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मिश्रचारित्र ]
अगृहीत पुद्गलों के एक साथ ग्रहण करने के काल को मिश्रग्रहणाद्धा कहते हैं । मिश्रचारित्र - देखो क्षायोपशमिक चारित्र । अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यान- प्रत्यख्यानलक्षणानां द्वादशानां कषायाणां उदयस्य क्षये सति विद्यमानलक्षणोपशमे सति संज्वलनचतुष्काऽन्यतमस्य देशघातिनश्चोदये सति हास्य रत्य रति-शोक-भय- जुगुप्सा स्त्री-पुंनपुंसक - वेदलक्षणानां नवानां नोकषायाणां यथासंभवमुदये च सति मिश्रं चारित्रम् । (त. वृत्ति श्रुत. २-५) । अनन्तानुबन्धी, श्रप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान रूप बारह कषायों का उदयक्षय, उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम, देशघाती चार संज्वलनों में से किसी एक का उदय तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद रूप नो नोकषायों का यथासम्भव उदय होने पर जो चारित्र होता है उसे मिश्रचारित्र कहते हैं मिश्रजात - १. मिश्रजातं च - श्रादित एव गृहिसंयत-मिश्रोपस्कृतरूपम् । ( वशवै. गा. हरि. वृ. ५५, पृ. १७४) । २. यदात्मनो हेतोर्गृहस्थेन यावदर्थिका दितोश्च मिलितमारभ्यते तन्मिश्रम् | ( गु. गु. षट्. स्व. वृ. २०, पृ. ४८ ) ।
१ प्रारम्भ में ही जो भोजन गृहस्थ और साधु दोनों के लिए मिश्रित रूप में पकाया गया हो वह मिश्रजात नामक दोष से दूषित होता है । यह १६ उद्गम दोषों में चौथा है ।
मिश्रदर्शन - देखो मिश्रगुणस्थान | सम्यक्त्व-मिध्यात्वयोगान्मुहूर्त मिश्र दर्शनः । (योगशा. स्वो. विव. १-१६, पृ. १११ उद्.) । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के योग से जो एक मुहूर्त मिश्रित श्रद्धान होता है उसे मिश्रदर्शन या सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं । मिश्रवर्णनमोहनीय रागं नवि जिणघम्मे णवि दोस जाइ जस्स उदएणं । सो मीसस्स विवागो अंतमुत्तं भवे कालं || (कर्मवि. ३८ ) | जिस कर्म के उदय से जीव जैन धर्म के विषय में न तो राग को प्राप्त होता है और न द्वेष को भी प्राप्त होता है उसे मिश्रदर्शनमोहनीय (सम्यग्मिथ्यास्व का विपाक (परिणाम) जानना चाहिए । मिश्रदृष्ट-यस्यां जिनोक्ततत्वेषु न रागो नापि मत्सरः । सम्यग्मिथ्यात्वसंज्ञा सा मिश्रदृष्टि: प्र
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६२३, जैन-लक्षणावली
[मिश्रद्रव्यसंयोग
कीर्तिता ।। ( लोकप्र. ४-६६६ ) ।
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जिस दृष्टि में जिन प्ररूपित तत्त्वों में न तो राग होता है और न मत्सरभाव भी होता है उसे मिश्रदृष्टि कहा जाता है । मिश्रदोष- - १. पासंडेहि य सद्धं सागारेहिं य जदण्णमुद्दि सियं । दादुमिदि संजदाणं सिद्धं मिस्सं वियाणाहि ॥ ( मूला. ६-१० ) । २. पाषण्डिनां गृहस्थानां वा क्रियमाणे गृहे पश्चात्संयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रणेन निष्पादितं वेश्म मिश्रम् । (भ. प्रा. विजयो. २३० ) । ३. संयतासंयताद्यर्थमादेरारम्याहारपरिपाको मिश्रम् । (प्राचा. सू. शी. वृ. २, १, २६६ ) । ४. मिश्रसंगे हि पाखण्डियतिभ्यो द्वितीयते । (प्राचा. सा. ८- २५) । ५. यदात्मार्थं साध्वर्थं चादित एव मिश्रं पच्यते तम्मिश्रम् | ( योगशा. स्वो विव. १-३८) । ६. पाषण्डिभिर्गृहस्थैश्च सह दातुं प्रकल्पितम् । यतिभ्यः प्रासुकं सिद्धमप्पन्नं मिश्रमिष्यते ॥ ( श्रन. घ. ५-१० ) । ७. पाषण्डिनां गृहस्थानां वा सम्बन्धितत्वेन क्रियमाणे गृहे पश्चात् संयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रणेन निष्पादितं वेश्म मिश्रम् । ( भ. प्रा. मूला. २३० ) । ८. यत् प्रासुकेन मिश्रं तन्मिश्रम् । XXX षड्जीवसम्मिश्रं मिश्रः । ( भावप्रा. टी. ६६, पृ. २४६ व २५२) । १ पाखण्डियों और गृहस्थों के साथ संयतों के देने के लिए जो भोजन तैयार किया गया है वह मिश्र नामक उद्गमदोष से दूषित होता है । मिश्रद्रव्यवेदना - मिस्सदव्ववेदणा दव्वं । ( धव. पु. १०, पृ. ७) । संसारी जीव द्रव्य को मिश्रनोकर्म-नोश्रागमद्रव्यवेदना कहा जाता है ।
संसारिजीव
मिश्रद्रव्यसंयोग - १. से कि तं मीसए ? हले हालिए सगदेणं सागडिए रहेणं रहिए नावाए नात्रिए, से तं मिसए से तं दब्वसंजोगे | (अनुयो. सू. १३६, पृ. १४४) । २. इदाणि मीस संजुत्तदब्वसंजोगो, स च जीव-कर्मणोः, तयोः स्थानादिसंयोगे सति यदुपचीयते स मिश्रसंयुक्तसंयोगो भवति । ( उत्तरा. चू. पृ. १६) ।
१ हल से हालिक ( हलवाहा ) शकट से शाकटिक, रथ से रथिक और नाव से नाविक; इत्यादि संयोग का नाम मिश्रद्रव्यसंयोग है । २ जीव और कर्म में जो उनके स्थान प्रादि का संयोग होने पर उपचय
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