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प्रस्तावना
सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया हो वह सूत्र कहलाता है । तत्त्वार्थवार्तिक (७, १४, ५) में सूत्र का लक्षण लघु और गमक कहा गया है | धवला (पु. ६, पृ. २५६ ) और जयधवला ( १, पृ. १५४ ) में एक प्राचीन श्लोक को ग्रन्थान्तर से उद्धृत करते हुए उसके द्वारा कहा गया है कि जो अक्षरों से अल्प, सन्देह से रहित, सारवान्, गूढ़ तत्त्वों का निर्णायक, निर्दोष युक्ति का अनुसरण करने वाला और यथार्थ हो उसे सूत्र के ज्ञाता सूत्र मानते हैं । यह लक्षण पूर्वोक्त आव. निर्युक्ति (८८६ ) से प्रभावित प्रतीत होता है । प्रकृत धवला में आगे (पु. १४, पृ. ८) दाशांग शब्दागम को भी सूत्र कहा गया है । जयधवला १, पृ. १७१ ) में भी आगे एक अन्य श्लोक को उद्धृत करते हुए यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि महान् अर्थ से संयुक्त अथवा जो पदसमूह अर्थ की उत्पत्तिका कारण हो उसे सूत्र जानना चाहिए ।
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सूत्ररुचि - यह सम्यक्त्व के दस भेदों के अन्तर्गत है । उत्तराध्ययन ( २८-१६) और प्रज्ञापना (गा. ११५ ) के अनुसार वे दस भेद ये हैं - निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुच, क्रियारुचि, संक्ष परुचि और धर्मरुचि । इनमें से उपदेशरुचि, प्राज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, विस्ताररुचि और संक्ष परुचि ये छह भेद तो तत्त्वार्थवार्तिक (३,३६,२), महापुराण ( ७४ से ४४०, ४४४) ग्रात्मानुशासन (११), उपासकाध्ययन (पृ. ११४) और अनगारधर्मामृत की स्वो टीका ( २-६२ ) में भी उपलब्ध होते हैं; किन्तु शेष चार भेदों के स्थान में यहो ये अन्य ही चार भेद उपलब्ध होते हैंमार्गरुचि, अर्थरुचि, श्रवगाढ़रुचि और परमावगाढ़रुचि । प्रकृत में सूत्ररुचि के लक्षण का निर्देश करते हुए उत्तरा ( २८-२१) और प्रज्ञापना (गा. १२० ) में कहा गया है कि जो जीव सूत्र का अध्ययन करता हुआ अंग बाह्य से सम्यक्त्व का अवगाह्न करता उसे सूत्ररुचि जानना चाहिए। त. वा. के अनुसार प्रव्रज्या और मर्यादा के प्ररूपक प्रचारश्रुत के सुनने मात्र से जिनके सम्यग्यदर्शन उत्पन्न हुआ है उन्हें सूत्ररुचि कहा जाता है। म. पु. ( ७४,४४३-४४) में कहा गया है कि आचार नामक प्रथम अंग में निर्दिष्ट तप के भेदों के सुनने से शीघ्र ही जो रुचि प्रादुर्भूत होती है उसे सूत्रजा रुचि कहते हैं । श्रात्मानु. (१३) के अनुसार मुनि के चारित्रविधि के सूचक प्राचारसूत्र को सुनकर जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे सूत्रदृष्टि कहा जाता है । उपासकाध्ययन और अनगारधर्मामृत की टीका में समान रूप से यतिजन के प्रचार के निरूपण मात्र को सूत्र - उससे होने वाले श्रद्धान को सूत्तसम्यक्त्व — कहा गया है । दर्शनप्राभृत की टीका (१२) अनुसार मुनियों के प्राचारसूत्र स्वरूप मूलाचार शास्त्र को सुनकर जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसका नाम सूत्रसम्यक्त्व है ।
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इस प्रकार प्रस्तुत सूत्ररुचि या सूत्रसम्यक्त्व के लक्षण में प्रायः उत्तरोत्तर कुछ विशेषता देखी जाती - है । यथा - उत्तराध्ययन में जहां अंग व बाह्य श्रुत से इस सम्यक्त्व की उत्पत्ति निर्दिष्ट की गई है वहां तत्त्वार्थवार्तिक में बिशेष रूप से प्रव्रज्या व मर्यादा के प्ररूपक केवल आचार सूत्र के सुनने मात्र से उसकी उत्पत्ति बतलायी गई है । शेष ग्रन्थों में प्रायः इस तत्त्वार्थवार्तिक के लक्षण का ही अनुसरण किया गया है। दर्शनप्राभृत की टीका में तो मूलाचार - जो वर्तमान में उपलब्ध है— उसके सुनने से प्रकृत सम्यक्त्व की उत्पत्ति कही गई है ।
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सोपक्रमायु - यह शब्द मूलाचार (१२-८३) में उपलब्ध होता है । इसके अभिप्राय को व्यक्त करते हुए उसकी बसुनन्दी विरचित वृत्ति में विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, संक्लेश, शस्त्रधात एवं उच्छ्वासनिःश्वास के निरोध से होनेवाले प्रायु के घात को उपक्रम और उस उपक्रम से युक्त प्रायु वाले जीवों को सोपक्रमायु — सघातायु — कहा गया है । सोपक्रम और निरुपक्रम ये दो शब्द त भाष्य ( २-५२ ) में उपलब्ध होते हैं । वहां आयु के अपवर्तन के निमित्त को उपक्रम कहा गया है। उपक्रम से आयु का अपवर्तन हो सकता है, इसके लिए यहां संहत शुष्क तृणराशि और गुणकार-भागहार से राशिछेद ये दो उदाहरण भी दिये गये हैं । बृहत्संग्रहणी (२६६) में भी कहा गया है कि जिस अध्यवसान आदि से, चाहे वह प्रा. मोत्पन्न हो अथवा अन्य हो, आयु उपक्रम को प्राप्त होती है उसे उपक्रम कहा जाता है । त. भाष्य की हरिभद्र विरचित वृत्ति (२-५२) में जिनकी आयु प्रायः अपवर्तन के योग्य होती है उन्हें सोपक्रम और जिनकी श्रायु
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