इस प्रकार के अभिप्राय को वैनियिकमिथ्यात्व कहा ते वनयिकवादिनः, विधुतलिङ्गाचारशास्त्रा विनयजाता है । ५ विनय से ही मोक्ष होता है, इस प्रकार प्रतिपत्तिलक्षणाः । (भगवती. अभय. वृ. ३०-१; गोशालक के मत का अनुसरण करने वाले जो स्थानां. अभय. वृ. ३४५)। ४. येऽपि च विनय
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वनयिकश्रुत] १०३१, जैन-लक्षणावली
[वैयावृत्त्य तप वादिनो विनयप्रतिपत्तिलक्षणास्तेऽपि मोहान्मुक्तिपथ- १ विनय से जो बारह अंगस्वरूप श्रुत के योग्य बुद्धि परिभ्रष्टाः वेदितव्याः । तथाहि-विनयो नाम उत्पन्न होती है उसे वनयिको प्रज्ञा कहते हैं। मुक्त्यङ्ग यो मक्तिपथानुकूलो म शेषाः। (नन्दी. सू. ३ विनयपूर्वक बारह अंगों के पढ़ने वाले के जो मलय. व ४६, पृ. २२७)।
बुद्धि उत्पन्न होती है उसका नाम वैनयिकी प्रज्ञा १जो विनयशीलता को ही स्वर्ग मोक्ष का कारण है। प्रथवा जो बडि पर के उपदेश से उत्पन्न होती मानते हैं वे वनयिकवारी कहलाते हैं। २ विनय से है उसे वैनयिकी प्रज्ञा जानना चाहिए। ६ विनय जो प्राचरण करते हैं अथवा विनय को ही प्रयोज- से अभिप्राय गुरु की शुश्रूषा (सेवा) का है, वह नीभूत मानते हैं वे वैनयिकवादी कहलाते हैं। ये जिसको कारण है अथवा उसकी प्रधानता से जो बनयिकवादी केवल विनय से हो स्वर्ग-मोक्ष की बुद्धि उत्पन्न होती है उसे वनयिको बुद्धि कहा प्राप्ति की इच्छा करते हैं, परन्तु ज्ञान और प्राचरण जाता है। के विना वह सम्भव नहीं है। इसी से वे मिथ्या- वनयिकी बुद्धि- देखो वनयिकी प्रज्ञा । दृष्टि माने गये हैं।
वैभाविकभाव-तद्गुणाकारसंक्रान्तिर्भावो वैभावैनयिकश्रुत --१. वेणइयं भरहेरावद-विदेहसाहूणं विकश्चितः । तन्निमित्तं च तत्कर्म तथा सामर्थ्यदम्व-खेत्त-काल-भावे पडुच्च णाण-दसण-चारित्त- कारणम् ॥ (पंचाध्या. २-१०५)। तवोवचारियविणयं वण्णेदि। (षव. पु. ६, प. जीव के अपने गुणों के प्राकार में जो संक्रमण१८९)। २. पंचण्हं विणयाणं लक्खणं विहाणं फलं परिवर्तन या विकार होता है उसे वैभाविकभाव च वइणयियं परूवेदि। जयष. १, पृ. ११८)। कहा जाता है। ३. ज्ञान-दर्शन-तपश्चारित्रोपचारलक्षणपंचविधविनय- वैमानिक-१. विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनो माना प्ररूपकं वैनयिकम् । (श्रुतभ. टी. २४, पृ. १७९)। यन्तीति विमानानि, विमानेषु भवा वैमानिकाः । ४. चतुर्विधविनयप्रकाशकं वैनयिकम् । (त. वृत्ति (स. सि. ४-१६; त. वा. ४, १६, १)। २. स्वास्तु श्रुत. १-२०)।
कृतिनो विशेषेण मानयन्तीति विमानानि, तेषु भवा १ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जिसमें वैमानिकाः । वैमानिकनामकर्मोदये सति वैमानिकाः। भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्रगत साघुमों के ज्ञान, (त. श्लो. ४-१६)। ३. विशेषेण प्रात्मस्थान दर्शन, चारित्र, तप और प्रौपचारिक विनय का वर्णन पुण्यवतो जीवान मानयन्ति यानि तानि विमानानि, किया जाता है उसे वैनयिक अंगबाह्यश्रुत कहा विमानेषु भवाः ये ते वैमानिकाः । (त. वृत्ति श्रुत. जाता है।
४-१६)। वैनयिकी प्रज्ञा-१. वइणइकी विणएणं उप्पज्जदि १ जिनमें रहते हुए जीव अपने को विशेष रूप से बारसंगसुदजोग्ग। (ति. प. ४-१०२१) । २. भर- पुण्यशाली मानते हैं वे विमान और उनमें रहने नित्थरणसमत्था तिवग्गसूत्तत्थगहियपेयाला। उभ- वाले देव वैमानिक कहलाते हैं। पोलोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी। (उपदे. वैयावृत्त्य तप-१. गच्छे वेज्जावच्चं गिलाण-गुरुप. ४३) । ३. विणएण दुवालसंगाई पढंतस्सुप्पण्ण- बाल-बुड्ढ-सेहाणं । जहजोगं कादव्वं सगसत्तीए पयपण्णा वेणइया णाम, परोवदेसेण जादपण्णा वा। तेण ॥ (मूला. ४-५३, पृ. १४६); पाइरियादिसु (धव. पु. ६, पृ. ८२)। ४. विनयेन द्वादशांगानि पंचसु सबाल-बुड्ढाउलेसु गच्छेसु । वेज्जावच्चं वृत्तं पठतः समुत्पन्ना वैनयिकी। (चा. सा. पृ. ९७)। कादम्वं सव्वसत्तीए । गुणाधिए उबज्झाए तवस्सि ५. प्रागमा लिगिनो देवा धर्माः सर्वे सदा समाः। सिस्से य दुव्वले । साहुगणे कुले संघे समणुण्णे य इत्येषा कथ्यते बुद्धिः पुंसो वनयिकी जिनः ॥ चापदि ॥ (मूला. ५, १९२-१९३); सेज्जोग्गास(अमित. धा. २-८)। ६. विनयो गुरुशुश्रूषा, स णिसेज्जो तहोवहि-पडिलेहणाहि उवग्गहिदे । आहाच कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वनयिको। (उपदे. रोसह-वायण-विकिंचणंवंदणादीहिं ॥ (भ. प्रा.
.३८) । ७. विनयो गृहशश्रषा, स कारण 'चणवत्तणादीसू') अद्धाणतेण-सावद-राय-णदीरोमस्या वनयिकी । (पाव, नि. मलय. यू. ९३८)। धणासिवे ओमे । वेज्जावच्चं वृत्तं संगह-सारक्खणो
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वैयावृत्त्य तप] १०३२, जैन-लक्षणावलो
[वैयावत्त्य तप वेदं ॥ (मूला. ५, १६४-६५; भ. प्रा. ३०५-६)। १३. वैयावृत्त्यं कायिकव्यापाराहारादिभिरुपग्रह२. सत्तीर भत्तीए विज्जावच्चुज्जदा सहा होइ। णम् । (मूला. वृ. ४-५३) । १४. व्यापत्प्रतिक्रिया प्राणाए णिज्जरेत्ति य सवाल-उड्ढाउले गच्छे ॥ वयावृत्त्यं स्यात्सूरि-पाठके । तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लानेषु (भ.पा. ३०४) । ३. दानं यावृत्त्यं धर्माय तपो- गणे संघे कुले यतो॥ मनोज्ञे च तपस्व्येषु नानाधनाय गुणनिधये। अनपेक्षिनोपचारोपक्रियमगृहाय ऽनशनवर्तनः । (प्राचा. सा. ६, ८६-८७)। १५. विभवेन ॥ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च वैयावृत्त्यं भक्त-पानादिभिरुपष्टम्भ: । (प्रोपपा. गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि सयमि- अभय. वृ. २०, पृ ४३)। १६. वैयावृत्तं ब्यावृत्तो नाम् ।। (रत्नक. ४, २१-२२)। ४. कायचेष्टया व्यापारप्रवृत्तः । प्रवचनोदितक्रियानुष्ठानपरस्तस्य द्रव्यान्तरेण चोपासनं वैयावृत्त्वम् । (स. सि. ६, भावः कर्म वा वैयावृत्यम् । व्याधि-परीषह-मिथ्या२०)। ५. व्यावृत्तस्य भावः कर्म च वैयावृत्यम्। त्वाद्युपनिपाते तत्प्रतीकारो बाह्यद्रव्यासम्भवे स्वकायचेष्टया द्रव्यान्तरेण वा व्यावृत्तस्य भावः कर्म कायेन तदानुकूल्यानुष्ठानं च । (योगशा. स्वो. विव. वा वैय्यावृत्त्यमित्युच्यते । (त. वा. ६, २४, २)। ४-६०)। १७. वैयावृत्यं भक्त पानादिमोपष्टम्भ६. व्यापदि यत् क्रियते तद् वैयावृत्त्यम् । (धव. पु. लक्षणं भोगफलं चक्रवतिभोगफलं च xxx। १३, पृ. ६३) । ७. व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैया- (प्राव. नि. मलय. वृ. १७४) । १८. अनवद्येन वृत्त्यम् । xxx प्राचार्यप्रभृतीनां यदशानां विधिना गुणवतां दुःखापनयनं वैयावृत्त्यमुच्यते।' विनिवेदितम् । वैयावृत्यं भवेदेतदन्वर्थप्रतिपत्तये ॥ xxx व्यावृत्तेर्भावो वयावृत्त्यम् । (त. वृत्ति (त. श्लो. ६, २४, १)। ८. चारित्रस्य कारणानु- श्रुत. ६-२४); शरीरप्रवृत्त्या यात्रादिगमनेन वा मननं वैयावृत्त्यम् । (भ. प्रा. विजयो. ६)। ६.. द्रव्यान्तरेण वा यो ग्लानो मुनिस्तस्य पादमर्दनादिभिसूर्युपाध्याय-साधूनां शैक्षग्लान तपस्विनाम् । कुल- राराधनं वैयावृत्यमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२०)।
१६. गुणवतां दु:खोपनिपाते निरवद्यवृत्त्या तदपनयनिपातेऽपि तेषां सम्यग्विधीयते । स्वशक्त्या यत्प्रती. नम् वैयावृत्यम् । (भावप्रा. टी. ७७)। २०. तपोकारो वैयावृत्त्यं तदुच्यते ॥ (त. सा. ७, २७-२८)। धनानां देवाद्वा ग्लानित्वं समुपेयुषाम् । यथाशक्ति १०. कायपीडादुष्परिणामव्युदासार्थ कायचेष्टया प्रतीकारो वैयाबृत्यः (?) स उच्यते ॥ (लाटीसं. द्रव्यान्तरेणोपदेशेन च व्यावत्तस्य यत्कर्म तया- ७-८४)। वृत्त्यम् । xxx प्राचार्यादीनां व्याधि-परीषह- १ गच्छ --चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ में, ग्लान --व्याधि मिथ्यात्वाधुपनिपाते सत्यप्रत्युपकाराशया प्रासूकोषध- . प्रादि से पीड़ित, गरु (शिक्षा-दीक्षा देने वाला), भुक्ति-पानाऽऽश्रयपीठफलक-सस्तरादिभिर्धर्मोपकरण. बाल (नवदीक्षित अधवा पूर्वापर विवेक से रहित), स्तत्प्रतीकारः सम् क्त्वप्रत्यवस्थापनमित्येवमादि- वद्ध (प्राय से वद्ध अथवा दीक्षा प्रादि से अधिक) वैयावत्यम् । बाह्यस्यौषध-भक्तिपानादेरसंभवे स्व- और शैक्ष (अध्ययन में निरत); इनकी यथायोग्य कायेन श्लेष्म-सिंघाणकान्तमलाद्यपकर्षणादि तदानु- , अपनी शक्ति के अनुसार जो सेवा-सुश्रूषा की जाती कूल्यानुष्ठानं च वैयावृत्यमिति कथ्यते । तत्पुनः है उसे वैयावृत्त्य कहते हैं। यहां वैयावृत्त्य की किमर्थम् ? समाध्याध्यानं विचिकित्साऽभावः प्रवच- प्रेरणा नवागत साधु को लक्ष्य करके की गई है। नवात्सल्यं सनाथता चेत्येवमाद्यर्थम् । (चा. सा. पृ. . गुणों में अधिक, उपाध्याय (पाठक), दुष्कर तप६६-६७) । ११. जो उवयरदि जदीणं उवसग्ग- श्चरण करने वाले तपस्वी, शिष्य, दुर्बल, साधुगणजराइखीणकायाणं । पूयादिसु णिरवेक्खं वैज्जावच्चं ऋषि, यति, मुनि व अनगार; कुल, संघ (चातुर्वर्ण्य तवो तस्स ॥ जो वावरइ सरूवे सम-दमभावम्मि श्रमणसमूह), मनोज्ञ (निरुपद्रव) और आपत्ति के सुद्धउवजुत्तो। लोय-ववहारविरदो वेयावच्च परं समय; इन सबको शय्या, अवकाश (वसति), तस्स ॥ (कातिके. ४५६-६०)। १२. प्राधि-, आसन, उपधि (कमण्डलु मादि) और प्रतिलेखन : व्याधिनिरुद्धस्य निरवद्येन कर्मणा। सौचित्यकरणं । (पोछी) के द्वारा अनुगृहीत करके प्राहार, पौषध, . प्रोक्तं वैयावृत्यं विमुक्तये ॥ (उपासका. २१४)। वाचना (शास्त्र व्याख्यान), मल प्रादि को दूर
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वैयावृत्त्य] १०३३, जैन-लक्षणावली
विरात्रिक करने अथवा वन्दना प्रादि से जो उपकार किया दुःखे सन्निहते निरवद्येन विधिना तदपहरणं बहुप्रकारं जाता है इस सबको वैयावृत्य कहा जाता है। इसके वैयावृत्त्यमिति व्याख्यायते । (त. वा. ६, २४,६) ३. अतिरिक्त मार्गश्रम से श्रान्त, चोर प्रादि से उपद्रुत, गुणन त्साधुजनानां क्षुधा-तृषा-व्याधिजनितदुःखस्य । हिंस्र पशुओं से पीड़ित, राजा के द्वारा बाधित, नदी व्यपहरणे व्यापारो वैय्यावृत्त्यं वसुद्रव्यैः ।। (ह. पु. से अवरुद्ध तथा रोग अथवा भिक्ष प्रादि से पीड़ित ३४-१४०) । ४ गुणिदुःनिपले नु निर माद्यविधाऐसे अभ्यागत साधुओं को ग्रहण कर उनका सरक्षण नतः । तस्यापहरणं प्रोक्त वैया वृत्तवानिन्दितम् । करना, यह भी यावत्य का लक्षण है। यह प्रस्य. (त. श्लो.६,२४, ११)। ५. गुणवतः साधूजनस्य न्तर तप के अन्तर्गत है। ३ गृहद्वाःो छोड़ देने संनिहिते दुःखे निरवधन विधिना तदपहरणं बहुवाले गणी तपस्वी का जो सत्यपकार की अपेक्षा प्रकारं वैयावत्यमिति । (चा. सा. प. २६) । न करके उपकार किया जाता है तथा गणानराग के १ गणवान मनि आदि के ऊपर दुःख के प्रा पड़ने वश जो उनकी प्रापत्तियों को दूर किया जाता है पर निर्दोष उपाय के द्वारा उसे दूर करना, इसे एवं पादमर्दन तथा अन्य जो कुछ भी उपकार यावृत्त्य कहते हैं। इसका निरन्तर विचार रहना, किया जाता है; इस सबको वैयावृत्त्य कहते हैं । यह यह वैयावृत्त्यभावना है। श्रावक के चार शिक्षाव्रतों में अन्तिम है। १६ जो वयावृत्त्ययोग-व्यापृते यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम् । प्रागमोक्त क्रियाओं के अनुष्ठान में तत्पर रहता है जेण सम्मत्त-णाण-अरहंत-बहुसुदभत्ति-पवयणवच्छउसे व्यावृत्त कहा जाता है, इस व्यावृत्त का जो ल्लादिणा जीवो जुज्जइ वेज्जावच्चे सो वेज्जावच्चभाव अथवा कर्म है उसका नाम वैयावृत्त्य है। जोगो दंसणविसुज्झदादि । (धव. पु. ८, पृ. ८८) । व्याधि, परीषह और मिथ्यात्व प्रादि से ग्रसित होने जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, प्ररहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति पर उसका प्रतीकार करना तथा बाह्य द्रव्य के प्रभाव और प्रवचनवात्सल्य प्रादि के द्वारा जीव अपने को में अपने शरीर से ही उनके अनकल पाचरण वैयावृत्त्य में योजित करता है उसका नाम वैयावृत्त्यकरना, यह भी वयावृत्त्य का लक्षण है।
योग है। यह तीर्थकर प्रकृति के बन्धक कारणों के वैयावृत्त्य करविवेक-वैयावृत्त्य कराः स्वशिष्या. अन्तर्गत है। दयो ये ये तेषां कायेन विवेकः तैः सहासंवासः, मा वैराग्य - १. तस्य (विरागस्य) भावो वैराग्यम् । कृथा वैयावृत्त्यम् इति वचनम्, मया त्यक्ता यूय मिति (त. श्लो. ६-१२)। २. वैराग्यम् -शरीरादी वचनम् । (भ प्रा. विजयो. १६६)।
परस्मिन्निष्टवस्तुनि प्रीतिरूपो रागः, विनष्टो रागो वैयावृत्त्य करने वाले जो जो अपने शिष्य प्रादि हैं यस्यासौ विरागः, विरागस्य भावो वैराग्यं संसारउनके साथ न रहना तथा वचन से यह कहना कि शरीर-भोगेषु निर्वेदलक्षणम् । (प्रारा. सा. टी. मेरी वैयावृत्त्य मत करो, मैंने तुम सबका परि- १८)। ३. भवांग-भोगविरतिर्वैराग्यम् । (कातिके. त्याग कर दिया है। यह काशः काय से व वचन से टी.१०२) । वैयावृत्त्यकरविवेक है।
२ शरीरादि पर वस्तुओं में जो प्रीति होती है वैयावृत्त्यकारिशुद्धि ---संयतवयावृत्त्यक्रमज्ञता वैया- उसका नाम राग है, ऐसे राग से रहित हुए जीव वृत्त्यकारिशुद्धिः। (भ. प्रा. विजयो. १६६)। को विराग या विरागी कहा जाता है। विरागी की संपतों की वैद्यावृत्ति के क्रम को जानना, यह वैया- अवस्था का नाम ही वैराग्य है। वृत्त्यकारिशद्धि कहलाती है। यह शय्या-संस्तर मादि वैरात्रिक-विगता रात्रियस्मिन् काले स विरात्री पांच प्रकार की शुद्धि में अन्तिम है।
रात्रः पश्चिमभागः, द्विघटिकासहितार्धरात्रादूर्ध्ववैयावृत्त्यभावना-१. गुणवदुःखोपनिपाते निर- कालः, विरात्रिरेव वैरात्रिकः । (मूला. वृ. ५-७३)। वद्येन विधिना तदपहरणं वैयावृत्त्वम् । (स. सि. जिस काल में रात्रि समाप्त होने को होती है ऐसे ६-३४) । २. गुणवदुःखोपनिपाते निरवद्येन रात्रि के पिछले भाग का नाम विरात्रि है। अभिविधिना तदपहरणं वैयावृत्त्यम् । गुणवतः साधुजनस्य प्राय यह है कि प्राधी रात के पश्चात दो घटिकानों
ल, १३०
तुम सबका पर
कर दिया है।
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वैशद्य]
१०३४, जैन-लक्षणावली [व्यक्ताव्यक्तेश्वरनिषिद्ध के बीतने पर जो शेष काल रहता है उसे विरात्रि स्फुटम् ।। (प्राप्तस्व. ४३) । कहा जाता है। वैरात्रिक यह विरात्रि का समा- प्रात्मज्योतियों के पंजस्वरूप जिन अरहन्त ने ध्याननार्थक शब्द है।
रूप अग्नि के द्वारा जन्म, मृत्यु और जरा को वैशद्य-१. अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम्। भस्मसात् कर दिया है उन्हें वैश्वानर (अग्नि) के तद्वेशद्य मतं बुद्धेः xxx ॥ (लघीय. ४)। नाम से कहा गया है। २. प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभा- वनसिक बन्ध-१. पुरुषप्रयोगानपेक्षो वस्रसिकः । सनं वैशद्यम् । (परीक्षा. २-४) । ३. सविशेषवर्ण- (स. सि. ५-२४)। २. विरसा विधिविपर्यये संस्थानादिग्रहणं वैशद्यम् । (प्रमेयर. २-४)। निपातः । पौरुषेयपरिणामापेक्षो विधिः, तद्विपर्यये ४. वैशा बुद्धेः ज्ञानस्य, यद्विशेषस्य वर्ण संस्थाना- विस्रसा-शब्दो निपातो द्रष्टव्यः, विनसा प्रयोजनो द्याकारस्थ प्रतिभासनमवबोधनम्, विशेषेण वा वससिको बन्धः । (त. वा. ५, २४, ८)। ३. वैप्रतीत्यन्तराव्यवधानेन प्रतिभासनम् । (लघीय. श्रसिको बन्धः स्वाभाविको बन्धः स्निग्ध-रूक्षत्वप्रभय. वृ. ४)।
गुणप्रत्ययः शक्रचाप-मेघोल्का-तडिदादिविषयः । १ अनुमान प्रादि की अपेक्षा जो अधिक प्रतिभास (त. वृत्ति ५-२४) । होता है, इसे ज्ञान का वैशद्य कहा जाता है। २ अन्य १ पुरुष के प्रयोग की अपेक्षा से रहित जो पूदगलों किसी प्रतीति के व्यवधान से रहित जो प्रतिभास में परस्पर बन्ध हमा करता है उसे वरसिक बन्ध होता है उसे अथवा विशेषता से यक्त जो प्रतिभास कहा जाता है। जैसे---इन्द्रधनष व मेघों प्रादि का। होता है उसे वैशद्य कहते हैं।
वैस्र सिक शब्द-वैससिको बलाहकादिप्रभवः । वैश्य-१. वाणिज्ज-करिसणाइंगोरक्खणपालणेसु (स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ४) । उज्जुत्ता। ते होन्ति वइसनामा वाबारपरायणा मेघ प्रादि से उत्पन्न होने वाले शब्द को पुरुषप्रयोग धीरा । (पउमच. ३-११६) । २. xxx वैश्या की अपेक्षा न रखने के कारण बैनसिक कहा जाता वाणिज्ययोगतः । (ह. पु. ६-३६) । ३. वैश्याश्च है। कृषि-वाणिज्य-पाशुपाल्योपजीविताः ।। (म. पु. १६, वैशाखस्थान-१. यत्पुनः पार्णी अभ्यन्तराभि१८४); ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्रामस्रक्षीद्वणिज: मखे कृत्त्वा समश्रेण्या करोति अग्रिमतले च बहिप्रभः। जल-स्थलादियात्राभिस्तवत्तिर्वार्तया यतः।। मखे, ततो युध्यते तत् वैशाखं स्थानम् । (व्यव. भा. (म. पु. १६-२४४); वणिजोऽर्थार्जनान्न्यायात् । मलय. व. ३५, पृ. १३) । २. वइसाहं पण्हीतो XXX ॥ (म. पु. ३८-४६)। ४. मषिः अभि उरळंतीमो समसेढीए करेइ, अग्गिमतला कृषिश्च वाणिज्यकर्मत्रितयवेतनाः। वैश्याः केचि- बाहिरहत्ता। (प्राव. नि. मलय. व. १०३६, पृ. न्मताश्चान्यः पशुपालनतोऽपि च । (धर्मसं. श्रा. ६, ५६७) । २३०)।
१दोनों एड़ियों को अभ्यन्तराभिमुख करके समान १ जो वाणिज्य, कृषिकर्म (खेती) और गोरक्षण व पंक्ति में करे तथा प्रागे के दोनों तलभागों को पालन में उद्यमी रहते हैं वे वैश्य कहलाते हैं। बाहिर की भोर करे, ऐसा करने पर वैशाखस्थान २ वाणिज्य (व्यापार) कार्य के सम्बन्ध से वैश्य होता है यह पांच प्रासनभेदों में तीसरा है । माने गए हैं। ३ कृषि, व्यापार और पशपालन के व्यक्त गेय-अक्षर-स्वरस्फुटकरणतो व्यक्तम् । द्वारा जो प्राजीविका करते हैं वे वैश्य कहलाते हैं। (रायप. मलय. व. पृ. १६२) । भगवान आदिनाथ ने दोनों जंघानों से यात्रा को जिस गेय (गीत) में अक्षर व स्वर स्पष्ट रहते हैं दिखलाते हुए वैश्यों को स्थापित किया था जो जल उसे व्यक्त कहा जाता है। यह गेय के पूर्ण व रक्त व स्थल आदि में यात्रा करके व्यापार के द्वारा आदि पाठ गुणों में चौथा है। माजीविका करते हैं।
व्यक्ताव्यक्तेश्वरनिषिद्ध-निषिद्धमीश्वरं भावैश्वानर-जन्म-मृत्यू-जरारोगाः प्रदग्धा ध्यान- व्यक्ताव्यक्तोभयात्मना । (अन. ध. ५-१५); वह्निना। यस्यात्मज्योतिषां राशेः सोऽस्तु वैश्वानरः यदैकेन दानपतिना व्यक्तेन द्वितीयेन चाव्यक्तेन च
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व्यक्तेश्वरनिषिद्ध]
१०३५, जैन-लक्षणावली
[व्यञ्जपर्याय
वारितं गाति तदा व्यक्ताव्य वतेश्वरो नाम तृतीय द्वारा जो पदार्थ प्राप्त किया जाता है उसे व्यञ्जन ईश्वराख्यनिषिद्धभेदस्य भेदः स्यात् । (प्रन. घ. स्थो. कहा जाता है । इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ के प्राप्त टी. ५-१५)।
होने पर भी जब तक वह अभिव्यक्त नहीं हो जाता व्यक्त का अर्थ प्रेक्षापूर्वकारी है । व्यक्त ईश्वर तब तक व्यञ्जनावग्रह ही होता है, अर्थावग्रह प्रादि (दाता) और अव्यक्त ईश्वर दोनों के द्वारा रोके नहीं होते। गये प्राहार के ग्रहण करने पर व्यक्ताव्यक्तेश्वर- व्यञ्जननय--१. व्यञ्जनभेदेन वस्तुभेदाध्यवसानिषिद्ध नाम का उत्पादनदोष होता है।
यिनो व्यञ्जननयाः। (धव. पु. १, पृ. ८६) । व्यक्तेश्वरनिषिद्ध-व्यक्तेश्वरेण वारितं दानं २. ऋजुसूत्रवचनविच्छेदोपलक्षितस्य वस्तुनः वाचकयदा साधुदृह्णाति तदा व्यक्तेश्वरो नाम दोषः । भेदेन भेदको व्यञ्जननयः । (जयध १, पृ. २२३)। (मन. ध. स्वो. टी. ५-१५)।
१ शब्द के भेद से जो वस्तु भेद को ग्रहण किया व्यक्त ईश्वर के द्वारा रोके गए पाहार के ग्रहण करते हैं उन्हें व्यञ्जननय कहा जाता है। करने पर व्यक्तेश्वरनिषिद्ध नाम का उत्पादनदोष ब्यञ्जननिमित्त-१. सिर-मुह-कंबप्पहादिसु तिलहोता है।
मसयप्पहुदिप्राइ दट्टणं । जं तियकालसुहाइ व्य जन--१. व्यञ्जनं शब्दप्रकाशनम् । (भ. प्रा. जाणइ तं वेंजणणिमित्त । (ति. प. ४-१००६)। विजयो. ११३) । २. व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव धट २. शिरोमखग्रीवादिषु तिलक-मशक-लक्ष्मब्रणादिइति व्यञ्जनम्, तच्चोपकरणे न्द्रियस्य शब्दादिपरि- वीक्षणेन त्रिकालहिताहितवेदनं व्यञ्जनम् । (त. णतद्रव्याणां च यः परस्परं सम्बन्धः, संक्तिरित्यर्थः। वा. ३, ३६, ३; चा. सा. पृ. ६४)। ३. तिलयासम्बन्धे हि सति सोऽर्थः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्यक्तं णग-मसादि दट्ठण तेसिमवगमो वजणं णाम महाशक्यते, नान्यथा। ततः सम्बन्धो व्यञ्जनम् । तथा णिमित्तं । (धव. पु. ६, पृ. ७२-७३) । ४. व्यंजन चाह भाष्यकृत् -वजिज्जइ जेणऽत्थो घडो व दीवेण मशकतिलकादिकम् XXXव्यञ्जनं दृष्ट्वा यच्छवंजणं तं च । उवगरणिदियसदाइपरिणयदव्वसंबंधो॥ भाशुभं ज्ञायते पुरुषस्य तद् व्यञ्जननिमित्तमित्यूxxx अथवा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेत्र घट च्यते । (मला. व. ६-३०)। ५. व्यञ्जनं मषादिइति व्यञ्जनम उपकरणेन्द्रियम् । (प्राव. नि. मलय. व्यञ्जनफलोपदर्शकम् । (समवा. अभय. व. २६) । व. ३, पृ. २३)। ३. तत्र इन्द्रियैः प्राप्तो विषयो १ शिर, मुख और कन्धा आदि मे तिल व मशा व्यञ्जनम् । xxx व्यञ्जनम् अव्यक्तं शब्दा- आदि को देखकर जो तीनों काल सम्बन्धी सखादि दिजातम् Xxx विगतमंजनम् अभिव्यक्तिर्यस्य को जान लिया जाता है उसे व्यञ्जननिमित्त तद् व्यञ्जनम् । व्यज्यते म्रक्ष्यते प्राप्यते इति कहते हैं। व्यञ्जनम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३०७)। व्य ञ्जनपर्याय - १. जो सो वंजणपज्जापो सो १ शब्द के प्रकाशन का नाम व्यञ्जन है। यह जहणुक्कस्सेहि अंतोमहुतासंखेज्जलोगमेत्तकालावज्ञानाचार के अन्तर्गत व्यञ्जन का अभिप्राय प्रकट द्वाणो प्रणाइ-अणंतो वा । (धव. पु. ६, प. २४३); किया गया है। २ जैसे दीपक के द्वारा घट प्रादि घड-पड-त्थभादिव जणपज्जाय xxx। (घव. पदार्थ अभिव्यक्त होते हैं वैसे ही उपकरण इन्द्रिय पु. १०, पृ. ११)। २. परमौदारिकशरीराकारेण पौर शब्दादिरूप से परिणत द्रव्य इन दोनों के यदात्मप्रदेशानामवस्थानं स व्यञ्जनपर्यायः । (प्रब. सम्बन्ध से वस्तु को अभिव्यक्ति होती है। इसी- सा. जय. वृ. १-८०)। ३. ब्यज्यते प्रकटीक्रियते लिए 'व्यज्यते अनेन अर्थः इति व्यञ्जनम्' इस अनेनेति व्यञ्जनपर्यायः। (नि. सा. व. १५) । निरुक्ति के अनुसार व्यञ्जन शब्द से इन्द्रिय और ४. स्थूल: कालान्तरस्थायी सामान्यज्ञानगोचरः । पदार्थ के सम्बन्ध को ग्रहण किया गया है। प्रथवा दृष्टिग्राह्यस्तु पर्यायो भवेद् व्यञ्जनसंज्ञकः ॥ (भावउक्त व्यञ्जन शब्द से चक्षु प्रादि उपकरण इन्द्रिय सं. वाम. ३७७) । को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इन इन्द्रियों के १ घट, पट और स्तम्भ प्रादि व्यञ्जनपर्याय के द्वारा ही पदार्थ प्रगट किये जाते हैं । ३ इन्द्रियों के अन्तर्गत हैं । २ परम प्रौदारिक शरीर के प्राकार
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व्यञ्जनशुद्धि २०३६, जैन-लक्षणावली
[व्यञ्जनावह से जो प्रात्मप्रदेशों का अवस्थान है उसे व्यञ्जन- समयेषु गृह्यमाणा न व्यक्तीभवन्ति, पुनः पुनरवग्रहे पर्याय कहा जाता है। यह प्रान्त्य अवस्था को लक्ष्य सति व्यक्तीभवन्ति, अतो व्यक्तग्रहणात्प्राग्व्यञ्जनामें रखकर कहा गया है। ४ जो पर्याय स्थूल, वग्रहः । (स. सि. १-१८)। २. व्यञ्जनमव्यक्तं कालान्तर में रहने वाली, सामान्यज्ञान की विषयभत शब्दादिजातम, तस्यावग्रहो भवति । (त. वा. १-१८);
और चक्षु से ग्रहण करने योग्य हो वह व्यञ्जनपर्याय अव्यक्तग्रहण व्यञ्जनावग्रहः । कथम् ? अभिनवकहलाती है।
शराववत् । यथा सूक्ष्मजलकणद्वि-त्रिसिक्तः शरावोव्यञ्जनशद्धि-१. तत्र व्यञ्जनशुद्धिर्नाम यथा ऽभिनवो नार्दीभवति, स एव पुनः पुनः सिच्यमानः गणधरादिभिः द्वात्रिंशद्दोषवजितानि सूत्राणि कृतानि शनै स्तिम्यति तथा प्रात्मनः शब्दादीनां व्यक्त ग्रहणात् तेषां तथैव पाठः । (भ. प्रा. विजयो. ११३)। प्राक् व्यञ्जनावग्रहः। (त. वा. १, १८, २) । २. व्यञ्जनशुद्धिर्यथोक्तसूत्रपठनम् । (भ. प्रा. मूला. ३. प्राप्तार्थ ग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः । (धव. पु. १, पृ. ११३)।
३५५; पु. ६, पृ. १५६; पु. १३, पृ. २२०); १ जिस प्रकार से घिरादिकों के द्वारा बत्तीस पत्तत्थगहणं बंजणावग्गहो । (धव. पु. ६. पृ.१६) । दोषों से रहित सत्रों की रचना की गई है उनका ४. अध्यक्तमत्र शब्दादिजातं व्यञ्जन मिष्यते । उसी प्रकार से जो पाठ किया जाता है, इसका तस्यावग्रह एवेति नियमः Xxx। (त. श्लो.. नाम व्यञ्जनशुद्धि है।
१, १८, २) । ५. फासित्ता जं गहणं रस-फरसणव्य ञ्जनसंक्रान्ति-१. एकं श्रुतवचनमुपादाय सद्द-गंधविसएहिं । बंजण बग्गहणाणं णिहिटठं तं वचनान्तरमालम्बते, तदपि विहायान्यदिति व्यञ्जन- बियाणाहिं ॥ (जं. दी. प. १३-६७)। ६. व्यजसंक्रान्तिः । (स. सि. ९-४४; त. वा. ६-४४)। नावग्रहश्चक्षुर्मनसोस्त्यिवग्रहः । विषयाक्षसन्निपा२. एवं [एक] श्रुतवचनमवलम्ब्य श्रुतवचनान्तरा- तानन्तराद्यग्रहः स्मृतः ॥ प्राप्ताप्राप्तार्थ बोधोऽवग्रहो लम्बनं व्यजनसंक्रान्तिः । (त. श्लो. ६-४४) । ३. व्यञ्जनार्थयोः। रस-रूप-परिज्ञाने रसना-नेत्रयोज्ञेया ध्यजनसंक्रान्ति व्यंजनाद् व्यञ्जने स्थितिः । यथा ।। (प्राचा. सा. ४, १०-११)। ७. व्यञ्जनेन (ज्ञाना. १६, पृ. ४३३)। ४. एक वचनं त्यक्त्वा सम्बन्धेनावग्रहणं सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थवचनान्तरमवलम्बते, तदपि त्यक्त्वाऽन्यद् वचनमब- स्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यजनावग्रहः । अथवा व्यलम्बते इति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । (भावप्रा. टी. ज्यन्ते इति व्यञ्जनानि Xxx व्यञ्जनानां ७८) । ५. श्रुतज्ञानशब्दमवलम्ब्य अन्यं श्रुतज्ञान- शब्दादिरूपतया परिणतानां द्रयाणामपकरण न्द्रियशब्दमवलम्बते तमपि परिहुत्यापरं श्रुतज्ञानवचन- सम्प्राप्तानामवग्रहः अव्यक्त रूपः परिच्छेदो व्यजमाश्रयति, एव पूनः पुनस्त्यजन्नाश्रयमाणन व्यञ्ज- नावग्रहः । अथवा व्यज्यतेऽनेनाथः प्रदीपेनेव घट: नसंक्रान्ति लभते । (त. बृत्ति श्रुत. ६-४४) । इति पञ्जनम् उपकरणेन्द्रियम्, ले न स्वसम्बद्ध- . . १ एक श्रुतवचन को ग्रहण करके दूसरे का पाल- स्यार्थस्य शब्दादेरवग्रहणम् अव्यक्तरूप: परिच्छेदो। बन लेना, पश्चात उसे भी छोड़कर अन्य धुतवचन व्यञ्जनावग्रहः । (प्राव. नि. मलय. व. ३, पृ. . का मालम्बन लेना, इसका नाम व्यञ्जनसंक्रान्ति है। २३)। ८. इन्द्रियः प्राप्तार्थविशेषग्रहणं व्यञ्जनाव्य ञ्जनाचार-देखो व्यञ्जन । व्यञ्जनं वर्ण. वग्रहः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र.३-७) । पद-वाक्यशुद्धिः, व्याकरणोपदेशेन वा तथा पाठादि- श्रोत्र प्रादि इन्द्रियों में शब्दादिरूप से परिगत wञ्जनाचारः । (मला. वृ. ५-७२)।
पुद्गल दो तीन प्रादि समयों में ग्रहण करते हुए भी व्यञ्जन से अभिप्राय वर्ण, पद और वाक्य की शुद्धि व्यक्त नहीं होते। किन्तु वे बार-बार ग्रहण होने पर का है, अथवा व्याकरण के उपदेशानुसार विधि- व्यक्त होते हैं, अतः व्यक्त ग्रहण के पहिले जो उनका पूर्वक पाठ प्रादि करना, इसका नाम व्यञ्जनाचार अवग्रह होता है उसे व्यञ्जनावग्रह कहते हैं। है। यह पाठ प्रकार के ज्ञानाचार के अन्तर्गत है। ३ प्राप्त अर्थ का जो ग्रहण होता है उसे व्यञ्जनाव्यञ्जनावग्रह-देखो व्यञ्जना । १. एवं श्रोत्रा- वग्रह कहा जाता है। ७ व्यंजन का अर्थ इन्द्रिय दिष्विन्द्रियेषु शब्दादिपरिणता: पुद्गला द्वि-त्र्यादिषु और पदार्थ का सम्बन्ध है, इस सम्बन्ध के द्वारा
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व्यजनावग्रहावरणीय १०३७, जैन-लक्षणावलो
. [व्यन्तर सम्बन्ध को प्राप्त होने वाले शब्दादि का जो ज्ञान लाख सावद्यभेदों के अन्तर्गत है जिनके अभाव में होता है वह व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। अथवा शील-गुण परिपूर्ण होते हैं। 'व्यज्यन्ते इति व्यञ्जनानि' इस निरुक्ति के अन. व्यतिरेक-१. व्यतिरेकः सन्तानान्तरगतो विसदसार व्यञ्जन शब्द से शब्दादिरूप से परिणत होकर शपरिणामः । (लघीय. स्वो. विव. ६७) । २. व्यउपकरण इन्द्रिय को प्राप्त द्रव्य अभिप्रेत है; तिरेकः तदभावे (कारणाभावे) अभावः (कार्यस्य) । उनका जो अव्यक्त ग्रहण होता है उसका नाम सिद्धिवि. वृ. ३-१०, पृ. १६३)। ३. व्यतिरेको व्यञ्जनावग्रह है।
भवेद् भावो वस्त्वन्तरगतोऽसमः । गो-महिष्यादि. व्यञ्जनावग्रहावरणीय-व्यञ्जनावग्रहस्य यदा- भावो यो यथा तद्व्यतिरेचकः ।। (प्राचा. सा. ४, वारकं तद् व्यञ्जनावग्रहावरणीयम्। (धव. पु. ६-७)। ४. व्यतिरेकः एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभावि१३, पृ. २२०)।
पर्यायः । (लघीय. अभय. वृ. ६-१७)। ५. तत्र जो कर्म व्यञ्जनावग्रह को प्राच्छादित करता है व्यतिरेक: स्यात्परम्पराभावलक्षणेन यथा। अंशउसे व्यञ्जनावग्रहावरणीय कहते हैं।
विभाग: पृथगिति सदृशांशानां सतामेव ॥ (पंचाव्यतिक्रम- देखो व्यतिक्रमण । १. प्राहाकम्म- ध्या १-१७२)। निमंतणपडिसुण माण अतिक्कमो होइ। पय भेयाइ १ भिन्न सन्तान-जैसे गाय-भैंस प्रादि में-जो व इक्कम xxx ॥ (व्यव. भा. पी. ४३, पृ. विसदृशतारूप अवस्था है उसे व्यतिरेक पर्याय कहा १७)। २. उपयोगपरिसमाप्त्यन्तरं च यदाधा- जाता है। २ कारण के प्रभाव में जो कार्य का भी कर्म ग्रहणाय पदभेदं करोति, xxx माग प्रभाव होता है, यह व्यतिरेक कहलाता है। वह गच्छति, गृहं प्रविशति, आधाकर्मग्रहणाय पात्रं अन्वय के साथ कार्यकारणभाव का गमक होता है। प्रसारयति, न चाद्यापि प्रतिगलाति, एष सर्वोऽपि व्यतिरेक दृष्टान्त--१. साध्याभावे साधनाभावो व्यापारो व्यतिक्रमः । (व्यव. भा. पी. मलय. व. यत्र कथ्यते स व्यतिरेक दृष्टान्तः । (परीक्षा. ३, ४३, पृ. १७-१८); विशेषेण पदभेदकारणतोऽति- ४४) । २. व्यतिरेकव्याप्तिप्रदर्शनप्रदेशो व्यतिरेकक्रमो व्यतिक्रमः । (व्यव. भा. मलय. व. २५१, दृष्टान्तः। (न्यायदी. पृ.७८)। पृ.८७)।
१ साध्य के प्रभाव में जहां साधन का प्रभात्र कहा २ किसी गृहस्थ के द्वारा सम्बन्धविशेष से अथवा जन ते चरेिक दृष्टान्त कहते है। गुणानुराग के वश आहार ग्रहण के लिए निमंत्रित व्यन्तर - १. विविध देशान्तराणि येषां निवासास्ते करने पर उसके वाक्य को सुनकर तदनकल प्रवृत्ति व्यन्तराः इत्यन्वर्थसामान्य संज्ञा । (स. सि. ४-११)। करता हुमा साधु यदि अतिक्रम दोष के पश्चात २. विविघदेशान्तरनिवासित्वाद् व्यन्तराः। विवि. उपयोग के समाप्त होने पर प्राधाकर्म से दूषित देशान्तराणि येषां निवासास्ते व्यन्तरा इत्यन्वर्थाः। भोजन को ग्रहण करने के लिए पांवों को उठाता (न. वा. ४, ११, १)। ३. व्यन्तरनामकर्मो ये घरता है, मार्ग में चलता है, घर में प्रवेश करता सति विविधान्त रनिवासित्वाद् व्यन्तराः ॥ (त. लो. है और पात्र को निकालता है, किन्तु अभी ग्रहण ४-११) । ४. तथा विविधमन्तरं वनान्तरादिकनहीं कर रहा है यह उसका सब व्यापार व्यति- माश्रय रूपं येषां ते व्यन्तराः, अथवा विगतमन्तरं क्रमस्वरूप है । ग्रहण करने पर तिचार और खाने मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तरा:। (बृहत्सं. मलय. व. पर नाचार होत' है। .
२); वनानामन्तराणि वनान्तराणि, तेषु भवा व्यतिक्रमण -- १ व्यतिक्रमण स तस्य संयतसमूहं वानमन्तरा व्यन्तराः, "पृषोदरादयः" इति वनान्तरत्यक्त्वा विषयोपकरणार्जनम् । (मूला. व. ११, शब्दयोरपान्तराले मकार-वर्णागमः। (बहत्सं. मलय. ११) । २. xxx व्यतिक्रमो यो विषयाभि- वृ.५८)। ५. विविधदेशान्तराणि निवासाः येषां लाषः । (भावप्रा. टी. ११८ उद्.)।
ते व्यन्तराः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-११) । १ संयत समूह को छोड़कर विषय के उपकरणों के १ जिन देवों के निवास विविध-अनेक प्रकार केजुटाने पर व्यतिक्रमण होता है। यह उन चौरासी देश हैं उन्हें व्यन्तर कहा जाता है। ४ अनेक प्रकार
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व्यवच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती ]
का वनान्तर श्रादि जिनका श्राश्रयभूत है वे व्यन्तर कहलाते हैं। प्रथवा जिनका मनुष्यों से अन्तर नहीं है उनका नाम व्यन्तर है ।
व्यपहार - देखो संव्यवहारदोष । १. यत्यर्थं संभ्रमाच्चेल पात्रादेरसमीक्ष्य यत् । समाकर्षणमान्नातं व्यपहार इति श्रुते । ( श्राचा. सा. ८-४९) । २. यद्यतीनां संभ्रमादादरतया चेल-पात्रादेरसमीक्ष्या कर्षणं स श्रागमें व्यवहार उच्यते । ( भाव प्रा. ६६ ) । १ यति के लिए शीघ्रतावश जो वस्त्र व पात्र श्रादि को खींचा जाता है, इसे श्रागम में भोजन सम्बन्धी व्यवहारदोष कहा गया है ।
व्यय - १. तथा पूर्व भावविगमनं व्ययः, यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृते: । ( स. सि. ५-३० त. इलो. ५-३० ) । २. तथा पूर्वभावविगमो व्ययनं व्ययः । तेन प्रकारेण तथा, स्वजात्य परित्यागेनेत्यर्थः पूर्वभावविगमो व्ययनं व्यय इति कथ्यते, यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृते: । (त. वा. ५, ३०, २) । ३. X X X भूत्वा चाभवनं व्ययः । ( म. पु. २४, ११० ) । ४. स्वजातेरविरोधेन द्रव्यस्य द्विविवस्य हि । विगमः पूर्वभावस्य व्यय इत्यभिधीयते ॥ (त. सा. ३-७ ) । ५. पूर्व भावस्य व्ययनं विघटनं विगमनं विनशनं व्ययः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-३० ) । ६. अपि च व्यपोऽपि न सतो व्ययोऽप्यवस्थाव्ययः सतस्तस्य । प्रध्वंसाभावः स च परिणामित्वात्सतोऽप्यवश्यं स्यात् । (पंचाध्या, १ - २०२ ) । १ पूर्व पर्याय के विनाश का नाम व्यय है । व्यवच्छिन्नत्रियाप्रतिपाती 1- देखो समुच्छिन्न क्रियानिवर्ती ।
१०३८, जैम-लक्षणावली
व्यवसाय - १. व्यवसीयते निश्चीयते श्रन्वेषितोर्थोऽनेनेति व्यवसाय: । ( धव. पु. १३, पृ. २४३ ) । २ व्यवसाय: अनुष्ठानोत्साह इति । (समबा. अभय. व. १४१ ) ।
१ जिसके द्वारा अन्वेषित पदार्थ का निश्चय किया जाता है, वह व्यवसाय कहलाता है । यह श्रवाय ज्ञान का नामान्तर है । २ अनुष्ठेय के अनुष्ठान में उत्साह रखने का नाम व्यवसाय है । व्यवस्थापद - जस्स जम्हि प्रवद्वाणं तस्स तं पदम् द्वाणमिदि वृत्तं होदि । जहा सिद्धिखेत्तं सिद्धाणं पदं श्रथालावो प्रत्थावगमस्त पदं । ( धव. पु. १०, पृ. १८ ) ।
[ व्यवहारकाल
जो जहां प्रवस्थित रहता है वह उसका पद या स्थान कहलाता है । प्रकृत में व्यवस्थापद से स्थितिस्थान को ग्रहण किया गया है। जैसे सिद्धों का सिद्धि क्षेत्र पद तथा प्रर्थावबोध का पद प्रर्थालाप । व्यवहार - १. व्यवहारोऽर्थाभिधानप्रत्ययात्मकः । संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं भेदनं व्यवहारः । ( धव. पु. १, पृ. ८४ ) । २. व्यवह्नि यते यत् यस्य प्रायश्चित्तमाभवति स तद्दानविषयीक्रियते अनेनेति व्यवहारः । ( व्यव. भा. पी. मलय. वृ. २, पृ. ३); विधिना उप्यते ह्रियते च येन स व्यवहारः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. पी. ५, पृ. ५) । २ जो जिसका प्रायश्चित्त है वह जिसके द्वारा उस प्रायश्चित्त के देने का विषयभूत किया जाता है उसका नाम व्यवहार है । व्यवहारकाल - १. समग्र य णाली तदो दिवा रत्ती । च्छरो त्ति कालो परायत्तो ॥ (पंचा. का. २५; धव. पु. ४, पृ. ३१७ उद्) । २. समयावलिकोच्छ्वास: प्राणस्तोकलवादिकः । व्यवहारस्तु विज्ञेयः कालः कालज्ञवणितः ॥ (ह. पु. ७-१६) । ३. कालोऽन्यो व्यवहारात्मा मुख्यकालव्यपाश्रयः । परत्वापरत्वसंसूच्यो वर्णित: सर्वदर्शिभिः ॥ वर्तितो द्रव्यकालेन वर्तनालक्षणेन यः कालः पूर्वपरीभूतो व्यवहाराय कल्प्यते ॥ समयावलिकोच्छ्वासना लिकादिप्रभेदतः । ज्योतिश्चक्रभ्रमायत्तं कालचक्रं विदुबुधाः ॥ ( म. पु. ३, १०-१२ ) । ४. तत्र क्रमानुपाती समयाख्यः पर्यायो व्यवहारकालः । × × × व्यवहारकालो जीव- पुद्गल परिणामेन निश्चीयते । X X X तत्र क्षणभङ्गी व्यवहारकालः । (पंचा. का. अमृत वृ. १०० ) । ५. जीवाण पुग्गलाणं जे सुहमा बादराय पजाया । तीदाणागदभूदा सो ववहारो हवे कालो ॥ कार्तिके. २२० ) । ६. व्यवहारकाल: परमार्थ कालवर्तनया लब्धकालव्यपदेशः परिणामादिलक्षण: । (चा. सा. पृ. ८१) । ७. दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो । परिणामादीलक्खो XX X ॥ ( द्रव्यसं. २१) । ८. जीवपुद्गलयोः परिवर्ती नव-जीर्णपर्यायस्तस्य या समयघटिकादिरूपा स्थितिः स्वरूपं यस्य स भवति द्रव्यपर्यायारूपो व्यवहारकालः । (बृ. द्रव्यसं. २१) । ६. सं च मन्दगतिपुद्गलपरमाणुव्यज्यमानः यो
णिमिसो कट्ठा कला मास उडु प्रयण संव
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व्यबहारकाल ]
जलभाजनादिव हिरङ्गनिमित्तभूतपुद्गलप्रकटीक्रियभाणा घंटिका । दिनकरबिम्ब गमनादिक्रिया 'विशेषव्यक्ती क्रियमाणो दिवस दिः व्यबहारकालः । ( पंचा. का. जय. वृ. २५) यस्तु निश्चयकालो दानकारणजभ्योऽषि पुद्गल परमाणुजलभाजनादि यज्यमानत्वात् समय घटिका-दिवसादिरूपेण विध 'क्षित●पहारकल्पनारूपः स व्यवहारकाल इति । (देवा. का. जय. वृ. २६); समम- निमिषे घटिका दिवसादिरूपो व्यवहारकालः 1 (पंचा. का. जय. बू. १०० ); तस्यैव ( निश्चय कालस्यैव ) पर्यायभूतः सादि-सनिधनः समय-निमिष घटिकादिविवक्षितकल्पनाभेदरूपो व्यवहारकालो भवतीति । (पंचा. का. जय. वृ. १०१ ) । १०. समयादिकृतं यस्य मानं ज्योतिर्गणाश्रितम् । व्यवहाराभिधः कालः स कालज्ञः प्रपंचितः ॥ ( ज्ञाना. ३७ पृ. ८ ) । ११. मुख्यकालस्य पर्याय: समयादिस्वरूपवान् ! व्यवहारो मतः कालः कालज्ञानप्रवेदिनाम् ॥ ( भावसं. बाम. ३७० ) ।
१ समय निमेष, काळा, कला, नाली, दिन, रात, मास, ऋतु, श्रवण और वर्ष इत्यादि पराश्रित काल को व्यवहारकाल कहा जाता है । ४ क्रम के अनुसार होने वाली समयरूप पर्याय को व्यवहारकाल कहते हैं । क्षण-क्षण में जो नष्ट होने वाला है वह व्यवहारकाल कहलाता : I व्यवहारचारित्र - १. चिट्ठा तवंहि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोत्ति ।। (पंचा. का. १६० ) । २. प्राचारादिसूत्रप्रपञ्चितविचित्रयतिवृत्तसमस्तस मुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या (पंचा. का. प्रभूत. वृ. १६० ) । ३. चरणं च तपसि चेष्टा व्यवहारान्मुक्ति हेतुरयम् ॥ ( तत्त्वान् ३० ) । ४ प्रहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं । वदसमिदि-गुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥ ( द्रव्यसं. ४४ ) । ५. X XX कृतकारितानुमतिभिर्योगंरवद्योज्झनम् । तत्पूर्वं व्यवहारतः सुचरितं तान्येव रत्नत्रयम् XXX। (प्रन. घ. १-६३ ) । ६. कर्मोपचय हेतूनां निग्रहो व्यवहारतः ॥ (मोक्षपं. ४४) ।
२ प्राचारादि आगमों में विस्तार से प्ररूपित मुनि प्राचार के समस्त समुदायरूप तप में जो प्रवृत्ति होती है, इसका नाम व्यवहारचारित्र है ।
१०३६,
जैन - लक्षणावली
[व्यवहारेनये
४ शुभ चरण (कमाचार ) से निवृत्ति और सदाचार में जो प्रवृत्ति होती है उसे व्यवहारचारित्र कहते हैं । व्यवहारजीवस्वरूप - १. तिक्काले चदुपाणा इंदिय बलमाउ प्राणपाणी य ववहारा सो जीवो X X X ॥ ( द्रव्यसं. ३ ) । २. मण वयण काय इंदिय आणवाणा उगंच जं जीवे । तमसन्भूयो भणदि हु ववहारो लोयमज्झम्मि || ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. ११२) ।
१ जिसके तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, प्रायु शौर श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं, वह व्यवहार से जीव कहलाता है । २ मन, वचन, काय, पाँच इन्द्रियों में यथासम्भव इन्द्रियां, श्रायु और श्रानप्राण; इनका सद्भाव जीव में प्रसद्भूत व्यवहारनथ से कहा जाता है।
व्यवहारध्यान - XX X परालम्बनमुत्तरम् । ( तवानु. ६) ।
जिस ध्यान में प्रास्मा के अतिरिक्त श्रन्य का श्रालबम लिया जाता है उसे व्यवहारध्यान कहते हैं ।
?
हारनय- १. वच्चइ विणिच्छयत्थं ववहारो सम्वदन्वेसु ॥ (श्राव. नि. ७५६ ) । २. संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः । ( स. सि. १-३३; मूला वृ. ६-६७ ) । ३. तो विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः । एतस्मादतः । कुतः संग्रहात् संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकम वहर व्यवहारः । को विधि: ? संग्रहगृहीतोऽर्थस्तदानुपूर्व्येणैव व्यवहारः प्रवर्तते इत्ययं विधिः । (त. वा. १, ३३. ६) । ४ संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं भेदनं व्यवहारः, व्यवहारपरतन्त्रो व्यवहारनय इत्यर्थ: । ( घव. पु. १, पृ. ८४); शेषद्वयाद्यनन्त विकल्प संग्रहप्रस्तारावलम्बनः पर्यायकलङ्काङ्किततया श्रशुद्धद्रव्यार्थिको व्यवहारनय: । ( धव. पु. ६, पृ. १७१) । ५. संग्रहेण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकः । योऽवहारो विभागः स्याद् व्यवहारो नयः स्मृतः । (त. इलो. १, ३६, ५८ ) । ६. संग्रहाक्षिप्तसत्तादेरवहारो विशेषतः । व्यवहारो यतः सत्तां नयत्यन्त विशेषताम् ।। (ह. पु. ५८-४५) । ७. संग्रहेण गृहीतार्थानामर्थानां विधिपूर्वकः । व्यव हारो भवेद्यस्माद् व्यवहारनयस्तु सः ॥ (त. सा. १-४६) । ८. यस्तु पुद्गल परिणाम प्रात्मन:
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व्यवहारनय]
१०४०, जैन-लक्षणावलो
[व्यवहारपल्य
कर्म, स एव पुण्यापुण्यद्वैतम्, पुद्गलपरिणामस्यात्मा २ संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का का तस्योपदाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणा- जिसके द्वारा भेद किया जाता है उसे व्यवहारनय त्मको व्यवहारमयः । (प्रव. सा अमत. व. २.६७)। कहते हैं। ८ जो पुदगल द्रव्य का परि ६. Xxx व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । (पु. का कर्म है वह पुण्य-पाप रूप दो प्रकार का है, सि. ५)। १०. व्यवहारनयो भिन्नकर्तृ-कर्मादिगो- पुद्गल द्रव्य के परिणाम का कर्ता प्रात्मा उसको चरः ।। (तत्त्वान. २६)। ११. जं संगहेण गहियं ग्रहण करता है और छोड़ता है। इस प्रकार से जो भेयइ प्रत्थं असुद्ध सुद्धं वा। सो ववहारो दुविहो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण करता है उसे व्यवहार असुद्ध सुद्धत्थभेय करो ॥ (ल. न च ३७; द्रव्यस्व. कहा जाता है। १८ जो एक वस्तुगत धर्मों के प्र. नयच. २०६) । १२. संग्रहे गृहीतार्थस्य भेद- कथंचित् भेदोपचार को करता है उसका नाम रूपतया वस्तु येन व्यवहियत इति व्यवहारः। व्यवहारनय है। १६ निश्चय का अर्थ सामान्य और (मालापप. पृ. १४६)। १३. व्यवहारनयस्य तु विनिश्चय का अर्थ सामान्याभाव (विशेष) है; स्वरूपमिदम् । तद्यथा--- यथालोकग्राहमेव वस्तु। इस प्रकार जो नय सामान्य के प्रभाव के लिए सब (सूत्रकृ. सू. शी. व. २, ७, ८१, पृ. १८८)। द्रव्यो में प्रवृत्त होता है उसे व्यवहारनय कहते हैं । १४. व्यवहरणं व्य ह्रियते वा स व्यवह्रियते वा तेन यह नियुक्तिकार के द्वारा निर्दिष्ट उस व्यवहारनय विशेषेण वा सामान्यमवह्रियते-निराक्रियतेऽनेनेति के लक्षण का स्पष्टीकरण किया गया है। लोकव्यवहारपरो वा व्यवहारो- विशेषमात्राभ्युप- व्यवहारनयाभास-काल्पनिको भेदस्तदाभासः। गमपरः । (स्थानां. अभय. वृ. १८६)। १५. जो (प्रमेयर. ६-७४)। संगहेण गहिदं विसेस रहिदं पि भेददे सददं । पर- जैसा भेद सम्भव नहीं है उस प्रकार के काल्पनिक माणूपज्जतं बवहारणपो हवे सो हु॥ (काति के. भेद का निरूपण करना, यह व्यवहारनयाभास का २७३)। १६. संग्रहगृहीतार्थानां बिधिपूर्वक मवहरणं लक्षण है। विभाजनं भेदेन प्ररूपणं व्यवहारः। (प्र. क. मा. व्यवहारपरमाणु अट्ठहि तेहि णेया सण्णासणे. ६-७४, पृ. ६७७)। १७. संग्रहगृहीतभेदको व्यव• हि तह य दब्बेहिं । ववहारियपरमाणू णि द्दिवो हारः। (प्रमेयर. ६-७४)। १८. जो सियभेदुव- सव्वदरसीहिं ॥ (ज. दी. प. सं. १३-२१)। यारं घम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । सो ववहारो भणिप्रो xxx ॥ (द्रव्यस्व. प्र. नयच. २६४)। कहा गया है। १६. व्रजति गच्छति, निः प्राधिक्येन, चयनं चयः, व्यवहारपल्य-१. उत्तमभोगखिदीए उप्पण्णविनिश्चयः सामान्यः, विगतो निश्चयः सामान्याभावः, जुगल-रोम-कोडीग्रो । एक्कादिसत्तदिवसावहिम्मि तदर्थं तन्निमित्तम, सामान्याभावायेति भावार्थः। च्छेत्तणं संगहियं ।। अइवटटेहि तेहिं रोमग्गेहि णिxxx व्युत्पत्तिश्चैवम् - व्यवहरणं व्यवहारः, रंतरं पढमं । अच्चंतं णविद्रणं भरियव्वं जाव भमियदि वा विशेषतोऽवहियते-निराक्रियते सामान्य- समं ॥ दड-पमाणंगुलए उस्सेहंगुल जवं च जवं मनेनेति व्यवहारः, विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनय च । लिक्खं तह कादणं बालग्गं कम्मभमीए । इत्यर्थः। (प्राव. नि, मलय. व. ७५६) । २०. प्रवर-मज्झिम-उत्तमभोगरिवदीयं च बालाम्गाई। संग्रहनयविषयीकृतानां संग्रहनयगृहीतानां संग्रहनय- एक्केक्कमटूधणहदरोमा ववहारपल्लस्स ॥ xx क्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवग्रहणं भेदेन प्ररूपणं - एकेक रोमग्गं वस्ससदे पेलिदम्हि सो पल्लो। व्यवहारः। (त. वृत्ति श्रुत. १-३३)। २१. संग्र- रित्तो होदि स कालो उद्धारणिमित्तववहारो ॥ हेण गृहीतस्यार्थस्य भेदतया वस्तु व्यवह्रियतेऽनेन (ति. प. १, ११६-२२ व १२५) । २. प्रमाणांगुलव्यवहारः क्रियते, व्यवहरणं वा व्यवहारः, संग्रहनय- परिमितयोजनविष्कम्भायामावगाहानि त्रीणि पल्याविषयीकृतानां संग्रहनयगृहीतानां पदार्थानां वस्तूनां नि, कुसूला इत्यर्थः । एकादिसप्तान्ताहोरात्रजाताविधिपूर्वकम् अवहरणं भेदेन प्ररूपणं व्यवहारः । विवालाग्राणि तावच्छिन्नानि यावद् द्वितीयं कर्तरित (कातिके, टी. २७६)।
च्छेदं नाप्नुवन्ति, तादृर्श |मच्छेदैः परिपूर्ण घनीभूतं
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पादि
व्यवहारपल्य] १०४१, जैन-लक्षणावली
[व्यवहारमोक्षमार्ग व्यवहारपल्यमित्युच्यते । ततो वर्षशते वर्षशते गते हारपल्योपम इत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८)। (त. वा. 'प्रतीते') एकैकलोमाकर्षणविधिना यावता १ व्यवहारपल्य में से सौ सौ वर्ष में एक-एक रोमकालेन तद रिक्तं भवेत् तावान् कालो व्यवहार- खण्ड के निकालने पर जितने काल में वह पल्य पल्योपमाख्यः। (स.सि.३-३८% त. वा. ३,३८, खाली होता है उतने काल का नाम व्यवहार६)। ३. योजनं विस्तृतं पल्यं यच्च योजनमुच्छि- पल्योपम है। तम् । प्रा सप्ताहःप्ररूढानां केशानां तु सुपूरितम् ॥ व्यवहारपण्डित-१. लोक-वेद-समयव्यवहारततो वर्षशते पूर्णे एकैके रोम्णि उदधृते । क्षीयते येन निपुणो व्यवहारपण्डितः, अथवाऽनेकशास्त्रज्ञः सुश्रूकालेन तत्पल्योपममुच्यते ।। (धव. पु. १३, पृ. षादिबुद्धिगुणसमन्वितः व्यवहारपण्डितः। (भ. मा. ३०० उद्.)। ४. प्रमाणयोजनव्यामस्वावगाहविशे- विजयो. २५) । २. लोक-वेद-समयगतव्यवहारनिषवत् । त्रिगुणं परिवेषेण क्षेत्र पर्यन्तभित्तिकम् ॥ पुणो व्यवहारपण्डितः । (भावप्रा. टी. ३२) । सप्ताहान्ताविरोमानरापूर्य कठिनीकृतम् । तदुद्धार्य- १ लोक, वेद और समय के व्यवहार में जो निपुण मिदं पल्यं व्यवहाराख्य मिष्यते ॥ (ह. पु. ७-४७ व है अथवा अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होकर जो सुष. ४८)। ५. तद्योजन-(प्रमाणयोजन-) प्रमाणः खनिः षा
(सुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, क्रियते मूले मध्ये उपरि च समाना वर्तुलाकारा ऊह, अपोह, अर्थविज्ञान और तत्त्वज्ञान) से युक्त सातिरेकत्रिगुणपरिधिः, सा खनि: एकादिसप्तान्ताहो- है उसे व्यवहारपण्डित कहा जाता है। रात्रजाताऽविरोमामाणि गृहीत्वा खण्डितानि क्रियन्ते, व्यवहारबाल-लोक-वेद-समयव्यवहारान् यो न पुनः तादृशानि खण्डानि क्रियन्ते यादृशानि खण्डानि वेत्ति शिशुर्वासो व्यवहारबालः। (भ. प्रा. विजयो. कर्तर्या खण्डयितुं न शक्यन्ते तैः सूक्ष्मः रोमखण्डमहा- २५; भावप्रा. टी. ३२) । योजनप्रमाणा खनिः पूर्यते, कुट्टयित्वा निविडीक्रियते, जो लोक, वेद और समय के व्यवहार को नहीं सा खनिर्व्यवहारपल्यमिति कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. जानता है उसे अथवा शिशु को व्यवहारबाल कहा ३-३८)।
जाता है। २ प्रमाणाङ्गुल से निष्पन्न योजन प्रमाण चौड़े, लम्बे व्यवहारमनोगुप्ति- कालुस्स-मोह-सण्णारागद्दोऔर गहरे तीन गड्ढे करे। उनमें एक से सात साइ असुहभावाणं । परिहारो मणुगुत्ती ववहारणदिन के भीतर उत्पन्न भेड़ के बालों को इस येण परिकहियं ।। (नि. सा. ६६) । प्रकार कैंची से खण्डित करके भरे कि जिस कलषता, मोह, माहारादि संज्ञा, राग और द्वेष प्रकार से उनका दूसरा खण्ड न हो सके। इस प्रादि के परित्याग को व्यवहारनय से मनोगुप्ति प्रकार उन बालानों से गड्ढे को सघन भरने पर कहा जाता है। उस पल्य (गर्त) को व्यवहारपल्य कहा जाता है। व्यवहारमोक्षमार्ग-१. धम्मादीसदहणं सम्मत्तं व्यववहारपल्योपम- देखो व्यवहारपल्य । १. णाणमंग-पुव्वगदं । चिट्ठा तवंहि चरिया ववहारो एककस्मिस्ततो रोम्णि प्रत्यब्दशतमधते । याव- मोक्खमग्गो ति॥ (पंचा. का. १६०)। २. धर्मादितास्य क्षयः कालः पत्यं व्युत्पत्तिमात्रकृत् ॥ (ह. श्रद्धानं सम्यक्त्वं ज्ञानमधिगमस्तेषाम् । चरणं च पु. ७-४६)। २. प्रमाणयोजनावगाह-विष्कम्भा- तपसि चेष्टा व्यवहारान्मुक्तिहेतुरयम् ॥ (तत्त्वान. यामं कूपं कृत्वा सप्तरात्रजातमात्रोरणरोमाग्रभागेः ३०)। ३. सम्मइंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं पूर्णं च कृत्वा तंत्र यावन्मात्राणि रोमाग्राणि ताव- जाणे । ववहारा xxx ॥ (द्रव्यसं. ३६) । मात्राणि वर्षशतानि गृहीत्वा तत्र यावन्मात्रा: ४. वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषडद्रव्य-पञ्चास्तिकायसप्तसमयाः [तावन्मात्रं] व्यवहारपल्योपमं नाम । तत्त्व-नवपदार्थसम्यश्रद्धान-ज्ञान-व्रताद्यनुष्ठानविक(मूला. व. १२-३६) । ३. तदनन्तरमब्दशतैरेकैकं ल्परूपो व्यवहारमोक्षमार्गः । xxx अथवा रोमखण्डमपकृष्यते, एवं सर्वेषु रोमेष्वाकृष्टेसु याव- धातुपाषाणेऽग्निवत्साधको व्यवहारमोक्षमार्गः ॥ स्कालेन सा खनि: रिक्ता भवति तावत्कालो व्यव- (बृ. द्रव्यसं. ३९; परमात्मप्र. वृ. १४०)। ५. वीत
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व्यवहारवात्सल्य ]
राग सर्वज्ञ प्रणीत षद्रव्यादिसम्यक् श्रद्धान- ज्ञान - व्रता द्यनुष्ठानरूपो व्यवहारमोक्षमार्गः, XX X अथवा साधको व्यवहारमोक्षमार्ग: । (परमा वृ. २- १४) । १ धर्माधर्मादि द्रव्यों के श्रद्धानस्वरूप सम्यक्त्व, अंग-पूर्वी के अधिगमस्वरूप ज्ञान और तप में प्रवृत्ति रूप चारित्र को व्यवहारमोक्षमार्ग माना गया है । व्यवहारवात्सल्य -- बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयाघारे चतुविधसंघे वत्से धेनुवत् पञ्चेन्द्रियविषयनिमित्त पुत्र- कलत्र - सुवर्णादिस्नेहवद्वा यदकृत्रिम स्नेहकरणं तद् व्यवहारेण वात्सल्यं भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. ४१) । जिस प्रकार बछड़े से गाय स्वाभाविक स्नेह को करती है, अथवा पांचों इन्द्रियविषयों के निमित्त प्राणी पुत्र-स्त्री श्रादि से तथा धन-सम्पत्ति श्रादि से स्नेह करता है, उसी प्रकार रत्नत्रय के प्राधारभूत चार प्रकार के संघ से जो स्वाभाविक स्नेह प्रगट किया जाता है, वह व्यवहारवात्सल्य कहलाता है । व्यवहारसत्य - १. ववहारेण य सच्च रज्झदि कूरो जहा लोए ॥ (मूला. ५- ११४ ) । २. वर्तमानकाले स परिणामो यद्यपि नास्ति तथाप्यतीतानागतपरिणामान् प्रति इदमेव द्रव्यमिति कृत्वा प्रवृत्तानि वचांसि श्रोदनं पच कटं कुवित्येवमादीनि व्यवहारसत्यम् । (भ. श्री. विजयो. ११९३ ) । ३. X X X चोदनं व्यवहृतौ XXX ॥ ( श्रन. घ. ४-४७) । ४. सिद्धेऽप्योदने लोकव्यवहारानुसार णात् तन्दुलान् पचेति वक्तव्ये प्रोदनं पचेति वचनं व्यवहारसत्यम् । ( छन. ध. स्वो टी. ४-४७) । ५. व्यवहारसत्यं भाविभूतपरिणामापेक्षया प्रवृत्तम् । यथासिद्धेऽप्योदने लोकव्यवहारानुसरणात् तन्दुलान् पचेति वाच्ये श्रोदनं पचेत्यादिवचनम् । (भ. श्री. मूला. १९९३) । ६. व्यवहारं नैगमादिनयप्राधान्यमाश्रित्य प्रवृत्तं यद्वचः तद् व्यवहारसत्यम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २२३) ।
१ 'भात को पकाओ' इत्यादि वचनप्रयोग को लोक में हारसत्य माना जाता है। भात को नहीं पकाया जाता, किन्तु चावलों के पकाने पर भात बनता है। इस प्रकार से यद्यपि उपर्युक्त वाक्य सत्य है, फिर भी लोकव्यवहार में उसे असत्य नहीं
माना जाता ।
१०४२, जैन-लक्षणावली
व्यवहारसम्यक्त्व - १. घम्मादीसद्दहणं सम्मत जिणवरेहि पण्णत्तं । (पंचा. का. १६० ) ।
[ व्यवहारहिंसा
२. धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वम् XXX | ( तत्वानु. ३० ) । ३. तत्र धर्मादीनां द्रव्य पदार्थं विकल्पवतां तत्त्वार्थश्रद्धानभावस्वभावं भावान्तरं श्रद्धानाख्यं सम्यक्त्वम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १६० ) । ४. एवमुक्तप्रकारेण मूढत्रय मदाष्टक षडनायतनशंकाद्यष्टमलरहितं शुद्धजीवादि तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्त्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम् । (बृ. द्रव्यसं. ४१ ) । ५. मिथ्यात्वाद्विपरीतं तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं निश्चयसम्यक्त्वकारणभूतं व्यवहारसम्यक्त्वम् । (पंचा. का. जय. वृ. ४३ [६], पृ. ८७) । १ द्रव्य और पदार्थ के भेदभूत धर्म व धर्म प्रादि द्रव्मों के श्रद्धान का नाम व्यवहारसम्यक्त्व है । व्यबहारसम्यग्ज्ञान - १ x × × णाणमंगपुव्वगदं । (पंचा. का. १६० ) । २. तत्त्वार्थश्रद्धाननिर्वृत्तो सत्यामङ्ग-पूर्वगतार्थ परिच्छित्तिर्ज्ञानम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १६० ) । ३. XXX ज्ञानमधिगमस्तेषाम् । ( तत्त्वानु. ३० ) । ४ XXX बोधन सज्ज्ञानम् × × × । ( अन. ध. १-९३) । १ अंग प्रर पूर्व श्रुतविषयक ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं, यह व्यवहारसम्यग्ज्ञान का लक्षण है व्यवहारसम्यग्दर्शन - देखो व्यवहारसम्यक्त्व । १. श्रद्धानं पुरुषादितत्त्वविषयं सद्दर्शनं × × × (अन. घ. १-९३) । २. व्यवहाराच्च सम्यक्त्वं ज्ञातव्यं लक्षणाद्यथा । जीवादिसप्ततत्त्वानां श्रद्धानं गाढमव्ययम् || (लाटीसं. ३-१२ ) ।
१ पुरुषादि ( जीवादि) तत्त्वों के विषय में जो श्रद्धान होता है उसे सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व कहा जाता है।
व्यवहारसम्यग्दर्शनाराधना मूढत्रयादिपंचविशतिमलपरिहारेण हेयस्य त्यागेनोपादेयस्योपादानेन जीवादितत्त्वश्रद्धानं विधीयते यत्र सा व्यवहारसम्यग्दर्शनाराधना | ( श्रारा. सा. टी. ४) । तीन मूढता प्रादि पच्चीस दोषों को दूर करके हेय के परित्याग और उपादेय के ग्रहण से जिसमें जीवादि तत्वों का श्रद्धान किया जाता हैं उसे व्यवहारसम्यग्दर्शनाराधना कहते हैं । व्यवहारहिंसा - रागाद्युत्पत्ते बं हिरङ्गनिमित्तभूतः परजीवधातो व्यवहार हिंसा ( प्रव. सा. जय. वृ. ३-१७) ।
रागादि की उत्पत्ति में बाह्य निमित्तभत जो अन्य
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व्यबहारोऽमूढदृष्टि] १०४३, जेन-लक्षणावली
[व्याख्याप्रज्ञप्ति प्राणियों का घात है उसे व्यवहारहिंसा कहते हैं। उसे व्यसन कहते हैं। २ जो छूत (जुमा) प्रादि व्यवहारामूढदृष्टि - वीतरागसर्वज्ञप्रणीतागमा- तीवकषाय के वश उत्पन्न होने वाले दुर्ध्यान से र्थाद् बहिर्भूतः कुदृष्टिभिर्यत्प्रणीतं धातुवाद-खन्यवाद- चेतना को प्राच्छादित करते हुए प्राणी को श्रेय. हरमेखल - क्षुद्रविद्याव्यन्तरविकुर्वणादिकमज्ञानिजन- स्कर मार्ग से दूर किया करते हैं, उन्हें व्यसन कहा चित्तचमत्कारोत्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढ- जाता है। भावेन धर्मबुद्ध्या तत्र रुचि भक्ति न कुरुते स एव व्याकरण --अपरिमितार्थोपलब्धिमूलभूतपदरत्नराव्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते । (बृ. द्रव्यसं. ४१)।
रुच्यते । (ब. द्रव्यसं. ४१)। शिरोहणं व्याकरणम् । (गद्यचि. पृ. ५४) । वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रागम के अर्थ से जो अपरिमित अर्थ के मूल कारणभूत पदरूप रत्नों जो मिथ्यादष्टि बहिर्भूत हैं उनके द्वारा उपदिष्ट की राशि के प्ररोहण का कारण है वह व्याकरण धातुवाद, खन्यवाद, हरमेखल, क्षुद्र विद्या और कहलाता है। व्यन्तरदेवों की विक्रिया प्रादि रूप अन्य जनों के व्याकरणसूत्र-वागरणसुत्तं ति व्याख्यानसूत्रमन में चमत्कार के उत्पन्न करने वाले कार्य को मिति . व्याक्रिय तेऽनेनेति व्याकरणम, प्रतिवचनमित्यदेखकर मढतापूर्वक धर्मबुद्धि से जो उसमें रुचि या र्थः। (जयध.---कसायपा. पृ. ८८२, टि. १)। भक्ति नहीं करता उसे व्यवहार-अमूढदृष्टि कहा व्याकरणगत वस्तु के व्याख्यान करने वाले सूत्र को जाता है।
व्याकरणसूत्र कहते हैं। व्यवहारी-व्यवहरतीत्येवंशीलो व्यवहारी व्यव- व्याख्याप्रज्ञप्ति--१. व्याख्याप्रज्ञप्तो, षष्ठिव्या. हारक्रियाप्रवर्तकः, प्रायश्चित्तदायीति यावत् ।। करणसहस्राणि-किमस्ति जीवः, [कि] नास्ति, (व्यव. भा. पी. मलय. वृ. १, पृ. ३)। इत्येवमादीनि निरूप्यन्ते । (त. वा. १, २०, १२)। व्यवहार अनुष्ठान में जो प्रवृत्ति कराता है- २. वियाहपण्णत्तीणाम अंगं दोहि लक्खेहि अट्ठावीसप्रायश्चित्त देता है --उसे व्यवहारी कहते हैं। सहस्से हि पदेहि २२८००० किमत्थि जीवो, कि व्यवहित-व्यवहितं नाम अन्तहितम्, 'यत्र प्रकृत- णस्थि जीवो इच्चेबमाइयाई सटिवाय रणसहस्साणि मुत्सृज्याप्रकृतं विस्तरतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमधि- परूवेदि । (धव. पु. १, पृ. १०१); व्याख्याप्रज्ञक्रियते, यथा हेत्कथामधिकृत्य सुप्तिङ्न्तपदलक्षण- प्तौ स-द्विलक्षाष्टाविंशतिपदसहस्रायां [२२८०००] प्रपञ्चमर्थशास्त्रं चाभिधाय पुनर्हेतुवचनम् । (प्राव. षष्ठिव्याकरणसहस्राणि किमस्ति जीवो नास्ति नि. मलय. वृ. ८८२, पृ. ४८३)।
जीवः क्वोत्पद्यते कुत प्रागच्छतीत्यादयो निरूप्यन्ते । जिस वचनव्यवहार में प्रकृत को छोड़कर अप्रकृत (धव. पु. ६, पृ. २००)। ३. वियाहपण्णत्तीणाम का विस्तार से व्याख्यान करते हए तत्पश्चात पुनः प्रकृत का प्राश्रय लिया जाता है वह वचन व्यवहित छेयण जणि (ज्जणी) यसुहमसुहं च वण्णेदि। (जयनामक दोष से दूषित होता है। जैसे -हेतुविषयक ध. १, पृ. १२५)। ४. अष्टाविंशतिसहस्र-लक्षद्वयचर्चा के प्रकरण में सुबन्त अथवा तिङन्त पदों के पदपरिमाणा जीवः किमस्ति नास्तीत्यादिगणघर. लक्षण और अर्थशास्त्र का व्याख्यान करके तत्प- षष्ठिसहस्रप्रश्नव्याख्याविधात्री व्याख्याप्रज्ञप्तिः । श्चात् प्रकृत हेतु का कथन करना। यह वचन के (श्रुतभ. टी. ७, पृ. १७३) । ५. विशेष: र. ३२ दोषों में २०वां है।
प्रकारैः, पाख्यातं किमस्ति जीवः किं नास्ति जीवः व्यसन-१. व्यस्यतीत्यावर्तयत्येनं पुरुष श्रेयस इति किमेको जीवः किमनेको जीवः किं नित्यो जीव: व्यसनम । (नीतिवा. १६-१, पृ. १७७) । २. जा- किमनित्यो जीवः किं वक्तव्यो जीवः किमवक्तव्यो ग्रत्तीवकषायकर्कशमनस्कारापितैर्दुष्कृतश्चैतन्यं तिर- जीवः इत्यादीनि षष्ठिसहस्रसंख्यानि भगवदह तीर्थयत्तमस्तरदपि द्यूतादि यच्छ्रे यसः । पुंसो व्यस्यति करसन्निधौ गणधरदेव प्रश्नवाक्यानि प्रज्ञाप्यन्ते तद्विदो व्यसनमित्याख्यान्ति xxx ॥ (सा. घ. कथ्यन्ते यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्ति म । (गो. जी. ३-१८)।
म. प्र. व जी. प्र. ३५६)। ६. जीवः किमस्ति १ जो पुरुष को कल्याणमार्ग से भ्रष्ट करता है नास्ति वा इत्यादिगणधरकृतप्रश्नषष्ठिसहस्रप्रति.
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ध्याख्याप्रज्ञप्ति)
२०४४, जैन-लक्षणावलो
[व्याहत
पादकं अष्टविंशतिसहस्राधिकद्विलक्षपदप्रमाणं व्या- जो सदा रोगी रहता हमा स्वाध्याय, अावश्यक ख्याप्रज्ञप्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। ७. दुग- और भिक्षाटन प्रादि में असमर्थ रहता है वह दुगडतियसुण्णं विवायपण्णत्तिअंगपरिमाणं । व्याधित कहलाता है। णाणाविसेसकहणं वेंति जिणा जत्थ गणिपण्हा ॥ व्यान-व्यान यति व्याप्नोतीति व्यानः । (योगशा. कि अत्थि णत्थि जीवो णिच्चोऽणिच्चोऽहवाह किं स्वो. विव.५-१३) । एगो। वत्तव्यो किमवत्तव्यो हि कि भिण्णो । गुण- जो वायु समस्त शरीर को व्याप्त करती है उसे पज्जयादभिण्णो सट्रिसहस्सा गणिस्स पण्हेवं । जत्थ- व्यान कहा जाता है। धि तं वियाण विवाहपण्णत्तिमंगं खु ॥ (अंगप. १, व्याप्ति-१. व्याप्तिहि साध्य-साधनयोरविनाभावः । ३६-३८, पृ. २६४)।
(न्यायकु. १०, पृ ४१८-१९); लिंगात् हेतोः, १ जिस अंगश्रुत में क्या जीव है, क्या जीव नहीं x x x साध्येनेष्टावाधितासिद्ध विशेषणविशिहै, वह कहां उत्पन्न होता है, और कहां से प्राता ष्टेन अविनाभावो व्याप्तिः। (न्यायकु. १२, पृ. है; इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का निरूपण किया ४३५)। २. यावान् कश्चिद् धमवान् प्रदेशः स जाता है उसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग है। वह सर्वोऽपि अग्निमान् व्याप्ती xxx॥ (सिद्धिवि. दो लाख भट्राईस हजार (२२८०००) पद प्रमाण
१ साध्य और साधन में जो अविनाभाव होता है व्याख्याप्रज्ञप्तिपरिकर्म (दृष्टिवादभेद)-१. उसका नाम व्याप्ति है। २ जितना कुछ भी धम वियाहपण्णत्ती णाम चउरासीदिलक्ख छत्तीसपदसह- वाला प्रदेश होता है वह सब अग्नि से व्याप्त अवश्य स्सेहि ८४३६००० रूविधजीवदव्वं अरूविअजीवदव्वं होता है, इस प्रकार के साध्य-साधन के अविनाभाव भवसिद्धिय-प्रभवसिद्धियासिं च वण्णेदि । (धव. पु. के निश्चय को व्याप्ति कहते हैं। १.प.११०); व्याख्याप्रज्ञप्ती षट्त्रिंशत्सहस्राधिक- व्यायाम - शरीरायासजननी क्रिया व्यायामः । चतुरशीतिशतसहस्रपदायां ८४३६००० रूविग्रजी- (नीतिवा. २५-१५, पृ. २५२) । बदव्यं अरूपिग्रजीवद्रव्यं भव्याभव्यस्वरूपं च शरीर को श्रम उत्पन्न करने वाली क्रिया का नाम निरूप्यते । (धव. पु. ६, पृ. २०७)। २. जा पुण व्यायाम है। विवाहपण्णत्ती सा रूवि-अरूवि-जीवाजीवदव्वाणं व्यावहारिक काल -ज्योतिःशास्त्र यस्य मानमभवसिद्धिय-अभयसिद्धियाणं पमाणस्स तल्लक्खणस्स च्यते समयादिकम् । स व्यावहारिक: काल: कालअणंतर-परंपरसिद्धाणं च अण्णेसिं च वत्थूणं वण्णणं वेदिभिरामतः ॥ (योगशा. स्वो. विव. १६, प. कूणइ। (जयघ. १, पृ. १३३)। ३. चतुरशीति- ११३) । लक्ष-षटत्रिशत्सहस्रपदपरिमाणा जीवादिद्रव्याणां ज्योतिष शास्त्र में जिसका मान समय प्रादि कहा रूपित्वारूपित्वादिस्वरूपनिरूपिका व्याख्याप्रज्ञप्तिः। जाता है वह व्यावहारिककाल कहलाता है। ( टी., प्र. १७४)। ४. रूप्यरूपिजीवा- व्याहत-व्याहतं नाम यत्र पूर्वेण परं व्याहन्यते. जीवद्रव्याणां भव्याभव्यभेदप्रमाणलक्षणानां अनन्तर- यथा-कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्ता नास्ति च परम्परासिद्धानां अन्येषां च वस्तूनां वर्णनं करोति । कर्मणाम् । इत्यादि । (प्राव. नि. मलय व. ८५१ (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३६१)।
पृ. ४८३)। १ जिसमें चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा जिस वचन में पूर्व के द्वारा प्रागे का बाघा जाता है रूपी व प्ररूपी अजीवद्रव्य तथा भवसिद्धिक (भव्य) वह व्याहत दोष से दूषित होता है। जैसे-कर्मों का और भवसिद्धिक जीवराशि का वर्णन किया कार्य हैं और उनका फल भी है पर उनका कर्ता नहीं जाता है। उसे व्याख्याप्रज्ञप्तिपरिकर्म (दृष्टिवाद है, इस वाक्य में 'उनका कर्ता नहीं है' यह कहने से के अन्तर्गत) कहा जाता है।
उसके पूर्व में निर्दिष्ट कर्मों का अस्तित्व व फल व्याधित-व्याधितः सदा रोगी स्वाध्यायावश्यक- कता के विना वाधा को प्राप्त होता है। भिक्षाटनाद्यक्षमः । (प्राचा. दि.पू. ७४) ।
के ३२ दोषों में ग्यारहवां है।
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व्युत्सर्गावश्यक] १०४५, जैन-लक्षणावली
[व्युत्सर्गशुद्धि व्युत्सर्गप्रावश्यक-सरीराहारेसु हु मण-वयण- ादिकालं कायविसर्जनम्। सद्ध्यानं तन्मलोत्सर्गपवुत्तीग्रो प्रोसारिय ज्झयम्मि एअग्गेण चित्तणिरो- नद्याद्युत्तरणादिषु ॥ (प्राचा. सा. ६-४५)। हो विप्रोसग्गो णाम । (धव. पु. ८, पृ. ८५)। ८. व्युत्सर्गोऽनेषणीयादिषु त्यक्तेषु गमनागमनशरीर और माहार के विषय में मन और वचन सावद्य-स्वप्नदर्शन-नौसन्तरणोच्चार-प्रश्रवणेषु च की प्रवृत्तियों को हटाकर एकाग्रतापूर्वक ध्येय में विशिष्टप्रणिधानपूर्बकः काय-वाङ्मनोव्यापारत्याचित्त के रखने का नाम व्युत्सर्ग है। यह मुनि के गः । (योगशा. स्वो. विव. ४-६०)। ६. व्युत्सर्ग: छह आवश्यकों में अन्तिम है।
कायचेष्टानिरोधोपयोगमात्रेण शुध्यति प्रायश्चित्तम, व्युत्सर्गतप- १. प्रात्माऽऽत्मीयसंकल्पत्यागो व्यु- यथा दुःस्वप्नप्रजनितं तव्युत्सर्गार्हत्वात् व्युत्सर्गः । त्सर्गः । (स. सि. ६-२०) । २. विविधानां बाह्या- (व्यव. भा. मलय. वृ. १-५३)। १०. नियतकालं भ्यन्तराणां बन्धहेतूनां दोषाणामुत्तमस्त्यागो व्युत्स- काय-वाङ्मनसां त्यागो व्युत्सर्गः । (भावप्रा. टी. र्गः। (चा. सा. पृ. ६८) । ३. व्युत्सर्ग: देहे ममत्व- ७८) । ११. स व्युत्सर्गो मलोत्सर्गाद्यतिचारेऽवलम्ब्य निरासः जिनगुणचिन्तायुक्तः कायोत्सर्गः । (मूला. यत् । ध्यानमन्तर्भुहूर्तादिकायोत्सर्गेण या स्थितिः ।। वृ. १-२२)। ४. शरीरान्तर्बहिःसंगसंगव्युत्सर्जनं (अन. ध. ७-५१)। १२. नियतकाल कायस्य मुनेः । व्युत्सर्गः स्यात्समीचीनध्यानसंसिद्धि कार- वाचो मनसश्च त्यागो व्युत्सर्गम् । (त वृत्ति भुत. णम् ॥ (प्राचा. चा. ६-६६) । ५. बाह्यो भक्तादि. ९-२२; कातिके. टी. ४५१) । रुपधिः क्रोधादिश्चान्तरस्तयोः । त्याग व्युत्सर्गमस्व. २ काल के नियम से कायोत्सर्ग प्रादि करना, यह न्तं मितकालं च भावयेत् ॥ बाह्याभ्यन्तरदोषा ये व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त का लक्षण है । ३ दुःस्वप्न प्रावि विविधाः बन्धहेतवः । यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्यु. में जो कायोत्सर्ग किया जाता है। इसे व्यत्सर्ग त्सर्गो निरुच्यते ॥ (अन. घ. ७, ६३-६४)। कहते हैं । ६ दुःस्वप्न, विचार, मलत्याग, प्रागम६. इदं शरीरं मदीयमिति संकल्पस्य परिहतिय॒त्स- विषयक प्रतीचार, नदी, महावन व युद्ध प्रादि तथा र्गः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२०)।
अन्य का अतिचार के होने पर ध्यान के प्राश्रय से १ प्रात्मा और प्रात्मीयरूप संकल्प-महंकार और प्रालम्बन लेकर अन्तर्मुहत, दिन, पक्ष और मास ममकार-के त्याग का नाम व्युत्सर्ग है। २ बन्ध के प्रादि काल तक अवस्थित रहना; इसे व्यत्सर्ग कारणभूत बाह्य और अभ्यन्तर अनेक दोषों का जो प्रयश्चित्त कहा जाता है। उत्कृष्ट त्याग किया जाता है, इसे व्युत्सर्ग कहते हैं। व्युत्सर्गप्रतिमा- व्युत्सर्गप्रतिमा कायोत्सर्गकरणव्युत्सर्गप्रायश्चित्त-१. कायोत्सर्गादिकरणं व्यु- मेवति । (स्थानां. अभय. वृ. ८४) । त्सर्गः। (स. सि. ६-२२; त. श्लो. ९-२२; कायोत्सर्ग करने का नाम ही व्युत्सर्गप्रतिमा है। मूला. वृ. ७-२४) । २. व्युत्सर्गः कायोत्सर्गादि- व्युत्सर्गशुद्धि - देखो प्रतिष्ठापनशुद्धि । चूर्णीकृत्य करणम् । कालनियमेन कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्ग नखान् केशान् विश्लिष्यककमुत्सृजेत् । अनुल्बलणइत्युच्यते । (त. वा. ६, २२, ६)। ३. व्युत्सर्गः कुस्व. मलेपं च श्वेल-सिंहाणकादिकम् ॥ वीक्ष्य पूर्वापरोप्नादौ कायोत्सर्गः । (प्रा. नि. हरि. वृ. पृ. ७६४)। धिःपार्श्वभागान् पुरोदिते । स्याने प्रस्रवणोच्चार ४. झाणेण सह कायमुज्झिदूण मुहत्त-दिवस-पक्ख- वातं निःशब्दमुत्सृजेत् ॥ पश्चाच्छुचि प्रकृत्येष्टकामासादिकालमच्छणं विउस्सपो णाम पायच्छित्तं । विकृत्यादिभिः पुनः । स्याच्क्षालितासनकर: सौवी(धव. पु १३, ५.६१)। ५. कायोत्सर्गादिकरणं रोष्णजलादिभिः॥ जरा-रुजादितः कायं संन्यासेन व्युत्सर्गः परिभाषितः । (त. सा ७-२४) । ६. दुः. त्यजेदिति । व्युत्सर्गशुद्धिः संशुद्धि विधते यमिनामिस्वप्न-दुश्चिन्तन-मलोत्सर्जनाऽऽगमातीचार-नदी-महा- यम् ।। (प्राचा. सा. ८, ७६-८२)। टवी-रणादिभिरन्यश्चाप्यतीचारे सति ध्यानमव- नख और बालों को चूणित करके पृथक करते हुए लम्ब्य कायमुत्सृज्यान्तर्मुहूर्त-दिवस-पक्ष-मासादिकाला- एक एक छोड़े, थूक व नासिका के मल को उल्वण वस्थानं व्युत्सर्ग इत्युच्यते । (चा. सा. पृ. ६३; व लेप से रहित अलग करे; मागे, पीछे, ऊपर, अन.प. स्वो. टी. ५१ उद्.)। ७. व्युत्सर्गोऽन्त
यसोऽन्तर्मह. नीचे पोर पार्श्वभाग में बेखकर निजंन्तस्थान में
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व्युत्सर्गसमिति] १०४६, जैन-लक्षणावलो
[वत मूत्र व मल का त्याग करे एवं शब्द के विना वायु विषयाद्योग्याद् व्रतं भवति ॥ (रत्नक. ३-४०)। . को छोड़े, पश्चात् ईंट के चूर्ण आदि से शुद्धि करे, ३. व्रतिमभिसन्धिकृतो नियमः, इदं कर्तव्यमिदं न । तत्पश्चात सौवीर (कांजी) या गरम जल प्रादि से कर्तव्यमिति वा । (स. सि. ७-१)। ४. व्रतमभिप्रासन व हाथों को प्रक्षालित करे तथा वृद्धावस्था सन्धिकृतो नियमः। बुद्धिपूर्वकपरिणामोऽभिसन्धिः, व रोग से पीड़ित शरीर को संन्यास के साथ छोडे: इदमेवेत्थमेव वा कर्तव्यमित्यन्यनिवत्तिः नियमः, यह सब व्युत्सर्गशुद्धि है । वह मुनिजनों की शुद्धि अभिसन्धिना कृतः अभिसन्धिकृतः सर्वत्र व्रतव्यपदेशको करती है।
भाग भवति। (त. वा. ७, १, ३)। ५. हिंसालियव्युत्सर्गसमिति-१. विजन्तुकधरापृष्ठे मूत्र-श्लेष्म- चोज्जाब्बंभ-परिग्गहे विरदी वदं णाम । (धव. पु. ८, मलादिकम् । क्षिपतोऽतिप्रयत्नेन व्युत्सर्गसमितिर्भ- ८२); असंखेज्जगुणाए सेढीए कम्मणिज्जिरणहेदू वेत् ।। (ज्ञाना. १४, पृ. १६०)। २. कृष्ट-प्लुष्टा- वदं णाम। (धव. पु.८, पृ. ८३)। ६. हिंसाया दिदेशेऽगिछिद्रहीने घने च यः । व्यत्सर्गोऽङ्गमलादेः अनुतात् स्तेयाद् दारसंगात् परिग्रहात् । विरतेव्रतस्याद् व्युत्सर्गसमितियतेः ।। (प्राचा. सा. ५-१३३)। मुद्दिष्टं भावनाभिः समन्वितम् ॥ (पद्मपु. ११.३८)। १जीव जन्तुओं से रहित पृथ्वी के ऊपर मत्र, कफ ७. व्रतं नाम यावज्जीवं न हिनस्मि, नानृतं वदामि,
और मल आदि को जो अतिशय प्रयत्न के साथ नादत्तमाददे, न मैथुनकर्म करोमि, न परिग्रहमाददे फेंका जाता है उसे व्युत्सर्गसमिति कहते हैं। इप्येवंभूत आत्मपरिणामः । (भ. प्रा. विजयो. व्युत्सृष्टमरण-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि त्यक्त्वा । ११८५) । ८. अभिसंधिकृतो नियमो व्रतमित्युच्यते। मरणं व्युत्सृष्टमरणम् । (भ. प्रा. मूला २५)। (चा. सा. पृ. ४)। ६. संकल्पपूर्वक: सेव्ये नियमो दर्शन, ज्ञान और चारित्र को छोड़कर जो मरण व्रतमुच्यते । प्रवृत्ति-विनिवृत्ती वा सदसत्कर्मसंभवे ॥ होता है उसे व्यत्सष्टमरण कहते है।
(उपासका. ३१६) । १०. निश्चयेन विशुद्धज्ञानव्युपरतक्रियानिवृत्ति ---- १. अवितर्क मवीचारं ध्या- दर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्व भावनोत्पन्नसुख-सुधास्वादनं न्युपरतक्रियम् । परं निरुद्धयोगं हि तच्छै लेश्य- बलेन समस्तशुभाशुभरागादिविकल्पनिवृत्तिव॑तम् । मपश्चिमम् ॥ (त. सा. ७-५४) । २. जोगविणासं व्यवहारेण तत्साधकं हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाच्च किच्चा कम्मच उक्कस्स खवणकरणळं। जं ज्झायदि यावज्जीवनिवृत्तिलक्षणं पञ्चविधं व्रतम् । (ब. अजोगिजिणो णिक्किरियं तं चउत्थं च ।। (कार्तिके. द्रव्यसं. ३५)। ११. हिंसायामनृते स्तेये मथुने च ४८७) । ३. विशेषेणोपरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद् परिग्रहे । विरति तमित्युक्तं सर्वसत्त्वानुकम्पकः ।। व्युत्परतं], व्युत्परतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्तकं (ज्ञाना. ६, पृ. ११०) । १२. हिंसाऽनृत-चुराब्रह्मच तद् व्युपरतक्रिया निवृत्तिसंज्ञं चतुर्थ शुक्लध्यानम् । ग्रन्थेभ्यो विरतिव॑तम् । (अन. ध. ४-१६) । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४८)।
१३. संकल्पपूर्वक: सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः । निव१ जो ध्यान वितर्क व वीचार से रहित होता हुमा तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि ॥ (सा.प. क्रिया से विहीन है, जिसमें योगों का निरोध हो २-८०) । १४. व्रतं हिंसादिभ्योऽभिप्रायकृता चुका हो तथा जिसमें शैलेश (मेरु) के समान विरतिः । (भ. प्रा. मूला. ६१)। १५. हिंसादिस्थिरता प्राप्त हो चुकी है (अथवा जिसके होते पंचपातकेभ्यो या बिरतिः विरमणम् अभिसधिकृतो हुए समस्त शीलों का स्वामित्व प्राप्त हो चुका है) नियमः व्रतमुच्यते, अथवा इदं मया कार्यमिदं मया वह व्यपरतक्रिया नाम का अन्तिम (चौथा) शुक्ल- न कार्यमिति व्रतं कथ्यते। (त. वृत्ति श्रुत. ७-१)। ध्यान सर्वोत्कृष्ट है। २ योगों का विनाश करके १६. सर्वसावद्ययोगस्य निवृत्तिव्रतमच्यते । यो जिस ध्यान को अयोगी जिन चार अघाति कर्मो मृषादिपरित्यागः सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ॥ (लाटीके क्षय के लिए ध्याते हैं तथा जो क्रिया से रहित सं. २-२); सर्वसावद्ययोगस्य निवृत्तिव्रतमुच्यते ।। है उसे चौथा शुक्लध्यान माना गया है। (लाटीसं. ४-२४९; पंचाध्या. २-७३५) । तर-. हिंसानत-स्तेयाब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिब्र- १७. हिंसादेविरतिः प्रोक्तं व्रतम Xxx तम् । (त. सू. ७-१) । २. अभिसंधिकृता विरतिः (जम्ब. च. १०-१११); xxx सर्वसङ्गपरि
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व्रतारोपणार्ह ]
त्यागलक्षणं व्रतमग्रहीत् ॥ ( जम्बू. च. १२ - ६६) । १ हिंसा, असत्य, चोरी, श्रब्रह्म और परिग्रह, इनसे विरत होने का नाम व्रत है । २ योग्य विषय से जो प्रभिप्रायपूर्वक निवृत्ति होती है उसे व्रत कहते हैं । ४ यही करने योग्य है और इसी प्रकार से करने योग्य है, इस प्रकार से जो अन्य से बुद्धिपूर्वक निवृत्त होना है, इसे व्रत कहा जाता है । व्रतारोपणार्ह - - १. अचलतायां स्थितः उद्देशिकराजपिपरहणोद्यतः गुरुभक्तिवद् विनीतो व्रतारोपणार्हो भवति । उक्तं च- प्राचलक्के य ठिदो उद्देसादी य परिहरदि दोसे । गुरुभत्तिको विणीप्रो होदि वदाणं सदा अरिहो ॥ ( भ. प्रा. विजयो. ४२१) । २. अवेलायां हि स्थित उद्देशिकादिपिण्डत्यागोद्यतो गुरुभक्तिमान् विनीतश्च व्रतारोपणयोग्यः स्यात् । (भ. प्रा. मूला. ४२१) । १ जो प्रलता (निर्वस्त्रता) में स्थित है, उद्देशिक और राजपिण्ड के परित्याग में उद्यत है, गुरुभक्ति को करने वाला है और विनम्र है वह व्रतारोपण के योग्य होता है ।
यः
व्रतिक - १. निरतिक्रमण मणुव्रत चकमपि शीलसप्तकं चापि । धारयते निःशल्यो योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिकः ॥ ( रत्नक. ५- १७ ) । २. पञ्चाणुवय जो घरइ णिम्मलगुणवय तिष्णि । सिक्खा - वयदं चयारि जसु सो बीयउ मणि मणि || ( सावध. ११) । ३. व्रतिको निःशल्यः पञ्चाणुव्रतरात्रिभोजन विरमण - शीलसप्तकं निरतिचारेण पालयति सः भवति । (चा. सा. पृ. ४) । ४. पञ्चाष्णुव्ययधारी गुणवय- सिक्खावएहि संजुत्तो। दिढचित्तो समजुत्तो णाणी वयसावग्रो होदि ॥ ( कार्तिके. (३३० ) । ५. विभूषण नीव दधाति घीरों व्रतानि यः सर्वसुखाकराणि । ग्राकृष्टुमीशानि पवित्रलक्ष्मीं तं वर्णयन्ते व्रतिनं वरिष्ठाः ॥ ( श्रमित. श्रा. ७, ६८) । ६. पंचैव प्रणुव्वयाई गुणव्वयाई होंति पुण प्रतिष्णि । सिक्खावयाणि चत्तारि जाण विदियम्मि ठामि । ( वसु श्रा २०७ ) । ७. सम्पूर्णदृग्मूल
१०४७, जैन-लक्षणावली
गुणो निःशल्यः साम्यकाम्यया । धारयन्नुत्तरगुणानक्षूणान् व्रतिको भवेत् ॥ ( सा. घ. ४ - १ ) । ८. प्रणुव्रतानि पंचैव सप्तशीलगुणैः सह । प्रपालयति नि:शल्यः भवेद् व्रतिको गृही ॥ ( भावसं वाम. ५३१)। ६. सदृग्मूलगुणः साम्बुकाम्यया शल्यवर्जितः । पाल
[ शकटजीविका
यन्नुतर गुणान् निर्मलान् व्रतिको भवेत् ॥ ( धर्मसं. श्री. ६-१ ) ; पञ्चाणुव्रतपुष्ट्यर्थं पाति यः सप्तशीलकम् । व्यतीचारं दृष्टिः स व्रतिकः श्रावको भवेत् ॥ ( धर्मसं. श्री. ७ - १३० ) । १०. अणुव्रतानि यः पाति शीलसप्तकमप्यसौ । व्रतिकः प्रोच्यते विद्धिः सप्तव्यसनवर्जितः ॥ ( उपासका ३६ ) । ११. उक्ता सहलेखनोपेता द्वादशव्रतभावनाः । एताभिर्वतप्रतिमा पूर्णतां याति सुस्थिता । (लाटीसं. ६-२४६) ।
१ जो माया, मिथ्या और निदान इन तीन शल्यों से रहित होकर निरतिचार पांच प्रणुव्रतों और सात शोलों (३ गुणव्रतों व ४ शिक्षाव्रतों) को धारण करता है वह व्रतिक दूसरी प्रतिमा का धारक होता है ।
व्रती - १. निःशल्यो व्रती । (त. सू. ७-१८ ) | २. व्रतानि प्रसादीनि तदन्तो व्रतिनः । ( स. सि. ६ - १२ ) । ३ व्रताभिसम्बन्धिनो व्रतिनः । व्रतानि XXX अहिंसादीनि तदभिसम्बन्धिनो ये ते व्रतिनः । (त. वा. ६, १२, २) । ४. माया-निदानमिथ्यात्वशत्या भावविशेषतः । अहिंसादिव्रतोपेतो व्रतीति व्यपदिश्यते ।। (त. सा. ४-७८ ) । ५. दुर न्तासारसंसारजनितासातसन्ततेः । यो भीतोऽणुव्रतं याति व्रतिनं तं विदुर्बुधाः । (सुभा. सं. ८३४ ) । ६. यो व्रतानि हृदये महामना निर्मलानि विदधाति सर्वदा । दुर्लभानि भुवने धनानि वा स व्रती व्रतिभिरीरितः सुधीः ॥ ( धर्मसं. श्री. २- ५४) । १ जो श्रहिंसादि व्रतों से सहित होते हैं वे व्रती कहलाते हैं । ४ जो माया, मिथ्या और निदान इन तीन शल्यों से रहित होता हुया श्रहिंसा श्रादि व्रतों से विभूषित होता है उसे व्रती कहा जाता है । शकट -- लोहेण बद्धणेमि तुंब- महाचक्का लोहबद्ध - छुहयपेरंता लोणादीनं गरुग्रमव्वहणक्खमा सयडा णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३८ ) ।
जिसकी धुरा, तुम्ब और विशाल चाक लोहे से सम्बद्ध होते हैं तथा जिसका छुहय पर्यन्त ( ? ) लोहे से बंधा होता है और जो भारी बोझ के ले जाने में समर्थ होती है उसका नाम शकट ( गाड़ी ) है । शकटजीविका - देखो अनोजीविका । शकटानां तदगानां घट्टनं खेटनं तथा । विक्रयश्चेति शकटजीविका परिकीर्तिता ॥ ( त्रि. श. पु. च. ६, ३,
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शकटीकर्म] १०४८, जैन-लक्षणावली
[शङ्का ३३८; योगशा. ३-१०४)।
योग्य नहीं है, अपवित्र होकर भी वह गुण गाड़ी और उसके अंगभत चाक प्रादि का बनाना, रूप रत्नों के संचित करने में उपकारी है। यह उन्हें चलाना तथा बेचना इसे शकटजीविका कहा विचार करके विषयसुख में प्रासक्त न होकर उसका जाता है। वह हिंसा जनक होने से हेय मानी उपयोग दास के समान करना-जिस प्रकार केवल
कार्य के सम्पादनार्थ सेवक को भोजन अथवा वेतन ज्ञकटीकर्म-वेखो शकटजीविका । साडीकम्मं ग्रादि दिया जाता है उसी प्रकार रत्नत्रयादि गुणों सागडीयत्तणेण जीवति, तस्थ अंध-वधमाई दोषाः। के प्राप्त करने के लिए यथायोग्य उस शरीर का (प्राव. प्र. ६, पृ. ८२६)।
पोषण करना- तथा शक्ति के अनुरूप प्रागमानुसार गाड़ी चलाकर उसके द्वारा प्राजीविका के करने को कायक्लेश करना, यह शक्तितस्तप कहलाता है। प्राकटीकर्म कहा जाता है।
शक्तितस्त्याग-१. परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्याशंकटोलिकादोष--पार्णी मीलयित्वाऽग्रचरणौ वि- गः । ग्राहारो दत्तः पात्राय तस्मिन्नहनि तत्प्रीतिहेतुस्तार्य, अङ्गुष्ठौं वा मीलयित्वा पार्णी विस्तार्य भवति, अभयदानमुपपादितमेकभवव्यसननोदनस्थानं शकटोद्धिकादोषः । (योगशा. ३-१३०)। करम्, सम्यग्ज्ञानदानं पुन: अनेक भवशतसहस्रदुःखोदोनों एडियों को मिलाकर व प्रागे के पांवों को तारकारणम्, अत एतत्त्रिविधं यथाविधि प्रतिपाद्यफैला करके स्थित होना अथवा दोनों अंगठों को मानं त्यागव्यपदेशभाग्भवति । (त. वा. . मिलाकर व एड़ियों को फैला करके स्थित होना ६) । २. शक्तितस्त्याग उद्गीत: प्रीत्या स्वस्यातियह एक शकटोद्धिका नामक कायोत्सर्ग का दोष है। सर्जनम् । नात्मपीडाकरं नापि सम्पद्यनतिसर्जनम् ॥ शक्ति-अन्तरायविनाशाद वीर्यलब्धिः शक्तिः । (त. श्लो. ६, २४, ८)। ३. पाहारो दत्तः पात्राय (युक्त्यनु. टी. ४); शक्तिः सामर्थ्य परमागमान्विता तस्मिन्नहनि तत्प्रीतिहेतुर्भवति, प्रभयदानमुपपादितयुक्तिः । (युक्त्य न. टी. ५)।
मेकभवव्यसननोदनकरम, सम्यग्ज्ञानदानं पुनरनेकअन्तराय के विनाश से जो वीर्य की प्राप्ति होती भवशतसहस्रदुःखोत्तारण कारणम्, अतस्त्रिविधाहाहै उसे शक्ति कहते हैं। परमागम से युक्त युक्तिरूप राभय-ज्ञानदानभेदेन यथाविधि प्रतिपाद्यमानं त्यागः। सामर्थ्य को भी प्रसंगानुसार शक्ति कहा गया है। (चा. सा. पृ. २५) । शक्तिस्तप-१. अनिगहितवीर्यस्य मार्गाविरोधि. १पात्रके लिए दिया गया प्राहार उसी दिन में उसकी कायक्लेशस्तपः। शरीरमिदं दुःखकारणमनित्यम- प्रीति का कारण होता है, अभयदान एक भव को शुचि, नास्य यथेष्टभोगविधिना परिपोषो युक्तः, प्रापत्तियों को दूर करने वाला है; सम्यग्ज्ञान का अशुच्यपीदं गुण-रत्नसंचयोपकारीति विचिन्त्य विनि- दान हजारों भवों के दुःखों से मुक्त कराने वाला वृत्तविषयसुखामिष्वङ्गस्य स्वकार्य प्रत्येतद् मृतक- है। इस कारण विधिपूर्वक इस तीन प्रकार के दान मिव नियुञानस्य यथाशक्ति मार्गाविरोधिकाय- को देना, इसे शक्तितस्त्याग कहा जाता है। क्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते। (त. वा. ६, शकुनि-शकुनि: उत्कटवेदोदयः सप्तधातुक्षयेऽपि २४, ७) । २. अनिगूहितवीर्यस्य सम्यग्मार्गाविरो- यस्य कामोद्गमो न क्षीयते । (प्राचा. दि. पृ. ७४)। घतः । कायक्लेशः समाख्यातं विशुद्ध शक्तितस्तपः ।। तीव्र वेद के उदयवश जिसके काम का प्राविर्भाव (त. श्लो. ६, २४, ६)। ३. शरीरमिदं दुःख- सात धातुमों के क्षय में भी क्षीण नहीं होता है उसे कारणमनित्यमशुचि, नास्य यथेष्टं भोगविधिना शकुनि कहा जाता है। परिपोषो युक्तः, अशुच्यपीदं गुण-रत्नसंचयोपकारीति शक्तुक्षेत्र-शक्तुक्षेत्रं यत्र यवा बाहुल्येन समुत्पद्यविचिन्त्य विनिवृत्तविषयसुखाभिष्वगस्य कार्य प्रत्येतद् न्ते सक्तवः संततमुपभुज्यन्ते । (प्राय. स. वि. ४, भृतक मिवनियुञ्जानस्य यथाशक्ति मार्गाविरोधकाय- १३९)। क्लेशानुष्ठानं तपः । (चा. सा. पृ. २५)। जिस स्थान में जो बहुतायत से होते हैं तथा वे उप१ यह शरीर दुःख का कारण, अनित्य और अपवित्र भोग में ही पाते हैं उसे शक्तक्षेत्र कहते हैं। है। प्रभीष्ट भोगों के द्वारा इसको पुष्ट करना शङ्का-१. अधिगतजीवाजीवादितत्त्वस्यापि भग
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शङ्का ]
वतः शासनं भावतोऽभिप्रपन्नस्यासंहार्यमतेः सम्यदृष्टेर तोक्तेषु प्रत्यन्तसूक्ष्मेष्वतीन्द्रियेषु केवलागम गम्येष्वर्थेषु यः सन्देहो भवत्येव [वं ] स्यादिति साशङ्का । ( त. भा. ७ - १८ ) । २. संशयकरणं शङ्का, भगवदत्प्रणीतेषु पदार्थेषु धर्मास्तिकायादिष्वत्यन्त गहनेषु मतिदौर्बल्यात् सम्यगनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः । (श्रा. प्र. टी. ८७) । ३. तत्र शङ्कनं शंका, भगवदर्हत्प्रणीतेषु पदार्थेषु धर्मास्तिकायादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिदौर्बल्यात् सम्यगनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः किमेवं स्यात् नैवमिति संशयकरणं शङ्का । ( श्राव. प्र. ६, पृ. ८१४) । ४. संसयकारणं संका X X X। (जीतक. चू. पू. १३) । ५. शङ्कनं शङ्कितं शङ्का । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ६४, पृ. २६) । ६. विश्वं विश्वविदाज्ञयाभ्युपयतः शङ्कास्तमोहोदयाज्ज्ञानावृत्त्युदयान्मतिः प्रवचने दोलायिता संशयः । दृष्टि निश्चयमाश्रितां मलिनयेत् सा नाहिरज्ज्वादिगा या मोहोदयसंशयात्तदरुचिः स्यात् सा तु संशीतिदृक् ॥ ( अन. ध. २- ७१ ) । ७. शंका सन्देहः सर्वज्ञस्तत्प्रतिपादिताश्चार्था सन्ति न सन्तीति वा । ( चारित्रभ. ३, पृ. १८७ ) । नैर्ग्रन्थ्यं मोक्षमार्गोऽयं तत्त्वं जीवादिदेशितम् । को वेत्तीत्थं भवेन्नो वा भावः शङ्केति कथ्यते ॥ ( धर्मसं. श्री. ४-४५)।
१०४६, जैन - लक्षणावली
१ जीवाजीवादि तत्त्वों के ज्ञाता भगवान् वर्धमान जिनेन्द्र के मत को भाव से स्वीकार करके व उस पर श्रद्धा रखते हुए सम्यग्दृष्टि के जिनोपदिष्ट प्रतिशय सूक्ष्म केवलज्ञानगम्य व श्रागमगम्य ऐसे प्रतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में जो यह सन्देह होता है कि ऐसा होगा या नहीं, यह सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाला एक शंका नाम का प्रतिचार है । ७ सर्वज्ञ श्रौर उसके द्वारा उपदिष्ट पदार्थ हैं प्रथवा नहीं हैं, इस प्रकार का जो सम्देह होता है इसे शंका कहा जाता है।
शङ्कित – १. असणं च पाणयं वा खादीयमध सादियं च अप्पे | कप्पियमकप्पियत्ति य संदिद्धं संकियं जाणे ।। (मूला. ६-४४ ) । २ किमियं योग्या वसतिर्नेति शङ्किता । (भ. प्रा. विजयो. ३-२३० ) । ३. शंकितं शंकितं सेव्यमेतदन्नं न वेति यत् । ( श्राचा. सा. ८-४६) । ४. श्रधाकर्म का दिशङ्का कलुषितो ल. १३२
[ शङ्खावर्तयोनि
यन्नाद्यादत्ते तच्छंकितं यं च दोषं शङ्कते तमापद्यते । (योगशा. स्वो विव. १-३८, पृ. १३६) । ५. संदि धं किमिदं भोज्यमुक्तं नो वेति शङ्कितम् । (अन. ध. ५ - २ ) । ६. किमियं योग्या वसतिर्न वेति शंकिता । ( भ. प्रा. मूला. २३० ) । ७. एतदन्नं सेव्यमसेव्यं वेति शङ्कितम् । ( भावप्रा टी. ६८ ) ।
१ श्रमुक प्रशन पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ प्रागमानुसार ग्रहण करने योग्य हैं। या नहीं, इस प्रकार के सन्देह के रहते हुए यदि उसे ग्रहण किया जाता है तो उससे शंकित नाम का प्रशनदोष होता है । ४ श्रधाकमं प्रादि को शंका से उत्पन्न मलिनता से युक्त साधु जिस श्रन्न को ग्रहण करता है वह शंकित दोष से दूषित होता है ।
शङ्खनिधि - देखो पाण्डुनिधि । १. काल - महाकाल पंडू माणव संखा य पउम- इसप्पा | पिंगल णाणा-रयणो णवणिहिणो सिरिपुरे जादा || उडुजोग्गदव्य भायण-घण्णायुह तूर वत्थ- हम्माणि । रणणियरा णवणिहिणो देंति पत्तेयं ॥ ( ति. प. ४, १३८४ व १३८६) । णट्टविही गाडगविही कव्वस्स य चउव्विहस्स उप्पत्ती । संखे महाणिहिंमी
आभरण
गाणं च सव्वेसि ॥ ( जम्बूद्वी. ३-६६, पृ. २५७ ) । ३. चतुर्द्धा काव्य निष्पत्तिर्नाट्य-नाटकयोविधेः । तूर्याणामखिलानां चोत्पत्तिः शंखान्महा निधेः ॥ ( त्रि. श. पु. च. १, ४, ५८२ ) ।
१ जो निधि सब प्रकार के वाद्यों को दिया करती है उसे शङ्खनिधि कहा जाता है । २ शंखनिधि में नृत्य की विधि, नाटक की बिधि, धर्मादि चार प्रकार के पुरुषार्थ से सम्बद्ध प्रथवा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और संकीर्ण (शौरसेनी) इन चार भाषानों में निबद्ध चार प्रकार के काव्यों (गद्य, पद्य, गेय व चोर्ण) की उत्पत्ति तथा सब वाद्यों की उत्पत्ति कही गई है ।
शङ्खावर्तयोनि - १. तत्थ य संखावत्ते नियमा दु विवज्जए गन्भो || ( मूला. १२ - ६१; गो. जी. ८१) । २. तेसुं संखावत्ता गब्भेण विवज्जिदा होदि ॥ (ति. प. ४, २५१) । ३. शंख इव श्रावर्तो यस्य [स्या: सा ] शंखावर्तका योनिः । (मूला. वू. १२, ६१) ।
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शठवन्दन] १०५०, जैन-लक्षणावली
[शब्ददोष १ शंख के समान घुमाव वाली जिस योनि में गर्भ (शबरी) नामक दोष से मलिन होता है । २ दोनों नहीं रहता उसे शं वावर्तयोनि कहा जाता है। . हाथों को गुह्य प्रदेशों (जननेन्द्रिय) पर रखकर शठवन्दन-१. वीसंभद्राणमिणं सब्भावजडे सढं कायोत्सर्ग में स्थित होना, यह एक कायोत्सर्ग का हवइ एग्रं। कवडंति कइयवंति य सढयावि हंति शबरी नामक छठवां दोष है।। एगट्ठा ।। (प्रव. सारो. १६७)। २. विस्रम्भो शबरीदोष-देस्रो शबरबध्दोष । विश्वासः, तस्य स्थानमिदं वन्दनकम्, एतस्मिन् शबल-शबलं कळुरं चारित्रं यः क्रियाविशेषेर्भवति यथावद्दीपमाने श्रावकादयो विश्वसन्तीत्यर्थः, इत्यभि- ते शबलाः, तद्योगात् साधवोऽपि । (समवा. व. २३)। प्रायेणव सदभावजडे सदभावरहितेऽन्तर्भावशन्ये शबल नाम कर्बर-मिश्रित अनेक रंगों का है, जिन वन्दमाने शिष्ये शठमेतद् वन्दनकं भवतीति । (प्राव. विविध प्रवृत्तियों से चारित्र चित्र-विचित्र होता है हरि. व. मल. हेम. टि. पृ. ८९; प्रव. सारो. वृ. उन्हें शबल कहा जाता है तथा उनके सम्बन्ध से १६७) । ३. शठं शाठ्येन विश्रम्भार्थं वन्दनं ग्ला- वैसा आचरण करने वाले साधुनों को भी शबल नादि व्यपदेशं वा कृत्वा न सम्यग्वन्दनम् । (योग- कहा जाता है। शा. स्वो. विव. ३-१३०)।
शब्द-१. शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायति, शप्यते १ मेरे यथाविधि वन्दना करने पर श्रावक प्रादि येन, शपनमात्रं वा शब्दः । (त. वा. ५, २४, १)। मेरे ऊपर विश्वास करेंगे, इस अभिप्राय से वन्दना २. बाह्यश्रवणेन्द्रियावलम्बितो भावेन्द्रियपरिच्छेद्यो को विश्वास का स्थान मानकर छल से जो वन्दना ध्वनिः शब्दः । (पंचा. का. प्रमत. वृ. ७९)। की जाती है उसे शठवन्दन कहा जाता है । कपट, ३. शब्द: श्रवणेन्द्रियगोचरो भावः । (सिद्धिवि. व. कंतव प्रौर शठता ये समानार्थक हैं।
१,२, पृ. ५९४)। ४. शब्द्यते अभिधीयते मनेनेति शतपृथक्त्व-तिस्सदप्पहुडि जाव णवसदाणि त्ति शब्दों ध्वनिः श्रोत्रेन्द्रियविषयः । (स्थानां. प्रभय. एदे सम्ववियप्पा सदपुत्तमिदि वुच्चंति । (धव. पु. वृ. ४७); शब्द्यते अभिधीयतेऽभिधेयमनेनेति शब्दो ७, पृ. १५७)।
वाचको ध्वनिः । xxx शब्दनमभिधानम्, तीन सौ से लेकर नौ सौ तक जितने विकल्प हैं वे शब्द्यते वा यः, शब्द्यते वा येन वस्तु स शब्दः, सब शतपृथक्त्व के अन्तर्गत हैं।
तदभिधेयविमर्शपरो नयोऽपि शब्द एवेति । (स्थानां. शत्रु-नास्त्यविवेकात्परः प्राणिनां शत्रुः । (नीति. अभय. व. १८६) । ५. शब्दो वर्ण-पद-वाक्यात्मको वा. १०-४५, पृ. १२१)।
ध्वनिः । (लघीय. अभय. वृ. १६, पृ. ६६)। प्राणियों का शत्रु विवेकशून्यता है, उसको छोड़ १ जो अर्थ को बुलवाता है-जतलाता है, जिसके अन्य कोई शत्रु नहीं है।
द्वारा पदार्थ का ज्ञान कराया जाता है उसे अथवा शनैश्चरसंवत्सर-शनैश्चरनिष्पादितः संवत्सरः उच्चारण मात्र को शब्द कहते हैं। इस प्रकार शनैश्चरसंवत्सरः शनैश्चरसम्भव: । (सूर्यप्र. सू. यहां कर्ता, करण और भाव की अपेक्षा शब्द मलय. वृ. १०-२०, पृ. १५४)।
का निरुक्त्यर्थ प्रगट किया गया है। २ जो बाह्य शनैश्चर गृह से सम्भव वर्ष का नाम शनैश्चर. श्रोत्रेन्द्रिय के प्राश्रित है तथा भाव श्रोत्रेन्द्रिय के संवत्सर है।
द्वारा जाना जाता है उसका नाम शब्द है। ४ श्रोशबरबधुदोष-१. शबरबधूरिव जंघाभ्यां जघने बेन्द्रिय को विषयभूत ध्वनि को शब्द कहा जाता है। निपीड्य कायोत्सर्गेण तिष्ठति तस्य शबरबधूदोषः। शब्ददोष-१. शब्दं ब्रुवाणो यो वन्दनादिकं करोति (मूला. व. ७-१७१)। २. हस्तो गुह्य देशे स्थाप- मौनं परित्यज्य तस्य शब्ददोषः। (मूला. वृ.७, यित्वा शबर्या इव स्थानं शबरीदोषः । (योगशा. १०८) । २. शब्दो जल्पक्रिया xxx। (मन, स्वो. विव. ३-१२६)। ३. गुह्यं कराभ्यामावृत्य घ. ८-१०६)। शबरीवच्छवर्यपि । (अन. घ. ८-११४)। १ जो मौन को छोड़कर शब्द करता हुमा बन्दना १ भील स्त्री के समान जंघाओं से जघनों को पीड़ित प्रादि करता है उसके शब्ददोष होता है। यह एक कर कायोत्सर्ग में स्थित होने पर वह शबरबधू वन्दना का दोष है।
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शब्दनय] १०५१, जैन-लक्षणावली
[शब्दाकुल शब्दनय--१. इच्छइ विसेसिययरं पच्चुप्पण्णो भावनिक्षेपरूपं वर्तमानमभिन्नलिङ्गवाचकं बहुपर्याय. नमो सहो। (प्राव. नि. ७५७) । २. लिङ्ग-संख्या- मपि च वस्त्वभ्युपगच्छतीति । (स्थानां. अभय. व. साधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दनयः । (स. सि. १८६)। १८ जो वट्टणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्णलिंग१-३३) । ३. सः (शब्दः) च लिङ्ग-संख्या-साध- माईणं । सो सदृणो भणियो णेनो पुस्साइप्राण नादिनिवृत्ति परः। लिङ्गं स्त्रीत्व-पुंस्त्व-नपुंसकत्वा- जहा॥ ग्रहवा सिद्धे सहे कीरइ जं किंपि अत्थनि, संख्या एकत्व-द्वित्व-बहुत्वानि, साधनमस्मदादि, ववहारं । तं खलु सद्दे विसयं देवो सद्देण जह देवो ।। एवमादीनां व्यभिचारो न न्याय्य इति तन्निवृत्ति- (ल. नयच. ४०-४१; व्यस्व. प्र. नयच. २१२, परोऽयं नयः । (त. वा. १, ३३, ६)। ४. काल- २१३)। १६. काल-कारक-लिङ्गादिभेदादर्थभेदकारक-लिङ्गानां भेदाच्छब्दोऽर्थभेदकृत् । (लघीय. कृच्छब्दनयः। (लघीय. अभय. वृ. ७२, पृ.६२) । ४४)। ५. काल-कारक-लिङ्गभेदात् शब्द: अर्थ भेद- २०. शब्दाद व्याकरणात्प्रकृति-प्रत्ययद्वारेण सिद्धः कृत । (लघीय. स्वो. वृ.७२)। ६. शब्दो लिङ्गादि- शब्दः (कार्ति. 'सिद्धशब्दः शब्दनयः' xxx) भेदेन वस्तुभेदं समुद्दिशन् । (प्रमाणसं. ७)। लिंग-संख्या-साधनादीनां व्यभिचारस्य निषेधपरः, ७. शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवणः शब्दनयः। (धव. पु. लिंगादीनां व्यभिचारे दोषो नास्तीत्यभिप्रायपरः १, पृ.८६-८७); शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्दनय उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-३३; कातिके. शब्दः । अयं नयः लिङ्ग-संख्या-काल-कारक-पुरुषोप- टी. २७५) । ग्रहव्यभिचार निवृत्तिपरः। (घव. पु. ६, पृ. १७६; १ जो नय विशेषिततर नाम, स्थापना और द्रव्य जयष. १, पृ. २३५) । ८. कालादिभेदतोऽथेस्य निक्षेप की अपेक्षा न करके समान लिंग व समानभेदं यः प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनयः शब्दप्रधा- वचन रूप पर्याय शब्द के वाच्यभूत प्रत्युत्पन्न नत्वादुदाहृतः ॥ (त. श्लो. १, ३३, ६८) । ६. (वर्तमान) अर्थ को ग्रहण करता है उसे शब्दनय लिंग-साधन-संख्यान-कालोपग्रहसंकरम । यथार्थ- कहते हैं। २ जो नय लिग, संख्या और साधन शब्दनाच्छब्दो न वष्टि ध्वनितन्त्रकः । (ह. पु. ५८, प्रादि के व्यभिचार को दूर करके शब्दार्थ को ग्रहण ४७)। १०. लिङ्ग-साधन-संख्यानां कालोपग्रहयो- करता है वह शब्दनय कहलाता है। स्तथा । व्यभिचारनिवृत्तिः स्याद्यतः शब्दनयो हि शब्दनयाभास-अर्थभेदं विना शब्दानामेव नानासः ।। (त. सा. १-४८) । ११. सव्वेसि वत्थूणं त्वकान्तस्तदाभासः । (प्रमेयर. ६-७४) । संखा-लिंगादिबहुपयारेहिं । जो साहदि णाणत्तं सद्द- अर्थभेद के विना केवल शब्दों के ही सर्वथा नानात्व णयं तं वियाह ।। (कातिके. २७५) । १२. शब्द- को स्वीकार करना, यह शब्दनयाभास का लक्षण द्वारेणवास्यार्थप्रतीत्यभ्युपगमाल्लिङ्ग-वचन- साधनो- है। पग्रह-कालभेदाभिहितं वस्तु भिन्नमेवेच्छति । (सूत्र- शब्दश्रावण-देखो शब्दानुपात ।
म.मी.व. २-७, प. ११८)। १३. काल- शब्दसमय- १. पञ्चानामस्तिकायानां समो कारक-लिङ्ग-संख्या-साधनोपग्रह भेदाद्विन्नमर्थं शप- मध्यस्थो राग-द्वेषाभ्यामनुपहतो वर्ण-पदबाक्यसति. तीति शब्दो नयः, शब्दप्रधानत्वात् । (प्र. क. मा. वेशविशिष्टः पाठो वाद: शब्दसमयः शब्दागमः । ६-७४, पृ. ६७८)। १४. भेदैः शब्दार्थभेदं (पंचा. का. अमृत. वृ.३) । २. पञ्चानां जीवानयन् स वाच्यः कारकादिस्वभावः । (सिद्धि- द्यस्तिकायानां प्रतिपादको वर्ण-पद-वाक्यरूपो वादः वि. ११-३१, पृ. ७३६) । १५. काल-का- पाठः शब्दसमयो द्रव्यागम इति यावत् । (पंचा. का. रक-लिङ्गानां भेदाच्छब्दस्य कथञ्चिदर्थभेदकथनं जय. वृ. ३)। शब्दनयः । (प्रमेयर. ६-७४) । १६. यथार्थप्रयोग- १ जीवादि पांच प्रस्तिकायों के विषय में समया संशब्दनाच्छब्दोऽर्थभेदकृत, काल-कारक-लिङ्गानां मध्यस्थ-रागद्वेष से रहित होकर जो वर्ण, पदव भेदात। मला. व.ह-६७) । १७. शब्दनमभिधा- वाक्य की रचना से विशिष्ट पाठ होता है उसे वार नम, शब्द्यते वा यः, शब्द्यते वा येन वस्तु स शब्दः। शब्दसमय अथवा शब्दागम कहा जाता है। तदभिधेयविमर्शपरो नयोऽपि शब्द एवेति, स च शब्दाकूल-देखो शब्दाकलितदोष ।
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शब्दाकुलितदोष ]
शब्दाकुलित दोष -१ इय प्रवत्तं जइ सावेंतो दोसे कहेइ सगुरूणं । आलोचणाए दोसो सत्तमो सो गुरुसया से || ( भ. प्रा. ५६१ ) । २. पाक्षिक चातुर्मासिक-सांवत्सरिकेषु कर्मसु महति यतिसमवाये आलोचनशब्दाकुले पूर्वदोषकथनं सप्तमः (चा. सा. 'सप्तमः शब्दाकुलितदोष : ' ) । (त. वा. ६, २२, २; चा. सा. पृ. ६१) । ३. बहुयतिजनालोचनाशब्दाकुले स्त्रदोषनिवेदनम् । ( त इलो. ६ - २२ ) । ४. शब्दाकुलितं पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिकादिप्रतिक्रमणकाले बहुजनशब्दसमा कुले श्रात्मीयापराधं निवेदयति तस्य सप्तमं शब्दाकुलं नामालोचनादोषजातम् । (मूला. वृ. ११-१५) । ५. प्रतिव्रातधनध्वाने स्वदोषपरिकीर्त्तनम् । लज्जाद्यैः पाक्षिकादो यत्तच्छब्दाकुलितं मतम् ॥ ( श्राचा. सा. ६-३४) । ६. शब्दाकुलं वृहच्छब्दं यथा भवत्येवमालोचयति, इदम् उक्तं भवति - महता शब्देन तथालोचयति यथाऽन्येऽप्यगीतार्थादयः शृण्वन्तीत्येषः सप्तमः ( शब्दाकुलितः ) प्रालोचनादोषः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ३४२, पृ. १६ ) । ७. शब्दाकुलं गुरोः स्वागः शब्दनं शब्दसंकुले । (अन. ध. ७ - ४२ ) । ८. यदा वसतिकादी कोलाहलो भवति तदा पापं प्रकाशयतीति शब्दाकुल दोषः । ( भावप्रा. टी. ११८) ।
१ यदि आलोचना करने वाला साधु श्रव्यक्त रूप से गुरुजन के समक्ष अपने दोषों को सुनाता हुआ कहता है तो इस प्रकार से श्रालोचना का सातवां (शब्दाकुल या शब्दाकुलित दोष) होता है । २ पाक्षिक, चातुर्मासिक प्रथवा वार्षिक प्रतिक्रमण के समय में जब बहुत से साधुजन एकत्रित होते हैं व स्थान श्रालो चना के शब्द से व्याप्त होता है तब ऐसे समय में पूर्व दोषों के कहने पर वह आलोचना सातवें शब्दाकुलित नाम के दोष से दूषित होती है । ६ महान् शब्द के साथ इस प्रकार से श्रालोचना करना कि जिससे अन्य प्रगीतार्थ ( विशेष श्रागमज्ञान से रहित) जन सुन सकें, यह श्रालोचना का शब्दाकुल या शब्दाकुलित नामक सातवां दोष है । शब्दागम - देखो शब्दसमय ।
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शब्दानुपात - १. व्यापारकरान् पुरुषान् प्रत्यभ्यु - कासिकादिकरणं शब्दानुपातः । ( स. सि. ७-३१; चा. सा. पृ. ६) । २. अभ्युत्का सिकादिकरणं शब्दानु
१०५२, जैन-लक्षणावली
[शम
पातः । व्यापारकरान् पुरुषान् उद्दिश्याभ्युत्का सिकादि करणं शब्दानुपातः शब्द्यते । (त. वा. ७, ३१, ३) । ३. शब्दानुपात: स्वगृहवृत्ति [ति ] प्राकारकादिव्यवच्छिन्नभूदेशाभिग्रहेऽपि बहिः प्रयोजनोत्पत्ती तत्र स्वयं गमनायोगात् वृत्ति [ति ] प्राकारप्रत्यासन्नवर्तनो बुद्धिपूर्वकं क्षुत् कासितादि शब्दकरणेन समवासितकान् बोधयतः शब्दस्यानुपातनम् उच्चारणं तादृग् येन परकीयश्रवणविवर मनुपतत्यसाविति । ( श्राव. नि. हरि. वृ. श्र. ६, पृ. ८३५) । ४. प्रभ्युत्कासिकादिकरणं शब्दानुपात: । (त. इलो. ७-३१) । ५. मर्यादीकृतदेशाद् बहिर्व्यापारं कुर्वतः कर्मकरान् प्रति खातकरणादिः शब्दः । ( रत्नक. टी. ४-६ ) । ६ स्वगृहवृत्ति [ति ] प्राकारादिव्यवच्छिन्नभू दे - शाभिग्रहः प्रयोजने उत्पन्ने स्वयमगमनाद् वृत्ति [ति ] प्राकारप्रत्यासन्नवर्ती भूत्वा अभ्युत्कासितादिशब्द करोति श्राह्वानीयानां श्रोत्रेऽनुपातयति, ते च तच्छब्दश्रवणात्तत्समीपमागच्छन्ति इति शब्दानुपातोऽतिचार: । (योगशा. स्वो विव. ३-११७) । ७. शब्दश्रावणं शब्दस्याभ्युत्क शिकादेः श्रावणमाह्वानीयानां श्रोत्रेऽनुपातनं शब्दानुपातनं नामातिचारमित्यर्थः । (सा. ध. स्व. टी. ५-२७ ) । ८. शब्दानुपातनामापि दोषोऽतीचारसंज्ञकः । संदेशकरणं दूरे तद्व्याकरान् प्रति ॥ ( लाटीसं. ६-१३१) । ६. निषिद्धदेश। स्थितान् कर्मकरादीन् पुरुषान् प्रत्युद्दिश्य अभ्युत्का सिकादिकरणं कण्ठमध्ये कुत्सितशब्दः कासनं कासः अभ्युत्का सिका कथ्यते तं शब्दं श्रुत्वा ते कर्मकरादयः व्यापारं शीघ्र साधयन्ति इति शब्दानुपात: । (त. वृत्ति श्रु. ७-३१) ।
१ मर्यादित क्षेत्र के बाहिर व्यापार करने वाले पुरुषों को लक्ष्य करके खांसने श्रादि का शब्द करने पर देशावकाशिक व्रत को मलिन करने वाला शब्दानुपात नाम का प्रतिचार होता है । शम - १. चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिट्ठो | मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणी
समो ॥ ( प्र. सा. १ - ७ ) । २. क्रोधादिशान्तिः शमः । ( युक्त्यनु. टी. ३८ ) । ३. शम: प्रशमः क्रूराणामनन्तानुबन्धिनां कषायाणामनुदयः । (योगशा. स्वो विव. २- १५ ) ; शमः कषायेन्द्रियजयः । (योगशा. स्वो विव. २- ४० ) । ४. अनन्तानुबन्धिकषायाणामनुदयः शमः । स प्रकृत्या कषायाणां
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शमिला]
१०५३, जैन-लक्षणावली [शय्यापरिषहक्षमा विपाके क्षणतोऽपि वा ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, प्रदेशाः विकृतांगगुह्यदर्शनकाष्ठमयालेख्य-हास्योपभो६१२)। ५: विरागत्वादिना निविकारमनस्त्वं शमः। गमहोत्सववाहनदमनायूधव्यायामभमयश्च संगकार(प्रलं. चि. टी. ५-२)।
णानीन्द्रियगोचरा मद-मान-शोक-कोप-संक्लेशस्था१ दर्शनमोहनीय स्वरूप मोह और चारित्रमोहनीय- नादयश्च परिहर्त्तव्याः, अकृत्रिमा गिरिगुहा-तरुकोटस्वरूप क्षोभ इन दोनों से रहित प्रात्मा के परिणाम रादयः कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा को शम कहते हैं । चारित्र, धर्म और शम ये समा. अनात्मोद्देशनिर्वत्तिता निरारम्भाः सेव्याः । (चा. सा. नार्थक हैं । ३ दुष्ट अनन्तानुबन्धी कषायों के उद- पृ. ३६)। ३. अनात्मोद्देशनिष्पन्ने नि रारम्भेऽन्ययाभाव का नाम शम है।
सम्भते । शून्यागारादिदेशे न नस्त्री-क्षुद्रनटादिके ॥ शमिला-जवखीली समिला णाम । (धव. पू. पुत्सर्गादिश्रमोच्छित्त्यै शयनासनयोः कृतिः । यते१४, पृ. ५०३)।
रत्यल्पकालं सा शयनासनशुद्धिधी: ।। (प्राचा. सा. बैल के कन्धे पर रखे जाने वाले जएं की कील का ८, ७७-७८)। नाम शमिला है।
१ स्त्री, क्षुद्र जन, चोर, मद्यपायी. जुगारी और शमिलामध्य-दोण्हं समिलाणं मज्झं समिला
व्याध प्रादि पापी जन जहां रहते हों ऐसे स्थानों
को छोड़कर जो शाला प्रादि शृगार, विकार, भूषण मझ । (धव. पु. १४, पृ. ५०३)।।
व उज्ज्वल वेष वाली वेश्यायों की क्रीडातथा मनोहर दो शमिलाओं के मध्य को शमिलामध्य कहते हैं ।
गीत व वादित्रों से व्याप्त हों उनका भी परित्याग शम्भव-शं सुखं भवत्यस्माद् भव्यानामिति शम्भ
करते हुए अकृत्रिम गुफा व वृक्ष के कोटर अथवा वः। (अन. ध. स्वो. टी. ८-३६)।
कृत्रिम सूने घर आदि या छोड़े गये ऐसे स्थानों में जिसके पाश्रय से भव्य जीवों को सुख होता है
रहना जो अपने निमित्त से न बनाये गये हों तथा उसे शम्भव कहा गया है। यह तीसरे तीर्थंकर का
प्रारम्भ से रहित हों; यह सब शयनासनशुद्धि के एक सार्थक नाम है।
अन्तर्गत है। शयनक्रिया-दण्डायतशयनादिका शयनक्रिया । शय्या-शय्या मनोज्ञामनोज्ञवसतिः संस्तारको वा। (भ. प्रा. विजयो. ८६); शयनक्रिया दण्डायतस्वा- (सपवा. अभय.व. २२)। पादिका । (भ. प्रा. मूला. ८६)।
मनोज या अमनोज्ञ वसति अथवा बिछौने को शय्या दण्ड के समान स्थिरता से सोने व करवट आदि के
कहा जाता है। न बदलने का नाम शयन किया है। यह नग्नता के शय्यापरिषहक्षमा-१. स्वाध्याय-ध्यानाध्वश्रमप्रभाव से होने वाले अनेक लाभों में से एक है। परिखेदितस्य मोहूतिकी खर-विषम-प्रचुरशर्करा-कपाशयनासनशुद्धि-- १. संयतेन शयनासनशुद्धिपरेण लसङ्कटातिशीतोष्णेषु भूमिप्रदेशेषु निद्रा'नुभवतो स्त्री-क्षद्र-चौर-पानाक्षशौण्ड-(त. श्लो. 'स्त्री-वधिक- यथा कृतकपार्श्वदण्डायतादिशायिन प्राणिवाधाचौर-पानशौण्ड'-) शाकुनिकादिपापजनवासा वाः परिहाराय पतितदारुवद् व्यपगतासुबदपरिबर्तमानस्य (त. श्लो. 'वाद्याः'), शृंगारविकारभूषणोज्ज्वलवेष- ज्ञान भावनावहितचेतसोऽनुष्ठित व्यन्तरादिविविधोपवेश्याक्रीडाभिरामगीत-नृत्य-वादित्राकुलशालादयश्च सर्गादप्यचलितविग्रहस्यानियमितकालां तकृतबाधां (त. श्लो. 'च' नास्ति) परिहतंव्याः, अकृत्रिम- क्षममाणस्य शय्यापरिषहक्षमा कथ्यते। (स. सि. गिरिगृहा-तरु- (त. श्लो. 'गुहांतर'-) कोटरादयः ६-६)। २. प्रागमोदितशयनात अप्रच्यवः शय्याकृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा अना- सहनम् । (त. वा. , ६, १६; त. श्लो. 8-९); त्मोद्देशनिर्वतिता निरारम्भाः सेव्याः। (त. वा. स्वाध्याय ध्यानाध्वश्रमपरिखेदितस्य मोहूर्तिकी खर६, ६, १६; त. श्लो. ६-६) । २. संयतेन शय- विषम-प्रचुरशर्करा-कपालसंकटातिशीतोष्णेषु भूमिनासन शुद्धिपरेण स्त्री-क्षुद्र-चौर-पानाक्षशोण्ड-शाकुनि- प्रदेशेषु निद्रामनुभवतो यथाकृत्येकपाश्र्वदण्डायतादिः कादिपापजनावासा वाः, शृंगारविकार-भूषणो- शायिनः संजातबाधाविशेषस्य संयमार्थमस्पन्दमान-. ज्ज्वलवेष-वेश्याक्रीडाभिराम-गीत- नृत्य-वादित्राकुल- स्यानुतिष्ठतो व्यन्तरादिभिर्वा वित्रास्यमानस्य पला- ...
