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________________ श्रस्तदर्शन] १०६९, जैन-लक्षणावली [श्रुत प्रधानता से लोक का श्रद्धान नहीं करता है, उसे श्रीमान् । (अन. ध. स्बो. टी. ८-३६)। श्रमणाभास कहा जाता है। श्री का अर्थ लक्ष्मी है। वह अन्तरंग और बहिरंग श्रस्तदर्शन--संयोजनोदये भ्रष्टो जीवः प्रथमदृष्टि- के भेद से दो प्रकार की है। अनन्तज्ञानादिस्वरूप तः। अन्तराऽनातमिथ्यात्वो वर्ण्यते श्रस्तदर्शनः ।। लक्ष्मी अन्तरंग और समवसरण एवं पाठ प्रातिहा(पंचसं. अमित. १-२०)। र्यादिस्वरूप लक्ष्मी बहिरंग मानी गई है। यह दोनों अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में प्रा जाने पर जो प्रकार की लक्ष्मी जिसके होती है उसे श्रीमान् कहा जीव प्रथम सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो चुका है तथा जाता है । यह जिन भगवान के १००८ नामों के मिथ्यात्व को अभी प्राप्त नहीं हुआ है, इस अन्तर्गत है। अन्तरालवर्ती जीव को श्रस्तदर्शन कहा जाता है। श्रत---१. तदावरणक्षयोपशमे सति निरूप्यमाण यह सासादनसम्यग्दृष्टि का नामान्तर है। श्रूयतेऽनेन तत्, शृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतम् । श्राद्ध-साधुभ्यो ददता दानं लभ्यते फलमीप्सितम्। (स. सि. १-६) तदुपदिष्टं (केवलिभिरुपदिष्ट) यस्यैषा जायते श्रद्धा नित्यं श्राद्धं वदन्ति तम् ।। बुद्धचतिशयद्धियुक्तगणधरानुस्मृतं ग्रन्थ रचनं श्रुतं (अमित. श्रा. ६-६)। भवति । (स. सि. ६-१३)। २. श्रुतावरणक्षयोप- . साधु के लिए दान देने वाला इच्छित फल को प्राप्त । शमाद्यन्तरंग-बहिरंगहेतुसन्निधाने सति श्रूयते स्मेति करता है, ऐसी जिस दाता के श्रद्धा रहती है उसे श्रुतम्, कर्तरि श्रुतपरिणत प्रात्मैव शृणोतीति श्रुतम्, श्राद्ध -श्रद्धागुण से युक्त श्रावक- कहा जाता है। भेदविवक्षायां श्रूयतेऽनेनेति श्रुतं श्रवणमात्र वा। श्रावक--१. एहु धम्मु जो आयरइ बंभणु सुदु वि (त. वा. १, ६, २); अनिन्द्रियनिमित्तोऽर्थावगमः कोइ । सो सावउ कि सावयहं अण्णु कि सिरि मणि श्रुतम् । इन्द्रियानिन्द्रियबलाधानात्, पूर्वमुपलब्धेऽर्थे होइ ॥ (सावयध. ७६) । २. मूलोत्तरगुणनिष्ठा- नोइन्द्रियप्राधान्यात् यदुत्पद्यते ज्ञानं तत् श्रुतम् । मधितिष्ठन् पञ्चगुरुपदशरण्यः। दान-यजनप्रधानो (त. वा १, ६, २७); तदुपदिष्टं बुद्धयतिशद्धिज्ञान-सुधां श्रावकः पिपासुः स्यात् ॥ (सा. घ. १, युक्तगणघरावधारितं श्रुतम् । तैर्व्यपगतराग-द्वेष१५)। ३. मद्य-मांस-मधुत्यागी यथोदुम्बरपञ्चकम् । मोहैरुपदिष्टं बुद्धयतिशद्धियुक्तः गणधरैरवधारित नामतः श्रावक: ख्यातः नान्यथापि तथा गृही॥ श्रुतमित्युच्यते । (त. वा. ६, १३, २) । ३. प्रत्था(लाटीसं. ३-१५७)। ओ अत्यंतरउवलंभे तं भणंति सुयणाणं । आहिणि१जो इस (दोहा ५६ में निर्दिष्ट प्रणवतादिरूप बोहियपुव्वं णियमेण य सद्दयं मूलं ॥ (प्रा. पंचसं बारह प्रकार के) धर्म का प्राचरण करता है वह १-१२२; धव. पु. १, पृ. ३५६ उद्.)। ४. सुदणाणं चाहे ब्राह्मण, शूद्र कोई भी हो, श्रावक कहलाता। णाम मदिपुव्वं मदिणाणपडिग्गहियमत्थं मोत्तूणण्णहै। धावक के शिर पर क्या अन्य कोई मणि रहता स्थम्हि वावदं सुदणाणावरणीयक्खोवसमजणिदं । है ? श्रावक को पहिचान उक्त व्रत ही हैं। (धव. पु. १, पृ. ६३); अवग्गहिदत्थादो पुधभूदश्रावकधर्म-श्रावकधर्मस्तु देशविरतिरूपः । (योग- स्थालंबणाए लिंगजणिदबुद्धीए णिण्णयरूवाए सुदणाशा. स्वो. विव. ३-१२४)। णत्तब्भुवगमादो। (धव. पु. ६, पृ.१८); सुदणाणं देशविरतिरूप ---अणुवतादिस्वरूप-जो धर्म है वही णाम इंदिएहि गहिदत्थादो तदो पुधभूदत्थग्गहणं, श्रावकधर्म है। जहा सद्दादो घडादीण मुवलंभो धूमादो अग्गिस्सुवश्राविका - श्राविका यथाशक्तिमूलोत्तरगुणभृताः लंभो वा। (धव. पु. ६, पृ. २१): मदिणाणेण तदुपासिकाश्च । (सा. ध. स्वो. टी. २-७३)। गहिदत्थादो जमुप्पज्जदि अण्णेसु अत्थेसु णाणं तं जो शक्ति के अनुसार मूल गुणों और उत्तर गुणों सुदणाणं णाम । (धव. पु. १३, पृ. २१०); अवको धारण करती हैं वे श्राविकाएं कहलाती हैं। गहादिधारणापेरंतमदिणाणण अवगयत्थादो अण्णश्रीमान्-श्रीरन्तरङ्गा अनन्तज्ञानादिलक्षणा बहि- स्थावगमो सुदणाणं । (धव. पु. १३, पृ. २४५) । रङ्गा च समवसरणाष्टमहाप्रातिहार्यादिस्वभावा ५. मदिणाणपुव्वं सुदणाणं होदि मदिणाणविसईकयलक्ष्मीरस्यातिशयेन हरि-हराद्यसम्भवित्वेनास्तीति अट्ठादो पुधभूदढविसयं । (जयध. १, पृ. ४२); Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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