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प्रतिक्रमण] ७३६, जैन-लक्षणावली
[प्रतिग्रह प्रायश्चित्तं प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतप्रदानलक्षणम्। कर्म के विपाकरूप शभ-अशुभ भावों से प्रात्मा को Xxx मिथ्यादुष्कृतप्रदानात्मकं प्रतित्रमणं प्राय- पृथक् करना, इसका नाम प्रतिक्रमण है जो प्रात्मश्चित्तमिति । (व्यव. भा. मलय. वृ. (पी.) १, स्वरूप ही है-उससे भिन्न नहीं है । ३ द्रव्य, क्षेत्र, ६०)। २३. पडिक्कमणारिहं-जंमिच्छा-दुक्कड- काल और भाव के प्राश्रय से जो अपराध (दोष) मेत्तेण चेय सुज्झइ न आलोइज्जइ, जहा सहसा किये गये हैं उनको निन्दा और गर्दा से युक्त होकर अणुवउत्तणं खेल-सिंघाणाइयं परिदृवियं, न य हिंसा- मन-वचन-कायपूर्वक शुद्ध करना; इसे प्रतिक्रमण इयं दोसमावन्नो तत्थ मिच्छादुक्कडं भणइ एयं कहा जाता है । यह समता आदि छह प्रावश्यकों में पडिक्कमणारिहं। (जीतक. चू.पृ. ६)। २४. मिध्या चौथा है। ५ तीन गुप्तियों व पांच समितियों के मे दुष्कृतमिति प्रायोऽपायनिराकृतिः । कृतस्य संवे- विषय में प्रमाद करना; गुरु की प्रासादनागवता प्रतिक्रमणमागसः ॥ (अन. ध. ७-४७); तिरस्कार करना, विनय का भंग करना--अविनीत प्रतिक्रमणं भूतकर्मणा पूर्वोपाजितशुभाशुभकर्मवि- प्राचरण करना; इच्छाकार व मिथ्याकार आदि पाकभवेभ्यो भावेभ्यः स्वात्मानं विनिवात्मना। का न करना; सूक्ष्म असत्यभाषण, सूक्ष्म अदत्ततत्करणभूतप्राक्तनकर्मनिवर्तनम्। (अनध. स्वो. टी. ग्रहण एवं सूक्ष्म ममत्वबुद्धि प्रादि; तथा विधि के ८-६४) । २५. पडिक्कमणे ऐर्यापथिक-रात्रिदिवा- विना काश (खांसी), जंभाई, छींक, वातकर्मपाक्षिक-चतुर्मासिक-सांवत्सरिकोत्तमार्थभेदात् सप्त- ऊर्ध्ववायु व अपानवायु और असंक्लिष्टकर्म-छेदनधा कृतदोषनिराकरणम् । (भ. प्रा. मूला. १२१)। भेदन आदि में तथा कन्दर्प (अशिष्टभाषण), हास्य, २६. दिवस-रात्रि-पक्ष-मास-संवत्सरेपिथिकोत्तमार्थ- विकथा, कषाय एवं विषयानसंग में शीघ्रता के प्रभवसप्तप्रतिक्रमणप्ररूपकं प्रतिक्रमणम् । (सं. श्रुत- कारण अथवा उपयोग न होने से स्खलित होने पर “भ. टी. २४, पृ. १७६)। २७. प्रतिक्रम्यते प्रमाद- मिथ्याकार करना; यह प्रतिक्रमण कहलाता है। कृतदेवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रम- ६ कर्म के वश प्रमाद के उदय से जो मेरे द्वारा णम् । XXX तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि प्रतिक- दुष्कृत्य हुअा है वह मिथ्या हो, इस प्रकार प्रतीकार मणम् । (गो. जी. मं.प्र. ३६७)। २८. प्रतिक्रम्यते को प्रगट करना; इसे प्रतिक्रमण कहते हैं। यह प्रमादकृतदैवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रति- प्रायश्चित्त के नौ भेदों में दूसरा है। ७असंयमक्रमणम्, तच्च देवसिक-रात्रिक-पाक्षिक-चतुर्मासिक- स्थान को प्राप्त हुए साधु के पुनः उससे लौटनेरूप सांवत्सरिकर्यापथिकभेदात् सप्तविधम, भरतादिक्षेत्र प्रतिक्रमण का जिस अंगबाह्म श्रुत में वर्णन किया दुःषमादिकालं षट्मंहनन-सस्थिरास्थिरादिपुरुषभेदांश्च जाता है उसका नाम प्रतिक्रमणश्रुत है। जो श्रुत आश्रित्य, तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि प्रतिक्रमणम् । दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक (गो. जी. जी. प्र. ३६७) । २६. कृतदोषनिराकर- वाषिक और उत्तमार्थ इन सात प्रतिक्रमणों की णं प्रतिक्रमणम् । (भावप्रा. टी. ७७); दोषमुच्चा- भरतादि क्षेत्रों, दुषमादि कालों तथा छह संहननयुक्त र्योच्चार्य मिथ्या मे दुष्कृतमस्तु इत्येवमादिरभिप्रेतः पुरुषों की प्रधानता से प्ररूपणा करता है उसे प्रतिप्रतीकारः प्रतिक्रमणम् । (भावप्रा. टी. ७८)। क्रमण (अनंगश्रुत) कहा जाता है। ३०. कृतदोषनिराकरणहेतुभूतं प्रतिक्रमणम् । (त. प्रतिक्षणवतिनी उत्पत्ति- प्रतिक्षणवर्तिनी च वृत्ति श्रुत. १-२०); निजदोषमुच्चार्योच्चार्य अविभाव्यान्त्यप्रलयानुमेया, प्रतिक्षणमन्यथाऽन्यथा मिथ्या मे दुष्कृतमस्त्विति प्रकटीकृतप्रतिक्रियं प्रति- चोत्पद्यन्ते परिणमन्ते भावा अस्तिकायाः । (त. भा. क्रमणम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२, कार्तिके. टी. सिद्ध. वृ. ६-७, पृ. २२१)। ४५१) । ३१. पडिकमणं कयदोसनिरायरणं होदि। प्रत्येक समय में पदार्थ जो अन्य-अन्य प्रकार से तं च सत्तविहं । देवसिय-राइ-पक्खिय-चउमासियमेव उत्पन्न व परिणत होते हैं, यह उनकी प्रतिशणवतिनी वच्छरियं ॥ (अंगप. ३-१७, पृ. ३०७)।
उत्पत्ति कहलाती है। १ पूर्व में जो शुभ-अशुभ अनेक प्रकार के कर्म किये प्रतिग्रह-देखो पतद्ग्रह । १. परिणमइ जीसे तं गये हैं उनसे अपने को अलग करना, अर्थात पूर्वकृत पगईइ पडिग्गहो एसा। (कर्मप्र. सं. क. २)।
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