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शय्यापरिषहक्षमा] १०५४, जैन-लक्षणावली
[शरीरनामकर्म यनं प्रति निरुत्सुकस्य मरणभयनिविशंकस्य निपतित- शय्यापरिषह पर विजय प्राप्त करना है। दारुवत् व्यपगतासुवच्चापरिवर्तमानस्य द्वीपि-शार्दूल- शय्यापरीषहजय-देखो शय्यापरिषहक्षमा। महोरगादिदुष्टसस्वपरिचितोऽयं प्रदेशोऽचिरादतो
शय्यापरीषहसहन-देखो शय्यापरिषहक्षमा। निर्गमनं श्रेयः कदा नु रात्रीविवसतीति (चा. सा.
शय्यासहन-देखो शय्यापरीषहक्षमा। 'रात्रिविरमतीति') विषादमनादधानस्य सुखप्राप्ता
शय्या-संस्तर विवेक-एवं कायेन प्रागध्यषितायो वप्यपरितुष्यतः पूर्वानुभूतनवनीतमृदुशयनरतिमनु
वसतावनासनं संस्तरे वा प्राक्तनेऽशयनमनासनं वा, स्मरतः सम्यगागमोदितशयनादप्रच्यव: शय्यासहन
वाचा त्यजामि संस्तरमिति वचनं च शय्या-संस्तरमिति प्रत्येतव्यम् । (त. वा. ६, ६, १६; चा. सा.
विवेकः। (भ. प्रा. मला. १६६) । पृ. ५३)। ३. शय्या स्वाध्याय ध्यानाध्वश्रमपरिखेदितस्य खर-विषम-शर्कराद्याकीर्णभूमौ शयनस्यक
जिस वसति में पहले निवास किया है उसमें न
रहना, अथवा जिस बिछौने पर पहले सोया है उस पार्वे दण्डशयनादिशय्याकृतपीडा, xxx तस्याः
पर न सोना; यह कायिक शय्या संस्तरविवेक सहनं शय्यापरीषहसहनम् । (मूला. वृ. ५-५८)। ४. झंझावातहतार्तकौशिक-शिवाफेत्कारपोरस्वरां शंपा
कहलाता है । तथा 'संस्तर को मैं छोड़ता हूँ', इस
प्रकार वचन से कहना, इसे वाचिक शय्या-संस्तरक्रूररदां स्फुरद्रुचितडिज्जिह्वां क्षपा-राक्षसीम् । यो
विवेक कहा जाता है। तं [यस्तां] द्राग् गमयत्यसो शयनजातायासजिद् धीरघीर्वान्तात्यन्तकरालभूधरदरीदेशे प्रसुप्तः क्षण
शरीर - १. विशिष्टनामकर्मोदयापादितवत्तीनि म् ॥ श्रान्तः सन् श्रुतभावनाऽनशन-सध्यानाध्व
शीर्यन्त इति शरीराणि। (स. सि. २-३६)। यानादिभिः स्तोक कालमतिश्रमापहृतये शय्या
२. शीर्यन्त इति शरीराणि xxx शरीरनामनिषद्ये भजन् । (माचा. सा. ७, ११-१२) । ५. कर्मोदयाच्छरीरम् । (त. वा. २, ३६, १-२) । शय्यापरीषहसहोऽस्मृतहंसतूलप्रायोऽविषादमचलरिय- ३. सरीरं सहावो सील मिदि एयट्रो।xxxअणंमान्मुहूर्तम् । प्रावश्यकादिविधिखेदनुदे गुहादी, ताणतपोग्गल- (परमाण-) समवानो सरीरं । (धव, यस्रोपलादिशबले शववच्छयीत । (प्रन. घ. ६. पु. १४, पृ. ४३४-३५) । ४. भोगायतनं शरीरम। ह)६. स्वाध्यायादिना खेदितस्य विषमादि- (नौतिवा. ६-३१, पृ. ७६) । शीतादिषु भूमिषु निद्रां मोहूतिकीमनुभवत एकपा- १ विशिष्ट नामकर्म के उदय से जो अस्तित्व में प्राकर
दिशायिनो ज्ञातवाधस्याप्यस्पन्दिनो व्यन्तरादि- शोणं होता है -गलता है-उसका नाम शरीर है। भिविशस्यमानस्यापि त्यक्तपरिवर्तन - पलायनस्य
न.पलायन ३xxx अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणुत्रों के समूह शार्दूलादिसहितोऽयं प्रदेशोऽचिरादतो निर्गमः श्रेयान् को शरीर कहते हैं। ४ भोगों का जो स्थान (प्राधार) कदा रात्र्यं विरमतीत्यकृतविषादस्य मृदुशयनमस्म
साविलाय मशयनमस्म है उसे शरीर कहा जाता है। रतः शयनादप्रच्यवतः शय्यासहनम् । (मारा. सा. शरीरनामकर्म--१. यदुदयादात्मनः शरीरनिवत्तिः टी. ४०)।
स्तच्छरीरनाम । (स. सि. ८-११; त. वा. ८, १ स्वाध्याय, ध्यान अथवा मार्ग के श्रम से खेद को ११, ३; त. श्लो. ८-११, मूला. व. १२-१९३: प्राप्त हा साधु तीक्ष्ण, विषम, अधिक रेतीले, भ. प्रा. मूला. २१२४) । २. जस्स कम्मस्स उदएण
करीले. शीत अथवा उष्ण भूमिप्रदेशों में निद्रा प्राहारवग्गणाए पोग्गलक्खंधा तेजा-कम्मइयवग्गण. का अनुभव करता है । तब वह एक करवट से दण्ड पोग्गलक्खंधा च शरीरजोग्गपरिणामेहि परिणदा के समान लेटता है, प्राणिबाधा का परिहार करता संता जीवेण संबज्झति तस्स कम्मक्खंधस्स सरीरहै, गिरेहए काठ अथवा शव के समान निश्चल मिदि सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ५२); जस्स कम्मरहता है.ज्ञान के चिन्तन में चित्त को लगाता है, स्स उदएण ओरालिय-वे उध्विय-पाहार-तेजा-कम्म. व्यन्तर आदि के द्वारा किये गये भयानक उपद्रव से इयसरीरपरमाणु जीवेण सह बंधमागच्छति । विचलित नहीं होता, इस प्रकार से जो वह अनियत सरीरणामं । (धव. पु. १३, प. ३६३) । ३. यस्य समय तक उस बाधा को सहता । यह उसका कर्मस्कन्धस्योदयेनाहार-तेजःकार्माणवर्गणापूदगलस्क
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शरीरनामकर्म]
१०५५, जैन-लक्षणावली [शरीरबन्धननामकर्म घाः शरीरयोग्यपरिणामः परिणता जीवेन परिणत पुदगलस्कन्धों को प्रस्थि (हडी) प्रादि सम्बन्ध्यन्ते तस्य शरीरमिति संज्ञा। (मला. प. स्थिर अवयवों स्वरूप से तथा तैल समान रसभाग २२-२६३)। ४. शरीरनाम यदयादौदारिकादि को रस, रुधिर, चर्वी और वीर्य प्रादि द्रवरूप प्रव. शरीरं करोति । (समवा. व. ४२)।
यवों के द्वारा प्रौदारिक प्रादि तीन शरीररूप परि. १ जिसके उदय से प्रात्मा के शरीर की रचना होती णमन की शक्ति से यक्त स्कन्धों की जो प्राप्ति होती है उसे शरीर नामकर्म कहते हैं। २ जिसके उदय है उसे शरीरपर्याप्ति कहते हैं। २ रस की जो से प्राहारवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध तथा तेजस और सात धातुनों स्वरूप परिणत होने की शक्ति कार्माण वर्गणा के प्रदगलस्कन्ध शरीरयोग्य परि. है उसका नाम शरीरपर्याप्ति है। णामों से परिणत होकर जीव के साथ सम्बन्ध को शरीरवकुश-१. शरीरसंस्कारसेवी शरीरवकुशः । प्राप्त होते हैं उस पुदगलस्कन्ध को शरीरनाम. (स. सि. ९-४७; त. वा. ६, ४७, ४; चा. सा. कर्म कहा जाता है। ४ जिसके उदय से प्रौदारिक पृ. ४६)। २. वपुरभ्यंग-मदन-क्षालन-विलेपनादि. मावि शरीर को करता है वह शरीर नामकर्म संस्कारभागी शरीरवकुशः । (त. वृत्ति श्रुत. ६, कहलाता है। शरीरनिवत्तिस्थान-सरीरपज्जत्तीए पज्जत्ति- जो मनि शरीर के संस्कार को अपनाता है उसे णिवत्ती सरीरणिव्वत्तिद्वाणं णाम । (धव. पु. १४, शरीरवकुश कहा जाता है। १.५१६)।
शरीरबन्ध-पंचण्णं सरीराणमण्णोण्णण [जो] शरीरपर्याप्ति से पर्याप्तिनिर्वृत्ति का नाम शरीर- बंधो सो शरीरबंधो णाम । (घब. पु. १४, पृ. ३०)। निवृत्तिस्थान है।
पांच शरीरों का जो परस्पर में बन्ध होता है उसे शरीरपर्याप्ति-१. तं खलभागं तिलखलोपम- शरीरबन्ध कहते हैं। मस्थ्यादिस्थिरावयवैस्तिलतलसमानं रसभागं रस- शरीरबन्धननामकर्म-१. सरीरटुमागयाणं पोरुधिर-वसा-शुक्रादिद्रवावयवैरीदारिकादिशरीरत्रयप- गलक्खंधाणं जीवसंबद्धाणं जेहि पोग्गले हि जीवरिणामशक्त्युपेतानां स्कन्धानामवाप्तिः शरीरपर्या- सम्बद्धेहि पत्तोदएहि परोप्परं बंधो कीरइ तेसि प्ति: । (धव. पु. १, पृ. २५५); प्रागदपोग्गलेसु पोग्गलक्खंधाणं सरीरबंधणसण्णा । (धव. पु. ६, पृ. अंतोमुहुत्तेण सत्तधादुसरूवेण परिणदेसु सरीरपज्ज- ५२-५३); जस्स कम्मस्स उदयेण जीवेण संबद्धाणं ती णाम । (धव. पु. १४, पृ ५२७) । २. शरीर- वग्गणाणं अण्णोण्णं संबधो होवि सं कम्मं सरीरपर्याप्तिः सप्तधातुतया रसस्य परिणमनशक्तिः । बंधणणाम । (धव. पु. १३, पृ. ३६४) । २. शरी(स्थानां. अभय. वृ. ७२) । ३. खलभागं तिल- रार्थागतपुद्गलस्कन्धानां जीवसम्बन्धा [द्धानां यः खलोपमास्थ्यादिस्थिरावयस्तिलतलसमानं रसभागं पदगलस्कन्धः प्राप्तोदयैरन्योन्यसंश्लेषणसम्बन्धी रस-रुधिर-वसा-शुक्रादिद्रव्यं तदवयवपरिणमनशक्ति- भवति तच्छरीरबन्धनं नामकर्म । (मला. वृ. १२, निष्पत्तिः शरीरपर्याप्तिः । (मूला. व. १२-१९६)। १९३)। ३. प्रौदारिकादिशरीरपुद्गलानां पूर्व४. तिलखलोपमं खलभागं अस्थ्यादिस्थिरावयवरूपे- बद्धानां बध्यमानानां च सम्बन्धकारणं शरीरबन्धनण तैलोपमं च रसभागं रुधिरादिद्रवायवरूपेण परिण- नाम । (समवा. वृ. ४२) । मयितुं पर्याप्तनामकर्मोदयसहितस्य पात्मनः शक्ति- १जीव से सम्बद्ध होकर उदय को प्राप्त हुए जिन निष्पत्ति: शरीरपर्याप्तिः । (गो. जी. म.प्र.११६) पुगलस्कन्धों के द्वारा शरीर के निमित्त पाकर ५. तथा- (खल-रसभागेन) परिणतपुदगलस्कन्धानां जीव से सम्बद्ध हए अन्य पुदगलस्कन्धों के साथ खलभागं अस्थ्यादिस्थिरावयवरूपेण रसभागं रुधि- परस्पर में सम्बन्ध किया जाता है उन पुदगलस्कन्धों रादिद्रवायवरूपेण च परिणमयितं शक्तिनिष्पत्तिः का नाम शरीरबन्धन है। ३ जो पूर्वबद्ध और वर्तशरीरपर्याप्तिः । (गो. जी. जी. प्र. ११९ कातिके. मान में बांधे जाने वाले प्रौदारिक प्रादि शरीरगत टी. ११६)।
पुद्गलों के सम्बन्ध का कारण है उसे शरीरबन्धन १तिलों के खलभाग के समान खलभागरूप से नामकर्म कहते है।
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शरीरविवेक]
१०५६, जैन-लक्षणावली
[शल्य
शरीरविवेक--१. शरीरविवेकः शरीरेण निरू- नत्यागः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१५३) । प्यते । Xxx शरीरेण स्वशरीरेण स्वशरीरोप- क्रम से भोजन का जो त्याग किया जाता है उसका द्रवापरिहरणम्, शरीरं उपद्ववन्तं नरं तिर्यच देवं वा नाम शरीरसलेखना था शरीरसल्लेखना है। में हस्तेन निवारयति मा कृथा ममोपद्रवमिति, दंश- शरीराङ्गोपाङ्गनाम-१. जस्स कम्मक्खंधस्सुमशक-वृश्चिक-भुजंग-सारमेयादीम् न हस्तेन पिच्छा- दएण सरीरस्संगोवंगणिप्फत्ती होज्ज तस्स कम्मद्यपकरणेन दण्डादिभिर्वा नापसारयति । छत्र-पिच्छ
खंधस्स सरीरंगोवंगं णाम । (धव. पु. ६, पृ. कटकप्रावरणादिना वा न शरीररक्षां करोति ।।
५४); जस्स कम्मस्सुदएण अट्ठण्हमंगाणमुवंगाणं च शरीरपीडां मा कृथा इत्याद्यवचनम्, मां पालयेति णिप्फत्ती होदि तं अंगोवंगणाम । (धव. पु. १३, पृ. वा, शरीरमिदमन्यदचेतनं चैतन्येन सूख-दुःखसंवेदनेन
३६४)। २. यदुदयादङ्गानां शिरःप्रभतीनां उपावाऽविशिष्टमिति वाचा विवेकः । (भ. प्रा. विजयो. ङ्गानां च अगुल्यादीनामविभागो भवति तच्छरी१६६) । २. स्वशरीरेण स्वशरीरोपद्रवापरिहरणं रांगोपाङनाम । (समवा. सू. ४२, पृ. ६४)। शरीरविवेकः। शरीरपीडां मम मा कृथा इति मां जिस कर्मस्कन्ध के उदय से शरीर के अंग और पालयेति वा प्रवचनम्, शरीरमिदमन्यदचेतनमित्यादि।
उपांगों की उत्पत्ति होती है उसका नाम शरीरांगोवचनं वा वाचिकः। (भ. प्रा. मला १६६)।
पांग नामकर्म है। २ जिसके उदय से शिर प्रादि १शरीर यदि किसी प्रकार के उपद्रव से ग्रसित
अंगों और अंगुलि आदि उपाङ्गों का विभाग होता है तो अपने शरीर के द्वारा उसका प्रतीकार न है उसे शरीरांगोपांग नामकर्म कहते है। करना; उपद्रव करने वाला जो कोई मनुष्य, तियंच
शरीरिबन्ध-जीवपदेसाणं जीवपदेसेहि पंचसरीअथवा देव हो उसे 'मेरे ऊपर उपद्रव न करो' इस
रेहि य जो बंधो सो सरीरिबंधो णाम । (धव. पु. अभिप्राय के वश हाथ से न रोकना; डांस, मच्छर,
१४, पृ. ३७)। बिच्छू, सर्प व कुत्ता मादि को हाथ से व पीछी श्रादि
जीव के प्रदेशों का जीव के प्रदेशों के साथ तथा उपकरण से अथवा लकड़ी प्रादि के द्वारा नहीं
पांच शरीरों के साथ जो बंध होता है उसे शरीरिहटाना; छत्र (छाता), पीछी अथवा चटाई प्रादि
बन्ध कहते हैं। ओढ़नी के द्वारा शरीर की रक्षा न करना; इस सबको कायिक शरीरविवेक कहा जाता है। 'मेरे
शरीरी-सरीरमेयस्स अस्थि त्ति शरीरी। (धव. शरीर को पीड़ित न करो' इस प्रकार का अथवा पु. १, पृ. १२०); शरीरमस्यास्तीति शरीरी। 'मेरी रक्षा करो' इस प्रकार का वचन न बोलना (धव. पु. ६, पृ. २२१); सरीरी णाम जीवा । तथा यह शरीर भिन्न, अचेतन एवं सुख-दःख के (धव. पु. १४, पृ. २२४) । संवेदन की विशेषता से रहित है, इस प्रकार कहना; शरीर जिसके होता है उसे शरीरी (जीव) कहा यह वाचनिक शरीरविवेक कहलाता है।
जाता है। शरीरसंघातनामकर्म-जेहि कम्मक्खंधेहि उदयं शल्य--१. शृणाति हिनस्तीति शल्यं शरीरानपत्तेहि बंधणणामकम्मोदएण बंधमागयाणं सरीर. प्रवेशिकाण्डादिप्रहरणम्, शल्यमिव शल्यम्, तत् यथा
खंघाणं मदृत्तं कीरदे तेसि सरीरसंघाद- प्राणिनो वाधाकरं तथा शरीर-मानसवाधाहेतुत्वात्कसण्णा । (धव. पु. ६, प. ५३); जस्स कम्मस्स र्मोदयविकारः शल्यमित्युपचर्यते । (स. सि.७-१८)। उदएण अण्णोण्णसंबद्धाणं वग्गणाणं मत्तं तं सरीर- २. अनेकधा प्राणिगणशरणाच्छल्यम् । विविधवेदनासंघादणामं । (धव. पु. १३, पृ. ३६४)। शलाकाभिः प्राणि गणं शृणाति हिनस्तीति शल्यम् । उदय को प्राप्त जिन पुदगलस्कन्धों के द्वारा बंधन (त. वा. ७, १८, १)। ३. श्रणाति हिनस्तीति नामकर्म के उदय से बन्ध को प्राप्त हुए शरीरगत शल्यं शर-कण्टकादि शरीरादिप्रवेशितेन तुल्यं पुद्गलस्कन्धों की मृष्टता (शुद्धि या चिक्कणता) यत्प्राणिनो बाधानिमित्तम् । अन्तनिविष्टं परिणामकी जाती है उनका नाम शरीरसंघात नामकर्म है। जातं तच्छल्यम । (भ. प्रा. विजयो. १२१४) । शरीरसंलेखना-तत्र शरीरसंलेखना क्रमेण भोज- ४. यथा शरीरानुप्रवेशिकाण्ड-कुन्तादिप्रहरणं शरी
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शल्यशास्त्र ]
रिणां बाधाकरं तथा कर्मोदयविकारे शरीर मानसबाघा हेतुत्वाच्छल्यमिव शल्यम् । (चा. सा. पृ. ४) । ५. शृणाति हिनस्तीति शल्यं शरीरानुप्रवेशिकाण्डादि, शल्यमिव शल्यं कर्मोदयविकारः शरीर-मानस - बाघा हेतुत्वात् । ( सा. घ. स्वो टी. ४-१) । ६. शृणाति विध्वंसयति हिनस्तीति शल्यमुच्यते, वपुरनुप्रविश्य दुःखमुत्पादयति वाणाद्यायुधं शल्यम्, शल्यमिव शल्यं प्राणिनां बाधाकरत्वात् शरीरमानस-दुःखकारणत्वात् कर्मोदयविकृतिः शल्यमुपचारात् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-१८ ) ।
१ शरीर में प्रवेश करने वाले बाण आदि जिस प्रकार प्राणी को पीड़ित करते हैं व इसी से उन्हें शल्य कहा जाता है उसी प्रकार शारीरिक व मानसिक बाधा के कारण होने से कर्मोदय के माया व मिथ्यात्वादि रूप विकार को भी शल्य के समान होने से उपचारतः शल्य कहा जाता है । शल्यशास्त्र - शल्यं भूमिशल्यं शरीरशल्यं च, तोमरादिकं शरीरशल्यम्, अस्थ्यादिकं भूमिशल्यम्, तस्यापनयनकारकं शास्त्रं शल्यमित्युच्यते । ( मूला. वृ. ६-३३ ) ।
भूमिशल्य और शरीरशल्य के भेद से शल्य दो प्रकार की है। इसमें बाण आदि को शरीरशल्य तथा हड्डी प्रादि को भूमिशल्य कहा जाता है । इस शल्य के निकालने के उपाय का जिस शास्त्र ( श्रायुर्वेद ) में freपण किया गया है उसे शल्यचिकित्साशास्त्र कहते 1
शशी - सर्वात्मना कमनीयत्वलक्षणमन्वर्थमाश्रित्य चन्द्रः शशीति व्यपदिश्यते । ( सूर्यप्र मलय. बृ. १०५, पृ. २ε२) ।
समस्त रूप से सुन्दर व प्रह्लाद जनक होने से चन्द्रमा को शशी कहा जाता है, यह उसका अन्वर्थक नाम है ।
शंकर - १. Xx X त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । ( भक्तामर २५ ) । २. श सुखम्, श्रात्मनः कर्मकक्षं दग्ध्वा सकलप्राणिनां च धर्मतीर्थं प्रवर्तयित्वा करोतीति शंकर: । (बृहत्स्व. टी. ७१) । ३. XXX शंकरोऽभिसुखावहात् । ( लाटीसं. ४ - १३१) । ४. येन दुःखार्णवे घोरे मग्नानां प्राणिनां दया । सौख्यमूलः कृतो धर्मः शंकरः परिकीर्तिल. १३३
१०५७, जैन- लक्षणावली
[शाश्वतासंख्यात
तः ॥ ( प्राप्तस्व. २९ ) । २ जो अपने कर्मरूप वन को भस्म करके तथा धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करके समस्त प्राणियों के लिए सुख को करता है उसे शंकर कहा जाता है । यह प्राप्त का एक नामान्तर है । शाकुनिक- शाकुनिक: शकुनवक्ता । ( नीतिवा. १४ - २८, पृ. १७४) ।
शकुन के शुभाशुभ के सूचक निमित्त के- श्राश्रय से उसके फल के बतलाने वाले को शाकुनिक कहा जाता है ।
शाटिका - वहुलियाहि परियत [पारियत्त ] विसर परिहिज्ज माणा साडिया णाम । ( धव. पु.
१४, पृ. ४१) ।
पारियात्र देश में वधूटियों-- अल्पवयस्क बहुनों के द्वारा जो पहिनी जाती हैं उन्हें शाटिका कहा जाता है ।
शान्ति - १. 'शान्ति' इति कर्मदाहोपशमः । (सूत्रकृ. सू. ३, ४, २०, पृ. १०१ ) । २. शान्तियोगात् तदात्मकत्वात् तत्कर्तृत्वाद्वा शान्तिरिति, तथा गर्भस्थे पूर्वोन्नाशिवशान्तिरभूदिति शान्तिः । (योगशा. स्वो विव. ३ - १२४ ) ।
१ कर्मजनित सन्ताप के उपशम का नाम शान्ति है । २ शान्ति के सम्बन्ध से, स्वयं शान्तिस्वरूप होने से, शान्ति के प्रवर्तक होने से, तथा गर्भस्थ अवस्था में पूर्व में उत्पन्न अमंगल के उपशान्त हो जाने से सोलहवें तीर्थंकर 'शान्ति' इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हुए हैं ।
शालाकिक-शलाकया निर्वृत्तं शालाकिकं प्रक्षिपटलाद्युद्घाटनम् । (मूला. वृ. ६-३३ ) । सलाई के द्वारा जो श्रांख की फुली श्रादि को निकाला जाता है उसे शालाकिक क्रिया कहते हैं। शाश्वतानन्त - जं तं सस्सदाणंतं तं धम्मादिदव्वगमं । कुदो ? सासयत्तेण दव्वाणं विणासाभावादो ! X XX अन्तो विनाश:, न विद्यते अन्तो विनाशो यस्य तदनन्तं द्रव्यम्, शाश्वतमनन्तं शाश्वतानन्तम् । ( धव. पु. ३, पृ. १५) । धर्मादिद्रव्यगत जो श्रनन्तता - श्रविनश्वरता है उसे शाश्वतानन्त कहा जाता है । शाश्वतासंख्यात - धम्मत्थियं प्रघमत्थियं दव्वप
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शाश्वती जिनप्रतिमा] १०५८, जैन-लक्षणावली
[शिलासंस्तर देसगणणं पडुच्च एगसरूबेण सद्विदमिदि कटु में से बह एक है।
सदासंखेज्जयं । (घव. प्र.३. पृ. १२४)। शिक्षाव्रत-शिक्षाय अभ्यासाय व्रतं शिक्षाव्रतम], धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों द्रव्य देशावकाशिकादीनां प्रतिदिवसाभ्यसनीयत्वात् । प्रदेशों की गणना की अपेक्षा एकरूप से अवस्थित xxx अथवा शिक्षा विद्योपादानम, शिक्षाप्रधानं हैं, प्रतः उन्हें शाश्वतासंख्यात कहते हैं। व्रतं शिक्षाव्रतम्, देशावकाशिकादेविशिष्टश्रुतज्ञानशाश्वती जिनप्रतिमा-शाश्वत्यस्तु प्रकारिता भावनापरिणतत्वेनैव निर्वाह्यत्वात् । (सा. घ. स्वो. एव अधस्तिर्यगूज़लोकावस्थितेषु जिनभवनेषु वर्तन्त टी. ४-४)। इति । (योगशा. स्वो. विव.३-१२०, पृ. ५८५)। शिक्षा का अर्थ अभ्यास अथवा विद्या का ग्रहण है, जो जिनप्रतिमायें किसी के द्वारा निर्मित न होकर शिक्षा के लिए प्रथवा शिक्षा की प्रधानता से यक्त जो अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्वलोक में अवस्थित व्रत ग्रहण किया जाता है उसे शिक्षावत कहते हैं । जिनभवनों में विराजमान हैं वे शाश्वती जिन- शिक्षित-तथाऽऽचार्यादे: समीपे शिक्षा ग्राहिताः प्रतिमायें कहलाती हैं।
शिक्षिताः । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ६, १६, पृ. शासनदेवता-या पाति शासनं जैन सद्यः प्रत्यूह- १४५)। नाशिनी। साभिप्रेतसमृद्धयर्थं भूयाच्छासनदेवता ॥ जिन्हें प्राचार्य प्रादि के समीप में शिक्षा ग्रहण (पाचारदि. पृ. ४४ उद्.)।
कराई गई है वे शिक्षित कहलाते हैं। जो जैन शासन की रक्षा करती है तथा विघ्न- शिखाच्छेदी-संसाराग्निशिखाच्छेदो येन ज्ञानाबाधा को दूर करती है वह शासनदेवता प्रभीष्ट सिना कृतः। तं शिखाच्छेदिनं प्राहुन तु मुण्डिसमस्तसमृद्धि के लिए होवे।
कम् ॥ (उपासका. ८७५)। शास्त्र-१. प्राप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्ट विरोधकम् । जिसने ज्ञानरूप तलवार के द्वारा संसाररूप अग्नि तत्त्वोपदेशकृत्सावं शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ (रत्नक. की शिखा (ज्वाला) को नष्ट कर दिया है वह &; न्यायाव. ६) । २. पूर्वापरविरोधादिदूरं हिंसाद्य- वस्तुतः शिखाछेदी कहलाता है, शिर की शिखा पासनम् । प्रमाणद्वयसंवादि शास्त्रं सर्वज्ञभाषितम् ॥ को मुंडा कर मुंडितमस्तक हुए व्यक्ति को यथार्थ. (पू. उपासका. ७)।
तः शिखाछेदी नहीं कहा जा सकता। १ जो प्राप्त के द्वारा कहा गया है, कूवादियों शिरःप्रकम्पितदोष-देखो शीर्षोत्कम्पितदोष । द्वारा प्रखण्डनीय है, जिसमें प्रत्यक्ष व अनुमान से १. कायोत्सर्गेण स्थितो यः शिरः प्रकम्पयति चालविरोध सम्भव नहीं है, जो वस्तुस्वरूप का यथार्थ यति तस्य शिरःप्रकम्पितदोषः। (मूला. वृ. ७, उपदेष्टा व समस्त प्राणियों के लिए हितकर होता १७२) । २. शीर्षप्रकम्पनं नाम दोष: स्यात् । किं है उसे शास्त्र कहते हैं। वह कुमार्ग से-मिथ्यात्व तत् ? शिरः प्रकम्पितम् । (अन. ध. स्वो. टी. मादि से-बचाने वाला है।
८-११८)। शास्त्रदान-लिखित्वा लेखयित्वा वा साधुभ्यो १जो कायोत्सर्ग में स्थित होकर शिर को हिलाता दीयते श्रुतम् । व्याख्यायतेऽथवा स्वेन शास्त्रदान है उसके शिरःप्रकम्पित नामक दोष होता है। तदुच्यते ॥ (पू. उपासका. ६७)।
शिलासंस्तर-विद्धत्थो य अफूडिदो णिक्कंपो स्वयं लिखकर अथवा अन्य से लिखा कर जो साधनों सव्वदो असंसत्तो। समपट्रो उज्जोवे सिलामो होदि के लिए शास्त्र दिया जाता है, अथवा जो उसका संथारो।। (भ. प्रा. ६४२)। व्याख्यान किया जाता है, उसे शास्त्रदान कहते हैं। जो जलने, कट जाने अथवा घिसे जाने से विध्वस्त शास्य-देखो शिष्य ।
(प्रासुक) हुमा हो, प्रस्फुटित-फूटा न हो व शिक्ष-देखो शैक्ष।
दरारों प्रादि से रहित हो, स्थिर हो, सब पोर शिक्षा-शिक्षा श्रुताध्ययनम् । (अन. घ. स्वो. टी. जीव जन्तुषों के संसर्ग से रहित हो, और समतल ७-९८)।
हो; ऐसा प्रकाश में अवस्थित शिलामय संस्तर श्रुत के अध्ययन का नाम शिक्षा है। प्रादि लिङ्गों (बिछौना) क्षपक के लिए योग्य माना गया है ।
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शिल्पकर्मार्य]
१०५६, जैन-लक्षणावली
[शीतपरीषहजय
शिल्पकार्य-१. रजक-नापिताऽयस्कार-कुलाल- १ जो भव्य 'मेरे लिए हितकर क्या है इसका सुवर्णकारादयः शिल्पकार्याः। (त. वा. ३, ३६, विचार करता हा दुःख से अतिशय भयभीत रहता २)। २.निर्णजक-दिवाकीादयः शिल्पकार्याः। हो, सुख का अभिलाषी हो; श्रवण प्रादि बद्धि के (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)।
वैभव-सुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, ऊह, अपोह, १ धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार और सुनार प्रादि अर्थविज्ञान और तत्त्वज्ञान इन पाठ बद्धिगणों सेशिल्पकर्मार्य कहे जाते हैं।
संयुक्त हो; तथा जो सुन करके व विचार करके जो शिव-१. कल्याणं परमं सौख्यं निर्वाणपदमच्युतम्। सुखकर दयामय धर्म युक्ति व प्रागम से सिद्ध है साधितं येन देवेन स शिवः परिकीर्तितः ।। (भावसं. उसे ग्रहण करनेवाला हो; ऐसा प्राग्रह रहित वाम. १७२)। २. शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्त- शिष्य धर्मकथा के सुनने में अधिकृत है-उसके
जो गमको मक्षयम । प्राप्तं मक्तिपदं येन सः शिवः परिकी- सुनने का अधिकारी माना गया है। तितः ।। (प्राप्तस्व. २४)।
भक्त, संसार से भयभीत, विनीत, धर्मात्मा, बद्धि२ जिस देव ने अतिशय कल्याणकारक, शान्त और मान्, शान्तचित्त, प्रालस्य से रहित और शिष्टाचार प्रविनश्वर मुक्तिपदको प्राप्त कर लिया है उसे शिव का परिपालक होता है, उसे शिष्य कहा जाता है। कहा जाता है। यह प्राप्त के अनेक नामों में से शीतक्षमा-देखो शीतपरीषहजय।
शीतनामकर्म-एवं सेसफासाणं पि वत्तव्वं (जस्स
कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं सीदभावो होदि शिविका- माणुसेहि वुब्भमाणा सिविया णाम ।
तं सीदं णाम)। (घव. पु. ६, प. ७५) । (धव. पु. १४, पृ. ३६)।
जिस नामकर्म के उदय से शरीरगत पुदगलों के जो मनुष्यों के द्वारा ले जायी जाती है उसे शिविका
शीतता होती है उसे शीतनामकर्म कहते हैं । (पालकी) कहते हैं।
शीतपरीषहजय-१. परित्यक्तप्रच्छादनस्य पक्षिम शिष्टत्व --१. शिष्टत्वम् अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थ
वदनवधारितालयस्य वृक्षमूल-पथ-शिलातलादिषु ता, वक्तुः शिष्टतासूचकत्वं वा । (समवा. वृ. ३५)।
हिमानीपतन-शीतलानिलसम्पाते तत्प्रतिकारप्राप्ति २. शिष्टत्वं वक्तुः शिष्टत्वसूचनात् । (रायप. मलय.
प्रति निवृत्तेच्छस्य पूर्वानुभूतशीतप्रतिकारहेतुवस्तूव.पृ. १६)।
नामस्मरतो ज्ञानमावनागर्भागारे वसतः शीतवेदना१जो वचन अभीष्ट सिद्धान्त के अर्थ का प्रतिपादक
सहनं परिकीर्त्यते । (स. सि. ६-६)। २. शैत्यहोता है, अथवा जो वक्ता की शिष्टता का सूचक
हेतसन्निधाने तत्प्रतीकारानभिलाषात संयमपरिपा. होता है वह शिष्टत्व नामक अतिशय से संयुक्त
लनं शीतक्षमा। (त. वा. ६, ६, ६); परित्यक्तहोता है। यह वचन के ३५ अतिशयों में दसवां है।
वाससः पक्षिवदनवधारितालयस्य शरीरमात्राधिकरशिष्टि -शिष्टि सूत्रानुसारेण गणस्य शिक्षादानम् ।
णस्य शिशिर-वसन्त-जलदागमादिवशाद (चा. सा. (अन. घ. स्वो. टी. ७-९८)।
'दिकालवशाद्') वृक्षमूल-(चा. सा. 'ले')पथि[थ-] मागम के अनुसार गण को शिक्षा देना, इसे शिष्टि
गुहादिषु पतितप्रालेयलेशतुषारलवव्य तिकर शिशिकहा जाता है । यह प्रर्हादि लिङ्गों के अन्तर्गत है। रपवनाभ्याहतमूर्तस्तत्प्रतिक्रियासमर्थद्रव्यान्तराग्न्याशिष्य - १. भव्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् धनभिसन्धानान्नारकदुःसहशीतवेदनाऽस्मरणात् तदुःखाद् भृशं भीतिमान्, सौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभवः प्रतिचिकीर्षायां परमार्थविलोपभयाद्विद्या-मन्त्रीषघश्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धर्म शर्मकरं दयागुणमयं पर्ण-बल्कलत्वक्-तृणाजिनादिसम्बन्धात् व्यावत्तमनसः युक्त्यागमाभ्यां स्थितम्, गृह्णन् धर्मकथां श्रुतावधि- परकीयमिव देहं मन्यमानस्य धतिविशेषप्रावरणस्य कृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥ (मात्मानु. ७) । गर्भागारेषु धूपप्रवेकप्रकर (चा. सा. 'प्रवेकपुष्पप्रकर') २. गुरुभक्तो भवाद् भीतो विनीतो धार्मिक: सुधी। प्ररूपितप्रदीपप्रभेषु वरांगनानवयौवनौष्णघनस्तनशान्तस्वान्तो ह्यतन्द्रालुः शिष्ट: शिष्योऽयमिष्यते ।। नितम्ब-भुजान्तरतजितशीतेषु निवासं सुरतसुख-रसा(क्षत्रचू. २-३१)।
कर- (चा. सा. 'सुखाकर'-) मनुभूतमसारत्वावबोधा
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शीतपरीषहजय]
१०६०, जैन-लक्षणावली
[शीलव्रतेष्वनतिचार
दस्मरतो विषादविरहितस्य संयमपरिपालनं शीत- तीर्थकर को शीतल कहा गया है, तथा भगवान् के क्षमेति भाष्यते । (त. वा. 8,8,६; चा. सा. पृ. गर्भ में स्थित होने पर माता के हाथ के स्पर्श से ४६-५०)। ३. शीते महत्यपि पतति जीर्णवसनः पिता का पूर्वोत्पन्न असाध्य पित्तदाह रोग शान्त
जितो नाकल्प्यानि वासांसि परिगलीयात् हो गया था, इससे भी वे शीतल इस सार्थक नाम परिभुञ्जीत वा, नापि शीतातॊऽग्नि ज्वालयेत् अन्य- से प्रसिद्ध हुए। ज्वालितं वा नाऽऽसेवयेत, एवमनतिष्ठता शीतपरीष- शीतवेदना-देखो शीतपरीषहजय । हजयः कृतो भवति । (प्राव. नि.हरि, व. पृ. ६५७)। शीर्षात्कम्पितदोष-देखो शिर:प्रकम्पितदोष । ४. शीतं तवयापेक्षाऽ(चारित्रमोहनीय-वीर्यान्तरा- भूताविष्टस्येव शीर्ष कम्पयतः स्थानं शीर्षोत्कम्पितयापेक्षाs)सातोदयात् प्रावरणेच्छाकारणपुद्गलस्क- दोषः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। न्धः, तस्य सहनं शीतपरीषहसहनम् । (मूला. भूताविष्ट के समान कायोत्सर्ग में शिर को कंपाते ५.५-५७)। ५. प्रोत्कम्पा हिमभीमशीतपवनस्पर्श- हुए स्थित होना, यह एक शीर्षोत्कम्पित नामक प्रभिन्नाङ्गिनो यस्मिन यान्त्यतिशीतखेदमवशाः प्राले- कायोत्सर्ग का दोष है। यकावि[केय] ङ्गिनः । तस्मिन्नस्मरत: पुरा प्रियतमा- शीर्षप्रकम्पित - देखो शिरःप्रकम्पित । श्लेषादिजातं सुखं योगागारनिरस्तशीतविकृतेनिर्वाम- शील-१. xxx तत्प्रति-(अहिंसादिव्रतप्रति-) सस्तज्जयः ॥ (प्राचा. सा. ७-५)। ६. विष्वक्- पालनार्थेषु च क्रोधादिवर्जनादिषु शीलेषु xxxi चारिमरुच्चतुष्पथमितो धृत्येकवासा: पतत्यन्वङ्गं नि- (स. सि. ६-२४; त. वा. ६, २४, ३)। २. वदशि काष्ठदाहिनि हिमे भावांस्तदुच्छेदिनः । अध्या. परिरक्खणं सीलं णाम । (धव. पु. ८, पृ. ८२)। यन्नधियन्नधोगतिहिमान्यर्तीर्दुरन्तास्तपोबहिस्तप्तनि- ३. शीलं ब्रह्मचर्य समाधिर्वा । (समवा. वृ. १४६, जात्मगर्भगृहसंचारी मुनि र्मोदते ॥ (अन. घ. ६, पृ. ११७) । ४. शीलं मद्य-मांस-निशाभोजनादि६१)। ७. शैत्यहेतुसन्निधाने तत्प्रतीकारानभिला- परिहाररूप: समाचारः । (योगशा. स्वो. विव. षस्य निर्ममस्य पूर्वानुभूतोष्णमस्मरतो विषादरहितस्य संयमपरिपालनार्थं शीतक्षमा। (भारा. सा. विव. २-४०) । ५. शीलं सावद्ययोगानां प्रत्याय टी. ४०।
नं निगद्यते । (त्रि. श. पु. च. १, १, १८७)। जिसने वस्त्रादिरूप प्रावरण का परित्याग कर १ अहिंसा आदि व्रतों के परिपालन के निमित्तभत दिया है, पक्षी के समान जिसका कोई निश्चित क्रोध सादि के परित्याग ग्रादि को शील कहा जाता स्थान नहीं है; जो वृक्ष के मूल में, मार्ग में व है। २ व्रतों की रक्षा को शील कहते हैं। ३ ब्रह्मशिलातल पर बर्फ के गिरने व शीत हवा के चलने चर्य अथवा समाधि का नाम शील है। पर उसके प्रतीकार को कारणभूत अग्नि आदि शोलवतेष्वनतिचार ---१. अहिंसादिषु व्रतेषु तत्प्रवस्तनों का स्मरण नहीं करता है। तथा जो ज्ञान तिपालनार्थषु च क्रोधवर्जनादिषु शीलेषु निरवद्या भावनारूप गर्भगृह में रहता है वह शीतवेदना का वृत्तिः शीलवतेष्वन तिचारः। (स. सि. ६-२४) । सहने वाला होता है।
२. चारित्रविकल्पेषु शीलवतेषु निरवद्या वृत्ति: शीतयोनि-शीतः स्पर्शविशेषः, तेन युक्तं यद् द्रव्य शोलवतेष्वनतिचारः। अहिंसादिषु व्रतेषु तत्प्रतितदपि शीतमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-३२)।। पालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शीलेषु निरवद्या वृत्तिः शीत स्पर्श से युक्त योनिप्रदेश को शीतयोनि कहा कायवाङ्मनसां शीलव्रतेष्वनतिचार इति कथ्यते । जाता है।
(त. वा. ६, २४, ३)। ३. हिंसालियचोज्जाबंभशीतल-सकलसत्त्वसन्तापहरणाच्छीतलः, तथा परिग्गहेहितो विरदी वदं णाम, बदपरिरक्खणं सोलं गर्भस्थे भगवति पितुः पूर्वोत्पन्नाचिकित्स्यपित्तदाहो णाम, सुरावाण-मांसभक्खण-कोह-माण-माया लोहजननीकरस्पर्शादुपशान्त इति शीतलः । (योगशा. हस्स-रइ-सोग-भय दुगुंच्छित्थि-पुरिस-णवंसयवेयापरिस्वो. विव. ५-१२४)।
च्चागो अदिचारो; एदेसि विणासो णिरदिचारो समस्त प्राणियों के सन्ताप के दूर करने से दसवें संपुण्णदा, तस्सभावो णिरदिचारदा। (घव, पु. ८,
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शुक्र
१०६१, जैन-लक्षणावली
[शुक्लवर्णनामकर्म पृ. ८२) । ४. शीलवतरक्षायां काय-मनोवचनवृत्ति- मनसोऽत्यन्तस्थिरता योगनिरोधश्चेति । (समवा. रनवद्या । वेद्यो मार्गोधुक्तः स सुद्धशीलबतेष्वनति- वृ. ४)। १०. निष्क्रिय करणातीतं ध्यान-धारणचारः ।। (ह. पु. ४३-१३४) । ५. सच्चारित्रवि- वजितम् । अन्तर्मुखं च यच्चित्त तच्छुक्लमिति पठकल्पेषु व्रतशोलेष्वशेषतः। निरवद्यानुवृत्तिर्यांनति- यते ।। (ज्ञाना. ४, पृ. ४३१)। ११. निष्क्रिय करचारः स तेषु वै ।। (त. श्लो. ६-२४)। ६. अहिंसा- णातीतं ध्यान-ध्येयविवजितम् । अन्तर्मुखं च यद दिषु व्रतेषु तत्परिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु ध्यानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ॥ (नि. सा. वृ. ८६ शीलेषु निरवद्या वृत्तिः कायवाङ्मनसा व्रतशीलेष्व- उद्.)। १२. कषायरजसः क्षयादुपशमाद्वा प्रतिसमयनतिचारः। (चा. सा. पृ. २५)। ७. अहिंसादिषु माविर्भवद्भिर्यथोत्तरं शुचिभिः संयमविकल्पलक्षणव्रतेषु तत्परिपालनार्थ च क्रोधादिवर्जनलक्षणेषु शी- र्गुणः सम्बध्यमानत्वाच्छुक्लमिति व्यपदिश्यते । (भ. लेषु अनवद्या वृत्तिः शील व्रतेष्वन तिचारः। (त. प्रा. मूला. १६६६)। १३. मलरहितात्मपरिणामोवृत्ति श्रुत. ६-२४)।
द्भवं शुक्लम् । (भावप्रा. ७८) । १अहिंसा प्रादि व्रतों और उनके संरक्षण के कार- १ जिस ध्यान में पवित्रता गण का संयोग है उसे णभूत क्रोधकषाय प्रादि के परित्याग प्रादि रूप शुक्लध्यान कहा जाता है। ३ संक्लेश रहित परि. शोलों के विषय में जो निदोष प्रवृत्ति की जाती है णाम को शुक्लध्यान कहा जाता है। अथवा जो उसे शील-व्रतेष्वनतिचार कहा जाता है। यह तीर्थ- आठ प्रकार के कर्मरूप रज (धूलि) को शुद्ध कर प्रकृति के बन्ध के कारणों के अन्तर्गत है। करता है उसे शुक्लध्यान कहा जाता है। शुक्र-शुक्रं रेतो मज्जासंभवम् । (योगशा. स्वो. शुक्ललेश्या-१. ण कुणेई पक्खवायं ण वि य विव. ४-७२)।
णिदाणं समो य सम्वेसु । णत्थि य राम्रो दोसो हो मज्जा से जो वीर्य नामक धातु बनती है उसे शुक्र वि हु सुक्कलेस्सस्स ॥ (प्रा. पंचसं. १-१५२; धव. कहा जाता है।
पु. १, पृ. ३६ ० उद्.; धव. पु. १६, पृ. ४२ उद्.; शुक्लध्यान ---१. शुचिगुणयोगाच्छुक्लम् । (स. गो. जी. ५१७) । २. वैर-राग-मोहविरह-रिपुदोषासि. ६-२८; त. इलो. ६-२८) । २. शचिगुणयो- ग्रहण-निदानवर्जन - सर्वसावद्यकार्यारम्भौदासीन्य-श्रेगाच्छुक्लम् । यथा मलद्रव्यापायात् शुचिगुणयोगा. योमार्गानुष्ठानादि शुक्ललेश्यालठाणम् । (त. वा. ४. च्छुक्लं वस्त्रं तथा तद्गुणसाधावात्मपरिणामस्व- २२, १०) । ३. कसायाणु भागफद्दयाणमुदय मागदारूपमपि शुक्लमिति निरुच्यते । (त. वा. ६, २८, णं जहण्णफयप्पहुडि जाव उक्कस्सफद्दया त्ति ठइ४)। ३. सुक्कं असंकिलिट्रपरिणाम अविहं वा दाणं छब्भागविहत्ताणं पढमभागो मदतमो, तदुकम्मरयं सोधति, तम्हा सुक्कं । (दशवे. च. पृ. दएण जादकसानो सुक्कलेस्सा णाम । (धव. पु. ७, २९)। ४. शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं वा पृ. १०४); अहिंसाइसु कज्जेसु तिब्वुज्जम सुक्कक्लमयतीति शुक्लम् । (ध्यानश. हरि. वृ. ५; लेस्सा कुणइ ।। (धव. पु. १६, पृ. ४६२)। ४. निस्थानां. अभय. वृ. २४७) । ५. शुक्लं शुचित्वसम्ब- निदानोऽनहंकारः पक्षपातोज्झितोऽशठः । राग-द्वेषन्धाच्छौचं दोषाद्यपोढता। (ह. पू. ५६-५३)। पराचीन: शुक्ल लेश्य: स्थिराशयः।। (पंचसं. अमित. ६. कषायमलविश्लेषाच्छक्लशब्दाभिधेयताम् । उपे- १-२८१)। ५. सर्वत्रापि शमोपेत त्यक्तमाया-नियिवदिदं ध्यानं सान्तभैद निबोध मे ।। (म. पु. २१, दानकः। राग-द्वेषव्यपेतात्मा स्यात प्राणी शुक्लले१६६)। ७. शुचिगुणयोगाच्छुक्लं कषाय-रजसः श्यया ॥ (भ. पा. मूला. १६०८ उद्.) । क्षयादुपशमाद्वा । माणिक्य शिखावदिदं (ज्ञाना. 'वै- १ पक्षपात न करना, निदान न करना--पागामी डर्यमणि शिखा इव') सुनिर्मलं नि:प्रकम्पं च ॥ काल में भोग की आकांक्षा न करना, समस्त (तत्त्वानु. २२२; ज्ञाना. पृ. ४३१)। ८. जत्थ प्राणियों में समता का भाव रखना तथा राग-द्वेष गुणा सुविसुद्धा उवसम खमणं च जत्थ कम्माणं। व मोह से रहित होना; ये शुक्ललेश्या के लक्षण लेस्सा वि जत्थ सुक्का तं सुक्क भण्णदे ज्झाणं ॥ हैं। (कातिके. ४८३)। ६. शुक्ल पूर्वगतश्रुतावलम्बनेन शुक्लवर्णनामकर्म- एवं सेसवण्णाणं पि अत्थो
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शुचि] . १०६२, जैन-लक्षणावली
[शुद्धपरिहार वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं नितीरणम् ।। (त. श्लो. १, ३३, ४१) । सक्किलवण्णो उप्पज्ज दि तं सुक्किलवण्णणाम)। संसार में सुख सत, क्षणिक व शद्ध है; इस प्रकार जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुदगलों में शुक्ल- शुद्ध द्रव्यार्थपर्यायनैगमनय की अपेक्षा कहा जाता है। वर्ण उत्पन्न होता है उसका नाम शुक्लवर्णनाम- शुद्धद्रव्याथिकनय--१. कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धकर्म है।
द्रव्याथिकः, यथा संसारी जीवः सिद्धसदक शुद्धात्मा। शुचि-xxx कः शुचिरिह यस्य मानसं (पालापप. पृ. २१४) । २. शुद्धं पर्यायमलकलंकशुद्धम् । (प्रश्नो . र, ५)।
विकलं द्रव्यमेवार्थोऽस्यास्तीति शुद्धद्रव्याथिकः । शचि उसे कहा जाता है, जिसका मन शद्ध होता है। (सिद्धिवि. वृ. ७, पृ. ६६९) । शुद्ध-१. वचनार्थगतदोषातीतत्वाच्छुद्धः सिद्धान्तः ।
१ कर्म की उपाधि से रहित शुद्ध द्रव्याथिक नय (षव. पु. १३, पृ. २८६)। २. मिथ्यात्व-रागादि
का उदाहरण यह है- जैसे संसारी जीव सिद्ध के समस्तविभावरहितत्वेन शुद्धः। (ब. द्रव्यसं. टी. समान शुद्ध प्रात्मा है। २ जो नय पर्यायरूप मल
कलक से रहित होकर द्रव्य को ही प्रमखता से विषय २७)। ३. शुद्धः द्रव्य-भावकर्मणामभावात्परमविशुद्धिसमन्वितः । (समाधि. टी. ६) । ४. मनः शुद्धं
करता है उसे शुद्धद्रव्याथिकनय कहते हैं। भवेद्यस्य स शुद्ध इति भाष्यते । (नीतिसा. ६) शुद्धद्रव्याथिसंग्रह-१. तत्र सत्तादिना यः सर्व
स्य पर्याय-कलंकाभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्र१जो सन्दर्भ शब्न व अर्थगत दोषों से रहित होता है वह शुद्ध कहलाता है। यह एक श्रुत का पर्याय
व्याथिक संग्रहः । (धव. पु. ६, पृ. १७०) । २. तत्र
शुद्धद्रव्याथिकः पर्याय-कलंकरहितः बहुभेदः संग्रहः । नाम है। २ मिथ्यात्व एवं रागादि समस्त विभावों से जो रहित होता है उसे शुद्ध कहा जाता है।
(जयध. १, पृ. २१६) ।
१जो पर्याय के कलंक से रहित होकर- उसे विषय शुद्धकोपहित-१. सुद्धगोवहिदं-शुद्धन निष्पावा
न करके-सत्ता प्रादि के द्वारा सबके द्वैत के प्रभाव दिभिरमिश्रणेनान्नेन उवहिदं संसृष्टं शाक-व्यञ्ज
स्वरूप एकत्व को विषय करता है उसे शुद्धद्रव्यानादिकम् । (भ. प्रा. विजयो. २२०) । २. सुद्धगो
थिकसंग्रह कहते हैं। वहिद- शुद्धेन निष्पावाद्यसंसृष्टेनान्नेनोपहितं संसृष्टं
शुद्धध्यान-क्षीणे रागादिसन्ताने प्रसन्ने चान्तशाक-व्यञ्जनादिकं वा, यदि वा शुद्धेन केवलेन केन
रात्मनि । यः स्वरूपोपलम्भः स्यात् स शुद्धाख्यः जलेनोपहितं कूरम् । (भ.पा. मूला. २२०)।
प्रकीर्तितः ।। (ज्ञाना. ३-३१, पृ. ६७)। २ शुद्ध निष्पाव (धान्यविशेष) प्रादि के संसर्ग से
रागादि की परम्परा के नष्ट हो जाने पर जब रहित अन्न से उपहित, अथवा संसष्ट शाक व्यञ्ज
अन्तरात्मा प्रसन्न होता है तब जो प्रात्मस्वरूप की नादि को शुद्धगोपहित माना जाता है। अथवा 'क'
प्राप्ति होती है उसे शद्धध्यान कहा गया है । का प्रर्थ जल होता है, तदनुसार केवल शुद्ध जल से ।
शद्धनय- देखो सत्ताग्राहक शुद्धनय । उपहित भात प्रादि को शुद्धकोपहित जानना
शुद्धपरिहार-यत् विशुद्धः सन् पंचयाममनुत्तरं चाहिए।
धर्म परिहरति करोति, परिहारशब्दस्य परिभोगेशुद्धगोवहित-देखो शुद्धकोपहित ।
ऽपि वर्तमानत्वात्, स शुद्धपरिहार: शुद्धस्य सतः शुद्धचेतना-१. जीवस्य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्ध- परिहार: पंचयाममनुत्तरं धर्मकरणं शुद्धपरिहार चेतना । (पंचा. का. अमृत. वृ. १६) । २. शुद्धा इति । (व्यव. भा. मलय. वृ. पृ. ११)। । स्यादात्मनस्तत्त्वम् xxx। (पंचाध्या. २, विशुद्धि को प्राप्त होकर जो अनुपम पंचयाम-हि१९३)।
सादि पांच महाव तरूप सर्वश्रेष्ठ-धर्म को किया १ ज्ञान का अनुभव करना, यह शुद्धचेतना का जाता है, इसका नाम शुद्धपरिहार है । यद्यपि परिलक्षण है।
हार शब्द का प्रसिद्ध अर्थ परित्याग है, पर उक्त शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम-शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनगमो- शब्द परिभोग अर्थ में भी पाया जाता है। यहां ऽस्ति परो यथा । सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेऽस्मि यही अर्थ विवक्षित रहा है।
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शुद्धपर्यायाथिकनय १०६३, जैन-लक्षणावली
[शुभचयों शुद्धपर्यायाथिकनयं-सत्तागौणत्वेनोत्पाद व्ययग्रा- बलम्बन, राग, द्वेष, मूढता, भय, परिग्रह, राग, शल्य हकस्वभावोऽनित्यशुद्ध द्रव्याथिकनयः, यथा-समयं काम, क्रोध, मान और मद इन समस्त दोषों से समयं प्रति पर्याया विनाशिनः । (पालापप. पू. रहितं होने के कारण शुद्ध कहा जाता है । २१५)।
शुद्धि-१. शुद्धिश्च चित्तप्रसादलक्षणा । (प्राव. जो सत्ता को गौण करके उत्पाद-व्यय स्वरूप अनित्य नि. हरि. व. १२४३, पृ. ५६२) । २. ज्ञान-दर्शनाशुद्ध द्रव्य को विषय करता है उसे अनित्य शुद्धद्रव्या- वरणविगमादमलज्ञान-दर्शनाविभूतिः शुद्धिः । (युक्त्यथिकनय कहते हैं। जैसे पर्याय प्रत्येक समय नष्ट । मैं. टी. ४)। ३. सकलकर्मापायो हि शुद्धिः। (भ. होने वाली हैं।
मा. विजयो. टी. ७)। शुद्धसंग्रह ---१. अवरे परमविरोहे सर्व अस्थित्ति १ चित्त का प्रसन्न रहना, यही शुद्धि का लक्षण है। सुद्धसंगहणो। (ल. नयच ३६) । २. अवरोप्परम- २ज्ञानावरण और दर्शनावरण के विनष्ट हो जाने विरोहे सव्वं अत्थित्ति सुद्धसंगहणे । (द्रव्यस्व. प्र. से जो निर्मल ज्ञान और दर्शन का प्राविर्भाव होता नयच. २०८)।
है उसे शद्धि कहा जाता है। २ परस्पर के विरोध से रहित 'सब है' इस प्रकार शुद्धोपयोग-श्रमण- १. सुविदिदपदत्थसुत्तो संजमका जिसका विषय है, अर्थात् जो सत्ता सामान्य को तवसंजुदो विगदरागो । समणो समसुह-दुक्खो भणिदो विषय करता है, उसे शुद्धसंग्रहनय कहा जाता है। सुद्धोवनोगो त्ति ।। (प्रव. सा. १-१४) । २. कर्माशुद्धसंप्रयोग-अहंदादिषु भगवत्सु सिद्धि साधनी- दानक्रियारोध: स्वरूपाचरणं च यत् । धर्मः शुद्धोपभूतेषु भक्तिबलानुरजिता चित्तवृत्तिरत्र शुद्धसंप्र- योगः स्यात्सष चारित्रसंज्ञिकः ॥ (लाटीतं. ४, योगः । (पंचा. का. अमृत. व. १६५)। २६३) । ३. शुद्धात्मज्ञानदक्ष: श्रुतनिपुणतिर्भावसिद्धि के कारणभूत अरहंत प्रादि परमेष्ठियों के दर्शी पुरापि, चारित्रादिप्ररूढो विगतसकलसंक्लेशविषय में जो गुणानुरागरूप भक्ति से अनुरंजित भावो मुनीन्द्रः । साक्षाच्छुद्धोपयोगी स इति नियममन का व्यापार होता है उसे शुद्धसंप्रयोग कहते हैं। वाचावघार्येति सम्यक्कर्मध्नोऽयं सुखं स्यान्नयविभशुद्धात्मा-१. णिइंडो णिइंदो णिम्ममो णिक्कलो जनतो (?) सद्विकल्पोऽविकल्पः । (अध्यात्मक. णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो ३-१८)। अप्पा ॥ णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोस- १ जिसने पदार्थों के प्ररूपक सूत्र (परमागम) को णिम्मुक्को । णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्म- भली भांति जान लिया है, जो तप व संयम से दो अप्पा । (नि. सा. ४३-४४) । २. यो हि युक्त होकर राग से रहित है, तथा सुख व दुःख में नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिरनन्तो नित्योद्योतो विश- समान रहता है उसे शुद्धोपयोगी श्रमण कहा जाता दज्योतिर्ज्ञायक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबन्धपर्याय निरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गलः सममे- शुभकाययोग-१. अहिंसाऽस्तेय-ब्रह्मचर्यादि: शुभकत्वेऽपि द्रव्य स्वभावनिरूपणया दुरन्तकषायचक्रोदय- काययोगः । (त. वा. ६, ३)। २. प्राणिरक्षणावैचित्र्यवशेन प्रवर्त्तमानानां पुण्य-पापनिवर्तकानामु- चौर्य ब्रह्मचर्यादिः शुभः काययोगः । (त. वृत्ति ध्रुत. पात्तवैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिण- ६-३)। मनात् प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवत्येष एवाशेषद्रव्यान्त- १ हिंसा न करना, चोरी न करना और ब्रह्मचर्य रभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्धमान: शुद्ध इत्यभिलप्यते। का परिपालन करना; इत्यादि यह शुभ काययोग (समयप्रा. अमृत. व. ६)। ३. सुद्धो जीवसहावो कहलाता है। जो रहियो दव्व-भावकम्मेहिं । सो सुद्धणिच्छयादो शुभचर्या-प्ररहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणासमासिनो सुद्धणाणीहि ॥ (द्रव्यस्व. प्र. नयच. भिजुत्तेसु । विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता ११४)।
भवे चरिया ।। (प्रव. सा. ३-४६)। १ प्रात्मा को स्वभावतः शुद्ध होकर मनदण्ड प्रादि यदि श्रमण अवस्था में परहन्त प्रादि में गुणानुराग तीन प्रकार के दण्ड, प्राकुलता, ममता, शरीर, पराल रूप भक्ति है तथा प्रवचन (मागम या संघ) में जो
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शुभ-तैजससमुद्घात |
प्रभियुक्त हैं ऐसे प्राचार्य, उपाध्याय व साधु के विषय में वात्सल्यभाव रहता है तो इसे शुभयुक्तचर्या - शुभ राग से युक्त चारित्र - कहा जाता है । शुभ-तैजससमुदघात - देखो प्रशस्त निःसरणज| लोकं व्याधि-दुर्भिक्ष्यादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्त (दीर्घत्वेन द्वादश योजनप्रमाणः सूच्यंगुल संख्येय भागमूलविस्तारो नवयोजनाविस्तार: ) देहप्रमाणपुरुषो [दक्षिणस्कन्धान्निर्गत्य ] दक्षिण प्रदक्षिणेन व्याधि दुनियादिकं स्फोटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति श्रसो शुभरूपस्तैजससमुद्घातः । (बृ. द्रव्यसं. टी. १०; कार्तिके. टी. १७६) ।
लोक को व्याधि व दुर्भिक्ष से पीड़ित देखकर जिस महर्षि के दया भाव उत्पन्न हुआ है तथा जो उत्कृष्ट संयम का परिपालन करने वाला है उसके मूल शरीर को न छोड़कर दाहिने कंधे से जो बारह योजन लम्बा और सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मूल विस्तार वाला व नौ योजन माण अग्र विस्तार वाला पुरुष निकल करके दक्षिण-प्रक्षिणक्रम से युक्त व्याधि व दुर्भिक्ष श्रादि को दूर करता हुम्रा फिर अपने स्थान में प्रविष्ट हो जाता है उसे शुभ तैजससमुद्घात कहा जाता है। शुभध्यान-सुविसुद्ध राय-दोसो बाहिरसंकप्पवज्जिश्री धीरो । एयग्गमणो संतो जं चितइ तं पि सुहज्झाणं ।। ससरूवसमुब्भासो णट्टममत्तो जिदिदिनो संतो । अप्पाणं चिततो सुहज्झाणरम्रो हवे साहू ॥ (कार्तिके. ४८०-८१ ) | जो राग-द्वेष से सर्वथा रहित होकर प्रतिशय विशुद्धि को प्राप्त होता हुप्रा बाह्य शरीर एवं स्त्री, पुत्र व धन सम्पत्ति श्रादि चेतन प्रचेतन पदार्थों के संकल्प विकल्पसे रहित हो चुका है, जिसे अपने स्वरूप का प्राभास हो चुका है, ममत्व भाव से जो रहित हुम्रा है; तथा जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है; ऐसा साधु एकाग्रचित्त होकर जो कुछ भी विचार करता है वह उसका शुभ ध्यान माना जाता है । उसी में वह रत रहता है । शुभनाम - ९. यदुदयाद्रमणीयत्वं तच्छुभनाम । ( स. सि. ८-११; त. इलो. ८-११) । २. यदुदयाद रमणीयत्वं तच्छुभनाम । यदुदयाद् दृष्टः श्रुतो
[ शुभयोग वा रमणीयो भवत्यात्मा तच्छुभनाम । (त. वा. ८, ११, २७) । ३. जस्स कम्मस्स उदएण अंगोवंगणामकम्मोदय जणिदयं गाणमुवंगाणं च सुहत्तं होदि तं सुहं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ६४); जस्स कम्मस्सुदएण चक्कवट्टि बलदेव वासुदेवत्तादिरिद्धीणं सूचया संखंकुसारविंदादश्रो अंग-पच्चंगेसु उप्पज्जंति तं सुहं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३६५ ) । ४. यदुदयादङ्गोपाङ्गनामकर्मजनितानामंगानामुपाङ्गानां च रमणीयत्वं तच्छुभनाम । ( मूला. वृ. १२ - १६६ ) । ५. यतश्च शिरःप्रभृतीनां शुभानां (निष्पत्तिर्भवति ) तच्छुभनाम । (समवा. अभय वृ. ४२ ) । ६. तथा यदुदयान्नाभेरुपरितना अवयवाः शुभाः जायन्ते तत् शुभनाम । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १६३, पृ. ४७४) । ७. रमणीयत्वकारणं शुभनाम । ( भ. प्रा. मूला. २१२४) । ८. यदुदयात् रमणीया मस्तकादिप्रशस्तावयवा भवन्ति तच्छुभनाम । ( गो . क. जी. प्र. ३३ ) । ६. यदुदयेन रमणीयो भवति तच्छुभनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११ ) ।
१ जिसके उदय से शरीर रमणीय होता है उसे शुभ नामकर्म कहते हैं । ३ जिस कर्म के उदय से अंग और प्रत्यंगों में चक्रवतित्व, बलदेवत्व श्रौर वासुदेवत्व प्रादि ऋद्धियों के सूचक शंख, अंकुश और कमल श्रादि चिह्न होते हैं उसे शुभ नामकर्म कहा जाता है ५ जिसके निमित्त से शिर श्रादि उत्तम अंग- उपांगों की उत्पत्ति होती है वह शुभ नामकर्म कहलाता है ।
१०६४, जैन-लक्षणावली
शुभ मनोयोग - १ ततः (वध चिन्तनेर्ष्यासूयादिरूपादशुभमनोयोगात् ) विपरीतः शुभः । ( स. सि. ६- ३ ) । २. ततोऽनन्तविकल्पादन्यः शुभः । तस्मादनन्तविकल्पादशुभयोगादन्य: शुभयोग इत्युच्यते । तद्यथा - XXX ग्रहंदादिभक्ति तपोरुचि श्रुतविनयादिः शुभो मनोयोग: । (त. वा. ६, ३, २ ) । ३. श्रदादिभक्तिस्तपोरुचिः श्रुतविनयादिश्च शुभो मनोयोगश्चेति । (त. वृत्ति श्रुत. ६-३ ) ।
२ अरहन्त व प्राचार्य श्रादि की भक्ति, तप में रुचि और श्रुत का विनय इत्यादि शुभ मनोयोग के लक्षण हैं ।
:
१. शुभपरि
शुभयोग - देखो शुभमनोयोग | णामनिर्वृत्तो योगः शुभः । ( स. सि. ६-३ ) । २. सम्यग्दर्शनाद्यनुरंजितो योगः शुभो विशुद्धयंगत्वात् ।
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शुभ वाग्योग १०६५, जैन-लक्षणावली
[शृंग (त. श्लो. ६-३) । ३. शुभपरिणामनिवृत्तो निष्प- १ गुरु के आदेश के सुनने की इच्छा को तथा न्नो योगः शुभः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-३)। उनकी वैयावृत्ति प्रादि को सुश्रूषा कहते हैं। १ शुभ परिणामों से जो योग उत्पन्न होता है उसे शूद्र-१. जे नीयकम्मनिरया, परपेसणकारया शुभ योग कहते हैं।
निययकालं । ते होन्ति सुहवग्गा बहुभेया चेव शुभ वाग्योग - १. सत्य-हित-मितभाषणादिः लोगम्मि । (पउमच. ३-११७)। २, शुद्राः शिशुभो वाग्योगः । (त. वा. ६, ३, २)। २. सत्य- ल्पादिसम्बन्धात् Xxx ॥ (ह. पु. ६-३६) । हित-मित-मृदुभाषणादिः शुभो वाग्योगः । (त. वृत्ति ३. तेषां शुश्रूषणाच्छूद्राः XXX । (म. पु. १६, श्रुत. ६-३)।
१८५); Xxx शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।। (म. १ सत्य, हितकर और परिमित भाषण प्रादि को पु. ३८-४६)। ४. शुश्रूषन्ते त्रिवर्णी ये भाण्ड-भूषाशुभ वाग्योग (वचनयोग) कहा जाता है। म्बरादिभिः । (धर्मसं. श्रा. ६-२३२) । शुभास्रव-मनोवाक्कायकर्मभिः शुभैरशुभरास्रवः १ जो नीच कार्य में निरत होकर नियत समय तक xxx। (सिद्धिवि. वृ. ४-६, पृ. २५५)। दूसरों की प्राज्ञा के अनुसार कार्य किया करते हैं वे शुभ, मन, वचन और काय की क्रिया का नाम शद्र कहलाते हैं। २ जो शिल्प आदि कार्य को शुभास्रव है।
किया करते हैं उन्हें शूद्र कहा जाता है। शुभोपयोग-१. जो जाणादि जिणिदे पेच्छदि शून्यध्यान-१. जत्थ ण झाणं झेयं झायारो णेव सिद्धे तधेव अणगारे। जीवे य साणकंपो उवयोगो चितणं किपि । ण य धारणावियप्पो तं सुण्णं सुठ्ठ सो सुहो तस्स ।। (प्रव. सा. २-६५)। २. विशि- भाविज्जा ॥ (प्रारा. सा. ७८)। २. रायाईहिं ष्टक्षयोपशमदशाविधान्तदर्शन-चारित्रमोहनीयपूदग- विमुक्कं गयमोहं तत्तपरिणदं णाणं । जिणसाणम्मि लानुवृत्तिपरत्वेन परिगृहीतशोभनोपरागत्वात परम- भणियं सुण्णं इय एरिसं मुणह ॥ इंदियविसयादीदं भट्टारकमहादेवाधिदेवपरमेश्वराहत्सिद्ध - साधुश्रद्धाने अमंत-तंतं अधेय-धारणयं । णहसरिसं पि ण गयणं समस्तभूतग्रामानुकम्पाचरणे च प्रवृत्तः शुभ उपयोगः। तं सुण्णं केवलं गाणं ।। (ज्ञा. सा. पद्म. ४१-४२)। (प्र. सा. अमृत. व. २-६५)।
१ जिस ध्यान में ध्यान, ध्येय और ध्याता १ जो जीव जिनेन्द्रों को जानता है, सिद्धों व गृह के का कुछ भेद नहीं रहता; चिन्तन भी कुछ नहीं त्यागी मुनियों को देखता है-उन पर श्रद्धा रखता रहता है, तथा धारणा का विकल्प भी नहीं रहता है, तथा समस्त जीवों के विषय में दयालुता का है उसे शून्यध्यान जानना चाहिए। व्यवहार करता है उसका जो इस प्रकार का उपयोग शून्यवर्गणा-सुण्णाम्रो णाम परमाणुविरहिदवग्गहोता है उसे शुभ-उपयोग कहते हैं।
णाओ। (धव. पु. १४, पृ. १३६) । शुषिर-१. वंश-शंखादिनिमित्तः सौषिरः। (स. परमाणु से रहित वर्गणानों को शून्यवर्गणायें कहा सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ५)। २. शुशिरं जाता है। वंशसम्भूतं xxx । (पद्मपु. २४-२०)। ३. शु- शूर-कः शूरो यो ललनालोचनवाणर्न च व्यथिषिरं शंख-काहलादि । (रायप. पृ. ६६)। तः ॥ (प्रश्नो . र. ८)। १ बांस व शख प्रादि से जो शब्द उत्पन्न होता है जो स्त्रियों के नेत्ररूप वाणों से पीड़ित नहीं होता उसे शोषिर या शुषिर कहते हैं। ३ शंख व काहल है उसे वस्तुतः शूर समझना चाहिए। प्रादि से उत्पन्न होने वाले शब्द को शुषिर कहा शृंखलित दोष-शृङ्खलाबद्धवत् पादौ कृत्वा जाता है। ।
शृंखलितं स्थितिः । (अन. ध.८-११४)। . शुश्रूषा-१. गुरोरादेशं प्रति श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा, सांकल से बंधे हुए के समान पांवों को करके कायोगुर्वादेर्वेयावृत्त्यमित्यर्थः । (सूत्रकृ. सू. शी. व. १, ६, त्सर्ग में स्थित होने पर शृखलित नाम का दोष ३३)। २. शुश्रूषा श्रोतुमिच्छा। (योगशा. स्वो. होता है । विव. १-५१)।
शृंग-शृङ्गम् अहो कायं काय इत्याद्यावर्तानुच्चा. __ ल. १३४
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शेषनिस्फोटित] १०६६, जैन-लक्षणावली
[शोक रयतो ललाटमध्यदेशमस्पृशतः शिरसो वाम-दक्षिणे पृथग्भूत शिलानों में अथवा उखाड़ी गई शिलानों शृङ्गे स्पृशतो वन्दनकरणम् । (योगशा. स्वो. विव. में जो परहन्त प्रादि पांच लोकपालों की प्रति३-१३०)।
माएं उत्कीर्ण की जाती हैं, इसे शैलकर्म कहा 'ग्रहो कायं कायः' इस प्रकार प्रावतों का उच्चारण जाता है। करते हुए मस्तक के मध्य भाग को न छूकर शिर शैलेशी-१. सेलेसो किर मैरू सेलेसी होइ जा केवायें और दक्षिण सींगों का स्पर्श करते हुए तहाऽचलया । होउं च असेलेसो सेलेसी होइ थिरबन्दना करना, यह वन्दना का शृग नामक चौबी- याए । अहवा सेलुब्ब इसी सेलेसी होइ सो उ थिरसवां दोष है।
याए । सेब अलेसी होई सेलेसीहो अलोवायो ।। शेषनिस्फोटित-शेषः निस्फोटितः पित-मातृ- सीलं व समाहाणं निच्छयो सव्वसंवरो सोय । गुरु-महत्तरादिभिरननुज्ञातः प्रव्रज्यां बलात्कारेण तस्सेसो सीलेसो सीलेसी होइ तयवत्थो॥ (ध्यानश. जिघृक्षुः । (प्राचारदि. पृ. ७४)। मो पिता, माता, गुरु और महत्तर प्रादि की अनुज्ञा तस्य भावः शैलेश्यं सकलगुण-शीलानामकाधिपत्यके बिना ही दीक्षा के ग्रहण का इच्छुक हो उसे शेष. प्रतिलम्भनम् । (जयध. अ. प. १२४६)। ३. शीलेनिस्फोटित कहते हैं।
श: सर्वसंवररूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था । शैलेशो शैक्ष-१. शिक्षाशीलः शैक्षः। (स. सि. ६-२४; वा मेरुस्तस्येव याऽवस्था स्थिरतासाधात् सा त. श्लो. ९-२४)। २. अचिरप्रवजित: शिक्षयि- शैलेशी । (व्याख्याप्र. अभय. वृ. १, ८, ७२; धव. तव्यः शिक्षः, शिक्षामन्तीति शैक्षो वा । (त. भा. पु. ६, पृ. ४१७ टि. १)। ४. शीलानामष्टादश६-२४) । ३. शिक्षाशीलः शैक्ष्यः। श्रुतज्ञानशिक्षण- सहस्रसंख्यानामीशः शीलेशः, शीलेशस्य भावः शैलेपरः अनुपरतवतभावनानिपुणः शैक्षक इति लक्ष्यते । शी। (जिनसहस्र. टी. पृ. १३२ व २४७) । (त. वा. ६, २४, ६)। ४. श्रुतज्ञानशिक्षणपरोऽनु- १ शैलों (पर्बतों) में प्रमुख मेरु को शैलेश कहा परतव्रतभावनानिपुणः शैक्षः । (चा. सा. पृ. ६६)। जाता है, उस शैलेश के समान जो निश्चलता प्राप्त ५. सेहत्ति अभिनवप्रवजितः। (प्रौपपा. अभय. व. हो जाती है उसका नाम शैलेशी है । अथवा 'सेलेसी' पृ. ४३)। ६. अचिरप्रवजितः शिक्षाहः शैक्षः। इस प्राकृत शब्द का संस्कृत रूप शैलर्षि भी होता (योगशा. स्वो. विव, ४-६०)। ७. शास्त्राभ्यास- है, तदनुसार उसका अभिप्राय शैल के समान स्थिर शीलः शैक्षः। (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४; कार्तिके. ऋषि होता है । २ समस्त गुण शीलों के एकाधिपटी. ४५६)। ८. शास्त्राभ्यासी शैक्षः । (भावप्रा. तित्व को शैलेश्य कहा जाता है। टी. ७८)।
शैलेश्य-देखो शैलेशी। १ जिसका स्वभाव शिक्षा ग्रहण करने का है उसे शैव -- कर्मोपाधिविनिर्मुक्तं तद्रूपं शैवमुच्यते । (भावशेक्ष कहा जाता है। २ जिसे दीक्षा ग्रहण किये हुए सं. वाम. १६२) ।। अभी थोडा ही समय वीता है तथा जो शिक्षा के कर्म की उपाधि से रहित रूप को शेव कहा जाता है। योग्य है उसे शिक्ष, शैक्ष या शैक्ष्य कहा जाता है। शोक-१. अनुग्राहकसम्बन्धविच्छेदे वैक्लव्य विशेषः शैक्ष्य-देखो शेक्ष ।
शोकः । (स. सि. ६-११); यद्विपाकाच्छोचनं स शैलकर्म-सेलो पत्थरो, तम्हि घडिदपडिमानो शोकः । (स. सि. ८-९; त. वा. ८, ६, ४)। सेलकम्मं । (धव. पु. ६, पृ. २४९); पुधभूदसि- २. अनुग्राहकसम्बन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः शोकः । लासु घडिदपडिमानो सेलकम्माणि णाम । (धव.पु. अनुग्राहकस्य बान्धवादेः सम्बन्धविच्छेदे तद्गताश१३, पृ. १०); सिलासु पुषभूदासु उक्कच्छिण्णासु यस्य चिन्ता-खेदलक्षणः परिणामो वैक्लव्य विशेषो वा कदमरहंतादिपंचलोगपालपडिमानो सेलकम्माणि मोहकर्मविशेष शोकोदयापेक्षः शोक इत्युच्यते । (त. णाम । (धव. पु. १३, पृ. २०२); तेहि चेव वा ६, ११, २)। ३. शोचनं शोकः, शोचयतीति (पत्थर-कट्ठएहि) छिण्ण सिलासु घडिदरूवाणि सेल- शोकः । जेसि कम्मक्खंधाणमुदएण जीवस्स सोगो कम्माणि णाम । (धव. पु. १४, पृ. ५)। समुप्पज्जइ तेसिं सोगो त्ति सण्णा । (घव. पु. ६,
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शोक]
१०६७, जैन-लक्षणावली
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[श्रद्धा
पृ. ४७); जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं सोगो शौचमिति निश्चीयते । (त. वा. ६, ६, ५)। समप्पज्जदि तं कम्मं सोगो णाम । (धव. पु. १३, ४. लोभप्रकाराणामपरमः शौचम, स्वद्रव्यत्याग पृ. ३६१) । ४. अनुग्राहकबान्धवादिविच्छेदो मोह. परद्रव्यापहरणसांन्यासिकनिह्नवादयो लोभप्रकाराः, कर्मविशेषोदयादसद्वेध च वैक्लव्यविशेषः शोकः। तेषामुपरमः शौचम् । (त. श्लो. ६-१२) । ५. चतु(त. श्लो. ६-११) । ५ शोक इष्टवियोगवशादनु- विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते। ज्ञान-चारित्रशोचनम् । (मूला. व. २-८); शोचनं शोचय- शिक्षादौ स धर्मः सुनिगद्यते ॥ (त. सा. ६-१७)। तीति वा शोकः, यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन शोकः ६. सम-संतोसजलेणं जो धोवदि तिव्वलोहमलपुंज । समुत्पद्यते जीवस्य तस्य शोक इति संज्ञा। (मला. भोयणगिद्धिविहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं ।। वृ. १२-१६३)। ६. यदुदयात् प्रियविप्रयोगादौ (कातिके. ३६७)। ७. शौचं द्रव्यतो निर्लेपता सोरस्ताडमाक्रन्दति परिदेवते भूपीठे च लुठति दीर्घ भावतोऽनवद्यसमाचार: । (प्रोपपा. अभय. व. १६, च निश्वसिति तत् शोकमोहनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. प. ३३) । ८. शौचमाचारशुद्धिः । (योगशा. स्वो. वृ. २६३, पृ. ४६६) । ७. अनुग्राहकसम्बन्धविच्छेदे विव. ३-१६); शौचं संयम प्रति निरुपलेपता, सा वैक्लव्य विशेषः शोको यद्विपाकाज्जायते स शोकः । चादत्तादानपरिहाररूपा । (योगशा. स्वो. विव. भ. प्रा. मूला. २०६७) । ८. स्वस्येष्टजनवियोगा- ४-६३) । ६. परवस्तुष्वनिष्टप्रणिधानोपरमः दिना स्वस्मिन् दुःखोत्कर्षः शोकः । (प्रलं. चि. शौचम् । (अन. घ. स्वो. टी. ६-२८)। १०. ५-२)। ६. शोचनं शोकः चेतनाचेतनोपकारकवस्तु- उत्कृष्टतासमागतगाद्यपरिहरणं शौचमुच्यते । (त. सम्बन्धविनाशे वैक्लव्यं दीनत्वमित्यर्थः । (त. वृत्ति वृत्ति श्रुत. ६-६)। . श्रुत. ६-११); यदुदयात् अनुशेते शोचनं करोति १ जो मुनि कांक्षाभाव को छोड़कर-निःस्पृह स शोकः । (त. वृत्ति श्रुत. ८-६)।
होकर-वैराग्यभावना से युक्त होता है उसके एक जनों के सम्बन्ध का विच्छेद होने पर शौचधर्म होता है। २ लोभ के जितने भी प्रकार जो विकलता होती है उसका नाम शोक है। यह हैं उनके हट जाने पर जो निर्मलता होती है उसे शोक जिस कर्म के उदय से होता है उस कर्म को शौचधर्म कहते हैं। शोक प्रकषायवेदनीय (चारित्रमोहनीय का एक गौण्डिक-शौण्डिकः कल्पपालः। (नीतिवा. १४, अवान्तर भेद) कहा जाता है। ६ जिस कर्म के 80
१७, पृ. १७३)।
, उदय से इष्टवियोग प्रादि के समय में प्राणी छाती जो मद्य का व्यवसाय करता है उसे शोण्डिक कहा पीटकर जोर जोर से रोता है, गुणानुस्मरणपूर्वक जाता है। विलाप करता है, पृथ्वी पर लोटता है तथा दीर्घ
शौभिक-शोभिकः क्षपायां काण्डपटावरणेन नानाश्वास लेता है। उसे शोकमोहनीय कहते हैं।
रूपदर्शी। (नीतिवा. १४-१८, पृ. १७३) । शोक अकषायवेदनोय-देखो शोक । शोक मोहनीय-देखो शोक ।
रात्रि में कारपट के प्रावरण से जो अनेक रूपों को शौच-१.कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेरग्गभावणा
देखता है उसे शोभिक कहा जाता है । जुत्तो। जो वट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे शौषिर-देखो शुषिर। सोच्चं ॥ (द्वादशानु. ७५) । २. लोभप्रकाराणामु. श्रद्धा-१. श्रद्धा मिथ्यात्वमोहनीयकर्मक्षयोपशमापरमः शौचम् । (स. सि. ६-१२); प्रकर्षप्राप्त- दिजन्योदकप्रसादक-मणिवच्चेतसः प्रसादजननी । लोभान्निवृत्तिः शौचम् । (स. सि. ६-६; त. श्लो. (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । २. सड्ढा ६-६; चा. सा. पृ. २६)। ३. लोभप्रकाराणामु. (श्रद्धा)-सद्गुरूपदेशविज्ञातार्थरुचिः । (भ. प्रा. परमः शोचम् । लोभप्रकारेभ्यः उपरतः शुचिरित्यू- मला. ४३१) । ३. तस्य व्यामोह-संशीति-विपर्यास च्यते, तस्य भावः कर्म वा शौचम् । (त. वा. ६, विवजिता। इत्थमेव प्रतीतिर्या श्रद्धा सा कीर्तिता
।; प्रकर्षप्राप्ता लोभनिवृत्तिः शौचम्। बुधैः ।। (मोक्षपं. ४२) । ४. तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धिः लोभस्य निवृत्तिः प्रकर्षप्राप्ता, शुचेर्भावः कर्म वा श्रद्धा xxx। (पंचाध्या. २-१२) ।
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श्रद्धानप्रायश्चित्त]
१०६८, जैन-लक्षणावली
[श्रमणाभास
१ मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के क्षयोपशम प्रादि से समणे त्ति वच्चे। (सूत्रकृ. सू. १, १६, २ । चित्त की जो प्रसन्नता होती है उसे श्रद्धा कहा ३. समो सव्वत्थ मणो जस्स भवति स समणो। जाता है। जैसे जल को निर्मलता का कारण मणि (उत्तरा. चू. पृ. ७२)। ४. सर्वग्रन्थविनिर्मुक्ता है वैसे ही चित्त की निर्मलता का कारण श्रद्धा है। महातपसि ये रताः। श्रमणास्ते परं पात्रं तत्त्व२ समीचीन गुरु के उपदेश से जाने हुए पदार्थों में ध्यानपरायणाः । (पद्मपु. १४-५८) । ५. श्राम्यति जो रुचि होती है उसे श्रद्धा कहते हैं।
तपस्यतीति श्रमणः, तस्य भावं श्रामण्यं श्रमणशब्दश्रद्धानप्रायश्चित्त-१. मिच्छत्तं गंतूण ट्रियस्स स्य पुंसि प्रवृत्तिनिमित्तं तपःक्रिया श्रामण्यम् ॥ (भ. महव्वयाणि घेत्तण अत्तागम-पयत्थसद्दहणा चेव प्रा. विजयो. ७१) । ६. श्राम्यतीति श्रमणो द्वादश[सहहणा-] पायच्छित्तं । (घव. पु.१३, प.६३)। प्रकारतपोनिष्टप्तदेहः। (सत्रकृ. स. शी. व. २,६, २. श्रद्धानं सावद्यगतस्य मनसो मिथ्यादुष्कृताभि- ४, पृ. १४१)। ७. यो न श्रान्तो भवेद् भ्रान्तेस्तं व्यक्ति-निवर्तनम् । (मूला. वृ. ११-१६) । विदुः श्रमणं बुधाः ॥ (उपासका. ८५६)। ८. श्रा३. गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यद्दीक्षाग्रहणं पुनः । म्यति संसारविषये खिन्नो भवति तपस्यतीति वा, तच्छ्रद्धानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ॥ (अन. ध. नन्द्यादित्वात् कर्तरि अने श्रमणः। (योगशा. स्वो. ७-५७)। ४. परिणामपच्चएणं सम्मत्तं उज्झिऊण विव. ३-१३०)। मिच्छत्तं । पडिवज्जिऊण पूणरवि परिणामवसेण सो १ जो पांच समितियों से सम्पन्न, तीन गप्तियों से जीवो।। णिदण-गरहणजत्तो णियत्तिऊणो पडिविज्ज संरक्षित, पांच इन्द्रियों से संवत, कषायों का विजेता, सम्मत्तं । जं तं पायच्छित्तं सद्दहणासण्णिदं होदि । दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण, शत्रु व मित्र में समानता का (छेदपिण्ड २८५-८६)।।
व्यवहार करने वाला, सुख-दुख में हर्ष-विषाद से १ मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित जीव जो महा- सहित, प्रशंसा व निन्दा में समान, ढेले व कांच को ब्रतों को ग्रहण करके प्राप्त, आगम और पदार्थों समान समझने वाला तथा जीवन व मरण में समान का श्रद्धान करता है, यह उसका श्रद्धान या श्रद्द रहता है। ऐसे संयत को श्रमण कहा जाता है। धना नाम का प्रायश्चित्त है। २ पापाचरण को २ श्रमण अनिश्रित-शरीर प्रादि के विषय में प्राप्त मन मिथ्या दुष्कृत को अभिव्यक्त करके प्रतिबन्ध से रहित और निदान से भी रहित होकर जो उससे निवृत्त होता है उसका नाम श्रद्धान- आदान-सावद्य अनुष्ठान, प्रतिपात-प्राणातिपात प्रायश्चित्त है। ४ परिणाम के निमित्त से सम्य- (हिंसा), असत्य वचन, बहिद्ध-मैथुन-परिग्रह, क्रोध, क्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व को प्राप्त हा जीव ____ मान, माया, लोभ, प्रेम और द्वेष इत्यादि जो स्व परिणाम के वश फिर से जो निन्दा व गीं से युक्त व पर के लिए अनर्थकारी हैं उन सबका ज्ञ-परिज्ञा होकर उस मिथ्यात्व से हटता है और सम्यक्त्व को से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे । इसके स्वीकार करता है उसका यह श्रद्धान नामक प्राय- अतिरिक्त अनर्थ के हेतुभूत जिस जिस सावध अनु. श्चित्त है।
ष्ठान से अपने अपाय व प्रद्वेष के कारणों को भी श्रमण-१. पंचसमिदो तिगुत्तो पचेंदियसंवुडो देखता है उस उससे विरत हो; इस प्रकार से जो जिदकसानो। दंसण-णाणसमग्गो समणो सो संजदो दान्त (शुद्ध) द्रव्यस्वरूप व शरीर से निःस्पृह हो भणिदो। समसत्तु-बंधुवग्गो समसुह-दुःखो पसंस-णिद• चुका है उसे श्रमण कहना चाहिए।
मलोटठ-कंचणो पूण जीविद-मरणे समो श्रमणाभास-पागमज्ञोऽपि संयतोऽपि तपःस्थोऽपि समणो ॥ (प्रव. सा. ३, ४०-४१)। २. समणे जिनोदितमनन्तार्थनिर्भरं विश्वं स्वेनात्मना ज्ञेयत्वेन अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च अतिवायं च मुसा- निष्पीतत्वादात्मप्रधानमश्रद्दधानः श्रमणाभासो वायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं भवति । (प्रव. सा. अमत. व. ३-६४) । च पिज्जं च दोसं च इच्चेव जो जो आदाणं जो पागम का ज्ञाता भी है, संयत भी है तथा जिनोअप्पणो पद्दोसहेऊ तो तमो आदाणातो पुव्वं पडि- पदिष्ट अनन्त पदार्थों से व्याप्त लोक को ज्ञय विरते पाणाइवाया सिया दंते दविए वोसट्टकाए स्वरूप से जानता भी है, परन्तु जो प्रात्मा की
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श्रस्तदर्शन] १०६९, जैन-लक्षणावली
[श्रुत प्रधानता से लोक का श्रद्धान नहीं करता है, उसे श्रीमान् । (अन. ध. स्बो. टी. ८-३६)। श्रमणाभास कहा जाता है।
श्री का अर्थ लक्ष्मी है। वह अन्तरंग और बहिरंग श्रस्तदर्शन--संयोजनोदये भ्रष्टो जीवः प्रथमदृष्टि- के भेद से दो प्रकार की है। अनन्तज्ञानादिस्वरूप तः। अन्तराऽनातमिथ्यात्वो वर्ण्यते श्रस्तदर्शनः ।। लक्ष्मी अन्तरंग और समवसरण एवं पाठ प्रातिहा(पंचसं. अमित. १-२०)।
र्यादिस्वरूप लक्ष्मी बहिरंग मानी गई है। यह दोनों अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में प्रा जाने पर जो प्रकार की लक्ष्मी जिसके होती है उसे श्रीमान् कहा जीव प्रथम सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो चुका है तथा जाता है । यह जिन भगवान के १००८ नामों के मिथ्यात्व को अभी प्राप्त नहीं हुआ है, इस अन्तर्गत है। अन्तरालवर्ती जीव को श्रस्तदर्शन कहा जाता है। श्रत---१. तदावरणक्षयोपशमे सति निरूप्यमाण यह सासादनसम्यग्दृष्टि का नामान्तर है। श्रूयतेऽनेन तत्, शृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतम् । श्राद्ध-साधुभ्यो ददता दानं लभ्यते फलमीप्सितम्। (स. सि. १-६) तदुपदिष्टं (केवलिभिरुपदिष्ट) यस्यैषा जायते श्रद्धा नित्यं श्राद्धं वदन्ति तम् ।। बुद्धचतिशयद्धियुक्तगणधरानुस्मृतं ग्रन्थ रचनं श्रुतं (अमित. श्रा. ६-६)।
भवति । (स. सि. ६-१३)। २. श्रुतावरणक्षयोप- . साधु के लिए दान देने वाला इच्छित फल को प्राप्त । शमाद्यन्तरंग-बहिरंगहेतुसन्निधाने सति श्रूयते स्मेति करता है, ऐसी जिस दाता के श्रद्धा रहती है उसे श्रुतम्, कर्तरि श्रुतपरिणत प्रात्मैव शृणोतीति श्रुतम्, श्राद्ध -श्रद्धागुण से युक्त श्रावक- कहा जाता है। भेदविवक्षायां श्रूयतेऽनेनेति श्रुतं श्रवणमात्र वा। श्रावक--१. एहु धम्मु जो आयरइ बंभणु सुदु वि (त. वा. १, ६, २); अनिन्द्रियनिमित्तोऽर्थावगमः कोइ । सो सावउ कि सावयहं अण्णु कि सिरि मणि श्रुतम् । इन्द्रियानिन्द्रियबलाधानात्, पूर्वमुपलब्धेऽर्थे होइ ॥ (सावयध. ७६) । २. मूलोत्तरगुणनिष्ठा- नोइन्द्रियप्राधान्यात् यदुत्पद्यते ज्ञानं तत् श्रुतम् । मधितिष्ठन् पञ्चगुरुपदशरण्यः। दान-यजनप्रधानो (त. वा १, ६, २७); तदुपदिष्टं बुद्धयतिशद्धिज्ञान-सुधां श्रावकः पिपासुः स्यात् ॥ (सा. घ. १, युक्तगणघरावधारितं श्रुतम् । तैर्व्यपगतराग-द्वेष१५)। ३. मद्य-मांस-मधुत्यागी यथोदुम्बरपञ्चकम् । मोहैरुपदिष्टं बुद्धयतिशद्धियुक्तः गणधरैरवधारित नामतः श्रावक: ख्यातः नान्यथापि तथा गृही॥ श्रुतमित्युच्यते । (त. वा. ६, १३, २) । ३. प्रत्था(लाटीसं. ३-१५७)।
ओ अत्यंतरउवलंभे तं भणंति सुयणाणं । आहिणि१जो इस (दोहा ५६ में निर्दिष्ट प्रणवतादिरूप बोहियपुव्वं णियमेण य सद्दयं मूलं ॥ (प्रा. पंचसं बारह प्रकार के) धर्म का प्राचरण करता है वह १-१२२; धव. पु. १, पृ. ३५६ उद्.)। ४. सुदणाणं चाहे ब्राह्मण, शूद्र कोई भी हो, श्रावक कहलाता। णाम मदिपुव्वं मदिणाणपडिग्गहियमत्थं मोत्तूणण्णहै। धावक के शिर पर क्या अन्य कोई मणि रहता स्थम्हि वावदं सुदणाणावरणीयक्खोवसमजणिदं । है ? श्रावक को पहिचान उक्त व्रत ही हैं। (धव. पु. १, पृ. ६३); अवग्गहिदत्थादो पुधभूदश्रावकधर्म-श्रावकधर्मस्तु देशविरतिरूपः । (योग- स्थालंबणाए लिंगजणिदबुद्धीए णिण्णयरूवाए सुदणाशा. स्वो. विव. ३-१२४)।
णत्तब्भुवगमादो। (धव. पु. ६, पृ.१८); सुदणाणं देशविरतिरूप ---अणुवतादिस्वरूप-जो धर्म है वही णाम इंदिएहि गहिदत्थादो तदो पुधभूदत्थग्गहणं, श्रावकधर्म है।
जहा सद्दादो घडादीण मुवलंभो धूमादो अग्गिस्सुवश्राविका - श्राविका यथाशक्तिमूलोत्तरगुणभृताः लंभो वा। (धव. पु. ६, पृ. २१): मदिणाणेण तदुपासिकाश्च । (सा. ध. स्वो. टी. २-७३)। गहिदत्थादो जमुप्पज्जदि अण्णेसु अत्थेसु णाणं तं जो शक्ति के अनुसार मूल गुणों और उत्तर गुणों सुदणाणं णाम । (धव. पु. १३, पृ. २१०); अवको धारण करती हैं वे श्राविकाएं कहलाती हैं। गहादिधारणापेरंतमदिणाणण अवगयत्थादो अण्णश्रीमान्-श्रीरन्तरङ्गा अनन्तज्ञानादिलक्षणा बहि- स्थावगमो सुदणाणं । (धव. पु. १३, पृ. २४५) । रङ्गा च समवसरणाष्टमहाप्रातिहार्यादिस्वभावा ५. मदिणाणपुव्वं सुदणाणं होदि मदिणाणविसईकयलक्ष्मीरस्यातिशयेन हरि-हराद्यसम्भवित्वेनास्तीति अट्ठादो पुधभूदढविसयं । (जयध. १, पृ. ४२);
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श्रुत]
१०७०, जैन-लक्षणावली
[श्रुतकेवली
मदिणाणजणिदं जं जाणं तं सुदणाणं णाम | xx कारेण शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एव
x मयिणाणपरिच्छिण्णत्थादो पुधभूदत्थावगमो माकारं वस्तु घटशब्दवाच्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासुदणाणं । (जयध. १, पृ. ३४०)। ६. अनिन्द्रिय- समर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतः समानपरिणामः मात्रनिमित्तं श्रुतस्य स्वरूपम् । (अष्टस. १-१५)। शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रिय-मनोनिमित्तोऽवगम७. श्रुतज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषान्तरङ्गे विशेष इत्यर्थः, श्रुतं च तत् ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् । कारणे सति बहिरङ्गे मतिज्ञाने च अनिन्द्रियविषया- (प्रज्ञाप. मलय. व. ३१२, पृ. ५२६)। २२. प्राप्तलम्बनम् अविशदं ज्ञानं श्रुतज्ञानम् । (प्रमाणप. पृ. वचनादिनिबन्धनं मतिपूर्वकमर्थज्ञानं श्रुतम् ॥ ७६)। ८. श्रुतावरणविश्लेषविशेषाच्छवणं श्रुतम् । (लघीय. अभय. वृ. २६, पृ. ४६) । २३. श्रुतज्ञानाशृणोति स्वार्थमिति वा श्रूयतेस्मेति वागमः ॥ (त. वरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते यत्तत् श्लो. १-६)। ६. गतं श्रुतम् अंग-पूर्व-प्रकीर्णकभेद- श्रुतम् । शृणोत्यनेन तदिति वा श्रुतम्, श्रवणं वा भिन्नं तीर्थकर-श्रुतके वल्यादिभिरारचितो वचन- श्रुतम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-६; कार्तिके. टी. संदर्भो वा लिप्यक्षरश्रुतं वा। (भ. प्रा. विजयो. २५७); अस्पष्टावबोधनं श्रुतमुच्यते । xxx ४६) । १०. यत्तदावरणक्षयोपशमादनिन्द्रियाव- अथवा श्रुतज्ञानविषयोऽर्थः श्रुतमुच्यते । Xxx लम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तत् अथवा श्रुतज्ञानं श्रुतमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २, श्रुतज्ञानम् । (पंचा. का. अमत. ३. ४१) । ११. ११); श्रयते स्म श्रवणं वा श्रुतं सर्वज्ञवीतरागोपमतिपूर्वं श्रुतं प्रोक्तमविस्पष्टार्थतर्कणम् । (त. सा. दिष्टम् अतिशयवद् बुद्धिऋद्धिसमुपेतगणधरदेवानु१-२४) । १२. सव्वण्हुमुहविणिग्गयपुव्वावर- स्मृतग्रन्थगुम्फितं श्रुतमित्युच्यते । (त. वृत्ति ध्रुत. दोसरहिदपरिसुद्धं । अक्खयमणादिणिहणं सुदणाण. ६-१३) । पमाण णिहिट्ठ ।। (जं. दी. प. १३-८३) । १३. १ श्रतावरण के क्षयोपशम के होने पर निरूपित श्रतमविस्पष्टार्थतर्कणम, श्रतमविस्पष्टतर्कणमित्य- किया जाने वाला तत्त्व जिसके द्वारा सुना भिधानात् । (न्यायकु. १०, पृ. ४०४) । १४. जाता है उसे, अथवा जो उसे सुनता है उसे, अस्पष्टं ज्ञानं श्रुतम् । (सिद्धिवि. व. २-१, पृ. अथवा सुनने मात्र को भी श्रुत कहा जाता है। १२०)। १५. अत्थादो अत्यंतरमवलंभंतं भणंति सुद- २ जिसका वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा व्याख्यान किया णाणं । प्राभिणिबोहियपुव्वं णियमेणिह सद्दज पमुहं ॥ गया है तथा बुद्धि ऋद्धि के धारक गणधरों ने (गो. जी. ३१५)। १६. श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमा- जिसका अवधारण किया है उसे श्रुत कहा जाता न्नोइन्द्रियावलम्बनाच्च प्रकाशोपाध्यायादिबहिरङ्ग- है। ३ इन्द्रियों के द्वारा जाने गये किसी एक पदार्थ सहकारिकारणाच्च मूर्तामूर्त्तवस्तुलोकालोकव्याप्ति- के आश्रय से जो अन्य पदार्थ का ज्ञान होता है उसे ज्ञानरूपेण यदस्पष्टं जानाति तत्परोक्षं श्रुतज्ञानं श्रुतज्ञान कहते हैं । जैसे शब्द के सुनने से घट आदि भण्यते । (ब. द्रव्यसं. टी. ५)। १७. श्रुतं मतिपूर्वमि- का ज्ञान व धूम के देखने से अग्नि का ज्ञान । न्द्रियगृहीतार्थात् पृथग्भतमर्थग्रहणम् यथा घटशब्दात् ७ श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशमघटार्थप्रतिपत्तिधूमाच्चान्युपलम्भ इति । (मूला. वृ. रूप अंतरंग कारण तथा मतिज्ञान रूप बहिरंग १२-१८७)। १८. श्रतं मतिगहीतार्थशब्दैरन्यार्थ- कारण के होने पर जो इन्द्रियातीत विषय के पालबोधनम् । धुमादेः पावकादेर्वा बोधोऽग्ने रग्निशब्दतः॥ म्बन से अस्पष्ट ज्ञान होता है उसे श्रुटज्ञान कहा (प्राचा. सा. ४-३४)। १६. स्वावृत्यपायेऽविस्पष्टं जाता है। २० पूर्व, अंग, उपांग और प्रकीर्णक यन्नानार्थप्ररूपणम्। ज्ञानं साक्षादसाक्षाच्च मतेर्जायेत इनके द्वारा विस्तार को प्राप्त होता हा जो तच्छ तम् ॥ (अन. ध. ३-५)। २०. विस्तृतं 'स्यात्' पद से चिह्नित हो उसे श्रुतज्ञान जानना बहुधा पूर्वरङ्गोपाङ्गः प्रकीर्णकः। स्याच्छब्दलाञ्छितं चाहिए । वह अनेक प्रकार का है। ज्ञेयं श्रुतज्ञानमनेकधा ॥ (योगशा. स्वो. विव. श्रुतकेवली-जो हि सुदेण भिगच्छदि अप्पाणमिणं १-१६, पृ. ११५; त्रि. श. पु. च. १, ३, ५८१)। तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलि मिसिणो भणंति लोगप्प२१. तथा श्रवणं श्रतं वाच्य-वाचकभावपूरस्सरी- दीवयरा ॥ जो सूदणाणं सव्वं जाणदि सदकेवलि
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श्रुतज्ञान] १०७१, जैन-लक्षणावली
[श्रुताज्ञान तमाह जिणा । णाणं अप्पा सव्वं जमा सुदकेवली संपादक सकलविमलप्रत्यक्ष ज्ञानबीजं समीचीनदर्शनतह्मा । (समयप्रा. ९-१०)।
चरणप्रवर्तकमिति निरूपणं श्रुतवर्णजननम् । (भ. जो श्रुत के द्वारा केबल (असहाय) शुद्ध इस प्रारमा प्रा. मूला. ४७)। को जानता है उसे लोक के प्रकाशक ऋषि जन श्रुत- १ श्रुतज्ञान केवलज्ञान के समान समस्त जीवादि केवली कहते हैं। यह श्रुतकेवली का यथार्थ लक्षण द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने में समर्थ, है। जो समस्त श्रुतज्ञान को जानता है उसे जिन देव कर्म के निर्मूलन में उद्यत, उत्तम ध्यान रूप चन्दन श्रुतकेवली कहते हैं यह श्रुतकेवली का प्रौपचारिक के लिए मलय पर्वत के समान, अपने व दूसरों के लक्षण है। यतः सब ज्ञान ही प्रात्मा है, अतः जो उद्धार में निरत, शिष्य जन को अभीष्ट, प्रशभ श्रतज्ञान से अभिन्न प्रात्मा को जानता है उसे श्रत- प्रास्रव का निरोधक, प्रमाद को नष्ट करने वाला, केवली कहना यथार्थ है।
सकल और विकल प्रत्यक्षज्ञान का उत्पादक तथा श्रुतज्ञान-देखो श्रुत।
समीचीन दर्शन व चारित्र का प्रवर्तक है; इत्यादि श्रुतधर्म-श्रुतस्य धर्म: स्वभावः श्रुतधर्मः, श्रुतस्य । प्रकार से श्रुत की महिमा के प्रगट करने को श्रुतबोधस्वभावात् श्रुतस्य धर्मो बोधो बोद्धव्यः, अथवा ज्ञानवर्णजनन कहा जाता है। श्रुतं च तत् धर्मश्च सुगतिधारणात् श्रुतधर्मः, यदि श्रुतविनय-सुतं अत्थं च तहा हिय निस्सेसं तहा वा जीवपर्यायत्वात् श्रुतस्य श्रुतं च तत् धर्मः श्रुत- पवाएइ । एसो चउविहो खलु सुयविणग्रो होइ धर्मः । उक्तं च-बोहो सुयस्य धम्मो, सुयं च धम्मो नायब्वो ॥ सुतं गाहेइ उज्जुत्ते अत्थं च सुणावए स जीवपज्जातो। सगईए संजमंमि य धरणातो वा पयत्तेण । जं जस्स होइ जोग्गं परिणामगमाइणं सुयं धम्मो ।। (प्राव. नि. मलय. वृ. १२७)। तु हियं ॥ णिस्सेसमपरिसेसं जाव समत्तं तु वाएइ । श्रुत का स्वभाव जो बोध है उसे ही श्रुतधर्म कहा एसो सुयविण्णत्तो Xxx। (व्यव. भा. १०, जाता है, अथवा जो सुगति में धारण करता है ३१२-१४) । उसका नाम धर्म है, तदनुसार श्रुत को ही श्रुतधर्म सूत्रग्राहण, अर्थश्रावण, हितप्रदान और निःशेषवा. समझना चाहिए।
चन के भेद से श्रुतविनय चार प्रकार का है। श्रुतमानवशार्तमरण- लोक-वेद-समय-सिद्धान्त- उद्युक्त होकर शिष्य को सूत्र का ग्रहण कराना, यह शास्त्राणि शिक्षितानि इति श्रुतमानोन्मत्तस्य मरणं सूत्रग्रहण विनय है। प्रयत्नपूर्वक जो प्र श्रुतमानवशार्त्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ. जाता है उसे अर्थश्रावण विनय कहते हैं। जिसके ८६)।
लिए जो जो योग्य है उसके लिए सूत्र व अर्थ से मैंने लोक, वेद और स्व-समय व पर-समय सम्बन्धी उसी को जो दिया जाता है, इसका नाम हितप्रदान पागम ग्रन्थों को पढ़ा है, इस प्रकार के शास्त्रज्ञान विनय है। समाप्ति पर्यन्त जो वाचन किया जाता से उन्मत्त हुए पुरुष के मरण को श्रुतमानवशाता है उसे निःशेषवाचन विनय कहते हैं। मरण कहा जाता है।
श्रुतस्थविर-१. श्रुतस्थविरः समवायाङ्गं यावश्रुतवर्णजनन-१. केवलज्ञानवदशेषजीवादिद्रव्य- दध्येता। (योगशा. स्वो. विव. ४-६०) । २. श्रुतयाथात्म्यप्रकाशनपटु कर्म-धर्मनिर्मूलनोद्यतशुभध्या- स्थविरः समवायधरः । (प्राव. नि. मलय. वृ. नचन्दनमलयायमानं स्व-परसमुद्धरणनिरतविनेय- १७६)। ३. स्थान-समवायधरः श्रुतस्थविरः । जनताचित्तप्रार्थनीयं प्रतिबद्धाशुभासवं अप्रमत्त- (व्यव. भा. मलय. व. १०-७४६)। तायाः संपादकं सकल-विकलप्रत्यक्षज्ञानबीजं दर्शन- १ समवायांग के धारक साधु को श्रुतस्थविर कहा चरणयोः समीचीनयोः प्रवर्तकं इति निरूपणा श्रुत- जाता है। ३ जो स्थानांग व समवायांग इन दो वर्णजननम् । (भ. प्रा. विजयो. ४७) । २. श्रुत- अंगों का धारक होता है वह श्रुतस्थविर कहलाता ज्ञानं हि केवलज्ञानवद्विश्वतत्त्वावभासि कर्म नोद्यतशुभध्याननिदानं स्व-परसमुद्धरणनिरतविनेय- श्रुताज्ञान-प्राभीयमासुरक्खा भारह-रामायणादिजनताप्रार्थनीयं प्रतिबद्धाशुभास्रवं अप्रमत्ततायाः उवएसा । तुच्छा असाहणीया सूय अण्णाण त्ति णं
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[श्रेय
श्रुतातिचार]
१०७२, जैन-लक्षणावली विति ॥ (प्रा. पंचसं. १-११६; धव. पु. १, पृ. श्रुति-धम्मस्स श्रवणं श्रुतिः श्रूयते वा । (उत्तरा. ३५८ उद्.; गो. जी. ३०४)। चौरशास्त्र, हिंसाशास्त्र, भारत एवं रामायण प्रादि धर्म के सुनने को अथवा जो कुछ सुना जाता है उसे के जो निरर्थक उपदेश सिद्धि के योग्य नहीं हैं उन्हें श्रुति कहते हैं। श्रुताज्ञान कहा जाता है।
श्रेणि-१. लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् चाश्रुतातिचार-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावशुद्धिमंतरेण श्रु- काशप्रदेशानां क्रमसन्निविष्टानां पंक्तिः श्रेणिः । (स. तस्य पठनं श्रृतातिचारः । (भ. प्रा. विजयो. १६)। सि.२-२६)। २. प्राकाशप्रदेशपंक्तिः श्रेणिः । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धि के विना श्रुत लोकमध्यादारभ्योधिस्तिर्यकक्रमाकाशप्रदेशानां क्रके पढने से उसका अतिचार होता है, जो उसे मलिन मसहिविष्टानां पंक्ति श्रेणिः । (त. वा. २, २६, करने वाला है।
१)। ३. सेढी सत्तरज्जुमेत्तायामो। (धव. पु. ३, श्रुतावर्णवाद - १, मांसभक्षणाद्यभिधानं श्रुतावर्ण
पृ. ३३)। ४. अाकाशप्रदेशपंक्तिः श्रेणिः । (त. वादः। (स. सि. ६-१३) । २. मांसभक्षणाद्यनव
1. ६-१३) । २. मासभक्षणाद्यनवा इलो. २-२६)। ५.xxxसेढी वि पल्लच्छेदाणं । द्याभिधानं श्रुते । मांसस्य भक्षणं मधु-सुरापानं वेद- होदि असंखेज्जदिमप्पमाणविदंगुलाण हदी॥ (त्रि. नादितमैथुनोपसेवा-रात्रिभोजनमित्येवमाद्यनवद्यमि- सा.१-७)। ६. लोकस्य मध्यप्रदेशदारभ्य ऊर्ध्वात्यनुज्ञानं श्रुतेऽवर्णवादः। (त. वा. ६, १३, ६)। धस्तिर्यकव्योमप्रदेशानाम अनुक्रमेण संस्थितानामा३. पुरुषकृतत्वाद् दशदाडिमादिवाक्यवदयथार्थता, वलि: श्रेणिः। (त. वृत्ति श्रुत. २-२६)। नातीन्द्रियं वस्तु सो ज्ञानगोचरम्, अज्ञात चोपदि- लोक के मध्य से प्रारम्भ करके ऊपर, नीचे और शतो वः कथं सत्यम्, तदुद्गतं च ज्ञानं कथ समा- तिरळे रूप में क्रम से अवस्थित प्राकाशप्रदेशों की चीनमिति श्रुतावर्णवादः । (भ. प्रा. विजयो. ४७)।
पंक्ति को श्रेणि कहते हैं। ३ श्रेणि (जगश्रेणि) ४. इदमाहतं श्रुतं पुरुषकृतत्वाद दशदाडिमादिवाक्य
सात राजु प्रमाण प्रायत है। ५ पल्य के अर्द्धच्छेदों वदयथार्थम् । न ह्यङ्गाराजनादिवत्कालुष्योत्कर्षप्र
के असंख्यातवें भाग प्रमाण घनांगलों को परस्पर वत्तस्य चित्तस्य कुतश्चिद्विशुद्धिरिति, सर्वे पुरुषाः गणित करने पर जो प्राप्त हो उतना प्रमाण श्रेणि सर्वदा रागादिदोषदूषिता अतएवातीन्द्रियं वस्तु न
(जगणि ) का है। कश्चिज्जानाति, अज्ञातं चोपदिशतो न वचः सत्यम्,
श्रेणीचारण- १. धूमग्गि-गिरि-तरु-तंतुसंताणेसु तदुदगतं च ज्ञानं मिथ्यवेत्यादिः श्रतस्य अवर्णवादः। (भ. प्रा. मूला. ४७)।
उड्ढारोहणसत्तिसंजुत्ता सेडीचारणा णाम । (धव. २ मांस का खाना, शहद का उपयोग करना. मदा पु. ६, पृ. ८०)। २. चतुर्योजनशतोच्छितस्य निषका पीना, वेदना से पीड़ित होकर मैथुन का सेवन
धस्य नीलस्य चारोष्टङ्कच्छिन्नां श्रेणिमुपादायोपर्यकरना और रात्रिभोजन; ये सब कार्य निर्दोष धो वा पाद[प्रक्षेप]पूर्वकमुत्तरणावतरणनिपूणा: श्रेणिशास्त्रसम्मत हैं; ऐसा कथन करना, यह श्रुत का
चारणाः । (योगशा. स्वो. विव. १-६, पृ. ४१) । अवर्णवाद है । ३ श्रुत (पागम) शब्दात्मक है जो १ जो महर्षि धुप्रां, अग्नि, पर्वत, वृक्ष और तन्तु पुरुष के द्वारा किया गया है। जिस प्रकार वंचक (धागा) के समूहों पर ऊपर चढ़ने की शक्ति से संयुक्त पुरुष के द्वारा कहे जाने वाले 'वहां दस अनार हैं होते हैं वे श्रेणिचारण कहलाते हैं। २ चार सौ योजन इत्यादि वाक्य अयथार्थ होते हैं उसी प्रकार प्रती
ऊंचे निषध पर्वत की टांकी से छेदी गई श्रेणी को न्द्रिय वस्तुओं के ज्ञान से रहित पुरुष के द्वारा उप- लेकर जो साधु उसके ऊपर और नीचे पादक्षेपपूर्वक दिष्ट प्रागमवचन भी सत्य नहीं हैं, जिसे वस्तु- चढ़ उतर सकते हैं वे श्रेणिचारण ऋद्धि के धारक स्वरूप का स्वयं ज्ञान नहीं है उसके द्वारा प्ररूपित होते हैं । तत्त्व कैसे यथार्थ हो सकता है, इस प्रकार से श्रुत श्रेय-श्रेयः सकलदुःख निवृत्तिः। (त. श्लो. का. की की जाने वाली निन्दा को श्रुतावर्णवाद कहा २४६, पृ. ५०)। जाता है।
समस्त दुःखों की निवृत्ति का नाम श्रेय है।।
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श्रेयांस]
श्रेयांस - सकलभुवनस्यापि प्रशस्यतमत्वेन श्रेयान्, श्रेयांसावंसावस्येति 'पृषोदरादित्वात्' श्रेयांसो वा, तथा गर्भस्थेऽस्मिन् केनाप्यनाक्रान्तपूर्वा देवताधिष्ठितशय्या जनन्या आक्रान्तेति श्रेयो जातमिति श्रेयांसः । (योगशा. स्वो विव. ३ - ३२४) । समस्त लोक में अतिशय श्रेष्ठ होने के कारण ११ वें तीर्थंकर श्रेयान् कहलाए। श्रथवा दोनों कन्धों के श्रेयस्कर होने से वे यांस इस नाम से प्रसिद्ध हुए, श्रथवा गर्भ में स्थित होने पर देवता के द्वारा श्रधिष्ठित जो शय्या पूर्व में किसी के द्वारा नहीं लांघी गई थी उसे माता ने श्राक्रान्त किया व उससे कल्याण हुआ, इससे उन्हें श्र ेयांस कहा गया है। श्रेयोमार्ग नेता - ततो निःशेषतत्त्वार्थवेदी प्रक्षीणकल्मषः । श्रेयोमार्गस्य नेतास्ति स संस्तुत्य स्तदर्थभिः ॥ (त. इलो. का. ४३, पृ. १६) । जो समस्त तत्त्वार्थ का ज्ञाता व कलुषता से रहित ( वीतराग ) है वही मोक्षमार्ग का नेता हो सकता है और मोक्ष के इच्छुक भव्य जन उसी की स्तुति किया करते हैं।
श्रेष्ठी- श्रेष्ठी तुष्टनरपतिप्रदत्त - श्रीदेवताध्यासितवर्णपट्टविभूषितोत्तमांगो नगरचिन्ताकारी नागरिकजनश्रेष्ठः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-३३) । जिसका शिर सन्तुष्ट राजा के द्वारा दिए गए धोर श्रीदेवता से श्रधिष्ठित सुवर्णमय पट्ट से विभूषित होता है, जो नगर की चिन्ता करता है तथा जो नागरिक जनों में श्र ेष्ठ होता है उसे श्र ेष्ठी कहा जाता है ।
श्रोता - देखो शिष्य । धर्मश्रुतौ नियुक्ता ये श्रोतारस्ते मता बुधैः । (म. पु. १ - १३८ ) | जो धर्मकथा के सुनने में नियुक्त हैं वे श्रोता माने गये हैं ।
श्रोत्र - १. वीर्यान्तराय श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भाच्छृणोत्यनेनेति श्रोत्रम् | ( धव. पु. १, पृ. २४७ ) ; फासिंदियावरणस्स सव्व - घादिफद्दयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण चदुष्णमंदियाणं सव्वघादिफद्दयाणमुदय क्खएण तेसि चेव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण जेण सोदिदियमुपज्जदि तेण XXX। ( धव. पु. ७, पृ. ६५-६६ ) । २. श्रूयते श्रात्मना शब्दो गृह्यतेऽने ल. १३५
१०७३, जैन- लक्षणावली
[ श्रोत्रिय नेति श्रोत्रं शृणोतीति वा श्रोत्रम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-१६) ।
१ वीर्यान्तराय और श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के लाभ के श्राश्रय से जिसके द्वारा प्राणी सुनता है उसे श्रोत्र कहते हैं । यह स्पर्शनेन्द्रियावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के सदवस्था रूप उपशम से देशघाती स्पर्धकों के उदय से तथा शेष चार इन्द्रियों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से, उन्हों के सदवस्थारूप उपशम से एवं देशघाती स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होती है । श्रोत्रदण्ड - - देखो श्रोत्ररोध । श्रोत्ररोध -- १. सड्गादिजीवसद्दे वीणादिश्रजीवसंभवे सद्दे । रागादीण णिमित्तं तदकरणं सोदरोधो दु ।। ( मूला. १ - १८ ) । २. जीवाजीवोभयोद्भूते चेतोहारी तरस्वरे । राग-द्वेषाविलस्वान्तदण्डनं श्रोत्रदण्डनम् || ( श्राचा. सा. १ - २६ ) ।
१ षड्ग [ षड्ज ] व ऋषभ आदि स्वर स्वरूप जीव के शब्द और वीणा श्रादि श्रजीव स्वरूप वादित्र प्रादि के निमित्त से उत्पन्न होने वाले शब्द के श्राश्रय से जो उसके विषय में राग-द्वेष उत्पन्न हो सकते हैं। उनको उत्पन्न न होने देना, इसे श्रोत्र - इन्द्रिय रोध कहते हैं । २ जीव, प्रजीव, अथवा दोनों के निमित्त से उत्पन्न हुए मनोहर श्रथवा श्रमनोहर ( श्रवणकटु) स्वर के विषय में राग-द्वेष से मलिन मन को दण्डित करना - उसके सुनने पर राग-द्वेष को उत्पन्न न होने देना, इसे श्रोत्रदण्डन या श्रोत्रइन्द्रियरोध कहा जाता है। यह साधु के २८ मूलगुणों के अन्तर्गत है ।
श्रोत्रिय - १. सोत्तिश्रो भणिज्जइ णारीकडिसोत्तवज्जिश्रो जेण । जो तु रमणासत्तो ण सोत्तियो सो जडो होइ ॥ श्रहवा पसिद्धवयणं सोत्तं णारीण सेवए जेण । मुत्तपवहणदारं सोत्तियो तेण सो उत्तो ॥ ( भावसं. दे. ५५ - ५६ ) । २. दुष्कर्मदुर्जनास्पर्शी सर्व सत्त्वहिताशयः । स श्रोत्रियो भवेत् सत्यं न तु यो बाह्यशौचवान् ।। ( उपासका ८८०) ।
१ जो स्त्री के कटिस्रोत से दूर रहता है—उसका सेवन नहीं करता - वह वास्तव में श्रोत्रिय है, उसके साथ रमने में जो आसक्त है वह यथार्थ में श्रोत्रिय नहीं है । २ जो दुराचरण से दूर रहता है, बुष्ट
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श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रह]
जनों की संगति नहीं करता है तथा सब जीवों का हित चाहता है उसे श्रोत्रिय कहना चाहिए। बाहरी शौच से युक्त को श्रोत्रिय नहीं कहा जा सकता । श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रह सणिपंचिदियपज्जत्तएसु
१०७४, जैन - लक्षणावली क्ष्णिका होती है।
जवणालिय संठाणसंठिदसोदिदियप्रत्थोग्गहविसोबा - रहजोयणाणि १२ । असणिपंचिदियपज्जत्तए सु घणुसहस्साणि ८०००। एत्तियमद्वाणमंत रियट्ठि दसग्गहणं सोदिदियप्रत्थोग्गहो णाम । (धव. पु. १३, पृ. २२७) ।
यवनाली के प्रकार में स्थित श्रोत्र इन्द्रिय के श्राश्रय से होने वाला प्रर्थावग्रह संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में उत्कृष्ट बारह योजन प्रमाण तथा श्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में प्राठ हजार धनुष प्रमाण क्षेत्र को विषय करता है । इतने क्षेत्र के मध्य में स्थित शब्दों का जो ग्रहण होता है उसका नाम श्रोत्रइन्द्रियर्थावग्रह है । श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहावरणीय - एदस्स ( सोदिदियत्थोग्गहस्स) जमावारयं कम्मं तं सोदिदियप्रत्थोगावरणीयं । ( धव. पु. १३, पृ. २२७ ) जो कर्म श्रोत्र- इन्द्रिय- श्रर्थावग्रह को प्राच्छादित करता है उसे श्रोत्र - इन्द्रिय- श्रर्थावग्रहावरणीय कहते हैं ।
श्रोत्रेन्द्रिये हाज्ञान- सोदिदिएण गहिदसद्दो कि णिच्चो प्रणिच्चो दुस्सहाम्रो किमदुस्सहावो त्ति चदुष्णं विप्पाणं मज्भे एगवियप्पस्स लिंगगवेसणं सोदिदियगदहा । ( धव. पु. १३, पृ. २३१ ) । श्रोत्र इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण किया गया शब्द क्या नित्य है, क्या अनित्य है, क्या द्विस्वभाव (नित्य व प्रनित्य - उभय) है, अथवा अद्विस्वभाव ( न नित्य न प्रनित्य ) है इन चार विकल्पों में से किसी एक विकल्प के हेतु के अन्वेषण करने वाले ज्ञान को श्रोत्र- इन्द्रिय-ईहाज्ञान कहा जाता है । श्रोत्रेन्द्रिये हाज्ञानावरणीय - तिस्से आवारयं कम्मं सोदियावरणीयं । ( धव. पु. १३, पृ. २३१) । जो कर्म श्रोत्र- इन्द्रिय-ईहाज्ञान को प्राच्छादित करता है उसे श्रोत्रेन्द्रियेाज्ञानावरणीय कहते हैं । श्लक्ष्ण- श्लक्ष्णिका ( सण्ह -सहिया ) - श्रट्टउस्सह- सहिाम्रो साएगा सह- सहिया । ( जम्बूही. १६, पृ. ९२) ।
झाठ उच्छ्लक्ष्ण- इलक्ष्णिकाओं की एक श्लक्ष्ण- इल
[ श्वेतसिद्धार्थ
श्लेषार्द्र - तथा श्लेषाद्रं वज्रलेपाद्युपलिप्तं स्तम्भकुड्यादिकं यद् द्रव्यं तत् स्निग्धाकारतया श्लेषार्द्रमित्यभिधीयते । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. २, ६, १८५, पृ. १३६) ।
स्तम्भ व भित्ति आदि जो द्रव्य वज्रलेप श्रादि से लिप्त होते हैं उन्हें स्निग्ध प्राकार होने से इलेषार्द्र कहा जाता है !
श्वभ्रपूरण - १. येन केनचित्प्रकारेण स्व [श्व ] भ्र पूरणवदुदरगर्त्तमनगारः पूरयति स्वादुनेतरेण आहारेण वेति स्वभ्रपूरणमिति च निरुच्यते । (त. वा. ६, ६, १६; त. इलो. ६-६; चा. सा. पृ. ३६ ) । २. श्वस्य गर्त्तस्य येन केनचित्कचारेणेव स्वादुनेत - रेण वाहारेणोदरगर्तस्य पूरणात् श्वभ्रपूरणमित्याख्यायते । ( श्रन. ध. स्व. टी. ६-४९ ) ।
१ जिस प्रकार जिस किसी भी प्रकार से गडढे को भरा जाता है उसी प्रकार से साधु अपने पेट रूप गड्ढे को कचरे के समान स्वादिष्ट प्रथवा स्वादहीन भोजन से भरा करता है, इसीलिए उसे श्वभ्रजैसे सार्थक नाम से कहा जाता है। पूरण श्वास --- बाह्यस्य वायोराचमनं श्वास: । (योगशा स्वो विव. ५-४ ) ।
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बाहिरी वायु के श्राचमन को - नाक या मुंह के द्वारा उदर में पहुंचाने को — श्वास कहा जाता है। श्वेतवर्णनामकर्म- • तत्र यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु श्वेतवर्णप्रादुर्भावो यथा विशकण्ठिकानां ततः श्वेतवर्णनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३) । जिसके उदय से प्राणियों के शरीर में श्वेत वर्ण उत्पन्न होता है, जैसे विशकण्ठिकों के, उसे श्वेतवर्णनामकर्म कहते हैं ।
श्वेतसर्षप - चत्वारि महिधिकतृणफलानि श्वेतसर्षप एकः । (त. वा. ३, ३८, ३) । चार महिधिका तृणफलों का एक श्वेतसर्षप होता है ।
श्वेत सिद्धार्थ - १. XXX टूहि चिहुर गर्हि, सियसिद्धत्थु कहिउ णिहुयक्खहि । (म. पु. पुष्प. २, ७, पृ. २४) । २. भ्रष्टभिलक्षाभिः पिण्डिताभिरेकः श्वेतसिद्धार्थः । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३८ ) । १ माठ चिकुरानों (बालानों) का एक श्वेतसिद्धार्थ
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षट्खण्डाधिपति] १०७५, जैन-लक्षणावली
सिकलदत्ति होता है। २ समुदित पाठ लीखों का एक श्वेत- जननेन्द्रिय, मृदु भाषण, शब्द व फेन के साथ मूत्र; सिद्धार्थ होता है।
ये छह लक्षण नपुंसक के हैं। षटखण्डाधिपति-देखो चक्रवर्ती। १.'छक्खंड- षष्ठभक्त-षष्ठमिह षष्ठयां भोजनवेलायां पारणा। भरहणाहो बत्तीससहस्समउडबद्धपहुदोयो। होदि हु (प्राय. स. टी. १-१०)। सयलं चक्की xxx। (ति. प. १-४८)। छठी भोजनबेला में पारणा करने को षष्ठभक्त २. षटखण्डभरतनाथं द्वात्रिंशद्धरणिपतिसहस्राणाम् । कहा जाता है। दिव्यमनुष्यं विदुरिह भोगागारं सुचक्रधरम् ॥ (धव. षष्ठी प्रतिमा-(पूर्वप्रतिमानुष्ठानसहितः) षण्मापु. १, पृ. ५८ उद्.)। ३. द्वात्रिंशत्सहस्रराजस्वामी सान् ब्रह्मचारी भवतीति षष्ठी। (योगशा. स्वो. षट्खण्डाधिपतिः । (त्रि. सा. वृ. ६८५)। विव. ३-१४८)। १ जो छह खण्डभत भरतक्षेत्र का स्वामी होकर पूर्व पांच प्रतिमाओं के अनुष्ठान का पालन करने बत्तीस हजार मुकुटबद्ध आदि राजाओं को अपने वाला जो छह माह ब्रह्मचारी रहता है, इसे षष्ठी प्राधीन रखता है वह सकलचको माना जाता है। (छठी) प्रतिमा कहा जाता है। इसी को सकलचक्राधिपति या षटखण्डाधिपति भी सकल -अखण्डत्वात् सकलम् । xxx अथवा कहा जाता है।
कलास्तावदवयवा द्रव्य-गुण-पर्ययभेदागमान्यथानुपषट्स्थानवृद्धि --- अणंतभागवड्ढी असंखेज्ज भाग- पत्तितोऽवगतसत्त्वाः, सह कलाभिर्वर्तत इति सकलम् वडढी संखेज्जभागवडढी संखेज्जगुणवढी असंखेज्ज- xxx केवलज्ञानम । (धव. पू १३, पृ. ३४५)। गुणवड्ढी अणंतगुणवड्ढि त्ति छट्ठाणवड्ढी । (धव. केवलज्ञान प्रखण्ड होने से सकल है । द्रव्य, गुण और पु. ६, पृ. २२)।
पर्याय भेदों के ज्ञापक अवयवों का नाम कला है, अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात गिवृद्धि, संख्यातभाग- इन कलापों के साथ रहने वाले ज्ञान को सकल वृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अन- कहा जाता है। समस्त द्रव्य-गुणादि को विषय करने न्तगुणवृद्धि ये छह स्थानपतित वृद्धि के रूप हैं। वाला ऐसा वह ज्ञान केवललान ही सम्भव है। षट्स्थानहानि-अणंतभागहाणी असंखेज्जभाग- सकलचारित्र-xxx तत् (चरणम्) सकलं हाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्ज- सर्वसंगविरतानाम् । अनगाराणां xxx ॥ गुणहाणी अणंतगुणहाणि त्ति छट्ठाणहाणी। (धव. (रत्नक. ५०)। पु. १६, पृ. ४६३)।
___ समस्त परिग्रह का जो परित्याग कर चुके हैं ऐसे अनन्तभागहानि, प्रसंख्यातभागहानि, संख्यातभाग- गृह के त्यागी मुनियों के चारित्र को सकलचारित्र हानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और कहा जाता है। अनन्तगुणहानि ये छह स्थानपतित हानि के रूप सकलजिन-खवियघाइकम्मा सयलजिणा। के .
