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भावलेश्या ]
कम्मपोग्गलादाण निमित्ता
या रंजियजोगपवृत्ती मिच्छत्तासंजम - कसायजणिदसंसकारो त्ति वृत्तं होदि । ( धव. पु. १६, पृ. ४८८ ) । ३. भावलेश्यास्तु कृष्णादिवर्णद्रव्यावष्टम्भज निता [ताः ] परिणाम[माः] कर्मबन्धनस्थितेविधातारः । ( त. भा. सिद्ध. बृ. २-६) । ४. मोहुदय-खओवसमोवसम-खयजजीवफंदणं भावो ॥ (गो. जी. ५३६ ) । ५. योगाविरति मिथ्यात्व कषाय-जनिताङ्गिनाम् । संस्कारो भावलेश्यास्ति कल्मषास्रवकारणम् ॥ ( पंचसं श्रमित. १-२६१, पृ. ३३) । ६. असंयतान्तगुणस्थानचतुष्के मोहस्योदयेन, देशविरतत्रये क्षयोपशमेन, उपशमके उपशमेन, क्षपके क्षयेण च संजनितसंस्कारो जीवस्पन्दनसंज्ञः स भावलेश्या जीवपरिणामप्रदेशस्पन्देन कृतेत्यर्थः । (गो. जी. जी. प्र. ५३६ ) । ७. भावलेश्या तु तज्जन्यो जीवपरिणाम इति । ( स्थाना. अभय वृ. ५१, पृ. ३२ ) । ८. कषायोदयानुरंजिता योगप्रवृत्तिः भावलेश्या । (त. वृत्ति श्रुत. २-६) ।
१. कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को भावलेश्या कहते हैं । ३ कृष्ण श्रादि वर्णों वाले द्रव्यों के श्राश्रय से जो कर्मबन्ध की स्थिति के कारणभूत परिणाम होते हैं उन्हें भावलेश्या कहा जाता है ।
८५१, जैन - लक्षणावली
भावलोक - १. तिव्वो रागो य दोसो य उदिण्णा जस्स जंतुणो । भावलोगं वियाणहि प्रणतजिणदेसि - दं ।। (मूला. ७-७३) । २. तिब्वो रागो य दोसो य, उइन्नो जस्स जन्तुणो । जाणाहि भावलोगं प्रणंतजिणदेसिश्रं सम्मं ।। (श्राव. भा. २०३, पृ. ५६३) । जिस जीव के तीव्र राग व द्वेष उदय को प्राप्त है उसे भावलोक जानना चाहिए । भाववध - जीवशङ्कयाऽजीवस्य वघे भाववधः । ( पंचसं स्वो वृ. ४-१६) ।
जीव की शंका से श्रजीव का वध होने पर उसे भाववध कहते हैं ।
भाववाक् - १. भाववाक् तावद् वीर्यान्तराय-मति श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभनिमित्त - त्वात् पौद्गलिकी । (त. वा. ५, १६, १५ ) । २. भाववाक् पुनस्त एव पुद्गलाः शब्दपरिणाममापन्ना: । ( श्राव. सू. मलय. वू. पू. ५५७ ) । १ जो वीर्यान्तराय और मति श्रुत ज्ञानावरण के
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[ भावविशुद्धि
क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से होता है उसे भाववाक् कहते हैं । २ जीव के द्वारा ग्रहण किये गये शब्द परिणाम के योग्य वे ही पुद्गल जब शब्दरूप से परिणत हो जाते हैं तब उन्हें भाववाक् कहा जाता है भावविचिकित्सा - XXX खुधादिए भावविदिगिछा || ( मूला ५-५५) ।
क्षुधा एवं पिपासा आदि परीषह क्लेशजनक हैं, इस प्रकार से उनके प्रति जो घृणा का भाव उत्पन्न होता है उसे भावविचिकित्सा कहते हैं। भावविपाकि प्रकृति — भवनं भावो जीवस्यावस्थान्तरभावित्वम्, तद्धेतुर्यासां तास्तथा ( भावविपाकिन्यः ), जीवावस्थान्तरविशेषात् तासामुदयोपलब्धिर्भवतीति भावः । (पंचसं स्वो वृ. ३-४६, पू. १४३) ।
जीव की अन्य अवस्था का होना, इसका नाम भाव है । वह जिन प्रकृतियों के विपाक का कारण होता है वे भावविपाकिनी प्रकृतियाँ कहलाती हैं । भावविवेक - १. सर्वत्र शरीरादी अनुरागस्य ममेदंभावस्य वा मनसाऽकरणं भावविवेकः । (भ. श्री. विजयो. १६९ ) । २. भावतस्तु कषायपरिहारात्मकं ( बिवेकं ) x x x । ( उत्तरा. सू. शा. वू. ४, १०, पृ. २२५) ।
१ शरीर आदि सब में मन से अनुराग के न करने श्रथवा ममेदभाव - 'यह मेरा है' इस प्रकार की बुद्धि के न करने का नाम भावविवेक है । भावविशुद्धप्रत्याख्यान — देखो परिणामविशुद्ध
प्रत्याख्यान |
भावविशुद्धि - १. भावविशुद्धिनिष्कल्मषता, धर्मसाधनमात्र स्वपि अनभिष्वङ्गः । ( त. भा. ६-६, पृ. १६५ ) । २. भावविशुद्धिर्ममत्वाभावो निःसङ्गता च, अपरद्रोहेणात्मार्थानुष्ठानम् निष्कल्मषतानिर्मलता भाव ( धर्भ ? ) साधनमात्रा: रजोहरणमुखवस्त्रिका - चोलपट्टक- पात्रादिलक्षणाः, तास्वप्यनभिष्वङ्गो विगतमूर्च्छ इत्यर्थः । ( त. भा. सिद्ध. वू. - ६ ) ।
१ निष्कल्मषता अन्तःकरण की निर्मलता - का नाम भावविशुद्धि हैं, अभिप्राय यह है कि धर्म के साधन मात्र जो रजोहरणादि हैं उनके विषय में
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