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जैन लक्षणावली
१२ प्रभाचन्द - प्रतिपक्ष का निराकरण न करके वस्त्वंश का ग्राहक ज्ञाता का अभिप्राय | १३ मलयगिरि - विशेषाकांक्ष सामान्य का ग्राहक अथवा सामान्यापेक्ष विशेष का ग्राहक । ( लघीयस्त्रयगत कारिका ३० का फलितार्थ ) ।
इन नयलक्षणों में उत्तरोत्तर कुछ विकास हुआ प्रतीत होता है । अन्य ग्रन्थकारों के द्वारा निर्दिष्ट लक्षण इन्हीं लक्षणों में से किसी के आधार पर होना चाहिए ।"
नाग्न्यपरीषहजय - सर्वार्थसिद्धि ( ६-६ ) भोर तत्त्वार्थवार्तिक (६, ६, १०) आदि में प्रार्थना की सम्भावना से रहित; याचना ( दीनता), रक्षण व हिंसा आदि दोषों से विहीन तथा परिग्रह से रहित होने के कारण निर्वाणपद को प्राप्ति के प्रति श्रद्वितीय साधनभूत ऐसे बाधा से रहित बालक की नग्नता के समान स्वाभाविक नग्नवेष को धारण करने वाला साधु मानसिक विकार से युक्त हो जाने के कारण स्त्रियों के रूप को अपवित्र व घृणास्पद देखता हुआ दिन-रात अखण्डित ब्रह्मचर्य पर अधिष्ठित रहकर निर्दोष अचेल व्रत को जो धारण करता है उसे उसका नाग्न्यपरीषहजय कहा गया है । उत्तराध्ययन (२-१३ ) में इसके स्वरूप का विचार करते हुए कहा गया है कि तत्त्वज्ञानी साधु कभी अचेल (निर्वस्त्र ) और कभी सचेल ( सबस्त्र ) होता है । पर निर्वस्त्र होने पर जो अनेक प्रकार की शैत्य श्रादि की उसे बाधा होती है उससे वह खेद को प्राप्त नहीं होता व उसे धर्म के मानता है । यदि वह सवस्त्र है, पर वस्त्र अनुकूल नहीं है अथवा वह जीर्ण हो गया है याचना करते हुए वह दीनता को प्रगट नहीं करता । इस प्रकार से वह उपर्युक्त दोनों ही खेदखिन्न नहीं होता । यह उसके नाग्न्यपरीषह या प्रचलपरीषहजय का लक्षण है । प्राव. हरिभद्र विरचित वृत्ति (६१८, पृ. ४०३) में परीषहों से सम्बद्ध श्लोकों को किसी पूर्वकालीन ग्रन्थ से उद्धृत कर प्रकृत परीषह के विषय में कहा गया है कि लाभ-लाभ की विचित्रता को जानता हुआ
लिए हितकर
तो उसके लिए
अवस्थानों में नियुक्ति की
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इस विचार से
उत्तम या निकृष्ट वस्त्र की
कहा गया है कि दिगम्बर या भीत श्रादि के
साधु नग्नता से उपद्रवित होकर 'मेरा वस्त्र अशुभ या नहीं इच्छा न करे । त. भा. की सिद्धसेन विरचित वृत्ति (६-९) समान उपकरणों से रहित होना ही नाग्न्यपरीषद नहीं है कहा गया है कि प्रवचन में उसका जो विधान कहा गया है
।
तो फिर वह क्या है, इसके उत्तर में वहां तदनुसार नग्नता को जानना चाहिए ।
इस नग्नता का पर्यायवाची शब्द अचेलकता है । प्रकृत लक्षणावली के प्रथम भाग की प्रस्तावना में (पृ. ७०-७१ ) आचारांग श्रादि के श्राश्रय से अचेलकता के विषय में विशेष विचार किया जा चुका है । विशेष जिज्ञासुनों को उसे वहां पर देखना चाहिए ।
निगोदजीव - घवला पु. ३ (पृ. ३५७ ) में निगोद जीवों के स्वरूप को दिखलाते हुए कहा गया है कि जिन अनन्तानन्त जीवों का साधारणरूप से एक ही शरीर होता है उन्हें निगोदजीव कहा जाता । इसी धवला में आगे (पु. ७, पृ. ५०६ ) कहा गया है कि जो जीव निगोदों में अथवा निगोदभाव से जीते हैं वे निगोदजीव कहलाते हैं । यहीं पर आगे ( पु १४, पृ. ८५ और पृ. ४६२ ) पुलवियों को निगोद कहा गया है । इसी पुस्तक में पृ. ८६ पर पुलवियों के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है। कि स्कन्ध, अण्डर, प्रावास, पुलविया धौर निगोदशरीर ये पांच होते हैं। यहां पृथक्-पृथक् पांचों के स्वरूप का भी निर्देश किया है। पूर्व में यहां (घवला पु. ३, पु. ३५७) में निगोद जीवों के स्वरूप को दिखलाते हुए उन प्रनन्तानन्त जीवों का एक ही साधारण शरीर निर्दिष्ट किया गया है । ऐसे साधारण शरीर वाले जीव नियम से वनस्पतिकायके अन्तर्गत हैं ( षट्खं. ५, ६, १२० पु. १४, पृ. २२५) । इन साधारण जीवों के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि साधारण जीव वे हैं जिनका ग्राहार और मान-पानग्रहण साधारण है, अर्थात् एक जीव के द्वारा प्रहार ग्रहण करने पर सभी अनन्तानन्त जीवों का वह साधारण श्राहार होता है । यही प्रक्रिया उनके श्वासोच्छ्वास की भी जानना चाहिए ( षट्सं. ५, ६, १२२ – पु. १४, पृ. २२६) । जहां एक का मरण होता है वहां एक साथ अनन्त साघारण जीवों का मरण होता है, इसी प्रकार जहां एक उत्पन्न होता है वे वहां सभी एक साथ उत्पन्न होते
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