________________
भोग] ८७०, जैन-लक्षणावली
[भोगभूरिता रादिष्वत्यन्तप्रसिद्धं भुक्तोऽनया गुड इति । (त. भोगकृतनिदान - १. देविग-माणुसभोगो [गे] भा. सिद्ध. वृ, २-७)।
णारिस्सर-सिट्ठि-सत्थवाहत्तं । केसव-चक्कधरत्तं पच्छंशुभ-अशुभ कर्मों के निर्वर्तन का नाम कर्तृत्व है, इस तो होदि भोगकदं ॥ (भ. प्रा. विजयो. १२१६) । कर्तृत्व के कारण ही उक्त शुभ-अशुभ कर्मों के फल २. इह परत्र च भोगा अपि इत्थम्भूता अस्माद् व्रतका जो भोगना है इसे भोक्तृत्व कहा जाता है, वह शीलादिकाद् भवन्त्विति मनःप्रणिधानं भोगनिदानम् । भोक्तृत्व मदिरा प्रादि में अत्यन्त प्रसिद्ध है। (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ. ८६)। जैसे- इसने गुड़ का उपभोग किया।
१ देवों व मनुष्यों सम्बन्धी भोगों की इच्छा करना भोग-१. भुक्त्वा परिहातव्यो भोगः xxxतथा स्त्रीत्व, ईश्वरत्व, श्रेष्ठीपना, सार्थवाहत्व, (रत्नक. ८३)। २. सकृद् भुज्यत इति भोगः। वासुदेवत्व और चक्रवर्तित्व इनकी इच्छा करना; (त. भा. हरि. वृ. २-४; श्रा. प्र. टी. २६; पंचसं. इसे भोगकृतनिदान कहा जाता है। २ इस व्रतमलय. वृ. ३-३, पृ. १०९ धर्मसं. मलय. व. शीलादि से मुझे इस लोक या परलोक में इस ६२३; कर्मप्र. यशो. वृ. ८) । ३. सकृद् भुज्यत इति प्रकार के भोग प्राप्त हों, ऐसा मन से विचार भोग: ताम्बूलाशन-पानादिः। (षव. पु. ६, पृ. करना, इसे भोगकृतनिदान कहते हैं । ७८); सकृद् भुज्यत इति भोगः, गन्ध-ताम्बूल-पुष्पा- भोगपत्नी-परणीता नात्मज्ञातिर्या पितृसाक्षिपूर्वहारादिः । (धव. पु. १३, पृ. ३८६) । ४. शुभवि- कम् । भोगपत्नीति सा ज्ञेया भोगमात्रकसाधनात् ॥ विषयसुखानुभवो भोगः, अथवा भक्ष्य-पेय-लेह्यादि- (लाटीसं. २-१८३)। सकृदुपयोगाद् भोगः । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-४); जिसके साथ पिता की साक्षीपूर्वक विवाह किया भोगो मनोहारिशब्दादिविषयानुभवनम् । (त. भा. गया है, किन्तु जो अपनी जाति की नहीं है, उसे सिद्ध. वृ. ५-२६)। ५. सइ भुज्जइत्ति भोगो सो एक मात्र भोग की साधन होने से भोगपत्नी जानना पुण आहार-पुप्फमाईप्रो। (कर्मवि. ग. १६५; चाहिए। प्रश्नव्या. अभय. व. पु. २२० उद.)। ६. यः भोगपरिमाणक-स्नान-गन्ध-माल्यादावाहारे बहुसकृत्सेव्यते भावः स भोगो भोजनादिकः। (उपास- भेदजे । प्रमाणं क्रियते यत्तु तद्भोगपरिमाणकम् ।। का. ७५६) । ७. भोगः सुखाद्यनुभवः। (समाधि. (धर्मसं. श्रा. ७-२८)। टी. ६७)। ८. सकृदेव भुज्यते यः स भोगोऽन्न- स्नान व गन्ध-माला प्रादि तथा बहुत प्रकार के स्रगादिकः। (योगशा. ३-५)। ६. भोगः सेव्यः प्राहार के विषय में जो प्रमाण किया जाता है वह सकृदुप Xxx। (सा. घ. ५-१४)। १०. भोगपरिमाण कहलाता है। भुज्यते-सकृदुपभुज्यत इति भोगः पुष्पाहारादिः। भोगपुरुष-तथा भोगप्रधान: पुरुषो भोगपुरुषः (कर्मवि. दे. स्वो. व. ५१)। ११. भुक्त्वा संत्य- चक्रवादिः । (सूत्रकृ. नि. शी.व. ५५, पृ. १०३)। ज्यते वस्तु स भोगः परिकीर्त्यते। (भावसं. वाम. जिस पुरुष के भोग ही प्रधान हो वह भोगपुरुष कह५०८) । १२. एकशो भुज्यते यो हि भोगः स परि- लाता है । जैसे-चक्रवर्ती प्रादि। कथ्यते । (धर्मसं. श्रा. ७-१७)। १३. सकृद् भुज्यत भोगभूमिज मनुष्य-तिर्यञ्च-मंदकसायेण जुदा इति भोगः, अन्न-माल्य-ताम्बूल-विलेपनोद्वर्तन- उदयागदसत्थपयडिसंजुत्ता । विविहविणोदासत्ता स्नान-पानादिः । (धर्मसं. मान. स्वो. व. २-३१, णर-तिरिया भोगजा होति ।। (ति. प. ४-४२०) । पु. ७०)।
भोगभूमिज मनुष्य व तियंच मन्द कषाय से युक्त १जिसे एक बार भोग कर छोड़ दिया जाता है उसे होकर उदय को प्राप्त हुई प्रशस्त कर्मप्रकृतियों से भोग कहते हैं । २ जो एक ही बार भोगने में प्राता सहित होते हए अनेक प्रकार के विनोद में प्रासक्त है वह भोग कहलाता है। ४ अभीष्ट विषयजनित रहते हैं। सुख के अनुभव का नाम भोग है; अथवा भक्ष्य, पेय भोगभूरिता – देखो उपभोग-परिभोगानर्थक्य ।
और लेद्य आदि पदार्थों का जो एक बार उपयोग भोगस्य उपलक्षणत्वादुपभोगस्य च उक्तनिर्वचनस्य, होबा है इसे भोग जानना चाहिए।
स्नान-पान-भोजन-चन्दन-कुङ्कुम-कस्तूरिका-वस्त्राभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org