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समनस्क]
१०६१, जैन-लक्षणावली
[समभिरूढन
x ॥ (प्रा. पंचसं. १-१७४; गो. जी. ६६२)। शक्तस्य या क्रियेष्टेह सा समन्तानुपातिकी ॥ (त. ४. मनसो द्रव्य-भावभेदस्य सन्निधानात् समनस्काः। श्लो. ६, ५, १५)। ४. समन्तानुपातक्रिया स्त्री(त. श्लो. २-११)। ५. नोइन्द्रियावरणस्यापि पुरुष नपुंसक-पशुसंपातदेशे उपनीयवस्तुत्यागः । (त. क्षयोपशमात् समनस्काः । (पंचा का. ११७)। भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। ५. स्त्री-पुरुष-पश्वाद्यागमन६. गृह्णाति शिक्षते कृत्यमकृत्यं सकल तदा । नाम्ना प्रदेशे मल-मूत्राद्युत्सर्जनं समन्तानुपातन क्रिया । (त. हतः समभ्येति समनस्को xxx ॥ (पंचसं. वृत्ति श्रुत. ६-५) । अमित. ३२०, पृ. ४४) । ७. समस्तशुभाशुभवि- १ जिस स्थान में स्त्री-पुरुष प्रादि के.पाने-जाने का कल्पातीतपरमात्मद्रव्य विलक्षणं नानाविकल्पजालरूपं सम्बन्ध रहता है ऐसे स्थान में भीतरी मल मादि मनो भण्यते, तेन सह ये वर्तन्ते ते समनस्काः ।। का त्याग करना, इसे समन्तानपातनक्रिया कहते हैं । (ब. द्रव्यसं. टी. १२)। ८. पूदगल विपाकिकर्मो- समपदासन-समपदं स्फिपिडसमकरणेणासनम् । दयापेक्षं द्रव्यमनः, वीर्यान्तराय-नोइन्द्रियावरणक्षयोप- (भ. प्रा. विजयो. व मला. २२४) । शमापेक्षया पात्मनो विशुद्धिर्भावग्न, ईवृग्विधेन स्फिच और पिण्ड को समान करके स्थित होना, मनसा वर्तन्ते ये ते समनस्काः । (त. वृत्ति श्रुत. इसे समपद प्रासन कहा जाता है। २-११):
समपाद---१. समपायं नाम दोऽवि पादे सम निरंतरं १ संज्ञी जीवों को समनस्क कहा जाता है। ठवेइ । (प्राव. नि. मलय. व. १०३६, प. २ जिसके प्राश्रय से जीव दीर्घ काल तक स्मरण ५६७) । २. द्वावपि पादो समौ निरतरं यत्स्थापयति रख सकता है तथा भत-भविष्यत के विचार के जानुनी ऊरु चातिसरले करोति तत्समपादम । साथ कर्तव्य कार्य का भी विचार करता है उस (व्यव. भा. मलय, वृ. पी. द्वि. वि. ३५)। संप्रधारण संज्ञा में वर्तमान संज्ञी जीव समनस्क २ दोनों पांवों को अन्तर के विना समरूप में स्था- . होते हैं। वे संज्ञी जीव देव, नारक, मनष्य और पित करके घुटनों और ऊरुषों को अतिशय सरल कितने ही तिथंच भी होते हैं। इस संप्रधारण संज्ञा करने पर समपाद स्थान होता है। के प्राश्रय से ही संज्ञो समझना चाहिए, न कि समभिरूढनय--१. सत्स्वर्थेष्वसङ्क्रमः समभिआहारादि चार संज्ञानों के प्राश्रय से। ३ कार्य के रूढः । (त. भा. १-३५, पृ. १२०); तेषामेव करने के पूर्व जो उसके करने योग्य या न करने साम्प्रतानामध्यवसायासंक्रमो वितर्कध्यानवत् समयोग्य का विचार करता है, तत्त्व-प्रतत्त्व का भी भिरूढः । (त. भा. १-३५, पृ. १२४) । २. नानाविचार करता है, सीखता है, तथा नाम लेने से थंसमभिरोहणात् समभिरूढः । यतो नानार्थान् समपाता है। वह समनस्क-मन से सहित होता है। तीत्यैकमर्थमाभिमुख्येन रूढः समभिरूढः । यथा समनोज्ञ-देखो सम्भोग । १. सम्भोगयुक्ताः सम- गोरित्यय शब्दो वागादिष्वर्थेषु वर्तमानः पशावभिनोज्ञाः । (त. भा. ६-२४) । २. सह वा मनोजर्जा- रूढः । (स. सि. १-३३)। ३. वत्थूप्रो संकमणं नादिभिरिति समनोज्ञाः साम्भोगिका: साधवः । होइ अवत्थू नए समभिरूढ । (अनुयो. गा..१३६, प. (स्थानां. अभय. वृ. १७४) ।
२६४) । ४. ज ज सण्णं भासइ तं तं चिय समभि१ बारह प्रकार के संभोग से जो सहित होते हैं वे रोहए जम्हा। सण्णंतरत्थविमुहो तो नम्रो समसमनोज्ञ कहलाते हैं। अथवा जो मनोज्ञ ज्ञानादि से भिरूढोत्ति । (विशेषा. २७२७)। ५.नानार्थसमभिसाहित होते हैं उन्हें समनोज्ञ कहा जाता है। रोहणात्समभिरूढः। यतो नानार्थान् समतीत्यकमर्थसमन्तानुपातनक्रिया--१. स्त्री-पुरुष-पशुसम्पा- माभिमुख्येन रूढस्ततः समभिरूढः। कुतः ? वस्त्वतिदेशेऽन्तर्मलोत्सर्गकरणं समन्तानुपातनक्रिया। (स. · न्तरासंक्रमेण तन्निष्ठत्वात् । (त. वा. १,३३, १०)। सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ६)। २. स्त्री-पुंस-पशु- ६. नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढः । (त. भा. संपातिदेशेऽन्तर्मलमोक्षणम । क्रिया साधुजनायोग्या हरि. व. १-३५; अनयो. हरि. व. प. १०८)। सा समन्तानुपातिनी ॥ (ह. पु. ५८-७२)। ७. नानाथरोहणात्समभिरूढः । xxx नानार्थस्य ३. स्त्र्यादिसंपातिदेशेऽन्तमलोत्सर्गः प्रमादिनः । भावः नानार्थता, तां समभिरूढत्वात्समभिरूढः ।
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