ते ? अरहंत-सिद्धा। (धव. पु. ६, पृ. १०)। षड़जीवकायसंयम-षण्णां जीवनिकायानां पृथि- घातिया कर्मों का क्षय कर देने वाले सयोग केवव्यादिलक्षणानां संयमः संघट्टनादिपरित्यागः षड्जीव- लियों को सकलजिन कहा जाता है। कायसंयमः । (प्राव. भा. हरि. व. १६३, पृ. सकलदत्ति--देखो अन्वयदत्ति । १. प्रात्मान्वय४६२)।
प्रतिष्ठार्थ सूनवे यदशेषतः। समं समय-वित्ताभ्यां पृथिवी आदि पांच स्थावर और त्रस इन छह जीव- स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥ सैषा सकलदत्तिः स्यात् x निकायों के संयम को-उनके संघटन आदि के xx। (म. पु. ३८, ४०-४१)। २. सकलदत्तिपरित्याग को-षड्जीवकायसंयम कहा जाता है। रात्मीयस्वसन्ततिस्थापनार्थ पुत्राय गोत्रजाय वा धर्म षण्ड-नारीस्वभाव-स्वर-वर्णभेदो मेढ़ो गरीयान् धनं च समर्प्य प्रदानम्, अन्वयदत्तिश्च सैव। (चा. मृदुला च वाणी । मूत्रं सशब्दं च सफेनकं च एतानि सा. पृ. २१; कातिके. टी. ३६१)। ३. समर्थाय षट् षण्ढकलक्षणानि ।। (प्राचारदि. पृ. ७४) । स्वपुत्राय तदभावेऽन्यजाय वा। यदेतद् दीयते वस्तु स्त्री-स्वभाव के समान स्वरभेद व वर्णभेद, गहतर- स्वीयं तत्सकलं मतम् ।। (धर्मसं. श्रा. ९-१९७) ।
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सकलदेशच्छेद ]
१०७६,
१ अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए जो पुत्र को धर्म और धन के साथ समस्त परिवार को समर्पित किया जाता है, इसका नाम सकलदत्ति है। सकल देशच्छेद (निर्विकल्पक समाधिरूपसामायिकस्य ) सर्वथा च्युतिः सकलदेशच्छेदः । ( प्रव. सा. जय. वृ. ३ - १० ) ।
सकलसंयम कहते हैं । सकलादेश- -- १. यदा यौगपद्यं तदा सकलादेशः, स एव प्रमाणमित्युच्यते, सकलादेश: प्रमाणाधीन इति वचनात् । ××× एकगुणमुखेना शेषवस्तुरूपसंग्रहात् सकलादेशः । यदा प्रभिन्नमेकं वस्तु एकगुणरूपेण उच्यते गुणिनां गुणरूपमन्तरेण विशेषप्रति
निर्विकल्पक समाधिरूप सामायिक से पूर्णतया च्युत पत्तेरसंभवान् । एको हि जीवोऽस्तित्वादिष्वेकस्य होने को सकलच्छेद कहा जाता है । सकल परमात्मा --- १. सयलो प्ररुहसरूवो XX X ॥ ( ज्ञा. सा. ३२ ) । २. सकलो भण्यते सद्भिः केवली जिनसत्तमः ॥ ( भावसं वान. ३५३) । १ चार घातिया कर्मों से रहित अरहन्त को सकलपरमात्मा कहा जाता है ।
सकलप्रत्यक्ष - १. सकलप्रत्यक्षं केवलज्ञानम्, विषयीकृतत्रिका लगोचराशेषार्थत्वात् अतीन्द्रियत्वात् क्रमवृत्तित्वात् निर्व्यवधानात् आत्मार्थसन्निधानमात्र प्रवर्तनात् । उक्तं च- क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थयुगपद्विभासम् । निरतिशयमन्त्यमच्युतमव्यवधानं जिनज्ञानम् ॥ ( धव. पु. ६, पृ. १४२) । २. केवलं सयलपच्चक्खं पच्चक्खीकयतिकाल विसयासेसदव्व पज्जयभावादो। ( जयध. १, पृ. २४ ) । ३. सकलप्रत्यक्षस्य सर्वद्रव्य पर्यायसाक्षात्करणं स्वरूपम् । (प्रष्टस. १५ ) । ४ सयलो केवलंणाणं XXX 1 ( जं. दी. प. १३ - ४८ ) । ५. सर्वद्रव्य - पर्यायविषयं सकलम् । तच्च घातिसंघातनिरवशेषघातनात् समुन्मीलितं केवलज्ञानमेव । ( न्यायदी. पृ. २) । ६. X X X तत्सकलप्रत्यक्षमक्षयं ज्ञानम् । ( पंचाध्या. १- ६७ )।
गुणस्य रूपेणाभेदवृत्त्या प्रभेदोपचारेण वा निरंशः समस्त वक्तुमिष्यते, विभागनिमित्तस्य प्रतियोगिनो गुणान्तरस्य तत्रानाश्रयणात्, तदा सकलादेशः । (त. वा. ४, ४२, १३-१४) । २. सकला देश: प्रमाणाधीनः x x x 1 ( धव. पु. ६, पृ. १६५ उद्) । ३. स्यादस्ति स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यः, स्यादस्ति च नास्ति च स्यादस्ति चावक्तव्यश्च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति सप्तापि सकलादेशः । X X X सकलमादिशति कथयतीति सकलादेशः । X X X सकलादेशः प्रमाणाधीनः प्रमाणायत्तः प्रमाणव्यपाश्रयः प्रमाणजनित इति यावत् । ( जयघ. १, पृ. २०१-२०३ ) । ४. XX X स्याच्छब्दसंसूचिताभ्यन्तरीभूतानन्तधर्मकस्य साक्षादुपन्यस्तजीवशब्द- क्रियाभ्यां प्रधानीकृतात्मभावस्यावधारणव्यवच्छिन्नतदसम्भवस्य वस्तुनः सन्दर्शकत्वात् सकलादेश इत्युच्यते, प्रमाणप्रतिपन्न सम्पूर्णाार्थकथनमिति यावत् । (श्राव. नि. मलय. वृ. ७५४, पृ. ३७१ ) । ५. सकलादेशः सकलस्यानेकधर्मणो वस्तुन प्रादेश: कथनम् | ( लघीय. अभय वृ. ६२, पृ. ८४ ) । १ एक गुण की प्रमुखता से जो समस्त वस्तु को विषय करता है उसे सकलादेश कहते हैं । जैसेएक ही जीव को जब अस्तित्व प्रादि श्रनेक गुणों में एक गुण के प्रभेदोपचार से प्रखण्ड ग्रहण किया जाता है तब उसे सकलादेश समझना चाहिए। उस समय प्रतिपक्षी गुण का श्राश्रय नहीं लिया जाता है । सकाम निर्जरा - देखो प्रविपाक निर्जरा । सकामा पुनरुपक्रमापक्व कर्मनिर्जरणलक्षणा । ( प्रन. ध. स्वो. टी. २-४३)।
१ तीनों काल सम्बन्धी समस्त पदार्थों को विषय करने वाला जो केवलज्ञान श्रतीन्द्रिय, युगपद्वृत्ति, व्यवधान से रहित और ग्रात्मा मात्र की अपेक्षा रखने वाला है - इन्द्रिय व प्रकाश आदि की अपेक्षा नहीं करता है - उसे सकलप्रत्यक्ष कहा जाता है। सकलसंयम--- संज्वलनकषाय- नोकषायाणां सर्वघातिस्पर्ध कोदयाभावलक्षणे क्षये, तेषामेव सद्वस्थालक्षणे उपशमे च सति सकलसंयमः । (गो. जी. म. प्र. ३२) ।
संज्वलन श्रौर नोकषायों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावरूप क्षय तथा उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम के होने पर जो पूर्ण संयम होता है उसे
उदय में अप्राप्त कर्मों को जो उपक्रम - बुद्धिपूर्वक श्रात्मपरिणाम के द्वारा उदयावली में प्राप्त कराकर निजीर्ण किया जाता है, इसे सकाम अथवा श्रपक्रमकी निर्जरा कहा जाता है ।
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जैन - लक्षणावलो
| सकाम निर्जर
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सक्ता ]
१०७७, जैन-लक्षणावली
[सचित्तगुणयोग
सक्ता --१. सजणसंबंध-मित्तवग्गादिसु संजदि त्ति भा. सिद्ध. व. ५-२४, प. ३६०)। सत्ता । (धव. पु. १, प. १२०); स्वजन-संबन्धि- करोंत और लकड़ी प्रादि के घर्षण से जो शब्द मित्रवर्गादिषु सजतीति सक्ता। (धव. पु. ६, प. उत्पन्न होता है उसे सङ्घर्ष शब्द कहा जाता है। २२१) । २. परिग्गहेसू सजदि त्ति सत्ता। (अंगप. सचित्त--१. प्रात्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम, ८६-८७, पृ. २६५)।
सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः। (स. सि. २-३२); १ जो अपने कुटुम्बी जन, सम्बन्धी और मित्रों के सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तं चेतनावद द्रव्यम् । समह आदि में प्रासक्त रहता है उसे सक्ता कहा (स. सि.७-३५) । २. प्रात्मनः परिणामविशेषजाता है। यह जीव का पर्याय नाम है।
श्चित्तम । प्रात्मनश्चैतन्यस्य परिणामविशेषश्चित्तम, सक्रम-१. सो संकमो त्ति वच्चइ जब्बंधनपरि- तेन सह वर्तन्त इति सचित्ताः। (त. वा. २, ३२, णमो पोगेणं । पगयंतरत्थदलियं परिण मइ तयण- १); सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः। चित्तं विभावे जं ।। (कर्मप्र. सं. क. १)। २. यां प्रकृति ज्ञानम, तेन सह वर्तत इति सचित्तः चेतनावद् द्रव्यबध्नाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थ दलिक मित्यर्थः । (त. वा. ७, ३५, १)। ३. सह चित्तेन वीर्यविशेषेण यत्परिणमयति स: संक्रमः । (स्थानां. बोधेन वर्तते हि सचित्तकम् । (धर्मसं. श्रा. ८-१४)। अभय. वृ. २६६)। ३. एतदुक्तं भवति..-बध्यमा- ४. जीवस्य चेतनाप्रकार: परिणामश्चित्तम्, चित्तेन नासू प्रकृतिषु मध्येऽबध्यमानप्रकृतिदलिकं प्रक्षिप्य सह वर्तते सचित्तः । (: वृत्ति श्रुत. २-३२) । बध्यमानप्रकृतिरूपतया यत्तस्य परिणमनम, यच्च वा १ प्रात्मा के चैतन्य परिणामविशेष का नाम चित्त बध्यमानानां प्रकृतीनां दलिकरूपस्येतरेतररूपतया है, जो चित्त के साथ रहता है उसे सचित्त कहते हैं। परिणमनं तत सर्व संक्रमण मित्युच्यते । (कर्मप्र. सचित्तकाल-तत्थ सच्चितो जहा दंसकालो, मलय. वृ. सं. क. १)।
मसयकालो इच्चेवमादी दंस-मसयाणं चेव उवयारेण १ जिस कर्मप्रकृति के बांधने रूप से परिणत जीव कालत्तविहाणादो। (घव. पु. ११, पृ.७६) । संक्लेश अथवा विशुद्धिरूप प्रात्मपरिणाम के द्वारा दंशकाल व मशककाल इत्यादि को सचित्तकाल कहा अबध्यमान प्रकृति के द्रव्य को बध्यमान प्रकृति के जाता है। यहां निमित्तवश उपचार से दंश-मशक रूप से परिणमाता है उसे, तथा बध्यमान प्रकृतियों के को ही कालपने का विधान किया गया है। दलिक का जो परस्पर के रूप में परिणमन होता सचित्तक्षेपण-सचित्ते सजीवे पृथ्वी-जल-कुम्भोपहै उसे, संक्रमण कहा जाता है।
चुल्लीधान्यादौ क्षेपणं निक्षेपो देयस्य वस्तुनः, तच्च सङ्घ-१. सङ्घश्चतुर्विधः श्रमणादिः । (त. भा. अदानबुद्धया निक्षिपति, एतज्जानात्यसो तुच्छबुद्धिः सिद्ध. वृ. ६-२४) । २. गुणसमुदायो संघो पवयण यत् सचित्तनिक्षिप्तं न गृह्णते साधव इत्यतो देयं तित्थंति होंति एगदा । (पंचाश. ३८३)। ३. सङ्गः चोपस्थाप्यते, न चाददते साधव इति लाभोऽयं ममेति समूहः सम्यक्त्व-ज्ञान-चरणानां तदाधारश्च साध्वा- प्रथमोऽतिचारः। (योगशा. स्वो. विव. ३-११६) । दिश्चतुर्विधः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२३); सङ्ग- साधु सचित्त पथिवी प्रादि पर रखे भोज्य पदार्थ श्चतुर्विधः साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकाः । (त. भा. को नहीं लेते हैं, यह जानते हुए यदि न देने की सिद्ध. व. १-२४) । ४. संघो गणसमदायः। इच्छा से किसी भोज्य वस्तु को सचित्त पृथ्वी प्रादि (प्रोपपा. व. २०, पृ. ४३) । ५. सङ्घः साधु- के ऊपर रखा जाता है तो यह अतिथिसंविभागसाध्वी-श्रावक-श्राविकासमुदायः । (योगशा. स्वो. ब्रत को दूषित करने वाला उसका एक अतिचार विव. ४-६०)।
होता है। १ चार प्रकार के श्रमण प्रादि-साधु, साध्वी, सचित्तगुणयोग --सचित्तगुणजोगो पंचविहो-प्रोदश्रावक और श्राविका–को संघ कहा जाता है। इग्रो प्रोवसमियो खइनो ख प्रोवसमियो पारिणामि२ सम्यक्त्व प्रादि गणों के समदाय को संघ कहते पो चेदि (प्रोदइय-प्रोवसमिय-खइयादिजीवभावेहि हैं । ४ गणों के समुदाय को संघ कहा जाता है। सह जीवस्स जो जोगो सो सचित्तगुणजोगो) । सङ्घर्ष -क्रकच-काष्ठादिसङ्घर्षप्रसूतः सङ्घर्षः । (त. (धव. पु. १०, पृ. ४३३) ।
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सचित्तचतुष्पदद्रव्योपक्रम] १०७८, जैन-लक्षणावली
[सचित्तयोनि प्रौदयिक, प्रौपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और तेन सह वर्तते सचित्तम्, सचित्ते कदलीदलोलूकपर्णपारिणामिक इन भावों से जो जीव का सम्बन्ध पद्मपत्रादौ निक्षेपः सचित्तनिक्षेपः। (त. वृत्ति श्रुत. होता है वह सचित्तगुणयोग कहलाता है। ७-३६)। ७. सचित्ते पद्मपत्रादौ निक्षेपोऽन्नादिसचित्तचतुष्पदद्रव्योपक्रम- सचित्तचतुष्पदद्रव्यो- वस्तुनः । दोषः सचित्तनिक्षेपो भवेदन्वर्थसंज्ञकः ।। पक्रमो यथा हस्त्यादेः शिक्षाद्यापादनम् । (व्यव. भा. (लाटीसं. ६-२२७) । मलय. व. पृ. १)।
१ सचित्त कमलपत्र प्रादि के ऊपर देने योग्य भोज्य चार पांव वाले हाथी प्रादि के लिए शिक्षा प्रादि वस्तु के रखने पर सचित्तनिक्षेप नाम का अतिथि. देने को सचित्तचतुष्पदद्रव्योपक्रम कहते हैं। संविभागवत का अतिचार होता है। ३ नहीं देने सचित्तद्रव्यपूजा-प्रत्यक्षमहदादीनां सचित्तार्चा के विचार से सचित्त ब्रीहि प्रादि में अन्न आदि के जलादिभिः । (धर्मसं. श्रा. ६-६२)।
रखने को सचित्तनिक्षेपण कहा जाता है। प्रत्यक्ष में जल प्रादि के द्वारा जो प्ररहन्त आदि की सचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक - सचित्तनोकम्मदव्वपूजा की जाती है, इसे सचित्तद्रव्य-अर्चा या सचित्त- बंधया जहा हत्थीणं बंधया अस्साणं बंधया इच्चेवद्रव्यपूजा कहते हैं।
मादि । (धव. पु. ७, पृ. ४)। सचित्तद्रव्यभाव-केवलणाण-दसणादिग्रो सचित्त- हाथी और घोड़े आदि के बांधने वालों को सचित्तदवभावो। (धव. पु. १२, प. २)।
नोकर्मद्रव्यबन्धक कहा जाता है । केवलज्ञान-दर्शन प्रादि को सचित्तद्रव्यभाव कहते हैं। सचित्तनोकर्मप्रक्रम-अस्साणं हत्थीणं पक्कमो सचित्तद्रव्यवेदना-सचित्तदव्ववेयणा सिद्धजीव- सचित्तपक्कमो णाम । (घव. पु. १५, पृ. १५)। दव्वं । (धव. पु. १०, पृ. ७)।
घोड़ों और हाथियों के प्रक्रम को सचित्तनोकर्मप्रसिद्ध जीव द्रव्य को सचित्तद्रव्यवेदना कहा जाता है। क्रम कहते हैं। सचित्तद्रव्यस्पर्शन-सचित्ताणं दवाणं जो संजो- सचित्तपरिग्रह-सह चित्तेन सचित्तं द्विपद-चतुपो सो सचित्तदवफोसणं । (धव. पु. ४, प. पदादि, तदेव परिग्रहः । (प्राव. हरि. व. अ. ६, १४३)।
पृ. ८२५)। सचित्त द्रव्यों का जो संयोग है उसे सचित्तद्रव्यस्प- दो पांव वाले मनुष्य प्रादि को तथा चार पांवों शन कहते हैं।
वाले हाथी-घोड़े प्रादि को सचित्त (चेतन) परिग्रह सचित्तद्विपदद्रव्योपक्रम-सचित्तद्विपदद्रव्योपक्रमो माना गया है। यथा पुरुषस्य वर्णादिकरणं । (व्यव. भा. मलय. वृ. सचित्तपिधान-देखो सचित्तापिधान । १. सचिपृ. १)।
त्तपिधान सचित्तेन फलादिना पिघानं स्थगमनम् । दो पाँव वाले पुरुष के वर्ण आदि के करने को (श्रा. प्र. टी. ३२७)। २. तथा तेन सचित्तेन सूरणसचित्तद्विपदद्रव्योपक्रम कहा जाता है।
कन्द-पत्र-पुष्प-फलादिना तथाविधयव बद्धया पिधत्ते सचित्तनिक्षेपण -देखो सचित्तक्षेपण। १. सचित्ते इति द्वितीय:। (योगशा. स्वो. विव. ३-११६)। पद्मपत्रादी निक्षेपः सचित्तनिक्षेपः । (स. सि. ७, १ देय वस्तु को न देने के विचार से सचित्त फल ३६) । २. सचित्ते निक्षेपः सचित्तनिक्षेपः। x प्रादि से आच्छादित करके रखना, यह अतिथि. xx सचित्ते पद्मपत्रादौ निधानं निक्षेपः इत्युच्यते। संविभागवत को मलिन करने वाला उसका एक (त. वा. ७, ३६, १) । ३. सचित्तनिक्षेपणं सचित्तेषु अतिचार है। ब्रीह्यादिषु निक्षेपणमन्नादेरदेयबुद्धया मातृ स्थानतः। सचित्तमंगल-सचित्तमर्हदादीनामनाद्यनिधनजीव(श्रा. प्र. टी. ३२७) । ४. सचित्ते पद्मपत्रादौ द्रव्यम् । (धव. पु. १, प. २८)। निधानं सचित्तनिक्षेपः । (चा. सा. पृ. १४)। ५. अरहन्त आदि के अनादि-अनन्त जीव द्रव्य को सचित्तनिक्षेप:-सचित्ते सजीवे पृथिवी-जल-कुम्भोप- सचित्त लोकोत्तर द्रव्यमंगल कहा जाता है। (चुल्लि) भुबल्लिधान्यादौ निक्षेपो देयस्य वस्तुनः सचित्तयोनि-देखो सचित्त । प्रात्मनश्चैतन्यवि. स्थापनम् । (सा. घ. स्वो. टी. ५-५४)। ६. चि. शेषपरिणामश्चित्तम, सह चित्तेन वर्तत इति सचि
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सचित्तविरत ]
१०७६, जैन- लक्षणावली
[सचित्तसंयुक्तद्रव्यसंयोग
तम् । (भूला वृ. १२ - ५८ ) ।
तथा सचित्तेन सम्बद्धं कर्कटिक बीज- कौलिकाकुलस्याश्रात्मा के चैतन्यविशेषरूप परिणाम का नाम चित्त पक्वबदरोदुम्बराम्रफलादि भक्षयतः सचित्तसम्बद्धाहै। जो योनिप्रदेश उस चित्त से युक्त होते हैं उन्हें हारत्वम् । ( त. भा. सिद्ध. बृ. ७-३०) । सचित्तयोनि कहते हैं । सचित्त से सम्बन्ध को प्राप्त ककड़ी के बीज, कच्चे बेर, ऊमर और ग्राम फल आदि के खाने पर सचित्त. सम्बद्ध प्राहार नाम का उपभोग- परिभोगपरिमाणव्रत का एक प्रतीचार होता है । सचित्तसम्बन्ध - देखो सचित्तसम्बद्धाहारत्व | १. तदुपश्लिष्ट : ( चेतनाबद्द्रव्योप श्लिष्टः ) सम्ब
न
( ग्राहारः ) | ( स. सि. ७-३५ ) । २. तदुपमिलन: सम्बन्ध:, तेन चित्तवता द्रव्येणोपश्लिष्टः सम्बन्धः इत्याख्यायते । (त. वा. ७, ३५, २) । ३. सचित्तवतोप श्लिष्टः सचित्तसम्बद्धाहारः । (चा. सा. पृ. १३) । ४. तेन सचित्तेन उपसंसृष्ट उपश्लिष्टः शक्यभेदकरणः संसर्गमात्रसहितः स्वयं शुद्धोऽपि सचित्तसंघट्टमात्रेण दूषित प्रहारः । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - ३५ ) । ५ तथाविधोऽपि यः कश्चिच्चेतनाधिष्ठितं च यत् । वस्तुसंख्यामकुर्वाणो भवेत् सम्बन्धदूषणम् । लाटीसं. ६ - २१६ ) ।
सचित्तविरत - १. मूल-फल- शाक शाखा करीरकन्द - प्रसून बीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥ ( रत्नक. ५-२० ) । २. सच्चि तं पत्त - फलं छल्ली मूलं च किसलयं बीजं । जो ण य भक्खदि णाणी सचित्तविरदो हवे सो दु । ( कार्ति के. ३७९ ) । ३. पंचमु जसु कच्चासणहं हरियहं णाहि प्रवित्ति | ( सावध १४ ) । ४. सचित्तव्रतो दयामूर्तिर्मूल फल - शाखा करीर कंद पुष्प-बीजादीनि भक्षयत्यस्योपभोग- परिभोगपरिमाणशीलव्रता तिचारो व्रतम् । (चा. सा. पृ. १९ ) । ५. न भक्षयति योsपक्वं कन्द-मूल-फलादिकम् । संयमासक्तचेतस्कः सचित्तात् स पराङ्मुखः । ( सुभा. सं. ८३७) । ६. दयार्द्रचित्तो जिनवावयवेदी, न वल्भते किञ्चन यः सचित्तम् | अनन्यसाधारणधर्मपोषी, सचित्तमोची सकषायमोची ।। ( श्रमित. श्रा ७-७१ ) । ७. सर्वजीव करुणापरचित्तो यो न खादति सचित्तमशेषम् । प्रासुकाशनपरं यतिनाथास्तं सचित्तविरतं निगदन्ति ॥ ( धर्मप. २०- ५७ ) । ८. जं वज्जिज्जइ हरियं तुय- पत्त- पवाल कंद फल-बीयं । श्रप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिव्वित्ति तं ठाणं ॥ ( वसु. श्रा. २६५) । ६. हरीताङ्कुरबीजाम्बुलवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जागृत्कृपश्चतुनिष्ठः सचित्तविरतः स्मृतः ॥ ( सा. ध. ७-८ ) । १०. फल- मूलाम्बु- पत्राद्यं नाश्नात्यप्राकं सदा । सचित्तविरतो गेही दयामूर्तिर्भवत्यसी । ( भावसं वाम. ५३७ ) । ११. प्राक्चतु:प्रतिमा सिद्धो यावज्जीवं त्यजेत् त्रिधा । सचित्तभोजनं स स्याद् दयावान् पञ्चमो गृही ॥ सह चित्तेन बोधेन वर्तते हि सचित्तकम् । यन्मलत्वेन प्राग्युक्तं तदिदानीं व्रतात्मतः ॥ शाक- बीज फलाम्बूनि लवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रद्दयोऽङ्गिपञ्चत्वभीतः संयमवान् भवेत् || ( धर्मसं. श्री. ८, १३-१५) । १ जो दयालु श्रावक कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा (( कोंपल), करील, कन्द, फूल और बीज इनको नहीं खाता है उसे सचित्त विरत - छठी प्रतिमा का धारक माना गया है । सचित्तसम्बद्धाहारत्व - देखो सचित्तसम्बन्ध |
१ चेतन द्रव्य से संश्लिष्ट प्रहार को सचितसम्बन्ध श्राहार कहा जाता हैं । यह भोगोपभोगपरिसंख्यानव्रत का एक अतिचार है । सचित्तसम्मिश्राहार-- १. तद्व्यतिकीर्णः (सचित्तव्यतिकीर्णः श्राहारः ) सम्मिश्रः । ( स. सि. ७, ३५ ) । २. तद्व्यतिकीर्णः सम्मिश्रः । तेन सचित्तेन द्रव्येण व्यतिकीर्णः सम्मिश्र इति कथ्यते । (त. वा. ७, ३५, ३) । ३. सचित्तेन व्यतिकीर्णः सचित्तसन्म- [[म्म ] श्राहारः (चा. सा. पृ. १३) । ४. सचित्तव्यतिकीर्णः संमिलितः सचित्तद्रव्यसूक्ष्मप्राण्यतिमिश्रः श्रशक्यभेदकरण श्राहारः सन्मि [म्मि ] श्राहार: । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - ३५ ) । ५. मिश्रितं च सचित्तेन वस्तुजातं च वस्तुना । स्वीकुर्वाणोऽप्यतीचारं सम्मिश्राख्यं च न त्यजेत् ॥ ( लाटीसं. ६, २१७)।
१ चेतन द्रव्य से मिश्रित श्राहार को सचित्तसम्मिश्र - श्राहार कहा जाता है । यह भोगोपभोगपरिसंख्यानव्रत का एक अतिचार है ।
सचित्तसंयुक्तद्रव्यसंयोग - तत्थ वि सचित्त संजुत्तदव्वसंजोगो णाम जहा रुक्खो पुव्वं मूलेहिं पुढवि संबद्धेहिं उत्तरकालं कंदेण सह युज्जते, एवं जावत्ति
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सचित्तदत्तादान]
१०८०, जैन-लक्षणावली
[सज्जाति
ताव नेयं । (उत्तरा. चू. पृ. १६)।
प्राच्छादित करना, इसे सचित्तापिधान कहते हैं। वृक्ष जो पूर्व में पृथ्वी से सम्बद्ध जड़ों से और तत्- यह अतिथिसंविभागवत का एक अतिचार है। पश्चात् उत्तरकाल में स्कन्ध से संयुक्त होता है, इस सचित्ताहार-१. चित्तं चेतनः संज्ञानमुपयोगोऽवप्रकार के संयोग को सचित्तसंयक्तद्रव्यसंयोग जानना
धान मिति पर्यायाः, सचित्तश्चासावाहारश्च सचित्ताचाहिए।
हारः, मूल-कन्दली-कन्दाकादिसाधारणवनस्पतिसचित्तादत्तादान-१. सह चित्तेन सचित्तं द्विपदादि
प्रत्येकशरीराणि सचित्तानि, तदभ्यवहारः, पृथिव्या. लक्षणं वस्तु, तस्य क्षेत्रादौ सुन्यस्त-दुन्य॑स्त-विस्मृतस्य
दिकायिकानां वा सचित्तानाम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. स्वामिनाऽदत्तस्य चौर्यबद्धयादानं सचित्तादानम्, ७-३०) । २. सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः । आदानमिति ग्रहणम् । (प्राव. हरि. वृ. प्र. ६, पृ. चित्तं विज्ञानम्, तेन सह वर्तत इति सचित्तः, चेत८२२)। २. द्विपदादेर्वस्तुनः क्षेत्रादौ सुन्यस्त दुर्य नावद् द्रव्य मित्यर्थः । (त. वा. ७, ३५, १)। स्त-विस्मृतस्य स्वामिना अदत्तस्य चौर्यबुद्धया ग्रहणं ३. सचित्ताहारं खलु सचेतनं मूल-कन्दादिकम् तत्प्रसचित्तादत्तादानम् । (श्रा. प्र. टी. २६५)।
तिबद्धं च वृक्षस्थगुन्द-पक्वफलादिलक्षणम् । (श्रा. प्र. १ खेत प्रादि में अच्छी तरह से या दुष्टता से स्था- टी. २८६)। ४. चेतनावद द्रव्यं सचित्तं हरितकायः, पित द्विपद (दो पांव सहित) प्रादि वस्तु को स्वामी तदभ्यवहरणं सचित्ताहारः । (चा. सा. पृ. १३)। के विना दिये चोरी के विचार से ग्रहण करना, इसे ५. चेतनं चित्तम, चित्तेन सह वर्तते सचित्तः । (त. सचित्तात्तादान कहते हैं। यह प्रचौर्याणुव्रत का एक वत्ति श्रत. ७-३५) । अतिचार है।
१ मूल, कन्दली, कन्द और पाक प्रादि चेतनायुक्त सचित्तान्तर--सचित्तरं उसह-संभवाणं मझे
साधारण या प्रत्येक वनस्पति का उपयोग करना, ट्रिनो अजियो। (धव. पु. ५, पृ. ३)।
अथवा सचित्त पथिवीकायिक प्रादि का उपयोग भगवान ऋषभ और सम्भव जिनेन्द्र के मध्य में जो करना, इसे सचित्ताहार कहते हैं। यह उपभोग. अजितनाथ हए, यह ऋषभ और सभव का सचित्त- परिभोग-परिमाणवत का एक अतिचार है। तव्यतिरिक्त द्रव्यान्तर है।
सच्चारित्र-चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमतकारिसचित्तापदद्रव्योपक्रम - सचित्तापदद्रव्योपक्रमो
तैः । पापक्रियाणां यस्त्यागः सच्चारित्रमुषंति तत् ॥ यथा वृक्षादेर्वृक्षायुर्वेदोपदेशाद् वृद्धयादिगुणकरणं ।
(तस्वानु. २७)। (व्यव. भा. मलय. वृ. पृ. २)।
मन, वचन और काय से तथा कृत, कारित और पांवों से रहित चेतन वृक्ष प्रादि को वृक्षादि से सम्बद्ध
अनुमोदन के द्वारा जो पापाचरण का त्याग किया मायुर्वेद के उपदेशानुसार वृद्धि प्रादि गुण से परि
जाता है, इसे सच्चारित्र या सम्यकचारित्र माना णत करना, इसे सचित्त-प्रपदद्रव्योपक्रम कहा जाता
जाता है। सचित्तापिघान-देखो सचित्तपिधान । १. अपि
सच्छूद्र-१. सकृत्परिणयनव्यवहाराः सच्छूद्राः । धानमावरणम्, सचित्तेनैव सम्बध्यते सचित्तापिधान
मनीत मन मनितानिधान. (नीतिवा. ७-११, पृ.८४)। २. येषां सकृद्विवाहोमिति । (स. सि. ७-३६)। २. प्रकरणात सचि- ऽस्ति ते चाद्याः। Xxx॥ (धर्मसं. था.. तेनाऽपिधानम् । अपिधानमावरणमित्यर्थः । (त. वा. ७, ३६, २) । ३. सचित्तेनावरणं सचित्तपिधा- १ जिनमें एक ही बार विवाह का व्यवहार प्रचनम् । (चा. सा. पृ. १४)। ४. सचित्तेन अपिधा.
पनिने अपिशा. लित है वे सच्छद्र कहलाते हैं। नम् प्रावरणं सचित्तापिधानम् । (त. वृत्ति श्रुत. सज्जाति-तत्र सज्जातिरित्याद्या क्रिया श्रेयोऽन७-३६)। ५. अपिधानामावरणं सचित्तेन कृतं बन्धिनी। या सा वासन्नभव्यस्य नजन्मोपगमे यदि । स्यात् सचित्तापिधानाख्यं दूषणं व्रतधारिणः॥ भवेत् ॥ स नृजन्मपरिप्राप्ती दीक्षायोग्ये सदन्वये । (लाटीसं. ६-२२८)।
विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते ॥ विशद्ध१बेने योग्य भोज्य वस्तुको चेतनायुक्त द्रव्य से कुल-जात्यादिसम्पत् सज्जातिरुच्यते । उदितोदितः
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सत्]
१०८१, जैन-लक्षणावली [सत्कार-पुरस्कारपरीषहजय वंशत्वं यतोऽभ्येति पुमान् कृती ॥ (म. पु. ३६, भक्त-पान-वस्त्र-पात्रादीनां परतो लाभः । (प्राव. ८२-८४)।
हरि. वृ. प्र. ४, पृ. ६५८)। ३. प्रभ्युत्थानादिसम्भ्रकर्वन्वय क्रियानों में सज्जाति प्रथम है, वह प्रासन्न- मः सत्कारः। (प्राव. नि. हरि. व. ९२१, पृ. भव्य के मनुष्य जन्म के प्राप्त होने पर होती है। ४०६)। ४.प्रवरवस्त्राभरणादिभिरभ्यर्चनं सत्कारः। मनुष्य पर्याय के प्राप्त होने पर दीक्षा योग्य कुल में (ललितवि. प. ७७)। ५. अभ्युत्थानासनदानजो विशुद्ध जन्म होता है उसे सज्जाति माना जाता वंदनाद्यनुब्रजनादिः सत्कारः। (श्रा. प्र. टी. ३२५)। है। विशुद्ध कुल और जाति प्रादि रूप सम्पत्ति को ६. सत्कारो वन्दन-स्तवादिः । (समवा. वृ. ६१, पृ. ही सज्जाति कहा जाता है। पुण्यशाली मनुष्य जो ८६) । ७. सत्कारो भक्त-पान-वस्त्र-पात्रादिना उत्तरोत्तर उत्तमोत्तम वंश को प्राप्त करता है वह परतो योगः । (त. भा. सिद्ध. व. ६-६) । ८. इस सज्जाति के प्रभाव से ही करता है।
सत्कार: प्रशंसादिकः । (चा. सा. पृ. ५६) । सत् ---१. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । (त. सू. १ पूजा-प्रशंसा प्रादि रूप प्रादरभाव का नाम ५-३०) । २. प्रतिक्षणं स्थित्युदय-व्ययात्मतत्त्वव्य- सत्कार है। ४ उत्तम बस्त्र व प्राभरण प्रादि के वस्थं सदिहार्थरूपम् ।। (युक्त्यनु. ४६)। ३. उत्- द्वारा पूजा करना, इसे सत्कार कहते हैं। ५ गुरुजन पाद-व्ययाभ्यां ध्रौव्येण च युक्तं सतो लक्षणम् ; को प्राते देखकर खड़े हो जाना, उन्हें प्रासन देना, यदुत्पद्यते, यद् व्येति, यच्च ध्रुवं तत् सत् । (त. भा. वन्दना करना तथा जाते समय उनके पीछे जाना, ५-२६)। ४. येनोत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं यत्तत्स- यह सब सत्कार के अन्तर्गत है । ६ वन्दना व स्तवन दिष्यते । (षड्द. स. ५७, पृ. २२५) । ५. सीदति आदि रूप अनुष्ठान को सत्कार कहा जाता है। स्वकीयान् गुण-पर्यायान् व्याप्नोतीति सत् । (माला- सत्कार-पुरस्कार - सत्कार-पुरस्कारी च वस्त्रादिपप. पृ. १४०)। ६. जो अत्थो पडिसमयं उप्पाद- पूजनाभ्युत्थानादिसंपादनेन सत्कारेण वा पुरस्करणं वय-धुवत्तसब्भावो । गुण-पज्जयपरिणामो सो संतो सन्माननं सत्कारपुरस्कारः। (समवा. वृ. २२) । भण्णदे समये ।। (कातिके. २३७)। ७. सकल- वस्त्र आदि के द्वारा पूजा करना तथा उठकर खड़े पदार्थाधिगतिमूलं द्रव्य-पर्याय-गुण-सामान्य-विशेष- हो जाने प्रादि रूप सत्कार के प्राश्रय से जो पुरस्कविषयं सदित्यभिधानं सत् । (न्यायकु. ७६, पृ. रण किया जाता है--सन्मान दिया जाता है, इसे ८०२) । ८. द्रव्य-पर्याय-सामान्य-विशेषोत्पाद-व्यय- सत्कार-पुरस्कार कहते हैं। ध्रौव्यव्यापकं सदिति कथनम् । (लघीय. पृ. ६५)। सत्कार-पुरस्कारपरीषहजय - १. सत्कारः १ जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से सहित होता है पूजा-प्रशंसात्मकः, पुरस्कारो नाम क्रियारम्भादिष्वग्रउसे सत् कहते हैं। ५ जो अपने गुणों और पर्यायों त: करणमामन्त्रणं वा, तत्रानादरो मयि क्रियते, को व्याप्त करता है उसे सत् कहा जाता है। चिरोषितब्रह्मचर्यस्य महातपस्विनः स्व-परसमयनिसत्कर्म-बंधसमयानो पाढत्तं जाव अक्खीणं पत्तो। र्णयज्ञस्य बहुकृत्वः परवादिविजयिनः प्रणाम-भक्तिगतो वा रसविसेसेण परिणामितं तं जाव अण्णहा- सम्भ्रमासनप्रदानादीनि मे न कश्चित्करोति, भावं ण णीतं ताव संतकम्मं वच्चदि। (कर्मप्र. च. मिथ्यादृष्टय एवातीव भक्तिमन्तः किञ्चिदजानन्त. १)।
मपि सर्वज्ञसम्भावनया सम्मान्य स्वसमयप्रभावनं बन्धसमय से प्रारम्भ करके जब तक विवक्षित कर्म । कुर्वन्ति । व्यन्तरादयः पुरा अत्युग्रतपसां प्रत्यग्रपूजां क्षय को प्राप्त न होता हना रसविशेष से अन्यथा निवर्तयन्तीति मिथ्या श्रुतिर्यदि न स्यादिदानी कस्मास्वरूप को प्राप्त नहीं कराया जाता-तवरूप ही मादृशां न कुर्वन्तीति दुष्प्रणिधानविरहितचित्तस्य प्रवस्थित रहता है तब तक उसे सत्कर्म कहा सत्कार-पुरस्कारपरीषहविजयः प्रतिज्ञायते । (स. जाता है।
सि. ६-६) । २. मानापमानयोस्तुल्यमनसः सत्कारसत्कार--१. सत्कारः पूजा-प्रशंसात्मकः । (स. पुरस्कारानभिलाषः। (त. वा. ६, ६, २५; त. श्लो. सि. ६-६; त. वा. ६, ६, २५) । २. सत्कारो ६-६); चिरोषितब्रह्मचर्यस्य महातपस्विनः स्व.
ल. १३६
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सत्कार-पुरस्कारपरीषहजय] १०८२, जैन-लक्षणावलो
[सत्तालोक परसमयनिश्चयज्ञस्य हितोपदेशपरस्य कथामार्गकुश- दुर्विचारों को स्थान नहीं देता है वह सत्कारलस्य बहुकृत्वः परवादिविजयिनः प्रणाम-भक्ति-सं- पुरस्कार परीषह का विजेता होता है। भ्रमाऽऽसनप्रदानादीनि मे न कश्चित्करोतीत्येवमवि- सत्ता--१. सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतचिन्तयतो मानापमानयोस्तुल्य (चा. सा. 'समान') पज्जाया। भंगप्पाद-धुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि मनसः सत्कार-पुरस्कारनिराकांक्षस्य श्रेयोध्यायिन: एक्का । (पंचा. का. ८; धव. पु. १३, पृ.१६ सत्कार-पुरस्कारजयो वेदितव्यः। (त. बा. ८, ९, उद्.; जयध. १, पृ. ५३ उद्.) । २. ध्रौव्योत्पाद२५; चा. सा. पृ. ५६)। ३. उत्थानं पूजनं दानं लयालीढा सत्ता सर्वपदार्थगा। एकशोऽनन्तपर्याया स्पृहयेनात्मपूजकः । मूछितो न भवेल्लब्धे दीनोऽस- प्रतिपक्षसमन्विता ॥ (योगसारप्रा. २-६)। स्कारितो न च ।। (प्राव. नि. हरि. ५. ६१८, पृ. १ सत् का जो स्वरूप है उसी का नाम सत्ता है। ४०३ उद.)। ४. लौकिकानां धर्मस्थानां वा सत्का- वह सब पदार्थों में स्थित है, क्योंकि सभी पदार्थों रपुरस्काराकरणे तपसि महति वर्तमानोऽप्यहमेतेषां में 'सत्' इस प्रकार का शब्दव्यवहार और 'सत्' न पूजित इति कोपसंक्लेश करणं सत्कार-पुरस्कार. इस प्रकार का ज्ञान उसी सत्ता के प्राश्रय से होता परीषहसहनम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६)। ५. है। विश्व के-समस्त पदार्थों के-उत्पाद, व्यय और सत्कारो भक्त-पान-वस्त्रादिना परतो योगः, पुरस्का- ध्रौव्यरूप तीन स्वभावों के साथ वर्तमान रहने से रः सद्भूतगुणोत्कीर्तनं वन्दनाभ्युत्थानासनप्रदानादि- वह सत्ता विश्व स्वरूप से सहित है। द्रव्यस्वरूप व्यवहारश्च, तत्रासकारितोऽपुरस्कृतो वा न द्वेष होने से वह अनन्त पर्यायों से सहित है। वह भंग यायात्, न दूषयेत्, मनोविकारेणात्मानमिति सत्कार- (व्यय), उत्पाद और ध्रौव्य स्वरूप है; कारण यह पुरस्कारपरीषहजयः । (त. भा. सिद्ध. वृ. 1-९)। कि नित्यानित्यात्मक वस्तु की व्यवस्था इन तीनों ६. ख्यातोऽहं तपसा श्रुतेन च पुरस्कार प्रशंसा नति, पर निर्भर है। तथा वह अपनी प्रतिपक्षभत असत्ता भक्त्या मे न करोति कोऽपि यतिष ज्येष्ठोऽहमेवेति से सहित है - स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यः। ग्लानि मानकृतां न याति स मनिः सत्कार- की अपेक्षा वस्तु जहां सत् है वहां वह परकीय द्रव्य, जातातिजिद् दोषा मे न गुणा भवन्ति न गुणा दोषाः क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा असत् भी है। स्युरित्यन्यतः ।। (प्राचा. सा. ७-२२)। ७. तुष्येन्न इसी प्रकार वह जहां महासत्ता स्वरूप से एक है यः स्वस्य परैः प्रशंसया, श्रेष्ठेषु चाग्रे करणेन कर्मसू। वहीं वह घट-पटादिस्वरूप अवान्तर सत्ताभेदों की प्रामन्त्रणेनाथ विमानितो न वा, रुष्येत् स सत्कार- अपेक्षा अनेक भी है। पुरस्क्रियोमिजित् ।। (अन. ध. ६-१०७)। सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्याथिक-देखो कर्मोपाधिनि१ पूजा-प्रशंसा का नाम सत्कार तथा क्रिया के रपेक्ष शुद्धनय । उप्पाद-वयं गोणं किच्चा जो गहइ प्रारम्भ प्रादि में प्रागे करना व आमन्त्रित करना, केवला सत्ता । भण्णइ सो सुद्धणो इह सत्तागाहो इसका नाम पुरस्कार है । दीर्घ काल से ब्रह्मचर्य का समए । (ल. नयच. १६; द्रव्यस्व. प्र. नयच. पालन करने, घोर तपश्चरण करने, स्व-परमत के १६१)। निर्णय का ज्ञान प्राप्त करने तथा बहुत बार पर- जो उत्पाद और व्यय को गौण करके केवल सत्ता वादियों के ऊपर विजय प्राप्त करने पर भी कोई को ही ग्रहण किया करता है उसे सत्ताग्राहक शुद्धनय मुझे न प्रणाम करता है और न भक्तिपूर्वक प्रासन कहा जाता है। आदि भी देता है। मिथ्यादृष्टि ही अतिशय भक्तिः सत्तालोक-देखो दर्शन (उपयोग)। १. सत्तायुक्त होते हैं, जो कुछ भी न जानने वाले को सर्वज्ञ लोकः सकलहेयोपादेयसाधारणसत्त्वमात्रस्य पालोको जैसा सम्मान देकर अपने मत की प्रभावना करते दर्शनम् पात्मनः प्रथमतः प्रादुर्भवति । (न्यायकु. हैं। व्यन्तर प्रादि तीव्र तपश्चरण करने वाले १-५, पृ. ११६) । २. सत्तालोकः-सत्तायाः समकी पूर्व में पूजा करते थे, यह श्रुति यदि मिथ्या स्तार्थसाधारणस्य सत्त्वसामान्यस्य, पालोको निविनहीं है तो इस समय वे मेरे जैसे तपस्वियों को कल्पकग्रहणं दर्शनम् । (लघीय. अभय. वृ. ५, पृ. पूजा क्यों नहीं करते हैं; इस प्रकार से जो मन में १४) ।
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सत्य ]
१ समस्त हेय - उपादेयभूत पदार्थों में जो समानसत्त्व रहता है उसके निर्विकल्पक ग्रहण का नाम सत्तालोक है । वह दर्शन के रूप में प्रसिद्ध है । सत्य - १. परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण स-परहिदवयणं । जो वददि भिक्खु तुरियो तस्स दु धम्मो वे सच्चं । ( द्वादशानु. ७४ ) । २. सत्सु प्रशस्तेषु ty साधु वचनं सत्यमित्युच्यते । ( स. सि. ६-६ ) । ३. सत्यर्थे भवं वचः सत्यम्, सद्द्भ्यो वा हितं सत्यम् । तदनृतम् अपरुषमपिशुन मन सभ्य मचपलम नाविलमविरलमसम्भ्रान्तं मधुरमभिजातमसंदिग्धं स्फुटमौदार्य युक्तमग्राम्यपदार्थाभिव्याहारमसीभरमराग-द्वेषयुक्तं सूत्रमार्गानुसार प्रवृत्तार्थमर्घ्यमर्थिजनभावग्रहणसमर्थमात्म-परार्थानुग्राहकं निरुपधं देशकालोपपन्नमनवद्यमर्हच्छासनप्रशस्तं यतं मितं याचनं प्रच्छनं प्रश्नव्याकरणमिति सत्यधर्मः । ( त. भा. - ६ ) । ४. सच्चवणं पुण भावप्रो जं परिसुद्धमतिमहिसागयमपिसुणमफरुसं । ( वसु. हिंडी. पृ. २६७ ) । ५. सत्सु साधु वचनं सत्यम् । सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधु वचनं सत्यमित्युच्यते । (त. वा. ६, ६, ६) । ६. सच्चं नाम सम्मं चितेऊण श्रसावज्जं ततो भासियव्वं सच्चं च । ( दशवं. चू. पृ. १८) । ७. सत्सु साधु वचनं सत्यम् । (त. इलो. ह-६) । ८. सत्यम् प्रवितथं सद्भूतार्थप्रतिपत्तिकारि । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७ - ३ ) ; तेषां (अर्थानां ) यथावस्थितविवक्षितपर्यायप्रतिपादनं सत्यम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६, पृ. १६६ ) । ६. असदभिघानाद्विरतिः सत्यम् । (भ. श्री. विजयो ५७ ) । १०. कि सत्यं भूतहितम् XXX ॥ ( प्रश्नो. र. १३) । ११. धर्मोपवू हणार्थं यत्साधु सत्यं तदुच्यते ॥ (त. सा. ६ - १७) । १२. सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधु वचनं सत्यम् । (चा. सा. पृ. २६) । १३. परोपतापादिपरिवर्जितं कर्मादानकारणान्निवृत्तं साधु वचनं सत्यम् । (मूला वृ. ११ - ५ ) । १४. सत्यं सम्यग्वादः । ( श्रपपा. अभय वृ. १६, पृ. ३३) । १५. सत्यं तथ्या भाषा । (योगशा. स्वो विव ३-१६) । १६. सत्सु दिगम्बरेषु महामुनिषु तदुपासकेषु च साधु यद्वचनं तत् सत्यमित्यभिलप्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १- ६ ) । १७. सत्सु प्रशस्तेषु दिगम्बरेषु महामुनिषु तदुपासकेषु च श्रेष्ठेषु लोकेषु साधु वचनं समीचीनवचनं यत् तत् सत्यमित्युच्यते ।
१०८३, जेन - लक्षणावली
[ सत्यप्रवाद
( कार्तिके. टी. ३६८ ) ।
१ जो वचन दूसरों को सन्ताप देने वाला हो उसे छोड़कर ऐसा वचन बोलना जो अपना घोर पर का हित करने वाला हो, इसे सत्य कहा जाता है । यह दस धर्मों में चौथा है । २ प्रशस्त जनों में जो उत्तम वचन का व्यवहार होता है, उसे सत्य कहते हैं । ३ पदार्थ के होते हुए जो तद्विषयक वचन बोला जाता है अथवा समीचीन श्रर्थ को जो विषय करता है उसे सत्य वचन माना जाता है। ऐसा सत्य वचन कठोरता, पिशुनता, असभ्यता, चंचलता और कलुपता श्रादि से रहित होता है। वह भ्रान्ति से रहित मधुर, विनम्रता का सूचक, सन्देह से मुक्त औौर श्रौदार्य प्रादि गुणों से युक्त होता है । सत्यधर्म- देखो सत्य ।
सत्यप्रवाद - १. वाग्गुप्तिसंस्कारकारणप्रयोगो द्वादशधा भाषा वक्तारश्चानेक प्रकारमृषा भिधानं दशप्रकारश्च सत्यसद्भावो यत्र प्ररूपितः तत्सत्यप्रवादम् । ( त. वा. १,२०,१२ ) । २. सच्चपवादं पुव्वं वारसहं वत्थूणं १२ दुसयचालीसपाहुडाणं २४० छन्नहियएगकोडिपदेहि १००००००६ वाग्गुप्तिः वाक्संस्कारकारणं प्रयोगो द्वादशघा भाषा वक्तारश्च अनेकप्रकारं मृषाभिधानं दशप्रकारश्च सत्यसद्भावो यत्र प्ररूपितस्तत्सत्यप्रवादम् । एतस्य पदप्रमाणं षडाधिकैककोटी १००००००६ । ( धव. पु. ६, पृ. २१६ ) । ३. सच्चपवादो ववहारसच्चा दिवस विहसच्चाणं सत्तभंगीए सयलवत्थुणिरूवणविहाणं च भणइ । ( जयध. १, पृ. १४१ ) । ४. सत्यप्रवादं षष्ठं सत्य संयमः सत्यं वचनं वा तद्यत्र सभेदं सप्रतिपक्षं च वर्ण्यते तत्सत्यप्रवादम् तस्य पदपरिमाणं एका पदकोटी षट् च पदानीति । (समवा. वृ. १४७ ) । ५. षडाधिकैककोटिपदं वाग्गुप्तेः वाक्संस्काराणां कण्ठादिस्थानानाम् आविष्कृत वक्तृत्वपर्यायद्वीन्द्रियादिवक्तृणां शुभाशुभरूपवचः प्रयोगस्य सूचकं सत्यप्रवादम् १००००००६ । ( श्रुतभ. टी. १०, पृ. १७५) । ६. वर्णस्थान तदाधारद्वीन्द्रियादिजन्तुवचनगुप्तिसंस्कार प्ररूपकं षडधिककोटिपदप्रमाणं सत्यप्रवादपूर्वम् । ( त वृत्ति श्रुत १ - २० ) । १ जिस पूर्वश्रुत में वचनगुप्ति के संस्कार के कारणभूत प्रयोग, बारह प्रकार की भाषा, वक्ता, अनेक प्रकार के असत्य वचन तथा दस प्रकार के सत्य
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सत्यमनोयोग] १०८४, जन-लक्षणावली
[सत्यवचनयोग वचन की प्ररूपणा की जाती है उसे सत्यप्रवादपूर्व सत्यमुत्सृज्यान्याहितं वचः । सत्यं तत्त्वान्यथोक्तं च कहा जाता है। ४ सत्य का अर्थ संयम या वचनं सत्य मत्तमम ॥ (प्राचा. सा. १-१७); कृतं सत्यवचन है । जिस श्रुत में उस सत्य का सत्यमसत्यं वा वचः प्राणिहितेहितम् । येन सन्मानभेदों और प्रतिपक्ष के साथ वर्णन किया जाता है विश्वास-यशांसि लभते नरः ॥ (प्राचा. सा. ५, वह सत्यप्रवाद कहलाता है। उसकी पदसंख्या एक २३) । ६. अनृताद्विरतिः सत्यव्रतं जगति पूजितम् । करोड़ छह (१००००००६) है।
अनतं त्वभिधानं स्याद् रागाद्यावेशतोऽसतः ।। (अन. सत्यमनोयोग-१. सब्भावो सच्चमणो जो जोगो ध. ४-३७) । १०. अथ मृषापरित्यागलक्षणं व्रतसो दु सच्चमणजोगो। (प्रा. पंचसं. १-८६; धव. मुच्यते । सर्वतस्तन्मुनीनां स्याद् xxx ॥ पु. १, पृ. २८१ उद्.)। २ सत्यमवितथममोघमित्य. (लाटीसं. ६-१)। नर्थान्तरम् । सत्ये मनः सत्यमनः, तेन योगः सत्य- १जो साधु सदा राग, द्वेष और मोह के प्राश्रय से मनोयोगः । xxx सत्यवचन निबन्धनः मनसा होने वाले असत्य भाषणरूप परिणाम का त्याग योगः सत्यमनोयोगः। (धव. पु. १, पृ. पु. २८०, करता है उसके द्वितीय सत्यमहावत होता है। २८१)। ३. सम्भावमणो सच्चो जो जोगो तेण २ राग-द्वेष प्रादि के वश असत्य वचन का परिसच्चमणजोगो। (गो. जी. २१८)। ४. सत्यमनः त्याग करना, अन्य को सन्तप्त करने वाला सत्य सत्यार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमनः, तेन जनितो यो वचन भी न बोलना, सूत्र व अर्थ विषयक अन्यथा योगः प्रयत्नविशेषः स सत्यमनोयोगः। (गो. जी. कथन न करना तथा अन्यथा वचन (अपरमार्थभूत) म. प्र. व जी. प्र. २१८)।
को छोड़ देना; यह सत्यमहाबत का लक्षण १ समीचीन पदार्थ को विषय करने वाला मन है।३ करने, कराने व इनरूप तीन प्रकार के सत्यमन कहलाता है, उससे जो योग--प्रात्मप्रदेशों मषावाद (असत्य वचन) का मन, वचन और काय में परिस्पन्दन-होता है उसे सत्यमनोयोग कहते से परित्याग करना, इसे सत्यमहाव्रत कहा जाता हैं। ४ सत्य पदार्थविषयक ज्ञान उत्पन्न करने है। वाली शाक्ति का नाम भावमन है, उसके प्राधय सत्य-मोषमनोयोग--१.xxx जाणु भयं सच्चसे जो योग--प्रयत्नविशेष-होता है उसे सत्य- मोसं ति । (प्रा. पंचसं. १-८९; धव. पु. १, पृ. मनोयोग कहा जाता है।
२८१ उद्.गो. जी. २१८)। २. तदुभय-(सत्य-मोषसत्यमहावत-१. रागेण व दोसेण व मोहेण व मनो-) योगात्सत्य-मोषमनोयोगः । xxx उभमोसभासपरिणामं । जो पजहदि साह सया विदिय- यात्मकवचननिबन्धनमनसा . योग. सत्यमोष-मनोवयं होइ तस्सेव ॥ (नि. सा. ५७) । २. रागादीहिं योगः । (धव. पु. १, पृ २८०-२८१) ।
२सत्य और मषा इन दोनों के निमित्त से जो योग विकणे अयधावयणुज्झणं सच्चं ।। (मला. १-६)। होता है उसे सत्य-मोषमनोयोग कहते हैं। ३. मुसावादं तिविहं तिविहेणं णेव बूया ण भासए। सत्यवचनयोग-१. दसविहसच्चे वयणे जो जोगो वितियं सोमव्वलक्खणं। (ऋषिभासित. १, पृ. १)। सो दु सच्चवचिजोगो। (प्रा. पंचसं. १-९१; धव. ४. मुसावायाप्रो वेरमणं । (समवा. ५)। ५. यद्रा- पु. १, पृ. २८६ उद; गो. जी. २२० ग-द्वेष-मोहेभ्यः परतापकरं वचः । निवृत्तिस्तु ततः पदादिदशविधसत्यार्थविषयवाग्व्यापारजननसमर्थ स्वसत्यं तद् द्वितीयं महाव्रतम् ।। (ह. पु. २-११८)। रनामकर्मोदयापादितभाषापर्याप्तिजनितभाषावर्गणा६. पारमार्थिकस्य भूतनिह्नवे अभूतोद्भावने च लम्बनात्मप्रदेशशक्तिरूपं यद्भाववचः, तेन जनितो यदभिधान तदेवानतं स्यात् । Xxx कृतात्का. यो योगः प्रयत्नविशेषः स सत्यवचोयोगः। (गो. रितादनुमोदिताद्वाऽनताद्विरतिः सत्यवतम् । (चा. जी. म. प्र. व जी. प्र. २२०)। सा. पृ. ४१) । ७. व्रत-श्रुत-यमस्थानं विद्या-विनय- १ दस प्रकार के सत्यवचन के प्राश्रय से जो योगभूषणम् । चरण-ज्ञानयोर्बीजं सत्यसंज्ञं व्रतं मतम् ॥ प्रात्मप्रदेशों में परिस्पन्दन-होताहै उसे सत्यवचन(जाना. ६-२७, पृ. १२५)। ८. राग-द्वेषादिजा- योग कहते हैं।
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सत्यवादी ]
सत्यवादी - जिणवयणमेव भासदि तं पालेढुं असक्मणोवि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सां ॥ ( कार्तिके. ३६८ ) । जो सत्यधर्म के परिपालन में असमर्थ होकर भी जिनागम के अनुसार ही वस्तुस्वरूप का कथन करता है तथा व्यवहार में भी असत्य भाषण नहीं करता है वह सत्यवादी सत्यधर्म का परिपालक होता है । सत्य सत्य -- यद्वस्तु यद्देश-काल- प्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिंस्तथैव संवादि सत्यसत्यं वचो वदेत् ॥ ( सा. घ. ४-४१ ) ।
न
जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकार में नियत रही है उसके विषय में उसी रूप यथार्थ वचन के बोलने को सत्यसत्य कहा जाता है । सत्याणुव्रत - १ XX Xथूले मोसे × × × परिहारो । ( चारित्रप्रा. २३) । २. स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवरमणम् ॥ ( रत्नक. ३ - ९ ) । ३. स्नेह - मोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्रामविनाशे वा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनान्निवृत्तो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । ( स. सि. ७-२० ) । ४. लोभ-मोह-भय-द्वेषैर्माया मान मदेन वा । कथ्यमनृतं किचित्तत् सत्यव्रतमुच्यते । ( वरांगच. १५-११३) । ५. स्नेह-द्वेष- मोहावेशात् श्रसत्याभिधानवर्जनप्रवणः । स्नेहस्य द्वेषस्य मोहस्य चोद्रेकात् यदसत्याभिधानं ततो निवृत्तादरो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । (त. वा. ७, २०, ३) । ६. थूलमुसावायस्स उ विरई दुच्च च पंचहा होइ । कन्ना-गोभुप्रालिय-नास हरण- कूडस क्खिज्जे ॥ (277. $1. २६० ) । ७. यद्रागद्वेष-मोहादेः परपीडाकरादिह । अनृताद्विरतियंत्र तद् द्वितीयमणुव्रतम् ॥ (ह. पु. ५८, १३६ ) । ८. भोगोपभोगसाधनमात्र सावद्यमक्षमा मोक्तुम् । ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु ॥ ( पु. सि. १०१ )। ६. हिसावयणं ण वयदि कक्कसवयणं पि जो ण भासेदि । निठुरवयणं पि तहाण भास दे गुज्झवयणं पि ॥ हिद- मिदवयणं भासदि संतोसकरं तु सव्वजीवाणं । धम्मपयासणवयणं प्रणुव्वई हवदि सो विदिओ || (कार्तिके. ३३३-३४) । १०. क्रोध-लोभ-मद-द्वेष-राग- मोहादिकारणैः । श्रसत्यस्य परित्यागः सत्याणुव्रतमुच्यते ॥ ( सुभा. सं. ७६९ ) । ११. स्नेहस्य मोहस्य द्वेषस्य
१०८५, जैन- लक्षणावली [ सत्यासत्य वोद्रेकादसत्याभिधानं ततो निवृत्तादरो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । (चा. सा. पृ. ५) । १२. वा [ रा ]गादीहि सच्च परपीडयरं तु सच्चवयणं पि । वज्जंतस्स णरस्स हु विदियं तु श्रणुव्वयं होइ ॥ ( धर्मर. १४४ ) । १३ मन्मनत्वं कालत्वं मूकत्वं मुखरोगिताम् । वीक्ष्यासत्यफलं कन्यालीका द्यसत्यमुत्सृजेत् ॥ कन्या- गो-भूभ्यलीकानि न्यासापहरणं तथा । कूटसाक्ष्यं च पञ्चेति स्थूलासत्यान्यकीर्तयत् । (योगशा. २, ५३ - ५४ ) । १४. अलियं ण जंपणीय पाणिवहकरं तु सच्चवयणं पि । रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ॥ ( वसु. श्रा. २१० ) । १५ कन्या- गो- क्ष्मालीककूटसाक्ष्य न्यासापलापवत् । स्यात्सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् । (सा. ध. ४- ३६ ) । १६. सभ्यैः पृष्टोऽपि न ब्रूयाद् विवादे ह्यलीकं वचः । भयाद् द्वेषाद् गुरुस्नेहात्स्थूलं सत्यमिदं व्रतम् ॥ ( धर्मसं श्रा. ६, ४९) । १७. लाभ-लोभ- भय द्वेषैर्व्यलीकवचनं पुनः । सर्वदा तन्न वक्तव्यं द्वितीयं तदणुव्रतम् ॥ ( पू. उपासका २४) । १८. Xx X देशतो वेश्मवासिनाम् ॥ ( लाटीसं. ६- १ ) ।
१ स्थूल मृषा ( श्रसत्य ) वचन का जो त्याग किया जाता है उसे सत्याणुव्रत कहते हैं । २ स्थूल असत्य को स्वयं न बोलना, दूसरों से न बुलवाना तथा विपत्तिजनक सत्य भी न बोलना, यह स्थूल मृषावाद से विरत होना है - सत्याणुव्रत का लक्षण
६ कन्याविषयक, गायविषयक व भूमिविषयक श्रसत्य, न्यास ( अमानत ) का अपहरण तथा न्यायालय आदि में प्रसत्य साक्षी देना, यह पांच प्रकार का स्थूल असत्य है। इस सब के परित्याग को द्वितीय सत्याणुव्रत कहा जाता है । जो सत्याणुव्रती गृहस्थ भोग-उपभोग के साधन मात्र सावध के छोड़ने में असमर्थ हैं वे भी सदा शेष प्रसत्य वचन को छोड़ देते हैं ।
सत्यासत्य - वाच्यं कालातिक्रमेण दानात् सत्यमसत्यगम् । ( सा. घ. ४-४२ ) ।
उधार लिए हुए धन आदि को नियत समय पर न देकर कुछ समय के पश्चात् देना, यह असत्य के श्राश्रित सत्य वचन कहलाता है। कारण यह है कि समय पर नहीं दिये जा सकने से यद्यपि श्रसत्य का भागी हुआ है, फिर भी उसको श्रस्वीकार न
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सत्त्व (जीव ) ]
कर पीछे अनुकूलता होने पर उसे वापिस कर दिया, श्रतः सत्य का भी परिपालन हुआ है । सत्त्व (जीव ) - १. दुष्कर्म विपाकवशान्नानायोनिषु सीदन्तीति सत्त्वाः जीवाः । (स. सि. ७-११ ) । २. प्रनादिकर्मबन्धवशात् सोदन्तीति सत्त्वाः । अनादिनाष्टविधकर्मबन्धसन्तानेन तीव्रदुःखयोनिषु चतसृषु गतिषु सीदन्तीति सत्त्वाः । (त. वा. ७, ११, ५) । ३. अनादिकर्मबन्धवशात् सीदन्तीति सत्त्वाः । (त. इलो. ७-११) ।
१ पाप कर्म के उदय के वश जो अनेक योनियों में सीदन्ति प्रर्थात् खेद को प्राप्त होते हैं उनका नाम सत्त्व है । यह जीवों का एक सार्थक नाम 1 सत्त्व ( सत्कर्म ) -- १. XXX प्रत्थितं सत्तं X XX ।। ( गो . क. ४३९ ) । २. कर्मणां विद्यमानत्वं यत्सत्त्वं तन्निगद्यते । XXX कर्मणां संगृहीतानां सत्तोक्ता विद्यमानता । (पंचसं श्रमित. ५ व ८, पृ. ५४) । ३. सत्त्वं वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादिजन्य प्रात्मपरिणामः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ५७१ ) ।
१ कर्मों का जो कर्मस्वरूप से श्रात्मा के साथ अस्तित्व रहता है उसे सत्त्व कहते हैं । ३ वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम आदि से जो आत्मा का परिणाम होता है उसे सत्त्व कहते हैं। यह तीर्थंकरों के कर्मोदय से होने वाले संहननादिकों में से एक है । सत्वपरिगृहीतत्व - १. सत्त्वपरिगृहीतत्वं साहसोपेतता । (समवा. बृ. ३६; औपपा. वृ. पू. २२ ) । २. सत्त्वपरिगृहीतत्वमोजस्विता । ( रायप. मलय. बृ. १७, पृ. २८) ।
१ वचन का साहस से सहित होना, इसका नाम सत्वपरिगृहीतत्व है । यह ३५ वचनातिशयों में ३३वां है । २ वचन का प्रोज गुण से सहित होना, इसे सत्वपरिगृहीतत्व कहते हैं । सत्त्वप्रकृति- जासि पुण पयडीणं बंधो चेव णत्थि, बंधे संते वि जासि पयडीणं द्विदितादो उवरि सव्वकालं बंधो ण संभवदि ताम्रो संतपयडीनो, संतपहाणत्तादो । ( धव. पु. १२, पू. ४६५ ) । जिन प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं है अथवा बन्ध के होने पर भी जिन प्रकृतियों का सर्वदा स्थितिसत्त्व से ऊपर बन्ध सम्भव नहीं है वे सत्त्वप्रकृतियां कहलाती हैं।
[ सद्धर्मकथा
सदृशकृष्टि — जदि जे प्रणुभागे उदीरेदि एक्किस्से वग्गणाए सच्चे ते सरिसा णाम । ( कषायपा. चू. पृ. ८८४) ।
उदय में श्राने वाली अनेक कृष्टियों के एक वर्गणा रूप से परिणत होकर उदय में श्राने को सदृशकृष्टि कहते हैं ।
सद्गुरु – सम्यक्त्वेन व्रतेनापि युक्तः स्यात् सद्गुरुर्यतः । (पंचाध्या. २ - ६०४) ।
जो सम्यक्त्व व व्रत सहित होता है उसे सद्गुरु माना जाता है ।
सदर्शन -- देखो सम्यग्दर्शन । १. त्रिकालविद्भित्रिजगच्छरण्यंजीवादयो येऽभिहिताः पदार्थाः । श्रद्धानमेषां परया विशुद्धया सद्दर्शनं सम्यगुदाहरन्ति । ( वरांगच १०-२० ) । २. यम- प्रशमजीवातुर्बीजं ज्ञान चरित्रयोः । हेतुस्तपः श्रुतादीनां सद्दर्शनमुदीरितम् ॥ (योगशा. स्वो विव. १७, पृ. ११८ ) । १ त्रिकालज्ञ (सर्वज्ञ) के द्वारा कहे गये जीवादि पदार्थों का जो विशुद्धिपूर्वक श्रद्धान किया जाता है उसे सद्दर्शन ( सम्यग्दर्शन) कहते हैं । सद्दृष्टि -- १. छद्दव्व णव पयत्था पंचत्यी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा | सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो ।। ( दर्शन प्रा. १६) । २. यिसुद्धप्पणुरत्तो बहि
पावच्छवज्जिप्रो णाणी । जिण मुणि धम्मं मण्णइ गयदुक्खो होइ सद्दिट्ठी ॥ मयमूढमणायदणं संकाइवसण भयमईयारं । जिण मुणि धम्मं मण्णइ गयदुक्खी होइ सद्दिट्ठी ॥ (र. सा. ६-७ ) । ३. उत्तमगुणगहण उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो | साहम्मि
१०८६, जैन - लक्षणावलो
राई सौ सद्दिट्ठी हवे परमो ॥ देहमिलियं पि जीवं णियाणगुणेण मुणदि जो भिण्णं । जीवमिलियं पि देहं कंचुवसरिसं वियाणेइ ॥ णिज्जियदोसं देवं सव्वजिवाणं दयावरं धम्मं । वज्जियगंथं च गुरु जो मणदि सोहु सद्दट्ठी ॥ ( कार्तिके. ३१५-१७) । ४. यस्य नास्ति ( कांक्षितो भावः ) स सद्दृष्टि: युक्ति-स्वानुभवागमात् । (लाटीसं. ४-७४) ।
१ जो छह द्रव्यों, नौ पदार्थों, पांच अस्तिकायों और सात तत्त्वों के स्वरूप का श्रद्धान करता है उसे सद्दृष्टि ( सम्यग्दृष्टि ) जानना चाहिए । सद्धर्मकथा - यतोऽभ्युदय - निःश्रेयसार्थ संसिद्धिरंजसा । स धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता ॥ (म. पु. १ - १२० ) ।
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सद्भाव पर्याय ]
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स्वर्गादि अभ्युदय और मुक्ति के साधनभूत धर्म से सम्बद्ध कथा को सद्धर्मकथा माना गया है । सद्भावपर्याय - सद्भावषर्याय निमित्तेनादेशेनापितमात्मरूपद्रव्यमित्येव सद्रव्यत्वमेव हि सद्भावपर्याय: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५ – ३१, पृ. ४१४) । सद्भावपर्यायनिमित्तक श्रादेश से विवक्षित श्रात्मरूप द्रव्य है, उसके द्रव्यत्व को ही सद्भावपर्याय कहा जाता है सद्भावमार्गणा - यत्र च कल्पे स्थितो वर्त्तते तत्र सद्भावतः । उक्तं च-खेत्ते दुहेह मग्गण जम्मणतो चैव संतिभावे य । जम्मणतो जहि जातो संतो भावो य जहि कप्पे ॥ (श्राव. नि. मलय वृ. ११४) । जिस कल्प में परिहारविशुद्धिक संयत स्थित है उसमें जो अन्वेषण किया जाता है, इसका नाम सद्भावतः क्षेत्रमार्गणा है । सद्भाव स्थापना - १. तदाकारवती सद्भावस्थापना । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ७) । २. अध्यारोप्यमाणेण मुख्येन्द्रादिना समाना सद्भावस्थापना | ( न्यायकु. ७६, पृ. ८०५) । ३. सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा || ( वसु श्रा. ३८३ ) । ४. मुख्यद्रव्याकृतिः सद्भावस्थापना श्रहंत्प्रतिमादिः । ( लघीय. अभय वृ. ७६, पृ. ६८ ) ।
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१ जिसकी स्थापना करना प्रभीष्ट है उसके श्राकार वाली स्थापना सद्भावस्थापना कही जाती है । २ जिस मुख्य इन्द्र श्रादि का अध्यारोपण किया जा रहा है उससे श्राकार में समानता रखने वाली स्थापना को सद्भाव स्थापना कहते हैं । सद्भावस्थापनाजिन – जिणायारसंठियं दव्वं सभाववणजिणो । ( धव. पु. 8, पृ. ६) । जिनदेव के श्राकार में स्थित द्रव्य ( पाषाण श्रादि ) को सद्भावस्थापनाजिन कहते हैं। सद्भावस्थापनान्तर— भरह- बाहुवलीणमंतर मुव्वेल्लंतो णदो सब्भावठवणंतरं । ( धव. पु. ५, पृ. २) । भरत और बाहुबली के मध्य उठता हुआ नद सद्भाव स्थापनान्तरस्वरूप है । सद्भावस्थापनापूजा - क्रियते यद्गुणारोपः साsser कास्तुनि ॥ ( धर्मसं. श्री. ६ - ८८ ) । ताकार वस्तु में (मूर्ति प्रादि में ) जो गुणों का प्रारोप किया जाता है, इसे सद्भावस्थापनापूजा कहते हैं ।
[सद्वेदनीय
सद्भावस्थापनाबन्ध - एदेसु कम्मेसु ( कटुकम्मादिसु ) जहासरूवेण विदबंधो सम्भावदुवणबंधो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ६) ।
इन काष्ठकर्म आदि में स्वरूप के अनुसार बन्ध की स्थापना की जाती है उसका नाम सद्भाव स्थापनाबन्ध है ।
१०८७, जैन - लक्षणावली
सद्भावस्थापनाभाव - विराग सरागादिभावे श्रणुहरंती ठवणा सम्भावठवणाभावो । ( धव. पु. ५, पृ. १८३ ) ।
राग रहित और राग सहित भावों का अनुसरण करने वाली स्थापना को सद्भावस्थापनाभाव कहते हैं ।
सद्भावस्थापनावेदना - पाएण श्रणुहरं तदव्व भेदेण इच्छिददन्ववणा सब्भावदूवणवेयणा | घव. पु. १०, पृ. ७) ।
प्रायः अनुसरण करने वाले द्रव्य के भेद से इच्छित द्रव्य में जो वेदना की स्थापना की जाती है उसे सद्भावस्थापनावेदना कहते हैं । सद्भावस्थापनाव्रत - हिंसादिनिवृत्तिपरिणामवत श्रात्मनः शरीरस्य बंधं प्रत्येकत्वात् प्राकार: सामायिके परिणतस्य सद्भावस्थापनाव्रतम् ॥ ( भ. प्रा. ११८५) ।
हिंसा आदि से निवृत्तिरूप परिणाम से युक्त श्रात्मा शरीर के बन्ध के प्रति एक है, इसलिए सामायिक में परिणत उसका प्राकार सद्भावस्थापनाव्रत है । सद्भूतानिषेधवचनं - देखो सम्भूतार्थनिषेध
वचन ।
सदनीय - १ यदुदयाद् देवादिगतिषु शारीरमानस सुखप्राप्तिस्तत् सद्वेद्यम् । ( स. सि. ८-८ त. इलो. ८-८; भ. प्रा. मूला. २१२१) । २. यस्योदयाद्देवादिगतिषु शारीर मानससुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम् । देवादिषु गतिषु बहुप्रकारजातिविशिष्टासु यस्योदयात् श्रनुगृहीत - सम्बन्धापेक्षात् प्राणिनां शारीर मानसानेकविधसुखपरिणामस्तत्सद्वेद्यम्, प्रशस्तं वेद्यं सवेद्यम् । (त. वा. ८, ८, १) । ३. श्रभिमतमिष्टमात्मन: कर्तुरुप भोवतुर्मनुज देवादिजन्मसु शरीरमनोद्वारेण सुख परिणतिरूपमागन्तुकानेकमनोज्ञद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसम्बन्धसमासादितपरिपाकावस्थमति बहुभेदं यदुदयाद्भवति तदाचक्षते सद्वेदनीयम् । ( त. भा. हरि वृ. ८-९ ) । ४. श्राह्लादरूपेण
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सद्या
१०८८, जैन-लक्षणावली
[सन्मिश्राहार
यद्वेद्यते तत्सातवेदनीयम् । (श्रा. प्र. १४) । ५. 'यह ढूंठ है या पुरुष' इस प्रकार जो अनेक विषयों यस्योदयात् सुखं तत् स्यात् सद्वेद्यं देहिनां तथा। में चलात्मक ज्ञान (सन्देह) होता है उसके विषय(त. श्लो. ८, २५, १)। ६. यदुदयाद् देव-मनुष्य- भूत पदार्थ को सन्दिग्ध अर्थ कहा जाता है। तिर्यग्गतिषु शरीरं मानसं च सुखं लभते तद् भवति । सन्दिग्धासिद्धहेत्वाभास- स्वरूपसन्देहे सन्दिसद्वेद्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-८)।
ग्यासिद्धः । xxx यथा-धूम-वाष्पादिविवेका. जिसके उदय से देवादि गतियों में शारीरिक और निश्चये कश्चिदाह-अग्निमानयं प्रदेशो धमवत्त्वात् मानसिक सुख की प्राप्ति होती है उसे सद्वेद्य कहा इति । (यानी, जाता है। ४ जिसका वेदन प्राह्लाद स्वरूप से
स्वरूप में सन्देह रहने पर हेतु स्वरूपासिद्धहेत्वाभास होता है उसे सद्वेद्य कहते हैं ।
होता है। जैसे - जिसे धूम और वाष्प का भेद सद्वेद्य-देखो सवेंदनीय।
ज्ञात नहीं है वह यदि कहता है कि 'यह प्रदेश सधर्मा-सधर्मणे-समान पात्मना समो धर्मः क्रिया- अग्निवाला है, क्योंकि वह धमयुक्त है। इसमें यद्यपि मंत्र-व्रतादिलक्षणो गुणो यस्य तस्मै xxx।
धूम हेतु अग्नि का साधक है, पर यहां धूम व (सा. घ. स्वो. टी. २-५६)।
वाष्प में सन्देह रहने के कारण इसे सन्दिग्धाजिसका क्रिया, मंत्र और व्रत आदि रूप धर्म अपने
सिद्धहेत्वाभास माना गया है। समान होता है उसे सधर्मा कहा जाता है।
सन्निकर्ष- एकस्मिन् वस्तुन्येकस्मिन् धर्म निरुद्ध सधमभोजन - तं पुण होइ सधूमं जं पाहारेइ
शेषधर्माणां तत्र सत्त्वासत्त्वविचारः, सत्स्वप्येकस्मिनिदंतो ।। (पिण्डनि. ६५५) ।
न्नुत्कर्षमुपगते शेषाणामुत्कर्षानुत्कर्षविचारश्च सन्निसाधु निन्दा करते हुए जिस भोजन का उपयोग
कर्षः । (धव. पु. १३, पृ २८४)। करता है वह सधम नामक ग्रासैषणादोष से दूषित
एक वस्तु में किसी एक धर्म के विवक्षित होने पर होता है।
शेष धर्मों के उसमें सत्त्व-असत्त्व का विचार करना सनिरुद्ध कायक्लेश-सणिरुद्धं निश्चलमवस्थानम् ।
तथा उनमें भी किसी एक के उत्कर्ष को प्राप्त होने पर (भ. प्रा. विजयो. व मूला. २२३) ।
शेष धर्मों के उत्कर्ष-अनुत्कर्ष का भी विचार करना, कायोत्सर्ग में निश्चलरूप से स्थित रहना, यह सनि
इसे सन्निकर्ष कहते हैं । रुद्धस्थानयोग कहलाता है।
सन्निपात-सन्निपातो द्वि-त्रिभावानां संयोगः । सन्तान--पूर्वापरकालभाविनोरपि हेतु-फलव्यपदेश
(प्राव. भा. मलय. व. २०२, पृ. ५६३)। भाजोरतिशयात्मनोरन्वयः सन्तानः । (प्रष्टश.
प्रौदयिक व प्रौपशमिकादि भावों में दो-तीन आदि २६)।
भावों के संयोग को सन्निपात कहते हैं। पूर्वोत्तर काल में रहते हुए भी अतिशयस्वरूप कारण व कार्य कहलाने वालों में जो अन्वय रहता है उसे सन्तान कहा जाता है।
(ललितवि. पृ. ८०)। २. सन्मानो वस्त्रादिपूजसन्तोषव्रत-देखो परिग्रहपरिमाणाणवत । वास्तू नम् । (समवा. अभय, वृ. ६१)। क्षेत्रं धनं धान्यं पशु-प्रेष्यजनादिकम् । परिमाणं कृतं १ स्तुति आदि के द्वारा गुणों की उन्नति करने को यत्तत्सन्तोषव्रतमुच्यते ।। (वरांगच. १५-११६)। सन्मान कहते हैं। २ वस्त्रादि के द्वारा पूजा करने वास्तु, क्षेत्र, धन, धान्य, पशु और दास प्रादि का नाम सन्मान विनय है। बाह्यपरिग्रह के विषय में जोपरिमाण किया जाता सम्मिश्राहार-देखो सचित्तसम्मिश्राहार। तथा है उसे सन्तोषव्रत कहते हैं। यह परिग्रहपरिमाण- सचित्तेन मिश्रः शबलः आहारः सन्मिश्राहारः, यथाव्रत का नामान्तर है।
आर्द्रक-दाडिमबीज-कूलिका-चिर्भटिकादिमिश्रः पूरसन्दिग्ध अर्थ-किमयं स्थाणुः पुरुषो वेति चलित. णादिः, तिल मिश्रो यवधानादिर्वा, अयमप्यनाभोगाप्रतिपत्तिविषयभूतो ह्यर्थः सन्दिग्धोऽभिधीयते । (प्र. दिनातिचारः। अथवा सम्भवत्सचित्तावयवस्यापक्व. क. मा. ३-२१, पृ. ३६६) ।
कणिक्कादेः पिष्टत्वादिना प्रचेतनमिति बद्धया
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सपक्ष]
१०८६, जैन-लक्षणावली
[समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म
माहारः सन्मिश्राहारः व्रतसापेक्षत्वादतिचारः । १ प्रश्न के वश एक ही वस्तु में जो प्रत्यक्ष और (योगशा. स्वो. विव. ३-६८)।।
अनुमान प्रमाण से अविरुद्ध विधि और प्रतिषेष को सचित्त से मिले हुए पाहार को सम्मिश्राहार कहते कल्पना की जाती है उसे सप्तभंगी कहते हैं। हैं। जैसे-अदरख, अनार के बीज, कुलिका और सप्तमी प्रतिमा-सप्तमासान् (पूर्वप्रतिमानुष्ठानखीरे के बीजों से मिश्रित पूरण प्रादि; अथवा तिलों सहितः) सचित्ताहारान् परिहरतीति सप्तमी । से मिश्रित यवधान प्रादि । अथवा सचित्त अंशों से (योगशा. स्वो. विव. ३-१४८)। सहित कच्ची कणिक्क को पीसे जाने से अचित्त पूर्व छह प्रतिमाओं के अनुष्ठान सहित जो सात मानकर ग्रहण करना, यह सन्मिश्राहार है । वह मास पर्यन्त सचित्त भोजनों का परित्याग किया भोगोपभोगपरिमाणवत को दूषित करने वाला करता है वह सातवीं प्रतिमा का परिपालक होता है। उसका एक अतिचार है।
सभ्य--१. आदित्यवद्यथावस्थितार्थप्रकाशनप्रतिभा: सपक्ष-साध्यसजातीयधर्मा धर्मी सपक्षः । (न्यायदी. सभ्याः । (नीतिवा. २८-३, पृ. २६५); २. तथा पु. ८३)।
च गुरु:-यथादित्योऽपि सर्वार्थान् प्रकटान करोति साध्य का सजातीय धर्म जहां रहता है उसे सपक्ष च । तथा च व्यवहारार्थान् ज्ञेयास्तेऽमी सभासदः॥ कहते हैं। जैसे-पर्वत में धूम हेतु से अग्नि के (नीतिवा. टी. २८-३)। सिद्ध करने में रसोईघर।।
१ जो सूर्य के समान अपनी प्रतिभा से यथावस्थित सपृथक्त्व-द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति गुणाद् गुणान्तरं पदार्थों को प्रकाशित किया करते हैं वे राजसभा ब्रजेत् । पर्यायादन्यपर्यायं सपृथक्त्वं भवत्यतः ॥ के सभ्य (सभासद्) माने जाते हैं। (भावसं. वाम. ७०५)।
सम (परमाणु)--- गुणाविभागपडिच्छेदेहि ल्हुक्खप्रथम शुक्ल ध्यान में एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य, एक पोग्गलेण सरिसो णिद्धपोग्गलो समो णाम । (धव. गुण से दूसरे गुण और एक पर्याय से दूसरी पर्याय पु. १४, पृ. ३३)। को प्राप्त होता है, इसलिए उसे सपृथक्त्व कहा जो स्निग्ध पुद्गल अपने गुणाविभागप्रतिच्छेदों को जाता है।
अपेक्षा रूक्ष पदगल के समान होता है उसे सम सप्तभंगी-१. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन कहते हैं। विधि-प्रतिषेधविकल्पना सप्तभङ्गी । एकस्मिन् वस्तु- समगेय-ताल-वंश-स्वरादिसमनुगतं समम् । (रायनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणेनाविरुद्धा विधि- प. मलय. वृ. पृ. १६२) । प्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गो विज्ञेया। (त. वा. १, ताल, वंश और स्वर प्रावि से संयुक्त गेय समगेय ६,५)। २. द्रव्य-पर्याय-सामान्य-विशेषप्रविभाग- कहलाता है।
गद्विधि-प्रतिषेधाभ्यां सप्तभङी प्रवर्तते ॥ समचतरत्रसंस्थान नामकर्म-..१. तत्रोधिोम(न्यायवि. ४५१-५२)। ३. द्रव्य-पर्याय-सामान्य- ध्येषु समप्रविभागेन शरीरावयवसन्निवेशव्यवस्थापन विधान-प्रतिषेधनः ॥ सह-क्रमविवक्षायां सप्तभङ्गी कशलशिल्पिनिर्वतितसमस्थितिचक्रवत् अवस्थानकरं तदात्मनि । (प्रमाणसं. ७३-७४) । ४. एकस्मिन्न- समचतुरस्रसंस्थाननाम । (त. वा. ८, ११, ८)। २. विरोधेन प्रमाण नयवाक्यतः । सदादिकल्पना या च समं च तच्चतुरस्रं चेति समचतुरस्रम्, यतस्तत्र मानो. सप्तभंगीति सा मता ॥ (कातिके. टी. २२४ उद.)। मानप्रमाणमन्यूनाधिकमंगोपांगानि चाधिकृतावय५. एकत्र वस्तुन्येकपर्याय निरूपितविधि-निषेधकल्पना वानि, अध ऊर्ध्व तिर्यक् च तुल्यम्, स्वांगुलाष्टशतोमूल-सप्तधर्मप्रकारकोद्देश्यशाब्दबोधजनकता पर्याप्त्य- च्छायांगोपांगयुक्तं युक्तिनिर्मितलेप्यकवद्वा । (त. धिकरणं वाक्यं सप्तभंगी। (प्रष्टस. यशो. वृ. १४)। भा. हरि. वृ. ८-१२) । ३. समं तुल्यारोहपरिणाम ६. विहि-णिसेहावत्तव्वभंगाणं पत्तेयदुसंजोय-तिसंजोय- संपूर्णांगोपांगावयवं स्वांगुलाष्टशतोच्छायं समचतुजादाणं तिण्णि तिणि एगसंभोयाणं मेलणं सप्तभंगी। रसम । (प्रनयो. हरि. व. पृ. ५७) । ४. जस्स (अंगप. पृ. २८८)।
कम्मस्स उदएण जीवाणं समचउरससंठाणं होदिल. १३७
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समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म]
१०६०, जैन-लक्षणावली
[समनस्क
तस्स कम्मस्स समचउरससंठाणमिदि सण्णा । (धव. ९८% भ. प्रा. मला. ७०)। पु. ६, पृ. ७१); चतुरं शोभनम्, समन्ताच्चतुरं १ शत्रु, व मित्र, मणि व पत्थर तथा सुवर्ण और समचतुरम्, समानमानोन्मानमित्यर्थः। समचतूरं मट्टी में राग और द्वेष का उत्पन्न न होना; इसे च तत् शरीरसंस्थानं च समचतुरशरीरसंस्था- समता कहते हैं। ५ राग-द्वेष के कारणों में मध्यस्थ नम, तस्य संस्थानस्थ निर्वर्तकं यत्कर्म रहना-न राग करना और न द्वेष करना, इसका तस्याप्येषव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात । (धव. नाम समता है। पु. १३, पृ ३६८) । ५. समचतुरस्रं संस्थानं । समदत्ति- १. समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रिया-मन्त्रयथा प्रदेशावयवं परमाणनामन्यूनाधिकता । (मूला. व्रतादिभिः । निस्तारकोत्तमायेह भू-हेमाद्यतिसर्जवृ. १२-४६)। ६. तत्र समाः सामुद्रिकशास्त्रोक्त- नम् । समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । प्रमाणलक्षणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयश्चतुर्दिग्विभा- समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयान्विता ।। (म. पु. गोपलक्षिता: शरीरावयवा यस्य तत्समचतुरस्रम, ३८,३८-३६)। २. समदत्तिः स्वसमक्रियाय मित्राय समासान्तोऽत-प्रत्ययः, समचतुरस्रं च तत्संस्थानं च निस्तारकोत्तमाय कन्या-भूमि सूवर्ण-हस्त्यश्व-रथसमचतुरस्रसंस्थानम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६८, रत्नादिदानं स्वसमानाभावे मध्यमपात्रस्यापि दानम् । पृ. ४१२); यदुदयादसुमतां समचतुरस्रसंस्थानमुप- (चा. सा. पृ. २०, कार्तिके. ३६१) । ३.XX जायते तत्समचतुरस्रसंस्थाननाम। (प्रज्ञाप. मलय. X बुभक्षषु गहस्थेषु वात्सल्येन यथामनुग्रहः समावृ. २६३, पृ. ४७३) ।
नदत्तिः । (सा. घ. स्वो. टी. २-५१) । १ जिस नामकर्म के उदय से कुशल कारीगर के १ जो क्रिया, मन्त्र और व्रत प्रादि से अपने समान द्वारा निमित समान स्थिति वाले चक्र के समान है ऐसे निस्तारकोत्तम- संसार समुद्र से पार उतारने शरीरगत अवयवों की रचना ऊपर, नोचे और वाले गृहस्थों में श्रेष्ठ गृहस्थ के लिए-अथवा मध्यम मध्य में समान विभागों को लिए होती है उसे पात्र के लिए जो श्रद्धापूर्वक समान प्रादर भाव से समचतुरस्त्रसंस्थान कहते हैं। २ जिसके प्राश्रय से पृथिवी व सुवर्ण प्रादि को दिया जाता है, इसे शरीर में सब ओर मान, उन्मान व प्रमाण हीना- समदत्ति कहते हैं। धिक नहीं होता है। अंग और उपांग अधिकृत प्रव- समधी-निर्ममो निरहंकारो निर्माण-मद-मत्सरः । यवों से परिपूर्ण होते हैं। प्राकार नीचे, ऊपर निन्दायां संस्तवे चैव समधी शंसितव्रतः ॥ (उपाव तिरछे में समान होता है, तथा युक्ति से निर्मित । सका. ८६६)। मति के समान शरीर अपने अंगल से पाठ सौ जो ममकार और अहंकार से रहित होकर मान, अंगुल ऊंचाई से सहित अंग-उपांगों से सहित होता मद व मत्सर भाव को छोड़ चुका है तथा निन्दा व है उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं।
स्तुति में विषाद व हर्ष को नहीं प्राप्त होता है उस समता--१. सत्तु-मित्त-मणि-पाहाण-सुवण्ण-मट्टि- प्रशस्त व्रतों से संयक्त महापुरुष को समधी कहना यासु राग-दोसाभावो समदा णाम । (धव. पु.८, चाहिए। पृ. ८४) । २. समदा समभाव: जीवित-मरण-लाभा. समनस्क- देखो संज्ञी। १. संज्ञिनः समनस्काः । लाभ-संयोग-विप्रयोग-सुख-दुःखादिषू रागद्वेषयोरकर. (त. सू. दि. २-२४; श्वे. २-२५) । २. सम्प्रणम् । (भ. प्रा. विजयो. ७८)। ३. समस्य भावः धारणसंज्ञायां संज्ञिनो जीवाः समनस्का भवन्ति । समता, राग-द्वेषादिरहितत्वं त्रिकालपंचनमस्कार- सर्वे नारक-देवा गर्भव्युत्क्रान्तयश्च मनुप्यास्तिर्य ग्योकरणं वा । (मूला. वृ. १-२२) । ४. लाभालाभ- निजाश्च केचित् । ईहापोहयुक्ता गुण-दोषविचारसुख-क्लेशप्रमुखे समतामतिः । स्वायत्तकरणस्वान्तः णात्मिका सम्प्रधारणसंज्ञा। तां प्रति संज्ञिनो विवक्षिज्ञानिनः समता मता ॥ (प्राचा. सा. १-३४)। ताः, अन्यथा ह्याहार-भय-मैथुन-परिग्रहसंज्ञाभिः सर्व ५. समता राग-द्वेषहेतुषु मध्यस्थता। (योगशा. एव जीवाः संज्ञिन इति । (त. वा. २-२५) । स्वो. विव. ३-८२, पृ. ५०३)। ६. समता जीवित- ३. मीमंसइ जो पुन्वं कज्जमकज्जं च तच्चमरणादिषु रागद्वेषयोरकरणम् । (अन. घ. टी. ७, मिदरं च । सिक्खइ णामेणेदि य समणो XX
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समनस्क]
१०६१, जैन-लक्षणावली
[समभिरूढन
x ॥ (प्रा. पंचसं. १-१७४; गो. जी. ६६२)। शक्तस्य या क्रियेष्टेह सा समन्तानुपातिकी ॥ (त. ४. मनसो द्रव्य-भावभेदस्य सन्निधानात् समनस्काः। श्लो. ६, ५, १५)। ४. समन्तानुपातक्रिया स्त्री(त. श्लो. २-११)। ५. नोइन्द्रियावरणस्यापि पुरुष नपुंसक-पशुसंपातदेशे उपनीयवस्तुत्यागः । (त. क्षयोपशमात् समनस्काः । (पंचा का. ११७)। भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। ५. स्त्री-पुरुष-पश्वाद्यागमन६. गृह्णाति शिक्षते कृत्यमकृत्यं सकल तदा । नाम्ना प्रदेशे मल-मूत्राद्युत्सर्जनं समन्तानुपातन क्रिया । (त. हतः समभ्येति समनस्को xxx ॥ (पंचसं. वृत्ति श्रुत. ६-५) । अमित. ३२०, पृ. ४४) । ७. समस्तशुभाशुभवि- १ जिस स्थान में स्त्री-पुरुष प्रादि के.पाने-जाने का कल्पातीतपरमात्मद्रव्य विलक्षणं नानाविकल्पजालरूपं सम्बन्ध रहता है ऐसे स्थान में भीतरी मल मादि मनो भण्यते, तेन सह ये वर्तन्ते ते समनस्काः ।। का त्याग करना, इसे समन्तानपातनक्रिया कहते हैं । (ब. द्रव्यसं. टी. १२)। ८. पूदगल विपाकिकर्मो- समपदासन-समपदं स्फिपिडसमकरणेणासनम् । दयापेक्षं द्रव्यमनः, वीर्यान्तराय-नोइन्द्रियावरणक्षयोप- (भ. प्रा. विजयो. व मला. २२४) । शमापेक्षया पात्मनो विशुद्धिर्भावग्न, ईवृग्विधेन स्फिच और पिण्ड को समान करके स्थित होना, मनसा वर्तन्ते ये ते समनस्काः । (त. वृत्ति श्रुत. इसे समपद प्रासन कहा जाता है। २-११):
समपाद---१. समपायं नाम दोऽवि पादे सम निरंतरं १ संज्ञी जीवों को समनस्क कहा जाता है। ठवेइ । (प्राव. नि. मलय. व. १०३६, प. २ जिसके प्राश्रय से जीव दीर्घ काल तक स्मरण ५६७) । २. द्वावपि पादो समौ निरतरं यत्स्थापयति रख सकता है तथा भत-भविष्यत के विचार के जानुनी ऊरु चातिसरले करोति तत्समपादम । साथ कर्तव्य कार्य का भी विचार करता है उस (व्यव. भा. मलय, वृ. पी. द्वि. वि. ३५)। संप्रधारण संज्ञा में वर्तमान संज्ञी जीव समनस्क २ दोनों पांवों को अन्तर के विना समरूप में स्था- . होते हैं। वे संज्ञी जीव देव, नारक, मनष्य और पित करके घुटनों और ऊरुषों को अतिशय सरल कितने ही तिथंच भी होते हैं। इस संप्रधारण संज्ञा करने पर समपाद स्थान होता है। के प्राश्रय से ही संज्ञो समझना चाहिए, न कि समभिरूढनय--१. सत्स्वर्थेष्वसङ्क्रमः समभिआहारादि चार संज्ञानों के प्राश्रय से। ३ कार्य के रूढः । (त. भा. १-३५, पृ. १२०); तेषामेव करने के पूर्व जो उसके करने योग्य या न करने साम्प्रतानामध्यवसायासंक्रमो वितर्कध्यानवत् समयोग्य का विचार करता है, तत्त्व-प्रतत्त्व का भी भिरूढः । (त. भा. १-३५, पृ. १२४) । २. नानाविचार करता है, सीखता है, तथा नाम लेने से थंसमभिरोहणात् समभिरूढः । यतो नानार्थान् समपाता है। वह समनस्क-मन से सहित होता है। तीत्यैकमर्थमाभिमुख्येन रूढः समभिरूढः । यथा समनोज्ञ-देखो सम्भोग । १. सम्भोगयुक्ताः सम- गोरित्यय शब्दो वागादिष्वर्थेषु वर्तमानः पशावभिनोज्ञाः । (त. भा. ६-२४) । २. सह वा मनोजर्जा- रूढः । (स. सि. १-३३)। ३. वत्थूप्रो संकमणं नादिभिरिति समनोज्ञाः साम्भोगिका: साधवः । होइ अवत्थू नए समभिरूढ । (अनुयो. गा..१३६, प. (स्थानां. अभय. वृ. १७४) ।
२६४) । ४. ज ज सण्णं भासइ तं तं चिय समभि१ बारह प्रकार के संभोग से जो सहित होते हैं वे रोहए जम्हा। सण्णंतरत्थविमुहो तो नम्रो समसमनोज्ञ कहलाते हैं। अथवा जो मनोज्ञ ज्ञानादि से भिरूढोत्ति । (विशेषा. २७२७)। ५.नानार्थसमभिसाहित होते हैं उन्हें समनोज्ञ कहा जाता है। रोहणात्समभिरूढः। यतो नानार्थान् समतीत्यकमर्थसमन्तानुपातनक्रिया--१. स्त्री-पुरुष-पशुसम्पा- माभिमुख्येन रूढस्ततः समभिरूढः। कुतः ? वस्त्वतिदेशेऽन्तर्मलोत्सर्गकरणं समन्तानुपातनक्रिया। (स. · न्तरासंक्रमेण तन्निष्ठत्वात् । (त. वा. १,३३, १०)। सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ६)। २. स्त्री-पुंस-पशु- ६. नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढः । (त. भा. संपातिदेशेऽन्तर्मलमोक्षणम । क्रिया साधुजनायोग्या हरि. व. १-३५; अनयो. हरि. व. प. १०८)। सा समन्तानुपातिनी ॥ (ह. पु. ५८-७२)। ७. नानाथरोहणात्समभिरूढः । xxx नानार्थस्य ३. स्त्र्यादिसंपातिदेशेऽन्तमलोत्सर्गः प्रमादिनः । भावः नानार्थता, तां समभिरूढत्वात्समभिरूढः ।
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समभिरूढनय]
१०६२, जन-लक्षणावली [समय (कालविशेष) (धव. पु. १, पृ.८९-९०)। ८. नानार्थसमभिरो- समभिरूढो नयः । (त. वृति श्रुत. १-३३; कातिहणात् समभिरूढः-इन्दनादिन्द्रः शकनाच्छक्र: पूर्दा- के. टी. २७६) । रणात पुरन्दर इति । नैते एकार्थवाचकाः, भिन्नार्थ- १ विद्यमान अर्थात वर्तमान पर्याय को प्राप्त पदार्थों प्रतिबद्धत्वात् । पदभेदान्यथानुपपत्तेरर्थभेदेन भवि- को छोड़कर दूसरे पदार्थ में जो शब्द की प्रवृत्ति तव्यमित्यभिप्रायवान् समभिरूढ इति बोद्धव्यः। नहीं होती है, उसे समभिरूढ नय कहते हैं । २ शब्द (जयध, १, प. २४०) । ६. शब्दभेदेऽर्थभेदार्थी अनेक अर्थों को छोड़कर जो प्रमुखता से एक ही व्यक्तपर्याय शब्दकः । नयः समभिरूढोऽर्थो नानासम- पदार्थ में रूढ होता है, इसे समभिरूढनय कहा भिरोहणात् ॥ (ह. पु. ५८-४८) । १०. पर्याय- जाता है। शब्दभेदेन भिन्नार्थस्याधिरोहणात् । नय: समभिरूढः समभिरूढनयाभास -- पर्यायनानात्वमन्तरेणापीस्यात पूर्ववच्चास्य निश्चयः ।। (त. श्लो. १ न्द्रादिभेदकथनं तदाभासः । (प्रमेयर. ६-७४) । ३३, ७६) । ११. सतां विद्यमानानां वर्तमानकाला- पर्याय की भिन्नता के विना जो इन्द्र आदि में भेद वधिकानां सम्बन्धी योऽध्यवसायासक्रमः स समभि- किया जाता है, यह सनभिरूढनयाभास का लक्षण रूढः । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-३५)। १२. ज्ञेयः है। समभिरूढोऽसौ शब्दो यद्विषयः स हि । एकस्मिन्न- समय (कालविशेष)-१. परमसूक्ष्मक्रियस्य भिरूढार्थ नानार्थान् समतीत्य यः ॥ (त. सा. सर्वजधन्यगतिपरिणतस्य परमाणोः स्वावगाहनक्षेत्र१-४६)। १३. सद्दारूढो अत्थो अत्थारूढो तहेव व्यतिक्रमकाल: समय इत्युच्यते परमदुरधिगमोऽनिपुण सद्दो। भणइ इह समभिरूढो जह इंद पुरंदरो र्देश्यः । (त. भा. ४-१५)। २. कालो परमनिरुद्धो सक्के ।। (ल. नयच. ४२; द्रव्यस्व. प्र. नयच. अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । (ज्योतिष्क.८)। २१४)। १४. परस्परेणाभिरूढाः समभिरूढाः, ३. कालो परमनिरुद्वो अविभागी तं तु जाण समयो शब्दभेदेऽप्यर्थ भेदो नास्ति, यथा शक्रः इन्द्रः पुरंदर ति। (जी बस. १०६)। ४. परमाणुस्स णिपट्ठिदइत्यादयः समभिरूढाः। (पालापप. पू. १४६)। गयणपदेसस्सदिक्कमणमेतो। जो कालो पविभागी १५. जो एगेगं अत्थ परिणदिभेएण साहए अत्थं। होदि पुढं समयणामा सो।। (ति. प. ४-२८५) । मक्खत्थं वा भासदि अहिरूढं तं णयं जाण ।। ५. कालं पुनर्योगविभागमेति निगद्यतेऽसौ समयो (कातिके. २७६) । १६. तथा पर्यायाणां नानार्थ- विधिज्ञैः । (वरांच. २७-३, । ६. सर्व जघन्य गतितया समभिरोहणात्समभिरूढः, न ह्ययं घटादिपर्या- परिणतस्य परमाणोः स्वावगाढप्रदेशव्यतिक्रमकाल: याणामेकार्थतामिच्छति । (सूत्रकृ. सू. शी. व. २, परमनिषिद्धो निविभाग: समयः। (त. वा. ३-३८)। ७, ८१, पृ. १८८)। १७. नानार्थान् समेत्याभि- ७. काल: परमनिकृष्ट: समयोऽभिधीयते । (प्राव. मुख्येन रूढः समभिरूढः । (प्र. क. मा. ६-७४, पृ. नि. हरि. व. ४ ब ६६३, नन्दी. हरि. व. पु. ७३; ६८० । १८. पर्यायभेदात्पदार्थनानात्वनिरूपकः प्राव. नि. मलय. वृ. ६६६)। ८. अणोरण्वंतरसमभिरूढः। (प्रमेयर. ६-७४) । १६. प्रत्यर्थ- व्यतिक्रमकाल: समयः । चोद्दसरज्जुमागासपदेसमेकैकसंज्ञाभिरोहणादिन्द्र-शक्र-पुरन्दरपर्यायशब्दभेद- कमण मेत्तकालेण जो चोद्दसरज्जुकमणक्खमो परनात् समभिरूढः। (मूला. वृ. ४-६७)। २०.। माणू तस्स एगपरमाणुक्कमणकालो समप्रो णाम । वाचकं वाचकं प्रति वाच्य भेदं समभिरोहयति (धव. पु. ४, पृ. ३१८)। ६. परिणामं प्रपन्नस्य माश्रयति यः स समभिरूढः, स हि अनन्त- गत्या सर्वजघन्यया । परमाणोनिजागाढस्वप्रदेशरोक्तविशेषणस्यापि वस्तुनः शक्र-पुरन्दरादिवाचक- व्यतिक्रमः ॥ कालेन यावतव स्यादविभागः स भेदेन भेदमभ्युपगच्छति घट-पटादिवत्, यथा शब्दा-- भाषितः । समयः समयाभि निरुद्धः परमास्थितः ।। र्थो घटते चेष्टते इति घट इत्यादिलक्षणः । (स्थानां. (ह. पु. ७, १७-१८)। १०. अणुअंतरयरु समउ प्रभय. वृ. १८६)। २१. पर्यायशब्दभेदादर्थभेद- भणिज्जइ xxx। (म. पु. पुष्प. २-५, पृ. कृत्समभिरूढनयः । (लघीय. ७२, पृ. ६२)। २२)। ११. परमाणुप्रचलनायत्तः समयः । (पंचा. २२. एकमप्यर्थं शब्दभेदेन भिन्नं जानाति यः सः का. अमृत. व. २५) । १२. अणोरण्वन्तरव्यति
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समय (कालविशेष)] १०९३, जैन-लक्षणावली
[समयप्रबद्धशेषक क्रमः कालः समयः । (मूला. व. १२-८५)। भी एक रूपवाला है, गति-स्थिति आदि की निमित्तता १३. मंदगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुना निमित्तभूतेन से रहित व असाधारण चैतन्यस्वभाव से सहित होने व्यक्तीक्रियमाण: समयः । (पंचा. का. जय. व. २५)। के कारण अन्य धर्माधर्मादि द्रव्यों से भिन्न है, तथा १४. एकस्मिन्नभःप्रदेशे य: परमाणुस्तिष्ठति तमन्यः कभी भी अपने स्वभाव से च्यत न होने के कारण परमाणुर्मन्दचलनाल्लंघयति स समयो व्यवहारका- टांकी से उकेरे गये के समान चैतन्य स्वभाव वाला लः । (नि. सा. वृ. ३१)। १५. णहएयपएसत्थो है; ऐसे इन लक्षणों से युक्त जीवपदार्थ का नाम परमाणू मंदगइपवट्टतो। वीयमणतरखेत्तं जावदियं समय है। जादि तं समयकालं ॥ (द्रव्यस्व. भाव. प्र. नयच. समयक्षेत्र–अड्ढाइज्जा दीवा दो य समुद्दा एस णं. १३६) । १६. आकाशस्यैकप्रदेशस्थितपरमाणुर्मन्द- एवइए समयक्खेत्ते त्ति पवृच्चति । (भगवती २, ६, गतिपरिणतः सन् द्वितीयमनन्तरक्षेत्र यावद्याति सः ५२, पृ. ३०३ प्र. खं.)। समयाख्यः कालः। (कातिके. टी. २२०)। अढ़ाई द्वीप (जम्बद्वीप. धातकीखण्ड और प्राधा १ अतिशय सूक्ष्म क्रिया से संयुक्त व सबसे जघन्य पुष्कर द्वीप) प्रोर लवण व कालोद ये दो समुद्र, गति में परिणत परमाणु का जो अपने अवगाहन- इतने मात्र क्षेत्र को समयक्षेत्र कहा जाता है। क्षेत्र के लांघने का काल है उसका नाम समय है। समयद्योतक–समयद्योतको वादित्वादिना मार्ग४ जिस आकाशप्रदेश में परमाणु स्थित है उसके प्रभावकः । (सा. ध. स्वो. टी. २-५१)।। लांघने में उसे जितना काल लगता है उतने मात्र जो वादित्व प्रादि विशेषतानों के द्वारा मोक्षमार्ग काल को समय कहते हैं, वह विभाग से रहित है। को प्रभावना किया करता है उसे समयद्योतक समय (जीव)--१. योऽयं नित्यमेव परिणामा त्मनि स्वभावे अवतिष्ठमानत्वादुत्पाद-व्यय-ध्रौव्य- समयप्रबद्ध--१. ताहिं अणंतहिं णियमा समयक्यानुभूतिलक्षणया सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नि- पबद्धो हवे एक्को। (गो. जी. २४५)। २. ताभि त्योदितविशददशि - ज्ञप्तिज्योतिरनन्तधर्माधिरूढेक- वर्गणाभिरनन्ताभिः सिद्धानन्त भागा भव्यानन्तगुणमित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्र- प्रमिताभिनियमादेक: समयप्रबद्धो नाम योग्यपुद्गलभावस्वभावत्वादुत्सगितगुण-पर्यायः स्व-पराकाराव- स्कन्धो भवति । समयेन प्रबद्धते स्म कर्म-नोकर्मभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्वरूप्यकरूप: प्रतिविशिष्टाव- रूपतया प्रात्मना सम्बध्यते स्म यः पुद्गलस्कन्धः स गाहगति-स्थिति-वर्तनानिमित्तत्त्वरूपित्वाभावासाधार- समयप्रबद्ध इति निरुक्तिसिद्धः, आत्मना मिथ्यादर्शनाणचिद्रूपतास्वभावसभावाच्चाकाश-धर्माधर्म - काल- दिसंक्लेशपरिणामः प्रतिसमयं कर्म-नोकर्मरूपतया पुद्गलेभ्यो भिन्नोऽन्यन्तमनन्तद्रव्यसंकरेऽपि स्वरूपा- परिणममानस्तत्तद्योग्यपुद्गलस्कन्धः समयप्रबद्ध इति दप्रच्यवनात् टंकोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो नाम स्थाद्वादप्रसिद्धो बोद्धव्यः । (गो. जी. म. प्र. व जी. पदार्थः, स समयः। (समयप्रा. अमृत. वृ. २)। प्र. २४५) । २. सम्यगयति गच्छति शुद्धगुण-पर्यायान् परिणमतीति २ सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण और प्रभव्यों से समयः । अथवा सम्यगयः संशयादिरहितो बोधो ज्ञानं अनन्तगणी वर्गणाओं से एक समयप्रबद्ध नामक यस्य भवति स समयः । अथवा समित्येकत्वेन परम- पुद्गलस्कन्ध होता है। मिथ्यादर्शनादि संक्लेशसमरसीभावेन स्वकीयशुद्धस्वरूपे अयनं गमनं परिण- परिणामों के वश प्रत्येक समय में कर्म-नोकर्मरूप से मनं समयः । (समयप्रा. जय. वृ. १६१)। परिणत होकर उतना पुद्गलस्कन्ध बंधता है, १. जो परिणमनशील होने से उत्पाद, व्यय और इसलिए उसे समयप्रबद्ध कहा जाता है। ध्रौव्य की एकता के अनुभवन स्वरूप सत्ता से समयप्रबद्धशेषक-जं समयपबद्धस्स वेदिदसे सग्गं अन्वित है, नित्य प्रकाशमान दर्शन व ज्ञानरूप ज्योति पदेसग्गं दिस्सइ, तम्मि अपरिसे सिदम्हि एगसमएण से सहित है, अनन्त धर्मों से सहित होने के कारण उदयमागदम्हि तस्स समयपबद्धस्स अण्णो कम्मपदेसो द्रव्यस्वरूप को प्राप्त है, गुण-पर्यायों से संयुक्त है, वा पत्थि तं समयपबद्धसेसगं णाम । (कसायपा. चू. स्व-परावभासी होने से विश्वरूपता को प्राप्त होकर पृ. ८३३) ।
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समयमूढ]
१०६४, जैन-लक्षणावली
[समवाय
समयप्रबद्ध अर्थात् एक समय में बंधे हुए कर्मप्रदेशों श्रितः । (सा. घ. स्वो. टी. २-५१) । का वेदन करने से जो प्रदेशाग्र शेष रहें और जिनका १ समीचीन दयापूर्वक जो जीवों में प्रवर्तन होता है अपरिशेषित या सामस्त्यरूप से एक समय में उदय उसका नाम समय है, इस प्रकार के समय से जो पाने पर फिर कोई कर्मप्रदेश शेष न रहे, ऐसे उन सहित हो उसे समयिक कहा जाता है। २ गृहस्थ शेष कर्मप्रदेशानों को समय प्रबद्धशेष कहते हैं। हो, चाहे मुनि हो, जो जिनागम के आश्रित होता समयमढ--१. रत्तवड-चरग-तावस-परिहत्तादी य है उसे समयिक कहते हैं। अण्णपासंडा । संसारतारगत्ति य जदि गेण्हइ समयमूढो समयोग-- लोगे पूण्णे एगा वग्गणा जोगस्सेत्ति । सो ॥ (मला. ५-६२) । २. अज्ञानिजनचित्तचम- लोगमेत्तजीवपदेसाणं लोगे पूण्णे समजोगो होदि कारोत्पादकं ज्योतिष्क-मंत्र वादादिकं दृष्ट्वा वीत- त्ति वुत्तं होदि। (धव. पु. १०, पृ. ४५१) । रागसर्वज्ञप्रणीतसमयं विहाय कुदेवागम-लिङ्गिनां लोकपूरणसमुद्घात में लोक के पूर्ण होने पर योग
को एक वर्गणा होती है। अभिप्राय यह है कि लोक रादिकरणं समय मूढत्वम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४१)। के पूर्ण होने पर लोक प्रमाण जीवप्रदेशों का सम१ रक्तपट, चरक, तापस और परिव्राजक तथा योग होता है। अन्य भी पाखण्डी साधुओं को, ये संसार से पार समतित्व-देखो समवाय । १. द्रव्य-गुणानामेकाकरने वाले हैं, ऐसा मान करके जो ग्रहण करता है स्तित्वनिर्वृत्तत्वादनादिरनिधना सहवृत्तिहि समवउसे समयमढ कहते हैं।
तित्वम्, स एव समवायो जैनानाम् । (पचा. का. समयविरुद्ध --- समयविरुद्धं स्वसिद्धान्त विरुद्धम् । अमत. व. ५०)। २. समवृत्तिः सहवृत्तिर्गुण-गुणिनो: यथा साङ्ख्यस्यासत्कारणे कार्य सद्वैशेषिकस्य कथंचिदेकत्वेनानादितादात्म्यसम्बन्ध इत्यर्थः । (पंचा. इत्यादि । (प्राव. नि. मलय. व. ८८३, पृ. ४८३)। का. जय. व. ५०)। अपने मत के विरुद्ध वचनं को मयविरुद्ध कहा १ द्रव्य और गुणों के एक अस्तित्व से रचित होने जाता है। जैसे - सत्कार्यवादी सांख्य का कारण में के कारण अनादि-अनन्त जो सहवत्ति-साथ साथ कार्य को प्रसत कहना तथा वैशेषिक का उसे कारण रहना है, इसे समतित्व नाम से कहा जाता है। में सत् कहना; इत्यादि। यह ३२ सूत्रदोषों में वही जैनों के यहां समवाय सम्बन्ध है। २४वां है।
समवदानकर्म-- समयाविरोधेन समवदीयते खण्डसमयसत्य--१. प्रतिनियतषट्तय द्रव्य-पर्यायाणा- यत इति समवदानम, समवदानमेव समवदानता। मागमगम्यानां याथात्म्याविष्करणं य द्वचस्तत्समय- कम्मइयपोग्गलाण मिच्छत्तासंजम-जोग-कसाएहि सत्यम् । (त. वा. १,२०, १२, पृ. ७५; धव. पु. अट्टकम्मसरूवेण सत्तकम्मसरूवेण छकम्मसरूवेण वा १, पृ. ११८)। २. द्रव्य-पर्याय भेदानां याथात्म्य- भेदो समुदाणद इति वुत्तं होदि। (धव. पु. १३, प्रतिपादकम् । यत्तत्समयसत्यं स्यादागमार्थपर वचः॥ पृ. ४५)। (ह. पु. १०-१०७)। ३. सिद्धान्तः समयस्तेन आगमाविरोध से जो खण्डित या विभाजित किया प्रसिद्धान्तप्ररूपणम् । वच: समयसत्यं स्यात् प्रमाण- जाता है उसका नाम समवदान है। समवदान और नयसंश्रयम् ।। (प्राचा. सा. ५-३८)।
समवदानता इन दोनों में कोई अर्थभेद नहीं है। १ पागमगम्य प्रतिनियत छह द्रव्यों व उनकी पर्यायों मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषायों के द्वारा की यथार्थता के प्रगट करने वाले वचन को समय- पाठ, सात अथवा छह कर्मों के स्वरूप से जो कर्मसत्य कहते हैं।
पुद्गलों का भेद होता है उसे समवदानता कहा समयिक---१. समयिकमिति सम्यक्शब्दार्थ समित्यु- जाता है। पसर्गः, सम्यक् अयः समयः-सम्यग्दयापूर्वकं जीवेषु समवाय-देखो समवर्तित्व । १. समवत्ती समप्रवर्त्तनम, समयोऽस्यास्तीति अतोऽनेकस्वरादिति वायो अपुधब्भदो य अजदसिद्धो य । (पंचा. का. मत्वर्थीय इक्प्रत्ययः । (प्राव. नि. मलय. वृ. ८६४, ५०) । २. समवाये (धव. 'सलक्षचतुःषष्ठिपदसहस्र ४७४) । २. समयिको गही यतिर्वा जिनसमय- १६४०००' इत्यधिकः पाठः) सर्वपदार्थानां समवा
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समवाय ]
काल
यश्चिन्त्यते । स चतुर्विधः द्रव्य-क्षेत्र काल-भावविकल्पः । तत्र धर्माधर्मास्तिकाय लोकाकाशैकजीवानां तुल्यासंख्येयप्रदेशत्वादेकेन प्रमाणेन द्रव्याणां सम वायनाद् द्रव्यसमवायः । जम्बूद्वीप-सर्वार्थ सिद्धयप्रतिष्ठान नरक - नन्दीश्वरैकवापीनां तुल्ययोजनशतसहस्रविष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायनात्क्षेत्रसमवायः । ( धव. 'सिद्धि मनुष्यक्षेत्र विमान सीमन्तनरकाणां तुल्ययोजनपंचचत्वारिंशच्छतसहस्र विष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायः' इत्यधिकः पाठः ) उत्सपिण्यवसप्पि योस्तुल्यदशसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणात् समवायनात् कालसमवायः । क्षायिकसम्यक्त्व केवलज्ञान- केवलदर्शन - यथाख्यात चारित्राणां यो भावस्तदनुभवस्य तुल्यानन्तप्रमाणत्वाद् भावसमवायनाद्भावसमवाय: । (त. वा. १ २०, १२; धव. पु. ६, पृ. १६६ - २०० ) । ३. सम्यगवायनं वर्षधर नद्यादिपर्वतानां यत्र स समवायः । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. १ - २० ) । ४. समवायो णाम अंगं चउस द्विसहसम्भहिय एगलक्खपदेहि १६४००० सव्वपयत्थाणं समवायं वण्णेदि । ( धव. पु. १, पृ. १०१ ) । ५. समवायं इहेदं प्रत्ययलक्षणम् । ( प्रा. मी. वसु. वृ. ६५ ) । ६. समिति सम्यक् प्रवेत्याधिक्येन, प्रयनमयः परिच्छेदो जीवाजीवा दिविविधपदार्थसार्थस्य यस्मिन्नसौ समवायः समवयन्ति वा समवतरन्ति संमिलन्ति नानाविधा आत्मादयो भावाः श्रभिधेयतया यस्मिन्नसो समवाय इति । स च प्रवचनपुरुषस्याङ्गमिति समवायाङ्गम् । ( समवा वृ. पू. १ ) ; समवायनं समवायः, सम्यक् परिच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुश्च ग्रन्थोऽपि समवाय: । ( समया वृ. १३९ ) । ७. चतुःषष्टिसहस्रक लक्षपदपरिमाणं द्रव्यतो धर्माधर्म- लोकाकाशकजीवानां क्षेत्रतो जम्बूद्वीपाप्रतिष्ठा ननरक - नन्दीश्वरवापी - सर्वार्थसिद्धिविमानादीनां कालत उत्सर्पिण्यादीनां भावतः क्षायिकज्ञान-दर्शनादिभावानां साम्यप्रतिपादकं समवायनामधेयम् । ( श्रुतभ. टी. ७, पृ. १७३ ) । ८. सम् एकीभावे, श्रव शब्दः पृथक्त्वे, अय् गतौ इण् गतौ वा ततश्च एकीभावेन पृथग्गमनं समवायः संश्लेषः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ७३८, पृ. ३६४ ) । ६. सं संग्रहेण सादृश्यसामान्येन प्रवेयन्ते ज्ञायन्ते जीवादिपदार्था द्रव्य-क्षेत्र काल - भावानाश्रित्य यस्मिन्निति समवायांगम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३५६ ) ।
१०६५, जैन-लक्षणावली
[समाचार
१०. धर्माधर्म - लोकाकाशै कजीव-सप्तनरकमध्य बिलजम्बूद्वीप-सर्वार्थसिद्धिविमानं नन्दीश्वरद्वीप वापिकातुल्यै कलक्षयोजन प्रमाणतिरूपकं भव-भावकथकं चतुःषष्टिपदसहस्राधिकलक्षपदप्रमाणं समवायाङ्गम् । ( त. वृत्ति श्रुत. १ -२० ) । ११. समवायांगं अडकदिसहस्समिगिलक्खमाणुपयमेत्तं । संगहणयेण दव्वं खेत्तं कालं पडुच्च भवं । दीवादी प्रवियति प्रत्था णज्जति सरित्सामण्णा । दव्वा धम्माधम्मा जीवपदेसा तिलोयसमा ॥ सीमंतणरय माणुसखेत्त उडु - इंदयं च सिद्धिसिलं । सिद्धद्वाणं सरिसं खेत्तासयदो मुणेयव्वं ॥ श्रोहिद्वाणं जंबूदीवं सव्वत्थसिद्धिराम्माणं । दोसरवादी वाणिदपुराणि सरिसाणि ॥ समग्र समएण सभो प्रावलिएणं समा हु आवलिया । काले पढमढवीणारय-भोमाण वी (वा) जाणं || सरिसं जहणाऊ सत्तमखिदिणारयाण उक्कस्सं । सव्वद्वाणं श्राऊ सरिसं उस्सप्पिणीपमुहं ॥ भावे केवल - गाणं केवल दसणस माणयं दिट्ठे । एवं जत्थ सरित्थं वेंति जिणा सव्वत्थाणं । ( अंगप. २९ - ३५, पृ. २६३-६४) ।
१ समवृत्ति, समवाय, श्रपृथग्भूत श्रोर श्रयुतसिद्ध ये समानार्थक शब्द हैं । अभिप्राय यह है कि गुण व गुणी श्रादि जो परस्पर में प्रभिन्नरूप से रहते हैं, यही जैनदर्शन के अनुसार उनका समवाय है । २ समवाय नामक चौथे श्रंग में सब पदार्थों के समवाय का विचार किया जाता है। वह समवाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का है। इनके लिए पृथक् पृथक् 'द्रव्यसमवाय' श्रादि उन-उन शब्दों को देखना चाहिए ) । ६ समवाय में 'सम्' का अर्थ सम्यक्, 'श्रव' का अर्थ अधिकता और 'अय' का अर्थ जानना है। जिससे जीव, अजीव प्रादि विविध प्रकार के पदार्थों का ज्ञान प्राप्त होता है वह समवाय श्रंग कहलाता है । अथवा जिस श्रुत में श्रात्मा श्रादि अनेक श्रभिधेय स्वरूप से समवतरित या सम्मिलित होते हैं उसे समवाय अंग जानना चाहिए। यह परमागमरूप पुरुष के ( श्रवयव) जैसा है । समवायाङ्ग - देखो समवाय । समाचार -- १. समदा सामाचारी सम्माचारी समो व श्राचारो । सब्वेसि सम्माणं सामाचारो दुश्राचारो । ( मूला. ४-२, पू. ११० ) । २. समाचरणं
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समादानक्रिया] १०९६, जैन-लक्षणावली
[समाधि समाचार: शिष्टाचरितः क्रियाकलापः । (अनुयो. से दूषित होता है। हरि. व. प.५८)। ३. समः समानः सं सम्यगा- समाधि-१. यथा भाण्डागारे दहने समात्थिते चारो यः समैयुतः। प्राचार्यत इति प्राज्ञैः स समा- तत्प्रशमनमनुष्ठीयते बहूपकारत्वात् तथाऽनेकव्रत-शीचार ईरितः ॥ (प्राचा. सा. २-३) ।
लसमृद्धस्य मुनेस्तपसः कुतश्चित् प्रत्यूहे समुपस्थिते १ राग-द्वेष के प्रभावस्वरूप समता, सम्यक् (निर्दोष) तत्सन्धारणं समाधिः । (स. सि. ६-२४)। २. मुनिप्राचरण, अहिंसा परिपालन प्रादि रूप सबका गणतपःसंधारणं समाधिः भाण्डागाराग्निप्रशमनवत् । समान प्राचार अथवा समान- प्रात्मगौरव से परि- यथा भाण्डागारे दहने समुत्थिते तत्प्रशमनमनुष्ठीयते पूर्ण-पाचरण, ये सब समाचार के पर्याय शब्द हैं। बहुपकारकत्वात् तथाने कव्रत-शीलसमृद्धस्य मुनिगण
शिष्ट जनों के द्वारा जिस क्रियाकलाप का प्राच- स्य तपसः कृतश्चित प्रत्यहे समस्थिते तत्संधारणं रण किया जाता है उसे समाचार कहते हैं। समाधिरिति समाख्यायते । (त. वा. ६, २४, ८)। समादानक्रिया-१. संयतस्स सतोऽविरतिं प्रत्या. ३. समाधि: गूर्वादीनां कार्यकरणेन स्वस्थतापादनम् । भिमुख्यं समादानक्रिया । (स. सि. ६-५)। (प्राव. नि. हरि. वृ. १८०); समाधानं समाधिः २. संयतस्स सत: अविरति प्रत्याभिम खं [ख्य समा- चेतसः स्वास्थ्यं मोक्षमार्गेऽवस्थितिः । (प्राव. हरि. दानक्रिया । (त. वा. ६, ५, ७)। ३. प्राभिमुख्यं ६. प्र. ४, पृ. ६५३) । ४. दसण-णाण-चरित्तेसु प्रति प्राय: संयतस्याप्यसंयमे । समादान क्रिया प्रोक्ता सम्ममवट्ठाणं समाही णाम । (धव. पु. ८, पृ.८%)। प्रमादपरिवधिनी।। (ह. पु. ५५-६४) । ४. संयतस्य ५. यत्सम्यक्परिणामेषु चित्तस्याधानमञ्जसा। स सतः पंसोऽसंयम प्रति यद भवेत । प्राभिमख्यं समा- समाधिरिति ज्ञेयः स्मृतिर्वा परमेष्ठिनाम् ।। (म. पृ. दानक्रिया सा वृत्तघातिनी ॥ (त. श्लो. ६ ५, ६)। २१-२२६) । ६. वैपावृत्त्य-पाध्यसिद्धिसुवपावन५. अपूर्वापूर्वविरतिप्रत्यामुख्यमत्पद्यते यत् तपस्विनः गुणपरिणामा दिनबकाचरणपरेण मुमुक्षुणा सिद्धिसुखसा समादानक्रिया । अन्ये व्याचक्षते-द्विविधा समा- कनिष्ठमनस्कतालक्षणः समाधिः । (भ. प्रा. दानक्रिया समादीयते येन विषयस्तत समादानम् -- विजयो. ३२५)। ७. तस्य (चतुर्विधसंघस्य) समान इन्द्रियम्, तस्य (सर्वोपघातकारि) देशोपधातकारि धानं स्वस्थता निरुपद्रवत्वं समाधिः । (त. भा. सिद्ध. वा समादानक्रिया। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। व.६-२३)। ८. सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं ६. संयतस्य सतः अविरत्याभिमुख्यं प्रयत्नेनोपकर- स्मृतम । एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयफलप्रदः॥ णादिग्रहणं वा समादानक्रिया। (त. वृत्ति श्रुत. (तत्त्वानु. १३७)। ६. समाधानं समाधिः स्वा
स्थ्यम् । (प्राव. नि. मलय. वृ.१०८६, पृ. ५६७)। १ संयत होकर भी जो अविरति के अभिमुख होना १०. प्राप्तानां तु (सम्यग्दर्शनादीनां) पर्यन्तप्रापणं है, इसे समादानक्रिया कहते हैं। ५ तपस्वी के जो समाधिः, ध्यानं वा धर्म-शुक्लं च समाधिः । (रत्नक. अपूर्व अपूर्व विरति के प्रति अभिमुखता उत्पन्न टी. २-२)। ११. स्वरूपे चित्तनिरोधलक्षणः समाहोती है उसका नाम समादानक्रिया है।
धिः । (समाधि. टी. २७)। १२. समाधिः समासमादेश-१.xxxणिग्गंथो त्ति य हवे समा- धानं शुभोपयोगे वा मनस एकताकरणम् । (अन.ध. देसो ॥ (मला. ६-७) । २. xxx निग्गंथाणं स्वो. टी. ७-६८) । १३. 'समाही' समाधानं मनस समाएसं ॥ (पिंडनि.२३०)। ३ ये केचन निर्ग्रन्थाः एकाग्रताकरण शुभ उपयोगे शुद्ध वा। (भ. प्रा. साधव आगच्छन्ति तेभ्यः सर्वेभ्यो दास्यामीत्युद्दिश्य मला. ६७); सिद्धिसुखै कनिष्ठमनस्कतालक्षणः कृतमन्नं निर्ग्रन्था इति च भवेत् समादेशः। (मूला. समाधिः । (भ. प्रा. मूला. ३२५)। वृ. ६-७) । ४. साधूंश्च (उद्दिश्य कृतमन्नं) समा- १ जिस प्रकार भाण्डागार (खजाना) में अग्नि के देशः । (अन. घ. टी. ५-७) ।
लग जाने पर बहुत उपकारक होने से उसे शान्त ३ जो निर्ग्रन्थ साधु प्रावेंगे उन सबको मैं भोजन दूंगा, किया जाता है-बुझाया जाता है-उसी प्रकार इस प्रकार निर्ग्रन्थों के उद्देश से जो भोजन तयार अनेक व्रतों व शीलों से सम्पन्न मुनि के तपश्चरण कराया जाता है वह समादेश नामक प्रौद्देशिक दोष में कहीं से विघ्न के उपस्थित होने पर उसे जो
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समाधिमरण]
१०६७, जैन-लक्षणावलो
[समिति
धारण किया जाता है-शान्त किया जाता है, उसे साधनानां समभ्यासीकरणं समारंभः। (त. श्लो. समाधि कहते हैं। ३ गरु आदिकों के कार्य के करने ६-८)। ६. तत्साधनसन्निपातजनितपरितापनादिसे जो चित्त को स्वस्थ-मोक्षमार्ग में स्थित किया लक्षणः समारम्भः। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। जाता है-इसका नाम समाधि है।
१०. साध्यायाः हिसादिक्रियायाः साधनानां समाहारः समाधिमरण-समाधिमरणं रत्नत्रय काग्रतया प्रा- समारम्भः । (भ. प्रा. विजयो.८११)। ११. साणत्यागः । (सा. घ. स्वो. टी. ७-५८)।
ध्याया क्रियायाः साधनानां समाहारः समारम्भः । रत्नत्रय में एकाग्रचित्त होकर जो प्राणों का परि- (चा. सा. पृ. ३९) । १२. xxx हिंसोपकरत्याग किया जाता है उसे समाधिमरण कहते हैं। णार्जनम् समारम्भो xxx॥ (माचा. सा. समानजातीय द्रव्य-पर्याय-द्वे त्रीणि वा चत्वा- ५-१३)। १३. समारम्भः जीवोपमर्दः Xxx रीत्यादिपरमाणपुदगलद्रव्याणि मिलित्वा स्कन्धा अथवा समारम्भः परितापनम् । (प्रश्नव्या. १३) । भवन्तीत्यचेतनस्यापरेणाचेतनेन सम्बन्धात् समान- १४. यस्तु परस्य परितापकरो व्यापारः स समाजातीयो भण्यते । (पंचा. का. जय. वृ. १६)। रम्भः । (व्यव. भा. पी. मलय. वृ. ४६, पृ.१८)। दो, तीन अथवा चार प्रादि परमाणु पुदगल द्रव्य १५. साध्यायाः हिंसादिक्रियायाः साधनानामभ्यासीमिल करके स्कन्ध हो जाते हैं, इस प्रकार एक करणं समारम्भः। (मन. घ. स्वो. टी. ४-२७)। अचेतन से दूसरे प्रचेतन का सम्बन्ध होने पर उनकी १६. प्राणव्यपरोपणादीनाम् उपकरणाभ्यासीकरणं इस अवस्था को समानजातीय द्रव्य-पर्याय कहा समारम्भः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-८)। जाता है।
१ दूसरों को सन्ताप करने वाले व्यापार को समा. समानदत्ति-देखो समदत्ति । कूल-जाति-क्रिया- रम्भ कहा जाता है। २ हिसादि क्रिया के साधनों मन्त्रः स्वसमाय सधर्मणे । भू-कन्या-हेम-रत्नाऽश्व-रथ- का अभ्यास करना, इसका नाम समारम्भ है । हस्त्यादि निर्वपेत् ॥ (धर्मसं. श्रा. ६-२०२)। समास-द्वयोर्बहूनां पदानां मीलनं समासः । कुल, जाति, क्रिया और मंत्र; इनसे जो अपने समान (अनुयो. हरि. व. पृ. ७३)। सघर्मा है उसके लिए पथिवी, कन्या, सुवर्ण, रत्न, दो या बहुत से पदों के मिलाने का नाम समास है। घोड़ा, रथ और हाथी मादि को जो दिया जाता है समिताचार-देखो सम्यगाचार । उसे समदत्ति या समानदत्ति कहते हैं।
समिति—१. प्राणिपीडापरिहारार्थ सम्यगयनं समाप्तकल्प-समाप्तकल्पो नाम परिपूर्णसहायः। समितिः। (स. सि. ९-२)। २. सम्यगयनं समि(व्यव. भा. मलय. वृ. ४-१६, पृ. ४)।
तिः। परप्राणिपीडापरिहारेच्छया सम्यगयनं समिपरिपूर्ण सहाय युक्त कल्प को समाप्तकल्प कहते हैं। तिः। (त. वा. ६, २, २)। ३. सम्यक् श्रुतज्ञानसमारम्भ-१.xxx परिदावकदो हवे समा- निरूपितक्रमेण गमनादिषु वृत्तिः समितिः । (भ. रंभो। (भ. प्रा. ८१२)। २. साधनसमभ्यासी- प्रा. विजयो. १६); प्राणिपीडापरिहारादरवतः करणं समारम्भः । (स. सि. ६-८) । ३.xxx सम्यगयनं प्रवृत्तिः समितिः। (भ. प्रा. विजयो. परितापनया भवेत् समारम्भः। (त. भा. ६-६ ११५)। ४. xxx समिदी य पमादवज्जणं उद.)। ४.xxx परितावकारी भवे समा. चेव । (कातिके. ९७)। ५. निश्चयेनानन्तज्ञानादिरंभो। (व्यव. भा. पी. ४६, पृ. १८)। ५. समा- स्वभावे निजात्मनि सम् सम्यक् समस्तरागादिविरभणं नाम तस्स संघटणादिडंडस्स पवत्तणं। (दशव. भावपरित्यागेन तल्लीनतच्चिन्तनतन्मयत्वेन अयनं च. पृ. १४२)। ६. साधनसमभ्यासीकरणं समा- गमनं परिणमनं समितिः । (ब. द्रव्यसं. टी. रम्भः । साध्यायाः क्रियाया: साधनानां समभ्यासी- ३५) । ६. समितिरिति पञ्चानां चेष्टानां तांत्रिकी करणं समाहारः समारम्भः इत्याख्यायते । (त. वा. संज्ञा। अथवा सं सम्यक् प्रशस्ता महत्प्रवचनानु६,८,३) । ७. तत्साधनजनितपरितापकरः समाः सारेण इतिः चेष्टा समितिः Xxx सम्यक्रम्भः। (त. भा. हरि.वृ. ६-६)। ८. क्रियायाः प्रवत्तिलक्षणा समितिः। (योगशा. स्वो. विव. १,
ल. १३८
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समिति
१०६८, जेन-लक्षणावलो
च्छन्नक्रियानिवर्ती
३४) । ७. अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परमधर्मेण चू. पृ. ३६) । ४. क्रिया नाम योगः, समुच्छिन्ना स्वात्मनि सम्यगिता परिणतिः समितिः। अथवा क्रिया यस्मिन् तत् समुच्छिन्नक्रियम्, न निवर्तत निजपरमतत्त्वनिरतसहजपरमबोधादिपरमधर्माणां सं. इत्येवंशीलमनिवति, समुच्छिन्नक्रियं च तदनिहतिः समितिः । (नि. सा. वृ. ६१) । ८. सम्यक् वति च समुच्छिन्नक्रियानिवति । समुच्छिन्नसर्वश्रुतनिरूपितक्रमेण गमनादिष्वयनमिति प्रवृत्तिः वाङ्मनस्काययोगव्यापारत्वादप्रतिपातित्वाच्च समसमितिः । (भ. प्रा. मला. १६)। ६. सम्यगयन च्छिन्नक्रियस्याय मन्त्य शुक्ल म्यानमलेश्याबलाधान तच्छद्धि प्रतीतिः समितिमता। (धर्मसं. श्रा.-३)। कायत्रयबन्धनिर्मोचन कफलमनुसन्धाय स भगवान १०. सम्म गयनं जन्तुपीडापरित्यागाथं वर्तनं समितिः। ध्यायतीत्युक्त भवति । (जयध. अ. प. १२४६;ध व (त. वृत्ति श्रुत. ६-२)। ११. प्रमादानां विकथा- पु. १०, पृ. ३२६, टि. न. २)। ५. स्वप्रदेशपरिकषायादिविकाराणां वर्जनं त्यजनं समितिः कथ्यते। स्पन्दयोगप्राणादिकर्मणाम् । समुच्छिन्नतयोक्तं तत्स(कातिके. टी. ९७) ।
मच्छिन्न क्रियाख्यया ।। (ह. पु. ५६-७७)। ६.ततो १ जन्तुओं को पीड़ा से बचाने के लिए जो भले प्रकार निरुद्धयोगः सन्नयोगी स विगतास्रवः । समुच्छिन्न
-सावधानी से-प्रवृत्ति की जाती है उसे समिति क्रियं ध्यानमनिवति तदा भवेत् ॥ (म. पू. २१, कहते हैं। ६ समिति यह पांच चेष्टामों को-गम- १६६) ७. ततः स्वयं समुच्छिन्नप्रदेशस्पन्दनं स्थिरः। नादि रूप पांच प्रवृत्तियों की संज्ञा है, अथवा ध्वस्तनिःशेषयोगेभ्यो ध्यानं ध्यातांतसंवरः (?) । जिनागम के अनुसार जो चेष्टा या प्रवृत्ति होती है (त. श्लो.६, ४४, १३)। ८. तत्पुनरत्यन्तपरमशुक्लं उसका नाम समिति है।
समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकाय-वा-मनोयोगप्रदेसमीचीनदृष्टिवर्णजनन--मिथ्यात्वपटल विपाटन- शपरिस्पन्दक्रियाव्यापारतया समुच्छिन्नक्रियानिवर्तीपटीयसी ज्ञाननर्मल्यकारिणी अशुभगतिगमनप्रति. त्युच्यते। (चा. सा. पृ. ६३)। ६. यत्केवल्ययोगी बन्धविधायिनी मिथ्यादर्शनविरोधिनीति निगदनं ध्यायति ध्यानं तत्समुच्छिन्नमवितर्कमवीचारमनिसमीचीनदृष्टेर्वर्णजननम् । (भ. मा. विजयो. वृत्ति निरुद्धयोगमपश्चिमं शुक्लमविचलं मणिशिखा
वत् । (मूला. वृ. ५-२०८)। १०. योगोऽस्मिन् समीचीन दृष्टि (सम्यग्दर्शन) मिथ्यात्व को नष्ट प्रहतो बभूव हि समुच्छिन्नक्रियं सुस्थिरं घ्यानं करने वाली, ज्ञान की निर्मलता की जनक, दुर्गति प्रतिपाति तेन तदभुदन्वर्थनामास्पदम् । लेश्यागमन को रोधक और मिथ्यादर्शन को विरोधक। तीतमयोगकेवलिजिने शुक्लं चतुथं वरं निर्मूलप्रवि. है। इस प्रकार के कथन को समीचीन दृष्टि का लीनसंसृति-गदं स्वात्मोपलब्धिप्रदम् ॥ (प्राचा. सा. वर्णजनन कहा जाता है।
१०-५३) । ११. समुच्छिन्ना क्रिया यत्र सूक्ष्मयोगासमच्छिन्नक्रियानिवा-१. समच्छिन्नप्राणापा- त्मिका यतः। समुच्छिन्नक्रियं प्रोक्तं तद् द्वारं मक्तिनप्रचारसर्वकाय-वाङ्- मनोयोगसर्वप्रदेशपरिष्पन्दक्रि- सद्मनः ॥ (भावसं. वाम. ७५५) । १२. समच्छियाव्यापारत्वात् समच्छिन्नक्रियानिवर्तीत्युच्यते । (स. नःप्राणापानप्रचारः सर्वकाय-वाड़-मनोयोगसर्वप्रदेशसि. ६-४४; त. वा. ९-४४) । २. तस्सेव य सेले- परिस्पन्दनक्रियाव्यापारश्च यस्मिन् तत् समुच्छिन्नसीगयस्स सेलो व्व णिप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरिय- क्रियानिति ध्यानमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ९-४४)। मप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ।। (ध्यानश. ८२)। १ जिस ध्यान के समय प्राण-अपान के संचार ३. समुच्छिण्णकिरिया णाम जस्स मूलाग्रो चेव (श्वास-उच्छ्वास क्रिया) के साथ समस्त शरीर, किरिया समच्छिण्णा, मजोगि त्ति वृत्तं भवइ, प्रहह्वा वचन योर मन योगों के माधय से होने वाले इमा समुच्छिण्णकिरिया जस्स मूलामो चेव छिण्णा मात्मप्रदेशपरिस्पन्दन रूप क्रिया का व्यापार नष्ट किरिया, अबंधउत्ति वृत्तं भवति । अपडिवाइ णाम हो जाता है उसे समुच्छिन्न क्रियानिवर्ती शुक्लध्यान जो जोगनिरोघेण अप्पडिएणं चेव केवली कमाई कहते हैं। २ जो शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली तडतडस्स छिदिऊण परमणाबाधत्तं गच्छइ, एवं प्रात्मप्रदेशों के परिस्पन्दन से रहित हो जाने के समुच्छिण्णकिरियमपडिवाति त्ति भण्णइ । ((दशवे. कारण शैल (पर्वत) के समान स्थिर हो जाते हैं
१०.ua
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समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति १०६, जैन-लक्षणावली
[सम्पुटकमल्लक उनके व्यवच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामक चौथा परम समित्येकीभावे, उत्प्राबल्ये, एकीभावेन प्राबल्येन शुक्लध्यान होता है।
घातः समुद्घातः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३०)। समुच्छिन्नत्रियानिवृत्ति---देखो समुच्छिन्नक्रिया- १ सम्भूत होकर प्रात्मप्रदेशों के शरीर से बाहिर निवर्ती।
जाने का नाम समुद्घात है। ३ शरीर से बाहिर समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती-देखो समुच्छिन्नक्रि- प्रात्मप्रदेशों के प्रक्षेप को समुद्घात कहते है। यानिवर्ती।
समुद्देश-१.xxx पासंडो ति य हवे समुसमुच्छेद-एकजात्य विरोधिनि क्रमभुवां भावानां देसो। (मूला. ६-७)। २. XXX पासंडीणं संताने पूर्वभावविनाशः समुच्छेदः। (पंचा. का. भवे समुद्देसं । (पिंडनि. २३०) । ३. समुद्देशो अमृत. वृ. १०)।
व्याख्या, अर्थप्रदानमिति भावः। (व्यव. भा. मलय. एक जाति की प्रविरोधी क्रम से होने वाली प्रव- व. पी. १-११५, प. ४०)। ४. ये केचन पाखस्थानों के समुदाय में पूर्व प्रवस्था का जो विनाश उिन ग्रागच्छन्ति भोजनाय तेभ्यः सर्वेभ्यो दास्या. होता है उसे समुच्छेद कहते हैं। इसे दूसरे शब्द से मीत्युद्दिश्य कृतमन्नं स पाखण्डिन इति च भवेत्समुव्यय कहा जाता है।
द्देशः । (मूला. वृ. ६-७)। ५. पाषण्डानुद्दिश्य समुत्पत्तिककषाय -१. समुप्पत्तिकसानो णाम साधितं समुद्देशः । (अन. ध. स्वो. टी. २-७) । कोहो सिया जीवो, सिया णोजीवो, एवमट्ठभंगा। १ पाखण्डियों के उद्देश से जो भोजन तैयार कराया xxx जं पडुच्च कोहो समुप्पज्जदि जीव वा जाता है वह समद्देश नामक प्रौद्देशिक दोष से णोजीवं वा जीवे वा णोजीवे वा मिस्सए वा सो दुषित होता है । ३ सूत्र की व्याख्या करना अथवा समुप्पत्तियकसारण कोहो । (कसायपा. चू. प. अर्थ को प्रदान करना, इसका नाम समुद्देश है। २३) । २. (जीवादो) भिण्णो होदूण जो [कसाए] समुद्देशानुज्ञाचार्य- उद्देष्टगुर्व भावे तदेव श्रुतं समुसमुप्पादेदि सो समुप्पत्तिो कसानो। (जयध. पु. दिशत्यनुजानीते वा यः स समुद्देशानुज्ञाचार्यः । १, पृ. २८६)।
(योगशा. स्वो. विव. ४-६०) । १ एक जीव, एक नोजीव (जीव), बहुत जीव, उपदेष्टा गुरु के प्रभाव में उसी श्रुत का जो उपदेश बहुत नोजीव इत्यादि पाठ के प्राश्रय से जो क्रोध करता है अथवा अनुज्ञा देता है उसे समुद्देशानुज्ञाउत्पन्न होता है उसे समुत्पत्तिककषाय कहते हैं। चार्य कहते हैं। समुत्पाद--(एक जात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावा- सम्पराय-१. समन्तात्पराभव प्रात्मनः सम्परायः। नां सन्ताने) उत्तरभावप्रादुर्भावः समुत्पादः । कर्मभिः समन्तादात्मनः पराभवोऽभिभवः सम्पराय (पंचा. का. अमृत. वृ.१०)।
इत्युच्यते । (त. वा. ६, ४, ४) । २. सम्परत्यस्मिएक जाति की अविरोधी क्रम से होने वाली प्रब. नात्मेति सम्परायः चातुर्गतिकः संसारः । (त. भा. स्थानों के समदाय में अगली अवस्था का जो प्रादुर्भाव सिद्ध. व. ६-५)। ३. सम्पर्य्यन्ते स्वकर्मभिर्धाम्यन्ते होता है उसे समुत्पाद कहते हैं। उत्पाद इसे ही प्राणिनो यस्मिन् स संपरायः संसारः। (सूत्रकृ. सू. कहा जाता है।
शी. व. २, ६, ४६, पृ. १५४) । ४. संपर्येति संसासमुद्घात-१. हन्तेर्गमिक्रियात्वात् सम्भूयात्म. रमनेनेति सम्परायः कषायोदयः। (प्राव. नि. मलय. प्रदेशानां च बहिरुदहननं समदधातः। (त. वा. १, ५.११४, प. १२२) । २०, १२) । २. मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स १ सब घोर से कर्मों के द्वारा जो प्रात्मा का परा. जीवपिंडस्स । णिग्गमणं देहादो होदि समुग्धादणामं भव होता है उसे सम्पराय कहते हैं। २ जिसमें जीव तु ॥ (गो. जी. ६६८)। ३. समदघननं समदधातः परिभ्रमण करता है उसका नाम सम्पराय है। यह शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः। (स्थानां. अभय.व. चतुर्गतिस्वरूप संसार का समानार्थक है।
सम्पूटकमल्लक- XXX जस्स मज्झम्मि। बल्येन, हननं घातः शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशानां नि:- कुवस्सुवरि रुक्खो, मह संपुडमल्लमो नाम ॥ सरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ११-५०)। ५. (बृहत्क. ११०५) ।
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सम्पूर्ण कुट ]
११००,
जिस ग्राम के मध्य में कुछ और कुएं के ऊपर वृक्ष होता है उसका नाम सम्पुटमल्लक है । सम्पूर्णकुट- - यः पुनः सर्वावयवसम्पूर्ण: स सम्पूर्ण - कुट: । ( नाव. नि. मलय. बृ. १३६) । जो घट समस्त अवयवों से परिपूर्ण होता है उसे सम्पूर्णकुट कहा जाता है ।
सम्पूर्णकुट समान शिष्य - यस्तु श्राचार्योक्तं सकलमपि सूत्रार्थं यथावदवधारयति पश्चादपि च तथैव सम्पूर्ण स्मरति स सम्पूर्णकुटसमान: । ( नाव. नि. मलय. वृ. १३६) ।
जो शिष्य श्राचार्य के द्वारा वर्णित समस्त सूत्रार्थ को उसी रूप में ग्रहण करता है तथा पीछे भी उसी रूप में सबका स्मरण रखता है वह सम्पूर्णकुट समान शिष्य माना जाता है । सम्प्रत्यय - अतद्गुणे वस्तुनि तद्गुणत्वेनाभिनिवेशः सम्प्रत्ययः । ( नीतिवा. ६-१२, पृ. ७१ ) । जिस वस्तु में जो गुण नहीं है उसमें उस गुण के होने के अभिप्राय को सम्प्रत्यय कहते हैं । सम्बन्ध - द्रव्य क्षेत्र-काल-भावकृता हि प्रत्यासत्तिः एकत्वपरिणति स्वभावा पारतन्त्र्यापरनामा सम्बन्धोऽर्थानाभिप्रेतो जनैः । (न्यायकु. ७, पृ. ३०६ - ७ ) । पदार्थों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा से जो स्वभावतः एकत्व परिणति होती है, जिसे दूसरे शब्द से परतन्त्रता कहा जा सकता है, इसी का नाम सम्बन्ध है ।
जैन - लक्षणावली
सम्भव - सम्भवन्ति प्रकर्षेण भवन्ति चतुस्त्रिशदतिशयगुणा अस्मिन्निति सम्भवः, शं सुखं भवत्यस्मिन् स्तुते इति शम्भवो वा, तत्र " श षोः सः " [ ८1११२६०] इति सत्त्वे सम्भवः, तथा गर्भगतेऽप्यस्मिन् अभ्यधिकसस्यसम्भवात्सम्भवः । (योगशा. स्वो. विव. ३ - १२४) ।
चौंतीस प्रतिशयों के सम्भव - प्रकर्षप्राप्त - होने से तीसरे तीर्थंकर का नाम सम्भव प्रसिद्ध हुआ । इसके अतिरिक्त 'शं' का अर्थ सुख होता है, वह उनकी स्तुति करने पर चूंकि स्तोता को प्राप्त होता है, इससे उन्हें सम्भव ( व्याकरण के नियमानुसार यहां श के स्थान में स हो गया है) कहा गया है तथा उनके गर्भ में स्थित होने पर धान्य अधिक उत्पन्न हुआ था, इससे भी वे सम्भव कहलाए ।
