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हस्तग्रहणान्तराय] १२१३, जन-लक्षणावलो
[हिरण्य १ दो वितस्तियों---चौबीस अंगुलों-का एक हस्त चित् परजनविकाररूपमवलोक्य त्वाकर्ण्य च हास्याहोता है।
भिधाननोकषायसमुपजनितमीषच्छुभमिश्रितमप्यशुभहस्तग्रहणान्तराय--१. xxx करेण वा कर्मकारणं पुरुषमखविकारजनितं हास्यकर्म। (नि. (किंचि गहणं) जं च भूमीए ॥ (मला. ६-८०)। सा.व. ६२) । ६. हास्याविर्भावफलं हास्यम् । २. Xxx पाणिना पुनः । हस्तग्रहणमादाने (भ. प्रा. मूला. २०६५)। ७. हास्यं वर्करादिस्वमुक्तिविघ्नोऽन्तिमो मुनेः ॥ (अन. प. ५-५८)। रूपं यदुदयादाविर्भवति तद्धास्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ यदि मुनि आहार के समय पृथिवी पर से हाथ ८-६)। के द्वारा कुछ ग्रहण करते हैं तो यह उनके लिए १ जिस कर्म के उदय से हास्य का प्राविर्भाव होता करग्रहण या हस्तग्रहण नामक भोजन का अन्तराय है उसे हास्य नोकषाय कहते हैं । २ जिसके उदय से होता है। यह बत्तीस भोजनान्तरायों में अन्तिम है। जीव के हास्य का कारणभूत राग उत्पन्न होता है हस्तपादादिसंस्कार-१ शोभार्थ हस्त-पादादि- उसका नाम हास्य हैं। ३ जिसके उदय से सकारण प्रक्षालनम् औषधविलेपनादिर्वा संस्कार आदि- या अकारण भी प्राणी रंगभूमि में पाए हुए नट के शब्देन गृहीतः । (भ. प्रा. विजयो. ६३) । २. शो- समान हँसता है उसे हास्य नोकषाय कहा जाता है । भार्थ प्रक्षालनमोषवलेपनादिकं च हस्त-पादादि- हास्यमोहनीय-यदयात सनिमित्तमनिमित्तं वा संस्कारः। (भ. प्रा. मला. ६३)।
हसति स्म हासयते वा तत् हास्यमोहनीयम् । (प्रज्ञाप. १ सुन्दरता के लिए हाथ-पांवों आदि को धोना मलय. व. २६३, प. ४६६) । अथवा औषध का लेपन प्रादि करना, यह सब हस्त- जिसके उदय से सनिमित्त या निमित्त हँसा जाता पादादिसंस्कार कहलाता है।
है वह हास्य मोहनीय कर्म है। हंससमानशिष्य -यथा हसः क्षीरमुदकमिश्रितमपि
हितनोग्रागमद्रव्यपेज्ज - व्याध्युपशमनहेतुर्द्रव्यं उदकमपहाय क्षीरमापिबति तथा शिष्योऽपि यो
हितम् । (जयध. १, पृ. २७१) । गुरोरनुपयोगादिसम्भवान् दोषानवधूय गुणानेव
व्याधि की उपशान्ति के कारणभूत द्रव्य का नाम केवलानादते स हंससमानः । (प्राव. नि. मलय. व.
हितनोप्रागमद्रव्यपेज्ज है। १३६, पृ. १४३)। जिस प्रजार हंस पानी से मिश्रित दूध को उस पानी
हितप्रदानविनय-परिणामकादीनां यत् यत् यस्य से पृथक् करके पीता है उसी प्रकार जो शिष्य गुरु के
भवति योग्यं तत्तु तस्य हितं सूत्रतोऽर्थतश्च ददाति । अनुपयोग प्रादि से सम्भव दोषों को दूर करके केवल
एष हितप्रदानविनयः । (व्यव. भा. मलय. वृ. गणों को ही ग्रहण किया करता है वह हंस समान
१०-३१३)।
परिणामक प्रादिकों में जो जो जिसके योग्य है शिष्य कहलाता है।
उसके लिए सूत्र से व अर्थ से उसे देना, इसे हितहास्य--१. यस्योदयाद्धास्याविर्भावस्तद्धास्यम् ।(स. सि. ८-६; त. वा. ८, ९, ४)। २. हसनं हासः,
प्रदानविनय कहा जाता है। जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण हस्सणिमित्तो जीवस्स हितभाषण - मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम् । रागो उप्पज्जइ तस्स कम्मक्खंघस्स हस्सोत्ति सण्णा। (त. वा. ६, ६, ५) । (धव. पु. ६, पृ. ४७); जस्स कम्मस्स उदएण जिस भाषण का प्रमुख फल मोक्ष पद की प्राप्ति प्रणयविहो हासो समुप्पज्जदितं कम्मं हस्सं णाम। रहता है उसे हितभाषण कहा जाता है । (धव. पु. १३, पृ. ३६१) । ३. हास्यनोकषायमो- हिरण्य--१. हिरण्यं रूप्यादिव्यवहारतन्त्रम् । (स. होदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति स्मयते रङ्गा- सि. ७-२६; त. वा. ७-२९) । २. हिरण्यं रूप्यवतीर्णनटवत् । (त. भा. सिद्ध. व. ८-१०)। ताम्रादिघटितद्रव्यव्यवहारप्रवर्तनम् । (कार्तिके. टी. ४. हसनं हासो यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन हास्यनि- ३४०) । मित्तो जीवस्य राग उत्पद्यते तस्य हास इति संज्ञा। जिसके प्राधीन रुपया प्रादि का व्यवहार चलता (मूला. वृ. १२-१९२) । ५. क्वचित्कदाचित्कि- है उसे हिरण्य कहा जाता है। २ जो चांदी अथवा
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