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[वर्ष
वर्तमान काल]
९८५, जैन-लक्षणावलो वर्तमान काल-१. यद् द्रव्यं क्रियापरिणतं काल. ३-१२४)। परमाणुं प्राप्नोति तद् द्रव्यं तेन कालेन वर्तमानसमय- भगवान के जन्म से लेकर आगे उत्तरोत्तर ज्ञानादि स्थितिसंबन्धवर्तनया वर्तमानः कालः । कालाणुरपि गुणों से वृद्धिगत होने के कारण तथा गर्भ में वर्तयंस्तद्रव्यमन तिक्रान्तसम्बन्धवर्तनात् तदाख्यो स्थित रहने पर ज्ञातकुल धन-धान्य प्रादि से वृद्धि भवति । (त. वा. ५, २२, २५)। २. घडिज्जमाणो को प्राप्त हग्रा इसलिए भी चौबीसवें तीर्थकर वर्धबट्टमाणो। (चव. पु. ३, पृ. २६) ।
मान इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हए। १ जो द्रव्य क्रिया से परिणत होकर कालपरमाणु वर्धमानप्रवधि-१. अपरोऽवधिः परणिनिर्मथनोको प्राप्त होता है वह द्रव्य उस काल से वर्तमान त्पन्नशुष्कपर्णोचीयमानेन्धननिचयसमिद्धपावकवत् समय की स्थिति के सम्बन्ध रूप वर्तना के निमित्त सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धिपरिणामसन्निधानाद्यत्परिसे वर्तमान काल कहलाता है। साथ ही उस द्रव्य माण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते प्रा असंख्येयलोकेभ्यः । को वर्ताने वाला कालाणु भी अनतिकान्त सम्बग्ध (स. सि. १-२२; त. वा. १, २२, ४) । २. जमो. के वर्तन से वर्तमान काल कहलाता है। २ जो प्रस्थ हिणाणमुप्पण्णं संतं सुक्कपक्खचंदमंडलं व समयं मादि वन रहा है उसे वर्तमान प्रस्थ आदि कहा पडि प्रवट्ठाणेण विणा वड्ढमाणं गच्छदि जाव जाता है।
अप्पणो उक्कस्सं पाविदूण उवरिमसमए केवलणाणे वर्तमाननगम-१. पारद्धा जा किरिया पयण- समुप्पण्णे विणठं ति तं वड्ढमाणं णाम । (धव. पु. विहाणादि कह ह जो सिद्धा। लोए य पुच्छमाणे तं १३, पृ. २६३) । ३. वर्द्धमानोऽवधिः कश्चिद्विशुद्धे भण्णइ वट्टमाणणयं ।। (ल. नयच. ३४) । २. कर्तु वृद्धितः स तु । देशावधिरिहाम्नातः परमावधिरेव मारब्धमीषन्निष्परमनिष्पन्नं वा वस्तु निष्पन्नवत्क- च ॥ (त. श्लो. १, २२, १३)। ४. यत् शुक्लथ्यते यत्र स वर्तमाननगमो यथा प्रोदनः पच्यते। पक्षचन्द्रमण्डलमिव स्वोत्कृष्टपर्यन्तं वर्धते तद्वर्धमा. (पालापप. प. १३८)। ३. पारद्धा जा किरिया नम्। (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३७२)। ५. पचणविहाणादि कहइ जो सिद्धा । लोएसु पुच्छमाणो कश्चिदवधि: सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धिपरिणामसंनिभण्णइ तं वट्टमाणणयं ॥ (द्रव्यस्व. प्र. नयच. धाने सति यावत्परिमाण उत्पन्नस्तस्मादधिकाधिको २०७)। ४. संप्रतिकालाविष्टं वस्तु इदानीं वर्त- वर्द्धते असंख्येयलोकपर्यन्तम् अरणिकाष्ठनिर्मन्थनोदमानकालाविष्टं पदार्थ साधयति स वर्तमाननै गमः। भूतशुष्कपर्णोपवर्द्धमानेन्धनराशिप्रज्ज्वलितहिरण्यरेअथवा कर्त्तमारब्धं ईषनिष्पन्नम अनिष्पन्न वा वस्तू तोवत् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२२) । निष्पन्नवत् कथ्यते यत्र स वर्तमाननगमः, यथा १ जिस प्रकार अरणि (वृक्षविशेष) के संघर्षण से मोदनं पच्यते । (कातिके. टी. २७१) ।
उत्पन्न हुई अग्नि सूखे पत्तों रूप संचित इंधन को १ जो पचन आदि क्रिया प्रारम्भ की गई है उसे पाकर उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होती है उसी जन के पूछने पर जो नय 'सिद्ध (निष्पन्न)' कहता। प्रकार सम्यग्दर्शनादि गुणों के विशुद्धिरूप परिणाम है उसे वर्तमान नंगमनय कहते हैं।
की समीपता से जो अवधिज्ञान जितने प्रमाण में वर्तमान-नोआगम-ज्ञायकशरीर-द्रव्यभाव- उत्पन्न हुआ है उससे असंख्यात लोक पर्यन्त चूंकि भावपाहुडपज्जायपरिणदजीवेण जमेगीभूदं सरीरं तं उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है अतः वह वर्धमान प्रववट्टमाणं णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८४)। धिज्ञान कहलाता है। जो शरीर भावप्राभत पर्याय से परिणत जीव के वर्ष----१.xxx अयणदुगेणं वरिसोxxxii साथ एकोमूत हो रहा है उसे वर्तमान-नोग्राग-ज्ञायक- (ति. प. ४-२८६) । २. वर्ष तथा द्वे अयने वदन्ति शरीर-द्रव्यभाव कहा जाता है।
सख्याविभागक्रमकौशलज्ञाः ।। (बरांगच. २७-६) । वर्द्धमान-उत्पत्तेरारभ्य ज्ञानादिभिर्वर्धत इति वर्ध- ३. द्वादशमासं वर्षम् । (धव. पु. ४, पृ. ३२०)। मानः, तथा भगवति गर्भस्थे ज्ञातकूलं धन-धान्यादि- ४.xxx अयणजयलेण होइ वरिसेक्को। (भावसं. भिर्वर्धत इति वर्धमानः । (योगशा. स्वो. विव. ३१५) । ५. अयनद्वयं वर्ष मिति । (पंचा. का. जय.
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