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प्रकृतिबन्ध ]
प्रकृतयः श्रंशा भेदाः ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ तासां प्रकृतेर्वा श्रविशेषितस्य कर्मणो बन्धः प्रकृतिबन्धः । ( स्थाना. अभय वृ. ४, २,२६६ ) । ११. कार्मणवर्गणागतपुद्गलानां ज्ञानावरणादिभावेन परिणामः प्रकृतिबन्धः । (मूला. वृ. ५-४७ ) ; प्रकृतिर्ज्ञानावरणादिस्वरूपेण पुद्गलपरिणामः । (मला. वृ. १२- ३ ) । १२. ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मणां तत्तद्योग्यपुद् गलद्रव्यस्वीकारः प्रकृतिबन्धः । (नि. सा. वृ. १-४०)। १३. रसः स्नेहोऽनुभाग इत्येकार्थः, तस्य प्रकृति: स्वभाव:, अविशेषिताऽविवक्षिता रसप्रकृतिः, उपलक्षणत्वात् स्थित्यादयोऽपि यस्मिन्नविवक्षिता: स बन्धोऽविशेषित रस प्रकृतिः प्रकृतिबन्धो ज्ञातव्यः । ( कर्मप्र. मलय. वृ. १ - २४, पृ. ६६ ) । १४. ज्ञानावरणाद्यात्मा प्रकृतिः X X X | (अन. ध. २-३६ ) । १५. यः पुनस्तत्समुदायः -- स्थित्यनुभाग- प्रदेशसमुदाय:- स प्रकृतिबन्ध: । (पंचस. मलय. वृ. बं. क. ४०; कर्मवि. दे. स्वो वृ. २; शतक. दे. स्वो वृ. २१) । १६. प्रकृतिः समुदायः स्यात् X XX। ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. २, उद्.; शतक. दे. स्वो वृ. २१ उद्) । १७. प्रकृतिस्तत्स्वभावात्मा ×××। ( पञ्चाध्यायी २-९३३) ।
१ तीव्र-मन्द अथवा शुभाशुभरूप विशेषता से रहित रस की प्रकृति - अनुभाग के स्वभाव को-प्रकृतिबन्ध कहते हैं । ५ प्रकृति नाम स्वभाव का है, जैसे नीम की प्रकृति तिक्तता अथवा गुड़ की प्रकृति मधुरता । इस प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मों की जो ज्ञानादि के प्रावरणरूप प्रकृति है उसे प्रकृतिबन्ध कहा जाता है ।
प्रकृतिमरण - एवमेकस्यायुष्कर्मण एकैव प्रकृतिरुदेत्येकस्यात्मनस्तस्मादेकै कायुष्क प्रकृतिगलन रूपमिव मृतिमुपैति । तदेतत्प्रकृतिमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ. ८६ ) ।
एक जीब के एक ही प्रयुकर्म की प्रकृति उदय को प्राप्त होती है। इसी से जीव एक प्रायुकर्म को प्रकृति के गलनेरूप मृत्यु को प्राप्त होता है । यही प्रकृतिमरण है । प्रकृतिमोक्ष- - जा पयडी णिज्जरिज्जदि अण्णपर्याड वा संकामिज्जदि एसो पर्याडिमोक्खो णाम । ( धव. पु. १६, पृ. ३३७ ) ।
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७३१, जैन - लक्षणावली
[ प्रकृतिस्थानसंक्रम
जो प्रकृति निर्जीर्ण होती है अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणत होती है, इसका नाम प्रकृतिमोक्ष है । प्रकृतिसंक्रम - १. जा पयडी अण्णपर्याड णिज्जदि एसो पकिमो | ( धव. पु. १६, पृ. ३४० ) । २. एकस्यां प्रकृतावेका संक्रामति यदा तदा प्रकृतिसंक्रमः प्रकृतिप्रतिग्रहता चेति । (पंचसं च. स्वो. वृ. सं. क. ४) । ३. यां प्रकृति बध्नाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थं दलिकं वीर्यविशेषेण यत्परिणमयति स सङ्क्रमः । ( स्थाना. श्रभय. वृ. ४, २, २६) । ४. तत्र यदा एका प्रतिरेकस्यां प्रकृतौ संक्रामति यथा सातमसाते, असातं वा साते, तदा या संक्रामति सा प्रकृतिसंक्रमः । (पंचसं मलय. वू. सं. क. ४); पतद्ग्रहरूपतापादनं प्रकृतिसंक्रमः । ( पंचसं. मलय. वृ. सं. क. ३३) ।
१ जो प्रकृति अन्य प्रकृतिरूपता को प्राप्त करायी जाती है, यह प्रकृतिसंक्रम कहलाता है । ४ जब एक प्रकृति श्रन्य एक प्रकृति में संक्रमण को प्राप्त होती है - जैसे साता असाता में प्रथवा असाता साता में, इत्यादि - तब जो संक्रान्त होती है उसे प्रकृतिसंक्रम कहा जाता है । प्रकृतिस्थान- द्वि-त्रादीनां प्रकृतीनां समुदायः प्रकृतिस्थानम् । (पंचतं. मलय. वृ. सं. क. ४) । दो तीन आदि प्रकृतियों के समुदाय को प्रकृतिस्थान कहते हैं । प्रकृतिस्थानपतद्ग्रह - यदा तु प्रभूतासु प्रकृतिस्वेका संक्रामति, यथा मिथ्यात्वं सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्वयोः, तदा प्रकृतिस्थानपतद्ग्रहः । ( पंचसं. मलय. वू. सं. क. ४) ।
जब बहुत सी प्रकृतियों में एक प्रकृति संक्रमण को प्राप्त होती है, जैसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व में एक मिथ्यात्व प्रकृति, तब वह प्रकृतिस्थानपतद्ग्रह कहलाता है ।
प्रकृतिस्थानसंक्रम-तत्र यदा प्रभूता प्रकृतय एकस्यां संक्रामन्ति यथा यशः कीर्तावकस्यां शेषा नामप्रकृतयः, तदा प्रकृतिस्थानसंक्रमः । ( पंचसं मलय. वृ. सं. क. ४) ।
जब एक प्रकृति में बहुत सी प्रकृतियां संक्रमण को प्राप्त होती हैं, जैसे एक यशःकीर्ति में शेष नाम कर्मप्रकृतियां, तब वह प्रकृतिस्थान संक्रम कहलाता है ।
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