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जैन लक्षणावली
भगवती आराधना (८२५-२९) में असत्य के चार भेद कहे गये हैं-- (१) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पदार्थ के सत् होते हुए भी अपनी बुद्धि से विचार न करके उसका प्रतिषेध करना । जैसे - यहां घट नहीं है । इत्यादि प्रकार के वचन को प्रथम असत्य जानना चाहिये । इसे भूतनित्त्व या सदपलाप कहा जा सकता है । (२) जो प्रसद्भूत है - जिसका होना सम्भव नहीं है उसके उद्भावन को द्वितीय असत्य कहा गया है । जैसे -- देवों का अकाल में मरण होता है । अथवा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से असत् ( श्रविद्यमान ) उसका विचार न करके उसके अस्तित्व को प्रगट करना । जैसे - यहां घट है । इत्यादि प्रकार का वचन । इसे प्रभूतोद्भावन या असदुद्भावन कहा जा सकता है । ( ३ ) एक जाति का जो पदार्थ विद्यमान है उसे प्रविचारपूर्वक अन्य जाति का बतलाना । जैसे- गाय को घोड़ा कहना । इत्यादि प्रकार के वचन को तीसरा असत्य कहा गया है । इसे अर्थान्तर वचन कहा जा सकता है । जो वचन गर्हित, सावद्य संयुक्त प्रथवा अप्रिय है उसे चौथा श्रसत्य माना गया है । इन गर्हित आदि वचनों का सोदाहरण लक्षण भी वहां प्रगट किया गया है।
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ध्यानशतक की हरिभद्र सूरि विरचित वृत्ति ( २० ) में द्वितीय रौद्र ध्यान के प्रसंग में पिशुन, असभ्य, असद्भुत और भूतघात इन असत्य वचनों की व्याख्या करते हुए पूर्वोक्त त भाष्य ( देखिये प्र. भाग की प्रस्तावना पृ. ७९) के अनुसार असद्भुत को अभूतोद्भावन, भूतनिह्नव, और अर्थान्तर के भेद से तीन प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। यहां क्रम से उन तीनों के लिए ये उदाहरण दिये गये हैं - यह आत्मा सर्वगत है, आत्मा है ही नहीं, तथा गाय को अश्व कहना । इनके अतिरिक्त यहां मूल में निर्दिष्ट पूर्वोक्त पिशुन, असभ्य और भूतघात इन असत्य वचनों के स्वरूप को भी प्रगट किया गया है ।
पूर्वोक्त भ. प्राराधना के अनुसार पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ( ६१-१०० ) में भी प्रकृत असत्य वचन के वे ही चार भेद स्वरूपनिर्देश के साथ उपलब्ध होते हैं । विशेष इतना है कि भ. आ. में जहां प्रथम व द्वितीय असत्य वचनों का स्वरूप दो दो विकल्पों में निर्दिष्ट किया गया है वहां पु. सि. में उनके विषय में कोई विकल्प न करके सामान्य से भ. प्रा. गत द्वितीय विकल्प को ही अपनाया गया है तथा उदाहरण भी क्रम से देवदत्त व घट के दिये गये हैं । इतनी विशेषता यहां और भी है कि प्रकृत असत्य वचन व चौर्य कर्म आदि सभी पापों को वहां हिंसा का रूप दिया गया है ।
सागारधर्मामृत (४, ३६-४५ ) में सत्याणुव्रत के प्रसंग में सत्याणुव्रती को कन्यालीक, गायविषयक लीक, पृथिवीविषयक अलीक, कूटसाक्ष्य और न्यासापलाप इन पांच असत्य वचनों के परित्याग के साथ जो सत्य वचन स्व और पर को आपत्ति जनक है ऐसे सत्य वचन का भी परित्याग कराया गया है। इसमें जो कन्यादिविषयक पांच असत्य वचनों का परित्याग कराया गया है उसका आधार सम्भवतः श्रावकप्रज्ञप्ति की २६०वीं गाथा रही है । इस प्रसंग में यहां सामान्य से वचन के इन चार भेदों का निर्देश किया गया है - सत्य - सत्य, सत्याश्रित असत्य, असत्याश्रित सत्य और असत्यासत्य । इनका स्वरूप वहां संक्षेप में इस प्रकार कहा गया है - जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकार में प्रतिज्ञात है उसके विषय में उसी प्रकार के कथन को सत्यसत्य कहा जाता है । वस्त्र बुनो, भात पकाओ, इत्यादि प्रकार के वचन को सत्याश्रित असत्य माना गया है। विवक्षित वस्तु को प्रयोजनवश किसी अन्य से लेकर जितने समय में उसे वापिस कर देने की प्रतिज्ञा की थी उतने समय में न देकर कुछ काल के बाद उसे वापिस करने पर तीसरा सत्याश्रितसत्य वचन होता है । जो वस्तु अपने पास नहीं है 'उसे मैं कल दूंगा' इस प्रकार के वचन का नाम श्रसत्यासत्य । यह वचन लोक व्यवहारका विरोधी होने से सत्याणुव्रती के लिये सर्वथा हेय कहा गया है, शेष प्रथम तीन वचनों का प्रयोग वह कर सकता है ।
समभिरूढ़ नव - जैन सम्प्रदाय में नयों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । विविध जैन ग्रन्थों में उनका विस्तार से विवेचन किया गया है। कहीं-कहीं तो वह जटिल और दुरूह भी हो गया है। इसके अतिरिक्त तद्विषयक मतभेद भी कुछ परस्पर में हो गया है । प्रकृत में समभिरूढ़नयविषयक विचार विविध ग्रन्थों में जिस प्रकार से किया गया है उसका दिग्दर्शन यहां कराया जाता है ।
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