[ सम्भिन्नबुद्धि सम्भवयोग- इंदो मेरु चालइदं समत्यो त्ति एसो संभवजोगो णाम । (धव. पु. १, पृ. ४३४ ) । इन्द्र मेरु पर्वत को चलायमान करने में समर्थ है, इस प्रकार के योग को सम्भवयोग कहा जाता है । सम्भावनासत्य- देखो संभावनासत्य । १. संभावणा य सच्चं जदि णामेच्छेज्ज एव कुज्जंति । जदि सक्को इच्छेज्जो जंबूदीवं हि पल्लत्थे ॥ ( मूला. ५- ११५ ) । २. वस्तुनि तथाऽप्रवृत्तेऽपि तथाभूतकार्ययोग्यतादर्शनात् सम्भावनया वृत्तं सम्भावनासत्यम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६३) । ३ संभावतर्जभ्योद्धर्तुं मेरुमपीति वा ।। (याचा. सा. ५-३६)। नेति सोक्ता वाग्वस्तुसद्भावभावना । शक्रः शक्नोति ४. X X X दारयेदपि गिरि शीर्षेण संभावने । ( अन. घ. ४-४७) । ५ सम्भावनासत्यं यथा वस्तुनि तथाप्रवृत्तेऽपि तथाभूतकार्य योग्यतादर्शनात् प्रवृत्तम्, यथा अपि दोर्भ्यां समुद्र तरेद् देवदत्तः । ( भ. प्रा. मूला. १९६३) ।
१ यदि इच्छा करे तो वंसा कर सकता है, इस प्रकार की सम्भावना होने पर जो तदनुरूप वचन बोला जाता है उसे सम्भावनासत्य कहा जाता है। जैसे इन्द्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है । सम्भिन्न बुद्धि - १. सम्यक् श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमेन भिन्ना: अनुविद्धा: संभिन्नाः, संभिन्नाश्च ते श्रोतारश्च ते संभिन्नश्रोतारः । प्रणगाणं सद्दाणं अक्खराणक्ख र सरुवाणं कथंचियाणमक्कमेण पयत्ताणं सोदारा संभिण्णसोदारा त्ति निद्दिट्ठा । × × × एरिसियानो चत्तारि श्रक्खोहिणीश्रो सग-सगभासाहि अक्खराणक्खरसरूवाहि अक्कमेण जदि भणति तो वि संभिण्णसोदारो अक्कमेण सव्वभासानो घेत्तुण पदुप्पादेदि । (धव. पु. εपृ ६१-६२ ) । २. चक्रवतिस्कन्धावारमध्ये यद्वृत्तमार्या- श्लोक मात्रा द्विपद-दंडकादिकमनेकभेदभिन्नं सर्वैः पठितं गेयविशेषादिकं च स्वरादिकं च यच्छ्र ुतं यस्मिन् यस्मिन् येन येन पठितं तत्सर्वं तस्मिन् तस्मिन् काले तस्य तस्यानिष्टं ये कथयन्ति ते सम्भिन्नबुद्धयः । ( मूला. वृ. ९-६६ ) ।
१ श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम से विशिष्ट जो श्रोता एक साथ उच्चारित प्रक्षर अनक्षर स्वरूप अनेक शब्दों को पृथक् पृथक् सुन लिया करते हैं वे सम्भिन्नश्रोता कहलाते हैं । ऐसे सम्भिन्नश्रोता
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सम्भूतार्थप्रतिषेधवचन ]
यदि चार प्रक्षौहिणी अपनी अपनी अक्षर- श्रनक्षर रूप भाषाम्रों के द्वारा एक साथ बोलें तो उनको एक साथ ग्रहण करके सबको कह सकते हैं । सम्भूतार्थप्रतिषेधवचन - पढमं असंतवणं संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो । णत्थि णरस्स अकाले मच्चुत्ति जधेवमादीयं || ( भ. प्रा. ८२४) । जिस वचन में विद्यमान पदार्थ का निषेध किया जाता है उसे सम्भूतार्थनिषेधवचन कहा जाता जैसे- 'मनुष्य का अकाल में मरण नहीं होता' यह वचन । कारण यह कि कर्मभूमिज मनुष्यों का कालमरण सम्भव है। यह चार प्रकार के असत्य वचन में प्रथम है । सम्भोग - साधूनां समानसामाचारीकतया परस्परमुपध्यादिदान- ग्रहणसंव्यवहारलक्षण: । ( स्थानां. श्रभय. बृ. १७३ ) ।
1
समान सामाचारी सहित होने से साधुनों में जो परस्पर उपधि आदि के देने लेने का व्यवहार होता है उसे सम्भोग कहते हैं । सम्मतिसत्य - १. गजेन्द्रो नरेन्द्र इत्यादिकाः शब्दाः शुभलक्षणयोगात् केषांचित् स्वतोलक्षणत्वादीश्वरत्वेनाभ्युपगममाश्रित्य क्वचिद् गजे मानवे वा प्रयुज्यमानाः सम्मतिसत्य शब्देनोच्यन्ते । ( भ. प्रा. विजयो. ११६३) । २. लोकाविप्रतिपत्तौ सत्यं सम्मतिसत्यमम्बुजमिति । यथा पङ्काद्यनेककारणत्वेऽपि पद्माम्बुनि जातमम्बुजमिति व्यपदेशः । ( श्रन. घ. स्व. टी. ४-४७ ) । ३. संवृत्या कल्पनया सम्मत्या वा बहुजनाभ्युपगमेन सर्वदेशसाधारणं यन्नाम रूढं तत्संवृतिसत्यं सम्मतिसत्यं वा । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २२३) ।
१ गजेन्द्र अथवा नरेन्द्र इत्यादि शब्दों का जो किसी हाथी या मनुष्य के विषय में प्रयोग किया जाता है, इसे सम्मतिसत्य कहा जाता है । यद्यपि उनमें इन्द्रत्व व नरेन्द्रत्व सम्भव नहीं है, पर उत्तम लक्षणों से संयुक्त होने के कारण उसमें जन साधारण की सम्मति रहती है । सम्मूर्च्छन- देखो संमूर्छन । १. त्रिषु लोकेषूर्ध्व मस्तिर्यक् च देहस्स समन्ततो मूर्च्छनं सम्मूर्च्छनमवयवप्रकल्पनम् । ( स. सि. २ - ३१) । २. सम ततो मूर्च्छनं सम्मूर्च्छनम् । त्रिषु लोकेषूर्ध्वमधस्तिक् च देहस्य समन्ततो मूर्च्छनमवयवप्रकल्पनम् ।
[सम्मोहभावना
(त. वा. २, ३१, १) । ३. समन्ततो मूर्च्छनं शरीराकारतया सर्वतः पुद्गलानां सम्मूर्च्छनम् । ( त. इलो. २ - ३१ ) । ४. सं समन्तात् सर्व दिग्गतस्य शरीरयोग्यपुद्गलपिण्डस्य मूर्छनं गर्भोपपादविलक्षणं शरीराकारेण परिणमनं सम्मूर्च्छनम् । (गो. जी. म. प्र. ८३ ) । ५. सं समन्तात् मूर्च्छनं जायमानजीवानुग्राहकाणां शरीराकारपरिणमनयोग्यपुद्गलस्कन्धानां समुच्छ्रयणं सम्मूर्च्छनम् । (गो. जी. जी. प्र. ८३ ) । ६. त्रैलोक्यमध्ये ऊर्ध्व - अघस्तिर्यक् च शरीरस्य समन्तान्मूर्च्छनमवयवप्रकल्पनं सम्मूर्च्छनमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २ - ३१ ) ।
१ तीनों लोकों में ऊपर, नीचे और तिरछे में जो सब ओर से शरीर के अवयवों की रचना होती है उसे सम्मूच्र्छन जन्म कहते हैं । सम्मूर्च्छनाकुशील • वृक्षगुल्मादीनां पुष्पाणां फलानां च सम्भवमुपदर्शयति, गर्भस्थापनादिकं च करोति यः स संमूर्च्छनाकुशीलः । (भ. श्री. विजयो. १६५०) ।
जो वृक्ष के गुच्छों, पुष्पों और फलों के सम्भव को दिखलाता है तथा गर्भस्थापन प्रादि को करता है उसे सम्मूर्छनाकुशील कहते हैं । सम्मूच्छिम -- समंतात्पुद्गलानां मूर्छन संघातीभवनं सम्मूच्छे:, तत्रभवाः सम्मूच्छिमाः । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १४ ) ।
जो जीव सब ओर से पुद्गलों को ग्रहण कर उत्पन्न होते हैं उन्हें सम्मूमि ( सम्मूर्छन ) जीव कहते हैं । सम्मोह - १. सम्मोहः श्रत्यन्तमूढता । ( अनुयो. हरि. वृ. पृ. ६९ ) । २. सम्मोहः किंकर्तव्यत्वमूढता । ( श्रनुयो. मल. हेम. वृगा. ७० ) ।
१ अतिशय मूढता का नाम सम्मोह है । प्रकृत में यह रौद्ररस के लिंगरूप में व्यवहृत हुम्रा है । सम्मोहभावना - उम्मग्गदेसणो मग्गदूसणो मग्गfacefsaणीय | मोहेण य मोहितो संमोहं भावणं कुणइ ॥ ( भ. प्रा. १८४ ) ।
जो कुमार्ग स्वरूप मिथ्यादर्शन श्रादि का उपदेश करने वाला, सम्यग्दर्शनादिरूप सन्मार्ग को दूषित करने वाला श्रौर सम्मार्ग के विषय में विप्रतिपन्नमोक्ष के मार्गभूत रत्नत्रय को मोक्ष का मार्ग न मानकर उसके विरुद्ध श्राचरण करने वाला हैवह सम्मोहभावना को करता है।
११०१, जैन-लक्षणावली
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सम्यक्] ११०२, जैन-लक्षणावली
[सम्यक्त्व सम्यक्-समञ्चति गच्छति व्याप्नोति सर्वान् च. १, ३, ६२०); सर्वे, न तु कतिपये ये सावधद्रव्यभावानिति सम्यक् । (त. भा. सिद्ध. व. १-१, योगाः सपापव्यापारास्तेषां त्यागो ज्ञान-श्रद्धानपूर्वक पृ. ३०)।
परिहारः स सम्यकचारित्रम् । (योगशा. स्वो. विव. जो समस्त द्रव्य-भावों को व्याप्त करता है उसे १-१८); अथवा पञ्चसमिति-गुप्तित्रयपवित्रितम् । सम्यक् कहा जाता है।
चरित्रं सम्यक्चारित्रमित्याहुर्मुनिपुङ्गवाः ॥ (योगशा. सम्यकचारित्र-१. चारित्तं समभावो विसयेसु १-३४)। १५. संसारहेतुभूतक्रियानिवृत्त्युद्यतस्य विरूढमग्गाणं ॥ (पंचा. का. १०७) । २. रागादी- तत्त्वज्ञानवतः पुरुषस्य कर्मादानकारणक्रियोपरमणमपरिहरणं चरणं xxx॥ (समयप्रा. १६५)। ज्ञानपूर्वकाचरणरहितं सम्यक्चारित्रम् । (त. वृत्ति ३. चारित्तं परिहारो पयं णियं जिणवरिंदेहिं । श्रुत. १-१)। (मोक्षप्रा. ३८)। ४. हिंसानृत-चौर्येभ्यो मथुन- १ मोक्षमार्ग पर प्रारूढ़ महापुरुषों के इन्द्रियविषयों सेवा-परिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः में जो समभाव-राग-द्वेष का प्रभाव होता है संज्ञस्य चारित्रम् ।। (रत्नक. ३-३)। ५. संसार. उसका नाम चारित्र है ! ४ हिंता, असत्य, चोरी, कारण निवृत्ति प्रत्यागर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमि- मैथुन और परिग्रह इन पापक्रियानों से जो सम्यतक्रियोपरम: सम्यक्चारित्रम्। (स. सि. १-१)। ज्ञानी को निवृत्ति होती है उसे चारित्र कहते हैं । ६. संसारकारण विनिवृत्ति प्रत्यागर्णस्य ज्ञानवतो चारित्रावरण कर्म के क्षय या क्षयोपशम से जो बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषोपरमः सम्यक्चारित्रम् । ज्ञानपूर्वक समीचीन क्रियामों में प्रवृत्ति और असमी(त. वा. १, १, ३)। ७. यथा कर्मास्रवो न चीन क्रियानों से निवृत्ति होती है उसे सम्यक्चारित्र स्याच्चारित्रं संयमस्तथा ॥ (म. पु. ४७-३०६)। कहा जाता है। वह सामायिक प्रादि पांच भेदों
__ बाहरभ्यन्तरक्रिया-। विनि- स्वरूप है, मूलगुण और उत्तरगुण उसकी शाखावृत्तिः परं सम्यकचारित्रं ज्ञानिनो मतम् ॥ (त. प्रशाखामों के समान है। इलो. १, १, ३)। ६. सम्यक्चारित्रं तु ज्ञानपूर्वकं सम्यक्त्व--१. सम्मत्तं सद्दहणं भावाणंxxxi चारित्रावतिकर्मक्षय-क्षयोपशमसमत्थं सामायिकादि- (पंचा. का. १०७); धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं x भेदं सदसत्क्रियाप्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणं मूलोत्तरगुण- xx I (पंचा. का. १६०) । २. भूदत्थेणाभिशाखा-प्रशाखम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-१)। गदा जीवाजीवा य पुण्ण-पावं च । पासव-संवर१०. तदुक्तव्रतस्य यथावदनुष्ठानं सम्यक्चारित्रम् । णिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ (समयप्रा. १५; (न्यायकु. ७६, पृ. ८६५) । ११. बहिरब्भंतर- मूला. ५-६); जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं xxx किरियारोहो भवकारणपणासठ्ठ। णाणिस्स जं (समयप्रा. १६५)। ३. अत्तागम-तच्चाणं सद्दहणादो जिणत्तं तं परमं सम्मचारित्तं ॥ (द्रव्यसं. ४६)। हवेइ सम्मत्तं । (नि. सा. ५); विवरीयाभिणिवेस१२. अधर्मकर्म निर्मुक्तिधर्मकर्मविनिर्मितिः । चारित्रं विवज्जियसदहणमेव सम्मत्तं । (नि. सा. ५१); तच्च सागारानगारयतिसंश्रयम् ।।(उपासका. २६२); चल-मलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । औदासीन्यं परं प्राहुर्वत्तं सर्वक्रियोज्झितम् ।। (उपा- (नि. सा. ५२) । ४. जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं जिणसका. २६७)। १३. दृष्ट-श्रुतानुभूतभोगाकांक्षप्र- वरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ भृतिसमस्तापध्यानरूपमनोरथजनितसंकल्प-विकल्प- सम्मत्तं ।। (दर्शनप्रा. २०)। ५. तच्चरुईसम्मत्तं जालत्यागेन तव सुखे रतस्य सन्तुष्टस्य तृप्तस्यैका- xxx। (मोक्षप्रा. ३८); हिंसारहिए धम्मे कारपरमसमरसीभावे द्रवीभूतचित्तस्य पुनः पुनः प्रदारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गंथे पावयणे सहहणं स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् । (ब. द्रव्यसं. टी. होइ सम्मत्तं ॥ (मोक्षप्रा. १०)। ६. जं खलू ४०); परमोपेक्षालक्षणं निर्विकारस्वसंवित्त्यात्मक- जिणोवदिळं तमेव तत्थित्ति भावदो गहणं । सम्मशुद्धोपयोगाविनाभूतं परमं सम्यक्चारित्रम् । (व. इंसणभावो xxx॥ (मूला. ५-६८) । ७. द्रव्यसं. टी. ४६)। १४. सर्वसावद्ययोगानां त्याग- जीवाऽजीवा य बंधो य, पून्न-पावाऽऽसवो तहा। श्चारित्रमिष्यते । (योगशा. १-१८%, त्रि. श. पु. संवरो णिज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥ तहि
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सम्यक्त्व]
११०३, जैन-लक्षणावलो
[सम्यक्त्व क्रिया
याणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं । भावेण सहहं- तच्चाणं जं सहहणं सुणिम्मलं होइ। संकाइदोस तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ (उत्तरा. २८, १४ व रहियं तं सम्मत्तं मुणेयव्वं ॥ (वसु. श्रा. ६)। १५) । ८. सोच्चा व अभिसमेच्च व तत्तरुई चेव २२. शम-संवेग-निर्वेदानुकम्पास्तिक्यलक्षणम् । सम्यहोइ सम्मत्त । (बृहत्क. १३४) । ६. प्रशम-संवेगा- क्त्वं Xxx ॥ (त्रि. श. पु. च. १, १, १६३)। नुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वम् । (धव. २३. तत्त्वार्थान श्रद्दधानस्य निर्देशाद्यः सदादिभिः । पु. १, पृ. १५१; घव. पु. ७, पृ. ७); तत्त्वार्थ- प्रमाणनयभंगश्च दर्शनं सुदृढ़े भवेत् ॥ गृहीतमश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अथवा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वम्। गहीतं च परं सांशयिक मतम् । मिथ्यात्वं न त्रिधा (धव. पु. ७, पृ. ७); छद्दन्व-णवपयत्थविसयसद्दहणं यत्र तच्च सम्यक्त्वमुच्यते ॥ (धर्मसं. श्रा. ४, ३१ सम्मईसणं Xxx । (धव. पु. १५, पृ. १२)। व ३२)। २४. नास्त्यहंतः परो देवो धर्मो नास्ति १०. छप्पंच्च-णवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्टाणं। दयां विना । तपः परं च नर्ग्रन्थ्यमेतत्सम्यक्त्वलक्ष
आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ (प्रा. णम् ।। (पू. उपासका. ११)। २५. यच्छ द्धानं जिनोपंचसं.१-१५६%3 धव. पु. १, पृ. ३९५ उद्, गो. क्तेरथ नयभजनात्सप्रमाणादवाध्यात्, प्रत्यक्षाच्चानुजी. ५६१)। ११. तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वम् । (त. मानात् कृतगुण-गुणि निर्णीतियुक्तं गुणाढ्यम् । तत्त्वाभा. सिद्ध. वृ. २-३; गो. जी. जी. प्र. ५६१); र्थानां स्वभावाद् ध्रुव-विगम-समुत्पादलक्ष्मप्रभाजां सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणम् । (त. भा. तत्सम्यक्त्वं वदन्ति व्यवहरणनयात् कर्मनाशोपसिद्ध. व. ७-६ व ८-१०)। १२. (तत्त्वार्था- शान्तेः ॥ (अध्यात्मक. १-७) । २६. या देवे नां) श्रद्धानं दर्शनं Xxx । (त. सा. १-४); देवताबुद्धिगुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः सम्यक्त्वं खलू तत्त्वार्थश्रद्धानं तत् विधा भवेत् । शुद्धा सम्यक्त्वमिदमच्यते ।। (प्राचारदि. ५. ४७ (त. सा. २-११)। १३. धर्मादीनां द्रव्य-पदार्थ- उद्.); सम-संवेग-निर्वेदानुकंपास्तिक्यलक्षणः । विकल्पवतां तत्त्वार्थश्रद्धानभावस्वभावं भावान्तरं लक्षणः पञ्चभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ श्रद्धानाख्यं सम्यक्त्वम् । (पंचा. का. अमृत, ब, (माचारदि. पृ. ४८ उद्.)।। १६०)। १४. धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं Xxx। १ पदार्थों के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं। २ यथा(तत्त्वानु. ३०)। १५. हिंसारहिए धम्मे अट्ठारह- रूप से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, दोसवज्जिए देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ संवर, निर्जरा, बन्ध पौर मोक्ष का नाम ही सम्यसम्मत्तं ॥ (भावसं. २६२); तं सम्मत्तं उत्तं जत्थ क्त्व है। ३ प्राप्त, प्रागम और पदार्थों के श्रद्धान पयत्थाण होइ सद्दहणं । परमप्पहकहियाणं xx से सम्यक्त्व होता है। ४ व्यवहार से जीवादि के
x ॥ (भावसं. २७२); तेणुत्तणवपयत्या अण्णे श्रद्धान को तथा निश्चय से प्रात्मा के श्रद्धान को पंचत्थिकाय-छद्दव्वा । प्राणाए अधिगमेण य सद्दह- सम्यक्त्व कहा जाता है। ७ जीवाजीवादि नौ पदार्थ माणस्स सम्मत्तं ॥ संकाइदोस रहियं णिस्संकाई- यथार्थ हैं, इस प्रकार उन परमार्थभूत पदार्थों के गुणज्जयं परमं । कम्मणिज्जरणहेउं तं सुद्धं होइ सदभाव के उपवेश से और भावतः श्रद्धान से सम्यसम्मत्तं ॥ (भावसं. २७८-७६)। १६. यथा वस्तु क्त्व जानना चाहिए। तथा ज्ञानं संभवत्यात्मनो यतः। जिनैरभाणि सम्य- सम्यक्त्वक्रिया-१. चैत्य-गुरु-प्रवचनपूजनादिक्त्वं तत्क्षम सिद्धिसाधने ॥ (योगसारप्रा. १-१६)। लक्षणा सम्यक्त्वधिनी क्रिया सम्यक्त्वक्रिया। (स. १७. अत्तागम-तच्चाइयहं जं णिम्मलु सद्धाण । सि. ६-५; त. बा. ६, ५, ७) । २. चैत्यप्रवचनासंकाइयदोसहं रहिउ तं सम्मत्तु वियाण ॥ (सावयव. हत्सद्गुरुपूजादिलक्षणा। सा सम्यक्त्वक्रिया ख्याता १९)। १८. रुचिस्तत्त्वेषु सम्यक्त्वं xxxसम्यक्त्वपरिवर्धिनी ॥ (ह. पु.५८-६१) । ३. तत्र (उपासका. २६७)। १६. जीवादीसदहणं सभ्मत्तं चैत्य-श्रुताचार्य पूजा-स्तवादिलक्षणा। सम्यक्त्ववर्धिनी रूवमप्पणो तं तु । (द्रव्यसं. ४१) । २०. तत्त्वरुचिः ज्ञेया विद्भिः सम्यक्त्वसत्क्रिया ॥ (त. श्लो. ६, सम्यक्त्वं प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं ५, २)। ४. सम्यक्त्वक्रिया सम्यक्त्वकारणम् । वा। (मला. वृ. १२-१५६) । २१. भत्तागमः सम्यक्त्वं च मोहशुद्धदलिकानुभवः, प्रायेण तत्प्रवृत्ता
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सम्यक्त्वक्रिया ११०४, जैन-लक्षणावलो
[सम्यक्श्रुत क्रिया सम्यक्त्वक्रिया । प्रशम-संवेग-निर्वेदानुकम्पा- सम्यक्त्वमोहनीय कहा जाता है। स्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणजीवादिपदार्थविषया श्रद्धा सम्यक्त्वविनय-यत्र निःशंकितत्वादिलक्षणोपेजिन-सिद्ध-गुरूपाध्याय-यति-जनयोग्य-पुष्प-धूप-प्रदीप- तता भवेत् । श्रद्धाने सप्ततत्त्वानां सम्यक्त्वविनय: चामरातपत्र-नमस्करण-वस्त्राभरणानपान-शय्यादा- स हि ।। (त. सा.७-२१) । नाद्यनेकवयावृत्त्याभिव्यङ्ग्या च सम्यक्त्वसद्भाव- जहां सात तत्त्वों का श्रद्धान निःशंकितत्व प्रादि सम्बर्धनपट्वी सद्वेद्यबन्धहेतुर्देवादिजन्मप्रतिलम्भ- गुणों से संयुक्त होता है उसे सम्यक्त्वविनय कहते हैं । कारणम् । (त. भा. सिद्ध. व. ६-६)। सम्यक्त्ववेदनीय -- देखो सम्यक्त्वमोहनीय । ५. सम्यक्त्वं तत्त्वश्रद्धानम्, तदेव जीवव्यापारत्वात्. जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानात्मकेन सम्यक्त्वरूपेण यद्वेद्यते क्रिया सम्यक्त्वक्रिया । (स्थानां. अभय. वृ. ६०)। तत्सम्यक्त्ववेदनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३)। ६. चैत्य-गुरुप्रवचनार्चनादिस्वरूपा सम्यग्दर्शनवौद्धनी जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट तत्वों के श्रद्धानस्वरूप अन्यक्रियाभ्यो विशिष्टा सम्यक्त्वक्रिया। (त. वृत्ति सम्यक्त्व के रूप में जिस दर्शनमोहनीय कर्म का श्रुत. ६-५)।
वेदन किया जाता है उसे सम्यक्त्ववेदनीय कहते हैं। ह और प्रवचन (प्रागम) की जो पूजा सम्यक्त्वाराधक-धम्माघम्मागासाणि पोग्गला प्रादि रूप क्रिया सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली है उसे कालदव्व जीवे य । प्राणाए सद्दहन्तो समत्ताराहनो सम्यक्त्वक्रिया कहते हैं।
भणिदो ॥ (भ. प्रा. ३६) । सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिथ्यात्वमेव सामिशुद्धस्व- जो धर्म, अधर्म, प्राकाश, पुदगल, काल और जीव रसं, ईषन्निराकृतफलदानसामर्थ्य सम्यग्मिथ्या- इन द्रव्यों का सर्वज्ञ की प्राज्ञा के अनुसार धद्धान स्वापरनामधयं तदुभयम् (सम्यक्त्वमिथ्यात्वम्)। करता है उसे सम्यक्त्वाराधक कहा गया है। (त. वृत्ति श्रुत. ८-६)।
सम्यक्त्वाराधना-भावाणं सहहणं कीरइ जं जिसको फलदानशक्ति कुछ अंश में रोक दी गई सुत्तउत्तजुत्तीहिं । आराहणा हु भणिया सम्मत्ते सा है ऐसी मिश्रित अवस्था में वर्तमान दर्शनमोह मुणिदेहि ॥ (भ. प्रा. ४)। कर्मप्रकृति को सम्यक्त्व-मिथ्यात्व कहा जाता है। प्रागमोक्त युक्तियों के द्वारा जो पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्वमोहनीय-देखो सम्यमिथ्यात्व । १. किया जाता है उसे सम्यक्त्वनाराधना कहा तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासी- गया है। न्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वेदय- सम्यक्षद्धान-१. रुचिजिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक्मानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते । (स. सि. श्रद्धानमुच्यते । (योगशा. १-११७) । २. रुचिः ८-९) । २. अत्तागमपदस्थसद्धाए जस्सोदएण सि- श्रुतोक्ततत्त्वेषु सम्यक्श्रद्धानमुच्यते । (त्रि. श. पु. थिलत्तं होदितं सम्मत्तं । (धव. पु. ६, पृ. ३६); च. १, ३, ५८५) । उप्पण्णस्स सम्मत्तस्स सिढिलभावुप्पाययं अथिरत्त- १ जिन भगवान के द्वारा निर्दिष्ट तत्वों के विषय कारणं च कम्मं सम्मत्तं णाम । (धव. पु. १३, पू. में जो रुचि उत्पन्न होती है उसे सम्यक् अर्थात् ३५८)। ३. यस्योदयेनाप्तागम-पदार्थेषु श्रद्धायाः समीचीन श्रद्धान (सम्यक्त्व) कहा जाता है। शैथिल्यं तत् सम्यक्त्वं कोद्रवतन्दुलसदृशम् । (मूला. सम्यक्श्रुत-१. जं इमं अरहंतेहि भगवंतेहि उप्पवृ. १२-१६०)।
ण्णणाण-दसणधरेहिं तेलुक्कनिरिक्खिअमहिन१ शभ परिणाम के द्वारा जिसके मनभाग को पूइएहि तीय-पड़प्पण्णमणागयजाणएहि सव्वण्णहि रोक दिया गया है तथा जो उदासीन रूप से स्थित सव्वदरिसीहि पणीधे दुपालसंगं गणिपिडगंतं । जहा जीव के श्रद्धान को नहीं रोक सकता है ऐसा वही -पायारो XXX इच्चेअं दुवालसंगं गणिपिडगं मिथ्यात्व सम्यक्त्वमोहनीय कहलाता है। इसके चोद्दसपुग्विस्स सम्मसुमं अभिण्णदसपुब्धिस्स सम्मउक्ष्य का अनुभव करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि सुअं तेण परं भिण्णेसु भयणा, से तं सम्मसुधे । कहा जाता है। २ जिसके उदय से प्राप्त, मागम (नन्दी. सू. ४०, पृ. १६१-६२)। २. सम्यग्दृष्टे: और पदार्थों के श्रद्धान में शिथिलता होती है उसे प्रशमादिसम्यक्परिणामोपेतत्वात् स्वरूपेण प्रति
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सम्यगनेकान्त] ११०५, जैन-लक्षणावली
[सम्यग्ज्ञान भासनात् सम्यक्श्रुतं पित्तोदयादभिभूतस्य शर्करा- ५१) । ३. xxx तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं । दिवदिति । (नन्दी. हरि. ३. पृ. ८२) ।
(मोक्षप्रा. ३८) । ४. अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं १ सर्वज्ञ और सर्वदर्शी प्ररहन्त भगवान के द्वारा विना च विपरीतात् । नि:सन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानप्राचारादिरूप जिस द्वादशांगश्रुत का प्रणयन किया मागमिनः ॥ ( रत्नक. ४२) । ५. येन येन प्रकारेण गया है उसे सम्यकश्रुत कहते हैं। यह सम्यकश्रुत जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगमः सम्यचतुर्दशपूर्वी और अभिन्नदशपूर्वी के होता है, इनसे ज्ञानम् । (स सि. १-१)। ६. नय-प्रमाणविकअन्य जनों के वह भाज्य है।
ल्पपूर्वको जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगमः सम्यग्ज्ञानम् । सम्यगनेकान्त--१. एकत्र स्वप्रतिपक्षानेकधर्मस्व- (त. वा. १, १,२)। ७. तेषां जीवादिसप्तानां रूपनिरूपणो युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धः सम्यगनेकान्तः। संशयादिविवर्जनात् ।। याथात्म्येन परिज्ञानं सम्य(त. वा. १, ६, ७) । २. एकत्र वस्तुन्य स्तित्व- रज्ञानं समादिशेत् । (म. प्र. ४७, ३०६-७)। नास्तित्वादिनानाधर्मनिरूपणप्रवणः प्रत्यक्षानुमाना- ८. स्वार्थाकारपरिच्छेदो निश्चितो बाधवजितः । गमाविरुद्धस्सम्यगने कान्तः। (सप्तभं. पृ. ७४)। सदा सर्वत्र सर्वस्य सम्यग्ज्ञानमनेकधा ॥ (त. इलो. १ जो युक्ति और मागम के विरोध से रहित होता १, १, २) । ६. स्वार्थव्यवसायात्मकं सम्यग्ज्ञानम् । हमा एक ही वस्तु में अपने विरोधी धर्म के साथ अनेक (प्रमाणप. पू. ५३)। १०. सम्यग्ज्ञानं तु लक्ष्यधर्मों (जैसे-... अस्तित्व-नास्तित्व व नित्यत्व-प्रनि- लक्षणव्यवहाराव्यभिचारात्मक ज्ञानावरणकर्मक्षयत्यत्वादि) के स्वरूप का निरूपण किया करता है क्षयोपशमसमुत्थं मत्यादिभेदम् । (त. भा. सिद्ध. उसे सम्यगनेकान्त कहते हैं।
वृ. १-१)। ११. Xxx सम्यग्ज्ञानं स्यादवसम्यगाचार---सम्यक् स्वशास्त्रविहितानुष्ठानाद. बोधनम् । (त. सा.१-४); सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थविपरीतः, आचारः अनुष्ठान येषां ते सम्यगाचाराः, व्यवसायात्मकं विदुः । मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्ययसम्यग्वा इतो व्यवस्थित प्राचारो येषां ते समिता- केवलम् ॥ स्वसंवेदनमक्षोत्थं विज्ञानं स्मरणं तथा । चाराः । (सूत्रकृ सू. शी. ३. २, ५, ३१)। प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा ॥ (त. सा. जिनका प्राचार अपने शास्त्र में वणित अनुष्ठान से १,१५-१६)। १२. प्रमाण-नय-निक्षेपर्यो याथाविपरीत नहीं है वे सम्यगाचार----समीचीन प्राच- त्म्येन निश्चयः। जीवा षु सम्यग्ज्ञानं तदिरण वाले कहलाते हैं । अथवा (पाठान्तर का अनु- ष्यते ।। (तत्त्वानु. २६) । १३. सम्यग्ज्ञानं पदार्थासरण कर) 'सम्' का अर्थ समीचीन और 'इत' का नामवबोध: xxx। (प्रद्युम्नच. ६-४७) । अर्थ व्यवस्थित है। तदनुसार जिनका प्राचार १४. यथावदवगमः सम्यग्ज्ञानम् । (न्यायकु. ७६, समीचीनरूप में व्यवस्थित हैं उन्हें समिताचार प.८६५) । १५. संसय-विमोह-विब्भमविवज्जियं कहा जाता है।
अप्प-परसरूवस्स । गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेय. सम्यगेकान्त-१. सम्यगेकान्तो हेतुविशेषसामर्थ्या- भेयं च ॥ (द्रव्यसं. ४२)। १६. यद् द्रव्यं यथा पेक्षः प्रमाणप्ररूपितार्थंकदेशादेशः । (त. वा. १, ६, स्थितं सत्तालक्षणम्, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यलक्षणं वा ७) । २. सम्यगेकान्तस्तावत् प्रमाणविषयीभूतानेक- गुण-पर्यायलक्षणं वा सप्तभङ्गयात्मकं वा तत् तथा धर्मात्मकदस्तुनिष्ठकधर्मगोचरो धर्मान्तराप्रतिषेध- । जानाति य प्रात्मसम्बन्धी स्व-परपरिच्छेदको भाव: कः । (सप्तभं. पृ. ७३-७४)।
परिणामस्तत् संज्ञानं भवति । (परमा. वृ.२-२६)। १जो यक्ति के बल से प्रमाण के द्वारा प्ररूपित १७. तस्यैव सुखस्य (रागादिविकल्पोपाधिरहितचिपदार्थ के एक देश को प्रमुखता से विषय करता है च्चमत्कारभावनोत्पन्नमधुररसास्वादरूपस्य सुखस्य) उसे सम्यगेकान्त कहते हैं ।
समस्तविभावेभ्य: स्वसंवेदनज्ञानेन पृथक परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञान-१. xxx तेसिमधिगमो णाण। सम्यग्ज्ञानम्। (व. द्रव्यसं. टी. ४०)। १८. यज्जा(पंचा. का. १०७; समयप्रा. १६५)। २. संसय- नाति यथावस्थं वस्तुसर्वस्वमञ्जसा। तृतीयं लोचनं विमोह-विमम विवज्जियं होदि सणाणं ।। (नि. सा, नणां सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ॥ (उपासका. २५६) ।
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सम्यग्ज्ञान]
१६. तेषामेव संशय-विमोह-विभ्रमरहितत्वेनाधिगमो निश्चयः परिज्ञानं सम्यग्ज्ञानमु X XX अथवा X X X तेषामेव सम्यक्परिच्छित्तिरूपेण शुद्धात्मनो भिन्नत्वेन निश्चयः सम्यग्ज्ञानम् । ( समयप्रा. जय. वृ. १६५) । २०. यथावद् वस्तु निर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् ॥ ( स्वरूपस. १२) । २१. तत्र जीवादितत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तरादपि । यथावदवबोधो यः सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ॥ ( त्रि. श. पु. च. १, ३, ५७८) । २२. यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद् विस्तरेण वा । योऽवबोधस्तमत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ।। ( योगशा. १ - १६ ) । २३. वत्थूण जं सहावं जहद्वियं णय पमाण तह सिद्धं । तं तह व जाणणे इह सम्मं णाणं जिणा वंति ॥ ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. ३२६) । २४. ×× X स्वार्थविज्ञानं सम्यग्ज्ञानमसंशयम् । ( जीव. च ७-१२ ) । २५. सम्यग्ज्ञानं यथावस्थितवस्तुग्राहि ज्ञानम् । ( चारित्रभ. ६, पृ. १८६ । २६. येन येन प्रकारेण जीवादया पदार्थाः व्यवस्थिताः वर्तन्ते तेन तेन प्रकारेण मोह संशयविपर्ययरहितं परिज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् । (त. वृत्ति श्रुत १ - १ ) । २७. जीवादीनां पदार्थानां याथात्म्यं तत्त्वमिष्यते । सम्यग्ज्ञानं हि तज्ज्ञानं X X X ॥ ( जम्बू. च. ३-१७ ) ।
१ जीवाजीवादि पदार्थों के श्रधिगम का नाम सम्यग्ज्ञान है । २ संशय, श्रनध्यवसाय और भ्रान्ति से रहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । ५ जिस जिस प्रकार से जोवादि पदार्थ व्यवस्थित हैं उनका उसी रूप से जो ग्रहण होता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं । १० लक्ष्य लक्षण व्यवहार के दोष से रहित जो ज्ञानावरण कर्म के क्षय श्रौर क्षयोपशम से मति श्रुतादि भेदरूप ज्ञान होता है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्दर्शन - देखो सम्यक्त्व । १ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । (त.सू. १-२ ) । २. प्रशस्तं दर्शन सम्यग्दर्शनम्, सङ्गतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । ( त. भा. १ - १ ) ; तत्त्वानामथानां श्रद्धानम्, तत्त्वेन वा अर्थानां श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानम् । तत् सम्यग्दर्शनम् । XX X तदेवं प्रशंम संवेग निर्वेदानुकम्पा स्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन. मिति । ( त. भा. १-२ ) । ३ एतेष्वध्यवसायो योऽर्थेषु विनिश्चयेन तत्त्वमिति । सम्यग्दर्शनमेतत्
११०६, जैन-लक्षणावली
| सम्यग्दर्शन
XXX ॥ ( प्रशमर. २२२ ) । ४. तत्त्वा [ थ्या ]नां भावानां निसर्गादधिगमाद्वा शुद्धानां रुचिः सम्यग्दर्शनम् । (उत्तरा चू. पृ २७२ ) । ५. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागम तपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ ( रत्नक. ४ ) । ६. प्रणिधानविशेषा हितद्वैविध्यजनितव्यापारं तत्त्वाश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । (त. वा. १, १, १ ) । ७. तत्तत्थसद्द होणं सम्मत्तं XXX । ( श्रा. प्र. ६२ ) । ८. मिथ्यात्वमोहनीय (क्षय) क्षयोपशमोपशमसमुत्था तत्त्वरुचिः सम्यग्दर्शनम् । ( त. भा. हरि. वृ. १-२, पृ. १४) । ६ यन्मिथ्या स्वभावप्रचितपरिणाम विशेषाद् विशुध्यमानकं सप्रतिघातं सम्यक्त्वकारणं सम्यग्दर्शनम् । ( श्रनुयो हरि. वृ. पू. ६३) । १०. तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । (श्रा. प्र. टी. ३४१ ) । ११. सम्यग्दर्शनमत्रेष्टं तत्त्वश्रद्धानमुज्ज्वलम् । व्यपोढसंशयाद्यन्तनिश्शेषमल संकरम् ॥ ( ह. पु. ५८-१९ ) । १२. प्राप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं परया मुदा । सम्यग्दर्शनमाम्नातं तन्मूले ज्ञान चेष्टिते ॥ ( म. पु. ६-१२१ व २४ - ११७) । १३. प्रणिधानविशेषांत्थद्वैविध्यं रूपमात्मनः । यथास्थितार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमुद्दिशेत् ॥ ( त. इलो. १, १, १ ) । १४. अदभिहिताशेष द्रव्य - पर्याय प्रपञ्च विषया तदुपघातिमिथ्यादर्शनाद्यनन्तानुबन्धिकषायक्षयादिप्रादुर्भूता रुत्रिर्जीवस्यैव सम्यग्दर्शनमुच्यते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-१, पु. २६ ) ; दृष्टिर्या विपरीतार्थग्राहिणी जीवादिकं विषय मुल्लिखन्तीव प्रवृत्ता सा सम्यग्दर्शनम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. १ - १, पृ. ३० ) ; मुख्यया तु वृत्त्या रुचिरात्मपरिणामो ज्ञानलक्षणः श्रद्धा संवेगादिरूपः सम्यग्दर्शनम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-७, पृ. ५५); प्रशम- संवेग - निर्वेदाऽस्तिक्याऽनुकम्पाभिव्यक्तिलक्षणं सम्यग्दर्शनम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४) । १५. जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेश विविक्तमात्मरूपं तत् ॥ ( पु. सि. २२) । १६. श्रद्धानं (तत्त्वार्थानाम् ) दर्शनं X X X (त.सा. १-४ ) । १७. एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः पूर्णज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव निय मादात्मा च तावानयम् तन्मुक्त्वा नवतत्त्व सन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः ॥ ( समयप्रा. क. १-६) ।
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सम्यग्ज्ञान]
१८. जीवादयो नवाप्यर्था ये यथा जिनभाषिताः । ते तथैवेति या श्रद्धा सा सम्यग्दर्शनं स्मृतम् ॥ ( तवानु. २५ ) । १६. सर्वज्ञोक्तार्थानाम् इदमित्थमेव इति श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । ( न्यायकु. ७६, पृ. ८६५ ) । २०. सम्यग्दर्शनं तु तत्त्वार्थश्रद्धानरूपम् । ( सूत्र कृ. सू. शी. वू. २, ५, १) । २१. सम्यक्त्वं भावना माहुर्युक्तियुक्तेषु वस्तुषु । ( उपासका . ५ ) ; प्राप्तागम पदार्थानां श्रद्धानं कारणद्वयात् । मूढाद्यपोढमष्टाङ्गं सम्यक्त्वं प्रशमादिभाक् ॥ ( उपासका. ४८) । । २२. जिनेन भगवताऽर्हता परमेष्ठिनोपदिष्टे निर्ग्रन्थलक्षणे मोक्षमार्गे श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । (चा. सा. पृ. २); जिनोपदिष्टे नैर्ग्रन्थ्ये मोक्षवत्र्त्मनि रुचिः सम्यग्दर्शनम् । (चा. सा. पृ. २४) । २३. जीवाजीवादितत्त्वानां भाषितानां जिनेशिना । श्रद्धानं कथ्यते सद्भिः सम्यक्त्वं व्रतपोषकम् ॥ ( धर्मप. १६- १० ) । २४. रागादिविकल्पोपाधिरहितचिच्चमत्कार भावनोत्पन्न मधुर रसास्वादसुखोऽहमिति निश्चयरूपं सम्यग्दर्शनम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४० ) ; वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत शुद्ध जीवादितस्त्वविषये मलिनावगाढरहितत्वेन श्रद्धानं रुचिनिश्चय इदमेवे - त्थमेवेति निश्चयबुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४१) । २५. स्वशुद्धात्मोपादेयभूतरुचिविकल्परूपं सम्यग्दर्शनम् । ( प्रव. सा. जय. वृ. ३-३८ ) । २६. यत् पुनरात्मपरिणतिस्वभावं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनम् XXX। ( श्राव. नि. मलय. बृ. १२१) । २७. दर्शनं दृग्, दर्शन मोहोपशमादिसन्निधाने सत्याविर्भूततच्छक्तिविशेषस्यात्मनो ज्ञानसम्यग्व्यपदेशहेतुस्तत्त्वार्थश्रद्धानपरिणतिः । ( अन. घ. स्व. टी. १-१, पृ. २) ।
चल
१ तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा जाता है । ३ जीवादि पदार्थों के विषय में जो 'यही तत्व है' ऐसा निर्धारण होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । ५ परमार्थभूत प्राप्त, श्रागम और गुरु का जो तीन मूढतानों से रहित और आठ अंगों सहित श्रद्वान होता है उसका नाम सम्यग्दर्शन है । ६ जिस तत्वार्थश्रद्धान में बाह्य परिणाम के साथ अन्तरंग परिणामस्वरूप दर्शनमोह के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम से जीवादि पदार्थविषयक प्रधिगम अथवा निसर्गरूप व्यापार श्रात्मसात् किया जाता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
११०७, जैन- लक्षणावली
[ सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन वाकू - १. सम्यङ्मार्गस्योपदेष्ट्री सा सम्यग्दर्शन वाक् । (त. वा. १,२०, १२, पृ. ७५;
व. पु. १, पृ. ११७ ) । २. सम्यग्मार्गे नियोक्त्री या सम्यग्दर्शनवागसी । ( ह. पु. १० - ६६) । ३. सम्मग्गोवदेसकं वयणं सम्मदंसणवयणं । ( अंगप पृ. २३) ।
१ जिस वचन के द्वारा समीचीन मार्ग का उपदेश किया जाता है उसे सम्यग्दर्शनवाक् कहते हैं । सम्यग्दर्शन विनय - अर्हत्प्रणीतस्य च धर्मस्याचार्योपाध्याय स्थविर-कुल- गण सङ्घ साधु- संभोगा( मनोज्ञा ? ) नां चानासादना प्रशम-संवेग निर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्यानि च सम्यग्दर्शनविनयः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - २३ ) ।
अरहन्त के द्वारा उपदिष्ट धर्म, श्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, साधु और संभोग (मनोज्ञ) इनकी प्रासादना न करके प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और प्रास्तिक्य इन गुणों का श्राश्रय लेना; इसका नाम दर्शनविनय है । सम्यग्दृष्टि -- १. भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो || ( समय प्रा. १३) । २. सद्दव्वर सवणो सम्माइट्ठी हवेइ नियमेण । (मोक्षप्रा. १४ ) । ३. जो कुणइ सद्दहाणं, जीवाईयाण नवपयत्थाणं । लोयसुईसु रहिश्रो, सम्मद्दिट्ठी उसो भणिश्रो । ( पउमच. १०२ - १८१ ) । ४. अपि अप्पु मुणंतु जिउ, सम्मादिट्ठि हवेइ । ( परमा. प्र. १ - ७६ ) । ५. अप्पसरूवहँ ( सरूवइ ? ) जो रमइ छँडिवि सहु ववहारु । सो सम्माइट्ठी हवइ लहु पावइ भवपारु ।। ( योगसार ८६ ) ६. श्रद्धां कुर्वन्ति ये तस्मिन्नेधन्ते भावतश्च ये । ते सम्यग्दृष्टयः प्रोक्ताः प्रत्ययं ये च कुर्वते ।। ( वरांगच २६-६१ ) । ७. सम्यग्दृश्यन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्थाः
नया इति सम्यग्दृष्टिः, सम्यग्दृष्ट्यविनाभावाद् वा सम्यग्दृष्टि: । ( धव. पु १३, पृ. २८६-८७) । ८. सम्यक् शोभना दृष्टिर्या सत्पदार्थावलोकिनी सा सम्यग्दृष्टिर्यस्य क्षीणदर्शनमोहनीयस्य स सम्यग्दृष्टिजीव: । ( त. भा. सिद्ध. बृ. १-७, पृ. ५५ ) । ६. एए सत्तपयारा जिण दिट्ठा भासिया य एतच्चा | सद्दहइ जो हु जीवो सम्मादिट्ठी हवे सो दु || ( भावसं. दे. ३४८ ) । १०. सम्यग् श्रविपर्यस्ता, दृष्टि: जिन प्रणीतवस्तु तत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः ।
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सम्यग्मिथ्यात्व]
११०८, जैन-लक्षणावली [सम्यमिथ्यादृष्टि (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २४०, पृ. ३८७) । ११. सम्य- थ्यात्वम् । (मूला. वृ. १२-१९०) । क्त्वेन हि सम्पन्नः सम्यग्दृष्टिरुदाहृतः। (धर्मसं. १ जिस प्रकार धोने से कोदों (एक तुच्छ धान्य) था. ४-७८)। १२. स्वतत्त्व-परतत्त्वेषु हेयोपादेय- की भदशक्ति कुछ क्षीण हो जाती है और कुछ बनी निश्चयः । संशयादिविनिर्मुक्तः स सम्यग्दृष्टिरुच्यते ॥ भी रहती है उसी प्रकार जिसका रस (अनुभाग) (पू. उपासका. ६)।
कुछ क्षीण हो चुका है व कुछ बना हुआ है ऐसे उस १जो विवेकी जीव भूतार्थ का-यथार्थ वस्तुस्वरूप मिथ्यात्व को नभय या सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं । के प्ररूपक निश्चय नय का -- ग्राषय लेता है वह २ जो मिथ्यात्व स्वभाव से व्याप्त होकर विशुद्ध सम्यग्दष्टि होता है। ३ जो लोकिक श्रुतियों में और अविशद्ध श्रद्धानका कारण है उसे मिथ्यादर्शन मग्ध न होकर जीवादिक नौ पदार्थों का श्रद्धान कहा जाता है। करता है उसे सम्यग्दृष्टि कहा गया है।
सम्यग्मिथ्यादर्शन-- देखो सम्यग्मिथ्यात्व । सम्यग्मिथ्यात्व-१. तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात् क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं
सम्यग्मिथ्यादृष्टि-देखो सम्यमिथ्यादृष्टि । तदुभयमित्याख्यायते, सभ्यमिथ्यात्वमिति यावत् ।
सम्यग्वाद..... तथा सम्यग राग-द्वेषपरिहारेण, वदनं (स. सि. ८-६, त. वा. ८, ९, २)। २.यन्मिथ्या- वादः सम्यग्वादः, रागादिपरित्यागेन यथावद्वदनत्वस्वभावचितं विशद्वाविशद्धश्रद्धाकारि तत्सम्यग्मि- मित्यर्थः । (प्राव. नि. मलय. वृ. ८६४) । थ्यादर्शनम् । (अनुयो. हरि. व. पु. ६३) ।
हो। राग-द्वेष को छोड़कर जो यथार्थ भाषण किया जाता
रा ३. मिच्छत्तस्स सव्वधादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेपि है उसे सन्यग्वाद कहा जाता है। चेव संतोवसमेण सम्मत्तस्स देसघादिफद्दयाणमुद- सम्पमिथ्यादृष्टि -१. सम्यमिथ्या वोदयात् यक्खएण तेसि चेव संतोवसमेण अणदग्रोवसमेण वा सम्यमिथ्यावृष्टिः । सम्यमिथ्यात्वसंज्ञिकायाः सम्मामिच्छत्तस्स सव्वधादिफद्दयाणमुदएण सम्मा- प्रकृतेरुदयात् आत्मा क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रवोपमिच्छत्तभावो होदि त्ति xxx1 (धव. पु. ५, योगापादितेषत्कलुषपरिणामवत तत्त्वार्थश्रद्धानाश्रद्धापू. १६६); जस्सोदएण अत्तागम-पयत्थेसु तप्पडि- नरूप: सम्यमिथ्यादृष्टिरित्युच्यते । (त. वा. ६, वक्खेसु य अक्कमेण सद्धा उप्पज्जदि तं सम्मामिच्छ- १, १४)। २. दृष्टि: श्रद्धा रुचिः प्रत्यय इति त्त । (घव. पु. ६, पृ. ३६); सम्मत्त-मिच्छत्तभावा. यावत् समीचीना च मिथ्या च दष्टिर्यस्यासो सम्यणं संजोगसमुन्भुदभावस्स उपाययं कम्मं सम्मामि- ग्मिथ्यादृष्टिः। Xxx अक्रमेण सम्यग्मिथ्याछत्तं णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३५६) । ४. तदु- रुच्यात्मको जीवः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति । (धव. भयमिति सम्यग्मिथ्यातत्त्वश्रद्धानलक्षणम् । (त. भा. पु. १, पृ. १६६-६७); सम्मामिच्छत्तस्स सव्वसिद्ध. वृ. ८-१०)। ५. सम्यग्मिथ्यात्वपाकेन घादिफद्दयाणमुदएण सम्मामिच्छादिट्ठी xxx। सम्यग्थ्यिात्वमिष्यते । (त. सा. २-६२) । (धव. पु. ७, पृ. ११०) । ३. सम्यमिथ्यात्वसंज्ञा६. सम्मामिच्छुदयेण ८ जत्तंतरसव्वघादिकज्जेण। याः प्रकृतेरुदयाद्भवेत् । मिश्रभावतया सम्यग्मिथ्याण य सम्म मिच्छं पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो।। दृष्टि: शरीरवान् । (त. सा. २-२०)। ४. सद्ददहि-गुड मिव वा मिस्सं पुहभावं णेव कारि, सक्कं । हणासद्दहणं जस्स य जीवस्स होइ तच्चेसु । विरयाएवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णादवो।। (गो. विरयेण समो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो। (गो. जी. २१-२२)। ७. सम्यग्मिथ्यात्वरुचिमिधः जी. ६५४) । ५. दृष्टिः श्रद्धा रुचि: एकार्थः, समीसम्यग्मिथ्यात्वपाकतः । सुदुष्कर: पृथग्भावो दधि- चीना च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौ सम्यमिथ्यादृष्टिः मिश्रगुडोपमः ।। (पंचसं. अमित. १-२२); सभ्य- सम्यमिथ्यात्वोदयजनितपरिणामः सम्यक्त्व-मिथ्याइमिथ्यात्वपाकेन परिणामो विमिश्रितः। विष- योरुदयप्राप्तस्पर्द्धकानां क्षयात् सतामदयाभावलक्षणोमिश्रामृतस्वादः सम्यमिथ्यात्वमुच्यते ।। (पंचसं. पशमाच्च सम्यमिथ्यादृष्टि: । (मूला. वृ. १२, अमित. १-३०३, पृ. ४०)। ८. यस्योदयेनाप्ता- १५४) । गम-पदार्थेषु अक्रमेण श्रद्धे उत्पद्यते तत् सम्यमि- १ कोदों को मादकशक्ति के कुछ क्षीण और कुछ
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सयोगकेवली] ११०६, जैन-लक्षणावली
[सरःशोष प्रक्षीण रहने पर जिस प्रकार उसके उपयोग से कुछ पाठ अन्तमुहूर्तों से कम एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। ही अंश में कलषित परिणाम होता है उसी प्रकार सयोगिजिनगणस्थान- सम्प्राप्तकेवलज्ञान-दर्शनो सम्यमिथ्यात्व के उदय से जिस जीव का तत्त्वार्थ
जीवो यत्र भवति तत्सयोगिजिनसंज्ञं त्रयोदशं गुणके श्रद्धान व अश्रद्धानरूप मिश्रित परिणाम होता है।
स्थानं भवति । (त. वत्ति श्रुत.8-१)। उसे सम्पङभियादृष्टि कहा जाता है।
केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करके जीव सयोगकेवली--देखो सयोगिकेवली ।
जिस गुणस्थान में रहता है उस तेरहवें गुणस्थान सयोगिकेवली-- १. केवलणाण-दिवायरकिरण- को सयोगिकेवलिजिनगुणस्थान कहते हैं । कलावप्पणासि अण्णाणो। णवकेवललधुग्गमपाविय
सयोगिभवस्थकेवलज्ञान--केवलज्ञानोत्पत्तेरारभ्य परमप्पववएसो॥ असहायणाण-दसणसहियो वि
यावदद्यापि शैलेश्यवस्थां न प्रतिपद्यते तावत् सयोगिहु केवली हु जोएण । जुत्तो त्ति सजोइजिणो अणा
भवस्थकेवलज्ञानम् । (प्राव. नि. मलय. व. ७८, पृ. इ-णिहणारिसे वुत्तो।। (प्रा. पंचसं. १-२७ व २६%B
८३)। धव. पु. १, पृ. १६१-६२ उद्.; गो. जी. ६३,
केवलज्ञान की उत्पत्ति से लेकर जीव जब तक शैलेशी ६४) । २. मनोवाक्कायप्रवत्तिर्योग:। योगेन सह
अवस्था को प्राप्त नहीं होता तब तक उसके केवलवर्तन्त इति सयोगः । सयोगाश्च ते केवलिनश्च
ज्ञान को सयोगिभवस्थकेवलज्ञान कहा जाता है। सयोगकेवलिन: । (धद. पु. १, पृ. १६१) । ३. उत्पन्न केवलज्ञानो घातिकर्मोदयक्षयात् । सयोग
सरप्रमाण-तत्थ णं जे से बायरवोंदि कलेवरे तो श्चायोगश्च स्यातां केवलिनावुभौ ॥ (त. सा. २,
णं वाससए २ गए एगमेगं गंगावालुयं अवहाय २६) । ४. घातिकर्मक्षये लब्धा नव-केवललब्धयः ।
जावतिएणं कालेणं से कोठे खोणे णीरए णिल्लेवे येनासौ विश्वतत्त्वज्ञः सयोगः केवली विभुः । (पंच
णिट्रिए भवति, से तं सरे सरप्पमाणे। (भगवती १५, सं. अमित. १-४६) । ५. मोहक्षपणानन्तरमन्तk
खं. ३, पृ. ३८१) ।
बावर बोंदि कलेवर रूप उद्धार से सौ सौ वर्ष में हूतकालं स्वशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणकत्ववितर्कावीचारद्वितीय शुक्लध्याने स्थित्वा तदन्त्यसमये ज्ञानावरण
एक एक गंगाबालका कण का अपहार करने पर
जितने काल में वह खाली होकर नीरज, निर्लेप दर्शनावरणान्तरायत्रयं युगपदेकसमयेन निर्मूल्य मेघपञ्जरविनिर्गतदिनकर इव सकलविमलकेवल
व निष्ठित हो जाय उतने काल को सरप्रमाणकाल ज्ञानकिरणर्लोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानव
कहते हैं। तिनो जिन-भास्कराः। (ब. द्रव्यसं. टी. १३)। सरस्वती-मातेव या शास्ति हितानि पुंसो, रजः ६. सयोगिकेवली घातिक्षयादुत्पन्न केवलः । (योग- क्षिपन्ती ददती सुखानि । समस्तशास्त्रार्थविचारशा. स्वो. विव. १-१६, पृ. ११२ उद्.)।
दक्षा, सरस्वती सा तनुतां मति मे ॥ (अमित. श्रा. १असहाय (इन्द्रिय व प्रालोक प्रादि की सहायता से रहित) ज्ञान और दर्शन-केवलज्ञान व केवल. जो माता के समान पुरुषों को हित की शिक्षा देती दर्शन--से सहित होकर जिसने समस्त प्रज्ञान को है, कर्ममल को दूर फेंकती है, तथा सूख को देती नष्ट कर दिया है तथा जो नौ केवललब्धियों को है; समस्त शास्त्र के अर्थ के विचार में कुशल ऐसी प्राप्त करके परमात्मा बन चुका है उसे योग से उस जिनवाणी को सरस्वती कहा जाता है। सहित होने के कारण सयोगिकेवली कहा गया है। सरःशोष-१. सर:शोषः सरःसिन्धु-ह्रदादेरम्बु६ धातिया कर्मों के क्षय से जिसके केवलज्ञान उत्पन्न संप्लवः ॥ (योगशा. ३-११४; त्रि.श. पु. च. ६, हो चुका है उसे सयोगिकेवली कहते हैं। ३, ३४८) । २. सरःशोषो घान्यवपनाद्यर्थं जलासयोगिकेवलिकाल---अहि वस्सेहि अहि अंतो- शयेभ्यो जलस्य सारण्या कर्षणम । (सा. घ. स्वो. मुहुत्तेहि य ऊणपुवकोडी सजोगिकेवलिकालो टी. ५-२२)। होदि । (घव. पु. ४, पृ. ३५७)।
१ तालाव, नदी और ह्रद प्रादि से अल के निकासयोगिकेवली का काल (उत्कृष्ट) पाठ वर्ष और लने को सरःशोष कहते हैं। २ धान्य के बोने आदि
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सराग] १११०, जैन-लक्षणावलो
[सपिरास्रवी के लिए जलाशयों से जो सारणी के द्वारा जल को सम्यग्दर्शनम् । (भ. प्रा. विजयो. ५१)। ४. प्रशमखींचा जाता है उसका नाम सरःशोष है। संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्त्वं सराग - १. संसारकारणनित्ति प्रत्यागोऽक्षीणा- भण्यते । (परमा. व. २-१७); व्यवहारेण तु शयः सराग इत्युच्यते। (स. सि. ६-१२)। वीतराग-सर्वज्ञप्रणीतसव्व्यादि श्रद्धानरूपं सराग२. संपरायनिवारणप्रवणोऽक्षीणाशयः सरागः । सम्यक्त्वं चेति भावार्थः । (परमा, वृ२-१४३)। पूर्वोपात्तकर्मोदयवशादक्षीणाशय: सन् संपरायनिवा- १ जो तत्त्वार्थश्रद्धान प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और रणं प्रत्यागूर्ण मनाः साग इत्युच्यते । (त. वा. ६, प्रास्तिक्य गुणों से प्रगट होता है अथवा इन चिह्नों १२, ५)। ३. सांपरायनिवारण-प्रवणो अक्षीणा- से जाना जाता है उसे सरागसम्यक्त्व कहते हैं। शय: सरागः । (त. श्लो. ६-१२)। ४. रजनाद् सरागसंयम-देखो सरागचर्या सरागचारित्र । राग: संज्वलनलोभादिकषायाः, तत्सहवर्ती सरागः । १. प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तविरतिः संयमः, सरागस्य (त. भा. सिद्ध. व. ६-१३)।
संयमः सरागो वा संयमः सरागसंयमः। (स. सि. १ जो संसार के कारणों के छोड़ने में उद्यत है, पर ६-१२) । २. प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः जिसका रागादिरूप अभिप्राय नष्ट नहीं हुआ है उसे संयमः । प्राणिष्वेकेन्द्रियादिषु चक्षुरादिष्विन्द्रियेषु च सराग कहा जाता है।
अशुभप्रवृत्तेविरतिः संयम इति निश्चीयते । सरागसरागचर्या -देखो सरागचारित्र ।
स्य संयमः सरागो वा संघमः सरागसंयमः । (त. सरागचारित्र-१. मूलुत्तरसमणगुणा धारण कहणं वा. ६, १२, ६)। ३. सरागसंयमः मूल-गुणोत्तरच पंच आयारो । सोही तहव सुणिट्ठा सरायचरिया गुणसम्पद्लोभायुदयवान् प्राणवधाद्युपरमः । (त. हवइ एवं ।। (द्रव्यस्व. प्र. नयच. ३३४)। २. आदि- भा. हरि. व. ६-१३) । ४. संयमनं सयम: प्राणिमकसायबारसखवोवसम संजलण-णोकसायाणं । उद- वधाधुपरतिः, सरागस्य संयम: सरागसंयमः, मूलयेण [य] जं चरण सरागवारित्त तं जाण ।। मज्झि- गुणोत्तरगुणसम्पल्लोभाधु भयभाज इति यावत् । (त. मकसायप्रडउवसमे हु संजलण-णोकसायाणं । खइ. भा. सिद्ध. वृ. ६-१३)। ५. संसारकारणनिषेधं उवसमदो होदि ह तं चेव सरागचारित्तं ॥ (भाव- प्रत्युद्यतः अक्षीणाशयश्च सराग इत्युच्यते, प्राणीत्रि. ११-१२)।
न्द्रियेषु अशुभप्रवृत्तेविरमणं संयमः, पूर्वोक्तस्य सराग१ मुनियों के मूलगुणों व उत्तरगणों का धारण, स्य संयमः सरागसंयमः, महाव्रतमित्यर्थः । अथवा व्याख्यान, पांच प्रकार के प्राचार का परिपालन, सरागः संयमो यस्य स सरागसंयमः। (त. वृत्ति भावशुद्धि व कायशुद्धि प्रादि पाठ शुद्धियों का निर्वाह श्रुत. ६-२०)। और अतिशय निष्ठा; यह सब सरागचर्या (सराग- १ प्राणियों व इन्द्रियों के विषय में जो अशुभ प्रवृत्ति चारित्र) स्वरूप है । २ प्रादि की बारह कषायों के होती है उससे विरत होने का नाम संयम है, सराग क्षयोपशम तथा संज्वलन और नोकषायों के उदय के संयम को, अथवा सराग-राग सहित-संयम को से जो चारित्र होता है उसे सरागचारित्र जानना सरागसंयम कहा जाता है। ३ मूल और उत्तर गुणचाहिए । अथवा मध्य की पाठ कषायों के उपशम रूप सम्पत्ति के साथ लोभ आदि के उदय युक्त जो तथा संज्वलन और नोकषायों के क्षयोपश से जो प्राणवध प्रादि से निवृत्ति होती है उसे सरागसंयम चारित्र होता है उसे सरागचारित्र जानना चाहिए। कहते हैं। सरागसम्यक्त्व-१. प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्या- सर्पमुद्रा--दक्षिणहस्तं संहतालिमुन्नमय्य सर्पभिव्यक्तलक्षणं प्रथमम् । (स. सि. १-२: त. वा. फणावत् किञ्चिदाकुञ्चयेदिति सर्पमुद्रा। (निर्वाणक. १, २, ३०)। २. सरागे वीतरागे च तस्य संभ- पृ. ३२)। वतोऽञ्जसा । प्रशमादेरभिव्यक्तिः शुद्धिमात्राच्च परस्पर मिली हुई अंगुलियों से युक्त दाहिने हाथ चेतसः ॥ xxx प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्येभ्यः को ऊपर उठाकर सांप के फण के प्राकार में संकुसरागेषु सद्दर्शनस्य (अभिव्यक्तिः) । (त. श्लो. १, चित करने पर सर्पमुद्रा होती है। २, १२) । ३. प्रशस्तरागसहितानां श्रद्धानं सराग- सपिरास्रवी-१. रिसिपाणितलणिखित्तं रुक्खा
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सर्पिरास्रवी ]
हारादियं पि खणमेत्ते । पावेदि सप्पिरूवं जीए सा सप्पियासवी रिद्धी || ग्रहवा दुःखप्पमुहं सवणेण मुदिदिव्ववयणस्स । उवसामदि जीवाणं एसा सपियासवी रिद्धी ॥ ( ति प ४, १०८६ - ८७) । २. येषां पाणिपात्रगतमन्नं रूक्षमपि सपरस-वीर्यविपाकानाप्नोति, सर्पिरिव वा येषां भाषितानि प्राणिनां सन्तर्पकाणि भवन्ति ते सर्पिरास्रविणः । (त. वा. ३, ३६, ३) । ३. सर्पिर्धृतम्, जेसि तवोमहप्पेण अंजलिउडणिवदिदासेसाहारा घदासादसरूवेण परिणमति ते सप्पिसवीणो जिणा । ( धव. पु. ६, पृ. १०० ) । ४. वीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षादावि
भूताऽसाधारणकायबलत्वान्मासिक-सांवत्सरिकादिप्रतिमायोग ( ? ) रूक्षमपि [ अन्नं ] सर्पिरस - वीर्यवि पाकमवाप्नोति सतिरिवं वा येषां भाषितानि प्राणिनॉ संतर्पकाणि भवन्ति ते सर्पिरास्रविणः । (चा. सा. पृ. १०१ ) । ५. येषां पात्रपतितं कदमपि सर्पिरस - वीर्यविपाकं जायते वचनं वा शरीर-मानसदुःखप्राप्तानां देहिनां सर्पिर्वत्सन्तर्पकं भवति ते सर्पिरास्रविणः । (योगशा. स्वो विव. १-१६, पृ. ३६) । १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से में रखा साधु के हाथ गया रूख प्रहार क्षणभर में घृतरूपता को प्राप्त कर लेता है उसे सपिरास्रवी ऋद्धि कहते हैं । अथवा जिस ऋद्धि के प्रभाव से सुनि के दिव्य वचन के सुनने से जीवों के दुख श्रादि शान्त हो जाते हैं उसे सत्रिवी ऋद्धि जानना चाहिए । सपिस्त्रावी -- देखो सर्पिरास्रवी ।
११११, जैन-लक्षणावली
सर्व
सरत्यशेषानवयवानिति सर्वः । सरति गच्छति, प्रशेषानवयवानिति सर्व इत्युच्यते । (त. वा. ७,२, २) ।
जो समस्त श्रवयवों को प्राप्त होता है उसका नाम सर्व है, यह सर्व शब्द का निरुक्तार्थ है । यह सर्वविरति की एक विशेषता को प्रगट करता है । सर्वकरणोपशामना देखो करणोपशामना व प्रशस्त करणोपशामना ।
सर्वकांक्षा - १. अण्णो पुण सव्वपावादियमयाई कंबइ सा सव्वकंखा भण्णइ । ( दशवं. चू. पू. ५) । २. सर्वकांक्षा तु सर्वदर्शनान्येव कांक्षति अहिंसा प्रतिपादनपराणि सर्वाण्येव कपिल-कण भक्षाक्षपादमतानीह लोके च नात्यन्तक्लेशप्रतिपादनपराणि,
[सर्वतः कुव्यापार निषेधपोषध
अतः शोभनान्येवेति । (श्रा. प्र. टी. ८७ ) । ३. सर्वविषया ( फांक्षा ) सर्वपाखण्डिधर्माकांक्षारूपा । (योगशा. स्वो विव. २- १७) ।
२ कपिल व कणाद आदि के द्वारा प्ररूपित सब ही सम्प्रदाय अहिंसा का प्रतिपादन करते हैं, तथा वे इस लोक में अधिक क्लेश का भी प्रतिपादन नहीं करते, अतः वे सब ही उत्तम हैं; इस प्रकार सब सम्प्रदायों को प्राकांक्षा को सर्वकांक्षा कहा जाता है। सर्वज्ञ - १. जो जाणदि पच्चक्खं तियालगुणपज्जएहिं संजुत्तं । लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे दे || (कार्तिके. ३०२ ) । २. जो खुह- तिसभयहीणो दोसो तह राग मोहपरिचत्तो । चिताजराहि रहिदो सो सव्वण्हू समुद्दिट्टो || ( जं. दी. प. १३- ८५ ) । ३. तदयं चेतनो ज्ञाता संवेदनात्मा प्रतिक्षणम् । तत्प्रतिबन्ध विश्लेषे सर्वज्ञः सर्वार्थदृक् ।। सर्वज्ञः करणपर्यायव्यवधानातिवत्तिधीः । परिक्षीणदोषावरण: XX X ॥ (सिद्धिवि ८, ३७-३८, पृ. ५८० ); सर्वज्ञः सकलार्थ [विद् ] प्रशेषदोषावृत्तिच्छेदतः । ( सिद्धिवि. ८ - ४३, पृ. ५८७ ) । ४. सर्वज्ञो यथावन्निखिलार्थ साक्षात्कारी । ( रत्नक. टी. १-७) । ५. सर्वं लोकालोकवस्तुजातं जानातीति सर्वज्ञः । ( लघीय. ५०, पृ. ७३) ।
१ जो त्रिकालवर्ती गुण- पर्यायों से सहित समस्त लोक व लोक को प्रत्यक्ष जानता उसे सर्वज्ञ कहा जाता है । सर्वज्ञानावरण- सर्वं ज्ञानं केवलाख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीयम्, केवलावरणं हि श्रादित्यकल्पस्य केवलज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत्सर्वज्ञानावरणम् । ( स्थानां. अभय. वृ. १०५ ) ।
जो केवलज्ञान स्वरूप समस्त ज्ञान को श्राच्छादित करता है उसे सर्वज्ञानावरणीय कर्म कहा जाता है । सर्वतः श्राहारपोषधव्रत- सर्वतस्तु चतुर्विधस्याप्याहारस्याहोरात्रं यावत्प्रत्याख्यानम् । (योगशा. स्वो विव. ३- ८५ ) ।
चारों ही प्रकार के आहार का दिन-रात के लिए परित्याग करना, इसे सर्वतः श्राहारपोषधव्रत कहते हैं ।
सर्वतः कुव्यापार निषेधपोषध - सर्वतस्तु सर्वेषामपि कृषि सेवा वाणिज्य-पाशुपाल्य गृहकर्मादीना
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सर्वतः ब्रह्मचर्यपोषध] १११२, जैन-लक्षणावली
[सर्वसाधु मकरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-८५)। सर्वविरति--स्थूलानामितरेषां च हिंसादीनां विवखेती, व्यापार, पशुपालन और गृहकर्म मादि सभी जनम् । सिद्धिसौधकसरणिः सा सर्वविरतिस्तथा ।। व्यापारों का न करना; इसे सर्वतः कुव्यापारनिषेध. (त्रि. श. पु. च. १, १, १६५) । पोषधवत कहते हैं।
स्थल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के हिंसादिक पापों सर्वतः ब्रह्मचर्यपोषध-सर्वतस्तु अहोरात्र यावत का जो परित्याग किया जाता है. इसे सर्वविरति ब्रह्मचर्यपालनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-८५)। कहते हैं। दिन-रात पर्यन्त ब्रह्मचर्य के परिपालन को सर्वतः सर्वविषयमिथ्यादष्टिप्रशंसन-सर्वविषयं सर्वाब्रह्मचर्यपोषध कहा जाता है ।
ण्यपि कपिलादिदर्शनानि युक्तियुक्तानीति माध्यस्थ्यसर्वतः स्नानादित्याग-सर्वतस्तु सर्वस्यापि स्ना• सारा स्तुतिः सम्यक्त्वस्य दूषणम् । (योगशा. स्वो. नादेः शरीरसत्कारस्याकरणम् । (योगशा. स्वो. विव. २-१७, पृ. १८६) । विव. ३-८५)।
महर्षि कपिल प्रादि के द्वारा प्ररूपित सब ही सम्प्र. शरीरसंस्कार स्वरूप स्नानादि सभी क्रियात्रों का दाय युक्तियुक्त हैं, इत्यादि रूप में जो मध्यस्थ परित्याग करना, इसे सर्वतः स्नानादित्यागपोषध वृत्ति से स्तुति की जाती है उसे सर्व विषयमिथ्याकहते हैं।
दृष्टिप्रशंसन कहते हैं। सर्वधत्तासर्व-सा हवइ सव्वधत्ता दुपडोनारा सर्वविषया कांक्षा-देखो सर्वकांक्षा। जिया य अजिया य । दव्वे सव्वघडाई सव्वघत्ता सर्ववि
सर्वविषया शङ्का----देखो सर्वशङ्का। पुणो कसिणं ॥ (प्राव. भा. १८७; हरि. वृ. पृ.
--१. सब्वमेयं पागयभासाए बद्धं अण्णेण ४७७)।
व कुसलकप्पियं होज्जत्ति एसा सव्वसंका। (बशवै. जो जीव-अजीव स्वरूप सब वस्तुओं के समूह को चू. पृ. ६५)। २. सर्वशंका पुनः सकलास्तिकायव्याप्त करके व्यवस्थित है उसे सर्वधत्ता सर्व कहा जात एव किमेवं स्यान्नवमिति । (धा. प्र. टी. जाता है । यह नाम-स्थानादि रूप सात सर्वभेदों में ८७)। ३. सर्वविषया अस्ति वा नास्ति वा धर्म छठा है।
इत्यादि । (योगशा. स्वो. विव. २-१७) । सर्वपरिक्षेपी नेगम--सर्वपरिक्षेपी-सर्वं सामा- १ यह सब प्राकृत भाषा में निबद्ध अथवा अन्य के न्यम् एकं नित्यं निरवयवादिरूपम्, तत् परिक्षेप्तुं द्वारा कुशलता से कल्पित हो सकता है, इस प्रकार शीलमस्य स सर्वपरिक्षेपी, सामान्यगृहीति यावत् ।। की शंका को सर्वशंका कहा जाता है। २ समस्त (त. भा. सिद्ध. व. १-३५) ।
अस्तिकायों के विषय में शंका रखना कि ऐसा जो सबको-सामान्य, एक, नित्य और निरवयवादि होगा या नहीं होगा, इसे सर्वशंका कहते हैं। को-स्वभावतः ग्रहण किया करता है उसे सर्व. सर्वसंक्रमण-चरमकाण्डकचरमफाले: सर्वप्रदेशापरिक्षेपी नेगम कहते हैं।
ग्रस्य यत्संक्रमणं तत्सर्वसंक्रमणम् । (गो. क. जी. प्र. सर्वरत्ननिधि--एकेन्द्रियाणि सप्तापि सप्त पंचे- ४१३)। न्द्रियाणि च । चक्रिरत्नानि जायन्ते सर्वरत्नाभिधे अन्तिम काण्डक की अन्तिम फाली के समस्त प्रदेशनिघौ। (त्रि. श. पु. च. १, ४, ५७७) । पिण्ड का जो संक्रमण होता है उसे सर्वसंक्रमण जिस निधि में सात एकेन्द्रिय प्रोर सात पंचेन्द्रिय कहते हैं।। ये चक्रवर्ती के चौदह रत्न उत्पन्न होते हैं उसे सर्व. सर्वसाधु-णिब्याणसाधए जोगे सदा जुजति रत्ननिधि कहा जाता है।
साधवो । समा सव्वेसु भूदेसु तह्मा ते सव्वसाधवो । सर्वविपरिणामना-जा पयडी सम्वणिज्जराए णिज्जरिज्जदि सा सव्वविपरिणामणा णाम । (धव. जो मुक्तिसाधक योग-मूलगुणादि रूप अनुष्ठान में पु. १५, पृ. २८३)।
-निरन्तर अपने जो योजित करते हैं तथा समस्त जो प्रकृति सर्वनिर्जरा से निजीर्ण होती है उसका प्राणियों में समान--राग-द्वेष से विहीन- रहते हैं, नाम सर्वविपरिणामना प्रकृति है।
वे सर्वसाधु कहलाते हैं।
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सर्व स्पर्श ]
सर्वस्पर्श - १. जं दव्वं सव्वं सव्वेण फुसदि, जहा परमाणुदव्यमिदि, सो सब्बो सव्वफासो णाम । ( षट्खं. ५, ३, २२; धव. पु. १३, पृ. २१) । २. सव्वावयवेहि फासो सव्वफासो णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ७ ) ; जहा परमाणुदव्वमण्णेण परमाणुणा पुसज्जमार्ण सव्वं सव्वष्पणा पुसिज्जदि तहा श्रण्णो वि जो एवंविहो फासो सो सव्वफासो त्ति दट्ठव्वो । (घव. पु. १३, पृ. २१) ।
१ जो द्रव्य परमाणु के समान सबको सर्वात्मकरूप से स्पर्श करता है उस सबको सर्वस्पर्श कहा जाता है ।
१११३, जैन-लक्षणावली
टी. ६२) ।
विशेष - सामान्यस्वरूप व द्रव्य पर्यायरूप व्यक्ति के विधि - निषेधरूप सब धर्मों को सर्वान्त कहा गया है। सर्वार्थसिद्ध - १. सर्वेष्वभ्युदयार्थेषु सिद्धाः सर्वार्थसिद्धा:, सर्वार्थैश्च सिद्धाः सर्वे चैव चैषामभ्युदयार्थाः सिद्धा इति सर्वार्थसिद्धा: । ( त. भा. ४-२० ) । २. प्राभ्युदयिकसुखप्रकर्षवतित्वात् सर्वप्रयोजनेष्वव्याहतशक्तयः सर्वार्थसिद्धाः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४-२१) ।
१ जो सभी श्रभ्युदय सम्बन्धी प्रयोजनों में सिद्ध हैं वे सर्वार्थसिद्ध कहलाते हैं । श्रथवा जो सभी इन्द्रियविषयों से प्रसिद्ध हैं, अथवा जिनके लौकिक सुख के सब प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं उन्हें सर्वार्थसिद्ध कहा जाता है ।
सर्वानशनतप - १. परित्यागोत्तरकालो जीवितस्य यः सर्वकालः, तस्मिन्ननशनं प्रशनत्यागः सर्वानशनम् । ( भ. प्रा. विजयो २०६ ) । २. सव्वाणसणं सर्वस्मिन् संन्यासोत्तरकालेऽनशन मशनत्यागः । (भ. श्री. मूला. २०) ।
१ प्रहारपरित्याग के बाद का जो जीवित का सब काल है उसमें भोजन के परित्याग को सर्वानशन कहा जाता है ।
सर्वानन्त - जं तं सव्वाणंतं तं घणागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादी सव्वाणंतं । ( घव. पु. ३, पू. १६ ) ।
प्रकाश को घनाकार से सब श्रोर से देखने पर उसका अन्त नहीं देखा जाता, इसीलिए श्रन्त का प्रभाव होने से उसे सर्वानन्त कहा जाता है । सर्वानुकम्पा - १. सद्दृष्टयो वापि कुदृष्टो वा स्वभावतो मार्दवसंप्रयुक्ताः । यां कुर्वते सर्वशरीर [रि] वर्गे सर्वानुकम्पेत्यभिधीयते सा ॥ (भ. श्री. विजयो. १८३४) । २. सद्दृष्टिभिः कुदृष्टिभिर्वा क्रियमाणा क्लिश्यमान सर्वप्राणिषु अनुकम्पा सर्वानुकम्पेत्युच्यते, या प्रयुक्तोऽन्यदुःखं स्वात्मस्थमिव मन्यमानस्तत्स्वास्थ्याय प्रत्युपकारनिरपेक्षं प्रयतते सदुपदेशं च ददाति । (भ. श्री. मूला. १८३४ ) ।
१ चाहे सम्यग्दृष्टि हों श्रौर चाहे मिथ्यादृष्टि हों वे मार्दवगुण से प्रेरित होकर स्वभावतः सब प्राणियों के समूह में जिस दया को किया करते हैं उसे सर्वानुकम्पा कहा जाता है । सर्वान्त - सर्वान्ताः पुनरशेषधर्मा विशेष - सामान्या त्मक द्रव्य - पर्याय व्यक्तिविधि व्यवच्छेदाः । ( युक्त्यनु.
ल. १४०
[सर्वा संख्यात
सर्वावधि - सर्व विश्वं कृत्स्नमवधिर्मर्यादा यस्य स बोधस्सर्वावधिः | X X X अथवा सरति गच्छति प्राकुञ्चन विसर्पणादीनि इति पुद्गलद्रव्यं सर्वम्, तमोही जिस्से सा सब्वोही । ( धव. पु. ६, पृ. ४७, ४८) ।
जिसके विषय की अवधि समस्त विश्व है, श्रथवा जिसकी अवधि पुद्गल (रूपी द्रव्य ) है उसे सर्वावधि कहते हैं ।
सर्वावधिजिन - सर्वावघयश्च ते जिनाश्च सर्वाजिना: । ( धव. पु. ६, पृ. ५१ ) । सर्वावधि स्वरूप जिनों को सर्वावधिजिन कहते हैं । सर्वावधिमरण - सर्वावधिमरणं नाम यदायुर्यथाभूतमुदेति सांप्रतं प्रकृति- स्थित्यनुभव- प्रदेशस्तथानुभूतमेवायुः प्रकृत्यादिविशिष्टं पुनर्बध्नाति उदेष्यति च यदि तत्सर्वावधिमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५; भावप्रा. टी. ३२ ) ।
जो प्रायु वर्तमान में प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश की अपेक्षा जिस रूप में उदय को प्राप्त है उसी रूप में यदि उसे प्रकृति- स्थिति आदि से विशिष्ट बांधता है व भविष्य में उदय को भी प्राप्त होती है तो इसे सर्वावधिमरण कहा जाता है । सर्वासंख्यात - जं तं सव्वासंखेज्जयं तं घणलोगो । कुदो ? घणागारेण लोगं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो । (धव. पु. ३, पृ. १२५ ) ।
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सर्वोदयतीर्थ ]
घनलोक को सर्वा संख्यात माना जाता है, कारण यह कि उस धनलोक को घनाकार से देखने पर प्रदेशगणना की अपेक्षा संख्या संभव नहीं है । सर्वोदयतीर्थ - सर्वान्तवत्तद्गुण- मुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव । ( युक्त्यनु. ६२ ) । जो तीर्थ - परमागम - सबके प्रभ्युदय का कारण हो उसे सर्वोदय तीर्थ कहा जाता । ऐसा वह वीतराग सर्बज्ञ प्ररूपित तीर्थ गौण श्रौर मुख्य अथवा विवक्षित प्रविवक्षित को अपेक्षा सब श्रन्तों - विधि-निषेध रूप धर्मों से सहित होता है, वही उन धर्मों के परस्पर निरपेक्ष होने पर सब धर्मों से शून्य रहता है, वह एकान्तवाद स्वरूप दुर्नयों या मिथ्यादर्शनादि का विघातक होने से समस्त आपत्तियों को दूर करने वाला तथा प्रति वादियों के द्वारा अखण्डनीय होने से निरन्त भी होता है ।
सर्वोषध - देखो सर्वोषधि । सर्वौषधि - १. जीए पस्स जलाणिल-रोम णहादीणि बाहिहरणाणि । दुक्करतवजुत्ताणं रिद्धी सव्वोसहीणामा ॥ ( ति प ४ - १०७३ ) । २. अङ्ग-प्रत्यङ्गनख - दन्त-केशादिरवयवः, तत्संस्पर्शी वाय्वादिस्सर्वं औषधिप्राप्तो येषां ते सर्वोषधिप्राप्ताः । (त. वा. ३, ३६, ३; चा. सा. पृ. ६६ ) । ३. रस- रुहिरमांस-मेट्ठि मज्ज-सुक्क - पुप्फस-खरीस कालेज्ज-मुत्तपित्तंतुच्चारादयो सब्वे प्रोसहितं पत्ता जेसि ते सव्वसहपत्ता | ( धव. पु. ६, पृ. ६७) । ४. सर्वविट्त्रादिकमोषधं यस्य स सर्वोषधः । किमुक्तं भवति ? यस्य मूत्रं विट् श्लेष्मा शरीमलो वा रोगोपशमसमर्थो भवति स च सर्वोषधः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २७३ ) । ५. सर्व एव विण्मूत्र-केशनखादयोऽवयवाः सुरभयो व्याध्यपनयनसमर्थत्वादीषधयो यस्यासौ सर्वोषधिः, अथवा सर्वा श्रामषषध्यादिका श्रौषधयो यस्य एकस्यापि साधोः स तथा । ( प्राव. नि. मलय. वृ. ६६, पू. ७८ ) । १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से दुष्कर तपयुक्त मुनियों का स्पर्श जल, वायु, रोम और नख प्रादि रोग के विनाशक होते हैं उसका नाम सर्वोषधि ऋद्धि है । २ जिनके अंग-प्रत्यंग, नख-दांत और बाल यादि श्रवयवों को स्पर्श करने वाली वायु श्रादि सब
१११४, जैन-लक्षणावली श्रौषधि को प्राप्त धारक होते हैं ।
[ सल्लेखना
जाते हैं वे सर्वोषधि ऋद्धि के
सर्वोषधिप्राप्त - देखो सर्वोषधि । सललितगेय - यत् स्वरघोलनाप्रकारेण ललतीव तत् सह ललितेन ललनेन वर्तत इति सललितम्, यदि वा यत् श्रोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् सलिलतम् । रायप. मलय. वृ. ३२ पृ. १६२-६३ ) । जो गेय स्वरघोलना के प्रकार से विलसितसा प्रतीत होता है वह ललित सहित होने से सललित गेय कहलाता है, अथवा जो श्रोत्र इन्द्रिय के शब्दस्पर्श को अतिशय सूक्ष्म उत्पन्न कराता है उसे सललित गेय जानना चाहिए। सल्लेखना - देखो संलेखना । १. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ ( रत्नक. ५- १ ) 1 २. सम्यक्काय- कषायलेखना सल्लेखना | कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना । ( स. सि. ७ - २२ ) । ३. बाह्याभ्यन्तरनैः संग्याद् गृहीत्वा तु महाव्रतम् । मरणान्ते तनुत्यागः सल्लेखः स प्रकीर्त्यते । ( वरांगच. १५-१२५) । ४. सम्यक् काय- कषाय लेखना सल्लेखना । XXX कायस्य बाह्यस्य अभ्यन्तराणां चकषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण ' सम्यक् लेखना सल्लेखना । (त. वा. ७, २२, ३) । ५. सम्यक्कायकषायाणां बहिरन्तर्हि लेखना । सल्लेखनापि कर्तव्या कारणे मारणान्तिकी | रागादीनामनुत्पन्नावगमोदितवर्त्मना । श्रशक्यपरिहारे हि सान्ते सल्लेखना मता । (ह. पु. ५८, १६०-६१ ) । ६. सम्यक्कायकषायलेखना, बाह्यस्य कायस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां यथाविधि मरणविभक्त्याराधनोदितक्रमेण तनूकरणमिति यावत् । ( त. इलो. ७ - २२ ) । ७. बाह्यस्य कायस्याभ्यन्तराणां कषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना । उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि निःप्रतिक्रियायां घर्मार्थं तनुत्यजन सल्लेखना । (चा. सा. पू. २३) । ८. चइऊण सव्वसंगे गहिऊणं तह महव्वए पंच । चरिमंते सण्णासं जं धिप्पइ सा चउत्थिया सिक्खा || ( धम्मर. १५६ ) । ६. सल्लेखना कायस्य कषायाणां च सम्यक्कृशीकरणम् । ( झन. घ. स्वो. टी
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सल्लेखना]
१११५, जैन-लक्षणावली [सवितर्क-सवीचार-सपृथक्त्व. ७-९८)। १०. सल्लेखना सम्यक लाभाद्यनपेक्ष- सविचार-विचारो नाम प्रत्थ-वंजण-जोगाण त्वेन, लेखना बाह्येनाभ्यन्तरेण च तपसा काय- संकमण, सह विचारेण सविचारं, अत्थ-वंजण-जोगाणं कषायाणां कृशीकरणम् । (सा. घ. स्वो.टी.१-१२); जत्थ संकमणं तं सविचारं भण्णइ । (दशवै. च. पृ. सल्लेखनां बाह्याभ्यन्तरतपोभिः सम्यक्काय-कषाय- ३५)। कृशीकरणमाचारम xxx। (सा. ध. स्वो. टी. अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) और योग का जो संक्रमण ७-५७)। ११. सल्लेहणा सम्यक् कृशीकरणं (परिवर्तन) होता है उसका नाम विचार है, इस अर्थात् काय-कषायाणाम् । (भ. प्रा. मूला. ६८)। विचार से सहित जो शुक्लध्यान होता है उसे १२. दुभिक्षे चोपसर्गे वा रोगे निःप्रतिकारके। सविचार कहते हैं। अर्थात जिस शक्लध्यान में तनोविमोचनं धर्मायाऽऽहुः सल्लेखनामिमाम् ॥ अर्थ, व्यञ्जन और योग का परिबर्तन हुप्रा करता (धर्मसं. श्रा. १०-२१) । १३. सत् सम्यक् लेखना है उसे सविचार शुक्लध्यान जानना चाहिए । कायस्य कषायाणां च कृशीकरणं तनकरणं सल्ले- सविज्ञानदाता-द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं भावं खना। (त. वृत्ति श्रत. ७-२२)। १४. सोऽस्ति सम्यग विचिन्त्य यः । साधुभ्यो ददते दानं सविज्ञानसल्लेखनाकालो जीर्ण वयसि चाथवा । देवाद् घोरो- मिमं विदुः ॥ (अमित. श्रा. ६-७)। पसर्गेऽपि रोगेऽसाध्यतरेऽपि च ॥ क्रमेणाराधना- जो बुद्धिमान् दाता द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का शास्त्रप्रोक्तेन विधिना व्रती। वपुश्च कषायाणां जयं भले प्रकार से विचार करके साधुत्रों के लिए दान कृत्वा तनुं त्यजेत् ॥ (लाटोसं. ६, २३४-३५)। देता है उसे सविज्ञान दाता कहते हैं । दाता के १ जिसका कुछ प्रतीकार नहीं किया जा सकता है श्रद्धादि सात गुणों में यह चौथा है। ऐसे उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा अथवा रोग के उप- सवितर्क-अवीचार-एकत्वध्यान--एकत्वेन विस्थित होने पर धर्म के लिए शरीर को छोड़ना, तर्कस्य स्याद् यत्राविचरिष्णुता। सवितर्कमवीचारइसे सल्लेखना कहते हैं। २ बाह्य में शरीर को मेकत्वादिपदाभिधम् ।। (म. पु. २१-१७१) । और अभ्यन्तर में कषायों को जो उनके कारणों जिस शक्लध्यान में एकत्व के साथ वितर्क तो रहता को कम करते हुए सम्यक् प्रकार से कृश किया है, पर वीचार नहीं रहता है; उस दूसरे शुक्लध्यान जाता है, इसका नाम सल्लेखना है।
को नाम से सवितर्क-प्रवीचार-एकत्व कहा जाता है। सविकल्प-तद्भावः परिणामः' स्यात् सविकल्प- सवितर्कध्यान-१. जम्हा सुदं वितक्कं जम्हा स्य लक्षणम् ॥ (न्यायवि. १२१)।
पुवगदप्रत्थकुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं धर्माधर्मादि द्रव्य जिस स्वरूप से हैं उनके उस स्वरूप सवितक्कं तेण तं ज्झाणं ।। (भ. प्रा. १९८१ का नाम परिणाम है। यह परिणाम सविकल्प का धव. पु. १३, पृ. ७८ उद.)। २. निजशुद्धात्मलक्षण है।
निष्ठत्वाद् भावश्रुतावलम्बनात् । चिन्तनं क्रियते सविकल्पचारित्र-तत्रैवात्मनि रागादिविकल्प- यत्र सवितर्कस्तदुच्यते ॥ (भावसं. वाम. ७१६) । निवृत्तिरूपं सविकल्पचारित्रम् । (प्रव. सा. जय. वृ. १ श्रुतज्ञान और उसके विषयभूत अर्थ को भी ३-३८)।
वितर्क कहा जाता है। चूंकि पूर्वगत श्रुत-चौदह ज्ञानस्वरूप शुद्ध प्रात्मा में जो राग-द्वेषादिरूप पूर्वो के अर्थ में जो कुशल है वही ध्याता इस विकल्पों की निवृत्ति होती है, इसे सविकल्प चारित्र शुक्लध्यान को ध्याता है, इसीलिए उस ध्यान को कहते हैं।
सवितर्क कहा जाता है। सविकल्पज्ञान-विशदाखण्डकज्ञानाकारे स्वशुद्धा- सवितर्क-सवीचार-सपृथक्त्वध्यान-१. पृथक्त्वेन स्मनि परिच्छित्तिरूपं सविकल्पज्ञानम् । (प्रव. सा. वितर्कस्य वीचारो यत्र विद्यते । सवितर्क सवीचारं जय. वृ. ३-३८)।
सपृथक्त्वं तदिष्यते ॥ (ज्ञाना. ४२-१३, पृ. ४३३)। निर्मल प्रखण्ड एक ज्ञानमय शुद्ध प्रात्मा के विषय २. पृथक्त्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र तद् विदुः । में जो परिच्छित्ति होती है उसे सविकल्प ज्ञान सवितर्क सवीचारं पृथक्त्वादिपदाह्वयम् ॥ (म. पु. कहते हैं।
२१-१७०)। ३. सवितर्क सवीचारं सपृथक्त्वमुदाहृ
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सविपाकनिर्जरा ]
तम् । त्रियोगयोगिनः साधोः शुक्लमाद्यं सुनिर्मलम् ॥ ( भावसं वाम ७०१ ) ।
१ प्रथम शुक्लध्यान में चूंकि पृथक्ता के साथ वितर्क और वोचार ये दोनों भी रहते हैं, इसीलिए उसे सवितर्क - विचार - सपृथक्त्व कहा जाता है । सविपाक निर्जरा - १. अनेहसा या दुरितस्य निर्जरा, साधारणा साऽपरकर्मकारिणी । ( श्रमित. श्रा. ३-६५ ) । २. सयमेव कम्मगलणं इच्छा रहियाण होइ सत्ताणं । सविपक्कणिज्जर। सा XX X ॥ ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. १५७ ) । ३. चतुर्गतिभव - महासमुद्रे एकेन्द्रियादिजीवविशेषः श्रवघूर्णिते नानाजातिभेद संभृते दीर्घकालं पर्यटतो जीवस्य शुभाशुभस्य क्रमपरिपाककालप्राप्तस्य कर्मोदयावलि - प्रवाहानुप्रविष्टस्य प्रारब्धफलस्य कर्मणो या निवृत्तिः सा सविपाकनिर्जरा कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ८, २३) । ४. तत्र सविपाका स्वकालप्राप्ता स्वोदयकालेन निर्जरणं प्राप्ता, समयप्रबद्धेन बद्धं कर्म स्वाबाघाकालं स्थित्वा स्वोदयकालेन निषेकरूपेण गलति पक्वाम्रफलवत् । ( कार्तिके. टी. १०४) । ५. यथाकालं समागत्य दत्त्वा कर्म रसं पचेत् । निर्जरा सर्वजीवानां स्यात् सविपाकसंज्ञकः [का] । ( जम्बू. च. १३-१३९) ।
१ समय के अनुसार जो कर्म की निर्जरा होती है वह सभी जीवों के साधारण है व उसे सविपाकनिर्जरा कहा जाता है । वह नवीन कर्मबन्ध की कारण है । २ इच्छा से रहित जीवों के जो स्वयं कर्मों का गलन होता है उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं ।
सवीचार - देखो सविचार । १. प्रत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो ह वीचारो । तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥ ( भ. आ. १८८२) । २. प्रर्थादर्थान्तरे शब्दाच्छब्दान्तरे च संक्रमः । योगाद् योगान्तरे यत्र सवीचारं तदुच्यते । ( भावसं. वाम ७०४ ) ।
१ अर्थ ( द्रव्य व पर्याय), व्यञ्जन (शब्द) श्रीर योग इनका जो संक्रम (परिवर्तन) होता है उसका नाम वीचार है । इस वीचार का सद्भाव होने से प्रथम शुक्लध्यान को सवीचार कहा गया है । २ जिस ध्यान में एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक शब्द से दूसरे शब्द में तथा एक योग से दूसरे योग
१११६, जैन- लक्षणावली
[ सहजमित्र
में संक्रमण हुधा करता है उसे सवीचार कहा जाता है ।
सवीचार - कायक्लेश - १. सवीचारं ससंक्रम पूर्वावस्थिताद् देशाद् गत्वाऽपि स्थापितस्थानम् । (भ. प्रा. विजयो. २२३ ) । २. सविचारं ससंक्रम पूर्वस्थानात् स्थानान्तरे गत्वा प्रहर दिवसादिपरिच्छेदेनावस्थानम् । (भ. प्रा. मूला. २२३) । २ पूर्व स्थान से जाकर पहर अथवा दिन श्रादि को मर्यादा से अन्य स्थान में रहना, इसे सवीचार कायक्लेश कहते हैं ।
सव्याघातपादपोपगमन - १. सतोऽप्यायुषो यदोपत्रान्तिः क्रियते समुपजातव्याधिनोत्पन्न महा वेदनेन तत् सव्याघातम् । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६-१६) । २. तत्र सतोऽप्यायुषः समुपजातव्याधिविधुरेणोत्पन्नमहावेदनेन वा देहिना यदुत्क्रान्तिः क्रियते तत् सव्याघातम् । (योगशा. स्वो विव. ४-८६ ) । १ विद्यमान भी आयु का जब उपक्रमण किया जाता है तब उत्पन्न हुई व्याधि के साथ जो मरण होता है उसे सव्याघात पादपोपगमन मरण कहते हैं । सव्वकुले - सव्वकुले णामं जेण सव्वतो सव्वसंभवाभावा णो तच्च सव्वतो सव्वहा सव्वकालं व णत्थि - त्ति सव्वच्छेदं वदति, से तं सव्वकुले । (ऋषिभा.
२०, पृ. १५) ।
सबसे सबकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, इसलिए सर्वतः, सर्वथा व सब काल तत्त्व नहीं है, इस प्रकार सब का उच्छेद जरना, इसे सव्वकुल कहा जाता है । सशल्यमरण - माया निदान - मिथ्यात्वलक्षणशल्यसमेतस्य मरणं सशल्यं मरणम् । (भ. श्री. मूला. २५) ।
माया, निदान और मिथ्यात्व स्वरूप शल्य के साथ जो मरण होता है उसे सशल्य मरण कहते हैं । सहज मित्र - १. तत्सहजं मित्रं यत्पूर्वपुरुषपरम्परायातः सम्बन्धः । (नीतिवा. २३-३, पृ. २१६) । २. तथा च भागुरि: – सम्बन्धः पूर्वजानां हि यस्तेन योऽत्र समायो । मित्रत्वं कथितं तच्च सहजं नित्यमेव हि ॥ ( नीतिवा. टी. २३-३) ।
१ जिसके साथ पूर्व पुरुषों का -पिता-पितामह श्रादि का - संबन्ध परम्परा से चला आया है वह सहज मित्र माना जाता है ।
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सहज शत्रु] १११७, जैन-लक्षणावली
[संकल्प सहज शत्रु-समाभिजनः सहजशत्रुः । (नीतिवा. भ्याख्यान कहा जाता है। यह सत्याणुव्रत का एक २९-३३, पृ. ३२१)।
अतिचार है। जो सम्पत्ति प्रादि का उत्तराधिकारी होता है उसे सहानवस्थालक्षण विरोध-सहानवस्थालक्षणो सहज शत्रु माना गया है, वह कभी भी भलाई का हि विरोधः पदार्थस्य पूर्वमुपलम्भे पश्चात्पदार्थान्तरविचार नहीं करता।
सद्भावादभावावगतौ निश्चीयते शीतोष्णवत् । (प्र. सहन --सहनं चास्य कियादिवादिनां विचित्रमत- क. मा. परि. ४, सू. ६, पृ. ४६८)। श्रवणेऽपि निश्चलचित्ततया घारणम् । (समवा.
पदार्थ का पूर्व में उपलम्भ होने पर पश्चात् अन्य अभय. वृ. २२)।
पदार्थ के सदभाव से उसके प्रभाव का ज्ञान होने क्रिया-प्रक्रिया विडियों मनमानेपर पर दोनों में जो विरोध देखा जाता है उसे सहानभी निश्चल चित्त रहना--क्रोध आदि न करना,
वस्थारूप विरोध समझना चाहिए। यह प्रज्ञानपरोषह का सहन है ।
संकट-१. अइसण्हदेहपमाणेन संकुडदि त्ति संकुसहसानिक्षेपाधिकरण-१. उपकरणं पुस्तकादि,
डो। (धव. पु. १, पृ. १२०); संहरधर्मत्वात्संकटः। शरीरं शरीरमलानि वा सहसा शीघ्र निक्षिप्यमा
(धव. पु. ६, पृ. २२१)। २. व्यवहारेण सूक्ष्मणानि भयात् कुतश्चित्कार्यान्तरकरणप्रयुक्तेन वा
निगोदलब्ध्यपर्याप्तकसर्वजघन्यशरीरप्रमाणेन संकुत्वरितेन षड्जीवनिकायबाधाधिकरणतां प्रतिपद्यन्ते ।
टति संकुचितप्रदेशो भवतीति संकुटः। (गो. जी. (भ. प्रा. विजयो. ८१४) । २. पुस्तकाद्युपकरण
जी. प्र. टी. ३३६) । ३. जहण्णेण संकुइदपदेसो शरीरतन्मलानि भयादिना शीघ्र निक्षिप्यमाणानि
संकुडो। (अंगप. २, ८६-८७, पृ. २६५) । षड्जीवबाघाधिकरणत्वात् सहसानिक्षेपः । (अन.
१ जीव अतिशय श्लक्ष्ण (सूक्ष्म) शरीर के प्रमाण
प्रात्मप्रदेशों से संकुचित हो सकता है, इसीलिए घ. स्वो. टी. ४-२८)।
उसे संकट या संकुट कहा जाता है। १ पुस्तक प्रादि उपकरण, शरीर अथवा शरीरगत
संकर-१. संकरोऽयोग्यरसंयतैः सह मिश्रणम् । मल इनको सहसा-शीघ्रता से-रखने पर अथवा
(भ. प्रा. विजयो. २३२) । २. संकरोऽसंयतः सह भय से या किसी अन्य कार्य में दत्तावधान होने से
मिश्रणम् । (भ. प्रा. मूला. २३२)। शीघ्रतावश रखे गये उपर्युक्त उपकरण प्रादि प्राणि
१ अयोग्य और असंयमी जनों से मिश्रण होना, समूह की बाधा के प्राधार होते हैं । इसलिए इसे
इसका नाम संकर है। क्षपक के लिए निर्दिष्ट सहसानिक्षेपाधिकरण कहा जाता है।
विविक्त वसति में इस प्रकार का संकर संभव सहसादोष-पालोकन-प्रमार्जनेऽकृत्वा पुस्तकादेरा- नहीं है। दानं निक्षेपं वा कुर्वत एकः सहसाख्यो दोषः । (भ. संकल्प- १. व्यापादनाभिसंघिः संकल्पः। (श्रा. प्रा. मला. ११६८)।
प्र.टी. १०७) । २. बहिर्द्रव्ये चेतनाचेतन-मिश्रे अवलोकन व प्रमार्जन न करके पुस्तक आदि का ममेदमित्यादि परिणामः संकल्पः । (पंचा. जय. वृ. ग्रहण करना या रखना, यह एक प्रादान-निक्षेपण. ८)। ३. इष्टाङ्गनादर्शनादिना तां प्रत्युत्कण्ठागों समिति का सहसा नामक दोष है।
मनोव्यापारः संकल्पः । (अन. घ. स्वो. टी. ४, सहसाऽभ्याख्यान--१. सहसा अनालोच्य अभ्या- ६५)। ख्यानं सहसाऽभ्याख्यानम् । (प्राव. हरि. व. अ. ६, १ प्राणियों के घात प्रादि का जो विचार होता है पृ.८२१)। २. सहसा अनालोच्याभ्याख्यानमसद्दो- उसे हिसा-अहिंसा के प्रसंग में संकल्प कहा जाता षाध्यारोपणं यथा चौरस्त्वं पारदारिको वेत्यादि। है। २चेतन, अचेतन और मिश्र द्रव्यों में जो 'यह (योगशा. स्वो. विव. ३-६१)।
मेरा है और मैं इसका स्वामी हैं' इस प्रकार का २ समुचित विचार न करके कथन करना तथा जीवका अभिप्राय होता है उसे प्रकृत में संकल्प अविद्यमान दोषों का प्रारोप करना-जैसे तुम कहते हैं। ३ अभीष्ट स्त्री के देखने प्रादि से जो चोर हो, परस्त्रीगामी हो इत्यादि, इसे सहसा- उसके प्रति उत्कण्ठा से प्रेरित मन का व्यापार
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संकुचितदोष]
१११८, जैन-लक्षणावली
[संक्षेपरुचि
होता है उसका नाम संकल्प है। इस प्रकार विषय- मरण कहते हैं। भेद से संकल्प अनेक प्रकार का है।
संक्लिष्ट-१. पूर्वजन्मनि सम्भावितेनातितीव्रण संकुचित दोष-कुंचितहस्ताभ्यां शिरः परामर्श । संक्लेशपरिणामेन यदुपाजितं पापकर्म तस्योदयात् कुर्वन यो वन्दनां विदधाति जानुमध्ययोर्वा शिरः सततं क्लिष्टाः संक्लिष्टाः। (स. सि. ३-५)। कृत्वा संकुचितो भूत्वा यो वन्दनां करोति तस्य २. पूर्वभवसंक्लेशपरिणामोपात्ताशुभकर्मोदयात् सतत संकचितदोषः । (मला. व. ७-१०८) ।
क्लिष्टाः संक्लिष्टाः। पूर्वजन्मनि भावितेनातितीवेण संकुचित हाथों से शिर का स्पर्श करते हुए जो संक्लेशपरिणामेन यदुपाजितं पापकर्म तस्योदयात् वन्दना करता है अथवा घुटनों के बीच में शिर को सततमविरतं क्लिष्टाः संक्लिष्टाः। (त. वा. ३, करके व संकुचित होकर जो वन्दना करता है ५, १)। उसके संकुचित नाम का वन्दना का दोष होता है। पूर्व जन्म में सम्भावित अतिशय तीव्र संक्लेश संकुट-देखो संकट ।
परिणाम से जिस पापकर्म को उपाजित किया गया संक्रम-देखो सङ्क्रमण । सो संकमो त्ति वुच्चइ जं है उसके उदय से जो निरन्तर संक्लेश को प्राप्त बंधणपरिणयो पोगेणं । पगयंतरत्थदलियं परिणम- होते हैं उन्हें संक्लिष्ट (असुरकुमार विशेष) कहते हैं। यइ तयणुभावे जं ।। (कर्मप. सं. क. १)। संक्लेश-१. प्रार्त-रौद्रध्यानपरिणामः संक्लेशः । जिस प्रकृति के बन्धक स्वरूप से परिणत जीव (प्रष्टशती ६५) । २. प्रसादबंधजोग्गपरिणामो संक्लेश अथवा विशद्धिरूप प्रयोग के वश बध्यमान संकिलेसो णाम । (धव. पु. ६, पृ. १८०); असादप्रकृति को छोड़कर दूसरी प्रकृति के परमाणुनों को बंधपायोग्गकसाउदयदाणाणि संकिलेसो। (धव. पु. बध्यमान प्रकृति के स्वरूप से परिणमाता है उसे ११, पृ. २०६)। ३. मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमादसंक्रम कहते हैं।
परिणामः संक्लेशः । (त. श्लो. ९-३०)। संक्रमण- देखो सङ्क्रम । १. तत्थ पगति-ट्ठिति- १ पात और रौद्र ध्यानरूप परिणामों को संक्लेश अणुभाग-पदेसाणं अण्णहाभावपरिणामणं अण्णपगति- कहा जाता है। २ असाता वेदनीय के बन्धयोग्य परिणामणं इह वा संकमणकरणं । (कर्मप्र. चू. २)। परिणाम का नाम संक्लेश है । २. संकमणमणत्थ गदी xxx ॥ (गो. क. संक्लेशस्थान----असाद-अथिर असुह-दुभग-दुस्सर४३८) । ३. एतदुक्तं भवति-बध्यमानासु प्रकृतिषु अणादेज्जादीणं परियत्तमाणियाणमसुहपयडीणं बंधमध्येऽबध्यमानप्रकृतिदलकं प्रक्षिप्य बध्यमानप्रकृति- कारणकसाउदयट्ठाणाणि संकिलेसटाणाणि। (धव. रूपतया यत्तस्य परिणमणं, यच्च वा बध्यमानानां पृ.११.प. २०८)। प्रकृतीनां दलकरूपस्येतरेतररूपतया परिणमनं तत् प्रसाता, अस्थिर, प्रशभ, दुर्भग, दुःस्वर और प्रनासर्वं संक्रमणमित्युच्यते । (कर्मप. सं. क. मलय. वृ. देय आदि परिवर्तमान अशुभ प्रकृतियों के बन्ध के १)। ४. परप्रकृतिरूपपरिणमनं संक्रमणम् । (गो. कारणभूत कषायोदयस्थानों को संक्लेशस्थान कहा क. जी. प. ४३८)।
जाता है। १ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों का अन्यथा संक्षेपरुचि---१. अणभिग्गहियकूदिदी, संखेवरुइस्वरूप से परिणमाना अथवा यहीं अन्य प्रकृतिरूप त्ति होइ नायव्वो। अविसारो पवयण, अणभिग्गपरिणमाना, इसका नाम संक्रमणकरण है। २ विव- हिनो य सेसेसु ॥ (उत्तरा. २८-२६, प्रज्ञाप. गा. क्षित प्रकृति का जो अन्य प्रकृति में गमन या परि- १२५, पृ. ५६; प्रव. सारो. ९५६) । २. जीवादिवर्तन होता है उसे संक्रम या संक्रमण कहते हैं। पदार्थसमाससंबोधनसमुद्भुतश्रद्धानाः संक्षेपरुचयः । संक्लिश्यमरण---दर्शन-ज्ञान-चारित्रेषु संक्लेशं (त. वा. ३, ३६, २)। ३. XXX पदार्थान् । कृत्वा मरणं संक्लिश्यमरणम् । (भ. प्रा. मूला. संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः॥ २५) ।
(प्रात्मानु. १३)। ४. xxx पदार्थानां संक्षेसम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषय में संक्लेश पोक्त्या समुद्गता। या सा संक्षेपजा xxx ॥ को प्राप्त होते हुए जो मरण होता है उसे संक्लिश्य- (म. पु. ७४-४४५)। ५. प्राप्त-श्रुत-व्रत-पदार्थ
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संखडी] १११६, जैन-लक्षणावली
[संग्रह समासालापाक्षेपः संक्षेपः। (उपासका. पृ. ११४; जो वस्तुएं मुनिधर्म के योग्य नहीं हैं-उसके विपअन. ध. स्वो. टी. २-६२)। ६. तत्त्वार्थसूत्रादि- रीत हैं-उन सबके परित्याग के साथ उनके विषय सिद्धान्तनिरूपितजीवादिद्रव्यानुयोगद्वारेण पदार्थान में प्रासक्ति के न रखने को संगविमुक्ति कहते हैं। संक्षेपेण ज्ञात्वा रुचि चकार यः स संक्षेपसम्यक्त्वः यह परिग्रहत्याग महाव्रत का नामान्तर है। पुमानुच्यते । (दर्शनप्रा. टी. १२) ।
संग्रह-१. स्वजात्यविरोधेनकध्यमपनीय पर्याया१ जिसने मिथ्याभाव को ग्रहण नहीं किया है तथा नाक्रान्तभेदानबिशेषेण समस्तग्रहणात् संग्रहः। (स
-जिनप्रणीत आगममें यद्यपि निपुण सि. १-३३)। २. अर्थानां सर्वैकदेशग्रहणं सङ्ग्रहः। नहीं है फिर भी जो कपिलादिरचित अागमों को (त. भा. १-३५, प. ११८); एकस्मिन । उपादेय स्वरूप से नहीं मानता है उसे संक्षेपरुचि बहुषु वा नामादिविशेषितेषु साम्प्रतातीतानागतेषु जानना चाहिए।
घटेषु सम्प्रत्ययः सङ्ग्रहः । (त. भा. १-३५, प. संखडी-संखड्यन्ते प्राणिनामायंषि यस्यां प्रकरण- १२३)। ३. संगहिपिडिप्रत्थं संगहवयणं समासमो क्रियायां सा संखडी । (दशवै. सू. हरि. वृ. ३६, विति । (अनुयो. गा. १३७, पृ. २६४; प्राव नि. पृ. २१६)।
१३७) । ४. जं सामन्तग्गाही संगिण्हइ तेण संगहो जिस प्रकरण क्रिया में प्राणियों की प्रायुएँ खण्डित निययं । (विशेषा. भा. ७६); संगहणं संगिण्हइ की जाती हैं उसे संखडी कहते हैं।
संगिज्झते व तेण भेया। तो संगहो ति संगहियसंख्या -१. संख्या भेदगणना। (स. सि. १-८;
पिंडयत्थं वो जस्स ।। (विशेषा. भा. २६६६)। गो. जी. म. प्र. ३५) । भेदगणनं संख्या। (न्याय- ५. स्वजात्यविरोधेनैकत्वोपनयात्समस्तग्रहणं संग्रहः । कु. ७६, पृ. ८०३) । ३. प्रमादालापोत्पत्तिनिमित्ता- (त. वा. १, ३३, ५)। ६. शुद्धं द्रव्यमभिप्रेति क्षसंचारहेतुविशेषः संख्या। (गो. जी. जी. प्र.३५)। संग्रहः तदभेदतः । भेदानां नासदात्मकोऽप्यस्ति १ भेदों की गणना का नाम संख्या है।
भेदो विरोषतः ॥ (लघीय. ३२); सर्वमेक संख्यात-१. अहवा जं संखाणं पंचिदियविसनो तं सदविशेषादिति संग्रहः । (लघीय. स्वो. विव. ३२); संखेज्जं णाम । (धव. पु. ३, पृ. २६७) । २. x संग्रहः सर्वभेदैक्यमभिप्रेति सदात्मना । (लघीय. Xxबीयादीया हवंति संखेज्जा । (त्रि. सा. १६)। ३८); सदभेदात्समस्तैक्यसंग्रहात्संग्रहो नयः । १ जो संख्या पांच इन्द्रियों की विषय है उसका (लधीय. ६६)। ७. अर्थानां धटादीनाम, सर्वैकदेशनाम संख्यात या संख्येय है। २ दो-तीन प्रादि संख्या संग्रहणं संग्रहः । सर्व सामान्यं सर्वव्याप्तेः, देशो को संख्येय कहा जाता है।
विशेषः देशत्वादेव, तयोः सर्वेकदेशयोः सामान्यसंख्याप्रमाण-सयं सहस्समिदि दव्व-गुणाणं संखा- बिशेषात्मकयोः एकीभावेन संग्रहणं संग्रहः, सन्मात्राणं धम्मो संखापमाणं । (जयध. १, पृ. ३८)। विशेषात् तदतिरिक्तवस्त्वभावादिति । (त. भा. सौ व हजार इत्यादि जो द्रव्यों व गुणों का संख्या- हरि. व. १-३५)। ८. सामान्यमात्रसंग्रहणशील: रूप धर्म है उसे संख्याप्रमाण कहा जाता है। संग्रहः । (अनुयो. हरि. व. पृ. ३६) । ६. विधिव्यसंख्याभास-प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्या- तिरिक्तप्रतिषेधानुपलम्भाद् विधिमात्रमेव तत्त्वमित्यभासम् ॥ (परीक्षा. ६-५५)।
ध्यवसाय: समस्तस्य ग्रहणात्संग्रहः, द्रव्यव्यतिरिक्तप्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, अथवा प्रत्यक्ष व अनमान ये वो ही प्रमाण हैं, इत्यादि प्रकार से प्रमाण की संग्रहः। (धव. पु. १, पृ. ८४); सत्तादिना यः संख्या का जो निर्धारण किया जाता है यह संख्या- सर्वस्य पर्यायकलंकाभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति भास का लक्षण है।
शुद्धद्रव्याथिकः स संग्रहः । (धव. पु. ६, पृ. १७०); संख्येय-देखो संख्यात ।
व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहकः संगविमुक्ति-xxx संगविमुक्तिः श्रामण्या- संग्रहनयः । (धव. पु. १३, पृ. १६६) । १०. प्रायोग्यसर्ववस्तुपरित्यागः परिग्रहासक्त्यभावः । (मूला. क्रान्तभेदपर्यायमैकध्यमुपनीय यत् । समस्तग्रहणं वृ. १-४)।
तत्स्यात् सद्व्यमिति संग्रहः ॥ (ह. पू. ५८-४४)।
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संग्रह] ११२०, जैन-लक्षणावली
[संघ ११. एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं संग्रहो नयः । स्वजाते- १ जो नय अपनी जाति के विरोध से रहित एकरविरोधेन दृष्टेष्टाभ्यां कथंचन ॥ (त. श्लो. १, रूपता को प्राप्त करके अनेक भेदों से युक्त पर्यायों ३३, ४६)। १२. अभेदेन सङ्ग्रहात् सर्वस्य सङ्- को सामान्य से समस्त रूप में ग्रहण करता है उसे ग्रह्णाति इति सङ्ग्रहः । (त. भा. सिद्ध. वृ. १, संग्रहनय कहते हैं । २ घट-पटादि पदार्थों के सामा३५): अर्थानां घटादीनां सर्वेकदेशग्रहणमिति- न्य-विशेषात्मक होने पर जो उन्हें एकरूपता में ग्रहण सर्व सामान्यम्, एकदेशो विशेषः, तयोः सर्वैकदेशयोः करता है उसे संग्रहनय कहा जाता है। सामान्य विशेषात्मकयोरेकीभावेन ग्रहणम् प्राश्रयण- संग्रहनय-देखो संग्रह। मेवंविधोऽध्यवसायः संग्रहो भण्यते। (त. भा. सिद्ध. संग्रहनयाभास-१. ब्रह्मवादस्तदाभासः स्वार्थभेदबु. १-३५)। १३. भेदेनक्यमुपानीय स्वजाते- निराकृतेः । (लघीय. ३८); दुर्नयो ब्रह्मवादः स्यात् रविरोधतः । समस्तग्रहणं यस्मात्स नयः संग्रहो तत्स्वरूपानवाप्तितः। (लघीय. ६९)। २. ब्रह्ममतः ॥ (त. सा. १-४५)। १४. अभेदरूपतया वादस्तदाभासः (प्रमेयर.६-७४) । वस्तुजातं संग्रहातीति संग्रहः । (पालापप. पृ. १ सत्ता भेदों के निराकरण के कारण ब्रह्मवाद१४६) । १५. सम्यक् पदार्थानां सामान्याकारतया एक ब्रह्म ही है, अन्य कुछ नहीं है। इस प्रकार का ग्रहणं संग्रहः । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ७, ८१, पृ. अभिमत–संग्रहाभास के अन्तर्गत है। १८८)। १६. जो संगहेदि सव्वं देसं वा विविह- संघ-१. संघो गुणसंघामो संघो य विमोचनो य दन्व-पज्जायं । अणुगमलिंगविसिळं सो वि णयो कम्माणं । दंसणणाण-चरित्ते संघायंतो हवे संघो॥ संगहो होदि ।। (कार्तिके. २७२) । १७. समस्तस्य (भ. पा. ७१४; त. वा. ६, १३, ४ उद्.)। जीवाजीवविशेषप्रपञ्चस्यकेन संग्रहात्कारणात् संग्रहो २. रत्नत्रयोपेतश्रमणगणः संघः । (स. सि. ६-१३); नयः प्रवर्तते । (न्यायकु. ६६, पृ. ७६०)। १८. स्व- चातुर्वर्णश्रमण निवहः संघः । (स. सि. ९-२४)। जात्यविरोधेने कध्यमुपनीयार्थानाक्रान्तभेदान् समस्त- ३. रत्नत्रयोपेतः श्रमणगण: संघः। सम्यग्दर्शनादिग्रहणात् संग्रहः। (प्र. क. मा. ६-७४, पृ. ६७७)। रत्नत्रयभावनापराणां चतुर्विधानां श्रमणानां गणः १९. सर्वविकल्पातीतं सन्मात्रं तत्त्वमिति संग्रहनयः। संघ इति कथ्यते । (त. वा. ६, १३, ३); चतुर्वर्ण(सिद्धिवि. वृ. १०, १३, पृ. ६७८)। २०. स्व- श्रमणनिवहः संघः । चतुर्वर्णानां श्रमणानां निवहः जात्यविरोधेन नकट्यमुपनीय पर्यायानाक्रान्तभेदान् संध इति समाख्यायते । (त. वा. ६, २४, १०) । समस्तग्रहणात्संग्रहः। यथासर्व मेकं सदवशेषादिति । ४. चातुर्वर्ण्यश्रमणनिवहः संघः । (त. श्लो. ६-२४; (मूला. वृ. १२-६७) । २१. संग्रहणं भेदानां चा. सा. पृ. ६६) । ५. संघो यतिसमुदाय:, साधुविसंग्रह्णाति वा तान् संगृह्यन्ते वा ते येन स संग्रहः दिरित्तो समुदायावयवयोः कथंचिदव्यतिरेकात् साधव महासामान्यमात्राभ्युपगमपरः । (स्थानां. अभय. वृ. एव संध इति व्यवह्रियते । (भ. प्रा. मूला. ३२४)। १८६); संग्रहः समुदायस्तमाश्रित्यकवचनगर्भशब्द- ६. ऋषि-मुनि-यत्यनगारनिवहः संघः, अथवा ऋष्याप्रवृत्तिः । (स्थानां. अभय. वृ. २६७)। २२. सामा- यिका-श्रावक-श्राविकानिवहः संघः । (भावप्रा. टी. न्यप्रतिपादनपरः संग्रहनयः, संग्रहाति अशेषविशेष- ७८) । ७. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रपात्राणां श्रमणातिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया समस्तं जगदादत्ते नां परमदिगम्बराणां गणः समूहः संघः उच्यते । इति संग्रहः। (प्राव. नि. मलय. वृ. ७५६)। (त. वृत्ति श्रुत. ६-१३); ऋषि-मुनि-यत्यनगार. २३. प्रतिपक्षव्यक्षेपः सन्मात्रग्राही संग्रहः । (प्रमेयर. लक्षणश्चातुर्वर्ण्यश्रमणसमूहः संघः ऋष्यार्यिका६-७४) । २४. सजात्यविरोधेन पर्यायानाक्रान्तभेदा- श्रावक-श्राविकासमूहो वा संघः । (त. वृत्ति श्रुत. नकध्यमुपनीय समस्तग्रहणं संग्रहः । (लघीय. अभय. ६-२४; कार्तिके. टी. ४५७)। ब. ३२, पृ. ५३) । २५. स्वजात्यविरोधेन एकत्रोप- १ गणसमह का नाम संघ है, कर्मों के विमोचक नीय पर्यायान् आक्रान्तभेदान् विशेषमकृत्वा सकल- को संघ कहा जाता है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र में ग्रहणं संग्रह उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-३३; जो संधात को प्राप्त है उसे संध कहते हैं । २ रत्नकातिके. टी. २७२)।
त्रय से संयुक्त मुनिसम्ह का नाम संघ है। चार
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संघकरमोचनदोष ]
वर्ण वाले साधुसमूह को संघ कहते हैं ।
संघकर मोचनदोष -- १. संघस्य करमोचनं संघस्य मायाकरो वृ [वि]ष्टिर्दातव्योऽन्यथा न ममोपरि संघः शोभनः स्यादिति ज्ञात्वा यो वन्दनादिकं करोति तस्य संघकरमोचनदोषः । (मूला. वृ. ७, १०६) । २. विष्टि: संघस्येयमिति धीः संघकर - मोचनम् || ( इयं विष्टिर्हठात् कर्मविधापनम् - स्वो. टी.) । ( श्रन. घ. ८ - १०८ ) ।
१ संघ को बलात् वन्दना कराना है, इस प्रकार की जो वन्दना करते समय बुद्धि होती है, यह वन्दना का संघकरमोचन नाम का एक दोष है । संघवैयावृत्य -- प्रायरियादिगणपेरंताणं महल्लावईए णिवदिदाणं समूहस्स जं बाह्रावणयणं तं संघवेज्जावच्चं णाम । (धव. पु. १३, पृ. ६३) । महती प्रपत्ति में पड़े हुए श्राचार्य को आदि लेकर गणपर्यन्त साधुत्रों के समूह की बाधा को जो दूर किया जाता है उसका नाम संघवैयावृत्य है । संघात - १. पृथग्भूतानामेकत्वापत्तिः संघातः । ( स. सि. ५ - २६ ) । २. विविक्तानामेकीभावः संघातः । पृथग्भूतानामेकत्वापत्तिः संघात इति कथ्यते । (त. वा. ५, २६, २) । ३. परमाणु पोग्गल समुदयसमागमो संघादो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. १२१ ) । ४. बद्धानामपि च पुद्गलानां परस्परं जतु-काष्ठन्यायेन पुद्गलरचनाविशेषः संघातः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८ - १२ ) । ५. भिन्नानामेकत्र मेलापकः संघातः । (त. वृत्ति श्रुत. ५ - २६) ।
१ पृथग्भूत परमाणुधों व स्कन्धों में जो एकीभाव होता है उसे संघात कहते हैं । ४ बन्ध को प्राप्त भी पुद्गलों के लाख भौर काष्ठ के समान परस्पर में जो विशिष्ट पुद्गल रचना होती है उसे संघात कहा जाता है ।
संघातजा वर्गणा - हेट्टिमाणं वग्गणाणं समागमेण सरिसधणियसख्वेण ग्रण्णवग्गणुप्पत्ती संघादजा णाम । ( धव. पु. १४, पृ. १३४ ) । नीचे की वर्गणाओं के समागम से जो समान द्रव्यप्रमाणवाली वर्गणात्रों के रूप में अन्य अन्य वर्गगानों की उत्पत्ति है उसे संघातजा वर्गणा कहते हैं । संघातनकृति - प्रप्पिदसरीरपरमाणूण णिज्जराए
ल. १४१
११२१, जैन-लक्षणावली
[ संघात नामकर्म
विणा जो संच सा संघातणकदी णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ३२६) ।
विवक्षित शरीर के परमाणुओंों का निर्जरा के विना जो संचय होता है, इसका नाम संघातनकृति है । संघातन-परिशातनकृति - श्रप्पिदसरीरस्स पोगलक्खघाणमागम- णिज्जराम्रो संघादण परिसादणकदी णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ३२७ ) । विवक्षित शरीर के पुद्गलस्कन्धों का जो श्रागमन श्रौर निर्जरा होती है, इसका नाम संघातन-परिशातनकृति 1
संघात नामकर्म - १. यदुदयादोदारिकादिशरीराणां विवरविरहितान्योऽन्य प्रदे ( मूला. वृ. 'वे' ) शानुप्रवेशेन एकत्वापादनं भवति तत्संघातनाम । ( स. सि. ८-११; मूला. वृ. १२-१९३; भ. श्री. मूला. २१२४; गो. क. जी. प्र. ३३) । २. बद्धानामपि संघातविशेषजनकं प्रचय विशेषात् संघातनाम दारुमृत्पिण्डायः पिण्डसंघातवत् । ( त. भा. ८- १२ ) । ३. प्रविवरभावेनैकत्वकरणं संघातनामकर्म । यदुदयादोदारिकादिशरीराणां विवरविरहितान्योन्यप्रदेशानुप्रवेशेनं कत्वापादनं भवति तत्संघातनाम । (त. वा. ८, ११, ७) । ४. बद्धानामपि च पुद्गलानां परस्परं जतु- काष्ठन्यायेन पुद्गल रचनाविशेषः संघातः, संयोगेनात्मना गृहीतानां पुद्गलानां यस्य कर्मणः उदयादोदारिकादितनुविशेषरचना भवति तत्संघातनामकर्म्म । ( त. भा. हरि. वृ. ८-१२, पृ. ३६१ ); प्रचयविशेषात् पुद्गलानां विन्यासः पुरुष-स्त्रीशरीरादिकस्तत् संघात नामकर्मनिमित्तकः, यन्निमित्तकश्च विन्यासः तत् संघातनाम । ( त. भा. हरि. वृ. ८, १२, पृ. ३६२ ) । ५. संघातनाम यदुदयादीदारकादिशरीरयोग्यपुद्गलग्रहेण शरीररचना भवति । ( श्रा. प्र. टी. २० ) । ६. जेहि कम्मक्खं घेहि उदयं पत्तेहि बंधणणामकम्मोदएण बंधमागयाणं सरीरपोगलक्खघाणं मट्टत्तं कीरदे तेसि सरीरसंघादसण्णा । ( धव. पु ६, पृ. ५३ ) ; जस्स कम्मस्स उदएण श्रष्णोषण संबद्धाणं वग्गणाणं मट्टत्तं तं सरीरसंघादनाम । ( व. पु. १३, पू. ३६४ ) । ७ यस्योदयाच्छरीराणां नोरन्ध्रान्योन्यसंहतिः । संघातनाम तन्नाम्ना संधातानामनत्ययात् ॥ ( ह. पु. ५८- २५१) । ८. श्रविवरभावेने कत्वकरणं संघातनाम । (त. श्लो.
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संघातश्रुत] ११२२, जैन-लक्षणावली
[संघावर्णवाद ८-११) । ६. संयोगेनात्मना गृहीतानां पुद्गलानां णाणेत्ति । (धव. पु. ६, पृ. २३-२४); संघादयस्य कर्मण उदयादौदारिक [कादि] तनुविशेषरचना सुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वडिढदे संघादसमाससुदभवति तत् सङ्घातनामकर्म। (त. भा. सिद्ध. वृ. णाण होदि । xxx एवमेगेगक्खरवढिकमेण ८-१२)। १०. तथा संधात्यन्ते पिण्डीक्रियन्ते संघादसमाससुदणाणं वड्ढमाण गच्छदि जाव एगऔदारिकादिपुद्गला येन तत्संधातम्, तच्च तन्नाम क्खरेणणगदिमग्गणे त्ति । (धव. पु. १३, पृ. च संघातनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. २६९) । ४७०)। ११. यन्निमित्ताच्छरीराणां छिद्ररहित- संघातश्रतज्ञान के ऊपर एक अक्षर के बढ़ने पर परस्परप्रदेशप्रवेशादेकत्वभवनं भवति स संघातः। संघातसमासश्रुतज्ञान होता है। यह संघातसमास(त. वृत्ति श्रुत. ८-११)।
श्रतज्ञान एक एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से बढ़ता १ जिसके उदय से प्रौदारिक प्रादि शरीरों के प्रदेशों हुमा एक अक्षर से कम गतिमार्गणा तक चला में अनप्रविष्ट होकर परस्पर छिद्र रहित एकरूपता जाता है। होती है उसे संघातनामकर्म कहते हैं। २ जो बन्ध संघातसमासावरणीयकर्म--संघादसमासणाणस्स को प्राप्त हुए भी स्कन्धों में प्रचयदिशेष से विशिष्ट
जमावारयं कम्म तं सधादसमासावरणीयं । (धव. संधात को उत्पन्न किया करता है उसे संघातनाम. प्र. १३. प. २७८)। कर्म कहा जाता है। वह विशिष्ट संघात उनमें दारु- संघातसमास श्रतज्ञान के प्रावारक कर्म को संघातपिण्ड, मत्पिण्ड और लोहपिण्ड के समान होता है। समासावरणीय कहते हैं। संघातश्रुत-१. संखेज्जेहि पदेहि संघानो णाम
संधातित अपरिशाटिरूप एकांगिक सँस्तरसुदणाणं होदि । (धव. पु. ६, पृ. २३); एदस्स
संधातितो द्वयादिफलकसंघातात्मकः। (व्यव. भा. (पदसमाससुदणाणस्स) उवरि एगेगक्खरे वढिदे
मलय. वृ. ८-८)। संघादणामसूदणाणं होदि । होतं पि संखेज्जाणि
दो प्रादि फलकों के संघातरूप संस्तर को संघातित पदाणि घेत्तण एगसंघादसूदणाणं होदि । (धव. पु.
अपरिशाटिरूप एकांगिक संस्तर कहते हैं । १३, पृ. २६७)। २. एयपदादो उरि एगेगेणक्ख
संघातिम-कट्टिमजिणभवण-धर-पायार थूहादिदव्वं रेण वडढंतो। संखेज्जसहस्सपदे उड्ढे संधादणाम सुदं ॥ (गो. जी. ३३७)। ३. चरमस्य पदसमास
कट्ठिट्ठय-पत्थरादिसंधादणकिरियाणिप्पण्णं संधादिम ज्ञानोत्कृष्टविकल्पस्योपरि एकस्मिन्नक्षरे वद्ध सति
___णाम । (धव. पु. ६, पृ. २७३)। संघातश्रतज्ञानं भवति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र.
काष्ठ, इंट और पत्थर पानि को संघातन (मिलाना) ३३७)।
रूप क्रिया से उत्पन्न कृत्रिम जिनालय, गृह, प्राकार १ संख्यात पदों से संघात नामक तज्ञान होता है। और स्तूप प्रादि द्रव्य को संघातिम कहा जाता है। २ एक पद के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि के संघावर्णवाद- १. शूद्रत्त्वाशुचित्वाद्याविर्भावना क्रम से संख्यात हजार पदों के बढ़ जाने पर संधात संघावर्णवाद । (स. सि. ६-१३)। २. शूद्रत्वानामक श्रुतज्ञान होता है।
शचित्वाद्याविर्भावनं संघ । एते श्रमणाः शूद्राः संघातश्रुतावरणीय- संधादणाणस्स जमावरयं अस्नानमलदिग्धाङ्गा अशुचयो दिगम्बरा निरपत्रपा कम्मं तं संघादणाणावरणीयं । (धव. पु. १३, पृ. इहैवेति दुःखमनुभवन्ति परलोके कुतश्च सुखिन २७८)।
इत्यादिवचनं संघेऽवर्णवादः । (त. वा. ६, १३, सघातश्रुतज्ञान का प्रावरण करने वाले कर्म को १०)। संघातश्रुतज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं।
२ ये साधु शूद्र हैं, इनका शरीर स्नान के विना संघातसमासश्रुतज्ञान-एदस्स (संघादसुदणाण- मल से लिप्त हो रहा है तथा मलिन होने के साथ वे स्स) उवरि अक्खरसुदणाणं वढिदे संधायसमासो नंगे व निर्लज्ज हैं, ये इसी लोक में दुःख का अनुणाम सुदणाणं होदि । एवं संधायसमासो वड्ढमाणो भव करते हैं, फिर भला वे परलोक में कहां से सुखी गच्छदि जाव एयअक्खरसुदणाणेणूणपडिवत्तिसुद- हो सकते हैं, इत्यादि प्रकार मुनिसमूह के सम्बन्ध में
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संचारगति] ११२३, जन-लक्षणावली
[संज्ञासंज्ञा निन्दापूर्ण वचन कहना, इसे संघावर्णवाद कहा २ व्यञ्जनावग्रह के पश्चात् जो विशिष्ट मतिज्ञान जाता है।
होता है उसे संज्ञा कहते हैं। ३ जिस शब्दसमूह के संचारगति-सुरा-सौवीरकादीनां संचारगतिः । द्वारा पर्थ का प्रतिपादन किया जाता है उसे संज्ञा (त. वा. ५, २४, २६)।
कहा जाता है । ४ शिक्षा, क्रिया पालाप के ग्रहण सुरा व सौवीर आदि को जो गति होती है वह को संज्ञा माना गया है। ५ 'यह वही है' इस प्रकार संचारगति कहलाती है।
का जो ज्ञान होता है उसका नाम संज्ञा है। यह संज्ञा-१. हिताहितप्राप्ति-परिहारयोर्गुण-दोषवि- प्रत्यभिज्ञान का पर्याय नाम है। ६ ईहा, अपोह चारणात्मिका संज्ञा । इदं हितमिदमहितम, अस्य और विमर्शरूप ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। ७ नोप्राप्ती परिहारे चायं गुणोऽयं दोष इति विचारणा- इन्द्रियावरण के क्षयोपशम और उससे होने वाले त्मिका संज्ञेत्युच्यते । (त. वा. २, २४, २)। ज्ञान को संज्ञा कहा जाता है। जीव संज्ञी इसी के २. संज्ञानं संज्ञा, व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मति. पाश्रय से होता है । ८ असाता देदनीय और मोहविशेषः । (प्राव. नि. हरि. व. १२)। ३. सम्य- नीय कर्म के उदय से जो जीव की प्राहार के ग्रह. रज्ञायते अनया इति संज्ञा। (घव. पू. १३, प. णादिरूप परिणति होती है उसका नाम संज्ञा है। २४४): जेण सहकलावेण प्रत्थो पडिवज्जाविज्जदि संज्ञाक्षर-१. अक्खरस्स संठाणागिई, सेत्तं सन्नसो सहकलामो सण्णा णाम । (धव. पू. १३, प. क्खरं । (नन्दी. सू. ३८, पृ. १८७)। २. संठाण३३३)। ४. सा (संज्ञा) हि शिक्षा-क्रियालापग्रहणं मगाराई अप्पाभिप्पायतो व जं जस्स । (बृहत्क. मुनिभिर्मता । (त. इलो. २, २४, १)। ५. तदे- ४४) । ३. संज्ञाक्षरं तत्र अक्षराकारविशेषः । यथा वेदमित्याकारं ज्ञानं संज्ञा, प्रत्यभिज्ञा तादशमेवेद- घटिकासंस्थानो घकारः। (माव. नि. हरि. व. मित्याकारं वा विज्ञानं संज्ञोच्यते। (प्रमाणप. प. १९) । ४. संज्ञानं संज्ञा संज्ञायते व अनयेति संज्ञा, ६९) । ६. ईहापोह-विमर्शरूपा संज्ञा। (सूत्रकृ. सू. तन्निबन्धनमक्षरं संज्ञाक्षरम् । (नन्दी. हरि. व. पृ. शी. वृ. २, ४, ६६, प. ११४)। ७. णोइंदिय- ७६)। ५. संज्ञाज्ञानं नाम यतैरेवेन्द्रियैरनुभूतमर्थ आवरणखोवसमं तज्जबोहणं सण्णा। (गो. जी. प्राक् पुनर्विलोक्य स एवायं यमहमद्राक्षं पूर्वाले इति ६६०) ८. संज्ञा प्रसातवेदनीय-मोहनीयकर्मोदय- संज्ञाज्ञानम् । (त. भा. सिद्ध. व. १-१४) । सम्पाद्या आहाराभिलाषादिरूपश्चेतनाविशेषाः । १ अक्षर की जो संस्थानाकृति है उसे संज्ञाक्षर (समवा. अभय. बृ. ४) । ६. संज्ञानं संज्ञा व्यञ्ज- कहते हैं। नावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेषः, आहार-भयाद्य- संज्ञाज्ञान-देखो संज्ञा । पाधिका वा चेतना संज्ञा, अभिधानं वा संज्ञा। संज्ञाद्रव्यकरण-अयमत्र भावार्थः ----कटनिवर्तक(स्थानां. अभय. वृ. ३०)। १०. संज्ञा मुख- मयोमयचित्रसंस्थानं पाइल्लकादि तथा रूतपूणिका. नयन-भ्रूविकारागुल्याच्छोटनादिका अर्थसूचिका- निर्वर्तक शलाकाशल्यकाङ्गरुहादि संज्ञाद्रव्यकरणम्, श्चेप्टाः। (योगशा. स्वो. विव. १-४२) । ११. अन्वर्थोपपत्तेः संज्ञाविशिष्टंद्रव्यस्य करणं संज्ञाद्रव्य. संज्ञानं संज्ञा व्यञ्जनार्थावग्रहोत्तरकालो मतिविशेषः। करणम् । (प्राव. भा. मलय. वृ. १५३, पृ. ५५८)। (प्राव. नि. मलय. व. १२) । १२. तदेवेदं तत्सदशं चटाई के निर्वर्तक लोहमय चित्रसंस्थान पाइल्ल. तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि प्रत्यभिज्ञानं संज्ञा। कादिकरण को तथा रूतपूणिका के निर्वर्तक शलाका (अन. घ. स्वो. टी. ३-४)! १३. संज्ञा शिक्षा प्रादि करण को संज्ञाद्रव्यकरण कहा जाता है। क्रियालापोपदेशग्राहित्वम् । (सा. ध. स्वो. टी. संज्ञासंज्ञा--१. अष्टावुत्संज्ञासंज्ञास्संहताः संज्ञा१-६) । १४. आहारादिवांछारूपाः संज्ञाः। (गो. संज्ञका । (त. वा. ३, ३८, ६)। २. ताभि-(प्रवजी. जी. प्र. १५२) । १५. तदेवेदं तत्सदृशं चेति संज्ञासंज्ञाभि-) रष्टाभिरप्युक्ता संज्ञासंज्ञादिका x प्रत्यभिज्ञानं संज्ञा कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-१३)। xx (ह. पु. ७-३८) । १ हित को प्राप्ति और अहित के परिहार में जो १ समुदित पाठ उत्संज्ञासंज्ञानों को एक संज्ञासंज्ञा गुण-दोष का विचार होता है, इसका नाम संज्ञा है। होती है।
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संज्ञानी ]
संज्ञानी - जीवाजीव विहत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी । ( चारित्रप्रा ३८ ) । जो जीव प्रजीव के विभाग को श्रात्म-परके भेद को - जानता है वह संज्ञानी ( सम्यग्ज्ञानी) होता है । संज्ञी - १. शिक्षा-क्रियालापग्राही संज्ञी । (त. वा. ६, ७, ११; धव. पु. ७, पृ. ७) । २. सम्यक् जानातीति संज्ञं मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी | ( धव. पु. १, पृ. १५२) । ३. XXX ईहापोह - विमर्शरूपा संज्ञा विद्यन्ते येषां ते संज्ञिनः । XX X संज्ञानं संज्ञा, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः । (सूत्रकृ. सू. शी वृ. २, ४, ६६, पृ. ११४-१५) । ४. यो हि शिक्षाक्रियात्मार्थग्राही संज्ञी स उच्यते । (त. सा. २, ९३) । ५. सिक्खा कि रियुवदेसालावग्गाही मणोवलंवेण । जो जीवो सो सण्णी XX X ॥ (गो. जी. ६६०-६१) । ६. सङ्केत-देशनालापग्राहिण: संज्ञिनो मता: । ( प्रमित. श्री. ३-११) । ७. शिक्षाला पोपदेशानां ग्राहको यः स मानसः । स संज्ञी कथितो XXX 1- ( पंचसं श्रमित. ३१६, पृ. ४४ ) । ८. शिक्षा- क्रियोपदेशालापग्राहिक: संज्ञी । (मूला. वृ. १२ -- १५६ ) । ६. संज्ञानं संज्ञा, ' उपसर्गादातः इत्यङ् प्रत्ययः, भूत-भवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनम्, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, विशिष्टस्मरनादिरूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः, XX X प्रथवा संज्ञायते सम्यक् परिच्छिद्यते पूर्वोपलब्धो वर्तमानो भावी च पदार्थो यया सा संज्ञा x x x विशिष्टा मनोवृत्तिरित्यर्थः, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः समनस्का इत्यर्थः । ( प्रज्ञाप मलय वृ. ३१५, १. ५३३) । १०. शिक्षोपदेशालापान् ये जानते तेऽत्र सज्ञिनः । संप्रवृत्तमनः प्राणाः XXX ॥ ( योगशा. स्वो विव. १-१६, पृ. १०६ उद्; त्रि. श. पु. च. १, १, १६४ ) । ११. संज्ञा - शिक्षा क्रियालापोपदेशग्राहित्यम्, संज्ञाऽस्यास्तीति संज्ञी, संज्ञिनो भावः संज्ञित्वम् -- मनोऽवष्टम्भतः शिक्षा-क्रियालापोपदेशवित् । येषां ते संज्ञिनो मर्त्या वृष-कीर गजादयः ॥ (सा. घ. स्वो टी. १-६ उद्) । १२. नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमः तज्जनितबोधनं च संज्ञा, सा अस्य श्रस्तीति संज्ञी । (गो. जी. जी. प्र. ७०४) । १ जो शिक्षा, क्रिया व श्रालाप को ग्रहण कर सकता है उसे संज्ञी कहते हैं । २ 'सम्यक् जानातीति संज्ञ मन:' इस निरुक्ति के अनुसार 'संज्ञ' नाम मन का
११२४, जंन - लक्षणावली
[संज्वलन
है, वह मन जिसके होता है उसे संज्ञी कहा जाता है । ३ ईहा, प्रपोह और विमर्श का नाम संज्ञा है । वह जिन जीवों के पायी जाती है वे संज्ञी कहलाते हैं ।
संज्वलन - १. समेकीभावे वर्तते, संयमेन सहावस्थानादेकीभूय (त. वा. 'देकीभूता: ' ) ज्वलन्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनाः क्रोध - मान-माया लोभा: । ( स. सि. ८- ६ ; त. वा. ८, ६, ५) । २. ईषत्प रीषहादिसन्निपातज्वलनात् संज्वलनाः, सम्-शब्द ईषदर्थं । ( श्रा. प्र. टी. १७) । ३. सम्यक् ज्वलतीति संज्वलनम्, चारित्रेण सह ज्वलनम्, चारित्तमविणासेंता उदयं कुणंति त्ति जं उत्तं होदि । ( धव. पु. ६, पू. ४४ ) ; रत्नत्रयाविरोधात् सम्यक् शोभनं ज्वलतीति संज्वलनः । ( धव. पु. १३, पृ. ३६० ) । ४. चारित्रे तु यथाख्याते कुर्युः संज्वलनाः क्षतिम् ॥ उपासका.
