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भव]
८३५, जेन-लक्षणावली
[भवपरिवर्तन वृ. पृ. २६; श्रा. प्र. टी. ४८; पंचसू. हरि. ध्या. अणुयोगद्दारं केण कम्मेण णेरइय-तिरिक्ख-मणुसप. २)। ४. प्राय मकर्मोदयविशेषापादितपर्यायो देवभवा धरिजति त्ति परूवेदि। (धव. पु. ६, पृ. भवः। प्रात्मनो यः पर्यायः प्रायूषो नाम्नश्चोदय- २३५) । विशेषाच्छेषकारणापेक्षादाविर्भवति साधारणलक्षणो किस कर्म के उदय से जीव नारकी, तियंच, मनुष्य भव इत्युच्यते । (त. वा. १, २१, १) । ५. उत्तरो- और देव की पर्याय को धारण किया करते हैं। त्तरदेहस्य पूर्वपूर्वधियो भवः । (न्यायवि. २-७२, पृ. इसकी प्ररूपणा जिस अनुयोगद्वार में की जाती है १०२)। ६. पूर्वशरीरपरित्यागद्वारेणोत्तरशरीरोपादा- उसका नाम भवधारणीय अनुयोगद्वार है । यह कर्मनं भवः । (धव. पु. १४, पृ. ४२५); उप्पण्णपढम- प्रकृतिप्राभूत के कृति प्रादि चौबीस अनुयोगद्वारों में समयप्पहुडि जाव चरिमसमो त्ति जो अवत्थावि- अठारहवां अनुयोगद्वार है। सेसो सो भवो णाम । (धव. पु. १५, पृ. ६-७)। भवन-१. वलहि-कूडविवज्जिया सुर-णरावासा ७. नामायुरुदयापेक्षो नुः पर्यायो भवः स्मृतः । (त. भवणाणि णाम । (धव. पु. १४, पृ. ४६५)। श्लो. १, २१, २)। ८. आयुष्कर्मोदयनिमित्तको २. भवनं त्वायामापेक्षया पादोनसमच्छ यमेव । जीवस्य पर्यायः भवः । (त. वृत्ति श्रुत. १-२१)। (विपाक. अभय. वृ. २-१)। १ जीव को जो अवस्था रक्षण से रहित, अशुभ, १ जो देवों और मनुष्यों के निवासस्थान छज्जे विनश्वर, दुःखस्वरूप और प्रात्मस्वरूप से भिन्न और कूट से रहित होते हैं उन्हें भवन कहा जाता होती है उसका नाम भव (संसार) है। २ प्रायु है। २ लम्बाई की अपेक्षा जिसकी ऊंचाई एक नामक कर्म के उदय के निमित्त से जो जीव की चौथाई कम हुआ करती है वह भवन कहलाता है । अवस्था होती है उसे भव कहते हैं। ३ जिसमें भवनवासी-१. भवनेषु वसन्तीत्येवं शीला भवनप्राणी कर्म के वशीभूत होते हैं उसे भव कहा वासिनः । (स. सि. ४-१०, बृहत्सं. मलय. व. २3 आता है।
प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-३८) । २. भवनेषु वसन्तीति भवक्षयनिबन्धन प्रतिपात--तत्थ भवक्खयणि- भवनवासिनः । (त. भा. ४-११)। ३. भवनेषु बंधणो णाम उवसमसेढिसिहरमारूढस्य तत्थेव झी- वसनशीला भवनवासिनः । भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला णाउअस्स कालं काढूण कसाएसु पडिवादो। (जयध. भवनवासिन इति प्रथमनिकायस्येयं सामान्यसंज्ञा । -कसायपा. पृ. ७१४, टि. २)।
(त. वा. ४, १०, १)। ४. भवनवासिनामकर्मोदये उपशमश्रेणी के शिखर पर चढ़े हुए, अर्थात् ग्यारहवें सति भवनेषु वसनशीला भवनवासिनः । (त. श्लो. गुणस्थानवर्ती, जीव का प्रायु का क्षय हो जाने से ४-१०) । ५. भवनेषु वसन्तीत्येवंस्वभावाः भवनमरण को प्राप्त होकर जो कषायों में पतन होता वासिनः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-१०)। है उसे भवक्षयप्रतिपात कहते हैं।
१जो देव स्वभावतः भवनों में निवास करते हैं वे भवग्रहणभव - गलिदभुज्जमाणाउअस्स उदिण्ण- भवनवासी कहलाते हैं । ४ भवनवासी नामकर्म के अपुव्वाउकम्मस्स पढमसमए उप्पण्णजीवपरिणामो उदय से भवनों में रहने वाले देवों को भवनवासी वंजणसण्णिदो पुव्वसरीरपरिच्चाएण उत्तरसरीरगह- कहा जाता है। णं वा भवग्गहणभवो णाम । (धव. पु. १६, पृ. भवपरिवर्तन--देखो भवसंसार । १. नरकगतौ ५१२)।
सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि, तेनायुषा तत्रोत्पन्नः जीवनकाल का नाम भवनग्रहण है। जिसकी भुज्य- पुनः परिभ्रम्य तेनैवायुषा जातः, एवं दशवर्षसहस्रामान प्रायु क्षीण हो चुकी है तथा अपूर्व प्रायु उदयको णां यावन्तः समयास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जातो मृतः प्राप्त हो चुकी है उसके प्रथम समय में जो व्यञ्जन पुनरेकैकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिशत्सागरोषमाणि नामक परिणाम होता है उसको, अथवा पूर्वशरीर परिसमापितानि । ततः प्रच्युत्य तिर्यग्गतावन्तर्मुहूर्तायुः को छोड़कर नवीन शरीर के ग्रहण करने को भव- समुत्पन्न: पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त्रीणि पल्योपमानि तेन ग्रहणभव कहा जाता है।
परिसमापितानि । एवं मनुष्यगतौ च । देवगतौ नारकभवधारणीय अनुयोगद्वार-भवधारणीय ति वत् । अयं तु विशेषः--एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परि
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