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सत्त्व (जीव ) ]
कर पीछे अनुकूलता होने पर उसे वापिस कर दिया, श्रतः सत्य का भी परिपालन हुआ है । सत्त्व (जीव ) - १. दुष्कर्म विपाकवशान्नानायोनिषु सीदन्तीति सत्त्वाः जीवाः । (स. सि. ७-११ ) । २. प्रनादिकर्मबन्धवशात् सोदन्तीति सत्त्वाः । अनादिनाष्टविधकर्मबन्धसन्तानेन तीव्रदुःखयोनिषु चतसृषु गतिषु सीदन्तीति सत्त्वाः । (त. वा. ७, ११, ५) । ३. अनादिकर्मबन्धवशात् सीदन्तीति सत्त्वाः । (त. इलो. ७-११) ।
१ पाप कर्म के उदय के वश जो अनेक योनियों में सीदन्ति प्रर्थात् खेद को प्राप्त होते हैं उनका नाम सत्त्व है । यह जीवों का एक सार्थक नाम 1 सत्त्व ( सत्कर्म ) -- १. XXX प्रत्थितं सत्तं X XX ।। ( गो . क. ४३९ ) । २. कर्मणां विद्यमानत्वं यत्सत्त्वं तन्निगद्यते । XXX कर्मणां संगृहीतानां सत्तोक्ता विद्यमानता । (पंचसं श्रमित. ५ व ८, पृ. ५४) । ३. सत्त्वं वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादिजन्य प्रात्मपरिणामः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ५७१ ) ।
१ कर्मों का जो कर्मस्वरूप से श्रात्मा के साथ अस्तित्व रहता है उसे सत्त्व कहते हैं । ३ वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम आदि से जो आत्मा का परिणाम होता है उसे सत्त्व कहते हैं। यह तीर्थंकरों के कर्मोदय से होने वाले संहननादिकों में से एक है । सत्वपरिगृहीतत्व - १. सत्त्वपरिगृहीतत्वं साहसोपेतता । (समवा. बृ. ३६; औपपा. वृ. पू. २२ ) । २. सत्त्वपरिगृहीतत्वमोजस्विता । ( रायप. मलय. बृ. १७, पृ. २८) ।
१ वचन का साहस से सहित होना, इसका नाम सत्वपरिगृहीतत्व है । यह ३५ वचनातिशयों में ३३वां है । २ वचन का प्रोज गुण से सहित होना, इसे सत्वपरिगृहीतत्व कहते हैं । सत्त्वप्रकृति- जासि पुण पयडीणं बंधो चेव णत्थि, बंधे संते वि जासि पयडीणं द्विदितादो उवरि सव्वकालं बंधो ण संभवदि ताम्रो संतपयडीनो, संतपहाणत्तादो । ( धव. पु. १२, पू. ४६५ ) । जिन प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं है अथवा बन्ध के होने पर भी जिन प्रकृतियों का सर्वदा स्थितिसत्त्व से ऊपर बन्ध सम्भव नहीं है वे सत्त्वप्रकृतियां कहलाती हैं।
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[ सद्धर्मकथा
सदृशकृष्टि — जदि जे प्रणुभागे उदीरेदि एक्किस्से वग्गणाए सच्चे ते सरिसा णाम । ( कषायपा. चू. पृ. ८८४) ।
उदय में श्राने वाली अनेक कृष्टियों के एक वर्गणा रूप से परिणत होकर उदय में श्राने को सदृशकृष्टि कहते हैं ।
सद्गुरु – सम्यक्त्वेन व्रतेनापि युक्तः स्यात् सद्गुरुर्यतः । (पंचाध्या. २ - ६०४) ।
जो सम्यक्त्व व व्रत सहित होता है उसे सद्गुरु माना जाता है ।
सदर्शन -- देखो सम्यग्दर्शन । १. त्रिकालविद्भित्रिजगच्छरण्यंजीवादयो येऽभिहिताः पदार्थाः । श्रद्धानमेषां परया विशुद्धया सद्दर्शनं सम्यगुदाहरन्ति । ( वरांगच १०-२० ) । २. यम- प्रशमजीवातुर्बीजं ज्ञान चरित्रयोः । हेतुस्तपः श्रुतादीनां सद्दर्शनमुदीरितम् ॥ (योगशा. स्वो विव. १७, पृ. ११८ ) । १ त्रिकालज्ञ (सर्वज्ञ) के द्वारा कहे गये जीवादि पदार्थों का जो विशुद्धिपूर्वक श्रद्धान किया जाता है उसे सद्दर्शन ( सम्यग्दर्शन) कहते हैं । सद्दृष्टि -- १. छद्दव्व णव पयत्था पंचत्यी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा | सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो ।। ( दर्शन प्रा. १६) । २. यिसुद्धप्पणुरत्तो बहि
पावच्छवज्जिप्रो णाणी । जिण मुणि धम्मं मण्णइ गयदुक्खो होइ सद्दिट्ठी ॥ मयमूढमणायदणं संकाइवसण भयमईयारं । जिण मुणि धम्मं मण्णइ गयदुक्खी होइ सद्दिट्ठी ॥ (र. सा. ६-७ ) । ३. उत्तमगुणगहण उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो | साहम्मि
१०८६, जैन - लक्षणावलो
राई सौ सद्दिट्ठी हवे परमो ॥ देहमिलियं पि जीवं णियाणगुणेण मुणदि जो भिण्णं । जीवमिलियं पि देहं कंचुवसरिसं वियाणेइ ॥ णिज्जियदोसं देवं सव्वजिवाणं दयावरं धम्मं । वज्जियगंथं च गुरु जो मणदि सोहु सद्दट्ठी ॥ ( कार्तिके. ३१५-१७) । ४. यस्य नास्ति ( कांक्षितो भावः ) स सद्दृष्टि: युक्ति-स्वानुभवागमात् । (लाटीसं. ४-७४) ।
१ जो छह द्रव्यों, नौ पदार्थों, पांच अस्तिकायों और सात तत्त्वों के स्वरूप का श्रद्धान करता है उसे सद्दृष्टि ( सम्यग्दृष्टि ) जानना चाहिए । सद्धर्मकथा - यतोऽभ्युदय - निःश्रेयसार्थ संसिद्धिरंजसा । स धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता ॥ (म. पु. १ - १२० ) ।
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