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जैन लक्षणावलो
दोणदं तु जधाजादं वारसावत्तमेव य । चसिरं तिसुद्धं च किदियम्म पउंजदे ।। मूला. ७-१०४. चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः ।।
सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।रत्नकरण्डक, १३६ मुलाचारगत प्रकृत पद्य से अतिशय समान यह पद्य समवायांग में भी उपलब्ध होता है
दुअोण यं जहाजायं कितिकम्मं बारसावयं ।
चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगणिक्खमणं ॥ समवायांग. १२. धवला (पु. ६, पृ. १८७-८६) में चौदह प्रकार के अनंग त के नामोल्लेखपूर्वक कृतिकर्म के प्रसंग में मूलाचारगत उपर्युक्त पद्य को 'एत्थुववुज्जती गाहा' ऐसा निर्देश करते हुए यत्किचित् वर्णभेद के साथ उद्धृत किया गया है।
उपर्युक्त प्रसंग से सम्बद्ध मूलाचार और रत्नकरण्डक में इतनी विशेषता रही है कि मूलाचार का वह प्रसंग जहां मनि के छह प्रावश्यकों के अन्तर्गत बन्दना आवश्यक से सम्बद्ध है वहां रत्नकरण्डक में वह श्रावक के ग्यारह पदों में से तीसरे पदभूत सामायिक प्रतिमा के धारक से सम्बन्ध रखता है। किन्तु ऐसा होने पर भी उसमें कुछ विरोध नहीं समझना चाहिए। कारण यह कि उसके पूर्व उक्त रत्न करण्डक (४-१२) में ही यह कहा जा चुका है कि श्रावक के सामायिक में अवस्थित होने पर चंकि वह उस समय समस्त प्रारम्भ और परिग्रह से रहित होता है, इसीलिये वह उपसर्ग के वश वस्त्र से आच्छादित मनि के समान यतिभाव को-महाव्रतित्व को-प्राप्त होता है । यह अभिप्राय केवल रत्नकरण्डक में ही नहीं, बल्कि उक्त मलाचार (७-३४), आवश्यक नियुक्ति (५८४), विशेषावश्यकभाष्य (३१७३) और श्रावकप्रज्ञप्ति (२६६) में भी समानरूप से व्यक्त किया गया है। इतना ही नहीं, इन चारों ग्रन्थों में प्रकृत गाथा भी अभिन्न रूप में ही उपलब्ध होती है।
रत्नकरण्डक में निर्दिष्ट उपर्युक्त सामायिक प्रतिमाधारी के स्वरूप को कातिकेयानुप्रेक्षा (३७१ व ३७२) और वामदेव विरचित भावसंग्रह (५३२-३३) में भी समान रूप से प्रगट किया गया है।
सावयधम्मदोहा (१२) में भी पूर्वाचार्यपरम्परा के अनसार तीनों संन्ध्याकालों में बत्तीस दोषों से रहित जिनवन्दना का विधान किया गया है।
वसुनन्दिश्रावकाचार (२७४-७५) में उक्त सामायिक के प्रसंग में कहा गया है कि स्नानादि से पवित्र होकर चैत्यालय में व अपने गृह में प्रतिमा के अभिमुख होकर अथवा अन्यत्र पवित्र स्थान में पूर्वाभिमख या उत्तराभिमुख होकर जिनवाणी, धर्म, चैत्य, परमेष्ठी और जिनालय की जो तीनों कालों में बन्दना की जाती है, यह सामायिक कहलाती है।
योगशास्त्र के स्वो. विव. (३-१४८) में कहा गया है कि तीसरी सामायिक प्रतिमा का धारक श्रावक प्रमाद से रहित होकर तीन मास तक उभय सन्ध्याकालों में पूर्वोक्त प्रतिमानों के अनुष्ठान के साथ सामायिक का पालन करता है। लगभग यही अभिप्राय प्राचारदिनकर (पृ. ३२) में भी प्रगट किया गया है।
अन्य ग्रन्थों में प्रायः पूर्वनिर्दिष्ट इन्हीं ग्रन्थों में से किसी न किसी का अनुसरण किया गया है ।
सूत्र--- मलाचार (५-८०) में सूत्र के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है, जो गणधरों के द्वारा, प्रत्येकबद्धों के द्वारा, श्र तके वलियों के द्वारा और अभिन्नदशपूवियों के द्वारा कहा गया हो उसे सूत्र जानना चाहिए। आवश्यक नियुक्ति (८८०) के अनुसार सूत्र नाम उसका है जो ग्रन्थ से अल्प होकर अर्थ से महान् हो, बत्तीस दोषों से रहित हो, लक्षण-व्याकरणनियमों-से सहित हो, और पाठ गुणों से सम्पन्न हो। इसी प्राव. नि. में पागे (८८६) पुनः कहा गया है कि जो थोड़े से अक्षरों से सहित, सन्देह से रहित, सारयुक्त, विश्वतःमुख-अनुयोगों से सहित, अर्थोपम --व्याकरणविहित निपातों से रहित-और अनवद्य होकर
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