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सामानिक]
११५०, जैन-लक्षणावली
[सामायिक
भवाः सामानिकाः, "अध्यात्मादिभ्यः" इतीकण- सामान्य स्थिति- एक्कम्हि द्विदिविसेसे जम्हि प्रत्ययः, इन्द्रत्वरहिता इन्द्रेण सह समानधुति-विभवा समयपबद्धसेसयमस्थि सा ट्ठिदी सामण्णा त्ति णाइन्द्राणाममात्य-पितृ-गुरूपाध्याय- महत्तरवत्पूजनीया- दव्वा । (कसायपा. चू. पृ. ८३५) । स्तेऽपि चन्द्रान् स्वामित्वेन प्रतिपन्नाः। (बहत्सं. जिस एक स्थिति विशेष में समयप्रबद्ध शेष (और मलय. वृ. २)। ८. प्राज्ञामैश्वयं च विहाय भोगो. भवबद्ध शेष) पाये जाते हैं, उसे सामान्य स्थिति पभोग-परिवार-वीर्यायरास्पदप्रभतिक यद्वर्तते तत्स- कहते हैं। मानम्, समाने भवा: सामानिका: महत्तर-पितृ- सामान्यालोचना--प्रोघेणालोचेदि हु अपरिमिदगुरूपाध्यायसदशाः । (त. वत्ति श्रत. ४-४)। वराधसव्वधादी बा। अज्जोपाए इत्थं सामण्णमहं १ प्राज्ञा और ऐश्वर्य को छोड़कर प्राय, वीर्य, खु तुच्छो त्ति ।। (भ. प्रा. ५३४) । परिवार और भोग-उपभोग की अपेक्षा जिनका जिसने अपरिमित अपराध किया है अथवा सम्यस्थान इन्द्र के समान होता है वे सामानिक देव कह. क्त्व प्रादि सबका घाल किया है ऐसा अपराधी लाते हैं। २ जो देव मंत्री, पिता, गुरु, उपाध्याय और साधु सामान्य से परसाक्षिक अालोचना करता महत्तर के समान इन्द्र जैसे ही होते हैं; वे केवल हुमा प्रार्थना करता है कि मैं तुच्छ हूं व प्राज से इन्द्रत्व-प्राज्ञा व ऐश्वर्य-से रहित होते हुए श्रमण धर्म की इच्छा करता हूं। यह सामान्य सामानिक कहे जाते हैं।
(श्रामण्य) आलोचना का लक्षण है।। सामान्य-देखो तिर्यकसामान्य व ऊर्ध्वतासामा- सामायिक-१. विरदी सव्वसावज्जे तिगत्तो न्य । १. तथा चोक्तम्-वस्तून एव समानः परि- पिहिदिदिनो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिणामो यः स एव सामान्यम् । (अने. ज. प. पृ. सासणे ।। जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा । ३२)। २. सामान्यं भिन्नेष्वभिन्नकारणम् । (प्रा. तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥ जस्स मी. वसु. ७.६५)। ३. यो वस्तुना समानपरिणामः सण्णि हिदो अप्पा संजमे णियमे तवे । तस्स सामाइग स सामान्यम् Xxx। उक्तं च-वस्तुन एव ठाइ इदि केवलिसासणे ॥ जस्स रागो दु दोसो दु समानः परिणामो यः स एव सामान्यम् । (प्राव. विगडि ण जणेति दु। तस्स सामाइगं ठाई इदि नि. मलय. वृ. ७५५) ।
केवलिसासणे ॥ जो दु अझै च रुदं च झाणं व१ वस्तु के समान परिणाम का नाम सामान्य है। ज्जेदि णिच्चसा । तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलि२ भिन्न अनेक व्यक्तियों में जो प्रभेद का कारण सासणे ।। जो दु पुण्णं च पावं च भावं वज्जेदि है उसे सामान्य कहते हैं।
णिच्चसा। तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे॥ सामान्य आलोचना-देखो सामान्यालोचना। जो दु हस्सं रई सोगं अरदि वज्जेदि णिच्चसा । सामान्य छल-सम्भवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगा- तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥ जो दसद्भूतार्थकल्पना सामान्य छलम् [न्यायसू. १, २, दुगंछा भयं वेद सव्वं वज्जेदि णिच्चसा। तस्स १३] । (प्र. क. मा. ५-७३, पृ. ६५०; सिद्धिवि. सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥ जो दु धम्म वृ. ५-२, पृ. ३१)।
च सूक्कं च झाणं भाएदि णिच्चसा। तस्स सामाइगं सम्भव होने वाले प्रर्थ की प्रति सामान्य के योग से ठाई इदि केवलिसासणे ॥ (नि. सा. १२५-१३३)। असदभत अर्थ की जो कल्पना की जाती है उसे सामान्य छल कहा जाता है।
बंधुरि-सुह-दुक्खादिसु समदा सामाइयं णाम ।। सामान्य शक्ति-सामान्या यथा घटसन्निवेशि- (मला. १-२३); सम्मत्त-णाण-संजम-तवेहिं जंतं नामुदकाद्याहरणादिकार्यकरणशक्तिः । (अने. ज. पसत्थसमगमणं । समयं तु तं तु भणिदं तमेव सामाप. पृ. ५०)।
इयं जाणं ॥ (मूला. ७-१८)। ३. प्रा समयमुक्ति घट जैसी रचना वाले पदार्थों में जो जल आदि के मुक्तं पञ्चाघानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः ग्रहण रूप कार्य करने की शक्ति है उसे सामान्य- सामायिकं नाम शंसन्ति ॥ (रत्नक. ४-७)। शक्ति कहा जाता है।
४. समेकीभावे वर्तते । तद्यथा--सङ्गतं घृतं
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