२६) । ५. संयमेन सहैकीभूय संज्वलन्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्विति वा संज्वलनाः क्रोध-मानमाया- लोभाः इति । ( मूला. वृ. १२ - १६१) । ६. शब्दादीन् विषयान् प्राप्य सञ्ज्वलन्ति यतो मुहुः । श्रतः सञ्ज्वलनाह्वानं चतुर्थानामिहोच्यते ॥ ( स्थानां प्रभय. वू. १९४ उद्) । ७. संज्ज्वलन इति तृणाग्निवदोषज्ज्वलनात्मकः, परीषहादिसंपाते सपदि ज्वलनात्मको वा । (योगशा. स्वो विव. ४ -७ ) । ८ तथा परोषहोपसर्गनिपाते सति चारित्रिणमपि सम् ईषज्ज्वलयन्तीति संज्वलनाः । उक्तं च -संज्वलयन्ति यति यत्संविज्ञं सर्वपापविरतमपि । तस्मात् संज्वलना इत्यप्रशमकरा निरुध्यन्ते ॥ अन्यत्राप्युक्तम् - शब्दादीन् विषयान् प्राप्य संज्वलयन्ति यतो मुहुः । ततः संज्वलनाह्वानं चतुर्थानामिहोच्यते । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४६८ उद् . ) । ६. संयमेन सहावस्थानादेकीभूता ज्वलन्ति, संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनाः क्रोधादयः । ( भ. प्रा. मूला. २०६७ ) । १०. यथाख्यात चारित्रपरिणामं कषन्ति सं समीचीनं विशुद्धं संयमं यथाख्यात चारित्रनामधेयं ज्वलन्ति दहन्ति इति संज्वलनाः । (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. २८३ ) । ११. 'सं' शब्द एकीभावे वर्तते । तेनायमर्थःसंयमेन सह अवस्थानतया एकीभूततया ज्वलन्ति नोकषायवत् यथाख्यातचारित्रं विध्वंसयन्ति ये ते
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संदंश (अन्तराय)] ११२५, जैन-लक्षणावली
[संभावनासत्य संज्वलना: क्रोध-मान-माया-लोभाः। अथवा येषु संनिवेश-विषयाधिपस्य अवस्थानं संनिवेशः । सत्स्वपि संयमो ज्वलति दीप्ति प्राप्नोति प्रतिबन्धं (धव. प. १३, पृ. ३३६) । न लभन्ते ते संज्वलनाः क्रोव-मान-माया-लोभा: देश के अधिपति का जहां प्रवस्थान रहता है उसे उद्यन्ते । (त. वृत्ति श्रुत. ८-६)।
संनिवेश कहते हैं। १ संज्वलन' में 'सं' का अर्थ एकीभाव है, तदनुसार संन्यास-अयोग्यहान-योग्योपादानलक्षणः संन्याजो क्रोध-मानादि संयम के साथ एकीभूत होकर सः। प्रारा. सा. टी. २४) । जलते रहते हैं --प्रकाशित होते रहते हैं-उन्हें अयोग्य को छोड़ना और योग्य को ग्रहण करना, संज्वलन क्रोधादि कषाय कहा जाता है । अथवा इन यह संन्यास का लक्षण है। संज्वलन कषायों के रहते हुए भी संयम प्रकाशमान संप्रच्छनी भाषा-१. निरोध [धे] वेदनास्ति भवरहता है, इससे भी उन्हें संज्वलन कहा जाता है। तां न वेति प्रश्नवाक् संपुच्छणी। (भ. प्रा. विजयो. २ कुछ परीषहादि के उपस्थित रहने पर भी जो ११६५)। २. संप्रच्छनी यथा त्वां किंचित् पृच्छाचारित्र को प्रकाशित रखते हैं--- उसे नष्ट नहीं होने मि। (भ. प्रा. मला. ११९५) । देते हैं --- उन्हें संज्वलन कषाय कहते हैं। १ वन्दीगृह में प्रापको वेदना होती है या नहीं, इस संदंश (अन्तराय)-xxx संदंश: श्वादि- प्रकार के प्रश्नरूप वचन को संप्रच्छनी भाषा कहते दंशने ॥ (अन. ध. ५-५४)। कुत्ते प्रादि के द्वारा काट लेने पर संदंश नाम का संप्राप्त्युदय--१. संपत्तिउदयो णाम सभावेण भोजन का अन्तराय होता है।
कालपत्तं दलितं वेदिज्जति, सभावोदय इत्यर्थः । संदिग्ध -संदिग्धं स्थाणुर्वा पुरुषो वेत्यनवधारणे- (कर्मप्र. चू. स्थिति. उदी. २६)। २. यत् कर्मनोभयकोटिपराशि संशयाकलितं वस्तु । (प्रमेयर. दलिक कालप्राप्तं सत् अनुभूयते स संप्राप्त्युदयः । ३-१७)।
(कर्मप्र. मलय. वृ. स्थिति उद्. २६)। यह स्थाणु है या पुरुष, इनमें से किसी एक का १स्वभावतः काल के प्राप्त होने पर जो दलिक निश्चय न होने से उभय कोटियों की विषयभत उदय को प्राप्त होता है उसे संप्राप्त्युदय कहते हैं। संशययुक्त वस्तु को संदिग्ध कहते हैं।
संभवयोग-इंदो मेरु चालइदं समत्थो त्ति एसो संधना-पूर्वगृहीतविस्मृतस्य पुनः संस्थापनं संधना। संभवजोगो णाम । (धव. पु. १०, पृ. ४३४; पु. (व्यव. भा. मलय. व. द्वि. वि. १०२, पृ. ३२)। १४, पृ. ६७)। पूर्व में ग्रहण किये गए तथा पश्चात् विस्मत हुए इन्द्र मेरु पर्वत के चलाने से समर्थ है, इसका नाम को फिर से स्थापित करना, इसका नाम संघना है। सम्भवयोग है। संधिदोष - सन्धिदोषो विश्लिष्टसंहितत्वं सन्ध्य- संभावनासत्य--देखो सम्भावनासत्य । संभावभावो वा। (प्राव. नि. मलय. व. ८८४, पृ. नया असंभवपरिहारपूर्वकं वस्तुधर्मविधिलक्षणया ४८४)।
यत्प्रवृत्तं वचस्तत्संभावनासत्यम् । यथा शक्रो जम्बूविश्लिष्ट पदों में सन्धि का होना अथवा सन्धि का द्वीपं परावर्त येत, परिवर्तयितं शक्नोतीत्यर्थः । (गो. न होना, यह सूत्र का एक सन्धिदोष है । ३२ सूत्र. जी. म.प्र. व जा. प्र. २२४) दोषों में यह अन्तिम है।
असम्भवता का परिहार करते हुए वस्तुधर्म के संध्या -- उदयत्थवणकाले पुव्वावर दिसासु दिस्स- विधानस्वरूप सम्भावना से जो वचन प्रवृत्त होता माणा जो सवणकुसुमसंकाशा संज्झा णाम । (धव. है उसे सम्भावनासत्य कहते हैं । जैसे-इन्द्र जम्बूद्वीप पु. १४, पृ. ३५)।
के परिवर्तन में समर्थ है, इस प्रकार का वचन । सूर्य के उदय और प्रस्त होने के समय में जो क्रम इस वचन में जम्बूद्वीप के परिवर्तित करने कप से पूर्व और पश्चिम दिशाओं में जपाकुसुम के समान शक्ति की असम्भवता का परिहार करते हुए उस प्राकाश में लालिमा फैलती है, इसका नाम सन्ध्या प्रकार की क्रिया से रहित केवल वस्तुधर्म के
विधानरूप सम्भावना को प्रगट किया गया है ।
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संभिन्नश्रोता] ११२६, जन-लक्षणावलो
[संमूर्छन संभिन्नश्रोता-देखो संभिन्नबुद्धि । १. सोदिदिय- द्वादशयोजनविस्तृतस्य चक्रवत्तिकटकस्य युगपत् ब्रुवासुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए । उक्कस्सक्खउव- णस्य तत्तूर्यसंघातस्य वा युगपदास्फाल्यमानस्य समे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि। सोदुक्कस्सखिदीदो सम्भिन्नान लक्षणतो विधानतश्च परस्परतो विभिबाहिं संखेज्जजोयणपएसे । संठियणर-तिरियाणं नान् जननिवहसमुत्थान् शङ्क-काहल-भेरी-माणकबहुबिहसद्दे समुट्ठते । अक्खर-अणक्खरमए सोदूणं ढक्कादितूर्यसमुत्थान् वा युगपदेव सुबहून् शब्दान् दसदिसासू पत्तक्कं । जं दिज्जदि पडिवयणं तं च्चिय यः शृणोति स सम्भिन्नश्रोता:। (प्राव. नि. मलय. संभिण्णसोदित्तं ॥ (ति. प. ४, ९८४-८६)। व. ६६, पृ. ७८)। २. जो सुणइ सव्वग्रो मुणइ सव्व विसए व सव्व- १ श्रोत्रेन्द्रियश्रुतज्ञानावरण और वीर्यान सोएहिं। सूणइ बहए व सट्टे भिन्ने संभिन्नसोयो उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का सो।। (विशेषा. ७८६; प्राव. नि. मलय. वृ. ६६ उदय होने पर श्रोत्र इन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र के उद.)। ३. द्वादशयोजनायामे नवयोजनविस्तारे बाहर संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित मनुष्यों चक्रघरस्कन्धावारे गज-वाजि-खरोष्ट्र-मनुष्यादीनां और तियंचों के उठते हुए अक्षरात्मक व तपोविशेषबल लाभापादितसर्वप्रदेशश्रोत्रेन्द्रियपरिणा- अनक्षरात्मक बहुत प्रकार के शब्दों को सुनकर जो मात् सर्वेषामेककालग्रहणं संभिन्नश्रोतृत्वम् । (त. दसों दिशाओं में से प्रत्येक में प्रतिवचन दिया जाता वा. ३, ३६, ३) । ४. यः सर्वतः शृणोति स संभि. है, यह संभिन्नश्रोतृत्व ऋद्धिका लक्षण है । २ जो न्नश्रोता, अथवा श्रोतांसि संभिन्नान्येकैकशः सर्व- सभी ओर से सुनता है वह संभिन्नश्रोता कहलाता विषय रस्य परस्परतो वेति संभिन्नश्रोताः, संभिन्नान् वा परस्परतो लक्षणतोऽभिधानतश्च सूबहनपि शब्दान शृणोति संभिन्नश्रोता। (प्राव. नि. हरि. व. ६६)। ५. संभिन्नान् बहुभेदभिन्नान् शब्दान् पृथक् पृथक् है, तथा जो परस्पर भिन्न बहुत से शब्दों के सुनने युगपंच्छण्वन्तीति संभिन्नश्रोतारः। (प्रौपपा. अभय. में समर्थ होता है उसे संभिन्नश्रोता कहा जाता व. १५, पृ. २८)। ६. सं सम्यक् संकर-व्यतिकर- है। ३ विशिष्ट तपश्चरण के बल से श्रोत्र इन्द्रिय व्यतिरेकेण भिन्नं विविक्तं शब्दस्वरूपं शृणोतीति के प्रदेशों में विशिष्ट परिणमन हो जाने के कारण संभिन्नश्रोत, तस्य भावः संभिन्नश्रोतृता। द्वादशा- बारह योजन लम्बे और नो योजन चौड़े चक्रवर्ती के याम-नवयोजनविस्तारचक्रवर्तिस्कन्धावारोत्पन्ननर- स्कन्धावार (छावनी) में एक साथ उत्पन्न हुए करभाद्यक्षरानक्षरात्मकशब्दसन्दोहस्यान्योन्यं विभ- हाथी, घोड़ा, गधा, ऊँट और मनुष्य प्रादि के अक्षर क्तस्य युगपत्प्रतिभासो यस्यां सा संभिन्नश्रोतृता। अनक्षरात्मक अनेक प्रकार के शब्दों को एक साथ (श्रुतभ. ३, पृ. १७०) । ७. सर्वेन्द्रियाणां विषयान् ग्रहण करने का जो सामर्थ्य प्रकट होता है उसे गृह्णात्येकमपीन्द्रियम् । यत्प्रभावेन सम्भिन्नश्रोतो- संभिन्नश्रोतृत्व ऋद्धि कहते हैं। लब्धिस्तु सा मता ॥ (योगशा. स्वो. विव. १-८, संभिन्नश्रोतृत्व--- देखो संभिन्नश्रोता। पृ. ३६ उद्.) । ८. यः सर्वैरपि शरीरदेशः शृणोति संभिन्नश्रोतोलब्धि-- देखो संभिन्नश्रोता। स संभिन्नश्रोता:, अथवा श्रोतांसि इन्द्रियाणि सम्भि- संमूर्छन-देखो सभ्मूर्छन । १. सम्म मात्रं न्नानि एकैकशः सर्व विषयैर्यस्य स सम्भिन्नश्रोताः, समूर्छनम्, उत्पत्तिस्थानस्थतदुचितपुद्गलोपमर्दैन एकतरेणापीन्द्रि येण समस्तापरेन्द्रियगम्यान् विषयान् शरीरबद्धसंध्यात्म-परिणामरूपकृभ्यादिसंमूर्छनवत् । योऽवगच्छति स संभिन्नश्रोता इत्यर्थः, अथवा श्रो. (त. भा. हरि वृ. २-३२)। २. सम्मूर्छातांसि इन्द्रियाणि, सम्भिन्नानि परस्परत एकरूपता. मात्रं सम्मूर्छनम्, यस्मिन् स्थाने स उत्पत्स्यते मापन्नानि यस्य स तथा, श्रोत्रं चक्षुः कार्यकारित्वात् जन्तुस्तत्रत्यपुद्गलानुपसृज्य शरीरीकुर्वन् सम्मूचक्षुरूपतामापन्नम्, चक्षुरपि श्रोत्रकार्यकारित्वात् छनम् जन्म लभते, तदेव तादृक् सम्मूर्छनं जन्मोतद्रूपतामापन्नमित्येवं सम्भिन्नानि यस्य परस्पर- च्यते । (त. भा. सिद्ध.व.२-३२) । मिन्द्रियाणि स सम्भिन्नश्रोता इति भावः, अथवा २ जीव जिस स्थान में उत्पन्न होने वाला है वहाँ
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संयत]
११२७, जैन-लक्षणावली
[संयम
के पुद्गलों को शरीररूप करना, इसका नाम करने को संयतवापरावर्तन कहा जाता है । संमूर्छन जन्म है।
संयतासंयत-देखो विरताविरत । १. द्विविषयविरसंयत--१. पंचसमिदो तिगुत्तो पचेन्दिय संबुडो त्यविरतिपरिणतः संयतासंयत: ।xxx तद्योग्यया जिदकसानो । दसण-णाणसमग्गो समणो सो संजदो (सयमलब्धियोग्यया) प्राणीन्द्रियविषयया विरताभणिदो ॥ (प्रव. सा. ३-४०) । २. 'सम्' एकीभा- विरतवृत्त्या परिणतः संयतासंयत इत्याख्यायते । वेनाहिंसादिषु यतः प्रयत्नवान सयतः । (दशव. नि. (त. वा. ६, १, १६) । २. संयताश्च ते अयताश्च हरि. व. १५८)। ३. सं सम्यग यता: विरता: संयताः। संयतासंयताः । (धव. पु. १, पृ. १७३) । ३. पाक(धव. पु. १. पृ. १७५)। ४. संयच्छन्ति स्म क्षयात् कषायाणामप्रत्याख्याननिरोधिनाम् । विरतासर्वसावद्ययोगेभ्यः सम्यगूपरमन्ति स्म अर्थात निर- विरतो जीवः सयतासंयतः स्मृतः ।। (त. सा. २, वद्ययोगेष चारित्रपरिणामस्फातिहेतुष वर्तन्त इति २२)। ४. स्थावरधाती जीवस्त्रससंरक्षी विशुद्धसंयता: xxx हिंसादिपापस्थाननिवता इत्यर्थः। परिणामः । योऽक्षविषयान्निवृत्तः स संयतासंयतो (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१६) ।
ज्ञेयः ॥ (अमित. श्रा. ६-५)। ५. यस्त्राता त्रस१ जो साध पांच समितियों से सम्पन्न, तीन कायानां हिंसिता स्थावराङ्गिनाम् । अपक्वाष्टगप्तियों से परिपूर्ण, पांचों इन्द्रियों का विजेता, कषायोऽसौ संयतासंयतो मतः ॥ (पंचसं. अमित. कषाय पर विजय प्राप्त करने वाला तथा दर्शन, ज्ञान १-२४)। ६. हिंसादीनां देशतो निवृत्ताः संयताएवं चारित्र से सम्पूर्ण होता है उसे संयत कहा संयता: । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१६, पृ. ५३५) । जाता है। २ जो अहिसा प्रादि के परिपालन में १जो जीव प्राणी और इन्द्रिय उभयविषयक विरति प्रयत्नशील रहता है वह संयत कहलाता है। और अविरति से परिणत है उसे संयतासंयत कहा संयतकायपरावर्तन - भूमिस्पर्शलक्षणावनति- जाता है। ६ जो हिंसादिक पापों से देशतः निवृत्त क्रियाबन्दनामदात्यायन पूनरुत्थितस्य मुक्ताशक्ति- होते हैं वे संयतासंयत कहलाते हैं। मुद्राकृतहस्तद्वयपरिभ्रमणत्रयं संयतकायपरावर्त- संयतीदोष-तिनीवत् पटेन शरीरमाच्छाद्य नम्। (अन. ध. स्वो. टी. ८-८८)।
स्थानं सयतीदोषः । (योगशा. स्वो. विव. ३, भूमि के स्पर्शस्वरूप नमस्कारक्रिया रूप वन्दना- १३०)। मुद्रा को छोड़कर उठते हुए मुक्ताशुक्तिमुद्रा में वतिनी के समान शरीर को वस्त्र से प्राच्छादित जो दोनों हाथों को तीन बार घुमाया जाता है, करके स्थित होना, यह संयतीदोष का लक्षण है। इसे संयतकायपरावर्तन कहते हैं।
संयम-१. वय-समिदि-कसायाणं दंडाणं इंदियाण । संयतमनःपरावर्तन-सामायिकदण्डकस्यादौ क्रि- पंचण्हं । धारण-पालण-णिग्गह-चाय-जो संजमो याविज्ञापनविकल्पत्यागेन तदुच्चारणं प्रति मनसः भणियो।। (प्रा. पंचसं. १-१२७; धव. पु. १, प्रणिधानं संयतमनःपरावर्तनमुच्यते । (अन. ध. १४५ उद्.; गो. जी. ४६५) । २. प्राणीन्द्रियेष्वस्वो. टी. ८-८८)।
शुभप्रवृत्तेविरतिः संयमः । (स. सि. ६-१२) । सामायिकदण्डक के प्रारम्भ में क्रियाविज्ञापन के ३. योगनिग्रहः सयमः । (त. भा. ६-६) । ४. सं. विकल्प को छोड़कर उसके उच्चारण के प्रति मन जमो नाम उवरमो, रागहोसविरहियस्य एगिभावे को स्थिर करना, इसे संयतमनःपरावर्तन कहा भवइत्ति। (दशवं. चू. पृ. १५) । ५. प्राणीन्द्रिजाता है।
येष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः संयमः। प्राणिष्वेकेन्द्रियादिषु संयतवापरावर्तन --चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करो- चक्षुरादिष्विन्द्रियेषु च अशुभप्रवृत्तेविरतिः सयम मीत्याधुच्चारणविरामेण ‘णमो अरहताणं' इत्याधु- इति निश्चीयते । (त. वा. ६, १२, ६); व्रतच्चारणकरणं संयतवापरावर्तनम् । (अन. प. स्वो. समिति-कषाय-दण्डेन्द्रियधारणानुवर्तन-निग्रह-त्यागटी. ८-८८)।
जयलक्षणः संयमःXXXI(त. वा. ६, ७, ११)। 'चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमि' इत्यादि उच्चारण ६. पाश्रवद्वारोपरमः । (दशवं. सू. हरि. बृ. १-१, पृ. को छोड़कर णमो प्ररहंताणं' इत्यादि के उच्चारण २१) । ७. संयमनं संयमः विषय-कषाययोरुपरमः।
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संयम ]
( त. भा. हरि. वृ. ६-२० ) । ८. संयमस्तु प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणः । (ध्यानश वृ. ६८ ) । ६. अथवा व्रत समिति कषाय-दण्डेन्द्रियाणां रक्षणपालन- निग्रह त्याग- जया: संयमः । ( धव. पु. १, पृ. १४४), संयमो नाम हिंसानृत स्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति: गुप्ति समित्यनुरक्षित: । ( धव. पु. १, पृ. १७६); बुद्धिपूर्विका सावद्यविरतिः संयमः । ( धव. पु. १, पृ. ३७४); सम्यक् यमो वा संयमः । (धव पु. ७, पृ. ७) ससमिदि महव्वयाणुव्वयाइं संजमो । ( घव. पु. १४, पृ. १२ ) । १०. संयमनं संयमः प्राणिवधाद्युपरतिः । (त, भा. सिद्ध. वृ. ६-१३ ) ; संयमनं संयमः सम्यग्ज्ञानपूर्विका विरतिः - प्राणातिपातादिपापस्थानेभ्यो निवृत्तिः । ( त. भा. सिद्ध. वू. ६-२० ) । ११. कर्मादाननिमित्तक्रियाभ्यः उपरमः संयमः । (भ. श्री. विजयो. ६) । १२. संयमः खलु चारित्रमोहस्योपशमादिभिः । प्राण्यक्षपरिहारः स्यात् XXX ॥ (त. सा. २ - ८४ ) । १३. संयमः सम्यग्दर्शन - ज्ञानपुरःसरं चारित्रम् । ( प्रव. सा. अमृत वृ. ३- ४१ ) । १४. कषायेन्द्रिय- दण्डानां विजयो व्रतपालनम् । संयमः संयतः प्रोक्तः श्रेयः श्रयितुमिच्छताम् || ( उपासका ९२४) । १५. सं यमः पंचाणुव्रतप्रवर्तनम् । (चा. सा. पू. २२ ) ; अथवा व्रतधारण समितिपालन- कषायनिग्रह - दंडत्या - गेन्द्रियजयः संयमः ॥ ( चा. सा. पृ. ३८ ) । १६. धार्मिकः शमितो गुप्तो विनिर्जितपरीषहः । श्रनुप्रेक्षापरः कर्म संवृणोति स संयमः ॥ ( श्रमित. श्रा. ३-६१ ) । १७. व्रत- दण्ड- कषायाक्ष- समितीनां यथाक्रमम् । संयमो धारणं त्यागो निग्रहो विजयोऽवनम् । (पंचसं श्रमित. १ - २३८ ) । १८. बहिरङ्गन्द्रिय प्राणसंयमबलेन स्वशुद्धात्मनि संयमनात्समरसीभावेन परिणमन संयमः । ( प्रव. सा. जय. वृ. १ - ७९ ) । १६. संयमो धर्मोपबृंहणार्थं समितिषु वर्तमानस्य प्राणीन्द्रिय- दयाकषायनिग्रहलक्षणः । (मूला. वु. ११-५) । व्रत समिति कषाय- दण्डन्द्रियाणां रक्षण - पालन- निग्रह त्यागजन्यः संयमः । ( मूला. वृ. १२ - १५६ ) । २०. जन्तुकृपाद्रितमनसः समितिषु साधोः प्रवर्तमानस्य । प्राणेन्द्रियपरिहारं संयममाहुर्महामुनयः ॥ ( पद्म. पं. १-६६) । २१. सं सम्यग्दर्शन - ज्ञानपावनः पापघातनः । यो द्वन्द्वद्वितयस्य स्याद्यमस्त्यागः स संयमः ॥ ( श्राचा.
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[ संयमधर्म
सा. ५-१४८) । २२. हिंसाविरतिलक्षणः संयमः । ( रत्नक. टी. ३ - २५) । २३. संयमः प्राणातिपातविरतिः । ( समवा. अभय वृ. १४६ ) । २४. संयम इन्द्रियवशीकारः । (योगशा. स्वो. विव. ३--१६ ) ; तत्र संयमः प्राणिदया । × × × प्राणातिपातनिवृत्तिरूपः संयमः । (योगशा. स्वो. विव. ४ - ६३ ) । २५. इह तु चारित्रपरिणामविशेषः संयमः प्रतिपद्यते, संयमो नाम निरवद्येतरयोगप्रवृत्ति - निवृत्तिरूपः । ( प्रज्ञाप. मलय वृ. ३१६ - उत्थानिका) । २६. संयमः सम्यगनुष्ठानलक्षणः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ८३१) । २७. संयमः सकलेन्द्रियव्यापारपरित्यागः । (नि. सा. वृ. १२३) । २८. समन्तान्मनोवाक्कायैः पापादाननिमित्त क्रियाभ्यो यमनमुपरमः संयमः । ( भ. प्रा. मूला ४ ) ; संयमो धर्मे प्रयतनम् | ( भ. प्रा. मूला. ४३४ ) । २६. प्राणिनां रक्षणं त्रेधा तथाक्षप्रसराहतिः । एकोद्देशमिति प्राहुः संयमं गृहमेधिनाम् ॥ भावसं वाम. ६०० ) । ३०. संयमः षडिन्द्रिय-षट्प्रकारप्राणिप्राणरक्षणलक्षण: । ( भावप्रा. टी. ६८ ) । ३१. षड्जीवनिकायेषु षडिन्द्रियेषु च पापप्रवृत्ते निवृत्ति: संयम उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१२ ) ;
पार्थ धर्मोप हणार्थ समितिषु प्रवर्तमानस्य पुरुषस्य तत्प्रतिपालनार्थं प्राणव्यपरोपण षडिन्द्रियविषयपरिहरणं संयम उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. - ६ ) । ३२. पंचमहाव्रतधारण पंचसमितिपरिपालन- पंचविशतिकषायनिग्रह-माया मिथ्या- निदानदण्डत्रयत्यागः पंचेन्द्रियजयः संयमः । ( कार्तिके. टी. ३६६) । ३३. संयमः क्रियया द्वेधा व्यासाद् द्वादशघाऽथवा । शुद्धस्वात्मोपलब्धिः स्यात् संयमो निष्क्रियस्य च ॥ ( पंचाध्या. २ - १११४) ।
१ व्रतों के धारण करने, समितियों के पालन करने, कषायों के निग्रह करने, माया मिथ्या निदानरूप अथवा पापोपदेशाविरूप दण्डों के त्याग करने श्रौर पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने को संयम कहा जाता है । २ प्राणी और इन्द्रियों के विषय में प्रशुभ प्रवृत्ति को छोड़ना, इसका नाम संयम है । ३ योगों के निग्रह करने को संयम कहते हैं । ७ विषय कषायों के विश्राम को संयम कहा जाता है ।
संयमधर्म - देखो संयम । १. वद समिदिपालणाए
११२८, जैन- लक्षणावली
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संयम]
११२६, जैन-लक्षणावली
[संयोग
हार
दण्डच्चाएण इंदियजएण । परिणममानस्स पुणो त्तोपलक्षणोपशमे सति प्रत्याख्यान-संज्वलनाष्टसंजमधम्मो हवे णियमा ॥ (द्वादशानु. ७६)। कस्योदये सति नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च २. धर्मोपबहणार्थ समितिषु वर्तमानस्य प्राणेन्द्रिय- सति संयमासंयमः संजायते । (त. वृत्ति श्रुत. २-५)। परिहारस्संयमः । (स. सि. ६-६)। ३. समितिषु १ स्थूल प्राणातिपातादि (हिंसादि) से निवृत्तिरूप प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयमः। ईर्या- परिणति को संयमासंयम कहा जाता है। ४ चार समित्यादिषु वर्तमानस्य मुनेस्तत्परिपालनार्थः प्राणी. स्थावरों के विघातका और दस प्रकार के त्रस न्द्रियपरिहार: संयम इत्युच्यते । (त. वा, ६-६, जीवों के रक्षण का जो परिणाम होता है उसे १४)। ४. समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयमासंयम कहते हैं। संयमः । (त. श्लो. ६-६)। ५. इन्द्रियार्थेषु संयुक्तद्रव्यसंयोग-तत्थ संजुत्तदव्वसंजोगो णाम वैराग्यं प्राणिन वधवर्जनम । समिती वर्तमानस्य
जो पुव्वसंजत्त एव अण्णण दब्वेण सह संयुज्जते । मनेर्भवति संयमः।। (त. सा. ६-१८)। ६. जो (उत्तरा. च. पृ. १५)। जीवरक्खणपरो गमणागमणादिसव्वकम्मेसु । तण- पर्व संयक्त हो जो द्रव्य अन्य द्रव्य के साथ संयोग छेदं पि ण इच्छदि संजमभावो हवे तस्स ।। (काति
को प्राप्त होता है, इसे संयुक्तद्रव्यसंयोग कहते हैं । के. ३९९)। १ जो जीव व्रतों व समितियों के पालने, दण्डों के
संयुक्ताधिकरण-- १. संयुक्ताधिकरणम्--अधिछोड़ने और इन्द्रियों के जीतने रूप से परिणत
क्रियते नरकादिष्वनेनेत्यधिकरणं वास्युदूखल-शिलाहोता है उसके नियम से संयमधर्म होता है। २ धर्म पुत्रक-गोधूम-यन्त्रादिसंयुक्तम् अर्थक्रियाकरणयोग्यम्, के बढ़ाने के लिए समितियों में प्रवर्तमान साधन संयुक्त च तदधिकरणं चेति समासः । (प्राव. हरि. जो प्राणविधात व इन्द्रियविषयों का पा
वृ.अ. ६, पृ ८३१) । २. संयुक्ताधिकरणम् -
अधिक्रियते नरकादिष्वनेनेत्यधिकरणं वास्यूदखलहोता है, इसे संया कहते हैं। संयमविराधना-श्वादयश्च तिष्ठन्तो मार्जार
शिलारपुत्रक-गोधूमयंत्रकादिषु संयुक्तमर्थक्रियाकरण
योग्यम्, संयुक्तं च तदधिकरणं चेति समासः । मूषिकादिकमुपहन्युरिति संयमविराधना । (व्यव. भा. मलय. वृ. ४-२५)।
(श्रा. प्र. टी. २६१)। ३. अधिक्रियते दुर्गतावाकुत्ता प्रादि रहते हुए बिल्ली व चूहों आदि का
त्माऽनेनेत्यधिकरणमुदूखलादि, संयुक्तम् उदूखलेन घात करते हैं, इस प्रकार के विचार से संयम की मुशलम्, हलेन फालः, शकटेन युगम्, धनुषा शराः, विराधना होती है।
एवमेकमधिकरणमधिकरणान्तरेण सयुक्तं संयुसंयमस्थान-संयमस्थानं संयमाध्यवसाय विशेषाः ।
क्ताधिकरणम्, तस्य भावस्तत्वम् । (योगशा.
स्वो. विव. ३-११५)। (उत्तरा. चू. पृ. २४०)। संयम के लिए जो उत्तरोत्तर प्रयास किया जाता
३ जिसके द्वारा जीव दुर्गति में अधिकृत किया है, इसे संयमस्थान कहते हैं।
जाता है उसे अधिकरण कहते हैं, संयुक्त जैसेसंयमासंयम --१. संयमासंयमः स्थलप्राणातिपा. उदूखल (प्रोखली) से संयुक्त मूसल, हल से संयुक्त तादिनिवृत्तिरूपः । (त. भा. हरि. व. ६-१३)। फाल, गाड़ी से संयुक्त युग और धनुष से संयुक्त २. स्थूलप्राणातिपातादिनिवृत्तिः अणुव्रत-गुणवत- वाण; इस प्रकार एक अधिकरण जो दूसरे अधिशिक्षाव्रतविकल्पा । (त. भा. सिद्ध. ६-१३)। करण से संयुक्त होता है, इसे संयुक्ताधिकरण कहा ३. विरताविरतत्वेन संयमासंयमः स्मृतः । (त. सा. जाता है । यह अनर्थदण्डव्रत का एक अतिचार है। २-८५)। ४. चतुःस्थावरविध्वंसी दशधात्रस रक्ष- संयोग-१. पुधप्पसिद्धाणं मेलण संजोगो। (धव. कः । सम्पद्यते परीणामः संयमासंयमोऽस्ति सः ॥ पु. १५, पृ. २४)। २. नैरन्तर्येणावयबप्राप्तिमात्र (पंचसं. अमित. १-२४६)। ५. अनन्तानुबन्ध्य- संयोगः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२६)। प्रत्याख्यानकषायाष्टकस्य उदयस्य क्षये सति तत्स- १ पृथग्भूत पदार्थों के मेल का नाम संयोग है।
ल. १४२
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संयोगगति]
११३०, जैन-लक्षणावली
[संरक्षणानन्द
संयोगति-'जलधर-रथ-मुशलादीनां वायु-वाजि- संयोजना । (स्थानां. अभय. व. २६३)। ४. तत्र हस्त्या[स्ता] दीनां संयोगनिमित्ता संयोगगति: । लोभाद् द्रव्यस्य मण्डकादेव्यान्तरेण खण्ड-घृतादिना बादल, रथ और मशल प्रादि की जो क्रम से वायु, वसतेर्बहिरन्तर्वा योजनं संयोजना । (योगशा. घोड़ा और हाथ आदि के संयोग के निमित्त से स्वो. विव. १-३८, पृ. १३८)। ५. मिथो विरुद्धं गति होती है उसे संयोगगति कहते हैं। संयोज्य दोषः संयोजनाह्वयः ॥ (अन. ध. ५-३७)। संयोगद्रव्य-तत्थ संजोयदव्वं णाम पुध पुध पसिद्धाणं ६. स्वादनिमित्तं यत्संयोजनं शीते उष्णं उष्णे शीतदवाणं संजोगेण णिप्पण्णं । (धव. पु. १, पृ. १८)। मित्यादिमेलनं तदनेकरोगाणामसंयमस्य च कारणम् । पृथक पथक प्रसिद्ध द्रव्यों के संयोग से जो द्रव्य (भावप्रा. टी. ९९) निष्पन्न होता है उसे संयोगद्रव्य कहते हैं। १ विरुद्ध भोजग-पान के मिलाने पर संयोजनादोष संयोगवाद- १. संयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञा न होता है। जैसे-उष्ण भोजन के ाथ शीतल पान ह्येक चक्रेण रथः प्रयाति । अन्धश्च पगुश्च वने का अथवा शीतल भोजन के साथ उष्ण पान का प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ।। (त. वा. संयोग । ऐसा भोजन साधु के लिए अग्राह्य होता १, १, ४६, पृ. १४ उद्.)। २. एकेण चक्केण है। रहो ण यादि संयोगमेवेति वदंति तण्णा। अंधो य संयोजनाधिकरणिकी- १. यत्पूर्व निर्वतितयोः पंगू य वणं पविट्ठा ते संपजुत्ता णयरं पविट्ठा ।। खड्ग-तन्मुष्ट्यादिकयोरर्थयोः संयोजनं क्रियते सा (अंगप. २-३२, पृ. २८२)।
संयोजनाधिकरिणिकी। (स्थानां. अभय. बृ. ६०)। १ एक पहिए से कभी रथ नहीं चलता है, वन में २. संयोजनं पूर्व निर्वतितानां हल-गर-विष-कूटप्रविष्ट हुए अन्धे व लंगड़े दोनों परस्पर में संयुक्त यंत्राद्यंगानां मीलनम्, तदेव संसारहेतुत्वादधिकरहोकर नगर में जा पहुंचते हैं। इससे सिद्ध है कि णिकी संयोजनाधिकरणिकी, इयं हलाद्यंगानि पूर्वनिसंयोग ही कार्यकारी है, इस प्रकार जो कथन र्वतितानि संयोजयितुर्भवति । (प्रज्ञाप. मलय. व. किया जाता है, इसका नाम संयोगवाद है। २७६, पृ. ४३६)। संयोगाक्षर-बझगेगत्थविसयविण्णाणप्पत्तिक्खमो २ पूर्व में रचे गये हल, गर, विष, कट और अक्खरकलामो संजोगक्खरं णाम। (धव. पु. यंत्र आदि के अवयवों के मिलाने को संयोजनाधि१३, पृ. २५६)।
करिणिकी क्रिया कहा जाता है। जो अक्षर समूहबाह्य एक एक पदार्थ विषयक संयोजनासत्य-१. धूप-चूर्ण-वासानुलेपनप्रघर्षादिषु विज्ञान की उत्पत्ति में समर्थ है उसे संयोगाक्षर पद्म-मकर-हंस-सर्वतोभद्र-क्रौञ्चव्यूहादिषु वा सचेकहते हैं।
तनेतरद्रव्याणां यथाभागविधिसन्निवेशाविर्भावक संयोजना (अनन्तानुबन्धी)- १. कर्मणा तत्फ- यद्वचस्तत्संयोजनासत्यम् । (त. वा. १, २०, १२; लभतेन संसारेण वा संयोजयन्तीति संयोजनाः। धव. पु. १, पृ. ११८)। २. चेतनाचेतनद्रव्यसन्नि(प्राव. नि. हरि. वृ.१०८, पृ.७७)। २. संयोज्यन्ते वेशाविभागकृत् । वचः संयोजनासत्यं क्रौंचव्यूहादिसम्बन्ध्यन्तेऽनन्तसंख्य वैजन्तवो यस्ते संयोजनाः। गोचरम् ॥ (ह. पु. १०-१०३) । ३. सेनौषधादि(प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. ४६८)।
विन्यास विभागक्रमवर्णना। वाणी संयोजना चक्रकर्म अथवा उसके फलभूत संसार से जो संयुक्त व्यूहैलाद्यादि वाग्यथा ॥ (प्राचा. सा. ५-३४) । कराते हैं उन्हें संयोजना कषाय कहते हैं । अनन्तान १ धूप, चूर्ण, सुगन्धित लेपन और प्रघर्ष प्रादि में बन्धी क्रोधादिकों का यह नामान्तर है।
अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र, क्रौञ्च और संयोजना (भोजनदोष)-१. संयोजणा य व्यूह प्रादि में चेतन-प्रचेतन द्रव्यों के भागविधि के दोसो जो संजोएदि भत्त-पाणं तु। (मला. ६ ५७)। अनसार सन्निवेश आदि के प्रगट करने वाले बचन २. स्वादार्थमन्न-पानानां यत्संयोजनकर्म तत् । प्रोक्तं को संयोजनासत्य कहते हैं। संयोजनं नानारोगाऽसंयमकारणम् ।। (प्राचा. सा. संरक्षणानन्द-देखो परिग्रहानन्दी व विषयानन्दरी८-२४) । ३. संयोजनम् एकजातीयातिचारमीलनं द्रध्यान । १. सद्दाइविप्सयसाहणधणसारक्खणपरायण
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संरक्षणानन्द ]
११३१,
मणिट्ठ । सव्वाभिसं कणपरोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥ (ध्यानश. २२) । २. सारक्खणानुबंधी णाम जो प्रत्थसरीरादीनं सारक्खणानिमित्तं णिच्चमेव ग्राहम्हिएसु कारणेसु पवत्तइ अचोरं चोरमिति काऊण घाएइ । ( दशवे. चू. पू. ३१) । ३. स्वपरिग्रहभेदे तु चेतना चेतनात्मनि । संरक्षणाभिधानं तु स्व-स्वामित्वाभि चिन्तनम् ।। (ह. पु. ५६ - २५ ) । ४. भवेत्संरक्षणानन्दः स्मृतिरर्थार्जनादिषु ।। ( म. पु. २१-५१) । ५. संरक्षण: सर्वोपायैः परित्राणे विषयसाधनधनस्यानुबन्धो यत्र तत्संरक्षणानुबन्धि । स्थानां. अभय. वृ. २४७ ) ।
१ शब्दादिक विषयों के साधनभूत धन के संरक्षण में संलग्न चित्त होकर जो सबके प्रति शंकित रहने से उनके घात में व्याकुल रहता है, इसे चतुर्थ (विषयसंरक्षणानन्दी) रौद्रध्यान कहते हैं । २ धन और शरीर श्रादि के संरक्षण के निमित्त जो सदा ही अधार्मिक कारणों में प्रवर्तता है तथा जो चोर नहीं है उसका भी चोर समझकर घात कर डालता है, यह संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान का लक्षण है । ३ चेतन-अचेतन रूप अपने परिग्रहविशेष में जो 'यह मेरा है और मैं इसका स्वामी हूँ' इस प्रकार से स्व-स्वामित्व का चिन्तन किया जाता है उसे संरक्षण नाम का चौथा रौद्रध्यान माना गया है । संरक्षणानुबन्धी- देखो संरक्षणानन्द । संरम्भ- १. संरम्भो संकप्पो XX X 1 (भ. प्रा. ८१२; व्यव. भा. पी. १-४६ ) । २. प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः संरंभ: । (स. सि. ६-८; चा. सा. पृ. ३६; श्रन. घ. स्वो टी. ४-२७) । ३. संरम्भ: संकल्प: XXX। (त. भा. ६-६ उद्.) । ४. प्रयत्नावेश: संरम्भः । प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेश: संरम्भः इत्युच्यते । (त. वा. ६, ८, २ ) । ५. प्राणातिपातादिसंकल्पः संरंभः । ( त. भा. हरि वृ. ६-९) । ६. प्रमादवतः प्रयत्नावेशः प्राणव्यपरोपणादिषु संरम्भः । (त. श्लो. ६-८ ) । ७. प्राणातिपातादिसंकल्पावेशः संरम्भः । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६-९)। ८. प्राणव्यपरोपणादो प्रमादवतः प्रयत्नः संरम्भः । (भ. श्री. विजयो. ८११) । ६. संरम्भो हिंसनोक्तत्वं x x x । ( श्राचा. सा. ५-१३) । १०. प्रागातिपातं करोमीति यः संकल्पोऽध्यवसायः स सं
जैन - लक्षणावली
[ संवर
रम्भः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १ - ४६ ) । ११. प्रमादवतो जीवस्य प्राणव्यपरोपणादिषु प्रयत्नावेशः संरंभः । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - ८ ) ।
१ हिंसा श्रादि के करने का जो संकल्प किया जाता है उसका नाम संरम्भ है । २ प्रमाद से युक्त होकर प्राणव्यपरोपण श्रादि में जो प्रयत्न किया जाता है, उसे संरम्भ कहा जाता है ।
संलेखना - देखो सल्लेखना । १. संलिख्यते शरीरकषायादि यया तपः क्रियया सा संलेखना | ( पंचव. स्व. वृ. २) । २. संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना तपोविशेषलक्षणा । (श्रा. प्र. टी. ३७८ ) । ३. संलिख्यते तनूक्रियते शरीरं कषायश्चानयेति संलेखना । (योगशा. स्वो विव. ३, १५३) ।
१ जिस तपश्चरण के द्वारा शरीर व कषाय श्रादि को कृश किया जाता है उसे संलेखना कहते हैं । यह सल्लेखना का पर्याय शब्द है ।
संवत्सर- १. ते ( श्रयने) द्वे संवत्सरः । ( त. भा. ४-१५) । २. दो प्रयणे संवच्छरे । ( भगवती ६, ७, ४, पृ. ८२५ ) । ३. दो श्रयणाई संवच्छरे । ( अनुयो. सू. १३७, पृ. १७६ ) । ४. दो अयणा संवच्छ रे । ( जम्बूद्वी १८-८९ ) । ५. संवच्छरो उ वारसमासो पक्खा य ते चउव्वीसं । ( ज्योतिष्क. ३१) । ६. द्वेऽयने संवत्सरम् । (त. वा. ३,३८, ८ ) । ७. संवत्सरो द्वादशमासात्मक: । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ६६३, पृ. २५७ ) । ८. द्वादशमासाः संवत्सरम् । ( श्राव. भा. हरि वृ. १६८, पृ. ४६५; सूर्यप्र. मलय. वृ. ५७, पृ. १६९; श्राव. मलय. वू. ६६६, पृ. ३४१ )। ६. श्रयणेहि वेहि संवच्छरो । ( धव. पु. १३, पृ. ३०० ) । १०. प्रयनद्वयं संवत्सरः । ( त. भा. सिद्ध. वू. ४ - १५ ) । ११. बिहि प्रयणिहिं संवच्छरु बुच्चइ । (म. पु. पुष्प. २-५, पृ. २३) । १२. श्रयनद्वयेन संवत्सरः । (नि. सा. वृ. ३१) । १३. संवत्सरो द्वादशमासात्मकः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ६६६, पृ. ३४१ ) 1
१ दो प्रयनों (६+६ - १२ मास) का एक संवत्सर होता है ।
संवर - १. जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स । संवरणं तस्स तदा सुहासुहरुदस्स कम्मस्स || (पंचा. का. १४३ ) । २. श्रास्रवनिरोधः
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संवर]
११३२, जैन-लक्षणावली
[ संवर
संवर: । (त. सू. ६-१; प्रौपपा. अभय वृ. ३४, मोह-राग-द्वेषपरिणामनिरोघो जीवस्य तन्निमित्तः
पृ. ७६ ) । ३. प्रास्रवनिरोधलक्षणः संवरः । ( स. सि. १ - ४) । ४. यथोक्तस्य काययोगादेद्विचत्वा रिद्विस्यासवस्य निरोधः संवरः । ( त. भा. ६ - १ ) । ५. वाक्काय-मनोगुप्तिनिशश्रवः संवरस्तू[क्तः ॥ ( प्रशमर. २२० ) । ६. श्रास्रवनिरोधलक्षणः संवरः । पूर्वोक्तानामास्रवद्वाराणां शुभपरिणामवशान्निरोधः संवरः ॥ (त. वा. १, ४, १८); मिथ्यादर्श - नादिप्रत्ययकर्मसंवरणं संवरः । मिथ्यादर्शनादय: प्रत्यया व्याख्याताः, तदुपादनस्य कर्मणः संवरणं संवर इति निधियते । (त. वा. ६, १, ६) । ७. संवरो नाम पाणवहादीण प्रासवाणं निरोहो । ( दशवं. चू. पू. १६२ ) । ८. प्रसवनिरोह संवर समिई- गुत्ताइएहि नायव्वो । (श्रा. प्र. ८१ ) । 8. संवर- इन्द्रिय- नोइन्द्रियगुप्तिः । (श्राव. नि. हरि. वृ. ८७२ ) । १०. श्राश्रवस्य निरोधो गुप्त्यादिभि: संवरः । ( त. भा. हरि बृ. १-४ ) ; तस्य काययोगादेराश्रवस्य द्वधिकचत्वारिशद्द्भेदस्य निरोधो यः स संवरः, प्रात्मनः कर्मादान हेतुभूतपरिणामा भावः संवर इत्यभिप्रायः । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ६-१) । ११. संवरस्तन्निरोधस्तु X X X ( षड्द. स. ५१, पृ. १८० ) । १२. दंसण - विरमणणिग्गह- गिरोहया संवरा होंति । ( धव. पु. ७, पृ.
उद्); प्रासवपडिवक्खो संवरो णाम । ( धद. पु. १३, पृ. ३५२ ) । १३. श्रस्रवस्य निरोधस्तु संवर: परिभाष्यते । (ह. पु. ५८-२६६) । १४. कर्मादानाभावः संवरः । ( त श्लो. ६-१ ) । १५. संवरो हि कर्मणामास्रवनिरोध: । ( प्राप्तप. १११ ) । १६. तेषामेवात्रवाणां यो निरोधः स्थगनं गुप्त्यादिभिः स संवरः । ( त. भा. सिद्ध वृ. १-४); संवरोऽप्यास्रवनिरोधलक्षणो देश- सर्वभेद आत्मनः परिणामो निवृत्तिरूपः । ( त. भा. सिद्ध. बृ. १-४); आश्रवद्वाराणां पिधानमाश्रवदोषपरिवर्जनं संवरः । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६–७, पृ. २१९ ) । १७. संत्रियते संरुध्यते मिथ्यादर्शनादिः परिणामो येन परिनामान्तरेण सम्यग्दर्शनादिना गुप्त्यादिना वा स संवरः । ( भ. प्रा. विजयो. ३८ ) : संक्रियन्ते निरुध्यन्तेऽभिनवाः कर्म पर्यायाः पुद्गलानां येन जीवपरिणामेन मिथ्यात्वादिपरिणामो वा निरुध्यते स संवरः । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. १८३४ ) । १८.
कर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां च संवरः । (पंचा. का. अमृत. वृ. १०८ ) । १६. यथोक्तानां हि हेतूनामात्मनः सति संभवे । श्रास्रवस्य निरोधो यः स जिनः संवरः स्मृतः ॥ ( तसा. ६-२ ) । २०. रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरान् धृत्वा परः संवरः, कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुन्धन् स्थितः । ( समय. क. ७- १) । २१. तथा तन्निरोधः प्रास्रवनिरोधः संवर: । (सूत्रकृ. स. शी वृ. २, ५, १७, पृ. १२८ ) ; यः संवरम् श्रास्रवनिरोधरूपं यावदशेषयोगनिरोधस्वभावं जानीते X X X। (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. १२-२१, पृ. २२९ ) । २२. कल्मषागमनद्वारनिरोधः संवरो मतः । भावद्रव्यविभेदेन द्विविधः कृतसंवरैः । (योगशा. प्रा. ५ - १ ) २३. अपूर्व कर्मणामास्रवनिरोधः संवरः । ( न्यायकु. ७६, पृ. ८१२ ) । २४. श्रास्रवस्य निरोधो यः संदरः स निगद्यते । (चन्द्र च १८ - १०६ ; श्रमित. श्री. ३ - ५६ ) । २५. कर्मास्रवनिरोधसमर्थ - स्वसंवित्तिपरिणतजीवस्य शुभाशुभाकर्मागमनसंवरणं संवर: । (बृ. द्रव्यसं. टी. २८) । २६. कर्मागमनद्वारं संवृणोतीति संवरणमात्रं वा संवरोऽपूर्व कर्मागमननिरोधः । (मूला. वृ. ५-६ ) । २७. भावद्रव्यावद्वन्द्वरोधात्संवरणं मतम् । ( आचा. सा. ३ - ३२ ) । २८. कर्माश्रवनिरोधोऽत्र संवरो भवति ध्रुवम् । साक्षादेतदनुष्ठानं मनोवाक्कायसंवृतिः ॥ (पद्म. पं. ६ - ५२ ) । २६. संव्रियते कर्म्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः, श्रस्रवनिरोध इत्यर्थः । ( स्थानां. अभय वृ. १४) । ३०. XXX रागादिरूपभावास्रवनिरोधलक्षणः संवरोजायते । ( समयप्रा. जय. वृ. १६० ) 1३१. आस्रवस्य निरोधो यः संवरः स प्रकीर्तितः । ( ज्ञाना. १, पृ. ४४ ) । ३२. मिच्छादंसणा विरइ. कसाय- पमायजोगनिरोहो बरो । जीतक. चू. पृ. ५) । ३३. संवरश्चाक्ष-मनसां विषयेभ्यो निवर्त्तनम् । (योगशा. स्व. वि. १, १३ ) ; सर्वेषामेवाश्रवाणां यो रोधहेतुः स संवरः । (योगशा. स्वो विव. १-१६, पृ. ११४) । ३४. संवरः इन्द्रिय- नोइन्द्रियगोपनम् । ( धाव. नि. मलय. वृ. ८७२, पू. ४८० ) । ३५. स संवर: संक्रियते निरुध्यते कर्मास्रवो येन सुदर्शनादिना । गुप्त्यात्माना वात्मगुणेन संवृतिस्तद्योग्यतद्भावनिराकृतिः स वा ॥
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संवर]
(अन. ध. २- ४१) । ३६. संब्रियते निरुध्यते आस्रवो येन सम्यग्दर्शनादिना गुप्त्यादिना वा जीवपरिणामेन स संवरः संवरणं संवर:- ज्ञानावरणादिकर्मयोग्यानां पुद्गलानां तद्भावपरिणतिनिवारणम् । ( भ. प्रा. मूला. ३८ ) । ३७. प्रात्रवाणामशेषाणां निरोधः संवरः स्मृतः । कर्म संवियते येनेत्यन्वयस्यावलोकनात् ।। प्रास्रवद्वाररोधेन शुभाशुभविशेषतः । कर्म संक्रियते येन संवरः स निगद्यते ॥ ( धर्मश. २१, ११७-१८ ) । ३८. द्रव्य भावास्रवस्यास्य निरोधः संवरः मतः । ( धर्मसं. श्री. १०-१६)। ३६. प्रास्रवस्य निरोधः संवरः । ( भावप्रा. टी. ६५) । ४०. आश्रवनिरोधरूपः संवरः । ( त वृत्ति श्रुत. १-४) । ४१. संवरः श्रागन्तुककर्म निरोधः । ( परमा त. ५ - ४) । ४२. आस्रवस्य निरोधो यः स संवर उदाहृतः । ( जम्बू. च. ३ - ५७ ) । १ जिस संयत के मन-वचन-काय के व्यापारस्वरूप योग में जब न शुभ परिणाम रूप पुण्य रहता है और न अशुभ परिणामरूप पाप रहता है तब उसके शुभ-अशुभ परिणाम से किये जाने वाले कर्म का संवर होता है । २ मिथ्यात्व श्रादि श्रास्रवों के निरोध का नाम संवर है । ४ काययोगादिरूप ब्यालीस (३+३६ त. सू. ६-६) प्रकार के श्राश्रव का जो निरोध होता है उसे संवर कहते हैं । संवरानुप्रेक्षा- देखो संवर । १. यथा महार्णवे नावो विवरापिधाने सति क्रमात् स्रुतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यंभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषित देशान्तरप्रापणं तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयः प्रतिबन्ध इति संवरगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा । ( स. सि. ६-७; त. वा. ६, ७, ७) । २. यथा वणिङ्महार्णवे यानपात्रविवर द्वारजला स्रवपिधाने निरुपद्रवमभिलषित देशान्तरं प्राप्नोति तथा मुनिरपि संसार्णवे शरीरपोतस्येन्द्रियविषपद्वारकर्मजला स्रवं तपसा विधाय मुक्तिवेला पत्तनं निर्विघ्नं प्राप्नोति इत्येवं संवरगुणानुचितनं संवराऽनुप्रेक्षा । (चा. सा. पृ. ८७ ) । ३. दष्टे दुष्टविषाहिनां गिनि यथा नष्टप्रचेष्टे विषं पुष्पजांगुलिकेन मन्त्रबलिना संस्तम्भितं तिष्ठति । सम्यक्त्व - व्रत - निष्कषायपरिणामाऽयोगताभिस्तथा मिथ्यात्वादिचतुः स्वहेतु विगमान्नूतनैनसां नागमः ॥ ( प्राचा. सा. १० - ४० ) ।
११३३, जैन-लक्षणावली
[ संविग्न
१ जिस प्रकार समुद्र में नाव के भीतर हुए छिद्र के बन्द न करने पर क्रम से उसके द्वारा भीतर प्राते हुए जल से नाव के डूब जाने पर उसके श्राश्रित यात्रियों का विनाश श्रवश्यंभावी है तथा इसके विपरीत उस छिद्र के बन्द कर देने पर वे यात्री सकुशल अपने अभिलषित स्थान में पहुँच जाते हैं उसी प्रकार कर्मों के श्राने के द्वार को रोक देने पर कल्याण के होने में कुछ बाधा नहीं रहती, इस प्रकार संवर के गुणों का जो विचार किया जाता है उसे संवरानुप्रेक्षा कहते हैं । संवासानुमति - १. सावज्जसं किलिट्ठे ममत्तभावो उ संवासाणुमती । ( कर्मप्र. चू. उप.क. २८, २९) । २. यदा पुनः सावद्यारम्भप्रवृत्तेषु पुत्रादिषु केवलं ममत्वमात्रयुक्तो भवति नान्यत् किचित् प्रतिशृणोति श्लाघते वा तदा संवासानुमतिः । ( कर्मत्र. उप क. मलय. वृ. २८ - २६ ) |
२ पापयुक्त प्रारम्भ कार्य में पुत्रादिकों के प्रवृत्त होने पर जो केवल ममत्वभाव से युक्त होता है, पर न तो उसे स्वीकार करता है-प्रतीकार करता है और न प्रशंसा भी करता है, इस स्थिति को संवासानुमति कहा जाता है । संवाह - १. संवाहणं ति बहुविहरण्णमहासेलसिहरत्थं ॥ ( ति प ४ - १४०० ) । २. यत्र शिरसा धान्यमारोप्यते स संवाहः । ( धव. पु. १३, पृ. ३३६) । ३. संबाहः पर्वतनितम्बादिदुर्गे स्थानम् । ( श्रपपा. अभय वू. ३२ ) ।
१ अनेक प्रकार के वनों से व्याप्त पर्वत के ऊपर जो स्थान स्थित होता है उसे संवाह या संवाहन कहते हैं ।
संवाहक - श्रङ्गमर्दन कलाकुशलो भारवाहको वा संवाहकः । ( नीतिवा. १४-३४, पृ. १७४) । जो अंगमर्दन - शरीर की मालिश करने की कला में दक्ष होता है अथवा बोझा ढोता है उसे संवाहक कहा जाता है । संवाहन - देखो संवाह |
संविग्न - १. संविग्नो मोक्षसुखाभिलाषी । (श्रा. प्र. टी. १०८ ) । २. संविग्गो संसाराद् द्रव्य-भावरूपात् परिवर्तनाद् भयमुपगतः, विपरीतोपदेशे रागात् कोपाद्वा अनन्तकालं संसारपरिभ्रमणं मम मिथ्यादृष्टेः सतो भविष्यति इति यः सभयः । (भ.
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संवित्ति] ११३४, जैन-लक्षणावली
[संवेग प्रा. विजयो. ३५)। ३. संविग्गो रागाद्वा द्वेषाद्वा जातं पङ्कजमित्यादि। (कार्तिके. टी. ३९८)। सूत्रार्थमन्यथोपदिशतो मम मिथ्यादृष्टे: सतोऽनन्त- १ लोक में कल्पना से जो वचन व्यवहार में प्राता कालं संसारे परिभ्रमणं भविष्यतीति भयमापन्नः । है उसे संवृतिसत्य कहते हैं। जैसे-कमल को (भ. प्रा. भूला. ३५)।
उत्पत्ति में पृथिवी आदि अनेक कारणों के होने १ जो मोक्षसुख की अभिलाषा करता है उसे पर भी वह चूंकि कीचड़ में उत्पन्न होता है, इससंविग्न कहा जाता है।
लिए उसे पङ्कज कहना, इत्यादि । ३ जिस वचन संवित्ति-लक्खणदो णियलक्खं प्रणहवमाणस्स का शरीर अनेक कारण रूप सामग्री से किया गया जं हवे सोक्खं । सा संवित्ती भणिया सयलवियप्पाण है। फिर भी वाचकता का एक देश विद्यमान होने णिद्दहणा ।। (द्रव्यस्व. प्र. नयच. ३५१)। से जो वचन कहा जाता है उसे संवृतिसत्य जानना लक्षण के प्राश्रय से अपने लक्ष्य का अनुभव करते चाहिए। जैसे-भेरी का शब्द, यद्यपि भेरी के हुए जो सुख होता है उसे संवित्ति कहा गया है। शब्द में भेरी के अतिरिक्त पुरुष व दण्ड आदि यह संवित्ति समस्त विकल्पों को नष्ट करने वाली अनेक कारण हैं, फिर भी भेरी की प्रधानता से
भेरी का शब्द कहा जाता है। संवत (योनि)-१. सम्यग्वतः संवतः, संवत संवेग-१. संसारदःखान्नित्यभीरता संवेगः । (स इति दुरुपलक्ष्यप्रदेश उच्यते । (स. सि. २-३२)। सि. ६-२४)। २. संवेगो नाम संसारभीरुत्वमा२. संवृतो दुरुपलक्षः। सम्यग्वृतः संवृत इति दुरु- रम्भ-परिग्रहेषु दोषदर्शनादरतिः धर्म बहुमानो पक्ष: प्रदेश उच्यते । (त. वा. २, ३२, ३)। धार्मिकेषु च । (त. भा. ७-७) । ३. सिद्धी य देव३. सम्यग्वृतः संवृतो दुरुपलक्ष्यप्रदेशः । (मूला. ७. लोगो सुकुलुप्पत्ती य होइ संवेगो। (दशवं. नि. १२-५८) । ४. सम्यक्प्रकारेण वृतः प्रदेशः संवृतः, २०३)। ४. संसाराद् भीरुता संवेगः । (त. वा. १, दुरुपलक्ष्य इत्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. २-३२)। २, ३०); संसारदुःखान्नित्यभीरता संवेगः । शारीरं १ जो जन्मस्थान रूप प्रदेश भले प्रकार ढका हा मानसं च बहविकल्पप्रियविप्रयोगाप्रियसंयोगेप्सिताहोता है व जिसका देखा जाना कठिन होता है उसे लाभादिजनितं संसारदुःखं यदतिकष्टं ततो नित्यसंवतयोनि कहते हैं।
भीरता संवेगः । (त. वा. ६, २४, ५)। ५. संवेगः संवृतबकुश--प्रच्छन्नकारी संवृतबकुशः । (त. संसारभीरुत्वादिलक्षणः । (त. भा. हरि. वृ. ७-७)। भा. सिद्ध. वृ. ६-४६)।
६. संवेगो मोक्षाभिलाषः। (दशवै. नि. हरि. व. गुप्तरूप से कार्य किया करता है उसे ५७; श्रा. प्र. टी. ५३)। ७. हरिसो संतो संवेगो संवृतबकुश कहते हैं।
णाम । (धव. पु. ८, पृ. ८६)। ८. संवेग: परमा संवृतिसत्य-१. यल्लोके संवृत्यानीतं (चा. सा. प्रीतिर्धम धर्मफलेषु च । (म. पु. १०-१५७) । 'गीत') वचस्तत्संवृतिसत्यम् । यथा पृथिव्याद्यनेक- ६. जन्म-जरामरणभयमानसशारीरदुःखसंभारात् । कारणत्वेऽपि सति प? जातं पङ्कजम् इत्यादि। संसाराद्भीरुत्वं संवेगो विषयतृट्छेदी ॥ (ह. पु. (त. वा. १, २०, १२) । २. यल्लोके संवृत्याश्रितं ३४-१३६)। १०. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावपरिवचस्तत्संवृतिसत्यम् । यथा पृथिव्याद्यनेककार- वर्तनरूपात् संसाराद्भीरुता संवेग: । (त. श्लो. १-२, णत्वेऽपि सति पङ्क जातं पङ्कजमित्यादि । (धव. पृ.८६); संसाराद्भीरुताभीक्ष्णं संवेगः सद्धियां मतः । पु. १, पृ. ११८)। ३. सामग्रीकृतकायस्य वाचक- (त. श्लो.६, २४, ७)। ११. संवेजनं संवेगो भीतित्वैकदेशतः । वचः संवृतिसत्यं स्यात् भेरीशब्दादिकं विचलनं वा संसारदुःखाज्जाति-जरा-मरणस्वभावात् यथा ॥ (ह. पु. १०-१०२)। ४. या सा सर्वानुमत्या वाक् ख्याता संवृतिसत्यवाक् । कारणान्तर- नित्याशुचित्वादिचिन्तनाच्च सांसारिक सुखेष्वनभिजत्वेऽपि पंकजमिति वाग्यथा ॥ (प्राचा. सा. लाषस्तत्प्रवणपरिणामाद विचलनं संवेगः। (त.भा. ५-३२)। ५. यल्लोकसंवृत्यागतं वचस्तत्संवृति-' सिद्ध. वृ. ६-२३)। १२. शारीर-मानसागन्तुवेदनासत्यम् । यथा पृथिव्याद्यनेककारणत्वेऽपि सति पङ्क प्रभवाद् भवात् । स्वप्नेन्द्रजालसंकल्पाद्भीतिः संवेग
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संवेग] ११३५, जैन-लक्षणावली
[संव्यवहारप्रत्यक्ष मुच्यये ॥ (उपासका. २२६) । १३. शारीरं मानसं ६. रत्नत्रयात्मक धर्मानुष्ठानफलभूततीर्थकराद्यैश्वर्यच बहुविकल्पं प्रियविप्रयोगाप्रियसंयोगेप्सितालाभा- प्रभावतेजोवीर्य-ज्ञान-सुखादिवर्णनारूपं संवेजनीकथा । दिजनितं संसारदुःखं यदतिकष्टं ततो नित्यभीरुता (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३५७) । संवेगः । (चा. सा. पृ. २५)। १४. तय्ये धर्म १ ज्ञान, चारित्र और तप की भावना से जो शक्तिध्वस्तहिंसाप्रपञ्चे, देवे राग-द्वेषमोहादिमुक्ते। साधौ रूप संपत्ति प्रगट होती है उसके निरूपण करने को सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः॥ संवेजनीकथा कहते हैं। २ प्रात्मशरीर, परशरीर, (अमित. श्रा. २-७४)। १५. संवेगो मोक्षाभि- इहलोक और परलोक के भेद से संवेजनीकथा चार लाषः। XXX अन्ये तु संवेग-निर्वेदयोरर्थवि- प्रकार की है। सात धातुमय यह हमारा शरीर पर्यासमाहुः- संवेगो भवविरागः, निर्वेदो मोक्ष- मल-मूत्रादि का स्थान है, अतः अपवित्र है, इस सुखाभिलाष इति । (योगशा. स्वो. विव. २-१५, प्रकार कहने पर श्रोता को संवेग उत्पन्न होता है, प. १८१-८२)। १६. ध्यायतः कर्मविपाकं संसा- इसीलिए इसे प्रात्मशरीरसंवेजनी कथा कहा रासारतामपि । यत्स्याद्विषयवैराग्यं स संवेग इती- जाता है। इसी प्रकार परशरीरसंवेजनी, इहलोकरितः ।। (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६१३) । १७.४ संवेजनी और परलोकसंवेजनी कथानों का भी xx संवेगः । भवभयमनुकम्पा Xxx॥ स्वरूप समझना चाहिए। ४ पुण्यफल को चर्चा को (अन. ध. २-५२)। १८. शारीर-मानसागन्तु- संवेजनीकथा कहते हैं। वेदनाप्रसारात् संसाराद्भयं संवेगः । (त. वृत्ति श्रुत. संवेजनीय रस-वीरिय विउव्वणिड्ढी नाण. १-२); भवदुःखादनिशं भीरुता संवेगः कथ्यते। चरण-दसणाण तह इड्ढी । उवइस्सइ खलु जहियं (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४)। १६. संसाराद्भीरुत्वं कहाइ संवेयणीइ रसो।। (दशवै. नि. २००)। संवेगः। (भावप्रा. टी. ७७)। २०. धर्म धर्मफले तप के सामर्थ्य से वीर्य ऋद्धि, विक्रिया ऋद्धि, च परमा प्रीतिः संवेग: । (कातिके. टी. ३२६)। ज्ञान ऋद्धि, चारित्रऋद्धि और दर्शनऋद्धि प्रादुर्भूत २१. संवेग: परमोत्साहो धर्म धर्गफले चितः। होती है; इत्यादि का जो उपदेश दिया जाता है उसे सधर्मेष्वनुरागो वा प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ॥ (लाटीसं. संवेजनीकथा का रस (सार) समझना चाहिए। ३-७६; पंचाध्या. २-४३१) ।
संव्यवहरणदोष - संववहरणं किच्चा पदादुमिदि १ संसार के दुःख से जो निरन्तर भय होता है, चेल-भायणादीणं । असमिक्ख [क्खि] य ज देयं संववइसका नाम संवेग है। २ संसार से भयभीतता, हरणो हवदि दोसो ॥ (मूला. ६-४८)। प्रारम्भ व परिग्रह में दोषों के देखे जाने से प्रति साधु को प्राहार देने के लिए वस्त्र व वर्तन आदि तथा धर्म और धामिक जन में बहमान; ये संवेग के का शीघ्रता से व्यवहार करके विना देखे जो दिया लक्षण हैं। ३ सिद्धि, देवलोक और उत्तम कुल में जाता है उसे यदि साधु ग्रहण करता है तो वह उत्पत्ति यह संवेग है-इनके निमित्त से संवेग संव्यवहरण नामक प्रशनदोष का भागी होता है। होता है। ६ मोक्ष की अभिलाषा का नाम संवेग है। संव्यवहार--१. समीचीनो व्यवहारः संव्यवहारः, संवेजनी कथा--१. संवेयणी पुण कहा णाण- प्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षण: संव्यवहारो भण्यते । (बृ. चरित्तं तव-वीरिय इड्ढिगदा। (भ. प्रा. ६५७)। द्रव्यसं. टी. ५) । २. समीचीनप्रवृत्तिरूपो व्यवहारः २. आय-परसरीरगया इहलोए चेव तह य परलोए। संव्यवहारः । (लघीय. अभय. वृ. ३, पृ. ११)। एसा चउम्विहा खलु कहा उ संवेयणी होइ॥ १ प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप समीचीन व्यवहार को संव्यव(दशवै. नि १६६)। ३. संवेजनी च संसारभय- हार कहते हैं। प्रचयबोधनीम् । (पद्मपु. १०६-६३) । ४. संवेयणी संव्यवहार प्रत्यक्ष-देखो सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष । णाम पुण्णफलसंकहा। Xxxउक्तं च-xx संशय-१. सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषX संवेगिनी धर्मफलप्रपञ्चा XXX ॥ (धव. स्मृतेश्च संशयः । (त. वा. १, ६, ८); अनेकार्थापु. १, पृ. १०५-६)। ५. संवेजनी प्रथयितुं सुकृ- निश्चितापर्युदासात्मकः संशयः xxx । स्थाणुतानुभावम् xxx ॥ (अन. प. ७-८८)। पुरुषाद्यनेकार्थालम्बनसन्निधानादनेकार्थात्मकः संश
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संव्यवहारप्रत्यक्ष] ११३६, जैन-लक्षणावली
संशयित मिथ्यात्व यः,xxx। स्थाणु-पुरुषानेकधर्मानिश्चितात्मकः तत्त्वानवधारणात्मकसंशयज्ञानसहचारि प्रश्रद्धानं संशयः । xxx, स्थाणु-पुरुषानेकघर्माऽपर्युदा- संशयितम्, न हि संदिहानस्य तत्त्वविषयं श्रद्धानसात्मक: संशयः । (त. वा. १, १५, ६)। २. स्था- मस्ति इदमित्थमेवेति । (भ.प्रा. विजयो. ५६) । णुर्वा पुरुषो वेति ज्ञानं संशयः । (सिद्धिवि. वृ. १, ६. सर्वज्ञेन विरागेण जीवाजीवादिभाषितम् । तथ्यं ३, पृ. २४); स्थाणुर्वा पुरुषो वा इति विशेषानव- न वेति संकल्पो दृष्टि: सांशयिकी मता। (अमित. धारणं संशयः । (सिद्धिवि. वृ. १, १०, पृ. ६३)। श्रा. २-७) । ७. xxx यदा पुनरदृष्टेषु सर्वज्ञ३. शुद्धात्मतत्त्वादिप्रतिपादकमागमज्ञानं किं वीत- तैव दुरवधारा अयमेव सर्वज्ञो नेतर इति, प्रागमरागसर्वज्ञप्रणीतं भविष्यति परसमयप्रणीतं वेति शरणतायामपि प्रागमेषु को वस्तुयाथात्म्यानुसारी संशयः । तत्र दृष्टान्तः स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । (बृ. को वा नेति मिथ्यात्वकर्मपाकपारतन्त्र्यात् संशयद्रव्यसं. टी. ४२) । ४. अनवस्थितकोटीनामेकत्र मभिनिवेशमानस्य तत्त्वाश्रद्धानमुदेति, तदा संशयपरिकल्पनाम् । शुक्ति वा रजतं किं वेत्येवं संशीति- प्रत्ययोपनीतत्त्वात्संशयमिथ्यात्वमुच्यते । (भ. प्रा. लक्षणम् ॥ (मोक्षपं. ५)। ५. संशयो नामानव- मूला. ४४) । ८. सशयो जैनसिद्धान्ते सूक्ष्मे सन्देहधारितार्थज्ञानम् । (सूर्यप्र. मलय. व. २, पृ. ५)। लक्षणः । इत्थमेतदथेत्थं वा को वेत्तीति कुहेतुतः ।। ६. विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः, यथा स्थाणुर्वा (धर्मसं. श्रा. ४-३८) । ६. सम्यग्दर्शन-ज्ञानपुरुषो वेति । (न्यायदी. पृ. ६)। ७. एकमिक- चारित्राणि मोक्षमार्गः किं भवेन्नो वा भवेदिति विरुद्धनानाधर्मप्रकारकं ज्ञानं हि संशयः। (सप्तभं. अन्यतरपक्षस्य अपरिग्रहः संशयमिथ्यादर्शनम् । (त. पृ. ६); एकवस्तुविशेष्यकविरुद्धनानाधर्मप्रकारक- वृत्ति श्रुत. ८-१)। ज्ञानं हि संशयः । (सप्तभं. पृ. ८०)।
१ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये मोक्ष के मार्ग १ सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष, विशेष धर्म का अप्रत्यक्ष हो सकते हैं या नहीं, इस प्रकार से किसी एक पक्ष और विशेष का स्मरण होने पर जो अनेक पदार्थों का निर्णय न होना; इसका नाम संशयमिथ्यात्व या में चलात्मक ज्ञान होता है उसे संशय कहते हैं । २ यह संशयमिथ्यादर्शन है। ५ वस्तुस्वरूप का निश्चय न स्थाणु है या पुरुष, इस प्रकार कथंचित् सदृशता को होना, इसे संशयमिथ्यात्व कहा जाता है। प्राप्त दो या अधिक पदार्थों में जो विशेष का संशयमिथ्यादर्शन---देखो संशय मिथ्यात्व । निश्चय नहीं होता है, इसे संशय कहा जाता है। संशयमिथ्यादृष्टि-देखो संशय मिथ्यात्व । संशयमिथ्यात्व-१. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि संशयवचनीभाषा-१. संशयमव्यक्तं वक्तीति किं मोक्षमार्गः स्याद्वा न वेत्यन्यतरपक्षापरिग्रहः संशयवचनी, संशयार्थ प्रख्यापनानभिव्यक्तार्था यस्मासंशयः । (स. सि. ८-१)। २. सम्यग्दर्शन-ज्ञान- द्वचनात् संदेहरूपादर्थो न प्रतीयते तद्वचनं संशयचारित्राणि मोक्षमार्गः किं स्याद्वा न वेति मतिद्वधं वचनी भाषेत्युच्यते । (मूला. वृ. ५-११९)। संशयः । (त. वा. ८, १, २८) । ३. सव्वत्थ संदेहो २. संशयवचनी संदेहभाषा किमिदं बलाका पताका चेव, णिच्छो णस्थित्ति अहिणिवेसो संसयमिच्छत्तं। वा। (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २२५) । (धव. पु. ८, प. २०)। ४. संसय मिच्छादिट्री १जिस भाषा में वस्तु का अस्पष्ट कथन किया णियमा सो होइ जत्थ सग्गंथो। णिग्गयो वा सिज्झइ जाता है तथा जिस संदिग्ध वचन से अर्थ की प्रतीति कंबलगहणेण सेवडयो ।। (भावसं. दे. ८५)। नहीं होती है उसे संशयवचनीभाषा कहते हैं । ५. संशयमिथ्यात्वं वस्तुस्वरूपानवधारणात्मकम्। संशयित मिथ्यात्व-देखो संशय मिथ्यात्व । प्रत्य(भ. प्रा. विजयो. २३); एवम्भूतश्रद्धारहितस्य को क्षादिप्रमाणः परिज्ञातस्यापि वस्तुनः देशान्तरे कालावेति किमत्र तत्त्वमिति अदृष्टेषु कपिलादिषु सर्वज्ञ- न्तरे च इदमेव ईदृशमेत्र इत्यवधारयितुमशक्यत्वेन तव दुरवधारा, अयमेव सर्वविन्नेतर इति आगम- तत्स्वरूपप्ररूपकाणामाप्ताभिमानिनामपि परस्परशरणतायां को वस्तुयाथात्म्यानुसारी को वा नेति विरुद्धशास्त्रोपदेशकत्वात् वंचकत्वशंकया च तत्त्वसंशय एवेति यत्तत्वाश्रद्धानं संशयप्रत्ययोपनीतत्वात्त- मित्थं भवति वा नवेत्युभयांशावलम्बनरूपसंशयपूर्वकसंशयमिथ्यात्वमित्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. ४४); श्रद्धानं संशयितमिथ्यात्वम् । (गो. जी. जी. प्र.१५)।
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संश्रय]
प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा यद्यपि वस्तु को जान लिया है, फिर भी अन्य देश व प्रग्य काल में 'यही है व इसी प्रकार की है' ऐसा निर्णय न कर सकने के कारण तथा अपने को प्राप्त मानने वाले भी जो उसकी प्ररूपणा करते हैं उनके परस्पर विरुद्ध शास्त्र के उपदेष्टा होने से ठगे जाने की प्रशंका से तत्त्व ऐसा है या नहीं है इस प्रकार उभय पक्ष का प्रालम्बन करने वाला संशयपूर्वक जो श्रद्धान होता है उसे संशयित मिथ्यात्व कहते हैं । संश्रय - परस्यात्मार्पणं संश्रयः । ( नीतिवा. २६, ४७, पृ. ३२४) ।
शत्रु के बल को देखकर जो श्रात्मसमर्पण किया जाता है, इसे संश्रय कहते हैं । संश्लेषबन्ध - १. जो सो संमिलेसबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो- जहा कटु-जदूणं अण्णोष्णसंसिलेसिदाणं बंधो संभवदि, सो सव्वो संसिलेसबंधो णाम । ( षट्खं. ५, ६, ४३ – पु. १४, पृ. ४१) । २. जतुकष्ठादि संश्लेषबन्धः । (त. वा. ५, २४, १३) । ३. रज्जु-वरत- कट्ठादीहि विणा अल्लीवणविसेसे हि विणा जो चिक्कण- श्रचिक्कणदव्वाणं चिक्कणदव्वाणं वा परोप्परेण बंधो सो संसिलेसबंधो णाम । ( धव. पु. १४, पू. ३७ ) ; लक्खाए कटुस्स जो अण्णोष्णसंसिलेसेण बंधो सो संसिलेसबंधो णाम । ( घव. पु. १४, पू. ४१ ) ।
१ परस्पर संश्लेश को प्राप्त हुए लाख और काष्ठ श्रादि में जो बंध संभव है उसे संश्लेषबंध कहते हैं । ३ रस्सी, वरत्रा ( विशिष्ट रस्सी) और लकड़ी आदि के विना जो चिक्कण श्रचिक्कण व चिक्कण द्रव्यों का परस्पर में बंध होता है उसे संश्लेषबंध कहा जाता है ।
संसक्त तपस्वी- ग्राहार- उवहि-पूयासु जस्स भावो उ निच्चसंसत्तो | भावोवहतो कुणइ अ तवोवहाणं तट्ठा II (बृहत्क. भा. १३१७) । जिसका परिणाम श्राहार, उपधि और पूजा में सदा सम्बद्ध रहता है तथा जो रसगौरवादि भाव से अभिभूत होकर उसी के लिए अनशन श्रादि तप को किया करता है उसे संसक्त तपस्वी कहा जाता है । संसक्त श्रमण - १. मंत्र - वैद्यक- ज्योतिष्कोपजीवी राजा दिसेवकः संसक्तः (चा. सा. पू. ६३ ) ।
ल. १४३
[ संसार
२. संसक्तो वैद्य मंत्रावनीश सेवा दिजीवनः । (प्राचा. सा. ६-५१) । ३. संसक्तः संसर्गवशात् स्थापितादिभोजी । ( व्यव. भा मलय. वृ. ३ - १६५ ) ; संसक्त इव संसक्तः, पार्श्वस्थादिकं तपस्विनां चासाद्य सन्नि हितदोषगुवा ( ? ) इत्यर्थ: । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ३-२०८ ) ।
१ जो साधु मंत्र, वैद्यक और ज्योतिष से प्राजीविका करता हुया राजा श्रादि की सेवा किया करता है उसे संसक्त श्रमण कहा जाता है । ३ संसर्ग के वश जो स्थापित श्रादि का भोजन किया करता है उसे संसक्त श्रमण कहते हैं । संसार - १. कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । ( स. सि. ६ - ७) । २. श्रात्मोपचितकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । श्रात्ममनोपचितं कर्माष्टविधं प्रकृति- स्थित्यनुभाग- प्रदेशब
भेदभिन्नम् तद्वशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसार इत्युच्यते । (त. वा. २, १०, १ ) ; द्रव्यादिनिमित्ता श्रात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । (त. वा. ६, ७, ३; त. इलो. ६-७ ) । ३. संसरणं संसार:, तिर्यग्नर-नारकामरभवानुभूतिरूपः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ७८६ व १२५१) । ४. तिर्यग्नर-नारकामरभवसंसरणरूपः संसारः । ( बशवं. नि. हरि. वृ. ५६) । ५. संसरन्ति अनेन घातिकर्मकलापेन चतसृषु गतिष्विति घातिकर्मकलापः संसारः । ( धव. पु. १३, पृ. ४४ ) । ६. ग्रात्मोपचितकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । (त. इलो. २ – १० ) । ७. स्वोपात्तकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसार: । ( भ्रष्टस. ६) ८. द्रव्य क्षेत्र काल-भवभावेषु परिवर्तमानः संसारः । ( भ. प्रा. विजयो. ४४६ ) । ६. संसारश्चतसृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम् । (चा. सा. पृ. ७६ ) । १०. एक्कं चयदि सरीरं प्रण्णं गिण्हेदि णव-णवं जीवो। पुणु पुणु ष्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहुबारं । एवं जं संसरणं णाणादेहेसु हवदि जीवस्स । सो संसारो भण्णदि मिच्छ कसायेहि जुत्तस्स ॥ ( कार्तिके. ३२-३३) । ११. ग्रन्थानुबन्धी संसार: × × ×। (क्षत्रचू. ६ - १७) १२. संसारं गर्भादिसंचरणम् XXX। ( सिद्धिवि. टी. ७-८, पू. ४६२ ) । १३. संसारो नानायोनिषु सचरणम् ।
११३७, जैन-लक्षणावली
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संसारपरीत]
११३८, जैन-लक्षणावली
[संसृष्ट
(योगशा. स्वो. विव. ४-६५) ।
वह स्वयं अपना ही पुत्र हो जाता है, इत्यादि १ कर्म के उदयवश जो अन्य अन्य भव की प्राप्ति प्रकार से संसार के स्वभाव का जो विचार किया होती है, इसे संसार कहा जाता है। ३ तिर्यञ्च, जाता है उसे संसारानप्रेक्षा कहते हैं। मनुष्य, नारक और देव पर्याय का जो अनुभव संसारापरीत-देखो अपरीतसंसार । संसारापरीतः होता है उनमें गमनागमन होता है, इसी का नाम सम्यक्त्वादिना अकृतपरिमितसंसारः । (प्रज्ञाप. संसार है।
मलय. वृ. २४७, पृ. ३६४)। संसारपरीत-देखो परीतसंसार व संसारापरीत। जो सम्यक्त्व प्रादि के आश्रय से संसार को यस्तु सम्यक्त्वादिना कृतपरिमितसंसारः स संसार- मित नहीं कर सका है उसे संसारापरीत कहा परीतः। (प्रज्ञाप, मलय. व. २४७, पृ. ३६४)। जाता है। जिसने सम्यक्त्वादि के प्राश्रय से संसार को परि- संसारी जीव -१. जे संसारी जीवा च उगइपज्जाय मित कर दिया है उसे संसारपरीत कहा जाता है। परिणया णिच्चं । ते परिणामे गिण्हदि सुहासूहे संसारानुप्रेक्षा-- १. तस्मिन्नने कयोनि-कुलकोटि- कम्मसंगहणे ॥ (मावसं. दे. ४)। २. अनादिकर्मबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्म- संतानसंश्लेषात् क्लेशभाजनम् । संसारी स्यात् त्रसयन्त्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्रात। पुत्र: पौत्रश्च भवति, स्थावराद्यै भैदैरनेकधा । (प्राचा. सा. ३-१२) । माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति, ३. कम्मकलंकालीणा अलद्धसहावभावसब्भावा । गुणस्वामी भूत्वा दासो भवति, दासो भूत्वा मग्गण-जीवट्ठियजीवा संसारिणो भणिया ॥ (द्रव्यस्वाम्यपि भवति, नट इव रङ्गे । अथवा किं स्व. प्र. नयच. १०८)। ४. पंचविधेऽत्र संसारे बहुना ? स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवमादिसंसार- जीवः संसरति स्वयम् । तस्माद्भवति संसारी कृतस्वभावचिन्तनं संसारानुप्रेक्षा । (स. सि. ६-७)। कर्मप्रचोदितः ॥ (भावसं. वाम. ३५०) । २. xxx एवमेतस्मिन्ननेकयोनि-कुलकोटिबहु- १ जो चार गतिरूप पर्याय से परिणत होकर सदा शतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् अयं जीवः कर्म-यंत्र- अपने उपाजित कर्म के अनुसार शुभ-अशुभ परिप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति, णामों को ग्रहण किया करते हैं उन्हें संसारी जीव माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति । किं कहते हैं। ३ जो कर्म-कालिमा से व्याप्त होकर बहुना ? स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवमादिसंसार- अपने स्वाभाविक भाव को नहीं प्राप्त कर सके हैं स्वभावचितनं संपारानुप्रेक्षा। (त. वा. ६, ७,३; तथा गुणस्थान एवं मार्गणारूप जीवस्थानों में स्थित चा. सा. पृ. ८२-८३)। ३. वृत्त्या जातिगतिष्व- हैं उन्हें संसारी जीव कहा गया है। वाप्तकरणोऽनन्तांगहारः सदा, प्रोद्भूतिप्रलयो नरा- संसृति-देखो संसार । प्रज्ञानात् कायहेतुः स्यात् मर-मृगाद्याहार्यपर्यायवान् । हित्वा सात्त्विकभाव- कर्मागमनमिहात्मनाम् । प्रतीके स्यात्प्रबन्धोऽयमजातमित रैर्भावः स्वकर्मोद्धवैर्जीवोऽयं नटवभ्रम- नादिः सैव संसृतिः ।। (क्षत्रचू. ७-१७)। त्याभिनवः सर्वत्र लोकत्रये ॥ (पाचा. सा. १०, प्राणियों के अज्ञानता के वश जो कर्म का प्रास्रव ३५) ।
होता है वह शरीर के ग्रहण का कारण है। इस १ अनेक योनियों और लाखों कुलकोटियों से कष्ट- प्रकार अनादि से जो शरीर का ग्रहण, उसके पूर्ण संसार में परिभ्रमण करता हा जीव कर्मरूप सम्बन्ध से कर्म का ग्रहण तथा उससे पुनः शरीर यंत्र से प्रेरित होता हुमा पिता होकर भाई, पुत्र का ग्रहण, इस प्रकार से जो परम्परा चलती है,
और पौत्र भी होता है। इसी प्रकार वह माता इसी का नाम संसृति है। होकर बहिन, पत्नी और पुत्री भी होता है । वह संसृष्ट-१. संसिट्ठ शाक-कुल्माषादिसंसृष्टमेव । स्वामी होकर दास और दास होकर स्वामी भी (भ. प्रा. विजयो. २२०) । २. संसिट्ठ व्यंजनहोता है । इस प्रकार से वह रंगभूमि में अभिनय सम्मिश्रम् । (भ. प्रा. मूला. २२०)। करने वाले नट के समान इस संसार में अनेक रूपों १ शाक व कुल्माष (कुलथी) प्रादि से मिश्रित को धारण करता है। अधिक क्या कहा जाय ? भोजन को संसृष्ट कहते हैं। वृत्तिपरिसंख्यान तप
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संस्कार]
११३६, जन-लक्षणावलो
[संस्थान में इसी प्रकार के भोजन प्रादि की प्रतिज्ञा की टी. ३२६) । जाती है।
१ विद्यमान व प्रविद्यमान गुणों के वचन के द्वारा संस्कार-१. संस्कारः सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष भेदो प्रगट करने को संस्तव कहा जाता है । २ विद्यमान धारणा । (प्र. क. मा. ३-३, पृ. ३३४); संस्का- गुणों का उपधि सहित अथवा विना उपधि के भी रश्च कालान्तराविस्मरणकारणलक्षणधारणारूपः ।। जो कथन किया जाता है उसे संस्तव कहते हैं। (प्र. क. मा ४-६, पृ. ४६०) । २. संस्काराद् संस्तार, संस्तारक -१. संस्तीर्यते य: प्रतिपन्नवासनापरनाम्न: xxx। (सिद्धिवि. टी. १-८, पौषधोपवासेन दर्भ-कुश-कम्बल-वस्त्रादिः स संस्तापृ. ३६); ज्ञानजो ज्ञानहेतुश्च संस्कारः। (सिद्धि- रकः। (श्रा. प्र. टी. ३२३)। २. संस्तारः संस्तीवि. टी. ८-२६, पृ. ५६६ उद्.)। ३. इदमेव हि संस्कारस्य लक्षणं यत्कालान्तरेऽप्यविस्मरणमिति । वस्त्रादिः XXXI (त. भा. सिद्ध. वृ. ७-२६)। (लघीय. अभय. वृ. ५, पृ. १५)।
१ पौषधोपवास को स्वीकार करने वाला गृहस्थ १ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का भेदभूत जो धारणा है जिस डाभ, कुश, कम्बल और वस्त्र प्रादि को उसी का नाम संस्कार है । कालान्तर में विस्मरण बिछाता है उसे संस्तार या संस्तारक कहते हैं। न होने देने का कारण यही संस्कार है । २ संस्कार संस्थान-१. यदुदयादोदारिकादिशरीराकृतिनिर्वऔर वासना ये समानार्थक हैं। यह ज्ञान से उत्पन्न त्तिर्भवति तत्संस्थाननाम । (स. सि. ८-११, त. होता हुमा अन्य ज्ञान का कारण भी है।
वा. ८, ११,८; मला. व. १२-१६३; भ.प्रा. संस्कारवत्त्व-संस्कारवत्त्वं संस्कृतादिलक्षणयुक्त- मूला. ३१२४; गो. क. जी. प्र. ३३) । २. संस्थात्वम् । (समवा. अभय. व. ३५; प्रोपपा. वृ. १०, नमाकारविशेषः । (उत्तरा. चू. पृ. २७२) । पृ. २१; रायप. पृ. २७) ।
३. संतिष्ठते संस्थीयतेऽनेनेति संस्थितिर्वा संस्थानम् । वचन का संस्कृत प्रादि लक्षण से युक्त होना, (त. वा. ५, २४, १); यद्धेतुका शरीराकृतिनिर्वइसका नाम संस्कारवत्त्व है। यह ३५ वचनातिशयों तिस्तत्संस्थाननाम। (त. वा. ८, ११, ८ त. में से प्रथम है।
श्लो. ८-११)। ४. संस्थितिः संस्थानम् प्राकारसंस्कृत (संखय)-१. उत्तरकरणेण कयं जं विशेषलक्षणम् । (प्राव. नि. हरि. वृ. ८२१, पृ. किंची संखयं तु नायव्वं । (उत्तरा. नि. १८२)। ३३७) । ५. संस्थितिः संस्थानमा कारविशेषः, २. यदुत्तरकरणकृतं तदेव संस्कृतं ज्ञातव्यम् । तच्चेह बद्ध-संहतेषु संस्थानविशेषो यस्य (उत्तरा. नि. शा. वृ. १८२)।
याद् भवति तत् संस्थाननाम । (त. भा. हरि. वृ.८, १उत्तर करण के द्वारा जो कुछ किया जाता है १२) । ६. प्राकृतिविशेष: संस्थानम् । (अन. हरि. उसे संस्कृत कहा जाता है। ('उत्तरकरण' का व. पु. ५७) । ७. जेसि कम्मक्खंधाणमुदएण जाइस्वरूप पीछे उसी शब्द में देखिए)
कम्मोदयपरतंतेण सरीरस्स संठाणं कीरदे तं सरीरसंस्कृतभाषा-संस्कृतं स्वर्गिणां भाषा शब्दशास्त्रेषु संठाणं णाम । (धव. पु. ६, पृ. ५३); जस्स कम्मनिश्चिता । (अलंकारचि. २-१२०)।
स्स उदएण समचउरस-सादिय-खुज्ज-वामण-हुंडदेवों की भाषा को, जिसका स्वरूप शब्दशास्त्र णग्गोहपरिमंडलसंठाणं सरीरं होज्ज तं सरीर(व्याकरण) में निश्चित है, संस्कृत कहा जाता हैं। संठाणणाम । (धव. पु. १३, पृ. ३६४) । ८. शरीसंस्तव- १. भूताभूतगुणोद्भाववचनं संस्तवः । रातिनिर्वृत्तिर्यतो भवति देहिनाम् । संस्थाननाम (स.सि. ७-२३; त. वा. ७, २३, १)। २. संस्त- तत् षोढा संस्थानकारणार्थतः ॥ (ह. पु. ५८, वस्तु सोपधं निरुपधं भूतगुणवचन मिति । (त. भा. २५२)। ६. संस्थितिः संस्थानम् प्राकारविशेषः, ७-१८)। ३. संस्तवो नाम माहात्म्यस्याधिक्य- तेष्वेव बध्यमानेषु पुद्गलेषु संस्थानविशेषो यस्य कथनम् । (प्रा. मी. वसु. वृ. १)। ४. विद्यमानानामविद्यमानानां मिथ्यादृष्टिगुणानां वचनेन प्रकटनं सिद्ध.व. -१२)। १०. संस्थानं समचतुरस्रादिसंस्तव उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२३; कानिके. लक्षणं यतो भवति तत्संस्थाननाम । (समवा. प्रभय.
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संस्थान ]
वृ. ४२) । ११. तथा संस्थानम् श्राकारविशेषस्तेष्वेव गृहीत संघातित बद्धेषु श्रदारिकादिषु पुद् गलेषु संस्थानविशेषो यस्य कर्मण उदयाद् भवति तत् संस्थाननाम । (प्रज्ञाप. मलय वृ. २६३, पृ. ४७२ ) । १२. संस्थानमवयवसन्निवेशविशेषः । ( मूला. वृ. १२-३) । १३. यत्प्रत्ययात् शरीराकृतिनिष्पत्तिर्भबति तत्संस्थानं नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) । जिसके उदय से प्रौदारिक प्रादि शरीरों का प्राकार निर्मित होता है उसे संस्थान नामकर्म कहते हैं । २ प्राकारविशेष का नाम संस्थान है । ५ जिस कर्म के उदय से वृद्ध और संघात को प्राप्त पुद्गलों में प्राकारविशेष होता है उसे संस्थान नामकर्म कहा जाता है।
११४०, जैन- लक्षणावली
संस्थान नामकर्म - देखो संस्थान । संस्थानविचय- देखो लोकविचय । १. उड्ढमहतिरियलोए विचिणादि सपज्जए संसंठाणे । एत्थेव
गदा श्रणुपेक्खाओ य विचिणादि ॥ ( मूला. ५- २०५ ) । २. द्रव्य क्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु ।। ( प्रशमर २४६ ) । ३. लोकसंस्थानस्वभावविचयाय स्मृतिसमन्वाहारः संस्थानविचयः । ( स. सि. ८ - ३६ ) । ४. लोकसंस्थानस्वभावावधानं संस्थान विचयः XX X तदवयवानां (लोकावयवानां ) च द्वीपादीनां तत्स्वभावावधानं संस्थान विचयः । (त. वा. ६. ३६, १० ) । ५. तिणां लोगाणं संठाण- पमाणाउयादिचितणं संठाणविचयं णाम चउत्थं धम्मज्झाणं (घव. पु. १३, पृ. ७२ ) । ६. संस्थान बिचयं प्राहुर्लोकाकारानुचिन्तनम् । तदन्तर्भूतजीवादितत्त्वान्वीक्षणलक्षणम् ॥ ( म. पु. २१ - १४८ ) । ७. सुप्रतिष्ठितमाकाशमाकाशे वलयत्रयम् । संस्थानध्यानमित्यादि संस्थानविचयं स्थितम् ॥ ( ह. पु. ५६ - ४८ ) । ८. लोकसंस्थानस्वभावावघानं संस्थानविचयः । (त. इलो. ६-३६) । ६. वेत्रासन-झल्लरी- मृदंगसंस्थानो लोक इति लोकत्रयसंस्थाने विचयोऽस्मिन्निति संस्थानविचयता । ( भ. प्रा. १७०८ ) । १०. लोकसंस्थानपर्यायस्वभावस्य विचारणम् । लोकानुयोगमार्गेण सं स्थानविचयो भवेत् ।। (त. सा. ७ - ४३ ) । ११. ग्रहउड्ढ - तिरियलोए चितेइ सपज्जयं ससंठाणं । विचयं संठाणस्स य भणियं झाणं समासेण । ( भावसं. दे. ३७० ) । १२. संस्थानानि लोक द्वीप समुद्राद्या
[ संहनन कृतयः, (तेषां विचयो निर्णयो यत्र तत् संस्थानविचयम्) । ( श्रोपपा. श्रभय. वृ. २०, पृ. ४४) । १३. अनाद्यन्तस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मनः । आकृति चिन्तयेद्यत्र संस्थानविचयः स तु ॥ ( त्रि. श. पु. च. २, ३, ४७७ ) । १४. त्रिलोकसंस्थानस्वभावविचारणप्रणिधानं संस्थानवित्रयः । (भ. श्री. मूला. १७०८ ) । १५. विचित्रं लोकसंस्थानं पदाथैनिचितं महत् । चिन्त्यते यत्र तद् ध्यानं संस्थानविचयं स्मृतम् ॥ ( भावसं वाम ६४२ ) । १६. त्रिचत्वारिंशद्भिस्त्रिशतमधिकं यस्य घनतः प्रमाणं रज्जूनां त्रिपवनपुर्यो वलयितः । कटीहस्तोर्ध्वस्थप्रसृतपदपुंसाकृतिरसौ, स्थिरश्चिन्त्यो लोकः सततमिति संस्थानविचयः ।। ( श्रात्मप्र. ६३ ) । १७. त्रिभुवन संस्थानस्वरूपविचयाय स्मृतिसमन्वाहारो संस्थानविचयः । (त. वृत्ति श्रुत - ३६) ।
१ जिस धर्मध्यान में भेद व श्राकृति से सहित अधोलोक, ऊर्ध्वलोक व तिर्यग्लोक का विचार किया जाता है उसे संस्थानविचय धर्मध्यान कहते हैं । इस ध्यान में लोक की विविध अवस्थाश्रीं व श्राकृतियों के साथ अनुप्रेक्षात्रों का भी चितन किया जाता है । २ द्रव्य, क्षेत्र और आकार के चिन्तन को संस्थानविचय कहा जाता है । संहनन- १ यदुदयादस्थिबन्धनविशेषो भवति तत्संहनननाम । ( स. सि. ८-११; त. इलो. ८, ११; गो. क. जी. प्र. ३३) । २. यदुदयादस्थिबन्धन विशेषस्तत् संहननम् । यस्योदयादस्थिबन्धनविशेषो भवति तत् संहननम् । (त. वा. ८, ११, ९ ) । ३. प्रस्थिसंचयोपमितः शक्तिविशेषः संहननम् । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ८२१) । ४. प्रस्थां बन्ध विशेषः संहननम् । ( त. भा. हरि. वृ. ८.१२ ) । ५. जस्स कम्मस्स उदएण सरीरे हड्डसंधीणं णिव्फती होज्ज तस्स कम्मस्स संघडणमिदि सण्णा । ( घव. पु. ६, पृ. ५४ ) ; जस्स कम्मस्स उदएण सरीरे हडप्पत्ती होदितं सरीरसंघडणं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३६४ । ६. यतो भवति सुश्लिष्टम स्थिसंधानबन्धनम् । तत्संहनननामापि नाम्ना षोढा विभज्यते ॥ (ह. पु. ५८ - २५४) । ७. यस्योदयादस्थिसन्धिबंधविशेषो भवति ततत्संहननं नाम । (मूला. वृ. १२ - १६४) ८. प्रस्थनां यतस्तथाविधशक्तिनिमित्तभूतो रचनाविशेषो भवति तत्
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संहनन]
संहनननाम । ( समवा. अभय वू. ४२ ) । ६. संहननम् प्रस्थिरचनाविशेषः । श्राह च मूलटीकाकार:संहननमस्थिरचनाविशेष इति । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २ε३, पृ. ४७० ) । १०. यदुदयादस्थिबन्धनाबन्धन विशेषस्तत् संहनननाम । (भ. श्री. मूला. २१२४ ) । १९. यदुदयादस्थूनां बन्धनविशेषो भवति तत्संहननं नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११ ) ।
१ जिसके उदय से हड्डियों का बन्धनविशेष होता है उसे संहनन नामकर्म कहते हैं । ३ हड्डियों के संचय से उपमित शक्तिविशेष को संहनन कहा जाता है । ५ जिसके उदय से शरीर में हड्डियों को सन्धियों अथवा हड्डियों की निष्पत्ति होती है वह संहनन नामकर्म कहलाता है । ८ जिसके श्राश्रय से हड्डियों की विशिष्ट रचना उस प्रकार की शक्ति की निमित्तभूत होती है उसका नाम संहनन है । संहार्यमति--संहार्या क्षेप्या परकीयागमप्रक्रियाभिरसमञ्जसाभिर्बुद्धिर्यस्यासौ संहार्यमतिः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७ - १८ ) ।
जिसकी बुद्धि दूसरों-कपिल, कणाद व सुगत प्रादिकों की प्रसमीचीन श्रागमप्रक्रिया से विचलित हो सकती है उसे संहार्यमति कहा जाता है । संहिता - अस्खलितपदोच्चारणं संहिता, अथवा परः सन्निकर्षः संहिता ( श्राव. सू. मलय. वू. पृ. ५६६ ) ; तत्रास्खलित पदोच्चारणं संहिता ( श्राव. सू. मलय. वृ. पृ. ५ε१) ।
स्खलन के विना जो पदों का उच्चारण किया जाता है, इसे संहिता कहते हैं। सूत्र की व्याख्या संहिता, पद, पदार्थ, पदविग्रह, चालना और प्रत्यवस्थान के भेद से छह प्रकार की है। इनमें प्रथम उक्त संहिता ही है ।
साकल्य - १. साकल्यम् अनन्तधर्मात्मकता । ( लघीय. स्व. वि. ६२, पृ. ६८६ ) । २. साकल्यं हि नाम कारकाणां धर्मः । ( न्यायकु. ३, पृ. ३४ ) ; सकलस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो भावः साकल्यमनन्तधर्मात्मकता । ( न्यायकु. ६३, पृ. ६९० ) । १ वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता का नाम साकल्य है । २ कारकों के धर्म का नाम साकल्य है । इसे भट्टजयन्त प्रमाण मानता है । साकल्यव्याप्ति - १. साध्यधर्मिणि प्रत्र (अन्यत्र ) साध्येन साधनस्य व्याप्तिः साकल्येन व्याप्तिः X
११४१, जैन-लक्षणावली
[साकारत्व
XX। (सिद्धिवि. टी. ५, १५, पृ. ३४७ ) । २. साकल्येन -- सकलनां देश कालान्तरितसाध्यसाधनव्यक्तीनां भावः साकल्यं तेन । ( लघीय. प्रभय. वृ. ४६, पृ. ७०-७१) ।
२ देश और काल से व्यवहित समस्त साध्य-साधन व्यक्तियों के स्वरूप से जिस व्याप्ति को ग्रहण किया जाता है उसे साकल्यव्याप्ति कहते हैं। साकारउपयोग-- १. यो विशेषग्राहकः स साकारः, स च ज्ञानमुच्यते । (श्राव. नि. हरि. वृ. ६५) । २. कम्म कत्तारभावो आगारो, तेण श्रागारेण सह वट्टमाणो उवजोगो सागरो त्ति । ( धव. पु. १३, पृ. २०७ ) । ३. श्रायारो कम्म कारयं सयलत्थसत्यादो पुघ काऊण बुद्धिगोयर मुवणीयं, तेण आयारेण सह वट्टमाणं सायारं । ( जयध. १, पृ. ३३८ ) । ४. श्राकारो विकल्पः, सह प्राकारेण साकारः । XX X ( मतान्तरम् ) तस्मादाकारो लिङ्गम्, स्निग्धमधुरादि शङ्खशब्दादिषु यत्र लिङ्गेन ग्राह्यार्थान्तरभूतेन ग्राह्येकदेशेन वा साधकेनोपयोगः स साकारः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २- ९ ) । ५. विशेषार्थ प्रकाशो यो मनोऽवधि-मति श्रुतैः । उपयोग: स साकारो जायते ऽन्तर्मुहूर्तः ॥ ( पंचसं श्रमित. ३३३, पृ. ४६ ) । ६. मदि सुद-हि-मणेहि य सग-सगविसये विसेस - विष्णाणं । तोमुहुत्तकालो उवजोगो सो दु सायारो || (गो. जी. ६७४) । ७. आकारं प्रतिनियतोऽर्थ ग्रहणपरिणामः 'आगाशे श्रविसेसो' इति वचनात् । सह श्राकारेण वर्तत इति साकार:, स चासावुपयोगश्च साकारोपयोगः । किमुक्तं भवति ? सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुंजान आत्मा यदा सपर्यायमेव वस्तु परिच्छिनत्ति तदा स उपयोगः साकार उच्यते इति । (प्रज्ञाप. मलय वू. ३१२, पृ. ५२६) ।
१ जो उपयोग विशेष को ग्रहण किया करता है उसे साकार कहते हैं । इस साकार उपयोग को ज्ञान कहा जाता है । ३ कर्म-कर्तृत्व का नाम श्राकार है, उस श्राकार के साथ जो उपयोग रहता है उसे साकार उपयोग कहते हैं । ४ श्राकार का अर्थ विकल्प है, उस विकल्प के साथ जो उपयोग होता है उसे साकार उपयोग समझना चाहिए । साकारत्व - १. साकारत्वं विच्छिन्नवर्ण-पदवाक्यत्वेनाकारप्राप्तत्वम् । ( स्थानां. अभय व्.
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साकारमन्त्रभेद] ११४२, जैन-लक्षणावली
[सागर ३५; प्रौपपा. अभय. वृ. १०, पृ. २२)। २. सा- साकांक्षानशन-१. छटट्ठम-दसम-दुवादसेहिं मा. कारत्वं विच्छिन्नपद-वाक्यता । (रायप. मलय. वृ. सद्ध-मासखमणाणि । कणगेगावलियादी तवोविहा. पृ. २८)।
णाणि णाहारे ॥ (मला. ५-१५१)। २. अशन१ विच्छिन्न वर्ण, पद और वाक्य स्वरूप से प्राकार त्यागोऽनशनं साकांक्षाकांक्षभेदगम् । तदाद्यमेकको प्राप्त होना; इसका नाम साकारत्व है। यह द्विश्यादिषण्मासानशनान्तगम् ॥ (प्राचा. सा. ३५ सत्यवचनातिशयों में ३२वां है।
६-५)। साकारमन्त्रभेद-१. अर्थ-प्रकरणाङ्गविकार-भ्रू- १ कनकावली और एकावली प्रादि तपों के विधान निक्षेपादिभिः पराकूतमुपलभ्य तदाविष्करणमसू- स्वरूप जो षष्ठ, अष्टम, दसम और बारहवीं भोजनयादिनिमित्तं यत्तत्साकारमन्त्रभेद इति कथ्यते । वेलामों अर्थात् दो, तीन, चार और पांच उपवासों (स. सि. ७-२६) । २. साकारमन्त्रभेदः पैशून्यं के साथ अर्ध मास और मास पर्यन्त जो भोजन का गुह्यमन्त्रभेदश्च । (त. भा. ७-२१) । ३. अर्थादि- परित्याग किया जाता है वह साकांक्ष अनशन के भिः परगुह्यप्रकाशनं साकारमन्त्रभेदः। अर्थ-प्रकर- अन्तर्गत है। इस अनशन का उत्कृष्ट काल छह णाङ्गविकार-भ्रूक्षेपादिभिः पराकूतमुपलभ्य तदा- मास है। विष्करणमसूयादिनिमित्तं यत्तत्साकारमन्त्रभेदः । सागर-१. दस कोडाकोडीग्रो पल्लाणं सागरं (त. वा. ७, २६, ४)। ४. साकारमन्त्रभेदोऽसौ हवइ एक्कं । (पउमच. २०-६७)। २. तद् भ्रूविक्षेपादिकेङ्गितः। पराकूतस्य बुद्धवाविर्भावनं (पल्लोपमम्) दशभि: कोटाकोटिभिर्गुणितं सागरोयदसूयया ।। (ह. पु. ५८-१६६) । ५. अर्थादिभिः पमम् । (त. भा. ४-१५)। ३. एएसिं पल्लाणं परगुह्य प्रकाशनं साकारमन्त्र भेदः । अर्थ-प्रकरणादि- कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिमा। तं सागरोवमस्स भिरन्याकूतमुपलभ्यासूयादिना तत्प्रकाशनवत् ।। (त. उ एगस्स भवे परोमाणं ।। (जम्बूद्वी. १६, पृ. ६२; इलो. ७-२६)। ६. प्राकारः शरीरावयवसमवायिनी ज्योतिष्क. ८२; जीवस. १२३)। ४. एदाणं पल्लाक्रियाऽन्तर्गताकूतसूचिका, तेन विशिष्टेनाकारेण णं दहप्पमाणाउ कोडिकोडीनो। सागरउवमस्स सहाविनाभूतोऽभिप्रायः स साकारमन्त्रस्तस्य भेद: पुढं एक्कस्स हवेज्ज परिमाणं ॥ (ति, प. १-१३०)। प्रकाशनम् । (त. भा. सिद्ध. ब. ७-२१)। ७. अर्थ- ५. दस-पल्लककोडाकोडीतो एगं सागरोपमं । प्रकरणांगविकार-भ्रूक्षेपादिभिः पराकूतमुपलभ्य यदा- (अनुयो. चू. पृ. ५७)। ६. पल्योपमानां खलु विष्करणमसूयादिनिमित्तं तत्साकारमंत्रभेदः । (चा. कोटिकोटी दशाहता सागरमेकमाहुः। (वरांगच. सा. पृ. ५)। ८. कार्यकरणमंगविकारं-भ्रुक्षे- २७-२२) । ७. पल्योपमदशकोटीकोट्यात्मकं पादिकं परेषां दृष्ट्वा पराकूतं पराभिप्रायमुपलभ्य सागरम् । (प्राव. नि. हरि. वृ. ६६३, पृ. २५७) । ज्ञात्वा असूयादिकारणेन तस्य पराकूतस्य पराभि- ८. दसकोडाकोडिपलिदोवमेहि एगं सागरोवमं प्रायस्य अन्येषामने आविष्करणं प्रकटनं यत् क्रियते होदि । वुत्तं च-कोटिकोट्यो दशैतेषां पल्यानां स साकारमन्त्रभेद इत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७, सागरोपमम् । (धव. पु. १३, पृ. ३०१ उद्.)। २६; कातिके. टी. ३३३-३४)। ६. दुर्लक्ष्यमर्थं ६. एदेसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिदा। गुह्यं यत्परेषां मनसि स्थितम् । कथंचिदिङ्गितर्ज्ञात्वा तं सागरोवमस्स दु हवेज्ज एक्कस्स परिमाणं । न प्रकाश्य व्रताथिभिः ॥ (लाटीसं. ६-२७)। (त्रि. सा. १०२)। १०. एदेसिं पल्लाणं कोडा१ प्रयोजन, प्रकरण, शरीर के विकार और भृकु- कोडी हवेज्ज दस गुणिदं । तं सागरोवमस्स दु टियों के विक्षेप आदि से दूसरे के अभिप्राय को उवमा एक्कस्स परिमाणं । (जं. दो. प. १३-४१)। जानकर मत्सरता प्रादि के कारण उसे प्रगट कर ११. पल्योपमदशकोटीकोटयात्मकं सागरोपमम् । देना; इसे साकारमंत्रभेद कहते हैं। २ पिशनता (प्राव. नि. मलय.व. ६६६); पल्योपमानां दशको और गोपनीय अभिप्राय के प्रगट करने को कोटीकोट्यः सागरोपमम् । (प्राव. नि. भा. मलय. साकारमंत्रभेद कहा जाता है। यह सत्याणुव्रत का वृ. २००, पृ. ५९३)। एक अतिचार है।
१दस कोडाकोडी पल्यों का एक सागर होता है।
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सागरोपम]
११४३, जैन-लक्षणावली
[सातिचारछेदोपस्थान
२ दस कोडाकोडी पल्योपमों का एक सागरोपम सातवेदनीय-देखो सद्वेद्य व सातावेदनीय । होता है। ३, ४,८ दस कोडाकोडी पल्यों का एक साताद्धा----सादबंधणपायोग्गकालो सादद्धा णाम । सागरोपम होता है।
(घव. पु. १०, पृ. २४३) । सागरोपम-देखो सागर ।
सातावेदनीय के बांधने योग्य काल का नाम सागार-१. सागारोऽणुव्रतोऽत्र स्यादनगारो महा- साताद्धा है। व्रतः ॥ सागारो रागभावस्थो वनस्थोऽपि कथंचन। सातावेदनीय-१. सादं सुहं, तं वेदावेदि भुंजा(ह. पु. ५८, १३६-३७)। २. अनाद्यविद्यादोषो- वेदि त्ति सादावेदणीयं । (धव. पु. ६, पृ. ३५); स्थचतुःसंज्ञा-ज्वरातुराः । शश्वत्स्वज्ञानविमुखाः सत् सुखम्, सदेव सातम्, xxx सातं वेदयतीति सागारा विषयोन्मुखा: ॥ अनाद्यविद्यानुस्यूतग्रन्थ- सातवेदणीयं, दुक्खपडिकारहेदुदव्वसंपादयं दुक्खुप्पासंज्ञामपासितुम् । अपारयन्तः सागाराः प्रायो विषय- यणकम्मदव्वसत्तिविणासयं च कम्मं सादावेदणीयं मुच्छिता: ।। (सा.ध.२,२-३)।
णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३५७) । २. सुहसरूवयं १ जो अणुव्रतों का परिपालन करता है उसे सागार सादं । (गो. क. १४) । ३. सातं सुखं सांसारिकम्, कहा जाता है। २ जो अनादिकालीन अज्ञानता के तद्भोजयति वेदयति जीवं सातवेदनीयम् । (मला. कारण अाहारादि चार संज्ञानों रूप ज्वर से व्या- वृ. १२-१८६) । ४. सातरूपेण यद् वेद्यते तत्सातकुल रहते हैं तथा प्रात्मज्ञान से विमुख होते हुए वेदनीयम् । यस्योदयात् शारीरं मानसं च सुखं वेदजो निरन्तर विषयों में श्रासक्त रहते हैं व परिग्रह यते तत्सातवेदनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. को नहीं छोड़ सकते हैं वे सागार कहलाते हैं। ४६७)। ५. रतिमोहनीयोदयबलेन जीवस्य सुखकासागारिक-- अगमकरणादगारं तस्सहजोगेण होइ रणेन्द्रियविषयानुभवनं कारयति तत्सातवेदनीयम् । सागारी। (बृहत्क. ३५२२)।
(गो. क. जी. प्र. २५)। प्रगमों-गमनागमन न कर सकने वाले वक्षों-से १सात नाम सुख का है, जो कर्म उसका वेदन जो किया जाता है उसका नाम अगार है, इस कराता है उसे सातावेदनीय या सातवेदनीय कहते अगार (गृह) से जिसका सम्बन्ध रहता है उसे हैं। ४ जिसका अनुभवन सातस्वरूप से किया जाता सागारिक-- वसति का स्वामी-कहा जाता है। है, अर्थात जिसके उदय से शारीरिक और मानसाङ्गार भोजन-तं होइ सइंगालं जं पाहारेइ सिक सुख का वेदन होता है उसे सातवेदनीय कहा मुच्छियो संतो। (पिण्डनि. ६५५) ।
जाता है। स्वाद में प्रासक्त होकर जिस भोजन की प्रशंसा सातिचार छेदोपस्थान-देखो छेदोपस्थापन । १. करता हया उसका उपभोग करता है वह साकार, छेदोपस्थानमेव छेदोपस्थाप्यम, पूर्वपर्यायच्छेदे सति नामक ग्रासैषणा दोष से दूषित होता है।
उत्तरपर्याये उपस्थापनं भावे यतो विधानात् । साचीसंस्थान-देखो सादिसंस्थान ।
तदपि द्विघा सातिचार-निरतिचारभेदेन xxx सात गौरव...१. निकामभोजने निकामशयनादौ सातिचारं तु भग्नमूलगुणस्य पुनर्वतारोपणात् छेदोपवा आसक्तिः सातगौरवम् । (भ. प्रा. विजयो. स्थाप्यम् । (त. भा. सिद्ध. व. ६-१८)। २. साति६१३) । २. सातगारवं भोजन-पानादिसमुत्पन्न- चारं (छेदोपस्थापनं) यन्मूल गुणघातिनः पुनर्वतोसौख्यलीलामदः । (भावप्रा. टी. १५७) ।
च्चारणम् । उक्तं च-XXX मूलगुणघाइणो १ भोजन अथवा शयन प्रादि में अतिशय प्रासक्ति साइयारमुभयं xxx ॥ (प्राव. नि. मलय. व. का नाम सातगौरव है।
११४)। सातवशार्तमरण--शारीरे मानसे वा सुखे उप- १ जिस चारित्र में पूर्व पर्याय को छेदकर महाव्रतों युक्तस्य मरणं सातवशार्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. में स्थापना की जाती है उसे छेदोपस्थान या २५)।
छेदोपस्थाप्य चारित्र कहते हैं । वह सातिचार और शारीरिक अथवा मानसिक सुख में उपयोग लगाने निरतिचार के भेद से दो प्रकार का है। जिसका वाले के मरण को सातवशार्तमरण कहते हैं। मूलगुण भंग हुमा है उसके व्रत का जो पुनः प्रारो
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सातिप्रयोग (मायाभेद ) ]
पण किया जाता है उसे सातिचार छेदोपस्थान या छेदोपस्थाप्य कहा जाता है ।
सातिप्रयोग ( मायाभेद ) - प्रर्थेषु विसंवादः स्वहस्तनिक्षिप्तद्रव्यापहरणं दूषणं प्रशंसा वा सातिप्रयोगः । (भ. प्रा. विजयो. २५, पू. ६० ) । प्रथों के विषय में विसंवाद करना, अपने हाथों में रखे गए द्रव्य का अपहरण करना, दोषारोपण करना अथवा प्रशंसा करना; इसे सातिप्रयोग कहा जाता है । यह माया के पांच भेदों में तीसरा है । सातिशय मिथ्यादृष्टि - सम्यक्त्वोत्पत्ती अनादिमिथ्यादृष्टिः सादिमिथ्यादृष्टिर्वा जीवः कश्चित् क्षयोपशम- विशुद्धि - देशना प्रायोग्यलब्धीः प्राप्य प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या वर्षमानविशुद्धिपरिणामः सन् यदा प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखः करणलब्धि प्राप्तः तदा स सातिशयमिथ्यादृष्टि: XX X 1 (गो. जी. म.प्र. ६६ ) । सम्यक्त्व को उत्पन्न करते समय चाहे प्रनादि मिथ्यादृष्टि हो और चाहे सादिमिथ्यादृष्टि हो कोई जीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियों को प्राप्त करके प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ते हुए परिणामों से युक्त होता हुप्रा जब प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख होकर करणलब्धि को प्राप्त होता है तब वह सातिशय मिथ्यादृष्टि कहलाता है । सात्त्विकदाता १ स्वल्पवित्तोऽपि यो दत्ते भक्तिभारवशीकृतः । स्वाड्याश्चर्यकरं दानं सात्त्विकं तं प्रचक्षते ॥ ( श्रमित. श्रा ६-६ ) । २. श्रातिथेयं हितं यत्र यत्र पात्रपरीक्षणम् । गुणाः श्रद्धादयो यत्र तद्दानं सात्त्विकं विदुः ॥ (सा. घ. स्वो टी. ५, ४७ उद्) ।
१ धन के अल्प होने पर भी जो दाता श्रतिशय भक्ति के वश होकर स्वादिष्ट व श्राश्चर्यजनक दान को देता है उसे सात्त्विकदाता कहा जाता है । सादिनित्यपर्यायार्थिकनय कम्मखादुपत्तो ( द्र. स्व. दुप्पणी ' ) श्रविणासी जो हु कारणाभावे । इदमेवमुच्चरंतो भण्णइ सो साइणिच्चणो || ( ल. नयच. २८; द्रव्यस्व. प्र. नयच. २०० ) । जो सिद्ध पर्याय कर्मक्षय से उत्पन्न होने के कारण सादि होकर भी विनाश के कारणों के अभाव में श्रविनाशी है - शाश्वतिक है- उसे विषय करने
[सादिसंस्थान
वाले नय को सादि-नित्यपर्यायार्थिक नय कहते हैं । सादि वित्रसाबन्ध से तं बंधणपरिणामं पप्प से
भाणं वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जूणं वा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहाणं वा घूमकेदूणं वा इंदाउहाणं वा से खेत्तं पप्प कालं पप्प उडुं पप्प श्रयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एवमादिया अंगमलप्पहुडीणि बंधणपरिणामेण परिणमंति सो सव्व सादिय विस्सा बंधो णाम । ( षट्खं. ५, ६, ३७ - धव. पु. १४, पृ. ३४ ) । बन्धन परिणाम को प्राप्त होकर जो प्रश्नों, मेघों, सन्ध्याओं, बिजलियों, उल्कानों, ज्योतिपिण्डों, दिशादाहों, धूमकेतुनों प्रथवा इन्द्रायुधों का देश, काल, ऋतु, श्रयन और पुद्गल को प्राप्त होकर बन्ध होता है तथा और भी जो अंगमल प्रादि बन्धन परिणाम से परिणत होते हैं; यह सब सादिविसाबन्ध का लक्षण है । सादिशरीरबन्ध - सरीरी णाम जीवो, तस्स जो बंघो ओरालियादिसरीरेहि सो सरीरिबंधो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ४५ ) । शरीरधारी (जीव ) का जो श्रदारिक श्रादि शरीरों के साथ बन्ध होता है उसे सादिशरीरिबन्ध कहा जाता है
सादि सपर्यवसित श्रुतज्ञान - XXX इच्चेयं दुवाल संगं गणिपिडगं बुच्छित्तिनयट्ठाए साइअं सपज्जवसि । ( नन्दी. सू. ४२, पृ. १६५ ) । व्युच्छित्ति नय - पर्यायार्थिक नय- को अपेक्षा द्वादशांगस्वरूप गणिपिटक सादि सपर्यवसित (सादिसान्त) है ।
सादिसंस्थान -- देखो स्वातिसंस्थान । १. सादिनामस्वरूपं तु नाभेरधः सर्वावयवाः समचतुरस्रलक्ष
११४४, जैन- लक्षणावली
विसंवादिनः उपरितनभागाः पुनर्नाघोऽनुरूपा इति (सिद्ध. वृ. 'उपरि तु तदनुरूपा:') । सादीति शाल्मलीतरुमाचक्षते प्रवचनवेदिनः, तस्य हि स्कन्धो द्राधीयानुपरि तु न (सिद्ध. वृ. 'परितना न' ) तदनुरूपा विशालतेति । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ८ - १२ ) । २. प्रादिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, ततः सह श्रादिना नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्तते इति सादि, यद्यपि सर्व शरीरमादिना सह वर्तते तथापि सादित्वविशेषणान्यथानुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपन्न
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साधक]
११४५, जैन-लक्षणावली
[साधन
ग्रादिरिह लभ्यते, तत उक्तं यथोक्तप्रमाण लक्षणे- शोधनम् । यो जीवितान्ते सोत्साहः साधयत्येष नेति । इदमुक्तं भवति ---यत्संस्थानं नाभेरधः प्रमा- साधक: ।। (धर्मसं. श्रा. १०-१) । णोपपन्नमपरिच हीनं तत्सादीति। अपरेतू साचीति १जो देशसंयमी श्रावक प्रात्मध्यान में तत्पर पठन्ति, तत्र साची प्रवचनवेदिन: शाल्मलीतरुमा- रहता हुआ समाधिमरण को सिद्ध करता है उसे चक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानं तत्साचिसंस्थानम्, साधक कहा जाता है। ज्योतिष व मन्त्रादि रूप यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धः काण्डमतिपूष्ठमपरितना लोकोपकारक शास्त्रों के ज्ञाता को भी साधक कहा तदनुरूपा न महाविशालता, तद्वदस्यापि संस्थान- जाता है । स्याधोभागः परिपूर्णो भवत्यूपरितनभागस्तु नेति ।। साधकतम-यभावे हि प्रमितेर्भाववत्ता यदभावे (प्रज्ञाप. मलय. व. २६८, पृ. ४१२)।
चाऽभाववत्ता तत्तत्र साधकतमम् । भावाभावयो१ नाभि के नीचे के सब अवयव, समचतुरस्त्र- स्तद्वत्ता साधकतमत्वम् इत्यभिधानात् । (न्यायकु. संस्थान के समान विसंवाद से रहित होते हैं, परन्तु ३, पृ, २६); यद् यत्रोत्पन्नमव्यवधानेन फलमुत्पाद
ग जो अधस्तन भागों के अनरूप नहीं यति तदेव तत्र साधकतमम्, यथा अपवरकान्तर्वतिहोते हैं, यह सादिसंस्थान का स्वरूप है । प्रवचन के पदार्थप्रकाशे प्रदीपः । (न्यायकु. ३, पृ. ३०)। ज्ञाता विद्वान् ‘सादि' का अर्थ शाल्मलिवृक्ष बतलाते जिसके सद्भाव में प्रमिति (प्रादि) का सद्भाव हैं । उसका स्कन्ध अतिशय दीर्घ होता है, परन्तु और जिसके प्रभाव में उसका प्रभाव पाया जाता ऊपर की विशालता उसकी तदनुरूप नहीं होती है। है वह उसके प्रति साधकतम होता है। जो वहां २ 'पादि' से यहां शरीर का उत्सेध नामक प्रध- उत्पन्न होकर व्यवधान के विना फल को उत्पन्न स्तनभाग ग्रहण किया जाता है, प्रादि के साथ-- करता है उसे वहाँ साधकतम माना जाता है। जैसे नाभि का अधस्तन भाग यथोक्त प्रमाण में रहता ग्रह के भीतर स्थित पदार्थों के प्रकाशित करने में है, इससे वह सादि है। अभिप्राय यह है कि जिस दीपक साधकतम है। साधकतम यह करण का संस्थान में नाभि के नीचे का भाग योग्य प्रमाण मे लक्षण है। रहता है, और ऊपर का भाग हीन रहता है उसे साधन- १. साधनमुत्पत्तिनिमित्तम् । (स. सि. सादिसंस्थान कहा जाता है। दूसरे कितने ही १-७) । २. साधनं कारणम् । (त. वा. १-७)। प्राचार्य 'सादि' के स्थान में 'साचि' पढ़ते हैं व ३. साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नम् xxx । उसका अर्थ शाल्मली वृक्ष करते हैं .
