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भुक्त] ८६७, जैन-लक्षणावलो
[भूतनगमनय जो भयभीत रहता है उसे भीर कहते हैं। यह श्रानक भूत (व्यन्तरविशेष)-१. भूताः श्यामाः सुरूपाः के २१ गुणों में छठा है।
सौम्याः पापीवरा नानाभक्तिविलेपनाः सुलसध्वजाः भुक्त-रज्ज-महन्वयादिपरिपालणं भुत्ती णाम, तं कालाः। (त. भा. ४-१२)। २. भूताः सुरूपाः भुत्तं XXX । (धव. पु. १३, पृ. ३५०)। सौम्या नानाभक्तिविलेपनाः । (बृहत्सं. मलय. वृ. राज्य और महावतों आदि के परिपालन को भुक्त पृ. ५८)। या भुक्ति कहते हैं।
१ जो व्यन्तरदेव वर्ण से श्याम, सुन्दर, प्रियदर्शन, भुक्ति-देखो भुक्त।
कुछ स्थूल, अनेक प्रकार के विलेपनों से सहित और भुक्तिरोध-देखो अन्न-पाननिरोध । भुक्तिरोधो- लाल वर्ण वाली ध्वजा से युक्त होते हैं उनका नाम ऽन्न-पानादिनिषेधः । सोऽपि दुर्भावाद् बन्धवदतिचारः। भूत है। Xxx। (सा. ध. स्वो. टी. ४-१५)। भूत (प्राणी)-१. तासु तासु गतिषु कर्मोदयवशाभोजन पान को रोक देना, इसका नाम भुक्तिरोध द्भवन्तीति भूतानि, प्राणिन इत्यर्थः । (स. सि.६-१२)। है। यह अहिंसाणव्रत का एक अतिचार है। २. प्रायुर्नामकर्मोदयवशाद्भवनाद् भूतानि । तासु तासु भजाकार उदय-जमेण्हि पदेसग्गमुदिण्णं तत्तो योनिष्वायुर्नामकर्मोदयवशाद् भवनाद् भूतानि, सर्वे अणंतर उवरिमसमए बहुपदेसग्गे उदिदे एसो भजगारो प्राणिनः इत्यर्थः। (त. वा. ६, १२, १)। ३. आयु. णाम । (धव. पु. १५, पृ. ३२५) ।
र्नामकर्मोदयवशाद् भवनाद् भूतानि सर्वे प्राणिनः । जितना प्रदेश पिण्ड इस समय उदय को प्राप्त है, (त. श्लो. ६-१२)। ४. उक्तं च -प्राणा द्वि-त्रिअनन्तर प्रागे के समय में उससे अधिक प्रदेश पिण्ड चतुः प्रोक्ताः भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेके उदय को प्राप्त होने पर वह भुजाकार (भूयस्कार) न्द्रिया प्रोक्ताः शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ।।१।। इति, प्रदेशोदय कहलाता है।
यदि वा Xxx कालत्रयभवनात् भूताः । भजाकार उदीरणा-जानो एण्हि पयडीयो उदी- (प्राचारा. सू. शी. वृ. १, १, ६, ५१) । रेदि तत्तो अणंतरप्रोसक्काविदे समए अप्पदरियानो १ जो कर्म के उदय के वशीभूत होकर उन उन उदीरेदि ति एसो भुजगारो। (धव. पु. १५, पृ. गतियों में होते हैं उन प्राणियों का नाम भूत है।
४ तरुनों (वनस्पति जीवों) को भूत कहा जाता जितनी प्रकृतियों को इस समय उदीरणा करता है, है । अथवा जो तीनों कालों में होते हैं वे भूत कहअनन्तर पीछे के समय में उससे कम प्रकृतियों को लाते हैं। उदोरणा के होने पर वह भुजाकार उदीरणा कह- भूत काल-तदेव (क्रियापरिणतं द्रव्यम्) काललाती है।
___वशादनुभूतवर्तनासम्बन्धं भूतम्, कालाणुरपि भूतः । भुजाकार बन्ध-देखो भूयस्कारबन्ध । तत्र प्रथमो (त. वा. ५, २२, २५) । (भुजाकारबन्धो) अल्पप्रकृतिकं बध्नतो बहुप्रकृति- जो क्रियापरिणत द्रव्य वर्तना सम्बन्ध का अनुभव बन्धे स्यात् । (गो. क. जी. प्र. ५६४)। कर चुका है उसको तथा कालपरमाणु को भी थोड़ी प्रकृतियों को बांधते हुए आगे बहुत प्रकृतियों भूत कहा जाता है। के बांधने पर उसे भुजाकार बन्ध कहा जाता है। भूतनैगमनय-१. णिव्वत्तदव्वकिरिया वट्टणकाले भुजाकार संक्रम-जे एण्हि अणुभागस्स फद्दया दु जं समाचरणं । तं भूयणइगमणयं जह अड णिव्वुसंकामिज्जति ते जइ अणंतरविदिक्कते समए संका. इदिणं वीरे ।। (नयच. दे. ३३; द्रव्यस्व. प्र. नयच. मिदफद्दएहितो बहुमा होति तो एसो भुजगारसंकमो। २०६)। २. प्रतीते वर्तमानारोपणं यत्र स भूतनै(धव. पु. १६, पृ. ३६८)।
गमः, यथा अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी अनभाग के जो स्पर्धक इस समय संक्रमण को प्राप्त मोक्षं गतः । (पालापप. पृ. २१६) । ३. अतीतं हो रहे हैं, यदि वे अनन्त र पिछले समय में संक्रम भूतम्, अतीतार्थं विकल्परूपं वर्तमानारोपणम् अर्थ को प्राप्त कराये गये उक्त स्पर्धकों से बहुत होते हैं पदार्थ साधयति स भूतनगमः । (कातिके. टी. तो यह भुजाकारसंक्रम कहलाता है।
२७१)।
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