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स्थान] ११८५, जैन-लक्षणावली
[स्थानाङ्ग चोलपट्ट के सम्मिलित करने पर चौदह प्रकार की जाता है । उपधि वाला स्थविकल्प होता है। २ पाँच प्रकार स्थानक्रिया एकपाद-समपादादिका स्थानक्रिया। के वस्त्रों का परित्याग करके दिगम्बर होना, प्रति- (भ. प्रा. विजयो. व मूला. पृ.८६)। लेखन (पिच्छी) रखना, पाँच महाव्रतों का धारण कायोत्सर्ग में एक पाद अथवा समपादरूप से स्थित करना, बिना याचना के योग्य समय में भक्तिपूर्वक होना, इसे स्थानक्रिया कहा जाता है। दिए गये भोजन को खड़े रहकर हाथों के द्वारा
स्थानसमुत्कीर्तन ---तिष्ठत्यस्यां संख्यायामस्मिन् दिन में एक ही बार ग्रहण करना, दोनों प्रकार के
वा अवस्थाविशेषे प्रकृतय इति स्थानम् । ठाणं ठिदि तप में उद्यत रहना, छह प्रावश्यकों का निरन्तर
अवट्ठाणमिदि एयट्ठो । समुविकत्तणं परूवणमिदि पालन करना, पथिवी पर सोना, केशलोंच करना,
उत्त होदि । ठाणस्स समुक्कित्तणा ठाणसमुक्कित्तणा। जिनेन्द्ररूप का ग्रहण करना; दुषमा काल के प्रभाव
(धव. पु. ६, पृ. ७६)। से हीन संहनन होने के कारण पुर, नगर अथवा
जिस संख्या में प्रथवा अवस्थाविशेष में कर्मप्रकृतियां गांव में रहना; जिससे चारित्र भंग न हो ऐसे उपकरण को रखना, जो जिसके योग्य हो उसे पुस्तक
रहती हैं उसका नाम स्थान है, समत्कीर्तन का अर्थ
वर्णन करना है, इस प्रकार जिस अधिकार में उक्त देना. समुदाय में विहार करना, शक्ति के अनुसार
स्थान की प्ररूपणा की गई है उसका नाम स्थानधर्म की प्रभावना करना, भव्यों को धर्म सुनाना
समत्कीर्तना है। यह षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड. तथा शिष्यों का पालन करना; यह सब स्थविर
स्वरूप जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में दूसरी है। कल्प है।
स्थानाड-१. से कि तं ठाणे ? ठाणे णं ससमया स्थान--१. उप्पत्तिहेऊ ठाणं । (धव. पु. ५. प.
ठाविज्जति परसमया ठाविज्जति ससमय-परसमया १८६); एगजीवम्मि एककम्हि समए जो दीसदि
ठाविज्जति जीवा ठाविज्जति अजीवा ठाविज्जति कम्माणभागो तं ठाणं णाम। (धव. पू. १२, प.
जीवाजीवा० लोगा० अलोगा. लोगालोगा ठावि१११); समुद्रावरुद्धः वज: स्थानं नाम, निम्नगाव
ज्जति। ठाणे णं दव्व-गुण-खेत-काल-पज्जव-पयत्थाणं रुद्धं वा । (धव. पु. १३, पृ. ३३६) । २. स्थानमव
सेला सलिला य समुद्दा सर-भवण विमाण-पागारगाहनालक्षणम् । (प्राव. भा. मलय. व. २०५, प.
णदीपो। णिहिलो पुरिसज्जाया सरा य गोत्ता य ५९४) । ३. तिष्ठन्ति स्वाध्यायव्यापृता अस्मिन्निति
जोइसंचाला ॥१॥ एक्क विहवत्तव्वयं दुविह जाव स्थानम् । (व्यव. भा. मलय.वृ. पृ. ५४)।
दसविहवत्तब्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगड्राइंच प्रसंग के अनसार स्थान के लक्षण अनेक देखे णं परूवणया प्राधविज्जति, ठाणस्स णं परित्ता जाते हैं । यथा --- ५ उत्पत्ति के हेतु का नाम स्थान वायणा ..... से त्तं ठाणे। (समवा. १३८) । है। यह प्रोवयिक भाव के प्रसंग में कहा गया है। २.से कि तं ठाणे? आणे णं जीवा ठाविज्जति प्रकृत स्थान की अपेक्षा उसके गति-लिगादिरूप पाठ अजीवा ठाविज्जति [जीवाजीवा ठाविज्जति सभेद निदिष्ट किए गये हैं। एक जीव में एक समय समए ठाविज्जइ परसमए ठाविज्जइ ससमय-परमें जो कर्म का प्रनभाग दिखता है उसका नाम समए ठाविज्जइ लोए ठाविज्जइ अलोए ठाविज्जइ स्थान है। यह अनुभागाध्यवसानस्थान की प्ररूपणा लोयालोए ठाविज्जइ । ठाणे णं टंका कडा सेला के प्रसंग में कहा गया है। समद्र व नदी से अवरुद्ध सिहरिणो पब्भारा कुंडाइं गृहाम्रो प्रागरा दहा व्रज (गायों के स्थान) को स्थान कहा जाता है। नईप्रोप्राधविज्जति । ठाणे णं परिता वायणा".... यह मनःपर्ययज्ञान के विषय के प्रसंग में कहा गया से तं ठाणे ॥३॥(नन्दी. सू. ८९)। ३. स्थाने अनेका. है । २ स्थान का लक्षण अवगाहना है । यह पर्याय- श्रयाणामर्थानां निर्णयः क्रियते । (त. वा. १, २०, लोक के प्रसंग में कहा गया है। ३ स्वाध्याय में १२) । ४. यत्रकादीनि पर्यायान्तराणि वर्ण्यन्ते तत प्रवृत्त होकर जहाँ अवस्थित होते हैं उसे स्थान कहा स्थानम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. १-२०)।
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