(न्यायवि. २-६६; प्रमाणसं. २१)। ४. साधनं साधक-१. साधकः स्वयुक् xxx (सा. घ. साध्याविनाभाविनियमनिश्चयकलक्षणम् । (प्रमाण१-२०); समाधिमरणं साघयतीति साधकः। किं- प. प. ७०)। ५. उपयोगान्तरेणान्तहितानां दर्शविशिष्ट: ? 'स्वयुक' स्वस्मिन्नात्मनि युक समाधिर्य- नादिपरिणामानां निष्पादनं साधनम् ॥ (भ. मा. स्यासौ निष्पन्नदेशसंयम प्रात्मध्यानतत्परः। (सा. विजयो. २)। ६. केन इति कारणप्रकाशनं साधघ. स्वो. टी. १-२०); साघको ज्योतिष-मन्त्रवा- नम्। (न्यायकु. ७६, पृ. ८०२)। ७. साधनं दादिलोकोपकारकशास्त्रज्ञः । (सा. घ. स्वो. टी. साध्याविनाभावनियमलक्षणम् । (प्रमाणनि. पृ. २-५१); देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुद्धयात्म- ३६) । ८. Xxx भवेत् साधनम्, त्वन्तेऽन्नेहशोधनम् । यो जीवितान्ते सम्प्रीतः साधयत्येष साघ- तनुज्झनाद्विशदया ध्यात्यात्मनः शोधनम् ।। (सा. घ. कः ।। (सा. घ. ८-१)। २. ज्ञानानन्दमयात्मानं १-१६)। ६. साधनं उपयोगान्तरेणान्तहितानां साघयत्येष साधकः । श्रितापवादलिङ्गेन रागादि- निष्पादनम् । (भ. प्रा. मूला. २) । १०. निश्चितक्षयतः स्वयुक् ।। (धर्मसं. श्रा. ५-८); सोऽन्ते साध्यान्यथानुपपत्तिकं साधनम् । यस्य साध्याभावासंन्यासमादाय स्वात्मानं शोधयेद्यदि । तदा साधन- सम्भवनियमरूपा व्याप्त्यविनाभावाद्यपरपर्याया सामापन्नः साधकः श्रावको भवेत ॥ (धर्मसं. श्रा. ध्यान्यथानपपत्तिस्तख्येिन प्रमाणेन निर्णीता तत ८-८१); भुक्त्यङ्गहापरित्यागाद् ध्यानशक्त्यात्म साधनमित्यर्थः । (न्यायदी. पृ. ६६) । ११. साधनं
ल. १४४
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साधन] ११४६, जैन-लक्षणावली
[साधारण जीव चोत्पत्तिकारणम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-७)। लेकर स्थित होना, यह साधारण कायक्लेश कह१ विवक्षित पदार्थ की उत्पत्ति का जो निमित्त है लाता है। उसे साधन कहते हैं (यह जीवादि तत्त्वों के जानने साधारण (भोजन व वसतिदोष)-१. काष्ठ. के उपायभूत निर्देशादि में से एक है।) ३ जो चेल-कण्टक-प्रावरणाद्याकर्षणं कुर्वता पुरोयायिनोपप्रकृत (साध्य) के अभाव में अनुपपन्न है-सम्भव दर्शिता वसतिः साधारणशब्देनोच्यते। (भ. प्रा. नहीं है..-उसे साधन कहा जाता है। यह हेतु या विजयो. व मला. २३०) । २. यद्दतिं संभ्रमाद्वस्त्रालिग का नामान्तर है। ४ जिसका नियम से साध्य द्याकृष्यान्नादि दीयते । असमीक्ष्य तदादानं दोषः के साथ अविनाभाव रहता है उसका नाम साधन साधारणोऽशने ॥ (अन. ध.५-३३); संभ्रमाहरणं है । ५ उपयोगान्तर से व्यवहित दर्शनादि परिणामों कृत्वाऽऽदातुं पात्रादिवस्तुनः । असमोक्ष्येव यद् देयं दोष के-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के---निष्पादन साधारणः स तु ।।(अन.ध. स्वो. टी. ५, ३३ उद.)। को साधन कहा जाता है। यह प्राराधना के लक्षण १ लकड़ी, वस्त्र, कांटे और प्राच्छादक उपकरण का एक अंश है। ८ अन्त में-मरण के समय- इत्यादि के खींचने वाले पुरोगामी पुरुष के द्वारा पाहार, शरीर की चेष्टा और शरीर के त्यागपूर्वक उपशित वसति साधारणदोष से दूषित होती है। ध्यान से प्रात्मा को शुद्ध करना, इसे साधन कहते २ शीघ्रतावश वस्त्र प्रादि को खींचते हुए जो हैं। यह तीन प्रकार के श्रावकों में अन्तिम साधक आहार दिया जाता है उसके रण करने पर माध श्रावक के अनुष्ठान के अन्तर्गत है।
भोजनविषयक साधारण दोष का भागी होता है। सार्धामक-देखो सम्भोग। सामिका: समान- साधारण जीव-१. साहारणमाहारो साहारण- . धर्मिणो द्वादशविधसम्भोगवन्तश्च । (योगशा. स्वो. माण-पाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणविव. ४-६०)।
लक्खणं भणियं (आचारा. नि. 'एयं') । (षट्खं. समान धर्मवालों और बारह प्रकार के सम्भोग ५, ६, १२२--धव. पु. १४, पृ. २२६; प्राचारा. वालों को सार्मिक कहा जाता है। सम्भोग से नि. १३६, पृ. ५३) । २. साधारणं सामान्यं शरीरं यहाँ एकत्र भोजनादिविषयक उस व्यवहार को येषां ते साधारणशरीराः । (धव. पु. १, पृ. २६६); ग्रहण किया गया है जो समान समाचारी वाले जेण जीवेण एगसरीरट्ठियबहूहि जीवेहि सह कम्मसाधनों के मध्य हुमा करता है।
फलमणुभवेयव्वमिदि कम्ममवज्जिदं सो साहारणसाधर्म्य-साधर्म्य नाम साध्याधिकरणवृत्तित्वेन सरीरो। (धव. पु. ३, पृ. ३३३) ३. जत्थेक्क मरइ निश्चितत्वम् । (सप्तभं. पृ. ५३) ।
जीवो तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं । बक्कमइ जत्थ साध्य के प्राधार में निश्चित रूप से रहना, इसका एक्को वक्कमणं तत्थ णंताणं ॥ (गो. जो. १९२)। नाम साधर्म्य है।
४. साहारणाणि जेसि आहारुस्सास-काय-पाऊणि । न्त..- साध्य-साधनयोाप्तिर्यत्र नि. ते साहारणजीवाणताणं तप्पमाणाणं ॥ (कातिके. श्चीयते तराम् । साधर्येण स दृष्टान्तः सम्बन्ध- १२६)। ५. साधारणः स यस्याङ्गमपरैः बहुभिः स्मरणान्मतः॥ (न्यायाव. १८)।
समम् ॥ एकत्र म्रियमाणे ये म्रियन्ते देहिनोऽखिसम्बन्ध के स्मरणपूर्वक जहां साध्या और साधन की लाः । जायन्ते जायमाने ते लक्ष्याः साधारणाः बुधैः । व्याप्ति निश्चित हो उसे साधर्म्य दृष्टान्त कहते हैं। (पंचसं. अमित. १-१०५ व १०७)। ६. येषाजैसे-धूम के द्वारा अग्नि के सिद्ध करने में रसोई- मनन्तजीवानां साधारणनामकर्मोदयवशवर्तिनाम् घर का दृष्टान्त :
उत्पन्न प्रथमसमये पाहारपर्याप्तिः तत्कार्यम् आहारसाधारण (कायक्लेश)-१. साधारणं प्रमृष्ट- वर्गणायातपुदगलस्कन्धखल-रसभागपरिणमनं च स्तम्भादिकमुपाश्रित्य स्थानम् । (भ. प्रा. विजयो. साधारणं समकाल च, तथा शरीरपर्याप्तिः तत्कार्यम् २२३) । २. साधारणं प्रमृष्टं स्तम्भादिकमवष्ट भ्य आहारवर्गणायातपुद्गलस्कन्धस्य शरीराकारपरिणस्थानं उद्भस्यावस्थानम् । (भ. प्रा. मूला. २२३)। मनं च, तथा इन्द्रियपर्याप्तिः तत्कार्य स्पर्शनेन्द्रिया१ प्रमष्ट (प्रमाजित) स्तम्भ प्रादि का प्राश्रय कारपरिणमन च, तथा प्रान-पानपर्याप्तिः बत्कार्यम्
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साधारणनामकर्म]
११४७, जैन-लक्षणावली
[साधु
उच्छ्वास-निश्वासग्रहणं च साधारण सदशरूपं सम- ८-१२) । ६. जस्स कम्मस्सुदएण एगसरीरा कालं च भवति ते साधारणजीवाः। (गो. जी. म. होदूण अणंता जीवा अच्छंति तं कम्मं साहारणप्र. व जी. प्र. १६२)।
सरीरं। (धव. पृ. १३, पृ. ३६५)। ७. यतो बह्वा १, जिन जीवों का प्राहार--शरीर प्रायोग्य पुद- त्मसाधारणोपभोगशरीरता तत्साधारणशरीरनाम । गलों का ग्रहण-और उच्छवास-निःश्वास समान (त. श्लो. ८-११)। ८. यदुदयवशात्पुनरनन्तानां होता है वे साधारण जीव कहलाते हैं। यह साधारण जीवानामेकं शरीरं भवति तत्साधारणनाम । वनस्पतिकायिक जीवों का सामान्य लक्षण है। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७४) । साधारणनाम---देखो साधारणशरीर नामकर्म। १ जिस कर्म के उदय से बहत जीवों के उपभोग के साधारण शरीर-१. गढसिर-संधि-पव्वं सम- हेतुरूप से साधारण शरीर होता है उसे साधारण भंगमहीरुहं (जीवस. 'महीरयं') च छिण्णरुहं। या साधारणशरीर नामकर्म कहा जाता है। २ जो साहारणं सरीरं xxx ॥ (मूला. ५-१६; कर्म अनेक जीवों के लिए साधारण शरीर को जीवस. ३७; गो. जी. १८६) । २. बहूणं जीवाणं निर्मित करता है उसे साधारण शरीर कहते हैं। जमेगशरीरं तं साहारणसरीरं णाम । (धव. पु. साधु-१. वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणा१४, पृ. २२५)। ३. गूढसंधि-शिरा-पर्व-समभंग- सयारत्ता। णिग्गंथा णिम्मोहा साहू एदेरिसा होति ।। महीरुहं । साधारणं वपुश्छिन्नरोहि xxx॥ (नि. सा. ७५) । २. महगारसमा बुद्धा जे भवंति (पंचसं. अमित. १-१०६)। ४. तल्लक्षणं यथा अणिस्सिया। नाणापिंडरया दंता तेण वच्चंति भने समभागः प्रजायते । तावत्साधारणं ज्ञेयं x साहणो ।। (दशवै. सू. १-५, पृ. ७२)। ३. थिरxx॥ (लाटीसं. २-१०६)।
धरियसीलमाला ववगयराया जसोहपडहत्था । १ जिस जीवशरीरये सिराय, सन्धियां और पोर बहविणयभूसियंगा सुहाई साह पयच्छंतु ॥ (ति. प्रगट नहीं हुए हैं। जिसके तोड़ने पर भंग समान प. १-५)। ४. विषयसुखनिरभिलाषः प्रशमगुणहोता है तथा छेदे जाने पर भी जो प्ररोहित होता गणाभ्यलंकृतः साधुः। द्योतयति यथा सर्वाण्यादित्यः है उसे साधारण शरीर कहा जाता है। २ बहुत सर्वतेजांसि ।। (प्रशमर. २४२) । ५- चिरप्रवजितः जीवों का जो एक ही शरीर होता है उसे साधारण साधुः । (स. सि. ६-२४; त. श्लो. ६-२४) । शरीर कहते हैं।
६. बारसविहेण जुत्ता तवेण साहेन्ति जे उ निव्वासाधारणशरीर नामकर्म- १. बहूनामात्मनामुप- णं । ते साहु तुज्झ वच्छय साहन्तु दुसाहयं कज्जं ॥ भोगहेतुत्वेन साधारण शरीरं यतो भवति तत्साधा- (पउमच. ८६-२२)। ७. तहा पसंत-गभीरासया रणशरीरनाम । (स. सि. ८-११; मला. व. १२, सावज्जजोगविरया पंचविहायारजाणगा परोवयार१९५; भ. पा. मला. २०१५; गो. क. जी. प्र. निरया पउमाइनिर्दसणा झाणज्झयणसंगया विसुज्झ३३) । २. अनेकजीवसाधारणशरीरनिर्वर्तकं माणभावा साहू स गं। (पंचसू. पृ. १३)। ८. मा. साधारणशरीरनाम । (त. भा. ८-१२) । ३. यतो नापमानयोस्तुल्यस्तथा यः सुख-दुःखयोः । तृणबह्वात्मसाधारणोपभोगशरीरं तत्साधारणशरीर. कांचनयोश्चैष साधुः पात्रं प्रशस्यते ॥ (पद्मपु. १४, नाम । बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणं ५७) । ६. चिरप्रवजितः साधुः । चिरकालभावितशरीरं यतो भवति सत्साधारणशरीरनाम । (त. प्रव्रज्यागुणः साधुरित्याम्नायते । (त. वा. ६, २४, वा. ८, ११, २०)। ४. साधारणनाम यदुदयाद् ११)। १०. अभिलषितमर्थं साधयतीति साधुः । बहवो जीवा एकं शरीरं निवर्तयन्ति । (श्रा. प्र. (प्राव. नि. हरि. बृ. १००० उत्थानिका)। ११. टी. २३)। ५. अनन्तानां जीवानामेकं शरीरं सा- चारित्तजुप्रो साहू xxx। (पंचाश. ४६६) । घारणं किशलय-निगोद-थोहरि-वज्रि (सिद्ध. वृ. १२. अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति'निगोदवन') प्रभृति, यथैकजीवस्य परिभोगस्तथा- साधवः । पञ्चमहाव्रतधरास्त्रिगुप्तिगुप्ताः अष्टादश. ऽनेकस्यापि तदभिन्नं सद्यस्य कर्मण उदयान्निर्वय॑ते शीलसहस्रधराश्चतुरशीतिशतसहस्रगुणधराश्च साधतत्साधारणशरीरनाम । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. वः। सोह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सूरुवहि-मंदरिंदु
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साथु] ११४८, जैन-लक्षणावलो
[साध्य मणी। खिदि-उरगंबरसरिसा परमपविमग्गया भोजन में सन्तुष्ट रहते हैं उन्हें साधु कहा जाता साहू ॥ (घव. पु. १, पृ. ५१); अणतणाण-दसण- है। ५ जो दीर्घ काल से प्रवजित (दीक्षित) हो वीरिय-विरह-खइयसम्मत्तादीणं साहया साहू णाम। उसे साधु कहते हैं। ७ जो अतिशय शान्त, गम्भीर, (धव. पु.८, पृ. ८७)। १३. ज्ञान-दर्शन-चारित्र- सावध योग से विरत, पांच प्रकार के प्राचार के लक्षणाभिः पौरुषेयीभिः शक्तिभिर्मोक्षं साधयन्तीति ज्ञाता, परोपकार में विरत, ध्यान-अध्ययन में साघवः । (त. भा. सिद्ध. व. ६-२३)। १४. साध- तत्पर और उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होने वाले यन्ति रत्नत्रयमिति साधवः । (भ. प्रा. विजयो. भावों से युक्त होते हैं उन्हें साधु माना जाता है । ४६)। १५. उम्गतवतवियगत्तो तियालजोएण १२ जो अनन्त ज्ञान-दर्शनादिरूप प्रात्मा के स्वरूप गमिय-ग्रह रत्तो। साहियमोक्खस्स पहो झामो सो को सिद्ध करते हुए पांच महाव्रतों के धारक, तीन साहुपरमेट्ठी ।। (भावसं. दे ३७६) । १६. चिर- गस्तियों से रक्षित, अठारह हजार शीलों के धारक कालभावितप्रव्रज्यागुणः साधुः । (चा. सा. पृ. ६६)। और चौरासी लाख गुणों से सम्पन्न होते हैं उन्हें १७. कषायसेनां प्रतिबन्धिती ये निहत्य धीराः शम- साधु समझना चाहिए। शील-शस्त्रः। सिद्धि विबाधां लघु साधयन्ते ते साधुवर्णजनन-साधुमाहात्म्यप्रकाशनं साधुवर्णसाधवो मे वितरन्तु सिद्धिम् ।। (अमित. श्रा. १, जननम् । (भ. प्रा. विजयो. व भूला. ४७) । ५)। १८. त्यक्तबाह्याभ्यन्तरग्रन्थो नि:कषायो साध के माहात्म्य के प्रगट करने को साधुवर्णजनन जितेन्द्रियः । परीषहसहः साधुर्जातरूपधरो मतः ॥ कहा जाता है। (धर्मप. १८-७६)। १६. दसण-णाणसमग्गं मग्गं साधुसमाधि-देखो 'साधु' व 'समाधि' । मोक्खस्स जो हु चारित्तं । साधयदि णिच्चसुद्धं १. साहूणं समाहिसंघारणदाए-दसण-णाण-चरिसाहू स मुणी णमो तस्स ।। (द्रव्यसं. ५४)। तेसु सम्ममवट्ठाणं समाही णाम, सम्म साहणं धारणं २०. अभ्यन्तरनिश्चय चतुर्विधाराधनाबलेन च संधारणं, (साहूणं) समाहीए संधारणं (साहु) बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गद्वितीयनामाभिधेयेन कृत्वा समाहिसंधारणं । (धव. पु. ८, पृ. ८८)। २. यः कर्ता वीतरागचारित्राविनाभूतं स्वशुद्धात्मानं भाण्डागारहुताशोपशमनवज्जातविघ्नमनुपद्य। संसाधयति भावयति स साधुर्भवति । (बृ. द्रव्यसं. टी. धारणं हि तपसः साधूनां स्यात् समाधिरिह ।। (ह. ५४)। २१. सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो व्याख्यानादिषु पु. ३४-१३६) । ३. भाण्डागाराग्निसंशान्तिसमं कर्मसु । विरक्तो मौनवान् ध्यानी साधुरित्यभि- मुनिगणस्य यत् । तपःसंरक्षणं साघुसमाधिः स घीयते ॥ (नीतिसा. १७)। २२. चिरदीक्षित: उदीरितः ॥ (त. श्लो. ६, २४, १०) । साधुः। (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४; कातिके. टी. १ दर्शन, ज्ञान और चारित्र में भली भांति अव४५६) । २३. दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रिकं भेदेतरात्म- स्थित होने का नाम समाधि है, साधुओं की समाधि कम् । यथावत्साधयन् साधुरेकान्तपदमाश्रितः ॥ को साधुसमाधि कहा जाता है। (धर्मसं. श्रा. १०-११८)। २४. मार्ग मोक्षस्य साध्य-१. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धंxxxi चारित्रं सदृग्ज्ञप्तिपुरस्सरम् । साधयत्यात्मसिद्धयर्थं (प्रमाणसं. २०; न्यायवि. १७२) । २. अव्युत्पत्तिसाधुरन्वर्थसंज्ञकः ॥ (लाटोसं. ४-१८६; पंचाध्या. संशय-विपर्यासविशष्टोऽर्थः साध्यः । (प्रमाणसं. २-६६७)।
स्वो. विव. २०) । ३. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्ध१ जो बाह्य व्यापार से रहित होकर चार प्रकार मनुमेयम् । (सिद्धिवि. वृ. ३-३, पृ. १७७) । की पाराषना का निरन्तर पाराधन करते हैं तथा ४. इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् । (परीक्षा. ३, परिग्रह को छोडकर ममत्वभाव से रहित हो चके १५)। ५. शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्ध साध्यम् । यत् हैं ऐसे वे साध कहलाते हैं। २ जो मधकर (भ्रमर) प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधितत्वेन साधयितुं शक्यम्, वाद्यके समान दाता को कष्ट न पहुंचा कर अनुद्दिष्ट भिमतत्वेनाभिप्रेतम्, सन्देहाद्याक्रान्तत्वेनाप्रसिद्धम्, भोजन को प्राप्त करते हैं, तत्त्व के ज्ञाता हैं, तदेव साध्यम् । (न्यायदो. पृ. ६६)। प्रासक्ति से रहित हैं, तथा भिक्षावृत्ति से प्राप्त १ जो साधने के लिए शक्य, वादी को प्रभीष्ट और
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साध्याभास] ११४६, जैन-लक्षणावली
[सामानिक प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाण से सिद्ध न हो उसे साध्य ८, पृ. १७); xxx परमत्थदो पुण एगकहा जाता है।
समयं बंधिदूण विदियसमए जिस्से बंधविरामो साध्याभास-१. xxx ततोऽपरम् । साध्या- दिस्सदि सा सांतरबंधपयडी। (धव. पु. ८, पृ. भासं यथा सत्ता भ्रान्ते: पुरुषधर्मतः ।। (प्रमाणसं. १००)। २०); ततोऽपरं साध्याभासम् । यथा सत्ता, सद- काल के क्षय से जिस प्रकृति के बन्ध की व्यच्छित्ति सदेकान्तयोः साधनासम्भवः, तदतदुभयधर्माणाम- सम्भव है उसे सान्तरबन्धप्रकृति कहते हैं । सिद्ध विरुद्धानकान्तिकत्वम् । (प्रमाणसं. स्वो. वि. यथार्थतः एक समय बन्ध को प्राप्त होकर दूसरे २०)। २. xxx ततोऽपरम् । साध्याभासं समय में जिसके बन्ध का विश्राम देखा जाता है विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ।। (न्यायवि.१७३)। उसे सान्तरवन्धप्रकृति कहा जाता है। ३. ततोऽपरं साध्याभासम् । (प्रमाणनि. पृ. ६१)। सापराध---नियतमयमशुद्धं स्वं भजन सापराधः १ साध्य से विपरीत को-जो साधने के लिए xxx ॥ (समयक. E-८)। शक्य न हो; वादो को अभीष्ट न हो, अथवा अन्य जो नियम से अशुद्ध प्रात्मा का पाराधन करता है प्रमाण से सिद्ध हो; उसे साध्याभास कहा जाता है। वह सापराध (अपराधी) है। कारण यह कि इस साध्ववर्णवाद-अहिंसाव्रतमेवैषां न यूज्यते षड़- प्रकार के प्राचरण से उसके कर्मबन्ध होने वाला है। जीवनिकायाकुले लोके वर्तमानाः कथमहिंसकाः सापेक्षत्व-तदनिराकृतेः (अनेकान्तानिराकृतेः) स्युः, केशोल्लुंचनादिभिः पीडयतां च कथं नात्मवधः, सापेक्षत्वम् । (लघीय. स्वो. विव. ७२)। अदष्टमात्मनो विषयं धर्म पापं तत्फलं च गदतां अनेकान्त का निराकरण नहीं प्रकरना, यही नयोंका कथं सत्यव्रतम्, इति साध्ववर्णवादः । (भ. प्रा. सापेक्षत्व है।। विजयो. ४७)।
सामग्री--सकलकारककलारूपा किल सामग्री । छह काय के जीवों से व्याप्त लोक में रहते हुए इन (न्यायकु. ३, पृ. ३५) । साधनों का अहिंसावत सुरक्षित नहीं रह सकता, समस्त कारकों के समह का नाम सामग्री है। केशलुंचन आदि के द्वारा पीड़ित होने से प्रात्मवध इसका सम्बन्ध कारक-साकल्य प्रकरण से है। का भी दोष सम्भव है, तथा स्वयं न देखे गये पुण्य- सामानिक-१. प्राज्ञैश्वर्यवजितं यत्समानायुर्वीर्यपाप व उनके फल का कथन करते हुए उनका परिवार-भोगोपभोगादि तत्समानम्, तस्मिन् समाने सत्यव्रत भी सुरक्षित नहीं रह सकता; इत्यादि भवाः सामानिकाः । (स. सि. ४-४) । २. इन्द्रप्रकार से साधुओं के विषय में दोषारोपण करना, समानाः सामानिकाः अमात्य-पितृ-गुरूपाध्याय-महयह साधु-अवर्णवाद कहलाता है।
तरवत्केवलमिन्द्रत्वहीनाः। (त. भा. ४-४) । सान-स्यति छिनत्ति हन्ति विनाशयति अनध्यव- ३. तत्स्थानार्हत्वात्सामानिकाः। तेषामिन्द्राणामासायमित्यवग्रहः सानम् । (धव. पु. १३, पृ. २४२)। ज्ञश्वर्यवजितं यत् स्थान प्रायुर्वीर्य-परिवार-भोगोपजो अनध्यवसाय को नष्ट करता है उसे सान कहा भोगादितस्तेषां समानम्, समाने भवाः सामानिकाः । जाता है। 'स्यति छिनत्ति अनध्यवसायम् इति (त. वा. ४, ४, ४)। ४. प्राज्ञैश्वर्याद्विनाऽन्यैस्तु गुणसानम्' इस निरुक्ति के अनुसार यह अवग्रह का रिन्द्रेण सम्मिताः । सामानिका भवेयुस्ते शक्रेणापि सार्थक नामान्तर है।
गुरूकृताः। पितृ-मातृ-गुरुप्रख्याः सम्मतास्ते सुरेशिसान्तरनिरन्तरद्रव्यवर्गणा-अन्तरेण सह णिर-नाम् । लभन्ते सममिन्द्रश्च सत्कारं मान्यतोचितम् ।। न्तरं गच्छदि ति सांतर-णिरंतर दव्ववग्गणासण्णा। (म. पु. २२, २३-२४)। ५. पाश्विर्यवजितमायु(धव. पु. १४, पृ. ६४)।।
ीर्य-परिवार-भोगोपभोगादिस्थानमिन्द्रः समानम्, जो वर्गणा निरन्तर अन्तर के साथ जाती है उसका तत्र भवाः सामानिका इन्द्रस्थानाहत्वात् । (त. नाम सान्तर-निरन्तरद्रव्यवर्गणा है।
श्लो. ४-४)। ६. सामानिकाश्चेन्द्रसमा: परमिन्द्रसान्तरबन्धप्रकृति-जिस्से पयडीए अद्धाक्खएण त्वर्जिताः । (त्रि. श. पु. च. २, ३, ७७२)। बंधवोच्छेदो संभवइ सा सांतरबंधपयडी। (धव. पु. ७. यथा इन्द्रेण सह समाने तुल्ये द्युति-विभवादी
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सामानिक]
११५०, जैन-लक्षणावली
[सामायिक
भवाः सामानिकाः, "अध्यात्मादिभ्यः" इतीकण- सामान्य स्थिति- एक्कम्हि द्विदिविसेसे जम्हि प्रत्ययः, इन्द्रत्वरहिता इन्द्रेण सह समानधुति-विभवा समयपबद्धसेसयमस्थि सा ट्ठिदी सामण्णा त्ति णाइन्द्राणाममात्य-पितृ-गुरूपाध्याय- महत्तरवत्पूजनीया- दव्वा । (कसायपा. चू. पृ. ८३५) । स्तेऽपि चन्द्रान् स्वामित्वेन प्रतिपन्नाः। (बहत्सं. जिस एक स्थिति विशेष में समयप्रबद्ध शेष (और मलय. वृ. २)। ८. प्राज्ञामैश्वयं च विहाय भोगो. भवबद्ध शेष) पाये जाते हैं, उसे सामान्य स्थिति पभोग-परिवार-वीर्यायरास्पदप्रभतिक यद्वर्तते तत्स- कहते हैं। मानम्, समाने भवा: सामानिका: महत्तर-पितृ- सामान्यालोचना--प्रोघेणालोचेदि हु अपरिमिदगुरूपाध्यायसदशाः । (त. वत्ति श्रत. ४-४)। वराधसव्वधादी बा। अज्जोपाए इत्थं सामण्णमहं १ प्राज्ञा और ऐश्वर्य को छोड़कर प्राय, वीर्य, खु तुच्छो त्ति ।। (भ. प्रा. ५३४) । परिवार और भोग-उपभोग की अपेक्षा जिनका जिसने अपरिमित अपराध किया है अथवा सम्यस्थान इन्द्र के समान होता है वे सामानिक देव कह. क्त्व प्रादि सबका घाल किया है ऐसा अपराधी लाते हैं। २ जो देव मंत्री, पिता, गुरु, उपाध्याय और साधु सामान्य से परसाक्षिक अालोचना करता महत्तर के समान इन्द्र जैसे ही होते हैं; वे केवल हुमा प्रार्थना करता है कि मैं तुच्छ हूं व प्राज से इन्द्रत्व-प्राज्ञा व ऐश्वर्य-से रहित होते हुए श्रमण धर्म की इच्छा करता हूं। यह सामान्य सामानिक कहे जाते हैं।
(श्रामण्य) आलोचना का लक्षण है।। सामान्य-देखो तिर्यकसामान्य व ऊर्ध्वतासामा- सामायिक-१. विरदी सव्वसावज्जे तिगत्तो न्य । १. तथा चोक्तम्-वस्तून एव समानः परि- पिहिदिदिनो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिणामो यः स एव सामान्यम् । (अने. ज. प. पृ. सासणे ।। जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा । ३२)। २. सामान्यं भिन्नेष्वभिन्नकारणम् । (प्रा. तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥ जस्स मी. वसु. ७.६५)। ३. यो वस्तुना समानपरिणामः सण्णि हिदो अप्पा संजमे णियमे तवे । तस्स सामाइग स सामान्यम् Xxx। उक्तं च-वस्तुन एव ठाइ इदि केवलिसासणे ॥ जस्स रागो दु दोसो दु समानः परिणामो यः स एव सामान्यम् । (प्राव. विगडि ण जणेति दु। तस्स सामाइगं ठाई इदि नि. मलय. वृ. ७५५) ।
केवलिसासणे ॥ जो दु अझै च रुदं च झाणं व१ वस्तु के समान परिणाम का नाम सामान्य है। ज्जेदि णिच्चसा । तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलि२ भिन्न अनेक व्यक्तियों में जो प्रभेद का कारण सासणे ।। जो दु पुण्णं च पावं च भावं वज्जेदि है उसे सामान्य कहते हैं।
णिच्चसा। तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे॥ सामान्य आलोचना-देखो सामान्यालोचना। जो दु हस्सं रई सोगं अरदि वज्जेदि णिच्चसा । सामान्य छल-सम्भवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगा- तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥ जो दसद्भूतार्थकल्पना सामान्य छलम् [न्यायसू. १, २, दुगंछा भयं वेद सव्वं वज्जेदि णिच्चसा। तस्स १३] । (प्र. क. मा. ५-७३, पृ. ६५०; सिद्धिवि. सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥ जो दु धम्म वृ. ५-२, पृ. ३१)।
च सूक्कं च झाणं भाएदि णिच्चसा। तस्स सामाइगं सम्भव होने वाले प्रर्थ की प्रति सामान्य के योग से ठाई इदि केवलिसासणे ॥ (नि. सा. १२५-१३३)। असदभत अर्थ की जो कल्पना की जाती है उसे सामान्य छल कहा जाता है।
बंधुरि-सुह-दुक्खादिसु समदा सामाइयं णाम ।। सामान्य शक्ति-सामान्या यथा घटसन्निवेशि- (मला. १-२३); सम्मत्त-णाण-संजम-तवेहिं जंतं नामुदकाद्याहरणादिकार्यकरणशक्तिः । (अने. ज. पसत्थसमगमणं । समयं तु तं तु भणिदं तमेव सामाप. पृ. ५०)।
इयं जाणं ॥ (मूला. ७-१८)। ३. प्रा समयमुक्ति घट जैसी रचना वाले पदार्थों में जो जल आदि के मुक्तं पञ्चाघानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः ग्रहण रूप कार्य करने की शक्ति है उसे सामान्य- सामायिकं नाम शंसन्ति ॥ (रत्नक. ४-७)। शक्ति कहा जाता है।
४. समेकीभावे वर्तते । तद्यथा--सङ्गतं घृतं
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सामायिक]
११५१, जैन-लक्षणावली
[सामायिक
सङ्गतं तेलमित्युच्यते, एकीभूतमिति गम्यते, एक- पूर्वर्ज्ञान-दर्शन-चरणपर्यायवाटवीभ्रमणसंक्लेशवित्वेन अयनं गमनं समयः, समय एव सामायिकम् । च्छेदकैनिरुपमसुखहेतुभिरधःकृतचिन्तामणि-कल्पद्रुमोसमयः प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य सामायिकम् । पमयुज्यते, स एव समायः प्रयोजनमस्याध्ययन(स. सि. ७-२१)। ५. सामायिकं नामाभिगृह्य- संवेदनानुष्ठानवृन्दस्येति सामायिकम्, समाय एव कालं सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः। (त. भा. ७-१६)। सामायिकम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. २६; प्राव. ६. सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्ज- हरि. वृ. ६, ६, पृ. ८३१); सावद्ययोगविरतिमात्र जोगपडिसेवणं च । (प्राव. सू. अ. ६); सावज्जोग- सामायिकम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १०३) । विरमो तिगत्तो छसू संजयो। उवउत्तो जयमाणो १२. समभावो सामाइयं तण-कंचण-सत्तु-मित्तआया सामाइयं होई ॥ (प्राव. भा. १४६, पृ. विसनो त्ति । णिरभिस्संगं चित्तं उचियपवित्तिप्प३२७ हरि. वृ.) । ७. रागद्दोसविरहियो समो त्ति हाणं च ॥ (पंचाश. ४६६)। १३. सव्वे जीवा अयणं अयोत्ति गमणं ति । समगमणं ति समायो स णाणमया जो समभाव मुणेइ । सो सामाइउ जाणि एव सामाइयं नाम || अहवा भवं समाए निव्वत्तं फुडु जिणवर एम भणेइ ॥ राय-रोस वे परिहरवि तेण तम्मयं वावि । जं तप्पोयणं वा तेण व सामा- जो समभाउ मुणेइ। सो सामाइय जाणि फूड इयं नेयं ॥ अहवा समाई सम्मत्त-नाण-चरणाई तेसु केवलि एम भणेइ॥ (योगसा. योगीन्दु ६६-१००)। तेहिं वा। अयणं अमो समाप्रो स एव सामाइयं १४. तीसु वि संझासु पक्ख-मास-संधिदिणेसू वा नाम ॥ अहवा समस्स पामो गुणाण लाभोत्ति जो सगिच्छिदवेलासु वा बज्झंतरंगासेसत्थेसु संपरायसमाओ सो। अहवा समाणमाओ नेो सामाइयं णिरोहो वा सामाइयं णाम। (जयध. १, प.९८, नाम ॥ अहवा सामं मित्ती तत्थ अग्रो (गमण) तेण ६९)। १५. सामायिकमिति-समो राग-द्वेषविहोइ सामानो। अहवा सामस्सायो लाभो सामाइयं युक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति, पायो लाभ: णेयं ॥ सम्ममयो वा समग्रो सामाइयमभयविद्धि प्राप्तिः, समस्याय: समायः, प्रतिक्षणमपूर्वापूर्वज्ञानभावाप्रो। अहह्वा सम्मस्स प्रायो लाभो सामाइयं दर्शन-चरणपर्याययुज्यते, स एव समायः प्रयोजनमस्य होइ ॥ अहवा निरुत्तविहिणा सामं सम्म समं च जं क्रियानुष्ठानस्येति सामायिकम् । समाय एव वा तस्स । इकमप्षए पवेसणमेयं सामाइयं नेयं ॥ सामायिकम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ७-१६) । (विशेषा. ४२२०-२६) । ८. सावज्जजोगविरो १६. सव्वं सावज्जजोगं पच्चक्खामीति वचनातिगुत्तो छसु संजयो। उवउत्तो जयमाणो आया द्धिसादिभेदमनुपादाय सामान्येन सर्वसावद्ययोगसामाइयं होई ॥ (श्राव. भा. १४६, पृ. ३२७ हरि. निवृत्तिः सामायिकम् । (भ. प्रा. विजयो. व.)। ६. एकत्वेन गमनं समयः। समेकीभावे ११६) । १७. राग-द्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यवर्तते । तद्यथा--'संगतं घृतम्, संगनं तलम्' इत्युक्ते मवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुश: सामायिक एकीभतमिति गम्यते, एकत्वेन गमनं समयः प्रति- कार्यम ॥ (पु. सि. २४८)। १८. सम्यगेकत्वेनानियतकाय-वाङ्मनःकर्मपर्यायार्थ प्रतिनिवृत्तत्वादा- यनं गमनं समयः, स्वविषयेभ्यो विनिवृत्त्य कायत्मनो द्रव्यार्थेनैकत्वगमन मित्यर्थः, समय एव सामा- वाङ्मनःकर्मणामात्मना सह वर्तनाद् द्रव्यार्थेनायिकम्, समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम। स्मन एकत्वगमनमित्यर्थः। समय एव सामायिकम, (त. वा. ७, २१,६); सर्वसावधयोगप्रत्याख्यान- समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम। (चा. सा. परम् । सर्वस्य सावद्ययोगस्याभेदेन प्रत्याख्यान- पृ. १०); सामायिकं सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिलक्षणम्, मवलम्ब्य प्रवृत्तमवधृतकालं वा सामायिकमित्या- चित्तस्यकत्वेन ज्ञानेन प्रणिधानं वा, शत्रुमित्र-मणिख्यायते । (त. वा. ६, १८, २)। १०. सर्वसावद्य- पाषाण-सुवर्णमृत्तिका-जीवितमरण - लाभालाभादिषु योगविरतिलक्षणं सामायिकम् । (त. भा. हरि.व राग-द्वेषाभावो वेति । (चा. सा. पृ. २६) । सिद्ध. वृ. ६-१८)। ११. समो राग-द्वेषवियुतो यः १६. जीविते मरणे योगे वियोगे विप्रिये प्रिये । सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति शत्री मित्रे सुखे दुःखे साम्यं सामायिक विदुः ।। पर्यायः, समस्या प्रायः समायः, समो हि प्रतिक्षणम- (अमित. श्रा. ८-३१)। २०. जीविते मरणे
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सामायिक] ११५२, जैन-लक्षणावली
[सामायिक सौख्ये दुःखे योग-वियोगयोः। समानमानसः कार्य गयनं वर्तनं समयः, अथवा सम्यगायो लाभ: समायः, सामायिकमतन्द्रितैः ।। (धर्मप. १६-८४) । २१. यदि वा समस्य भाव: साम्यम्, तस्यायः साम्यायः, रुविवज्जणं कि य समदा सव्वेसु च भूदेसु। सर्वत्र स्वाथिक इकणप्रत्ययः, पृषोदरादित्वादिष्ट संजमसुहभावणा वि सिक्खा सा उच्चये पढमा ।। रूपनिष्पत्तिः। (प्राव. भा. मलय. व. १८५, पृ. धम्मर. १५३) । २२. समता सर्वभूतेषु संयमै शुभ- ५७४); प्रात्मन्येव साम्न इक प्रवेशनं सामायिकम्, भावना । आर्त-रौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं यल्लक्षणेनानुपन्नं तत्सर्वं नैरुक्तिनिपातनादवसे यम् । विदुः । (पद्म. पं. ६-८)। २३. समभेदेन तथा हि-सामन-शब्दनकारस्य प्राय आदेशः तथा त्यागेनायोऽयनं मतेः । समयः स एव चारित्रं समस्य राग-द्वेषमध्यस्थस्यात्मनि इकं प्रवेशनं सासामायिकमुत्तमम् ॥ (प्राचा. सा. ५-५); स य: मायिकम् समशब्दात्परः प्रयागमः, सकारस्य च स्वार्थनिवृत्त्यात्मनेन्द्रियाणामयोऽयनम् । समय: सा- दीर्घता, तथा सम्यगित्येतस्य सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारिमायिक नाम स एव समताह्वयम् ॥ समस्या राग- त्रयोजनरूपस्यात्मनि इकं प्रवेशनं सामायिकं, यकारोषस्य सर्ववस्तुष्वयोऽयनम् । समाय: स्यात्स एवो- रादेरायादेशनिपातनं सकारस्य च दीर्घता। (प्राव. क्तं सामायिकमिति श्रुते ।। (प्राचा. सा. ६-२०, नि. मलय. वृ. १०४५, पृ. ५७५) । २७. रागाद्य२१)। २४. समो राग-द्वेषविकल प्रात्मा, समस्य बाधबोधः स्यात् समायोऽस्मिन्निरुच्यते । भवं सामाआयो विशिष्टज्ञानादिगुणलाभः समायः, स एव यिक साम्यं नामादौ सत्यऽसत्यपि ॥ समयो दृग्ज्ञानसामायिकम् । (योगशा. स्वो. विव. २-८); तपोयम-नियमादौ प्रशस्तशमगमनम् । स्यात् समय समस्य राग-द्वेषविनिर्मुक्तस्य सतः, प्रायो ज्ञानादीनां एव सामायिक पुनः स्वार्थिकेन ठणा ।। (अन. घ. लाभः प्रशमसुखरूप: समायः, समाय एवं सामायि- ८,१६-२०)। २८. सम् एकत्वेन आत्मनि प्रायः कम्, xxx समायः प्रयोजनमस्येति वा सामा- आगमनं परद्रव्येभ्यो निवृत्य उपयोगस्य प्रात्मनि यिकम् Xxx सावधव्यापारनिषेधात्मकम् निरवद्य- प्रवृत्तिः समायः, अयमहं ज्ञाता दृष्टा चेत्यात्मविषव्यापारविधानात्मकं च । (योगशा. स्वो. विव. ३, योपयोग इत्यर्थः, आत्मन एकस्यैव ज्ञेय-ज्ञायकत्व८२, पृ. ५०३-४); तत्र सामायिकमार्त-रौद्रध्यान- सम्भवात् । अथवा समे रागद्वेषाभ्यामनुपहते मध्यस्थे परिहारेण धर्मध्यानपरिकरणेन शत्रु-मित्र-तृणका- आत्मनि, प्रायः उपयोगस्य प्रवृत्तिः समाय:, ञ्चनादिषु समता । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। स प्रयोजनमस्येति सामायिक नित्य नैमित्ति२५. त्यक्तात-रौद्रध्यानस्य त्यक्तसावद्यकर्मणः । मुहूर्त कानुष्ठानम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. समतायातं विदुः सामायिकव्रतम् ॥ (त्रि. श. पु. च. ३६७-६८) । २६. सर्वभूतेषु यत्साम्यमात१, ३, ६३६)।२६. समो राग-द्वेषयोरपान्तरालवर्ती रौद्रविवर्जनम् । संयमोऽतीवभावश्च विद्धि सामायिक मध्यस्थः, 'इण् गतो' अयनं अयो गमनमित्यर्थः, हितम् ॥ (धर्मसं. श्रा. ७-४२)। ३०. सामायिक समस्य अय: समाय: समीमूतस्य सतो मोक्षाध्वनि सर्वजीवेषु समत्वम् । (भावप्रा. टी. ७७)। ३१. प्रवृत्तिः, समय एव सामायिकम्, विनयादेराकृतिगण- आर्त-रोद्रं परित्यज्य त्रिषु कालेषु सर्वदा । वंद्यो त्वात् 'विनयादिभ्य' इति स्वाथिक इकण-प्रत्ययः, भवति सर्वज्ञस्तच्छिक्षाव्रतमाद्यजम् ।। (पू. उपासका. एकान्तोपशान्तगमनमिति भावः । (प्राव. नि. ३१) । ३२. अर्थात् सामायिक: प्रोक्तः साक्षात मलय. वृ. ८६४); समो राग-द्वेषरहितः, अयनं साम्यावलम्बनम् । xxx तत्सूत्रं यथा--समता गमनम्, समस्यायः समायः, अयनग्रहणं शेषक्रिया- सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना । प्रात-रौद्रपरित्यागस्तणामुपलक्षणम्, सर्वासामपि साधुक्रियाणां समस्य द्धि सामायिकवतम् ॥ (लाटीसं. ६-१५३)। सतस्तत्त्वतो भावात्, समाय एव सामायिकम् । ३३. एयत्तणण अप्पे गमणं परदव्वदो दुणिवत्ती। अथवा समानि ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि, तेष्वयनं उवयोगस्स पइत्ती स समायोऽदो उच्चदे समये ॥ समायः, स एव सामायिकम् । यदि वा सर्वजीवेषु णादा चेदा दिट्ठाहमेव इदि अप्पगोचरं झाणं । प्रह मंत्री साम, साम्न आयो लाभः सामायः, स एव सामा- सं मज्झत्थे गदि अप्पे पायो दु सो भणियो। यिकम् । अथवा सम्यक्-शब्दार्थः समशब्दः, सम्य- तत्थ भवं सामाइयं xxx॥ (अंगप.३, ११
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सामायिक ]
१२, पृ. ३०५ ) ।
१ जो सर्वसावद्य योग का त्याग कर चुका है, तीनों गुप्तियों से संरक्षित है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है, त्रस स्थावर जीवों में समभाव रखता है; संयम, तप और नियम में निरत रहता है, जिसे राग-द्वेष विकृत नहीं करते हैं, तथा जो प्रार्त और रौद्र ध्यान से रहित है, ऐसे महापुरुष के सामायिक होता है । २ जीवन और मरण, लाभ श्रौर प्रलाभ, संयोग धौर वियोग, शत्रु और मित्र तथा सुख और दुःख इनमें समान --हर्ष-विषाद से रहित रहना, इसका नाम सामायिक है । ५ काल का नियम करके समस्त सावद्य योग का त्याग करना, इसे सामायिक कहते हैं । ११ जो राग-द्वेष से रहित होकर सब प्राणियों को अपने समान देखता है उसे सम कहा जाता है, प्राय का श्रर्थ लाभ होता है, सम के प्राय का नाम समाय है, यह समाय ही जिसका प्रयोजन है उसे सामायिक कहते हैं । यह सामायिक का निरुक्त लक्षण है । इसका अभिप्राय यही है कि राग-द्वेष से रहित होकर जो दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की प्राप्ति के प्रभिमुख होना, इसे सामायिक समझना चाहिए । १४ तीनों सन्ध्याकालों में पक्ष, मास व सन्धि के दिनों में श्रथवा अपनी इच्छानुसार किसी भी समय में बाह्य व अन्तरंग सभी पदार्थों में कषाय का जो निरोध किया जाता है, इसका नाम सामायिक है सामायिककाल - देखो सामायिकसमय । पुव्वण्हे महे वरण्हे तिहि वि णालियाछक्को । सामाइस कालो सविनय णिस्सेस णिछिट्टो || (कार्तिके ३५४)।
सामायिक का काल पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न इन तीन सन्ध्याकालों में छह घड़ी तक कहा गया है। सामायिकक्षेत्र - जत्थ ण कलयलसद्दो बहुजणसंघट्टणं ण जत्थत्थि । जत्थ ण दंसादीया एस पत्थ हवे देसो || ( कार्तिके. ३५३ ) । जहां कल-कल शब्द न हो, बहुत जनों का श्रानाजाना न हो, तथा डांस-मच्छर धादि न हों; ऐसा प्रशस्त देश सामायिक के लिए उपयोगी होता है । सामायिकचारित्र - देखो सामायिक । सर्वे जीवाः ल. १४५
[ सामायिक प्रतिमा
al,
केवलज्ञानमया इति भावनारूपेण समतालक्षणं सामायिकम् प्रथवा परमस्वास्थ्यबलेन युगपत्समस्तशुभाशुभ संकल्प-विकल्पत्यागरूपसमाधिलक्षणं निर्विकारस्वसंवित्ति बलेन राग-द्वेषपरिहाररूपं वा, स्वशुद्धात्मानुभूतिबलेनार्त्त - रौद्रपरित्यागरूपं समस्त सुखदुःखादिमध्यस्थरूपं चेति । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३५) ।
वा,
सब जीव केवलज्ञान स्वरूप हैं, इस प्रकार के समताभाव का नाम सामायिकचारित्र है । प्रथवा शुभाशुभ संकल्प विकल्पों के त्यागरूप समाधि को सामायिक चारित्र का लक्षण जानना चाहिए। राग-द्वेष के परित्यागपूर्वक आतं रौद्र का परित्याग भी सामायिक का लक्षण है । सामायिक प्रतिमा - १ चतुरावर्त्तत्रितयश्चतु:प्रणामः स्थितो यथाजातः । सामायिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी || ( रत्नक. ५ - १८ ) । २. माध्यस्थ्यैकत्वगमनं देवतास्मरणस्थितेः । सुखदुःखारिमित्रादो बोध्यं सामायिक व्रतम् || ( ह. पु. ५८ - १५३ ) । ३. जो कुणदि काउसग्गं बारसश्रावत्तसंज [ जु] दो धीरो । णमणदुगं पि करतो चदुपणामो पसण्णप्पा ॥ चितंतो ससरूवं जिणबिंबं श्रहव अक्खरं परमं । ज्झायदि कम्मविवायं तस्स वयं होदि सामइयं ॥ ( कार्तिके. ३७१-७२) । ४. चउरगृहं दोसहं रहिउ पुव्वाइरियकमेण । जिणु वंदइ संझइ तिहिमि सो तिज्जउ नियमेण ॥ ( सावयध. दो. १२ ) । ५. प्रार्त्त - रौद्रपरित्यक्तस्त्रिकालं विदधाति यः । सामायिकं विशुद्धात्मा स सामाविकवान् मतः ॥ ( सुभा. सं. ८३५) ६ रौद्रार्तमुक्तो भवदुःखमोची निरस्तनिःशेषकषायदोषः । सामायिकं यः कुरुते त्रिकालं सामायिकस्थः कथितः स तथ्यम् || ( श्रमित. श्री. ७-६९ ) । ७ प्रिये प्रिये विद्विषि बन्धुलोके समानभावो दमितेन्द्रियाश्वम् । सामायिकं यः कुरुते त्रिकालं सामायिकी स प्रथितः प्रवीणैः ।। (धर्मप. २० - ५५ ) । ८. होऊण सुईचे गिम्मि सगिहे व चेइयाहिमुहो । अण्णत्त सुइपए से पुव्वमहो उत्तरमुहो व ।। जिणवपण धम्मचेइय परमेट्ठि- जिणालयाण णिच्च पि । जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु ॥ ( वसु श्रा. २७४, २७५) । ६. दृङ्मूलोत्तरगुणग्रामाभ्यासविशुद्धधीः ।
११५३, जैन - लक्षणावली
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सामायिक प्रतिमा ]
भस्त्रिसंध्यं कृच्छ्रे ऽपि साम्यं सामायिकी भवेत् ॥ ( सा. घ. ७ - १ ) । १०. चतुस्त्रप्रावर्त संयुक्तश्चतुर्न मस्क्रिया ( ? ) सह । द्विनिषद्यो यथाजातो मनो वाक्कायशुद्धिमान् ।। चैत्यभक्त्यादिभिः स्तुयाज्जिनं सन्ध्यात्रयेऽपि च । कालातिक्रमणं मुक्त्वा स स्यात् सामायिकव्रती ॥ ( भावसं वाम. ५३२-३३ ) । ११. मूलोत्तरगुणव्रात पूर्ण: सम्यक्त्वपूतधीः । साम्यं त्रिसंध्यं कष्टेऽपि भजन् सामायिकी भवेत् ॥ कुर्वन् यथोक्तं सन्ध्यासु कृतकर्माऽसमाप्तितः । समाधेर्जातु नापति कुच्छ सामायिकी हि सः । ( धर्मसं श्रा. ८, ५-६ ) । १२. सा च मासत्रयं यावदुभयसन्ध्यं सामायिकं कुर्वतो भवति । नियम-नन्दि-व्रतादिविधिः स एव दण्डकतदभिलापेन इति सामायिक प्रतिमा । ( श्राचारवि. पृ. ५२ ) ।
१ जो गृहस्थ यथाजात - दिगम्बर वेष में प्रथवा समस्त प्रकार की परिग्रह में निर्ममत्व होकर कायोत्सर्ग से स्थित होता हुप्रा-चार बार तीन तीन श्रावतं व सिर झुका कर प्रणाम करता है तथा श्रादि और अन्त में बैठकर प्रणाम करता है वह सामायिक प्रतिमा का धारक होता है । यह क्रिया तीनों योगों की शुद्धिपूर्वक तीनों सन्ध्याश्रों में - प्रातः (पूर्वाह्न) मध्याह्न और अपराह्न में की जाती है । प्रकारान्तर से इसे कृतिकर्म भी कहा जाता है | देखिए -- धवला पु० ६, पृ० १८६ पर 'दुम्रोणदं
[ सामायिक शिक्षाव्रत
११५४, जैन-लक्षणावली नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध श्रादि दर्शनों के विषयावबोध को सामापिकभावश्रुतप्रन्थ कहते हैं । सामायिक शिक्षाव्रत- देखो सामायिक प्रतिमा | १. समता सर्वभूतेषु संयमः शुभभावनाः । आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ॥ ( वरांगच. १५ - १२२ ) । २. एकत्वेन गमनं समयः एकोऽहमात्मेति प्रतिपत्तिद्रव्यार्थादेशात् काय वाङ्मनःकर्मपर्यायार्थानर्पणात्, सर्व सावद्ययोगनिवृत्त्येकनिश्चयनं वा व्रतभेदार्पण त्, समय एवं सामायिक समयः प्रयोजनमस्येति वा । (त. इलो. ७-२१) । ३. राग-द्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ॥ (पु. सि. १५० ) । ४ प्रत्याख्यानमभेदेन सर्वसावद्यकर्मः । नित्यं नियतकालं वा वृत्तं सामायिकं स्मृतम् ॥ (त. सा. ६-४५ ) । ५. बंधित्ता पज्जक ग्रहवा उड्ढेण उभश्रो ठिच्चा | कालयमाणं किच्चा इंदियवावारवज्जिम्रो होउं ॥ जिणवघणे मग्गमणो सवुडका य अंजलि किच्चा | ससरूवे संलीणो वंदणप्रत्थं विचितंतो ।। किच्चा देस - पमाणं सव्वं सावज्जवज्जिदो होउं । जो कुम्बदि सामइयं सो मुणि सरिसो हवे ताव || (कार्तिके. ३५६-५७ ) । ६. यत्सर्वद्रव्यसन्दर्भे राग-द्वेषव्यपोहनम् । आत्मतत्त्वनिविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते ।। (योगशा. प्रा. ५-४७ ) । ७. त्यक्तार्त-रौद्रयोगो भक्त्या विदधाति निर्मलध्यान: । सामायिकं महात्मा सामायिकसंयतो जीवः ।। ( श्रमित. श्री. ६ - ८६ ) । ८. एकान्ते केशबन्धादिमोक्षं यावन्मुनेरिव । स्वं ध्यातुः तर्वहिंसादित्यागः सामायिकव्रतम् ।। (सा. घ. ५ - २८ ) । ६. सामायिकमथाद्यं स्याच्छिक्षाव्रतमगारिणाम् । आर्त-रौद्रे परित्यज्य त्रिकालं जिनवन्दनात् ॥ ( धर्मश. २१ - १४६ ) । १०. सम् शब्दः एकत्वे एकीभावे वर्तते यथा संगतं घृतं संगतं तैलम्, एकीभूतमित्यर्थः । अयनमयः, सम् एकत्वेन प्रयनं गमनं परिणमनं समयः, समय एव सामायिकम् । स्वार्थे इकण् । अथवा समय: प्रयोजनमस्येति सामायिकम्, प्रयोजनाथ इण् । कोऽर्थः ? देववन्दनायां निःसंक्लेशं सर्वप्राणिसमताचिन्तनम्, सामायिकमित्यर्थ । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२१) ।
१ प्रातं और रौद्र ध्यान को छोड़कर समस्त
इत्यादि ; तथा मूलाचार गाथा ७-१०४ २ देवता - जिनदेव श्रावि का स्मरण करते हुए जो सुख दुःख और शत्रु-मित्र श्रादि में एक मध्यस्थ भाव को प्राप्त होता है, इसका नाम सामायिकव्रत ( एक शिक्षाव्रत ) है । ३ जो धीर श्रावक प्रसन्नचित्त होकर बारह प्रावतों से संयुक्त होता हुआ कायोत्सर्गपूर्वक दो नमन और चार प्रणामों को करता है तथा अपने प्रात्मस्वरूप का स्मरण करता हुम्रा जिनप्रतिमा, परम प्रक्षर - 'प्रसिश्रासा' श्रादि मंत्राक्षरों या बीजाक्षरों प्रौर कर्मविपाक का ध्यान करता है उसके सामायिक व्रत होता है । १२ सामायिक प्रतिमा दो सन्ध्याओं में तीन मास तक सामायिक करने वाले के होती है । सामायिकभावश्रुतग्रन्थ नैयायिक-वैशेषिकलोकायत सांख्य-मीमांसक बौद्धादिदर्शन विषयबोध: सामायिकभावश्रुतग्रन्थ: । ( धव. पु. ६, पृ. ३२३ ) ।
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सामायिकशुद्धिसंयम]
११५५, जैन-लक्षणावलो
[साम्परायिक
प्राणियों में समता का भाव रखना, संयम का परि. उ कए चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म । तिविहेण फासपालन करना, और उत्तम भावनाओं का चिन्तन यंतो सामाइयसंजनो स खलु ॥ (भगवती. २५, करना, इसे सामायिक शिक्षावत कहते हैं। द्रव्या- ७, ६, खण्ड ४, पृ. २६२) । थिक नय की अपेक्षा जो 'मैं एक प्रात्मा हूं'। इस १ जिस एक ही संयम में समस्त संयम का समावेश प्रकार का ज्ञान होता है तथा काय, बचन व मन होता है तथा जो अनुपम होकर दुरवबोध है उस की क्रियारूप पर्याय की विवक्षा न क के सर्व सामायिक संयम के परिपालन करने वाले को सावद्ययोग की निवृत्ति रूप जो एक निश्चय होता है, सामायिक संयत कहा जाता है। २ सामायिक के एवं व्रतभेद की अपेक्षा जो भिन्नता का बोध है; स्वीकार कर लेने पर जो जीव अनुपम चार महाव्रत इसका नाम समय है, इस समय को ही सामायिक स्वरूप चातुर्याम धर्म का मन, वचन व काय से कहा जाता है।
स्पर्श करता है ... उसका परिपालन करता है. वह सामायिक शुद्धिसंयम-देखो सामायिकसंयम। सामायिक संयत कहलाता है। सामायिक श्रत-१. तत्थ जं सामाइयं तं णाम- सामायिकसंयम-देखो सामायिकसंयत । १. सम ट्रवणा-दव्व-खेत्त-काल-भावेसु समत्तविहाणं वण्णेदि। सम्यक सम्यग्दर्शन-ज्ञानानुसारेण, यता: बहिरंगा(धव. पु. १, पृ. ९६); तत्थ सामाइयं दब-खेत- न्तरंगास्रवेभ्यो विरता: संयताः । सर्वसावद्ययोगात काले अप्पिदण परिसजादं प्राभोगिय परिमिदापरि- विरतोऽस्मीति सकलसावद्ययोगविरतिः सामायिकमिदकालसमाइयं परूवेदि । (धब. पु. ६, पृ. शुद्धिसंयमो द्रव्याथिकत्वात् । (धव. पु. १, पृ. १८८) । २. एवं विहं सामाइयं कालमम्सिदूण भर. ३६६); स्वान्तर्भाविताशेषसंयमविशेषकयमः हादिखेत्ते च संघडणाणि गुणट्ठाणानि च अस्सि दूण सामायिक शुद्धिसंयम: । (धव. पु. १, पृ. ३७०)। परिमिदापरिमिदसरूवेण जेण परूवेदि xxx. २. सामायिकमवस्थानं सर्वसावद्ययोगस्याभेदेन (जयध. १, पृ. ६६) । ३. Xxx तत्-(सामा- प्रत्याख्यानमवलम्ब्य प्रवृत्तमथवाऽवघृतकालमनवयिक.) प्रतिपादक शास्त्र सामायिकश्रुतम् । (गो. धृतकालं सामायिकमित्याख्यायते । (चा. सा. पृ. जी. जी. प्र. ३६७) ।
३७)। ३ क्रियते यदभेदेन ब्रतानामधिरोपणम् । १ जिस अंगबाह्य श्रुत में द्रव्य, क्षेत्र, काल और कषायस्थूलतालोढः स सामायिकसंयमः । (पंचसं. भाव का प्राश्रय करके तथा पुरुषसमह को देखकर अमित १-१२६) । परिमित या अपरिमित काल पर्यन्त सम्पन्न होने १ 'सम' का अर्थ सम्यक अर्थात सम्यग्दर्शन व वाले सामायिक अनुष्ठान की प्ररूपणा की जाती है ज्ञान का अनुसरण है तथा 'यत्' का अर्थ है बहिरंग उसे सामायिकश्रुत कहते हैं।
और अन्तरंग प्रास्रवों से विरत, तदनुसार अभिप्राय सामायिकसमय-देखो सामायिककाल । मूर्धरुह- यह हुग्रा कि जो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानपूर्वक मष्टि-वासोबन्धं पर्यकबन्धनं चापि । स्थानम पवेशनं समस्त प्रास्त्रवों से विरत हो चके हैं वे संयत कह. वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ।। (रत्क. ४-८)। लाते हैं। 'मैं सर्वसावद्ययोग से विरत है' इस प्रकार बालों का बन्धन, मुट्ठो का बन्धन, वस्त्र का बन्धन, से समस्त सावद्ययोग से विरत होने का नाम पर्यंक पासन का बन्धन, कायोत्सर्ग से प्रवस्थान सामायिकशुद्धिसंयम है। प्रथवा उपवेशन; इनको सामायिककाल गाना जाता साम्परायिक-- १. तत्प्रयोजनं साम्परायिकम । है, अर्थात जब तक ये स्वयं न छुटे या कष्टप्रद होने तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकमित्युच्यते, यथा ऐन्द्रपर बुद्धिपुरःसर उन्हें छोड़ा न जाय तब तक सामा. महिक मिति । (त. वा. ६, ४, ५); मिथ्यादृष्ट्यायिक में स्थित रहना चाहिए।
दीनां सूक्ष्मसाम्परायान्तानां कषायोदय पिच्छिलपरिसामायिक संयत-१. संगहियसयलसंजममेय- णामानां योगवशादानीतं कर्म भावेनोपश्लिष्यमाणं जममणुत्तरं दुरवगम्म । जीवो समन्वहंतो सामाइय- प्रार्द्रचर्माश्रितरेणवत् स्थितिमापद्यमानं सांपरायिकसंजदो होई ॥ (प्रा. पंचसं. १-१२६; धव. पु. १, मित्युच्यते । (त. वा. ६, ४, ७)। २. सं सम्यक, प. ३७२ उद्.; गो. जी. ४७०) । २. सामाइयम्मि पर उत्कृष्टः, अयो गतिः पर्यटनं प्राणिनां यत्र भवति
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साम्परायिक]
११५६, जैन-लक्षणावली
[सालम्बध्यान
स संपरायः, संसार इत्यर्थः, संपरायः प्रयोजनं यस्य उसे साम्य कहा जाता है। कर्मणः तत् कर्म सांपरायिकम् कर्म । संसारपर्यटन- साम्राज्य क्रिया-साम्राज्यमाधिराज्य स्थाच्चक्रकर्म साम्परायिकमित्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. रत्नपुरःसरम् । निधि-रत्नसमुद्भतभोगसम्पत्परम्प६-४)।
रम् ॥ (म. पु. ३६-२०२) । १ प्रात्मा का पराभव करना ही जिसका प्रयोजन जिस सर्वोत्कृष्ट राज्य में चक्ररत्न के साथ नौ है ऐसे कर्म को सांपरायिक कहा जाता है। मिथ्या- निधियों और चौदह रत्नों के प्राश्रय से भोग दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसापरायसंयत तक कषाय के सम्पत्ति की परम्परा उपस्थित रहती है उसे साम्राउदयवश उत्पन्न परिणामों के अनुसार योग के ज्यक्रिया कहा जाता है। द्वारा लाया गया कर्म गोले चमड़े के प्राधित धूलि सारणा-१. दुःखाभिभवान्मोहमुपगतस्य निश्चेत. के समान जो स्थिति को प्राप्त होता है उसे साम्प- नस्य चेतनाप्रवर्तना सारणा। (भ. प्रा. विजयो. रायिक कर्म कहा जाता है।
७०)। २. सारणा दुःखाभिभवान्मोहं गतस्य चेतसाम्प्रत - नामादिषु प्रसिद्धपूर्वाच्छन्दादर्थे प्रत्ययः नाप्रापणा । (मन. प. स्वो. टी. ७-६८; भ. प्रा. साम्प्रतः । (त भा. १-३५, पृ. ११६); तेष्वेव मूला. ७०) । साम्प्रतेषु नामादीनामन्यतमग्राहिषु प्रसिद्धपूर्वकेषु १ दुःख से अभिभूत होकर मूर्छा को प्राप्त हुए को घटेषु सम्प्रत्ययः साम्प्रतः शब्दः । (त. भा. १-३५, सचेत करना, इसका नाम सारणा है। यह भक्तपृ. १२३)।
प्रत्याख्यानमरण को स्वीकार करने वाले क्षपक के नाम व स्थापना आदि में जिसका वाच्य-वाचक मोदि ४० लिंगों में से एक है। सम्बन्ध प्रादि पूर्व में प्रसिद्ध है उस शब्द से जो सारस्वत- (लोकान्तिक देवविशेष) सरस्वती घटादि के विषय में ज्ञान होता है उसे साम्प्रत शब्द- चतुर्दशपूर्वलक्षणां विदन्ति जानन्ति सारस्वताः । (त. नय कहते हैं । ऋज़ सूत्र को अभीष्ट नाम स्थापना वृत्ति श्रुत. ४-२५)। प्रादि घटों में से जो अन्यतम को ग्रहण करने वाले जो लौकान्तिक देव चौदह पूर्वस्वरूप सरस्वती को शब्द हैं उनके उच्चारण करने पर जिनका वाच्य जानते हैं वे सारस्वत कहलाते हैं। वाचक सम्बन्ध पूर्व में प्रसिद्ध उन घटादिकों में सारा-सारा तु यदबहिः शुष्काकारमप्यन्तमध्ये जो ज्ञान होता है उसे साम्प्रत शब्द कहा जाता है। सार्द्रमास्ते यथा श्रीपर्णी-सोवर्चलादिकम् । (सूत्रकृ. साम्भोगिक-सम्भोगः साधनां समानसामाचारी- नि. शी. व. १८५, पृ. १३६) ।। कतया परस्परमुपध्यादिदान-ग्रहणसंव्यवहारलक्षणः, जो बाहर सूखे आकार में होकर भी मध्य में गीला स विद्यते यस्य स साम्भोगिकः । (स्थाना. स. रहता है उसका नाम सारार्द्र है। जैसे-श्रीपर्णी अभय. वृ. ३, ३, १७३, पृ. १३६)।
और सोवर्चल आदि।। समान समाचारी वाले साधुनों के जो परस्पर सार्व-सार्वः इह-परलोकोपकारकमार्गप्रदर्शकत्वेन उपधि प्रादि का देना लेना होता है उसका नाम सर्वेभ्यो हितः । (रत्नक. टी. १-७) । सम्भोग है, इस सम्भोग से जो सहित होता है उसे जो इस लोक व परलोक में उपकार करने वाले साम्भोगिक कहा जाता है।
मार्ग को दिखलाने के कारण सभी प्राणियों के लिए साम्य--- साम्यं तु दर्शन-चारित्रमोहनीयोदयापादि- हितकर होता है उसे सार्व कहा जाता है। यह तसमस्तमोह-क्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य वीतराग सर्वज्ञ के अनेक नामों के अन्तर्गत है। परिणामः । (प्रव. सा. अमत. वृ. १-७); साम्यं सालम्बध्यान-१. जिनरूपध्यानं खल्वाद्यः (सा. मोह-क्षोभविहीन आत्मपरिणामः । (प्रव. सा. अमृत. लम्बनः योग:) xxx ॥ (षोडशक. १४-१)। वृ. ३-४१)।
२. धर्मध्यानं तु सालम्बं चतुर्भेदैनिगद्यते । प्राज्ञादर्शन और चारित्र मोहनीय के उदय से जो मोह पाय-विपाकाख्य-संस्थान विचयात्मभिः॥अथवा जिनएवं क्षोभ होता है उसके प्रभाव में जीव का राग- मुख्यानां पंचानां परमेष्ठिनाम् । पृथक् पृयक् तु द्वेषादि विकार से रहित निर्मल परिणाम होता है यद् ध्यानं तालम्बं तदपि स्मृतम् ॥ (भावसं. वाम.
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सालम्बध्यान
११५७, जैन-लक्षणावली
[सासादन
६३८ व ६४३) । ३. सह पालम्बनेन चक्षरादि- वच्च सावधिका । (त. भा. सिद्ध. व. ५-४)। ज्ञानविषयेण प्रतिमादिना वर्तत इति सालम्बनः । श्रत के उपदेश की नित्यता के समान (योगवि. टी. १६)।
विनाश से संयक्त होने पर भी प्रवस्थान के बने १ जिन (अरहन्त)के रूप के चिन्तन को सालम्ब योग रहने से जो प्रवाह रूप से नित्यता है उसे सावधि कहा जाता है। २ प्राज्ञा व अपायविचय प्रादि चार नित्यता कहा जाता है। जैसे -पर्वत, समुद्र और के प्रालम्बन से सहित धर्मध्यान को सालम्ब कहा वलय प्रादि के प्रवस्थान की नित्यता। जाता है। अथवा पांच परमेष्ठियों का जो पृथक सावनसंवत्सर-१. सावन मास स्त्रिशदहोरात्र एव, पथक चिन्तन किया जाता है उसे सालम्बध्यान एष च कर्म मास ऋतुमास श्चोच्यते । एवंविधमाना गया है। ३ जो योग चाक्षष प्रादि ज्ञान की द्वादशमासनिष्पन्नः सावनसंवत्सरः, स चायं त्रीणि विषयभूत प्रतिमा प्रादि के साथ रहता है उसे शतान्यह्रां षष्ठयधिकानि । (३६०)। (त. भा. सालम्बन योग कहते हैं।
सिद्ध. वृ. ४-१५)। २. तथा सवनं कर्मसु प्रेरणं सालम्बन योग-देखो सालम्बध्यान ।
'ष प्रेरणे इति वचनात्, तत्प्रधानः संवत्सरः सवनसावद्ययोग-सर्वशब्देन तत्रान्तर्बहिवर्तिपदार्थतः। संवत्सरः । तथा चोक्तम् -बे नालिया मुहुत्तो सट्ठी प्राणोच्छेदो हि सावा सैव हिंसा प्रकीर्तिता ॥ उण नालिया अहोरत्तो। पन्नरस अहोरत्ता पक्खो योगस्तत्रोपयोगो वा बुद्धिपूर्वः स उच्यते । सूक्ष्म- तीसं दिणा मासो ।। संवच्छरो उ बारस मासा इचाबद्धिपवों यः स स्मतः योग इत्यपि ॥ (लाटीसं. पक्खा य ते चउवीसं। तिन्नेव सया सट्रा हवंति ४, २५०-५१)।
राइंदियाणं तु ।। एसो उ कमो भणियो निग्रमा सावध का प्रथं प्राणविधातरूप हिंसा है, योग का संवच्छरस्स कम्मस्स । कम्मोत्ति सावणोति य उउ. अर्थ है उसमें बुद्धिपूर्वक उपयोग लगाना, सूक्ष्म जो इत्तिय तस्स नामाणि ।। [ज्योतिष्क. ३०-३२] ।। प्रबुद्धिपूर्वक योग होता है उसे भी योग माना गया (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २०, ५७ उद्.) । है । अभिप्राय यह है कि प्राणिहिंसा में बुद्धिपूर्वक या २ जिस वर्ष में प्रमुखता से कर्म को प्रेरणा मिलती अबुद्धिपूर्वक जो उपयोग किया जाता है वह सावद्य- है उसे सावनसंवत्सर कहा जाता है । उसका क्रम योग कहलाता है । सर्वसावध में सर्व शब्द से अन्त- इस प्रकार है--दो नालियों का मुहूर्त, साठ नालियों रंग व बहिरंग सभी पदार्थों की विवक्षा रही है। का दिन-रात, पन्द्रह दिन-रात का पक्ष अथवा सावध वचन- १. जत्तो पाणवधादी दोसा जायंति तीन सौ साठ रात-दिन का संवत्सर होता है । सावज्जवयणं च । अविचारित्ता थेणं थेणत्ति जहेव कर्मसंवत्सर, श्रावण (सावन) संवत्सर और ऋतुमादीयं ।। (भ. प्रा. ८३१)। २. छेदन-भेदन- संवत्सर ये उसके नाम हैं। मारण-कर्षण-वाणिज्य-चौर्यवचनादि । तत्सावा सावित्रसंवत्सर-सूर्यमासस्त्वमवगन्तव्यः--त्रिशद यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते । (पु. सि. ९७)। दिनान्यधं च (३०३) । एवंविधद्वादशमासनि३. प्रारम्भाः सावद्या विचित्रभेदा यतः प्रवर्तन्ते । पन्नः संवत्सर: सावित्रः । स चायं त्रीणिशतान्यह्नां सावद्यमिदं ज्ञेयं वचनं सावध वित्रस्तः ।। (अमित. षटषष्ठयधिकानि (३६६)। (त. भा. सिद्ध. व. श्रा. ६-५३) ।
४-१५)। १ जिस वचन से प्राणिहिंसा प्रादि बहुत से दोष साढ़े तीस (३०१) दिन का सूर्यमास होता है। उत्पन्न होते हैं उसे सावधवचन कहते हैं। जैसे-- इस प्रकार के बारह मासों से एक सावित्रसंवत्सर विना विचारे चौर को चोर कहना, इत्यादि । होता है। (३०३४१२=३६६) । २ जो वचन छेदने, भेदने, मारने, खींचने, व्यापार सासन-देखो सासादन । करने और चोरी करने आदि का सूचक होता है सासादन -१. सम्मत्त-रयणपव्वयसिहारादो मिवह सावधवचन कहलाता है।
च्छभावसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणसावधिनित्यता - श्रुतोपदेशनित्यतावदुत्पत्ति- णामो मुणेयन्वो ॥ (प्रा. पंचसं. १-६; धव. पु. १, प्रलयवत्त्वेऽप्यवस्थानात् पर्वतोदधि-वलयाद्यवस्थान- पृ. १६६ उद्.; गो. जी. २०) । २. उवसमसम्मा
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सासादन]
११५८, जैन-लक्षणावलो
[सांकल्पिकी हिंसा
पडमाणतो उ मिच्छत्तसंकमणकाले । सासायणो १३. असनं क्षेपणं सम्यक्त्वविराधनम्, तेन सह छावलितो भूमिमपतो व पवडतो।। प्रासादेउं व वर्तते यः स सासन इति निरुक्त्या सासन इत्याख्यानं गुलं प्रोहीरतो न सुठ्ठ जा सुयति । सं प्रावं सायंतो यस्यासो सासादनाख्यः, सासनसम्यग्दृष्टिरित्यर्थः । सस्सादो वा वि सासाणो ॥ (बहत्क. १२७-२८)। (गो. जी. म. प्र. १६)। १४, सम्यक्त्वासा ३. यदुदयाभावेऽनन्तानुबन्धिकषायोदयविधेयीकृतः नाम वर्तनं यस्य विद्यते । सासादन इति प्राहुर्मुनयो सासादनसम्यग्दृष्टिः । तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये भाववे दिनः । (भावसं. वाम. २६३) । निवृत्तेऽनन्तानुबन्धिकषायोदय कलुषी कृतान्तरात्मा १ सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर जो जीव सम्य. जीवः सासादनसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते । (त. वा. क्त्वरूप रत्नपर्वत से गिरकर मिथ्यात्व भाव के ६, १, १३)। ४. प्रासादनं सम्यक्त्वविराधनम्, अभिमख हना है उसे सासादनसम्यग्दृष्टि जानना सह प्रासादनेन वर्तत इति ससादनो विनाशि- नाशि।
ना विनाशि- चाहिए। २ जो मिथ्यात्व के संक्रमणकाल में---
जो मिथ्यान्व तसम्यग्दर्शनोऽप्राप्तमिथ्यात्व कर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यात्व के संक्रमण के अभिमुख होकर--उपशममिथ्यात्वाभिमखः सासादन इति भण्यते । (धव. पु. सम्यक्त्व से गिर रहा है वह जघन्य से एक समय १, पृ. १६३)। ५. मिथ्यात्वस्योदयाभावे जीवो. व उत्कर्ष से छह प्रावली काल तक उपरिम स्थान ऽनन्तानुबन्धिनाम् । उदयेनास्तसम्यक्त्वः स्मृतः सा- से गिरकर भमि को न प्राप्त हए प्राणी के समान सादनाभिधः ।। Xxx स्यात् सासादन सम्यक्त्वं अन्तराल में सासादनसम्यग्दृष्टि रहता है। जिस पाकेऽनन्तानुबन्धिनाम् । (त.सा. २-१६ व ६१)। प्रकार कोई मनुष्य गुड़ का स्वाद लेकर कुछ निद्रित ६. परिणामियभावगयं विदियं सासायणं गुणदाणं ।। होता हा अभी पूर्णरूप से नहीं सोया है वह सम्मत्तसिहरपडियं अपत्तमिच्छत्तमितलं ।। (भावसं.
अव्यक्तरूप में उस गड़ का स्वाद लेता रहता है दे. १९७)। ७. आदिमसम्मत्तद्धा समयादो छाव
उसी प्रकार सासादनसम्यग्दष्टि उपशमसम्यक्त्व से लित्ति वा सेसे । प्रणअण्णदरुदयादो णासियसम्मो भ्रष्ट होकर अव्यक्तरूप में उस सम्यक्त्व का स्वाद त्ति सासणक्खो सो।। (गो. जी. १६); ण य लेता रहता है। ४ प्रासादन का अर्थ सम्यक्त्व की मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो य परिवडिदो। विराधना है, इस प्रासादन से जो सहित है उसे सो सासणोत्ति यो पंचमभावेण संजुत्तो।। (गो. जी. सासादन कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि ६५४) । ८. प्राद्यसम्यक्त्वतो भ्रष्टः पाकेऽनन्तानु- जिसका सम्यग्दर्शन तो नष्ट हो गया है, पर अभी बन्धिनाम । मिथ्यादर्शनमप्राप्तः सासनः कथ्यते जो मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न होन वाले प्रतत्वतराम ॥ (पंचसं. प्रमित. १-३०२, पृ. ४०)। श्रद्धानरूप परिणाम को प्राप्त नहीं हमा है ऐसे ६. पाषाणरेखासदशानन्तानुबन्धिक्रोध-मान-माया- मिथ्यात्व के अभिमख हए जीव को सासादन लोभान्यतरोदयेन प्रथममौपशमिकसम्यक्त्वात् पतितो करते हैं। मिथ्यात्वं नाद्यापि गच्छतीत्यन्तरालवर्ती ससादनः ।
सास्वादन-देखो सासादन । (बृ. द्रव्यसं. टी. १३)। १०. प्रासादनं सम्यक्त्व
साहस..... साहसं च पदभतं कर्म वीरकथायां प्रतिविघातनम्, सहासादनेन वर्तते इति सासादनो
पद्यते । (रत्नक. टी. ३-३३) । विनाशितसम्यग्दर्शनः अप्राप्तमिथ्यात्वकोदयजनितपरिणांमः । (मला. १२-१५४)। ११. मिथ्यात्व
पाश्चर्यजनक कार्य का नाम साहस है, जिसकी स्यानुदयेऽनन्तानुबन्ध्युदये सति । सासादनः सम्य- चर्चा वीरकथा में की जाती है। ग्दृष्टि: स्यादुत्कर्षात् षडावली ॥ (योगशा. स्वो. सांकल्पिको हिंसा-सांकल्पिको अमु जन्तुमासा. विव. १-१६, पृ. १११)। १२. त्यक्तसम्यक्त्व- धाथित्वेन हन्मीति सङ्कल्पपूर्विका । (सा. ध. भावस्य मिथ्यात्वाभिमुखस्य च । तथाभ्युदीर्णानन्ता- स्वो. टी. २-८२)। नूबन्धिकस्य शरीरिणः ॥ यः सम्यक्त्वपरीणामः इस प्राणी को पाकर मैं प्रयोजन के वश उसका घात उत्कर्षेण षडावलिः। जघन्यैकसमयस्तत्स्वासादन- करता है, इस प्रकार के संकल्प के साथ जो हिसा मीरितम् ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६०, २-३)। की जाती है उसे सांकल्पिको हिंसा कहते हैं।
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सांतर-निरंतर द्रव्यवर्गणा) ११५६, जैन-लक्षणावलो
[सिद्ध (परमात्मा) सांतर-निरंतर द्रव्यवर्गणानाम-सांतरणिरन्तर- सांशयिकी जिनः ।। (पंचसं. अमित. १, ३०४-५)। दव्ववग्गणत्ति व अधुब-प्रचित्तदव्ववग्गणा ति वा ४. सांशयिक देव-गुरु-धर्मेष्वयमयं वेति संशयमानस्य एगळं। सांतर-णिरंतरदव्ववग्गणा णाम जहण्णाग्रो भवति । (यो. शा. स्वो. विव २-३)। सांतर-णिरंतरदव्ववग्गणामो प्राढवेत्त पतेसुत्तरातो सर्वत्र तत्व में सन्देह ही बना रहना और निश्चय वग्गणातो अणंतातो। (कर्मप्र. च. १, १५-२०, का नहीं होना, इस प्रकार के अभिप्राय को सांशयिकपृ. ४२)।
मिथ्यात्व कहा जाता है । ४. देव, गुरु और धर्म के जघन्य सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा से लेकर प्रदेशा. विषय में जो संशयालु रहता है उसके सांशयिकधिक के क्रम से अनन्त द्रव्यवर्गणाधों का नाम मिथ्यात्व होता है। सान्तर निरन्तरद्रव्यवर्गणा है। सान्तर-निरन्तर- सांसारिक सौख्य-१. कर्मपरवशे सान्ते दुःखेद्रव्यवर्गणा और ध्रुव-प्रचित्त द्रव्यवर्गणा इनका रन्तरितोदये। पापबीजे सुखेऽनास्थाश्रद्धानाकांक्षणा एक हो अर्थ है।
स्मृता ।। (रत्नक. १२) । २. यत्तु सांसारिक सौख्यं सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-१. इंदिय-मणोभवं जं तं रागात्मक मशाश्वतम् । स्व-परद्रव्यसम्भूतं तृष्णासंववहारपच्चक्खं ।। (विशेषा. ६५)। २. सांब्यव. सन्तापकारणम् ॥ मोह-द्रोह-मद-क्रोध माया-लोभहारिक इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् । (लघीय, स्वो. निबन्धनम् । दुःखकारणबन्धस्य हेतुत्बाद् दुःखमेव विव. ४, पृ. ७४) । ३. इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं तत् ॥ (तत्त्वानु. २४३-४४) । ३. इदमस्ति परा. देशत: सांव्यवहारिकम् । (परीक्षा. २-५) । धीनं सुखं बाघापुरस्सरम् । व्युच्छिन्नं बन्धहेतुश्च ४. यदिन्द्रियाणां चक्षुरादीनामनिन्द्रियस्य च मनसः विषम दुःखमर्थतः ।। (पंचाध्या. २-२४५)।
शतो दिशदं विज्ञानं तत सांव्यवहारिकम, १ जो सुख सातावेदनीय प्रादि पूर्णकर्म के प्राधीन गौणप्रत्यक्षमित्यर्थः । (ग्यायकु. ४, पृ. ७५)। है, विनश्वर है, जिसकी उत्पत्ति दुःखों से व्यवहित ५. समीचीनोऽबाधितः प्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणो व्यव- है, तथा जो पाप का कारण है उसे सांसारिक सुख हार: संव्यवहारः, स प्रयोजनमस्येति सांव्यवहारिक समझना चाहिए। ऐसे सुख को सुख न समझकर प्रत्यक्षम् । (प्र. क. मा. २-५, पृ. २२६) । वस्तुत: दुःख ही समझना चाहिए। ६. समीचीन: प्रवृत्तिनिवत्तिरूपो व्यवहारः संव्यव- सिति-सितिनाम ऊर्ध्वमधो वा गच्छत: सुखोत्तहारः, तत्र भव सांव्यवहारिकम् । (प्रमेयर. २-५)। रोवतारहेतुः काष्ठादिमयः पन्थाः। (व्यव. भा. ७. देशतो विशदं सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम्, यज्ज्ञानं ___ मलय. वृ. १०-४०८)। देशतो विशदमीषन्निर्मलं तत्लांव्यवहारिकप्रत्यक्ष- ऊपर अथवा नीचे जाने के लिए जो सुखपूर्वक चढ़ने मित्यर्थः। (न्यायदी. पृ. ३१) । ८. यदिन्द्रिया- उतरने का कारणभत लकड़ी प्रादि से निमित मार्ग निन्द्रियनिमित्तं मतिज्ञानं तत्सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष- (नसनी) है उसका नाम सिति है। मित्युच्यते, देशतो वैशद्यसम्भवात् । (लघीय. अभय. सिद्ध (परमात्मा)---१. णटुट्ठकम्मबंधा अट्टवृ. ३, पृ. ११)।
महागुणसमणिया परमा। लोयग्गदिदा णिच्चा १ इन्द्रिय और मन के प्राश्रय से जो ज्ञान होता है सिद्धा जे एरिसा होति ॥ (नि. सा. ७२) । उसे सांव्यवहारि प्रत्यक्ष कहते हैं।
२. सण-अणतणाणं अणंतवीरियं अणंतसुक्खा य । सांशयिकमिथ्यात्व... १. सव्वत्थ संदेहो चेव, सासयसुक्ख प्रदेहा मुक्का कम्मरधेहिं । णिरुवमणिच्छयो णत्थि ति अहिणिवेसो संसमिच्छत्तं । मचलमखोहा निम्मिवियाजंगमेण रूवेण | सिद्धट्रा(धव. पु. ८, प. २०-२२) । २. कि वा भवेन वा णम्मिठिया वोसरपडिमाधूवा सिद्धा ।। (बोधप्रा. जनो धर्मोऽहिमादिलक्षणः । इति यत्र मतिद्वैधं भवेत १२-१३)। ३. मलरहिनो कलचत्तो अणिदिनो सांशयिकं हि तत् ।। (त. सा. ५-५)। ३. मिथ्या- केवलो विशुद्धप्पा । परमेट्री परमजिणो सिवंकरो त्वभषितस्तत्त्वं नादिष्टं रोचते कुधी:। सदादिष्ट- सासयो सिद्धो ॥ (मोक्षप्रा. ६) । ४. णिद्दड्ढ. मनादिष्टमतत्त्वं रोचते पुनः ॥ जिनेन्द्र भाषितं तत्त्वं अदकम्मा विसयविरत्ता जिदिदिया धीरा । तवकिम् सत्यमतान्यथा । इति द्वयाश्रया दष्टि: प्रोक्तः विणय-सील-सहिदा सिद्धा सिद्धिगदि पत्ता ।। (शील
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सिद्ध (परमात्मा)] ११६०, जैन-लक्षणावली
[सिद्ध (परमात्मा) प्रा. ३५) । ५. अविहकम्म-मुक्के अद्वगुणड्ढे अणो- निरुद्धस्य स्थिति व्योम्नः परामृशन् । शारीर-मानवमे सिद्धे । अदमपूढविणिविटठे णिट्रियकज्जे य साशेषदुःखबन्धनजितः। निर्द्वन्द्वो निष्क्रियः शद्धो वंदिमो णिच्च ।। (सिद्धभ. १)। ६. प्रसरीरा गुणरष्टाभिरन्वितः ॥ अभेद्यसंहतिर्लोकशिखरैकजीवघणा उवउत्ता दसणे य नाणे य । सागारमणा- शिखामणिः । ज्योतिर्मयः परिप्राप्तस्वात्मा सिद्धः गारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ।। (प्रज्ञाप. २, गा. सुखायते ॥ कृतार्था निष्ठिताः सिद्धाः कृतकृत्याः १६०, पृ. १०६; धव. पु. ६, पृ. १० उद्.)। निरामयाः । सूक्ष्मा निरञ्जनाश्चेति पर्यायाः, ७. अट्टविहेण विमुक्का पुत्तयकम्मेण तिहुयणग्गम्मि। सिद्धिमायुषाम् ॥ (म. पु. २१, २०२-६)। १५. चिट्ठन्ति सिद्धकज्जा ते सिद्धा मङ्गलं देन्तु ॥ सिद्धाणि सव्वकज्जाणि जेण णय से प्रसाहियं किंचि। (पउमच. ८६-१९)। ८. अट्ठविहकम्मवियला विज्जासुहइच्छाती तम्हा सिद्धोत्ति से सद्दो॥ दीहणि ट्टियकज्जा पणट्ठसंसारा । दिट्ठसयलट्ठसारा सिद्धा. कालरयं जं तु कम्मं सेसियमट्टहा । सिय धत्तंति सिद्धि मम दिसंतु ।। (ति. प. १-१)। ६. सिद्धा- सिद्धस्स सिद्धत्तमुवजायइ ॥ (सिद्धप्रा. ६-७)। नुद्धुतकर्मप्रकृतिसमुदयान् साधितात्मस्वभावान् x १६. सिद्धा नाम मिथ्यात्वादिपरिणामोपनीतकर्माyxI (स. सिद्धभ. १)। १०. विनष्टकर्मा- ष्टकबन्धनिर्मुक्ताः अजराव्याबाधा: उपमातीतानन्तष्टकलब्धसौख्या लोकान्तमाश्रित्य वसन्ति सिद्धाः॥ सुखा: जाज्वल्यमाननिरावरणज्ञानतनवः पुरुषाकाराः (वरांगच. १०-३३); सर्वकर्मविनिर्मुक्ता: सर्व प्राप्तपरमावस्थाः । (भ. प्रा. विजयो. ३१७) । भावार्थशिनः । सर्वज्ञाः सर्वलोकााः सर्वलोकान- १७. नित्यमपि निरुपलेपः स्वरूपसमवस्थितो धिष्ठिताः ॥ निर्बन्धा निःप्रतीकाराः समसौख्यपरा- निरुपघातः । गगनमिव परमपुरुष: परमपदे स्फुरति यणाः । ये च सर्वोपमातीतास्ते सिद्धाः संप्रकीर्तिताः।। विशदतमः ।। कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकल(वरांगच. २६, १२-१३)। ११. सिद्धास्तु अशेषनि- विषयविषयात्मा । परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमयो ष्ठितकर्मांशाः परमसुखिनः कृतकृत्याः । (प्राव. नि. नन्दति सदैव ।। (पु. सि. २२३-२४) । १८ णटुहरि. व्.१७९) । १२. तहा पहीणजरा-मरणा अवेअ- कम्मबंधो अट्ठगुणट्ठो [ड्ढो] य लोयसिहरत्थो । कम्मकलका पणटुवाबाहा केवलनाण-दसणा सिद्ध- सुद्धो णिच्चो सुहमो झायव्वो सिद्धपरमेट्ठी ॥ (भावपुरनिवासी निरुवमसुहसंगया सव्वहा कयकिच्चा सं. दे. २७६) । १६. णाणसरीरा सिद्धा सव्वुत्तमसिद्धा सरणं । (पंचसू. पृ. ४) । १३. सिद्धाः सुक्खसंपत्ता ॥(कार्तिके. १९८)। २०. अट्टविहकम्मनिष्ठिता: कृतकृत्या: सिद्धसाध्या: नष्टाष्टकर्माणः। रहिए अट्ठगुणसमण्णिदे महावीरे। लोयग्गतिलयभूदे (धव. पु. १, पृ. ४६); णियविविहट्टकम्मा तिहु- सासयसुहसंठिदे सिद्धे ॥ (जं. दी. प. १-२); वणसि रसेहरा विहवदुक्खा। सुहसायरमझगया अटविहकम्ममुक्का परमगदि उत्तम अणुप्पत्ता। णिरंजणा णिच्च अटुगुणा ।। प्रणवज्जा कयकज्जा सिद्धा साधिदकज्जा कम्मविमोक्खे ठिदा मोक्खं ।। सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा । वज्जसिलत्थब्भग्गयपडिमं (जं. दी. प. ११-३६४) । २१. संप्राप्ताष्टगुणा वाऽभेज्जसंठाणा ।। माणुससंठाणा वि हु सव्वाबय- नित्याः कर्माष्टकनिराशि [सि] नः । लोकाग्रवासिनः वेहि णो गुणेहि समा। सबिदियाण विसयं जमेग- सिद्धा भवन्ति निहितापदः ॥ (पंचसं. अमित. देसे विजाणंति ।। (धव. पु. १, पृ. ४८ उद्.); १-५१)। २२. विभिद्यकर्माष्टकशृखलां ये गुणाष्टअविहकम्मविजुदा सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। कैश्वर्यमुपेत्य पूतम् । प्राप्तास्त्रिलोकानशिखामणित्वं अट्रगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा। भवन्तु सिद्धा मम सिद्धये ते ।। (अमित. श्रा. १-२)। (धव. पु. १, पृ. २ ० उद्; गो. जी. ६८; धम्म- २३. जर-मरणजम्मरहियो कम्मविहीणो विमुक्कर. १६१); सिद्धाण मिच्छत्तासजम कषायजोग- वावारो। च उगइगमणागमणो णिरंजणो णिरुवमो कम्मासवविरहियाणं XXX । (धव. पु. ४. पृ. सिद्धो ।। (जा. सा. ३२-३३)। २४. येषां वर्णो ४७७) । १४. निष्कर्मा विधुताशेषसांसारिकसुखा- न गन्धो रस गुरुलघुता स्पर्श-शब्दादयो न, प्रध्वंसासुखः । चरमाङ्गात् किमप्यूनपरिमाणस्तदाकृतिः ॥ तिज्वरेच्छा भव-मरण-जरातङ्कगत्यादयो वा । यनिअमूर्तोऽप्ययमन्त्याङ्गसमाकारोपलक्षणात् । मूषागर्भ- र्मूलेन धीरैर्बहुविधरिपवो युद्धनि शितास्ते सिद्धाः
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सिद्धजीव]
सम्बुद्धबोध्या बुधसमितिनुक्तः पान्तु पापान्नतान् नः । ( प्रद्युम्न. १४ - ६३ ) । २५ णिक्कम्मा श्रट्टगुणा किचुणा चरमदेहदो सिद्धा । लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पाद-वयेहि संजुत्ता ।। णटुकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणो दट्ठा। पुरिसायारो अप्पा सिद्धो ज्झाएह लोयसिहरत्थो ।। (द्रव्यसं. १४ व ५१ ) । २६. णिद्धोयसव्वकम्म-मलत्ताउ संमत्त - णाण चारित तवलक्खणेण पुरिसक्कारेण णिरवसेसं णिद्वय प्रदुविहकम्म मलकलंक बारसविहेण तवप्पयावग्गिणा डहित्त् जाइकणगं वदेदिप्यमाणो लद्वपयासो कर किच्चयं पत्तो ततो सिद्ध सिद्धत्यसुतो संजाउत्ति । ( कर्मप्र. चू. १) । २७. सिद्धः सकलकर्मविप्रमुक्तः । ( समाधि. टी. १) । २८. सिध्यति स्म कृतकृत्योऽभवत् सेधति स्म वा गच्छत् प्रपुनरावृत्त्या लोकाग्रमिति सिद्धः, सितं वा बद्धं कर्म हमातं दग्धं यस्य स सिद्धः कर्म्म प्रपञ्चनिर्मुक्तः । ( स्थाना. अभय वृ. ४६ ) । २६. कम्मसुद्धा सरीरागंत सोक्खणाणड्ढा । परमपहृत्तं पत्ता जे ते सिद्धा हु खलु मुक्का || ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. १०७ ) । ३०. अपगतसकलकर्माशाः परमसुखिन एकान्तकृतकृत्याः सिद्धाः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १७६ ) । ३१. प्राप्य द्रव्यादिसामग्री भस्मसात्कुरुते स्वयम् । कर्मेन्धनानि सर्वाणि तस्मात् सिद्ध इति स्मृतः ॥ ( भावसं वाम. ३५१) । ३२. सिद्धः कर्माष्ट निर्मुक्तः सम्यक्त्वाद्यष्ट सद्गुणः । जगत्पुरुषमूर्द्धस्थः सदानन्दो निरञ्जनः ।। ( धर्मसं. श्री. १० - ११५ ) । ३३. सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिर्येषां ते सिद्धाः सम्यक्त्त्राद्यष्टगुणोपेता वाऽनन्तानन्तगुण विराजमाना लोकाग्रनिवासिनश्च । ( कार्तिके. टी. १६२ ) । ३४ मूर्तिमद्देहनिर्मुक्तो लोके लोकाग्रसंस्थितः । ज्ञानाद्यष्टगुणोपेतो निष्कर्मा सिद्धसंज्ञकः ॥ ( लाटीसं. ४-१३०; पंचाध्या. २ - ६०८ ) ।
१ जो प्राठ कर्मों के बन्धन से मुक्त होकर प्राठ गुणों से सम्पन्न होते हुए लोक के प्रप्रभाग ( सिद्धालय) में स्थित हो चुके हैं व सदा वहीं उसी प्रकार सेस्थित रहने वाले हैं उन्हें सिद्ध जीव कहा जाता है । ६ जो पुद्गलमय शरीर से रहित होकर मुख व उदर प्रादि के रिक्त स्थानों के पूर्ण हो जाने से विशुद्ध ज्ञानमय जीवप्रदेशों से सघन हुए हैं तथा
ल. १४६
११६१ जैन - लक्षणावली
| सिद्धगति
ज्ञान व दर्शन में उपयुक्त हैं वे सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। यह सिद्ध जीवों का लक्षण है । सिद्ध ( प्रभावक पुरुष ) - प्रञ्जन - पादलेप - तिलकगुटिका - सकलभूताकर्षण निष्कर्षण क्रियत्वप्रभृतयः सिद्धयः, ताभिः सिद्धयति स्म सिद्धः । (योगशा स्वो विव. २ - १६) |
अंजन व पादलेप यादि सिद्धियों से जो सिद्धि को प्राप्त हुआ है उसे सिद्धपुरुष कहा जाता है। ऐसे पुरुष जिन शासन को प्रभावना में समर्थ होते हैं 1 सिद्ध ( प्रमाणप्रतिपन्न ) - संशया दिव्यवच्छेदेन हि प्रतिपन्नमर्थस्वरूपं सिद्धमुच्यते । प्र. क. मा. ३-२०, पृ. ३६९ ) ।
जिस पदार्थ का स्वरूप संशय श्रादि को दूर कर किसी अन्य प्रमाण से जाना जा चुका है उसे सिद्ध कहते हैं। ऐसा सिद्ध पदार्थ अनुमान के द्वारा सिद्ध करने के लिए योग्य होता है ।
सिद्ध केवलज्ञान - यत् ( केवलज्ञानम् ) पुनरशेषेषु कर्मागतेषु सिद्धत्वावस्थायां तत् सिद्ध केवलज्ञानम् । (ग्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ ८३) । जो केवलज्ञान समस्त कर्मों के क्षीण हो जाने पर सिद्धत्व अवस्था में विद्यमान रहता है उसे सिद्धकेवलज्ञान कहा जाता है। सिद्धगति - १. जाइ जरा मरण भया संजोयविनोय- दुक्खसण्णा । रोगादिगा य जिस्से ण संति सा होदि सिद्धगई ।। (प्रा. पंचसं. १-६४; घव. पु. १, पृ २०४ उद्.; गो. जी. १५२) । २. सिद्धिः स्वरूपोपलब्धिः सकलगुणैः स्वरूपनिष्ठा, सा एव गतिः सिद्धिगतिः । (धव. पु. १, पृ. २०३ ) ; गदिकम्मोदयाभावा सिद्धगदी अगदी । अथवा भवाद् भवसंक्रान्तिर्गतिः, असंक्रान्तिः सिद्धगतिः । ( धव. पु. ७. पू. ६) । ३. जन्म-मृत्यु - जरा रा [रो]ग-संयोग-विगमादयः । न यस्यां जातु जायन्ते सा सैद्धा गदिता गतिः । ( पंचसं प्रमित. १ - १४१) । ४. अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख वीर्यादिस्वस्वभावगुणोपलधिरूपाया सिद्धेर्गतिः प्राप्तिः जीवस्य भवतिं, 'परमप्रकर्ष प्राप्त रत्नत्रयपरिणत शुक्लध्यान विशेष संपादितपरमसंवर- निर्जराभ्यां सकलकर्मक्षयादात्मनो मुक्तव्यपदेशभाजः स्वाभाविकोर्ध्वगमन सद्भावाल्लोकाग्रसिद्धपरमेष्ठिपर्यायरूप सिद्धगतिर्भवतीत्य
प्राप्तस्य
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सिद्धत्व]
११६२, जैन-लक्षणावली
[सिद्धि
र्थः । (गो. जी. म. प्र. १५२); रोगादिविविध- १प्रात्मा का जो स्वाभाविक सुख शाश्वतिक, बाधा वेदनाश्च यस्यां न सन्ति सा कृत्स्नकर्मविप्रमोक्ष- से रहित और उपमा से रहित (अनुपम) है प्रादुर्भूतसिद्धत्वपर्यायलक्षणा सिद्धगतिः । (गो. जी. उसे सिद्धों का सुख कहा गया है। जी. प्र. १५२)।
सिद्धावणंवाद-१. स्त्री-वस्त्र-गन्ध-माल्यालंका१ जीव की जिस अवस्था में जन्म, जरा, मरण, रादिविरहितानां सिद्धानां सूखं न किञ्चिदतीन्द्रिभय, सयोग, वियोग, दुःख एवं प्राहारादि संज्ञाय याणां तेषां समधिगती न निबन्धनमस्ति किञ्चिऔर रोग आदि सम्भव नहीं हैं उसे सिद्धगति कहा दिति सिद्धावर्णवादः । (भ. प्रा. विजयो. ४७)। जाता है। २ गति नामकर्म का प्रभाव होने पर जो २. सिद्धानां सुखं न किचिदस्ति, तत्कारणकामिभवान्तर का संक्रमण रुक जाता है, इसी का नाम न्यादीनामभावात् । सतोऽपि वा सुखस्य तेषां नानुसिद्धगति है।
भवस्त निमित्तानामिन्द्रियाणामतीन्द्रियतया तत्राससिद्धत्व-१. दीहकालरयं जंतु कम्म सेसिन त्वादित्यादिः सिद्धानाम (अवर्णवादः)। (भ. प्रा. महा । सिग्रं धतंति सिद्धस्स सिद्धत्तमवजाय॥ मला. ४७) । (प्राव. नि. हरि. व. ९५३) । २. सिद्धत्वं कृत्स्न- १ स्त्री, वस्त्र, गन्धमाल्य और अलंकार प्रादि से कर्मभ्यः सोऽवस्थान्तरं पृथक् । ज्ञान-दर्शन-सम्यक्त्व- रहित सिद्धों के कुछ भी सुख नहीं है तथा इन्द्रियों वीर्याद्यष्टगुणात्मकम् ।। (पंचाध्या. २-११३६)। से रहित हुए उनके जानने का भी कोई कारण १ अनादि परम्परा की अपेक्षा जिसका स्थितिबन्ध- नहीं है, इस प्रकार के कथन को सिद्धों का प्रवर्णकाल दीर्घ रहा है उस पाठ प्रकार के बद्ध कर्म को वाद कहा जाता है। शेषित किया---प्रल्प किया, तत्पश्चात उसे दग्ध सिद्धि---१. सिद्धिः स्त्रात्मोपलब्धि: प्रगुणगुणकर देने पर मुक्ति को प्राप्त हुए सिद्ध जीव के गणोच्छादिदोषापहाराद् योग्योपादानयुक्त्या दृषद् सिद्धत्वभाव प्रगट होता है। २ समस्त कर्मों से इह यथा हेमभावोपलब्धिः । (सं. सिद्ध भ. १)। रहित होने पर जो जीव की ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व २. सिद्धिः प्रविप्रतिपत्तिः अव्युत्पत्ति-संशय-विपर्यासऔर वीर्य प्रादिगणों स्वरूप पथक अवस्था प्रादुर्भत लक्षणाज्ञाननिवत्तिः प्रमितिः । (सिद्धिवि. स्वो. वि. होती है उसका नाम सिद्धत्व है।
१-२३, पृ. ६६) । ३. सिध्यन्ति निष्ठिता सिद्धवर्णजनन-१. अनन्तज्ञानात्मकेन सुखेन संतृप्ता भवन्त्यस्यां प्राणिन इति सिद्धिः लोकान्तक्षेत्रलक्षणा। सिद्धा इति तन्माहात्म्यकथनं सिद्धानां वर्णजननम्। ललितवि. प. ६५)। ४. सिद्धिस्तत्तद्धर्मस्थाना(भ. प्रा. विजयो. ४७)। २. परमतप्रसिद्धान वाप्तिरिह तात्त्विकी ज्ञेया। (षोडशक. ३-१०)। सिद्धानपोह्य जिनमतेन तत्स्वरूपनिरूपणं सिद्धानां ५. सव्वं परत्थसाहगरूवं पूण होइ सिद्धित्ति ।। वर्णजननम् । (भ. प्रा. मूला. ४७)।
(योगवि. ६) । ६. सिद्धिः प्रश्शेषकर्मच्युतिलक्षणा । १ सिद्ध जीव अनन्त ज्ञानस्वरूप सुख से सन्तुष्ट होते (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ५, २५, पृ. १३०) । हैं, इस प्रकार से सिद्धों के माहात्म्य को प्रगट ७. सिध्यन्ति कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः, करना, इसे सिद्धों का वर्णजनन कहते हैं । २ अन्य ईषत्प्रागभाराऽपि सिद्धिः व्यपदिश्यते अथवा कृतसम्प्रदायों में प्रसिद्ध सिद्धों का निराकरण करके कृत्यत्वं लोकाग्रयमणिमादिका वा सिद्धिः । (स्थाना जिनमत के अनुसार उनके स्वरूप के निरूपण को प्रभय. वृ. ४६) । ८. सिद्धिः अनन्तज्ञानादिस्वरूपोसिद्धों का वर्णजनन कहा जाता है।
पलब्धिः । (गो. जी. म. प्र. ६८)। ६. सिद्धिः सिद्धसौख्य-१. ध्रुवं परमनाबाघमपमानविजि- स्वात्मोपलब्धिःXxx । (कातिके. टी. १६२) । तम् । अात्मस्वाभाविकं सौख्यं सिद्धानां परिकीति- १ उत्तमोत्तम गुणों के समूह को नष्ट करने वाले तम् ।। (पद्मपु. १०५-१८०) । २. ण वि अथि दोषों के दूर होने से जो पाषाण की सुवर्णरूपता के माणुसाणं पादसमुत्थं चिय विष [स]यातीदं। समान अपने प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति होती है उसे अव्वुच्छिण्णं च सुहं अणोवमं जं च सिद्धाणं ॥ सिद्धि कहते हैं। २ अनध्यवसाय, संशय और (धम्मर. १६०)।
विपर्ययरूप प्रज्ञान की निवृत्तिस्वरूप प्रमिति को
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सीमविस्मृति)
सिद्धि कहा जाता है । ३ जिसमें जीव निष्ठितार्थ ( कृतकृत्य ) होते हैं उसका नाम सिद्धि है। वह लोक के प्रभाग (सिद्धालय ) स्वरूप है । ५ स्थान व ऊर्ण आदि योगविशेषों में विवक्षित योगविशेष से युक्त योगी के समीपवर्ती दूसरों के भी हित की जो साधक होती है, इसे सिद्धि कहते हैं । सीम विस्मृति - देखो स्मृत्यन्तर्धान । सीमविस्मृतिः नियमित मर्यादाया अज्ञानतो मत्यपाटव- सन्देहादिना प्रमादाद्वाऽतिव्याकुलत्वान्यमनस्कत्वादिना स्मृतिभ्रंशः । तथा हि- केनचित् पूर्वस्यां दिशि योजनशतरूपं प्रमाणं कृतमासीत्, गमनकाले च स्पष्टतया न स्मरति किं शतं परिमाणं कृतमुत पञ्चाशत् तस्य चैव पञ्चाशतमतिक्रामतोऽतिचारः शतमतिक्रामतो भङ्गः, सापेक्षत्व-निरपेक्षत्वाच्चेति प्रथमोऽतिचारः । (सा. घ. स्वो टी. ५-५) ।
दिग्व्रत में जो मर्यादा की गई है, उसका प्रज्ञानता, बुद्धि की पटुता और सन्देह श्रादि के कारण ग्रथवा प्रमाद के वश प्रतिशय व्याकुल होने से, श्रथवा अन्यमनस्क होने श्रादि से स्मरण न रहना; इसे स्मृतिभ्रंश कहा जाता है । जैसे किसी ने पूर्वदिशा में सौ योजन का प्रमाण किया, पर जाने के समय वह यह स्मरण नहीं करता कि सौ योजन की मर्यादा की गई है या पचास योजन की । ऐसी स्थिति में यदि वह पचास योजन का प्रतिक्रमण करता है तो यह सीमविस्मृति नामक प्रतिचार होगा । पर यदि वह सौ योजन का प्रतिक्रमण करता है तो उसका वह व्रत ही भंग होगा । इसका कारण सापेक्षता और निरपेक्षता है ।
सुख - १. सुखमिन्द्रियार्थानुभव: । ( स. सि. ४, २०); सदसद्वेद्योदयेऽन्तरङ्गहेतो सति बाह्यद्रव्यादि परिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमानः प्रीति- परितापरूपः परिणामः सुख-दुःखमित्याख्यायते । ( स. सि. ५, २०) । २. सद्योदये सति इष्टविषयानुभवनं सुखम् । सद्योदयमूल हेतौ सति बाह्यस्येष्टविषयस्योपनिपाते तद्विषयमनुभवनं सुखमिति कथ्यते । (त. वा. ४, २०, ३); बाह्यप्रत्ययवशाद् सद्वेद्योदयादात्मनः प्रसादः सुखम्, यदात्मस्थं सद्वेद्यं कर्म द्रव्यादिबाह्यप्रत्ययवशात् परिपाकमुपयाति तदात्मनः प्रसादः प्रीतिरूपः सुखमित्याख्यायते । (त. वा. ५, २०. १) । ३. दुक्खुवसमो सुहं णाम । ( धव. पु.
११६३, जैन-लक्षणावली
[सुखानुबन्ध
(१३, पृ. २०८ ); इत्थसमागमो प्रणिट्ठत्थविप्रोगो च सुहं णाम । (घव. पु. १३, पृ. ३३४) : तस्स ( दुक्खस्स ) उवसमो तदणुपपत्ती वा दुक्खुवसम हे उदन्वादिसंपत्ती वा सुहंणाम । ( धव. पु. १५, पृ. ६ ) । ४. जीवस्य आह्लादन हेतुर्द्रव्यं सुखम्, यथा क्षुत्तृडार्त्तस्य मृष्टोदन - शीतोदके । ( जयघ. १, पृ. २७१) । ५. सद्योदये सतीष्टविषयानुभवनं सुखम् । ( त श्लो. ४ - २० ) । ६ XXX तत्सुखं यत्र नासुखम् । ( श्रात्मानु. ४६; उपासका २९१ ) । ७ सुखं प्रीतिः । ( नीतिवा. ६-१३ ) । ८. जं णोकसाय विग्धचउक्काण बलेण सादपहुदीणं । सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोसं हवे सोक्खं ॥ ( ल. सा. ६१५) । ६. परमतृप्तिरूपमनाकुलत्वलक्षणं सुखम् । ( प्रव. सा. जय. वृ. १- ६८ ) । १० इन्द्रियविषयानुभवनं सुखम् । (त. वृत्ति श्रुत. ४ -२० ) । ११ तथा च हारीत: - मनसश्चेन्द्रियाणां च यत्रानन्दः प्रजायते । दृष्टे वा भक्षिते वापि तत् सुखं सम्प्रकीर्तितम् ॥ ( नीतिवा. टी. ६-१३ ) ।
१ इन्द्रियविषयों के अनुभव का नाम सुख है । सातावेदनीय के उदयरूप अन्तरंग हेतु के होने पर बाह्य द्रव्य आदि के परिपाक के निमित्तवश जो प्रीतिरूप परिणाम उत्पन्न होता है उसे सुख कहते हैं । ६ सुख उसे कहना चाहिए जिसमें दुःख का लेश न हो ।
सुख-दुःखोपसम्पत् - देखो सुखासुखसंश्रय | सुहदुक्खे उवयारो वसही प्राहार- भेसजादीहि । तुम्हं श्रहं ति वयणं सुह- दुक्खुवसंपया या ।। (मूला. ४.२२ ।। सुख या दुःख के समय मैं वसति श्राहार और प्रौषधि श्रादि के द्वारा उपकार करना तथा 'प्रापके लिए मैं हूं- मैं प्रापको सब प्रकार से सेवा करूंगा' इस प्रकार कहना, इसे सुख-दुःखोपसंपत् जानना चाहिए । सुखानुबन्ध १. अनुभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्ध: । ( स. सि. ७-३७ त श्लो. ७ - ३७ ) । २. अनुभूत प्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्धः । एवं मया भुक्तं शयितं क्रीडितमित्येवमादिप्रीतिविशेषं प्रति स्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्ध इत्यभिधीयते । (त. वा. ७, ३७, ५) । ३. प्रनुभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमाहरणं चेतसि सुखानुबन्धः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७ - ३२ ) । ४. एवं मया भुक्तं शयितं क्रीडितमित्येवमादिप्रीतिविशेषं प्रति स्मृति
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सुखासुखसश्रय] ११६४, जैन-लक्षणावली
[सुमति समन्वाहारः सुखानुवन्धः । (चा. सा. पृ. २४; सा. गर्भस्थे भगवति जनन्यपि सुपाङ जातेति सुपाघ. स्वो. टी. ८-४५)। ५. दोषः सुखानुबन्धाख्यः वः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । यथात्रास्मीह दुःखवान् । मृत्वापि व्रतमाहात्म्याद् पार्श्वभागों के सुन्दर होने तथा भगवान के गर्भ में भविष्येऽहं सुखी क्वचित् ।। (लाटीसं. ६-२४१)। स्थित होने पर माता के भी सुन्दर पार्श्वभागों से १ पूर्व में अनुभव में पाए हुए विषयों के अनुराग संयुक्त होने के कारण सातवें तीर्थंकर 'सुपाश्र्व' नाम का बार-बार स्मरण करना, इसका नाम सुखानु. से प्रसिद्ध हुए। बन्ध है।
सुभगनाम-१. यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत्सुभगसुखासुखसंश्रय --देखो सुखदुःखोपसम्पत् । चौर. नाम । (स. सि. ८-११; त. इलो ८-११) । कर-गदोर्वीशपीडिताद्यतिवतिनाम् । तोषोत्कर्षण- २. सौभाग्यनिर्वर्तकं सभगं नाम। (त. भा. ८, माहार-भेषजायतनादिभिः ।। स्वात्मार्पणमहं तुभ्य. १२) । ३. यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत् सुभगनाम । मस्मीति च सुखेऽसुखे । यत्तच्चित्तप्रसादार्थ तत्सुखा- यदुदयात् रूपवानरूपो वा अन्येषां प्रीति जनयति सुखसश्रयः ।। (प्राचा. सा. २, २२-२३)। तत् सुभगनाम । (त. वा. ८, ११, २३) । ४. चोर, दुष्ट, रोग और राजा प्रादि के द्वारा पीडित सुभगनाम यदुदयात्काम्यो भवति । (श्रा. प्र. टी. होकर दुःख का अनुभव करने वालों को प्राहार- २३)। ५. स्थी-पुरिसाणं सोहग्गणिवत्तयं सुभगं पोषष और स्थान प्रादि के द्वारा सन्तुष्ट करने णाम । (धव. पु. ६, पृ. ६५); जस्स कम्मस्सुदएण तथा यह कहने कि मैं आपके लिए अपने को सम- जीवस्स सोहग्गं होदि तं सुहगणामं । (धव. पु. १३, पित करता हूं; इसे सुखासुखसश्रय कहा जाता है। पृ. ३६३)। ६. यदुदयात् स्त्री पुंसयोरन्योन्यप्रीतिसुगत--१. केवलज्ञानशब्दवाच्यं गतं ज्ञानं यस्य स प्रभवं सौभाग्यं भवति तत्सुभगनाम । (मूला. वृ. सुगतः, अथवा शोभनमविनश्वरं मुक्तिपदं गतः १२-१९६)। ७. यदुदयवशादनुपकृदपि सर्वस्य सुगतः। (ब. द्रव्यसं. टी. १४, पृ. ४०-४१)। मनःप्रियो भवति तत्सभगनाम । (प्रज्ञाप. मलय. व. २. सर्वद्वन्द्व विनिर्मुक्तं स्थानमात्मस्वमावजम् । प्राप्तं २६३, पृ. ४७४) । ८. परप्रीतिप्रभवफलं सुभगाख्यं परमनिर्वाणं येनासौ सुगतः स्मृतः ।। (प्राप्तस्व. नाम । (भ. प्रा. मूला. २१२१) । ६. यदुदयादन्य
प्रीतिप्रभवः तत्सुभगनाम । (गो. क. जी. प्र. ३३)। १ जिसके केवलज्ञान शब्द के द्वारा कहा जाने वाला १०. यदुदयेन जीवः परप्रीतिजनको भवति दृष्टः गत (ज्ञान) विद्यमान है उसे सुगत कहा जाता है, श्रुतो वा तत्सुभगनाम । (त. वृत्ति श्रृत. ८-११)। अथवा जो सुन्दर व अविनश्वर मुक्ति पद को १ जिस कर्म के उदय से जीव दूसरों की प्रीति का प्राप्त कर चुका है उसे सुगत जानना चाहिए। कारण होता है उसे सुभग नामकर्म कहते हैं।
र-१. अधिकप्रतिरूपग्रीवोरस्काः श्या- २ जो कर्म सौभाग्य को उत्पन्न करता है वह सुभग मावदाता गरुड़चिह्नाः सुपर्णकुमाराः। (त. भा. नामकर्म कहलाता है। ७ जिसके उदय से अनुप४-११)। २. सुपर्णा नाम शुभपक्षाकारविकरण- कारी भी सबके मन को प्रिय होता है उसे सुभग प्रियाः। (धव. पु. १३, पृ. ३६१)। ३. सुष्ठु नामकर्म कहा जाता है। शोभनानि पर्णानि पक्षाः येषां ते सुपर्णाः, सुपर्णाश्च सुभिक्ष-सालि-ब्रीहि जव-गोधूमादिधण्णाणं सुलते कुमारा: सुपर्णकुमाराः। (त. वृत्ति श्रुत. ४.१०), हत्तं सुभिक्खं णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३३६)। १ जिनकी प्रीवा और वक्षस्थल अतिशय सुन्दर होते सालि, व्रीहि, जौ और गेहू प्रादि का सरलता . हैं, वर्ण से जो श्याम व निर्मल होते हैं, तथा चिह्न प्राप्त हो जाना, इसका नाम सुभिक्ष है। जिनका गरुड़ होता है; वे सुपर्णकुमार (भवनवासी सुमति-सु शोभना मतिरस्येति सुमतिः तथा देवविशेष) कहलाते हैं। २ जो उत्तम पार्श्वभागों के गर्भस्थ जनन्याः सुनिश्चिता मतिरभदिति समतिः । प्राकार में विक्रिया किया करते हैं उन्हें सुपर्णकुमार (योगशा. स्वो. विव. ३--२४) । कहा जाता है।
जो निर्मल बुद्धि के धारक थे तथा जिनके गर्भ में सुपार्श्व-शोभनाः पार्श्वः अस्येति सुपावः, तथा स्थित होने पर माता के प्रतिशय निश्चित मति
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सुर] ११६५, जन-लक्षणावली
[सुषमा उत्पन्न हुई वे (पांचवें तीर्थकर) नाम से सुमति होदि ।। तक्काले ते मणुप्रा प्रामलकपमाणमाहारं । कहलाए।
भुति दिणंतरिया समचउरस्संग-संठाणा ॥ (ति. सुर--अहिंसाद्यनुष्ठानरतयः सुरा नाम । (धव. पु. प. ४, ४०३-६) । २. दो सागरोवमकोडाकोडीश्री १३, पृ. ३६१)।
कालो सुसमदुममा । (भगवती ६, ७, ५)। जो अहिंसा प्रादि के अनुष्ठान में अनुराग रखते हैं वे १ सुषम-दुषमा काल के प्रारम्भ में मनुष्यों के सुर कहलाते हैं।
शरीर की ऊचाई दो हजार धनुष, प्रायु एक सरभिगन्धनाम--१. जस्स कम्मस्स उदएण सरी- पल्योपम प्रमाण तथा वर्ण पियंग फल के समान
| सुअंधा होति तं सुरहिगंध णाम । (धव. होता है। उनकी पीठ की हड्डियां चौंसठ होती हैं। पु. ६, पृ ७५) । २. यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन उस समय में स्त्री अप्सरा के समान और पुरुष शरीरपुद्गलाः सुरभिगन्धयुक्ता भवन्ति तत्सरभि- देव के समान होता है। इस काल में वे मनुष्य गन्धनाम । (मूला. वृ. १२-१९४) । ३. यदुदया- आँवल के बराबर भोजन एक दिन के अन्तर से ज्जन्तुशरीरेषु सुरभिगन्ध उपजायते तत्सुरभिगन्ध- करते हैं, श्राकार उनका समचतुरस्रसंस्थान जैसा नाम । (प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. ४७३)। होता है। इस काल का प्रमाण दो कोडाकोडी १ जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल उत्तम सागरोपम है। गन्ध से युक्त होते हैं उसे सुरभिगन्ध नामकर्म कहा सुषम-सुषमा-१. xxx तेसु पढमम्मि । जाता है।
चत्तारिसायरोवमकोडाकोडीग्रो परिमाणं ।। (ति. सुरेन्द्रताक्रिया-या सुरेन्द्रपदप्राप्तिः पारिब्रज्य- प. ४-३१७); सुसम-सुसमम्मि काले भूमी रजफलोदयात् । सैषा सुरेन्द्रता नाम क्रिया प्रागनु- धूम-जलण-हिमरहिदा। कंटय-अब्भसिलाई-विच्छीवणिता ।। (म. पु. ३६-२०२) ।
पादिकीडोवसग्गपरिचत्ता । णिम्मलदप्पणसरिसा पारिवज्य के फलस्वरूप जो इन्द्रपद की प्राप्ति णिदिददव्वे हि विरहिदा तीए । सिकदा हवेदि दिव्वा होती है, यह सुरेन्द्रताक्रिया कहलाती है। तणु-मण-णयणाण सहजणणी ॥ (ति. प. ४, सुललित दोष-द्वात्रिंशो वन्दने गीत्या दोषः ३२०-२१) । २. एएणं सागरोवमपमाणेणं चत्तारि सुललिताह्वयः । (अन. घ. ८-१११)। सागरोवमकोडाकोडीप्रो कालो सुसम-सुसमा । गान के साथ-पंचम स्वर से-वन्दना करने पर (भगवती ६, ७,५)। सुललित नाम का दोष होता है। यह ३२ वन्दना- १ सुषम-सुषमा काल में पृथिवी धूलि, धुम्रा, दोषों में अन्तिम है।
अग्नि, वर्फ, कांटे, प्रोले और वीछू प्रादि जन्तुओं सविधि-शोभनो विधिः सर्वत्र कौशलमस्येति के उपद्रव रहित होती हई दर्पण के समान निर्मल सविधिः, तथा गर्भस्थे भगवति जनन्यप्येवमिति होती है। उस समय पथिवी के ऊपर कोई भी सविधिः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । निन्दित द्रव्य नहीं पाये जाते । वहां की दिव्य बालु तीर्थकर पुष्पदन्त की विधि-सर्वत्र कुशलता-- शरीर, मन और नेत्रों को सुखप्रद होती है। इस सुन्दर या उत्कृष्ट थी, तथा गर्भ में स्थित रहने काल का प्रमाण चार कोडाकोडी सागरोपम है। पर माता की भी कुशलता इसी प्रकार की रही है, सषमा-१. सुसमम्मि तिणि जलहीउवमाणं होंति इसी से वे 'सविधि' इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हए। कोडकोडीयो। (ति. प. ४-३१८); सुसमस्सासुषम-दुषमा- १. दोण्णि तदियम्मि xxx ॥ दिम्मि णराणुच्छेहो चउसहस्सचावाणि। दोपल्ल(ति. प. ४-३१८); उच्छेहपहुदिखीणे पविसेदि हु पमाणाऊ संपुण्णमियंक सरिसपहा ॥ अट्ठावीसुत्तरसुसम-दुस्समो कालो। तस्स पमाणं सायरउवमाणं सयमट्ठी पुट्ठीय होंति एदाणं । अच्छरसरिसा इत्थी दोणि कोडीग्रो ।। तकालादिम्मि णराणुच्छेहो दो- सिदससरिच्छा णरा होंति ॥ तस्सि काले मणुवा सहस्सचावाणि । एक्क-पलिदोवमाऊ पियंगुसारिच्छ- अक्खप्फलसरिसममिदनाहारं । भुंजति छट्ठभत्ते समवण्णधरा ॥ चउसट्ठी पुट्ठोए णराण णारीण होंति चउरस्संगसंठाणा ॥ (ति. प. ४, ३६६-६८)। अट्री वि। अच्छरसरिसा णारी अमरसमाणो णरो २. तिण्णिसायरोवम-कोडाकोडोयो कालो ससमा ।
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सुषमा] ११६६, जैन-लक्षणावली
[सूक्ष्म (पुद्गल) (भगवती ६, ७, ५)।
६, पृ. ६५); जस्स कम्मस्सुदएण कण्णसु हो सरो १ सुषमा काल के प्रारम्भ में मनुष्यों के शरीर की होदि तं सुस्सरणामं । (धव. पु. १३, पृ. ३३६) । ऊंचाई चार हजार धनुष, प्रायु दो पल्य प्रमाण तथा ७. येन शब्देनोच्चरितेनाकणितेन च भूयसी प्रीतिशरीर की कान्ति पूर्ण चन्द्र के समान होती है। रुत्पद्यते तत् सुस्वरनाम । (त. भा. सिद्ध. वृ. ८,
की पीठ की हड़ियां एक सौ अट्राईस होती हैं। १२)। ८. सुसरकम्मदएणं सुसरस हो य होइ इह स्त्रियां अप्सरानों जैसी सुन्दर और पुरुष देवों के जीवो। (कर्मवि. ग. १४५)। ६. यस्योदयात्सु. समान होते हैं। इस काल में मनुष्य षष्ठ भक्त में-- स्वरत्वं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं भवति तत्सस्वरनाम । दो दिन के अन्तर से -- अक्षफल (बहेड़ा) के बरा- (मूला. वृ. १२-१६६) । १०. यदुदयवशाज्जीवस्य बर पाहार को ग्रहण करते हैं। शरीर का प्राकार ___ स्वरः श्रोतृणां प्रीतिहेतुरुपजायते तत्सुस्वरनाम । उनका समचतुरस्रसंस्थान जैसा होता है । इस काल (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३. पृ. ४७४) । ११. मनोका प्रमाण तीन कोडाकोडी सागरोपम है। ज्ञस्वरनिवर्तकं सुस्वरनाम । (भ. प्रा. मला. सुषिर-देखो सोषिर । १. सुसिरो णाम वस- २१२४) । १२. यस्मान्निमित्तात् मनोज्ञस्वरनिर्वसंख-काहलादिजणिदो (सद्दो)। (धव. पु. १३, पृ. र्तनं भवति तत्सुस्वरनाम । (गो. क. जी. प्र. ३३)। २२१)। २. सुषिरः शब्दः कम्बु-बेणु-भंभा-काहला- १३. यदुदयेन चित्तानुरंजकस्वर उत्पद्यते तत्सुस्वरदिप्रभवः सुषिर उच्यते । (त. वत्ति श्रुत.५-२४)। नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) । १ बांसुरी, शंख और काहल प्रादि से उत्पन्न शब्द १ जिस कर्म के निमित्त से मनोहर स्वर की रचना को सुषिर कहा जाता है ।
होती है उसे सस्वर नामकर्म कहते हैं। ४ जिसके सुसाधु--नाण-दसणसपन्नसंजमभावेसु जो रतो सो उदय से स्वर के सुनने पर बहुतों को प्रोति उत्पन्न सुसाधु । (दशव. चू. पृ. २६१)।
होती है उसका नाम सुस्वर नामकर्म है। जो ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न होता हुआ संयम. सुहृदनुराग-देखो मित्रानुराग। सुहृदनुरागो भावों में रत रहता है वह सुसाधु कहलाता है। बाल्ये सहपांशुक्रीडनादि व्यसने सहायत्वमुत्सवे सस्थित-सुस्थित प्राचार्यः, परोपकारकरणे स्व- सम्भ्रम इत्येवमादेश्च मित्रसुकृतस्यानुस्मरणम्, प्रयोजने च सम्यक स्थितत्वात् । (मन. घ. स्वो. टी. बाल्याद्यवस्थासहफ्रीडितमित्रानुस्मरणं वा। (सा. ७-६८)।
. घ. स्वो. टी. ८-४५)। सुस्थित प्राचार्य उसे कहते हैं, जो परोपकार बाल्यावस्था में मित्रों के साथ जो धूलि प्रादि में के करने में और अपने प्रयोजन में भली भांति क्रीडा की है, व्यसन में सहायता की है, तथा स्थित रहता है। यह भक्तप्रत्याख्यान को स्वीकार उत्सव में साथ-साथ घमना-फिरना हमा है; इत्यादि करने वाले क्षपक के ग्रादि ४० लिगों में से एक मित्रों के द्वारा किये गये कार्यों का स्मरण करना
अथवा बाल्यावस्था में साथ-साथ खेलने वाले सुस्वरनाम-१. यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं मित्रों का स्मरण करना, इसे सुहृदनुराग कहा सत्सुस्वरनाम। (स. सि. ८-११; त. श्लो. ८, जाता है । यह सल्लेखना का एक अतिचार है। ११) । २. सोस्वर्यनिर्वर्तकं सुस्वरनाम । (त. भा. सूक्ष्म (पुद्गल)-देखो सोक्षम्य । १. पञ्चानां ८-१२)। ३. यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत् वैक्रियादीनां शरीराणां यथाक्रमम् । मनसश्चापि सस्वरनाम । मनोज्ञस्वरनिर्वतनं यन्निमित्तमुपजायते वाचश्च वर्गणाः याः प्रकीर्तिताः ।। तासामन्तरवतिप्राणिनस्तत् सुस्वरनाम । (त. वा. ८, ११, २५)। न्यो वर्गणा या व्यवस्थिताः। ताः सूक्ष्मा इति ४. येन स्वरितेनाणितेन च भूयसां प्रीतिरुत्पद्यते विज्ञया अनन्तानन्तसंहताः ॥ (वरांगच. २६-२०, तत सस्वरनाम । (त. भा. हरि. व. ८-१२)। २१)। २. सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्याः कर्मवर्ग५. सुस्वरनाम यदुदयात्सोस्वयं भवति श्रोतुः प्रीति- णादयः सूक्ष्माः। (पंचा. का. प्रमत. व. ७६) । हेतुः। (श्रा. प्र. टी. २३)। ६. जस्सोदएण जीवाणं ३. सूक्ष्मास्ते कर्मणां स्कन्धा: प्रदेशानन्त्ययोगतः । महरसरो होदि तं कम्म सुस्सरं णाम । (धव. पु. (म. पु. २४-१५०)। ४. ये तु ज्ञानावरणादिकर्म
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सूक्ष्म (पुद्गल)] ११६७, जैन-लक्षणावली
[सूक्ष्मऋजुसूत्र वर्गणायोग्यास्ते सूक्ष्मा इन्द्रियज्ञानाविषयाः । (पंचा. रूढानि वालाग्राणि तेषामेकैक वालाग्रमसंख्येयानि का. जय. वृ. ७६) । ५. कर्म सूक्ष्मम्, यद् खण्डानि क्रियन्ते । किंप्रमाणमसंख्येयंखण्डमिति द्रव्यं देशावधि-परमावधिविषयं तत्सूक्ष्ममित्यर्थः । चेदुच्यते - इह विशुद्धलोचनश्छद्मस्थः पुरुषो यदतीव (गो. जी. जी. प्र. ६०३ । ६. कर्म सूक्ष्मम्, सूक्ष्म द्रव्यं चक्षुषा पश्यति तदसंख्येयभागमात्रमयद् द्रव्यं देशावधि-परमावधिविषयं तत् सूक्ष्म संख्येयं खण्डम् । इदं द्रव्यतोऽसंख्येयस्य खण्डस्य प्रमामित्यर्थः । (कातिके. टी. २०६) । ७. तत्र णम् । क्षेत्रतः पुनरिदम् -सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य या धर्मादयः सूक्ष्मा: सूक्ष्मा: कालाणवोऽणवः। (लाटीसं. जघन्यावगाहना तया यत् व्याप्तं क्षेत्रं तदसंख्येय गुण४.७)। ८. सूक्ष्मास्ते कामणस्कन्धाः प्रदेशानन्तयो- क्षेत्रावगाहिद्रव्यप्रमाणमसंख्येयं खण्डम् । तथा चागतः ॥ (जम्बू. च. ३-४६)।
त्रार्थेऽनुयोगद्वारसूत्रम् -- तत्थ णं एगमेगे वालग्गे १ वैक्रियिक प्रादि पाँच शरीरों, मन और वचन को असंखिज्झाई खण्डाइ कज्जति, ते णं वालग्गा दिदिजो वर्गणायें कही गई हैं वे यथाक्रम से सूक्ष्म हैं तथा प्रोगाहणामो असंखेज्जतिभागमेत्ता सुहमस्स पणइनके मध्यवर्ती जो अनन्तानन्त संहत वर्गणायें हैं गजीवस्स सरीरोगाहणाो असंखेज्जगुणा इति । उन्हें भी सूक्ष्म जानना चाहिए : २ सूक्ष्म होने पर अत्र वृद्धाः पूर्वपुरुषपरम्परायातसंप्रदायवशादेवं भी जो कार्मणवर्गणा आदि इन्द्रियगोचर नहीं हैं निर्वचन्ति -बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकशरीरप्रमाणउन्हें सूक्ष्म माना गया है। ४ कर्म सूक्ष्म है, कारण मसंख्येयं खण्डमिति । तथा चानुयोगद्वारटीकायह है कि जो द्रब्य देशावधि और परमावधि का कृदाह हरिभद्रसूरि:- बादरपृथिवीकायिकपर्याप्त. विषय है उसे सूक्ष्म कहा जाता है। यह पुदगल के शरीरतुल्यान्यसंख्येयानि खण्डानीति वृद्धवादः । एवं. सूक्ष्म-स दे छह भेदों में पांचवां है।
प्रमाणासंख्येयखण्डीकृतालाः स पल्यः प्राग्वदासूक्ष्म-अ
प्रद्धापल्योपम-तथा स एव पल्यस्ताव- कर्णभूतो निचितश्च तथा विधीयते यथा न किमपि प्रमाणः प्राग्वद्वालाग्राणि प्रत्येकमसंख्येयखण्डानि तत्र वह्नयादिकमाक्रमति । ततः समये समये एकककृत्वा तैराकीणं भृतो निचितश्च तथा क्रियते यथा वालाग्रापहारेण यावता कालेन स पल्यः सर्वात्मना न वह्नयादिकं तत्राकामति, ततो वर्षशते वर्षशतेऽति- निर्लेपो भवति तावान् कालविशेषः सूक्ष्ममुद्धारपल्योक्रान्ते सत्येकैकवालाग्रापहारेण यावता कालेन स पमम् । (बहत्सं. मलय. वृ. ४)। पल्यः सर्वात्मना निर्लेपीभवति तावान् कालविशेषः उत्सेधांगुल प्रमित योजन प्रमाण लम्बे, चौड़े व गहरे सूक्ष्ममद्धापल्योपमम् । (बृहत्सं. मलय. वृ. ४)। पल्य को शिर के मूड़ने पर एक दिन-रात में उगे एक योजन प्रमाण लम्बे चौड़े पल्य के वालानों में हुए, दो दिन-रातों में उगे हुए, इस प्रकार सात से प्रत्येक के असंख्यात खण्ड करे व उनसे उसे इस दिन-रात तक के उगे हए बालागों में से प्रत्येक के प्रकार से ठसाठस भरे कि जिससे अग्नि प्रादि भी असंख्यात खण्ड करे और उनसे इस प्रकार से ठसाप्रवेश न कर सके । पश्चात सो सौ वर्षों के बीतने ठस भरे कि उसमें अग्नि प्रादि न प्रविष्ट हो सके। पर एक एक बालाग्र को उसमें से निकाले, इस पश्चात उनमें से एक एक समय में एक एक बालान प्रकार जितने काल में वह पल्य रिक्त होता है उतने के निकालने पर जितने काल में वह पूर्णतया रिक्त कालविशेष को सूक्ष्म प्रद्धापल्योपम कहा जाता है। होता है उतने कालविशेष को सूक्ष्म उद्धारपल्योपम सूक्ष्म-अद्धासागरोपम-तेषां च सूक्ष्माद्धापल्योप. कहा जाता है। मानां दश कोटीकोट्य एक सूक्ष्ममद्धासागरोपमम् ।। सूक्ष्म-उद्धारसागरोपम-एवं रूपाणां च सूक्ष्मो(बहत्सं. मलय. वृ. ४)।
द्धारपल्योपमानां दश कोटीकोटय एक सूक्ष्ममद्धार. दश कोडाकोडी सूक्ष्म प्रद्धापल्योपमों का एक सागरोपमम् । (बृहत्सं. मलय. वृ. ४)। सूक्ष्म प्रद्धासागरोपम होता है।
दश कोडाकोडी सूक्ष्म उद्धारपल्योपमों का एक सूक्ष्म-उद्धारपल्योपम- तथा स एवोत्सेधाङ्गुल- सूक्ष्म उद्धारसागरोपम होता है। प्रमितयोजनप्रमाणायाम-विष्कम्भावगाहः पल्यो सूक्ष्म-ऋजूसूत्र-देखो ऋजुसूत्रनय। १. जो एयसमण्डिते शिरसि यानि संभाव्यमानान्येकाहोरात्रप्र- मयवट्टी गिण्हइ दब्वे धुवत्तपज्जानो। सो रिउसुत्तो
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सूक्ष्मऋजुसूत्र ११६८, जैन-लक्षणावलो
। सूक्ष्म क्रियानिवर्तक सुहुमो सव्वं पि सदं (द्रव्य. 'सई') जहा खणियं ॥ केवली सदृशाघातिकर्मस्थिति रशेषतः । संत्यज्य (ल. नयच. ३८, द्रव्यस्व. प्र. नयच. २१०)। वाङ्मनोयोगं काययोगं च बादरम् । सूक्ष्म तु तं २. सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयः यथा एकसमयावस्थायी समाश्रित्य मन्दस्पन्दोदयस्त्वरम् ।। ध्यान सूक्ष्मक्रियं पर्यायः । (कातिके. टी. २७४)।
नष्टप्रतिपातं तृतीयकम् । ध्यायेद् योगी यथायोगं १ जो द्रव्य में एक समयवर्ती अध्रुव पर्याय-अर्थ- कृत्वा करणसन्ततिम् ।। (त. श्लो. ६, ४४, १० से पर्याय---को ग्रहण करता है उसे सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय १२) । ७ प्रवितर्कमवीचारं सूक्ष्मकायावलम्बनम् । कहते हैं। जैसे---समस्त सत क्षणिक है। सूक्ष्म क्रियं भवेद् ध्यानं सर्वभावगतं हि तत् ॥ (त. सूक्ष्मकाय--ण य जेसि पडिखलणं पुढवी-तोएहिं सा. ७-५१)। ८. सुद्धो खाइयभावो प्रवियप्पो अम्गि-वाएहिं । ते जाण सुहमकाया Xxx॥ णिच्चलो जिणिदस्स । अस्थि तया तं झाणं सुहम(कातिके. १२७)।
किरिया अपडिवाई ॥ (भावसं दे.. ६६८) । जिन जीवों का पृथिवी, जल, अग्नि और वायु के ६. केवलणाणसहावो सुहुमे जोगम्मि संठियो काए । द्वारा प्रतिस्खलन (प्रतिघात) नहीं होता है उन्हें जं झायदि सजोगिजिणो तं तिदियं सुहमकिग्यिं सूक्ष्मकाय जानना चाहिए।
च ।। (कातिके. ४८६)। १० सूक्ष्मक्रियामवितर्कसूक्ष्मक्रियानिवर्तक---१. सुहुमकिरियं सजोगी मवीचार श्रुतावष्टम्भरहितमर्थ व्यञ्जन-योसंक्राझायदि झाणं तदियसुक्कं तु । (मूला. ५-२०८)। न्तिवियुक्तं सूक्ष्मकायक्रियाव्यवस्थिनं तृतीयं शुक्लं २. अवितक्कमवीचार सहमकिरियबंधण तदिय- सयोगी ध्यायति ध्यानम् । (मला. वृ. ५-२०८)। सुक्क । सुहमम्मि कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं। ११. सूक्ष्मा कृष्टिगता क्रियेति तनुगो योगोऽत्र सूक्ष्म(भ. प्रा. १८८६)। ३. स यदाऽन्तर्मुहुर्तशेषायुष्क- क्रियं ध्यानं ह्यप्रतिपात्यनश्वरमिदं नामास्य तत्सास्तत्तल्यस्थितिवेद्य-नाम-गोत्रश्च भवति, तदा सर्व र्थकम् । तन्नात्युद्यतराषघातन समुघातक्रियाऽनन्तरं वाङ्मनसयोगं बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मका- योगिन्यर्हति जीविते स
स्थिते ।। ययोगालम्बनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानमास्कन्दि- (प्राचा. सा. १०-५२) । १२. प्रात्मस्पन्दात्मतुमर्हतीति । यदा पूनरन्तमहर्तशेषायुष्कस्ततोऽधिक- योगानां क्रिया सूक्ष्माऽनिवत्तिका । यस्मिन् प्रजायते स्थितिशेषकर्मत्रयो भवति सयोगी तदाऽऽत्मोपयोगा- साक्षात्सूक्ष्मक्रियानिवर्तकम् ॥ (भावसं. वाम. तिशयस्य सामायिकसहायस्य विशिष्ट करणस्य महा- ७४६)। संवरस्य लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातन- २ विर्तक और वीचार से रहित होकर सूक्ष्म शक्तिस्वाभाव्याद्दण्ड - कपाट-प्रतर - लोकपूरणानि क्रिया से सम्बन्ध रखने वाला तीसरा शुक्लध्यान स्वात्मप्रदेशविसर्पणतश्चतुभिः समयः कृत्वा पुनरपि सूक्ष्म काययोग में अवस्थित सयोग केवलो के होता तावद्भिरेव समयः समुपहृतप्रदेशविसरणः समीकृत- है। ३ केवली को प्रायु जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष स्थितिशेषकर्मचतुष्टयः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा रह जाती है तब वेदनीय, नाम और गोत्र इन सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति। कर्मों को स्थिति यदि प्रायु के बराबर होती है तब (स. सि. ६-४४; त. वा. ६-४४)। ४. समस्तं वे समस्त वचनयोग और मनोयोग का पूर्णतया वाङ्मनोयोगं काययोगं च बादरम् । प्रहाप्यालम्ब्य निरोध करके और बादर काययोग को कृश करते सूक्ष्मं तु काययोगं स्वभावतः ।। तृतीयं शुक्लसामा- हुए जब सूक्ष्म काययोग का पालम्बन लेते हैं तब न्यात प्रथमं तु विशेषतः । सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति वे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नाम के तीसरे शक्लध्यान ध्यानमास्कन्तुमर्हति ॥ (ह. पु. ५६, ७०-७१)। पर प्रारूढ होने के योग्य होते हैं। किन्तु जब प्रायु ५. पुनरन्तर्मुहूर्तेन निरुन्धन् योगमास्रवम् । कृत्वा की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहती है और बाङ्मनसे सूक्ष्मे काययोगव्यपाश्रयात् ॥ सूक्ष्मीकृत्य वेदनीय आदि उक्त तीन कर्मों की स्थिति प्राय से पुन: काययोगं च तदुपाश्रयम् । ध्यायेत् सूक्ष्मक्रिया- अधिक शेष रहती है तो वे प्रात्मोपयोग के प्रतिध्यानं प्रतिपातपराङ्मुखम् ॥ (म. पु. २१-६४, शय से युक्त होकर विशिष्ट परिणाम के वश स्व६५)। ६. ततो निर्दग्धनिःशेषघातिकर्मेन्धनः प्रभुः। भावतः शीघ्र ही कर्म के परिपालन में समर्थ होते
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सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ]
हुए क्रम से चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण समुद्घातों को करके फिर उतने ही चार समयों में ही फैले हुए श्रात्मप्रदेशों को क्रम से संकुचित करते हैं। इस प्रकार से उक्त चारों श्रघातिया कर्मों की जब स्थिति समान हो जाती है तब वे पूर्व शरीर के प्रमाण होकर सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपात नामक तृतीय शुक्लध्यान को ध्याते हैं । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती - देखो सूक्ष्म क्रियानिवर्त्तक । सूक्ष्म क्रियाबन्धन - देखो सूक्ष्मक्रियानिवर्तक । सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम -- तथा स एव पल्यः उत्सेधागुलप्रमितयोजन प्रमाणायाम - विष्कम्भावगाहः पूर्ववदेकैकं बालाग्रमसंख्येयखण्डं कृत्वा तैराकीर्ण भृतो निचितश्च तथा क्रियते यथा मनागपि बह्व्यादिकं न तत्राक्रमति एवं भूते च तस्मिन् पल्ये ये ग्राकाशप्रदेशास्तवालाग्रेयें व्याप्ता ये च न व्याप्तास्ते सर्वscrifस्मन् समपे एकैकाशप्रदेशापहारेण समुद्धियमाणा यावता कालेन सर्वात्मना निष्ठामुपयान्ति तावान् कालविशेषः सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् । ( बृहत्सं. मलय. बृ. ४) । उत्सेधांगुल प्रमित एक योजन प्रमाण लम्बे-चौड़े उस व्यवहार पल्य के एक एक बालाग्र के प्रसंख्यात खण्ड करके उनसे उसे ठसाठस इस प्रकार से भरे कि उसका श्रग्नि श्रादि प्रतिक्रमण न कर सकें । इस प्रकार से भरने पर उसमें से एक एक समय में एक एक बाला के निकालने पर जितने समय में वह पल्य रिक्त होता है उतने कालविशेष को सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम कहते हैं ।
सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम - एवंभूतानां च सूक्ष्मक्षेत्रपत्योपमानां दश कोटीकोटय एकं सूक्ष्मक्षेत्र सागरोपमम् । (बृहत्सं. मलय. वृ. ४) । दस कोडाकोडि क्षेत्रपल्योपमों का एक सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम होता है. 1
सूक्ष्म जीव- सूक्ष्मकर्मोदयवन्तः सूक्ष्मा: । ( धव. पु. १, पृ. २५० ) ; सूक्ष्मनामकर्मोदयोपजनितविशेषाः सूक्ष्मा: । ( धव. पु. १, पृ. २६७ ) ; अण्णेहि पोग्गलेहि पsिहम्ममाणसरीरो जीवो सुहुमो। (घव. पु. ३, पृ. ३३१ ) ।
सूक्ष्म नामकर्म के उदय से
ल. १४७
११६६, जैन-लक्षणावली
युक्त
[सूक्ष्मदोष
जीव कहा जाता है। जिन जीवों का शरीर दूसरे पुद्गलों के द्वारा रोका नहीं जा सकता है वे सूक्ष्म जीव कहलाते हैं ।
सूक्ष्मत्व-अतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वम् । (परमा. वृ. १-६१ ) ।
इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय न होना, इसका नाम सूक्ष्मत्व है | यह सिद्धों के प्राठ गुणों में से एक है जो नामकर्म के क्षय से प्रादुर्भूत होता है । सूक्ष्मदोष- - १. महादुश्चरप्रायश्चित्तभयान्महादोषसंवरणं कृत्वा तनुप्रमादाचारनिबोधनं पचमः । (त. वा. ६, २२, २ ) । २. महादुश्चरप्रायश्चित्तभयाद्वाsहो ( ? ) सूक्ष्मदोषपरिहारकोऽयमिति स्वगुणाख्यापनचिकीर्षया वा महादोषसंवरणं कृत्वा तनुप्रमादाचारनिवेदनं पंचमः सूक्ष्मदोषः । ( चा. सा. पृ. ६१ ) । ३. सूक्ष्मं च सार्द्रहस्तपरामर्शादिकं सूक्ष्मदोषं प्रतिपादयति महाव्रतादिभंगं स्थूलं तु नाचष्टे यस्तस्य पञ्चमं सूक्ष्मं नामालोचनादोषजातं भवेत् । ( मूला. वृ. ११ - १५ ) । ४. सूक्ष्मागः कीर्त्तनं सूक्ष्मदोषस्यापि विशोधकः । इति ख्यात्यादिहेतोः स्यात् सूक्ष्मं स्थूलोपगूहनम् । (प्राचा. सा. ६-३२ ) । ५. सूक्ष्मं वा दोषजातमालोचयति, न बादरम्, यः किल सूक्ष्ममालोचयति स कथं बादरं नालोचयिष्णतीत्येव रूपभावसम्पादनार्थमाचार्यस्येत्येष (सूक्ष्मः) प्रालोचनादोषः । ( व्यव. भा. मलय. वू. ३४२, पृ. १९) । ६. XXX सूक्ष्मं सूक्ष्मस्य केवलम् ॥ ( अन. घ. ७-४१ ) : सूक्ष्माख्य श्रालोचनादोषः स्यात् X X X गुरोरग्रे X XX सूक्ष्मस्यैव दूषणस्य प्रकाशनम्, स्थूलस्य प्रच्छादनमित्यर्थ: । ( अन. ध. स्वो टी. ७-४१ ) । ७. सूक्ष्मं अल्पं पापं प्रकाशयति, स्थूलं पापं न प्रकाशयतीति सूक्ष्मदोष: । ( भावप्रा. टी. ११८ ) ।
पञ्चमः
जीवों को सूक्ष्म
१ कठोर प्रायश्चित्त के भय से भारी दोष को छिपाकर क्षुद्र प्रमादाचरण के निवेदन करने पर श्रालोचना का पांचवां (सूक्ष्म) दोष होता है ५ सूक्ष्म दोषों की आलोचना करता है, पर 'जो सूक्ष्म दोष की प्रालोचना करता है, वह भला स्थूल दोष की आलोचना कैसे नहीं करेगा - श्रवश्य करेगा श्राचार्य के प्रति इस प्रकार के अभिप्राय के सम्पादन करने के लिए स्थूल दोष की जो प्रालोचना नहीं
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सूक्ष्मनाम]
११७०, जैन-लक्षणावली
[सूक्ष्मसाम्पराय
करता है वह सूक्ष्म नामक पालोचनादोष का भागी परिवर्तन करके मध्याह्न में या अपराह्न में देने पर होता है।
उक्त दोष होता है । वह होनाधिकता के अनुसार सूक्ष्मनाम -१. सूक्ष्मशरीरनिर्वतकं सूक्ष्मनाम। दो प्रकार का है। (स. सि. ८-११); त. भा. ८-१२; त. श्लो. सूक्ष्मबकुश - किञ्चित्प्रमादी सूक्ष्मवकुशः । (त. ८-११; गो. क. जी. प्र. ३३)। २ सूक्षमशरीर- भा. सिद्ध. वृ. ६-४६)। निर्वतकं सूक्ष्मनाम । यदुदयादन्यजीवानुपग्रहोपघा- किञ्चित् प्रमाद वाला मुनि सूक्ष्मबकुश होता है । तायोग्यसूक्ष्मशरीरनिर्वृत्तिर्भवति तत्सूक्ष्मनाम । (त. सूक्ष्मबादर-देखो सूक्ष्मस्थूल । वा. ८, ११, २६)। ३. सूक्ष्मं श्लक्ष्णं अदृश्यं सूक्ष्म बुद्धि---मूक्ष्मा अत्यन्त दुःखावबोधसूक्ष्म-व्यवनियतमेव यस्य कर्मण उदयाद्भवति शरीरं पृथिव्या. हितार्थ परिच्छेदसमर्था । (प्राव. नि. हरि. वृ. दीनां केषांचिदेव तत् सूक्ष्मशरीरनाम । (त. भा. ६३७) । हरि. व सिद्ध. वृ. ८-१२) । ४. सूक्ष्मनाम यदुः जो बुद्धि प्रतिशय दुरवबोध सूक्ष्म और व्यवहित दयात्सूक्ष्मो भवति अत्यन्तश्लक्षणः, अतीन्द्रिय इत्य- पदार्थों के जानने में समर्थ होती है उसे सूक्ष्मवद्धि र्थः । (श्रा. प्र. टी. २२) । ५. सौम्य निर्वर्तक कर्म कहते हैं। सूक्ष्मम् । (धव. पु. १, पृ. २५०); जस्स कम्मस्स सूक्ष्म लोभ - पूर्वापूर्वाणि विद्यन्ते सर्घकानि उदएण जीवो सुहुमत्तं पडिवजदि तस्स कम्भस्स विशेषतः । संज्वलस्यानुभागस्य यानि तेभ्यो ब्यपेत्य सुहुमिदि सण्णा। (धव. पु. ६, पृ. ६२) । ६. यस्य य: ।। अनन्तगुणहीनानुभागो लोभे उपवस्थितः । कर्मण उदयेन सूक्ष्मेषत्वद्यते जीवस्तत्सूक्ष्मशरीर- अणीयसि यथार्थाख्यः सूक्ष्मलोभः स संमतः ॥ (पंचनिवर्तकम् (सूक्ष्मनाम) । (मूला. बृ. १२-१६५)। सं. अमित. १, ४१-४२) । ७. सूक्ष्मनाम यदुदयाद् बहूनामपि समुदितानां जन्तु. संज्वलन सम्बन्धी अनुभाग के जो पूर्व और अपूर्व शरीराणां चक्षुर्ग्राह्यता न भवति । (प्रज्ञाप. मलय. स्पर्धक हैं उनसे हट करके जो अनन्तगुणा हीन अनुवृ. २६३, पृ. ४७४) । ८. सूक्ष्मसंज्ञ परानुपघातक- भाग अतिशय अल्प लोभ में अवस्थित है उसे सूक्ष्म सूक्ष्मशरीरनिवर्तकं नामकर्म । (भ. प्रा. मूला. लोभ माना गया है। २०६५) । ६. यदुदयेन सूक्ष्मशरीरं भवति तत्सूक्ष्म- सूक्ष्मसम्पराय - देखो सूक्ष्मसाम्पराय । नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)।
सूक्ष्मसाम्पराय- १. अतिसूक्ष्मकषायत्वात् सूक्ष्म१ सूक्ष्म शरीर की रचना करने वाले कर्म को साम्परायचारित्रम् । (स. सि. ६-१८)। २. लोसूक्ष्मनामकर्म कहा जाता है। ३ जिस कर्म के उदय भाण वेयंतो जो खलु उबसामग्रो व खवग्रो वा। से किन्हीं पृथ्वी प्रादि जीवों का इलक्षण या अदृश्य सो सुहमसंपराग्रो अहखाया ऊणग्रो किंचि ॥ नियत ही शरीर होता है उसे सूक्ष्म नामकर्म कहते (भगवती २५, ७, ६, पृ. २६२; प्राव. नि. ११७)। हैं। ७ जिसके उदय से समदित हुए बहुत भी जीव- ३. अणुलोह वेयंतो जीपो उवसामगो व खवगो वा। शरीर चक्ष इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने के योग्य सो सुहुमसंपरानो जहखादेणणो लिचि ।। (प्रा. नहीं होते उसका नाम सूक्ष्म नामकर्म है।
पंचसं. १-१३२, गो. जी. ६०)। ४. सुहमहँ सूक्ष्मपुलाक ---किञ्चित्प्रमादात् सूक्ष्मपुला यः ।। लोहहँ जो विलउ जो सुहमु वि परिणामु । सो (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६) ।
सृहुमु वि चारित्त मुणि सो सासयसुहधाम ।। (योगकुछ थोड़े से प्रमाद से युक्त मुनि सूक्ष्मपुलाक होता । सार १०३) । ५. अतिसूक्ष्मकषायत्वात् सूक्ष्महै । यह पांच पुलाकभेदों में अन्तिम है । साम्परायम् । (त. वा. ६, १८, ६); सूक्ष्म-स्थूलसक्ष्मप्राभतदोष ---- पुधपर-मझवेलं परियत्तं सत्त्ववधपरिहाराप्रमत्तत्वात् (चा. सा. 'हारप्रवत्तदुविह सुहुमं च । (मूला. ६-१४) ।
स्वात्') अनुपहतोत्साहस्य अखण्डितक्रियाविशेषस्य पूर्वाह्न, अपराह्न और मध्यम वेला में परिवर्तन कर सम्यग्दर्शन ज्ञानमहामारुतसंधुक्षितप्रशस्ताध्यवसायादेने पर सूक्ष्म प्राभतदोष होता है। अभिप्राय यह है ग्निशिखोपश्लष्टकमन्धनस्य ध्यानविशेषविशिखीकि यदि पूर्वाह्न में देने का स्थिर किया है तो उसमें कृतकषाय-विषांकुरस्थ अपचया भिमुखालीनस्तोक
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सूक्ष्मसाम्पराय] ११७१, जेन-लक्षणावली
[सूक्ष्म सूक्ष्म (चा. सा. 'भिमुखस्तोक') मोहबीजस्य तत एव यस्यासो सुक्ष्मसापरायः । (गो. जी. जी. प्र ६०) । परिप्राप्तान्वर्थसूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंय तस्य सूक्ष्मसांप- १६ अतीव सूक्ष्म लोभो यस्मिन् चारित्रे तत्सूक्ष्मरायचारित्रमाख्यायते । (त. वा. ६, १८, ६)। सांपराय चारित्रम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१८) । ६. सपर्येति संसारमेभिरिति सपराय: क्रोधादयः, १ जिस चारित्र में अतिशय सूक्ष्म कषाय का लोभांशावशेषतया सूक्ष्मः संपरायो यति सूक्ष्मसप- अस्तित्व रहता है उसे सूक्ष्मसाम्परायचारित्र कहते रायः । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १०४) । ७. सूक्ष्म- हैं। २, ३ लोभ की सूक्ष्मता के वेदन करने वाले त्वेन कषायाणां शमनात क्षपणात्तथा। स्यात सक्षम
उपशामक अथवा क्षपक को सूक्ष्मसापराय या सूक्ष्मसाम्परायो हि सुक्ष्मलोभोदयानुगः ।। (त. सा. २, साम्परायसंयत कहा जाता है। वह यथाख्यात. २७); कषायेषु प्रशान्तेषु प्रक्षीणेष्वखिलेषु वा। संयम से कुछ हो हीन होता है। स्थात् सूक्ष्मसाम्पराया व्यं सूक्ष्मलोभवतो यतेः ।।
सूक्ष्मसाम्परायकृष्टि- बादरसांपराइयकिट्टीहितो (त. सा. ६-४८) । ८. जह कोसुंभववत्थं होइ
अणतगुणहाणीए परिणमियलोभसं जलणाणुभागस्सा. सया सुहमरायसंजुत्तं । एवं सुहुमकसानो सुहमस
वटाणं सुहुमसापराइयकिट्टीणं लक्षणमवहारेयव्वं । रानो त्ति णिद्दिट्ठो। (भावसं. २ ६५४) । ६
(जयध.-कषायपा. १ ८६२ टि.)। लोभसंज्वलनः सूक्ष्मः शमं यत्र प्रपद्यते । क्षयं वा
संज्वलनलोभकषाय के अनुभाग को बादरसाम्पसंयतः सूक्ष्मः संपरायः स कथ्यते ॥ (पंचसं. प्रमित.
रायिक कृष्टियों से अनन्तगुणित हानि के रूप से १-४३१: वर्तते सक्षमलोभे यः शमरे क्षपके गुणं । परिणमित कर अत्यन्त सूक्ष्म या मन्द अनुभाग के स सूक्ष्मसाम्परायाख्यः संयमः सूक्ष्मलोभतः ।। (पंच
रूप से प्रवस्थित करने को सक्षमसाम्परायकृष्टि सं.अमित. १-२४२)। १०. सूक्ष्मपरमात्मतत्त्व
कहते हैं। भावनाबलेन सथमक्लिष्ट [कृष्टि ] गतलोभ कषाय
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान --- देखो सूक्ष्मसाम्प राय। स्योपशामका: क्षपकाश्च दशमगुणस्थानवतिनः । (बृ. द्रव्यसं. टी. १३); सूक्ष्मातीन्द्रियनिजशुद्धात्म
सूक्ष्मसाम्परायचारित्र-देखो सूक्ष्म साम्पराय । सवित्तिबलेन सूक्ष्मलोभाभिधानसाम्परायस्य कषा- सूक्ष्मसांपरायसंयत - देखो सूक्ष्मसाम्पराय । यस्थ यत्र निरवशेषोपशमनं क्षपणं वा तत्सूक्ष्मसांप- सक्ष्मसूक्ष्म-- १. असंयुक्तास्त्वसंबद्धा एक काः पररायचारित्रम् । (ब. द्रव्यसं. टी. ३५)। ११. सूक्ष्मो- माणवः । तेषां नाम समुद्दिष्टं सूक्ष्मसूक्ष्म तु तद्ऽल्पः सांपरायः कषायोऽस्मिन्निति संयमः । स्यात् बुधैः ।। (वरांगच. २६-२२) । २. सूक्ष्मसूक्ष्मोऽगुसूक्ष्मसापरायसामायिकद्वितयात्मक: ।। (प्राचा. सा. रेकः स्याददृश्योऽस्पृश्य (जम्बू. 'श्यो दृश्य') एव ५-१४६)। १२. लोभाभिधः सम्परायः सूक्ष्मः च। (म. पु. २४-१५०; जम्बू. च. ३-४६) । किट्टीकृतो यतः । स सूक्ष्मसम्परायः स्यात् क्षएकः ३. अत्यन्तसूक्ष्माः कर्मवर्गणाभ्योऽधो द्वयणुस्कन्धः शमकोऽपि च ॥ (योगशा. स्बो. विव. १-१६, पृ. पर्यन्ताः सूक्ष्मसूक्ष्मा इति । (पंचा. का. अमृत. वृ. ११२)। १३. सक्ष्मसम्परायं चतुर्थ चारित्रम्, तत्र ७६)। ४. ये चात्यन्तसूक्ष्मत्वेन कर्मवर्गणातीतास्ते सम्पर्येति संसारमनेनेति सम्परायः कषायोदयः, सूक्ष्मसूक्ष्मा: । (पंचा. का. जय. व. ७६) । ५. परसक्ष्मो लोभांशावशेषः सम्परायो यत्र तत् सूक्ष्मसम्प- माणुः सूक्ष्मसूक्ष्मम्, यत् सर्वावधिविषय तत् सूक्ष्मरायम् । (प्राव. नि. मलय. व. ११४, पृ. १२२)। सूक्ष्मम् । (गो. जी. जी प्र. ६०३, कातिके. टी. १४. रागेण यथाख्यातचारित्रप्रतिबन्धिना कषायरंज- २०६)। नेन सह वर्तते यः स सरागः विशुद्धिपरिणामः, सूक्ष्मः १ जो परमाणु संयोग व सम्बन्ध से रहित एक-एक सूक्ष्मकृष्टयनुभागोदयसहचरितः स रागो यस्य असो हैं उन्हें सूक्ष्मसूक्ष्म कहा जाता है। ३ कर्मवर्गणा सूक्ष्मसरागः सूक्ष्मसाम्परायः। (गो. जी. म. प्र. स्कन्धों के नीचे द्वयगुक पर्यन्त जो अतिशय सूक्ष्म ५८); यथास्यातचारित्रात्किचिदून: अलक्ष्यसूक्ष्म- स्कन्ध हैं उन्हें सूक्ष्मसूक्ष्म कहते हैं। ५ परमाणु सूक्ष्म रागकलंकितत्वेन सूक्ष्मसापरायः । (गो. जो. म. प्र. सूक्ष्म है, जो सर्वावधि का विषय है उसे सूक्ष्म ६०)। १५. सूक्ष्मः कृष्टिगतः सांपरायो लोभ कषायो कहते हैं।
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सूक्ष्मस्थूल] ११७२, जैन-लक्षणावली
[सूत्र (दृष्टिवाद) सक्ष्मस्थल---१. शब्द-स्पर्श रसा गन्धः शीतोष्णे होता है। वायुरेव च । अचक्षुर्ग्राह्यभावेन सूक्ष्मस्थूलं तु तादृ. सूत्र-१. सुत्तं गणघरकधिदं तहेव पत्तेयबुद्धिकथिदं शम् ॥ (वरांगच. २६-१६) । २ शब्द: स्पर्शो रसो च। सुदकेवलिणा कघिदं अभिण्णदसपुवकधिदं गन्धः सूक्ष्मस्थूलो निगद्यते । अचाक्षुषत्वे सत्येषा- च ॥ (मूला. ५-८०)। २. अप्पग्गंथमहत्थं बत्तीसामिन्द्रियग्राह्यतेक्षणात् ।। (म. पु. २५-१५२; जम्ब. दोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठेहि च च. ३-५०) । ३. सूक्ष्मत्वेऽपि स्थलोपलम्भः स्पर्श- गुणेहि उववेयं ॥ (प्राव. नि. ८८०); अप्पक्खररस-गन्ध शब्दा: सूक्ष्मबादरा: । (पंचा. अमत. मसंदिद्धं च सारवं विस्सो महं । प्रत्थोत्रमणवज्ज वृ. ७६)। ४. ये पुनर्लोचन विषया न भवन्ति ते च सुत्तं सवण्णुभासियं ।। (प्राव. नि. ८८६) । सूक्ष्मस्थूलाश्चतुरिन्द्रियविषयाः । (पंचा. का. जय. ३. सूत्रं हि नाम यल्लघु गमकं च । (त. वा. ७, वृ. ७६) । ५. य: चक्षुर्वजितचतुरिन्द्रियविषयो १४, ५)। ४. अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गढनिर्णबाह्यार्थः तत्सूक्ष्मस्थूलम् । (गो. जी. जी. प्र. ६०३; यम् । निर्दोष हेतुमत् तथ्यं सूत्र सूत्रविदो विदुः ।। कातिके. टी. २०६)।
(धव. पु. १, पृ. २५६ उद्.; जयथ. १, पृ. १५४ १ शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध, शीत. उष्ण और वायु उद्.); सुत्तं बारहंगसद्दागमो। (धव. पु. १४. पृ.
