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प्रभु]
७६७, जैन-लक्षणावली
[प्रमत्तविरत
- को दूर करके यथायोग्य जिनशासन के माहात्म्य बन्धादिभेदास्तत्परिणत अात्मा प्रमत्तः । इन्द्रियाणि के फैलाने को प्रभावना कहते हैं। ३ रत्नत्रय के स्पर्शनादीनि, तद्द्वारको राग-द्वेषौ, समासादिततत्पप्रभाव से प्रात्मा को प्रकाशित करना, इसका नाम रिणतिरात्मा प्रमत्तः। स्पर्शनादिनिमित्तभेदात् कषाया प्रभावना है। ४ धर्मकथादिकों के द्वारा धर्म- एव प्रमादहेतुत्वेनोपन्यस्ताः। प्रमादश्चात्मनः परितीर्थ को ख्यापित करना-उसे प्रसिद्धि में लाना णामः कषायादिनिमित्तः । दर्शनावरणकर्मोदयात् या प्रचार करना, यह प्रभावना कहलाती है। स्वापो निद्रा पञ्चप्रकारा, तत्परिणामांच्च पीतहप्रभु-१. स प्रभुर्यो बहून् बिभति, किमर्जुनतरोः त्यूरपित्तोदयाकुलितान्तःकरणः पुरुषबदन्धो मूढः करफलसम्पदा या न भवति परेषामुपभोग्या। (नीति- चरणविक्षेपशरीरपर्यवसानक्रियाः कुर्वन् प्रमत्तः । वा. ३२-३१, पृ. ३६१)। २. घाईकस्मखयादो (आसवो) मद्यं मधुवार-शीधु-मदिरादि, तदभ्यवहारे केवलणाणेण विदिदपरमट्ठो । उवदिट्ठसयलतच्चो सत्यागतमूर्च्छ इव विह्वलतामुपेतः प्रमत्तोऽभिधीयते। लद्धसहावो पह होई ॥ (द्रव्यस्व. प्र. नयच. १०७)। विकथा स्त्री-भक्त-जनपद-राजवत्तान्तप्रतिबद्धा; राग३. प्रभुरिन्द्रादीनां स्वामी। (समाधि. टी. ६)। द्वेषाविष्टचेताः स्यादिविकथापरिणतः (प्रमत्तः)। १ जो बहुतों को धारण करता है उनका भरण- (त. भा. सिद्ध. वृ. ७-८)। ३. इन्द्रिय-कषायपोषण करता है-वह प्रभु कहलाता है। यह ठीक निग्रहमकृत्वा प्रमत्त इव यः प्रवर्तते स प्रमत्तः। (चा. भी है-उस अर्जन वृक्ष की फलसम्पत्ति से क्या सा. प्र. ३८)। ४. विकथाक्ष-कषायाणां निद्रायाः लाभ है जो दूसरों के उपभोग के योग्य न हो? प्रणयस्य च । अभ्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्तः परि२ घातिकर्मों के क्षय से प्राप्त केवलज्ञान के द्वारा कीर्तितः ॥ (उपासका. ३१६) । ५. विगहा-कसायतत्त्व को जानकर जो समस्त पदार्थों का उपदेश निद्दा-सद्दाइरो पमत्तोत्ति । (शतक. भा. ८७)। देता है उस परहन्त देव को प्रभु कहते है। ६. प्रमाद्यन्ति स्म मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः संज्वप्रभुप्राच्छेद्य-देखो आच्छेद्य दोष। प्रभुर्गहादि- लनकषाय-निद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयम-योगेषु नायकः, अन्येषां दरिद्रकौटुम्बिकानां बलाद्दातुमनी- सीदन्ति स्म इति प्रमत्ताः। (नन्दी. सू. मलय. वृ. प्सितामपि यद्देयं ददाति, तत्प्रभुपाच्छेद्यम् । (जीत- १३; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २७३, पृ. ४२४; पंचसं. क. चू. वि. व्या. १५-२०, पृ. ४६)।
मलय. वृ. १-१५, पृ. २१)। ७. विकथादिरतो प्रभु का अर्थ गृह का स्वामी है। जो गृहस्वामी यत्र यतिः स्यात् स प्रमत्तकः । (सं. प्रकृतिवि. जय. अन्य कुटुम्बी जनों के-जो कि देने के इच्छुक नहीं १०)। है-देय द्रव्य को बलपूर्वक लेकर देता है, यह १ जो इन्द्रियों के संचारविशेष का निश्चय न करके प्रभुप्राच्छेद्य नाम का उद्गमदोष है।
प्रवृत्त होता है उसे प्रमत्त कहा जाता है । अथवा मद्यप्रमत्त-१. अनवगृहीतप्रचारविशेषः प्रमत्तः । पायी (शराबी) मनुष्य जिस प्रकार कार्य-अकार्य इन्द्रियाणां प्रचारविशेषमनवधार्य प्रवर्तते यः स और वाच्य-अवाच्य को नहीं जानता है उसी प्रकार प्रमत्तः । अभ्यन्तरीकृतेवार्थो वा। अथवा अभ्यन्तरी- जो जीवों के स्थान, योनि और पाश्रयविशेषों को न कृतेवार्थः प्रमत्त इत्युच्यते। कः पुनरुपमार्थः ? यथा जानकर कषाय के वशीभूत होता हा हिंसा के सुरापः प्रवृद्धमदत्वात् कार्याकार्य-वाच्यावाच्याद्यन- कारणों में स्थित रहता है और अहिंसा में उद्यत भिज्ञः, तथा जीवस्थान-योन्याश्रयविशेषानविद्वान् नहीं होता है वह प्रमत्त कहलाता है। अथवा कषायोदयाविष्ट: हिंसाकारणेषु स्थितः अहिंसायां विकथादि पन्द्रह प्रमादों से जो परिणत ढोता है सामान्येन न यतत इति प्रमत्तः । पञ्चदशप्रमाद- उसे प्रमत्त समझना चाहिए। परिणतो वा । अथवा चतसृभिः विकथाभिः कषाय- प्रमत्तविरत-देखो प्रमत्तसंयत । संजलण-णोकसाचतुष्टयेन पञ्चभिरिन्द्रियः निद्रा-प्रणयाभ्यां च परि- याणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादों णतो यः स प्रमत्त इति कथ्यते । (त. वा. ७, १३, वि य तम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥ (गो. जी. ३२)। १-३) । २. प्रमाद्यतीति प्रमत्तः कषाय-विकथेन्द्रियः संज्वलन कषायों और हास्यादि नोकषायों के निद्रासनिमित्तभूतः। तत्र कषायाः षोडशानन्तानु- उदय से यद्यपि संयम तो होता है, पर उसे मलिन
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