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व्यबहारोऽमूढदृष्टि] १०४३, जेन-लक्षणावली
[व्याख्याप्रज्ञप्ति प्राणियों का घात है उसे व्यवहारहिंसा कहते हैं। उसे व्यसन कहते हैं। २ जो छूत (जुमा) प्रादि व्यवहारामूढदृष्टि - वीतरागसर्वज्ञप्रणीतागमा- तीवकषाय के वश उत्पन्न होने वाले दुर्ध्यान से र्थाद् बहिर्भूतः कुदृष्टिभिर्यत्प्रणीतं धातुवाद-खन्यवाद- चेतना को प्राच्छादित करते हुए प्राणी को श्रेय. हरमेखल - क्षुद्रविद्याव्यन्तरविकुर्वणादिकमज्ञानिजन- स्कर मार्ग से दूर किया करते हैं, उन्हें व्यसन कहा चित्तचमत्कारोत्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढ- जाता है। भावेन धर्मबुद्ध्या तत्र रुचि भक्ति न कुरुते स एव व्याकरण --अपरिमितार्थोपलब्धिमूलभूतपदरत्नराव्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते । (बृ. द्रव्यसं. ४१)।
रुच्यते । (ब. द्रव्यसं. ४१)। शिरोहणं व्याकरणम् । (गद्यचि. पृ. ५४) । वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रागम के अर्थ से जो अपरिमित अर्थ के मूल कारणभूत पदरूप रत्नों जो मिथ्यादष्टि बहिर्भूत हैं उनके द्वारा उपदिष्ट की राशि के प्ररोहण का कारण है वह व्याकरण धातुवाद, खन्यवाद, हरमेखल, क्षुद्र विद्या और कहलाता है। व्यन्तरदेवों की विक्रिया प्रादि रूप अन्य जनों के व्याकरणसूत्र-वागरणसुत्तं ति व्याख्यानसूत्रमन में चमत्कार के उत्पन्न करने वाले कार्य को मिति . व्याक्रिय तेऽनेनेति व्याकरणम, प्रतिवचनमित्यदेखकर मढतापूर्वक धर्मबुद्धि से जो उसमें रुचि या र्थः। (जयध.---कसायपा. पृ. ८८२, टि. १)। भक्ति नहीं करता उसे व्यवहार-अमूढदृष्टि कहा व्याकरणगत वस्तु के व्याख्यान करने वाले सूत्र को जाता है।
व्याकरणसूत्र कहते हैं। व्यवहारी-व्यवहरतीत्येवंशीलो व्यवहारी व्यव- व्याख्याप्रज्ञप्ति--१. व्याख्याप्रज्ञप्तो, षष्ठिव्या. हारक्रियाप्रवर्तकः, प्रायश्चित्तदायीति यावत् ।। करणसहस्राणि-किमस्ति जीवः, [कि] नास्ति, (व्यव. भा. पी. मलय. वृ. १, पृ. ३)। इत्येवमादीनि निरूप्यन्ते । (त. वा. १, २०, १२)। व्यवहार अनुष्ठान में जो प्रवृत्ति कराता है- २. वियाहपण्णत्तीणाम अंगं दोहि लक्खेहि अट्ठावीसप्रायश्चित्त देता है --उसे व्यवहारी कहते हैं। सहस्से हि पदेहि २२८००० किमत्थि जीवो, कि व्यवहित-व्यवहितं नाम अन्तहितम्, 'यत्र प्रकृत- णस्थि जीवो इच्चेबमाइयाई सटिवाय रणसहस्साणि मुत्सृज्याप्रकृतं विस्तरतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमधि- परूवेदि । (धव. पु. १, पृ. १०१); व्याख्याप्रज्ञक्रियते, यथा हेत्कथामधिकृत्य सुप्तिङ्न्तपदलक्षण- प्तौ स-द्विलक्षाष्टाविंशतिपदसहस्रायां [२२८०००] प्रपञ्चमर्थशास्त्रं चाभिधाय पुनर्हेतुवचनम् । (प्राव. षष्ठिव्याकरणसहस्राणि किमस्ति जीवो नास्ति नि. मलय. वृ. ८८२, पृ. ४८३)।
जीवः क्वोत्पद्यते कुत प्रागच्छतीत्यादयो निरूप्यन्ते । जिस वचनव्यवहार में प्रकृत को छोड़कर अप्रकृत (धव. पु. ६, पृ. २००)। ३. वियाहपण्णत्तीणाम का विस्तार से व्याख्यान करते हए तत्पश्चात पुनः प्रकृत का प्राश्रय लिया जाता है वह वचन व्यवहित छेयण जणि (ज्जणी) यसुहमसुहं च वण्णेदि। (जयनामक दोष से दूषित होता है। जैसे -हेतुविषयक ध. १, पृ. १२५)। ४. अष्टाविंशतिसहस्र-लक्षद्वयचर्चा के प्रकरण में सुबन्त अथवा तिङन्त पदों के पदपरिमाणा जीवः किमस्ति नास्तीत्यादिगणघर. लक्षण और अर्थशास्त्र का व्याख्यान करके तत्प- षष्ठिसहस्रप्रश्नव्याख्याविधात्री व्याख्याप्रज्ञप्तिः । श्चात् प्रकृत हेतु का कथन करना। यह वचन के (श्रुतभ. टी. ७, पृ. १७३) । ५. विशेष: र. ३२ दोषों में २०वां है।
प्रकारैः, पाख्यातं किमस्ति जीवः किं नास्ति जीवः व्यसन-१. व्यस्यतीत्यावर्तयत्येनं पुरुष श्रेयस इति किमेको जीवः किमनेको जीवः किं नित्यो जीव: व्यसनम । (नीतिवा. १६-१, पृ. १७७) । २. जा- किमनित्यो जीवः किं वक्तव्यो जीवः किमवक्तव्यो ग्रत्तीवकषायकर्कशमनस्कारापितैर्दुष्कृतश्चैतन्यं तिर- जीवः इत्यादीनि षष्ठिसहस्रसंख्यानि भगवदह तीर्थयत्तमस्तरदपि द्यूतादि यच्छ्रे यसः । पुंसो व्यस्यति करसन्निधौ गणधरदेव प्रश्नवाक्यानि प्रज्ञाप्यन्ते तद्विदो व्यसनमित्याख्यान्ति xxx ॥ (सा. घ. कथ्यन्ते यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्ति म । (गो. जी. ३-१८)।
म. प्र. व जी. प्र. ३५६)। ६. जीवः किमस्ति १ जो पुरुष को कल्याणमार्ग से भ्रष्ट करता है नास्ति वा इत्यादिगणधरकृतप्रश्नषष्ठिसहस्रप्रति.
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