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हिसानुबन्धी] १२१६ जैन-लक्षणावली
हीयमान अवधि उन्हें सन्ताप देना और कठोर दण्ड देना, इत्यादि न्यूनाभ्यां ददाति अधिकाभ्यां गृह्णाति हीनाधिक. हिसानन्दरौद्रध्यान के लक्षण हैं।
मानोन्मानमुच्यते । त. वृत्ति श्रुत. ७-२७)। ६. केतुं हिसानुबन्धी-देखो हिंसानन्दरौद्रध्यान । हिंसा मानाधिकं मानं विक्रेतुं न्यूनमात्रकम् । होनाधिक मा. सत्त्वानां बघ-बन्धनादिभिःप्रकारैः पीडाम अनुबध्नाति नोन्माननामातीचारसंज्ञकः ।। (लाटीसं.६-५४)। सततप्रवृत्तं करोतीत्येवशीलं यत्प्रणिधानं हिंसानु- प्रस्थ (एक धान्य का मापविशेष) आदि मान और बन्धो वा यत्रास्ति तद्धिसानुबन्धि रौद्रध्यानमिति । तराज प्रादि उन्मान कहलाते हैं। हीन मान-उन्मान (स्थाना. अभय. व. २४७) ।
के प्राषय से दूसरे को देना तथा अधिक मान बध-बन्धन प्रादि विविध उपायों से प्राणियों को उन्मान के प्राश्रय से दूसरे से लेना, इस प्रकार की पीडा पहुंचाने रूप हिंसा में स्वभावतः निरन्तर घोखादेही का नाम होनाधिक मानोन्मान है। यह प्रवृत्त रहना, इसे हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान कहते हैं। प्रचौर्याणवत का एक प्रतीचार है। अथवा जहां भी हिंसा का सम्बन्ध रहता है उसे हीयमान अवधि---- १. अपरोऽवधिः परिच्छन्नोहिंसानबन्धी रौद्रध्यान कहा जाता है।
पादानसन्तत्य ग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेहिंसाप्रदान-देखो हिंसादान ।
शपरिणाम द्धियोगाद्यपरिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते हिंसोपकारिदान --देखो हिंसादान ।
श्रा अङ गुलस्यासंख्येयभागात् । (स. सि. १-२२; हिनप्रदान-हिस्रस्य खड्गादेः प्रदानम् अन्यस्यार्पण त. वा. १, २२, ४)। २. किण्हपक्खचंदमंडलं निष्प्रयोजनमेवेति हिंस्रप्रदानम् । (प्रोपपा. अभय. व जमोहिणाणमुप्पण्णं संत वाड्ढ अवट्ठाणेहि वृ. ४०, पृ. १०१)।
विणा हायमाणं चेव होदूण गच्छदि जाव दूसरे के लिए निष्प्रयोजन हिंसाजनक खड़ा आदि णिस्सेसं विणटठ ति तं हायमाणं णाम। (धव. पु. का देना, इसे हिस्रप्रदान अनर्थदण्ड कहा जाता है। १३, पृ. २६३)। ३. हीयमानोऽवधि: शुद्धे हीयहीनदोष-.--१. ग्रन्थार्थ-काल-प्रमाण रहितां वन्दनां मानत्वतो मतः । सद्देशावधिरेवात्र हाने सद्धावयः करोति तस्य हीनदोषः । (मूला. वसु. व. सिद्धितः ॥ (त. श्लो. १, २२, १४)। ४. तत्र ७-१०६) । २. हीनं न्यूनाधिक Xxx ॥ तथाविधसामग्रयभावत: पूर्वावस्थातो हानिमपगच्छन (अन. ध. ८-१०६) ।
हीयमानक:। उक्तं च हीयमाणयं पुवावत्थातो १ ग्रन्थ, अर्थ और काल प्रमाण से रहित वन्दना के अहोहो हस्समाणति । होयमानक: पूर्वावस्थातोकरने पर हीन दोष होता है। यह वन्दना के ३२ ऽधोधो हानिमुपगच्छन्नभिधीयते । (प्रज्ञाप. मलय, दोषों के अन्तर्गत है।
वृ. ३१७, पृ ५३८-३९) । ५. यत्कृष्णपक्षचन्द्रहीनाधिकमानोन्मान-१. प्रस्थादि मानम्, तुला- मण्डलमिव स्वक्षयपर्यन्तं हीयते तत् हीयमानम् । द्युन्मानम्, एतेन न्यूनेनान्यस्मै देयमधिकेनात्मनो (गो. जी म. प्र. व जी. प्र. ३७२) । ६. कश्चिदग्राह्यमित्येवमादिकूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मानम् । वधिः सम्यग्दर्शनादिगुणहान्याऽऽर्त-रौद्रपरिणाम(स. सि. ७-२७; त. वा. ७, २७, ४; चा. सा. वृद्धिसंयोगात् यावत्परिमाण उत्पन्नस्तस्माद् हीयते पृ. ६) । २. कूटप्रस्थ-तुलादिभिः क्रय-विक्रयप्रयोगो अगुलस्यासंख्येयभागो यावत् नियतेन्धनसन्ततिसहोनाधिकमानोन्मानः। (त. वा. ७, २७, ४)। लग्न वह्निज्वालावत । (त. वत्ति श्रत.१-२२) ३. न्यूनेन मानादिनाऽन्यस्मै ददाति, अधिकेनात्मनो १ उत्तरोत्तर हानि को प्राप्त होने वाली उपादानगृह्णातीत्येवमादिकूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मान- सन्तति – इन्धन को परम्परा से.- जिस प्रकार अग्नि मित्यर्थः । (सा. ध. स्वो. टी. ४-५०)। ४. मानं उत्तरोत्तर हानि को प्राप्त होती है उसी प्रकार हि प्रस्थादि, उन्मानं तुलादि, तच्च हीनाधिकं हीने- सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि और सक्लेश परिणाम नान्यस्मै ददाति अधिकेन स्वयं गृह्णातीति । (रत्न- की वृद्धि के योग से जो अवधिज्ञान जिस प्रमाण क. टी. ३-१२)। ५. प्रस्थ: चतुसेरमानम्, तत् में उत्पन्न हुआ था उससे उत्तरोत्तर हानि को काष्ठादिना घटित मानमुच्यते, उन्मानं तु तुला- ही प्राप्त होता जाता है वह होयमान अवधिज्ञान मानम्, मानं चोन्मानं च मानोन्मानम् एताभ्यां कहलाता है।
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