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प्रस्तावना
२३
प्रकृतियों की स्थिति को हीन करने वाले तथा अशुभ प्रकृतियों के अनुभागबन्ध को हीन और शुभ प्रकृतियों के अनुभागबन्ध को वृद्धिंगत करनेवाले कहा गया है । वहां यह स्पष्ट किया गया है कि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव कर्मों को अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थिति से युक्त करके कालादिलब्धि को प्राप्त होता हुआ अथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट होता है । यह करण चूंकि पूर्व में कभी प्रवृत्त नहीं हुआ, इसीलिए इसका 'प्रथाप्रवृत्त' यह सार्थक नाम है । इस प्रथाप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय तक नाना जीवों के अधस्तन व उपरिम परिणाम सम भी होते हैं और विषम भी। इन असंख्यात लोक प्रमाण परिणामों के समुदाय का नाम प्रथाप्रवृत्त है । लगभग इसी अभिप्राय को अमितगति विरचित पंचसंग्रह (पृ. ३०) में भी प्रगट किया गया है । इतनी यहां विशेषता है कि विकल्प के रूप में उसके 'अधःप्रवृत्तकरण' इस नामान्तर का भी निर्देश किया गया है। इस करण में चूंकि उपरितन जीवों के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवों के परिणामों से समान प्रवृत्त होते हैं, इस प्रकार से उसकी उक्त संज्ञा की भी यहां सार्थकता दिखलायी गई है ।
धवला (पु. ६, पृ. २१७ ) के अनुसार उत्तरोत्तर अनन्तगुणित श्रधःप्रवृत्त रूप विशुद्धियों का नाम अधःप्रवृत्तकरण है । इस करण में चूंकि ऊपर के परिणाम नीचे के परिणामों में प्रवृत्त होते हैं, अतएव यह उनका सार्थक नाम है । इन परिणामों का उल्लेख 'करण' नाम से क्यों किया गया, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि इन परिणामों में तलवार व वसूला आदि के समान करण का लक्षण (साधकतमत्व ) पाया जाता है, इसीसे उन्हें करण कहा गया है। पूर्वोक्त पंचसंग्रह में विकल्प रूप में 'अधः प्रवृत्तकरण' इस नाम का भी जो निर्देश किया गया है उसे प्रकृत धवला का अनुसरण समझना चाहिये । सामान्य से इसी प्रकार का अभिप्राय जो गो. जीवकाण्ड (४८) और लब्धिसार (३५) में प्रगट किया गया है वह भी धवला का अनुसरण है ।
सम्यक्त्वकी प्राप्ति के प्रसंग में विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि श्रायु को छोड़कर शेष सात कर्मों की उत्कृष्ट अथवा जघन्य स्थिति के होने पर सम्यक्त्व, श्रुत, देशव्रत और सर्वव्रत इन चार सामायिकों में से कोई भी नहीं प्राप्त होता । उन कर्मों की स्थिति जब अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण होकर उसमें भी पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग से हीन हो जाती है तब कहीं उसकी प्राप्ति सम्भव है । कर्मों की इस स्थिति तक घन राग-द्वेष परिणाम स्वरूप ग्रन्थि अभिन्न ही रहती है। उसका भेदन जब अपूर्वकरण परिणाम के द्वारा कर दिया जाता है तब कहीं उक्त सम्यक्त्व आदि का लाभ हो सकता है । अथाप्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्ति के भेद से करण तीन प्रकार का है। इनमें प्रथाप्रवृत्तकरण भव्य और प्रभव्य दोनों के सम्भव है, किन्तु अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये दोनों भव्य के ही सम्भव हैं, अभव्य के नहीं । प्रथम अथाप्रवृत्तकरण अनादि काल से रहकर उक्त ग्रन्थिस्थान तक रहता है। जिस प्रकार पहाड़ी नदी के भीतर पड़े हुए पत्थर प्रवाह में परस्पर के संघर्षण से स्वयमेव श्रनेक आकारों में परिणत हो जाते हैं उसी प्रकार अनादिसिद्ध उस प्रथा - प्रवृत्तकरण ' के श्राश्रय से उक्त ग्रन्थिस्थान तक पूर्वोक्त कर्मों की स्थिति स्वयमेव हीन हो जाती है । उक्त सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति के विषय में वहाँ पत्य, गिरिसरित्पाषाण एवं पिपीलिका आदि के कितने ही उदाहरण भी दिये गये हैं । विशेष के लिए देखिये विशेषावश्यक भाष्य (द. ला. भारतीय विद्यामन्दिर, अहमदाबाद ) १९८८ - १२१३ आदि । विशेषावश्यकभाष्यगत सम्यक्त्व प्राप्ति विषयक इस अभिप्राय का अनुसरण संक्ष ेप में श्रावकप्रज्ञप्ति ( ३१-३७) में भी किया गया है । गाथा ३२ की टीका में वहां विशेषावश्यक भाष्य की 'गंठित्ति सुदुब्भेप्रो' श्रादि गाथा ( ११९३ ) को भी उद्धृत किया गया है।
आवश्यक निर्युक्ति की मलयगिरि विरचित वृत्ति (१९०६) में यथाप्रवृत्तकरण के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अनादिसिद्धि प्रकार से जो करण प्रवृत्त है उसका नाम यथाप्रवृत्त है, 'क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणम्' इस निरुक्ति के अनुसार जिसके द्वारा कर्म का क्षय किया जाता है उसे यहां करण कहा गया है । अभिप्राय यह हुआ कि पहाड़ी नदी में अवस्थित पाषाणों की घोलना के समान जो श्रध्यवसायविशेष अनादि काल से कर्मक्षय में प्रवृत्त है उसे यथाप्रवृत्तकरण जानना चाहिये ।
याचनापरीषहजय - प्रकृत परीषह के स्वरूप का विचार करते हुए सवार्थसिद्धि (६-९) और
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