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________________ भट्टारक] ८३३, जन-लक्षणावली [भय (नोकषायविशेष) करिष्यतीति हेतोः । किमुक्तं भवति ? एष तावद्भ- पु. ६, पृ. २५२) । जते-अनुवर्तते मां सेवायां पतितो वर्तते ममेत्यर्थः, युक्तिपूर्वक समाधान करके पूर्वापर विरोध का परिअग्रे च मम भजनं करिष्यत्यसौ, ततश्चाहमपि वन्द- हार करते हुए सिद्धान्तगत समस्त पदार्थों की जो नसत्कं निहोरकं निबेशयामीत्याभिप्रायेण वा यत्र व्याख्या की जाती है उसका नाम भद्रा व्याख्या है। वन्दते तद्भजमानवन्दनकमभिधीयते । (प्रव, सारो. यह चार प्रकार की वाचना में दूसरी है। वृ. १६२)। भद्रासन-सम्पुटीकृत्य मुष्काग्रे तलपादौ तथोपरि। १ यह मेरी सेवा करता है व आगे भी मेरी सेवा पाणिकच्छपिकां कुर्यात् यत्र भद्रासनं तु तत् ।। करेगा; इस कारण से हे प्राचार्य, मैं आपको (योगशा. ४-१३०)।। बन्दना करता हुमा अण्डकोश के प्रागे दोनों पांवों के तलभाग को मिला रक स्थापित करते हए जो वन्दना की जाती है वह कर ऊपर हाथों की कच्छपिका के करने पर भद्राभजमानवन्दनक दोष से दूषित होती है यह ३२ सन होता है ।। वन्दनादोषों में १२वां दोष है। भय-देखो भयसंज्ञा । १. परचक्कादो भयं णाम । भट्टारक-१. सर्वशास्त्रकलाभिज्ञो नानागच्छाभि- (धव. पु. १३, पृ. ३३६)। २. सनिमित्तमनिमित्तं वर्द्धकः । महामनाः प्रभाभावी भट्टारक इतीष्यते। वा यद् विभेति तद् भयम् । (बृहत्क. क्षेम. व. (नी. सा. १८) । २. भट्टान् पण्डितान् अरयति ८३१) । प्रेरयतीति भट्टारकः । (जिनसह. प्राशा. टी. ३-६, १ शत्रुके प्राक्रमण आदि का नाम भय है । २ किसी पृ. १५५)। निमित्त अथवा विना निमित्त के भी जो भीति १ जो समस्त शास्त्रों एवं कलाओं से परिचित व (डर) उत्पन्न होती है उसे भय कहा जाता है । अनेक गच्छों का बढ़ाने वाला है, ऐसे प्रभावशाली भय (नोकषाय विशेष)-१. यदुदयादुद्वेगस्तद्भमहामनस्वी को भट्टारक कहा जाता है। २ जो भट्ट यम्। (स. सि. ८-९; त. वा. ८, ९, ४)। अर्थात् पण्डितों को प्रेरित किया करता है उसका २. भीतिर्भयम्, जेहिं कम्मक्खंधेहिं उदयमागदेहि नाम भट्टारक है। ___ जीवस्स भयमुप्पज्जइ तेसि भयमिदि सण्णा । (धव. भद्र-१. भाति शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितु- पु. ६, पृ. ४७); जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स श्चित्तनिर्वृत्तिमिति भद्रः, स एव भद्रकः । (उत्तरा. सत्त भयाणि समुप्पज्जति तं कम्मं भयं णाम । नि. शा. वृ. ६४, पृ. ४६) । २. कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्म (धव. पु. १३, पृ. ३६१) । ३. भीतिर्यस्माद् बिभेति लघुकर्मतयाऽद्विषन् । भद्रःXxx(सा. घ. १.६)। वा भयम्, यैः कर्मस्कन्धरुदयमागतैर्जीवस्य भय१जो अपने गणों से सशोभित होता हया प्रेरक के मत्पद्यते तेषां भयमिति संज्ञा। (मला. व. १२, चित्त को निवृत्ति को देता है वह भद्र कहलाता है। १९२)। ४. येन सनिमित्तमनिमित्तं वा बिभेति २ जो मिथ्या धर्म में अवस्थित रहकर भी कर्म की तद्भयमोहनीयम् । (शतक. मल. हेम, वृ. ३८)। अल्पता से समीचीन धर्म से द्वेष नहीं करता है उसे ५. यदुदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा बिभेति तद् भयभद्र कहा जाता है। वेदनीयम् । (कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. ८४)। भद्रा प्रतिमा-भद्रा पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं प्रह- ६. यदुदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा भयमुपगच्छति रचतुष्टयकायोत्सर्गकरणरूपा अहोरात्रद्वयमानेति । तत् भयवेदनीयम् । (धर्मसं. मलय. बू. ६१५) । (स्थाना. अभय, वृ. २,३,८४) । ७. यदुदयवशात् सनिमित्तमनिमित्तं वा तथारूपस्वपूर्वादि चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में दो दिन संकल्पतो बिभेति तद्भयमोहनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. रात प्रमाण चार प्रहर तक कायोत्सर्ग करना, वृ. २३-२६३, पृ. ४६६; पंचसं. मलय. वृ. ३-५, इसका नाम भद्रा प्रतिमा है। पृ. ११३)। ८. यदुदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा भद्रा व्याख्या-युक्तिमिः प्रत्यवस्थाय पूर्वापरवि- तथा रूपस्वसंकल्पतः "जीवस्य इह १ परलोया २ रोधपरिहारेण तत्रस्थाशेषार्थव्याख्या भद्रा। (धव. ऽऽदाण ३ मकम्हा ४ आजीव ५ मरण ६ मसिलोय ल. १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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