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लोकवाद ]
पढ़ना - सती होना प्रादि-इत्यादि प्रज्ञानतापूर्ण क्रियाओं को लोकमूढता कहा जाता है । लोकवाद - लोयपसिद्धी सत्था पंचाली पंचपंड. वत्थी ही । सइउट्टिया ण रुज्झद्द मिलिदेहि सुरेहि दुव्वारा ॥ ( अंगप. २ - ३३, पृ. २८२ ) । द्रौपदी पांच पाण्डवों की स्त्री थी, इत्यादि लोकप्रसिद्धि को लोकवाद कहा जाता है। ऐसी दुर्वार प्रसिद्धि एक बार उठी कि उसका रोकना देवों द्वारा भी कठिन हो जाता है । लोकविचय- देखो संस्थानविचय । प्रकृत्रिमो विचित्रात्मा मध्ये च त्रसराजिमान् । मरुत्रयीवृतो लोकः प्रान्ते तद्धामनिष्ठितः ।। ( उपासका ६५६) । यह लोक प्रकृत्रिम है-किसी ब्रह्मा आदि के द्वारा रचा नहीं गया है, उसका स्वरूप विचित्र है - वह अनेक प्राकृतियों में विभक्त है, वह मध्य में त्रसराजि-- त्रस जीवों युक्त त्रसनाली-से सहित है, तीन वातवलयों से वेष्टित है और अन्त में सिद्धों के स्थान से परिपूर्ण है; इत्यादि प्रकार से लोक के विषय में जो चिन्तन किया जाता है वह लोकविचय धर्मध्यान कहलाता है । लोकाकाश-देखो लोक । १. पोग्गल-जीवणिबद्धो घम्माधम्मात्थिकाय- कालड्ढो । वट्टदि श्रायासे जो लोगो सो सव्वकाले दु || ( प्रव. सा. २-३६) । २. सव्वेसि जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च । जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि श्रायासं ॥ जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणा । (पंचा. का. ६०-६१) । ३. लोश्रो अकिट्टिमो खलु अणाइणि सहावणपणो । जीवाजीवेहि भुडो णिच्चो तालरुक्ख संठाणो ॥ धम्माधम्मागासा गदिरागदि जीव- पुग्गलाणं च । जावत्तावल्लोगो Xx X X॥ (मूला. ८ २२ - २३ ) । ४. धम्माधम्मणिबद्धा गदिरागदी जीव-पोग्गलाणं च । जेत्तियमेत्ताप्रासे लोयामास स णादव्वो । लोयायासद्वाणं सयंपहाणं सदव्वछक्कं हु । सव्वमलोयायासं तं सव्वासं हवे नियमा ॥ ( ति प १, १३४ - ३५) । ५. धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक इति । (स. सि. ५ - १२ ) । ६. द्रव्यंस्तु पञ्चभिर्व्याप्य लोकाकाशं प्रतिष्ठितम् । ( वरांगच. २६-३२ ) । ७. यत्र- पुण्यपापफललोकनं स लोकः । पुण्य-पापयोः कर्मणोः फलं सुख-दुःख लक्षणं यत्रा - ( यत्र ) लोक्यते स लोकः ।
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[लोकानुप्रेक्षा
कः पुनरसी ? श्रात्मा । लोकयतीति वा लोकः । लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोकः । × × × लोक्यत इति वा लोकः । सर्वज्ञेनानन्ताऽप्रतिहतकेवलदर्शनेन लोक्यते यः स लोकः । तेन धर्मादीनामपि लोकत्वं सिद्धम् । (त. वा. ५, १२, १०-१३ ) । ८. असंख्येयप्रदेशात्मा लोकाकाशविमिश्रितः । कालः पञ्चास्तिकायाश्च सप्रपंचा इहाखिलाः ॥ लोक्यन्ते येन तेनायं लोक इत्यभिलप्यते । (ह. पु. ४-५, व ४–६) । ε. सव्वायासमणतं तस्स य बहुमज्भसंद्वियो लोभो । सो केवि णेव को ण य घरिश्रो हरि-हरा दीहि ॥ श्रण्णोष्णपवेसेण य दव्वाणं श्रच्छणं भवे लो | (कार्तिके. ११५-१६ ) ; दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ । ( कार्तिके. १२१) । १०. यत्र धर्माधर्म- जीव- पुद्गलानां सम्भवोऽस्ति तल्लोकाकाशम् । (योगशा. स्वो विव. ४, ६७) । ११. पुद्गलादिपदार्थानामवगा है कलक्षणः । लोकाकाशः स्मृतो व्यापी XXX ॥ ( धर्मश. २१-८६ ) । १२. लोकस्य सम्बन्धी प्राकाशः लोकाकाशः । (त. वृत्ति श्रुत. ५ - १२) |
१ जो जीव और पुद्गलों से सम्बद्ध तथा धर्म व अधर्म अस्तिकायों एवं काल से व्याप्त होकर सदा प्रकाश में रहता है उसे लोकाकाश कहा जाता है । ५ जहां धर्मादि द्रव्य देखे जाते हैं उसका नाम लोकाकाश है । ७ जिसमें पुण्य पाप कर्मों का सुखदुःख रूप फल देखा जाता है वह लोक कहलाता है । इस निरुक्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा होता है । अथवा जो समस्त पदार्थों को लोकता है — देखता है - उसे लोक जानना चाहिए । इस निरुक्ति के अनुसार भी लोक शब्द से श्रात्मा का ही ग्रहण होता है । प्रथवा सर्वज्ञ केवलदर्शन के द्वारा जिसको लोकते हैं - देखते हैं, उसे लोक माना जाता है । इस निरुक्ति के अनुसार धर्मादि द्रव्यों के भी लोकरूपता सिद्ध है ।
लोकाख्यान - लोकोद्देश- निरुक्त्यादिवर्णनं यत्सविस्तरम् । लोकाख्यानं तदाम्नातं विशोषितदिगन्तरम् ।। ( म. पु. ४-४)।
पुराणों में जो लोक के उद्देश और निरुक्ति श्रादि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता है उसे लोकाख्यान कहा जाता है । लोकानुप्रेक्षा- देखो लोक । १. जीवादिपयद्वाणं
६७३, जैन - लक्षणावली
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