८)। ५. अर्थस्य सूचनात्सम्यक सतेर्वार्थस्य सूरिणा। सूक्ष्मस्थूल कहा जाता है । ५ जो बाह्य पदार्थ चक्ष सूत्रमुक्तमनल्पा) सूत्रकारेण तत्त्वतः ॥ (जयध. इन्द्रिय के विना शेष चार इन्द्रियों से ग्रहण किया १, पृ. १७१ उद्.)। जाता है उसे सक्षमस्थल कहते हैं।
१ जो गणधर प्रत्येकबद्ध, श्रतकेवली और अभिन्नसूक्ष्मार्थ-१. सूक्ष्मा: स्वभावविप्रकृष्टाः। (प्रा. दशपूर्वी. इनके द्वारा कहा गया है उसे सूत्र कहते मी. वसु. वृ. ५)। २. सक्ष्मा: स्वभावविप्रकृष्टाः हैं। २ जो ग्रन्थप्रमाण से अल्प अर्थ की अपेक्षा परमाण्वादय: । (न्यायदी पृ. ४१)।
महान, बत्तीस दोषों से रहित तथा लक्षण और २ जो पदार्थ स्वभावतः दूरवर्ती (अदृश्य) हैं -जैसे पाठ गुणों से सम्पन्न होता हुमा सारवान् विश्वतो परमाणु प्रादि, उन्हें स्वभावविप्रकृष्ट कहा जाता है। मुख-अनुयोगों से सहित, व्याकरणविहित निपातों सूच्यंगुल - १. अद्धारपल्लच्छेदो Xxx । पल्ल से रहित, अनिन्ध और सर्वज्ञ कथित है, उसे सूत्र xxx वग्गिदसंवग्गिदय म्मि सूइ xxx || जानना चाहिए। (ति. प. १-१३१)। २. प्रद्धापल्यस्यार्धच्छेदेन सूत्र (दृष्टिवाद का एक भेद)-१. सुत्तं अट्ठाशलाका विरलीकृत्य प्रत्येकमद्धापल्यप्रदानं कृत्वा सो दिलक्खपदेहि ८८००००० प्रबंधनो अलेवनो अन्योन्यगुणिते कृते यावन्तश्छेदास्तावद्भिराकाश- अकत्ता प्रभोत्ता णिग्गुणो सब्बगो अणुमेत्तो पत्थि प्रदेश मुक्तावलीकृताः सूच्यं गुलमित्युच्यते । (त. वा. जीवो जीवो चेव अत्थि पुढवियादीणं समुदएण ३ ३८, ७) । ३. परमाणपादिएहि य आगंतणं त जीवो उप्पज्जइ णिच्चेयणो णाणण विणा सचेयणो जो समुप्पण्णो। सो सनिअंगूलो त्ति य णामेण य णिच्चो अणिच्चो अप्पेति वण्णेदि । तेरासियं णियहोइ णिहिट्रो ।। (जं. दी. प. १३-२६)। ४. अद्धा- दिवादं विण्णाणवादं सहवादं पहाणवादं दविवादं पल्योपममर्द्धनार्द्धन तावत्कर्तव्यं यावदेकरोम, तत्र पुरिसवादं च वण्णेदि । (धव पु. १, पृ. ११०, यावन्त्यईच्छेदनानि अद्धापल्योपमस्य तावन्मात्राण्य- १११); सूत्रे प्रष्टाशीतिशतसहस्रादः ८८००००० द्धापल्योपमानि परस्पराभ्यस्तानि कृत्वा यत्प्रमाणं पूर्वोक्तसर्वदृष्टयो निरूप्यन्ते, प्रबन्धक: अलेपकः भवति तावन्मात्रा अाकाशप्रदेशा ऊर्ध्वमावल्याकारेण अभोक्ता अकर्ता निर्गणः सर्वगतः अद्वतः नास्ति जीव: रवितास्तेषां यत्प्रमाणं (तत्) सूच्यंगुलम् । (मूला. समुदयजनित: सर्वं नास्ति बाह्यार्थो नास्ति सर्व व. १२-८५)।
निरात्मकं सर्वं क्षणिकं अक्षणिकमद्वैतमित्यादयो १ अद्धार या प्रद्धापल्य के जितने अर्द्धच्छेद हों दर्शनभेदाश्च निरूप्यन्ते । (धव. पु. ६, पृ. २०७)। उतने स्थान में पल्य को रखकर परस्पर गणित २. जं सुत्तं णाम तं जीवो प्रबंधो अलेवो अकत्ता करने पर उत्पन्न राशि के प्रमाण सूच्यंगुल णिग्गुणो अभोत्ता सव्वगनो अणुमेत्तो णिच्चेयणो
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सूत्र ( दृष्टिवाद ) ]
सपयास परप्पयासप्रो णत्थि जीवो त्ति य णत्थि यवादं किरियावादं अकिरियावादं अण्णाणवादं णाणवादं वेणइयवादं प्रणेयपयारं गणिदं च वण्णेदि । ( जयध. १, पृ. १३३ - १३४) । ३. अष्टाशीतिलक्षपदपरिमाणं जीवस्य कर्मकर्तृत्व तत्फलभोक्तृत्व सर्व गतत्वादिधर्मविधायकं पृथिव्यादिप्रभवत्वाणुमात्रत्वसर्वगतत्वादिधर्मनिषेधकं च सूत्रम् ८८०००००। ( सं . श्रुतभ. टी. 8 ) । ४. जीवस्य कर्तृत्व- भोक्तृत्वादिस्थापकं भूतचतुष्ट्यादिभवनस्योद्वापक मष्टाशीतिलक्षपदप्रमाणं सूत्रम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२० ) ।
२ जो प्रबन्धक, प्रलेपक, प्रकर्ता, निर्गुण, प्रभोक्ता, सर्वगत, श्रणुप्रमाण, प्रचेतन, स्वप्रकाशक और परप्रकाशक इत्यादि जीवविषयक मतभेदों के साथ नास्तिप्रवाद, क्रियावाद, श्रक्रियावाद, श्रज्ञानवाद, ज्ञानवाद, वैनयिकवाद और श्रनेक प्रकार के गणित की भी प्ररूपणा करता है उसे सूत्र कहा जाता है । सूत्रकल्पिक - सुत्तस्स कल्पितो खलु श्रावस्सगमादि जाव आयारी । (बृहत्क. भा. ४०६) । श्रावश्यक से लेकर प्राचार तक सूत्र का कल्पिक होता है - इसे पढ़ने के लिए किसी को रोका नहीं जाता है ।
११७३, जैन - लक्षणावली
सूत्रकृताङ्ग:- १. सूयगडे णं ससमधा सूइज्जंति, परसमया सूइज्जति ससमय परसमया सूइज्जति जीवा सूइज्जति प्रजीवा सूइज्जति जीवाजीवा सूइज्जति लोगो सूइज्जति लोगो सूइज्जंति लोगालोगो सुइज्जति, सूयगडे णं जीवाजीव पुण्ण-पावासवसंवर- निज्जरण-बंध मोक्खावसाणा पयत्था सूइज्जंति, समणाणं श्रचिरकालपव्वइयाणं कुसमय मोहमोहमोहियागं संदेहजाय सहजबुद्धिपरिणामसंमइयाणं पावकर मलिन मइगुण विसोहणट्ठ असीग्रस्त किरियावाइयसयस्स... से त्तं सूयगडे । समवा. १३७) । २. सुगडे णं लोए सूइज्जइ अलोए सूइज्जइ लोप्रालोए इज्जइ जीवा सूइज्जन्ति प्रजीवा सुइज्जन्ति जीवाजीवा सूइज्जति ससमए सूइज्जइ परसमए सूइज्जइ ससमय-परसमए सूइज्जइ सूत्रगडे णं असीप्रस्स किरियावाइसयस्स चउरासीइए अकिरियावाणं सत्तट्ठी अण्णाणि वाईणं बत्तीसाए वे इश्रवाणं तिहं तेद्वाणं पासंडिप्रयाणं वह किच्चा ससमए ठाविज्जइ, सूगडे णं परित्ता वायणा
[सूत्रकृताङ्ग
संखिज्जा अणुप्रगदारा संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखिज्जाम्रो निज्जुत्तीश्रो संखिज्जाम्रो पडिबत्ती, सेणं गट्टयाए विइए अंगे दो सुप्रक्खंधा तेवीस प्रज्भवणा तित्तीसं उद्देसणकाला तित्तीसं समुद्देसणकाला छत्तीसं पयसहस्साणि पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा अता गया अणंता पज्जवा परित्ता तसा अनंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाईया जिणपत्ता भावा प्राघविज्जंति परुविज्जंति दंसिज्जति निदसिज्जति उवदंसिज्जंति से एवं श्राया से एवं नाया से एवं विष्णाया एवं चरण-करणपरूवणा
घविज्जइसे त्तं सूगडे । ( नन्दी. सू. ४६, पृ. २१२-१३) । ३. सूत्रकृते ज्ञानविनयप्रज्ञापना कल्प्या कल्प्यच्छेदोपस्थापना व्यवहारधर्मक्रिया: प्ररूप्यन्ते । (त. वा. १, २०१२ ) । ४. सूत्रीकृताः अज्ञानकादयो यत्र वादिनस्तत् सूत्रकृतम् । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. १ -२० ) । ५. सूदयदं णाम गं छत्तीस पयसहस्सेहि ३६००० णाणविणय पण्णावणाकप्पाकप्प-च्छेदोवट्टावण-ववहारघम्मकिरियाम्रो परूवेइ, ससमय पर समय सरूवं च परूवेइ । ( धव. पु. १, पू. ६६ ); सूत्रकृते षट्त्रिंशत्पदसहस्रे ३६००० ज्ञानविनय प्रज्ञापना- कल्प्या कल्प्य छेदोपस्थापना- व्यवहारधर्मक्रियाः दिगन्तरशुद्धया प्ररूप्यन्ते । ( धव. पु. ६, पृ. १६७ - १६८ ) । ६. सूदयदं णाम अंगं ससमयं परसमयं थी परिणामं क्लैव्यास्फुटत्वमदनावेशविभ्रमाऽऽस्फालनसुखपुंस्कामितादिस्त्रीलक्षणं च प्ररूपयति । ( जयध. पु. १, पृ. १२२ ) । ७ षट्त्रिंशत्पदसहस्रपरिमाणं ज्ञानविनयादिक्रियाविशेषप्ररूपकं सूत्रकृतम् । ( सं श्रुतभ. टी. ७, पृ. १७२ ) । ८. सूत्रयति संक्षेपेणार्थं सूचयतीति सूत्रं परमागमः, तदर्थकृतं करणं ज्ञानविनयादि निर्विघ्नाध्ययनादिक्रिया । श्रथवा प्रज्ञापना- कल्पा कल्प-छेदोपस्थापनाव्यवहारधर्म क्रियाः स्वसमय परसमयस्वरूपं च सूत्र: कृतं करणं क्रियाविशेषो यस्मिन् वर्ण्यते तत्सूत्रकृतं नाम । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३५६ ) । ६. ज्ञान विनय-छेदोपस्थापना क्रियाप्रतिपादकं - षट्त्रिशत्सहस्रपदप्रमाणं सूत्रकृताङ्गम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ - २० ) । १०. सूदयडं विदियंग छत्तीसस हस्सपपमाणं खु । सूचयदि सुत्तत्थं संखेवा तस्स करणं तं ॥ णाणविणयादिविग्धातीदाभयणादिसव्वसक्कि रिया || पण्णायणा (य) सुकथा कप्पं ववहार विस
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सूत्रकृताङ्ग ।
किरिया || छेदोवद्वावणं जइण समयं यं परस्स समयं जत्थ किरिया भेया अणेयसे १, २० - २२, पृ. २६१ ) ।
२ सूत्रकृतांग में लोक, श्रलोक, लोकालोक जीव, प्रजीव, जीवाजीव, स्वसमय, परसगय और स्वसमय-परसमय इनकी सूचना की जाती है । सूत्रकृतांग में एक सौ अस्सी क्रियावादियों, चौरासी प्रक्रियावादियों, सड़सठ श्रज्ञानवादियों और बत्तीस वैनयिकवादियों, इस प्रकार तीन सो तिरेसठ (१८०÷८४+६७+ ३२ = ३६३) पाखण्डियों की रचना करके उनके श्रभिमत को दिखलाते हुए उसका निराकरण करके अपने समय को प्रतिष्ठित किया जाता है । सूत्रकृतांग में परिमित वाचनायें संख्यात श्रनुयोगद्वार संख्यात वेढ (छन्दविशेष ), संख्यात श्लोक संख्यात नियुक्तियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियां होती हैं। वह दूसरा अंग है जो दो श्रुतस्कन्धों और तेईस अध्ययनों आदि में विभक्त है । ३ सूत्रकृतांग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्य - प्रकल्प्य छेद-उपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रिया इनकी प्ररूपणा की जाती है । सूत्रग्राहणविनय उद्युक्तः सन् शिष्यं सूत्रं ग्राहयति । एष सूत्रग्राहणविनयः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १०-३१३) ।
११७४, जैन-लक्षणावली
परूवदि । ॥ ( अंगप
प्रयत्नपूर्वक शिष्य के लिए जो सूत्र को ग्रहण कराया जाता है, इसे सूत्रग्राहणविनय कहते । यह श्रुतविनय के चार भेदों में प्रथम है । सूत्ररुद्धि - १. जो सुत्तम हिज्जतो, सुएण श्रोगाहई उसम्मत्तं । गेण वाहिरेण व, सो सुत्तरुईति नायव्वो ।। (उत्तरा २८-२१; प्रज्ञाप. गा. १२०, पृ. ५६ ) । २. प्रव्रज्या मर्यादाप्ररूपणाचारसूत्रश्रवणमात्रसमुद्भूतसम्यग्दर्शनाः सूत्ररुचय: । (त. वा. ३, ३६, २) । ३. प्राचाराख्यादिमांगोक्ततपोभेदश्रुतेद्रुतम् || प्रादुर्भूता रुचिस्तज्ज्ञैः सूत्रजेति निरूप्यते । (म. पु. ७४, ४४३ - ४४ ) । ४. श्राकर्ण्या चारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासी सूत्रदृष्टिः × × × । ( आत्मानु. १३) । ५. यतिजनाचरणनिरूपणपा - [मा. ]त्रं सूत्रम् । ( उपासका पू. ११४) । ६. सूत्रं यतिजनाचरणनिरूपणमात्रम् । ( श्रन. ध. स्वो. टी. २-६२) ७. मुनीनामाचारसूत्रं मूलाचारशास्त्रं श्रुत्वा यदुत्पद्यते तत्सूत्रसम्यक्त्वम् ।
[ सूत्रसंश्रय
( दर्शन प्रा. टी. १२ ) ।
१ जो सूत्र का अध्ययन करता हुआ अंगश्रुत से श्रथवा बाह्य - श्रनंगप्रविष्ट - श्रुत से सम्यक्त्व का अवगाहन करता है उसे सूत्ररुचि जानना चाहिए । २ प्रव्रज्या (दीक्षा) व मर्यादा के प्ररूपक प्रचारसूत्र के सुनने मात्र से जिनके सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है उन्हें सूत्ररुचि कहा जाता है । ३ श्राचारांग नामक प्रथम अंग में प्ररूपित तप के भेदों के सुनने से जो शीघ्र रुचि (तत्वश्रद्धा) उत्पन्न होती है उसे सूत्ररुचि कहते हैं ।
सूत्रसम --- देखो सूत्र ! X X X इनि वयणादो तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदं सुत्तं । तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदित्ति गणहरदेवम्नि ठिदसुदगाणं सुत्तसमं । (धव. पु. ६, पृ. २५६ ) ; त्रिभक्त्यंतभेदेन पठनं सूत्रसमं XXX इदि केवि ग्राइरिया परूवेंति । ( धव. पु. ६, पृ. २६१ ) ; जिणवयणविणिग्गगयबीजपदादो तत्थावगहणेण प्रपक्खरणिद्देसत्तणेण य पत्तसुत्तणामादो गणहरदेवे सुप्पण्णकदिश्रणियोगो सुत्तेण सह वृत्तीदो सुत्तसमं । ( धव. पु. ६, पू. २६८ ) ; सुत्त सुदकेवली, तेण समं सुदणाणं सुत्तसमं । श्रधवा सुत्तं बारहंगसद्दागमो, आयरियोवदेसेण विणा सुत्तादो चेव जं उप्पज्जदि सुदणाणं तं सुत्तसमं । ( धव. पु. १४, पृ. ८ ) । तीर्थंकर के मुख से निकले हुए वीजपद को सूत्र कहते हैं । उस सूत्र के साथ चूंकि वह रहता है उत्पन्न होता है, इस प्रकार गणधर देव में स्थित श्रुतज्ञान को सूत्रसम कहा जाता है। सूत्र से अभिप्राय श्रुतकेवली का है, उसके समान श्रुतज्ञान को सूत्रसम कहते हैं; अथवा सूत्र का अर्थ बारह अंगरूप शब्दागम है, प्राचार्य के उपदेश के विना सूत्र से हो जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह सूत्रसम कहलाता है । सूत्रसंचय - संचिन्त्येति स्थितस्थानं तपः काल गुरु कुलम् । पृष्ट्वा श्रुतं श्रुतं नाम स्वं प्रतिक्रमणादिकम् ॥ शयनाशन- यानादौ प्रेक्ष्य वृत्तं दिनत्रयम् । निश्चित्य गुरुश्चारित्रशुद्धि तत्सूरिसम्मतः । स्वशक्तिमुक्त्वा व्याख्यादौ तद्व्याख्यातं पठेच्छ्र ुतम् । स्वस्येष्टं प्रश्रयादेतत्पठनं सूत्रसंश्रयः ॥ ( श्राचा. सा. २, ४६-४८) ।
इस प्रकार लाकर स्थान में स्थित हुए प्रभ्यागत साघु से उसके स्थान, तप, काल, गुरु, कुल, श्रुत,
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सूत्रसंश्रय] ११७५, जैन-लक्षणावली
[सृपाटिकानाम श्रुतनाम और प्रतिक्रमण प्रादि के विषय में पूछ कर पद्धती सा सूर्यप्रज्ञप्तिः । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ६१) । तीन दिन तक उसके शयन, प्रासन और गमनादि २. सूरपण्णत्ती पंचलक्ख तिण्णिसहस्से हि ५०३००० विषयक प्राचरण को देखकर गुरु उसकी चारित्र- सररसायु-भोगोवभोग-परिवारिद्धि-गइ बिबुस्सेह-दिशद्धि का निश्चय करके प्राचार्य को सम्मति से णकिरणुज्जोववण्णणं कुणइ । (धव पु. १, पृ. श्रुत का व्याख्यान करे तथा नवागत शिष्य, साधु ११०); सूर्यप्रज्ञप्तौ त्रिसहस्राधिकपंचशतसहस्रपदागुरु के द्वारा व्याख्यात श्रुत को विनयपूर्वक पढ़े। यां सूर्यबिम्बमार्ग-परिवारायुःप्रमाणं तत्प्रभावृद्धिइस प्रकार के पठन का नाम सूत्रसंश्रय है। ह्रासकारणं सूर्यदिन-भास-वर्ष-युगायन विधानं राहुसूनत ---१. सुष्ठु ऊन्यतेऽप्रियमात्राश्रयणं मिती- सूर्यबिम्बप्रच्छाद्य-प्रच्छ दकविधानं तद्गतिविशेषक्रियते इति सून्, सून् च तद् ऋतं च सनृतं प्रिय ग्रहच्छाया-काल सश्युदयविधानं च निरूप्यते । (धव. सत्यं च । तच्च पारुष्य-पैशून्यासभ्यत्व-चापलाविल- पु. ६, पृ. २०६) । ३ सूराउ-मंडल-परिवात्व-विरलत्व-संभ्रातत्व-संदिग्धत्व-ग्राम्यत्व - रागद्वेष- रिडिढ-पमाण-गमणायणुप्पत्तिकारणादीणि सरसंबं. यूक्तत्वोपधावद्य-विकत्थनपरिहारेण माधुयौ दार्य- धाणि सरपण्णत्ती वण्ण दि। (जयघ.१, प.१३२)। स्फुटत्वाभिजात्यपदार्थाभिव्याहाराऽर्हद्वचनानुसारार्थ- ४. त्रिसहस्र पचलक्षपदपरिमाणा सूर्यविभवादिप्रतित्वार्थिजनभावग्राहकत्वदेश-कालोपपन्नत्वयतमितहित. पादिका सूर्य प्रज्ञप्तिः। (सं. श्रुतभ. टी. ६, पृ. त्वयुक्तं वाचन-प्रच्छन-प्रश्न-व्याकरणादिरूपमिति १७४)। ५. सूर्यप्रज्ञप्तिः सूर्यस्यायुमण्डल-परिवारमृषावादपरिहाररूपं सूनृतम् । (योगशा. स्वो. विव. ऋद्धि-गमनप्रमाणग्रहणादीनि वर्णयति । (गो. जो. ४-६३)। २. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सनतव्रतमच्यते। म.प्र. व जी. प्र. ३६२)। ६. सायुर्गति-विभवतत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ।। (त्रि. निरूपिका त्रिसहस्राधिकपंचलक्षपदप्रमाणा सूर्यश. पु. च. १, :, ६२३) । ३. सत्यं प्रियं हितं प्रज्ञप्ति: । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। ७. सहस्सचाहः सनतं सनतव्रताः। (अन. घ. ४-४२)। तियं पणलक्खा पयाणि पण्णत्तियाकक्किास्स ॥
ऊन्यते मितीक्रियते इति सन्' इस निरुक्ति सरस्सायुविमाणे परिया रिद्धी य अयणपरिमाणं । के अनुसार सून' का अर्थ परिमित होता है, सन् तत्ताब-तमे [मग्ग] गहणं वण्णेदि वि सूर ऐसा जो ऋत अर्थात् प्रिय व सत्य वचन है उसे, (अंगप. २, ३-४, पृ. २७४)। सनत कहा जाता है। कठोरता, पिशुनता, असभ्यता १ जिस ग्रन्थ प्रकरण में सूर्य के वृत्तान्त का ज्ञापन चंचलता, प्राविलता (मलिनता), विरलता, भ्रान्ति, कराया जाता है उसे सूर्यप्रज्ञप्ति कहा जाता है। सन्दिग्धता, ग्रामीणता, राग-द्वेषयुक्तता और उपधि २ सूर्यप्रज्ञप्ति पाँच लाख तीन हजार (५०३०००) (कपट), अवध व निन्दा को छोड़कर जो मधुरता, पदों के द्वारा सूर्य को प्रायु, भोग-उपभोग, परिवार, उदारता, स्पष्टता और कुलीनता आदि का व्यव- ऋद्धि, गति, विम्ब की ऊंचाई, दिन, किरण, और हार करते हुए जिन वचन के अनुसार वचन बोला उद्योत की प्ररूपणा करती है। जाता है उसे सनत वचन कहते हैं ।
सर्यमास---१. सूर्य मासस्त्वयमवगन्तव्य:-त्रिशद् सरि-- देखो प्राचार्य ! १. प्रव्रज्यादायकः सूरिः दिनान्यधं च (३०३)। (त. भा. सिद्ध. व. ४, संयतानां निगोयते । (योगसा. प्रा. ८-६)। १५)। २. सार्द्धत्रिंशताऽहोगरेक: सूर्यमासः । २. छत्तीसगुणसमग्गो णिच्च प्रापरइ पच पायारो। (सूर्यप्र. मलय. वृ. १२-७५, पृ. २१६) । सिस्साणुगहकुसलो भणियो सो सूरि परमेट्ठी ।। १ साढ़े तीस (३०३) दिनों का एक सूर्यमास (भाव. दे. ३७७)।
होता है। १ संयंतों को जो दीक्षा दिया करता है उसे सरि सृपाटिकानाम-सृपाटिकानाम कोटिद्वयसंगते कहा जाता है। २ जो छत्तीस गुणों में परिपूर्ण यत्रास्थिनी (सिद्ध. 'ये अस्थिनी', चर्म-स्नायुहोकर पाँच प्राचारों का पालन करता हुमा शिष्यों मांसावनद्धे ('सिद्ध बद्ध') तत्सृपाटिकानाम कीर्त्यते । के अनुग्रह में दक्ष होता है उसे सूरि कहते हैं। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ८-१२)। सर्यप्रज्ञप्ति-१. सूर्य चरितप्रज्ञापनं यस्यां ग्रन्थ- दोनों प्रोर संगत जिस संहनन में दोनों ओर की
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सेतुक्षेत्र ११७६, जैन-लक्षणावली
[सौघ हड्डियां चमड़ा, स्नायु और मांस से सम्बद्ध हों भोगानर्थक्यमित्यर्थः । (सा. घ. स्वो. टी. ५-१२)। उसका नाम सपाटिकासंहनन है। तत्त्वार्थवातिक भोग-उपभोगरूप सेव्य पदार्थ का जितना प्रयोजन में उसे असंप्राप्तासपाटिकासंहनन कहा गया है। हो उससे अधिक के करने का नाम से उसके लक्षण में वहां कहा गया है कि जिस संहनन है। यह अनर्थदण्डव्रत का एक अतिचार है। दूसरे में हडियां भीतर परस्पर में सन्धि को प्राप्त नहीं शब्द से उसे भोगोपभोगानर्थक्य कहना चाहिए। होती और बाहिर सिर, स्नायु और मांस से संघ- सोपक्रमाय - देखो उपक्रम । उपक्रम्यत इति उपटित रहती हैं उसे असंप्राप्तासपाटिका संहनन कहते क्रम: विष-वेदना-रक्तक्षय-भय-संक्लेश-शस्त्रघातोच्छहैं (८, ११,६)।
वासनिःश्वासनिरोधरायुषो घातः, सह उपक्रमेण वर्तत सेतक्षेत्र-तत्र सेतुक्षेत्रं यदरघट्टादिजलेन सिच्यते। इति सोपक्रमायुः । मला. व. १२-८३)। (योगशा. स्वो. विव. ३-६५; सा. ध. स्वो. टी. विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, सक्लेश, शस्त्रघात और ४-६४)।
उच्छवास-निःश्वास का निरोध; इनके द्वारा जो प्राय जो खेत प्ररहट प्रादि के जल से सींचा जाता है उसे का घात होता है उसका नाम उपक्रम है। जो प्राव सेतुक्षेत्र कहते हैं।
इस उपक्रम से सहित होती है उसे सोपक्रमायु कहा सेनापति--सेनापतिः नरपतिनिरूपितोष्ट्र-हस्त्यश्व- जाता है । रथ-पदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुः । (अनुः सौम्य-लिङ्गेनात्मानं सूचयति सूच्यतेऽसौ सूच्ययो. हरि. व. पृ. १६)।
तेऽनेन सूचनमात्रं वा सूक्ष्मः, सूक्ष्मस्य भावः कर्म वा राजा के द्वारा प्रदर्शित ऊंट, हाथी, घोड़ा, रथ और सौक्ष्म्यम् । (त. वा. ५-२४) । पादचारियों के समुदायरूप सेना का जो स्वामी जिस लिग के द्वारा अपने को सूचित करता है होता है उसे सेनापति कहा जाता है।
(कर्ता), जो सूचित किया जाता है (कर्म), जिसके सेवार्तसंहनन-यत्र पुनः परस्परपर्यन्तमात्र- द्वारा सूचित किया जाता है (करण), अथवा संस्पर्शलक्षणां सेवामागतानि अस्थीनि नित्यमेव । सूचनामात्र (भाव) का नाम सूक्ष्म है, सूक्ष्म का जो स्नेहाभ्यंगादिरूपां परिशीलनामाकांक्षति तत्सेवातं ___ स्वभाव अथवा कर्म है उसे सोक्षम्य कहा जाता है। सहननं (एतनिबन्धनं संहनननामापि) । (प्रज्ञाप. सौख्य–कि सौख्यं सर्वसंगविरति । (प्रश्नो. र. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७२)। जिस संहनन में परस्पर पर्यन्त मात्र के स्पर्शरूप सुख का वास्तविक स्वरूप समस्त परिग्रह का परिसेवा को प्राप्त हड्डियां सदा चिकनाहट के मर्दनरूप त्याग है। परिशीलना की इच्छा किया करती हैं उसे सेवार्त- सौजन्य--१. तत्सौजन्यं यत्र नास्ति परोद्वेगः । संहनन कहते हैं । इसके कारणभूत नामकर्म को भी (नीतिवा. २७-५४, पृ. २६१) । २. हेत्वन्तरकृतोसेवार्तसंहनन कहा जाता है।
पेक्षे गुण-दोष-प्रवर्तिते । स्यातामादानहाने चेत्तद्धि सेवीका-सेवीकातो णाम संपय-समये पदेसग्गं सौजन्यलक्षणम् ॥ (क्षत्रच ५-१६)। ३. तथा च अणदिन्नं जास ट्रितिसु उदीरणातो पाणेउं उदयसमये वादरायण ---यस्य कृत्येन कृत्स्नेन सानन्द: स्याज्जदिज्जति तातो ट्रितितो सेवीकातो भन्नई। (कर्मप्र. नोऽखिलः। सौजन्यं तस्य तज्ज्ञेयं विपरीतमतोच. उदय. ४)।
ऽन्यथा ॥ (नीतिवा. टी. २७--५४)। इस समय जो प्रदेशाग्र उदय को नहीं प्राप्त है जिस कृत्य में किसी दूसरे को उद्वेग नहीं होता उसको उदीरणा के वश लाकर जिन स्थितियों में उसका नाम सौजन्य है। २ अन्य कारणों की उपेक्षा दिया जाता है उन स्थितियों को सेवीका कहा करके केवल गुण के प्राश्रय से जो वस्तु को ग्रहण जाता है।
किया जाता है और दोष के निमित्त से जो उसे छोड़ा सेव्यार्थाधिकता-देखो उपभोग-परिभोगानर्थक्य और उपभोगाधिकत्व । सेव्यस्य भोगोपभोगलक्षणस्य सौध-धौत-पादाम्भसा सिक्तं साधनां सौघमच्यते । जनको यावानर्थस्ततोऽधिकस्य तस्य करणं भोगोप- (अमित. श्रा.९-२३)।
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सौभाग्य]
११७७, जैन-लक्षणावली
स्किन्धप्रदेश
सौध -यथार्थ गृह-उसे कहा जाता है जो साधुओं भिज्जेज्ज व एवइग्रो (एगयरो) नो छिज्जे नो य के घोए गये पांवों के जल से सिंचित होता है। भिज्जेज्जा ।। (जीवस. ६७) । ४. स्थौल्याद ग्रहणसौभाग्य--१. तत्सौभाग्यं यत्रादानेन वशीकरणं । निक्षेपणादिव्यापरास्फन्दनात स्कन्धाः । स्थौल्यभावेन (नीतिवा. २७-५६, पृ. २६१)। २. तथा व ग्रहण-निक्षेपणादिव्यापारस्कन्द-(ध.)नात् स्कन्धा इति गौतमः- दानहीनोऽपि वशगो जनो यस्य प्रजायते। संज्ञायन्ते । (त. वा. ५, २५, २); परिप्राप्तबन्धसुभगः स परिज्ञेयो न यो दानादिनिर्भरः।। (नीतिवा. परिणामा: स्कन्धाः। xxx अनन्तानन्तपरमाणुटी. २७-५६)।
बन्धविशेषः स्कन्धः । (त. वा. ५, २५, १६)। १ जिसके होने पर दान के विना भी लोगों को वश ५. स्निग्धरूक्षात्मकाणनां सङ्गात: स्कन्ध इष्यते ॥ में किया जाता है उसका नाम सौभाग्य है।
(म. पु. २४-१४६, जम्ब. च. ३-४६)। ६. अनसौभाग्यमुद्रा-परस्पराभिमुखौ ग्रथिताङगुलीको न्तानन्तपरमाण्वारब्धोऽप्येकः स्कन्धनामपर्यायः । करो कृत्वा तर्जनीभ्यामनामिके गृहीत्वा मध्यम (पंचा. का. अमृत. व ७५) । ७. णिहिलावयव च प्रसार्य तन्मध्येऽङ्गुष्ठद्वयं निक्षिपेदिति सौभाग्य मुद्रा। खंधा xxx । (भावसं. दे. ३०४)। ८ बद्धाः (निर्वाणक. पृ ३३)।
स्कन्धा: गन्ध-शब्द-सौक्ष्म-स्थौल्याकृतिस्पृशः। अन्धगूंथी हुई अंगुलियों से युक्त दोनों हाथों को एक कारातपोद्योत-भेदच्छायात्मका अपि ॥ कर्म कायदूसरे के अभिमुख करके व दोनों तर्जनी अंगलियों मनोभाषाचेष्टितोच्छ्वासदायिनः । सुख-दु:खजीविके द्वारा दोनों अनामिकामों को ग्रहण करके मध्य- तव्य मृत्यूपग्रहकारिणः ॥ (योगशा. स्वो. विव. अंगुलियों को फैलाते हुए उनके मध्य में दोनों १-१६, पृ. ११३) । ६. स्कन्ध सशिसम्पूर्ण अंगूठों को रखना चाहिए। इस स्थिति में सौभाग्य- भणन्ति । (गो. जी. जी. प्र. ६०४)। १०. स्थूलमुद्रा बनती है।
स्वेन ग्रहण निक्षेपणादिव्यापारं स्कन्धन्ति गच्छति सौम्य-तथा सौम्योऽक्रूराकारः। (योगशा. स्वो. ये ते स्कन्धाः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२५) । विव. १-५५, पृ. १५९)।
१ जो समस्त अंशों से परिपूर्ण हो उसे स्कन्ध कहते क्रूरता के सूचक शरीर के प्राकार का न होना, हैं। ३ अनन्त प्रदेशों से युक्त स्कन्ध होता है जो इसका नाम सौम्य है।
लोक में छेदा भेदा जा सकता है । ४ जो स्थूलता के सौम्या व्याख्या-क्वचित्क्वचित्स्खलितवृत्तेाख्या प्राश्रय से ग्रहण करने व रखने रूप व्यापार का सौम्या । (धव. पु. ६, पृ. २५२)।
कारण होता है उसे स्कन्ध कहा जाता है। कहीं कहीं स्खलित होते हए जो व्याख्या की जाती है स्कन्धदेश-१. तरस (खंदस्स) दु (लि. प. 'य') उसका नाम सौम्या व्याख्या है। यह वाचना के नन्दा अद्धं भणंति देसोत्ति । (पंचा. का. ७५; मला. प्रादि चार भेदों में अन्तिम है।
५-३४; ति. प. १-६५; गो. जी. ६०४) । सौषिर-देखो सुषिर। १. वंश-शंखादिनिमित्तः २. तदर्धं देशः । (त वा. ५, २५, १६)। ३.x शौषिरः । (स.सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ५)। xx तस्स य अद्धं च वच्चदे देसो। (भावसं. दे. २. सूसिरो णाम वंस-संख-काहलादिजणिदो सहो। ३०४) । (धव. पु. १३, पृ. २२१)।
१विवक्षित स्कन्ध के अर्व भाग को स्कन्घदेश कहते १ बांस (बांसुरी) व शंख प्रादि के निमित्त से जो हैं। शब्द होता है उसे सौषिर कहते हैं।
स्कन्धप्रदेश--१. (खंधस्स) अद्धं च पदेसो X स्कन्ध-१. खंधं सयलसमत्थं XXX । (पंचा. Xx ॥ (पंचा. का. ७५, मूला. ५-१३४; ति. का. ७५; मूला. ५-३४; ति. प.१-६५; गो. जी. प.१-६५; भावसं. दे. ३०४; गो. जी. ६०४)। ६०४)। २. स्थूल भावेन ग्रहण-निक्षेपणादिव्यापार. २ अर्धाधं प्रदेशः । (त. वा. ५, २५, १६)। स्कन्धनात् स्कन्धा इति संज्ञायन्ते । (स. सि. ५-२५)। १ स्कन्ध के आधे के प्राधे को स्कन्धप्रदेश कहा ३. खंधोऽणतपएसो प्रत्ये गइनो जम्मि छिज्जेज्जा। जाता है।
ल. १४८
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स्तनदृष्टिदोष) ११७८, जैन-लक्षणावली
[स्तव स्तनदृष्टिदोष- १. यस्य कायोत्सर्गस्यस्य स्तनयो- त्सर्गेण तस्य स्तम्भदोषः, स्तम्भवत् शून्यहृदयो वा, दृष्टि रात्मीयौ स्तनौ यः पश्यति तस्य स्तनदृष्टिनामा तत्साहचर्येण स एवोच्यते । (मूला, टी. ७-१७१) । दोषः । (मूला. वृ. ७-१७१) । २. दंशादिवारणा- २. स्तम्भः स्तम्भाधवष्टभ्य Xxx स्थितिः ।। र्थमज्ञानाद् वा स्तने चोलपट्टकं निबध्य स्थान स्तन- (अन. प. ८-११३)। ३. स्तम्भमवष्टभ्य स्थान दोषः। धात्रीवद बालार्थ स्तनावन्नमय्य स्थानं वा स्तम्भदोषः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। इत्येके । (योगशा स्वो. विव. ३-१३०)।
१खम्भे का पाश्रय लेकर जो कायोत्सर्ग से स्थित १ कायोत्सर्ग में स्थित रहते हुए जिसकी दृष्टि होता है उसके स्तम्भ नामक दोष होता है। अथवा स्तनों पर रहती है - जो अपने स्तनों को देखता है, जो स्तम्भ के समान शून्य हृदय होकर कायोत्सर्ग उसके स्तनदृष्टि नाम का दोष होता है ! २ डांस, से स्थित होता है उसके उक्त दोष समझना चाहिए। मच्छरों प्रादि के निवारण के लिए अथवा प्रज्ञानता से स्तव---१. उसहादिजिणवराणं णामणिरुत्ति गुणाणस्तों को चोलपट्ट से बांध कर कायोत्सर्ग में स्थित कित्ति च । काऊण अच्चिदूण य तिसुद्धिपणमो थवो होना, यह एक स्तनदोष नाम का कायोत्सर्ग का पो।। (मला. १-२४)। २.देविदथयमादी तेणं दोष है।
तु परं थया होई ।। (व्यव. भा. ७-१८३) । स्तनदोष-देखो स्तनदष्टिदोष ।
३. तीताणागद-बट्टमाणकाल विसयपंचपरमेसराणं स्तनितकुमार- १. स्निग्धाः स्निग्ध-गम्भीरानुना. भेदमकाऊण णमो प्ररहताणं णमो जिणाणमिच्चादिदमहास्वना: कृष्णा वर्धमानचिह्ना: स्तनितकुमाराः। णमोक्कारो दवद्रियणिबन्धणो थवो णाम । (धव, (त. भा. ४-११) । २. स्तनन्ति शब्दं कुर्वन्ति पु.८, प. ८४); बारसंगसंघारों सयलंगविसयप्प. स्त नः शब्दः संजातो वा येषां ते स्तनिताः,xxx णादो धवो णान। xxx कदीए उवसंहारस्स स्तनिताश्च ते कुमारा: स्तनितकुमारा: । (त. वृत्ति सयलाणियोगद्दारेसु उवजोगो थवा गा । (धव. पु. श्रुत. ४-१०)।
६, पृ. २६३); सव्वसुदणाणविसनो उवजोगो थवो १ जो देव स्निग्ध, गम्भीर व अननाद (प्रतिध्वनि) णाम । (धव. पु. १४, पृ. ६)। ४, कृत्वा गुणगणोरूप महान् शब्द से संयुक्त होते हुए श्यामवर्ण व कीर्तिनामव्युत्पत्तिपूजनम् । वृषभादिजिनाधीशस्तवनं वर्धमान (स्वस्तिक) चिह्न से सहित होते हैं वे स्तवनं मतम् ।। (प्राचा. सा. १-१५)। ५. रत्नत्रयमयं स्तनितकुमार (भवनवासी) देव कहलाते हैं। शुद्धं चेतन चेतनात्मकम् । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तनोन्नतिदोष--देखो स्तनदोष । उन्नमय्य स्थि. स्तवजैः स्तूयते स्तवः ।। (योगसा. प्रा. ५-४८)। तिर्वक्षः स्तनदावत् स्तनोन्नतिः॥ (अन. ध.८, ६. सयलगकंगकंगहियार सवित्थर ससंखेवं ।
वण्णणसत्थं थय-थुइ-धम्मकहा होइ णियमेण ।। (गो. बालक को स्तनपान कराने वाली स्त्री के समान क. ८८)। ७. स्तवः चतुर्विंशतितीर्थकरस्तुतिः । वक्षस्थल को ऊंचा उठाकर कायोत्सर्ग में स्थित (मला. वृ. १-२२)। ८. परतश्चतुःश्लोकादिकः होने पर स्तनोन्नति नाम का दोष होता है। स्तवः। अन्येषामाचार्याणां मतेन xxx ततः स्तब्धदोष-१. विद्यादिगणोद्धतः सन यः करोति परमष्टश्लोकादिकाः स्तवाः। (व्यव. भा. मलय. क्रियाकर्म तस्य स्तब्धनामा दोषः । (मला. व ७, व ७-१८३)। ६. चतुविशतिजिनानां स्तुतिः १०६)। २. स्तब्धं मदाष्ट कवशीकृतस्य वन्दनम्। स्तवः । (भावप्रा. टी. ७७)। १०. चतुर्विशति(योगशा. ३-१३०) । ३. xxx वन्दनाया तीर्थकरस्तुतिरूप: स्तव: । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। मदोद्धतिः। स्तब्ध xxx ॥ (अन. ध, ८, ११. परमोरालियदेहसम्मोसरणाण धम्मदेसस्स । १८)।
बण्णण मिह तं थवणं तप्पडिवद्धं च सत्थं च ।। १ज्ञान आदि के मद से उद्धत होकर जो कृतिकर्म (अंगप. ३-१५) । को करता है उसके स्तब्ध नामक दोष उत्पन्न होता १, ४ ऋषभादि जिनेन्द्रों की नामनिरुक्ति और है। यह वन्दनाविषयक ३२ दोषों के अन्तर्गत है। गुणानुवाद के साथ जो पूजा की जाती है तथा मन, स्तम्भदोष-१. स्तम्भमाश्रित्य यस्तिष्ठति कायो- वचन व काय की शुद्धिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया
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स्तव)
११७६, जैन-लक्षणावली
[स्तेनप्रयोग
जाता है, इसे स्तव-चतुर्विंशतिस्तव---जानना स्तुति---देखिये स्तव । १. गुणस्तोकं सदुल्लंघ्य चाहिए । २, ८ एक, दो ब तीन श्लोक रूप स्तुति के तद्बहुत्वकथा स्तुतिः । (स्वयम्भू. ८६) । २. याथा. प्रागे चौथे अथवा मतान्तर के अनुसार आठवें त्म्यमुल्लंघ्य गुणोदयाख्या लोके स्तुति: xxx। श्लोक को प्रादि लेकर स्तव जानना चाहिए, जैसे (युक्त्यनु. २)। ३. एग-दुग-तिसलोका कतीसु अन्नेसि देवेन्द्रस्तव आदि । ३ भूत, भविष्यत और वर्तमान होइ जा सत्त । (व्यव. भा. ७-१८३)। ४. बारकाल विषयक पांच परमेष्ठियों में भेद न करके संगेसु एक्कं गोवसंधारो थुदी णाम। xxx द्रव्याथिक नय के अनुसार जो 'अरहन्तों को नम- तत्थेगणियोगद्दारुवजोगो थुदी णाम । (धव. पु. ६, स्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो', इत्यादि रूप से पृ. २६३); एयंगविस प्रो एयपुव्वविसो वा उवनमस्कार किया जाता है इसका नाम स्तव है। जोगो थुदी णाम। (धव. पु. १४, पृ. ६)। ५. ६ जिस शास्त्र में सपूर्ण अंग का संक्षेप अथवा स्तुति: पुण्यगुणोत्कीतिः Xxx। (म. पु २५, विस्तार से वर्णन किया जाता है उसे स्तव कहते हैं। ११) । ६ स्तुतिः स्तुत्यानां सद्भतगुणोत्कीर्तनम् । स्तिबुक संक्रम--१. xxx थिबुप्रो अणुइन्नाए (त. भा. सिद्ध वृ. ७-६)। ७. एकश्लोका द्विउ जं उदये ।। (कर्मप्र. सं. क. ७१) । २. उदय- श्लोका विश्लोका वा स्तुतिभवति । xxx सरूवेण समट्टिदीए जो संक्रमो सो स्थिवुक्कसंकमो अन्येषामाचार्याणां मन एकश्लोकादिसप्तश्लोकति भण्णदे । (जयध..--- कसायपा. पृ. ७०० हि.)। पर्यन्ता स्तुतिः । (व्यव. भा. मलय. बृ.७-१८३)। ३. पिंडपगईण जा उदयसंगया तीए अणुदयगयायो। १ थोड़े से गुणों का अतिक्रमण करके जो बहुत से संकागिऊण वेयइ जं एसो थियुगसंकामो ।। (पंचसं. गुणों का निरूपण किया जाता है उसे स्तुति कहते सं. क. ८०) । ४. थियुगसंकमो वुच्चति-अणुदिणाणं हैं । ३, ७ एक, दो और तीन श्लोक तक स्तुति कहकमाणं दलितं उदयवति कम्मे पाडिवज्जति । जहा लाती है । ४ बारह अंगों में एक अंग के उपसंहार मणसस्स, मणुयगतीए वेतिज्जमाणीए णरगगति- को स्तुति कहा जाता है। एक अंगविषयक अथवा तिरियगति-देवगतिकम्मदलितं अणदिण्णं मणुज- एक पूर्वविषयक उपयोग का नाम स्तुति है। गतिए समं वेदिज्जति । (कर्मप्र. च. सं. क. ७१)। स्तेनप्रयोग-देखो चौरप्रयोग। १. मष्णन्तं स्वर ५. अनुदीर्णाया अनुदयप्राप्तायाः सत्कं यत्कर्मदलिक मेव वा प्रयुङ्क्तेऽन्येन वा प्रयोजयति प्रयुक्तमनुसजातीय प्रकृतावदयप्राप्तायां समानकालस्थितौ संक्र. मन्यते वा यतः स स्तेनप्रयोगः । (स. सि. ७-२७)। गानि मंकाय चानभवति यथा मनजगतावदय- २. मोषकस्य विधा प्रयोजनं स्तेनप्रयोगः। मष्णन्तं प्राप्तायां शेषं गतित्रयम, एकेन्द्रियजाती जातिचतू- स्वयमेव वा प्रयुक्ते अन्येन वा प्रयोजयति, प्रयुक्तष्टयमित्यादि, स स्तिबुकसंक्रमः । (कर्मप्र. मलय. मनुमन्यते वा यतः (चा. सा, 'यः') स स्तेनप्रयोगो व. ७१)।
वेदितव्यः । (त. वा. ७, २७, १७ चा सा. पू. ६)। १ ग्रनदीर्ण प्रकृति के दलिक का जो उदयप्राप्त ३. स्तेना: चौरा:, तान् प्रयुक्ते 'हरत यूयम्' इति हरप्रकृति में विलय होता है उसे स्तिबु कसंक्रम कहते णक्रियायां प्रेरण मनुज्ञानं वा प्रयोगः, अथवा परस्वाहैं। २ विवक्षित प्रकृति का समान स्थिति वाली दानोपकरणानि कर्तरी घर्धरकादीनि । (त. भा. अन्य प्रकृति में जो संक्रमण होता है उसका नाम सिद्ध. वृ. ७-२२)। ४. कश्चित् पुमान चौरी स्तिबुकसंक्रम है। ३ गति, जाति प्रादि पिण्ड- करोति, अन्यस्तु कश्चित्तं चोरयन्तं स्वयं प्रेरयति प्रकृतियों में जो अन्यतम प्रकृति उदय को प्राप्त मनसा वाचा कायेन, अन्येन वा केनचित्पंसा तं है उस समान कालस्थिति वाली अन्यतम प्रकृति में चोरयन्तं प्रेरयति मनसा वाचा कायेन, स्वयमन्येन अनदयप्राप्त अन्य प्रकृतियों को संक्रान्त कराकर जो वा प्रेर्यमाणं चौरी कुर्वन्तं अनुमन्यते मनसा वाचा वेदन किया जाता है उसे स्तिबुकसंक्रम कहा जाता कायेन, एवंविधाः सर्वेऽपि प्रकारा: स्तेनप्रयोगहै। जैसे - उदयप्राप्त मनुष्यगति में शेष तीन शब्देन लभ्यन्ते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२७) । ५. नरकगति आदि का व एकेन्द्रिय जाति में शेष चार परस्य प्रेरणं लोभात स्तेयं प्रति मनीषिणा । स्तेनजातियों का इत्यादि।
प्रयोग इत्युक्त: स्तेयातीचारसंज्ञकः ॥ (लाटीसं.
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स्तेनप्रयोग] ११८०, जैन-लक्षणावली
इस्तेयानन्द ६-४६)।
श्वे. ७-१०) । २. प्रमत्तयोगाददत्तादानं यत् तत्स्ते१ जिसके आश्रय से चोरी करने वाले को स्वयं ही यम् । (स. सि. ७-१५)। ३. स्तेयबद्धया परैरउसमें उद्यत करता है, अन्य से प्रेरणा कराता है. दतस्य परिगृहीतस्य वा तृणादेव्यजातस्यादानं अथवा चोरी में प्रवृत्त हुए चोर की अनुमोदना स्तेयम् । (त. भा. ७-१०) । ४. आदानम् ग्रहणम्, करता है उसे स्तेनप्रयोग कहा जाता है। ३ चोरों ___ अदत्तस्याऽऽदानम् अदत्तादानं स्तेयमित्युच्यते । (त. को 'तुम चोरी करो' इस प्रकार चोरी के लिए वा. ७-१५); Xxx प्रमत्तस्य सत्यसति च प्रेरित करना अथवा अनुमोदन करना, इसका नाम परकीय द्रव्यादाने त्रेधाऽपि तदादानाद्यर्थोद्यतत्वात् स्तेनप्रयोग है। अथवा परधनहरण के जो कैंची व स्तेयम् । (त. वा. ७, १५, ६)। ५. परपरिगृही. घर्घरक प्रादि उपकरण हैं उनके देने प्रादि को स्तेन. तस्य स्वीकरणमाकान्त्या चौर्येण शास्त्र प्रतिषिद्धस्य प्रयोग जानना चाहिए। यह प्रचौर्याणुव्रत का एक वा स्तेयम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ७-१)। अतिचार है।
६. स्तेयवुद्धया कषायादिप्रमादकलुषितधिया करणस्तेनानीतादान-देखो तदानीतादान व तदाहृता- भूतया कर्तुः परिणन्तुराददानस्य स्तेयमिति । (त. दान ।
भा. सिद्ध. वृ. ७-१०)। ७. प्रमत्तयोगतो यत्स्यास्तेनानुज्ञा-देखो स्तेनप्रयोग । स्तेनाश्चौरास्तेषा- ददत्तार्थपरिग्रहः। प्रत्येयं तत्खलु स्तेयं सर्व संक्षेपमनुज्ञा 'हरत यूयम्' इति हरण क्रियायां प्रेरणा, योगतः ।। (त. सा. ४-७६) । ८. अवितीर्णस्य अथवा स्तेनोपकरणानि कुशिका-कर्तरिका-धरिका- ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव दीनि तेषामर्पणं विक्रयण वा स्तेनानुज्ञा। (योगशा. च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ।। (पु. सि. १०२) । स्वो. विव. ३-६२)।
६. परैरदत्तस्यादाने मन: स्तेयं xxx। (प्राचा. 'तुम चोरी करो' इस प्रकार से चोरी की क्रिया में सा. ५-४२)। १०. यल्लोकः स्वीकृतं सर्वलोकाप्रेरित करने का नाम स्तेनानुज्ञा है । अथवा कुशिका, प्रवृत्तिगोचरः तद्वस्तु प्रदत्तम्, तस्य ग्रहणं जिघक्षा कैंची और घरिक प्रादि चोरी के उपकरणों का वा ग्रहणोपायचिंतनं च स्ते यमुच्यते । (त. वृ. श्रुत. देना, इसे स्तेनानुज्ञा कहा जाता है। यह प्रचौर्याण- ७-१५)। व्रत का एक अतिचार है।
१ विना दी हई किसी वस्तु को ग्रहण करना, स्तेनानुबन्धी-देखो चौर्यानन्द । तेण। णुबन्धी णाम इसका नाम स्तेय है। २ कषाय विशिष्ट प्रात्मपरिजो अहो या राईय परदब्वहरणपसत्तो जीवघाती य णाम के योग से जो विना की हुई वस्तु को ग्रहण एस तेणाणुबंधी। (दशव. चू पृ. ३१)। किया जाता है, इसे स्तेय कहते हैं। ३ दूसरों के दिन-रात प्राििहंसा के कारणभूत दूसरे के द्रव्य के द्वारा नहीं दिये गये अथवा दूसरों के द्वारा गृहीत हरण में जो चित्त संलग्न रहता है, इसे स्तेनानुबन्धी तृण आदि द्रव्यसमूह को जो चोरी के अभिप्राय रौद्रध्यान कहा जाता है।
से ग्रहण किया जाता है, यह स्तेय कहलाता है। स्तेनितदोष-१. स्ते नितं चौरबुद्धया यथा गुर्वा- स्तेयत्यागवत - देखो प्रचौर्याणुव्रत । ग्रामादौ वस्तु दयो न जानन्ति वन्दनादिकमपवरकाभ्यन्तरं प्रविश्य चान्यस्य पतितं विस्मृतं धृतम् । गृह्यते यन्न लोभावा परेषां वन्दनां चोरयित्वा यः करोति वन्दनादिकं त्तत्स्तेय त्यागमणुव्रतम् ।। (धर्मसं. बा. ६-५४)। तस्य स्ते नितदोषः । (मूला. वृ. ७-१०८) । २. जो दूसरों को वस्तु ग्राम प्रादि में गिर गई है, स्याद्वन्दने चोरिकया गदि: स्ते नितं मलः। (अन. विस्मृत है, अथवा रखी गई है उसे लोभ के वशीभत ध. ८-१०४)।
होकर ग्रहण न करना; यह स्तेयत्याग अणुव्रत कह१ गरु प्रादि नहीं जानते, इस प्रकार चोरी की लाता है। यह प्रचौर्याणुव्रत का नामान्तर है। बति से कोठरी के भीतर प्रविष्ट होकर अथवा स्तेयानन्द-देखो स्तेनानुबन्धी। १. प्रतीक्षया दसरों की वन्दना को चुराकर जो वन्दना आदि प्रमादस्य परस्वहरणं प्रति । प्रसह्य हरणं ध्यानं करता है उसके वन्दना का स्तनितदोष होता है। स्तेयानन्दमुदीरितम् ॥ (ह. पु. ५६-२४) । २. स्तेय – १. अदत्तादानं स्तेयम् । (त. सू. दि. ७.१५, स्तेयान दः परद्रव्यहरणे स्मृतियोजनम् । (म. पु.
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स्तेयानन्द] ११८१ जैन-लक्षणावली
[स्त्यानगद्धि २१-५१)। ३. परविसयहरणसीलो xxxस्तोको नाम कालविशेषः। (त. भा. सिद्ध. वृ. (कातिके. ४७६)। ४ स्तेयानन्दमवाप्य यत्परधनं ४-१५)। १३. प्राणा: सप्त पुनः स्तोक:XXXI वन्द्यादिनिन्छे हित रानन्दित्वमवाप्तुमुत्सुकतर चेत- (ह. पु. ७-२०) । १४. सत्तुस्सासे थोप्रोxxx। श्च तैस्तद्भवेत् ॥ (प्राचा. सा. १०-२१)। ५. (भावसं. ३१३)। १५. सप्तानप्राणप्रमाणः स्तोकः । स्तनस्य चौरस्य कर्म स्तेयं तीव्रक्रोधाद्याकूलतया (सूर्यप्र. मलय. व. २०-७६, पृ. २६२) । १६. तदनुबन्धवत् स्तयानुबन्धिः । (स्थाना. अभय. व. सप्तोच्छ्वासाः स्तोक: । (काति के. टी. २२.)। २४७) । ६. परविषयहरणशीलः, परेषां विषयाः १ सात प्राण का एक स्तोक होता है। २ सात रत्न-सुवर्ण-रूप्यादि धन धान्य-कलत्र-वस्त्राभरणादयः उच्छवास का एक स्तोक होता है। तेषां हरणे चौर्य कर्मणि ग्रहणे अदत्तादाने शीलं स्व- स्त्यानगद्धि - देखो स्त्यानद्धि । १. स्वप्नेऽपि यया भावो यस्य स स्तेयानन्दः । (काति के. टी. ४७६)। वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानग द्वः। (स. सि. १ परधनहरण के प्रति प्रमादी होकर हठात् उसका ८-७)। २. स्वपित्युत्थापितो भूयः स्वपत्कर्म करोति ग्रहण करना, इसे स्तेयानन्द रौ ध्यान कहा गया है। च । अबद्धं लभते किञ्चित् स्त्यानगद्धिक्रमो मतः । ५ चोर की क्रिया का नाम स्तेय है, तीव्र क्रोधादि (वरांगच. ४-५२)। ३. स्वप्ने यया वीर्यविशेषासे व्याकुल होकर जो निरन्तर स्तेय का विचार विर्भावः स्त्यानगद्धिः । यत्सन्निधानाद्रौद्र कर्मकरणं रहता है, इसे स्तयानुबन्धी रौद्रध्यान कहा जाता है। बहुकर्मकरणं च भवति सा स्त्यानगुद्धिः । (त. वा. स्तेयानुबन्धी ---देखो स्तेनानुबन्धी।
८, ७, ६)। ४. स्त्यायतीति स्त्यानं स्तिमितचित्तो स्तैनिक-देखो स्तनित दोष । स्तैनिकं मम लाघवं नातीव विकस्वरचेतन प्रात्मा (सिद्ध. व. 'बाहुलकात् भविष्यतीति परेभ्य प्रात्मानं निगहयतो वन्दनम्। कर्तरि ल्युट') स्त्यामस्य स्वापविशेष सति गद्धिः प्रा(योगशा. स्वो. विव. ३-१३०):
कांक्षा मांस-मोदक-दन्तायुदाहरणप्रसिद्धा। स्त्यानद्धिमेरी लघता प्रगट होगी, इस विचार से दूसरों से रिति वा पाठः, तदुदयाद्धि महाबलोऽर्द्धचक्रवर्तितुल्यअपने को छिपाते हए वन्दना करने पर स्तैनिक दोष वलः प्रकर्षप्राप्तो भवति, अन्यथा जघन्य-मध्यमाहोता है।
वस्थाभाजोऽपि संहननापेक्षया महत्येयेति (सिद्ध. स्तोक--१. सत्त पाणूणि से थोवे Xxx। 'सम्भवत्येवेति') स्त्यानस्य ऋद्धिः स्त्यानद्धिरिति । (भगवती ६, ७, गा.२-सुत्तागमे पृ. ५०३; अनु- (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ८-८)। ५. थीगयो. गा. १०५, पृ. १७६; जम्बूद्वी. गा. २-२, पृ. द्धीए तिब्वोदएण उट्ठाविदो वि पुणो सोवदि, सुत्तो ८९; ध्यानश. हरि. व.३ उद.) । २. सत्तुस्साओ वि कम्म कुणदि, सुत्तो वि झंक्खइ, दते कडकडाथोवं XXX । (ति. ४-२८७; जं. दी. प. १३, वेइ । (धव. पु. ६, पृ. ३२); जिस्से णिद्दाए उद५)। ३. ते सप्त स्तोकः । (त. भा ४--१५)। एण तो वि थंभियो व णिच्चलो चिददि, ठियो ४. पाणा य सत्त थोवा xxx ॥ (ज्योतिष्क. वि वइसदि, वइट्टो वि णिवज्जदि, णिवण्णो ६) । ५. पाणू य सत्त थोबो Xxx ॥ (जीवस. वि उट्ठाविदो वि ण उदि, सुत्तमो चेव पंथे बहदि १०७)। ६. xxx सप्तभिः स्तोकमुदाहरन्ति। कसदि लुणदि परिवादि कुणदि सा थीणगिद्धी णाम । (वरांगच. २७-४) । ७. सप्त प्राणा: स्तोकः । (त. (घव. पु. १३, पृ. ३५४) । ६. स्त्यानगृद्धिर्यया वा. ३, ३८, ८) । ८. थोवे सत्तुस्सासा । (अनुयो स्त्याने स्वप्ने गृद्धयति दीप्यते । आत्मा यदुदयाद्रौद्रं च. प. ५७) 18. सत्तपाणकालो एगो थोवो। बहुकर्म करोति सा ॥ (ह. पु. ५८-२२६) । ७. (अनुयो. हरि. व. पू. ५४)। १०. सत्त उस्सासे स्वप्ने वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगृद्धि:xxx घेत्तूण एगो थोवो हवदि। xxx उक्तं च- यदुदयादात्मा रौद्रं बहुकर्म करोति स्त्यानगृद्धिः । xxx सत्तुस्सासो थोवो xxx ॥ (धव. (मूला. वृ. १२-८८)। ८. स्त्याना पिण्डीभूता, पु.३, पृ. ६५; गो. जी. ५७४)। ११. Xxx ऋद्धिः प्रात्मशक्तिरूपा यस्यां स्वापावस्थायां सा सत्तूसासहिं थोवउ लेखहि ॥ (म. पु. पुष्प. २-५, स्त्यानद्धिः, तद्भावे हि प्रथमसंहननस्य केशवार्द्धबलपृ. २२)। १२. ते (प्राणाः) सप्तसङ्ख्याकाः सदृशी शक्तिरुपजायते । तथा च श्रूयते प्रवचने को
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स्त्यानगृद्धि]
२१८२, जन-लक्षणावली
[स्त्रोपरीषहसहन
यद.
ऽपि प्राप्तः क्षुल्लक: स्त्यानद्धिनिद्रास हितो द्विरदेन स्त्री-१. स्त्रीवेदोदयात् स्त्यायत्यस्यां गर्भ इति दिवा खलीकृतः, ततस्तस्मिन द्विरदे बद्धाभिनिवेशो स्त्री।। (स. सि. २-५२; त. वा. २, ५२, १; रजन्यां स्त्यानद्धर्युदये प्रवर्तमानः समुत्थाय तद्दन्त- मूला. वृ. १२-८७) । २. छादयदि सयं दोसेण जदो
स्वोपाश्रयद्वारि च प्रक्षिप्य पुनः प्रसुप्त- (धव, व गो. जी. 'दोसेण यदो') छादयदि परंप वानित्यादि । (प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. ४६७)। दोसेण । छादणसीला णियदं तम्हा सा वणिया ६. स्वप्ने यया वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगद्धि- इत्थी ।। (प्रा. पंचसं. १-१०५; धव. पु. १, पृ. दर्शनावरणकर्म विशेष:। स्त्याने स्वप्ने गद्धय ३४१ उद्.; गो. जी. २७४) । ३. दोषरात्मानं परं दयादात्मा रौद्रं बहुकर्म करोति । (भ. प्रा. मूला. च स्तृणाति छादयतीति स्त्री। Xxx अथवा २०६४)। १०. स्वप्ने यया वीर्य विशेषाविर्भाव: पुरुषं स्तृणाति प्राकाङ्क्षतीति स्त्री पुरुषकाङ्क्षत्यर्थः । सा स्त्यानगृद्धिः । स्त्याने स्वप्ने गृध्यते दीप्यते यदु- (धव. पु. १, पृ. ३४०); स्तृणाति प्राच्छादयति दयादात रौद्रं च बहु च कर्मकरणं सा स्त्यानगद्धिः। दोषरात्मानं परं चेति स्त्री। (धव. पु. ६, पृ. ४६; (गो. क. जी. प्र. ३३)। ११. यस्यां बलविशेष. मला. व, १२-१६२)। ४. गर्भः स्त्यायति यस्यां प्रादुर्भावः स्वप्ने भवति सा स्त्यानगद्धि रुच्यते । x या दोषश्छादयति स्वयम् । नराभिलाषिणी नित्यं या Xx स्त्याने स्वप्ने गृद्धयति दीप्यते यो निद्रा- सेह स्त्री निरुच्यते ॥ (पंचसं. अमित. १-१६६) । विशेषः सा स्त्यानगृद्धि रुच्यते xxx यदुदया- ५. स्त्यायति संघातीभवत्यस्यां गर्भ इति स्त्री। ज्जीवो बहुतरं दिवाकृत्यं रौद्रकर्म करोति सा स्त्यान- (न्यायकु. ४७, पृ. ६४८)। ६. यस्मात् कारणात् गृद्धिरुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ८-७)।
य: स्तृणाति स्वयं प्रात्मानं दोषः मिथ्यादर्शनाज्ञाना१ जिसके द्वारा सुप्त अवस्था में भी विशेष सामर्थ्य संयम-क्रोध-मान-माया-लोभादिभिः छादयति संवप्रगट होता है उसे स्त्यानगृद्धि कहते हैं। ४ सोने की णोति, नयतः मृदुभाषित स्निग्धविलोकनानुकूलवर्तएक विशेष अवस्था का नाम स्त्यान और गद्धि का नादिकुशलव्यापारैः परमपि पुरुषमपि स्ववश्यं कृत्वा अर्थ प्राकांक्षा है, इसमें प्रात्मा स्थिर चित्त वाला होता हिंसानृत-स्तेयाब्रह्म - परिग्रहादिपातकेन छादयति हमा अतिशय विकसित स्वर वाला नहीं होता। इसके तस्मात् छादनशीला द्रव्य-भावाभ्यां महिला सा स्त्रीलिए मांस, मोदक और दन्त प्रादि के उदाहरण का ति वणिता। (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २७४)। निर्देश किया गया। यहां 'स्त्याद्धि' यह पाठभेद १ स्त्रीवेद के उदय से जिसमें गर्भ संघात को प्राप्त भी प्रगट किया गया है। तदनुसार प्राणी उसके होता है वह स्त्री कहलाती है। २ जो दोष से स्वयं उदय में प्रगट हुई शक्ति से अर्धचक्री के समान को तथा पर (पुरुष) को भी प्राच्छादित करती है बलवान होता है। ५ स्त्यानगद्धि का तीन उदय उसे स्त्री कहा जाता है। होने पर प्राणी उठाये जाने पर भी फिर से सो स्त्रीकथा-तथा स्त्रीकथा स्त्रीणां नेपथ्याङ्गहारजाता है, सोता हुग्रा भी कार्य करता है व सन्तप्त हाव-भावादिवर्णनरूपा “कर्णाटी सुरतोपचारकुशला होता हा विलाप करता है। ८ जिस सुप्तावस्था लाटी विदग्ध (सा. ध 'विदग्धा') प्रिया" इत्यादिमें प्रात्मशक्ति रूप ऋद्धि पिण्डीभत होती है उसे रूपा वा । (योगशा. स्वो. ३-७६% सा. घ. स्वो. स्त्यानद्धि कहा जाता है। उसके सद्भाव में प्रथम टी. ४-२२)। संहनन वाले के अर्धचक्री के समान शक्ति उत्पन्न स्त्रियों के वेषभूषा, नत्य व हाव-भाव प्रादि का होती है। यहां प्रवचनोक्त एक उदाहरण देते हुए वर्णन करना अथवा कर्णाटक देश की स्त्री सुरतकहा गया है कि हाथी से पीड़ित एक क्षल्लक ने व्यवहार में कुशल होती है, लाट देश की स्त्री उसके प्रतीकार स्वरूप स्त्यानगद्धि के उदय में सोते चतुर व प्रिय होती है, इत्यादि प्रकार से चर्चा हुए उठकर व उस बलिष्ठ हाथी के दांत को उखाड़ करना; यह स्त्रीकथा कहलाती है। कर अपने उपाधय के द्वार पर रख दिया और स्त्रोप सहन-१. एकान्तेष्वाराम-भवनादिफिर से सो गया।
प्रदेशेषु नवयौवन-मद-विभ्रम-मदिरापानप्रमत्तासु प्रमस्त्या द्ध---देखो स्त्यानगद्धि ।
दासु बाधमानासु कूर्मवत्संहृतेन्द्रियहृदयविकारस्य
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स्त्रीपरीषहसहन]
११८३, जैन-लक्षणावली
स्त्रिीवेद
ललित-स्मित-मृदूकथित-सविलास वीक्षण- प्रहसन-मद- बाघा के करने पर भी जो कछए के समान अपनी मन्थरगमन-मन्मथशरव्यापारविफलीकरणस्य स्त्री- इन्द्रियों व मन के विकार को रोककर उनके मन्द बाघापरिषहसहनमवगन्तव्यम् । (स. सि. ६-६)। हास्य ब हाव-भाव प्रादि रूप कामव्यापार को २. वराङ्गनारूपदर्शन-स्पर्शनादिविनिवत्तिः स्त्री- निरर्थक कर देता है उसके स्त्रीपरीषहसहन परीषहजयः। (त. वा. ६, ६, १३); एकान्ते जानना चाहिए। पाराम-भवनादि (चा. सा. 'भवनारामादि') प्रदेशे स्त्रोभाववेद...मार्दवास्फूटत्व-बहमदनावेश-नेत्रविराग-द्वेष-यौवन-दर्प-रूप-मद-विभ्रमोन्माद- मद्यपाना- भ्रमादिसूख-पंस्कामतादिः स्त्रीभाववेदः। (अन.ध. ऽऽवेशादिभिः प्रमदासु वाधमानासु तदक्षि-वक्त्र- स्वो. टी. ४-६४)। भ्रूविकार-शृंगाराकार-विहार-हाव - विलास - हास- मृदुलता, अस्पष्टता, बहुत कामाभिप्राय, नेत्र, लीलाविज भितकटाक्षविक्षेप सुकुमार-स्निग्ध - मृदुपी. विलासादि सुख एवं पुरुष प्राकांक्षा प्रादि ये स्त्री. नोन्नतस्तनकलश-नितान्त ताम्रोदर- (चा, 'ताम्रा- भाववेद के लक्षण हैं। धर') पृथु जघनरूपगुणाभरणगन्ध-माल्य-वस्त्रादीन स्त्रीलिंगसिद्ध केवलज्ञान-स्त्रीलिंगे वर्तमाना ये प्रतिनिगहीतमनोविप्लुतेर्दशं नस्पर्शनाभिलाषनिरुत्सु - सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं स्त्रीलिंगसिद्ध केवलज्ञानम् । कस्य स्निग्धमृदुविशदसुकुमाराभिधानतंत्रीवंशमिश्रा- (प्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ. ८५) । तिमधुरगीतश्रवण निवृत्तादरश्रोत्रस्य ससारार्णवव्य- स्त्रीलिंग में रहते हुए जो सिद्धि को प्राप्त हुए हैं सन-पातालावगाढदुःख . द्राऽऽवतकुटिलाध्यायिनः स्त्र- उनके केवलज्ञान को स्त्रीलिंगसिद्ध केवलज्ञान कहा णार्थनिवृत्तिः स्त्रीपरीषजय इति कथ्यते। (त. जाता है। वा. ६, ६, १३; चा. सा. पृ. ५१-५२) । ३. स्त्री- स्त्रोवेद -- देखो स्त्री व स्त्रीलिंग । १. यदुदयात्स्त्रकटाक्षेक्षणादिभिर्योषिबाधा xxx सहनम् । णान् भावान् प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः । (स. सि. ८, (मला. व. ५-५८) । ४. जेता चित्तभवस्त्रयस्य ९)। २. यस्योदयात् स्त्रैणान् भावान् मार्दवास्फुटत्व. जगतां यास अपाङ्गेषुभिस्ताभिर्मत्तनितम्बिनीभिरभि- क्लव्य-मदनावेश-नेत्रविभ्रमास्फालनसुख-पुंस्कामनातः संलोभ्यमानोऽपि यः । तत्फल्गुत्वमवेत्य नति दीन् प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः । (त. वा. ८, ९, ४)। विकृति तं वर्यधर्मान्दिरं (?) वन्दे स्त्र्यात्तिजयं ३. स्त्रियः स्त्रीवेदोदयात्पुरुषाभिलाषः। (श्रा. प्र. जयन्तमखिलानथं कृतार्थ यतिम् ॥ (प्राचा. सा. टी.१८)। ४. स्त्रियं विन्दतीति स्त्रीवेदः । अथवा ७-१७)। ५. रागाद्यपप्लुतमति युवतीं विचित्रां- वेदनं वेदः, स्त्रियो वेदः स्त्रीवेदः । (धव. पु. १, पृ. श्चित्तं विकर्तुमनुकूलविकूलभावान् । संतन्वती रहसि ३४०-३४१); जेसि कम्मक्खंधाणमुदएण पुरुसम्मि कूर्मबदिन्द्रियाणि, संवत्त्य लघ्वपवदेत गुरूक्तियुक्त्या। प्राकक्खा उप्पज्जइ तेसिमित्थिवेदोत्ति सण्णा । (अन. ध. ७-७६); स्त्रीदर्शन-स्पर्शनालापाभि- (धव. पु. ६, पृ. ४७); इस्थिवेदोदएण इत्थिवेदो। लाषादिनिरुत्सुकस्य तदक्षि-वक्त्र-भ्रूविकार-रूप-गति- (धव. पु. ७, पृ. ७६); जस्स कम्मस्स उदएण पुरिहासलीलाविजृम्भितपीनोन्नतस्तन - जघनोरुमूलकक्षा- साभिलासो होदि त कम्मं इत्थिवेदो णाम । (धव. पु. नाभिनिरीक्षणादिभिरविप्लुतचेतसस्त्यक्तवंशगोतादि- १३, पृ. ३६१)। ५. येषां पुद्गलस्कन्धानामुदयेन श्रते: स्त्रीपरीषहजयः स्यादित्यर्थः । (अन, ध. स्वो. पुरुष आकांक्षोत्पद्यते तेषां स्त्रीवेद इति संज्ञा । टी. ६-९६)। ६. स्त्रीदर्शन स्पर्शनालापाभिलाषादि- (पला. व. १२-१६२)। ६. वेद्यते इति वेदः, निरुत्सुकस्य तदक्षि-वक्त्र-भ्रूविकार-शृंगाराकार-रूप- स्त्रियो वेदः स्त्रीवेदः, स्त्रिय: पुमांसं प्रत्यभिलाष गति-हासलीलाविजृम्भितपीनोन्नतस्तन-जघनोरु- मूल- इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्य कर्मापि स्त्रीवेदः । (प्रज्ञाप. कक्षा-नाभिनिरीक्षणादिभिरविकृतचेतसस्त्यक्तवंश मलय. बृ. २६३, पृ. ४६८) । ७. यदुदयात् स्त्रीगीतादिश्रुतेः स्त्रीपरीषहजयः। (प्रारा. सा. टी. परिणामानङ्गीकरोति स स्त्रीवेदः । (त. वृत्ति श्रुत.
१ उद्यान व भवन प्रादि एकान्त स्थानों में यौवन- १ जिसके उदय से जीव स्त्री सम्बन्धी भावों को मद एवं मदिरापान प्रादि से उन्मत्त स्त्रियों के द्वारा प्राप्त होता है उसे स्त्रीवेद कहते हैं। ३ जिसके
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स्थण्डिलसम्भोगियति] ११८४, जैन-लक्षणावली ।
[स्थविरकल्प उदय से स्त्री के पुरुष को अभिलाषा होती है वह कारणमंतं तंतं तवच रणणिरूवया रम्मा ॥ तित्तियस्त्रीवेद कहलाता है।
पयमेत्ता हु थलगयसणामचूलिया भणिया (अंगप. स्थण्डिलसम्भोगियति- १. यत्र भिक्षा कृता तत्र ३, ३-४, पृ. ३०३)। स्थंडिलान्वेषणं कुर्यात् कायशोधनार्थम्, संभोगयोग्यं १ जिसमें पृथिवी पर गमन के कारणभूत मंत्र-तंत्र यति संघाटकत्वेन गल्लीयात् स्वयं वा तस्य संघाटको और तपश्चरण के साथ वास्तुविद्या एवं पथिवी से भवेत् । एवं स्थंडिलान्वेषणं (णे) संभोगयोग्ययतिना सम्बद्ध अन्य भी शुभ-अशुभ के कारण को प्ररूपणा सह वृत्तौ च यो यत्नपरः स्थंडिलसम्भोगो यतिरि- की जाती है उसे स्थलगता चूलिका कहा जाता है। त्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. ४०३)। २. थंडिल- उसका पदप्रमाण दो करोड़, नौ लाख, नवासी हजार संभो गिजदो यत्र भिक्षा कृता तत्र स्थण्डिलं प्रासुक- दो सौ (२०६८६२००) है। स्थानं कायशोधनार्थमन्वेषते । समाचारात्मक: स्थलचर-सीह-बय-वग्घादो थलचरा। (धव. संभोगः। योग्यं यति संघाटकत्वेन गृह्णीयात्, स्वयं पु. १, पु. ६०); वृक-व्याघ्रादयः स्थलचराः। (धव. वा तस्य संघाटको भवेत् । एवं स्थंडिलान्वेषणे पु. १३, पृ. ३६१) । संभोगयोग्ययतिना मह वृत्तौ च यो यत्नपरः स स्थंडि- सिंह, वृक (भेड़िया) और व्याघ्र प्रादि तिर्यंच जीवों लसंभोगियतिरित्युच्यते । (भ. प्रा. मला. ४०३)। को स्थल में गमन करने के कारण स्थलचर कहा १ जहाँ भिक्षा की है वहाँ शरीर शुद्धि के लिए जाता है । प्रासुक स्थान को खोजता है, संभोग योग्य- समान स्थविर---१. स्थविरो वृद्धः । (योगशा. स्वो. विब. समाचार वाले–यति को संघाटक (सहायक) के ४-६०) । २. धर्म विषीदतां प्रोत्साहकः स्थविरः । रूप से ग्रहण करना चाहिए, अथवा स्वयं उसका (व्यव. भा. मलय. व. ३४, पृ. १३); स्थविरो संघाटक हो जाना चाहिए। इस प्रकार प्रासुक जरसा वृद्धशरीरः । (व्यव. भा. मलय. बृ. ७४, पृ. स्थान के खोजने और संभोग योग्य यति के साथ ७४) । रहने में जो उद्यत रहता है उसे स्थण्डिलसंभोगि- १ स्थविर वृद्ध को कहा जाता है। २ धर्म में खेद. यति कहते हैं।
खिन्न होने वालों को जो प्रोत्साहित किया करता है स्थलगता चूलिका – १. थलगया णाम तेत्तिएहि उसे स्थविर कहते हैं। चेव पदेहि (दोकोडि-णवलक्ख-एऊणणवुइसहस्स- स्थविरकल्प- १. एए चेव दुवालस मत्तग अइरेगवेसदपदेहि) २०६८९२०० भूमिगमणकारण-मंत- चोलपट्टो य । एसो च उद्दसविधो उबधी पुण थेरतंत-तवच्छरणाणि वत्थुविज्जं भूमिसंबंघमण्णं पि कप्पम्मि । (श्रोधनि. ६७१) । २. थविरकप्पो वि सुहासुहकारणं वण्णेदि । (धव. पु. १, पृ. ११३); कहियो प्रणयाराणं जिणेण सो एसो। पंचच्चेलस्थलगतायां द्विकोटि-नवशतसहस्रकान्नवतिसहस्रद्वि- च्चाप्रो अकिंचणत्तं च पडिलिहणं ॥ पंचमहव्वयशतपदायां २८६८६२०० योजनसहस्रादिगति. धरणं ठिदिभोयण एयभत्तकर पत्तो। भत्तिभरेण य हेतवो विद्या-मन्त्र-तन्त्रविशेषा निरूप्यन्ते । (धव. पु. दत्तं काले य अजायणे भिक्खं ।। दुविहतवे उज्जमणं &, पृ. २०९-१०) । २. स्थलगताप्येतावत्पद छविहावासएहि अणवरयं । खिदिसयणं सिरलोयो (२०६८६२००) परिमाणव भगमनकारण-तंत्रादि- जिणवरपडिरूवपडिगहण || संहणणस्स गुणेण य सूचिका, पृथिवीसंबन्धवास्तुविद्याप्रतिपादिका च। दुस्समकालस्स तवपहावेण । पुर-णयर-गामवासी (सं. श्रुतभ. टी. ६, पृ. १७४) । ३. स्थलगता मेरु- थविरे कप्पे ठिया जाया ।। उपयरण तं गहियं जेण कुलशैल-भूम्यादिषु प्रवेशन शीघ्रगमनादिकारणमंत्र- ण भंगो हवेइ चरियस्स। गहिय पुत्थयदाणं जोग्गं तंत्र तपश्चरणादीनि वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जस्स तं तेण ।। समदाएण विहारो धम्मस्स पहावणं जी. प्र. ३६१-६२)। ४. स्तोककालेन बहुयोजन- ससत्तीए । भवियाण धम्मसवणं सिस्साण य पालणं गमनादिहेतुभूतमंत्रतंत्रादिनिरूपिका पूर्वोक्तपदप्र- गहणं ।। (भावसं. १२४-२६) । माणा स्थलगता चूलिका । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। १ पात्र व पात्रबन्ध प्रादि बारह प्रकार की उपधि ५. मेरु-कुलसेल-भूमीपमुहेसु पवेस-सिग्धगमणादि। जो जिनकल्पिकों के होती है उसमें मात्रक और
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स्थान] ११८५, जैन-लक्षणावली
[स्थानाङ्ग चोलपट्ट के सम्मिलित करने पर चौदह प्रकार की जाता है । उपधि वाला स्थविकल्प होता है। २ पाँच प्रकार स्थानक्रिया एकपाद-समपादादिका स्थानक्रिया। के वस्त्रों का परित्याग करके दिगम्बर होना, प्रति- (भ. प्रा. विजयो. व मूला. पृ.८६)। लेखन (पिच्छी) रखना, पाँच महाव्रतों का धारण कायोत्सर्ग में एक पाद अथवा समपादरूप से स्थित करना, बिना याचना के योग्य समय में भक्तिपूर्वक होना, इसे स्थानक्रिया कहा जाता है। दिए गये भोजन को खड़े रहकर हाथों के द्वारा
स्थानसमुत्कीर्तन ---तिष्ठत्यस्यां संख्यायामस्मिन् दिन में एक ही बार ग्रहण करना, दोनों प्रकार के
वा अवस्थाविशेषे प्रकृतय इति स्थानम् । ठाणं ठिदि तप में उद्यत रहना, छह प्रावश्यकों का निरन्तर
अवट्ठाणमिदि एयट्ठो । समुविकत्तणं परूवणमिदि पालन करना, पथिवी पर सोना, केशलोंच करना,
उत्त होदि । ठाणस्स समुक्कित्तणा ठाणसमुक्कित्तणा। जिनेन्द्ररूप का ग्रहण करना; दुषमा काल के प्रभाव
(धव. पु. ६, पृ. ७६)। से हीन संहनन होने के कारण पुर, नगर अथवा
जिस संख्या में प्रथवा अवस्थाविशेष में कर्मप्रकृतियां गांव में रहना; जिससे चारित्र भंग न हो ऐसे उपकरण को रखना, जो जिसके योग्य हो उसे पुस्तक
रहती हैं उसका नाम स्थान है, समत्कीर्तन का अर्थ
वर्णन करना है, इस प्रकार जिस अधिकार में उक्त देना. समुदाय में विहार करना, शक्ति के अनुसार
स्थान की प्ररूपणा की गई है उसका नाम स्थानधर्म की प्रभावना करना, भव्यों को धर्म सुनाना
समत्कीर्तना है। यह षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड. तथा शिष्यों का पालन करना; यह सब स्थविर
स्वरूप जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में दूसरी है। कल्प है।
स्थानाड-१. से कि तं ठाणे ? ठाणे णं ससमया स्थान--१. उप्पत्तिहेऊ ठाणं । (धव. पु. ५. प.
ठाविज्जति परसमया ठाविज्जति ससमय-परसमया १८६); एगजीवम्मि एककम्हि समए जो दीसदि
ठाविज्जति जीवा ठाविज्जति अजीवा ठाविज्जति कम्माणभागो तं ठाणं णाम। (धव. पू. १२, प.
जीवाजीवा० लोगा० अलोगा. लोगालोगा ठावि१११); समुद्रावरुद्धः वज: स्थानं नाम, निम्नगाव
ज्जति। ठाणे णं दव्व-गुण-खेत-काल-पज्जव-पयत्थाणं रुद्धं वा । (धव. पु. १३, पृ. ३३६) । २. स्थानमव
सेला सलिला य समुद्दा सर-भवण विमाण-पागारगाहनालक्षणम् । (प्राव. भा. मलय. व. २०५, प.
णदीपो। णिहिलो पुरिसज्जाया सरा य गोत्ता य ५९४) । ३. तिष्ठन्ति स्वाध्यायव्यापृता अस्मिन्निति
जोइसंचाला ॥१॥ एक्क विहवत्तव्वयं दुविह जाव स्थानम् । (व्यव. भा. मलय.वृ. पृ. ५४)।
दसविहवत्तब्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगड्राइंच प्रसंग के अनसार स्थान के लक्षण अनेक देखे णं परूवणया प्राधविज्जति, ठाणस्स णं परित्ता जाते हैं । यथा --- ५ उत्पत्ति के हेतु का नाम स्थान वायणा ..... से त्तं ठाणे। (समवा. १३८) । है। यह प्रोवयिक भाव के प्रसंग में कहा गया है। २.से कि तं ठाणे? आणे णं जीवा ठाविज्जति प्रकृत स्थान की अपेक्षा उसके गति-लिगादिरूप पाठ अजीवा ठाविज्जति [जीवाजीवा ठाविज्जति सभेद निदिष्ट किए गये हैं। एक जीव में एक समय समए ठाविज्जइ परसमए ठाविज्जइ ससमय-परमें जो कर्म का प्रनभाग दिखता है उसका नाम समए ठाविज्जइ लोए ठाविज्जइ अलोए ठाविज्जइ स्थान है। यह अनुभागाध्यवसानस्थान की प्ररूपणा लोयालोए ठाविज्जइ । ठाणे णं टंका कडा सेला के प्रसंग में कहा गया है। समद्र व नदी से अवरुद्ध सिहरिणो पब्भारा कुंडाइं गृहाम्रो प्रागरा दहा व्रज (गायों के स्थान) को स्थान कहा जाता है। नईप्रोप्राधविज्जति । ठाणे णं परिता वायणा".... यह मनःपर्ययज्ञान के विषय के प्रसंग में कहा गया से तं ठाणे ॥३॥(नन्दी. सू. ८९)। ३. स्थाने अनेका. है । २ स्थान का लक्षण अवगाहना है । यह पर्याय- श्रयाणामर्थानां निर्णयः क्रियते । (त. वा. १, २०, लोक के प्रसंग में कहा गया है। ३ स्वाध्याय में १२) । ४. यत्रकादीनि पर्यायान्तराणि वर्ण्यन्ते तत प्रवृत्त होकर जहाँ अवस्थित होते हैं उसे स्थान कहा स्थानम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. १-२०)।
ल. १४६
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स्थानाङ्ग ]
५. ठाणं णाम अंगं वायालीसपदसहस्सेहि ४२००० एगा दिएगुत्तरट्टणाणि वण्णेदि । तस्योदाहरणम् - एक्को चैत्र महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिदो। चदुचकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य 11 छक्कापक्कमत्त उवजुत्तो सत्तभंगसब्भावो । अट्ठा सवो वट्ठो जीवो दसठाणियो भणिदो || (पंचा. का. ७१-७२; धव. पु. १, पृ. १.० उद्.) ; स्थाने द्वाचत्वारिंशत्पदसहस्रे ४२००० एकाद्योत्तरक्रमेण जीवादिपदार्थाना दश स्थानानि प्ररूप्यन्ते । ( धव. पु पू. १८) । ६. द्विचत्वारिंशत्पदसहस्रसंख्यं जीवादिद्रव्यं काऽश्चेकोत्तरस्थानप्रतिपादकं स्थानम् ४२००० । (सं. श्रुतभ. टी. ७, पृ. १७२) । ७. पद्रव्यं काद्युत्तर स्थानव्याख्यानकारकं द्वाचत्वारिंशत्पदसहस्रप्रमाणं स्थानाङ्गम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२० ) । ८. बादालसहस्तपदं ठाणंगं ठाणभेयसंजुत्त । चिट्ठति ठाणभेया एयादी जत्थ जिणदिट्ठा || (अंगप. १-२३, पृ. २६१) ।
११८६, जैन - लक्षणावली
१ जिस अंगश्रुत में स्वममय, परसमय, स्व परसमय, जीव, श्रजीव, जीवन्यजीव, लोक, श्रलोक और लोक-लोक; इनको यथावत् स्वरूप के प्रतिपादन के लिए स्थापित किया जाता है, जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्याय के श्राश्रय से निरूपण किया जाता है; जहाँ पर्वत, जल (गंगा आदि नदियां), समुद्र, सूर्यविमान, भवनवासिविमान, सुवर्ण-चांदी श्रादि की खानें, निधियां, पुरुषप्रकार, षड्ज ऋषभादि स्वर, गोत्र और ज्योतिषियों के संचार; इनकी व्यस्वथा की गई है, तथा अध्ययन क्रम के अनुसार एक से लेकर दस प्रकार के वक्तव्य की स्थापना की जाती है उसे स्थानांग कहा जाता है। यह तीसरा अंगश्रुत है । ३ स्थानांग में श्रनेकाश्रयस्वरूप पदार्थों का निर्णय किया जाता है । ५ जिसमें एक से लेकर एक अधिक के क्रम से स्थानों की प्ररूपणा की जाती है उसे स्थानांग कहते हैं। जैसे महात्मा (जीव ) एक ही है, ज्ञान-दर्शन अथवा संसारी व मुक्त चल के भेद से दो प्रकार का है, उत्पाद व्यय - ध्रौव्यस्वरूप तीन लक्षण वाला है, चार गतियों में संक्रमण किया करता है, प्रोपशमिकादिरूप प्रमुख पांच गुणों से युक्त हैं, चार दिशाओंों के साथ ऊपर-नीचे इनके भेद से छह श्रपक्रमों या उपक्रमों से संयुक्त
[ स्थापना
सात भंगों के सद्भावस्वरूप है, आठ कर्मों के श्राव से युक्त है, नो पदार्थों को विषय करने वाला है; पृथिवी श्रादि चार, प्रत्येक व साधारण वनस्पति तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन दस स्थानों वाला है । स्थानान्तर - ट्टिमद्वाणमुवरिमाणम्हि सोहिय रूवणे कदे जं लद्धं तं ठाणंतरं णाम । ( व. पु. १२, पृ. ११४) ।
उपरिम स्थान में से अधस्तन स्थान को कम कर देने पर जो प्राप्त हो उसका नाम स्थानान्तर है । यह लक्षण अनुभागाध्यवस्थानप्ररूपणता के प्रसंग में किया गया है ।
स्थानी- स्थानम् ऊर्ध्व कायोत्सर्गः तद्विद्यते येषां ते स्थानिन: । ( प्रा. योगभ. टी. १२, पु. २०२ ) । स्थान नाम कायोत्सर्ग का है, वह जिन योगियों के है वे स्थानी कहलाते हैं ।
स्थापनस्थापन --स्थापनस्थापनं यो यस्य स्थापनाह यथाऽचार्य गुणोपेत आचार्यः स्याप्यते । ( उत्तरा. चू. पू. २४० ) । जो जिसको स्थापना के योग्य हो उसे स्थापनस्थापन कहते हैं। जैसे-जो प्राचार्य के गुणों से युक्त है उसकी प्राचार्य के रूप में स्थापना की जाती है । स्थापना - १. काष्ठ पुस्त-चित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना । (स. सि. १-५ ) 1 २. जं पुण तयत्थसुन्नं तयभिप्पाए। तारिसागारं । कीरइ व निरागारं इत्तरमियरं व साठवणा ।। (विशेषा. २६) । ३ प्राहितनामकस्य द्रव्यस्य सदसद्भावात्मना व्यवस्थापना स्थापना । (लघीय. स्वो. विव. ७४ ) ; आहितनामकस्य द्रव्यस्य सोऽयमिति संकल्पेन व्यवस्थाप्यमाना स्थापना । (लघीय. प्रभय. वृ. ७६, पृ. ६८ ) । ४ सोऽयमित्यभिसम्बन्धत्वेन श्रन्यस्य व्यवस्थापनामात्रं स्थापना । यथा परमेश्वर्यलक्षणो यः शचीपतिरिन्द्रः 'सोऽय' इत्यन्यवस्तु प्रतिनिधीयमान स्थापना भवति । (त. वा. १, ५, २) 1 ५. श्रहिणामस्स श्रण्णस्स सोयमिदि ट्ठवणं ट्ठवणा णाम । ( धव. पु. १, पृ. १६ ) ; सो एसो इदि प्रणहि बुद्धीए अण्णारोवणं ठवणा णाम । ( घव. पु. ४, पृ. ३१४ ) ; सोऽयमित्यभेदेन स्थाप्यतेऽन्योstri स्वापनयेति प्रतिनिविः स्थापना । ( धव. पु.
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स्थापना ]
१३. पू. २०१ ) ; स्थाप्यतेऽनया निर्णीतरूपेण श्रर्थ इति स्थापना । ( धव. पु. १३, पू. २४३ )। ६. वस्तुनः कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता । सद्भावेतरभेदेन द्विधा तत्त्वाधिशेषतः ॥ स्थाप्यत इति स्थापना प्रतिकृतिः, सा चाहितनामकस्येन्द्रादेवस्तवस्य तत्त्वाध्यारोपात् प्रतिष्ठा, सोऽयमभिसम्बन्धेनान्यस्य व्यवस्थापना, स्थापनामात्रं स्थापनेति वचनात् । (त. श्लो. १, ५, ५४, पृ. १११ ) । ७. सोऽयमित्यक्षकाष्ठादेः सम्बन्धेनान्यवस्तुनि । यद्व्यवस्थापना - मात्र स्थापना साभिधीयते ।। (त. सा. २ - ११) । ८. साकारे वा निराकारे काष्ठादो यग्निवेशनम् । सोऽयमित्यभिधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥ ( उपासका. ८२६; गो. क. जी. प्र ५१ उद्) । ६. स्थाप्यते इति स्थापना प्रतिकृतिः, सा च प्राहितनामकस्य अध्यारोपितनामकस्य द्रव्यस्य इन्द्रादेः सोऽयमित्य भिधानेन व्ययस्थापना । ( न्यायकु. ७४, पू. ८०५ ) | १०. यत्सेय मित्यभेदेन सदृशेतरवस्तुषु ॥ स्थापनं स्थापनं वात्प्रतिकृत्यक्षतादिषु ॥ ( प्राचा. सा. ६-६ ) | ११. तदाकृतिशून्यं वाऽक्षनिक्षेपादि तत्स्थापना | ( श्राव. नि. मलय. वू पृ. ६ ) ; स्थापना नाम द्रव्यस्याकारविशेषः । ( श्राव. नि. मलय. बृ. ८०, पृ. ४८७ ) । १२. काष्ठकर्मणि पुस्तकर्मणि लेपकर्मणि प्रक्षनिक्षेपे, कोऽर्थः ? सारनिक्षेपे बराटकादिनिक्षेपे च सोऽयं मम गुरुरित्यादिस्थापमाना या सा स्थापना कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-५ ) । १३. सोऽयं तत्समरूपे तद्बुद्धिस्थापना यथा प्रतिमा || (पंचाध्या. ७४३)। १४. श्रन्यत्र सोऽयमिति व्यवस्थापनं स्थापना । (परमा. त. १-६) ।
१ काष्ठकर्म, पुस्तककर्म, चित्रकर्म और प्रक्षनिक्षेप प्रादि में जो 'वह यह है' इस प्रकार से अध्यारोप किया जाता है, इसका नाम स्थापना है । २ विवक्षित वस्तु ( इन्द्र श्रादि) के अर्थ से रहित उसके प्राकारयुक्त काष्ठकर्म श्रादि अथवा उसके श्राकार से रहित प्रक्ष-निक्षेप जैसे सतरंज की गोटों में हाथी-घोड़ा श्रादि की जो कल्पना श्रल्पकाल के लिए अथवा यावद्द्रव्यभावो की जाती है उसे स्थापना कहते हैं । ३ जिसके नाम का श्रध्यारोप किया जा चुका है ऐसे विवक्षित द्रव्य को सद्भाव ( तदाकार ) या प्रसद्भाव ( श्रतदाकार ) स्वरूप से
११८७, जेन - लक्षणावलो
[ स्थापनाकृति
व्यवस्था की जाती है, इसे स्थापना कहा जाता है । ५ जिसके द्वारा निर्णीत रूप से अर्थ को स्थापित किया जाता है उसे स्थापना कहते हैं । यह धारणा ज्ञान का पर्यायन्दाम है । ११ द्रव्य के प्रकारविशेष का नाम स्थापना है ।
स्थापना- उद्गमदोष देखो स्थापित | साधुयाचितस्य क्षीरादेः पृथक्कृत्य स्वभाजने स्थापन स्थापना 1 (योगशा. स्वो दिन. १-३८, पृ. १३३ ) ।
साधु के द्वारा याचित दूध श्रादि को अलग करके अपने पात्र में स्थापित करने पर स्थापना उद्गमदोष होता है । स्थापनाकर्म- १. जं तं ठवणकम्मं णाम । तं कम्मे वा चित्तम्भेषु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मे वा कम्मे वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मे सु वा भित्तिकम्मे वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खोवा वराडो वा जे चामण्णे एवमादिया ठवपाए विदि कम्मेत्ति तं सव्वं ठवणकम्मं णाम । ( षट्ख ५४, ११, १२ - धव. पु. १३, पृ. ४१ ) । २. सरिसासरिसे दव्वे मदिणा जीवट्ठियं खुजं कम्मं । तं एवं त्तिपदिट्ठा ठवणा तं ठावणाकम्मं ॥ ( गो . क. ५३ ) ।
१ काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेंड कर्म तथा ग्रक्ष, वराटक एवं श्रौर भी जो इनको श्रादि लेकर कर्मरूप से स्थापना द्वारा स्थापित किए जाते हैं, इस सबको स्थापनाकर्म कहा जाता है । २ सदृश अथवा विसदृश द्रव्य में जो बुद्धि से 'यह जीवस्थित कर्म है' इस प्रकार की प्रतिष्ठा या अध्यारोप किया जाता है उसे स्थापनाकर्म कहते हैं । स्थापनाकायोत्सर्ग - पापस्थापनाद्वारेणागतातीचारशोधननिमित्तकायोत्सर्गपरिणत प्रतिबिंबता स्थापनाकायोत्सर्ग: । (मूला. वृ. ७-१५१) । पाप की स्थापना से श्राए हुए प्रतीचार को शुद्ध करने के लिए प्रतिबिम्बस्वरूप से कायोत्सर्ग में परिणत होने का नाम स्थापनाकायोत्सर्ग है । स्थापनाकृति- जा साठवणकदी णाम सा कट्टकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसुवा लेप्पकम्मेसु वा लेष्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिह
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स्थापनाक्षर ]
कम्मे वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मे वा भेंडकम्मेसु वा प्रक्खो वा वराडो वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जति कदि ति सा सब्बा ठवणकदी णाम । ( षट्खं. ४, १, ५२ -- धव. पु. है, पू. २४८ ) ।
काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत (वस्त्र) कर्म, लेप्यकर्म लेण (पर्वत) कर्म, शैल ( पाषाण) कर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेंडकर्म तथा प्रक्ष व वराटक प्रादि अन्य भी जो 'कृति' इस प्रकार से स्थापना द्वारा स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाकृति कहलाती है ।
११८, जंन-लक्षणावली
स्थापनाक्षर - १. एदमिदमक्खरमिदि प्रभेदेण बुद्धीए जा दुविदा लीहादव्वं वा तं ठवणक्खरं णाम । (घव. पु. १३, पु. २६५ ) । २. पुस्तकेषु तत्तद्देशानुरूपतया लिखित संस्थानं स्थापनाक्षरम् । (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. ३३३ ) ।
१ 'यह वह अक्षर है' इस प्रकार से बुद्धि के द्वारा प्रभेदरूप से जो स्थापना की जाती है उसे प्रथवा रेखा द्रव्य को स्थापनाक्षर कहा जाता है । २ विभिन्न देशों के अनुसार पुस्तकों में जो प्राकार लिखा जाता है उसका नाम स्थापनाक्षर है । स्थापनाचतुविशति -स्थापनाचतुर्विंशतिश्चतुर्वि शतेः केषांचित्स्थापना ( श्राव. भा. मलय. वृ. १६२, पृ. ५८९ ) ।
किन्हीं की चतुविशति के रूप से जो स्थापना की जाती है उसे स्थापना चतुविशति कहा जाता है । स्थापना जिन--- X X X ठवणजिणा पुण जिणि
पडिमा । (चैत्यव. भाष्य ५१ ) । जिनेन्द्र की प्रतिमानों को स्थापनाजिन कहा जाता है ।
स्थापनाजीव- १. अक्षनिक्षेपादिषु जीव इति वा मनुष्यजीव इति वा व्यवस्थाप्यमानः स्थापनाजीवः । ( स. सि. १-५; त. वृत्ति श्रुत. १-५ ) । २. यः काष्ठ-पुस्त - चित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते जीव इति स स्थापनाजीवो देवताप्रतिकृतिवदिन्द्रो रुद्रः स्कन्द विष्णुरिति । ( त. भा. १-५) । ३. एवं स्थापना जीवाकारा प्रतिकृतिः । × × × य: आकारः कराद्यवयवसन्निवेशः स स्थापनाजीवः । ( त. भा. हरि वू. १-५) । ४. स जीवाकारो
[स्थापनानमस्कार
रचित सन् स्थापनाजीवोऽभिधीयते । एतदुक्तं भवति - शरीरानुगतस्यात्मनो य श्राकाशे दृष्टः स तत्रापि हस्तादिको दृश्यते इति कृत्वा स्थापनाजीवोSभिधीयते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-५) ।
१ प्रक्षनिक्षेप प्रावि में 'यह जीव है या मनुष्यजीव है' इस प्रकार से जिसकी व्यवस्था या अध्यारोप किया जाता है उसे स्थापनाजीव कहते हैं । २ काष्कर्म, पुस्तककर्म, चित्रकर्म और प्रक्षनिक्षेप आदि में इन्द्र, रुद्र, स्कन्द ( कार्तिकेय) प्रथवा विष्णु इस प्रकार की देवता की मूर्ति के समान जो 'जीव है' इस प्रकार से स्थापित किया जाता है उसे स्थापनाजीव कहते हैं ।
स्थापनाद्रव्य - १ यत् काष्ठ-पुस्त - चित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते द्रव्यमिति तत् स्थापनाद्रव्यम्, देवताप्रतिकृतिवदिन्द्रो रुद्रः स्कन्दो विष्णुरिति । ( त. भा. १-५) । २ यत् पुनः स्थाप्यते काष्ठादिषु तत् स्थापनाद्रव्यं विशिष्टाकारमिति । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५) ।
१ काष्ठकर्म पुस्तकर्म, चित्रकर्म और प्रक्षनिक्षेप आदि में इन्द्रादि देवताओं की मूर्ति के समान 'द्रव्य है' इस प्रकार से जिसकी स्थापना की जाती है वह स्थापनाद्रव्य कहलाता है ।
स्थापनानन्त - जंतं ठवणाणंतं णाम तं कटुकम्मेसु वा चित्तकम्मे वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा
कम्मे वा सेलकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा गिहकम्मे वा भेंडकम्मे वा दंतकम्मेसु वा अक्खो वा वराडयो वा जे च अण्णे ठवणाए ठविदा प्रणतमिदि तं सव्वं ठवणाणंत णाम । ( धव. पु. ३, पृ. ११, १२) ।
काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकमं, लेप्यकर्म, लेनकर्म, शैलकर्म, भित्तिकर्म, गृहकर्म, भेण्डकर्म और दन्तकर्म तथा अक्ष व वराटक एवं अन्य भी जो 'अनन्त है' इस प्रकार से स्थापना द्वारा स्थापित किये जाते हैं, उस सबका नाम स्थापनानन्त 1 स्थापनानमस्कार - नमस्कारव्यावृतो जीवस्तस्य कृताञ्जलिपुटस्य यथाभूतेनाकारेणावस्थिता मूर्तिः स्थापनानमस्कारः । ( भ. प्रा. विजयो. ७५३) । जो जीव नमस्कार में प्रवृत्त होकर दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर रखे हुए है उसकी उस प्रकार
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स्थापनानारक]
११८६, जैन-लक्षणावलो
[स्थापनाप्रतिक्रमण
के प्रकार से स्थित मूर्ति का नाम स्थापना- चित्त कम्मे वा । सब्भावमसम्भावं ठवणापिण्डं वियानमस्कार है।
णाहि ।। (प्रोधनि. ३३५) । स्थापनानारक-सो एसो त्ति बद्धीए अप्पिदस्स प्रक्ष, वराटक, काष्ठ, प्रस्त अथवा चित्रकर्म इनमें प्रणप्पिदेण एयत्तं कादण सब्भावासब्भावसरूवेण सदभाव व प्रसवभाव रूप स्थापनापिण्ड जानना ठविदं ठवणणेरइयो। (धव. पू. ७, प. ३०)। चाहिए। अभिप्राय यह है कि यदि एक ही प्रक्ष 'वह (नारक) यह है' इस प्रकार बुद्धि से विवक्षित प्रादि में पिण्ड की कल्पना की जाती है तो उसे नारक का अविवक्षित के साथ अभेद करके जो प्रसभावस्थापनापिण्ड कहा जाता है और यदि तदाकार या अतदाकार रूप से स्थापना की जाती तीन प्रादि प्रक्षादिकों में पिण्ड की कल्पना है उसे स्थापनानारक कहते हैं।
की जाती है तो उसे सद्भावस्थापनापिण्ड जानना स्थापनानिर्देश--निर्देशः स्थाप्यमानः स्थापनानि- चाहिए। देशः, स्थापनाया विशेषाभिधानं वा स्थापनानिर्देशो स्थापनापुरुष -- स्यापनापुरुषः काष्ठादिनिवतितो यथेयं कामदेवस्य स्थापनेति । (प्राव. नि. मलय. जिनप्रतिमादिकः। (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. ५५, पृ. व. १४०)।
१०२-३)। स्थापित किये जाने वाले निर्देश का नाम स्थापना- काष्ठ आदि से जिन जिनप्रतिमा आदि का निर्माण निर्देश है। अथवा स्थापना के विशेष कथन को किया जाता है उन्हें स्थापनापुरुष कहा जाता है । स्थापनानिर्देश जानना चाहिए, जैसे यह कामदेव स्थापनापूर्वगत - सो एसोत्ति एयत्तेण संकप्पिषकी स्थापना है।
दवं ठवणापूवगयं । (घव. पु. ६, पृ. २११) । स्थापनानुयोग १. ठवणाए जोऽणुप्रोगोऽणुप्रोग 'वह (पूर्वगत) यह है' इस प्रकार अभेदरूप से जिस इति वा ठविज्जए जं च । जा वेह जस्स ठवणा द्रव्य की कल्पना की जाती है उसे स्थापनापूर्वगत जोग्गा ठवणाणुरोगो सो ।। (विशेषा. १३६७; कहते हैं। प्राब. नि. मलय. वृ. १२६ उद.)। २. स्थापना स्थापनाप्रकृति ---जा सा ठवणपयडी णाम सा अक्षनिक्षेपादिरूपा, तत्र योऽनुयोगं कुर्वन् स्थाप्यते कटकम्मेसु वा चित्तकस्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पसोऽनुयोगानुयोगवतोरभेदोपचारात् स्थापनानुयोगः, कम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहस्थापना चासावनुयोगश्च स्थापनानुयोगः, यदि वा कम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडस्थापनाया अनुयोगो व्याख्या स्थापनानुयोगः, कम्मेसु वा अक्खो वा वराडपो वा जे चामण्णे द्रुवअथवा यः स्थापनाया अनुकलो योगः सम्बन्धः, णाए ठविज्जति पगदि त्ति सा सव्वा ठवणपयडी किमक्तं भवति ? यस्य स्थापना स्थाप्यमाना देश- णाम । (षट्खं. ५, ५, १०-घव. पु. १३, पृ. कालद्यपेक्षया युक्ता प्रतिभासते इति, सः स्थापनान- २०१)। योगः । (प्राव. नि. मलय. वृ. १२६) ।
काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्म, लेप्यकर्म, लेणकर्म, २ प्रक्षनिक्षेपादिस्वरूप स्थापना में अनुयोग के करने शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म अथवा भेंडवाले जिसकी स्थापना की जाती है उसे अनयोग कर्म; इनमें तथा प्रक्ष, वराटक व अन्य भी जो और अनुयोगवान् में अभेद का उपचार करने से 'प्रकृति है' इस प्रकार से स्थापना द्वारा स्थापित स्थापनानयोग कहा जाता है। अथवा स्थापना के किए जाते हैं उस सबका नाम स्थापनाप्रकृति है। अनुयोग (व्याख्या) को स्थापनानुयोग समझना स्थापनाप्रतिक्रमण-१. अशुभपरिणामानां विचाहिए। अथवा स्थापना के अनुकूल जो योग शिष्टजीवद्रव्यानुगतशरीराकारसादृश्यापेक्षया चित्रा(सम्बन्ध) हो उसे स्थापनानुयोग कहा जाता है। दिरूपं स्थापितं स्थापनाप्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. प्रर्थात स्थापित की जाने वाली जिसकी स्थापना विजयो. ११६, प. २७५-७६); असंयतमिथ्यादेश-काल प्रादि की अपेक्षा योग्य प्रतीत होती है दृष्टिजीवप्रतिबिम्बपूजादिषु प्रवृत्तस्य तत्प्रतिक्रमणं उसे स्थापनानुयोग कहते हैं।
स्थापनाप्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. ४२१, पृ. स्थापना पिण्ड-अक्खे वराडए वा कठे पोत्थे व ६१५) । २. सरागस्थापनाभ्यः परिणामनिवर्तनं
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स्थापनाप्रत्याख्यान )
स्थापनाप्रतिक्रमणम् । XXX प्रतिक्रमणपरिण तस्य प्रतिबिम्बस्थापना स्थापनाप्रतिक्रमणम् । (मूला. वृ. ७-११५ ) ।
१ विशिष्ट जीवद्रव्य से प्रनुगत शरीर के प्राकार की प्रपेक्षा से जो चित्र प्रादि के रूप में प्रशुभ परिणामों की स्थापना की जाती है उसे स्थापनाप्रतिक्रमण कहते हैं । २ सराग स्थापनाथों से परिणामों के हटाने का नाम स्थापनाप्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण में परिणत जीव के प्रतिबिम्ब की स्था पता को स्थापनाप्रतिक्रमण कहा जाता है ।
११६०, जैन-लक्षणावली
स्थापनाप्रत्याख्यान - प्राप्ताभासानां प्रतिमा न पूजयिष्यामीति, योगत्रयेण त्रस स्थावरस्थापनापीडां न करिष्यामीति प्रणिधानं मनसा स्थापनाप्रत्याख्यानम् । अथवा अर्हदादीनां स्थापनां न विनाशयिष्यामि नंवानादरं तत्र करिष्यामि इति वा । (भ. श्री. विजयो. ११६, पृ. २७६ ) ।
मैं प्राप्ताभासों की प्रतिमानों की पूजा न करूंगा तथा मन-वचन-काय से त्रस व स्थावर जीवों की स्थापना को पीड़ित न करूंगा, इस प्रकार मन से चिन्तन करने का नाम स्थापनाप्रत्याख्यान है । प्रथवा श्रवादिकों की स्थापना को न नष्ट करूंगा और न अनादर करूंगा, इस प्रकार के विचार का नाम स्थापनाप्रत्याख्यान है ।
स्थापनाबन्ध - प्रणबंधम्मि अण्णबंधस्स सो एसो ति बुद्धीए टूवणा दुवणबंधो णाम । ( धव. पु. १४, १. ४) ।
'वह यह है' इस प्रकार की बुद्धि से जो अन्य बन्ध में अन्य बन्ध की स्थापना की जाती है उसे स्थापनाबन्ध कहा जाता है ।
स्थापनाबन्धक - कट्ट - पोत्त-लेप्पकम्मादिसु सन्भावासवभावभेएण जे ठविदा बंघया त्ति ते ठवणबंधया णाम । ( धव. पु. ७, पृ. ३ ) ।
काष्ठकर्म, पोत्तकर्म और लेप्यकर्म प्रादि में सद्भाव मौर प्रसद्भाव के भेद से जिन बन्धकों की स्थापना की जाती है वे स्थापनाबन्धक कहलाते हैं । स्थापनामंगल - १. ठावणमंगलमेदं प्रकट्टिमाकट्टिमाणि जिबिबा । ( ति प १ -२० ) । २. जा मंगल तिठवणा विहिता सब्भावतो व असतो वा । ( बृहत्क. १) । ३. ठवणमंगलं णाम प्राहिदणामस्स
[स्थापनावश्यक
अण्णस्स सोयमिदि ठवणं ठवणा णाम । ( धव. पु. १, पू. १६) ।
१ प्रकृत्रिम और कृत्रिम जिनप्रतिमानों को स्थापनामंगल माना जाता है। २ सद्भाव अथवा प्रसद्भाव रूप से जो 'वह यह मंगल है' इस प्रकार की स्थापना की जाती है उसे स्थापनामंगल कहते हैं ।
स्थापनालक्षण स्थापनालक्षणं लकारादिवर्णानामाकारविशेषः, अथवा लक्षणानां स्वस्तिक- शङ्खचक्र-ध्वजादीनां यो मंगलपट्टादावक्षतादिभिर्व्यासस्तत् स्थापनालक्षणम् । (श्राव. नि. मलय. वृ. ७५१, पृ. ३६७) ।
'लक्षण' शब्दगत लकार श्रादि वर्णों का प्रथवा स्वस्तिक, शंख, चक्र और ध्वजा श्रादि लक्षणों (चिह्नों) का मंगलपट्ट प्रादि में जो प्रक्षतों श्रादि के द्वारा निक्षेप किया जाता है उसे स्थापनालक्षण कहते हैं ।
स्थापनालेश्या -- सब्भावासम्भावटुवणाए ठविददवं ठवणलेस्सा | (घव. पु. १६, पृ. ४८४)। सद्भाव या प्रसद्भाव स्थापना द्वारा लेश्या के रूप में स्थापित द्रव्य को स्थापनालेश्या कहा जाता है । स्थापनालोक - ठविदं ठाविदं चावि जं किंचि श्रत्थि लोगम्हि | ठवणालोगं वियाणाहि श्रणंत जिणदेसिदं । (मूला. ७-४६ ) ।
लोक में जो कुछ भी स्थित है और स्थापित है उसे स्थापनालोक जानना चाहिए । स्थापनाल्पबहुत्व - एदम्हादो एदस्स बहुत्तमप्पत्तं वा एदमिदि एयत्तज्भारोवेण ठविदं ठवणप्पा बहुगं । (घव. पु. ५, पृ. २४१ ) । इसकी अपेक्षा यह अधिक है अथवा यह अल्प है, इस प्रकार से जो एकता के अध्यारोपपूर्वक स्थापित किया जाता है उसे स्थापनाश्रल्पबहुत्व कहते हैं । स्थापनावश्यक – जण्णं कटुकम्मे वा पोत्थकस्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंधिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा श्रक्खे वा वराडए वा एगो वा प्रणेगो वा सब्भावठवणा वा प्रसन्भावठवणा वा श्रावस्सएत्ति ठवणा ठविज्जइ से तं ठवणावस्सयं । ( अनुयो. सू. १०, पृ. १२ ) । काष्ठकर्म, पुस्तकर्म अथवा पोतकर्म, चित्रकर्म, लेप्यकर्म, ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम, संघातिम, प्रक्ष अथवा
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स्थापनावेदना)
११६१, जैन-लक्षणावली
[स्थापनासामायिक
वराटक इनमें 'यह प्रावश्यक है। इस प्रकार से सद- वचन को स्थापनासत्य कहते हैं। २ पदार्थ के न भावस्थापना अथवा प्रसदभावस्थापना के द्वारा एक रहते हुए भी पांसों आदि में कार्य के वश जो हाथी अथवा अनेक की स्थापना की जाती है उसे स्थापना- प्रादि को कल्पना करके वैसा कहा जाता है, यह वश्यक कहा जाता है। यहाँ स्थाप्यमान प्रावश्यक से स्थापनासत्य कहलाता है। प्रभेदोपचारसे प्रावश्यकवान् को ग्रहण किया गया है। स्थापनासंक्रम-सो एसो त्ति अण्णस्स सरूवं बुद्धीए स्थापनावेदना-सा वेयणा एस त्ति अभेएण अज्झ- णित्तो ठवणसंकमो। (धव. पु. १६. पृ. ३३६)। वसियत्थो ठवण वेदणा । (धव. पु. १०, प. ७)। वह यह है' इस प्रकार अन्य के स्वरूप को बद्धि में 'वह वेदना यह है' इस प्रकार प्रभेद के साथ जो स्थापित करना, यह स्थापनासंक्रम है। पदार्थ का निश्चय किया जाता है उसे स्थापना- स्थापनासंख्या-देखो स्थापनावश्यक । जणं वेदना कहते हैं।
कट्टकम्मे वा पोत्थकम्मे वा जाव से तं ठवणसखा । स्थापनाश्रुत-ज णं कट्टकम्मे वा जाव उवणा (अनुयो. सू. १४६, पृ. २३०) । ठविज्जइ से तं ठवणासुग्रं । (अनुयो. सू. ३१, पृ. काष्ठकर्म प्रादि में जो सद्भाव अथवा असदभाव
स्थापना के द्वारा यह संख्या है' इस प्रकार से अध्याकाष्ठकर्म प्रादि में श्रत के पठन प्रादि में व्याप्त रोप किया जाता है उसे स्थापनासंख्या कहते हैं। एक-अनेक साधुओं आदि की जो श्रुत के रूप से स्थापनासंख्यात --जं तं ठवणासखेज्जयं तं कट्टस्थापना की जाती है उसे स्थापनाश्रुत कहा जाता है। कम्मादिसु सब्भावासब्भावटूवणाए ठविदं असखेस्थापनासत्य-१.XXX ठवणा ठविदं जह जमिदि। (घव. पु. ३, पृ. १२३)। देवदादि xxx। (मला. ५.-११३)। २. अस- काष्ठकर्म प्रादि में सद्भाव व असद्भाव स्वरूप से त्यप्यर्थे यत्कार्यार्थ स्थापितं धुताक्षनिक्षेपादिषु (धव. यह असंख्यात है' इस प्रकार से जो स्थापना की 'धूताक्षादिषु', चा. व कार्ति. 'द्यूताक्षसारिका') तत् जाती है उसे स्थापनासंख्यात कहा जाता है। स्थापनासत्यम् । (त. वा. १, २०, १२; धव. पु. स्थापनासामायिक- १. सर्वसावधनिवृत्तिपरि१, पृ. ११७-१८; चा. सा. पृ. २६; कार्तिके. टी. णामवता प्रात्मना एकीभूतं शरीरं यत्तदाकारसा३९८) । ३. अर्हन्निन्द्रा स्कन्द इत्येवमादयः सद्भावा- दृश्यात्तदेवेदमिति स्थाप्यते यच्चित्र-पुस्तादिक सद्धावस्थापनाविषया: स्थापनासत्यम्। (भ. प्रा. तत्स्थापनासामायिकम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६)। विजयो. ११६३) । ४. प्राकारेणाक्ष-पुस्तादौ सता २. काश्चन स्थापना: सुस्थिताः सुप्रमाणाः सर्वावयववा यदि वाऽसता । स्थापितं व्यवहारार्थं स्थापना- सम्पूर्णा: सद्भावरूपा मन पाल्हादकारिण्यः, काश्चन सत्यमुच्यते ॥ (ह. पु. १०-१००)। ५. धर्मोऽन्य- पुनः स्थापना दुःस्थिता: प्रमाणरहिताः सर्वावयवरवस्तुनः स्थाप्यतेऽन्यस्मिन्ननुरूपिणि । अन्य स्मिन् वा सम्पूर्णाः सद्भावरहितास्तासाम् उपरि राग-द्वेषयोरयया मत्या स्थापना सा तया वचः॥ सत्यं स्यात् भावः स्थापनासामायिकं नाम । XXX अथवा स्थापनासत्यं प्रतिबिम्बाक्षतादिषु । चन्द्रप्रभजिनेन्द्रो- xxx सामायिकावश्यकेन परिणतस्याकृतिनत्यऽयमित्यादि वचनं यथा ॥ (प्राचा. सा. ५, २७ व नाकृतिमति च वस्तुनि गुणारोपणं स्थापनासामा२८)। ६.xxx स्थापने देवोक्षादिषु xxयिक नाम । (मूला. व. ७-१७) । ३. स्थापनाx। (प्रन. घ. ४-४७)। ७. स्थापनासत्यं यथा सामायिकं मानोन्मानादिगुणमनोहरास्वितरासू च पाषाणप्रतिमादिष्वियं चक्रेश्वरी, अयमहन् इति स्थापनासु राग-द्वेषनिषेधः। xxx सामायिकातदिदमिति बुद्धिपरिग्रहणम् । (भ. प्रा. मला. वश्यकपरिणतस्य तदाकारेऽतदाकारे वा वस्तूनि ११९३) । ८. अन्यत्रान्यवस्तुनः समारोप: स्थापना, गुणारोपणं स्थापनासामायिकम् । (प्रन. प. स्वो. तदाश्रितं मुख्यवस्तुनो नाम स्थापनासत्यम् । (गो. टी. ८-१६)। ४. मनोज्ञामनोज्ञासु स्त्री-पुरुषाद्याजी. म प्र. व जी. प्र. २२३)।
कारस्थापनासु काष्ठ-लेप्य-चित्रादिप्रतिमासू राग१ स्थापना में जो देवता प्रादि की कल्पना को द्वषनिवृत्तिः इदं सामायिकमिति स्थाप्यमानं यत्किजाती है-जैसे मति में ऋषभादि की, तदनुरूप चिद्वस्तु वा स्थापनासामायिकम् । (गो. जी. म.
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स्थापनासामायिक ]
प्र. व जी. प्र. ३६७-६८ ) । ५: मणुऽण्ण मणुण्णासु इत्थि - पुरिसाइप्रायारठावणासु eg - व - चित्तादिमासु राय-दोसणिट्टी, इणं सामाइयमिदि ठाइज्जमानयं किचि वत्थु वा ठावणासामाइयं । ( श्रंगप. पू. ३०५ ) ।
१ समस्त सावद्य की निवृत्तिरूप परिणाम से युक्त श्रात्मा के साथ एकता को प्राप्त हुधा जो शरीर है उसके प्रकार की समानता से जो 'वही यह सामायिक है' इस प्रकार चित्र अथवा पुस्तक श्रादि में स्थापना की जाती है उसका नाम स्थापनासामायिक
११६२, जंन - लक्षणावली
। २ कुछ स्थापनाएं व्यवस्थित समुचित प्रमाण से संयुक्त समस्त अवयवों से परिपूर्ण एवं सद्भावरूप होकर सबको अभिनन्दन करने वाली तथा इसके विपरीत योग्य प्रमाणादि से रहित होने के कारण कुछ मनको खेदजनक भी होती हैं। उनके विषय में रागद्वेष नहीं करना, इसे स्थापनासामायिक कहते हैं । स्थापना सिद्ध - पूर्व भावप्रज्ञापननयापेक्षया चरमशरीरानुप्रविष्टो य प्रात्मा क्षीरानुप्रविष्टोदकमिव संस्थानवत्तामुपगतः, शरीरापायेऽपि तमात्मानं चरम शरीरात् किञ्चिन्न्यूनात्मप्रदेशसमवस्थानं बुद्धावारोप्य तदेवेदमिति स्थापिता मूर्तिः स्थापनासिद्ध (भ. प्रा. विजयो. १ ) । पूर्वभावप्रज्ञापन नय को अपेक्षा जो श्रात्मा दूध में प्रविष्ट पानी के समान अन्तिम शरीर में प्रविष्ट होकर उसके प्राकार को प्राप्त हुआ है शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी उक्त प्रतिम शरीर से किचित् हीन प्रात्मप्रदेशों में प्रवस्थित उस श्रात्मा को बुद्धि में श्रारोपित करके 'वही यह है' इस प्रकार से जो मूर्ति की स्थापना की जाती है, उसे स्थापनासिद्ध कहते हैं । स्थापनास्तव - १. चतुर्विंशतितीर्थकराणामपरिमितानां कृत्रिमा कृत्रिमस्थापनानां स्तवनं चतुर्विंशति स्थापनास्तवः | X XX अथवा XX X चतुविशतितीर्थंकराणां साकृत्यनाकृतिवस्तुनि गुणानारोप्य स्तवनं स्थापनास्तव: । (मूला. वृ. ७-४१ ) । २. कृत्रिमा कृत्रिमवर्णप्रमाणायतनादिभिः । व्यवर्ण्यते जिनेन्द्रार्चा यदसो स्थापनास्तवः ॥ ( श्रन. ध. ८-४०)।
१ चौबीस तीर्थंकरों की कृत्रिम प्रकृत्रिम अपरिमित प्रतिमानों की जो स्तुति की जाती है उसे स्थापना
[ स्थापित
स्तव कहते हैं। तदाकार अथवा श्रतदाकार वस्तु में जो चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का प्रारोप करके उनकी स्तुति की जाती है उसे भी स्थापनास्तव कहा जाता है ।। स्थापनास्थापन - देखो स्थापनस्थापन | स्थापनास्पर्श - देखो स्थापनाकर्म और स्थापनाकृति । १. जो सो ठवणफासो नाम सो कटुकम्मेसु वा चित्तम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेपकम्मेसु वा लेष्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा प्रक्खो वा वराडो वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जदि फासे त्ति सो सव्वो ठवणफासो णाम ।
( षट्ख. ५, ३, १० - धव. पु. १३, पृ. ८. 8 ) । २. सोयमिदि बुद्धीए अण्णदव्वेण अण्णदव्वस्स एयत्तकरणं ठवणफोसणं णाम । ( धव. पु. ४, पृ. १४२ ) । १ काष्ठकर्म व चित्रकर्म प्रादि में जो 'स्पर्श है' इस प्रकार से स्थापना के द्वारा जो अध्यारोप किया जाता है उस सबका नाम स्थापनास्पर्श है । स्थापनीमुद्रा - देखो श्रावाहनीमुद्रा । इयमेव ( श्रावाहन्येव ) श्रघोमुखी स्थापनी । (निर्वाणक. पृ. ३२ ) । श्रधोमुख वाली श्रावाहनीमुद्रा को ही स्थापनी मुद्रा कहा जाता है ।
स्थापनोद्देश - यत्तु सामान्येन देवताया इयं स्थापनेत्यभिधानं स स्थापनोद्देशः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १४० ) ।
यह सामान्य से देवता की स्थापना है, इस प्रकार जो कथन किया जाता है उसे स्थापना उद्देश कहते हैं । स्थापित -- देखो स्थापना उद्गम दोष । १. पागादु भायणा अण्णम्हि य भायण पक्खविय । सघरे व परघरे वा णिहिदं ठविदं वियाणाहि ॥ ( मूला. ६-११) । २. स्वार्थमेव कृतं संयतार्थमिति स्थापितम् (भ. प्रा. विजयो. व मूला. २३० ) । ३. स्वगृहेऽन्यगृहे वा यत् स्थापितं पाकभाजनात् । अन्यस्मिन् भाजनेऽन्नादि निक्षिप्य स्थापितं मतम् ॥ ( श्राचा. सा. ८- २६) । ४. स्थापितं यत्संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापितम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ४-१६५) ५. पाकभाजनाद् गृहीत्वा यदन्नं स्वगृहेऽन्यगृहे वा स्थापितम् । ( भावप्रा. टी. ६९ ) । १ पाक के लिए प्रयुक्त पात्र से देय श्राहार को निकालकर और अन्यपात्र में रखकर अपने ही घर
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स्थापित भोजो]
११६३, जैन-लक्षणावली
[स्थावरप्रतिमा
में प्रथवा दसरे के घर में रखने पर स्थापित दोष कृ. शी. वृ. २, ६, ४, पृ. १४०)। ८. स्थावरहोता है। ४ संयत के देने के लिए जो अन्न अपने नामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीला: स्थावराः । स्थान में या पर के स्थान में स्थापित किया जाता (स्थाना. अभय. वृ. ५७ व ७५)। 8. एकाक्षा है पर स्थापित उदगमदोष से दूषित होता है। स्थावरा: भूम्यप्यतेजोवायू-महीमहाः । (योगशा. स्थापितभोजी-देखो 'प्राभतिका' व 'प्राभतिका. स्वो विव. १-१६) । स्थापना' । यः स्थापितकभोजी स्थापनादोषदुष्टप्रा- १ जो जीव स्थावरनामकर्म के अधीन रहते हैं भतिकाभोजी। (व्यव. भा मलय. वृ.१-११६)। उन्हें स्थावर कहा जाता है। ३ जो स्थावर नामजो साध स्थापित भोजन को ग्रहण करता है वह कर्म के वश परिस्पन्दन से रहित होते हए एक प्रातिका (साधु का एक भिक्षादोष) भिक्षा का स्थान में स्थिर रहते हैं वे स्थावर कहलाने भोजन करने वाला होता है।
स्थावरनामकर्म--१. यानिमित्त एकेन्द्रियेषु प्रादुस्थालपानक---से कि थालपाणए ? जपणं दाथा- र्भावस्तत्स्थावरनाम । (स. सि. ८-११: नालो. लगं वा दावारगं वा वाकंभग वा दाकलसं वा सीय- ८-११; गो. क. जी. प्र. ३३)। २. स्थावरभाव.
र पERE न य पाणियं पियइ, निर्वर्तकं स्थावरनाम । (त. भा. ८-१२) । ३. जे से तं थालपाणए । (भगवती १५-२६, पृ. ३८८- एगम ठाणं प्रवटिया चिठंति ते थावरा भण्णंति । खण्ड ३)।
(दशवं. चू. प. १४७) । ४. यन्निमित्त एकेन्द्रियेत जो जल से भीगा थाल, जल से भीगा छोटा घड़ा प्रादुर्भावः तत् स्थावरनाम । एकेन्द्रियेष पथिव्यप्ते. (सकोरा), जल से भीगा बड़ा घड़ा, जल से भीगा जोवायु-वनस्पति कायेषु प्रादुर्भावो यन्निमिनो भवति क्षत्र घड़ा तथा पानी से भीगा मिट्टी का वर्तन है तत्स्थावरनाम । (त. वा. ८, ११, २२)। ५. जस्स उसको न हाथों से स्पर्श करे और न जल को पीवे, कम्मस्स उदएण जीवो थावरत्तं पडिवज्जदि तस्स इसे स्थालपानक कहा जाता है । मंखलिपुत्र गोशा- कम्मस्स थावरसणा। (धव पु. ६, प.६१): लक ने भगवान महावीर के ऊपर घातक तेजोलेश्या जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं थावरत्त होदितं कम्म को छोड़ा था तब वह स्वेच्छाचार में प्रवृत्त होकर थावर णाम । (धव. पु. १३, ३६५) । ६. स्थाचार अपानक और चार पानकों का उपदेश करता वराख्यं जीवस्य केन्द्रियेषु प्रादुर्भावकारणं नामकर्म, था। इन चार पानकों में एक स्थालपानक भी है। (भ. प्रा. मूला. २०६५)। ७. यस्य कर्मण उदयेन स्थावर--१. स्थावरनामकर्मोदयवशवतिन: स्थाव- जीवः स्थावरेषुत्पद्यते तत्स्थावरनाम । (मला.व. राः। (स. सि. २-१२) । २. स्थावरनामकर्मोप- १२, १६५)। ८. यदुदयादुष्माभितापेऽपि तत्स्थानपरिजनितविशेषाः स्थावराः। स्थावरनामकर्मणो जीव. हारासमर्थाः पृयिव्यप्तेजोवायू-वनस्पतयः स्थावराः विपाविनः उदये नोपजनितविशेषाः स्थावरा इत्या- जायन्ते तत् स्थावरनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ख्यायन्ते । (त. वा. २, १२, ३) । ३. अपरिस्प. २६३, पृ. ४७४) । ६. यदुदयेन पृथिव्यप्तेजोवायन्दादिमन्तः स्थावर नामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीति स्था- वनस्पतिकायेषु उत्पद्यते तत्स्थावरनाम । (त. वत्ति वराः। (त. भा. हरि. व. २-१२)। ४. स्थावर- श्रुत. ८-११)। नाम यदूदयादस्पन्दनो भवति । (श्रा. प्र. टी. २२)। १ जिस कर्म के निमित्त से जीव की उत्पत्ति एके५. स्थावरनामकर्मोदयोपजनितविशेषाः स्थावराः। न्द्रियों में होती है उसे स्थावरनामकर्म कहते हैं। (त. श्लो. २-१२; त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। ३ जो एक ही स्थान में अवस्थित होकर रहते हैं ६. अपरिस्फुटसुखादिलिङ्गाः स्थावरनामकर्मोदयात् उन्हें स्थावर कहते हैं। स्थावराः । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-१२) । ७. तिष्ठ- स्थावरप्रतिमा--१. विहरदि जाव जिगिदो सहन्तीति स्थावरा. पृथिवीकायादयः। (सूत्रकृ. शी. सट्टसुलक्खणेहिं संजुत्तो । चउतीसग्रइसयजुदो व. २, १, ३, पृ ३३); तिष्ठन्तीति स्थावरा:- सा पडिमा थावरा भणिया ।। (दर्शनप्रा. ३५) । स्थावरनामकर्मोदयात्स्थावराः पृथिव्यादयः। (सूत्र- २. व्यवहारेण तु चन्दन-कनक-महामणि-स्फटिकादि
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स्थित ]
घटिता प्रतिमा स्थावरा ( दर्शनप्रा. टी. ३५ ) । १ जिनेन्द्रदेव एक हजार ग्राठ लक्षणों प्रोर चौंतीस प्रतियों से संयुक्त होकर जब तक विहार करते हैं उसे स्थावर प्रतिमा कहा गया है । २ व्यवहार में चन्दन, सुवर्ण, महामणि और स्फटिक आदि से निर्मित प्रतिमा को स्थावरप्रतिमा कहते हैं । स्थित - प्रवधूतमात्रं स्थितम् । जो पुरिसो भावागमम्मि बुड्ढयो गिलाणोव्व राणि सणि संचरदि सो तारिससंसकारतो पुरियो तब्भावागमो च स्थित्वा वृत्त: ठिदं णाम । ( धव. पु ६, पृ. २५१-५२ ) ; तत्थ सिणि सगविस वट्टमाणो कदि प्रणियोगो णाम । ( घव. पु. ६, पृ. २६८ ); श्रवधृतमात्र स्थितं नाम । ( धव. पु. १४, पृ. ७) । श्रवधारण किए गये मात्र का नाम स्थित है । जो वृद्ध अथवा रुग्ण मनुष्य के समान भावागम में धीरे-धीरे संचार करता है. उस प्रकार के संस्कार से युक्त उस पुरुष को प्रोर उस भावागम को भी रुक रुक करके प्रवृत्ति होने के कारण स्थित कहा जाता है । यह श्रागम के को प्रर्थाधिकारों में प्रथम है । स्थितकल्प - 'अचेलक्कु' इत्येवंरूपेषु दशसु स्थानेषु ये स्थिताः साधवः तेषां कल्पः स्थितकल्पः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ११४ ) ।
जो साधु श्रावेलक्य आदि दस स्थानों (कल्पों) में स्थित हैं उनके कल्प को स्थितकल्प कहा जाता है । स्थितश्रुतज्ञान- जेण बारह वि श्रंगाणि श्रवहारिदाणि सो साहू द्विददणाणं होदि । (घव. पु. १४, पृ. ८) ।
जो साधु बारहों अंगों का अवधारण कर चुका है यह साधु स्थितरज्ञान स्वरूप है
स्थिति - १ स्थिति: कालपरिच्छेदः । ( स. सि. १-७) । २. स्थितिः कालावस्थानम् । (उत्तरा चू पृ. २७७ ) । ३ स्थितिः कालकृता व्यवस्था । (त वा. १७) स्वेन तस्य देवायुषः उदयात् तस्मिन् भवे तेन शरीरे स्थानं स्थितिरित्युच्यते । (त. वा. ४, २०); तद्विपरीता स्थितिः । द्रव्यस्य स्वदेशादप्रच्यवनहेतुर्गनिनिवृत्तिरूपा स्थितिरवगन्त
। (त. वा. ५ १७, २ ) । ४. स्वोपात्तायुष उदयात्तस्मिन् भवे तेन शरीरेणावस्थानं स्थितिः । (त. इलो. ४-२० ) । ५. स्थितिरात्मरूपादनपगमः । (त.
