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सौभाग्य]
११७७, जैन-लक्षणावली
स्किन्धप्रदेश
सौध -यथार्थ गृह-उसे कहा जाता है जो साधुओं भिज्जेज्ज व एवइग्रो (एगयरो) नो छिज्जे नो य के घोए गये पांवों के जल से सिंचित होता है। भिज्जेज्जा ।। (जीवस. ६७) । ४. स्थौल्याद ग्रहणसौभाग्य--१. तत्सौभाग्यं यत्रादानेन वशीकरणं । निक्षेपणादिव्यापरास्फन्दनात स्कन्धाः । स्थौल्यभावेन (नीतिवा. २७-५६, पृ. २६१)। २. तथा व ग्रहण-निक्षेपणादिव्यापारस्कन्द-(ध.)नात् स्कन्धा इति गौतमः- दानहीनोऽपि वशगो जनो यस्य प्रजायते। संज्ञायन्ते । (त. वा. ५, २५, २); परिप्राप्तबन्धसुभगः स परिज्ञेयो न यो दानादिनिर्भरः।। (नीतिवा. परिणामा: स्कन्धाः। xxx अनन्तानन्तपरमाणुटी. २७-५६)।
बन्धविशेषः स्कन्धः । (त. वा. ५, २५, १६)। १ जिसके होने पर दान के विना भी लोगों को वश ५. स्निग्धरूक्षात्मकाणनां सङ्गात: स्कन्ध इष्यते ॥ में किया जाता है उसका नाम सौभाग्य है।
(म. पु. २४-१४६, जम्ब. च. ३-४६)। ६. अनसौभाग्यमुद्रा-परस्पराभिमुखौ ग्रथिताङगुलीको न्तानन्तपरमाण्वारब्धोऽप्येकः स्कन्धनामपर्यायः । करो कृत्वा तर्जनीभ्यामनामिके गृहीत्वा मध्यम (पंचा. का. अमृत. व ७५) । ७. णिहिलावयव च प्रसार्य तन्मध्येऽङ्गुष्ठद्वयं निक्षिपेदिति सौभाग्य मुद्रा। खंधा xxx । (भावसं. दे. ३०४)। ८ बद्धाः (निर्वाणक. पृ ३३)।
स्कन्धा: गन्ध-शब्द-सौक्ष्म-स्थौल्याकृतिस्पृशः। अन्धगूंथी हुई अंगुलियों से युक्त दोनों हाथों को एक कारातपोद्योत-भेदच्छायात्मका अपि ॥ कर्म कायदूसरे के अभिमुख करके व दोनों तर्जनी अंगलियों मनोभाषाचेष्टितोच्छ्वासदायिनः । सुख-दु:खजीविके द्वारा दोनों अनामिकामों को ग्रहण करके मध्य- तव्य मृत्यूपग्रहकारिणः ॥ (योगशा. स्वो. विव. अंगुलियों को फैलाते हुए उनके मध्य में दोनों १-१६, पृ. ११३) । ६. स्कन्ध सशिसम्पूर्ण अंगूठों को रखना चाहिए। इस स्थिति में सौभाग्य- भणन्ति । (गो. जी. जी. प्र. ६०४)। १०. स्थूलमुद्रा बनती है।
स्वेन ग्रहण निक्षेपणादिव्यापारं स्कन्धन्ति गच्छति सौम्य-तथा सौम्योऽक्रूराकारः। (योगशा. स्वो. ये ते स्कन्धाः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२५) । विव. १-५५, पृ. १५९)।
१ जो समस्त अंशों से परिपूर्ण हो उसे स्कन्ध कहते क्रूरता के सूचक शरीर के प्राकार का न होना, हैं। ३ अनन्त प्रदेशों से युक्त स्कन्ध होता है जो इसका नाम सौम्य है।
लोक में छेदा भेदा जा सकता है । ४ जो स्थूलता के सौम्या व्याख्या-क्वचित्क्वचित्स्खलितवृत्तेाख्या प्राश्रय से ग्रहण करने व रखने रूप व्यापार का सौम्या । (धव. पु. ६, पृ. २५२)।
कारण होता है उसे स्कन्ध कहा जाता है। कहीं कहीं स्खलित होते हए जो व्याख्या की जाती है स्कन्धदेश-१. तरस (खंदस्स) दु (लि. प. 'य') उसका नाम सौम्या व्याख्या है। यह वाचना के नन्दा अद्धं भणंति देसोत्ति । (पंचा. का. ७५; मला. प्रादि चार भेदों में अन्तिम है।
५-३४; ति. प. १-६५; गो. जी. ६०४) । सौषिर-देखो सुषिर। १. वंश-शंखादिनिमित्तः २. तदर्धं देशः । (त वा. ५, २५, १६)। ३.x शौषिरः । (स.सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ५)। xx तस्स य अद्धं च वच्चदे देसो। (भावसं. दे. २. सूसिरो णाम वंस-संख-काहलादिजणिदो सहो। ३०४) । (धव. पु. १३, पृ. २२१)।
१विवक्षित स्कन्ध के अर्व भाग को स्कन्घदेश कहते १ बांस (बांसुरी) व शंख प्रादि के निमित्त से जो हैं। शब्द होता है उसे सौषिर कहते हैं।
स्कन्धप्रदेश--१. (खंधस्स) अद्धं च पदेसो X स्कन्ध-१. खंधं सयलसमत्थं XXX । (पंचा. Xx ॥ (पंचा. का. ७५, मूला. ५-१३४; ति. का. ७५; मूला. ५-३४; ति. प.१-६५; गो. जी. प.१-६५; भावसं. दे. ३०४; गो. जी. ६०४)। ६०४)। २. स्थूल भावेन ग्रहण-निक्षेपणादिव्यापार. २ अर्धाधं प्रदेशः । (त. वा. ५, २५, १६)। स्कन्धनात् स्कन्धा इति संज्ञायन्ते । (स. सि. ५-२५)। १ स्कन्ध के आधे के प्राधे को स्कन्धप्रदेश कहा ३. खंधोऽणतपएसो प्रत्ये गइनो जम्मि छिज्जेज्जा। जाता है।
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