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प्रदोष ]
बुकसंक्रमेण संक्रमय्य यदनुभवति स ( पंचसं. मलय. वृ. ४८, पृ. २५५) । उदय में नहीं आने वाली प्रकृतियों के प्रबाधाकाल के बीत जाने पर उनके कर्मप्रदेशों को स्तिबुक संक्रमण के द्वारा प्रतिसमय उदय में आने वाली प्रकृतियों में संक्रमित करके प्रमुभव करने को प्रदेशोदय कहते हैं ।
७६५, जैन - लक्षणावली
प्रदेशोदयः ।
प्रदोष- - १. तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते कर्याचदनभिव्याहरतः अन्तः पशून्यपरिणामः प्रदोषः । ( स. सि. ६-१० ) । २. ज्ञान कीर्तनानन्तरमन भिव्याहरतोऽन्तः पशून्यं प्रदोषः । मत्यादिज्ञानपञ्चकस्य मोक्षप्रापणं प्रति मूलसाधनस्य कीर्तने कृते कस्यचित् अनभिव्याहरतः अन्तः पशून्यपरिणामो यो भवति स प्रदोष इति कथ्यते । (त. वा. ६, १०, १ ) । ३. कस्यचित्तत्कीर्तनानन्तरमनभिव्याहरतोऽन्तः पशून्यं प्रदोष: । ( त श्लो. ६-१० ) । ४. सम्यग्ज्ञानस्य सम्यग्दर्शनस्य च सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शनयुक्तस्य पुरुषस्य वा त्रयाणां मध्ये अन्यतमस्य केनचित्पुरुषेण प्रशंसा विहिता, तां प्रशंसामाकर्ण्य अन्यः कोऽपि पुमान् पशून्यदूषितः स्वयमपि ज्ञान-दर्शनयोस्तद्युक्तपुरुषस्य वा प्रशंसां न करोति श्लाघनं न व्याहरति, कत्थनं नोच्चारयते, तदन्तः पशून्यम् अन्तर्दुष्टत्वं प्रदोष उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१० ) ।
१
किसी पुरुष के 'द्वारा मोक्ष के साधनभूत तत्त्वज्ञान के कीर्तत करने पर जो व्यक्ति कुछ भाषण नहीं कर रहा है उसके अन्तःकरण में जो मत्सरभाव या दुष्ट परिणाम उत्पन्न होता है वह प्रदोष कहलाता है ।
प्रद्वेष- इष्टदार - वित्तहरणादिनिमित्तः कोषः प्रद्वेषः । ( भ. प्रा. विजयो. ८०७) ।
प्रिय स्त्री और धन श्रादि के हरण करने के निमित्त से जो क्रोध उत्पन्न होता है, उसका नाम प्रद्वेष है। प्रधानतया नामपद- देखो प्राधान्यपद । से कि तं पाहण्णयाए ? असोगवणे सत्तवण्णवणे चंपगवणे चवणे नागवणे पुन्नागवणे उच्छुवणे दक्खवणे सालिवणे, से तं पाहण्णयाए । (अनुयो. सू. १३०, पृ. १४२) ।
अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक, आन, नाग, पुन्नाग, इक्षु, द्राक्षा और शालि आदि की प्रधानता से जो अशोकवन व सप्तपर्णवन इत्यादि नाम बोले जाते हैं,
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[प्रपातनकुशील
उन्हें प्रधाननामपद कहा जाता है।
प्रधानद्रव्यकाल - तत्थ पहाणदव्वकालो णाम लोगागासपदेसपमाणो से सपंचदव्वपरिणमनहेदुभूदो रयणरासि व्व पदेसपचयविरहियो प्रमुत्तो प्रणाइणिहणो । ( धव. पु. ११, पृ. ७५) ।
जो लोकाकाश के समान असंख्यात प्रदेश प्रमाण है, शेष पांच द्रव्यों के परिवर्तन का कारण है, रत्नों की राशि के समान प्रदेशसमूह से रहित है तथा अमूर्त व अनादि निधन है उसे तद्व्यतिरिक्त नोश्रागम प्रधान द्रव्यकाल कहा जाता है । प्रधानभावशुद्धि१-१. दंसण-नाण-चरिते तवोविसुद्धी पहाण माएसो । जम्हा उ विसुद्ध मलो तेण विसुद्ध हवइ सुद्धो || ( दशवं. नि. २८७ ) । २. दर्शन -ज्ञान- चारित्रेषु दर्शन - ज्ञान - चारित्रविषयातथा तपोविशुद्धिः प्राधान्यादेश इति यद्दर्शनादीनामादिश्यमानानां प्रधानं सा प्रधानभावशुद्धिः । ( दशवं. नि. हरि वृ. २८७ ) ।
२ दर्शन, ज्ञान एवं चारित्रविषयक शुद्धि और तप की शुद्धि को प्रधानता की अपेक्षा से प्रधानभावशुद्धि कहा जाता है । प्रधानता जैसे - क्षायोपशमिक की अपेक्षा क्षायिक दर्शनादि के तथा तप में अभ्यन्तर तप के श्राराधन को प्रधानता प्राप्त है। इससे साधु निर्मल होता है ।
प्रध्वंसाभाव - १. कार्यस्यैव x x x परेण ( कालेन ) विशिष्ट : ( अर्थः) प्रध्वंसाभाव: । (प्रष्टस. १ - १०, पृ. ε६) । २. यदुत्पत्तौ कार्यस्यावश्यं विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसाभावः । (प्र. न. त. ३ - ५७ ) । ३. नास्तिता पयसां दध्नि प्रध्वंसाभावलक्षणम् । ( प्रमाल. ३८५) ।
१ प्रागामी काल से अगली पर्याय से विशिष्ट जो कार्य है वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है । ३ दही मैं जो दूध का प्रभाव है वह प्रध्वंसाभाव स्वरूप है। प्रपातनकुशील- त्रसानां कीटादीनां वृक्षादीनां पुष्प फलादीनां गर्भस्य परिशातनं अभिसारिकं च यः करोति शापं च प्रयच्छति स प्रपातनकुशीलः । (भ. श्री. विजयो. १६५० ) ।
जो त्रस जीवों; वृक्षादिकों और पुष्प फलादिकों के गर्भ का विनाश करता है, श्रभिसरण क्रिया ( प्रियसमागम ) को करता है, तथा शाप देता है उसे प्रपातनकुशील कहा जाता है ।
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