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________________ भाष्य] ८६४, जैन-लक्षणावली [भिक्षु भाष्य - भाष्यो वर्ण-पद-वाक्याकारेण भाष्यत इति व याग आदि के घर को छोड़ना; दीनवृत्ति का त्याग कृत्वा । (त. भा. हरि. वृ. ५-२६)। करना, प्रासुक आहार के खोजने में सावधान रहना जो शब्द वर्ण, पद और वाक्य के प्राकार से बोला। तथा प्रागमोक्त निदोष भोजन के द्वारा जीवनयात्रा जाता है उसे भाष्य कहते हैं। यह छह प्रकार के को सफल करना; इस सबका नाम भिक्षाशुद्धि है। शब्द में अन्तिम है। जिस प्रकार गुणरूप सम्पदा का कारण साधु जन भाष्य जप-यस्तु परैः श्रूयते स भाष्यः । (निर्वा- की सेवा है उसी प्रकार चारित्ररूप सम्पदा का णक. पृ. ४)। कारण यह भिक्षाशुद्धि है। लाभ-अलाभ और जो जप दूसरों के द्वारा सुना जाता है उसे भाष्य सरस-नीरस भोजन में समान सन्तोष होने से इसे जप कहते हैं। भिक्षा कहा जाता है। भिक्षापरिमाण-भिक्षापरिमाणम् एकां भिक्षां भिक्षु-१. भिक्खू अणुन्नए विणीए नामए दन्ते द्वे एव वा गृह्णामि नाधिकामिति । (भ.पा. विजयो. दविए वोसट्टकाए संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोव२१९)। सग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवट्टिए ठिअप्पा संखाए मैं एक अथवा दो ही भिक्षाओं को ग्रहण करूंगा, परदत्तभोई भिक्ख ति वच्चे। (सत्र. कृ. १, १६, अधिक को नहीं; इस प्रकार के नियम का नाम ३)। २. मोणं चरिस्सामि समेच्च धम्म, सहिए भिक्षापरिमाण है। उज्जकडे णियाण छिन्ने । संथवं जहेज्ज अकामकामे, भिक्षाशुद्धि-१. भिक्षाशुद्धिः परीक्षितोभयप्रचारा अन्नायएसी परिव्वए स भिक्खू ॥ राम्रोवरयं चरेप्रमृष्टपूर्वापरस्वांगदेशविधाना आचारसूत्रोक्तकाल- ज्ज लाढे, विरए वेदवियाऽऽयरक्खिए। पन्ने अभिभूय देश-प्रकृति प्रतिपत्तिकुशला लाभालाभ-मानापमान- सव्वदंसी, जे कम्हि वि ण मुच्छिए स भिक्खू ॥ (त. श्लो. 'मान-प्रतिमान-')समानमनोवृत्तिः लोक- अक्कोसवहं विइत्तु धीरे, मुणी चरे लाढे णिच्चमायगर्हितकुलपरिपर्जनपरा चन्द्रगतिरिव हीनाधिकगृहा गुत्ते । अव्वग्गमणे असंपहिछे, जे कसिणं अहियासए शिष्टोपस्थाना दीनानाथ-दानशाला-विवाह-यजन- स भिक्ख ॥ पंतं सयणासणं भइत्ता, सीउण्हं विविहं गेहादिपरिवर्जनोपलक्षिता (त. श्लो. 'त-') दीनवृत्ति- च दंसमसगं । अव्वग्गमणे असंपहिछे, जे कसिणं विगमा प्रासुकाहारगवेषणप्रणिधाना आगमविहित- अहियासए स भिक्खू ॥ णो सक्कियमिच्छती न पूयं, निरवद्याशनपरिप्राप्तप्राणयात्राफला, तत्प्रतिबद्धा हि णो वि य वंदणगं कुप्रो पसंसं । से संजए सुव्वए चरणसंपत् गुणसम्पदिव साधुजनसेवानिबन्धना सा तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥ जेण पुण लाभालाभयोः सुरस-विरसयोश्च समसन्तोषाद्भिक्षेति जहाइ जीवियं, मोहं वा कसिणं मियच्छई। नरभाष्यते । (त. वा. ६, ६, ६ त. श्लो. ६-६; नारिं पजहे सया तवस्सी, ण य कोऊहलं उवेइ स चा. सा.पृ. ३५)। २. वाश्चित्त-काय-कारित-कृता- भिक्खू ।। छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्खं, सुमिणं लक्षण नुमतकर्मणा। नवभेदं तदेतेन कर्मणा परिवजिता ॥ दंड वत्थविज्जं । अंगवियारं सरस्सविजयं, जे विज्जायोदगमोत्पादनेषणर्दोषः संयोजनेन च । प्रमाणाडार- हिण जीवई स भिक्ख || मंतं मूलं विविहं विज्जधूमाख्य यंपेता कारणान्विता ॥ एषणासमितिप्रोक्त- चितं, वमण-विरेयण-धूम-नेत्त-सिणाणं । आउरे क्रमाप्ताशनसेवना । भिक्षाशुद्धिर्गणवातरक्षादक्षा सरणं तिगिच्छियं च, तं परिन्नाय परिचए स स्मृता नुता ।। (प्राचा. सा. ८, १६-१८)। भिक्खू ॥ खत्तिय-गण-उग्ग-रायपुत्ता, माहणभोइय १ भिक्षा को जाते हुए दोनों ओर देखकर गमन विविहा य सिप्पिणो। नो तेसि वयइ सिलोगपूर्य, करना, अपने पूर्वापर शरीर के भाग का विधिपूर्वक तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खु ।। गिहिणो जे प्रतिलेखन करना; आचारशास्त्र में निर्दिष्ट काल, पवइएण दिट्ठा, अप्पव्वइएण व संथुया हवेज्जा । देश और प्रकृति के जानने में कुशल होना; लोक- तेसि इहलोइयप्फलटा, जो संथवं न करेइ स निन्द्य कुलों को छोड़ना, चन्द्रगति के समान भिक्ख ॥ सयणासण-याण-भोयणं, विविहं खाइमहोन-अधिक घरों में जाना, उपस्थान की विशेषता साइमं परेसिं । अदए पडिसेहिए नियंठे, जे तत्थ ण से सहित होना; दीन, अनाथ, दानशाला, विवाह पउस्सई स भिक्खू ।। जं किंचि आहारपाणं विविहं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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