________________
प्रतिगृहीता]
२. प्रतिग्रहः स्वगृहद्वारे यतिं दृष्ट्वा प्रसादं कुरुते त्यभ्यर्थ्यं नमोऽस्तु तिष्ठतेति त्रिर्भणित्वा स्वीकरणम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५-४५ )
१ जिस प्रकृति में विवक्षित प्रकृति का दलिक ( कर्म प्रदेश पिण्ड ) परिणमित होता है उसे प्रतिग्रह या पतद्ग्रह कहा जाता है । २ अपने घर के द्वार पर आते हुए साधु को देख कर ' प्रसन्न होइए' • इस प्रकार प्रार्थना करते हुए 'नमस्कार हो, ठहरिये' ऐसा तीन वार कह कर पात्र के स्वीकार करने को प्रतिग्रह (पडिगाहन) कहते हैं । प्रतिगृहीता - देखो पात्र । सुदृष्टयस्तप्तमहातपस्का ध्यानोपवासव्रतभूषिताङ्गाः । ज्ञानाम्बुभिः संशमितोरुतृष्णाः प्रतिगृहीतार उदाह्रियन्ते ॥ ( वरांगच. ७–३१)।
जो सम्यग्दृष्टि होकर महान् तप का आचरण करते हैं; जिनका शरीर ध्यान, उपवास और व्रतों से विभूषित हैं; तथा जिन्होंने ज्ञानरूप जल के द्वारा भारी तृष्णा को शान्त कर दिया है उन्हें प्रतिगृहीता या पात्र कहा जाता है । प्रतिघात - १ मूर्तिमतो मूर्त्यन्तरेण व्याघातः प्रतिघातः । ( स. सि. २- ४० ) । २. प्रतिघातो मूर्त्यन्तरेण व्याघातः । मूर्तिमतो मूर्त्यन्तरेण व्याघात प्रतिघात इत्युच्यते । (त. वा. २, ४०, १ ) । ३. प्रतीघातो मूर्त्यन्तरव्याघातः । ( त. इलो. २, ४० ) । ४. मूर्तस्य मूर्तान्तरेण प्रतिहननं प्रतिघातः प्रतिस्खलनम्, व्याघात इत्यर्थ: । ( त सुखवो. २-४०) ।
१ एक मूर्तिमान् द्रव्य का जो अन्य मूर्तिमान् द्रव्य के साथ व्याघात ( रुकावट) होता है, इसका नाम प्रतिघात है ।
प्रतिज्ञा - १. प्रतिज्ञा हि धर्मि-धर्मसमुदाय लक्षणा । ( आप्तप. ११८ ) । २. धर्म - धर्मिसमुदायः प्रतिज्ञा । ( प्रमाणप. पू. ६७ ; प्रमेयर. २ - ३, पृ. ६४) । ३. व्याप्तिवचनं प्रतिज्ञाम् प्रतिशेते, तद्वचनं प्रतिज्ञेव स्यात् इत्यभिप्रायः । ( सिद्धिवि. वृ. ५-१५, पृ. ३४) । ४. साध्यनिर्देश: प्रतिज्ञा । (प्रमाणमी. २, १, ११) । ५. धर्म - धर्मिसमुदायस्य पक्षस्य वचनं प्रतिज्ञा । ( न्यायदी. पृ. ७६) ।
१ धर्म और धर्मी के समुदायको प्रतिज्ञा कहते हैं । प्रतिज्ञार्थ - देखो प्रतिज्ञा । साध्यधर्म-धर्मिसमुदायः
Jain Education International
७४०, जैन-लक्षणावली
[ प्रतिपक्षपद
प्रतिज्ञार्थः । ( त. इलो. १, पृ. १० ) । साध्य धर्म और धर्मी के समुदाय को प्रतिज्ञार्थ कहा जाता है ।
प्रतिज्ञाविरोध - प्रतिज्ञायाः विरोधो यो हेतुना संप्रतीयते । स प्रतिज्ञाविरोधः स्यात् × × ×॥ ( त. श्लो. १, ३३, १४० ) ।
हेतु से जो प्रतिज्ञा का विरोध प्रतीत होता है, यह प्रतिज्ञाविरोध कहलाता है । प्रतिज्ञाहानि - प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञात्वे हेतुना हि निराकृते । प्रतिज्ञाहानिरेवेयं प्रकारान्तरतो भवेत् ॥ (त. श्लो. १, ३३, १४१) ।
हेतु के द्वारा प्रतिज्ञा के स्वरूप के निराकृत हो जाने पर इसे प्रतिज्ञाहानि कहा जाता है । प्रतिनीतदोष -- १. प्रतिनीतं देव-गुर्वादीनां प्रतिकूलो भूत्वा यो वन्दनां विदधाति तस्य प्रतिनीतदोष: । (मूला वृ. ७ - १०८ ) । २. प्रतिनीतं गुरोराज्ञाखण्डनं प्रतिकूल्यतः ।। (न. ध. ८ - १०४ ) । १ जो देव गुरु श्रादि की आज्ञा के प्रतिकूल होकर वन्दना करता है उसके प्रतिनीतदोष होता है । प्रतिपक्षपद - १. से किं तं पडिवक्खपणं ? नवेसु गामागर-णगर-खेड-कव्वड-मडंब - दोणमुह-पट्टणासमसंवाह - सन्निवेसेसु संनिविस्समाणेसु असिवा सिवा, अग्गी सोलो, विसं महुरं, कल्लालघरेसु अविलं साउ जे रत्तए से लत्तए जे लाउए से अलाउए जे सुभए से कुसुंभए मालवंते विवली प्रभासए से तं पडिवक्खपणं । (अनुयो. सू. १३०, पृ. १४२ ) । २. प्रतिपक्षपदानि कुमारी बन्ध्येत्येवमादीनि, आदानपदप्रतिपक्षनिबन्धनत्वात् । ( धव. पु. १, पृ. ७६ ) ; विहवा रंडा पोरो दुव्विहो इच्चाईणि पडिवक्खपदानि गब्भिणी अमउडी इच्चादीणि वा, इदमे - दस थिति विवक्खाणिबंधणादो । ( धव. पु. ६, पृ. १३६ ) । ३. विहवा रंडा पोरा दुब्विहा इच्चाईणि णामाणि पडिवक्खपदानि इदमेदस्स णत्थि त् विवखाणिबंधणत्तादो । ( जयध. १, पृ. ३२) ।
१ ग्राम, आकर, नगर, खेट, कवंट, मटम्व, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम, संवाह और सन्निवेश; इनकी रचना के समय शिवा— शृगाली — को शिवा, अग्नि को शीतल, विष को मधुर और कलार के घरों में श्रवले को स्वादु तथा रक्त को अलक्तक (र और ल में अभेद विवक्षा से ) ; लावु – जल प्रादिक
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org