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भिक्षु] ८६५, जन-लक्षणावली
.. [भिक्षु खाइम-साइमं परेसि लर्बु । जो तं तिविहेण णाणु- गुणतवोरए अनिच्चं, न सरीरं चाभिकंखए जे स कंपे, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खु ॥ आयामगं भिक्खू ॥ असई वोसट्टचत्तदेहे, अक्कुठे व हए चेव जवोदणं च, सीयं सोवीरजवोदगं च । णो लूसिए वा । पुढविसमे मुणी हविज्जा, अनिपाणे हीलए पिंडं णीरसं तु, पंतकुलाइं परिव्वए स अकोउहल्ले जे स भिक्खू ।। अभिभूत्र काएण परीभिक्खू ॥ सदा विविहा भवंति लोए, दिव्वा माणु- सहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं । विइत्तु जाईमरणं स्सया तहा तिरिच्छा । भीमा भयभेरवा उराला, जो महन्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ॥ हत्थसोच्चा ण विहेज्जई स भिक्खू ॥ वायं विविहं संजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए । अज्झप्परए समिच्च लोए, सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा। सुसमाहिअप्पा, सुत्तत्थं च विप्राणइ जे स भिक्खू ॥ पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, उवसंते अविहेडए स उवहिंमि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पु. भिक्ख ॥ असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइंदिए लाए। कयविक्कयसंनिहियो विरए, सव्वसंगावगए सव्वो विप्पमक्के । अणक्कसाई लहअप्पभक्खी, अजे स भिक्ख ॥ अलोल भिक्खु न रसेसू गिज्झे, चिच्चा गिह एगयरे स भिक्खू ॥ (उत्तरा. १५, उंछं चरे जीविन नाभिकंखे । इड्ढि च सकारण१-१६) । ३. निक्खम्ममाणाइ अ बुद्धवयणे, निच्चं पूअणं च, चए ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू । न चित्तसमाहियो हविज्जा । इत्थीण वसं न प्रावि गच्छे, परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज्ज न तं वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू | पुढवि न खणे न वइज्जा । जाणिन पत्तेग्रं पुण्णपावं, अत्ताणं ण समु. खणावए, सीग्रोदगं न पिए न पियावए। अगणिसत्थं कसे जे स भिक्खू ।। न जाइमत्ते न य रूवमत्ते न लाभजहा सुनिसिअं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥ मत्ते न सुएण मत्ते। मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिदे न धम्मज्भाणरए जे स भिक्खू ॥ पवेअए अज्जपयं छिदावए। बीआणि सया विवज्जयंतो, सच्चित्तं महामणी, धम्मे ठिपो ठावयई परं पि । निक्खम्म नाहारए जे स भिक्खू ।। वहणं तस-थावराण होइ, वज्जिज्ज कुसीललिङ्ग, न प्राविहासंकुहए जे स पुढवीतणकट्ठनिस्सिपाणं । तम्हा उद्देसिधे न भुंजे, भिक्खू ॥ तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए नोऽवि पए न पयावए जे स भिक्खू ॥ रोइन नाय- निच्चहिअट्ठअप्पा । छिदितु जाइमरणस्स बंधणं, पुत्तवयणे, अत्तसमे मन्निज्ज छप्पि काए । पंच य फासे उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई॥ (दशवै. सू. १०, महव्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खु ॥ चत्तारि- १-२१) । ४. भिदंतो यावि खुहं भिक्खू xxxi वमे सया कसाए, धुवजोणी हविज्ज बुद्धवयणे। (व्यव. भा. पी. द्वि. वि. १२)। ५. भिक्षणशीलो अहणे निज्जायरूवरयए, गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्षुः भिनत्ति वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भिक्षुः। (दशवै. भिक्ख ॥ सम्महिदी सया प्रमुढे, अस्थि है नाणे तवे नि.हरि. व. २-१५८); प्रारम्भपरित्यागाद्धर्मसंजमे अ। तवसा धुणइ पुराणपावगं, मणवयकाय- कायपालनाय भिक्षणशीलो भिक्षुः । (दशव. सू. हरि. सुसंवुडे जे स भिक्खू ॥ तहेव असणं पाणगं वा, वृ. ४-१०, पृ. १५२) । ६. क्षुधमष्टप्रकारं कर्म विविहं खाइम-साइमं लभित्ता। होही अदो सुए परे भिदानो भिक्षः। (व्यव. भा. पी. द्वि. वि. मलय.. वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ तहेव १२) । ७. विनिजितेन्द्रियग्रामः, सर्वजीवदयापरः । असणं पाणगं वा, विविहं खाइम-साइमं लभित्ता। सर्वशास्त्रार्थदर्शी च, भिक्षुर्मोक्षपदं व्रजेत् ।। (बुद्धिसा. छदिन साहम्मिमाण भुंजे, भुच्चा सज्झायरए जेस ५२) । भिक्खू ।। न य वुग्गहियं कहं कहिज्जा, न य कुप्पे १जो शरीर से व भाव से-अभिमान से-उन्नत निहुइंदिए पसंते । संजमे धुवं जोगेण जुत्ते, उवसंते न हो, विनीत हो, अपने को गुरु आदि के प्रति अविहेडए जे स भिक्खू ॥ जो सहइ ह गामकंटए, नमाने वाला हो अथवा विनय से पाठ प्रकार के अक्कोस-पहार-तज्जणाप्रो अ। भयभेरवसहसप्पहासे, कर्म को नमाने वाला हो, इन्द्रियों व मन का दमन समसुदुक्खसहेन जे स भिक्बू ॥ पडिमं पडिवज्जि करने वाला हो, शरीर से ममत्व को छोड़ चुका हो, श्रा मसाणे, नो भीयए भयभेरवाइं दिस्स । विविह- अनेक प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल परीषह व उप
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