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________________ वैक्रियिकशरीर] १०२६, जैन-लक्षणावली [वैनयिकमिथ्यात्व वैविक शरीर क्षौर वैविक काययोग भी कहा अण्णागारेणच्छण्णं । (घव. पु. ४, पृ. २६); विजाता है। विहिद्धिस्स माहप्पेण संखेज्जासंखेज्जजोयणाणि वैक्रियिकशरीर-देखो वैक्रिय । सरीरेण प्रोटहिय अवट्ठाणं वेउव्वियसमुग्धादो णाम । वैक्रियिकशरीरबन्धन -१... एवं सेससरीरबंध- (धव. पु. ७, पृ. २६६)। ३. मूलशरीरमपरित्यणाणं पि प्रत्थो वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण ज्य किमपि विकर्तुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति वेउब्वियसरीर-परमाण अण्णोण्णेण बंधमागच्छन्ति विक्रियासमुद्घातः । (ब. द्रव्यसं. टी. १०)। तं वेगुब्वियसरीरबंधणं णाम)। (धव. पु. ६, पृ. १ एकत्व व प्थकत्वरूप अनेक प्रकार की वैक्रियिक ७०)। २. यदुदयाद् वैक्रियपुद्गलानां गृहीतानां शरीर, वाक्प्रकार और प्रहरण मावि विक्रियारूप गह्यमाणाणां च परस्परं तेजस-कार्माणपुद्गलैश्च प्रयोजन के सिद्ध करने वाले समधात को-प्रात्मसह सम्बन्धस्तद्वैक्रियबन्धनम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. प्रदेशों के शरीर से बाहिर निकलने को-वैक्रियिक २६३, पृ. ४७०)। समदघात कहते हैं। २ वैक्रियिक शरीर के उदय १ जिसके उदय से वैक्रियिक शरीर के परमाणु बाले देवों व नारकियों के स्वाभाविक प्राकार को परस्पर में बन्ध को प्राप्त होते हैं उसका नाम छोड़कर भिन्न प्राकार में अवस्थित होने को वैकि. वैक्रियिक शरीरबन्धन नामकर्म है। २ जिसके पिकसमुद्घात कहा जाता है। उदय से गृहीत और गृह्यमाण वैक्रियिक पुद्गलों का वैविक-देखो वैक्रिय । परस्पर में तथा तेजस और कार्माण पद्गलों के साथ वैदिकभावश्रुतग्रन्थ-द्वादशांगादिबोधो वैदिकभी सम्बन्ध होता है उसे वैक्रियिकबन्धन कहते हैं। भावश्रुतग्रन्थः । (घव. पु. ६, पृ. ३२२) । वक्रियिकशरीरसंघात-एवं सेससरीरसंधादा- बारह अंग आदि के बोध को वैदिकभावश्रुतग्रन्थ णं पि अत्थो वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण वेउ- (कृति) कहा जाता है। बियसरीरक्खंधाणं सरीरभावमुवगयाणं बंधणणाम- वैदिकमूढ-ऋग्वेद-सामवेदा वागणुवादादिवेदसकम्मोदएण एकबंधबद्धाणमट्ठत्तं होदि तं वे उब्विय- त्थाई। तुच्छाणि ताणि गेण्हइ वेदियमूढो हवदि सरीरसंघादं णाम)। (धव. प. ६, पृ. ७०)। जिस कर्म के उदय से वैक्रियिक शरीर स्वरूप को ऋग्वेद, सामवेद, वाक (ऋग्वेद प्रतिबद्ध प्रायश्चित प्राप्त हुए तथा बन्धन नामकर्म के उदय से एक प्रादि) और अनुवाद (मनुस्मृति) प्रादि तुच्छ बन्धन में बद्ध हुए वैक्रियिक शरीररूप स्कन्धों में शास्त्रों को जो ग्रहण करता है वह वैदिकमढ होता मुष्टता (एकरूपता) होती है उसे वैक्रियिक शरीर- है। संघात नामकर्म कहते हैं। वैदेहिक-गृहपति-वैदेहिको ग्रामकूट-श्रेष्ठिनौ । वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग-एवं सेसदोसरीरअंगो- (नीतिवा. १४-११, पृ. १७३)। वंगाणं पि अत्थो वत्तव्यो (जस्स कम्मस्स उदएण राजश्रेष्ठी को वैदेहिक कहा जाता है। यह राजा के वेउब्वियसरीरस्स अंगोवंग-पञ्चंगाणि उप्पज्जति सवसर्पवर्ग के अन्तर्गत है। तं वेउव्वियसरीरअंगोवंग णाम)। (धव. पु. ६, वैधर्म्य-वैधयं च साध्याभावाधिकरणवृत्तित्वेन पु. ७३)। निश्चितत्वम् । (सप्तभं. पृ. ५३)। जिस कर्म के उदय से वैक्रियिक शरीर के अंग- साध्याभाव के अधिकरण में जिसके न रहने का उपांग और प्रत्यंग उत्पन्न होते हैं उसे वैक्रियिक- निश्चय हो, उसे बैधर्म्य कहा जाता है। शरीरांगोपांग नामकर्म कहते हैं। बनयिकमिथ्यात्व-१. सर्वदेवतानां सर्वसमयानां वैक्रियिकसमदघात-१. एकत्व-पृथक्त्व-नानावि- च समदर्शनं वनयिकम् । (स. सि. ८-१त. वा. विक्रियशरीरवाक्प्रचार-प्रहरणादिविक्रियाप्रयोजनो ८, १, २८)। २. विनयेन चरन्ति विनयो वा वैक्रियिकसमरातः । (त. वा. १, २०, १२, पृ. प्रयोजनं येषामिति वैनयिकाः। एते चानबधतलि७७) । २. वेउब्वियसमुग्धादो णाम देव-णेरइयाणं नाऽऽचारशास्त्रा विनयप्रतिपत्तिलक्षणा: xxxi वेउब्वियसरीरोदइल्लाणं साभावियमागारं छड्डिय (नन्दी. हरि. वृ. पृ. १०१)। ३. विनयेन चरन्तीति बनायक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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