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प्रदेशसंक्रम] ७६४, जन-लक्षणावली
[प्रदेशोदय प्रदेशसंक्रम-१. जं दलियमन्नपगई निज्जइ सो प्रदेशसंहार-विसर्प-कार्मणशरीरवशात् उपात्तसंकमो पएसस्स । उव्वलणो विज्झामो अहापवत्तो सूक्ष्म-बादरशरीरानुवर्तनं प्रदेशसंहार-विसर्पः । अमूगुणो सव्वो। (कर्मप्र. सं. क. ६०)। २. जं पदेस- स्विभावस्याप्यात्मनः अनादिसम्बन्धं प्रत्येकत्वात् ग्गमण्णपडि णिज्जदे जत्तो पयडीदो तं पदेसग्गं कथंचिन्मूर्ततां बिभ्रतः लोकाकाशतुल्यप्रदेशस्यापि णिज्जदि तिस्से पयडीए सो पदेससंकमो। जहा कार्मणशरीरवशात् उपात्तसूक्ष्मशरीरमधितिष्ठतः मिच्छत्तस्स पदेसग्गं सम्मत्ते संछहदि तं पदेसगं शुष्कचर्मवत् संकोचनं प्रदेशसंहारः, बादरशरीरमधिमिच्छत्तस्स पदेससंकमो। (कसायपा. चू. पृ. ३९७)। तिष्ठतो जले तैलवत् विसर्पणं विसर्पः । (त. वा. ३. जं पदेसग्गं अण्णपडि संकामिज्जदि एसो ५, १६, १)। पदेससंकमो। (धव. पु. १६, पृ. ४०८)। ४. बि
र छोटे या बड़े वलण-अहापवत्त-गण-सव्वसंकमेहि अण। जं शरीर का अनसरण करना, अर्थात छोटे शरीर के णेइ अण्णपगई पएससंकामणं एयं ।। (पंचसं. सं. क. अनुसार प्रात्मप्रदेशों का संकुचित होकर उसमें ६८); विध्यातसंक्रम उद्वलनासंकमो यथाप्रवृत्त- रहना तथा बड़े शरीर के अनुसार उक्त प्रात्मसंक्रमो गुणसंक्रमः सर्वसंक्रमश्च एतैः पंचभिः संक्रमः प्रदेशों का विस्तृत होकर रहना, इसे प्रदेशसंहारकर्मपरमाणून यन्नयत्यन्यप्रकृतिम्-तत्स्वरूपेण व्यव- विसर्प कहा जाता है। स्थापयति प्रदेशसंक्रमणमेतदुच्यते । (पंचसं. स्वो, वृ. प्रदेशहस्व-सव्वासि पयडीणं सग-सगजहण्णपदेसे सं. क.६८)। ५. यत्कर्मद्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन बंधमाणस्स पदेसरहस्सं । संतं पडुच्च खविदकम्मपरिणाम्यते स प्रदेशसंक्रमः । (स्थाना. अभय. वृ. ४, सियलक्खणेणागंतूण गुणसेडिणिज्जरं काऊण सव्व२, २९६, पृ. २२२)। ६. यत संक्रमप्रायोग्यं जहण्णीकयपदेसस्स पदेसरहस्सं। (धव. पु. १६, प. दलिकम्-कर्मद्रव्यं अन्यप्रकृति नीयते-अन्यप्रकृति- ५११)। रूपतया परिणाम्यते स प्रदेशसंक्रमः । (कर्मप्र. मलय. जो जीव सब प्रकृतियों के अपने अपने जघन्य प्रदेशों - वृ. सं. क. ६०)। ७. परमाणुसंक्रमो हि प्रदेशसंक्रमो को बांध रहा हो उसके प्रदेशह्रस्व होता है, सत्त्व की भवति । XXX परमाणनां च प्रक्षेपणं प्रदेश- अपेक्षा क्षपितकांशिक स्वरूप से प्राकर गणश्रेणिसंक्रमः । (पंचसं. मलय. वृ. सं. क. ३३); विघ्या. निर्जरा के द्वारा जिसने कर्मप्रदेश को सबसे जघन्य तसंक्रमः, उद्वलनसंक्रमः, यथा प्रवृत्तसंक्रमः, गुणसंक्र- कर दिया है उसके प्रदेशह्रस्व होता है। मः, सर्वसंक्रमश्च एतः पंचभिः संक्रमणरणन-कर्म- प्रदेशान-पदेसग्गा अणंताणता प्रायूगकम्मपोग्गला परमाणून-अन्यां प्रकृति नयति-अन्यस्यां पतद्- जेहिं एगमेगो जीवपदेसो वेढियपरिवेढितो। (उत्तरा. ग्रहप्रकृती नीत्वा निवेशयति यत एतत् कर्मपरमाणूनां चू. ५, पृ. १२६) । विध्यातसंक्रमादिभिरन्यप्रकृती नयनम्-प्रदेशंसक्रमणं प्रायुकर्म के उन अनन्तानन्त पुद्गलों को प्रदेशाग्र प्रदेशसंक्रम उच्यते । विध्यातसंक्रमादिभिरणून अन्य- कहा जाता है जो एक एक जीवप्रदेश को वेष्टित प्रकृति यन्नयति स प्रदेशसंक्रमः । (पंचसं. मलय. वृ. करते हैं। सं. क. ६८)।
प्रदेशावीचिकामरण-आयुःसंज्ञितानां पुद्गलानां १ विवक्षित कर्मप्रकृति का जो कर्मद्रव्य अन्य प्रदेशा जघन्यनिषेकादारभ्य एकादिवृद्धिक्रमेणावप्रकृति को प्राप्त कराया जाता है तद्रूप परिण- स्थितवीचय इव तेषां गलनं प्रदेशावीचिकामरणम् । माया जाता है-यह उसका प्रदेशसंक्रम कहलाता (भ. प्रा. विजयो २५) । है। २ जो प्रदेशपिण्ड जिस प्रकृति से अन्य प्रकृति आयुकर्म सम्बन्धी पुद्गलपरमाणुओं के जघन्यको प्राप्त कराया जाता है उसका वह प्रदेशसंक्रम निषेक से लगाकर एक-दो प्रादि की वृद्धि के क्रम कहलाता है। ६ संक्रमण के योग्य जो कर्मप्रदेशपिण्ड जिस किसी विवक्षित प्रकृति से ले जाकर अन्य गलने या झड़ने को प्रदेशावीचिकामरण कहते हैं। प्रकृति के स्वभाव से परिणमित किया जाता है, उसे प्रदेशोदय-तत्रानुदयवतीनां प्रकृतीनामबाधाकाप्रदेशसंक्रमण कहते हैं।
लक्षये सति दलिकं प्रतिसमयमुदयवतीषु मध्ये स्ति
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