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स्थूलस्तेय] ११६८, जैन-लक्षणावली
[स्निग्ध नामकर्म यंरूपत्वादविघातकाः ॥ (म. पु. २४-१५२; जम्ब. घातिकर्माणः केवलिनः स्नातकाः। ज्ञानावरणादिच. ३-५१)।
घातिकर्मक्षयादाविर्भूतकेवलज्ञानाद्यतिशयविभूतयः स१ जो छाया, प्रातप (धूप), अन्धकार प्रौर: चांदनी योगिशले शिनो लब्धास्पदा: केवलिनः स्नातकाः ।
ग्राह्य होकर भी ग्रहण (त. वा. ६, ४६, ५)। ४. प्रक्षीणघातिकर्माणः नहीं किये जा सकते हैं उन्हें स्थलसूक्ष्म कहा जाता स्नातकाः केवलीश्वराः ॥ (ह. पु. ६४-६४) ।
५. सह योगेन सयोगः त्रयोदशगूणस्थानतिनो निर. स्थूलस्तेय -स्थूलं चौरादिव्यपदेशनिबन्धनं स्तेयम्। स्तघातिकर्मचतुष्टयाः केवलिनः स्नातकाः, प्रक्षालित. (योगशा. स्वो. विव. २-६५) ।
सकलघातिकर्ममलपटला इत्यर्थः। (त. भा. सिद्ध. जिस अपहरण से चोर कहलाते हैं ऐसे परकीय वस्तु वृ. ६-४८); स्नातकाः सयोगायोगकेवलिनः। (त. के अपहरण को स्थूल स्तेय कहा जाता है। भा सिद्ध, वृ. ६-४६) । ६. ज्ञानावरणादिधातिकर्मस्थूलस्थूल -- १. भूम्यद्रि-वन-जीमूत-विमान-भव- क्षयादाविर्भूतकेवलज्ञानाद्यतिशयविभतयः सयोगिनादयः । कृत्रिमाकृत्रिमद्रव्यं स्थूलस्थूलमुदाहृतम् ॥ शैलेशिनो नवलब्धास्पदाः केवलिनः स्नातकाः । (वरांगच. २६-१६) । २. स्थूलस्थूलः पथिव्यादि- (चा. सा. पृ. ४५)। ७. तीर्थकरकेवलीतरकेवलि. भैद्यः स्कन्धः प्रकीर्तितः ॥ (म. पु. २४-१५ भेदाद् द्विप्रकारा अपि केवलिन: स्नातका: उच्यन्ते । जम्बू..च. ३-५२)।
(त. वृत्ति श्रुत. ६-४६) । १. पृथिवी, पर्वत, वन, मेघ, विमान और भवन १ जिनके घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे दोनों पादि जो कृत्रिम और प्रकृत्रिम द्रव्य हैं उन्हें स्थूल -सयोग व प्रयोग--केवलियों को स्नातक कहा स्थूल कहा गया है।
जाता है। २ सयोग केवलो और शैलेशी अवस्था स्थैर्य --- १. स्थैर्य पुनः अभ्युपगतापरित्यागः। (वय- को प्राप्त (प्रयोग) केवली स्नातक कहलाते हैं। के नि. हरि. वृ. ५७)। २. स्थैर्य तु जिनशासने स्निग्ध-१. बाह्याभ्यन्तरकारणवशाद स्नेहपर्यायानिष्पकम्पता। (ध्यानश. हरि.. ३२) । ३. स्थर्य विर्भावात स्निह्यते स्मेति स्निग्धः। (स.सि. ५-३३)। जिनधर्म प्रति चलितचित्तस्य परस्य स्थिरस्वापादनं २. स्नेहपर्यायाविर्भावात स्निह्यते स्मेति स्निग्धः । स्वयं वा परतीधिकद्धिदर्शनेऽपि जिनशासनं प्रति बाह्याभ्यन्तरकारणवशात स्नेहपर्यायाविर्भावात् स्निनिष्प्रकम्पता। (योगशा. स्वो. विव. २-१६)। हते स्मेति स्निग्धः । (त. वा. ५, ३३, १)। ३. १. स्वीकृत को न छोड़ना, इसका नाम स्थर्य है। संयोगे सति संयोगिनां बन्धकारणं स्निग्धः । (मनु३ जिसका चित्त धर्म के प्रति चलायमान हो रहा है योः हरि. व. पृ. ६०; त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२३)। ऐसे दूसरे को उसमें स्थिर करना अथवा स्वयं ४. स्निह्यति स्म. बहिरभ्यन्तरकारणद्वयवशात् स्नेह. मिथ्यावृष्टियों की ऋषिके देखने पर भी जिन- पर्यायप्रादुर्भावाचिक्कणः संजातः स्निग्ध इत्युच्यते । शासन के प्रति अडिग रहना, इसे स्थैर्य कहा जाता (त. वृत्ति श्रुत. ५-३३)। है। यह सम्यक्त्व के पांच भूषणों में प्रथम है। १ बाह्य और अभ्यन्तर दोनों कारणों के वश स्नेह स्थौल्य---देखो स्थूल । स्थूलयते परियति, स्थू. पर्याय के प्रादुर्भूत होने से जो स्नेह को प्राप्त हो ल्यतेऽसी, स्थूल्यतेऽनेन, स्थूलनमात्र स्थूलः, स्थूलस्य चुका है उसका नाम स्निग्ध है । ३ जो स्पर्श संयोग भावः कर्म वा स्थौल्यम् । तिः वा. ५-२४)। के होने पर संयोगी पदार्थों के बन्ध का कारण होता जो बढ़ता है. या जिसके द्वारा स्थूल किया जाता है है उसे स्मिाष कहते हैं। वह स्थूल कहलाता है। स्थूल के भाव का अयना स्निग्ध नामकर्म-एवं सेसफासाणं पि प्रत्यो क्रिया का नाम स्थूल या स्थौल्य है।
वत्तव्यो (जस्स. कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं स्नातक -१. प्रक्षीणघातिकर्माणः केवलिनो द्वि- णिद्धभावो होदि तं णिद्धं णाम)। (धव. पु. ६, पृ. विधा: स्नालकाः। (स. सि. ६-४६; त. श्लो. ७५)। 8-४६) । २. सयोगाः शैलेशीप्रतिपन्नाश्च केवलिनः जिस.कर्म के उदय से शरीरगत पूर्वगलों के स्निायता स्नातका इति । (त. भा.१-४८)। ३. प्रक्षीण होती है उसे स्निग्ध नामकर्म कहते हैं।
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