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सचित्तचतुष्पदद्रव्योपक्रम] १०७८, जैन-लक्षणावली
[सचित्तयोनि प्रौदयिक, प्रौपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और तेन सह वर्तते सचित्तम्, सचित्ते कदलीदलोलूकपर्णपारिणामिक इन भावों से जो जीव का सम्बन्ध पद्मपत्रादौ निक्षेपः सचित्तनिक्षेपः। (त. वृत्ति श्रुत. होता है वह सचित्तगुणयोग कहलाता है। ७-३६)। ७. सचित्ते पद्मपत्रादौ निक्षेपोऽन्नादिसचित्तचतुष्पदद्रव्योपक्रम- सचित्तचतुष्पदद्रव्यो- वस्तुनः । दोषः सचित्तनिक्षेपो भवेदन्वर्थसंज्ञकः ।। पक्रमो यथा हस्त्यादेः शिक्षाद्यापादनम् । (व्यव. भा. (लाटीसं. ६-२२७) । मलय. व. पृ. १)।
१ सचित्त कमलपत्र प्रादि के ऊपर देने योग्य भोज्य चार पांव वाले हाथी प्रादि के लिए शिक्षा प्रादि वस्तु के रखने पर सचित्तनिक्षेप नाम का अतिथि. देने को सचित्तचतुष्पदद्रव्योपक्रम कहते हैं। संविभागवत का अतिचार होता है। ३ नहीं देने सचित्तद्रव्यपूजा-प्रत्यक्षमहदादीनां सचित्तार्चा के विचार से सचित्त ब्रीहि प्रादि में अन्न आदि के जलादिभिः । (धर्मसं. श्रा. ६-६२)।
रखने को सचित्तनिक्षेपण कहा जाता है। प्रत्यक्ष में जल प्रादि के द्वारा जो प्ररहन्त आदि की सचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक - सचित्तनोकम्मदव्वपूजा की जाती है, इसे सचित्तद्रव्य-अर्चा या सचित्त- बंधया जहा हत्थीणं बंधया अस्साणं बंधया इच्चेवद्रव्यपूजा कहते हैं।
मादि । (धव. पु. ७, पृ. ४)। सचित्तद्रव्यभाव-केवलणाण-दसणादिग्रो सचित्त- हाथी और घोड़े आदि के बांधने वालों को सचित्तदवभावो। (धव. पु. १२, प. २)।
नोकर्मद्रव्यबन्धक कहा जाता है । केवलज्ञान-दर्शन प्रादि को सचित्तद्रव्यभाव कहते हैं। सचित्तनोकर्मप्रक्रम-अस्साणं हत्थीणं पक्कमो सचित्तद्रव्यवेदना-सचित्तदव्ववेयणा सिद्धजीव- सचित्तपक्कमो णाम । (घव. पु. १५, पृ. १५)। दव्वं । (धव. पु. १०, पृ. ७)।
घोड़ों और हाथियों के प्रक्रम को सचित्तनोकर्मप्रसिद्ध जीव द्रव्य को सचित्तद्रव्यवेदना कहा जाता है। क्रम कहते हैं। सचित्तद्रव्यस्पर्शन-सचित्ताणं दवाणं जो संजो- सचित्तपरिग्रह-सह चित्तेन सचित्तं द्विपद-चतुपो सो सचित्तदवफोसणं । (धव. पु. ४, प. पदादि, तदेव परिग्रहः । (प्राव. हरि. व. अ. ६, १४३)।
पृ. ८२५)। सचित्त द्रव्यों का जो संयोग है उसे सचित्तद्रव्यस्प- दो पांव वाले मनुष्य प्रादि को तथा चार पांवों शन कहते हैं।
वाले हाथी-घोड़े प्रादि को सचित्त (चेतन) परिग्रह सचित्तद्विपदद्रव्योपक्रम-सचित्तद्विपदद्रव्योपक्रमो माना गया है। यथा पुरुषस्य वर्णादिकरणं । (व्यव. भा. मलय. वृ. सचित्तपिधान-देखो सचित्तापिधान । १. सचिपृ. १)।
त्तपिधान सचित्तेन फलादिना पिघानं स्थगमनम् । दो पाँव वाले पुरुष के वर्ण आदि के करने को (श्रा. प्र. टी. ३२७)। २. तथा तेन सचित्तेन सूरणसचित्तद्विपदद्रव्योपक्रम कहा जाता है।
कन्द-पत्र-पुष्प-फलादिना तथाविधयव बद्धया पिधत्ते सचित्तनिक्षेपण -देखो सचित्तक्षेपण। १. सचित्ते इति द्वितीय:। (योगशा. स्वो. विव. ३-११६)। पद्मपत्रादी निक्षेपः सचित्तनिक्षेपः । (स. सि. ७, १ देय वस्तु को न देने के विचार से सचित्त फल ३६) । २. सचित्ते निक्षेपः सचित्तनिक्षेपः। x प्रादि से आच्छादित करके रखना, यह अतिथि. xx सचित्ते पद्मपत्रादौ निधानं निक्षेपः इत्युच्यते। संविभागवत को मलिन करने वाला उसका एक (त. वा. ७, ३६, १) । ३. सचित्तनिक्षेपणं सचित्तेषु अतिचार है। ब्रीह्यादिषु निक्षेपणमन्नादेरदेयबुद्धया मातृ स्थानतः। सचित्तमंगल-सचित्तमर्हदादीनामनाद्यनिधनजीव(श्रा. प्र. टी. ३२७) । ४. सचित्ते पद्मपत्रादौ द्रव्यम् । (धव. पु. १, प. २८)। निधानं सचित्तनिक्षेपः । (चा. सा. पृ. १४)। ५. अरहन्त आदि के अनादि-अनन्त जीव द्रव्य को सचित्तनिक्षेप:-सचित्ते सजीवे पृथिवी-जल-कुम्भोप- सचित्त लोकोत्तर द्रव्यमंगल कहा जाता है। (चुल्लि) भुबल्लिधान्यादौ निक्षेपो देयस्य वस्तुनः सचित्तयोनि-देखो सचित्त । प्रात्मनश्चैतन्यवि. स्थापनम् । (सा. घ. स्वो. टी. ५-५४)। ६. चि. शेषपरिणामश्चित्तम, सह चित्तेन वर्तत इति सचि
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