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सूत्रकृताङ्ग ।
किरिया || छेदोवद्वावणं जइण समयं यं परस्स समयं जत्थ किरिया भेया अणेयसे १, २० - २२, पृ. २६१ ) ।
२ सूत्रकृतांग में लोक, श्रलोक, लोकालोक जीव, प्रजीव, जीवाजीव, स्वसमय, परसगय और स्वसमय-परसमय इनकी सूचना की जाती है । सूत्रकृतांग में एक सौ अस्सी क्रियावादियों, चौरासी प्रक्रियावादियों, सड़सठ श्रज्ञानवादियों और बत्तीस वैनयिकवादियों, इस प्रकार तीन सो तिरेसठ (१८०÷८४+६७+ ३२ = ३६३) पाखण्डियों की रचना करके उनके श्रभिमत को दिखलाते हुए उसका निराकरण करके अपने समय को प्रतिष्ठित किया जाता है । सूत्रकृतांग में परिमित वाचनायें संख्यात श्रनुयोगद्वार संख्यात वेढ (छन्दविशेष ), संख्यात श्लोक संख्यात नियुक्तियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियां होती हैं। वह दूसरा अंग है जो दो श्रुतस्कन्धों और तेईस अध्ययनों आदि में विभक्त है । ३ सूत्रकृतांग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्य - प्रकल्प्य छेद-उपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रिया इनकी प्ररूपणा की जाती है । सूत्रग्राहणविनय उद्युक्तः सन् शिष्यं सूत्रं ग्राहयति । एष सूत्रग्राहणविनयः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १०-३१३) ।
११७४, जैन-लक्षणावली
परूवदि । ॥ ( अंगप
प्रयत्नपूर्वक शिष्य के लिए जो सूत्र को ग्रहण कराया जाता है, इसे सूत्रग्राहणविनय कहते । यह श्रुतविनय के चार भेदों में प्रथम है । सूत्ररुद्धि - १. जो सुत्तम हिज्जतो, सुएण श्रोगाहई उसम्मत्तं । गेण वाहिरेण व, सो सुत्तरुईति नायव्वो ।। (उत्तरा २८-२१; प्रज्ञाप. गा. १२०, पृ. ५६ ) । २. प्रव्रज्या मर्यादाप्ररूपणाचारसूत्रश्रवणमात्रसमुद्भूतसम्यग्दर्शनाः सूत्ररुचय: । (त. वा. ३, ३६, २) । ३. प्राचाराख्यादिमांगोक्ततपोभेदश्रुतेद्रुतम् || प्रादुर्भूता रुचिस्तज्ज्ञैः सूत्रजेति निरूप्यते । (म. पु. ७४, ४४३ - ४४ ) । ४. श्राकर्ण्या चारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासी सूत्रदृष्टिः × × × । ( आत्मानु. १३) । ५. यतिजनाचरणनिरूपणपा - [मा. ]त्रं सूत्रम् । ( उपासका पू. ११४) । ६. सूत्रं यतिजनाचरणनिरूपणमात्रम् । ( श्रन. ध. स्वो. टी. २-६२) ७. मुनीनामाचारसूत्रं मूलाचारशास्त्रं श्रुत्वा यदुत्पद्यते तत्सूत्रसम्यक्त्वम् ।
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[ सूत्रसंश्रय
( दर्शन प्रा. टी. १२ ) ।
१ जो सूत्र का अध्ययन करता हुआ अंगश्रुत से श्रथवा बाह्य - श्रनंगप्रविष्ट - श्रुत से सम्यक्त्व का अवगाहन करता है उसे सूत्ररुचि जानना चाहिए । २ प्रव्रज्या (दीक्षा) व मर्यादा के प्ररूपक प्रचारसूत्र के सुनने मात्र से जिनके सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है उन्हें सूत्ररुचि कहा जाता है । ३ श्राचारांग नामक प्रथम अंग में प्ररूपित तप के भेदों के सुनने से जो शीघ्र रुचि (तत्वश्रद्धा) उत्पन्न होती है उसे सूत्ररुचि कहते हैं ।
सूत्रसम --- देखो सूत्र ! X X X इनि वयणादो तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदं सुत्तं । तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदित्ति गणहरदेवम्नि ठिदसुदगाणं सुत्तसमं । (धव. पु. ६, पृ. २५६ ) ; त्रिभक्त्यंतभेदेन पठनं सूत्रसमं XXX इदि केवि ग्राइरिया परूवेंति । ( धव. पु. ६, पृ. २६१ ) ; जिणवयणविणिग्गगयबीजपदादो तत्थावगहणेण प्रपक्खरणिद्देसत्तणेण य पत्तसुत्तणामादो गणहरदेवे सुप्पण्णकदिश्रणियोगो सुत्तेण सह वृत्तीदो सुत्तसमं । ( धव. पु. ६, पू. २६८ ) ; सुत्त सुदकेवली, तेण समं सुदणाणं सुत्तसमं । श्रधवा सुत्तं बारहंगसद्दागमो, आयरियोवदेसेण विणा सुत्तादो चेव जं उप्पज्जदि सुदणाणं तं सुत्तसमं । ( धव. पु. १४, पृ. ८ ) । तीर्थंकर के मुख से निकले हुए वीजपद को सूत्र कहते हैं । उस सूत्र के साथ चूंकि वह रहता है उत्पन्न होता है, इस प्रकार गणधर देव में स्थित श्रुतज्ञान को सूत्रसम कहा जाता है। सूत्र से अभिप्राय श्रुतकेवली का है, उसके समान श्रुतज्ञान को सूत्रसम कहते हैं; अथवा सूत्र का अर्थ बारह अंगरूप शब्दागम है, प्राचार्य के उपदेश के विना सूत्र से हो जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह सूत्रसम कहलाता है । सूत्रसंचय - संचिन्त्येति स्थितस्थानं तपः काल गुरु कुलम् । पृष्ट्वा श्रुतं श्रुतं नाम स्वं प्रतिक्रमणादिकम् ॥ शयनाशन- यानादौ प्रेक्ष्य वृत्तं दिनत्रयम् । निश्चित्य गुरुश्चारित्रशुद्धि तत्सूरिसम्मतः । स्वशक्तिमुक्त्वा व्याख्यादौ तद्व्याख्यातं पठेच्छ्र ुतम् । स्वस्येष्टं प्रश्रयादेतत्पठनं सूत्रसंश्रयः ॥ ( श्राचा. सा. २, ४६-४८) ।
इस प्रकार लाकर स्थान में स्थित हुए प्रभ्यागत साघु से उसके स्थान, तप, काल, गुरु, कुल, श्रुत,
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