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स्थापित भोजो]
११६३, जैन-लक्षणावली
[स्थावरप्रतिमा
में प्रथवा दसरे के घर में रखने पर स्थापित दोष कृ. शी. वृ. २, ६, ४, पृ. १४०)। ८. स्थावरहोता है। ४ संयत के देने के लिए जो अन्न अपने नामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीला: स्थावराः । स्थान में या पर के स्थान में स्थापित किया जाता (स्थाना. अभय. वृ. ५७ व ७५)। 8. एकाक्षा है पर स्थापित उदगमदोष से दूषित होता है। स्थावरा: भूम्यप्यतेजोवायू-महीमहाः । (योगशा. स्थापितभोजी-देखो 'प्राभतिका' व 'प्राभतिका. स्वो विव. १-१६) । स्थापना' । यः स्थापितकभोजी स्थापनादोषदुष्टप्रा- १ जो जीव स्थावरनामकर्म के अधीन रहते हैं भतिकाभोजी। (व्यव. भा मलय. वृ.१-११६)। उन्हें स्थावर कहा जाता है। ३ जो स्थावर नामजो साध स्थापित भोजन को ग्रहण करता है वह कर्म के वश परिस्पन्दन से रहित होते हए एक प्रातिका (साधु का एक भिक्षादोष) भिक्षा का स्थान में स्थिर रहते हैं वे स्थावर कहलाने भोजन करने वाला होता है।
स्थावरनामकर्म--१. यानिमित्त एकेन्द्रियेषु प्रादुस्थालपानक---से कि थालपाणए ? जपणं दाथा- र्भावस्तत्स्थावरनाम । (स. सि. ८-११: नालो. लगं वा दावारगं वा वाकंभग वा दाकलसं वा सीय- ८-११; गो. क. जी. प्र. ३३)। २. स्थावरभाव.
र पERE न य पाणियं पियइ, निर्वर्तकं स्थावरनाम । (त. भा. ८-१२) । ३. जे से तं थालपाणए । (भगवती १५-२६, पृ. ३८८- एगम ठाणं प्रवटिया चिठंति ते थावरा भण्णंति । खण्ड ३)।
(दशवं. चू. प. १४७) । ४. यन्निमित्त एकेन्द्रियेत जो जल से भीगा थाल, जल से भीगा छोटा घड़ा प्रादुर्भावः तत् स्थावरनाम । एकेन्द्रियेष पथिव्यप्ते. (सकोरा), जल से भीगा बड़ा घड़ा, जल से भीगा जोवायु-वनस्पति कायेषु प्रादुर्भावो यन्निमिनो भवति क्षत्र घड़ा तथा पानी से भीगा मिट्टी का वर्तन है तत्स्थावरनाम । (त. वा. ८, ११, २२)। ५. जस्स उसको न हाथों से स्पर्श करे और न जल को पीवे, कम्मस्स उदएण जीवो थावरत्तं पडिवज्जदि तस्स इसे स्थालपानक कहा जाता है । मंखलिपुत्र गोशा- कम्मस्स थावरसणा। (धव पु. ६, प.६१): लक ने भगवान महावीर के ऊपर घातक तेजोलेश्या जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं थावरत्त होदितं कम्म को छोड़ा था तब वह स्वेच्छाचार में प्रवृत्त होकर थावर णाम । (धव. पु. १३, ३६५) । ६. स्थाचार अपानक और चार पानकों का उपदेश करता वराख्यं जीवस्य केन्द्रियेषु प्रादुर्भावकारणं नामकर्म, था। इन चार पानकों में एक स्थालपानक भी है। (भ. प्रा. मूला. २०६५)। ७. यस्य कर्मण उदयेन स्थावर--१. स्थावरनामकर्मोदयवशवतिन: स्थाव- जीवः स्थावरेषुत्पद्यते तत्स्थावरनाम । (मला.व. राः। (स. सि. २-१२) । २. स्थावरनामकर्मोप- १२, १६५)। ८. यदुदयादुष्माभितापेऽपि तत्स्थानपरिजनितविशेषाः स्थावराः। स्थावरनामकर्मणो जीव. हारासमर्थाः पृयिव्यप्तेजोवायू-वनस्पतयः स्थावराः विपाविनः उदये नोपजनितविशेषाः स्थावरा इत्या- जायन्ते तत् स्थावरनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ख्यायन्ते । (त. वा. २, १२, ३) । ३. अपरिस्प. २६३, पृ. ४७४) । ६. यदुदयेन पृथिव्यप्तेजोवायन्दादिमन्तः स्थावर नामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीति स्था- वनस्पतिकायेषु उत्पद्यते तत्स्थावरनाम । (त. वत्ति वराः। (त. भा. हरि. व. २-१२)। ४. स्थावर- श्रुत. ८-११)। नाम यदूदयादस्पन्दनो भवति । (श्रा. प्र. टी. २२)। १ जिस कर्म के निमित्त से जीव की उत्पत्ति एके५. स्थावरनामकर्मोदयोपजनितविशेषाः स्थावराः। न्द्रियों में होती है उसे स्थावरनामकर्म कहते हैं। (त. श्लो. २-१२; त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। ३ जो एक ही स्थान में अवस्थित होकर रहते हैं ६. अपरिस्फुटसुखादिलिङ्गाः स्थावरनामकर्मोदयात् उन्हें स्थावर कहते हैं। स्थावराः । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-१२) । ७. तिष्ठ- स्थावरप्रतिमा--१. विहरदि जाव जिगिदो सहन्तीति स्थावरा. पृथिवीकायादयः। (सूत्रकृ. शी. सट्टसुलक्खणेहिं संजुत्तो । चउतीसग्रइसयजुदो व. २, १, ३, पृ ३३); तिष्ठन्तीति स्थावरा:- सा पडिमा थावरा भणिया ।। (दर्शनप्रा. ३५) । स्थावरनामकर्मोदयात्स्थावराः पृथिव्यादयः। (सूत्र- २. व्यवहारेण तु चन्दन-कनक-महामणि-स्फटिकादि
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