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म्लेच्छ] ९४१, जैन-लक्षणावली
[यति कक्कय अक्खाग हणरोमग हूणरोमग भरु मरुय कर्मभूमिज म्लेच्छ माने जाते हैं। चिलाय वियवासी य एवमाइ, सेत्तं मिलिक्खू । यक्ष-१. यक्षाः श्यामावदाता गम्भीरास्तुन्दिला (प्रज्ञाप. १-३७, पृ. ५५)। २. णामेण मेच्छखंडा वन्दारकाः प्रियदर्शना मानोन्मानप्रमाणयुक्ता रक्तअवसेसा होंति पंच खंडा ते। बहविहभावकलंका
पाणि-पादतल-नख-तालु-जिह्वौष्ठा भास्वरमुकुटधरा जीवा मिच्छागुणा तेसुं ॥ णाहल-पुलिंद-बब्बर- नानारत्नविभूषणा वटवृक्षध्वजाः । (त. भा. ४, किरायपहदीण सिंघलादीणं । मेच्छाण कुलेहि जुदा १३)। २. लोभभूयिष्ठा: भाण्डागारे नियुक्ताः भणिदा ते मेच्छखंडायो॥ (ति. प. ४-२२८८, यक्षाः। (धव. पु. १३, पृ. ३६१)। ३. यक्षा ८६) । ३. म्लेच्छा द्विविधाः अन्तर्वीपजाः कर्मभूमि- गम्भीराः प्रियदर्शना विशेषतो मानोन्मान-प्रमाणोपजाश्चेति । तत्रान्तीपा लवणोदधेरभ्यन्तरे पाश्व- पन्ना रक्तपाणि-पादतल-नख-तालुजिह्वौष्ठा भास्वरऽष्टासु दिक्षवष्टौ, तदन्तरेषु चाष्टी, हिमवच्छिखरि- किरीटधारिणो नानारत्नात्मक विभषणा:। (बहत्सं. गोरुभयोश्च विजयार्द्धयोरन्तेष्वष्टौ । xxx
मलय. वृ. ५८)। कर्मभूमिजाश्च शक-यवन-शवर-पुलिन्दादयः । (स.
१ जो वर्ण से श्याम, गम्भीर, तन्दिल (विशाल उदर लि. ३-३६; त. वा. ३,३६, ४) । ४. सग-जवणसबर-बब्बर-कायमुरुडोडु-गोंड-पक्कणया । अरदाग
वाले) और वृन्दारक (मनोहर) होते हैं; जिनका
दर्शन रुचिकर होता है, जो मान व उन्मान प्रमाण होण-रोमय-पारस-खसखासिया चेव ॥ दुबिलय
से युक्त होते हैं, जिनके हस्ततल, पादतल, नख, ल उस-बोक्कस-भिल्लंघ-पुलिंद - कुंच - भमररुया ।
ताल, जीभ एवं प्रोष्ठ लाल होते हैं। जो चमकते हुए कोवाय-चीण-चंचय-मालव-दमिला कुलग्घा य ।।
मुकुट के धारक होते हैं, अनेक रत्नों से विभाषित केक्कय-किराय-यमुह-खरमुह-गय - तुरय-मिढयमुहा
होते हैं तथा वट वृक्ष की ध्वजा से सहित होते हैं वे य । हयान्ना गयकन्ना अन्नेवि प्रणारिया बहवे ॥
यक्ष कहलाते हैं । २ जो प्रचुर लोभ से युक्त होते (प्रव सारो. १५८३-८५)। ५. म्लेच्छा: अव्यक्त
हुए भाण्डागार (खजाना) में नियुक्त होते हैं उन्हें भाषा-समाचाराः, 'म्लेच्छ अव्यक्तायां वाचि' इति
यक्ष कहा जाता है। वचनात्, भाषाग्रहणं चोपलक्षणम्, तेन शिष्टासंमत
यजमान-पाक्षिकाचारसम्पन्नो धीसम्पबन्धुबन्धुसकलव्यवहारा म्लेच्छा इति प्रतिपत्तव्यम् । (प्रज्ञाप.
रः। राजमान्यो वदान्यश्च यजमानो मतः प्रभुः ।। मलय. व. ३७, पृ. ५५)। ६. म्लेच्छन्ति निलंज्जतया व्यक्तं ब्रुवन्ति इति म्लेच्छाः । (त. वृत्ति श्रुत.
(प्रतिष्ठासा. १-११६)।
जो पाक्षिक श्रावक के प्राचार से विभषित, बद्धि१ म्लेच्छ अनेक प्रकार के हैं-शक, यवन, चिलात मान्, राजा से सम्मान्य और उदार अथवा महान किरात), शबर, बब्बर, मुरुण्ड, उडड, भडग, हो वह यजमान माना जाता है। निम्लग, पक्कणिय, कुलक्ष, गोण, सिंहल, पारसी, यति-१.xxx जयमाणगो जई होइ। (व्यव. गोध, क्रौञ्च, अंबड, द्रविड़, चिल्लल, पुलिन्द, भा. पी. द्वि. वि. १२, प. ६)। २. यतय उपशमहारोष, दोव इत्यादि । २ पांच म्लेच्छखण्डों में क्षपकश्रेण्यारूढा भण्यन्ते । (चा. सा. पृ. २२) । अनेक प्रकार के भाव से कलंकित तथा दूषित जो ३. य: पाप-पाशनाशाय यतते स यतिर्भवेत् । (उपानाहल, पुलिन्द, बर्बर, किरात और सिहल प्रादि सका. ८६२)। ४. यो देहमात्रारामः सम्यग्विद्यानोमिथ्यादृष्टि जीव रहते हैं वे म्लेच्छ कहलाते हैं। लाभेन तृष्णा-सरित्तरणाय (अन. 'तारणाय') योगाय ३ अन्तरद्वीपज और कर्मभूमिज के भेद से म्लेच्छ यतते यतिः। (नीतिवा. ५-२४, पृ. ५१; अन. ध. दो प्रकार के हैं। उनमें लवणोदधि के भीतरी पाश्र्व स्वो. टी. ४-१०३)। ५. चिरप्रवजितः साधुर्यतिः भाग में पाठ दिशात्रों में पाठ, उनके मध्य में पाठ, xxx। (प्राचा. सा. ६-८९)। ६. यते प्रयत्ने और हिमवान् आदि पर्वतों के पार्श्वभागों में स्थित संयम-योगेषु यतमानः प्रयत्नवान् यतिः । (व्यव. भा. पाठ द्वीपों में जो रहा करते हैं वे अन्तीपज म्लेच्छ पी. द्वि. वि. मलय. वृ. १२, पृ. ६)। ७. तथा च कहलाते हैं। शक, यवन, शबर और पुलिन्द प्रादि हारीत:-मात्मारामो भवेद्यस्तु विद्यासेवनतत्परः।
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