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मिश्रयोनि ]
मिक | पंचसंयोग १ - श्रौदयिक - श्रौपशमिकक्षायिक- क्षायोपशमिक-पारिणामिक (४+६+ ४+१=१५) ।
मिश्रयोनि - १. मिश्रा (योनि) जीवविप्रमुक्ताविप्रमुक्तस्वरूपा । (प्रज्ञाप. मलय. बृ. १५१, पृ. २२६)। २. सचित्ताचित्तयोगे तद्योनेमिश्रत्वमाहितम् । ( लोकप्र. ३ - ५५ ) ।
१ जो योनि जीवप्रदेशों से रहित व उनसे सहित भी होती है उसे मिश्र (सचित्ता चित्त ) योनि कहते हैं ।
मिश्रवचन - तदेव बाध्यमानाबाध्यमानं मिश्रम् । ( श्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. पू. ७९ ) । जो वचन वस्तु के साधक अथवा बाधक रूप से प्रमाणान्तरों से बाधित श्रौर अबाधित भी बोला जाता वह मिश्र ( सत्य - मृषा ) वचन कहलाता है। मिश्रवेदनीय - १. मिश्रग्रहणात् सम्यग्मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते यत्तत् सम्यक्त्व - मिथ्यात्ववेदनीयम् । ( श्रा. प्र. टी. १५ ) । २. यत्तु मिश्ररूपेण जिनप्रणीततत्त्वेषु न श्रद्धानं नापि निन्देत्येवंलक्षणेन वेद्यते तन्मिश्रवेदनीयम् । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४६८) ।
१ मिश्र से अभिप्राय सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय का है । जो सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप से अनुभव में श्राता है उसे मिश्र ( सम्यक्त्व - मिथ्यात्व) वेदनीय कहते हैं ।
मिश्रसम्यक्त्व - श्रनन्तानुबन्धिचतुष्क - मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वानां षण्णामुदयक्षयात् सद्रूपमशमात् सम्यक्त्वनाम मिथ्यात्वस्य देशघातिनो न तु सर्वधा - तिनः उदयात् मिश्रसम्यक्त्वं भवति । (त. वृत्ति श्रुत. २ - ५ ) ।
६२५, जैन- लक्षणावलां
क्रोधादिरूप चार अनन्तानुबन्धी, मिथ्यात्व श्रौर सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयक्षय और सदवस्थारूप उपशम से तथा सम्यक्त्व नामक दर्शनमोहनीय के देशघाति स्पर्धकों के उदय से मिश्र ( क्षायोपशमिक ) सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । मिश्रसंयुक्तकद्रव्यसंयोग - इदमुक्तं भवति - जीवो ह्यनन्तकर्माणुवर्गणाभिरावेष्टित प्रवेष्टितोऽपि न स्वरूपं चैतन्यमतिवर्तते न चार्चतन्यं कर्माणव इति तद्युक्ततया विवक्ष्यमाणोऽसौ संयुक्तकमिश्रद्रव्यम्, ततोऽस्य कर्म प्रदेशान्तरैः संयोगो मिश्रसंयुक्तकद्रव्य
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[मिश्रानुकम्पा
संयोग उच्यते । ( उत्तरा. नि. शा. वृ. ३४, पृ. २५ )।
जीव कर्म की अनन्त परमाणुवर्गणानों से श्रावेष्टित प्रवेष्टित होता हुआ भी अपना जो चैतन्य स्वरूप है उसका प्रतिक्रमण नहीं करता है, इसी प्रकार कर्मपरमाणु भी अपने प्रचेतनात्मक स्वरूप का प्रतिक्रमण नहीं करते हैं, इस कारण कर्मपरमाणुवगंणानों से युक्त जो उसकी विवक्षा की जाती है वह संयुक्तकमिश्रद्रव्य है । इसलिए उसका जो कर्मप्रदेशान्तरों से संयोग है उसे मिश्रसंयुक्तकद्रव्य कहा जाता है । मिश्रसंयुक्तद्रव्यसंयोग - इदाणि मीमसंजुत्त दव्वसंजोगा - सच जीव- कर्मणोः, तयोः स्थानादिसंयोगे सति यदुपचीयते स मिश्रसंयुक्तसंगोगो भवति । यथा धातवः सुवर्णादी स्वेन स्वेन भावेन परस्परसंयोगेन संयुक्ता भवन्ति, अथर्वतेषां क्रमेण पृथग्भावो भवति, अन्यत् किटं अन्यच्च सुवर्ण, एवं गृहाण जीवस्यापि मनतिकर्मणाना दिसयुक्तसयोगो भवनि, स च यदा निरुद्धयोगाश्रवो भवति तदा जीव-कर्मणोः पृथक्त्वं भवति । (उत्तरा चू. पृ. १६-१७) । स्थान आदि का सयोग होने पर जो उपचय को प्राप्त होता है वह मिश्रसंयुक्तसंयोग कहलाता है, वह जीव और कर्म में हुआ करता है । जिस प्रकार सुवर्णादि धातुएं अपने-अपने परिणाम से परस्पर के संयोग से संयुक्त होती हैं, अथवा इनकी क्रम से पृथक्ता ( लगाव ) होती है-कीट भिन्न है और सुवर्ण भिन्न है । इसी प्रकार जीव का भी परम्परागत कर्म के साथ अनादि संयुक्तसंयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। जब उस जीव के योगाश्रवों का निरोध हो जाता है तब जीव और कर्म की पृथक्ता हो जाती है ।
मिश्रानुकम्पा - १. मिश्रानुकम्पोच्यते - पृथुपापकर्ममूलेभ्यो हितादिभ्यो व्यावृत्ताः सन्तोष- वैराग्यपरमनिरताः दिग्विरति देशविरति अनर्थदण्डविरति चोपगतास्तीव्रदोषाद् भोगोपभोगान्निवृत्य शेषे च भोगे कृतप्रमाणाः पापात् परिभीतचित्ताः विशिष्ट - देशे काले च विवर्जितसर्वसावद्याः पर्वस्वारम्भयोगं सकलं विसृज्य उपवासं ये कुर्वन्ति तेषु संयतासंयतेषु क्रियमाणानुकम्पा मिश्रानुकम्पोच्यते । ( भ. प्रा. विजयो. १८३४) । २. यद्वत्संयतासंयतेषु जिनसूत्र
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