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विकथा] ६६६, जैन-लक्षणावली
[विक्रिया कम् । (कार्तिके. टी. ३४०)। ४. वास्तु वस्त्रादि- मंशभेदं कृत्वा अनेकात्मकैकत्वव्यवस्थायां नर-सिंहसामान्यम् xxx (लाटीसं. १००)। सिंहत्ववत्समुदयात्मकमात्मरूपमभ्युपगम्य कालादि१ वास्तु नाम घर का है । ४ वस्त्र प्रादि सामान्य भिरन्योन्यविषयानुप्रवेशरहितांशकल्पनं विकलादेषाः, को वास्तु कहा जाता है।
xxx। (त. वा. ४, ४२, १६)। ३. अस्त्येव विकथा-१. विरुद्धा विनष्टा वा कथा विकथा, नास्त्येव प्रवक्तव्य एव अस्तिनास्त्येव अस्त्यवक्तव्य सा च स्त्रीकथादिलक्षणा । (प्राव. सू.प्र. ४, हरि. एव नास्त्यवक्तव्य एव अस्तिनास्त्यवक्तव्य एव घट व.पृ. ५८०)। २. विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्त्र्यादि- इति विकलादेशः। (जयघ. १, प. २०३); प्रचं विषयाः कथाः विकथा:। (समवा. वृ. ४) । ३. च विकलादेशो नयाधीन: नयायत्तः, नयवशादुत्पत्त विरुद्धा संयमबाधकत्वेन, कथा-वचनपद्धतिर्विकथा। इति यावत् । (जयध. १, पृ. २०४) । ४. अभेद. (स्थाना. अभय. व. २८२)। ४. विकथा मार्ग- वृत्त्यभेदोपचारयोरनाश्रयणे एकधर्मात्मकवस्तुविषयविरुद्धाः कथाः। (सा. ध. स्वो. टी. ४-२२)। बोधजनक वाक्यं विकलादेशः । (सप्कभं. ५. २०)। ५. विलक्षणाः संयमविरुद्धाः कथा वाक्यप्रबन्धाः २ निरंश भी वस्तु के गणभेद की अपेक्षा से अंशों विकथाः । (गो. जी. म. प्र. ३४) । ६. संयनविरु- की कल्पना जो की जाती है उसका नाम विकलादेश द्धाः कथाः विकथाः । (गो. जी. जी. प्र. ३४)। है। जिस प्रकार अनेक खांड, अनार और कपूर १ विरुद्ध अथवा घातक स्त्रीकथा व भोजनकथा प्रादि के अनेक रसयुक्त पानक (पेय) द्रव्य का प्रादि जैसी चर्चा को विकथा कहा जाता है । ५ जो स्वाद लेकर अनेक रसस्वरूपता का निश्चय करते चर्चा संयम की विघातक हो उसे विकथा कहते हैं। हए अपनी शक्तिविशेष से यह भी है, यह भी है' विकथानयोग- अर्थ - कामोपायप्रतिपादनपराणि इस प्रकार से विशेष निरूपण किया जाता है उसी कामन्दक-वात्स्यायनादीनि शास्त्राणि । (समवा. प्रकार अनेकात्मक एक वस्तु का निश्चय करके कृ. २६)।
कारणविशेष के सामर्थ्य से विवक्षित साध्यविशेष धन और काम के उपायों की प्ररूपणा करने वाले का जो निर्धारण किया जाता है, इसे विकलादेश कामन्दक एवं वात्स्यायन प्रादि शास्त्रों को विकथा- समझना चाहिए। नयोग कहा जाता है।
विकल्प-अभ्यन्तरे सुख्यहं दुःख्यहम् इत्यादि हर्षविकलचरण-विकलमपूर्णम् अणुव्रतादिरूपं चर- विषादपरिणामो विकल्पः । (पंचा. का. जय. व. णम् । (रत्नक. टी. ३-४) । अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षावतरूप चरण (चारित्र) 'मैं सुखी हूं' अथवा 'मैं दुःखी हूं' इस प्रकार जो को परिपूर्ण न होने के कारण विकलचरण या अन्तरङ्ग में हर्ष-विषाद रूप परिणाम होता है वह विकलचारित्र कहा जाता है।
विकल्प कहलाता है। विकलप्रत्यक्ष-१. दवे खेत्ते काले भावे जो विकल्पधी-xxx तस्य विकल्पधी: निर्णयपरमिदो दु अवबोधो । बहुविहभेदपभिण्णो सो होदि रूपा बुद्धिराविर्भवति, तद्रूपतया दर्शनं परिणमत
प: १३-५०)। इत्यर्थः । (न्यायकु. १-५, पृ. ११६)। २. तत्र कतिपयविषयं (पारमार्थिकप्रत्यक्षं) विक- प्रसंगानुसार निर्णयरूप बुद्धि को विकल्पधी कहा लम् । (न्यायदो. पृ. ३४)।
जाता है। यह विकल्पबुद्धि दर्शन के पश्चात् १ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जो होती है। परिमित ज्ञान होता है उसे विकलप्रत्यक्ष कहते हैं। विकृतिगोपुच्छा--समाणट्ठिदिगोवुच्छाणं समूहो विकलादेश-१. विकलादेशो नयाधीनः । (स. विगिदिगोवुच्छा णाम । (धव. पु. १०, पृ. २५०) । सि. १-६; त. वा. ४, ४२, १३; धव. पु. ६, पृ. समान स्थिति वाली गोपुच्छात्रों के समूह को १६५ उद्.)। २. निरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकृतिगोपुच्छा कहते हैं । विकलादेशः । स्वेन तत्त्वेनाप्रविभागस्यापि वस्तुनो विक्रिया--१. अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाषु-महविविक्वं गणरूपं स्वरूपोपरजकमपेक्ष्य प्रकल्पित- च्छरीरविविधकरणं विक्रिया। (त. वा. २,३६,
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