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________________ प्रत्यय] ७५३, जैन-लक्षणावली [प्रत्याख्यातसेवा सम् । (प्र. न. त. ६-३३)। ३. अतत्सदृशे तत्सदृश- प्रत्यवस्थापन-प्रति इति परोक्तदूषणप्रातिकूल्येमिदमतस्मिस्तदेवेदमित्यादि प्रत्यभिज्ञानामासः । नावस्थीयते अन्तर्भूतण्यर्थत्वादवस्थाप्यते-युक्तिपुरलघीय. अभय. व. पृ. ४६)। स्सरं निर्दोषमेतदिति शिष्यबुद्धावारोप्यते येन तत् १ सदृश वस्तु में 'यह वही है' इस प्रकार के ज्ञान प्रत्यवस्थापनम्-प्रतिवचनम् । (बृहत्क. क्षे. वृ. को, तथा उसी पदार्थ में 'यह उसके सदृश है' इस ८०८)। प्रकार के ज्ञान को प्रत्यभिज्ञानाभास कहते हैं। 'प्रत्यवस्थापन' में 'प्रति' का अर्थ दूसरों के द्वारा प्रत्यय--प्रतीयतेऽनेनार्थ इति प्रत्ययः--ज्ञानकारणं दिये गये दोषों की प्रतिकलता है तथा 'प्रवस्थापन' घटादि । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ६०)। का अर्थ युक्तिपूर्बक 'यह निर्दोष है' इस प्रकार 'प्रतीयते अनेन अर्थ इति प्रत्ययः' इस निरुक्ति के शिष्य की बुद्धि में प्रारोपित करना है। तदनुसार अनुसार जिसके द्वारा-जिसके आश्रय से-पदार्थ अभिप्राय यह हुआ कि दूसरों के द्वारा दिये गये की प्रतीति होती है यह प्रत्यय कहलाता है। अभि- दूषणों का यक्तिपूर्वक निराकरण करके शिष्य को प्राय यह है कि ज्ञान के विषयभूत घट आदि को यह विश्वास करा देना कि यह सर्वथा निर्दोष है, प्रत्यय कहा जाता है। इसका नाम प्रत्यवस्थापन है। प्रत्ययकषाय-१. पच्चयकसानो णाम कोहवेयणी प्रत्यवेक्षण-१. प्रत्यवेक्षणं चाक्षुषो व्यापारः। यस्स कम्मस्स उदएण जीवो कोहो होदि, तम्हा तं जन्तवः सन्ति न सन्ति चेति प्रत्यवेक्षणं चाक्षुषो कम्म पच्चयकसाएण कोहो । (कसायपा. चू. १-४५, व्यापारः प्रतीयते । (त. वा. ७, ३४, १)। पृ. २१)। २. होति कसायाणं बन्धकारणं जं स २. प्रत्यवेक्षणं-चक्षुषा निरीक्षणं स्थण्डिलस्य सचिपच्चयकसायो। सद्दातियो त्ति केई ण समुप्पत्तीय त्ताचित्त-मिश्र-स्थावर-जङ्गमजन्तुशून्यता। (त. भा. भिण्णो सो ॥ (विशेषा. भा. ३५३०, पृ. ६६६, सिद्ध. वृ. ७-२६) । ३. तत्र जन्तवः सन्ति न सन्ति ला. द. सीरीज)। ३. प्रत्ययकषायः खल्वान्तर वेति प्रत्यवेक्षणं चक्षुषो व्यापारः। (चा. सा. पृ. कारणविशेषः तत्पुद्गललक्षणः । (प्राव. नि. हरि. १२) । ४. अत्र प्राणिनो विद्यन्त न वा विद्यन्त इति व. ६१८, प. ३६०)। ४. जीवादो अभिण्णो होद्रण निजबुद्धचा निजचक्षुषा पूननिरीक्षणं प्रत्यवेक्षितजो कसाए समुप्पादेदि सो पच्चयो णाम । (जयध. मुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३४)। ५. जीवाः १, पृ. २८६) । ५. प्रत्ययकषाया: कसायाणं ये सन्ति न वा सन्ति कर्तव्यं प्रत्यवेक्षणम् । चक्षाप्रत्ययाः-यानि कारणानि, ते चेह मनोज्ञेतरभेदा पारमात्रं स्यात् सूत्रात्तल्लक्षणं यथा ॥ (लाटीसं. शब्दादयः, अत एवोत्पत्ति-प्रत्यययोः कार्यकारणगतो ६-२०६)। भेदः । (प्राचारा. नि. शी. वृ. १६०, पृ. ८२)। १ जन्तु हैं या नहीं हैं, इस प्रकार का जो चक्षु का १ क्रोघवेदनीय कर्म के उदय से जीव क्रोध होता व्यापार है—उसके द्वारा निरीक्षण करना है, है-क्रोधरूप परिणत होता है, इसी कारण उसे इसका नाम प्रत्यवेक्षण है। प्रत्ययकषाय की अपेक्षा क्रोध कहा जाता है। २ प्रत्यवेक्षित-देखो प्रत्यवेक्षण । कर्मरूप कषायों के बन्ध का कारण जो अभिप्रायविशेष है उसका नाम प्रत्ययकषाय है। प्रत्याख्यातसेवा-xxx प्रत्याख्यातसेवोज्झिप्रत्ययक्रिया-१. प्रत्ययक्रिया अपूर्वाद्यत्पादनेन । ताशनम् । (अन. ध. ५-४८); प्रत्याख्यातसेवा (त. भा. हरि. वृ. ६-६)। २. प्रत्ययक्रिया त यद- नाम अन्तरायः स्यात् xxx उज्झितस्य देवपूर्वस्य पापादानकारिणोऽधिकरणस्योत्प्रेक्ष्य स्व-स्व- गुरुसाक्षिकं प्रत्याख्यातस्य वस्तुनोऽशनं खादनम् । बुद्धचा निष्पादनम् । (त. भा. सिद्ध. व. ६-६)। (अन. ध. स्वो. टी. ५-४८)। २ पापास्रव के कारणभूत अपूर्व अधिकरण की देव या गुरु की साक्षीपूर्वक छोड़ी हुई वस्तु के खा कल्पना करके अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उत्पन्न लेने पर प्रत्याख्यातसेवा नामक भोजन का अन्तकरना, इसका नाम प्रत्ययक्रिया है। राय होता है। ल. ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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