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वैद्यकर्म]]
वैद्यकर्म - मधुलिप्तासिधाराग्रास्वादानं वैद्यकर्मयत् । सुख-दुःखानुभवनदं स्वभावं तत्प्रकीर्तितम् ॥ (त्रि. श. पु. च. २, ३, ४६९ ) । शहद लपेटी तलवार की धार के अग्रभाग के श्रास्वादन के समान जो कर्म सुख व दुःख के अनुभवन स्वभाववाला है उसे वैद्यकर्म कहते हैं । वेध - वेधस्तु नासिकादिवेधनं कीलिकादिभिः । (ध्यानश. हरि. वृ. १६) ।
कील श्रादि के द्वारा जो नाक नादि को वेधा जाता है, इसे वेध कहते हैं । वेहाणसमरण - देखो विप्पाणसमरण । वेहाणसं नाम उब्बंधणं । (उत्तरा चू. पू. १२९ ) । उद्बन्धन - पेड आदि के प्राश्रित बन्धन ( फांसी)से जो श्राकाश में मरण होता है उसे बेहाणस या वैहायस मरण कहते हैं । वैक्रिय - १. श्रष्टगुणैश्वर्ययोगादेकाने काणु-महच्छरीरविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम् । ( स. सि. २ - ३६ ) । २. विक्रिया प्रयोजनं वैयिकम् । अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाणु-महच्छ
रविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम् | (त. वा. २, ३६, ६ ) ; विविधधिगुणयुक्तविकरणलक्षणं वैक्रियिकम् । (त. वा. २, ४६, ८) ३. विविधा क्रिया विक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम् । ( श्राव. नि. हरि. बृ. १४३४, पृ. ७६७) । ४. प्रणिमादिविक्रिया, तद्योगात्पुद्गलाश्च विक्रियेति भण्यन्ते । तत्र भवं शरीरं वैक्रियिकम् । ( धव. पु. १, पृ. २६१ ) ; जस्स कम्मस्स उदएण श्राहारवग्गणाए खंधा अणिमादिगुणोवलक्खिय सुहा- सुप्पय वेउविवयसरीररूवेण परिणमति तस्स वेडव्वियसरीरमिति सण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ६६ ); जस्सकम्मस्स उदएण वेव्वियसरीपरमाणू जीवेण सह बंध मागच्छन्ति तं कम्मं वेउव्वियसरीरणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६३ ) ; तेत्तीससागरोवमसंचिदणोकम्मपदेस कलाश्रो वेउब्वियसरीरं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ७८ ) । ५. विक्रियायां भवः कायो विक्रिया वा प्रयोजनम् । यस्य वैऋियिको ज्ञेय: x X X ॥ एकानेकलघु-स्थूलशरीरविविध क्रिया विक्रिया कथिता प्राज्ञैः सुरश्वाभ्रादिगोचरा ॥ ( पञ्चसं श्रमित. १, १७३-७४) ६. तथा यदुदयादाहारवर्गणागतपुद्गलस्कन्धा अणिमादिगुणोप
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१०२८, जैन- लक्षणावली
[वैक्रियिककाययोग
लक्षितास्तद्वै क्रियकं शरीरम् । ( मूला वृ. १२, १३ ) । ७. विक्रिया प्रयोजनमस्येति वैक्रियं सूक्ष्म तर विशिष्ट कार्य करणक्षमपुद्गलनिर्वृत्तम् । ( श्रपपा. अभय वृ. ४२, पृ. ११०) ८. तथा विविधा विशिष्टा वा क्रियाविक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम् । ( प्रज्ञाप. मलय. वू. २६७, पृ. ४०९ ) । ९. विविधं करणं विक्रिया, विक्रिया प्रयोजनं यस्य तत् वै क्रियि कम्, विक्रियिकनामकर्मोदयनिमित्तम्, अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकाऽनेक स्थूल सूक्ष्मशरीरकरणसमर्थमित्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. २-३६ ) ; विक्रियाहेतुभूतं वैक्रियिकं शरीरम् । (त. वृत्ति श्रुत. ४-२१) ।
१ श्रणिमा-महिमा श्रादि श्राठ गुणरूप ऐश्वर्य के सम्बन्ध से एक-अनेक तथा छोटे-बड़े श्रादि अनेक प्रकार के रूपों को जो निर्मित किया जाता है, इसका नाम विक्रिया है । इस विक्रियारूप प्रयोजन के सिद्ध करने वाले शरीर को वैक्रिय, वैक्रियिक अथवा वैविक शरीर कहा जाता है। ७ जो शरीर सूक्ष्म से सूक्ष्म कार्य के करने में समर्थ पुद्गल से रचा जाता है तथा जिसका प्रयोजन विविध क्रियानों का करना है वह वैक्रिय शरीर कहलाता है । वैक्रियपरदारगमन - वैक्रियपरदारगमनं देवाङ्गनागमनम् । (श्राव. हरि. वृ. प्र. ६, पृ. ८२३) । देवांगना के साथ समागम करने को वैक्रियपरदारगमन कहते हैं। यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक प्रतिचार है
वैक्रियबन्धन - देखो वैक्रियिक शरीरबन्धन | वैक्रियिक- देखो वैक्रिय । वैक्रियिककाययोग - १. तदवष्टम्भतः ( वैक्रियिकावष्टम्भतः ) समुत्पन्नपरिस्पन्देन योगः वैक्रियिककाययोगः । ( धव. पु. १, पृ. २६१) । २. विविहगुणइििढजुत्तं विविकरियं वा हु होदि वेगुव्वं । तिस्से भवं च णेयं वेगुव्वियकायजोगो सो ॥ (गो. जी. २३२) ।
१ श्रणिमा- महिमा आदि का नाम विक्रिया है, उसके सम्बन्ध से पुद्गलों को भी विक्रिया कहा जाता है । ऐसे पुद्गलों से जो शरीर उत्पन्न होता है उसे वैऋियिक शरीर कहते हैं। उसके श्राश्रय से जो श्रात्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है उससे होने वाला योग वैऋियिक काययोग कहलाता है । उक्त वैकियिक शरीर और वैऋियिक काययोग को क्रम से
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