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वायुमण्डल] ६६५, जैन-लक्षणावलो
[वास्तु चल दिया है -कार्मण काययोग में स्थित है-उसे वाणिज्य-विद्यके । एभिरर्थार्जनं नीत्या वातति गदिता नायजीव कहते हैं।
बुधैः ।। (धर्मसं. श्रा. 8-१५६) ।। वायुमण्डल ---१. सुवृत्तं बिन्दुसंकीर्ण नीलाञ्जनघन- १ असि (शस्त्र धारण), मषि (लेखन क्रिया), प्रभम् । चञ्चलं पवनोपेतं दुर्लक्ष्यं वायुमण्डलम् ॥ खेती, वाणिज्य प्रादि और शिल्प कर्म इनके द्वारा (ज्ञाना. २६-११, पृ. २८६)। २. स्निग्धाञ्जन- विशुद्ध वृत्ति से धनके उपार्जन करने का नाम वार्ता पनच्छायं सुवृत्तं बिन्दुसंकुलम् । दुर्लक्ष्यं पवनाक्रान्तं है। यह गृहस्थ के छह कर्मों में दूसरा है । २ खेती, चञ्चलं वायुमण्डलम् ॥ (योगशा. ५-४५)। पशुपालन और व्यापार का नाम वार्ता है। यह १ जो आकार में गोल, बिन्दुओं से व्याप्त, काले वैश्यों का कर्म है। मंजन (काजल) और मेघ के समान (अथवा वासना--१. वासनायोगस्तदावरणक्षयोपशम इत्यकाजल जैसी घनी प्रभावाला), चंचल, पवन से र्थः। (विशेषा. स्वो. व. २६१) । २. तथा (अविसहित एवं देखने में न पाने वाला हो उसे वायु- च्युत्या) माहितो यः संस्कारः स वासना । सा च मण्डल जानना चाहिए।
संख्येयमसंख्येयं वा यावद् भवति, संख्येयवर्षायुषां वारिधाराचारण-प्रावषेण्यादिजलघरादेविनिर्गत- संख्येयं कालमसंख्येयवर्षायूषामसंख्येयं कालमिति वारिधारावलम्बनेन प्राणिपीडामन्तरेण यान्तो वारि- भावार्थः । (प्राव. नि. मलय. वृ. २, पृ. २३)। धाराचारणाः । (योगशा. स्वो. विव. १.६, पृ. ४१)। २ अविच्युति से जो संस्कार स्थापित होता है उसे प्रावषण्य (वर्षाकालीन) प्रादि मेघों प्रादि से वासना कहते हैं। वह संख्यात वर्ष प्रमाण प्र निकली हुई जलधारा का पालम्बन लेकर प्राणि. के संख्येय काल तक तथा असंख्यात वर्ष प्रमाण प्राय पीडन के विना जो गमन करने में समर्थ होते हैं वालों के प्रसंख्येय काल तक रहता है । अविच्युति, उन्हें वारिधाराचारण जानना चाहिए।
वासना और स्मृति के भेद से तीन प्रकार की धारणा वारुणीदोष-देखो उन्मत्त व वारुणीपायी दोष। में यह उसका दूसरा भेद है । निष्पद्यमानवारुण्या इव बुडबुडारावेण स्थानं वारु- वासुदेव-वासवाद्यैः सुरैः सर्वैः योऽर्च्यते मेरुमस्तके। णीदोषः, वारुणीमत्तस्येव चूर्णमानस्य स्थानं वारुणी. प्राप्तवान् पंचकल्याणं वासुदेवस्ततो हि सः ॥ दोषः इत्यन्ये । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। (आप्तस्व. ३२)। उत्पन्न होने वाले मद्य के समान बड-बड शब्द के वासव (इन्द्र) प्रादि सब देवों के द्वारा मेरु के साथ कायोत्सर्ग में स्थित होने अथवा मद्य से उम्मत्त शिखर पर जिसकी पूजा की जाती है तथा जिसने मनुष्य के समान शरीर को चलायमान करते हुए पांच कल्याणकों को प्राप्त किया है उसे वासुदेव स्थित होने पर कायोत्सर्ग के २१ दोषों में वारुणी कहा जाता है। नाम का २०वां दोष होता है।
वासुपूज्य -- वसवो देवविशेषाः, तेषा पूज्यो वसुवारुणीपायीदोष-देखो उन्मत्त व वारुणी दोष। पूज्यः, प्रज्ञादित्वादणि वासुपूज्य:, तथा गर्भस्थेऽस्मिन् वारुणीपायीव सुरापायीवेति चूर्णमानः कायोत्सर्ग वसु हिरण्यम्, तेन वासबो राजकुलं पूजितवानिति करोति तस्य वारुणीपायीदोषः। (मला. बृ. ७, वासुपूज्यः, वसुपूज्यस्य राज्ञोऽयमिति वा वासुपूज्यः । १७२)।
(योगशा. स्वो. विव. ४-१२४) । जो मद्यपायी (शराबी) के समान इधर उधर हिलते देवविशेषों का नाम वसु है, उनका जो पूज्य हुआ है, इलते हए कायोत्सर्ग को करता है उसके वारुणी- तथा जिसके गर्भ में स्थित होने पर वासव (इन्द्र) ने पायीदोष होता है।
वसु (सुवर्ण) के द्वारा राजकुल की पूजा की थी, वार्ता-१. वार्ताऽसि-मषि-कृषि-वाणिज्यादिशिल्प- अथवा वसुपूज्य राजा के वे पुत्र थे इससे भी उनका (कार्ति. 'ल्पि') कर्मभिविशुद्धवृत्याऽर्थोपार्जनमिति । नाम वासुपूज्य (१२वें तीर्थकर) है। (चा. सा. पृ. २१; कार्तिके. टी. ३६१) । २. कृषिः वास्तु- १. वास्तु अगारम् । (स. सि. ७-२६; पशुपालनं वणिज्या च वार्ता वैश्यानाम् । (नीतिवा. त. वा. ७, २६, १)। २. वास्तु च गृहम् । (त. ८-१, पृ. ६३)। ३. असिमंसि: कृषिस्तिर्य पोषं वृत्ति श्रुत. ७-२६) । ३. वास्तु गृह-हट्टापवरकादि
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