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संवर]
(अन. ध. २- ४१) । ३६. संब्रियते निरुध्यते आस्रवो येन सम्यग्दर्शनादिना गुप्त्यादिना वा जीवपरिणामेन स संवरः संवरणं संवर:- ज्ञानावरणादिकर्मयोग्यानां पुद्गलानां तद्भावपरिणतिनिवारणम् । ( भ. प्रा. मूला. ३८ ) । ३७. प्रात्रवाणामशेषाणां निरोधः संवरः स्मृतः । कर्म संवियते येनेत्यन्वयस्यावलोकनात् ।। प्रास्रवद्वाररोधेन शुभाशुभविशेषतः । कर्म संक्रियते येन संवरः स निगद्यते ॥ ( धर्मश. २१, ११७-१८ ) । ३८. द्रव्य भावास्रवस्यास्य निरोधः संवरः मतः । ( धर्मसं. श्री. १०-१६)। ३६. प्रास्रवस्य निरोधः संवरः । ( भावप्रा. टी. ६५) । ४०. आश्रवनिरोधरूपः संवरः । ( त वृत्ति श्रुत. १-४) । ४१. संवरः श्रागन्तुककर्म निरोधः । ( परमा त. ५ - ४) । ४२. आस्रवस्य निरोधो यः स संवर उदाहृतः । ( जम्बू. च. ३ - ५७ ) । १ जिस संयत के मन-वचन-काय के व्यापारस्वरूप योग में जब न शुभ परिणाम रूप पुण्य रहता है और न अशुभ परिणामरूप पाप रहता है तब उसके शुभ-अशुभ परिणाम से किये जाने वाले कर्म का संवर होता है । २ मिथ्यात्व श्रादि श्रास्रवों के निरोध का नाम संवर है । ४ काययोगादिरूप ब्यालीस (३+३६ त. सू. ६-६) प्रकार के श्राश्रव का जो निरोध होता है उसे संवर कहते हैं । संवरानुप्रेक्षा- देखो संवर । १. यथा महार्णवे नावो विवरापिधाने सति क्रमात् स्रुतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यंभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषित देशान्तरप्रापणं तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयः प्रतिबन्ध इति संवरगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा । ( स. सि. ६-७; त. वा. ६, ७, ७) । २. यथा वणिङ्महार्णवे यानपात्रविवर द्वारजला स्रवपिधाने निरुपद्रवमभिलषित देशान्तरं प्राप्नोति तथा मुनिरपि संसार्णवे शरीरपोतस्येन्द्रियविषपद्वारकर्मजला स्रवं तपसा विधाय मुक्तिवेला पत्तनं निर्विघ्नं प्राप्नोति इत्येवं संवरगुणानुचितनं संवराऽनुप्रेक्षा । (चा. सा. पृ. ८७ ) । ३. दष्टे दुष्टविषाहिनां गिनि यथा नष्टप्रचेष्टे विषं पुष्पजांगुलिकेन मन्त्रबलिना संस्तम्भितं तिष्ठति । सम्यक्त्व - व्रत - निष्कषायपरिणामाऽयोगताभिस्तथा मिथ्यात्वादिचतुः स्वहेतु विगमान्नूतनैनसां नागमः ॥ ( प्राचा. सा. १० - ४० ) ।
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११३३, जैन-लक्षणावली
[ संविग्न
१ जिस प्रकार समुद्र में नाव के भीतर हुए छिद्र के बन्द न करने पर क्रम से उसके द्वारा भीतर प्राते हुए जल से नाव के डूब जाने पर उसके श्राश्रित यात्रियों का विनाश श्रवश्यंभावी है तथा इसके विपरीत उस छिद्र के बन्द कर देने पर वे यात्री सकुशल अपने अभिलषित स्थान में पहुँच जाते हैं उसी प्रकार कर्मों के श्राने के द्वार को रोक देने पर कल्याण के होने में कुछ बाधा नहीं रहती, इस प्रकार संवर के गुणों का जो विचार किया जाता है उसे संवरानुप्रेक्षा कहते हैं । संवासानुमति - १. सावज्जसं किलिट्ठे ममत्तभावो उ संवासाणुमती । ( कर्मप्र. चू. उप.क. २८, २९) । २. यदा पुनः सावद्यारम्भप्रवृत्तेषु पुत्रादिषु केवलं ममत्वमात्रयुक्तो भवति नान्यत् किचित् प्रतिशृणोति श्लाघते वा तदा संवासानुमतिः । ( कर्मत्र. उप क. मलय. वृ. २८ - २६ ) |
२ पापयुक्त प्रारम्भ कार्य में पुत्रादिकों के प्रवृत्त होने पर जो केवल ममत्वभाव से युक्त होता है, पर न तो उसे स्वीकार करता है-प्रतीकार करता है और न प्रशंसा भी करता है, इस स्थिति को संवासानुमति कहा जाता है । संवाह - १. संवाहणं ति बहुविहरण्णमहासेलसिहरत्थं ॥ ( ति प ४ - १४०० ) । २. यत्र शिरसा धान्यमारोप्यते स संवाहः । ( धव. पु. १३, पृ. ३३६) । ३. संबाहः पर्वतनितम्बादिदुर्गे स्थानम् । ( श्रपपा. अभय वू. ३२ ) ।
१ अनेक प्रकार के वनों से व्याप्त पर्वत के ऊपर जो स्थान स्थित होता है उसे संवाह या संवाहन कहते हैं ।
संवाहक - श्रङ्गमर्दन कलाकुशलो भारवाहको वा संवाहकः । ( नीतिवा. १४-३४, पृ. १७४) । जो अंगमर्दन - शरीर की मालिश करने की कला में दक्ष होता है अथवा बोझा ढोता है उसे संवाहक कहा जाता है । संवाहन - देखो संवाह |
संविग्न - १. संविग्नो मोक्षसुखाभिलाषी । (श्रा. प्र. टी. १०८ ) । २. संविग्गो संसाराद् द्रव्य-भावरूपात् परिवर्तनाद् भयमुपगतः, विपरीतोपदेशे रागात् कोपाद्वा अनन्तकालं संसारपरिभ्रमणं मम मिथ्यादृष्टेः सतो भविष्यति इति यः सभयः । (भ.
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