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भावपरिवर्तन] ८४६, जैन-लक्षणावली
[भावपरिवर्तन मिथ्यादष्टि: कश्चिज्जीवः स सर्वजघन्यां स्वयोग्यां जीव ने अपने योग्य ज्ञानावरण प्रकृति की अन्त:ज्ञानावरणप्रकृतेः स्थितिमन्तःकोटीकोटीसंज्ञिकामा- कोड़ाकोडि नामक सबसे जघन्य स्थिति प्राप्त की, पद्यते । तस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोक- उसके उक्त स्थिति के योग्य असंख्यात लोक प्रमाण प्रमितानि षट्स्थानपतितानि तस्थितियोग्यानि छह स्थानपतित कषायाध्यवसायस्थान होते हैं। भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थाननिमि- इनमें सबसे जघन्य कषायाध्यवसायस्थान के निमित्त तान्यनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमित्तानि अनुभागाध्यवसायस्थान असंख्यात लोक प्रमाण भवन्ति । एवं सर्वजघन्यां स्थिति सर्वजघन्यं च होते हैं। इस प्रकार सर्वजघन्य स्थिति सर्वकषायाध्यवसायसायस्थानं सर्वजघन्यमेवानुभाग- जघन्य कषायाध्यवसायस्थान और सर्वजघन्य ही बन्धस्थानमास्कन्दतस्तद्योग्यं सर्वजघन्यं योगस्थानं अनुभागबन्धस्थान को प्राप्त करने वाले उस जीव भवति । तेषामेव स्थिति-कषायानुभागस्थानानां द्वि- के उसके योग्य सर्वजघन्य योगस्थान होता है। तीयमसंख्येयभागवृद्धियुक्तं योगस्थानं भवति । एवं उन्हीं स्थितिस्थानों, कषायस्थानों और अनुभागच तृतीयादिषु चतुःस्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयभाग- स्थानों का दूसरा योगस्थान असंख्यातभागवृद्धि से प्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थिति युक्त होता है। इसी प्रकार तृतीय प्रादि योगतदेव कषायाध्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वि- स्थानों में वे योगस्थान चार स्थानपतित श्रेणि के तीयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति । तस्य च योग- असंख्यातवें भाग मात्र होते हैं। इसके पश्चात् स्थानानि पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि उसी स्थिति और उसी कषायाध्यवसायस्थान को अनुभवाध्यवसायस्थानेषु प्रा. संख्येयलोकपरिसमाप्तेः। प्राप्त होने वाले उक्त जीव के द्वितीय अनुभागाएवं तामेव स्थितिमापद्यमानस्य द्वितीयं कषाया- ध्यवसायस्थान होता है । उसके योगस्थानों का क्रम ध्यवसायस्थानं भवति । तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्था- पूर्व के समान समझना चाहिए। यही क्रम प्रसंनानि योगस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृती. त्यात लोक प्रमाण तृतीय प्रादि अनुभागाध्यवसाययादिष्वपि कषायाध्यवसायस्थानेषु या असंख्येयलोक- स्थानों में जानना चाहिए। इस प्रकार उसी स्थिति परिसमाप्तेर्वृद्धिक्रमो वेदितव्यः । उक्ताया जघन्यायाः को प्राप्त उक्त जीव के द्वितीय कषायाध्यवसाय. स्थितेः समयाधिकायाः कषायादिस्थानानि पूर्ववत् । स्थान होता है। उसके भी अनुभागाध्यवसायस्थानों एवं समयाधिकक्रमेण मा उत्कृष्टस्थितेस्त्रिशत्साग- और योगस्थानों के क्रम को पूर्वके समान ही जानना रोपमकोटीकोटीपरिमितायाः कषायादिस्थानानि चाहिए। इस प्रकार से तृतीय प्रादि असंख्यात लोक वेदितव्यानि । अनन्तभागवृद्धिः असंख्येयभागबृद्धिः प्रमाण कषायख्यानों में वृद्धि के क्रम को जानना संख्येयभागवृद्धिः संख्येयगुणवृद्धि: असंख्येयगुणवृद्धिः चाहिए। पश्चात् पूर्वोक्त जघन्य स्थिति के एक अनन्तगुणवुद्धिः इमानि षट् वृद्धिस्थानानि । हानि- समय अधिक होने पर कषायादिस्थानों का क्रम पूर्व रपि तथैव । अनन्तभागवृद्धयनन्तगुणवृद्धिरहितानि के समान रहता है। इस प्रकार समयाधिक्रम से उक्त चत्वारि स्थानानि । एवं सर्वेषां कर्मणां ज्ञानावरण प्रकृति को उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च परिवर्तनक्रमो वेदि- प्रमाण स्थिति तक कषायादिस्थानों के क्रम को तव्यः, तदेतत्सर्वं समुदितं भावपरिवर्तनम् । (स. सि. पूर्व के समान जानना चाहिए। अनन्तभागवृद्धि, २-१०; मूला. वू. ८-१४) । २. सव्वासि पगदीणं असंख्येयभागवृद्धि, संख्येयभागवृद्धि, संख्येयगुणवृद्धि, घणुभाग-पदेसबंधठाणाणि । जीवो मिच्छत्तवसा असंख्येयगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि, ये छह वृद्धि परिभमिदो भावसंसारे ॥ (धव. पु. ४, पु. ३३४ के स्थान हैं। इसी प्रकार से हानि भी जानना उद्.) । ३. परिणमदि सण्णिजीवो विविहकसाएहिं चाहिए। पर उसमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तठिदिणिमित्तेहिं । अणुभागनिमित्तेहिं य वटतो गुणवृद्धि से रहित चार ही स्थान होते हैं। इस भावसंसारे । (कार्तिके. ७१; भ. प्रा. मूला. प्रकार ज्ञानावरण के समान शेष मूल प्रकृतियों और १७८१ उद्.)।
उनकी उत्तर प्रकृतियों में भी परिवर्तन के क्रम को १ किसी पंचेन्द्रिय, संजी, पर्याप्तक, मिथ्यावृष्टि, जानना चाहिए। इस प्रकार से यह भावपरिवर्तन
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