[स्थितिकरण
भा. सिद्ध बु. १-७); तद्विपरीतः (गतिस्त्ररूपविपरीतः ) परिणामः स्थितिः । ( त. भा. सिद्ध. वू. ५-१७ )। ६. कियच्चिरमिति (अनुयोगे) कालकृतावस्थाव्यवस्थापनं स्थितिः । ( न्यायकु. ७५, पृ. ८०२ ) । ७. निकर्षोत्कर्षतः कालनियमः कर्मणां स्थितिः । । (योगशा. स्वो विव. १-१६, पृ. ११४) । ८. कियच्चिरमिति प्रश्ने अनन्तकालमिति कालप्ररूपणं स्थितिः । ( लघीय अभय वृ. ७५, १. ५) । ६. स्थिति कालावधारणम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-७); निजायुरुदयात् तद्भवे सार्द्धमेव स्थान स्थितिरुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ४ - २० ) ।
१ काल के प्रमाण का नाम स्थिति है । २ विवक्षित वस्तु के काल के प्रस्थान को स्थिति कहते हैं । ३ श्रपने द्वारा बांधी गई प्रायु (प्रकृत में देवायु) के उदय से उस भव में उस शरीर के साथ प्रव स्थित रहना, यह श्रायु की स्थिति का लक्षण है । गति के विपरीत अपने देश से च्युत होने का कारण न मिलना यह स्थिति का लक्षण है । ५ अपमे स्वरूप से च्युत न होना, इसे स्थिति कहा जाता है। स्थितिकरण - १. उम्मग्गं गच्छतं सिवमग्गे जो वेदि प्रयाणं । सो ठिदिकरणेण जुदो सम्मादिट्ठी मुणेव्व ॥ ( समयप्रा. २५२ ) । २. बंसण चरणुवभट्ठे जीवे दट्ठूणधम्मबुद्धीए । हिद- मिदमवगूहिय ते विप्पं तत्तोणियत्तेद । (मूला. ५-६५ ) । ३. दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलः । प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञ. स्थितिकरणमुच्यते । ( रत्नक. १-१६) । ४. कषायोदयादिषु धर्म । रिभ्रंशकारणेषु उपस्थितेस्वात्मनो धर्माऽप्रच्यवनं परिपालनं स्थितिकरणम् । ( त. वा. ६ - २४ ) । ५. काम-क्रोध- मदादिषु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।। (पु. सि. २८ ) | ६. धम्मादो चलमाणं जो अण्णां संठवेदि धम्मम्मि । अप्पा पि सुदिढयदि ठिदिकरणं होदि तस्सेव ॥ ( कार्तिके. ४२० ) । ७. कषायोदयादिषु धर्मपरिभ्रंशकारणेषूपस्थितेषु स्व- परयोर्ध में [ धर्मा] प्रच्यवन परिपालनं स्थितिकरणम् । (चा. सा. पृ. ३) । ८. निवर्तमानं जिननाथवर्त्मनो निपीड्यमानं विविधैः परीषहैः । विलोक्य यस्तत्र करोति निश्चलं निरुच्यतेऽसौ स्थितिकारकोत्तमः । ( अमित श्रा. ३-७८ ) । 2. अस्थिरः स्थिरः क्रियते सम्यक्त्व चारित्रादिषु स्थिरीकरण
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स्थितिकरण |
( समवा. अभय वृ. १५४ ) ।
रत्नत्रये शिथिलस्य दृढयनं हित- मितोपदेशादिभिः । ( मूला: वृ. ५-४ ) । १०. श्रात्मनोऽन्यस्य वा चेतो द्विग्नं परीषहैः । सम्बोध्य तत्र तच्चित्तस्थापन स्यात् स्थितिक्रिया ॥ (श्राचा. सा. ३-६२ ) । ११. तिपथाद्रत्नत्रयाद् भ्रष्टस्य प्रच्युतस्य संस्थापनं हेतुनय दृष्टान्तैः स्थिरीकरणम् । ( चारित्रभ. टी. ३. पू. १८७ ) । १२. देव प्रमादवशतः सुपथश्चलन्तं स्वं धारयेल्लघु विवेक सुहृद्बलेन । तत्प्रच्युतं परमपि द्रढयन् बहुस्वं स्याद्वारिषेणवदलं महतां महार्हः ॥ ( न. ध. २ - १०६ ) । १३. ठिदिकरणं स्वस्य परस्य वा सम्यक्त्वाद्यन्यतमात् प्रच्यवमानस्थं पुनस्तत्रैव युक्तिबलाद् दृढमवस्थापनम् । (भ. ग्रा. मूला. ४५) । १४. दर्शनाज्ज्ञानतो वृत्ताच्चलतां गृहमेधिनाम् । यतीनां स्थापनं तद्वत् स्थितीकरणमुच्यते । ( भावसं वाम. ४१५ ) । १५. क्रोध- मान-मायालोभादिषु धर्म विध्वंसकारणेषु विद्यमानेष्वपि धर्मादच्यवनं (का. टी 'स्वपरयोर्ध मं प्रच्यवनपरिपालनं' ) स्थितिकरणम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४ कार्तिके. टी. ३२६ ) । १६. कषाय-विषयादिभिर्ध मं विध्वंसकारणेषु सत्स्वपि धर्मप्रच्यवनरक्षणं स्थितिकरणम् । ( भावप्रा. टी. ७७ ) १७. सुस्थितीकरणं नाम गुणः सद्दर्शनस्य यः । धर्माच्च्युतस्य धर्मे तं ना धर्मे धर्मिणः (पंचा. 'धर्मणः ) क्षतेः || (लाटीसं. ४-२६१; पंचाध्या. २ - ७८७ ) ।
श्रायु कर्म के प्रदेश पिण्ड का उस रूप से रहना, इसे स्थिति कहते हैं, नाम का अर्थ परिणाम या पिण्ड है, प्रकृति श्रादि के भेद से जो चार प्रकार के गतिजाति श्रादि कर्म हैं उनका जो स्थितिरूप है उसे स्थितिनाम कहते हैं । उसके साथ निषिक्त प्रायु को स्थितिनामनिधत्तायु कहा जाता है । स्थितिबन्ध - १ तत्स्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । यथा प्रजा-गो-महिष्यादिक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्युति: स्थिति: तथा ज्ञानावरणादीनामर्थानवगमादिस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । (स. सि. ८, ३) । २. तत्स्वभावाप्रच्युतिः स्थितिः । तस्य स्वभावस्य प्रच्युतिः स्थितिरित्युच्यते । यथा प्रजागो-महिष्या दिक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्युतिः, तथा ज्ञानावरणादीनामर्थान गमादिस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । ( त वा ८, ३, ५) । ३. कर्मपुद्गलराशेः कर्त्रा परिगृहीतस्यात्मप्रदेशेष्ववस्थानं स्थिति: अध्यवसायनिर्वर्तितः कालविभागः । XXX तस्यैव विपन्नमन्ध-रसादेरविनाशितत्वेनावस्थानं स्थितिः । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ८-४) । ४. जोगवसेण कम्मसरूवेण परिणदाणं पोग्गलक्खंधाणं कसायवसेण जीवे एगसरूवेणावद्वाणकालो ठिदी णाम । ( घव. पु. ६, पृ. १४६ ) ; छदव्वाणमप्पिदभावेण अवद्वाणं प्रवद्वाणकारणं च द्विदी णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३४५) । ५ XX X तत्स्वभावस्य तथेवाप्रच्युतिः स्थितिः ॥ यथाऽजा गो-महिष्यादिक्षीराणां स्व-स्वभावतः | माधुर्यादप्रच्युतिस्तद्वत् कर्मणां प्रकृतिस्थितिः ॥ ( ह. पु. ५८, २१०-११) । ६. स्वभावाप्रच्युतिः स्थितिः । ( त इलो ८-३) | ७. स्थितिबन्धस्तु तस्यैवं प्रविभक्तस्त्र अध्यवसायविशेषादेव जघन्य मध्यमोत्कृष्टा स्थिति निर्वर्तयति ज्ञानावरणादिकस्यैष स्थितिबन्ध: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १ - ३ ) । ८. XX X स्थितिः कालावधार
१ जो कुमार्ग में जाते हुए अपने को मोक्षमार्ग में स्थापित करता है उसे स्थितीकरण से युक्त सम्यग् दृष्टि जानना चाहिए। ३ दर्शन व चारित्र से भ्रष्ट होते हुए प्राणियों को जो धर्मानुरागियों के द्वारा धर्म में प्रतिष्ठित किया जाता है, इसे स्थितीकरण कहा जाता है । स्थितिक्षय- द्वितिक्खश्र णाम द्वितिक्खतेण वेदि जति त्ति, सभावोदतो जं भणियं होति । ( कर्मप्र. चू. उदय. ४) ।
स्थिति के क्षय से जो कर्म का वेदन किया जाता है, णम् । ( श्रमित. श्रा. ३ - ५६ ) । ६ तेषामेव कर्मइसे स्थितिक्षय कहा जाता है। स्थितिनाम निघत्तायु -- स्थितिर्यत् स्थातव्यं तेन भावेनायुर्दलिकस्य, सेव नाम परिणामो धर्म इत्यर्थः, स्थितिनाम, गति जात्यादिकर्मणां च प्रकृत्यादिभेदेन चतुविधानां यः स्थितिरूपो भेदस्तत् स्थितिनाम तेन सह निघत्तमायुः स्थितिनामनिषत्तायुरिति ।
रूपेण परिणतानां पुद्गलानां जीवप्रदेशेः सह यवत्कालमवस्थितिः स स्थितिबन्धः । ( मूला. वृ. ५, ४७)। १०. उत्कर्षेणापकर्षण स्थितिर्या कर्मणां मता । स्थितिबन्धः स विज्ञेयः XXX । (ज्ञाना. ६-४८, पृ. १०१ ) । ११. स्थितिः तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नम्, तस्था बन्यो निवर्तनं स्थिति -
११६५, जंन -लक्षणावली
[ स्थितिबन्ध
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स्थितिबन्ध]
११६६, जेन-लक्षणावलो
स्थित्यावीचिकामरण
बन्धः । (स्थाना. अभय. व. २६६; समवा. अभय. दातृशुद्धोया स्थित्वा समपदद्वयम् । निरालम्बं करव. ४)। १२.xxxअविच्युतिस्तस्मात् । (अन. द्वन्द्वभोजनं स्थितिभोजनम ।। (प्राचा. मा. १.४५)। ष. २-३६); अविच्युतिरप्रच्यवनम् । कस्मात् ? १ भित्ति प्रादि के प्राश्रय के विना समान पांवों से तस्माद् ज्ञानावरणादिलक्षणादात्मनः स्वभावात् । खड़े रहकर अपने पादप्रदेशरूप, उत्सृष्टपतनप्रदेशरूप केषाम् ? कर्मणाम । (अन. ध. स्वो. टी. २-३६)। और परोसने वाले के स्थानस्वरूप तीन प्रकार की १३.xxx स्थितिः कालावधारणम् ।। (पंचा- शद्ध भमि में पाणिपात्र से भोजन को ग्रहण करना; घ्या. २-६३३)।
इसे स्थितिभोजन कहा जाता है। १ कर्म का अपने स्वभाव से च्युत न होना, इसका स्थितिमोक्ष - प्रो कड्डिदा वि का ड्डिदा वि अण्णनाम स्थिति है। जिस प्रकार बकरी, गाय और पडि सकामिदा अघट्ठिदीए णिज्जरिदा वि द्विदी भंस प्रादि के दूध की स्थिति अपने मधरता रूप ठिदिमोक्खो। (धव. पू १६, प. ३३८)। स्वाद से च्युत न होना है उसी प्रकार ज्ञानावर- अपकषित, उत्कषित, अन्य प्रकृति में संक्रामित की णादि कर्मों की स्थिति पदार्थ का ज्ञान प्रादि न होने गई और अधःस्थिति से निर्जीण भी स्थिति को देना है। ३ कर्ता के द्वारा ग्रहण को गई कर्माशि । स्थितिमोक्ष कहा जाता है। का अपने प्रात्मप्रदेशों में अवस्थित रहना, इसे स्थितिविपरिणामना-ठिदी प्रोवटिजम्माणा वा स्थिति कहा जाता है। इसके काल का विभाग उव्वट्टिज्जमाणा वा अण्णंपडि संकामिज्जमाणा वा जीव के परिणामानुसार होता है।
विपरिणामिदा होदि । (धव. पु १५, पृ. २८३) । स्थितिबन्धस्थान-बध्यत इति बन्धः, स्थिति- अपवर्तमान, उद्वर्तमान अथवा अन्य प्रकृतियों में रेव बन्धः स्थितिबन्ध, स्थितिबन्धस्य स्थानमब- संक्रमण कराई जाने वाली स्थिति विपरिणामित स्थाविशेषः इति यावत्। (धव. पु. ११, पृ. १४२); कहलाती है। बध्धन इनिबन्ध, स्थितिश्चापी बन्धश्च स्थिति- स्थितिसंक्रम---१. ठिइस कमो ति वुच्चइ मूलत्तरबन्धः, तम्य स्थान विशेषः स्थितिबन्धस्थानम, पाबा- पगईउ य जा हि ठिई। उबट्रियाउ प्रोवट्रिया व धस्थानमित्यर्थः । अथवा बन्धन बन्धः, स्थितेबंन्धः पगई निया वऽण्णं ॥ (कर्मप्र. सं. क. २८)। स्थिति बन्धः, सोऽस्मिन् तिष्ठतीति स्थितिबन्धस्था- २. जा टिदी प्रोकडिज्जदि वा उक्कड्डिज्जदि वा नम् । (धव. पु. ११, पृ. १६२); स्थितयो बध्यन्ते अण्णपडि संकामिज्जइ वा सो ठिदिसंकमो। एभिरिति करणे घजुत्पत्तेः कर्मस्थितिबन्धकारण- (कषायपा. चू. पृ. ३१०) । ३. प्रोकड्डिदा वि ट्ठिदी परिणामानां स्थितिबन्ध इति व्यपदेशः । तेषां स्था- टिदिसक मो, उक्कड्डिदा वि द्विदी टिदिसंकमो, अण्णनानि अवस्थाविशेषाः स्थितिबन्धस्थानानि । (धब. पडि णीदा वि द्विदी टिदिसंकमो होदि । (धव. पु. पु. ११, पृ. २०५); बध्यते इति बन्धः, स्थिति- १६, पृ. ३४७)। ४. जा ट्ठिति उब्वट्टण-प्रोवट्टणश्वामौ बन्धश्च स्थितिबन्धः, तस्य स्थानमवस्थावि- अण्ण पगतिसंकमणपामोग्गा सा उवट्टिता ठिति तितिशेष स्थितिबन्धस्थानम् । (धव. पु. ११, पृ. संकमो वुच्चति । (कर्मप्र. चू. सं. क. २८)।
५. मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा स्थितेर्यदुत्कर्षणं जो बांधा जाता है उसे बन्ध या स्थितिबन्ध और उसके अपकर्षण वा प्रकृत्यन्तरस्थिती वा नयनं स स्थितिस्थान (विशेष) को -प्राबाधा-स्थान को -स्थिति- संक्रमः । (स्थानां. अभय.व २६६)। बन्धस्थ न कहते हैं । अथवा जिन परिणामों के द्वारा १मल व उत्तर प्रकृतियों की जो स्थिति उतित या स्थितियां बांधी जाती हैं उन परिणामों का नाम अपतित की जाती है अथवा अन्य प्रकृति को प्राप्त स्थितिबन्ध है, उनके स्थानों-अवस्थाविशेषों--को कराई जाती है उसे स्थितिसंक्रम कहा जाता है। स्थितिबन्धस्थान कहा जाता है।
स्थित्यावीचिकामरण -स्याः (स्थिते:) वीचय स्थितिभोजन -१. अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइ- इव क्रमेणावस्थिताया विनाशादात्मनो भवति स्थिविवज्जणेग समपायं । पडिसुद्धे भूमितिए असणं त्यावीचिकामरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५) । ठिदिभोयणं णाम ।। (मूला. १-३४) । २. स्त्रपात्र- समुद्र की तरंगों के समान निषेकक्रम से अवस्थित
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स्थिरत्व
११९७, जैन-लक्षणावला
(स्थूलसूक्ष्म उस प्रायुस्थिति का जो प्रत्येक समय में विनाश हरि. व. १८२)। २. एतेष्वेव क्षपणादिषु सीदतां होता है-एक-एक निषेक क्रम से निजीर्ण होता है, तत्र विशेषतः स्थापना स्थिरीकरणम् । (व्यव. भा. इसे प्रात्मा का स्थिति प्रावीचिमरण कहा जाता है। मलय. वृ. १-६५)। स्थिरत्व - तह चेव एयबाहगचितारहियं थिरत्तणं १ धर्म से खेद को प्राप्त होते हुए जीवों को उसी में नेय । (योगवि. ६)।
स्थापित करना, इसे स्थिरीकरण कहा जाता है। स्थानादि योगों का परिपालन करते हुए शुद्धिविशेष स्थूल – १. तनुत्वद्रव्य भावाच्च छेद्यमानानुके प्राश्रय से बाधक चिन्ता से मुक्त हो जाना, बन्धि यत् । तैलोदक रस-क्षीर-घृतादि स्थूलमुच्यते ॥ इसका नाम स्थिरत्व है। स्थानादि ५ योगों में से (वरांगच २६-१७)। २. द्रवद्रव्यं जलादि स्यात जो प्रत्येक के इच्छा व प्रवत्ति प्रादि ४.९ भेद स्थूलभेदनिदर्शनम् । (म. पु. २४-१५३; जम्ब. च. निदिष्ट किए गए हैं उनमें यह तीसरा है।
३-५२)। स्थिरनामकर्म-१. स्थिरभावस्य निर्वर्तक स्थिरः १ जो तेल, पानी, रस, दूध और घी प्राति कृशता नाम । (स. सि. ८-११ त. श्लो. ८-११, भ. और पतलेपन के कारण छेदे जाने पर भी फिर से प्रा. मूला. २१२४)। २. स्थिरत्वनिर्वर्तकं स्थिर सम्बद्ध हो जाते हैं उन्हें स्थूल कहा जाता है । नाम । (त. भा. ८-१२) । ३. स्थिरभावस्य निव. स्थूल ऋजुसूत्रनय - १. मणवाइयपज्जायो मणः तक स्थिरनाम । यदुइयात् दुष्करोपवासादितपस्कर- सु ति सगढ़िदीसु वटुंगो। जो भणइ तावकालं णेऽपि अङ्गोपाङ्गानां स्थिरत्वं जायते तत्स्थिरनाम। सो थलो होइ रिउसुत्तो॥ (ल. नयच. ३९; द्रव्य(त. वा. ८, ११, ३४)। ४ यस्योदयात् शरीरा- स्व. प्र नयच. २११) । २. स्थूल ऋजसूत्रः- यथा वयवानां स्थिरता भवति शिरोऽस्थि-दन्तादीनां तत् मनुष्यादिपर्यायस्तदायुःप्रमाणकाले तिष्ठति । (कातिस्थिरनाम । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. ८-१२; के. टी. २७४)। धा. प्र. टी. २३, प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. १जो नय अपनी स्थितियों में रहने वाली मनध्य ४७४) । ५. जस कम्मस उदएण रस-रुहिर-मेद- प्रादि पर्याय को उतने काल तक मनुष्य कहता है मज्जट्रि-मांस-सुक्काणं थिरत्तमविणासो अगलणं वह स्थल ऋजसूत्रनय कहलाता है।। होज्ज तं थिरणामं । (धव. पु. ६, पृ. ६३); जस्स स्थूलकाय -xxx इयरा पुण थूलकाया य॥ कम्मस्सुदएग रसादीणं सगसरूवेण केत्तियं पि काल- (कातिके. १२७)। मवट्ठाणं होदि तं थिरणाम । (धव. पु. १३, पृ. सूक्ष्मकाय जीवों से भिन्न स्थूलकाय जीव होते हैं, ३६५)। ६. यस्य कर्मण उदयात् रस-रुविर-मेद- अर्थात् जो जीव पृथिवी, जल, अग्नि और वायु के मज्जास्थि मांस-शुक्राणां सप्तधातूनां स्थिरत्वं भवति द्वारा रोके जा सकते हैं वे स्थूलकाय कहलाते हैं। तत् स्थिरनाम । (मूला. वृ. १२-१६५) । ७. यतः स्थलदोष-देखो बादर आलोचनादोष।। स्थिराणां दन्ताद्यवयवानां निष्पत्तिर्भवति तत्स्थिर- स्थूलवधादि-स्थूलहिंस्याद्याश्रयत्वात् स्थूलानामपि नाम । (समवा. अभय. वृ. ४२)। ८. स्थिरत्व- दुर्दृशाम् । तत्त्वेन वा प्रसिद्धत्वावधादि स्थूलमिष्यते ।। कारणं स्थिरनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। (सा. घ. ४-६)। १ स्थिरता के उत्पादक कर्म को स्थिरनामकर्म जो वध (हिंसा) प्रादि स्थल हिंस्य--मारे जाने कहते हैं। ३ जिसके उदय से दुष्कर तप का प्राच- वाले प्राणियों-प्रादि (भाष्य व मोष्य प्रादि) के रण करने पर भी अंग-उपांगों की स्थिरता रहती प्राश्रित हैं अधवा जो स्थूल मिथ्यादृष्टियों के यहां है उसे स्थिरनामकर्म कहा जाता है। ४ जिसके भी उस रूप से प्रसिद्ध हैं उन बघ प्रादि को स्थल उदय से शरीर के अवयवभूत शिर, हड्डियों और माना जाता है। दांतों प्रादि में स्थिरता होती है वह स्थिरनामकर्म स्थूलसूक्ष्म-१. चक्षुर्विषयमागम्य ग्रहीतुं यन्न कहलाता है।
शक्यते । छायातप-तमोज्योत्स्नं स्थूलसूक्ष्मं च तद्भस्थिरीकरण-देखो स्थितिकरण । १. स्थिरीकरणं वेत् ।। (वरांगच. २६-१८)। २. स्थूलसूक्ष्मा: तु धर्माद्विषोदतां सतां तत्र स्थापनम् । (दशवै. नि. पून याश्छाया-ज्योत्स्नातपादयः । चाक्षषत्वेऽप्यसंहा.
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स्थूलस्तेय] ११६८, जैन-लक्षणावली
[स्निग्ध नामकर्म यंरूपत्वादविघातकाः ॥ (म. पु. २४-१५२; जम्ब. घातिकर्माणः केवलिनः स्नातकाः। ज्ञानावरणादिच. ३-५१)।
घातिकर्मक्षयादाविर्भूतकेवलज्ञानाद्यतिशयविभूतयः स१ जो छाया, प्रातप (धूप), अन्धकार प्रौर: चांदनी योगिशले शिनो लब्धास्पदा: केवलिनः स्नातकाः ।
ग्राह्य होकर भी ग्रहण (त. वा. ६, ४६, ५)। ४. प्रक्षीणघातिकर्माणः नहीं किये जा सकते हैं उन्हें स्थलसूक्ष्म कहा जाता स्नातकाः केवलीश्वराः ॥ (ह. पु. ६४-६४) ।
५. सह योगेन सयोगः त्रयोदशगूणस्थानतिनो निर. स्थूलस्तेय -स्थूलं चौरादिव्यपदेशनिबन्धनं स्तेयम्। स्तघातिकर्मचतुष्टयाः केवलिनः स्नातकाः, प्रक्षालित. (योगशा. स्वो. विव. २-६५) ।
सकलघातिकर्ममलपटला इत्यर्थः। (त. भा. सिद्ध. जिस अपहरण से चोर कहलाते हैं ऐसे परकीय वस्तु वृ. ६-४८); स्नातकाः सयोगायोगकेवलिनः। (त. के अपहरण को स्थूल स्तेय कहा जाता है। भा सिद्ध, वृ. ६-४६) । ६. ज्ञानावरणादिधातिकर्मस्थूलस्थूल -- १. भूम्यद्रि-वन-जीमूत-विमान-भव- क्षयादाविर्भूतकेवलज्ञानाद्यतिशयविभतयः सयोगिनादयः । कृत्रिमाकृत्रिमद्रव्यं स्थूलस्थूलमुदाहृतम् ॥ शैलेशिनो नवलब्धास्पदाः केवलिनः स्नातकाः । (वरांगच. २६-१६) । २. स्थूलस्थूलः पथिव्यादि- (चा. सा. पृ. ४५)। ७. तीर्थकरकेवलीतरकेवलि. भैद्यः स्कन्धः प्रकीर्तितः ॥ (म. पु. २४-१५ भेदाद् द्विप्रकारा अपि केवलिन: स्नातका: उच्यन्ते । जम्बू..च. ३-५२)।
(त. वृत्ति श्रुत. ६-४६) । १. पृथिवी, पर्वत, वन, मेघ, विमान और भवन १ जिनके घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे दोनों पादि जो कृत्रिम और प्रकृत्रिम द्रव्य हैं उन्हें स्थूल -सयोग व प्रयोग--केवलियों को स्नातक कहा स्थूल कहा गया है।
जाता है। २ सयोग केवलो और शैलेशी अवस्था स्थैर्य --- १. स्थैर्य पुनः अभ्युपगतापरित्यागः। (वय- को प्राप्त (प्रयोग) केवली स्नातक कहलाते हैं। के नि. हरि. वृ. ५७)। २. स्थैर्य तु जिनशासने स्निग्ध-१. बाह्याभ्यन्तरकारणवशाद स्नेहपर्यायानिष्पकम्पता। (ध्यानश. हरि.. ३२) । ३. स्थर्य विर्भावात स्निह्यते स्मेति स्निग्धः। (स.सि. ५-३३)। जिनधर्म प्रति चलितचित्तस्य परस्य स्थिरस्वापादनं २. स्नेहपर्यायाविर्भावात स्निह्यते स्मेति स्निग्धः । स्वयं वा परतीधिकद्धिदर्शनेऽपि जिनशासनं प्रति बाह्याभ्यन्तरकारणवशात स्नेहपर्यायाविर्भावात् स्निनिष्प्रकम्पता। (योगशा. स्वो. विव. २-१६)। हते स्मेति स्निग्धः । (त. वा. ५, ३३, १)। ३. १. स्वीकृत को न छोड़ना, इसका नाम स्थर्य है। संयोगे सति संयोगिनां बन्धकारणं स्निग्धः । (मनु३ जिसका चित्त धर्म के प्रति चलायमान हो रहा है योः हरि. व. पृ. ६०; त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२३)। ऐसे दूसरे को उसमें स्थिर करना अथवा स्वयं ४. स्निह्यति स्म. बहिरभ्यन्तरकारणद्वयवशात् स्नेह. मिथ्यावृष्टियों की ऋषिके देखने पर भी जिन- पर्यायप्रादुर्भावाचिक्कणः संजातः स्निग्ध इत्युच्यते । शासन के प्रति अडिग रहना, इसे स्थैर्य कहा जाता (त. वृत्ति श्रुत. ५-३३)। है। यह सम्यक्त्व के पांच भूषणों में प्रथम है। १ बाह्य और अभ्यन्तर दोनों कारणों के वश स्नेह स्थौल्य---देखो स्थूल । स्थूलयते परियति, स्थू. पर्याय के प्रादुर्भूत होने से जो स्नेह को प्राप्त हो ल्यतेऽसी, स्थूल्यतेऽनेन, स्थूलनमात्र स्थूलः, स्थूलस्य चुका है उसका नाम स्निग्ध है । ३ जो स्पर्श संयोग भावः कर्म वा स्थौल्यम् । तिः वा. ५-२४)। के होने पर संयोगी पदार्थों के बन्ध का कारण होता जो बढ़ता है. या जिसके द्वारा स्थूल किया जाता है है उसे स्मिाष कहते हैं। वह स्थूल कहलाता है। स्थूल के भाव का अयना स्निग्ध नामकर्म-एवं सेसफासाणं पि प्रत्यो क्रिया का नाम स्थूल या स्थौल्य है।
वत्तव्यो (जस्स. कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं स्नातक -१. प्रक्षीणघातिकर्माणः केवलिनो द्वि- णिद्धभावो होदि तं णिद्धं णाम)। (धव. पु. ६, पृ. विधा: स्नालकाः। (स. सि. ६-४६; त. श्लो. ७५)। 8-४६) । २. सयोगाः शैलेशीप्रतिपन्नाश्च केवलिनः जिस.कर्म के उदय से शरीरगत पूर्वगलों के स्निायता स्नातका इति । (त. भा.१-४८)। ३. प्रक्षीण होती है उसे स्निग्ध नामकर्म कहते हैं।
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स्नेह-दोष]
११६६ जैन-लक्षणावली [स्पर्श (एक विशेष अनुयोगद्वार) स्नेहदोष-उड्ढे सग्रंकवड्ढयबाले अज्जाउ तह उन्.) । ५. वर्गणाससूहलक्षणानि स्पचकानि प्रणाहायो। पासंतस्स सिणेहो हवेज्ज अचंतिय. xxx अथवा कर्मशक्तेः क्रमेण विशेषवृद्धिः विनोगे ॥ (भ. प्रा. ३६३) ।
- स्पर्द्धकलक्षणम् । (समयप्रा. जय. वृ. ५२) । वृद्ध यतियों, अपनी गोद में वषित बाल पतियों ६. कर्म पुद्गलशक्तीनां क्रमवृद्धः क्रमहानिश्च स्पर्धक और प्रनाथ प्रायिकानों को देखने वाले समाधिस्थ तावदुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-२२)। प्राचार्य के प्रात्यन्तिक वियोग में स्नेह हो सकता है, १ श्रेणि के प्रसंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात वर्गयह अपने गण में रहने पर दोष होगा। इस विचार गाओं को लेकर एक स्पर्धक होता है। से समाधिमरण से उद्यत प्राचार्य अपने गण से चले स्पर्धक (अवधिज्ञानविशेष)-स्पर्द्धकं च नामाजाते हैं।
वधिज्ञानप्रभ या गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्र. स्नेहप्रत्ययस्पर्धक-१. हणिमित्तं फड़गं णाम भाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः । तथा चाह एगेगरूवेणं वड़ढिताणं वग्गणाणं स यो।xx जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण: स्वोपज्ञटीकायाम-स्पर्द्धकXअविभागाणं वग्गणाणं अणंताणतसमुदाप्रो फड्डगं। मवधिविच्छेदविशेष इति । (प्रज्ञाप. मलय. व. (कर्मप्र चू. ब. क. २२)। २. स्नेहप्रत्ययं स्नेह- ३१७)। निमित्तम् एकैकस्नेहाविभागवृद्धानां पुद्गलवर्गणानां जिस प्रकार झरोखे प्रादि के द्वार में से निकलती समुदायरूपं स्पर्धक स्नेहप्रत्ययस्पर्धकम् । तच्चैकमेव हुई दीपक की प्रभा के प्रतिनियतविच्छेद (अविभागभवति । (कर्मप्र. मलय.व. बं. क. २२)।
प्रतिच्छेद) होते हैं उसी प्रकार अवधिज्ञान की प्रभा २ स्नेहा (चिक्कणता)निमित्तक एक-एक स्नेहविभाग के जो प्रतिनियत विच्छेदविशेष होते हैं उनके से वृद्धिंगत पुदगल वर्गणानों के समूह को स्नेहप्रत्यय. समुक्ति रूप का नाम स्पर्षक है। इसका सम्बन्ध स्पर्धक कहा जाता है।
स्पर्धक रूप से उत्पन्न होने वाले अन्तगत प्रवधिस्नेहराग-स्नेहरागस्तु विषयादिनिमित्तविकलो शान से है। ऽविनीतेष्वप्यपत्यादिषु यो भवति। (प्राव. नि. हरि. स्पर्शन (इन्द्रिय)-~१. पात्मना स्पृश्यतेऽनेनेति वृ. ६१८, पृ. ३८८) ।
स्पर्शनम्, स्पृशतीति स्पर्शनम् । (स. सि. २-१६) । विषयादि के निमित्त विकल होता हुमा जो विनय २. वीर्यान्तराय-प्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमांगोसे रहित भी पुत्रादिकों में राग होता है उसे स्नेह- पांगनामलाभावष्टम्भात् स्पर्शत्यनेनात्मेति स्पर्शराग कहा जाता है। यह प्रशस्त नोमागमभाव- नम्। (त. वा. २, १६, १)। ३. वीर्यान्तरायराग के तीन भेदों में तीसरा है।
स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टस्पर्धक-१. फयपरूवणाए असंखेज्जायो वग्ग- म्भावस्पृशत्यनेनेति स्पर्शनम । (षक णामो सेढीए असंखेज्जदिभागमेतीयो तमेगं फट्टयं २३७); वीर्यान्तराय-स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमे होदि । (षट्वं. ४, २, ४, १८२ - धव. प १०, सति शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्घकोदये चैकेन्द्रियजातिपृ. ४५२)। २. अविभागपरिच्छिन्नकर्मप्रवेशरस- नामकर्मोदयवशत्तितायां च सत्यां स्पर्शन मिन्द्रियभागप्रचयपंक्तेः क्रमवृद्धिः क्रमहानिः स्पर्धकम् । (त. माविर्भवति । (घव. पु. १, पृ. २४०)। ४. वीर्यावा. २, ५, ४; त. श्लो. २-५)। ३. क्रमवृद्धिः न्तराय-मतिज्ञानावरणक्षयोपमांगोपांगनामलाभावष्टक्रमहानिश्च यत्र विद्यते तत्स्पर्धकम् । (धव. पु. १०, म्भबलादास्मना स्पृश्यतेऽनेनेति स्पर्शनम् । (मूला. पृ. ४५२); एगवग्गोलीए दवट्ठियणयावलम्बणेण वृ. १-१५)। संगतोखित्तासेसवग्गाए कमवढि-कमहाणीहि ट्ठिद- २ बीर्यान्तराय पोर प्रतिनियत इन्द्रियावरण के सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तवग्गणाहि एगं फद्दयं क्षयोपशम तथा प्रांगोपांग नामकर्म के लाभ के होदि। (धव. पु. १०, पृ. ४५३-५४); क्रमेण प्राश्रय से जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है उसे स्पर्धते वर्धत इति स्पर्धकम् । (धव. पु. १२. पृ. स्पर्शन इन्द्रिय कहते हैं। ६५) । ४. वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धकं स्पर्धकापहैः। स्पर्शन (एक विशेष अनुयोगद्वार)-१. तदेव (पंचसं, ममित. १-४५; समयप्रा. जय. वृ. ५२ स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् । (स. सि. १-८)। २.
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स्पर्शनक्रिया ]
१२००,
अवस्थाविशेषस्य वैचित्र्यात् त्रिकालविषयोपश्लेषनिश्चयार्थ स्पर्शनम् । (त. वा. १, ८, ५) । ३. तदेव त्रिकालगोचरं स्पर्शनम् । ( न्यायकु. ७६, पृ. ८०३; लघीय. प्रभय. वृ. ७६, पू. ६६ ) । ४. क्षेत्र - मेव त्रिकालगोचरं स्पर्शनम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ - ८ ) । २ श्रवस्थाविशेष की विचित्रता से जीव का तोनों कालों में कहाँ तक जाना श्राना सम्भव है, इसका विचार जिस श्रनुयोगद्वार में किया जाता है उसे स्पर्शन कहा जाता है । स्पर्शनक्रिया- - देखो जीवस्पर्शन व प्रजीवस्पर्शन क्रिया । १. प्रमादवशात्स्पृष्टव्य सञ्चेतनानुबन्धः स्पर्शन क्रिया । ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ६ ) 1 २. सचेतनानुबन्धो यः स्पृष्टव्येऽतिप्रमादिनः । सा स्पर्शन क्रिया ज्ञेया कर्मोगदानकारणम् ।। (ह. पु. ५८-७०)। ३. X X X स्पर्शे स्पृष्टधीः स्पर्शनक्रिया ॥ ( त. इलो. ६, ५, १२) । ४. प्रमादपरतंत्रस्य कमनीय कामिनीस्पर्शनानुबन्धः स्पर्शनक्रिया ( त वृत्ति श्रुत. ६-५) ।
१ प्रमाद के वश होकर स्पर्श करने के योग्यचेतन-अचेतन - पदार्थ के चिन्तन की निरन्तरता का नाम स्पर्शनक्रिया है । स्पर्शनाम- १. यस्योदयात्स्पर्श प्रादुर्भावस्तत्स्पर्शनाम । ( स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १० ) 1 २. श्रदारिकादिशरीरेषु यस्य कर्म्मण उदयात् कठिनादिः स्पर्शविशेषः समुपजायते तत् स्पर्श नामाष्ट विधम् । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ८ - १२ ) । ३. जस्स कम्मक्खंघस्स उदएण जीवसरीरे जाइपडिणियदो पासो उप्पज्जदि तस्स कम्यक्चस्स पाससण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ५५ ) । ४. स्पर्श नस्यो. दयाद्यस्य प्रादुर्भावेन भूयते । स्पर्शनाम भवत्येतत् प्रविभक्तमिवाष्टधा ।। ( ह. पु ५८ - २५६ ) ५. यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन जीवशरीरे जातिप्रतिनियतः स्पर्शः उत्पद्यते तत्स्पर्शनाम । (मूला वृ. १२, १४) । ६. यदुदयात्स्पर्शोत्पत्तिस्तत्स्पर्शनाम । (भ. प्रा. मूला. २१२४ ) । ७ यत्पाकेन स्पर्श उत्पद्यते स स्पर्श प्रष्टप्रकारो भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ८. यस्योदयात् स्पर्शप्रादुर्भावः तत् स्पर्शनाम । ( गो . क. जी. प्र३३ ) । १ जिस कर्म के उदय से शरीर में स्पर्श उत्पन्न होता है उसे स्पर्श नामकर्म कहते हैं । २ जिस कर्म
८-११) ।
जैन-लक्षणावली
[स्पर्शकेन्द्रिये हाज्ञान
के उदय से श्रदारिक आदि शरीरों में कठिन प्रादि स्पर्शविशेष उत्पन्न होता है वह स्पर्श नामकर्म कहलाता है।
स्पर्शनेन्द्रियनिरोध - १. जीवाजीवसमुत्थे कक्कड मउगादिश्रदृभेदजुदे । फासे सुहे य असुहे फासणिरोहो असंमोहो । ( मूला १ - २१ ) । २. जीवाजीवोभयस्पर्शे कर्कशाद्यष्टभेदके । शुभेऽशुभेतिमध्यस्थं मनःस्पर्शाक्षनिर्जयः ॥ ( श्राचा. सा. १-३२ ) ।
१ जो आठ प्रकार का स्पर्श जीव-जीव में सम्भव है वह चाहे सुखकर हो अथवा दुःखकर, उसमें संमोह - हर्ष या विषाद की प्राप्त न होना; इसे स्पर्शन इन्द्रिय का निरोध कहा जाता है । स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्नावग्रह - कक्खड मउग्र गरुन
- गिद्ध - लुक्ख-सीदुह दव्वाणि फासिंदियस्स विसप्रो । एदेसु दव्वेसु संपत्त-फास्सिदियसु जं णामुपज्जदितं फासि दियवंजणोग्गहो । ( धव. पु. १३, पृ. २२५ ) ।
कर्कश आदि आठ प्रकार का स्पर्श स्पर्शन इन्द्रिय का विषय है, इन द्रव्यों के स्पर्शन इन्द्रिय को प्राप्त होने पर जो ज्ञान होता है उसे स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह कहते हैं।
स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय - तस्स (फासिदिय वंजणोग्गहस्स) जमावारयं कम्मं सं फासिदियवंजणोग्गहावरणीयं । ( धव. पु. १३, पृ. २२५ ) । स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह के प्रावारक कर्म को स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय कहते हैं । स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रह - फासिदियदो एत्तियमद्वाणतरिय दिव्वह्निजं णाणमुप्पज्जदि फासविसयं तं फासिदिय प्रत्यग्गहो। (घव. पु. १३, पृ. २२८ ) । स्पर्शन इन्द्रिय से इतने अध्वान का अन्तर करके स्थित द्रव्य के विषय में जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह स्पर्शनेन्द्रिय प्रर्थावग्रह कहलाता है । स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहावरणीय तस्स ( फासिदियप्रत्थोग्गहस्स) जमावारयं कम्म तं फार्सिदियप्रत्थोगहावरणीयं णाम । ( धब. पु. १३, पृ. २२८ ) । स्पर्शनेन्द्रियार्थाग्रह के श्रावारक कर्म को स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहावरणीयकर्म कहा जाता है । स्पर्शनेन्द्रियेहाज्ञान - फार्सिदिएण णिद्धादिकासमादाय किमेसो मयणफासो कि वज्जले व फासो कि कुमारिगिरफासो कि पिसिदमासफासो त्ति एदेसु
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स्पर्शनेन्द्रियेहावरणीय] १२०१, जैन-लक्षणावली
[स्मृति अण्णदमस्स लिगण्णेसणं फापिदियगढईहा। (धव. भासं जिनदत्ते स देवदत्तो यथा। (परीक्षा. ६-८)। पु. १३, पृ. २३१)।
२. प्रतस्मिस्तदिति परामर्शः स्मृत्याभासः । (लघीय. स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा स्निग्ध प्रादि स्पर्श को ग्रहण अभय. वृ. २५, पृ. ४६)। करके क्या यह मदन स्पर्श है, क्या वज्रलेपस्पर्श है, जो 'वह' नहीं है उसमें जो 'वह' का ज्ञान होता
। कुमारिगिरस्पर्श है, अथवा क्या पिशित-मांस- है उसे स्मरणाभास माना जाता है। जैसे-जो स्पर्श है, इस प्रकार इनमें से किसी एक के हेतु का जिनदत्त देवदत्त नहीं है उसमें 'वह देवदत्त है', इस प्रन्वेषण करना, इसे स्पर्शनेन्द्रियजन्य ईहाज्ञान कहा प्रकार का ज्ञान । जाता है।
स्मरतीवाभिनिवेश-देखो कामतीव्राभिनिवेश व स्पर्शनेन्द्रियेहावरणीय तिस्से (फासिदिय-ईहा- कामतीव्राभिलाष । स्मरतीव्राभिनिवेशः कामेऽतिमायाः) अावारयं कम्म फासिदियईहावरणीयं । (धव. त्रम ग्रहः, परित्यक्तान्यसकलव्यापारस्थ तद्व्यवसायि. पु. १३, पृ २३२) ।
तेत्यर्थः । (सा. ध. स्वो. टी. ४-५८)। स्पर्शनेन्द्रिय ईहाज्ञान के प्रावरक कर्म का नाम काम के विषय में अतिशय प्राग्रह रखना अर्थात् स्पर्शनेन्द्रियेहावरणीय कर्म है।
अन्य समस्त व्यापार को छोड़कर काम में ही स्फोट - स्फूटति प्रकटीभवत्यर्थोऽस्मिन्निति स्फोट. प्रवृत्त रहना, इसे मरतीव्राभिनिवेश कहा जाता है। श्चिदात्मा । (न्यायकु. ६५, पृ. ७५४) । यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक अतिचार है । जहां अर्थ प्रकट होता है उस चेतन प्रात्मा को जन स्मृति-१. प्रमाणमयंसवादात् प्रत्यक्षान्वयिनी दृष्टिकोण से स्फोट कहा जा सकता है।
स्मृतिः। (प्रमाणसं. १०)। २. स्मृतिज्ञानं प्राक् स्फोटजीविका- १. फोडिकम्म उदत्तेण हलेण परिच्छिन्नेन्द्रियार्थग्राहि मानसं । (त. भा. हरि. व. वा भूमीफोडणं । (प्राव. हरि. वृ. ६-७, पृ. ८२६)। १-१३) । ३. दिट्ठ-सुदाणुभूदट्ठविसयणाणविसे सिद२. सर.कपादिखननं शिलाकुट्टनकर्मभिः । पृथि- जीवो सदी णाम। (धव. पु. १३, पृ. ३३३)। व्यारम्भसंभूतंर्जीवनं स्फोट नीविका ।। (योगशा. ४. तदित्याकारानुभूत र्थविषया स्मृतिः। (प्रमाणप. ३-१०६; त्रि. श. पु. च. १, ३, ३४०), ३. स्फोट- पृ. ६६) । ५. स्मरणं म्मतिः, सैव ज्ञानं स्मृतिज्ञानम, जीविका उडादिकर्मणा पृथिवीकायिकाद्युपमदहेतुना तैरेवेन्द्रिययः परिच्छिन्नो विषयो रूपादिस्तं यत् जीवनम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५-२१)। कालान्तरेण विनष्टमपि स्मरति तत् स्मृतिज्ञानम्, १ उदत्त अथवा हल से पृथिवी को फोड़कर जो अतीतवस्त्वालम्बनमेक कर्तकं चैतन्यपरिणतिस्वभाव प्राजीविका की जाती है उसे स्फोटकर्म या स्फोट- मनोज्ञानमिति यावत् । (त. भा. सिद्ध. व. १-१३); जीविका कहते हैं। २ तालाब व कुएँ के खोदने स्मयंतेऽनेनेति स्मतिर्मनोऽभिधीयते, स्मतिहेतुत्वाद प्रादि शिलानों को तोड़ने अथवा चिनने आदि वा स्मृतिर्मन:। (त. भा. सिद्ध. व. ६-३१) । को क्रियानों के द्वारा आजीविका करने का ६. संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मतिः । नाम स्फोटजीविका है। यह क्रिया पृथिवी के स देवदत्तो यथा । (परीक्षा. ३, ३-४) । ७. ज्ञानप्रारम्भ से सम्पन्न होती है । ३ पृथिवीकायिकादि- विशेष एव हि संस्कार विशेषप्रभवः तदित्याकारोजीवों के उपमर्दन की हेतभत उडादि क्रिया के द्वारा ऽनुभतार्थविषयः स्मतिरित्युच्यते । (न्यायक. १०, जीविकाक के रने को स्फोटजीविका कहा जाता है। पृ. ४०६)। ८. तदित्याकारानुभतार्थविषया स्मय-परापराधसहनप्रायत्वात् स्मयः । (त. भा. प्रतीति: स्मृति: । (प्र, क. मा. ३-४) । ६. किमिसिद्ध. व. ८-१०)।
दं स्मरणं नाम ? तदित्यतीतावभासी प्रत्ययः । परत अपराध के सहनप्राय होने से स्मय होता (प्रमाणनि. पू. ३३)। १०. ततः कालान्तरे कूतहै। यह मान के पर्यायनामों के अन्तर्गत है। श्चित्तादृशार्थदर्शनादिकात् संस्कारस्य प्रबोधे यद्स्मरण- देखो स्मृति ।
ज्ञानमुदयते तदेवेदं यन्मया प्रागुपलब्धम् इत्यादिरूपा स्मरणाभास-१. प्रतस्मिस्तदिति ज्ञानं स्मरणा- सा स्मृति: । (प्राव. नि. मलय. व. २, पृ. २३):
ल. १५१
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स्मृति]
१२०२, जन-लक्षणावलो
[स्यन्दन
स्मरणं स्मृतिः पूर्वानुभतार्थालम्बनप्रत्ययः । (प्राव. सं. ६-१६४) । नि. मलय. व. १२)। ११. तदिति स्वयमनुभता- १ सामायिक के विषय में एकाग्रता न रहना, यह तीतार्थग्राहिणी प्रतीति: स्मतिः । (अन. घ. स्वो. सामायिक का स्मृत्यनुपस्थान नाम का एक अतिटी. ३-४) । १२. धारणाबलोद्भुताऽतीतार्थविषया चार है। ४ सामायिक मुझे करना है या नहीं तदिति परामशिनी स्मृतिः । (लघीय. अभय. वृ. करना है, अथवा सामायिक मैं कर चुका हूं या ३-१, पृ. २६) । १३. तदित्याकारा प्रागनुभूत- अभी नहीं की है। इस प्रकार प्रबल प्रमाद के वस्तुविषया स्मृति: । पथा--स देवदत्त इति। कारण स्मृति में उपस्थित न रहने पर स्मृत्यनुप(न्यायदो. पृ. ५३)। १४. 'तत्' इति अतीतार्थ- स्थान नामक सामायिक का अतिचार होता है। ग्राहिणी प्रतीतिः स्मृतिरुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. स्मृत्यनुपस्थापन यह स्मृत्यनुपस्थान का नामान्तर १-१३)।
है। इसी प्रकार पौषधवत के विषय में स्मरण न १ प्रत्यक्ष से इन्वय रखने वाली-अनभत पदार्थ को रहने पर पौषयवत का भी उक्त नाम का अतिविषय करने वालो-स्मति यथार्थ होने से प्रमाण है। चार होता है। २ जो मानसज्ञान पूर्व में जाने गये इन्द्रिय के विषयभत स्मृत्यनुपस्थापन--देखो स्मृत्यनुएस्थान । पदार्थ को ग्रहण किया करता है उसका नाम स्मृति स्मृत्यन्तराधान-१. अननुस्मरणं स्मृत्यन्तराधाहै। ३ दृष्ट, श्रुत व अनभत पदार्थ को विषय करने नम् । (स. सि. ७-३०)। २. अननस्मरणं स्मृत्यवाले ज्ञान से जो जीव विशेषता को प्राप्त है उसे न्तराधानम् । अनुस्मरणं परामर्शनं प्रत्यवेक्षणमित्यस्मृति कहा जाता है। ४ जिसका प्राकार 'तत् नर्थान्तरम्, इदमिदं मया योजनादिभिरभिज्ञानं (वह)' है ऐसे अनभत पदार्थ के विषय करने वाले कृतमिति, तद्भावः स्मृत्यन्त राधानम्। (त. वा. ज्ञान को स्मृति कहते हैं ।
७, ३०, ८)। ३. स्मृतेभृशोऽन्तर्धानं स्सृत्यन्तर्धानं स्मृत्यनुपस्थान-१. अन काय स्मत्य नु स्थानम: किं मया परिगृहीतं कया वा मर्यादयेत्येवमनुस्मरण(स. सि. ७-३३; त. श्लो. ७-३३)। २. अन काग्रय मित्यर्थः । (श्रा. प्र. टी. २८३)। ४. प्रमाद-मोहस्मृत्यनुपस्थानम् । अनैकाग्रथमसमाहितमनस्कता व्यासंगादिभिः अननुस्मरणं स्मृत्यन्तराधानम् । (त. स्मृत्यनुपस्थानमित्याख्यायते। (त. बा. ७, ३३, श्लो. ७-३०)। ५. इदमिदं मया योजनादिभिरभि४)। ३. अन काग्रयमसमाहितमनस्कता स्मृत्यनुपस्था- ज्ञानं कृतमिति, तदभावः स्मृत्यन्तराधानम् । (चा. नम्, अथवा रात्रिदिव प्रमादिकस्य संचिन्त्यानुपस्थानं सा. पृ. ८)। ६. स्मृतेर्योजनशतादिरूपदिक्परिमाणस्मृत्यनुपस्थानम् । (चा. सा. पृ. ११)। ४. स्मृतौ विषयाया अतिव्याकुलत्व-प्रमादित्व-मत्यपाटवादिनास्मरणे सामायिकस्याऽनुपस्थापनं स्मृत्यनुपस्थापनं ऽन्तर्धानं भ्रंशः । (योगशा. स्वो. विव. ३-६७)। सामायिक मया कर्तव्यं न कर्तव्यमिति वा, सामा- ७. स्मृतेरन्तरं विच्छित्तिः स्मृत्यन्तरम्, तस्य प्राघानं यिकं मया कृतं न कृतमिति वा प्रलप्रमादाद्यदा न विधान स्मृत्यन्तराधानम्, अननुस्मरणं योजनादिस्मरति तदा अतिचारः, स्मृतिमूलत्वान्प्रोक्षसाधना- कृतावविस्मरणमित्यर्थः। त. वृत्ति श्रुत. ७-३०; नुष्ठानस्य । (योगशा. स्वो. विव. ३-११६); कातिके. टी. ३४२) । ८. स्मृतं स्मृत्यन्तराधानं स्मृत्यनुपस्थापनं तद्विषयमेवेति पञ्चमः। (योगशा. विस्मृतं च पुन: स्मृतम् । दूषण दिग्विरतेः स्याद. स्वो. विव. ३-११८)। ५. स्मृनरनुपस्थापनं सामा- निर्णीतमियत्तया !! (लाटीसं. ६-१२१) । यिकेऽनैकाग्रयमित्यर्थः। (सा. ध. स्वो. टी. ५-३३॥ २ दिग्वत में मैंने इतने इतने योजन जाने का नियम ६. स्मृतेरनुपस्थापन विस्मृतिः, न ज्ञायते कि मया किया है, इसका स्मरण न रहना, यह दिग्वत का पठितं कि वा न पठितम्, एकाग्रतारहितमित्यर्थः । स्मृत्यन्तराधान नाम का अतिचार है। (त. वृत्ति श्रुत. ७-३३) ; स्मृरनुपस्थापनं विस्म- स्यन्दन --चक्कवट्टि वल देवाणं चडणजोग्गा सव्वा. रण स्मृत्यनुपस्थानम् । (त. वृत्ति श्रुत, ७--३४)। उहावण्णा णिमण-पवणवेगा अच्छे भंगे वि चक्क७. अस्ति स्मृत्यनुपस्थापनं दूषणं प्रकृतस्य यत् । घडणगुण अपडिहयगमणा संदणा णाम । (पव. न्यून वर्ण: पदैर्वाक्यः पठ्यते यत्प्रमादतः ॥ (लाटो- पु. १४, पृ. ३६) ।
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स्यात् शब्द] १२०३, जन-लक्षणावली
[स्वक्षेत्रपरिवर्तन चक्रवर्ती और बलदेव के चढ़ने योग्य, सब प्रावधों से वचनं स्याद्वादः। (लघीय. अभय. वृ. ६२, पृ. परिपूर्ण एवं गंभीर पवनके समानवेगशाली जो विशेष ८३-८४)। जाति के रथ होते हैं उन्हें स्यन्दन कहा जाता है। १ जो सर्वथा एकान्त को छोड़कर किंवत्तचिद्विधिउनके पहियों की रचना इस प्रकार की होती है कि किचित् व कथंचित् प्रादि के श्राश्रय से वस्तुतत्व प्रक्ष (धुरा) के टूट जाने पर भी उनके गमन में का विधान करता है, सात भंगों व नयों की अपेक्षा बाधा नहीं होती।
करता है तथा हेय-प्रादेय की व्यवस्था करता है स्यात शब्द-.---१. सर्वथानियमत्यागी यथादृप्टम- उसका नाम स्याद्वाद है। अनेकान्त स्वरूप प्रर्थ के पेक्षकः । स्थाच्छब्दस्तावके न्याये xxx ॥ कथन को स्याद्वाद कहते हैं । २ जो सब अंशों से (स्वयम्भ. १८-१७)। २. णियमणिसे हणसीलो परिपूर्ण--अनेकान्तात्मक--- वस्तु का कथन करता णिपादणादो य जो ह खलू सिद्धो। सो सियसहो है, ऐसे वचन का नाम स्याद्वाद है। ५ निदिश्यभणियो जो सावेक्खं पसाहेदि । (द्रव्यस्व. प्र. मान धर्म से भिन्न समस्त धर्मों के सूचक नयच. २५३)।
'स्यात्' शब्द से युक्त बाद को- अभीष्ट धर्म के १ सर्वथा सत ही है या असत ही है, एक ही है या कथन को - स्याद्वाद कहा जाता है। अनेकही है तथा भिन्न ही है या अभिन्न ही है, इत्यादि स्याद्वादश्रत-देखो स्याद्वाद । १. नयानामेकपरस्पर विरुद्ध दिखन वाले धर्मों में से सर्वथा सत् निष्ठानां प्रवृत्तेः श्रुतवम॑नि । सम्पूर्णार्थविनिश्चायि ही है असत् किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं है' स्याद्वादश्रतमुच्यते ।। (न्यायाव. ३०)। २. तदात्मकं इत्यादि प्रकार से एकान्त पक्ष का निराकरण करता (स्याद्वादात्मकं) श्रुतं स्याद्वादश्रुतम् ।। (न्यायाव. हुमा जो जैसा वस्तु का स्वरूप देखा गया है उसकी वृ. ३०) । अपेक्षा करने वाला है-नयविवक्षा के अनुसार १ एक धम में चरितार्थ नयों की प्रवृत्ति से प्रागम---मुख्यता व गौणता के अनुसार---उभय घों की मार्ग में जो सम्पर्ण पदार्थ का निश्चय कराने वाला व्यवस्था करने वाला है वह 'स्यात्' शब्द है, जिसे --उसके निश्चय का कारणभूत वचन है-- उसे जैन न्याय में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। स्याद्वादश्रुत कहा जाता है । स्याद्वाद-देखो स्यात् शब्द । १. स्याद्वादः सर्वथै- स्वकचरितचर--देखो स्वचरितचर । कान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तभंगनयापेक्षो स्वकीयवधू-बन्धु-पित्रादिसाक्ष्येण स्वकीया स्वीहेयादेय विशेषकः ॥ (प्रा. मी. १०४)। २. स्या- कृता वधू । दया-शौच-क्षमा-शील-सत्यादिगुणद्वादः सकलादेशः Xxx ॥ (लघीय. ६२); भूषिता । (प्रलं. चि. ५-६१)। अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः । (लघीय. स्वो. जिसे बन्धुजन एवं माता-पिता प्रादि को साक्षी में विव. ६२) । ३. कथञ्चित् केनचित् कश्चित् कुत- स्वीकार किया जाता है तथा जो दया, शौच, क्षमा, श्चित् कस्यचित् क्वचित् । कदाचिच्चेति पर्यायात् शील और सत्य आदि गुणों से विभूषित होती है स्याद्वादः सप्तभगमत् ।। (जयध. १, पृ. ३०६ उद्.। वह स्वकीयवधू (पत्नी; कहलाती है। ४. अनेकधर्मस्वभावस्यार्थस्य जीवादेः कथनं स्या- स्वकृत संहरण --- स्वकृतं चारणानां विद्याधराणां द्वादः। Xxx तस्य (अर्थस्य) अनेकान्तात्म- चेच्छातो विशिष्टस्थानाश्रयणम् । (त. भा. सिद्ध. कत्वनिरूपणं स्याद्वादः। (न्यायकु. ६२, पृ. ६८६) व. १०७ )। ५. निदिश्यमानधर्म व्यतिरिक्ता शेषधर्मान्तरसंसूचकेन चारण ऋषि और विद्याधर जो स्वेच्छा से विशिष्ट स्याता युक्तो वादोऽभिप्रेतधर्मवचन स्याद्वादः । स्थान का प्राश्रय करते हैं, इसे स्वकृत संहरण कहा (न्यायाव. व. ३०)। ६. सर्वथा सदसदेकानेक- जाता है। नित्यानित्यादिसकलैकान्तप्रत्यनीकानेकान्ततत्त्वविष- स्वक्षेत्रपरिवर्तन-कश्चिज्जीव: सुक्ष्मनिगोदजघय: स्याद्वादः (प्राप्त मी. वसु. व १०१)। ७. अस्ती- न्यावगाहनेनोत्पन्नः स्वस्थिति जीवित्वा मृतः, पुनः त्यादिसप्तभङ्गमयो वादः स्याद्वादः । (लघीय. अभय. प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्नः, एवं द्वयादिप्रदेशोत्तर५.५१, पृ. ७४); स्यात् कथंचित् प्रतिपक्षापेक्षया क्रमेण महामत्स्यावगाहनपर्यन्ताः संख्यातघनांगूल
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स्वक्षेत्रपरिवर्तन
२२०४, जंग-लक्षणावली स्विदेहपरितापकारिणी क्रिया
प्रमितावगाहनविकल्पाः तेनैव जीवेन यावत्स्वीकृताः. स्वजाति-उपचरित-असद्भून व्यवहारनयतत्सर्वं समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तनम् । (गो. जी. जी. दळूणं पडिबिंबं भणदि (द्रव्यस्व 'लवदि') हु तं प्र. ५६०)।
चेव एस पज्जायो । सज्जाइ असन्भूप्रो उवपरियो कोई जीव सूक्ष्म निगोद जीव की जघन्य अवगाहना
णि यजाति पज्जापो।। (ल. नयच. ५६; द्रव्यस्व. से उत्पन्न होकर अपनी स्थिति प्रमाण जीवित रहने प्र. नयच. २२७) । के पश्चात् मरा और एक-एक प्रदेश अधिक के कम
प्रतिबिव को देखकर 'यह वही (मुखादि रूप) पर्याय से पूर्वोक्त प्रवगाहना से उत्पन्न हमा, इसी प्रकार है इस प्रकार जो कहा जाता है, इसे स्वजातिदो तीन प्रादि उत्तरोत्तर अधिक प्रदेशों के क्रम से पर्याय में-दर्पणगल मुख पर्याय में - स्वजाति पर्याय जन्म को प्रहण करते हुए पहामत्स्य की प्रवगाहना -साक्षात् मुखपर्याय - का प्रारोपण करने वाला पर्यन्त जो संख्यात घनांगल प्रमाण प्रवगाहना के प्रसद्भुत व्यवहार नय कहा जाता है। विकल्प हैं उनको उक्त जीव ने स्वीकार किया।
स्वदारमन्त्रभेद ...-देखो साकारमन्त्रभेद । १. स्वइस सबके समुदाय का नाम स्वक्षेत्रपरिवर्तन है।
दारमन्त्रभेदं च स्वकविश्रब्धभाषितान्यकथनं स्वक्षत्रसंसार --- लोकाकाशल्यपदेशास्यात्मनः
चेत्यर्थः । (बा. प्र. टी. २६३) । २. स्वदारे मन्त्रकर्मोदयवशात संहरण-विसर्पणधर्मणः हीनाधिक. भेदः स्वदारमन्त्रभेद -स्वदारमन्त्र (भेद) प्रकाप्रदेशपरिमाणावगहित्वं स्वक्षेत्रसंसारः। (त. वा.
शनम्, स्वकलविश्रब्यविशिष्टावस्थामन्त्रितान्य कथ६, ७, ३; चा. सा. पु. ८०)।
नमित्यर्थः । (माव. हरि. व. अ. ६, पृ. ८२१)।
१अपनी पत्नी के विश्वासपूर्ण कथन को दूसरों से जीव लोकाकाश के समान प्रसंख्यात प्रवेशों वाला
कहना, इसका नाम स्वदारमन्त्रभेद है। यह सत्याहै, उसके कर्मोदय के अनसार स्वभावतः इन प्रदेशों
णुव्रत का एक अतिचार है। में संकोच व विस्तार हा करता है, इस प्रकार
स्वदारसन्तोषव्रत-देखो ब्रह्मचर्य-अणुव्रत । १. हीनाधिक प्रवगाहना से युक्त होना, इसका नाम स्वक्षेत्रसंसार है।
स्वसृ-मातृ-सुताप्रख्या दृष्टव्याः परयोषितः । स्व.
दारैरेव सन्तोषः स्वदारव्रतमच्यते ॥ (वरांगच. स्वगुणस्तव-१. स्वतप-श्रुत-जात्यादिवर्णनं स्व
१५-११५) । २. माया-बहिणिसमारो दट्टव्वामो गुणस्तवः । (प्राचा. सा. ८-४३) । २. स्वकीय
परस्स महिलायो। सयदारे संतोसो अणुव्वयं तं तप-श्रुत-जाति कुलादिवर्णनं स्वगुणस्तवनम् । भाव
चउत्थं तु ॥ (धम्मर. १४६)। ३. सोऽस्ति स्वदारप्रा. टी. ६६)।
सन्तोषी योऽन्यस्त्री-प्रकटस्त्रियो। न गच्छत्यंहसो १ अपने तप, श्रुत और जाति प्रादि के वर्णन को
भीत्या नान्यर्गमयति त्रिधा ॥ (सा.प. ४-५२): स्वगुणस्तव कहा जाता है। इस प्रकार से यदि साध
स्वदारसन्तोष स्वदारेषु स्वभार्यायां स्वदारर्वा भोजन प्राप्त करता है तो वह स्वगुणस्तव नामक
सन्तोषो मथुनसंज्ञावेदनाशान्त्या देह-मनसोः स्वास्थ्याउत्पादनदोष से दूषित होता है ।
पादनम् । (सा. ध. स्वो. टी. ४-५१) । स्वचरितचर-जो सव्वसंगमक्को णण्णमणो अप्पणं पर स्त्रियों को बहिन, माता और पुत्री के समान सहावेण । जाणदि पस्सदि णियदं (ति. प. 'प्राद') देख कर अपनी पत्नी से ही सन्तोष करना, इसे सो सगचरियं चरदि जीवो।। (पंचा. का. १५८% स्वदारसन्तोष व्रत कहा जाता है। ति. प.६२२)।
स्वदेहपरितापकारिणी क्रिया-स्वदेहपरितापजो जीव समस्त परिग्रह से रहित होता हा पर कारिणी पुत्र-कलत्रादिवियोगदुःखभाराद्यतिपीडित. पदार्थों की ओर से मन को हटाकर उसे एक मात्र स्यात्मनस्ताडन-शिरस्फोटनादिलक्षणा । (त. भा. मात्मा में ही स्थिर करता है तथा स्वभाव से सिद्ध. बु. ६-६)। सदा प्रात्मा को ही जानता है देखता है वह स्वच- पुत्र अथवा स्त्री प्रादि के वियोग जनित दुःख के भार रितचर-वीतराग परम सामायिक का माराधन प्रादि से प्रतिशय पीड़ित प्राणी जो अपने को ताड़ित करने वाला होता है।
करता है व शिरको फोड़ता है, इत्यादि स्वधेह
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स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकनय ]
परितापकारिणी क्रिया के लक्षण हैं । स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकनय - सव्वादिचउ संतं दव्वं खुगिहए जो खु ( द्र. 'उ' ) । णियदव्वादिसु गाही सो XXX ॥ ( ल. नयच. २५; द्रव्यस्व. प्र. नयच. १६७ ) ।
जो स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल श्रोर भाव इन चार से सत् द्रव्य को अपने द्रव्य क्षेत्रादि चार में ग्रहण करता है उसे स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय कहते हैं । स्वप्ननिमित्त १ वातादिदोसचत्तो पच्छिमरत्ते मयंक - रविपदि । णियम्हकमलपविट्ठ देक्खिय उम्म सुहसणं || घड तेल भंगादि रासह-करभादिसु प्रारुणं । परदेसगमणसब्वं जं देवखइ असुहसणं तं ॥ जं भासइ दुक्खसुहमुहं कालतए वि संजादं । तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दोभेदं । करि-केसरियहुदीणं दंसणमेत्तादि चिन्ह - [ छिण्ण- ] स उणं तं । पुत्रावरसंबंध सउ तं मालसउणोति ॥ ( ति प ४, १०१३-१६) । २. वात-पित्त - श्लेष्मदोषोदयरहितस्य पश्चिमरात्रिभागे चन्द्र-सूर्य - घरादि-समुद्रमुख प्रवेश नसकलमहीमण्डलोपगूहनादि शुभ - (चा. सा. 'शुभस्वप्नदर्शनात् ' ) घृत-तैलाक्तात्मीयदेहखर- करभारूढा दिग्गमनाद्यशुभस्वप्नदर्शनादागामिजीवितमरण-सुख-दुःखाद्याविर्भावकः स्वप्नः । (त. वा. ३, ३६, ३; चा. सा. पृ. ६) । ३. छिण्ण-माला सुमिणाणं सरूवं दट्ठूण भाविकज्जावगमो सुमिणं णाम महाणिमित्तं । (घव. पु. ६, पृ. ७३-७४) । ४. यं स्वप्नं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं परिच्छिद्यते तत्स्वप्न निमि तम् । (मूला. वृ. ६–३० ) ।
१ वात-पित्तादि दोषों से रहित होते हुए पिछली रात में चन्द्र व सूर्य श्रादि को अपने मुख कमल के भीतर प्रवेश करते हुए स्वप्न में देखना, यह शुभ स्वप्न है तथ घी प्रथवा तेल से स्नान करना, गधा श्रथवा ऊंट आदि के ऊपर सवार होना और परदेश गमन करना इत्यादि को जो स्वप्न में देखा जाता है वह अशुभ स्वप्न है । इनको देख-सुनकर जो तीनों कालों में सम्भव दुःख-सुख श्रादि की सूचना की जाती है, इसे स्वप्ननिमित्त कहा जाता स्वप्नमहानिमित्त - देखो स्वप्ननिमित्त | स्वप्रत्ययोत्पाद स्वनिमित्तस्तावदनन्तानामगुरु
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लघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्था
१२०५, जैन-लक्षणावलो
[ स्वभावगति
नपतितया वृद्धा हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । ( स. सि. ५-७; त. बा. ५, ७, ३) ।
श्रागम के प्रमाण से स्वीकार किये गये जो श्रनन्तानन्त गुरुलघु गुण हैं वे छह स्थान पतित वृद्धि और हानि से प्रवर्तमान हैं, उनके स्वभाव से जो धर्माधर्मादि द्रव्यों में उत्पान होता है वह स्वप्रत्यय उत्पाद कहलाता है । स्वप्राणातिपातजननी स्वप्राणातिपातजननी गिरिशिखरप्रपात ज्वलन प्रवेश जलप्रवेशास्त्रपाटनादिका (प्राणव्यपरोपणलक्षणा ) | ( त. भा. सिद्ध. वू. ६-६) ।
पर्वत के शिखर से गिरना, श्रग्नि में प्रवेश करना, जल में प्रवेश करना और प्रस्त्र के द्वारा विदारण करना, इत्यादि के करने को स्वप्राणातिपातजननी क्रिया कहा जाता है ।
स्वभाव - स्वेनात्मना भवनं स्वभावः । स्वेनात्मना असाधारणेन धर्मेण भवनं स्वभाव इत्युच्यते । (त. वा. ७, १२, २) ।
अपने असाधारण स्वभाव से होना, इसे स्वभाव कहा जाता है । - जो स्वभाव - प्रनित्य-अशुद्धद्रव्यार्थिक- गहइ एक्कसमए उपाय- वयद्धुवत्तसंजुत्तं । सो सम्भावअणिच्चो अशुद्धश्रो पज्जयत्थी ॥ (ल. नयच. ३०; द्रव्यस्व. प्र. नयच. २०२ ) ।
जो एक समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त पर्याय को ग्रहण किया करता है उसे स्वभाव श्रनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहते हैं । स्वभाव-अनित्य- शुद्धपर्यायार्थिक- सत्ताग्रमुक्खरूवे उप्पाद-वयं हि गिव्हए जो हु । सो दु सहावश्रणिच्चो भण्णइ ( द्र. 'गाही' ) खलु सुद्धपज्जायो ॥ ( ल. नयच. २६ ; द्रव्यस्व. प्र. नयच. २०१ ) । जो सत्ता को मुख्य न करके उत्पाद और व्यय को ग्रहण किया करता है उसे स्वभाव अनित्य- शुद्धपर्यायार्थिक नय कहते हैं ।
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स्वभावगति - मारुत पावक परमाणु सिद्ध ज्योति
कादीनां स्वभावगतिः । (त. वा. ५, २४, २१) । वायु, अग्नि, परमाणु, सिद्ध और ज्योतिषी प्रादि की गति स्वभावप्रति होती है ।
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स्वभावज्ञान]
स्वभावज्ञान केवलमिदियर हियं सहावणाणं त्ति । (नि. सा. ११) । इन्द्रियों से रहित ( प्रतीन्द्रिय) व असहाय --- प्रालोक प्रादि किसी बाह्य निमित्त की प्रपेक्षा न करने वाला - जो केवलज्ञान है उसे स्वभावज्ञान कहा जाता है ।
१२०६, जैन- लक्षणावलो
प्रसहायं तं
स्वभावदर्शन - केवलमिदियरहियं प्रसहायं तं सहावमिदि भणिदं (नि. सा. १३) | इन्द्रियों से रहित (अतीन्द्रिय) व असहाय जो केवलदर्शन है उसे स्वभावदर्शन कहा जाता है । स्वभाव पर्याय - १. कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भणिदा ।। ( नि. सा. १५ ) ; ग्रण्ण णिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो । (नि. सा. २८) । २. गुरुलघु विकाराः स्वभावपर्यायाः । ते द्वादशधा षड्वृद्धिरूपा: षड्हानिरूपा: । ( श्रालाप. प. पू. १३४ ) :
१ कर्म की उपाधि से रहित जो भी पर्यायें हैं वे सब स्वभावपर्याय कहलाती हैं । २ गुरुलघु गुणों के छह प्रकार की हानि व छह प्रकार को वृद्धिरूप विकारों को स्वभावपर्याय कहा जाता है । स्वभावमार्दव - १. मृदोर्भावः मार्दवम्, स्वभावेन मार्दवं स्वभावमार्दवम्, उपदेशानपेक्षम् । ( स. सि. ६-१८) । २. उपदेशानपेक्षं स्वभावमार्दवम् । मृदोर्भावः कर्म व मार्दवम्, स्वभावेन मार्दवं स्वभावमार्दवम्, उपदेशानपेक्षमित्यर्थ: । (त. वा. ६, १८, १ ) | ३. उपदेशानपेक्षं मार्दवं स्वभावमार्दवम् । (त. इलो. ६-१८) ।
१ उपदेश की अपेक्षा न करके जो स्वभाव से मृदुता ( सरलता) हुआ करती है उसे स्वभावमार्दव कहा जाता है । स्वभाववाद - १. को करइ कंटयाणं तिक्खत्तं मिय- विहंगमादीणं । विविहत्तं तु सहाश्रो इदि सव्वं पिय सहाप्रोति ॥ ( गो . क. ८८३) । २. सव्वं सहावदो खलु तिक्खत्तं कंटयाण को करई । विविहत्तं णर-मिय-पसु - विहंगमाणं सहावो य ॥ ( अंगप २- २३, पृ. २७८ ) ।
१ कांटों को तीक्ष्णता को कौन करता है, तथा मृग और पक्षियों श्रादि की विविधता को कौन करता है ? कोई भी नहीं, वह सब स्वभाव से ही हुधा
[ स्वयंबुद्ध
करता है । इस प्रकार के कथन को स्वभाववाद कहा जाता है
स्वभाव विप्रकृष्ट - १. स्वभावविप्रकृष्टा मन्त्रौषधिशक्ति-चित्तादयः । ( प्रा. मी. वसु. वृ. ५) । २. सूक्ष्मा: स्वभावविप्रकृष्टाः परमाण्वादयः । ( न्यायदी. पृ. ४१ ) ।
र मंत्र, श्रौषधि, शक्ति और चित्त प्रादि स्वभावविप्रकृष्ट स्वभावतः दूरवर्ती माने जाते हैं । २ सूक्ष्म परमाणु आदि को स्वभावविप्रकृष्ट कहा जाता है ।
स्वभावहीन - स्वभावहीनं यद्वस्तुनः प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध स्वभावमतिरिच्यान्यथावचनम् । यथा - शीतोऽग्निः, मूर्तिमदाकाशमित्यादिः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ८८२, पृ. ४८३ ) ।
वस्तु के प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध स्वभाव को छोड़ कर अन्य प्रकार से कथन करने को स्वभावहीन कहा जाता है। जैसे -- श्रग्नि शीतल है, श्राकाश मूर्तिक है, इत्यादि । यह सूत्र के ३२ दोषों में १६वां है।
स्त्रनपूरण - येन केनचित्प्रकारेण स्वभ्रपूरणवदुदरगर्तमनगारः पूरयति स्वादुनेतरेण वेति स्वभ्रपूरणमिष्यते । (त. वा. ६, ६, १६) । जिस प्रकार गड्ढे को कंकड़, पत्थर अथवा मिट्टी श्रादि जिस किसी भी वस्तु के द्वारा भर दिया जाता है— उसके भरने के लिए श्रमुक वस्तु ही होना चाहिए, ऐसी अपेक्षा नहीं रहती - उसी प्रकार साधु उदर रूप गड्ढे को निर्दोष किसी भी भोजन से पूरा करता है-वह स्वादिष्ट अथवा नीरस श्रादि का विचार नहीं करता इसलिए स्व ( गड्ढे ) के समान भरे जाने के कारण उसके भोजन को स्वभ्रपूरण कहा जाता है । स्व-मनोज्ञ - स्वस्य मनोज्ञाः समान समाचारीकतया अभिरुचिताः स्वमनोज्ञा: । ( स्थाना. अभय वृ. १७४) ।
समान समाचारी वाले होने से जो श्रपने लिए रुचिकर होते हैं वे स्व-मनोज्ञ कहलाते हैं । स्वयं बुद्ध-- स्वयम् आत्मनंव सम्यग्वरबोधिप्राप्त्या बुद्धा मिथ्यात्व-निद्रापगमसम्बोधेन स्वयं सम्बुद्धाः । ( ललित. वि. पू. २० ) ।
मिथ्यात्वरूप निद्रा के विनष्ट हो जाने से प्राप्त हुए
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स्वयंबुद्धसिद्ध)
१२०७, जैन-लक्षणावली
[स्वलक्षण
समीचीन बोध से जो स्वयं ही प्रबद्ध हए हैं उन्हें फल का वर्णन करने वाला है उसे स्वर कहा जाता स्वयंवुद्ध कहा जाता है।
है। यह २९वें पापश्रुत के अन्तर्गत है। स्वयंबुद्धसिद्ध -स्वयं बुद्धा सन्तो ये सिद्धाः ते स्वरनिमित्त - १. णर-तिरियाण विचित्तं सई स्वयंबोधसिद्धाः, स्वयं बुद्धा हि बाह्यप्रत्ययमन्तरेण सोदुण दुक्ख-सोक्वाइं । कालत्तयणिप्पण्णं जं जाणइ बुध्यन्ते, उपधिस्तु स्वयंबुद्धानां पात्रादिदिशधा, तं सरणिमित्तं ।। (ति. प १००८) । २. अक्षरास्वयंबुद्धानां पूर्वाधीतश्रुतेऽनियमः, लिङ्गप्रतिपत्तिस्तु नक्षरशुभाशुभशब्दश्रवणेनेष्टानिष्टफलाविर्भावनं मस्वयंबद्धानां गुरुसन्निधावपि भवति । (योगशा. स्वो. हानिमित्तं स्वरम् । (त. वा. ३, ३६, ३)। विव. ३-१२४)।
३. खर-पिंगलोलव-वायस-सिव-सियाल-णर-णारीजो स्वयं ही प्रबुद्ध होकर सिद्धि को प्राप्त हुए हैं दे सरं सोऊण लाहालाह-सुह-दुक व-जीविद-मरणादीणं स्वयंबद्धसिद्ध कहलाते हैं। ये बाह्य कारण के बिना अवषमो स रमहाणिमित्तं णाम । (धव. पु. १, पृ. ही बोधि को प्राप्त होते हैं।
७२) । ४. नर नारी-खर-पिंगलोलक कपि-वायसस्वयंबुद्धसिद्ध केवलज्ञान--स्वयंबुद्धाः सन्तो ये शिवा-शृगालादीनामक्षराऽनक्षरात्मकशुभाशुभशब्दसिद्धास्तेषां केवलज्ञानं स्वयंबुद्धसिद्ध केवलज्ञानम् । · श्रवणे नेष्टानिष्टफलाविर्भावक: स्वरः। (चा. सा. xxx स्वयंबुद्धा बाह्य प्रयत्नमन्तरेणैव बुध्यन्ते, पृ. ६४) । ५. यं स्वरं शब्दविशेष श्रुत्वा पुरुषस्यास्वयमेव-बाह्यप्रयत्नमन्तरेणव निजजातिस्मरणा- न्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते तत्स्वरनिमित्तम् । (मूला. दिना बद्धाः स्वयंबद्धाः । (प्राव. नि. मलय. व.७८) वृ. ६-३०)। जो अपने जातिस्मरण आदि के द्वारा स्वयं प्रबुद्ध १ मनुष्य व तियंचों के विचित्र शब्दों को सुनकर होकर सिद्धि को प्राप्त हुए हैं उनके केवलज्ञान को तीनों कालों से सम्बन्धित दुख सुख को मान लेना, स्वयंबुद्धसिद्ध केवलज्ञान कहा जाता है।
इसे स्वरनिमित्त कहा जाता है। स्वयंभू-१. स्वयमेव भूतवानिति स्वयम्भूः । (धव. स्वरमहानिमित्त-देखो स्वरनिमित्त । पु. १, पृ. ११६-२०; पु. ६. ". २२१) । २. सह स्वरूपासिद्धहेत्वाभास-स्वरूपाभावनिश्चये स्वज्ञानत्रयेणात्र तृतीय भवभाविना। स्वयं भूतो यतो. रूपासिद्धः । xxx यथा परिणामी शब्दः, चाक्षुऽतस्त्वं स्वयंभूरिति भाष्यसे ।। (ह. पु. ८-२०७)। षत्वात् । (न्यायदी. पृ. १००) । ३. स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमवबद्धयान- जिस हेतु के स्वरूप का प्रभाव निश्चित है उसे ष्ठाय चानन्तचतुष्टयरूपतया भवतीति स्वयंभः। स्वरूपासिद्धहेत्वाभास कहा जाता है। जैसे- शब्द (अन. घ. स्वो. टी. ८-३६) । ४. स स्वयम्भूः परिणामी है, क्योंकि वह चक्षु इन्द्रिय का विषय स्वयं भूतं संज्ञानं यस्य केवलम् । विश्वस्य ग्राहक है। यहाँ शब्द में चाक्षुषत्व का अभाव निश्चित है, नित्यं युगपद् दर्शन तदा ॥ (प्राप्तस्व. २२)। क्योंकि वह चक्षु का विषय न होकर श्रोत्र का ५. सयं भवणसीलो सयंभु । (अंगप. २,८६.८७)। विषय है। इसीलिए यह स्वरूपासिद्ध है। १ जो अन्य की अपेक्षा न करके स्वयं विशिष्ट स्वलक्षण--१. स्वलक्षणमसंकीर्णं समान सविकल्पज्ञानादि को प्राप्त होता है उसे स्वयंभ कहा जाता कम् । समर्थं स्वगुणरेक सह-क्रमवितिभिः ।। है। यह जीव के कर्ता-भोक्ता प्रादि अनेक पर्याय (न्यायवि. १-१२२); अन्वयोऽन्यव्यवच्छेदो व्यतिनामों के अन्तर्गत है। २ भगवान आदिनाथ ने अपने रेकः स्वलक्षणम् । (न्यायवि. १२६) । २. स्वं स्वपूर्व तृतीय भव में तीन ज्ञानों को प्राप्त कर लिया रूप लक्षणं यस्य तत् स्वलक्षणम् । (न्यायवि. वि. था, उन्हीं तीन ज्ञानों के साथ वे यहां स्वयं हुए थे, १-१२२) । इसी से इन्द्र के द्वारा प्रार्थना में उन्हें स्वयंभ कहा १जो संकर से रहित, समान, विकल्पसहित, समर्थ गया है।
और सहवर्ती व क्रमवर्ती अपने गुणों से -- गुणस्वर-स्वरं जीवाजीवादिकाश्रितस्वस्वरूपफला- पर्यायोंसे--एक होता है वह स्वलक्षण कहलाता है। भिधायकम् । (समवा. अभय. व. २६)।
२ अपनास्वरूप ही जिसका लक्षण है उसे स्वलक्षण जो जीव-अजीव प्रादि के प्राधित अपने स्वरूप व कहा जाता है।
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स्वलिङ्ग
१२०. जैन-लक्षणावली
[स्वस्थानाप्रमत्त
स्वलिङ्ग - रजोहरण-मुखवस्त्रिका- चोलपट्टकादि स्वभावनियतवृत्तिरूपात्मतत्त्वकत्त्वगतत्वेन वर्तते स्वलिङ्गम् । (त. मा. सिद्ध. व. १०-७)। तदा दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्थितत्वात् स्वमेकत्वेन युगरजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टक इन्हें स्व- पज्जानन् गच्छंश्च स्वसमय इति । (समयप्रा. अमृत. लिङ्ग माना गया है।
व. २)। ३. तस्यवानादिमोहनीयोदयानुवृत्तिपरस्वलिङ्गसिद्ध-स्वलिङ्गेन रजोहरणादिना द्रव्य- त्वमपास्यात्यन्तशुद्धोपयोगस्य सतः समुपात्तभावलिङ्गेन सिद्धाः स्वलिङ्गसिद्धाः। (योगशा. स्वो. क्यरूप्यत्वान्नियतगुण-पर्यायत्वं स्वसमयः। (पंचा. विव. ३-१२४)।
का. अमुत. वृ. १५५) । पूर्वभावप्रज्ञापनीय की अपेक्षा जो रजोहरणावि १जीव जब चारित्र, दर्शन और ज्ञान में स्थित द्रव्यलिंग स्वरूप स्वलिंग से सिद्ध हुए हैं उन्हें स्व. होता है तब उसे स्वसमय जानना चाहिए । लिगसिद्ध कहा जाता है।
स्वसमयवक्तव्यता --जम्हि सत्थम्हि ससमयो स्वलिङ्गसिद्धकेवलज्ञान-स्वलिंगे रजोहरणादो । चेव वणिजदि परूविज्जदि पण्णाविज्जदि तं सत्थं सिद्धानां केवलज्ञानं स्वलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानम् । ससमयवत्तव्यं, तस्स भाबो ससमयवत्तव्वदा । (प्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ. ८५) ।
(धव. पु. १, पृ. ८२)। जो जीव रजोहरणादिरूप स्वलिंग में सिद्ध हुए हैं जिस शास्त्र में स्वसमय की ही प्ररूपणा की जाती उनके केवलज्ञान को स्वलिगसिद्ध केवलज्ञान कहा है-उसका परिज्ञान कराया जाता है-उसे स्वसजाता।
मयवक्तव्य कहा जाता है। इस स्वसमयवक्तव्य के स्वव्यवसाय-स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य स्वरूप का नाम ही स्वसभयवक्तव्यता है। व्यवसाय: । (परीक्षा. १-६)।
स्वस्थान-उप्पण्णपदेसो घर गामो देसो वा सत्थाप्रमाण में जो अपने अभिमुख होकर प्रकाश होता णंxxx। (धव. पु. ४, पृ. १२१) । है, यह उसका स्वव्यवसाय कहलाता है। जिस प्रदेश-- घर, ग्राम अथवा देश में उत्पन्न हुन्ना स्वशरीरसंस्कार-१. स्वमात्मीयम तच्च तच्छ- है-उसका नाम स्वस्थान है। रीरं च स्वशरीरं निजशरीरम्, तस्य संस्कार: दन्त स्वस्थान-स्वस्थान-सत्थाण-सत्थाणं णाम अप्प. नख-केशादिशृंगार: स्वशरीरसंस्कारः। (त. वत्ति णो उपाणयरे रणे वा सयण-णिसीयण-चंकमणाश्रत. ७-७)। २. स्नेहाभ्य ङ्गादिस्नानानि माल्यं दिवावारजतणच्छणं । (धव. पु. ४, पृ. २६)। सक-चन्दनानि च । कुर्यादत्यर्थमात्रं चेद् ब्रह्मातीचा- जिस अपने ग्राम, नगर अथवा जंगल में उत्पन्न हमा रदोषकृत ।। स्वशरीरसंस्काराख्यो दोषोऽयं ब्रह्म- है वहाँ सोने, बैठने अथवा गमन करने आदि के चारिणः । (लाटीसं. ६, ६९-७०)।
व्यापार से युक्त होकर रहना; इसका नाम स्वर १ दांत, नाखून और बालों प्रादि के शृंगार करने स्थान-स्वस्थान है। को स्वशरीरसंस्कार कहा जाता है। ब्रह्मचर्यव्रत स्वस्थानाप्रमत्त-१. णटासेसपमादो बय-गुणसीकी भावनाओं में इसके परित्याग का चितन किया लोलिमंडियो णाणी । अणवसमग्रो अखवयो भाणवस जाता है। २ तेल का मर्दन करना तथा माला व णिलीणो हु अपमत्तो ।। (गो. जी. ४६) । २. व्रतचन्दन प्रावि सुगन्धित द्रव्य का उपयोग करना, गुण-शीलानां पंक्तिभिरलंकृतः ज्ञानी निरन्तरदेहायह सब स्वशरीरसंस्कार कहलाता है।
स्मभेदज्ञानपरिणतः, ध्याननिलीनः मोक्षहेतुधर्मस्वसमय------ १. जीवो चरित्त-दसण-णाणद्दि तं हि ध्याने निलीनः निमग्नः, बहिर्व्यापारमपश्यन्नित्यर्थः, ससमयं जाण । (समयप्रा. २)। २. xxx एवंविधः अप्रमत्तसंयती यावदनुपशमक: अक्षपकश्चस्वरूपादप्रच्यवनात् टोत्कीर्ण चितस्वभावो जीवो उपशमक-क्षपकश्रेणिद्वयाभिमखो न भवति तावत्स्व. नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जा- स्थानाप्रमत्तः-निरतिशयाप्रमत्तः । (गो. जी. म. प्र. नाति गच्छति चेति निरुक्तेः । अयं खलु यदा सकल- ४६) । ३. यो नष्टाशेषप्रमाद: व्रत-गुण-शीलावलीस्वभावभासनसमर्थविद्यासमुत्पादकविवेकज्योतिरुद्- भिर्मण्डितः सम्यग्ज्ञानोपयोगयुक्तः धर्मध्याननिलीनगमनात् समस्तपरद्रव्यात् 'प्रच्युत्य दृशि-ज्ञप्ति. मनाः अप्रमत्तसंयतो यावदुपशमश्रेण्यभिमुखः क्षपक
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स्वस्थितिक रण] १२०६, जैन-लक्षणावली
[स्वातिसंस्थाननाम श्रेण्य भिमुखो वा चाटेतुं न वर्तते तावत् स खलु स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया-स्वहस्तेन स्वप्राणान् स्वस्थानाप्रमत्तः । (गो. जी. जी. प्र. ४६) । निर्वेदादिना, पर प्राणान व! क्रोधादिना अतिपातयतः १ समस्त प्रमादों से रहित तथा व्रत, गण एवं शील स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया । (स्थानां. अजय. व. ६०, से सुशोभित सम्यग्ज्ञानी अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती पृ ४१) । जीव जब तक उपशम अथवा क्षपक श्रेणि पर निवेद आदि के द्वारा अपने हाथ से अपने प्राणों को पारूढ नहीं होता तब तक ध्यान में निमग्न वह अथवा क्रोध प्रादि के द्वारा दूसरे के प्राणों के नष्ट स्वस्थान-अप्रमत्त कहलाता है।
करने को स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया कहते हैं। स्वस्थितिकरण - तत्र मोहोदयोद्रेकाच्च्युतस्यात्म- स्वाङ्गुल-देखो प्रात्मागुल । स्वे स्वे काले मनुस्थिते श्चित: । भूय: संस्थापनं स्वस्य स्थितीकरण- व्याणामडगुलं स्वागुल मतम् । मीयते तेन मात्मनि ।। (लाटीसं. ४-२६७; पंचाध्या. ७६३)। तच्छत्र-भङ्गार-नगरादिकम । (ह.प्र. ७-४४)। मोह के तीव्र उदय के वश प्रात्मस्थिति से ---- रत्न- अपने अपने समय में मनुष्य का जो अंगुल होता है त्रयस्वरूप मोक्षमार्ग से - भ्रष्ट जीव जो अपने को उसे स्वाङगल या प्राम्माङगल कहा जाता है। पुनः उस प्रात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित करता है, इसे इससे छत्र, झारी व नगर प्रादि का प्रमाण किया स्वस्थितिकरण कहते हैं । यह सम्यग्दर्शन के अंगभूत जाता है। स्थितिकरण के दो भेदों में पहला है।
स्वातिसंस्थाननाम- १. तद्विपरीत (न्याम्रोधपरिस्वहस्तक्रिया...' . या परेण निवां क्रियां स्वयं
मण्डलसंस्थाननामविपरीत) सन्निदेशकर स्वातिकरोति सा स्वहस्तक्रिया। (स. सि. ६-५; त. वा.
सस्थान नाम बल्भीकतुल्याकारम् । (त. वा ८, ११, ६, ५, १०)। २. परेणेव तु निर्वा या स्वयं )। २. स्वातिवल्मीकः शाल्मलिर्वा, स्य संस्थाक्रियते क्रिया। सा स्वहस्तत्रिया बोध्या पूर्वोक्तास्रव. नमिव संस्थान यस्य शरीरस्य तत्स्वातिशरीरसंस्थावधिनी ।। (ह. पु.५८-७४ । ३. परनिवार्यकार्यस्य
नम्, अहो विसालं उरि रणमिदि ज उत्तं होदि। स्वयं करणमत्र यत् । सा स्वहस्तक्रियाऽवद्यप्रधाना
(घव. पु. ६, पृ. ७१); स्वातिल्मिीकः, स्वातिधीमतां मता ।। (त. इलो ६, ५, १७)। ४. स्व-रिव शरीर संस्थान स्वातिशरीरसंस्थानम् । एतस्य हस्तक्रिया अभिमानारूषितचेतसाऽन्यपुरुषप्रयत्न- यत कारण कर्म तस्याप्येव संज्ञा, कारणे कार्योपनिर्वत्या या स्वहस्तेन क्रियते । (त. भा. सिद्ध. वृ. चारात । (धव. पु. १३, पृ. ३६८) । ३. स्वाति६-६) । ५. कर्मकरादिकरणीयाया: क्रियायाः संस्थानं शरीरस्य नाभेरधः कटि जंघा-पादाद्यवयवस्वयमेव करणं स्वकरणक्रिया। (त. वृत्ति श्रुत. परमाणनामधिकोपचयः । (मला. वृ. १२-४६) ।
४. तस्मात् (न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानात) विपरीत१ जो क्रिया दूसरों से कराने योग्य है उसे स्वयं सस्थान विधायक स्वाति संस्थानं वल्मीकापरनामकरना, इसे स्वहस्तक्रिया कहते हैं। ४ अभिमान यम । (त. वत्ति श्रत. ८-११)। अथवा क्रोध के वश होकर अन्य पुरुष के प्रयत्न से
१ न्याग्रोधपरिमण्डल संस्थान से विपरीत जो शरीर को जाने वाली क्रिया को जब अपने हाथ से किया
के अवयवों की रचना होती है उसे स्वातिसंस्थान जाता है तब उसे स्वहस्तक्रिया कहा जाता है।
कहते हैं। यह शरीरावयवों की रचना वल्मीक के स्वहस्तपारितापनिकी -स्वहस्तेन स्वदेहस्य पर- प्राकार जैसी होती है। इस प्रकार की शरीराकृति देहस्य वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपरितापनिकी। जिस कर्म के उदय से होती है उसे स्वातिसंस्थान(स्थानां. अभय. ६०, पृ. ४१)।
नामकर्म कहा जाता है। ३ शरीर में नाभि के अपने हाथ से अपने ही शरीर को अथवा अन्य के नीचे कटि, जंघा और पांव मादि अवयवों में जो शरीर को सन्तप्त करना, इसे स्वहस्तपरितापनिको परमाणुओं का अधिक उपचय होता है उसे स्वातिक्रिया कहा जाता है।
संस्थान कहते हैं। ल. १५२
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स्वाधिगमहेतु )
[ स्वाप
स्वाधिगमहेतु -- स्वाधिगमहेतुर्ज्ञानात्मकः प्रमाणनयविकल्पः । (त. वा. १, ६, ४) ।
सन्निधौ । यद्वा सामायिकी पाठ: स्वाध्यायः स स्मृतो बुधैः ॥ ( लाटीसं. ७-८५) । १६. ज्ञानभाप्रमाण और नय के विकल्परूप जो ज्ञानस्वरूप हेतु वनायामलसत्वपरिहारः स्वाध्याय उच्यते । (त. है उसे स्वाधिगमहेतु कहते हैं । वृत्ति श्रुत. ६ - २० ) । १७ स्वाध्याय: सुष्ठु पूर्वापराऽविरोधेन, अध्ययनं पठनं पाठनम् श्राध्यायः, सुष्ठु शोभनं प्राध्याय: स्वाध्यायो वा । ( कार्तिके. टी. ४६१) ।
१ ज्ञान की भावना में श्रालस्य न करना, इसका नाम स्वाध्याय है । ३ धर्मकथा ( धर्मोपदेश ) तक जो क्रम से वाचना श्रादि का श्राराधन किया जाता है उसे स्वाध्याय कहते हैं ।
१२१०, जैन - लक्षणावली
स्वाध्याय - १. ज्ञानभावनाऽऽलस्यत्यागः स्वाध्यायः । ( स. सि. ९-२० ) । २. प्रज्ञातिशयप्रशस्ताध्यवसायाद्यर्थः स्वाध्यायः । प्रज्ञातिशयः प्रशस्ताध्यवसायः प्रवचनस्थितिः संशयोच्छेदः परवादिशंकाभावः परमसंवेगः तपोवृद्धिरतिचारविशुद्धिरित्येव - माद्यर्थः स्वाध्यायोऽनुष्ठेयः । (त. वा ६, २०, ६) । ३. यत्तु खलु वाचनादेरासेवनमंत्र भवति विधिपूर्वम् । धर्मकथान्तं क्रमशस्तत्स्वाध्यायो विनिद्दिष्टः ॥ ( षोडशक. १३ - ३ ) । ४. अंगंगबाहिर आगमवायपुच्छणाणुपे हापरियट्टण धम्मक हाम्रो सज्झाम्रो णाम । (घव. पु. १३, पृ. ६४ ) । ५. प्रज्ञातिशय प्रशस्ताध्यवसायाद्यर्थं स्वाध्यायः । X X X स्वाध्यायः पंचधा प्रोक्तो वाचनादिप्रभेदतः । अन्तरङ्गश्रुतज्ञानभावनात्मत्वतस्तु सः ॥ ( त. इलो. ६, २५, १ ) । ६. सुष्ठु मर्यादया कालवेलापरिहारेण पौरुष्यपेक्षया वाssध्याय: ( योग. शा. 'ऽध्ययनं ) स्वाध्याय: । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - २०; योगशा स्वो विव. ४ - ६० ) । ७. परततीरिक्खो दुट्ठवियप्याण णासणसमत्थो । तच्च विणिच्छयहेदू सज्झायो भाणसिद्धिपरो ॥ ( कार्तिके. ४६१ ) । ८. अनुयोग-गुणस्थान मार्गणास्थान- कर्मसु । अध्यात्मतत्त्वविद्यायाः पाठः स्वाध्याय उच्यते ॥ ( उपासका ११५ ) । ६. स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययन मध्यापनं स्मरणं च । (चा. सा. पृ. २२) ; स्वस्मै योऽसौ हितोऽध्यायः स्वाध्यायः । (चा. सा. पू. ६७ ) । २०. स्वस्मै योऽसौ हितोऽध्यायः स्वाध्यायो वाचनादिकः । ( श्राचा. सा. ६–ε५) । ११. स ( स्वाध्यायः ) हि स्वस्मै हितोऽध्यायः सम्यग्वाध्ययनं श्रुतेः ॥ ( अन ध. ७-८२)। १२. शोभनो लाभ पूजा-ख्यातिनिरपेक्षतया श्रध्यायः पाठः स्वाध्यायः । (सं. चारित्रभ. टी. ५, पू. १८८ ) । १३. चतुर्णामनुयोगानां जिनोक्तानां यथार्थतः । श्रध्यापनमधीतिर्वा स्वाध्यायः कथ्यते हि सः ॥ ( भावसं वाम. ५६६ ) । १४. स्वाध्यायोऽध्ययनं स्वस्मै जैनसूत्रस्य युक्तितः । अज्ञानप्रतिकूलत्वात्तपःस्वेष परं तपः ॥ ( धर्मसं. श्री. 8, २१२ ) । १५. नैरन्तर्येण यः पाठः क्रियते सूरि
स्वाध्यायकुशलता - १. स्वाध्यायं कृत्वा गव्यूतिद्वयं गत्वा गोचरक्षेत्रवसतिं गत्वा तिष्ठति, यत्र विप्रकृष्टो मार्गस्तत्र सूत्रपौरुष्यामर्थ पौरुष्यां वा मंगलं कृत्वा याति, एव स्वाध्यायकुशलता । (भ. प्रा. विजयो. ४०३ ) । २. स्वाध्यायकुशलस्तु यः स्वाध्यायं कृत्वा गोचरक्षेत्रवसति च गत्वा तिष्ठति, यत्र विप्रकृष्टो मार्गस्तत्र सूत्रपौरुष्यामर्थ पौरुष्यां [वा ] मंगलं कृत्वा ययति । (भ. श्री. मूला. ४०३) ।
१ समाधिमरण का इच्छुक निर्यापक के प्रन्वेषण में उद्युक्त होता हुआ दो कोस जाकर गोचरक्षेत्रवसति श्राहार की सुविधाजनक स्थान में ठहर जाता है । जहाँ मार्ग लंबा होता है वहां सूत्रपौरुषी अथवा प्रर्थपौरुषी में मंगल करके जाता । इस प्रकार से स्वाध्यायकुशलता होती है । स्वानवकाङ्क्षा स्वानवकाङ्क्षा जिनोक्तेषु कर्तव्यविधिषु प्रमादवशवर्तितानादरः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६) ।
जिनप्ररूपित कर्तव्य अनुष्ठानों के विषय में प्रमाद के वश होकर श्रनादर करना, इसे स्व- श्रनवकांक्षाक्रिया कहते हैं ।
स्वाप - १. इन्द्रियात्ममनोमरुतां सूक्ष्मावस्था स्वापः । (नीतिवा. २५–२०, पृ. २५२ ) । २. स्वाप: सुस्वप्नदर्शिव्यवस्था । (सिद्धिवि. टी. १-२३, पृ. १०० ) ; कोऽयं स्वापो नाम ? चैतन्यरहिता मिद्धदशा । ( सिद्धिवि. टी. ६-११, पृ. ६१६ ) ।
१ इन्द्रिय, आत्मा, मन और मरुत् इनकी सूक्ष्म श्रवस्था का नाम स्वाप । २ सुन्दर स्वप्न को दिखलाने वाली अवस्था को स्वाप कहा जाता है ।
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स्वामित्व] १२११, जैन-लक्षणावली
[हतसमुत्पत्तिक कर्म स्वामित्व-१. स्वामित्वमाधिपत्यम् । (स. सि. निश्चितात्प्राक्तानुभूतव्याप्तिस्मरणसहकृताद्धमादेः १-७; त. वा. १-७; त. वृत्ति श्रुत. १-७)। साधनादुत्पन्नं पर्वतादी धर्मिण्यग्न्यादेः साध्यस्य ज्ञानं २ उक्कस्सादिचदुण्णं पदाणं पापोग्गजीवपरूवणं स्वार्थानुमानमित्यर्थः । (न्यायदी. ५.७१-७२) । जत्थ कीरदि तमणियोगहारं सामित्तं णाम । (घव.
स्वयं ही निश्चित साधन से जो साध्य का ज्ञान पु. १०, पृ. १६)। ३. कस्य इत्याधिपतित्वख्यापनं होता है उसे स्वार्थानमान कहते हैं। जैसे-किसी स्वामित्वम् । (न्यायकु. ७६, प.८०२) ।
दूसरे के उपदेश के विना स्वयं निश्चित म हेतु से विवक्षित वस्त के प्राधिपत्य का नाम स्वामित्व जो पर्वतादिमें अग्नि प्रादि साध्य का ज्ञान होता है। २ जिस अनुयोगद्वार में उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य है उसे स्वार्थानुमान समझना चाहिए। और प्रजघन्य इन चार पत्रों के योग्य जीवों की
स्वास्थ्य-१. दुःखहेतुकर्मणां विनष्टत्वात् स्वास्थ्यप्ररूपणा की जाती है उसका नाम स्वामित्व अनु- लक्षणस्य सुखस्य जीवस्य स्वाभाविकत्वात् । (धव. पोगद्वार है।
पु. ६, पृ. ४६१)। २. अात्मा ज्ञातृतया ज्ञानं सम्यस्वामी-धार्मिक: कुलाचाराभिजनविशुद्धः प्रताप- क्त्वं चरितं हि सः । स्वस्थो दर्शन-चारित्रमोहाभ्यावान् नयानुगतवत्तिश्च स्वामी। (नीतिवा. १७-१, मनपालतः ।। (त. सा. उपसं. ७)। ३. आत्मोत्थपृ. १८०)।
मात्मना साध्यमव्याबाधमनुत्तरम् । अनन्तं स्वास्थ्यजो धर्मात्मा, कुलाचार व अभिजन से विशुद्ध; मानन्दमतृष्णमपवर्गजम् ।। (क्षत्रचू. ७-१३)। प्रतापशाली और नीति के अनुसार प्रवृत्ति करने
१ दुःख के कारणभूत कर्मों के विनष्ट हो जाने पर वाला होता है उसे स्वामी कहा जाता है।
जो निर्बाध स्वाभाविक सुख उत्पन्न होता है वही स्वाम्यदत्त-तत्र स्वाम्यदत्तं तृणोपल-काष्ठादिकं
स्वास्थ्य का लक्षण है। तत्स्वामिना यददत्तम् । (योगशा. स्वो. विव.
स्वेद-१. अंगैकदेशप्रच्छादकं स्वेदः । (मूला. व. १-२२)। जो तृण, पाषाण और लकड़ी प्रादि उसके अधिकारी
१-३१) । २. अशुभकर्मविपाकजनितशरीरायासके द्वारा नहीं दी गई है उसे स्वाम्यदत्त कहा
समुपजातपूतिगन्धसम्बन्धवासनाव। सितवाबिन्दुसन्दोजाता है।
हः स्वेदः । (नि. सा. वृ. ६)। स्वार्थ-देखों स्वास्थ्य । स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष
१ शरीर के एक देश को आच्छादित करने वाले पंसा स्वार्थः Xxx । (स्वयम्भ. ३१) ।
मल को (स्वेद-पसीना) कहते हैं । २ अशुभ कर्म
के उदय से जो शरीर के द्वारा परिश्रम किया पुरुषों (जीवों) की जो प्रात्यन्तिक स्वस्थिति हैअनन्तचतुष्टयस्वरूप प्रात्मा में प्रवस्थान है
जाता है उससे जो दुर्गन्धित जलबिन्दुओं का प्रादुवही उनका स्वार्थ है।
र्भाव होता है वह स्वेद कहलाता है। स्वार्थश्रत-आद्यं (भावश्रतं) विकल्पनिरूपण- स्वोपकार-१. स्वोपकारः पुण्यसंचयः। (स. सि. रूपं स्वविप्रतिपत्तिनिराकरणफलत्वात्स्वार्थम । ७-३८; त. वा. ७, ३८, १) । २. विशिष्टगुण(अन. ध स्वो. टी. ३-५) ।
संचयलक्षणं स्वोपकारः। (त. वत्ति श्रुत. ७-३८)। अपनी विप्रतिपत्ति (प्रज्ञानता) का निराकरण १दान के प्राश्रय से जो दाता के पुण्य का संचय करने वाला जो विकल्प निरूपण स्वरूप ज्ञान है होता है वह दानजनित उसका स्वोपकार है । उसे स्वार्थश्रुत कहा जाता है ।
हतसमुत्पत्तिक कर्म-१. हते समुत्पत्तिर्येषां तानि स्वार्थाधिगम-स्वार्थाधिगमो ज्ञानात्मको मति- हतसमुत्पत्तिकानि । (जयघ.-कसायपा. पृ. १७५ श्रुतादिरूपः । (सप्तभं. पृ. १)।
टि.)। २. हते घातिते समुत्पत्तिर्यस्य तदुत्तरसमु. मति-श्रुतादिरूप ज्ञान को स्वार्थाधिगम कहा जाता त्पत्तिकं कर्म अणुभागसंतकम्मे वा जमुवरिदं जह
ण्णाणुभागसंतकम्मं तस्स हदसमुप्पत्तियकम्ममिदि स्वार्थानुमान-स्वयमेव निश्चितात् साधनात्साध्य- सण्णा ॥ (जयध. प्र. पृ. ३२२)। ३. हदसमुप्पत्तियज्ञानं स्वार्थानुमानम् । परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव कम्मेत्ति वुत्ते पुविल्लमणुभागसंतकम्मं सव्वं
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तमुत्पत्ति सत्कर्मस्थान ] घातिगुणहीणं काढूण द्विदेणेत्ति वृत्तं होदि । ( धव. पु. १२, पृ. २६ ) । १ श्रनुभागसत्कर्म का घात कर देने पर जिनको उत्पत्ति होती है उन्हें हतसमुत्पत्तिककर्म कहते हैं । हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान देखो हतोत्पत्तिकस्थान । जाणि अणुभागट्टाणाणि घादादो चेत्र उपज्जति, ण बंधादो, लाणि अणुभागसंतकम्मट्टाणाणि भण्णति । तेसि चेत्र हृदसमुत्तिणाणि विदिया सण्णा । ( धव. पु १२, पृ. २१६ ) । जो अनुभागस्थान घात से ही उत्पन्न होते हैं, बन्ध से उत्पन्न नहीं होते, उन्हें अनुभागसत्कर्मस्थान कहा जाता है उनका दूसरा नाम हतसमुत्पत्तिकस्थान भी है।
हत हतिसमुत्पत्ति सत्कर्मस्थान - देखो हतहतोत्पत्तिकस्थान । हतस्य वृतिः हततिः, ततः समुत्पत्तिर्येषां तानि इतत्तिसमुत्पत्तिकानि ! जयध. - कसायपा. पृ. १७५ टि. ) : घातित अनुभाग के घात से जिन अनुभाग सत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है उन्हें हतहतिसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं ।
हत हतोत्पत्तिकस्थान - देखो हतहतिसमुत्पत्तिकस्थान । यानि पुन स्थितिघातेन रसघातेन चान्यथाऽन्यथाभवनादनुभागस्थानानि जायन्ते तानि च हतहतोत्पत्तिकान्युच्यते । हते उद्वर्तनापवर्तनाभ्यां घाते सति, भूयोऽपि तात् स्थितिघातेन रसघातेन घातादुत्पत्तिर्येषां तानि हत हतोत्पत्तिकानि । ( कर्मप्र. मलय. वृ. सत्ता २४) ।
जो अनुभागस्थान स्थिति के घात से और रस ( अनुभाग ) के घात से अन्य अन्य प्रकार से परिणत होते हैं उन्हें हतहतोत्पत्तिक कहा जाता है। कारण यह कि उद्वर्तना और अपवर्तना के द्वारा घात के होने पर पुनरपि स्थिति के घात और रस के घात से वे उत्पन्न होते हैं। इससे उनकी यह हतहतोत्पत्तिक संज्ञा सार्थक है - हतोत्पत्तिकस्थान - देखो हतसमुत्पत्तिकसत्कर्म - स्थान । तथा उद्वर्तनापवर्तनाकरणवशतो वृद्धि हानिभ्यामन्यथाऽन्यथा यान्यनुभागस्थानानि वैचित्र्यभाञ्जि भवन्ति तानि हतोत्पत्तिकान्युच्यन्ते । हतात् घातात् पूर्वावस्थाविनाशरूपादुत्पत्तिर्येषां तानि हतोत्पत्तिकानि । ( कर्मप्र. मलय. वृ. सत्ता. २४) ।
१२१२, जैन-लक्षणावली
[ हस्त
उद्वर्तना और अपवर्तना करणों के वश होने वाली वृद्धि और हानि से अन्य अन्य प्रकार से परिणत विचित्र अनुभागस्थानों को हतोत्पत्तिक कहा जाता है। । कारण यह कि वे पूर्व अवस्था के विनाशरूप हत (धात) से उत्पन्न होते हैं। इससे उनकी यह हतोत्पत्तिक संज्ञा सार्थक है । हत्थिसुंडी १. हत्थिसुंडी हस्तिहस्तप्रसारणमिव एकं पादं प्रसार्यासनम् । (भ. श्री. विजयो. २२४ ) । २. हरिथसुंडि हस्तिहस्तप्रसारणमिव एक पाद संकोच्य तदुपरि द्वितीयं पादं प्रसार्यासनम् । (भ. प्रा. मूला. २२४) ।
२ हाथी की सूंड के समान एक पांव को संकुचित करके व उसके ऊपर दूसरे पांव को फैलाकर स्थित होना, इसे हत्थिसुंडी कहा जाता । यह कायक्लेश तप के अन्तर्गत श्रासन का एक प्रकार 1 हन्ता - हन्ता शस्त्रादिना प्राणिनां प्राणापहारकः । (योगशा. स्वो विव. ३ -२० ) ।
जो शस्त्र श्रादि के द्वारा प्राणियों के प्राणों का अप हरण किया करता है उसे हन्ता कहा जाता है । हरि - X Xx हरिः दुःखापनोदनात् । (लाटीसं.
४- १३२ ) ।
प्राणियों के दुःखों का अपहरण करने के कारण अरहन्त को हरि कहा जाता है ।
हर्ष - निर्निमित्तमन्यस्य दुःखोत्पादनेन स्वस्यार्थसंचयेत वा मनःप्रतिरञ्जनो हर्षः । ( नीतिवा. ४-७ ); तथा च भारद्वाजः -- प्रयोजनं विना दुःखं यो दत्त्वान्यस्य हृष्यति | आत्मनोऽनर्थसंदे [ दो ] हः स हर्षः प्रोच्यते बुधैः ॥ ( नीतिवा. टी. ४-७ ) । जो प्रकारण ही दूसरे को दुःख उत्पन्न करके अथवा अपने अर्थ संचय के द्वारा मन को अनुरंजायमान किया जाता है, इसे हर्ष कहते हैं । यह राजानों के काम क्रोधादिरूप अन्तरंग अरिषड्वर्ग में अन्तिम है ।
हस्त-१- दोणि विहृत्थी हत्थो X X X॥ ( ति प १ - ११४ ) । २. द्विवितस्तिः हस्तः । (त. वा. ३, ३८, ६) । ३. XX X तद्द्द्वयं ( वितस्तिद्वयं) हस्तः XXX ॥ ( ह. पु. ७-४५)। ४. हि वित्थीहि तहा हत्यो पुण होइ णायब्वो ॥ ( जं. दी. प. १३ - ३२ ) । ५. चतुर्विंशत्यंगुलो हस्त: । (त. वृत्ति श्रुत. ३- ३८ ) ।
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हस्तग्रहणान्तराय] १२१३, जन-लक्षणावलो
[हिरण्य १ दो वितस्तियों---चौबीस अंगुलों-का एक हस्त चित् परजनविकाररूपमवलोक्य त्वाकर्ण्य च हास्याहोता है।
भिधाननोकषायसमुपजनितमीषच्छुभमिश्रितमप्यशुभहस्तग्रहणान्तराय--१. xxx करेण वा कर्मकारणं पुरुषमखविकारजनितं हास्यकर्म। (नि. (किंचि गहणं) जं च भूमीए ॥ (मला. ६-८०)। सा.व. ६२) । ६. हास्याविर्भावफलं हास्यम् । २. Xxx पाणिना पुनः । हस्तग्रहणमादाने (भ. प्रा. मूला. २०६५)। ७. हास्यं वर्करादिस्वमुक्तिविघ्नोऽन्तिमो मुनेः ॥ (अन. प. ५-५८)। रूपं यदुदयादाविर्भवति तद्धास्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ यदि मुनि आहार के समय पृथिवी पर से हाथ ८-६)। के द्वारा कुछ ग्रहण करते हैं तो यह उनके लिए १ जिस कर्म के उदय से हास्य का प्राविर्भाव होता करग्रहण या हस्तग्रहण नामक भोजन का अन्तराय है उसे हास्य नोकषाय कहते हैं । २ जिसके उदय से होता है। यह बत्तीस भोजनान्तरायों में अन्तिम है। जीव के हास्य का कारणभूत राग उत्पन्न होता है हस्तपादादिसंस्कार-१ शोभार्थ हस्त-पादादि- उसका नाम हास्य हैं। ३ जिसके उदय से सकारण प्रक्षालनम् औषधविलेपनादिर्वा संस्कार आदि- या अकारण भी प्राणी रंगभूमि में पाए हुए नट के शब्देन गृहीतः । (भ. प्रा. विजयो. ६३) । २. शो- समान हँसता है उसे हास्य नोकषाय कहा जाता है । भार्थ प्रक्षालनमोषवलेपनादिकं च हस्त-पादादि- हास्यमोहनीय-यदयात सनिमित्तमनिमित्तं वा संस्कारः। (भ. प्रा. मला. ६३)।
हसति स्म हासयते वा तत् हास्यमोहनीयम् । (प्रज्ञाप. १ सुन्दरता के लिए हाथ-पांवों आदि को धोना मलय. व. २६३, प. ४६६) । अथवा औषध का लेपन प्रादि करना, यह सब हस्त- जिसके उदय से सनिमित्त या निमित्त हँसा जाता पादादिसंस्कार कहलाता है।
है वह हास्य मोहनीय कर्म है। हंससमानशिष्य -यथा हसः क्षीरमुदकमिश्रितमपि
हितनोग्रागमद्रव्यपेज्ज - व्याध्युपशमनहेतुर्द्रव्यं उदकमपहाय क्षीरमापिबति तथा शिष्योऽपि यो
हितम् । (जयध. १, पृ. २७१) । गुरोरनुपयोगादिसम्भवान् दोषानवधूय गुणानेव
व्याधि की उपशान्ति के कारणभूत द्रव्य का नाम केवलानादते स हंससमानः । (प्राव. नि. मलय. व.
हितनोप्रागमद्रव्यपेज्ज है। १३६, पृ. १४३)। जिस प्रजार हंस पानी से मिश्रित दूध को उस पानी
हितप्रदानविनय-परिणामकादीनां यत् यत् यस्य से पृथक् करके पीता है उसी प्रकार जो शिष्य गुरु के
भवति योग्यं तत्तु तस्य हितं सूत्रतोऽर्थतश्च ददाति । अनुपयोग प्रादि से सम्भव दोषों को दूर करके केवल
एष हितप्रदानविनयः । (व्यव. भा. मलय. वृ. गणों को ही ग्रहण किया करता है वह हंस समान
१०-३१३)।
परिणामक प्रादिकों में जो जो जिसके योग्य है शिष्य कहलाता है।
उसके लिए सूत्र से व अर्थ से उसे देना, इसे हितहास्य--१. यस्योदयाद्धास्याविर्भावस्तद्धास्यम् ।(स. सि. ८-६; त. वा. ८, ९, ४)। २. हसनं हासः,
प्रदानविनय कहा जाता है। जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण हस्सणिमित्तो जीवस्स हितभाषण - मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम् । रागो उप्पज्जइ तस्स कम्मक्खंघस्स हस्सोत्ति सण्णा। (त. वा. ६, ६, ५) । (धव. पु. ६, पृ. ४७); जस्स कम्मस्स उदएण जिस भाषण का प्रमुख फल मोक्ष पद की प्राप्ति प्रणयविहो हासो समुप्पज्जदितं कम्मं हस्सं णाम। रहता है उसे हितभाषण कहा जाता है । (धव. पु. १३, पृ. ३६१) । ३. हास्यनोकषायमो- हिरण्य--१. हिरण्यं रूप्यादिव्यवहारतन्त्रम् । (स. होदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति स्मयते रङ्गा- सि. ७-२६; त. वा. ७-२९) । २. हिरण्यं रूप्यवतीर्णनटवत् । (त. भा. सिद्ध. व. ८-१०)। ताम्रादिघटितद्रव्यव्यवहारप्रवर्तनम् । (कार्तिके. टी. ४. हसनं हासो यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन हास्यनि- ३४०) । मित्तो जीवस्य राग उत्पद्यते तस्य हास इति संज्ञा। जिसके प्राधीन रुपया प्रादि का व्यवहार चलता (मूला. वृ. १२-१९२) । ५. क्वचित्कदाचित्कि- है उसे हिरण्य कहा जाता है। २ जो चांदी अथवा
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हिरण्यगर्भ]
१२१४, जन-लक्षणावली
[हिंसा
तांबे आदि से निमित द्रव्य-सिक्कों आदि के द्वारा ६. इन्द्रियाद्या दश प्राणा: प्राणिभ्योऽत्र प्रमादिना । व्यवहार का प्रवर्तक होता है-वह हिरण्य कह- यथासम्भवमेषां हि हिंसा तु व्यपरोपणम् ॥ (ह. लाता है।
पु. ५८-१२७)। ७. प्राणानां परस्य च द्रव्य-भावहिरण्यगर्भ - हिरण्यवृष्टिरिष्टाभूद् गर्भस्थेऽपि प्राणानां वियोजका इति हिंसेत्युच्यते । (भ. प्रा. यतस्त्वयि । हिरण्यगर्भ इत्युच्चीर्वाणर्गीयसे ततः ॥ विजयो. ८०१)। ८. यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां (ह. पु. ८-२०६)।
द्रव्य-भावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता जब भगवान ऋषभदेव गर्भ में स्थित हुए तभी से भवति सा हिसा ।। (पु. सि. ४३) । ६. द्रव्यअभीष्ट सुवर्ण रत्नादि की वर्षा हुई, इसीलिए इन्द्रों भावस्वभावानां प्राणानां व्यपरोपणम् । प्रमत्तयोने उनकी स्तुति करते हुए उन्हें 'हिरण्यगर्भ' इस गतो यत्स्यात् सा हिंसा सम्प्रकीर्तिता ॥ (त. सा. सार्थक नाम से सम्बोधित किया।
४-७४)। १०. अतः श्रमणस्याशुद्धोपयोगाविनाहिंसक-देखो हिंसा । १. रत्तो वा दुट्टो वा मूढो भाविनी शयनासन-स्थान-चक्रमणादिष्वप्रयता या वा जं पयुंजदि पोगं । हिंसा वि तत्थ जायदि तमा चर्या सा खलु तस्य सर्वकालमेव संतानवाहिनी सो हिंसगो होइ ॥ xxx हिंसगो इदरो छैदानान्तरभूता हिंसव । (प्रव. सा. अमृत. वृ. (पमत्तो) ॥ (भ. प्रा. विजयो. ८०१)। २. जो ३--१६) । ११. Xxx अपि त्विन्द्रियादिव्याय पमत्तो पुरिसो तस्स य जोगं पडुच्च जे सत्ता। पत्त्या (हिंसोच्यते)। तथा चोक्तम् -पञ्चेन्द्रियाणि वावज्जते नियमा तेसि सो हिंसपो होइ । जे वि न त्रिविधं बलं च उच्छवास-निश्वासमथान्यदायुः । वावज्जती नियमा तेसि पि हिंसमो सो उ । साव- प्राणा दशैते भगवद्विरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु ज्जो उ पागेण सव्वभावो सो जम्हा ।। (मोघ. हिंसा ॥ (सूत्रकृ. सू. शी. व. २, ५, ७, पृ. १२२)। नि. ७५२-५३)। ३. पमत्तो हिंसक: Xxx। १२. एकेन्द्रियादयः प्राणिनः. प्रमत्तपरिणामयोगात् (सा. ध. ४.-२२)। ४. स्यात्तदव्यपरोपेऽपि हिंस्रो प्राणिप्राणव्यपरोपणं हिंसा। (चा. सा.प. ३८)। रागादिसंश्रितः। (अन. घ. ४-२३)।
१३. यत्स्यात्प्रमादयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम् । सा १ राग से युक्त, द्वेष से युक्त अथवा मोह से यक्त हिंसाxxx॥(उपासका. ३१८)। १४. तत्पर्याप्राणी जो प्रयोग करता है उसमें हिंसा होती है, यविनाशे दुःखोत्पत्तिः परश्च संक्लेशः । यः सा हिंसा इसीलिए रक्त (रागी), द्विष्ट (द्वेषी) और मढ सद्भिर्वर्जयितव्या प्रयत्नेन ॥ प्राणी प्रमादकलितः (मोही) जीव हिंसक होता है । २ प्रमाद युक्त प्राणब्यपरोपणं यदाधत्ते । सा हिसाऽकथि दक्षर्भवपुरुष के कायादि योग के प्राश्रय से चूंकि जीव वृक्षनिषेकजलधारा ॥ (अमित. श्रा. ६, २३, नियम से मरण को प्राप्त होते हैं, इसीलिए वह २४)। १५. प्रमादवता योगेन काय-वाङ्मनोव्यापाउनका हिंसक होता है । यदि जीव नहीं भी मरते हैं रात्मना यत्प्राणिभ्यः प्राणानामिन्द्रियादीनां प्रच्यावनं तो भी वह पापयुक्त उपयोग के रहने से उनका सा हिंसा। (न्यायवि. विव. ३-४, पृ. २५६) । नियम से हिंसक होता है।
१६. प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणलक्षणा हिंसा । हिंसा-१.अपयत्ता या चरिया सयणासण-ठाण- (प्रश्नव्या. अभय. वृ. पृ. ३४२)। १७. दु:खमुत्पद्यते चंकमादीसु । समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संततत्ति जन्तोर्मनः संक्लिश्यतेऽस्यते । तत्पर्यायश्च यस्यां सा मदा ।। मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स हिंसा हेया प्रयत्नतः।। (सा.ध. ४-१३)। १८. णिच्छिदा हिंसा। (प्रव. सा. ३, १६-१७)। सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते यत त्रस-स्थावराति २. हिंसा पूण जीववहो xxx। (पउमच. २६-३५) । ३. हिंसादो अविरमणं वहपरिणामो य रागाद्युभूतिः Xxx ॥ (अन. ध. ४-२२ व होइ हिसा हु। तम्हा पमत्तजोगे पाणव्ववरोवो २६) । १६. यतः प्राणमयो जीवः प्रमादात्प्राणणिच्चं । (भ. प्रा. ८०१)। ४. प्रमत्तयोगात्प्राण- नाशनम् । हिंसा तस्यां महद्दुःखं तस्य तद्वर्जनं व्यपरोपणं हिंसा। (त. सू. ७-१३)। ५. हिंसा ततः॥ (धर्मसं. श्रा. ६-६)। २०. हिंसनं हिंसा णाम पाण-पाणिवियोगो। (घव. पु. १४, पृ. ८६)। प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणम् । (त. वृत्ति श्रुत.
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हिंसा
१२१५, जन-लक्षणावलो
[हिंसानन्दरौद्रध्यान
७-१); ये प्राणिनां दश प्राणास्तेषां यथासंभवं खलादिगहणं प्रणत्थदंडो हवे तुरियो।। (कातिके. व्यपरोपणं वियोगकर गं चिन्तनं व्यपरोपणाभिमख्यं ३४७)। ८. हिमोपकारिणां शस्त्रादीनां दानमिति वा हिंसेत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-१३)। तृतीयः (अनर्थदण्डः) । (योगशा. स्वो. विव. २१. हिंसा प्रमत्तयोगद्धि यत् प्राणव्यपरोपणम् । ३-७३)। ६. हिंसादानं विषास्त्रादिहिंसाङ्गलक्षणाल्लक्षिता सूत्रे लक्षशः पूर्वसूरिभिः ।। (लाटी- स्पर्शनं त्यजेत् । पाकाद्यर्थं च नान्यादि दाक्षिण्यासं. ५-६०)। २२. प्राणच्छेदो हि सावधं सैव विषयेऽपयेत् ।। (सा. ध. ५-८)। १०. शस्त्र-पाशहिंसा प्रकीर्तिता ॥ (पंचाध्या. २-७४६); हिंसा विशालाक्षीनीलीलोहमनःशिला । चर्माद्यं नखिपस्यात् संविदादीनां घर्माणां हिंसनाच्चितः ॥ अर्थाद् क्ष्याद्या दानं हिंसाप्रदानकम् । (धर्मसं. श्रा. ७-११)। रागादयो हिंसा Xxx I (पंचाध्या. २, ७५३, ११. परप्राणिधातहेतूनां शुनक-मार्जार-सर्प-श्येना७५४)। २३. पञ्चस्थावरजीवानां षष्ठस्यापि दीनां विष-कुण्ठार खड्ग-खनित्र-ज्वलन-रज्ज्वादि
सस्य च। प्राणापरोपणं हिंसा षोढा सा चेति बन्धन-शृखलादीनां हिंसोपकरणानां यो विक्रयः संमता ॥ (जम्बू. च. १३-११६) ।
क्रियते व्यवहारश्च क्रियते स्वयं वा संग्रहो विधीयते १ सोने, बैठने, खड़े होने और गमन करने आदि तत् हिंसाप्रदानमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २१)। में जो साघु की प्रयत्न से रहित-प्रसावधानी- १ फरसा, तलवार, गेती-कुदाली प्रादि खोदने के पूर्वक-सदा प्रवृत्ति होती है उसे हिंसा माना गया उपकरण, प्राग, अस्त्र-शस्त्रादि, रस्सी, चाबक और है । कारण यह कि चाहे जीव मरे अथवा जीवित दण्ड (लाठी) इत्यादि जीवहिंसा के कारणभूत उपरहे, किन्तु प्रयत्नपूर्वक प्राचरण करने वाले के करणों को दूसरों के लिए देना, इसे हिसादान कहा हिंसा निश्चित हुमा करती है। २ जीववध का जाता है। नाम हिंसा है । ३ हिंसा से विरत न होना तथा हिसानन्दरौद्रध्यान- देखो हिंसानुबन्धी । १. वध का अभिप्राय रखना, इसे हिसा कहा जाता हिंसायां रंजनं तीव्र हिंसानन्दं तु नन्दितम् ।। (ह. है। ६, ११ प्रमाद के वश प्राणी के इन्द्रिय पु. ५६-२२) । २. वध-बन्धाभिसन्धानमङ्गच्छेदोपआदि दस प्राणों के वियोग करने को हिंसा कहते तापने । दण्डपारुष्यमित्यादि हिसानन्दः स्मृतो हैं। ८ कषाय के योग से जो द्रव्यरूप व भावरूप बुधैः ।। (म. पु. २१-४५)। ३. हते निष्पीडिते प्राणों का विनाश होता है, इसे निश्चित हिंसा ध्वस्ते जन्तुजाते कथिते । स्वेन चान्येन यो हर्षस्तसमझना चाहिए।
द्धिसारौद्रमुच्यते ॥ (ज्ञाना. २६-४, पृ. २६२) । हिंसादान-देखो हिस्रप्रदान । १. परशु-कृपाण- ४. षड्विघे जीवमारणारम्भे कृताभिप्रायश्चतुर्थ खनित्र-ज्वलनायुध-शृंगिशृंखलादीनाम् । वध- रौद्रम् । (मूला. वृ. ५-१६६)। ५. हिंसानन्दमहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधाः ॥ (रत्नक. सातकारणगणहिसारुचिर्देहिनाम् । भेदच्छेद-बिदा. ३-३१)। . विष-कण्टक-शस्त्राग्नि-रज्जु-कशा. रणासुहरणैरन्यश्च तैर्दारुणः । (प्राचा. सा. १०, दण्डादिहिंसोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम् । (स. सि. २०)। ६. हिंसायां जीववधादो जीवानां वन्धन७-२१; त. वा. ७, २१, २१)। ३. विष कण्टक- तर्जन-ताडन-पीडन - परदारातिक्रमणादिलक्षणायाम, शस्त्राग्नि-रज्जु-दण्ड-कषादिनः । दानं हिंसाप्रदानं परपीडायां संरम्भ-समारम्भारम्भलक्षणायाम, पानहि हिसोपकरणस्य वै । (ह. पु. ५८-१५१)। न्दः हर्षः, तेन युक्तः सहित: परपीडायाम् अत्यर्थं ४. विष-शस्त्रादिप्रदानलक्षणं हिंसाप्रदानम् । (त. संकल्पाध्यवसानं तीवकषायानुरंजनम, इदं हिंसाश्लो.७-२१)। ५. असि-धनु-विष-हुत शन-लाङ्गल- नन्दाख्यं रौद्रध्यानम्। जन्तुपीडने दृष्टे श्रुते स्मृते करवाल-कार्मुकादीनाम् । वितरणमपकरणानां हिंसा- यो हर्षः हिसानन्दः परेषां धादिचितने हिंसानन्दः । याः परिहरेद्यत्नात् ॥ (पु. सि. १४४)। ६. विष- (कातिके. टी. ४७५) । शस्त्राग्नि-रज्जु - कशा - दण्डादिहिंसोपकरणप्रदान १ हिंसा में अतिशय अनुराग रखना, इसे हिंसाहिंसाप्रदानम् । (चा. सा. ५.१०)। ७. मज्जार- नन्दरौद्रध्यान कहा जाता है। २ वध-बन्धन का पहदिधरणं पाउहलोहादिविक्कणं जं च । लक्खा. अभिप्राय रखना, प्राणी के अंगों का छेदन करना,
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हिसानुबन्धी] १२१६ जैन-लक्षणावली
हीयमान अवधि उन्हें सन्ताप देना और कठोर दण्ड देना, इत्यादि न्यूनाभ्यां ददाति अधिकाभ्यां गृह्णाति हीनाधिक. हिसानन्दरौद्रध्यान के लक्षण हैं।
मानोन्मानमुच्यते । त. वृत्ति श्रुत. ७-२७)। ६. केतुं हिसानुबन्धी-देखो हिंसानन्दरौद्रध्यान । हिंसा मानाधिकं मानं विक्रेतुं न्यूनमात्रकम् । होनाधिक मा. सत्त्वानां बघ-बन्धनादिभिःप्रकारैः पीडाम अनुबध्नाति नोन्माननामातीचारसंज्ञकः ।। (लाटीसं.६-५४)। सततप्रवृत्तं करोतीत्येवशीलं यत्प्रणिधानं हिंसानु- प्रस्थ (एक धान्य का मापविशेष) आदि मान और बन्धो वा यत्रास्ति तद्धिसानुबन्धि रौद्रध्यानमिति । तराज प्रादि उन्मान कहलाते हैं। हीन मान-उन्मान (स्थाना. अभय. व. २४७) ।
के प्राषय से दूसरे को देना तथा अधिक मान बध-बन्धन प्रादि विविध उपायों से प्राणियों को उन्मान के प्राश्रय से दूसरे से लेना, इस प्रकार की पीडा पहुंचाने रूप हिंसा में स्वभावतः निरन्तर घोखादेही का नाम होनाधिक मानोन्मान है। यह प्रवृत्त रहना, इसे हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान कहते हैं। प्रचौर्याणवत का एक प्रतीचार है। अथवा जहां भी हिंसा का सम्बन्ध रहता है उसे हीयमान अवधि---- १. अपरोऽवधिः परिच्छन्नोहिंसानबन्धी रौद्रध्यान कहा जाता है।
पादानसन्तत्य ग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेहिंसाप्रदान-देखो हिंसादान ।
शपरिणाम द्धियोगाद्यपरिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते हिंसोपकारिदान --देखो हिंसादान ।
श्रा अङ गुलस्यासंख्येयभागात् । (स. सि. १-२२; हिनप्रदान-हिस्रस्य खड्गादेः प्रदानम् अन्यस्यार्पण त. वा. १, २२, ४)। २. किण्हपक्खचंदमंडलं निष्प्रयोजनमेवेति हिंस्रप्रदानम् । (प्रोपपा. अभय. व जमोहिणाणमुप्पण्णं संत वाड्ढ अवट्ठाणेहि वृ. ४०, पृ. १०१)।
विणा हायमाणं चेव होदूण गच्छदि जाव दूसरे के लिए निष्प्रयोजन हिंसाजनक खड़ा आदि णिस्सेसं विणटठ ति तं हायमाणं णाम। (धव. पु. का देना, इसे हिस्रप्रदान अनर्थदण्ड कहा जाता है। १३, पृ. २६३)। ३. हीयमानोऽवधि: शुद्धे हीयहीनदोष-.--१. ग्रन्थार्थ-काल-प्रमाण रहितां वन्दनां मानत्वतो मतः । सद्देशावधिरेवात्र हाने सद्धावयः करोति तस्य हीनदोषः । (मूला. वसु. व. सिद्धितः ॥ (त. श्लो. १, २२, १४)। ४. तत्र ७-१०६) । २. हीनं न्यूनाधिक Xxx ॥ तथाविधसामग्रयभावत: पूर्वावस्थातो हानिमपगच्छन (अन. ध. ८-१०६) ।
हीयमानक:। उक्तं च हीयमाणयं पुवावत्थातो १ ग्रन्थ, अर्थ और काल प्रमाण से रहित वन्दना के अहोहो हस्समाणति । होयमानक: पूर्वावस्थातोकरने पर हीन दोष होता है। यह वन्दना के ३२ ऽधोधो हानिमुपगच्छन्नभिधीयते । (प्रज्ञाप. मलय, दोषों के अन्तर्गत है।
वृ. ३१७, पृ ५३८-३९) । ५. यत्कृष्णपक्षचन्द्रहीनाधिकमानोन्मान-१. प्रस्थादि मानम्, तुला- मण्डलमिव स्वक्षयपर्यन्तं हीयते तत् हीयमानम् । द्युन्मानम्, एतेन न्यूनेनान्यस्मै देयमधिकेनात्मनो (गो. जी म. प्र. व जी. प्र. ३७२) । ६. कश्चिदग्राह्यमित्येवमादिकूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मानम् । वधिः सम्यग्दर्शनादिगुणहान्याऽऽर्त-रौद्रपरिणाम(स. सि. ७-२७; त. वा. ७, २७, ४; चा. सा. वृद्धिसंयोगात् यावत्परिमाण उत्पन्नस्तस्माद् हीयते पृ. ६) । २. कूटप्रस्थ-तुलादिभिः क्रय-विक्रयप्रयोगो अगुलस्यासंख्येयभागो यावत् नियतेन्धनसन्ततिसहोनाधिकमानोन्मानः। (त. वा. ७, २७, ४)। लग्न वह्निज्वालावत । (त. वत्ति श्रत.१-२२) ३. न्यूनेन मानादिनाऽन्यस्मै ददाति, अधिकेनात्मनो १ उत्तरोत्तर हानि को प्राप्त होने वाली उपादानगृह्णातीत्येवमादिकूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मान- सन्तति – इन्धन को परम्परा से.- जिस प्रकार अग्नि मित्यर्थः । (सा. ध. स्वो. टी. ४-५०)। ४. मानं उत्तरोत्तर हानि को प्राप्त होती है उसी प्रकार हि प्रस्थादि, उन्मानं तुलादि, तच्च हीनाधिकं हीने- सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि और सक्लेश परिणाम नान्यस्मै ददाति अधिकेन स्वयं गृह्णातीति । (रत्न- की वृद्धि के योग से जो अवधिज्ञान जिस प्रमाण क. टी. ३-१२)। ५. प्रस्थ: चतुसेरमानम्, तत् में उत्पन्न हुआ था उससे उत्तरोत्तर हानि को काष्ठादिना घटित मानमुच्यते, उन्मानं तु तुला- ही प्राप्त होता जाता है वह होयमान अवधिज्ञान मानम्, मानं चोन्मानं च मानोन्मानम् एताभ्यां कहलाता है।
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हीलितदोष] १२१७, जैन-लक्षणावली
[हेतुविचय होलितदोष-१. वचनेनाचार्यादीनां परिभवं दुरवबोष भी अर्थ का दूसरे के हृदय में प्रवेश करा कृत्वा यः करोति वन्दनां तस्य हीलितदोषः। देना, इसका नाम हृदयनाहित्व है। यह ३५ वच(मूला. वृ. ७-१०८) । २. हीलितं हे गणिन् नातिशयों में १३वां है । वाचक किं भवता बन्दितेनेत्यादिना अवजानतो -१. साध्यार्थासम्भवाभावनियमनिश्चयंकवन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। ३.X लक्षणो हेतुः।(प्रमाणसं. स्वो. विव. २१)। २. अन्यxx अन्येषामुपहासादि हेलितम् । (अन. प. थानुपपन्नत्वं हेतोरेकलक्षणम् । (सिद्धिवि. ५-२३, ८-१०६)।
पृ. ३६१)। ३. हेतुः साध्याविनाभावि लिङ्गम्, १ जो वचन द्वारा प्राचार्य प्रादि का तिरस्कार अन्यथानुपपत्येकलक्षणोपलक्षितः। (घव. पु. १३, करके वन्दना करता है उसके होलित नाम का पृ. २८७)। ४. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो वन्दनादोष होता है। इसे हेलित दोष भी कहा हेतुः । (परीक्षा. ३-१०)। ५. अन्यथानुपपत्तिजाता है। २ हे गणिन् वाचक, प्रापको वन्दना से निर्णीतो हेतुः । (सिद्धिवि. वृ. ६-३२, पृ. ४३०)। क्या लाभ है ? इस प्रकार से अपमान करते हुए ६. साध्ये सत्येव भवति साध्याभावे च न भवत्येवं वन्दना करना, यह एक होलित नाम का वन्दना, साध्यधर्मान्वय-व्यतिरेकलक्षणो हेतुः। (प्राव. नि. दोष है।
- मलय. ७.८६, पृ. १०१)। ७. साध्याविनाभाविहण्डकसंस्थान-१. सर्वाङ्गोपाङ्गानां हुण्डसंस्थित- साधनवचनं हेतुः । यथा-धूमवत्त्वान्यथानुपपत्ते त्वात् हुण्डसंस्थाननाम । (त. वा. ८, ११, ८)। इति, तथैव धूमवत्त्वोपपत्तः इति वा। (न्यायदो. २. विसमपासाणभरियदइग्रो व्व विस्सदो विसमं प.७६)। हुंडं, हुंडस्स सरीरं हुंडसरीरं, तस्स संठाणमिव १ साध्य अर्थ की प्रसम्भावना में जिसके प्रभाव के संठाणं जस्स तं हुंडशरीरसंठाणं णाम । जस्स नियम का निश्चय होता है वह हेतु कहलाता है। कम्मस्सुदएण पुबुत्तपंचसंठाणेहितो वदिरित्त. ६ जो साध्य के रहते हुए ही होता है और उसके मण्णसंठाण मुप्पज्जइ एक्कत्तीसभेदभिण्णं तं हुंड- प्रभाव में नहीं होता है, इस प्रकार जिसका साध्य संठाणसण्णिदं होदि त्ति णादव। (धव. पु.६, प. के साथ प्रन्वय-व्यतिरेक रहता है उसे हेतु कहा ७२); विषमपाषाणभूत दृतिवत् समन्ततो विषमं जाता है। हुण्डम्, हुण्डं च तत् शरीरसंस्थानं हुण्डशरीरसंस्था- हेतुवाद-हिनोति गमयति परिच्छिनत्त्यर्थमात्मानं नम् । एतस्य कारणकर्मणोऽप्येषेव संज्ञा । (धव. पु. चेति प्रमाणपञ्चकं वा हेतुः, स उच्यते कथ्यते १३, पृ. ३६९) । ३. हुंडसंस्थानं सर्वशरीरावयवानां अनेनेति हेतुवादः श्रुतज्ञानम् । (धव. पु. १३, पृ. बीभत्सता परमाणूनां न्यूनाधिकता सर्वलक्षणासंपूर्णता २८७)। च। (मूला. वृ. १२-४६)। ४. यत्र तु सर्वेऽप्यवय- जो अर्थ और प्रात्मा का ज्ञान कराता है उसे हेतु वाः प्रमाणलक्षणपरिभ्रष्टास्तद् हुण्डसंस्थानम् । कहा जाता है, अथवा प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणों को (प्रज्ञाप. मलय. वु. २६८, पृ. ४१२) । ५. अव- हेतु समझना चाहिए। इस हेतु का जिसके द्वारा च्छिन्नावयवं हुण्डसंस्थानं नाम । (त. वृत्ति श्रुत. निरूपण किया जाता है उसका नाम हेतुवाद है ८-११)।
जो श्रुतज्ञान स्वरूप है। १ जिसके उदय से शरीर के सब अंग-उपांग हेतुविचय--१. तर्कानुसारिणः पुंसः स्याद्वादप्रविरूप (बेडौल) प्राकार में अवस्थित होते हैं उसे क्रियाश्रयात् । सन्मार्गश्रयणध्यानं यद्धेतुविचयं तु हुण्डसंस्थान नामकर्म कहते हैं। ४ जहां शरीर के तत् ॥ (ह. पु. ५६-५०) । २. हेतुविचयसब ही अवयव प्रमाण लक्षण से रहित होते हैं उसे मागमविप्रतिपत्तो नय (कार्ति. 'नगमादिनय') हुण्डसंस्थान कहते हैं।
विशेषगुण-प्रधानभावोपनयदुर्धर्षस्याद्वादप्रति (कार्ति. हृदयग्राहित्व-हृदयग्राहित्वं दुर्गमस्याप्यर्थस्य पर. 'स्याद्वादशक्तिप्रति') क्रियाऽवलम्बिनस्तर्कानुसारिहृदयप्रवेशकरणम् । (रायप. मलय. व. पू. १६)। रुचेः पुरुषस्य स्वसमयगुण-परसमयदोषविशेषपरि
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हेतुविचय] १२१८, जैन-लक्षणावली
[हस्व च्छेदेन यत्र गुणप्रकर्षस्तत्राभिनिवेशः श्रेयानिति १ जो अन्यथानुपपन्नत्व (प्रविनाभाव) से रहित होते स्याद्वादतीर्थकरप्रवचने पूर्वापराविरोधहेतुपरिग्रहण- हुए दूसरे एकान्तवादियों के द्वारा हेतुरूप से कल्पित सामर्थ्येन समवस्थानगुणानुचिन्तनं हेतुविचयं दशमं हैं वे हेत्वाभास कहलाते हैं। २ जिनमें हेतु का धर्म्यम् । (चा. सा. पृ. ६०; कातिके. टी. ४८२)। लक्षण तो घटित नहीं होता है, पर हेतु के समान १ तर्क (ऊहापोह) का प्राश्रय लेने वाले पुरुष प्रतीत होते हैं उन्हें हेत्वाभास कहा जाता है । के द्वारा स्थावावप्रक्रिया-अनेकान्तवाद के आश्रय हेलितदोष-देखो हीलितदोष । से-समीचीन मार्ग (मोक्षमार्ग) के प्राश्रयण होता-अध्यात्माग्नौ दया-मन्त्रैः सम्यक्कर्मसमिका जो विचार किया जाता है वह हेतु- च्चयम् । यो जुहोति स होता स्यान्न बाह्याग्निविचय धर्मध्यान कहलाता है। यह प्राध्यात्मिक मेघकः ॥ (उपासका. ८८१)। धर्मध्यान के अपायविचयादि दस भेदों में अन्तिम जो प्रध्यात्मरूप अग्नि में दयारूप मन्त्रों के द्वारा
भलीभांति कर्मरूप हव्य सामग्री का होम करता हेत्वाभास-१. अन्यथानुपपन्नत्वरहिता ये विड. है वह वास्तव में होता है, बाह्य अग्नि में समिधा म्बिताः ॥ हेतुत्वेन परस्तेषां हेत्वाभासत्वमीक्ष्यते। का होम करने वाला यथार्थ में होता नहीं है। (न्यायवि. २, १७४-७५, पृ. २१०)। २. हेतु- ह्रस्व-एकमात्रो ह्रस्वः । (धव. पु. १३, पृ. लक्षणरहिता हेतुवदवभासमाना हेत्वाभासाः । २४०)। (न्यायवी. पृ. ६९-१००)।
एक मात्रा वाले वर्ण को ह्रस्व कहा जाता है।
EME
-TAHSI
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जैन लक्षणावली :
इस ग्रन्थ के संयोजक
स्व० श्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार
सन् १९३८ में किये गये संकल्प के फल स्वरूप प्राज ४० वर्ष पाठकों के सम्मुख है । तस्व-जिज्ञासुनों और अनुसन्धान करने वालों के मुख्तार साहब को एक बहुत उपयुक्त स्मारिका है ।
दिगम्बर व श्वेताम्बर सभी जैन सम्प्रदायों के ४०० से अधिक प्राकृत व संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन करके इस प्रामाणिक पारिभाषिक शब्दकोश की रचना उस महान् ब्लक्तित्व की लगन और निष्ठा का ही फल है, जिसके बिना इस अभीष्ट लक्ष्य का पूर्ण होना शक्य था ।
पश्चात् यह ग्रन्थ पूर्ण होकर लिए यह अनमोल निधि स्व०
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१२२०, जैन-लक्षणावली
स्व० मुख्तार साहब का जन्म २० दिसम्बर १८७७ को सरसावा, जिला सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था । सन् १९३६ में उन्होंने "वीर सेवा मन्दिर" की स्व० मुख्तार साहब ने तथा अन्य समकालीन विद्वानों ने जैन प्रकाशित ग्रन्थों की खोज की तथा प्राचीन पाण्डुलिपियों के की नींव डाली ।
स्थापना को । इस संस्था के माध्यम से वाङ्मय के अनेक दुर्लभ, अपरिचित और सम्यक् परीक्षण-पर्यालोचन और सम्पादन
पत्र का प्रकाशन
मुख्तार साहब ने "अनेकान्त" नाम से जिस शोध प्रारम्भ किया था वह 'वोर सेवा मन्दिर' के मुख पत्र के रूप में अब भी चल रहा है। अनुसन्धान के क्षेत्र में इस पत्र ने जो शोधसामग्री विद्वत् समाज के सामने प्रस्तुत की, उससे अनेक नये तथ्य उद्घाटित हुए और अनुसन्धान कार्य को नई दिशा-दृष्टि प्राप्त हुई ।
मुख्तार साहब का सम्पूर्ण जीवन जैन साहित्य और समाज के लिए समर्पित हुआ। मुख्तार का कार्य तो उन्होंने केवल एक अल्प काल के लिए ही किया। जैन समाज के उस पुनर्जागरण के युग में मुख्तार साहब ने समाज सुधार का बीड़ा उठाया और सामाजिक क्रान्ति को सुदृढ़ शास्त्रीय श्राधार दिए । वर्षों तक मुख्तार साहब ने "जैन गजट" तथा "जैन हितैषी" के सम्पादन का कार्य किया । उनके द्वारा रचित 'मेरी भावना' तो एक ऐसी अभूतपूर्व रचना है जो जैन समाज ने स्थायी रूप से अपना ली है और उसके द्वारा आचार्य सदा-सदा जन-जन के मानस पर स्थापित रहेंगे ।
ऐतिहासिक अनुसन्धान, प्राचार्यों का समय निर्णय, प्राचीन पाण्डुलिपियों का सम्यक् परीक्षण तथा विश्लेषण करने की उनकी प्रद्भुत क्षमता थी। उनके प्रमाण अकाट्य होते थे । उनकी साहित्य सेवा अर्धशताब्दी से भी अधिक के दीर्घकाल में व्याप्त है । वे जीवन के अन्तिम क्षण तक अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य में लगे रहे । अन्त में वह अनवरत स्वाध्यायी, प्रतिभा सम्पन्न, बहुश्रुत, विद्वान २२ दिसम्बर, १९६८ को स्वर्गारोही हुए ।
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