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ध्याख्याप्रज्ञप्ति)
२०४४, जैन-लक्षणावलो
[व्याहत
पादकं अष्टविंशतिसहस्राधिकद्विलक्षपदप्रमाणं व्या- जो सदा रोगी रहता हमा स्वाध्याय, अावश्यक ख्याप्रज्ञप्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। ७. दुग- और भिक्षाटन प्रादि में असमर्थ रहता है वह दुगडतियसुण्णं विवायपण्णत्तिअंगपरिमाणं । व्याधित कहलाता है। णाणाविसेसकहणं वेंति जिणा जत्थ गणिपण्हा ॥ व्यान-व्यान यति व्याप्नोतीति व्यानः । (योगशा. कि अत्थि णत्थि जीवो णिच्चोऽणिच्चोऽहवाह किं स्वो. विव.५-१३) । एगो। वत्तव्यो किमवत्तव्यो हि कि भिण्णो । गुण- जो वायु समस्त शरीर को व्याप्त करती है उसे पज्जयादभिण्णो सट्रिसहस्सा गणिस्स पण्हेवं । जत्थ- व्यान कहा जाता है। धि तं वियाण विवाहपण्णत्तिमंगं खु ॥ (अंगप. १, व्याप्ति-१. व्याप्तिहि साध्य-साधनयोरविनाभावः । ३६-३८, पृ. २६४)।
(न्यायकु. १०, पृ ४१८-१९); लिंगात् हेतोः, १ जिस अंगश्रुत में क्या जीव है, क्या जीव नहीं x x x साध्येनेष्टावाधितासिद्ध विशेषणविशिहै, वह कहां उत्पन्न होता है, और कहां से प्राता ष्टेन अविनाभावो व्याप्तिः। (न्यायकु. १२, पृ. है; इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का निरूपण किया ४३५)। २. यावान् कश्चिद् धमवान् प्रदेशः स जाता है उसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग है। वह सर्वोऽपि अग्निमान् व्याप्ती xxx॥ (सिद्धिवि. दो लाख भट्राईस हजार (२२८०००) पद प्रमाण
१ साध्य और साधन में जो अविनाभाव होता है व्याख्याप्रज्ञप्तिपरिकर्म (दृष्टिवादभेद)-१. उसका नाम व्याप्ति है। २ जितना कुछ भी धम वियाहपण्णत्ती णाम चउरासीदिलक्ख छत्तीसपदसह- वाला प्रदेश होता है वह सब अग्नि से व्याप्त अवश्य स्सेहि ८४३६००० रूविधजीवदव्वं अरूविअजीवदव्वं होता है, इस प्रकार के साध्य-साधन के अविनाभाव भवसिद्धिय-प्रभवसिद्धियासिं च वण्णेदि । (धव. पु. के निश्चय को व्याप्ति कहते हैं। १.प.११०); व्याख्याप्रज्ञप्ती षट्त्रिंशत्सहस्राधिक- व्यायाम - शरीरायासजननी क्रिया व्यायामः । चतुरशीतिशतसहस्रपदायां ८४३६००० रूविग्रजी- (नीतिवा. २५-१५, पृ. २५२) । बदव्यं अरूपिग्रजीवद्रव्यं भव्याभव्यस्वरूपं च शरीर को श्रम उत्पन्न करने वाली क्रिया का नाम निरूप्यते । (धव. पु. ६, पृ. २०७)। २. जा पुण व्यायाम है। विवाहपण्णत्ती सा रूवि-अरूवि-जीवाजीवदव्वाणं व्यावहारिक काल -ज्योतिःशास्त्र यस्य मानमभवसिद्धिय-अभयसिद्धियाणं पमाणस्स तल्लक्खणस्स च्यते समयादिकम् । स व्यावहारिक: काल: कालअणंतर-परंपरसिद्धाणं च अण्णेसिं च वत्थूणं वण्णणं वेदिभिरामतः ॥ (योगशा. स्वो. विव. १६, प. कूणइ। (जयघ. १, पृ. १३३)। ३. चतुरशीति- ११३) । लक्ष-षटत्रिशत्सहस्रपदपरिमाणा जीवादिद्रव्याणां ज्योतिष शास्त्र में जिसका मान समय प्रादि कहा रूपित्वारूपित्वादिस्वरूपनिरूपिका व्याख्याप्रज्ञप्तिः। जाता है वह व्यावहारिककाल कहलाता है। ( टी., प्र. १७४)। ४. रूप्यरूपिजीवा- व्याहत-व्याहतं नाम यत्र पूर्वेण परं व्याहन्यते. जीवद्रव्याणां भव्याभव्यभेदप्रमाणलक्षणानां अनन्तर- यथा-कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्ता नास्ति च परम्परासिद्धानां अन्येषां च वस्तूनां वर्णनं करोति । कर्मणाम् । इत्यादि । (प्राव. नि. मलय व. ८५१ (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३६१)।
पृ. ४८३)। १ जिसमें चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा जिस वचन में पूर्व के द्वारा प्रागे का बाघा जाता है रूपी व प्ररूपी अजीवद्रव्य तथा भवसिद्धिक (भव्य) वह व्याहत दोष से दूषित होता है। जैसे-कर्मों का और भवसिद्धिक जीवराशि का वर्णन किया कार्य हैं और उनका फल भी है पर उनका कर्ता नहीं जाता है। उसे व्याख्याप्रज्ञप्तिपरिकर्म (दृष्टिवाद है, इस वाक्य में 'उनका कर्ता नहीं है' यह कहने से के अन्तर्गत) कहा जाता है।
उसके पूर्व में निर्दिष्ट कर्मों का अस्तित्व व फल व्याधित-व्याधितः सदा रोगी स्वाध्यायावश्यक- कता के विना वाधा को प्राप्त होता है। भिक्षाटनाद्यक्षमः । (प्राचा. दि.पू. ७४) ।
के ३२ दोषों में ग्यारहवां है।
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